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ईश्वर सुकृत कैसेः- राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री सुधाकर आर्य कोशाबी गाजियाबाद की दोनों नन्हीं-नन्हीं पुत्रियाँ बहुत कुशाग्र बुद्धि हैं। कभी-कभी ऐसे प्रश्न पूछ लेती हैं कि उनके दादा डॉ. अशोक आर्य सोच में पड़ जाते हैं कि इतनी छोटी-सी आयु की बालिकाओं को कैसे समझाऊँ। बच्चे के स्तर पर उत्तर देना प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नहीं है। एक आर्य बालक ने अपने स्वाध्यायशील पिता से पूछ लिया, वायु क्यों और कैसे चलती है? पिता के लिये समस्या खड़ी हो गई कि इसे क्या उत्तर दूँ?

डॉ. अशोक जी की चार वर्षीय पौत्री ने घर के बड़ों से पूछा, हम सबके घर में काले बाल हैं, दादा जी के काले क्यों नहीं हैं? उनकी दूसरी पोत्री से सन्ध्या के पश्चात् प्रश्न उठाया, मैं आप सबको देाती हूँ, परन्तु भगवान् दिखाई क्यों नहीं देता। मुझे उन्हें सन्तुष्ट करने को कहा गया। मैंने छोटी बालिका से कहा, तुम पहले से बड़ी हो गई हो। हम सबमें व्यापक ईश्वर हमारे शरीरों का परिवर्तन व वृद्धि करता रहता है। जवानी ढलती है, तो शरीर शिथिल हो जाता है। काले बाल श्वेत हो जाते हैं। वह प्रभु सुकृत सुन्दर और विचित्र कला वाला कलाकार या कारीगर है।

कहीं यह प्रसंग सुना रहा था तो किसी को सुकृत शब्द तो बहुत भाया, परन्तु इसे और स्पष्ट करने को कहा। साथ ही एक नया प्रश्न जोड़ दिया सूअर जैसे गन्दे प्राणी तथा सर्प जैसी योनि को बनाने वाले को वेद ‘सुकृत’ कहता है। हम उसे सुकृत कैसे मान लें?
उसे उत्तर दिया, देखो! हमारे बच्चों की आयु बढ़ती है तो पहले वाले मूल्यवान् वस्त्र कोट, स्वैटर आदि काम नहीं आते। वे ठीक होने पर भी बच्चों के काम नहीं आते। हमें बहुत व्यय करके नये मूल्यवान् वस्त्र सिलवाने पड़ते हैं, परन्तु मानव चोला वही का वही काम करता है। छोटा, कोट तो बड़ा नहीं बन सकता, परन्तु प्राु हमारे पैरों, टाँगों, भुजाओं, हाथों व मुख आदि सब अंगों को बिना कतरणी चलाये बढ़ाता जाता है। क्या कोई मानवीय कारीगर ऐसा कर सकता है? उस प्रश्न कर्त्ता तथा सब श्रोताओं का मेरे द्वारा दिया गया उत्तर बहुत जँचा। वे मुग्ध हो गये। अब उन्हें समझ में आ गया कि वेद ने ईश्वर को सुकृत क्यों कहा है।
रही बात सूअर आदि योनियों को क्यों बनाया? सो उन्हें बताया कि जिसने सूअर जैसा आपको गन्दा दिखने वाला जन्तु पैदा किया है। मोर व तोते जैसे सुन्दर प्राणी पक्षी भी उसी ने बनाये हैं। सुन्दर दर्शनीय नगरों में जहाँ स्कूल, कॉलेज, हस्पताल बनाये जाते हैं, वहीं कारागार व फांसी का फँदा भी होता है। ये भी जीवों के कल्याणार्थ आवश्यक हैं।

काशी शास्त्रार्थ में वेदः- राजेन्द्र जिज्ञासु

काशी शास्त्रार्थ में वेदः-

‘परोपकारी’ के एक पिछले अंक में महर्षि दयानन्द जी द्वारा जर्मनी से वेद संहितायें मँगवाने विषयक आचार्य सोमदेव जी को व इस लेखक को प्राप्त प्रश्नों का उत्तर दिया गया था। कहीं इसी प्रश्न की चर्चा फिर छिड़ी तो उन्हें बताया गया कि सन् 1869 के काशी शास्त्रार्थ में ऋषि जी ने महाराजा से माँग की थी कि शास्त्रार्थ में चारों वेद आदि शास्त्र भी लाये जायें ताकि प्रमाणों का निर्णय हो जाये। इससे प्रमाणित होता है कि वेद संहितायें उस समय भारत में उपलध थीं। पाण्डुलिपियाँ भी पुराने ब्राह्मण घरों में मिलती थीं।
परोपकारी में ही हम बता चुके हैं कि आर्यसमाज स्थापना से बहुत पहले पश्चिमी देशों में पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहा कि यह संन्यासी दयानन्द ललकार रहा है, कि लाओ वेद से प्रतिमा पूजन का प्रमाण, परन्तु कोई भी वेद से मूर्तिपूजा का प्रमाण नहीं दे सका। ऋषि यात्राओं में वेद रखते ही थे। हरिद्वार के कुभ मेले में ऋषि यात्राओं में वेद रखते ही थे।

हरिद्वार के कुभ मेले में ऋषि विरोधी पण्डित भी कहीं से वेद ले आये। लाहौर में श्रद्धाराम चारों वेद ले आये। वेद कथा भी उसने की। ऐसे अनेक प्रमाणों से सिद्ध है कि जर्मनी से वेद मँगवाने की बात गढ़न्त है या किसी भावुक हृदय की कल्पना मात्र है। देशभर में ऐसे वेद पाठियों की संया तब सहस्रों तक थी जिन्हें एक-एक दो-दो और कुछ को चारों वेद कण्ठाग्र थे। सेठ प्रताप भाई के आग्रह पर कोई 63-64 वर्ष पूर्व एक बड़े यज्ञ में एक ऐसा वेदापाठी भी आया था, जिसे चारों वेद कण्ठाग्र थे। तब पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज भी उस यज्ञ में पधारे थे। आशा है कि पाठक इन तथ्यों का लाभ उठाकर कल्पित कहानियों का निराकरण करेंगे।

मैं इनका ऋणी हूँ :- – राजेन्द्र जिज्ञासु

मैं इनका ऋणी हूँ :-

ऋषि के जीवनकाल में चाँदापुर शास्त्रार्थ पर उसी समय उर्दू में एक पुस्तक छपी थी। तब तक ऋषि जीवन पर बड़े-बड़े ग्रन्थ नहीं छपे थे, जब पं. लेखराम जी ने अपने एक ग्रन्थ में उक्त पुस्तक के आधार पर यह लिखा कि शास्त्रार्थ के आरभ होने से पूर्व मुसलमानों ने ऋषि से कहा था कि हिन्दू व मुसलमान मिलकर ईसाइयों से शास्त्रार्थ करें। ऋषि ने यह सुझाव अस्वीकार कर दिया। जब मैंने ऋषि जीवन पर कार्य किया, इतिहास प्रदूषण पुस्तक में यह घटना दी तब यह प्रमाण भी मेरे ध्यान में था।
मुसलमान लीडरों डॉ. इकबाल, सर सैयद अहमद खाँ, मौलवी सना उल्ला व कादियानी नबी ने पं. लेखराम का सारा साहित्य पढ़ा। पण्डित जी के साहित्य पर कई केस चलाये गये। पाकिस्तान में आज भी पण्डित जी के साहित्य की चर्चा है। किसी ने भी इस घटना को नहीं झुठलाया, परन्तु जब मैंने यह प्रसंग लिखा तो वैदिक पथ हिण्डौन सिटी व दयानन्द सन्देश आदि पत्रों में चाँदापुर शास्त्रार्थ पर लेख पर लेख छपे। मेरा नाम ले लेकर मेरे कथन को ‘इतिहास प्रदूषण’ बताया गया। मैंने पं. लेखराम की दुहाई दी। देहलवी जी, ठा. अमरसिंह, महाशय चिरञ्जीलाल प्रेम के नाम की दुहाई तक देनी पड़ी। किसी पत्र के सपादक व मालिक ने तो मेरे इतिहास का ध्यान न किया, न इन गुणियों पूज्य पुरुषों की लाज रखी। थोथा चना बाजे घना। मैंने प्राणवीर पं. लेखराम का सन्मान बचाने के लिये उनके ग्रन्थ के उस पृष्ठ की प्रतिछाया वितरित कर दी। पं. लेखराम जी पर कोर्टों के निर्णय आदि पेश कर दिये। लेख देने वाले को तो मुझे कुछ नहीं कहना। इन पत्रों के स्वामियों व सपादकों का मैं आभार मानता हूँ। मैं इनका ऋणी हूँ। यह वही लोग हैं जो नन्हीं वेश्या पर लेख प्रकाशित करके उसे चरित्र की पावनता का प्रमाण-पत्र दे रहे थे। इनका बहुत-बहुत धन्यवाद। इन पत्रों के स्वामी पं. लेखराम जी के ज्ञान की थाह क्या जानें।
विषदाता कह पत्थर मारे। क्या जाने किस्मत के मारे।।
सुधा कलश ले आया। उस जोगी का भेद न पाया।।
हाँ! मुझे इस बात पर आश्चर्य है कि वैदिक पथ पर श्री ज्वलन्त जी का सपादक के रूप में नाम छपता है। आप ने ऐसी गभीर बात पर चुप्पी साध ली। मुझ से बात तक न की। मेरा उनसे एक नाता है, उस नाते से उनका मौन अखरा और किसी से कोई शिकायत नहीं। जी भर कर मुझे कोई कोसे। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का लाभ उठाना चाहिये। कन्हैया, केजरीवाल व राहुल ने सबकी राहें खोल दी हैं।
‘फूँकों से यह चिराग बुझाया न जायेगा

स्वर्णिम प्रेरक इतिहास को जानो व मानोः राजेन्द्र जिज्ञासु

स्वर्णिम प्रेरक इतिहास को जानो व मानोः- जातियों, राष्ट्रों व संस्थाओं को जगाने व अनुप्राणित करने के लिये इतिहास शास्त्र का भी विशेष महत्त्व है। इतिहास तोता-मैना की किस्सा कहानी मात्र नहीं है। यह भी एक शास्त्र है। महर्षि ने तभी तो पूना में इतिहास शास्त्र पर कई व्याख्यान दिये। आर्यसमाज की इस समय मात्र १४१ वर्ष की आयु है। आर्यसमाज के गौरवपूर्ण इतिहास की सुरक्षा करने वाले चार विचारक व दूरदर्शी नेता हुए हैं- १. महात्मा मुंशीराम जी, २. आचार्य रामदेव जी, ३. स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तथा ४. पं. विष्णुदत्त जी। जब मैं पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी व पं. विष्णुदत्त जी का इस प्रसंग में नाम लेता हूँ तो कुछ अदूरदर्शी मन्दभागी मन ही मन में खीजते व सटपटाते हैं। जिनका उद्देश्य ही आर्यसमाज के इतिहास को रौंदना हो वे इतिहास के विद्यार्थी राजेन्द्र जिज्ञासु के सत्य कथन को भला कैसे सह सकते हैं?
देश में कुछ व्यक्तियों ने घर वापिसी का शोर मचाया। झट से आर्यसमाज के पत्रों में शुद्धि आन्दोलन के अग्रणी आर्यों के नामों की सूची में किसी ऋषिदेव का नाम दे दिया गया। इस नाम का इस क्षेत्र में कोई व्यक्ति हुआ ही नहीं। ऋषि जी के पश्चात् पहली महत्त्वपूर्ण शुद्धि परोपकारिणी सभा द्वारा अब्दुल अज़ीज काज़ी फाज़िल की थी। वह उच्च पद पर आसीन अधिकारी थे। यह इतिहास हटाया गया। छिपाया गया। हमने सप्रमाण खोज दिया।
स्वामी श्रद्धानन्द जी नवम्बर १९२६ को निज बलिदान से मात्र एक मास पूर्व लाहौर बच्छोवाली समाज के उत्सव पर गये। पूज्य स्वामी सर्वानन्द जी सभा में उनके ठीक सामने बैठे सुन रहे थे। स्वामी जी ने सबको अन्तिम नमस्ते कही और यह भी कहा कि अब आपसे मिलन नहीं होगा। यह महाराज की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। इतिहास का, शोध का शोर मचाने वाले क्या जानें। दूसरे समाज ने भी उनका प्रवचन कराया। इस स्वर्णिम इतिहास को छिपाया गया या नहीं? गुरु के बाग के मोर्चा में जज को स्वामी श्रद्धानन्द जी के अभियोग में मनुस्मृति विशेष रूप से पढ़नी पड़ी। इतिहास रौंदने वाले इस घटना को क्यों छिपाते आ रहे हैं? या कहें कि वे इसे जानते ही नहीं। इसका प्रमाण (स्रोत) परोपकारिणी सभा के पास मिलेगा। न्यायाधीश ने दण्ड सुनाया तो भक्तों की भारी भीड़ सत्गुरु स्वामी श्रद्धानन्द जी के चरण स्पर्श करने को टूट पड़ी। कोर्ट से बाहर वृक्षों के नीचे महाराज को भक्तों के बीच आने दिया गया। देशवासियों को मुनि महान् ने क्या कहा-यह हम फिर बतायेंगे। नये नये उछलकूद करने वाले स्कालरों को मेरे इस कथन का प्रतिवाद करने की खुली छूट है।

प्रमाण मिलान की परम्परा अखण्ड रखियेः राजेन्द्र जिज्ञासु

प्रमाण मिलान की परम्परा अखण्ड रखियेः-
अन्य मत पंथों के विद्वानों ने महर्षि दयानन्द जी से लेकर पं. शान्तिप्रकाश जी तक जब कभी आर्यों के दिये किसी प्रमाण को चुनौती दी तो मुँह की खाई। अन्य-अन्य मतावलम्बी भी अपने मत के प्रमाणों का अता- पता हमारे शास्त्रार्थ महारथियों से पूछ कर स्वयं को धन्य-धन्य मानते थे। ऐसा क्यों? यह इसलिये कि प्रमाण कण्ठाग्र होने पर भी श्री पं. लेखराम जी स्वामी वेदानन्द जी आदि पुस्तक सामने रखकर मिलान किये बिना प्रमाण नहीं दिया करते थे। ऐसी अनेक घटनायें लेखक को स्मरण हैं। अब तो आपाधापी मची हुई है। अपनी रिसर्च की दुहाई देने वाले पं. धर्मदेव जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, श्री पं. भगवद्दत्त जी की पुस्तकों को सामने रख कुछ लिख देते हैं। उनका नामोल्लेख भी नहीं करते। प्रमाण मिलान का तो प्रश्न ही नहीं। स्वामी वेदानन्द जी ने प्रमाण कण्ठाग्र होने पर भी एक अलभ्य ग्रन्थ उपलब्ध करवाने की इस सेवक को आज्ञा दी थी। यह रहा अपना इतिहास।
एक ग्रन्थ के मुद्रण दोष दूर करने बैठा। प्रायः सब महत्त्वपूर्ण प्रमाणों के पते फिर से मिलाये। बाइबिल के एक प्रमाण के अता-पता पर मुझे शंका हुई। मिलान किया तो मेरी शंका ठीक निकली। घण्टों लगाकर मैंने प्रमाण का ठीक अता-पता खोज निकाला। बात यह पता चली कि ग्रन्थ के पहले संस्करण का प्रूफ़ पढ़ने वाले अधकचरे व्यक्ति ने अता-पता ठीक न समझकर गड़बड़ कर दी। आर्य विद्वानों व लेखकों को पं. लेखराम जी, स्वामी दर्शनानन्द जी, आचार्य उदयवीर और पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय की लाज रखनी चाहिये। मुद्रण दोष उपाध्याय जी के साहित्य में भी होते रहे। उनकी व्यस्तता इसका एक कारण रही।

सलामतराय कौन थे: राजेन्द्र जिज्ञासु

सलामतराय कौन थे?ः-

परोपकारी में इस सेवक ने महाशय सलामतराय जी की चर्चा की तो माँग आई है कि उन पर कुछ प्रेरक सामग्री दी जाये। श्री ओमप्रकाश वर्मा जी अधिक बता सकते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी की कोठी के सामने जो पहली बार जालंधर में उनके दर्शन किये, वह आज तक नहीं भूल पाया। भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी के व्याख्यान में कादियाँ में यह प्रेरक प्रसंग सुना था कि कन्या महाविद्यालय की स्थापना पर केवल पाँच कन्यायें प्रविष्ट हुई थीं। उनमें एक श्री सलामतराय जी की बेटी भी थी। महात्मा मुंशीराम जी की पुत्री वेदकुमारी तो थी ही। शेष तीन के नाम मैं भूल गया हूँ। इस पर नगर में पोपों ने मुनादी करवाई कि बेटियों को मत पढ़ाओ। पढ़-लिख कर गृहस्थी बनकर पति को पत्र लिखा करेंगी। यह कार्य (पत्र लिखना) लज्जाहीनता है। ऐसी-ऐसी गंदी बातें मुनादी करवाकर कन्या विद्यालय के कर्णधारों के बारे में अश्लील कुवचन कहे जाते थे।
मेहता जी ने यह भी बताया था कि ऋषि भक्त दीवानों द्वारा यह मुनादी करवाई जाती थी कि विद्यालय में प्रवेश पानेवाली प्रत्येक कन्या को चार आने (१/४ रु०) प्रतिमास छात्रवृत्ति तथा एक पोछन (दोपट्टा) मिला करेगा। वे भी क्या दिन थे! कुरीतियों से भिड़ने वालों को पग-पग पर अपमानित होना पड़ता था। महाशय सलामतराय जी अग्नि-परीक्षा देने वाले एक तपे हुये आर्य यौद्धा थे।
जो प्रेरक प्रसंग एक बार सुन लिया, वह प्रायः मेरे हृदय पर अंकित हो जाता है। महात्मा हंसराज के नाती श्री अमृत भूषण बहुत सज्जन प्रेमी थे। महात्माजी पर मेरी पाण्डुलिपि पढ़कर एक घटना के बारे में पूछा, ‘‘यह हमारे घर की बात आपको किसने बता दी?’’ मैंने कहा, क्या सत्य नहीं है? उन्होंने कहा, ‘‘एकदम सच्ची घटना है, परन्तु मेरे कहने पर आप इसे पुस्तक में न देवें।’’ वह अठारह वर्ष तक अपने नाना के घर पर रहे। उन्हें इस बात पर आश्चर्य हुआ करता था कि इस लेखक को पुराने आर्य पुरुषों के मुख से सुने असंख्य प्रसंग ठीक-ठीक याद हैं।

श्री शत्रुघन सिन्हा का ज्ञान घोटालाः- राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री शत्रुघन सिन्हा का ज्ञान घोटालाः- राजनेता संसद में अथवा विधान सभा में पहुँचते ही सर्वज्ञ बन जाते हैं। उन्हें किसी भी विषय पर बोलना व लिखना हो तो स्वयं को उस विषय का अधिकारी विद्वान् मानकर अपनी अनाप-शनाप व्यवस्था देते हैं। वीर भगतसिंह जी के बलिदान पर्व पर विख्यात् अभिनेता शत्रुघन हुतात्मा भगतसिंह जी पर टी. वी. में उनके केश कटवाने पर किसी कल्पित व्यक्ति से उनका संवाद सुना रहे थे। उनकी जानकारी का स्रोत वही जानें। हम तो इसे ज्ञान-घोटाला ही मानते हैं।
वह संसद में जाकर कुछ न मिलने पर भाजपा से तो खीजे-खीजे कुछ न कुछ बोलते ही रहते हैं। इतिहास का गला घोंटते हुए अभिनेता जी ने वीर भगतसिंह के परिवार को कट्टर सिख बताया। अभिनेता ने भगतसिंह जी की भतीजी लिखित ग्रन्थ पढ़ा होता, उनके पितामह तथा पिताजी की वैदिक धर्म पर लिखी पुस्तकें पढ़ी होतीं तो उनको पता होता कि यह परिवार दृढ़ आर्यसमाजी था। श्री धमेन्द्र जिज्ञासु जी ने तथा इस लेखक ने भी वीर भगतसिंह की जीवनी लिखी है।
राजनीति में आकर भगतसिंह जी के विचारों में भले ही कुछ परिवर्तन आया, परन्तु उनका आर्यसमाज से यथापूर्व सम्बन्ध बना रहा। उनको हिन्दू-सिख सबसे प्रेम था, परन्तु उनको कट्टर पंथी सिख बताना तो इतिहास को विकृत करना है। उनके बलिदान पर ‘प्रकाश’ आर्य मुसाफिर आदि पत्रों में महाशय कृष्ण जी, प्रेम जी ने उनके वैदिक रीति से संस्कार न करवाने पर सरकार की नीति का घोर विरोध किया। तब किसी ने यह न कहा और न लिखा कि उनका परिवार सिख है। उस समय के आर्य पत्र मेरे पास हैं। तब किसी ने यह न लिखा कि वह आर्य परिवार से नहीं था। उनके अभियोग में पहला अभियुक्त महाशय कृष्ण का बेटा आर्य नेता वीरेन्द्र था। श्री सुखदेव, प्रेमदत्त व मेहता नन्दकिशोर आदि कई आर्य क्रान्तिकारी तब उनके साथ थे। पं. लोकनाथ स्वतन्त्रता सेनानी आर्य विद्वान् ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाया। महान् आर्य दार्शनिक आचार्य उदयवीर उनके नैशनल कॅालेज के गुरु ने अन्त समय तक भगतसिंह के लिए जान जोखिम में डाली। शत्रुघन जी की आर्यसमाज से व इतिहास से ऐसी क्या शत्रुता हो गई है कि आपने आर्यसमाज को नीचा दिखाने के लिए सारा इतिहास ही तोड़ मरोड़ डाला है?

ऋषि-जीवन विचारःराजेन्द्र जिज्ञासु

ऋषि-जीवन विचारः-

परोपकारी में पहले भी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज का यह उपदेश सन्देश दिया था कि ऋषि का जीवन चरित्र एक यति, योगी, योगेश्वर, बाल ब्रह्मचारी ऋषि और महर्षि का जीवन है। आर्यो! इसका पाठ किया करो। इसे पुस्तक समझ कर मत पढ़ा करो।
२६ अक्टूबर १८८३ को कर्नल प्रतापसिंह ने आबू पहुँच कर भक्तों से ऋषि का पता पूछा। इस पर यह कहानी गढ़ ली गई कि उसने ऋषि से पूछा यदि उन्हें डॉ. अली मर्दान पर विष देने का सन्देह है तो वह कहें, ताकि उस पर अभियोग चलाया जावे। आश्चर्य यह है कि मूल स्रोत का प्रमाण सामने लाने पर भी इस हदीस की जब यह पोल खुल गई, तब भी एक आध बन्धु ने ऋषि जीवन का पाठ करने तथा उस पर विचार करने का व्रत लेकर अपनी सोच न बदली। किसी के मन में यह न आया कि विष दिये जाने पर राज परिवार का कोई व्यक्ति (प्रतापसिंह भी) जोधपुर में ऋषि के पास नहीं आया। पं. भगवद्दत्त जी, आचार्य विरजानन्द जी इन दोनों माननीय विद्वानों का मत है कि ऋषि तब इतने निर्बल थे कि बोल ही नहीं सकते थे। मूल स्रोत परोपकारिणी सभा को सौंप दिया गया है। वहाँ प्रतापसिंह के आबू पहुँचने का तो उल्लेख है, परन्तु ऋषि जी से भेंट करने का संकेत तक नहीं। एक गप्पी ने नई गप्प गढ़ ली है कि जसवन्तसिंह भागा-भागा ऋषि जी का पता करने पहुँचा। न जाने यह नई हदीस कब गढ़ ली गई? हमें तो अभी इन्हीं दिनों पता चला है। ऋषि के कृत्रिम पत्र गढ़ लिये गये, परन्तु शोध-शोध का शोर मचाने वालों ने इस पर भी चुप्पी साध ली। नई पीढ़ी के युवक जिन्हें ऋषि मिशन प्यारा है, वे जागरूक होकर ऋषि-जीवन की रक्षा करें।

महर्षि दयानन्द के विषपान पर प्रश्नः- राजेन्द्र जिज्ञासु

महर्षि दयानन्द के विषपान पर प्रश्नः- लखनऊ से ही आशीष प्रतापसिंह जी ने चलभाष पर बताया कि एक पौराणिक ने आक्षेप किया है कि ऋषि की मृत्यु विष दिये जाने से नहीं हुई। पं. लेखराम जी ने भी नहीं लिखा कि ऋषि का निधन विषपान से हुआ। उन्हें कहा गया कि उस पौराणिक का यह कथन मिथ्या है कि पं. लेखराम जी ने महर्षि को विष दिया जाना नहीं लिखा। पौराणिकों ने भारतीय इतिहास व महापुरुषों के जीवन पर न तो कभी कोई प्रश्न उठाया है और न ही विधर्मियों के वार का कभी उत्तर दिया है। ऋषि दयानन्द पर वार प्रहार करना इनकी दृष्टि में सनातन धर्म का प्रचार व सेवा है। परोपकारी में उत्तर पढ़ लेना और चुप करवा देना।
पं. लेखराम लिखित ऋषि जीवन में अजमेर के पीर जी का कथन पढ़िये। ऋषि को संखिया दिया गया। स्पष्ट लिखा है। पण्डित जी के साहित्य में (कुल्लियाते आर्य मुसाफिर) स्पष्ट लिखा है कि ऋषि को विष दिया गया। सम्पूर्ण जीवन-चरित्र में तत्कालीन कई इतिहासकारों के प्रमाण देकर यह सिद्ध किया गया है कि ऋषि जी को विष दिया गया। राव राजा तेजसिंह का स्वामी श्रद्धानन्द जी के नाम लिखा पत्र परोपकारिणी सभा के पास सुरक्षित है। कोई भी पढ़ ले। श्री गौरीशंकर ओझा का लेख, मुंशी देवीप्रसाद इतिहासकार, क्रान्तिकारी श्री कृष्णसिंह इतिहासकार के इतिहास को पढ़िये, समाधान हो जायेगा। मिर्ज़ा कादियानी ऋषि को हलाक करवाने (हत्या) का श्रेय () लेता है। ये सब प्रमाण सम्पूर्ण जीवन-चरित्र में दिये गये हैं। ऋषि पर देश भर में आक्रमण किये गये। पूना, काशी, मुम्बई, सूरत, मथुरा, कर्णवास, गुजरांवाला, अमृतसर, वज़ीराबाद, गुजरात, कानपुर….कहाँ पर जानलेवा प्रहार नहीं किये गये? कुटिया जलाई गई, गंगा में फेंका गया और एक बार टाँग भी तोड़ी गई। इतनी बार और इस युग में किस विचारक सुधारक पर वार-प्रहार किये गये। न जाने इन पौराणिकों ने महर्षि के देश, धर्म व जाति रक्षा के लिये तिल-तिल कर जलने व जीने पर कभी भाव भरित हृदय से कुछ लिखा नहीं-कुछ कहा नहीं। कोई गिनती तो करे कि ऋषि पर कहाँ-कहाँ आक्रमण किया गया? कहाँ-कहाँ विष देने के षड््यन्त्र रचे गये?

पं. गणपति शर्मा जी का मौलिक तर्कःराजेन्द्र जिज्ञासु

पं. गणपति शर्मा जी का मौलिक तर्कः-श्रीयुत् आशीष प्रतापसिंह लखनऊ तथा एक अन्य भाई ने मांसाहार विषयक एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर पूछा है। इस प्रश्न का उत्तर किसी ने एक संन्यासी महाराज से भी पूछा। प्रश्न यह था कि वृक्षों में जब जीव है तो फिर अन्न, फल व वनस्पतियों का सेवन क्या जीव हिंसा व पाप नहीं है? संन्यासी जी ने उत्तर में कहा, ऐसा करना पाप नहीं। यह वेद की आज्ञा के अनुसार है। यह उत्तर ठीक नहीं है। इसे पढ़-सुनकर मैं भी हैरान रह गया।
महान् दार्शनिक पं. गणपति शर्मा जी ने झालावाड़ शास्त्रार्थ में इस प्रश्न का ठोस व मौलिक उत्तर दिया। मांसाहार इसलिए पाप है कि इससे प्राणियों को पीड़ा व दुःख होता है। वृक्षों व वनस्पतियों में जीव सुषुप्ति अवस्था में होता है, अतः उन्हें पीड़ा नहीं होती। हमें काँटा चुभ जाये तो सारा शरीर तड़प उठता है। किसी भी अंग पर चोट लगे तो सारा शरीर सिहर उठता है। पौधे से फूल तोड़ो या वृक्ष की दो-चार शाखायें काटो तो शेष फूलों व वृक्ष की शाखाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फूल तोड़ कर देखिये, पौधा मुर्झाता नहीं है। जीव, जन्तु व मनुष्य पीड़ा अनुभव करते हैं।
पं. गणपति शर्मा जी ने यह तर्क भी दिया कि मनुष्य का , पशु व पक्षी का कोई अंग काटो तो फिर नया हाथ, पैर, भुजा नहीं उगता, परन्तु वृक्षों की शाखायें फिर फूट आती हैं। इससे सिद्ध होता है कि वनस्पतियों वृक्षों में जीव तो है, परन्तु इनकी योनि मनुष्य आदि से भिन्न है। इन्हें पीड़ा नहीं होती, अतः इन्हें खाना हिंसा नहीं है। अहिंसा की परिभाषा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी पढ़िये। पं. गणपति शर्मा जी का नाम लेकर यह उत्तर देना चाहिये। पण्डित जी का उत्तर वैज्ञानिक व मौलिक है।