Category Archives: Pra Rajendra Jgyasu JI

गोल-गोल बातों वाले पण्डितजी

गोल-गोल बातों वाले पण्डितजी

श्रद्धेय पण्डित गणपति शर्मा शास्त्रार्थ-महारथी एक बार जगन्नाथपुरी देखने उत्कल प्रदेश पहुँचे। वहाँ के पण्डितों को किसी प्रकार पता चल गया कि पण्डित गणपति शर्मा आये हैं। जहाँ पण्डितजी ठहरे थे वहाँ बहुत-से लोग पहुँचे और कहने लगे- लोग-ज़्या आप आर्यसमाजी पण्डित हैं?

पण्डिजी-हाँ, मैं आर्यपण्डित हूँ।

लोग-आर्यपण्डित कैसे होते हैं?

पण्डितजी-जैसा मैं हूँ!

लोग-पण्डित के साथ आर्य शज़्द अच्छा नहीं लगता!

पण्डितजी-ज़्यों? इस देश का प्रत्येक निवासी आर्य है। यह आर्यावर्ज़ देश है। इसमें रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति आर्य है।

लोग-ज़्या आर्यावर्ज़ में रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति आर्य है?

पण्डितजी-देश के कारण आर्य कहला सकते हैं। धर्म के कारण नहीं।

लोग-आप किस धर्म को मानते हैं?

पण्डितजी-वैदिक धर्म को मानता हूँ!

लोग-ज़्या सत्य सनातन धर्म को नहीं मानते?

पण्डितजी-वैदिक धर्म ही तो सत्य सनातन धर्म है।

लोग-ज़्या मूर्ति को मानते हैं?

पण्डितजी-ज़्यों नहीं, मूर्ज़ि को मूर्ज़ि मानता हूँ।

लोग-जगन्नाथजी को ज़्या मानते हो?

पण्डितजी-जो है सो मानता हूँ।

लोग-जगन्नाथ को परमेश्वर की मूर्ज़ि नहीं मानते हो?

पण्डितजी-हम सब भगवान् की बनाई हुई मूर्ज़ियाँ हैं।

लोग-श्राद्ध को मानते हो?

पण्डितजी-ज़्यों नहीं, माता, पिता, गुरु आदि का श्राद्ध करना ही चाहिए, अर्थात् इनमें श्रद्धा करनी ही चाहिए।

लोग-और पितरों को?

पण्डितजी-पितरों का भी श्राद्ध करो। पितर अर्थात् बड़े-बूढ़े बुजुर्ग, विद्वान् आदि।

पण्डितजी के मुख से अपने प्रश्नों के ये उज़र पाकर लोग परस्पर कहने लगे ‘‘देखो! यह कैसी गोल-गोल बातें करता है।’’

आप कैसे मिशनरी थे!

आप कैसे मिशनरी थे!

जब स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी उपदेशक विद्यालय, लाहौर के आचार्य थे तो शनिवार के दिन कहीं बाहर किसी समाज में प्रचारार्थ चले जाया करते थे। एक दिन वे रेलवे की टिकटवाली खिड़की पर

जाकर खड़े हो गये और कुछ पैसे आगे करके बाबू से कहा- टिकट दीजिए।

उसने कहा-कहाँ का टिकट दूँ? पैसे 4-6 आने ही पास थे। आपने कहा-इतने पैसे में जहाँ की टिकट बनती हो बना दो। बाबू ने आश्चर्य से फिर पूछा आपको जाना कहाँ है? आपने कहा प्रचार

ही करना है, इतने पैसे में जहाँ भी पहुँच जाऊँगा, प्रचार कर लूँगा। ऐसी लगनवाले अद्वितीय मिशनरी थे हमारे पूज्य स्वामीजी।

पण्डित लेखरामजी की लगन देखिए

पण्डित लेखरामजी की लगन देखिए

स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज ने बड़े परिश्रम से अपनी लौह लेखनी से धर्मवीर लेखरामजी का एक प्रेरणाप्रद जीवन-चरित्र लिखा और भी कई जीवन-चरित्र अन्य विद्वानों ने लिखे। इन पंक्तियों के

लेखक ने भी ‘रक्तसाक्षी पण्डित लेखराम’ नाम से एक खोजपूर्ण जीवन-चरित्र लिखा। पण्डित जी के अब तक छपे हुए जीवन चरित्रों में उनके जीवन की कई महज़्वपूर्ण घटनाएँ छपने से रह गईं

हैं। अभी गत वर्ष उनके पावन चरित्र का एक नया पहलू हमारे सामने आया।

पण्डितजी ‘आर्यगज़ट’ के सज़्पादक थे तो वे बड़ी मार्मिक भाषा में अपनी सज़्पादकीय टिपणियाँ लिखा करते थे। आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार के समाचार पाकर बड़ी प्रेरणाप्रद टिपणी देकर

पाठकों में नवीन उत्साह का सञ्चार कर देते थे। एक बार पण्डित आर्यमुनिजी पंजाब की उज़र-पश्चिमी सीमा के किसी दूरस्थ स्थान पर प्रचार करने गये। वहाँ उनके प्रचार से वैदिक धर्म की अच्छी छाप लोगों पर पड़ी। वहाँ प्रचार करके वे भेरा में पधारे। वहाँ भी पण्डित आर्यमुनि की विद्वज़ा ने वैदिक धर्म की महज़ा का सिक्का लोगों के हृदयों पर जमाया। पण्डित लेखरामजी

को यह समाचार प्रकाशनार्थ पहुँचा तो आपने पण्डित आर्यमुनि की विद्वज़ा व कार्य की प्रशंसा करते हुए लिखा कि ‘‘प्रशंसित पण्डितजी जेहलम आदि से भेरा पहुँचे। मार्ग में कितने ही और ऐसे महज़्वपूर्ण स्थान व नगर हैं जहाँ सद्धर्म के प्रकाश की बहुत आवश्यकता है। जिज्ञासु जन पवित्र वेद के सद्ज्ञान से लाभान्वित होना चाहते हैं। यदि हमारे माननीय पण्डितजी वहाँ भी प्रचार करके आते तो कितना अच्छा होता।’’

देखा! अपने पूज्य विद्वान् के लिए पण्डित लेखराम के हृदय में

कितनी श्रद्धा है और वैदिक धर्म के प्रचार के लिए कितनी तड़प है।

एक जगह से दूसरी जगह पर जानेवाले प्रत्येक आर्य से धर्म दीवाना

लेखराम यह अपेक्षा करता है कि वह मार्ग में सब स्थानों पर

धर्मध्वजा फहराता जाए।

टाँगा किस लिए लाये?

टाँगा किस लिए लाये?

आर्यसमाज नयाबाँस, दिल्ली-6 की आधारशिला पूज्य भाई परमानन्दजी ने रखी। भाईजी के प्रति इस समाज के सदस्यों को बहुत श्रद्धा थी। एक बार इसी समाज के किसी कार्यक्रम पर देवतास्वरूप भाई परमानन्दजी आमन्त्रित थे। श्री पन्नालाल आर्य उन्हें स्टेशन पर लेने के लिए गये। नयाबाँस का समाज-मन्दिर स्टेशन के समीप ही तो है।

श्री पन्नालाल जी भाईजी के लिए टाँगा ले-आये। टाँगेवाले उन दिनों एक सवार का एक आना (आज के छह पैसे) लिया करते थे। आर्यसमाज की आर्थिक स्थिति से भाईजी परिचित ही थे।

भाईजी को जब टाँगे पर बैठने के लिए कहा गया तो आप बोले, ‘‘पन्नालाल! टाँगा ज़्यों कर लिया? पास ही तो समाज-मन्दिर है।

आर्यसमाजों में धन कहाँ है? कितने कार्य समाज ने हाथ में ले-रखे हैं!’’ गुरुकुल, पाठशाला, गोशाला व अनाथालय, शुद्धि और पीड़ितों की सहायता………न जाने किन-किन कार्यों के लिए आर्यसमाजों को धन जुटाना पड़ता है।

श्री पन्नालालजी ने उज़र में कुछ कहा, परन्तु भाईजी का यही कहना था कि यूँ ही समाज के धन का अपव्यय नहीं होना चाहिए। मैं तो पैदल ही पहुँच जाता। ऐसा सोचते थे आर्यसमाज के निर्माता। आज अनेक अन- आर्यसमाजी लोग, आर्यसमाजों में घुसकर समाज की धन-सज़्पज़ि

को हड़पने में जुटे हैं। सारे देश का सामाजिक जीवन दूषित हो चुका है। आर्य लोग अपनी मर्यादाओं को न भूलें तो मानवजाति व देश का बड़ा हित होगा।

यह घटना श्री पन्नालालजी ने स्वयं सन् 1975 में मुझे सुनाई थी। भाईजी की सहारनपुर की भी एक ऐसी ही घटना सुनाई। तब भाईजी केन्द्रीय विधानसभा (संसद्) के सदस्य थे। वहाँ भी

पन्नालालजी आर्य टाँगा लेकर आये। भाईजी ने टाँगा देखते ही कहा-‘‘पन्नालाल! मेरी दिल्ली में कही हुई बात भूल गये ज़्या?’’

एक शास्त्रार्थ

एक शास्त्रार्थ

हरियाणा के लोककवि पण्डित बस्तीराम ने ऋषि के दर्शन किये और जीवनभर वैदिक धर्म का प्रचार किया। शास्त्रार्थ की भी अच्छी सूझ थी। एक बार पौराणिकों से पाषाण-पूजा पर उनका शास्त्रार्थ हुआ। पौराणिक पण्डित से जब और कुछ न बन पड़ा तो अपनी परज़्परागत कुटिल, कुचाल चलकर बोला-‘‘आपका ओ3म् किस धातु से बना है?’’

पण्डितजी व्याकरण के चक्र में पड़कर विषय से दूर जाना चाहते थे। पण्डित बस्तीरामजी सूझवाले थे। श्रोताओं को सज़्बोधित करके बोले, ‘‘ग्रामीण भाई-बहिनो! देखो, कैसा विचित्र प्रश्न यह मूर्ज़िपूजक पण्डित पूछ रहा है कि तुज़्हारा ओ3म् किस धातु से बना है। अरे! सारा संसार जाने कि हम प्रतिमा-पूजन नहीं मानते। इसी विषय पर तो शास्त्रार्थ हो रहा है। अरे पण्डितजी! हमारा ‘ओ3म्’ तो निराकार है, सर्वव्यापक है। वह न पत्थर से बना, न तांबे से, न पीतल से और न चाँदी-सोने से। तुज़्हारा गणेश किसी भी धातु से बना हो, भले ही मिट्टी का गणेश बना लो। हमारा ओ3म् तो सब जानें किसी भी धातु से नहीं बना।’’ सब ग्रामीण श्रोता पण्डित

बस्तीराम व वैदिक धर्म का जय-जयकार करने लगे। पौराणिक पण्डित भी बड़ा चकराया कि ज़्या उज़र दे वह आप ही अपने जाल में ऐसा फँसा कि निकलने का समय ही न मिला।

इन्हें सोने दें

इन्हें सोने दें

आर्यसमाज धारूर महाराष्ट्र का उत्सव था। श्री पण्डित नरेन्द्रजी हैदराबाद से पधारे। रात्रि में सब विद्वान् आर्यसमाज के प्रधान पण्डित आर्यभानुजी के विशाल आंगन में सो गये। इनमें से एक

अतिथि ऐसा था जिसे रात्रि को अधिक ठण्डी अनुभव होती थी, परन्तु संकोचवश ऊपर के लिए मोटा कपड़ा न माँगा।

प्रातःकाल सब लोग बाहर शौच के लिए चलने लगे तो उस अतिथि का नाम लेकर एक ने दूसरे से कहा-इन्हें भी जगा लो सब इकट्ठे चलें। इसपर पण्डित नरेन्द्रजी ने कहा-ऊँचा मत बोलो,

जाग जाएँगे। जगाओ मत, सोने दो। इन्हें रात को बड़ी ठण्डी लगी। सिकुड़े पड़े थे। मैंने ऊपर शाल ओढ़ा दिया। ये शज़्द सुनकर वह सोया हुआ व्यक्ति जाग गया। वह व्यक्ति इन्हीं पंक्तियों का लेखक था। पण्डित नरेन्द्रजी रात्रि में कहीं लघुशङ्का के लिए उठे। मुझे सिकुड़े हुए देखकर ऊपर शाल डाल दिया। इस प्रकार रात्रि के पिछले समय में अच्छी निद्रा आ गई, परन्तु सोये हुए

यह पता न लगा कि किसने ऊपर शाल डाल दिया है।

पण्डित नरेन्द्रजी ने आर्यसमाज लातूर के उत्सव पर भी एक बार मेरे ऊपर रात्रि में उठकर कपड़ा डाला था, जिसका पता प्रातः जागने पर ही लगा। ऐसी थी वे विभूतियाँ जिनके कारण आर्यसमाज

चमका, फूला और फला। इन्हें दूसरों का कितना ध्यान था!

आर्यों की देवी व देवता

आर्यों की देवी व देवता

स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ जब खेड़ाखुर्द (दिल्ली) का गुरुकुल चलाते थे तो सहदेव नाम का एक गठीला, परन्तु जड़बुद्धि युवक उनके पास रहता था। ब्रह्मचारी में कई गुण भी थे। ब्रह्मचारी में

गुरुभक्ति का भाव तब बहुत था और व्यायाम की सनक थी। गुरुकुल के पास एक धनिक कुज़्भकार रहता था। उसे स्वामी वेदानन्दजी से बड़ी चिढ़ थी। चिढ़ का कारण यह था कि वह

समझता था कि आर्यसमाजी देवी-देवताओं को नहीं मानते। स्वामीजी चाहते थे कि इस व्यक्ति को आर्यसमाजी बनाया जाए, यह बड़ा उपयोगी सिद्ध होगा। जब ब्रह्मचारी शिक्षा के लिए निकलते तो यह कभी भी किसी को कुछ भी भिक्षा के लिए न देता। उसका एक ही रोष था कि आर्य लोग देवी-देवताओं को नहीं मानते। स्वामी वेदानन्दजी उसे बताते कि माता, पिता, गुरु आचार्य, अतिथि आदि देव हैं, परन्तु ये बातें उसकी समझ में न आतीं।

एक दिन ब्र0 सहदेव भिक्षा के लिए निकला। उसी धनिक कुज़्भकार के यहाँ गया। उसने अपना प्रश्न दोहरा कर भिक्षा देने से इन्कार कर दिया। ब्रह्मचारी ने कहा-‘‘आर्य लोग भी देवी-देवताओं

को मानते हैं।’’ उसने कहा, स्वामी दयानन्दजी का लिखा दिखाओ। ब्रह्मचारी जी ने वैदिक सन्ध्या आगे करते हुए कहा, यह पढ़ो ज़्या लिखा है?

‘ओ3म् शन्नो देवी’ दिखाकर ब्र0 ने कहा देख ‘देवी’ शज़्द यहाँ है कि नहीं। फिर उसने संस्कार-विधि से देवयज्ञ दिखाया तो वहाँ ‘विश्वानि देव’ पढ़कर वह धनिक दङ्ग रह गया। उसने कहा-

‘‘मुझे तो आज ही पता चला कि आर्यसमाज ‘शन्नो देवी’ तथा ‘विश्वानि देव’ को मानता है, परन्तु स्वामी वेदानन्दजी ने मुझे ज़्यों नहीं बतलाया?’’

इस घटना के पश्चात् वह व्यक्ति दृढ़ आर्य बन गया। स्वामीजी का श्रद्धालु तथा गुरुकुल का सहायक बन गया।1

यही ब्रह्मचारी फिर स्वामी अग्निदेवभीष्म के नाम से जाना जाता था।

 

शव का दाह-कर्म ही होगा

शव का दाह-कर्म ही होगा

मारीशस में सरकारी नियमानुसार किसी शव का दाह-कर्म नहीं किया जा सकता था। बीसवीं शताज़्दी के आरज़्भ की घटना है कि मारीशस में एक सैनिक टुकड़ी आई। इनमें से किसी की मृत्यु हो गई। नियमानुसार उसे दबाने के लिए कहा गया। आर्यवीर सैनिकों ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने पुलिस की सहायता से शव को भूमि में गाड़ना चाहा, परन्तु ये सैनिक विद्रोह पर तुल गये। सरकार को ललकारा-देखते हैं कि हमारा शव कौन छूता है? सरकार झुक गई। आर्यों की मारीशस में यह पहली बड़ी जीत थी। मारीशस में यह प्रथम दाह-कर्म था।

यही लोग जाते-जाते सत्यार्थप्रकाश की एक प्रति दो-एक मित्रों को दे गये। आर्यसमाज का बीज बोनेवाले यही थे। आज तो- लहलहाती है खेती दयानन्द की।

निश्चय ही ये सब लोग नींव के पत्थर थे। कृतज्ञता इस बात की माँग करती है कि मैं पाठकों को यह स्मरण कराऊँ कि स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज केवल सेनानी के रूप में ही इतिहास

बनानेवाले न थे, अपितु इतिहास के गज़्भीर विद्वान् तथा इतिहास को सुरक्षित करनेवाले भी थे। मारीशस को भारत से जोड़नेवाले, इस द्वीप के महज़्व को समझने व समझानेवाले तथा इसका इतिहास व भूगोल लिखनेवाले वे प्रथम भारतीय विद्वान् व नेता थे। उस दूरदर्शी साधु की दृष्टि ने तब मारीशस का महज़्व जाना जब भारत के सब राजनैतिक नेता गहरी नींद में सोये हुए थे। यह उपर्युक्त सब सामग्री उन्हीं की पुस्तक से ली गई है।

1मारीशस में आर्यसमाज

1मारीशस में आर्यसमाज

जब सैनिक विद्रोह पर तुल गये पूज्यपाद स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज ने लिखा है, ‘‘मारीशस

में आर्यसमाज की स्थापना उसी भाँति हुई जैसे हवा कहीं से किसी बीज को उड़ाकर ले-जाए और किसी दूर की भूमि पर जा पटके और वह बीज वहाँ ही उग आये।’’ मारीशस में आर्यसमाज का बीज बोने और उसे अंकुरित करनेवाले महारथी थे-श्री रामशरणजी मोती, वीर खेमलालजी वकील, श्री केहरसिंह (गाँव चिदा, जिला फिरोज़पुर, पञ्जाब), श्रीरामजीलाल तथा श्री चुन्नीलाल आदि (चीमनी ज़िला हिसार, हरियाणा के) श्री लेखरामजी (आदमपुर गाँव, ज़िला हिसार, हरियाणा), श्री हरनाम सिंह (झज्झर, हरियाणा के), श्री मंसासिंहजी जालन्धर, ज़िला पञ्जाब के तथा श्री गुरप्रसाद गोपालजी आदि मारीशस-निवासी थे।

श्री रामशरणजी मोती ने पञ्जाब से कुछ पुस्तकें मँगवाई थीं। उनमें रद्दी में आर्यपत्रिका लाहौर के कुछ पन्ने थे। इन्हें पढ़कर वे प्रभावित हुए। उस दुकानदार से उन्होंने ‘आर्यपत्रिका’ का पता

लगाया। इस पत्रिका को पढ़ते-पढ़ते वे आर्यसमाजी बन गये। साहस के अङ्गारे वीर खेमलालजी के आर्य बनने की कहानी विचित्र है। एक सैनिक टोली मीराशस आई। उनमें कुछ आर्यपुरुष

भी थे। उनकी बदली हो गई। जाते-जाते वे कुछ पुस्तकें वहीं दे गये। श्री भोलानाथ हवलदार एक सत्यार्थप्रकाश की प्रति श्री खेमलाल को दे गये।

श्री जेमलाल सत्यार्थप्रकाश पढ़कर दृढ़ आर्य बन गये। श्री रामशरण मोती ने रिवरदी जाँगील में आर्यसमाज का आरज़्भ किया तो ज़ेमलालजी ने मारीशस की राजधानी पोर्ट लुइस व ज़्यूर

पाइप में वेद-ध्वजा फहरा दी। पोर्ट लुइस के आर्यपुरुष एक होटल में एकत्र होते थे। ये लोग पाखण्ड-ज़ण्डन खूब करते थे। पोप शज़्द तो सत्यार्थप्रकाश में है ही। वीतराग स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज ने लिखा है कि इन धर्मवीरों ने पोप के अनुयायियों के लिए ‘पोपियाँ’

शज़्द और गढ़ लिया।

मेरी पाठकों से, आर्य कवियों से व लेखकों से सानुरोध प्रार्थना है कि मारीशस के उन दिलजले दीवानों की स्मृति को स्थिर बनाने के लिए पोप के चेलों के लिए ‘पोपियाँ’ शज़्द का ही प्रयोग किया करें। इस शज़्द को साहित्य में स्थायी स्थान देना चाहिए। अभी से गद्य के साथ पद्य में भी इस अद्भुत शज़्द के प्रयोग का आन्दोलन मैं ही आरज़्भ करता हूँ-

विश्व ने देखा कि पोपों के सभी गढ़ ढह गये।

पोप दल और पोपियाँ सारे बिलखते रह गये॥

वेद के सद्ज्ञान से फिर लोक आलोकित हुआ।

मस्तिष्क मन मानव का जब फिर धर्म से शोभित हुआ॥

‘आर्यसमाज के नियम’1

‘आर्यसमाज के नियम’1

1904 ई0 में आर्यसमाज टोहाना की स्थापना हुई। शीघ्र ही यह नगर वैदिक धर्मप्रचार का भारत-विज़्यात केन्द्र बन गया। नगर तथा समीपवर्ती ग्रामों में भी शास्त्रार्थ होते रहे। 1908 ई0 में टोहाना में एक भारी शास्त्रार्थ हुआ। पौराणिकों की ओर से पण्डित श्री लक्ष्मीनारायणजी बोले। आर्यसमाज की ओर से पण्डित श्री राजाराम डी0ए0वी0 कालेज, लाहौर के प्राध्यापक ने वैदिक पक्ष रखा।

शास्त्रार्थ के प्रधान थे श्री उदमीराम पटवारी। पण्डित राजारामजी ने पूछा ‘‘शास्त्रार्थ किस विषय पर होगा?’’ पं0 लक्ष्मीनारायण जी ने कहा-‘‘आर्यसमाज के नियमों पर।’’

पण्डित राजारामजी ने कहा, हमारे नियम तो आप भी मानते हैं। शास्त्रार्थ तो ऐसे विषय पर ही हो सकता है जिसपर आपका हमसे मतभेद हो। ऐसे चार विषय हैं-(1) मूर्ज़िपूजा (2) मृतक-

श्राद्ध, (3) वर्णव्यवस्था और (4) विधवा-विवाह।’’

पौराणिक पण्डित ने कहा ‘‘हम आपका एक भी नियम नहीं मानते।’’ सूझबूझ के धनी पण्डित राजारामजी ने अत्यन्त शान्ति से शास्त्रार्थ के प्रधान श्री उदमीरामजी पटवारी से कहा-‘‘ज़्यों जी!

आप हमारा कोई भी नियम नहीं मानते?’’ पटवारीजी ने भी आर्यसमाज के प्रति द्वेष के आवेश में आकर कहा-‘‘हम आर्यसमाज का एक भी सिद्धान्त नहीं मानते।’’

पण्डित राजारामजी ने कहा-‘‘लिखकर दो।’’

पटवारीजी ने अविलज़्ब लिखकर दे दिया। पण्डित राजारामजी ने उनका लिखा हुआ सभा में पढ़कर सुना दिया कि हम आर्यसमाज का एक भी सिद्धान्त नहीं मानते। तब पण्डित राजारामजी ने श्रोताओं को सज़्बोधित करते हुए कहा, आर्यसमाज का सिद्धान्त है ‘वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।’

पौराणिकों का मत यह हुआ कि न वेद को न पढ़ना न पढ़ाना, न सुनना न सुनाना। आर्यसमाज का नियम है ‘सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।’ पौराणिक मत का सिद्धान्त बना ‘असत्य को स्वीकार करने व सत्य के परित्याग में सदैव तत्पर रहना चाहिए।’

श्रोताओं को पण्डित राजारामजी की युक्ति ने जीत लिया। इस शास्त्रार्थ ने कई मनुष्यों के जीवन की काया पलट दी।

आर्यसमाज के अद्वितीय शास्त्रार्थ महारथी श्री मनसारामजी पर कुछ-कुछ तो पहले ही वैदिक धर्म का प्रभाव था, इस शास्त्रार्थ को सुनकर तरुण मनसाराम के जीवन में एकदम नया मोड़ आया और उसने अपना जीवन ऋषि दयानन्द के उद्देश्य की पूर्ति के लिए समर्पित कर दिया। पटवारी उदमीरामजी की सन्तान ने आगे चलकर वैदिक धर्म के प्रचार में अपने-आपको लगा दिया। आर्यसमाज नयाबाँस दिल्ली के श्री दिलीपचन्दजी उन्हीं पटवारीजी के सुपुत्र थे।