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हत्यारा मनुष्य था फ़रिश्ता नहीं :- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

हत्यारा मनुष्य था फ़रिश्ता नहीं :- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

१. मिर्ज़ा तथा मिर्जाई  पण्डित जी के हत्यारे को खुदा का भेजा फ़रिश्ता बताते व लिखते  चले आ रहे हैं .
कितना भी झूठ गढ़ते  जाओ , सच्चाई सौ पर्दे फाड़ कर बाहर  आ जाती है . मिर्जा  ने स्वयं  स्वीकार किया है . वह उसे एक शख्स ( मनुष्य ) लिखता है . उसने पण्डित लेखराम के पेट में तीखी छुरी मारी . छुरी मार कर वह मनुष्य लुप्त हो गया  पकड़ा नहीं गया

२. वह हत्यारा मनुष्य बहुत समय पण्डित लेखराम के साथ रहा . यहाँ बार बार उसे मनुष्य लिखा गया है . फ़रिश्ता नहीं . झूठ की पोल अपने आप खुल गयी
– दृष्टव्य – तजकरा पृष्ठ – २३९ प्रथम संस्करण

हत्यारा मनुष्य ही था :- मिर्जा पुनः लिखता है ” मैं उस मकान की ओर चला जा रहा हूँ . मेने एक व्यक्ति को आते हुए देखा जो कि एक सिख सरीखा प्रतीत होता था ” कुछ ऐसा दिखाई देता था जिस प्रकार मेने लेखराम के समय एक मनुष्य को स्वप्न में देखता था .
– दृष्टव्य – तजकरा पृष्ठ – ४४०  प्रथम संस्करण

यहाँ  फ़रिश्ते को सिख, अकालिया, सरीखा आदि तथा डरावना बताकर सीखो को तिरस्कृत किया साथ ही वह भी बता दिया की कादियानी अल्लाह के फ़रिश्ते शांति दूत नहीं क्रूर डरावने व हत्यारे  होते हैं . झूठ की फिर पोल खुल गयी .

अल्लाह का फ़ारसी पद्य पढ़िए :-

मिर्जा ने अपने एक लम्बी फ़ारसी कविता में पण्डित जी को हत्या की धमकी दते हुए अल्लाह मियां रचित निम्न पद्य दिया है :-

अला अय दुश्मने नादानों बेराह

बतरस अज तेगे बुर्राने मुहम्मद

– दृष्टव्य – हकीकत उल वही  पृष्ठ – २८८   तृतीय  संस्करण

अर्थात अय मुर्ख भटके हुए शत्रु तू मुहम्मद की तेज काटने वाले तलवार से डर

प्रबुद्ध, सत्यान्वेषी और निष्पक्ष पाठक ध्यान दें की अल्लाह ने तलवार से काटने की धमकी दी थी परन्तु मिर्जा ने स्वयं स्वीकार किया है की पण्डित लेखराम जी की हत्या तीखी छुरी से की गयी . मिर्ज़ा झूठा नहीं सच्चा होगा परन्तु मिर्ज़ा का कादियानी अलाल्ह जनाब मिर्ज़ा की साक्षी से झूठा सिद्ध हो गया . इसमें हमारा क्या दोष

न छुरी , न तलवार प्रत्युत नेजा ( भाला )

मिर्ज़ा लिखता है ” एक बार मेने इसी लेखराम के बारे में देखा कि एक नेजा ( भाला ) हा ई . उसका फल बड़ा चमकता है और लेखराम का सर पड़ा हुआ है उसे नेजे से पिरो दिया है और खा है की फिर यह कादियां में न आवेगा . उन दिनों लेखराम कादियां में था और उसकी हत्या से एक मॉस पहले की घटना है

 

– दृष्टव्य – तजकरा पृष्ठ – २८७   प्रथम संस्करण

 

यह इलहाम एक शुद्ध झूठ सिद्ध हुआ . पण्डित लेखराम जी का सर कभी भाले पर पिरोया गया हो इसकी पुष्टि आज तक किसी ने नहीं की .मिर्ज़ा ने स्वयं पण्डित जी के देह त्याग के समय का उनका चित्र छापा है मिर्जा के उपरोक्त कथन की पोल वह चित्र तथा मिर्जाई लेखकों के सैकड़ों लेख खोल रहे हैं

अपने बलिदान से पूर्व पण्डित जी ने कादियां पर तीसरी बार चढाई की मिर्ज़ा को  पण्डित जी का सामना करने की हिम्मत न हो सकी . मिर्जा को सपने में भी पण्डित लेखराम का भय सततता था उनकी मन स्तिथि का ज्वलंत प्रमाण उनका यह इलहामी कथन है :

झूठ ही झूठ :- मिर्जा का यह कथन भी तो एक शुध्ध झूठ है की पण्डित जी अपनी हत्या से एक मॉस पूर्व कादियां पधारे थे . यह घटना जनवरी की मास  की है जब पण्डित जी भागोवाल आये थे . स्वामी श्रद्धानन्द  जी ने तथा  इस विनीत ने अपने ग्रंथो में भागोवाल की घटना दी है . न जाने झूठ बोलने में मिर्जा को क्या स्वाद आता है .

तत्कालीन पत्रों में भी यही प्रमाणित होता है की पूज्य पण्डित जी १७-१८ जनवरी को भागोवाल पधारे सो कादियां `१९-२० जनवरी को आये होंगे . उनका बलिदान ६ मार्च को हुआ . विचारशील पाठक आप निर्णय कर लें की यह डेढ़ मास  पहले की घटना है अथवा एक मास पहले की . अल्पज्ञ जेव तो विस्मृति का शिकार हो सकता है . क्या सर्वज्ञ अल्लाह को भी विस्मृति रोग सताता है ?

अल्लाह का डाकिया कादियानी  नबी :-

मिर्जा ने मौलवियों का, पादरियों का , सिखों का , हिन्दुओं का सबका अपमान किया . सबके लिए अपशब्दों का प्रयोग किया तभी तो “खालसा ” अखबार के सम्पादक सरदार राजेन्द्र सिंह जी ने मिर्जा की पुस्तक को ” गलियों की लुगात ” ( अपशब्दों का शब्दकोष ) लिखा है . दुःख तो इस बात का है की मिर्ज़ा बात बार पर अल्लाह का निरादर व अवमूल्यन करने से नहीं चूका . मिर्जा ने लिखा है मेने एक डरावने व्यक्ति को देखा . इसको भी फ़रिश्ता ही बताया है – ” उसने मुझसे पूछा कि लेखराम कहाँ है ? और एक और व्यक्ति का नाम लिया की वह कहा है ?

– दृष्टव्य – तजकरा पृष्ठ – २२५   प्रथम संस्करण

पाठकवृन्द ! क्या  यह सर्वज्ञ अल्लाह का घोर अपमान नहीं की वह कादियां फ़रिश्ते को भेजकर अपने पोस्टमैन मिर्ज़ा गुलाम अहमद से पण्डित लेखराम तथा एक दूसरे व्यक्ति ( स्वामी श्रद्धानन्द ) का अता पता पूछता है . खुदा के पास फरिश्तों की क्या कमी पड़  गयी है ? खुदा तो मिर्ज़ा पर पूरा पूरा निर्भर हो गया . उसकी सर्वज्ञता पर मिर्जा ने प्रश्न चिन्ह लगा दिया .

एक और झूठ गढ़ा गया : – ऐसा लगता है कि कादियां में नबी ने झूठ गढ़ने की फैक्ट्री लगा दी . यह फैक्ट्री ने झूठ गढ़ गढ़ कर सप्लाई करती थी पाठक पीछे नबी के भिन्न भिन्न प्रमाणों से यह पढ़ चुके हैं कि पण्डित जी की हत्या :
१. छुरी से की गयी

२. हत्या तलवार से की गए

३. हाथ भाले से की गयी

नबी के पुत्र और दूसरे खलीफा बशीर महमूद यह लिखते हैं :-

४. घातक ने पण्डित जी पर खंजर से वर किया
देखिये – “दावतुल अमीर ” लेखक मिर्जा महमूद पृष्ठ – २२०

अब पाठक इन चरों कथनों के मिलान कर देख लें की इनमें सच कितना है और झूठ कितना . म्यू हस्पताल के सर्जन डॉ. पेरी को प्रमाण मानते ही प्रत्येक बुद्धिमानi यह कहेगा कि बाप बेटे के कथनों में ७५ % झूठ है .

 

माता भगवती का इतिहास में स्थानः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

माता भगवती का इतिहास में स्थानः

किसी ने यह रिसर्च आर्यसमाज पर थोप दी कि ‘‘होशियारपुर की लड़की भगवती……’’। पता लगने पर प्रश्नकर्त्ता का उत्तर देते हुए इस विनीत ने परोपकारी में लिखा कि माता भगवती लड़की नहीं, बड़ी आयु की थी। उसे सब माई भगवती या माता भगवती कहा व लिखा करते थे। मेरा लेख छपते ही मेरे कृपालु नई-नई रिसर्च व नये-नये प्रश्नों के साथ इस सेवक व परोपकारी को लताड़ने लग गये। कुछ पत्रों के कृपालु सपादकों ने मेरा उपहास-सा उड़ाने वाले लेख छापे। मैं ऐसे पत्रों का आभारी हूँ। सपादकों को धन्यवाद!

पूज्य पं. हीरानन्द जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, नारी शिक्षण के एक जनक दीवान बद्रीदास जी, भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनी जी, महाशय चिरञ्जीलाल जी प्रेम के मुख से माता भगवती के बारे में जो कुछ सुना, वही तथ्य रखे। दीवान जी, मेहता जी व महाशय जी माता भगवती के क्षेत्र के प्रमुख आर्य कर्णधार रहे। मैंने हरियाणा के समीप जालंधर में शिक्षा पाई। जहाँ इतिहास के बारे कोई समस्या हो, कुछ पूछना हो तो देश भर से नित्य पाँच-सात प्रश्न मुझसे पूछे जाते हैं। बड़े खेद की बात है कि हठ व दुराग्रह से अकारण मेरे प्रत्येक कथन को जिहादी जोश से चुनौती दी गई। चलो! इनका धन्यवाद! ‘इतिहास प्रदूषण’ पुस्तक में यदि प्रदूषण के सप्रमाण दिये गये तथ्यों को कोई झुठला पाता तो मैं मान लेता।

विषय से हटकर वितण्डा किया जा रहा है। माता भगवती लड़की नहीं थी। बड़ी आयु की बाल विधवा थी। विषय तो यह था। एक भद्रपुरुष ने बाल विधवा होने को विवाद का मुद्दा बना लिया। संक्षेप से कुछ जानकारी मूल स्रोतों के प्रमाण से देता हूँ। उन स्रोतों को इस टोली ने देखा, न पढ़ा और न इनकी वहाँ पहुँच है-

  1. माता भगवती का चित्र मैं दिखा सकता हूँ। वह एक बड़ी आयु की देवी स्पष्ट दिख रही है। लड़की नहीं।
  2. वह तब 38-39 वर्ष की थी, जब उसने ऋषि-दर्शन किये। तब 38 वर्ष की स्त्रियाँ दादी बन जाती थीं। श्री इन्द्रजीत जी ने अपने लेख में माई जी के जन्म का वर्ष दे दिया है।
  3. मेरे पास माई जी के निधन के समय लिखा गया महात्मा मुंशीराम जी का लेख है। इससे बड़ा क्या प्रमाण किसी के पास है?
  4. महात्मा जी ने पत्र-व्यवहार में माई जी के लिए ‘श्रीमती’ शब्द का प्रयोग किया है। पुराने पत्रों के समाचारों में कई बार उसके लिए श्रीमती शब्द का प्रयोग हुआ है। जो भी चाहे मेरे पास आकर देख ले।
  5. माई जी के निधन पर पंजाब सभा ने ‘माई भगवती विधवा सहायक निधि’ की स्थापना की। देश भर के आर्यों ने उसमें आहुति दी। इससे बड़ा उसके बाल विधवा होने का क्या प्रमाण हो सकता है। उसके पीहर की, भाई की, माता की, जन्म की, कुल की, चर्चा की जाती है, पर उसकी सन्तान की, सास, ससुर व पति की, ससुराल के नगर, ग्राम की कोई चर्चा? ‘श्रीमती’ शब्द के प्रयोग को कोई झुठला कर दिखाये? ‘माता’ शब्द का प्रयोग भाई जी के प्राप्त एकमेव साक्षात्कार की दूसरी पंक्ति में स्पष्ट मिलता है। यहाी इन्हें नहीं दिखाई देता। ‘लड़की’ मानने की रिसर्च तो छूटी, अब बाल विधवा नहीं थी, इस रट पर इनका महामण्डल आगे क्या कहता है, पता नहीं।
  6. महात्मा मुंशीराम जी के सपादकीय (श्रद्धाञ्जलि) के प्रथम पैरा में लिखा है कि माई जी ने अपने पीहर में-माता-पिता के घर हरियाणा में प्राण त्यागे। बाल विधवा नहीं थी, तो पतिकुल में अन्तिम श्वास क्यों न लिया? माता भगवती के भाई राय चूनीलाल की चर्चा तो पत्रों में मिलती है, पर पति कुल की कोई चर्चा नहीं। अब पाठक माई जी पर लिखित मेरी पुस्तिका (उनके जीवन चरित्र) की प्रतीक्षा करें। मुझे और कुछ नहीं कहना। फिर निवेदन करता हूँ कि माई जी के जीवन काल में मेहता जैमिनि, दीवान बद्रीदास जी, ला. सलामतराय की दो आबा, पंजाब में घर-घर में धूम मची रहती थी। मैंने इन सबके जी भरकर दर्शन किये। मेरे अतिरिक्त और कोई पंजाब में इनको जानने वाला नहीं। पं. ओम्प्रकाश जी वर्मा ने भी इन सबको निकट से देखा।

अवतारवाद पर उपाध्यायजी का मौलिक तर्कः

अवतारवाद पर उपाध्यायजी का मौलिक तर्कः

परोपकारी में मान्य सत्यजित् जी तथा श्रीमान् सोमदेव जी समय-समय पर शंका समाधान करते हुए बहुत पठनीय प्रमाण व ठोस युक्तियाँ देते रहे हैं। मान्य श्री सोमदेव जी तथा अन्य वैदिक विद्वानों से निवेदन किया था कि भविष्य में अपने पुराने पूजनीय विचारकों, दार्शनिकों का नाम ले लेकर उनके मौलिक चिन्तन व अनूठे तर्कों का आर्य जनता को लाभ पहुँचायें। इससे अपने पूर्वजों से नई पीढ़ियों को प्रबल प्रेरणा प्राप्त होगी। आज अवतारवाद विषयक पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय का एक सरल परन्तु अनूठा तर्क दिया जाता है।

किसी वस्तु में जब परिवर्तन होता है, तो वह पहले से या तो उन्नत होती है, बढ़िया बन जाती है और या फिर उसमें ह्रास होता है। वह पहले से घटिया हो जाती है। इसके नित्य प्रति हमें नये-नये उदाहरण मिलते हैं। शिशु से बालक, बालक से जवान और जवानी से बुढ़ापा-सब इस नियम के उदाहरण हैं। घर का सामान टूटता-फूटता है, मरमत होती है, तो दोनों प्रकार के उदाहरण मिल जाते हैं।

परमात्मा जब अवतार लेता है, तो अवतार धारण करके वह प्रभु पहले से बढ़िया बन जाता है, अथवा कुछ बिगड़ जाता है। दोनों स्थितियाँ तो हो नहीं सकतीं। पहले की स्थिति रह नहीं सकती। कुछ भी हो, प्रत्येक स्थिति में वह प्रभु पूर्ण परमानन्द तो नहीं कहा जा सकता। प्रभु अखण्ड एक रस तो न रहा। यह तर्क इस लेखक ने आज से 61 वर्ष पूर्व पढ़ा था। कभी कोई अवतारवादी इसके सामने नहीं टिक पाया।

कोई 45 वर्ष पूर्व केरल के कोचीन नगर में इस सेवक को व्यायान देना था। केरल के स्वामी दर्शनानन्द जी तब युवा अवस्था में थे। वह श्रोता के रूप में व्यायान सुन रहे थे। अवतारवाद को लेकर तब एक तर्क यह दिया कि राम, कृष्ण आदि सभी अवतार भारत में ही आये हैं। जर्मनी, इरान, जापान, मिस्र, सीरिया व अरब आदि देशों में आज तक कोई अवतार नहीं आया। जब-जब धर्म की हानि होती है और पाप बढ़ता है, भगवान् अवतार लेते हैं। अवतारवाद के इतिहास से तो यह प्रमाणित होता है कि भारत ऋषि भूमि-पुण्य भूमि न होकर पाप भूमि है। क्या यह कोई गौरव की बात है? जापान पर दो परमाणु बम गिराये गये। लाखों जन क्षण भर में मर गये। भगवान् ने वहाँ अवतार लिया क्या? भारत का विभाजन हुआ। लाखों जन मारे गये। कोई अवतार प्रकट हुआ? यह तर्क  सुनकर पीछे बैठे स्वामी श्री दर्शनानन्द जी फड़क उठे। वह दृश्य आज भी आँखों के सामने आ जाता है।

चाँदापुर के शास्त्रार्थ विषयक प्रश्नः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

चाँदापुर के शास्त्रार्थ विषयक प्रश्नः

उ.प्र. के दो तीन आर्य युवकों ने गत दिनों चलभाष पर चाँदापुर शास्त्रार्थ विषय में कुछ अच्छे प्रश्न पूछे। वे ऋषि मेले पर न पहुँच सके। आ जाते तो उनको नई-नई ठोस जानकारी दी जाती। राहुल जी  ने भारत सरकार के रिकार्ड से एक अभिलेख खोज कर दिया है। इसमें चाँदापुर शास्त्रार्थ में महर्षि के विशेष योगदान की चर्चा है। वहाँ गोरे, काले पादरी व कई मौलवी पहुँचे। इस्लाम का पक्ष देवबन्द के प्रमुख मौलाना मुहमद कासिम ने रखा। पादरी टी.जे. स्काट भी बोले। राजकीय रिकार्ड में केवल ऋषि जी के नाम का उल्लेख है। यह अपने आपमें एक घटना है। आर्य समाज स्थापित हुए अभी दो वर्ष भी नहीं हुए थे कि ऋषि के व्यक्तित्व का लोहा गोराशाही ने माना।

चाँदापुर शास्त्रार्थ के सबन्ध में हमने तत्कालीन नये-नये स्रोत खोज कर इस पर नया प्रकाश डाला है। राधा स्वामी मत के तीसरे गुरु हुजूरजी महाराज की पुस्तक में इस विषय में बहुत महत्त्वपूर्ण नये व ठोस तथ्य हमें मिले हैं। वह उस युग के जाने माने लेखक थे। ‘आर्य दर्पण’ का वह अंक भी हमारे पास है, जिसमें यह शास्त्रार्थ छपा था।

शास्त्रार्थ हुआ ही क्यों?

चाँदापुर में मेला पहले भी हुआ करता था। सन् 1877 का मेला कोई पहली बार नहीं हुआ था। पादरी व मौलवी मेले पर आकर अपने-अपने मत का प्रचार किया करते थे। गये वर्ष के मेले में यह प्रसिद्ध हो गया कि मौलवी जीत गये और कबीर पंथी हार गये। मुंशी इन्द्रमणि जी व ऋषि जी को मुंशी मुक्ताप्रसाद व मुंशी प्यारेलाल ने बचाव के लिए ही तो बुलवाया था। यह बात स्पष्ट रूप से राधास्वामी गुरुजी ने लिखी है। एक लेखक ने लिखा है कि इन दो बन्धुओं का झुकाव कबीरपंथ की ओर था। यह कोरी कल्पना है। वे तो कुल परपरा से ही कबीर पंथी थे अतः यह हदीस गढ़न्त है। हरबिलास जी आदि का यह कथन सत्य है कि मुक्ताप्रसाद जी का झुकाव ऋषि की शिक्षा की ओर था। मेले के बाद दोनों बन्धु आर्य समाज से जुड़ते गये। इसके पुष्ट प्रमाण परोपकारिणी सभा तथा श्री अनिल आर्य जी,महेन्द्रगढ़ को सौंप दिये हैं।

सब बड़े-बड़े लेखकों ने (लक्ष्मणजी के ग्रन्थ में भी) यह लिखा है कि मौलवी व पादरी चाँदापुर पहुँचे। फिर कुछ लोगों ने ऋषि जी से कहा कि हिन्दू मुसलमान मिलकर ईसाइयों से शास्त्रार्थ करके इन्हें पराजित करें। प्रश्न यह भी पूछा गया है कि ये कुछ लोग कौन थे? हमारा स्पष्ट उत्तर है कि ऐसा मुसलमानों ने कहीं कहा था। पूछा गया है कि इसका प्रमाण क्या है? हमारा उत्तर है- बस तथ्य सुस्पष्ट हैं और प्रमाण क्या चाहिये? ईसाइयों को तो पराजित करने के लिए मिलकर शास्त्रार्थ करने को कहा गया था सो ये लोग ईसाई हो नहीं सकते थे। हिन्दुओं को विशेष रूप से कबीर पंथियों को मुसलमान बनाने के लिए मौलवी जोर मार रहे थे। चिढ़ा भी रहे थे। मुसलमानों से रक्षा के लिए हिन्दुओं ने ऋषि जी को बुलवाया था, सो हिन्दू अब मुसलमानों से मिलकर ईसाइयों को क्यों पछाड़ने की बात कहेंगे। बड़ा खतरा तो मुसलमान थे।

श्री शिवव्रतलाल (हजूरजी महाराज) के वृत्तान्त से और प्रसंग से पहले मौलवियों व पादरियों के आगमन की सबने चर्चा की है। इससे स्पष्ट है कि ‘‘ये कुछ लोग’’ मुसलमान ही थे। बिना प्रमाण के हमने कुछ नहीं लिखा है। दुर्भाग्य से भ्रमित करने वालों की हजूरजी महाराज की पुस्तक तक पहुँच नहीं है। हजूरजी मूलतः कबीरपंथी ही तो थे, सो वह सब कुछ जानते थे। थे भी उ.प्र. के। पूजनीय स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी आदि के उपदेश, आदेश सुनकर सप्रमाण लिखना मेरा स्वभाव बन चुका है। पक्षपात के रोग से ग्रस्त होकर बड़े जोर से मेरे लेख पर आपत्ति की गई कि मौलवियों या मुसलमानों ने ऋषि जी से कहाँ कहा था कि हिन्दू मुसलमान मिलकर ईसाइयों से शास्त्रार्थ करें? इस सोच के व्यक्ति क्या जानें कि श्री पंडित लेखराम जी ने अपने एक प्रसिद्ध ग्रन्थ में यही बात लिखी है। किसी की पहुँच हो तो पढ़ ले।

 

माई भगवती जीः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

माई भगवती जीः ऋषि के पत्र-व्यवहार में माई भगवती जी का भी उल्लेख है। ऋषि मिशन के प्रति उनकी सेवाओं व उनके जीवन के बारे में अब पंजाब में ही कोई कुछ नहीं जानता, शेष देश का क्या कहें? पूज्य मीमांसक जी की पादटिप्पणी की चर्चा तक ही हम सीमित रह गये हैं। पंजाब में विवाह के अवसर पर वर को कन्या पक्ष की कन्यायें स्वागत के समय सिठनियाँ (गन्दी-गन्दी गालियाँ) दिया करती थीं। वर भी आगे तुकबन्दी में वैसा ही उत्तर दिया करता था। आर्य समाज ने यह कुरीति दूर कर दी। इसका श्रेय माता भगवती जी की रचनाओं को भी प्राप्त है। मैंने माताजी के ऐसे गीतों का दुर्लभ संग्रह श्री प्रभाकर जी को सुरक्षित करने के लिये भेंट किया था।

मैं नये सिरे से महर्षि से भेंट की घटना से लेकर माताजी के निधन तक के अंकों को देखकर फिर विस्तार से लिखूँगा। जिन्होंने माई जी को ‘लड़की’ समझ रखा है, वे मीमांसक जी की एक टिप्पणी पढ़कर मेरे लेख पर कुछ लिखने से बचें तो ठीक है। कुछ जानते हैं तो प्रश्न पूछ लें। पहली बात यह जानिये कि माई भगवती लड़की नहीं थी। ‘प्रकाश’ में प्रकाशित उनके साक्षात्कार की दूसरी पंक्ति में साक्षात्कार लेने वालों ने उन्हें ‘माता’ लिखा है। आवश्यकता पड़ी तो नई सामग्री के साथ साक्षात्कार फिर से स्कैन करवाकर दे दूँगा। श्रीमती व माता शदों के प्रयोग से सिद्ध है कि उनका कभी विवाह अवश्य हुआ था।

महात्मा मुंशीराम जी ने उनके नाम के साथ ‘श्रीमती’ शद का प्रयोग किया है। इस समय मेरे सामने माई जी विषयक एक लोकप्रिय पत्र के दस अंकों में छपे समाचार हैं। इनमें किसी में उन्हें ‘लड़की’ नहीं लिखा। क्या जानकारी मिली है- यह क्रमशः बतायेंगे। ऋषि के बलिदान पर लाहौर की ऐतिहासिक सभा में (जिसमें ला. हंसराज ने डी.ए.वी.स्कूल के लिए सेवायें अर्पित कीं) माई जी का भी भाषण हुआ था। बाद में माई जी लाहौर, अमृतसर की समाजों से उदास निराश हो गईं। उनका रोष यह था कि डी.ए.वी. के लिए दान माँगने की लहर चली तो इन नगरों के आर्यों ने स्त्री शिक्षा से हाथाींच लिया। माता भगवती 15 विधवा देवियों को पढ़ा लिखाकर उपदेशिका बनाना चाहती थी, परन्तु पूरा सहयोग न मिलने से कुछ न हो सका।

माई जी ने जालंधर, लाहौर, गुजराँवाला, गुजरात, रावलपिण्डी से लेकर पेशावर तक अपने प्रचार की धूम मचा दी थी। आर्य जन उनको श्रद्धा से सुनते थे। उनके भाई श्री राय चूनीलाल का उन्हें सदा सहयोग रहा। ‘राय चूनीलाल’ लिखने पर किसी को चौंकना नहीं चाहिये। जो कुछ लिखा गया है, सब प्रामाणिक है। माई जी संन्यासिन नहीं थीं। उनके चित्र को देखकर यहा्रम दूर हो सकता है। वह हरियाना ग्राम की थीं, न कि होशियारपुर की। पंजाबी हिन्दी में उनके गीत तब सारे पंजाब में गाये जाते थे। सामाजिक कुरीतियों के निवारण में माई जी के गीतों का बड़ा योगदान माना जायेगा। मैंने ऋषि पर पत्थर मारने वाले पं. हीरानन्द जी के  मुख से भी माई जी के गीत सुने थे। उनके जन्म ग्राम, उनकी माता, उनके भाई की चर्चा पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती है, परन्तु पति व पतिकुल के बारे में कुछ नहीं मिलता। हमने उन्हीं के क्षेत्र के स्त्री शिक्षा के एक जनक दीवान बद्रीदास जी, महाशय चिरञ्जीलाल जी आदि से यही सुना था कि वे बाल विधवा थीं।

श्री रंगपा मंगीशः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री रंगपा मंगीशः

ऋषि के प्रति आकर्षित होकर वेद के लिए समर्पित होने वाले उनके सच्चे पक्के भक्तों में रंगपा मंगीश की आर्य समाज में कभी भी कहीं भी चर्चा नहीं सुनी गई। वे दक्षिण भारत के प्रथम आर्य समाजी थे। यह भ्रामक विचार है कि धारूर महाराष्ट्र का आर्य समाज दक्षिण भारत का पहला आर्य समाज है। कर्नाटक आर्य समाज का इतिहास लिखते समय और फिर लक्ष्मण जी के ग्र्रन्थ पर कार्य करते हुए तत्कालीन कई पुष्ट प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा चुका है कि मंजेश्वर ग्राम मंगलूर कर्नाटक के श्री रंगपा मंगीश दक्षिण भारत के पहले आर्य समाजी युवक थे। उनका दान परोपकारिणी सभा तक भी पहुँचता रहा। ऋषि दर्शन करके, उनके व्यायान सुनकर और संवाद करके वह युवक दृढ़ वैदिक धर्मी बना था। भारत सुदशा प्रवर्त्तक में उनकी मृत्यु का विस्तृत समाचार सन् 1892 के एक अंक में हमने पढ़ा है। अभी कुछ दिन पूर्व ऋषि के पत्रों पर कार्य करते समय भी उनकी चर्चा पढ़ी, पर वह नोट न की गई। वेद भाष्य के अंकों में ग्राहकों में भी इनका नाम मिलेगा। आर्य समाज के इतिहास लेखकों ने तो कहीं मंगलूर के इस समाज की कतई चर्चा नहीं की।

आर्य समाज के वह निर्भीक निर्माताः-राजेन्द्र जिज्ञासु

आर्य समाज के वह निर्भीक निर्माताः

इतिहास लेखक कोई भी हो, उससे कोई-न-कोई महत्त्वपूर्ण घटना छूट जाती है। उसके पीछे आने वाले इतिहास गवेषकों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे ऐसी छूट गई महत्त्वपूर्ण सामग्री को प्रकाश में लायें। आर्य समाज में भी ऐसे कई गुणी, ज्ञानी, इतिहास प्रेमी हुए हैं, जिन्होंने समय-समय पर इतिहास के लुप्त गुप्त स्वर्णिम पृष्ठों का अनावरण करके अच्छा यश पाया, परन्तु आर्य समाज में इतिहास की स्वर्णिम, प्रेरक, गौरवपूर्ण सामग्री को छिपाने, लुकाने व हटाने (हटावट) का भी सुनियोजित प्रयास हुआ है। लोग मिलावट पर तो अश्रुपात करते हैं, स्वामी वेदानन्द जी महाराज को हमने मिलावट, बनावट के साथ हटावट पर भी अश्रुपात करते देखा था।

लाला लाजपतराय से हमारा कोई सबन्ध नहीं, यह आश्वासन देने एक टोली पंजाब के गवर्नर को कालका में मिली। महात्मा हंसराज जी इस शिष्ट मण्डल के मुखिया थे। बहुत लोग इसे जानते थे, परन्तु इस पर परदा डाला गया। वैद्य गुरुदत्त जी ने पर्दा उठाया तो एतद्विषयक नई-नई जानकारी हमें मिलती गई। स्वामी दर्शनानन्द राजनीति से कोसों दूर थे। हमें इसी सबन्ध में उनकी निडरता का प्रमाण हाथ लगा। जब लाला जी के सब साथी उन्हें छोड़ गये, तो आपने निर्भय होकर अपने साप्ताहिक ‘महाविद्यालय समाचार’ में श्री महाशय कृष्ण जी का संक्षिप्त लेख ‘ख़िताब और इताब’ अर्थात् समान व यातना छापकर लाला लाजपतराय के निष्कासन के समय उनको महिमा मण्डित करके अपनी प्रखर देशभक्ति व आर्यत्व का परिचय दिया। यह अंक हमारे पास है।

अभी लालाजी और आर्यसमाज सरकार के निशाने पर ही थे, दमन व दलन का चक्कर चल ही रहा था कि स्वामी दर्शनानन्द जी ने अपने ‘आर्य सिद्धान्त’ मासिक में लालाजी को खुलकर ‘‘पंजाब केसरी लोकमान्य लाला लाजपतराय’’ लिखकर उनके द्वारा दीन-दरिद्र, अनाथ-असहायजनों की सेवा व रक्षा के कार्यों की खुलकर भूरि-भूरि प्रशंसा की। हमने भी आर्य समाज के सात खण्डों के इतिहास पर बहुत थोड़ी, फिर भी एक विहंगम दृष्टि तो डाली, परन्तु हमें यह प्रसंग कहीं दिखाई न दिया और न ही मैक्समूलर रौमाँ-रोलाँ तथा  जवाहरलाल नेहरू की इतिहासज्ञता की माला फेरने वालों से महान साधु दर्शनानन्द की इस रूप की कुछ चर्चा सुनने को मिली। उलटा प्रतापसिंह की राजभक्ति के किस्से सुनाने लगे। जातियों, संस्थाओं व जन साधारण को उबारने में समय लगता है। रात-रात में ठाकुर रोशनसिंह व पं. नरेन्द्र का निर्माण नहीं हो सकता। भावना तो आर्यों की आरभ से ही यही रही। यही आर्य समाज की तान थी –

दयानन्द देश हितकारी। तेरी हिमत पै बलिहारी।।

बुद्धिमानों के लिए संकेत ही पर्याप्त है।

उत्तर प्रदेश के आर्यों का शौर्यः लाला लाजपतराय जी के निष्कासन के समय महात्मा मुंशीराम जब मैदान में उतर कर दहाड़ने लगे, तब पंजाब का सारा महात्मा दल लोहे की दीवार बनकर महात्मा जी के पीछे खड़ा था- ऐसा प्रसिद्ध क्रान्तिकारी आनन्दकिशोर जी मेहता ने अपनी पुस्तक में लिखा है। मेहता आनन्दकिशोर जी भी तब सताये जा रहे राष्ट्रभक्तों में से एक थे। मैंने इस इतिहास पर लिखते हुए उस समय के उत्तरप्रदेश के एक आर्यसमाजी को भी लाला जी के पक्ष में महात्मा मुंशीराम की आवाज में आवाज मिलाते दिखाया था।

एक लबे समय तक मैं ऐसे लेखों व प्रमाणों की खोज में रहा जिससे यह सिद्ध हो कि तब आर्य समाज के संन्यासी, विद्वान्, भजनोपदेशक, गृहस्थी, आबालवृद्ध सब महात्मा मुंशीराम जी के पीछे खड़े थे। बड़े लबे समय की प्रतीक्षा करने के पश्चात् एक ऐसा लबा लेख मिला है। प्रिय राहुल जी ने ‘आर्य समाचार’ मासिक का उस युग का एक सपादकीय मुझे उपलध करवा दिया है। इस लबे लेख की रंगत वही है, जो उन दिनों पूज्य महात्मा मुंशीराम जी के लेखों व व्यायानों की होती थी। मैंने इस फाईल की खोज में मेरठ, मुरादाबाद, प्रयाग व आगरा आदि कई नगरों की बार-बार यात्रायें कीं। पं. लेखराम वैदिक मिशन के सब आर्यवीरों का परोपकारिणी सभा, परोपकारी परिवार व सपूर्ण आर्य जगत् की ओर इस अविस्मरणीय सेवा के लिए कोटिशः धन्यवाद!

Stalwart of arya samaj

आलाराम स्वामी की पीड़ाः-राजेन्द्र जिज्ञासु

आलाराम स्वामी की पीड़ाः

स्वामी आलाराम नाम के एक बाबा जी ने उन्नीसवीं शताब्दी  के अन्तिम वर्षों में आर्य समाज में प्रवेश किया। वे किस प्रयोजन से आर्य समाज में आये- यह जानने का किसी ने तब यत्न नहीं किया। बाबा ने घूम-घूम कर आर्य समाज का अच्छा प्रचार किया। बोलने की कला में उन्हें सिद्धि प्राप्त थी, पर कुछ ही वर्षों में आर्य समाज के घोर विरोधी के रूप में सनातन धर्म के बहुत बड़े नेता व विचारक बन गये। ऋषि दयानन्द और आर्य समाज को कोसने से लीडर बनना व धन कमाना बड़ा अचूक नुस्खा आपके भी काम आया।

आप ही ने प्रयाग में सत्यार्थप्रकाश पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए एक प्रसिद्ध केस करके अपनी राजभक्ति की धूम मचा दी। सत्यार्थप्रकाश राजद्रोह फैलाने वाला ग्रन्थ है, इसलिए आप इसे जत करने पर तुल गये, परन्तु हाथ कुछ भी न लगा।

आर्य समाज में रहते हुए एक बार मेरे जन्म स्थान के समीप जफरवाल कस्बा में बाबा आलाराम ने आर्य समाज के प्रचार की धूम मचा दी। वे हास्यरस में बोलते हुए एक लावणी बहुत सुनाया करते थेः- ‘धौल दाहढ़े मरें पुत्र आरज बन जायेंगे।’ अर्थात् श्वेत दाढ़ी वाले वृद्धों के मर जाने पर इनके पुत्र आर्य बन जायेंगे। पौराणिक दल के नेता बनकर बाबाजी ने ‘दयानन्द मिथ्यात्व प्रकाश’ की एक पुस्तकमाला निकाली। इसके पाँच-छह भाग मेरे पुस्तकालय में हैं। यह पुस्तकमाला धर्म प्रचार के प्रयोजन से तो लिखी नहीं गई थी। इसका मुय प्रयोजन लोगों को राजभक्ति की घुट्टी पिलाना था। यह पुस्तकमाला के मुखपृष्ठ पर छपा करता था।

मैंने माननीय आचार्य सोमदेव जी से प्रार्थना की है कि वे बाबा आलाराम सागर की इस पुस्तकमाला पर एक 32 पृष्ठ की प्रामाणिक पुस्तक लिख दें। इससे महर्षि के व्यक्तित्व, उपकार, सुधार तथा वैदिक धर्म की विशेषताओं का नई पीढ़ी को ठोस ज्ञान होगा। ‘सत्यार्थप्रकाश’ का भयभूत विरोधियों पर ऐसा सवार हुआ कि बाबा आलाराम को अपनी पुस्तकमाला में ‘प्रकाश’ शद जोड़ना पड़ा। मौलवी सनाउल्ला को अपनी पुस्तक का नाम ‘हक प्रकाश’ रखना पड़ा। यह सत्यार्थप्रकाश का चमत्कार ही तो था।

 

Impact of Satyarth Prakash

आवागमन पर पं. लेखराम जी के अनूठे तर्कः: राजेन्द्र जिज्ञासु

आवागमन पर पं. लेखराम जी के अनूठे तर्कः- अमरोहा से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक आर्य सामाजिक -पत्र का एक अंक नजीबाबाद गुरुकुल में एक आर्य बन्धु ने दिखाया। उसमें पुनर्जन्म पर एक लेख का शीर्षक पढ़कर ऐसा लगा कि मेरे किसी प्रेमी ने मेरे पुनर्जन्म विषयक (परोपकारी में छपे) तर्कों पर कुछ प्रश्न उठाये होंगे, परन्तु बात इससे उलटी ही निकली। विचारशील लेखक ने परोपकारी में दिये गये मेरे विचारों व तर्कों को उजागर  करते हुए जोरदार लेख दिया। उस आर्य भाई को व सपादक जी को धन्यवाद!

उस लेख को पढ़ने से पूर्व ही मेरे मन में ‘तड़प-झड़प’ में पं. लेखराम जी का पुनर्जन्म विषयक मौलिक चिन्तन व प्रबल युक्तियाँ देने का निश्चय था। हमारे मान्य आचार्य सत्यजित् जी तथा आदरणीय आचार्य सोमदेव जी पाठकों का शंका-समाधान  करते हुए बड़े सुन्दर प्रमाण व तर्क देते रहते हैं। उनका परिश्रम वन्दनीय है। उनसे भी विनती की है कि हमें अपने पुराने दार्शनिक विद्वानों यथा- पं. लेखराम जी, पं. गुरुदत्त जी, पूज्य दर्शनानन्द जी, श्रद्धेय देहलवी जी के तर्क उनका नामोल्लेख करके देने चाहिये।

पं. लेखराम जी का पुनर्जन्म विषयक ग्रन्थ पढ़कर अनेक सुपठित हिन्दू युवक, जो ईसाइयों, मुसलमानों व ब्राह्म समाजियों के घातक प्रचार से भ्रमित तथा धर्मच्युत हो रहे थे, निष्ठावान् आर्य बन गये। किस-किसका नाम यहाँ दूँ? डी.ए.वी. के पूर्व प्राचार्य बशी रामरत्न, महात्मा विष्णुदास जी लताला वाले (स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को आर्य बनाने वाले) ला. देवीचन्द जी एम. ए. इत्यादि सब पं. लेखराम जी को पढ़-सुनकर आर्य समाज से जुड़े।

  1. 1. पं. लेखराम जी का तर्क है कि पुराने भवन ढहते जाते हैं, नये-नये भवनों का निर्माण होता रहता है। सब नये-नये भवन इसी धरती पर विद्यमान पहले के ईंट, पत्थर, मिट्टी व गारे से ही बनाये जाते हैं। नई सामग्री कहीं से नहीं आती।
  2. 2. सब नदियाँ जो बह रही हैं, उनका जल कहाँ से आता है? सब जानते हैं, यह वही जल है, जो पहले सागर में गया था। वर्षा का जल, नदियों का जल कहीं परलोक से, अभाव से तो आता नहीं।
  3. 3. जितने पेड़, पौधे, वृक्ष उग रहे हैं, फल-फूल रहे हैं, ये सब धरती पर विद्यमान पहले की सामग्री से ही उपजते व फूलते-फलते हैं। अभाव से भाव यहाँ भी नहीं होता और न ही परलोक से इनके बीज आदि आते हैं।
  4. 4. सब प्राणियों के शरीर धरती पर विद्यमान सामग्री से (अन्न, जल आदि) से निर्मित व विकसित होते हैं। कहीं से नई-नई सामग्री नहीं आती। जब लाखों-करोड़ों शरीर उसी सामग्री से बनते हैं, जिससे पहले के शरीर बनते रहे हैं, इससे स्पष्ट है कि इस धरा पर नये-नये जीव भी उत्पन्न नहीं होते। जीवात्मायें भी वही हैं, जो इससे पूर्व किसी शरीर का परित्याग कर चुकी हैं। जैसे प्रकृति अनादि है, नई पैदा नहीं होती है, इसी प्रकार परमात्मा नये-नये जीव गढ़-गढ़ कर इस धरती पर नहीं भेजता। जैसे प्रकृति नई-नई नहीं पैदा होती, वैसे ही जीवात्मा भी वही-वही आते-जाते रहते हैं।

    Logic’s on rebirth by Pandit lekrham Ji

आज भोजन करना व्यर्थ रहा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

आज भोजन करना व्यर्थ रहा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु फरवरी 1972 ई0 में जब स्वामी श्री सत्यप्रकाशजी सरस्वती अबोहर पधारे तो कई आर्ययुवकों ने उनसे प्रार्थना की कि वे पण्डित गंगाप्रसादजी उपाध्याय के सज़्बन्ध में कोई संस्मरण सुनाएँ।

श्रद्धेय स्वामीजी ने कहा-‘‘किसी और के बारे में तो सुना सकता हूँ परन्तु उपाध्यायजी के बारे में किसी और से पूछें।’’

एक दिन सायंकाल स्वामीजी महाराज के साथ हम भ्रमण को निकले तब वैदिक साहित्य की चर्चा चल पड़ी। मैंने पूछा-‘उपाध्यायजी का शरीर जर्जर हो चुका था, फिर भी वृद्ध अवस्था में उन्होंने इतना अधिक साहित्य कैसे तैयार कर दिया? अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने कितने अनुपम व महज़्वपूर्ण ग्रन्थों का सृजन कर दिया।’’

तब उत्तर  में स्वामीजी ने कहा-‘‘उपाध्यायजी कहा करते थे,

जिस दिन मैंने ऋषि मिशन के लिए कुछ न लिखा उस दिन मैं  समझूँगा कि आज मेरा भोजन करना व्यर्थ गया। भोजन करना तभी सार्थक है यदि कुछ साहित्य सेवा करूँ।’’

आपने बताया कि वे (उपाध्यायजी) एक साथ कई-कई साहित्यिक योजनाएँ लेकर  कार्य करते थे। एक से मन ऊबा तो दूसरे कार्य में जुट जाते थे, परन्तु लगे रहते थे। इससे उनका मन भी लगा रहता था, उनको यह भी सन्तोष होता था कि किसी उपयोगी धर्म-कार्य में लगा हुआ हूँ। बस, यही रहस्य था उनकी महान्  साधना का।

इसपर किसी टिह्रश्वपणी की आवश्यकता नहीं। प्रत्येक सामाजिक कार्यकर्ता था साहित्यकार के लिए यह घटना बड़ी प्रेरणाप्रद है।