Category Archives: Pra Rajendra Jgyasu JI

श्यामभाई को मार दो!

श्यामभाई को मार दो!

धाराशिव में आर्यसमाज का अपना मन्दिर अब तो है, पहले नहीं था। आर्यसमाज के उत्सव एक पौराणिक मन्दिर में हुआ करते थे।

निज़ाम के लाडले व बिगड़े मुसलमान आर्यसमाज के उत्सव पर आक्रमण करते ही रहते थे। उदगीर, लातूर तथा दूर-दूर के आर्यवीर धाराशिव के उत्सव को सफल बनाने के लिए आया करते थे।

एक बार श्यामभाई वेदी पर बैठे थे। अन्य आर्यजन यथा- डॉ0 डी0आर0 दास (श्री उज़ममुनि वानप्रस्थ) भी साथ बैठे थे।

प्रचार हो रहा था। मुसलमानों की एक भीड़ शस्त्रों से सुसज्जित नारे लगाती हुई वहाँ पहुँच गई। सुननेवाले सुनते रहे। रक्षा के लिए नियुक्त आर्यवीर दो-दो हाथ करने के लिए तैयार थे ही। इतने में भीड़ में से कुछ ने कहा-‘‘देखते ज़्या हो, मार दो श्यामभाई को।’’ यह कहते हुए कुछ आगे बढ़कर रुक गये। किसी ने कहा- ‘‘कहाँ है श्यामलाल! मार दो।’’

श्री उज़ममुनिजी ने उसी मन्दिर में आर्यसमाज के एक वार्षिकोत्सव में हमें बताया कि हम यह देखकर दङ्ग रह गये कि यह भीड़ इकदम रुक ज़्यों गई। जो श्यामलाल को मार दो, मार दो

चिल्ला रहे थे, उनमें से किसी को यह साहस ज़्यों न हुआ कि भाईजी पर बर्छे, भाले, तलवार या लाठी का ही वार करें। हमारे व्यक्ति सामना तो करते, परन्तु वे भाईजी के शरीर पर चोटें तो लगा सकते थे, मार भी सकते थे।

भाईजी जैसे बैठे थे, वैसे ही शांत बैठे रहे। उनका कहना था कि प्रचार रुकना नहीं चाहिए। इसलिए बोलनेवाला बोलता रहा।

आक्रमणकारी रुके ज़्यों? जब भाईजी की आँखों से आँखें मिलाईं तो रक्त-पिपासु दङ्गइयों का साहस टूट गया। निर्मल आत्मा, ईश्वर विश्वासी, निर्भय, शान्तिचिज़ श्यामभाई के नयनों की ज्योति को देखकर वे आगे बढ़ने का साहस न बटोर सके।

संसार में कई बार ऐसा भी होता है कि पापी-से-पापी पाषाण- हृदय भी किसी पवित्र आत्मा के सामने जाकर पाप-कर्म करने का साहस नहीं कर पाता। यह भी एक ऐसी ही घटना है। उस समय पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का व्याज़्यान चल रहा था।

श्री महात्मा नारायण स्वामीजी द्वारा लिखित एक घटना

श्री महात्मा नारायण स्वामीजी द्वारा लिखित एक घटना

1935 ई0 में ज़्वेटा (बलोचिस्तान) में एक भीषण भूकज़्प आया था। इसमें सहस्रों व्यक्ति मर गये थे। इस भूकज़्प से कुछ समय पूर्व ज़्वेटा से एक 23 वर्षीय देवी ने श्री महात्मा नारायण

स्वामीजी को एक पत्र लिखा। उस देवी को किसी ज्योतिषी ने यह बतलाया था कि वह एक वर्ष के भीतर मर जाएगी। उस देवी ने महात्माजी से यह पूछा था कि ज़्या सचमुच वह एक वर्ष के भीतर मर जाएगी। पत्र पढ़कर महात्माजी के अन्तःकरण में यह ईश्वरीय प्रेरणा हुई कि उसे लिख दूं कि वह नहीं मरेगी। महात्माजी ने दिल्ली से उसे लिख दिया कि वह चिन्ता न करे।

भूकज़्प से पूर्व महात्माजी ज़्वेटा गये। वह देवी अपने पति के साथ श्री महाराज के दर्शन करने पहुँची और पुनः वही प्रश्न किया।

अभी ज्योतिषी की बताई अवधि पूरी नहीं हुई थी। उसका चेहरा मुरझाया हुआ था। महात्माजी ने पुनः बलपूर्वक कहा कि वह कोई चिन्ता न करे। वह नहीं मरेगी। उसका चेहरा खिल उठा। उसे बड़ी सान्त्वना मिली।

ज़्वेटा का भूकज़्प आया। इसमें सहस्रों मनुष्य कीट-पतंग की भाँति मर गये। ज़्वेटा के भूकज़्प से पूर्व ही ज्योतिषीजी का बतलाया हुआ समय एक वर्ष पूरा हो गया। भूकज़्प के पश्चात् उस देवी का महात्माजी को पत्र प्राप्त हुआ कि वह ज्योतिषीजी के बतलाये हुए समय के भीतर नहीं मरी और विनाशकारी भूकज़्प में कितने प्राणी मर गये हैं, कितनों को चोटें आई हैं-इसमें भी वह बच गई है। महात्माजी ने पत्र पाकर देवीजी को उस ज्योतिषी के प्रहार से बचने पर बधाई दी और ईश्वर को अनेक धन्यवाद दिये, ‘‘जिसकी कृपा से, मेरे अन्तःकरण ने मुझे शुद्ध प्रेरणा दी।’’1

न जानें ऐसी अनर्गल भविष्यवाणियाँ करके ज्योतिषी लोग कितने जनों को ठग लेते हैं और कितनों का अहित करते हैं।

लोग ज़्या कहेंगे?

लोग ज़्या कहेंगे?

1967 ई0 की बात होगी। बिहार में भयङ्कर दुष्काल पड़ा। देशभर से अकाल-पीड़ितों की सहायता के लिए अन्न भेजा गया।

उन दिनों हम परिवार सहित दयानन्द मठ दीनानगर की यात्रा को गये। एक दिन श्री स्वामी सर्वानन्दजी महाराज ने कहा, ‘‘आप पठानकोट आर्यसमाज के सत्संग में हो आवें और केरल में वैदिक धर्म के प्रचार व शुद्धि के लिए उनसे सहयोग करने को कहें।’’

उस वर्ष मठ की भूमि में आलू की खेती अच्छी हुई थी। मोटे व अच्छे आलू तो काम में लाये गये। छोटे रसोई के पास पड़े थे।

हम लौटकर आये तो पता चला कि मठ में कुछ ब्रह्मचारियों ने स्वामी श्री सर्वानन्दजी से कहा-‘‘आलुओं का यह ढेर बाहर फेंक दें? इसे ज़्या करना है?’’

श्री स्वामीजी ने इस पर कहा-‘‘देखो! बिहार में दुष्काल से लोग मर रहे हैं। वहाँ खाने को कुछ भी नहीं मिल रहा। ये आलू खराब तो हैं नहीं, न ये सड़े-गले हैं। केवल छोटे ही हैं। देश के अन्नसंकट को ध्यान में रखकर हमें इन्हें फेंकना नहीं चाहिए। इनका सदुपयोग करना चाहिए। उबालकर इनका सेवन किया जा सकता है। यदि हम इन्हें फेंकेंगे तो लोग हमें ज़्या कहेंगे कि आश्रम के साधु ब्रह्मचारी कैसे व्यक्ति हैं?’’

श्रीमति जिज्ञासु ने स्वामीजी तथा ब्रह्मचारियों का यह सारा वार्ज़ालाप सुना।

देश-धर्म व जातिसेवा में एक-एक श्वास देनेवाले एक संन्यासी के हृदय में दूसरों के लिए कितना ध्यान था, यह घटना उसका एक उदाहरण है। सच्च तो यह है कि संसार में धर्म की प्रतिष्ठा इन्हीं तपस्वियों के कारण है। अपने व अपने परिवार के लिए तो सब जीते हैं, धन्य हैं वे लोग जो संसार के लिए जीते हैं। पराई पीड़ को अपनी पीड़ा माननेवाले इन महापुरुषों का ऋण कौन चुका सकता है? पराई आग में जलनेवाले इन पुण्य-आत्माओं के कारण ही ऋषिवर दयानन्द का मिशन फैला है।

 

संन्यास की मर्यादा

संन्यास की मर्यादा

श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज के जीवन की एक प्रेरणाप्रद घटना है कि आप एक बार अजमेर गये। प्रो0 घीसूलालजी के साथ किसी सामाजिक कार्य के लिए कहीं जा रहे थे। होली के दिन थे। बाज़ार में शरारती मूर्ख लोगों ने साधु पर रङ्ग डाल दिया। आप एकदम रुक गये। प्रो0 घीसूलालजी से कहा-‘‘अब वापस चलिए। वस्त्र बदलेंगे। इसपर धज़्बे पड़ गये हैं। मैं तो संन्यासी वेश में ही चल सकता हूँ। साधु पर दाग़ ठीक नहीं।’’

श्री महाराज लौट गये। जहाँ ठहरे थे वहीं पहुँचे। उनके पास और वस्त्र थे ही नहीं। कौपीन लगाकर बैठ गये। आर्यपुरुषों ने उनका कुर्ता सिलवाया। धोती ली। गेरु रङ्ग करवाया। उन्हें पहना

और कार्य पर बाहर निकले। जब तक बिना दाग़ के भगवे वस्त्र तैयार न हुए वे कौपीन धार कर अपने पठन-पाठन में लगे रहे, मिलनेवाले आर्य पुरुषों से बातचीत करते रहे। आर्य साधुओं, महात्माओं व नेताओं ने ऐसी मर्यादाएँ स्थापित की हैं और ऐसे इतिहास बनाये हैं।

अतिथि यज्ञ ऐसे किया

अतिथि यज्ञ ऐसे किया

श्री रमेश कुमार जी मल्होत्रा का श्री पं0 भगवद्दज़ जी के प्रति विशेष भज़्तिभाव था। पण्डित जी जब चाहते इन्हें अपने घर पर बुला लेते। एक दिन रमेश जी पण्डित जी का सन्देश पाकर उन्हें

मिलने गये।

उस दिन पण्डित जी की रसोई में अतिथि सत्कार के लिए कुछ भी नहीं था। जब श्री रमेश जी चलने लगे तो पण्डित जी को अपने भज़्त का अतिथि सत्कार न कर सकना बहुत चुभा। तब

आपने शूगर की दो चार गोलियाँ देते हुए कहा, आज यही स्वीकार कीजिए। अतिथि यज्ञ के बिना मैं जाने नहीं दूँगा। पं0 भगवद्दत जी ऐसे तपस्वी त्यागी धर्मनिष्ठ विद्वान् थे।

 

मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ

मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ

पश्चिमी पञ्जाब का एक परिवार बस में यात्रा कर रहा था। इस परिवार को अपने सगे-सज़्बन्धियों के यहाँ शादी पर जाना था।

इन्होंने मुलतान में बस बदली। बस बदलते हुए इनका एक ट्रंक अनजाने में बदल गया। किसी और यात्री का ट्रंक ज़ी ठीक उन्हीं के जैसा था। आगे की बस द्वारा यह परिवार अपने सगे-सज़्बन्धियों के घर पहुँचा। वहाँ जाकर ट्रंक खोला तो उसमें तो पुस्तकें व रजिस्टर, कापियाँ ही थीं।

जिस यात्री के हाथ इनका ट्रंक आया, वह भी मुलतान से थोड़ी दूरी पर कहीं गया। वहाँ जाकर इसने ट्रंक खोला तो इसमें आभूषण व विवाह-शादी के वस्त्र थे। दोनों ट्रंकों का ताला भी एक

जैसा था। यह एक विचित्र संयोग था। इसे यह समझने में देर न लगी यह सामान तो बस में यात्रा कर रहे किसी ऐसे परिवार का है जिसे विवाह में सज़्मिलित होना है। सोचा वह परिवार कितना दुःखी होगा, तुरन्त लौटकर ट्रंकसहित मुलतान आया। बस अड्डे पर बैठकर बड़े ध्यान से किसी व्याकुल, व्यथित की ओर दृष्टि डालता रहा।

उधर से वे लोग पुस्तकोंवाला ट्रंक लेकर रोते-धोते आ गये। उनको थोड़ा सन्तोष था कि पुस्तकों, रजिस्टरों पर ट्रंकवाले का नाम पता था, परन्तु साथ ही संशय बना हुआ था कि ज़्या पता वह भाई अपना ट्रंक न पाकर खाली हाथ ही रहा हो और अपने ट्रंक के लिए परेशान हो। इस परिवार को ट्रंक सहित रोते-चिल्लाते आते देखकर दूर बैठे दूसरी यात्री ने पुकारा और कहा कि दुखी होने की कोई आवश्यकता नहीं, यह लो तुज़्हारा ट्रंक। अपने माल की पड़ताल कर लो।

अब इस परिवार की प्रसन्नता का कोई पारावार ही नहीं था। पुस्तकोंवाला ट्रंक लौटाते हुए अपना बहुमूल्य सामान लेकर उस यात्री को बहुत बड़ी राशि पुरस्कारस्वरूप भेंट करने लगे तो वह यात्री बहुत विनम्रता से गरजती हुई आवाज में बोला-‘‘यह ज़्या कर रहे हो?’’ ‘‘यह आपकी ईमानदारी के लिए प्रसन्नतापूर्वक पुरस्कार दिया जाता है।’’ उस परिवार के मुखिया ने कृतज्ञतापूर्वक कहा।

इस यात्री ने कहा ‘‘ईमानदारी इसमें ज़्या है? यह तो मेरा कर्ज़व्य बनता था। मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ। ऋषि दयानन्द का शिष्य हूँ।’’

उस भाई ने एक पैसा भी स्वीकार न किया। सारे क्षेत्र में दूरदूर तक आर्यसमाज की वाह! वाह! होने लगी। सब ओर इस घटना की चर्चा थी। स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ ने यह कहानी उन दिनों

एक लेख में दी थी। यह पुस्तकोंवाला भाई आर्यसमाज का एक पूजनीय विद्वान् पण्डित मनुदेव था। यही विद्वान् आगे चलकर पण्डित शान्ति प्रकाशजी शास्त्रार्थमहारथी के नाम से विज़्यात हुआ। ऐसे लोग मनुजता का मान होते हैं।

इनकी सामग्री समाप्त हो चुकी है

इनकी सामग्री समाप्त हो चुकी है

ऐसी ही घटना पं0 भीमसेनजी शास्त्री एम0ए0 ने अपने एक लेख में दी है। आर्यसमाज कोटा ने एक शास्त्रार्थ के लिए पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा को बुलाया गया था। पौराणिकों की ओर से

पण्डित श्री आत्मानन्दजी षड्-दार्शनिक बुलाये गये। आर्यसमाज ने पण्डित श्री शिवशंकरजी काव्यतीर्थ को भी अजमेर से बुला लिया, वे भी शास्त्रार्थ के ठीक समय पर पधार गये थे। कोटा निवासी पण्डित लक्ष्मीदज़ शर्मा (व्याकरण के प्रकाण्ड पण्डित) आदि कई सनातनी पण्डित शास्त्रार्थ में पण्डित आत्मानन्दजी की सहायता के लिए उपस्थित थे। शास्त्रार्थ में कुछ प्रश्न-उज़र के पश्चात् श्री पण्डित गणपति शर्माजी ने यह भी कह दिया-‘‘श्री पण्डित आत्मानन्दजी ने अब तक अपनी कोई एक भी बात नहीं कही। अब तक जो कुछ उन्होंने कहा, वह सब अमुक-अमुक ग्रन्थों की सामग्री थी, वह अब समाप्त हो चुकी है, आप देख लेंगे कि अब पण्डितजी के पास

मेरे प्रश्नों का कोई उज़र नहीं है।’’

पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा की ज़विष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। प्रतिपक्षी पर पण्डितजी का ऐसा रोब पड़ा कि वह एक शज़्द भी न बोल सका। बस, खड़ा होकर ‘बोल सनातनधर्म की जय’ कहकर चल दिया।

स्मरण रहे कि पण्डित श्री लक्ष्मीदज़जी कहा करते थे कि पण्डित गणपतिशर्मा दर्शनों के ही नहीं, प्रत्युत व्याकरण के भी उद्भट विद्वान् थे। जब कभी पण्डित गणपति शर्मा कोटा में प्रचारार्थ

आते, श्री पण्डित लक्ष्मीदज़जी उन्हें सुनने के लिए आर्यसमाज में अवश्य आया करते थे।

पं0 गणपतिजी शर्मा ज्ञान-समुद्र थे

पं0 गणपतिजी शर्मा ज्ञान-समुद्र थे

आर्यसमाज के इतिहास में पण्डित गणपतिजी शर्मा चुरु- (राजस्थान)-वाले एक विलक्षण प्रतिभावाले विद्वान् थे। ऐसा विद्वान् यदि किसी अन्य देश में होता तो उसके नाम नामी पर आज वहाँ विश्वविद्यालय स्थापित होते। पण्डित गणपतिजी को ज्ञान-समुद्र कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं। श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज के शज़्दों में उनके पण्डित्य की यह कहानी पढ़िए-

‘‘पण्डित गणपति शर्मा शास्त्रार्थ करने में अत्यन्त पटु थे। मैंने उनके चार-पाँच शास्त्रार्थ सुने हैं। शास्त्रार्थ करते समय उनका यह नियम था कि शास्त्रार्थ के समय उन्हें कोई किसी प्रकार की सज़्मति न दे और न ही कुछ सुझाने की इच्छा करे, ज़्योंकि इससे उनका काम बिगड़ता था। लुधियाना में एक बार शास्त्रार्थ था। पण्डितजी ने सनातनधर्मी पण्डित से कहा था-पण्डितजी! मेरा और आपका शास्त्रार्थ पहले भी हुआ है। आज मैं एक बात कहना चाहता हूँ, यदि आप सहमत हों, तो वैसा किया जाए। पण्डित के पूछने पर आपने कहा-महर्षि दयानन्दजी से लेकर आर्यसमाजी पण्डितों ने जो पुस्तकें लिखी हैं, मैं उनमें से कोई प्रमाण न दूँगा और

इस विषय पर सनातनधर्मी पण्डितों ने जो पुस्तकें लिखी हैं, उनमें जो प्रमाण दिये हैं, आप उनमें से कोई प्रमाण न दें।

इसी प्रकार यदि आप चाहें तो जो प्रमाण आप कभी शास्त्रार्थ में दे चुके हैं और जो प्रमाण मैं दे चुका हूँ, वे भी छोड़ दें। आज सब प्रमाण नये हों। सनातनी पण्डित ने यह नियम स्वीकार नहीं किया। इससे पण्डितजी की योग्यता और स्मरणशक्ति का पूरा-पूरा परिचय मिलता है।’’

मौलवी सनाउल्ला का आदरणीय आर्य-प्रधान

मौलवी सनाउल्ला का आदरणीय आर्य-प्रधान

डॉज़्टर चिरञ्जीवलालजी भारद्वाज जब आर्यसमाज वच्छोवाली लाहौर के प्रधान थे तो आर्यसमाज के उत्सव पर एक शास्त्रार्थ रखा गया। मुसलमानों की ओर से मौलाना सनाउल्लाजी बोल रहे थे

और वैदिक पक्ष स्वामी योगेन्द्रपालजी प्रस्तुत कर रहे थे। स्वामीजी कुछ विषयान्तर-से हो गये। आर्यजनता स्वामीजी के उज़र से असन्तुष्ट थी। आर्यसमाज का पक्ष वह ठीक ढंग से न रख सके।

कुछ लोगों ने प्रधानजी को सज़्मति दी कि आप यह घोषणा करें कि स्वामीजी की आवाज धीमी है, अतः आर्यसमाज की ओर से स्वामी नित्यानन्दजी बोलेंगे। डॉज़्टर चिरञ्जीवजी इस सुझाव से रुष्ट होकर बोले, ‘‘चाहते हो सत्य-असत्य निर्णय के लिए शास्त्रार्थ और बुलवाते हो उसके लिए मुझसे असत्य।’’ लोग इस बात का ज़्या उज़र देते। थोड़ी देर के पश्चात् श्री प्रधानजी ने घोषणा की, ‘‘हम देख रहे हैं कि हमारे प्रतिनिधि स्वामी योगेन्द्रपालजी विषयान्तर बात करते हैं, ठीक उज़र नहीं देते, अतः आर्यसमाज का प्रतिनिधित्व करने के लिए मैं उनके स्थान पर श्री स्वामी नित्यानन्दजी महाराज को नियुक्त करता हूँ।’’

इस घोषणा का चमत्कारी प्रभाव हुआ। मुसलमान भाइयों पर इसका अधिक प्रभाव पड़ा। मौलवी सनाउल्ला साहिब तो डॉज़्टरजी की इस सत्यनिष्ठा से ऐसे प्रभावित हुए कि वे सदा कहा करते थे, ‘‘भाई! आर्यसमाज का प्रधान तो एक ही देखा।’’ और वे थे डॉ0 श्री चिरञ्जीव जी।

पण्डित लेखरामजी का भाई चल बसा, परन्तु

पण्डित लेखरामजी का भाई चल बसा, परन्तु

धर्म की दुहाई देना और बात है, तप-त्याग की चर्चा करना  और बात है, परन्तु धर्म-रक्षा के लिए कुछ कर दिखाना दूसरी बात है।

1894 ई0 में सरदार अर्जुनसिंहजी आर्यसमाज दीनानगर के मन्त्री थे। एक मुसलमान मौलवी चिराग़दीन ने शास्त्रार्थ की चुनौती दे रज़्खी थी। अर्जुनसिंहजी ने पण्डित लेखरामजी को बुलाया।

पण्डितजी तुरन्त शास्त्रार्थ के लिए पहुँच गये। चिराग़दीन को सामने आने का साहस ही न हुआ। बाहर से एक अकबर अली नाम के मौलवी को बुलवाया गया। पण्डित लेखरामजी की अमृत भरी

वाणी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे हिन्दू जो अब तक आर्यसमाज का  घोर विरोध करते थे, अड़ गये कि पण्डित लेखरामजी को जाने नहीं देंगे। पण्डितजी को दो दिन और दीनानगर में रुकना पड़ा।

उनकी ज्ञान-प्रसूता वाणी को सुनकर सारा नगर अपने-आपको धन्यधन्य मान रहा था। स्मरण रहे कि जब पण्डितजी दीनानगर पधारे थे तभी उनके भाई की मृत्यु हुई थी। पण्डितजी घर पर न जाकर धर्म-रक्षा के लिए दीनानगर आ गये। दीनानगर से उन्हें अमृतसर जाना पड़ा।

वहाँ से मुरादाबाद एक सारस्वत ब्राह्मण युवक श्रीराम की शुद्धि के लिए चले गये। यह लड़का लोभवश ईसाई बन गया था। पण्डित श्री लेखराम के हृदय में धर्म-प्रेम व जातिसेवा के लिए

जो अग्नि धधकती थी, यह घटना उसका एक प्रमाण है। हम लोग इतना कुछ न भी कर सकें, परन्तु कुछ तो करके दिखाएँ।