Category Archives: Pra Rajendra Jgyasu JI

ऐसे दिलजले उपदेशक!

ऐसे दिलजले उपदेशक!

बहुत पुरानी बात है। देश का विभाजन अभी हुआ ही था। करनाल ज़िला के तंगौड़ ग्राम में आर्यसमाज का उत्सव था। पं0 शान्तिप्रकाशजी शास्त्रार्थ महारथी, पण्डित श्री मुनीश्वरदेवजी आदि

कई मूर्धन्य विद्वान् तथा पण्डित श्री तेजभानुजी भजनोपदेशक वहाँ पहुँचे। कुछ ऐसे वातावरण बन गया कि उत्सव सफल होता न दीखा। पण्डित श्री शान्तिप्रकाशजी ने अपनी दूरदर्शिता तथा अनुभव से यह भाँप लिया कि पण्डित श्री ओज़्प्रकाशजी वर्मा के आने से ही उत्सव जम सकता है अन्यथा इतने विद्वानों का आना सब व्यर्थ रहेगा।

पण्डित श्री तेजभानुजी को रातों-रात वहाँ से साईकिल पर भेजा गया। पण्डित ओज़्प्रकाशजी वर्मा शाहबाद के आस-पास ही कहीं प्रचार कर रहे थे। पण्डित तेजभानु रात को वहाँ पहुँचे।

वर्माजी को साईकल पर बिठाकर तंगौड़ पहुँचे। वर्माजी के भजनोपदेश को सुनकर वहाँ की जनता बदल गई। वातावरण अनुकूल बन गया। लोगों ने और विद्वानों को भी श्रद्धा से सुना।

प्रत्येक आर्य को अपने हृदय से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि ज़्या ऋषि के वेदोक्त विचारों के प्रसार के लिए हममें पण्डित तेजभानुजी जैसी तड़प है? ज़्या आर्यसमाज की शोभा के लिए हम

दिन-रात एक करने को तैयार हैं। श्री ओज़्प्रकाशजी वर्मा की यह लगन हम सबके लिए अनुकरणीय है। स्मरण रहे कि पण्डित तेजभानुजी 18-19 वर्ष के थे, जब शीश तली पर धरकर हैदराबाद सत्याग्रह के लिए घर से चल पड़े थे। अपने घर से सहस्रों मील की दूरी पर धर्म तथा जाति की रक्षा के लिए जाने का साहस हर कोई नहीं बटोर सकता। देश-धर्म के लिए तड़प रखनेवाला हृदय ईश्वर हमें भी दे। तंगौड़ में कोई धूर्त उत्सव में विघ्न डालता था।

चलो यहीं रह लेते हैं

चलो यहीं रह लेते हैं

किसी कवि की एक सुन्दर रचना है-

हम मस्तों की है ज़्या हस्ती,

हम आज यहाँ कल वहाँ चले।

मस्ती का आलम साथ चला,

हम धूल उड़ाते जहाँ चले॥

धर्म-दीवाने आर्यवीरों का इतिहास भी कुछ ऐसा ही होता है। पंजाब के हकीम सन्तरामजी राजस्थान आर्यप्रतिनिधि सभा की विनती पर राजस्थान में वेदप्रचार करते हुए भ्रमण कर रहे थे। आप शाहपुरा पहुँचे। वहाँ ज्वर फैला हुआ था। घर-घर में ज्वर घुसा हुआ था। प्रजा बहुत परेशान थी। महाराजा नाहरसिंहजी को पता चला कि पं0 सन्तराम एक सुदक्ष और अनुभवी हकीम हैं। महाराजा ने उनके सामने अपनी तथा प्रजा की परेशानी रखी। वे प्रचार-यात्रा में कुछ ओषधियाँ तो रखा ही करते थे। आपने रोगियों की सेवा आरज़्भ कर दी। ईश्वरकृपा से लोगों को उनकी सेवा से बड़ा लाभ पहुँचा। ज्वर के प्रकोप से अनेक जानें बच गईं। अब महाराजा ने उनसे राज्य में ही रहने का अनुरोध किया। वे मान गये। उन्हें राज्य का हकीम बना दिया गया, फिर उन्हें दीवानी का जज नियुक्त कर दिया गया। अब वे राजस्थान के ही हो गये। वहीं बस गये और फिर वहीं चल बसे।

पाठकवृन्द! कैसा तप-त्याग था उस देवता का। वह गुरदासपुर पंजाब की हरी-भरी धरती के

निवासी थे। इधर भी कोई कम मान न था। पं0 लेखराम जी के साहित्य ने उन्हें आर्य मुसाफ़िर बना दिया। मुसाफ़िर ऐसे बने कि ऋषि मिशन के लिए घर बार ही छोड़ दिया। राजस्थान के लोग आज उनको सर्वथा भूल चुके हैं।

सचमुच वे बेधड़क थे

सचमुच वे बेधड़क थे

हरियाणा के श्री स्वामी बेधड़क आर्यसमाज के निष्ठावान् सेवक और अद्भुत प्रचारक थे। वे दलित वर्ग में जन्मे थे। शिक्षा पाने का प्रश्न ही नहीं था। आर्यसमाजी बने तो कुछ शिक्षा भी प्राप्त कर ली। कुछ समय सेना में भी रहे थे। आर्यसमाज सिरसा हरियाणा में सेवक के रूप में कार्य करते थे। ईश्वर ने बड़ा मीठा गला दे रखा था। जवानी के दिन थे। खड़तालें बजानी आती थीं। कुछ भजन कण्ठाग्र कर लिये। एक बार सिरसा में श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज का शुभ आगमन हुआ। बेधड़कजी ने कुछ भजन सुनाये। श्री यशवन्तसिंह वर्मा टोहानवी का भजन-

सुनिये दीनों की पुकार दीनानाथ कहानेवाले तथा है आर्यसमाज केवल सबकी भलाई चाहनेवाला।

बड़ी मस्ती से गाया करते थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज गुणियों के पारखी थे। आपने श्री बेधड़क के जोश को देखा, लगन को देखा, धर्मभाव को देखा और संगीत में रुचि तथा योग्यता को देखा। आपने बेधड़कजी को विस्तृत क्षेत्र में आकर धर्मप्रचार करने के लिए प्रोत्साहित किया।

बेधड़कजी उज़रप्रदेश, हरियाणा, पञ्जाब, सिंध, सीमाप्रान्त, बिलोचिस्तान, हिमाचल में प्रचारार्थ दूर-दूर तक गये। हरियाणा प्रान्त में विशेष कार्य किया। वे आठ बार देश के स्वाधीनता संग्राम

में जेल गये। आर्यसमाज के हैदराबाद सत्याग्रह तथा अन्य आन्दोलनों में भी जेल गये। संन्यासी बनकर हैदराबाद दक्षिण तक प्रचारार्थ गये। अपने प्रचार से आपने धूम मचा दी।

बड़े स्वाध्यायशील थे। अपने प्रचार की मुनादी आप ही कर दिया करते थे। किस प्रकार के ऋषिभक्त थे, इसका पता इस बात से लगता है कि एक बार पञ्जाब के मुज़्यमन्त्री प्रतापसिंह कैरों ने उन्हें कांग्रेस के टिकट पर एक सुरक्षित क्षेत्र से हरियाणा में चुनाव लड़ने को कहा। तब हरियाणा राज्य नहीं बना था। काँग्रेस की वह सीट खतरे में थी। बेधड़क ही जीत सकते थे।

स्वामी बेधड़कजी ने विधानसभा का टिकट ठुकरा दिया। आपने कहा ‘‘मैं संन्यासी हूँ। चुनाव तथा दलगत राजनीति मेरे लिए वर्जित है। ऋषि दयानन्द ने तो मुझे दलित से ब्राह्मण तथा संन्यासी तक बना दिया। आर्यसमाज ने मुझे ऊँचा मान देकर पूज्य बनाया है और आप मुझे जातिपाँति के पचड़े में फिर डालना चाहते हैं।’’ पाठकवृन्द! कैसा त्याग है? कैसी पवित्र भावना है? जब वे अपने जीवन के उत्थान की कहानी सुनाया करते थे कि वे कहाँ-से-कहाँ पहुँचे तो वे ऋषि के उपकारों का स्मरण करके भावविभोर होकर पूज्य दादा बस्तीराम का यह गीत गाया करते थे-

‘लहलहाती है खेती दयानन्द की’।

इन पंक्तियों के लेखक ने उन-जैसा दूसरा मिशनरी नहीं देखा। लगनशील, विद्वान् सेवक तो कई देखे हैं, परन्तु वे अपने ढंग के एक ही व्यक्ति थे। बड़े वीर, स्पष्टवादी वक्ता, तपस्वी, त्यागी और परम पुरुषार्थी थे। शरीर टूट गया, परन्तु उन्होंने प्रचार कार्य बन्द नहीं किया। खान-पान और पहरावे में सादा तथा राग-द्वेष से दूर थे। बस, यूँ कहिए कि ऋषि के पक्के और सच्चे शिष्य थे।

पण्डित भोजदज़जी आगरावाले आगे निकल गये

पण्डित भोजदज़जी आगरावाले आगे निकल गये

श्री पण्डित भोजदज़जी आर्यपथिक पश्चिमी पञ्जाब में तहसील कबीरवाला में पटवारी थे। आर्यसमाजी विचारों के कारण पण्डित सालिगरामजी वकील प्रधान मिण्टगुमरी समाज के निकट आ गये।

पण्डित सालिगराम कश्मीरी पण्डित थे। कश्मीरी पण्डित अत्यन्त  रूढ़िवादी होते हैं इसी कारण आप तो डूबे ही हैं साथ ही जाति का, इनकी अदूरदर्शिता तथा अनुदारता से बड़ा अहित हुआ है। आज कश्मीर में मुसलमानों ने (कश्मीरी पण्डित ही तो मुसलमान बने) इन बचे-खुचे कश्मीरी ब्राह्मणों का जीना दूभर कर दिया और अब कोई हिन्दू इस राज में-कश्मीर में रह ही नहीं सकता।

पण्डित सालिगराम बड़े खरे, लगनशील आर्यपुरुष थे। आपने बरादरी की परवाह न करते हुए अपने पौत्र का मुण्डन-संस्कार विशुद्ध वैदिक रीति से करवाया। ऐसे उत्साही आर्यपुरुष ने पण्डित

भोजदज़जी की योग्यता देखकर उन्हें आर्यसमाज के खुले क्षेत्र में आने की प्रेरणा दी। पण्डित भोजदज़ पहले पञ्जाब सभा में उपदेशक रहे फिर आगरा को केन्द्र बनाकर आपने ऐसा सुन्दर, ठोस तथा ऐतिहासिक कार्य किया कि सब देखकर दंग रह गये। आपने मुसाफिर1 पत्रिका भी निकाली। सरकारी नौकरी पर लात मार कर आपने आर्यसमाज की सेवा का कण्टकाकीर्ण मार्ग अपनाया। इस उत्साह के लिए जहाँ पण्डित भोजदज़जी वन्दनीय हैं वहाँ पण्डित सालिगरामजी को हम कैसे भुला सकते हैं जिन्होंने इस रत्न को खोज निकाला, परखा तथा उभारा।

वे सूचना मिलते ही पहुँच जाते थे

वे सूचना मिलते ही पहुँच जाते थे

आर्यसमाज की प्रथम पीढ़ी के नेताओं तथा विद्वानों में श्री पण्डित सीतारामजी शास्त्री कविरंजन रावलपिण्डी का नाम उल्लेखनीय है। आप पण्डित गुरुदज़जी विद्यार्थी के साथी-संगियों में से एक थे। अष्टाध्यायी के बड़े पण्डित थे। आपने वर्षों आर्यसमाज के उपदेशक के रूप में आर्य प्रतिनिधि सभा पञ्जाब में कार्य किया। फिर स्वतन्त्र धन्धा करने का विचार आया तो कलकज़ा चले गये। वहाँ भारत प्रसिद्ध वैद्य कविराज विजय रत्नसेन के चरणों में बैठकर कविरंजन की उपाधि प्राप्त करके पहले अमृतसर फिर रावलपिण्डी में औषधालय खोलकर बड़ा नाम कमाया।

आप वेद, शास्त्र, ब्राह्मणग्रन्थों के बड़े मर्मज्ञ विद्वान् थे। अष्टाध्यायी के बड़े प्रचारक थे। यदि कोई कहता कि अष्टाध्यायी का पढ़ना-पढ़ाना अति कठिन है तो उसकी पूरी बात सुनकर उसका

ऐसा युक्तियुक्त उज़र देते कि सुनने वाला सन्तुष्ट हो जाता था।

कविराजजी की कृपा से ही डॉज़्टर केशवदेवजी शास्त्री बन पाये। आपकी प्रेरणा से आर्यसमाज को और भी कई संस्कृतज्ञ प्राप्त हुए। आपने कलकज़ा में अध्ययन करते हुए, वहाँ भी आर्यसमाज

की धूम मचा दी। आपका वहाँ ब्राह्मसमाज के पण्डितों से तथा नेताओं से गहरा सज़्पर्क रहा।

एक समय ऐसा आया कि सारा ब्राह्मसमाज आर्यसमाज में मिलने की सोचने लगा फिर कोई विघ्न पड़ गया। ब्राह्मसमाजियों में आर्यसमाज में विलीन होने का विचार पैदा हुआ तो इसका कारण मुज़्यरूप से कविराज सीतारामजी के प्रयास थे। यह सारी कहानी हम कभी इतिहास प्रेमियों के सामने रखेंगे। सब तथ्य हमने एक लेख में पढ़े थे। वह लेख खोजकर फिर विस्तार से इस विषय पर लिखा जाएगा।

कविराज ने अपनी विद्वज़ा तथा अपनी वैद्यक से आर्यसमाज को बहुत लाभान्वित किया। उन दिनों आर्यसमाज में संस्कृतज्ञ बहुत कम थे। अमृतसर में यह देखा गया कि जब कभी किसी

संस्कार में या किसी समारोह में कविराज जी को बुलाया गया तो आप एकदम सब कार्य छोड़कर अपनी आर्थिक हानि की चिन्ता न करते हुए वहाँ पहुँच जाते। बस, उन्हें आर्यसमाज की सूचना

मिलनी चाहिए। वे शरीर से स्वस्थ थे। जीवन बड़ा नियमबद्ध था।

स्वाध्याय तथा सन्ध्या में प्रमाद करने का प्रश्न ही न था। वे मास्टर आत्माराम अमृतसरी के अभिन्न मित्र थे। वैसे शास्त्रीजी की मित्र-मण्डली बहुत बड़ी थी। उन्हें मित्र बनाने की कला आती

थी।

आर्यसमाज का एक अद्वितीय दानी सपूत

आर्यसमाज का एक अद्वितीय दानी सपूत

आर्यसमाज ने एक शताज़्दी में बड़े विचित्र दीवानों को जन्म दिया है। इतिहास का बनाना बड़ा कठिन है और उसे सुरक्षित रखना और भी कठिन है। हमारे बड़ों ने जीवन देकर इतिहास तो

बना दिया, परन्तु हमने इतिहास को सुरक्षित नहीं रखा।

आर्यसमाज के इतिहास-लेखक सुशिक्षित व्यक्तियों, विद्वानों तथा प्रमुख नेताओं की तो चर्चा करते हैं, परन्तु ग्रामीण कृषकों, शिल्पकारों, दुकानदारों और वे भी बहुत छोटे दुकानदार जिन्होंने

प्राणपन से समाज की सेवा की, उनके उल्लेख के बिना इतिहास अधूरा तथा निष्प्राण ही रहेगा। आर्यसमाज के निर्माण में सब प्रकार के लोगों ने योगदान दिया है। इसलिए इस पुस्तक में

हमने सब क्षेत्रों के सब प्रकार के भाइयों की चर्चा करने का प्रयास किया है।

जिन लोगों ने आर्यसमाज का स्वर्णिम इतिहास बनाया है, उनमें एक थे महाशय भोलानाथ तूड़ीवाले (पशुओं का नीरा-चारा बेचनेवाले)-आप लाहौर के बच्छोवाली समाज के श्रद्धालु सदस्य

थे। सब कार्यों में आगे रहते थे। बस, सूचना मिलनी चाहिए। धन्धा बन्द करके भी पहुँच जाते थे। शिक्षा अल्प थी। सत्संगों में नियमित रूप से आते थे। किसी भी शुभ कार्य के लिए जब दान माँगा जाता तो रसीद खुलते ही आप सबसे पहले अपना दान दिया करते थे। उत्सव पर भोजन की व्यवस्था भी आप ही करते थे। सैकड़ों व्यक्ति बच्छोवाली का उत्सव देखने के लिए प्रान्त और प्रान्त के बाहर से भी आ जाते। सबको भोजन करवाया जाता था। उत्सव अब नगर पालिका के लंगे मैदान में रखा जाने लगा। एक बार महाशय भोलानाथजी ने दान लिखवाया कि अब भोजन का कुछ व्यय वे देंगे। फिर वे प्रति वर्ष भोजन का व्यय देने लगे। भोजन पर 258।

बहुत व्यय आने लगा। आर्यसमाजवालों ने कहा कि यह भार बँटना चाहिए, परन्तु भोलानाथ न माने।

एक बार चौधरी रामभजदज़जी ने वेदी पर यह घोषणा की कि इस समय भोजन के लिए ऋषि लंगर में पाँच सहस्र अतिथि पहुँच चुके हैं। भोलानाथजी से बहुत कहा गया, परन्तु इस नरकेसरी ने हिज़्मत नहीं हारी। वे कहते हैं सारा व्यय मैं ही दूँगा। उस ऋषि भक्त ने तब भी पूरा भोजन व्यय दिया। पाठकवृन्द! इस प्रकार का दानी तथा बलिदानी मिलना यदि असज़्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।

एक और दीवाना संन्यासी

एक और दीवाना संन्यासी

आर्यसमाज में आत्मानन्द नाम के कई संन्यासी हुए हैं। एक आत्मानन्द तो पौराणिकों में लौट गये थे। यह बीसवीं शती के आरज़्भ या उन्नीसवीं शती के अन्त की घटना है, परन्तु एक स्वामी आत्मानन्दजी जो ऋषि के साथ भी रहे। वे ऋषिजी के साथ यात्रा में आवास तथा भोजन की व्यवस्था किया करते थे।

वे संस्कृत व हिन्दी ही जानते थे। पुराणों के प्रकाण्ड विद्वान् थे। व्याज़्यानों में पुराणों की कथाएँ सुनाकर बहुत हँसाते थे। ये शास्त्रार्थ ज़ी करते थे। ये प्रतिक्षण शास्त्रार्थ के लिए तैयार रहते थे।

इन्होंने देश के सब अहिन्दी भाषी प्रदेशों में भी प्रचार किया। कई आर्यसमाज बनाये। ब्रह्मा भी प्रचारार्थ गये। लंका की भाषा का ज्ञान नहीं था, तथापि वहाँ भी प्रचारार्थ पहुँच गये और बड़े-बड़े

लोगों से वहाँ सज़्पर्क कर पाये। अपनी बात कही। विशेषता यह कि वहाँ बिना किसी सभा के सहयोग के पहुँच गये।

आपने देश के सब भागों में वैदिक धर्म प्रचार के लिए यात्राएँ कीं। कोई बुलाये या न बुलाये, वे स्वयं ही घूमते-घूमते प्रचार करते हुए कहीं भी पहुँच जाते। कमालिया पंजाब भी गये। वह नगर

आर्यसमाज का गढ़ बन गया। वहाँ आर्यसमाज का गुरुकुल भी था। इसी गुरुकुल से हीरो साईकल के संचालकों के बड़े भ्राता दिवंगत दयानन्दजी जैसे ऋषिभक्त निकले।

यात्रा करते-करते ऊबते न थे, न थकते थे। एक बार सिरसा हरियाणा में गये। तब पोंगापंथी आर्यसमाज के नाम से ही चिढ़ते थे। आर्यसमाज वहाँ था ही नहीं। आर्यसमाज का नाम सुनते ही

विरोधियों ने शोर मचा दिया। स्वामीजी को रहने को भी स्थान न मिला, भोजन तो किसी ने

देना ही ज़्या था। हिन्दुओं ने सोमनाथ का मन्दिर तोड़नेवाले लुटेरों के भाइयों की तो उसी मन्दिर के समीप मजिस्द बनवा दी। यह आत्मघाती हिन्दू सब-कुछ सहन कर सकता है-इससे सहन नहीं होता तो आर्यसमाज का प्रचार सहन नहीं हो सकता।

सूखे चने चबाकर आर्य संन्यासी सिरसा में डट गया। वहाँ एक प्रसिद्ध सेठ का सदाव्रत जारी रहता था। उस सदाव्रत से भी वेदज्ञ आर्यसंन्यासी को भोजन न दिया गया। साधु के पग

डगमगाये नहीं, लड़खड़ाये नहीं, श्रीमहाराज घबराये नहीं। वहीं अपने कार्य में जुटे रहे। पाखण्डखण्डिनी ओ3म् पताका फहराकर दण्डी स्वामी आत्मानन्द वेद की निर्मल गङ्गा का ज्ञान-अमृत पिलाने लगे।

यह उन्हीं की साधना का फल है कि आगे चलकर सिरसा आर्यसमाज का एक गढ़ बन गया। पण्डित मनसारामजी वैदिक तोप, स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज-जैसों ने सिरसा को अपनी

कर्मभूमि बनाया। स्वामी श्री बेधड़कजी महाराज-जैसे अद्वितीय तपस्वी दलित वर्ग में जन्मे थे। उस पूज्य ऋषिभक्त बेधड़क स्वामी की कर्मभूमि भी सिरसा रहा है।

आर्य मिशनरी पूज्य महाशय कालेखाँ साहब जो बाद में महाशय कृष्ण आर्य के नाम से इसी क्षेत्र में कार्य करते रहे। वे सिरसा के पास ही जन्मे थे और सिरसा समाज की ही देन थे। महाशय काले खाँ जी लौहपुरुष स्वामी स्वतन्त्रतानन्दजी महाराज के प्रियतम शिष्यों में से एक थे।

यह सब स्वामी आत्मानन्दजी की साधना का फल था। अन्तिम दिनों में यह संन्यासी अजमेर में रहने लगे। अपना सब-कुछ समाज की भेंट कर दिया। उनकी अन्तिम इच्छा यही थी कि उनका

शरीर अजमेर में छूटे और उनका दाह-कर्म भी वहीं किया जाए जहाँ ऋषिजी का अन्तिम संस्कार किया गया था। स्वामीजी का निधन 23 जुलाई 1908 ई0 को कानपुर में हुआ। उनका दाहकर्म संस्कार वहीं गंगा तट पर कानपुर में किया गया।1 आर्यसमाज अजमेर उनका उज़राधिकारी था। उनकी स्मृति में आर्यसमाज अजमेर ने कोई स्मारक न बनाया।

एक अभूतपूर्व घटना

एक अभूतपूर्व घटना

गुजरात में आगाखानीमत-जैसा एक और मत भी कभी बड़ा प्रभाव रखता था। इसे ‘सत्पन्थ’ कहते थे। इसका अतीत तो कुछ और ही था, परन्तु आगे चलकर चतुर मुसलमानों के कारण सहस्रों अज्ञानी व मूर्ख हिन्दू अपने मत से च्युत होकर ‘कलमा’ पढ़ने लग गये और हिन्दू होते हुए भी निकाह करवाते थे। आज आर्यसमाज के इतिहासकारों को भी यह तथ्य ज्ञात नहीं कि किन दिलजले आर्यवीरों के प्रयास से सहस्रों सत्पंथी धर्मभ्रष्ट हिन्दुओं की शुद्धि हुई। इन शुद्ध होनेवालों में कितने ही प्रज़्यात क्षत्रिय, पटेल व सुशिक्षित गुजराती हिन्दू थे। हिन्दूसमाज आर्यसमाज के इस उपकारको कतई भूल चुका है।

सत्पन्थ एक इरानी ने चलाया था। उसका नाम इराणाशाह था। उसने अहमदाबाद के निकट पीराणा में एक वेद-पीठ स्थापित की।

इराणाशाह के एक मुसलमान चेले ने इस वेद-पीठ को दरगाह बनाकर यज्ञोपवीत उतार-उतार कर पीराणा की दरगाह (वेदपीठ) में जमा करवाता रहा। यह दुःखदायी, परन्तु रोचक इतिहास कभी

फिर लिखेंगे। इसी सत्पन्थ में भुज कच्छ के एक सज्जन खेतसी भाई थे। इन खेतसी भाई ने अपने ग्राम के एक युवक शिवगुण भाई को सत्पन्थ में प्रविष्ट किया। शिवगुण भाई काम-धन्धे की खोज में कराची गये।

खेतसी भाई भी वहीं थे। कराची में एक गुजराती आर्ययुवक पहुँचा। यह था धर्मवीर नारायणजी भाई पटेल। इस धर्मवीर को मुसलमान जान से मार डालने की धमकियाँ देते रहते थे। सत्यपन्थ की जड़ें उखाड़ने में इनका विशेष उद्योग रहा। इन नारायण भाई ने कराची में आर्य युवकों की एक परिषद् बुलाई। परिषद में युवक ही अधिक थे। नारायण जी ने उन्हें सत्पन्थ छोड़ने व वैदिक धर्म ग्रहण करने की प्रेरणा दी। शिवगुण भाई ने समझा वेद धर्म में भी किसी मूर्ज़ि की ही

पूजा होती होगी। शिवगुण भाई ने सत्पन्थ छोड़ दिया, परन्तु किसी को बताया नहीं। ऐसा करने पर इनको वहाँ धन्धा न मिलता। खेतसी भाई को भी न बताया।

जब सत्पन्थी लोगों को पता चला तो शिवगुण भाई के ग्राम के व इतर गुजराती बन्धुओं ने इसका बड़ा प्रबल बहिष्कार किया। नारायण भाई को शिवगुण भाई ने पाँच रुपया दान दिया था। इसके कारण भी विपदा आई। खेतसी भाई ने कराची में ही सैयद मुराद अली पीराणावाले को पाँच रुपया दान दिया, उसे तो पाप न माना गया। अपनी बरादरी के युवकों के सुधार के लिए दिया गया दान चूँकि एक वेदाभिमानी नारायणजी भाई पटेल को दिया गया इसलिए सत्पन्थी कलमा पढ़नेवाले, निकाह करवानेवाले पटेलों ने शिवगुण भाई और उनकी पत्नी का कराची में जीना दूभर कर दिया।

शिवगुण भाई कराची छोड़ने पर विवश हुए। यह करुण कहानी बहुत लज़्बी हैं। इसी कहानी की अगली कड़ी हम यहाँ देना चाहते हैं। शिवगुण भाई अपने ग्राम लुडवा आये। कुछ समय बाद उनका सत्पन्थी गुरु खेतसी भाई भी कराची से लुडवा पहुँचा। एक दिन शिवगुण भाई से पूछा कि तुम अब किस मत में हो? खीजकर शिवगुण भाई ने कहा-‘किसी भी मत में जाऊँ तुज़्हें ज़्या?’

खेतसी भाई ने बड़े प्रेम से कहा-‘वेदधर्म ग्रहण करके आर्य बन जाओ।’ शिवगुण भाई बोले-‘‘बस कर बाबा, पहले सत्पन्थी बनाया, अब आर्य और वेदधर्मी बनाने लगा है।’’ खेतसी के पास पैसा था। शिवगुणजी से मित्रता थी। शिवगुणजी ने विपज़ि का सामना करते हुए अपनी पत्नी तथा पुत्र को तो ग्राम में छोड़ा। खेतसी भाई से तीन सौ रुपया ऋण लेकर पूर्वी अफ्रीका जाने

का निश्चय किया। ग्राम से बज़्बई पहुँचे। पारपत्र बनवाया, टिकट लिया। नैरोबी चल पड़े। खेतसी भी बज़्बई पहुँचे। उसने भी टिकट लिया। उसी जहाज में नैरोबी चल पड़े। शिवगुण भाई ने पूछा-

‘आप कैसे जा रहे हो?’ उसने कहा, घूमने-फिरने चलेंगे। अफ्रीका जाकर खेतसी भाई शिवगुणजी को छोड़कर कहीं निकल गये। खेतसी की न जान, न पहचान, न भाषा-ज्ञान, चल पड़े और अगले दिन शिवगुण भाई से कहा चलो कहीं चलें। शिवगुण भाई को समाज मन्दिर ले-गये। पहले दिन वे आर्यसमाज मन्दिर का ही पता करने गये थे। उन्हें पता था कि नैरोबी में आर्यसमाज है। खेतसी कराची रहते हुए सुशीला भवन समाज मन्दिर के सदस्य बन गये थे। शिवगुण

भाई समाज मन्दिर के कार्यक्रम को देखकर पहले तो कुछ सन्देह में पड़े फिर जब वहाँ कन्याओं के भजन सुने और महात्मा बद्रीनाथजी, संस्थापक नैरोबी समाज और संस्थापक गुरु विरजानन्द स्मारक करतारपुर के भजन सुने तो मुग्ध हो गये। शिवगुण भाई के मन से मुसलमानी भाव तो निकल चुके थे।

आर्य सन्तान होने का अभिमान नारायण भाई ने कराची में जगा दिया था। उन दिनों अफ्रीका के नैरोबी नगर में पंजाब से एक वानप्रस्थी गये थे। निरन्तर एक मास उनकी कथा सुनकर आपके

मन में वैदिक धर्म के प्रति दृढ़ आस्था पैदा हो गई। आपने वेदानुसार जीवन बिताने का व्रत लिया। खेतसी भाई ने शिवगुण भाई में यह परिवर्तन देखा। एक मास पश्चात् ज़ेतसी भाई ने स्वदेश लौटने का कार्यक्रम बनाया। शिवगुण भाई ने कहा-‘अभी तो मैंने कुछ कमाया नहीं। पैसे नहीं दे सकता। आप कुछ और ठहरें मैं कुछ कमाकर आपके तीन सौ चुका दूँ।’

खेतसी भाई का उज़र आर्यसमाज के इतिहास में एक स्वर्णिम घटना समझा जाएगा। आपने कहा-‘‘मेरा रुपया अब आ गया। मैं तो तुज़्हें आर्यसमाज से जोड़ने के लिए ही अफ्रीका आया

था और कोई काम नहीं था। मेरा लक्ष्य पूरा हो गया। मेरा मन गद्गद है, अब मैं जाता हूँ।’’

यह आर्यसमाज के इतिहास की अभूतपूर्व घटना है कि एक आर्यपुरुष दूसरे साथी को आर्यसमाज का मन्दिर दिखाने व आर्यसमाज में लाने के लिए अफ्रीका तक चला जाता है। वीर विप्र रक्तसाक्षी पण्डित लेखरामजी होते तो खेतसी भाई की लगन देखकर उसे छाती से लगा लेते। शिवगुण बापू ने भुज कच्छ में वैदिक धर्म प्रचार के लिए अहर्निश साधना करके ऐसी सफलता पाई कि आज गुजरात में आर्यों की कुल संज़्या का आधा भाग शिवगुण वेलानी पटेल की बरादरी का है। इनके तपोबल से और वेद, ईश्वर, यज्ञ व गौ के प्रति इनकी श्रद्धा के कारण उच्च शिक्षित युवक, प्रतिष्ठित देवियाँ तथा पुरुष वैदिक धर्म के प्रचार में जुट गये हैं।

आपने विक्रम संवत् 1987 में स्वदेश लौटकर अपने ग्राम में दैनिक यज्ञ चालू कर दिया। इससे सत्पन्थी पुनः भड़के। आपका प्रचण्ड बहिष्कार हुआ। आपका यज्ञोपवीत उतारने के लिए ग्रामों की पंचायत बैठी। यह एक लज़्बी कहानी है।

अटल ईश्वर-विश्वासी, यज्ञ-हवन तथा सन्ध्योपासना के नियम का दृढ़ता से पालन करनेवाले शिवगुण भाई पर तब जो विपज़ियाँ आईं उन्हें सुनकर नयन सजल हो जाते हैं। साधनहीन, परन्तु सतत साधनावाले ऋषिभक्त शिवगुण इस अग्नि-परीक्षा में पुनः विजयी हुए।

एक और घटना का उल्लेख कर इतिहास के इस पृष्ठ को हम यहीं समाप्त करते हैं। नैरोबी में सरदार पटेलजी के ग्राम करमसद के एक पटेल पुरुषोज़म भाई मोती भाई भी समाज में आते थे। चारपाँच और भी गुजराती आर्यसमाज के सभासद् थे। पुरुषोज़म भाई ने एक मास पश्चात् इन्हें कहा-‘‘तुम मेरे गुजराती भाई लगते हो, परन्तु मुझसे मिलते ही नहीं?’’ तुम कैसे आर्य बन गये? पुरुषोज़म भाई भी रेलवे में थे और महात्मा बद्रीनाथजी के सत्संग से पुरुषोज़म भाई आर्य बने।

सूपा गुरुकुल में सरदार पटेल ने एक बार कहा था-ऋषि दयानन्द मेरे गुरु थे। विट्ठल भाई पटेल भी ऋषि को अपना गुरु मानते थे। ऋषि के विचारों से अनुप्राणित होकर ये दोनों नररत्न मातृभूमि के गौरव-गगन पर सूर्य बनकर चमके।

श्री शिवगुण भाई का वैदिक धर्म अनुराग तो आर्यों के लिए प्रेरणाप्रद है ही, परन्तु खेतससी भाई जैसे लगनशील आर्य ने ऐसी अनूठी तड़प का परिचय न दिया होता तो शिवगुण बापू-सा सपूत भी आर्यसमाज को न मिल पाता।

नारायण भाई पटेल और श्री देवजी जगमाल जी जाडेजा जैसे आर्यपुरुष गुजरात में विशेषरूप से भुज कच्छ में (जो इनका क्षेत्र था) अपनी स्थायी छाप न छोड़ सके। वे दोनों विद्वान थे। आरज़्भिक आर्यपुरुष थे, परन्तु इनमें एक ही कमी थी। वे वेद धर्म, वेद धर्म की रट तो लगाते थे, परन्तु उनके अपने जीवन में वैदिक सन्ध्योपासना यज्ञ का नियम न था। यदि वे दृढ़ता से इसका पालन करते व कराते तो उन्हें विशेष सफलता मिलती। इन प्रणवीरों के भी आर्यगण ऋणी हैं। इनकी सेवा व साहित्य पर आगे कभी प्रकाश डाला जाएगा।

तो सब पैदल ही चलेंगे

तो सब पैदल ही चलेंगे

अभी कुछ दिन पूर्व मुझे एक लेख मिला है। उसमें एक घटना पढ़कर मैं उछल पड़ा। महात्मा हंसराज, प्रिं0 दीवानचन्दजी, कानपुर तथा प्रिंसिपल साईंदासजी श्रीनगर गये। तभी वहाँ आर्यसमाज का उत्सव रखा गया। महात्मा हंसराजजी को उनके निवासस्थान से उत्सव के स्थान पर पहुँचाने के लिए डी0ए0वी0 कालेज के एक पुराने स्नातक अपना निजी टाँगा लेकर आये। वह स्नातक वहाँ मुंसिफ के पद पर थे।

महात्माजी और उनके साथी टाँगे में बैठ गये। मुंसिफ महाशय भी बैठ गये। आगे गये तो मार्ग में महाशय ताराचन्द जी भी मिल गये। वे भी उत्सव स्थल की ओर जा रहे थे। वे महाशयजी कौन थे, यह एकदम निश्चयपूर्वक कहना कठिन है। उन्हीं ताराचन्दजी ने स्वयं आर्यगज़ट में यह घटना लिखी। मेरा विचार है कि यह ताराचन्द (स्वामी अमृतानन्दजी) ही थे। महात्माजी ने उन्हें भी टाँगे पर बैठने के लिए कहा। उन्होंने कहा-‘‘नहीं, मैं पैदल ही आ

जाऊँगा। आप चलिए।’’

टाँगे में केवल चार सवारी ही बैठ सकती थीं, ऐसा राजनियम था। इस पर महात्मा हंसराजजी ने कहा-‘‘तो हम सब पैदल ही चलेंगे।’’ यह कहकर वे उतर पड़े और यह देखकर साथी भी उतर

गये। तब मुंसिफ ने कहा ‘‘टाँगा ड्राईवर पैदल आ जाएगा। मैं टाँगे का ड्राईवर बनता हूँ।’’ ऐसे शिष्ट एवं विनम्र थे मुंसिफ महोदय और महात्मा हंसराजजी!

और वह अग्नि फिर बुझ गई

और वह अग्नि फिर बुझ गई

मनुष्य के मन की गति का पता लगाना अति कठिन है। भीष्म जी में धर्म-प्रचार व समाज-सेवा की जो अग्नि हमने सन् 1957 में देखी वह आग 25 वर्ष के पश्चात् मन्द पड़ते-पड़ते बुझ ही गई। उनकी सोच बदल गई, व्यवहार बदल गया। उनका सज़्मान व लोकप्रियता भी घटते-घटते………। अब वह समाज के नहीं अपने भाई-भतीजों के मोह-जाल में फंस कर संसार से विदा हुए। यह दुःखद दुर्घटना भी शिक्षाप्रद है।