Category Archives: Pra Rajendra Jgyasu JI

यह किसका प्रकाश है?

यह किसका प्रकाश है?

पूज्य स्वामी आत्मानन्दजी महाराज ने देश-विभाजन से पूर्व एक पुस्तक लिखी। उसके प्रकाशनार्थ किसी धनी-मानी सज्जन ने दान दिया। स्वामीजी के गुरुकुल से वह पुस्तक प्रकाशित कर दी

गई। उसमें दानी का चित्र दिया गया, लेखक का चित्र न दिया गया। एक ब्रह्मचारी पुस्तक लेकर महाराज के पास लाया और कहा-‘‘विद्वान् का महज़्व नहीं, धनवान् का है। आपका चित्र

ज़्यों नहीं प्रकाशित किया गया।’’

गज़्ज़ीर मुद्रावाले वीतराग आत्मानन्दजी ने पुस्तक हाथ में लेकर उसके पृष्ठ उलट-पुलटकर कहा-‘‘यह सारी पुस्तक किसका प्रकाश है?’’

त्रैतवाद की चर्चा

त्रैतवाद की चर्चा

पण्डित श्री रामचन्द्र देहलवी एक स्कूल के पास से निकल रहे थे। ईसाइयों का स्कूल था। व्यायाम अध्यापक दौड़ें करवा रहा था।

छात्रों से अध्यापक ने कहा-‘‘मैं कहूँगा, एक, दो, तीन-जब तीन कहूँ, तब दौड़ना, पहले नहीं।’’

देहलवीजी ने बड़े प्रेम से कहा-‘‘दो पर ज़्यों नहीं दौड़ना? तीन पर ही बस ज़्यों? ज़्यों नहीं एक, दो, चार, पाँच, छह पर? वह कुछ उज़र न दे पाया। देहलवीजी कहा करते थे कि यह एक, दो,

तीन, त्रैतवाद का परज़्परागत संस्करण है।’’ मानव मन पर तीन अनादि पदार्थों की सज़ा का ज्ञान करवाने के लिए पूरे विश्व में यही परज़्परा है।

चर्च में रविवार को प्रार्थना व्यर्थ

चर्च में रविवार को प्रार्थना व्यर्थ

स्वामी सत्यप्रकाशजी ने देश व विदेश में ईसाई मित्रों से कई बार यह कहा है कि सबथ के दिन (रविवार) चर्च में ईश्वर की प्रार्थना व्यर्थ है। कारण यह कि उस दिन ईसाइयों का प्रभु विश्राम

करता है। ‘‘विश्राम के दिन तो उसको परेशान न किया करो।’’

नोट-ईसाइयों का एक सज़्प्रदाय यह मानता है कि सबथ का दिन रविवार नहीं शनिवार है।

तुलसीजी का ठाकुरजी से विवाह

तुलसीजी का ठाकुरजी से विवाह

अपने जीवन के अन्तिम दिनों में पण्डित श्री रामचन्द्रजी देहलवी पानीपत पधारे। आपने श्रोताओं से कहा कि आज मैं व्याज़्यान नहीं दूँगा। केवल शङ्का-समाधान करूँगा, आप लोग शङ्काएँ कीजिए, मैं उज़र दूँगा। एक सज्जन ने प्रश्न किया-‘‘आपके आगमन से कुछ दिन पूर्व यहाँ तुलसीजी से ठाकुर का विवाह सज़्पन्न हुआ है। लोगों ने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। आपका इस विषय में ज़्या विचार है?’’

श्रद्धेय पण्डितजी ने कहा-‘‘मुझे तो लोगों से भी अधिक हर्ष हुआ है। मेरे हर्ष का कारण यह है कि यह विवाह महर्षि दयानन्द के सिद्धान्तानुसार जाति-बन्धन तोड़कर हुआ है, परन्तु एक बात

स्मरण रखें कि विवाह का मुज़्य उद्देश्य सन्तान की उत्पज़ि है। ये दज़्पती (तुलसी का पौधा व पत्थर का ठाकुर) संसार से नि-सन्तान ही जाएँगे। इनकी गोदी कभी भी हरी न होगी।’’

महर्षि दयानन्द और शुद्धिः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

माननीय श्री म.व. शास्त्री जी हैदराबाद ने अपनी पठनीय, मौलिक व खोजपूर्ण पुस्तक ‘असली महात्मा’ में एक स्थान पर यह लिखा है कि महर्षि दयानन्द जी ने देहरादून में जन्मे एक मुसलमान मुहम्मद उमर को वैदिक-धर्म की दीक्षा देकर शुद्ध किया। आपने धर्म के द्वार खोलने का श्रेय ऋषि को देते हुए यह भी लिखा है कि ऋषिवर ने शुद्धि का व्यापक (या और) कार्य नहीं किया। हमने उसी पुस्तक के प्राक्कथन में यह स्पष्ट कर दिया है कि ऋषि को समय ही कहाँ मिला? ऋषि क्या-क्या करते? अनेक कार्य करते हुए देश भर में भ्रमण करना पड़ता था।

महर्षि ने अमृतसर, लुधियाना आदि नगरों में धर्मच्युत हो चुके कई व्यक्तियों को धर्मनिष्ठ बनाया। अजमेर में शुकदेव की रक्षा की। आर्यसमाज स्थापना से पूर्व प्रयाग में माधवप्रसाद को ईसाई होते हुए बचाया। उसने पण्डितों को तीन मास का नोटिस दे रखा था कि मेरी शंकाओं का निवारण करिये, नहीं तो मैं ईसाई बन जाऊँगा। काशी, प्रयाग आदि के पण्डित उसको बचाने के लिये आगे न आये। आर्य धर्म-रक्षक ऋषि दयानन्द ही उसे सन्तुष्ट करके बचा सके।

अमृतसर के मास्टर ज्ञानसिंह जी ने ऋषि की प्रेरणा से ऋषि के जीवन काल में अनेक हिन्दू, सिख-जो विधर्मी बन चुके थे-शुद्ध कर दिखाये।

सनातनधर्मी विद्वान् नेता पं. गंगाप्रसाद जी शास्त्री ने कभी लिखा था कि पादरी नीलकण्ठ शास्त्री हरिद्वार, काशी, प्रयाग आदि तीर्थों पर (कुम्भ के मेला पर भी) सहस्रों को ईसाई बनाता रहा। काशी, प्रयाग के विद्वान् पण्डित उसका सामना न कर सके। ऋषि दयानन्द ने उसकी बोलती बन्द करके धर्म-रक्षा की। यह संस्कृतज्ञ पादरी महाराष्ट्र का ब्राह्मण था। ऋषि के शिष्यों ने इसे पंजाब से भी भगा दिया। ‘सम्पूर्ण जीवन चरित्र महर्षि दयानन्द’ ग्रन्थ में हमने ये सब तथ्य व नये-नये प्रमाण दिये हैं। आर्यसमाजी भाई इन्हें पढ़कर प्रचार करके उजागरकरेंगे, तो आत्मविश्वास जगेगा।

महाराजा रणवीर सिंह अथवा प्रताप सिंहः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

एक आर्यवीर ने चलभाष पर प्रश्न पूछा है कि पादरी जॉनसन से पं. गणपति शर्मा जी का शास्त्रार्थ महाराज रणवीरसिंह के समय में हुआ अथवा महाराजा प्रतापसिंह के काल में? हमने तड़प-झड़प में कुछ मास पूर्व इस शास्त्रार्थ का प्रामाणिक वृत्तान्त उस समय के सद्धर्म प्रचारक से उद्धृत करते हुए दिया था। प्रश्नकर्त्ता ने श्री कुन्दनलाल जी चूनियाँ वाले की पुस्तक में इसका उल्लेख पढ़कर उसे भ्रामक समझकर यह प्रश्न पूछा है। उन्हें श्री रामविचार जी बहादुरगढ़ से इसका समाधान करवाना चाहिये। वह उक्त पुस्तक के बारे में हमसे उलझ चुके हैं। परोपकारी की फाईल निकालकर सद्धर्म प्रचारक का उद्धरण देखकर यथार्थ इतिहास को जाना जा सकता है। हम इतिहास के विद्यार्थी हैं। इतिहास प्रदूषण कोई भी करे, उसे पाप मानते हैं। यदि फिर भी पाठक चाहेंगे तो दोबारा उस घटना पर प्रकाश डालने में हमें कोई ननूनच नहीं होगा।

हाँ! यह नोट कर लें कि यह कथन सर्वथा भ्रामक व इतिहास प्रदूषण है कि जम्मू कश्मीर में आर्यसमाज पर प्रतिबन्ध था। पोंगापंथी पौराणिक ब्राह्मण तो आर्यसमाज के घोर विरोधी थे, परन्तु राज्य की ओर से कोई वैधानिक प्रतिबन्ध कतई नहीं था। पं. लेखराम जी के साहित्य से तथा हमारे द्वारा प्रकाशित जम्मू शास्त्रार्थ के अवलोकन से इस मिथ्या कथन की पोल खुल जाती है। राज्य का सबसे बड़ा डॉक्टर आर्यसमाजी था। राज्य का प्रतिष्ठित न्यायाधीश जाना पहचाना आर्य-पुरुष था। प्रतिबन्ध की गप प्रचारित करने वालों ने आर्यसमाज का अवमूल्यन ही किया है।

अपने बड़ों का अवमूल्यन न होने दें: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

दुर्भाग्य से जब कोई आर्यसमाज पर, वेद पर, ऋषि पर जानबूझकर या अनजाने से वार करता है तो हमारे उपाधिधारी तथा कथित लेखक, वक्ता और योगनिष्ठ वक्ता-प्रवक्ता मौन धारण किये रहते हैं। ये लोग घर में ही ‘‘शास्त्रार्थ कर लो’’ की चुनौती देना जानते हैं। डॉ. जे. जार्डन्स जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी विषयक अपनी पुस्तक में बहुत कुछ अच्छा लिखा, परन्तु एक अनर्थकारी घटना अधूरी देकर विष परोस दिया। स्वामी सम्पूर्णानन्द जी को इसका पता चला तो आप चिन्तित हो गये। कौन उत्तर दे? आपने इन पंक्तियों के लेखक को इसका उत्तर देने को कहा। उन्हें कहा गया कि आप सार्वदेशिक व प्रान्तीय सभाओं को यह कार्य सौंपें। वे उत्तर न दे सकें तो फिर मैं इसका सप्रमाण उत्तर दूँगा। इस घटना की पूरी शव-परीक्षा कर दी जावेगी। किसने उत्तर देना था?

उस पुस्तक में वायसराय के नाम स्वामीजी के द्वारा लिखे गये एक पत्र का उल्लेख है। कहा गया कि अंग्रेज से मिलकर (कुछ लेकर)स्वामी जी ने हिन्दू-मुसलमानों में घृणा पैदा कर लड़ाया।

पूरा प्रसंग तो फिर कभी देंगे। स्वामीजी ने फिर इस सेवक को पुकारा। लेख भी दिया। भाषण भी देकर बताया। दस्तावेज हमारे पास थे। देश के लीडरों की भरी सभा में नेहरू जी के एक लाडले मियाँ जी ने दोष लगाया तो धीर-वीर-गम्भीर श्रद्धानन्द ने वहाँ हुँकार भरकर चुनौती दी कि मेरे उस पत्र का फोटो प्रकाशित किया जावे, ताकि देशवासी सच्चाई को जान सकें। यह चुनौती दी गई तो श्वेत दाढ़ी वाले उस मौलाना के चेहरे का रंग ही उड़ गया। बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन व मालवीय जी भी उस बैठक में इस शूरता की शान श्रद्धानन्द जी के निष्कलङ्क जीवन के साक्षी बने। पाठकवृन्द! आर्यसमाज ने पाखण्ड खण्डन के लिए इसे कभी मुखरित ही नहीं किया।

लम्बे समय के पश्चात् आज दम्भ की, अहंकार की चीरफाड़ कर सत्य के तथ्य का बोल बाला करके महर्षि की महिमा का सप्रमाण बखान करने का निश्चय किया है। सोचा था कि मान्य ज्वलन्त जी से इसकी विस्तृत चर्चा की जाये। फिर वही इस विषय पर लिखें। वह मिले। श्री धर्मवीर जी के शोक में हम सब डूबे थे, सो कोई और चर्चा नहीं की। दयानन्द सन्देश,वैदिक पथ आदि पत्रों में चाँदापुर शास्त्रार्थ पर लच्छेदार लेख देकर हमारे कथन को झुठलाया गया। आर्य-पत्रों के पास महाशय चिरञ्जीलाल जी ‘प्रेम’, श्री सन्तराम जी (द्वय), पं. शान्तिप्रकाश जी, डॉ. धर्मवीर जी की कोटि के सम्पादक नहीं बचे, इसलिये कुछ कहना सुनाना भैंस के आगे वीणा बजाने जैसी बात है। ज्वलन्त जी विचारशील विद्वान् हैं। उनसे निवेदन करना चाहता था।

आज सारा आर्यजगत् ध्यान से सुन ले और पढ़ ले कि जो कुछ हमने चाँदापुर शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में लिखा है व कहा है, वह सब प्रामाणिक है। हमारा लिखा एक-एक वाक्य इतिहास का कठोर सत्य है। सब पुराने दस्तावेज हम दिखा सकते हैं। वैदिक-पथ आदि में कुल्लियाते आर्य मुसाफ़ि र में से दिये गये प्रमाण को यह कहकर झुठलाया गया कि पण्डित लेखराम जी ने इसके पश्चात् ऋषि जीवन लिखा। ऋषि जीवन में यह उद्धरण नहीं दिया। इससे स्पष्ट है कि उनका मत बदल गया-यह कथन मिथ्या है। यह निर्णय थोप दिया गया। वकील बनते-बनते जज भी बन गये। आर्य जनता नोट कर ले कि शास्त्रार्थ से पूर्व चाँदापुर में कुछ मौलवी ही ऋषि से मिलकर यह निवेदन करने आये थे कि हिन्दू व मुसलमान मिलकर ईसाई पादरियों से शास्त्रार्थ करें।

भला और किसी को यह निवेदन करने की आवश्यकता ही क्या थी? ईसाई तो यह बात क्यों कहेंगे? हिन्दुओं में शास्त्रार्थ करने की हिम्मत ही कहाँ थी? उस क्षेत्र के कबीर-पंथियों को मुसलमान बनाने से बचाने के लिये तो इस मेले पर मुसलमानों से टक्कर लेने के लिये महर्षि को बुलाया गया था। यह ऋषि-जीवन के कई बड़े-बड़े लेखकों तथा राधास्वामी मत के तत्कालीन (बाद में तृतीय गुरु बने) अनुयायी श्री शिवव्रतलाल वर्मन ने सविस्तार लिखा है।

पं. लेखराम जी को झुठलाते हुए अपना निर्णय देने वाले को पता होना चाहिये कि पण्डित जी ने अपने लेखों, पुस्तकों तथा व्याख्यानों में दी गई ऋषि-जीवन विषयक सामग्री अपने द्वारा रचित ऋषि-जीवन में नहीं दी। कोई बुद्धिमान् यह नहीं मानेगा कि पण्डित जी का इस सामग्री की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं रहा था। आश्चर्य यह है कि कोई विरोधी, कोई मुसलमान तो आज पर्यन्त ऐसा न कह सका। ऐसा अनर्गल प्रलाप करके ये पत्र धन्य-धन्य हो गये! पण्डित लेखराम जी की देन उनके बलिदान, उनके साहित्य की मौलिकता पर ये सज्जन क्या जानते हैं? उन पर किये गये प्रहार का कभी उत्तर दिया क्या?

‘मन्कूल’ शब्द को समझे क्या?ः- पण्डित जी ने अपने ग्रन्थ में इस घटना का वर्णन अपने शब्दों में नहीं किया। वहाँ स्पष्ट शीर्षक दिया गया है मन्कूल अज़ मुबाहिसा चाँदापुर। ‘मन्कूल’ अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है उद्धृत करना। ये शब्द पण्डित जी के नहीं, उसी समय छपी एक पुस्तक से हैं और कॉमा में उद्धृत किये गये हैं। पण्डित जी के साहित्य पर सात बार भिन्न-भिन्न नगरों में मुसलमानों ने केस चलाये। एक बार भी इस कथन को किसी ने नहीं झुठलाया। श्री पं. भगवद्दत्त जी ने महर्षि के आरम्भिक काल के नेताओं व शिष्यों के व्यक्तित्व तथा विद्वत्ता एवं उपलब्धियों की चर्चा करते हुए पं. लेखराम जी को सर्वोपरि माना है। जिस व्यक्ति ने पं. लेखराम जी की ऊहा व तपस्या के प्रसाद ‘ऋषि जीवन की सामग्री’ के लिये प्रयुक्त ‘‘विवरणों का पुलिन्दा’’ जैसे निकृष्ट फ़त्वे को ठीक सिद्ध करने के लिये भरपूर बौद्धिक व्यायाम करने में गौरव अनुभव किया’- वह अब कुछ भी लिखता जावे, उसे खुली छूट है।

छह मास का रोज़ा (उपवास)

छह मास का रोज़ा (उपवास)

15 दिसज़्बर 1916 की बात है। आर्यसमाज सदर बाजार, दिल्ली का वार्षिकोत्सव था। इस अवसर पर एक शास्त्रार्थ भी हुआ। आर्यसमाज की ओर से पूज्य पण्डित रामचन्द्रजी देहलवी ने

वैदिक पक्ष रखा। इस्लाम की ओर से चार मौलवी महानुभावों ने भाग लिया।

मौलवी शरीफ़ हुसैन ने प्रश्न पूछा कि शरीर छोड़ने के पश्चात् जीव नया जन्म कैसे लेता है? गर्भ में कितना समय रहता है?

पण्डितजी ने इसका उज़र दिया तो मौलवीजी ने कहा कि एक स्थान पर दिन छह मास का होता है, वहाँ का ज़्या लेखा होगा? तार देकर वहाँ से पता कीजिए कि वहाँ महीने किस विधि से होंगे!

पण्डितजी ने कहा कि अपवाद नियम को सिद्ध करता है। आपके यहाँ भी तो यही झगड़ा पड़ेगा। आपके ‘यहाँ’ लिखा है, ‘‘जब प्रातः की श्वेत धारी दिखाई दे तब रोज़ा रज़्खो। तब तो छह मास भूखे मरोगे।’’

मेरा बेटा कहाँ से आता?

मेरा बेटा कहाँ से आता?

श्रद्धानन्द-काल की घटना है। मुस्लिम लीगी मुसलमानों ने दिल्ली में जाटों के मुहल्ले से वध करने के लिए गाय का जलूस निकालना चाहा। वीर लोटनसिंह आदि इसके विरोध में डट गये।

लीगी गुण्डों ने मुहल्ले में घुस-घुसकर लूटमार मचा दी। वे एक मन्दिर में भी घुस गये और जितनी भी मूर्ज़ियाँ वहाँ रखी थीं, सब तोड़ डालीं। भगीरथ पुजारी एक कोने में एक चटाई में छुप गया।

किसी की दृष्टि उस पर न पड़ी। वह बच गया।

पण्डित श्री रामचन्द्रजी ने उससे पूछा कि तू दंगे के समय कहाँ था? उसने कहा-‘‘मन्दिर में था।’’

पण्डितजी ने पूछा-‘‘फिर तू बच कैसे गया?’’ उसने बताया कि मैं चटाई में छुप गया था।’’

पण्डितजी ने पूछा-‘‘तुज़्हें उस समय सर्वाधिक किसकी चिन्ता थी?’’

पुजारी ने कहा-‘‘अपने बेटे की थी। पता नहीं वह कहाँ है?’’

पण्डितजी ने पूछा-‘‘तुज़्हें देवताओं के टूटने-फूटने की कोई चिन्ता नहीं थी?’’

उसने स्पष्ट कहा-‘‘अजी वे तो फिर जयपुर से आ जाएँगे कोई दो रुपये का, कोई चार रुपये का, कोई आठ का, परन्तु मेरा बेटा कहाँ से आता?’’

सालिग्राम ने तो कुछ नहीं कहा

सालिग्राम ने तो कुछ नहीं कहा

कविरत्न ‘प्रकाश’ जी तथा उनके भाई बाल्यकाल में अपने पौराणिक पिताजी के साथ मन्दिर गये। इनके भाई ने एक गोलमटोल पत्थर का सालिग्राम खेलने के लिए अण्टी में बाँध लिया। कविजी ने पिता जी को बता दिया कि पन्ना भैया ने गोली खेलने के लिए सालिग्राम उठाया है। पिताजी ने दो-तीन थह्रश्वपड़ दे मारे और डाँटडपट भी की। पन्नाजी बोले, ‘‘सालिग्राम ने तो मुझे कुछ नहीं कहा और आप वैसे ही मुझे डाँट रहे हैं।’’ पिता यह उज़र पाकर चुप हो गये।