Category Archives: Pra Rajendra Jgyasu JI

अन्त भला सो भला:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

पूज्यपाद स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज एक उपदेश देते हुए एक अत्यन्त प्रेरक दृष्टान्त सुनाया करते थे। जिसका शीर्षक या सार था- ‘‘अन्त भला सो भला।’’ श्री पं. ओमप्रकाश जी वर्मा तथा इन पंक्तियों का लेखक प्राय: यह दृष्टान्त सुनाते रहे हैं। आज यहाँ इस दृष्टान्त को तो हम नहीं देंगे। उसके सार पर कुछ निवेदन करेंगे। हमने कई लडक़ों को, युवकों को व बोगस लीडरों को बड़ी-बड़ी डींगें मारते देखा । जिनको ‘आर्य राष्ट्र’ की डुगडुगी बजाते देखा वे भिन्न-भिन्न पार्टियों की परिक्रमा करने वाले दलबदलू निकले। हरियाणा के ओर-छोर लाल-लाल पगडिय़ाँ पहने, दाढ़ीधारी दर्जनों जीवनदानी देखे। ऋ षि दयानन्द के नाम की, उसके मिशन की रट लगाने वाले वे सब जीवनदानी कहाँ गये? आर्यसमाज पर वार-प्रहार हो तो हमने उस समय के और उस परम्परा के किसी जीवनदानी को कभी भी उत्तर देते नहीं देखा। हरियाणा में ही रामपाल ने महर्षि दयानन्द के विरुद्ध विषवमन करते हुये उत्पात मचाया। आचार्य बलदेव मैदान में उतरे। कई एक ने बलिदान दिया। वे जीवनदानी मौन रहे या दिखाई ही नहीं दिये।

डॉ. सुरेन्द्र जी, मान्य डॉ. धर्मवीर जी ने तथा इस लेखक ने लेखनी चलाकर उस उत्पाती को चुनौती दी। रामपाल की करतूतों पर एक विशेषाङ्क हरियाणा से छपा था। उसमें कई सज्जनों के लेख थे। हम तीनों के दो-दो लेख उस विशेषाङ्क में छापे गये। रामपाल को आर्यसमाज हिसार के नेता श्री हरिसिंह जी की प्रेरणा से परोपकारी में शास्त्रार्थ की हमने खुली चुनौती दी। कहाँ थे तब ये जीवनदानी?

सत्यार्थप्रकाश पर दिल्ली में विधर्मियों ने अभियोग चलाया। हमने कोर्ट में किसी जीवनदानी के दर्शन तब नहीं किये। अन्त भला सो भला। घुसपैठ करके यहाँ-वहाँ राजनीतिक उल्लू सीधा करने वाले घुसपैठिये बहुत देखे। मिशन की आग लेकर पं. शान्तिप्रकाश जैसे प्राणवीर क्यों दिखाई नहीं देते।

कोरबा से एक आर्य भाई ने हमारे एक पुराने लेख का सन्दर्भ देकर नरेन्द्रभूषण के बारे में कुछ पूछा। हमने उन्हें लिखा, भाई! क्या बतायें अन्त भला सो भला। हमारी कोमल भावनाओं का, हमारी दुर्बलता का शोषण करके वह वाणी व लेखनी का जादूगर हमें ठगता रहा। सत्यार्थप्रकाश के प्रकाशन के लिये उसे हमारे प्रधान डॉ. ओमप्रकाश जी ने धन भेजा। हमने उसे लिखा कि उनके पिता जी के नाम पर इसे छापा जावे। उसने पाँच-सात प्रतियों पर उनका फोटो व नाम देकर ग्रन्थ छापा। बिक्री का धन कहाँ गया? ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, श्रीकृष्ण, ऋषि जीवन, ऋषि के लघु ग्रन्थों के लिये धन दिया। चारों वेद संहिताओं के लिये धन दिया। गुरुकुल की स्थापना केरल में की। वहीं बैंक में स्थिर निधि रख दी। हमारे यहाँ के दो व्यक्तियों के आप ही हस्ताक्षर करके (हमें पता ही न दिया) सारा धन उसके पुत्र व पत्नी ने बैंक से निकलवाकर हड़प लिया।

हमारा महर्षि दयानन्द भवन (प्रान्तीय कार्यालय) उसके जीतेजी उसके पुत्र व पत्नी ने हड़प लिया। कई बार कई एक को चैक दिये जो बैंक से……….ऐसी धोखाधड़ी! इन दुष्कर्मों का फल उसने भोगा, उसका पुत्र व पत्नी भी भोग रहे हैं, भोगेंगे। एक बार त्रिशूर में कर्नाटक की सभा ने एक कार्यक्रम का आयोजन किया। श्री डॉ. हरिशचन्द्र जी भी वहाँ गये थे। हमें तो बाद में पता चला कि ये बाप-बेटे भी वहाँ गये। इन्होंने वहाँ भी करतूत कर के रंग में भंग डाला। सज्जनो! अन्त भला सो भला। परमात्मा जीवन के अन्तिम श्वास तक हमें पाप कर्मों से बचायें। हमारा पतन ऐसा न हो जो नरेन्द्र भूषण के परिवार का हुआ।

स्वामी श्रद्धानन्द संन्यास-दीक्षा शताब्दी:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

यह वर्ष महाप्रतापी संन्यासी, शूरता की शान स्वामी श्रद्धानन्द जी का संन्यास दीक्षा शताब्दी वर्ष है। वर्ष भर हम परोपकारी में स्वामी जी महाराज के जीवन व देन पर कुछ न कुछ लिखते रहेंगे। वर्ष भर परोपकारिणी सभा कई कार्यक्रम आयोजित करेगी और करवायेगी। इस लेखक द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज पर अब तक का सबसे बड़ा ग्रन्थ ‘शूरता की शान-स्वामी श्रद्धानन्द’ चार-पाँच मास तक छप जायेगा। इसमें पर्याप्त ऐसी सामग्री दी जा रही है जो अब तक किसी ग्रन्थ में नहीं दी गई। दस्तावेजों को स्कैन करके भी ग्रन्थ में दिया जायेगा।

आज-भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ- स्वामी श्रद्धानन्द जी की शूरता की एक अनूठी घटना यहाँ संक्षेप में दी जाती है। सन् १९०५ के मार्च मास में पंजाब के एक देशभक्त ला. दीनानाथ जी ने अपने पत्र में एक गोरे द्वारा एक भारतीय को मारे जाने की दु:खद घटना का समाचार प्रकाशित कर दिया। तब ऐसा करना बड़े साहस का कार्य था। ऐसा ही एक समाचार प्रकाशित करने के कारण श्री लाला लाजपतराय जी पर सरकार ने अभियोग चला दिया था। ला. दीनानाथ पर भी विपत्तियों के पर्वत टूट सकते थे।

श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी ने उनकी पुष्टि में ‘गोराशाही की करतूत’ शीर्षक से ‘सद्धर्मप्रचारक’ में एक लम्बा लेख देने का जोखिम उठाया। यह दुर्लभ अंक हमारे पास है। उस समय महात्मा मुंशीराम के रूप में पूज्यपाद स्वामी जी शिमला से अम्बाला छावनी पहुँचे। उन्हें वहाँ से मुम्बई मेल से आगे की यात्रा करनी थी। ट्रेन के आने में बहुत देर थी। प्लेटफार्म पर चार गोरे सैनिकों ने शराब के नशे में उत्पात मचा रखा था। जो भी भारतीय यात्री उनको दिखाई देता उस पर वे टूट पड़ते। ठुडे (बूट पहने ठोकरें लगाते) मारते हुये, यात्रियों की पिटाई-धुनाई कर देते।

भयभीत यात्री जान बचाते भाग खड़े हुये। रेलवे के अधिकारी असहाय मूक दर्शक बने बैठे थे। गोरों ने प्लेटफार्म पर लम्बे-चौड़े, निर्भीक मुनि महात्मा मुंशीराम जी को भी देखा, परन्तु निर्भीक, वीर, आर्य तपस्वी पर हाथ उठाने की उनकी हिम्मत न हुई। न ही शूरता की शान हमारे महात्मा जी डरकर वहाँ से भागे। यह घटना तीन जून सन् १९०५ को घटी। महात्मा जी ने छ: जून १९०५ के ‘सद्धर्म प्रचारक’ के लेख में उक्त घटना प्रकाशित कर दी। गोरे सैनिक महात्मा जी के निकट आये और कहा, ‘‘टुम शीख है?’’ अर्थात् क्या तुम सिख हो? महात्माजी ने कहा, नहीं मैं सिख तो नहीं हँू। उनके सिर के बाल व दाढ़ी देखकर गोरों ने ऐसा कहा।

फिर कहा, हमें सिखों से डर लगता है। वे हमें नदी में डुबोते हैं। महात्मा जी ने कहा, यदि वे तुम्हें शराब, व्हिस्की की नदी में डुबो दें तो कैसा लगे? उन्होंने कहा, यह तो बहुत आनन्ददायक होगा। ऐसी कुछ चर्चा नशे में डूबे उन क्रूर सैनिकों ने स्वामी जी से की। किसी राष्ट्रीय ख्याति के नेता के साथ शराब के नशे में धुत गोरे सैनिकों की यह इकलौती घटना हमारे स्वराज्य-संग्राम का स्वर्णिम पृष्ठ है।

जब सब असहाय भारतीय यात्री पिटाई के डर से प्लेटफार्म से भाग निकले तो अकेले महात्मा मुंशीराम वहीं डटकर विचरते रहे। इतने पर ही बस नहीं, श्री महात्मा जी ने घटना घटित होने के चौथे ही दिन अपने लोकप्रिय पत्र ‘सद्धर्म प्रचारक’ में इसे प्रकाशित करके अपनी निर्भीकता का परिचय देकर सबको चकित कर दिया। गोराशाही की उस युग में ऐसी धज्जियाँ उड़ाने वाला ऐसा शूरवीर नेता और कौन था? इस देश के इतिहास में महर्षि दयानन्द के पश्चात् ऐसे कड़े शब्दों में गोरों के अन्याय व उत्पात की कड़े शब्दों में निन्दा करने वाला पहला साधु महात्मा यही शूरता की शान श्रद्धानन्द ही था। कोई और नहीं।

श्री कृष्ण पर घृणित प्रहार की यह परम्परा:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

श्री कृष्ण पर घृणित प्रहार की यह परम्परा:- जयपुर राज्य से एक भक्त ने महर्षि दयानन्द को एक पत्र लिखकर यह सूचना दी कि यहाँ जयपुर (हिन्दू राजा के राज्य में) के गली-बाजारों में ईसाई पादरी अपने मत का प्रचार करते हुये श्री राम तथा श्री कृष्ण महाराज की बहुत निन्दा करते हैं। उस भक्त की भावना तो स्पष्ट ही थी। वह ईसाई पादरियों के दुष्प्रचार को रोकने के लिये ऋषि जी को जयपुर आने के लिये गुहार लगा रहा था। उस सज्जन के पत्र में यह समाचार पाकर प्यारे ऋषि का मन बहुत आहत हुआ। ऋषि जी ने ऐसे ही किसी प्रसंग में एक बार यहाँ तक कहा था कि सब कुछ सहा जा सकता है, परन्तु श्री राम-कृष्ण आदि महापुरुषों का अपमान नहीं सहा जा सकता।

अभी भारत के एक जाने-माने वकील श्री प्रशान्त भूषण महोदय ने श्री कृष्ण महाराज पर लड़कियों की छेड़छाड़ का दोष लगा दिया। सत्य इतिहास क्या है यह वकील जी भी भली प्रकार से जानते हैं, परन्तु कुछ लोगों को दूसरों का मन दुखाने में ही आनन्द आता है।

श्री लाला लाजपतराय जी ने महर्षि दयानन्द के एक वाक्य से प्रेरणा पाकर इस देश में श्री कृष्ण के निष्कलङ्क जीवन पर सबसे पहले एक पठनीय पुस्तक में यह लिखा था कि संसार के अन्य महापुरुषों का अपमान तो उनके विरोधियों ने किया, परन्तु श्री कृष्ण का अपमान तो उनके भक्तों ने किया। महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि महाभारत में तो श्री कृष्ण जी के जीवन पर आक्षेप करने वाली कोई अभद्र घटना या पाप-कर्म का उल्लेख नहीं, परन्तु पुराणों में वर्णित रासलीला व गोपियों से छेड़छाड़ की मिथ्या कहानियों का भक्तों ने ही अधिक प्रचार किया। इसका लाभ विरोधियों व विधर्मियों ने जी भरकर उठाया।

ऋषि दयानन्द ने तो यहाँ तक लिखा है कि श्री कृष्ण ने जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त कोई पाप नहीं किया। महाभारत में वर्णित घटनाओं से भी यही प्रमाणित होता है। पुराणों में वर्णित कहानियाँ अस्वाभाविक, मनगढ़न्त, एक-दूसरे से भिन्न और परस्पर विरोधी भी हंै। लंदन से प्रकाशित तथा कलकत्ता से प्रचारित ईसाइयों की एक बहुत पुरानी पुस्तक हमारे पास है जो इस समय मिल नहीं रही। उसमें श्री कृष्ण के चरित्र पर भी कई गम्भीर दोष लगाये गये हैं। उस पुस्तक  में वर्णित बातें उद्धृत करने से भी हमारा मन दुखता है।

वही लेखक आगे चलकर सत्यार्थप्रकाश तथा महर्षि दयानन्द जी की चर्चा न करते हुये ऋषि के वाक्य दोहराता है कि महाभारत के श्री कृष्ण नीतिमान्, विद्वान्, दार्शनिक तथा गुणी महापुरुष हैं। उस लेखक के उसी ग्रन्थ की अन्त:साक्षी से सिद्ध है कि उसने ऋषि का अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश पढ़ रखा है।

यह हो नहीं सकता कि रासलीला रचाने वाले पौराणिकों ने तथा श्री प्रशान्त भूषण सरीखे उलटी-पुलटी बातें करके विवाद खड़ा करने वालों ने यह न पढ़ा हो कि गीता में कहा गया है कि जिसने इन्द्रियों का वशीकरण किया हो उसी की संज्ञा प्रतिष्ठित है अर्थात् वही……..(बड़ा व्यक्ति है)। दुर्भाग्य की बात है कि किसी भी हिन्दू लीडर ने गीता के इस प्रमाण से श्रीमान् प्रशान्त भूषण के आपत्तिजनक कथन का विरोध नहीं किया।

कभी संघ में एक गीत बड़े जोश से गाया जाता था:-

निज गौरव को निज वैभव को

क्यों हिन्दू बहादुर भूल गये?

इसी सुन्दर गीत में यह मार्मिक पंक्तियाँ गाई जाती थीं-

क्यों रास रचाना याद रहा?

क्यों चक्र चलाना भूल गये?

दु:ख का विषय है कि ऐसे ओजस्वी गीत यह देश भूल गया। किसी भी हिन्दू विद्वान् ने प्रशान्त भूषण जी को झकझोरा नहीं। पहले जेठमलानी जी के श्री राम पर प्रहार का मान्य धर्मवीर जी ने सप्रमाण प्रतिवाद किया, अब हम प्रशान्त भूषण जी के घातक कथन का प्रतिवाद करते हैं। यह स्मरण रखिये कि जब तक रासलीलायें हैं तब तक श्रीकृष्ण की निन्दा करने का दु:साहस कोई न कोई करेगा। आर्यसमाज ऋषि दयानन्द, लाला लाजपतराय, पं. चमूपति आदि अपने पूर्वजों का अनुकरण करता है, अनर्थ अनाचार से टक्कर लेने से पीछे नहीं हटेगा।

इन्हें आर्यसमाज से क्या लेना-देना:- राजेन्द्र जिज्ञासु

प्रतिवर्ष आर्यसमाज की शिक्षण संस्थाओं आर्य स्कूलों, कॉलेजों, डी.ए.वी. विद्यालयों से बीसियों शिक्षक प्रिंसिपल रिटायर होते हैं। सर्विस में रहते हुए समाजों व सभाओं के पदों से चिपक जाते हैं। रिटायर होने पर कभी साप्ताहिक सत्संग में इनको नहीं देखा जाता। ऐसा क्यों? यह चर्चा कहीं एक सम्मेलन में कुछ भाई कर रहे थे। मुझे देखकर पूछा- ‘ऐसा क्यों होता है?’ मैंने कहा- ऐसे लोग अपने पेट के लिए, प्रतिष्ठा के लिये समाज में घुसते हैं। उनमें मिशन की अग्नि होती ही नहीं। अम्बाला में एक रामचन्द्र नाम के डी.ए.वी. के हैडमास्टर थे। मथुरा जन्म शताब्दी पर ‘आर्य गज़ट’ के विशेषाङ्क में महात्मा हंसराज, पं. भगवद्दत आदि के साथ उनका भी लेख छपा था। रिटायर होते ही मृतक-श्राद्ध पर लेख देकर सनातन धर्म के नेता बन गये। प्रिं. बहल प्रादेशिक सभा के प्रधान रहे। रिटायर होकर किसी ने चण्डीगढ़ में उनको आर्यसमाज मन्दिर के पास फटकते नहीं देखा। अब आर्यजगत् में और कुछ हो न हो, महात्मा आनन्द स्वामी जी पर तो सामग्री होती ही है। अध्यापक लोग महात्मा जी पर वही अपनी घिसी-पिटी सामग्री देते रहते हैं। प्रयोजन धर्म प्रचार नहीं, कुछ और है।

वैदिक धर्म पर विधर्मी वार करते रहते हैं। पुस्तक मेले पर ऐसा साहित्य खूब बंटा व बिका। इन मैडमों व प्रिंसिपलों ने कभी उत्तर दिया? श्रद्धाराम पर सरकार ने पुस्तक छापी। उसमें ऋषि पर जमकर प्रहार किया। परोपकारिणी सभा ने झट से उत्तर छपवा दिया। इन्होंने प्रसार में क्या सहयोग किया। ये तो दर्शनी हुण्डियाँ हैं। महात्मा आनन्द स्वामी जी पर इन्हीं के कहने से मैंने ‘आनन्द रसधारा’ पुस्तक समय से पहले लिखकर दे दी। श्री अजय जी ने छाप दी। महात्मा आनन्द स्वामी जी के इन दर्शनी भक्तों के लेखों में उस पुस्तक के हृदयस्पर्शी प्रसंग यथा ‘चरण स्पर्श प्रतियोगिता’ आदि कभी किसी ने पढ़ा क्या?

वह कथनी को करनी का रूप न दे सके:- राजेन्द्र जिज्ञासु

मालवीय जी ने पं. दीनदयाल से कहा, ‘‘मुझसे विधवाओं का दु:ख देखा नहीं जाता।’’ इस पर उन्होंने कहा- ‘‘परन्तु सनातनधर्मी हिन्दू तो विधवा-विवाह नहीं मानेंगे। क्या किया जाये?’’ इस पर मालवीय जी बोले, ‘‘व्याख्यान देकर एक बार रुला तो मैं दूँगा,  सम्भाल आप लें।’’

इन दोनों का वार्तालाप सुनकर स्वामी श्रद्धानन्द जी को बड़ा दु:ख हुआ। आपने कहा, ‘‘ये लोग जनता में अपना मत कहने का साहस नहीं करते। व्याख्यानों में विधवा-विवाह का विरोध करते हैं।’’

मालवीय जी शुद्धि के समर्थक थे परन्तु कभी किसी को शुद्ध करके नहीं दिखाया।

हटावट मिलावट दोनों ही पाप कर्म- धर्मग्रन्थों में मिलावट भी पाप है। हटावट भी निकृष्ट कर्म है। परोपकारिणी सभा के इतिहास लेखक ने ऋषि-जीवन में, ऋषि के सामने जोधपुर में आर्यसमाज स्थापना की मनगढ़न्त कहानी जोड़ दी, दयानन्द आश्रम के लिये उस युग में प्राप्त २४०००/- रुपये की आश्चर्यजनक राशि की घटना की हटावट एक दु:खदायक पाप कर्म है। ऐसे ही सभा द्वारा मौलाना अब्दुल अज़ीज की शुद्धि व स्वामी नित्यानन्द विश्वेश्वरानन्द जी को आर्यसमाज में सभा ने खींचा। इस हटावट का कारण समझ में नहीं आया। यह भी पाप है।

कहीं से जानकारी मिले तो पता दीजिये:- कर्नल प्रतापसिंह ने अपनी आत्मकथा में ऋषि के जोधपुर आगमन व विषपान पर एक अध्याय तो क्या एक पृष्ठ भी नहीं लिखा। इसी प्रकार उसके जीवन काल में जहाँ-जहाँ से उसका जीवन परिचय (उसी से प्राप्त सामग्री के आधार पर) छपा किसी ने भी ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का कतई उल्लेख नहीं किया। ‘भारत के सपूत’ नाम की पुस्तक इसका प्रमाण है। यदि किसी देशी-विदेशी लेखक की पुस्तक में कर्नल प्रतापसिंह की ऋषि-भक्ति व समाज-प्रेम की कोई घटना दी गई हो तो कृपया उसकी जानकारी दी जाये।

श्री दुर्गासहाय ‘सरूर’:- देश के मूर्धन्य कवि, आर्यसमाज के रत्न श्री दुर्गासहाय सरूर की रचनाओं का संग्रह ‘हृदय की तड़पन’ प्रकाशन आधीन है। वह आर्यसमाजी कैसे बने? यह प्रामाणिक जानकारी और पं. लेखराम पर उनकी मुसद्दस चाहिये। क्या कोई सभा संस्था सहयोग करेगी। उत्तराखण्ड सरकार को भी पत्र तो लिखा है। वह पीलीभीत जि़ला अन्तर्गत जहानाबाद निवासी थे। समाज के मन्त्री रहे। उनके मेरठ निवासकाल व समाज-सेवा की कोई प्रामाणिक घटना भी चाहिये।

 

लाला लाजपतराय की मनोवेदना और उनके ये लेख:- राजेन्द्र जिज्ञासु

एक स्वाध्याय प्रेमी युवक ने लाला लाजपत राय जी के आर्यसमाज पर चोट करने वाले एक लेख की सूचना देकर उसका समाधान चाहा। दूसरे ने श्री घनश्यामदास बिड़ला के नाम उनके उस पत्र के बारे में पूछा जिसमें लाला जी ने अपने नास्तिक होने की चर्चा की है। मैंने अपने लेखों व पुस्तकों में इनका स्पष्टीकरण दे दिया है। लाला जी पर मेरी पुस्तक में सप्रमाण पढ़ा जा सकता है। जब उनके मित्रों ने, कॉलेज पार्टी ने उनसे द्रोह करके सरकार की उपासना को श्रेयस्कर मान लिया तो लाला जी के घायल हृदय का हिलना, डोलना स्वाभाविक था। उधर महात्मा मुंशीराम की शूरता, अपार प्यार और हुँकार ने उनका हृदय जीत लिया। घायल हृदय को शान्ति मिली। स्वामी जी के बलिदान पर दिल्ली की विराट सभा में बोलते समय उनके नयनों से अश्रुकण टप-टप गिर रहे थे। तब उस केसरी की दहाड़ यह थी, ‘‘श्रद्धानन्द तुम्हारे जीवन पर भी मैंने सदा रश्क (स्पर्धा) किया और मौत पर भी रश्क करता हूँ। भगवान् मुझे भी ऐसी ही मौत दे तो मैं इतना समझूँगा कि मैं तुमसे आगे न बढ़ सका तो पीछे भी न रहा।’’

यह तो है नास्तिकता विषयक उनके उस पत्र का उन्हीं के द्वारा अन्तिम वेला में प्रतिवाद। वह योग भी सीखते रहे। उनके साथ जो छल किया गया, जो अन्याय किया गया, उसकी प्रतिक्रिया में क्रोध में आकर यदा-कदा बहुत कुछ कहा परन्तु पटियाला राजद्रोह अभियोग में वे महात्मा मुंशीराम के साथ आर्यसमाज की रक्षा के लिये खड़े थे। श्रीयुत अमरनाथ कालिया की पुस्तक के प्राक्कथन को पढिय़े, आर्यसमाज के लिये उनके उद्गार क्या हैं? उनकी हुँकार की रंगत पं. लेखराम समान थी। शेष कभी फिर लिखा जायेगा।

सभी मौन साध लेते हैं:- राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री लक्ष्मण जी ‘जिज्ञासु’ आदि कुछ भावनाशील युवकों ने परोपकारिणी सभा को वेद और आर्य हिन्दू जाति के विरुद्ध विधर्मियों की एक घातक पुस्तिका की सूचना दी। सभा ने एक सप्ताह के भीतर ज्ञान-समुद्र पं. शान्तिप्रकाश जी का एक ठोस खोजपूर्ण लेख परोपकारी में देने की व्यवस्था कर दी। आवश्यकता अनुभव की गई तो पुस्तक का उत्तर पुस्तक लिखकर भी दिया जायेगा। मिशन की आग जिन में हो वही ऐसे कार्य कर सकते हैं। विदेशों में भ्रमण करने वाले कथावाचक तो कई हो गये। मेहता जैमिनी, डॉ. बालकृष्ण, पं. अयोध्याप्रसाद, स्वामी विज्ञानानन्द, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी की परम्परा से एक डॉ. हरिश्चन्द्र ही निकले। जिन में पीड़ होगी वही विरोधियों के उत्तर देंगे। दर्शनी हुण्डियाँ काम नहीं आयेंगी। इन महाप्रभुओं ने कभी श्याम भाई, पं. नरेन्द्र, देहलवी जी, कुँवर सुखलाल, पं. लेखराम, आर्यमुनि जी पर एक पृष्ठ नहीं लिखा। इनसे क्या आशा करनी?

परोपकारिणी सभा की एक देन क्यों भूल गये: राजेन्द्र जिज्ञासु

राजस्थान ने अतीत में पं. गणपति शर्मा जी, पूज्य मीमांसक जी आदि कई विभूतियाँ समाज को दीं। स्वामी नित्यानन्द जी महाराज भी वीर भूमि राजस्थान की ही देन थे और पं. गणपति शर्मा जी से तेरह वर्ष बड़े थे। श्री ओम् मुनि जी कहीं से एक दस्तावेज़ खोज लाये हैं। उसका लाभ पाठकों को आगे चलकर पहुँचाया जावेगा। आज महात्मा नित्यानन्द जी के अत्यन्त शुद्ध, पवित्र और प्रेरक जीवन के कुछ विशेष और विस्तृत प्रसंग देकर पाठकों को तृप्त किया जायेगा। आर्यसमाज के प्रथम देशप्रसिद्ध शीर्षस्थ विद्वान् स्वामी नित्यानन्द ही थे, जिन्होंने पंजाब के एक छोर से मद्रास, हैदराबाद, मैसूर, बड़ौदा आदि दूरस्थ प्रदेशों तक वैदिक धर्म का डंका बजाया था। आपका जन्म सन् १८६० में जालौर (जोधपुर) में हुआ।

छोटी आयु में गृह त्यागकर विद्या प्राप्ति के लिये काशी आदि कई नगरों में कई विद्वानों के पास रहकर ज्ञान अर्जित किया।

घूम-घूमकर कथा सुनाते रहे। महर्षि दयानन्द जी के अमर बलिदान पर आपका झुकाव एकदम आर्यसमाज की ओर हो गया। श्रीयुत अमरनाथ जी कालिया एक तत्कालीन आर्य लेखक की पठनीय अलभ्य पुस्तक से पता चलता है कि ऋषि के बलिदान के पश्चात् परोपकारिणी सभा के प्रथम उत्सव में स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी के साथ आपने भी सोत्साह भाग लिया था। इस कथन में सन्देह का कोई प्रश्न ही नहीं उठता परन्तु इसकी पुष्टि में किसी अन्य पत्र-पत्रिकाओं से प्रमाण की सघन खोज की जायेगी।

परोपकारिणी सभा ने इस नररत्न को खींच लिया:- श्री अमरनाथ जी ने ही यह लिखा है कि परोपकारिणी सभा के प्रथम उत्सव में ही इन दोनों की सभा के तथा आर्यसमाज के नेताओं से बातचीत हुई तो सबको यह जानकर हार्दिक आनन्द हुआ कि दोनों विद्वान् संन्यासी दृढ़ आर्यसमाजी बन गये हैं। उसी समय से आर्यसमाज में प्रविष्ट होकर समर्पण भाव से दोनों वेद-प्रचार करने में सक्रिय हो गये। ऋषि जी के प्रति सभा की यह प्रथम बड़ी श्रद्धाञ्जलि मानी जानी चाहिये। वेद-प्रचार यज्ञ में निश्चय ही यह सभा की प्रथम व श्रेष्ठ आहुति थी।

स्वामी नित्यानन्द जी के जीवन के ऐतिहासिक व अद्भुत प्रसंग लिखने की आवश्यकता है। राजस्थान में तो इस दिशा में किसी ने कुछ किया ही नहीं। दक्षिण के पत्रों में इनकी विद्वत्ता पर स्मरणीय लेख छपे। वीर चिरंजीलाल के पश्चात् धर्म-प्रचार में बन्दी बनाये गये आर्य पुरुष आप ही थे। ऋषि के पश्चात् आपके ब्रह्मचर्य-व्रत की अग्नि-परीक्षा की गौरवपूर्ण घटना फिर कभी दी जायेगी।

जाति-पाँति आदि रोग रहेंगे तो:- राजेन्द्र जिज्ञासु

बिहार में गंगा पार करते कितने तीर्थ यात्री मर गये। भगदड़ में यहाँ-वहाँ मरे। प्रयाग में इतनी शीत में यमुना में, त्रिवेणी में डुबकी लगाने वालों का क्या विधि विधान होता है? अव्यवस्था से प्रतिवर्ष इतने तीर्थ यात्री मर जाते हैं। यह बड़े दु:ख की बात है। सरकारें पर्यटन के नाम पर तीर्थ-यात्राओं को, अन्धविश्वास को प्रोत्साहन देती हैं। प्रत्येक नदी का महत्त्व है। गंगा, यमुना, नर्मदा की महिमा गा-गाकर आरती उतारना जड़ पूजा है। यह अन्धविश्वास है। क्या कृष्णा, कावेरी, भीमा नदी का महत्व नहीं? नदी में स्नान से मोक्ष लाभ नहीं। गंगा, गायत्री, गौ व तुलसी की तुक मिलाकर धर्म की नई विशेषता गढ़ी गई है। उपनिषदों में, गीता में, मनुस्मृति में इसका उल्लेख है कहीं? लोगों को वेद विमुख करने के लिये यह फार्मूला गढ़ा गया है। अदरक का, नीम का, काली मिर्ची का, गन्ने का, नारियल का, केले का, बादाम व मूंगफली का क्या तुलसी से कम महत्त्व है? वेद में तो सब वनस्पतियों, औषधियों का गुणगान है। हमारे क्षेत्र में एक संस्था ने हिन्दू धर्म के नाम पर तुलसी के पौधे घरों में लगाने के लिये वितरित किये। आस्था के नाम पर…….।

हिन्दू संगठन का राग छेडऩा तो अच्छा लगता है परन्तु संगठन के, एकता के सूत्र क्या हैं? हिन्दुओं की जाति-पाँति, मन्दिर-प्रवेश की रुकावटें, फलित ज्योतिष, विधवा विवाह का निषेध, बाल-विवाह, मृतक-श्राद्ध आदि कुरीतियों व अंधविश्वासों का आज पर्यन्त किसी हिन्दू संगठन ने खण्डन किया? अस्पृश्यता, जाति बहिष्कार, वेद के पढऩे से स्त्रियों तथा ब्राह्मणेतर को वञ्चित करने का विरोध हिन्दू संगठन करने वाली किस संस्था ने किया? निर्मल दरबार की किसी ने पोल खोली! जो अन्धविश्वासों का खण्डन करे, वह बुरा। जाति-पाँति तोड़ कर जब तक विवाह करने का आन्दोलन लोकप्रिय नहीं होगा, हिन्दू की रक्षा और संगठन की लहर सफल न होगी।

सामूहिक बलात्कार के समाचार टी.वी. पर सुनकर कलेजा फटता है। इस पाप की निन्दा में कोई लहर देश में दिखाई नहीं देती। आत्महत्या का महारोग बढ़ रहा है। धर्म-प्रचार व व्यवस्था अब धर्माचार्य नहीं कोई और ही रिमोट कन्ट्रोल से….. दुर्भाग्य यही है।

मुंशी प्रेमचन्द और आर्यसमाज- राजेन्द्र जिज्ञासु

मुँशी प्रेमचन्द जी पर लिखने वाले प्राय: सभी साहित्यकारों ने उनके जीवन और विचारों पर आर्यसमाज व ऋषि दयानन्द की छाप पर एक-दो पृष्ठ तो क्या, एक-दो पैरे भी नहीं लिखे। उन्हें गाँधीवाद व माकर््स की उपज ही दर्शाया गया है। श्री ओमपाल ने उनके साहित्य पर आर्य विचारधारा की छाप सिद्ध करते हुए पीएच.डी. भी किया है। उनका शोध प्रबन्ध ही नहीं छपा। जब मैंने ऋषि दयानन्द पर लिखी गई उनकी एक श्रेष्ठ कहानी ‘आपकी तस्वीर’ खोज निकाली और ‘आपका चित्र’ नाम से उसे अपने सम्पादकीय सहित पुस्तिका रूप में छपवा दिया तो प्रेमचन्द जी के नाम पर सरकारी अनुदानों से लाभ उठाने वाले प्रेमचन्द विशेषज्ञों ने मेरा उपहास उड़ाया। यह फुसफुसाहट मुझे आर्य बन्धुओं से ही पता चली। यहाँ तक कहा गया कि प्रेमचन्द जी ने तो ऐसी कोई कहानी लिखी ही नहीं।

आर्यसमाज से मेरे पक्ष में कोई ज़ोरदार आवाज़ उठाकर ऐसे लोगों की बोलती ही बन्द न की गई। श्री इन्द्रजित् देव, श्री धर्मपाल जी मेरठ अवश्य मेरे पक्ष में थे। जब मैंने ‘प्रकाश’ में छपी उस कहानी का छायाचित्र तक छपवा दिया। हिन्दू मूर्तिपूजा करता है। आरती उतारता है, उस कहानी का आरम्भ ‘सन्ध्या का कमरा’ से होता है। राजा को प्रेमचन्द कहते हैं ‘तेरे राज्य की सीमा तो मैं एक दौड़ में पार कर सकता हूँ’ इस वाक्य को ऋषि जीवन से लिये जाने का प्रमाण दिया तो खलबली सी मच गई। उन्हीं विशेषज्ञों के पत्र आने लगे। मुझसे मेरे द्वारा इसके अनुवाद के प्रकाशन की अनुमति ली गई। आर्य पत्रों विशेष रूप से ‘प्रकाश’ में छपी उनकी और और कहानियाँ माँगी गईं। मेरा नाम लेकर स्वामी सम्पूर्णानन्द जी के पुस्तकालय को देखने के बहाने कुछ सामग्री चुराकर ले गये।

अब फिर मेरे पीछे लगे हैं कि ‘प्रकाश’ की फाइलों में से आप प्रेमचन्द जी की और कहानियाँ हमें देने की कृपा करें। इन लोगों को आर्यसमाज का गौरव नहीं सुहाता। इनका प्रयोजन कुछ और ही है। इसलिये मैं भी सावधान हो गया। ‘प्रताप’ में भी मुँशी जी की कहानियाँ छपती रहीं। मैंने पढ़ी हैं। और लो! अपने निधन से पहले आपने ‘कर्मफल’ कहानी आर्यसमाज के लोकप्रिय मासिक ‘आर्य मुसा$िफर’ को भेजी। उसके छपने में विलम्ब होता गया। मुंशी जी के निधन के कुछ समय बाद यह ‘आर्य मुसा$िफर’ में छप गई। भले ही किसी और ने इसका हिन्दी अनुवाद छपवा दिया हो, मैं भी चाहता हूँ कि इस कहानी के साथ दो-तीन आर्य विचारधारा की प्रेमचन्द जी की और कहानियों का हिन्दी अनुवाद करके एक साठ पृष्ठ का संग्रह अपने सम्पादकीय सहित प्रकाशित करवा दूँ। मैं स्वयं तो इसे प्रकाशित नहीं करूँगा। ‘आपका चित्र’ के प्रकाशन का प्रादेशिक भाषाओं में करने का अधिकार भी मुझसे लिया गया परन्तु हुआ कुछ भी नहीं। मिशन की आग और संगठन के तेज के बिना ऐसे कार्य नहीं होते। मैंने तो नि:शुल्क सेवा कर दी।

इतिहासज्ञ स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तथा प्रो. जयचन्द्र विद्यालङ्कार:- आर्यसमाज में बहुत से व्यक्ति प्रो. जयचन्द्र जी विद्यालङ्कार के नाम की तोता रटन तो लगाते देखे हैं। उनके सम्बन्ध में श्री धर्मेन्द्र जी ‘जिज्ञासु’ ही प्रामाणिक ज्ञान रखते हैं और मेरे अतिरिक्त इस समय आर्यसमाज में सम्भवत: दूसरा व्यक्ति कोई नहीं मिलेगा, जिसने उनसे कभी बातचीत की हो। एक भले लेखक ने तो उन्हें डी.ए.वी. कॉलेज लाहौर का प्रो$फैसर लिख दिया है। गप्पों से तो प्रामाणिक लेखन की एक लम्बी शृंखला के लेखकों, विद्वानों को जन्म देने वाले आर्यसमाज का गौरव घटता है।

इतिहासज्ञ होने की डींग मारने वालों ने कभी इतिहासकारों में नामी पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का तो नाम तक नहीं लिया, जबकि बड़े-बड़े विधर्मी यथा प्रि. गंगासिंह, प्रि. भाई जोधसिंह उन्हें इतिहास का अद्वितीय विद्वान् और मर्मज्ञ मानते थे। न जाने इन बौने दिमागों को स्वामी जी के व्यक्तित्व से क्या चिढ़ है। क्रान्तिकारियों के गुरु आचार्य उदयवीर जी के साथी प्रो. जयचन्द्र जी श्रद्धेय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज से इतिहास की गुत्थियाँ सुलझवाने आते रहते थे। लाहौर में भी आते थे और फिर दीनानगर भी अपनी समस्याएँ लेकर आते रहते थे।

एक बार प्राचीन भारत के पुराने नगरों के उस समय के नामों की जानकारी स्वामी जी से माँगी तो आपने उनका उल्लेख करके ‘आर्य’ मासिक में एक ठोस लेख दिया। मेरा तात्पर्य यह है कि इतिहासज्ञ जयचन्द्र जी शिष्य भाव से जिनके पूज्य चरणों में आते रहते थे, वह तो श्रद्धेय स्वामी जी को इतिहासज्ञों में शिरोमणि मानते थे और आर्यसमाज में कुछ लोगों ने कभी उनकी विद्वत्ता, प्रामाणिकता व देन पर दो पंक्तियाँ नहीं लिखीं। महाशय कृष्ण जी, पं. चमूपति और आचार्य प्रियव्रत उनके ज्ञान व खोज को नमन करते थे।

प्रसंगवश बता दूँ कि बिना प्राथमिकी (एफ.आई. आर.) के एक लम्बे समय तक मुझ पर गुरुद्वारा सिग्रेट केस चलाया गया। आर्यसमाज के दबाव, महाशय कृष्ण जी और लाला. जगतनारायण जी के लेखों के कारण यह केस सरकार को हटाना पड़ा। इनके साथ-साथ प्रो. जयचन्द्र जी ने इस केस को हटाने में कुछ भूमिका निभाई। वह जानते थे कि जिज्ञासु श्री स्वामी जी का चेला है। मिथ्या दोष लगाकर सरकार केस चलाकर बहुत अन्याय कर रही है। हमारे इन नये-नये कृपालु लेखकों की कृपा से जयचन्द्र जी को भी आर्यसमाज से बेगाना बना दिया गया है। भ्रान्ति-निवारण के लिये यह प्रसंग किसी उत्साही भाई की प्रेरणा से दिया है। किसी को तो प्रेरणा प्राप्त होगी ही।