Category Archives: Pra Rajendra Jgyasu JI

अरे यह कुली महात्मा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अरे यह कुली महात्मा: प्रा राजेंद्र  जिज्ञासु

बहुत पुरानी बात है। आर्यसमाज के विख्यात और शूरवीर

संन्यासी, शास्त्रार्थ महारथी स्वामी श्री रुद्रानन्दजी टोबाटेकसिंह

(पश्चिमी पंजाब) गये। टोबाटेकसिंह वही क्षेत्र है, जहाँ आर्यसमाज

के एक मूर्धन्य विद्वान् आचार्य भद्रसेनजी अजमेरवालों का जन्म

हुआ। स्टेशन से उतरते ही स्वामीजी ने अपने भारी सामान के लिए

कुली, कुली पुकारना आरज़्भ किया।

उनके पास बहुत सारी पुस्तकें थीं। पुराने आर्य विद्वान् पुस्तकों

का बोझा लेकर ही चला करते थे। ज़्या पता कहाँ शास्त्रार्थ करना

पड़ जाए।

टोबाटेकसिंह स्टेशन पर कोई कुली न था। कुली-कुली की

पुकार एक भाई ने सुनी। वह आर्य संन्यासी के पास आया और

कहा-‘‘चलिए महाराज! मैं आपका सामान उठाता हूँ।’’ ‘‘चलो

आर्यसमाज मन्दिर ले-चलो।’’ ऐसा स्वामी रुद्रानन्द जी ने कहा।

साधु इस कुली के साथ आर्य मन्दिर पहुँचा तो जो सज्जन वहाँ

थे, सबने जहाँ स्वामीजी को ‘नमस्ते’ की, वहाँ कुलीजी को ‘नमस्ते

महात्मा जी, नमस्ते महात्माजी’ कहने लगे। स्वामीजी यह देख कर

चकित हुए कि यह ज़्या हुआ! यह कौन महात्मा है जो मेरा सामान

उठाकर लाये।

पाठकवृन्द! यह कुली महात्मा आर्यजाति के प्रसिद्ध सेवक

महात्मा प्रभुआश्रितजी महाराज थे, जिन्हें स्वामी रुद्रानन्दजी ने प्रथम

बार ही वहाँ देखा। इनकी नम्रता व सेवाभाव से स्वामीजी पर

विशेष प्रभाव पड़ा।

 

अतिथि यज्ञ ऐसे किया : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अतिथि यज्ञ ऐसे किया

श्री रमेश कुमार जी मल्होत्रा का श्री पं0 भगवद्दज़ जी के प्रति

विशेष भज़्तिभाव था। पण्डित जी जब चाहते इन्हें अपने घर पर

बुला लेते। एक दिन रमेश जी पण्डित जी का सन्देश पाकर उन्हें

मिलने गये।

उस दिन पण्डित जी की रसोई में अतिथि सत्कार के लिए

कुछ भी नहीं था। जब श्री रमेश जी चलने लगे तो पण्डित जी को

अपने भज़्त का अतिथि सत्कार न कर सकना बहुत चुभा। तब

आपने शूगर की दो चार गोलियाँ देते हुए कहा, आज यही स्वीकार

कीजिए। अतिथि यज्ञ के बिना मैं जाने नहीं दूँगा। पं0 भगवद्दत जी

ऐसे तपस्वी त्यागी धर्मनिष्ठ विद्वान् थे।

 

पं. दीनदयाल जी को कहना पड़ाः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

पं. दीनदयाल जी को कहना पड़ाः-

पं. दीनदयाल उपाध्याय एक त्यागी, तपस्वी व सरल नेता थे। उन जैसा राजनेता अब किसी दल में नहीं दिखता। वह जनसंघ के मन्त्री के रूप में जगन्नाथपुरी गये। वहाँ के मन्दिर में दर्शन करने पहुँचे तो पुजारियों ने चप्पे-चप्पे पर यहाँ पैसे चढ़ाओ, यहाँ भेंट धरो, इसका यह फल और बड़ा पुण्य मिलेगा आदि कहना शुरू किया। जब दीनदयाल जी से बाहर आने पर पत्रकारों ने मन्दिर की इस यात्रा व भव्यता के बारे में प्रश्न पूछे तो आपका उत्तर था, ‘‘जब मैं मन्दिर में प्रविष्ट हुआ तब पक्का सनातन धर्मी था, अब बाहर निकलने पर मैं कट्टर आर्यसमाजी हूँ।’’ उनका यह वक्तव्य तब पत्रों में छपा था, जिसे उनके नाम लेवा अब छिपा चुके हैं, पचा चुके हैं। हिन्दू समाज के महारोगों की औषधि केवल दीनदयाल जी की यह स्वस्थ सोच है। दुर्भाग्य से हिन्दू अपने रोगों को रोग ही नहीं मानता।

सन् 1857 का विप्लवः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

सन् 1857 का विप्लवः-

 

भारत के प्रायः सब नेता अंग्रेजों के स्वर में स्वर मिलाकर सन् 1857 के विप्लव को Munity (गदर) ही लिखते व कहते आये हैं। महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय नेता व विचारक थे, जिन्होंने सन् 1878 में अपने जालंधर के एक भाषण में इसे विप्लव कहकर लखनऊ में अंग्रेजों के अत्याचारों की घोर निन्दा की। वीर सावरकर का ग्रन्थ Our First war of Independenceतो बहुत बाद में आया। आर्य समाज ऋषि-जीवन की इस घटना को मुखरित ॥ Highlight न करने का दोषी है। केवल पं. लेखराम जी, पं. लक्ष्मण जी के ग्रन्थों में यह छपी मिलती है। मैं आर्य मात्र से इसको मुखरित करने की विनती करता हूँ।

सर सैयद अहमद खाँ ने भी ‘गदर के असबाब’ पुस्तक लिखी। पं. कन्हैयालाल अमेठी ने भी उर्दू में इस पर एक ग्रन्थ लिखा, जिसके कई संस्करण छपे थे। एक संस्करण पर ‘मुंशी कन्हैयालाल’ छपा पढ़कर मैंने कन्हैयालाल अलखधारी जी को इसका लेखक समझ लिया। यह मेरी भूल थी। मिलान किया तो पता चला कि पृष्ठ संया बदल गई है, लेखक कन्हैयालाल ही हैं। ऐसी पुस्तकें और भारतीय लेखकों नेाी लिखीं। ऋषि जी के साहस, शौर्य का मूल्याङ्कन तो कोई करे।

इनको कुछ नहीं कहा जा सकताः-राजेन्द्र जिज्ञासु

इनको कुछ नहीं कहा जा सकताः

दिल्ली के पड़ोस से श्री विजय आर्य नाम के एक युवक ने हमें ‘आर्य संदेश’ के नवबर 2015 के दूसरे अंक में ‘‘सरदार पटेल’’ पर छपे लेख को पढ़कर सत्यासत्य का निर्णय करने को कहा है। प्रश्नकर्त्ता ने कहा है कि लोकप्रिय पुस्तक ‘श्रुति सौरभ’ में पं. शिवकुमार जी ने सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन की जो प्रेरणाप्रद घटना दी है, इसे तोड़-मरोड़ कर ‘आर्य सन्देश’ के लेखक ने दिया है। क्या यही धर्म प्रचार है? हमारा निवेदन है कि यह ठीक है कि सत्य कथन को, प्रेरक इतिहास को प्रदूषित करना पाप है, परन्तु हम इन लोगों को कुछ नहीं कह सकते। ये नहीं सुधरेंगे। ‘गुरुमुख हार गयो जग जीता’ इनको कौन रोके? उस समय सरदार के पास महावीर त्यागी बैठे थे। यह लेखक एक क्रान्तिकारी को घसीट लाया है। मणिबेन को इस लेखक ने वहीं चरखा चलाने- सूत कातने पर लगा दिया है। पं. शिवकुमार जी को इतिहास का व्यापक ज्ञान था। इन उत्साही लोगों  को तो अपनाएक इतिहास प्रदूषण महामण्डल रजिस्टर्ड करवा लेना चाहिये।

अंधविश्वास पर चुप्पी क्यों?-राजेन्द्र जिज्ञासु

अंधविश्वास पर चुप्पी क्यों?ः-

 

मन्त्रिमण्डल ने 15 सितबर 1948 को हैदराबाद में पुलिस कार्यवाही का निर्णय लिया था। सरदार पटेल ने 13 को सेना को अपना कार्य करने का आदेश दिया। उस समय का अंग्रेज सेनापति 15 को ही सेना भेजने पर अड़ा रहा। जब सरदार अपने निश्चय पर अडिग रहे तो गोरे सेनापति ने हिन्दुओं के अंधविश्वास का मिजाईल चलाकर सरदार का मनोबल गिराने की चाल चली। उसने कहा, ‘‘13 का अंक अशुभ होता है।’’ लौह पुरुष पटेल बोले, ‘‘तुहारे लिए होगा। मेरे लिए नहीं। मैं गुजराती हूँ। गुजरात में 13 का अंक शुभ माना जाता है’’। सेना ने उसी दिन हैदराबाद को चारों ओर से घेरकर अपना कार्य आरभ कर दिया। यह घटना सरदार के रियासती विभाग के सचिव श्री मेनन ने अपने ग्रन्थ में दी है।

अब प्रातः से सायं तक टी.वी. पर कई बाबे, कई तिलकधारी ज्योतिषी, काले कुत्ते व शुभ अंकों वाले अंधविश्वास परोसते रहते हैं। हिन्दू-हिन्दू की रट लगाने वाले नेता, प्रवक्ता, साक्षी महाराज  की बयान मण्डली हिन्दुओं के अंधविश्वासों पर चुप्पी साधे रहते हैं। सब दलों के नेता तन्त्र-मन्त्र में विश्वास करते हैं। ये अंधविश्वास देश को डुबोने वाले हैं।

दयानन्द बावनी और उसके रचयिता महाकवि दुलेराय जी

दयानन्द बावनी और उसके रचयिता महाकवि दुलेराय जी :-

महाकवि दुलेराय काराणी भुज-कच्छ में जन्मे एक जैनी समाज सेवी सज्जन हुए हैं। वे गुजराती तथा हिन्दी के जाने माने कवि थे। आपने गाँधी जी पर गुजराती भाषा में बावनी लिखी। आपने एक आर्यसमाजी मित्र श्री वल्लभदास की सत्प्रेरणा से दयानन्द बावनी नाम से एक उत्तम काव्य रचा, जिसे सोनगढ़ गुरुकुल से प्रकाशित किया गया। गुजरात के प्रसिद्ध आर्यसमाजी सुधारक शिवगुण बापू जी भी भुज-कच्छ में जन्मे थे। अहमदाबाद में महाकवि जी श्री शिवगुण बापू जी से मिलने उनके निवास पर प्रायः आते-जाते थे। दयानन्द बावनी का दूसरा संस्करण पाटीदार पटेल समाज ने छपवाया था। इसका प्राक्कथन कवि ने ही लिखा था। इसके विमोचन के अवसर पर आप घाटकोपर मुबई पधारे।

शिवगुण बापूजी के परिवार की तीन पीढ़ियाँ आज भी इस काव्य को सपरिवार भाव-विभोर होकर जब गाती हैं तो एक समा बँध जाता है। इस वर्ष ऋषि मेला पर शिवगुण बापूजी के पौत्र श्री दिलीप भाई तथा उनकी बहिन नीति बेन ने बावनी सुनाकर सबको मुग्ध कर दिया। इसके प्रकाशन की वड़ी जोरदार माँग उठी। श्री डॉ. राजेन्द्र विद्यालङ्कर ने यह दायित्त्व अपने ऊपर लिया है। अगले वर्ष के ऋषि मेला पर श्री शिवगुण बापू की छोटी पौत्री प्रीति बेन से जब आर्यजन बावनी सुनेंगे तो वृद्ध आर्यों को कुँवर सुखलाल जी की याद आ जायेगी।

महाकवि दुलेराय ने महर्षि के प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि में लिखा हैः-

वैदिक उपदेश वेश, फैलाया देश देश

क्लेश द्वेष को विशेष मार हटाया।

सत्य तत्त्व खोल खोल, अनृत को तोड़ तोड़

तेरे मन्त्रों ने महाशोर मचाया।

धन्य धन्य मात तात, तेरा अवतार

होती है भारत मात आज निहाला।

‘आंध्रभूमि’ के सपादक श्री शास्त्री जीः- इस बार ऋषि मेले से ठीक पहले कुछ दुःखद घटनायें घटीं, इस कारण सभा से जुड़े सब जन कुछ उदास थे, तथापि मेले पर दूर दक्षिण से ‘आंध्रभूमि’ के सपादक श्री म.वी.र. शास्त्री जी तथा युवा विद्वान् पं. रणवीर शास्त्री जी के तेलंगाना से अजमेर पधारने पर सब हर्षित हुए। मान्य शास्त्री जी सपादक ‘आंध्रभूमि’ एक कुशल लेखक हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी पर आपके ग्रन्थ ने धूम मचा दी है। अब आप राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने व नवचेतना के संचार के लिए वीर भगतसिंह पर एक ग्रन्थ लिखने में व्यस्त हैं। आर्य जनता की इच्छा है कि इसका विमोचन अगले ऋषि मेला पर हो।

ऋषि भक्त मथुरादास जीःराजेन्द्र जिज्ञासु

ऋषि भक्त मथुरादास जीः ऋषि के जिन अत्यन्त प्यारे शिष्यों व भक्तों की अवहेलना की गई या जिन्हें बिसार दिया गया, परोपकारी में उन पर थोड़ा-थोड़ा लिखा जायेगा। इससे इतिहास सुरक्षित हो जायेगा। आने वाली पीढ़ियाँ ऊर्जा प्राप्त करेंगी। आर्य अनाथालय फीरोजपुर के संस्थापक और ऋषि जी को फीरोजपुर आमन्त्रित करने वाले ला. मथुरादास एक ऐसे ही नींव के पत्थर थे। उनका फोटो अनाथालय में सन् 1977 तक था। मुझे माँगने पर भी न दिया गया। अब नष्ट हो गया है। आप मूलतः उ.प्र. के थे। आप अमृतसर आर्य समाज के भी प्रधान रहे। मियाँ मीर लाहौर छावनी में भी रहे। आपका दर्शनीय पुस्तकालय कहाँ चला गया? स्वामी सर्वानन्द जी महाराज ने इसे देखा था। आप जैनमत के  अच्छे विद्वान् थे। आप हिन्दी, उर्दू दोनों भाषाओं के कुशल लेखक थे। आपने ऋषि जी की अनुमति के बिना ही ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका का सार छपवा दिया। पंजाब में हिन्दी भाषा के प्रचार व पठन पाठन के लिए पाठ्य पुस्तकें भी तैयार कीं। इनका जैनमत विषयक बहुत-सा साहित्य अप्रकाशित ही रह गया। सेवानिवृत्त होने के बाद अपने पैतृक ग्राम सहारनपुर जनपद में रहने लगे। जिस आर्य अनाथालय की देश भर में धूम रही है, राजे-महाराजे जिसे दान भेजते थे, उसके संस्थापक महाशय मथुरादास का नाम ही आर्य समाज भूल गया। वह आरभिक युग के आर्य समाज के एक निर्माता थे।

इन्होंने ऋषि जी को अन्तिम दिनों एक सौ रुपये का मनीआर्डर भेजा था। महर्षि के अन्तिम हस्ताक्षर इसी मनीआर्डर फार्म के टुकड़े पर हैं। यह मनीआर्डर मथुरादास जी ने भेजा था, स्वामी ईश्वरानन्द जी ने नहीं। डॉ. वेदपाल जी के अथक प्रयास से इस भूल का सुधार हो गया। इसके लिए हम डॉ. वेदपाल जी तथा सभा- दोनों को बधाई देते हैं।

असहिष्णुता का मानवीय रोगःराजेन्द्र जिज्ञासु

इन दिनों भारत में असहिष्णुता के मानवीय महारोग पर बड़ा विवाद हो रहा है। अनादि ईश्वर के अनादि ज्ञान वेद के एक प्रसिद्ध मन्त्र में ईश्वर से बल, तेज, ओज, मन्यु व सहनशीलता आदि सद्गुणों की प्रार्थना की गई है। यह मन्त्र महर्षि दयानन्द ने आर्याभिविनय आदि पुस्तकों में दिया है। इससे स्पष्ट है कि असहनशीलता का महारोग मानव जाति के लिए घातक है। हिन्दू हो, मुसलमान हो या ईसाई, सबको इस मानवीय महारोग के कारण को जानकर इसका निवारण करना चाहिये।

हजरत मुहमद को तीन खलीफा हत्यारों ने मार डाला। मारने वाले काफिर नहीं थे। नमाजी मुसलमानों ने उनकी जान ले ली। क्या यह असहनशीलता नहीं थी? इस इतिहास से मुसलमानों ने क्या सीखा? वीर रामचन्द्र व वीर मेघराज की हत्या करने वाले हिन्दू ही थे। उनका दोष दलितोद्धार था। पं. लेखराम जी का वध करने वाले इस कुकृत्य पर आज भी इतराते हैं। क्या यह असहिष्णुता को बढ़ावा देने वाला कु कृत्य नहीं था? महात्मा गाँधी ने महाशय राजपाल द्वारा प्रकाशित रंगीला रसूल पर विपरीत टिप्पणी करके असहिष्णुता को उत्तेजित किया या नहीं? काशी के राजा काशी शास्त्रार्थ के अध्यक्ष थे, परन्तु सभा विसर्जित राजा ने नहीं की। सभा विसर्जित करने वालों की कृपा से हुल्लड़ मचा। इस असहिष्णुता पर किसने पश्चात्ताप किया? चलो! जनूनी राजनेताओं को इतनी समझ तो आ गई कि असहिष्णुता एक महामारी है। गुरु अर्जुनदेव जी से वीर हकीकतराय व स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज तक सब असहिष्णुता के शिकार हुए।

पण्डित ताराचरण से शास्त्रार्थ: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

महर्षि का पण्डित ताराचरण से जो शास्त्रार्थ हुआ था, उसकी

चर्चा प्रायः सब जीवन-चरित्रों में थोड़ी-बहुत मिलती है। श्रीयुत

दज़जी भी इसके एक प्रत्यक्षदर्शी थे, अतः यहाँ हम उनके इस

शास्त्रार्थ विषयक विचार पाठकों के लाभ के लिए देते हैं। इस

शास्त्रार्थ का महज़्व इस दृष्टि से विशेष है कि पण्डित श्री ताराचरणजी

काशी के महाराज श्री ईश्वरीनारायणसिंह के विशेष राजपण्डित थे।

पण्डितजी ने भी काशी के 1869 के शास्त्रार्थ में भाग लिया था।

विषय इस शास्त्रार्थ का भी वही था अर्थात् ‘प्रतिमा-पूजन’।

पण्डित ताराचरण अकेले ही तो नहीं थे। साथ भाटपाड़ा (भट्ट

पल्ली) की पण्डित मण्डली भी थी। महर्षि यहाँ भी अकेले ही

थे, जैसे काशी में थे। श्रीदज़ लिखते हैं, ‘‘शास्त्रार्थ बराबर का न

था, कारण ताराचरण तर्करत्न में न तो ऋषि दयानन्द-जैसी

योग्यता तथा विद्वज़ा थी और न ही महर्षि दयानन्द-जैसा वाणी

का बल था। इस शास्त्रार्थ में बाबू भूदेवजी, बाबू श्री अक्षयचन्द

सरकार तथा पादरी लालबिहारी दे सरीखे प्रतिष्ठित महानुभाव उपस्थित

थे।’’