Category Archives: Pra Rajendra Jgyasu JI

झट क्षमा माँग-ली

झट क्षमा माँग-ली

जब दयानन्द मठ की स्थापना का विचार स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के मन में आया तो आपने आर्य-पत्रों में अपनी योजना रखी।

इस पर अनेक आर्य नेताओं व विद्वानों ने जहाँ आपके विचारों का समर्थन किया, वहाँ कुछ एक ने विरोध में भी लेख दिये। ऐसे लोगों में एक थे स्वर्गीय श्री पण्डित भीमसेनजी विद्यालंकार। आप तब पंजाब सभा के मन्त्री थे। सभा के पत्र में आपका एक लेख दयानन्द मठ के विषय पर छपा।

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तब सार्वदेशिक सभा के कार्यकर्ज़ा प्रधान थे। आपने पण्डित भीमसेनजी के लेख का उज़र देते हुए एक लेख में लिखा-सभा मन्त्रीजी ऐसा लिखते हैं आदि आदि। इस

पर पण्डित भीमसेनजी का लेख छपा कि ये मेरे निजी विचार थे।

मैंने सभामन्त्री के रूप में ऐसा नहीं लिखा। ज़्या स्वामीजी के लेख को मैं सार्वदेशिक के कार्यकर्ज़ा प्रधान का लेख जानूँ? पण्डितजी ने स्वामीजी के लेख पर इस आधार पर बड़ी आपज़ि की।

श्रीस्वामी ने इस पर एक और लेख दिया। उसमें आपने लिखा कि चूँकि लेख सज़्पादकीय के पृष्ठ पर छपा था-जिस पृष्ठ पर सभामन्त्री के नाते वे यदा-कदा लिखा करते थे, अतः मैंने इसे

सभामन्त्री का लेख जाना। मेरा जो भी लेख सार्वदेशिक के अधिकारी के रूप में होगा, उसके नीचे मैं कार्यकर्ज़ा प्रधान लिखूँगा।

मैंने पण्डितजी के लेख को सभामन्त्री का लेख समझा, यह मेरी भूल थी। इसलिए मैं पण्डितजी से क्षमा माँगता हूँ।

कितने विशाल हृदय के थे हमारे महापुरुष। उनके बड़ह्रश्वपन का परिचय उनके पद न थे अपितु उनका व्यवहार था। वे पदों के कारण ऊँचे नहीं उठे, उनके कारण उनके पदों की शोभा थी।

वे ऐसे व्यक्ति थे

वे ऐसे व्यक्ति थे

1908 की घटना होगी। पंजाब विश्वविद्यालय सेनिट के चुनाव हुए। डी0ए0वी0 कॉलेज लाहौर के प्राचार्य महात्मा हंसराजजी को भी प्रबन्ध समिति ने चुनाव के अखाड़े में उतरने के लिए कहा।

वे पहले भी सेनिट के सदस्य थे। उन्होंने चुनाव लड़ा, परन्तु सेनिट के चुनाव में हार गये।

उन दिनों डी0ए0वी0 कॉलेज की एक पत्रिका निकला करती थी। उसमें कॉलेज के समाचार भी छपा करते थे। एक समाचार यह भी छपा कि कॉलेज के प्राचार्य हंसराज चुनाव हार गये हैं।

पाठकवृन्द! ज़्या आज कोई छोटा-बड़ा व्यक्ति चुनाव हार जाने पर अपनी ही पत्रिका में ऐसा समाचार देने का नैतिक साहस दिखा सकता है? आज तो शिक्षा-व्यापार जगत् के इन लोगों से ऐसी आशा नहीं की जा सकती।

महापुरुषों की रीति

महापुरुषों की रीति

सार्वदेशिक सभा की बैठक थी। महात्मा नारायण स्वामीजी प्रधान थे। पण्डित चमूपति जी महाराज उठकर कुछ बोले। महात्माजी आवेश में थे। बोले-‘‘बैठ जाओ, तुज़्हें कुछ पता नहीं।’’

आचार्य प्रवर पण्डित चमूपति चुपचाप बैठ गये। बैठक समाप्त हुई। महात्माजी एक ऊँचे साधक थे। उनके मन में विचार आया कि उनसे कितनी भयङ्कर भूल हुई है। आचार्य चमूपति सरीखे

अद्वितीय मेधावी विद्वान् को यह ज़्या कह दिया?

महात्माजी आचार्यजी के पास गये। नम्रता से कहा- ‘‘पण्डितजी मुझसे बड़ी भूल हुई। मैं आवेश में था। सभा-सञ्चालन में कई बार ऐसा हो ही जाता है। मैंने आवेश में आकर कह दिया-

‘‘तुज़्हें कुछ पता नहीं या तुज़्हें ज़्या आता है।’’

आचार्य प्रवर चमूपति बोले, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं, आपने ठीक ही कहा। आपको कहने का अधिकार है। आप हमारे ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध, महात्मा व त्यागी-तपस्वी नेता हैं।’’

दोनों महापुरुषों में इस प्रकार की बातचीत हुई। पाठकगण! इस घटना पर गज़्भीरता से विचार करें। दोनों महापुरुषों की बड़ह्रश्वपन व नम्रता से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। सङ्गठन की सुदृढ़ता के लिए ऐसे सद्भावों का होना आवश्यक है। आचार्य चमूपतिजी ने ही ‘सोम-सरोवर’ ग्रन्थरत्न में लिखा है कि संशय में बिखेरने की शक्ति तो है, जोड़ने व पिरोने की नहीं। आज अहं के कारण, पदलालसा व सन्देह के कारण कितने व्यक्ति हमारे सङ्गठन को बिखेरने

में लगे हुए हैं। आइए, जोड़ने की कला सीखें।

गृहस्थ ने मुझे छोड़ दिया

गृहस्थ ने मुझे छोड़ दिया

मुझे अच्छी प्रकार से याद है कि 1949 ई0 में मैंने पूज्य महात्मा नारायण स्वामीजी की जीवनी (आत्मकथा) में यह पढ़ा था कि महात्माजी को अपनी विधवा माता के आग्रह पर बचपन में

विवाह की स्वीकृति देनी पड़ी। पन्द्रह वर्ष की आयु में नारायणप्रसाद (नारायण स्वामीजी का पूर्व नाम) गृहस्थी बन गये, परन्तु पत्नी को पाँच वर्ष तक मायके में ही रज़्खा। बीस वर्ष के हो गये तो पत्नी उनके पास आ गई।

महात्माजी ने आत्म-चिन्तन करते हुए निश्चय किया कि पाँच वर्ष पहले गृहस्थी बना हूँ तो दस वर्ष पूर्व अर्थात् चालीस वर्ष की अवस्था में गृहस्थ छोड़ दूँगा। जब नारायणप्रसाद चालीस वर्ष के

हुए तो उनकी पत्नी का देहान्त हो गया। आपने स्वेच्छा से गृहस्थ को अभी छोड़ा नहीं था।

महात्माजी ने स्वयं आत्मकथा में लिखा है कि मैंने गृहस्थ को नहीं छोड़ा, गृहस्थ ने स्वयं मुझे छोड़ दिया। इस प्रकार मेरा पुराना संकल्प अपने-आप पूरा हो गया। शज़्द चाहे कुछ भी लिखे हों,

परन्तु भाव यही है।

कितने सत्यनिष्ठ थे वे लोग! कैसी सरलता से अपनी मनःस्थिति का वर्णन किया है। अपने इसी शुद्ध धर्मज़ाव से वे ऊँचे उठते गये।

एक आपबीती

एक आपबीती

मैं स्कूल का अध्यापक था। मेरे लेखों के कारण तथा सामाजिक गतिविधियों के कारण आर्यजगत् के बहुत लोग मुझे जानते थे। हिन्दी सत्याग्रह के पश्चात् मैं स्कूल छोड़कर दयानन्द कॉलेज हिसार की एम0ए0 कक्षा में प्रविष्ट हो गया। कॉलेज के प्राचार्य थे

प्रिं0 ज्ञानचन्द्रजी (स्वामी मुनीश्वरानन्दजी) हिसारवाले। वे यदा-कदा मुझे व्याज़्यान तथा प्रचार के लिए भी, कभी कहीं जाने को कह देते। कॉलेज में प्रविष्ट हुए एक-दो सप्ताह ही बीते कि उन्होंने आर्यसमाज, माडल टाउन के साप्ताहिक सत्संग में मेरा व्याज़्यान रख दिया। वे स्वयं माडल टाऊन में ही रहते थे।

व्याज़्यान से वे प्रभावित हुए। सत्संग के पश्चात् मुझे अपने घर पर भोजन के लिए कहा। मैं उनके साथ चला गया।

वे स्वयं मुझे भोजन करवाने लगे। मैंने कहा कि आप भी बैठिए। मेरे बहुत कहने पर भी प्रिंसिपल साहब न माने। घर पर सेवक भी था। उसे भी भोजन न लाने दिया। स्वयं ही परोसने लगे।

मुझे प्रतिष्ठित अतिथि बनाकर एक ओर बैठकर आर्यसमाज विषयक चर्चाएँ करते रहे। मैं इस दृश्य को कभी नहीं भूल पाता।

अरे यह कुली महात्मा

अरे यह कुली महात्मा

बहुत पुरानी बात है। आर्यसमाज के विज़्यात और शूरवीर संन्यासी, शास्त्रार्थ महारथी स्वामी श्री रुद्रानन्दजी टोबाटेकसिंह (पश्चिमी पंजाब) गये। टोबाटेकसिंह वही क्षेत्र है, जहाँ आर्यसमाज के एक मूर्धन्य विद्वान् आचार्य भद्रसेनजी अजमेरवालों का जन्म हुआ। स्टेशन से उतरते ही स्वामीजी ने अपने भारी सामान के लिए कुली, कुली पुकारना आरज़्भ किया।

उनके पास बहुत सारी पुस्तकें थीं। पुराने आर्य विद्वान् पुस्तकों का बोझा लेकर ही चला करते थे। ज़्या पता कहाँ शास्त्रार्थ करना पड़ जाए।

टोबाटेकसिंह स्टेशन पर कोई कुली न था। कुली-कुली की पुकार एक भाई ने सुनी। वह आर्य संन्यासी के पास आया और कहा-‘‘चलिए महाराज! मैं आपका सामान उठाता हूँ।’’ ‘‘चलो

आर्यसमाज मन्दिर ले-चलो।’’ ऐसा स्वामी रुद्रानन्द जी ने कहा।

साधु इस कुली के साथ आर्य मन्दिर पहुँचा तो जो सज्जन वहाँ थे, सबने जहाँ स्वामीजी को ‘नमस्ते’ की, वहाँ कुलीजी को ‘नमस्ते महात्मा जी, नमस्ते महात्माजी’ कहने लगे। स्वामीजी यह देख कर चकित हुए कि यह ज़्या हुआ! यह कौन महात्मा है जो मेरा सामान उठाकर लाये।

पाठकवृन्द! यह कुली महात्मा आर्यजाति के प्रसिद्ध सेवक महात्मा प्रभुआश्रितजी महाराज थे, जिन्हें स्वामी रुद्रानन्दजी ने प्रथम बार ही वहाँ देखा। इनकी नम्रता व सेवाभाव से स्वामीजी पर

विशेष प्रभाव पड़ा।

न जान, न पहचान-फिर भी

न जान, न पहचान-फिर भी

एक बार पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज अपने भज़्त वैद्य तिलकराम जी ब्रह्मचारी के औषधालय उन्हें मिलने गये। तब वैद्य जी भीतर रोगियों को देखने में व्यस्त थे। कुछ रोगी बाहर के कमरे में अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। वहीं एक बैंच पर लेटा हुआ एक रोगी शिर दर्द से हाय हाय कर रहा था। दर्द के मारे आँखें भी नहीं खोल सकता था। स्वामी जी उसके पास ही बैठे थे।

उसकी व्याकुलता देखकर आपने उसका सिर दबाना आरज़्भ कर दिया। कुछ ही मिनटों में उसे कुछ चैन आया। उसने आँखें खोलीं।

एक प्रतापी साधु को सिर दबाते देखकर बोला, महात्मन! यह ज़्या कर रहे हैं? मुझ साधारण व्यज़्ति का सिर……। महाराज बोले, ‘‘जो बड़े छोटों की सेवा नहीं करेंगे तो छोटों को सेवा करना कैसे आएगा?’’

वे हँसी में भी कभी झूठ नहीं बोलते थे

वे हँसी में भी कभी झूठ नहीं बोलते थे

पण्डित श्री चमूपतिजी की धर्मपत्नी ने अपनी एक सखी व घरवालों से कह दिया कि अमुक दिन पण्डित चमूपतिजी मुझे लेने आएँगे, मेरा शरीर छूट जाएगा। वे ठीक-ठाक थीं। कोई रोग नहीं

था, परन्तु मृत्यु के स्वागत के लिए वे तैयार होकर बैठ गईं।

वह दिन आ गया। दस बजे, ग्यारह बजे और बारह बज गये। सबने कहा कि ज़्यों मौत की सोचती हो? आपको कुछ नहीं होता।

आप ठीक-ठाक हैं। आप नहीं मरेंगी, परन्तु पण्डित चमूपतिजी की पत्नी की एक ही रट थी कि मुझे स्वप्न में पण्डितजी ने कहा है कि तैयार रहना, मैं अमुक दिन तुज़्हें लेने आऊँगा। पण्डितजी तो भी हँसी-विनोद में भी कभी झूठ नहीं बोलते थे, अतः उनकी बात टल नहीं सकती।

और ऐसा ही हुआ। सायंकाल तक पण्डितजी की धर्मपत्नी की मृत्यु हो गई।

मैंने स्वामी सर्वानन्दजी महाराज से इस घटना के सैद्धान्तिक विवेचन के लिए कहा तो आपने कहा कि पण्डितजी लेने आएँगे या वे लेने आये इसका कोई दार्शनिक आधार नहीं है। सर्वव्यापक

सर्वशक्तिमान् परमेश्वर किसी की सहायता नहीं लेता। स्वप्न को इस रूप में लेना ठीक नहीं है। इस घटना का कारण मनोवैज्ञानिक है। पण्डितजी की पत्नी के मन में यह पक्का विश्वास था कि उनके पति सदा सत्य ही बोलते हैं। इसी विश्वास के कारण वह मर गईं।

हम प्रायः देखते हैं कि कई बार डाज़्टरों, वैद्यों के मुख से अपनी मौत की सज़्भावना की बात कान में पड़ते ही रोगी मर जाते हैं।

यह तो हुआ इस घटना का सिद्धान्तपक्ष, परन्तु इस घटना का दूसरा पक्ष यह है कि उस महापुरुष का जीवन कितना निर्मल था कि उनकी पत्नी डंके की चोट से कहती हैं कि वे तो कभी हँसी में भी झूठ नहीं बोलते थे। उनकी सत्यवादिता की ऐसी गहरी छाप!

कृतज्ञता तथा अकृतज्ञता

कृतज्ञता तथा अकृतज्ञता

कृतज्ञता के भाव से विभूषित मनुष्य जीवन में उन्नति करता है और आगे बढ़ता है। इसके विपरीत आचरण करने से जीवन में हानि ही होती है। आर्यसमाज के यशस्वी विद्वान् आचार्य श्री भद्रसेनजी अजमेरवाले अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में बड़े रुग्ण रहे। वे इस दृष्टि से बड़े भाग्यशाली थे कि उनके सुपुत्रों ने वृद्धावस्था में उनकी बहुत सेवा की।

आचार्यजी को कज़्पन का रोग हो गया था। एक दिन उनके सुपुत्र कैह्रश्वटन देवरत्नजी ने हँसी-विनोद में उनसे प्रश्न किया-‘‘पिताजी आपने इतनी योगविद्या सीखी, जीवनभर उसका अज़्यास करते रहे, सैकड़ों लोगों के रोगों का निदान किया फिर आपका शारीरिक स्वास्थ्य ऐसा ज़्यों हो गया?’’

आचार्यजी ने कहा-‘‘पहले भी कई व्यक्तियों ने यह प्रश्न पूछा है।’’ आचार्यजी ने गज़्भीर मुद्रा में बताया कि उन्होंने चार वर्ष तक स्वामी कुवलयानन्दजी से योगविद्या सीखी। आश्रम भी आचार्यजी ही सँभालते थे। जब गुरु से विदा होने लगे तो गुरुजी ने कहा कि वे तो आचार्यजी को ही आश्रम सौंपना चाहते हैं, परन्तु शिष्य ने कहा कि वह तो जीवन का लक्ष्य वेद-प्रचार, ऋषि मिशन की सेवा बना चुके हैं। गुरुजी ने बड़ा आग्रह किया, परन्तु आचार्य भद्रसेनजी का एक ही उज़र था कि उनके जीवन का लक्ष्य ऋषि दयानन्द के मिशन की सेवा है और कोई कार्य नहीं।

आचार्यजी का कथन था कि चार वर्ष जिससे योगविद्या सीखी, जिसे गुरु माना, उसकी बात न मानकर, मैंने उनके मन को कितना दुःख दिया, यह रोग तथा मेरी यह अवस्था उसका ही परिणाम है।

यह तो है इस घटना का एक पक्ष। यह है एक पूज्य विद्वान् के मन में अपने योग-गुरु के प्रति कृतज्ञता का भाव।

अब इसके आगे की कहानी सुनिए। आचार्यजी ने कहा- ‘‘इन पाँच वर्षों में किसी आर्यसमाजी ने आकर मेरी सुध नहीं ली। यदि आप लोग (सन्तान) सुयोग्य, शिष्ट व सुपात्र न होते, तुम लोग

मेरी सेवा न करते तो मैं किसी एक मकान के एक कमरे में पड़ापड़ा सड़-सड़ कर मर जाता।’’

ये शज़्द प्रत्येक सहृदय व्यक्ति को झकझोर देनेवाले हैं।

आर्यसमाज के लोगों को अपनी इस कमी को दूर करना चाहिए। जो संस्था, जो देश, जो समाज अपने सेवकों के दुःख का भागीदार नहीं बनता, वृद्धावस्था में उनकी सुध नहीं लेता, उसे अच्छे सेवकों व सपूतों से वञ्चित होना पड़ता है। पूज्य पुरुषों की सुध न लेना कृतज्ञता के अभाव को प्रकट करना है।

रैफरी ने आऊट कर दिया

रैफरी ने आऊट कर दिया

मेरठ के आर्यसमाजी वक्ता श्री पण्डित धर्मपालजी ने एक बार सुनाया कि जब 1955 ई0 में श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज रुग्ण थे तो उनके देहत्याग से पूर्व एक आर्यविद्वान् पं0 प्रकाशवीर जी शास्त्री श्रीमहाराज के स्वास्थ्य का पता करने गये। स्वामीजी से स्वास्थ्य के विषय में पूछा तो आपने कहा-‘‘छोड़िए इस बात को, सब ठीक ही है। आप अपने सामाजिक समाचार सुनाएँ।’’ यह कहकर स्वामीजी ने चर्चा का विषय पलट दिया।

उस विद्वान् महानुभाव ने पुनः एक बार स्वामीजी के स्वास्थ्य की चर्चा चला दी तो स्वामीजी ने बड़ी गज़्भीरता से, परन्तु अपने सहज स्वभाव से कहा-‘‘स्वास्थ्य की कोई बात नहीं, खिलाड़ी

के रूप में खेल के मैदान में उतरे थे। ज़ेलते रहे, खूब खेले।

अब तो रैफ़री ने आऊट कर दिया।’’

मुनि के इस वाज़्य को सुनकर उस विद्वान् ने कहा-‘‘स्वामीजी आप तो कभी आऊट नहीं हुए। अब भी ठीक हो जाएँगे।’’

स्वामीजी महाराज ने कहा-‘‘परन्तु अब तो आऊट हो गये। रैफ़री की व्यवस्था मिल गई है।’’

मुनियों, गुणियों के जप-तप की सफलता की कसौटी की यही वेला होती है। वेदवेज़ा, आजन्म ब्रह्मचारी, योगी, स्वतन्त्रानन्द का वाज़्य, ‘‘खिलाड़ी के रूप में खेल के मैदान में उतरे थे, खेलते रहे, खूब खेले। अब तो रैफ़री ने आऊट कर दिया’’, मनन करने योग्य है। कौन साधक होगा जिसे यतिराज की इस सिद्धि पर अभिमान न होगा। यह हम सबके लिए स्पर्धा का विषय है। ऋषिवर दयानन्द के अमर वाज़्य, ‘‘प्रभु! तेरी इच्छा पूर्ण हो, पूर्ण हो’’, का रूपान्तर ही तो है। आचार्य के आदर्श को शिष्य ने जीवन में खूब उतारा।