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वैदिक साहित्य और संस्कृति पर मैकाले और मैक्समूलर से भी घातक आक्रमण

वैदिक साहित्य और संस्कृति पर

मैकाले और मैक्समूलर से भी घातक आक्रमण

आज के इस सन्दर्भ में आर्य समाज को एक दुरभाग्यशाली संस्था कहा जायेगा, जिसके संस्थापक ने इसको आज विश्व में निर्णायक भूमिका निभाने का सामर्थ्य दिया था। आज वह घटनाक्रम में पटल से भी ओझल है। अंग्रेजों ने मैक्समूलर के माध्यम से इस देश की भाषा संस्कृत और संस्कृति का भरपूर नाश किया। बहुत अंशों में इस प्रयास को सफल कहा जायेगा, परन्तु ऋषि दयानन्द ने उसकी योग्यता पर टिप्पणी करते हुए कहा था- यस्मिन् देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते। जिस देश में पेड़ नहीं होते, वहाँ लोग एरण्ड को ही पेड़ समझते हैं। ऋषि ने मैक्समूलर की सभी वेद-विरोधी  धारणाओं का खण्डन करते हुए, उनकी विद्वत्ता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया था। श्याम जी कृष्ण वर्मा के माध्यम से उन्होंने कहलवाया था- मैक्समूलर जैसे विद्वान् भारत की गली-गली में मिल जाते हैं। ऋषि के समय तक यह सच भी था, परन्तु आज मैकाले और मैक्समूलर की योजना के परिणामस्वरूप इस देश में संस्कृत के विद्वान् खोजने पर भी नहीं मिल पाते। यहाँ के लोगों की दृष्टि में आज पाश्चात्य लोग ही संस्कृत के प्रामाणिक भाष्यकार बन बैठे हैं। ऋषि दयानन्द ने आर्य समाज को वेदाध्ययन की जो दृष्टि दी थी, उसने उस वेदाध्ययन और संस्कृत के पठन-पाठन को स्वयं से दूर कर लिया और टाई लगाकर अंग्रेजी बोलने को ही जीवन का परम लक्ष्य बना लिया तो आज उसके पास क्या सामर्थ्य है कि वह वेद और संस्कृत के विषय में अपना कोई पक्ष रख सके?

वर्तमान घटनाक्रम में 2 मार्च के वाशिंगटन पोस्ट में समाचार प्रकाशित हुआ- हारवर्ड विश्वविद्यालय की प्राचीन संस्कृत साहित्य के अंग्रेजी अनुवाद की कार्य योजना पर दक्षिण पन्थी हिन्दुओं का आक्रोश। इस समाचार में घटना और उसकी प्रतिक्रिया की चर्चा की गई है। इस समाचार को समझने के लिए हमें इसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा। सन् 1832 में लैटिनेंट कर्नल जोसेफ बोडेन ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत की चेयर स्थापित की थी, जिसमें मैक्समूलर को संस्कृत ग्रन्थों-विशेषतः वेदों के अनुवाद का काम सौंपा गया था। उनका उद्देश्य मात्र वैदिक साहित्य एवं संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करना था। विशेष रूप से हिन्दुओं की आस्था को समाप्त करने के लिये वेदों के गलत व्याखयान करना था। इसी तरह अब सन् 2010 में इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने 5.2 मिलयन डॉलर से ‘मूर्ति क्लासिकल लाईब्रेरी ऑफ इण्डिया’ नाम से एक निधि स्थापित की है, जिसके माध्यम से प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों का प्रामाणिक रूप से अंग्रेजी अनुवाद कराके यह प्रकाशित किया जायेगा। इस क्रम में अबतक ग्रन्थमाला के नौ भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं तथा चार

भाग प्रकाशन के लिये तैयार हैं। इस कार्य में अनेक विदेशी विद्वान् लगे हुए हैं। इस कार्य में लगे हुए विद्वानों के मुखिया हैं कोलबिया विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विद्वान् शेल्डन पोलक। पोलक को इस कार्य का निर्देशन करने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है- इसको बात को जानने के लिये पोलक के विचार, कार्य शैली और उनके सबन्धों की पहचान करनी होगी। पोलक के चरित्र को समझने के जिन घटनाओं में उसकी भागीदारी है, उनको देखने से पोलक का चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 2005 में लोरिडा में अमेरिकन होटल के मालिकों द्वारा ने तत्कालीन गुजरात के मुखयमन्त्री नरेन्द्र मोदी को बुलाये जाने पर उस निमन्त्रण को रद्द कराने वाले लोगों में श्रीमान् पोलक ही आगे थे। 2005 में ही केलिफोर्निया विश्वविद्यालय में होने वाले कार्यक्रम का विरोध करते हुए कहा गया था- हमें यह जानकर बहुत दुःख है कि 22 मार्च को समपन्न हो रहे भारतीय विद्याओं के अध्ययन हेतु यदुनन्दन अध्ययन केन्द्र के उद्घाटन हेतु नरेन्द्र मोदी, गुजरात के मुखयमन्त्री को आमन्त्रित किया गया है। हमारी दृढ़तापूर्वक प्रार्थना है कि इस आमन्त्रण को वापस ले लिया जाये। इस माँग को करने वालों में भी पोलक का नाम प्रमुख है। फिर 2009 में मेक आर्थर फाउण्डेशन द्वारा बुलाये जाने पर कहा गया- एशियाई प्रमुख व्यक्तित्व के रूप में इस अवसर पर गुजरात के मुखयमन्त्री नरेन्द्र मोदी को सममानित करना उचित एवं पात्र व्यक्तियों को अपमानित करने जैसा होगा। इस प्रार्थना के करने वालों में पोलक अग्रणी थे। 2015 में जब मोदी प्रधानमन्त्री बन गये तो एक पत्र भारत सरकार को लिखा गया- हम विद्वान् शोधकर्त्ता और शोध छात्रों का भारत सरकार से आग्रह है कि 1,50,000 (एक लाख पचास हजार) पृष्ठ की गाँधी हत्याकाण्ड से जुड़ी सामग्री की सुरक्षा के विषय में भारत सरकार अपना पक्ष तत्काल स्पष्ट करे। इसमें भी हस्ताक्षरकर्त्तों में पोलक को चिन्ता करते हुए देखा जा सकता है।

वाशिंगटन पोस्ट के 2 मार्च के समाचार पत्र में लिखा गया है कि- पोलक का सामयवादियों से समबन्ध है। वामपन्थी लेखकों के साथ पोलक के विचार भारतीय सभयता और संस्कृति के समबन्ध में सममानजनक नहीं है। समाचार पत्र लिखता है- पोलक उन लोगों में सममिलित है जो लोग जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के राष्ट्रद्रोही गतिविधियों का अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर समर्थन करते हैं। इस प्रकार पोलक देश की एकता, अखण्डता का सममान नहीं करता है।

इस बात से समझा जा सकता है कि शेल्डन पोलक  की विचारधारा क्या है और उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य का उद्देश्य क्या है तथा उसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा? इस कार्य का पहला उद्देश्य वही है, जिसको मैकाले की प्रेरणा से मैक्समूलर ने पूरा किया था। इस कार्य से दो परिणाम निकले- शिक्षा के माध्यम और शिक्षा पद्धति के परिवर्तित होने से इस देश के लोग संस्कृत के पठन-पाठन से विमुख हो गये और अंग्रेजी अनुवाद को पढ़कर संस्कृत विद्वान् बन गये तथा उसे ही ठीक मानने लगे जो अंग्रेजी में लिखा गया है। मूल ग्रन्थ की भाषा के अभाव में ग्रन्थ को पढ़ना ही नहीं आता था तो उसे समझने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? मैक्समूलर के इसी साहित्य से इस देश के विद्वानों ने जाना कि वेद गड़रियों के गीत हैं। अंग्रेजों ने भारत के विषय में जितना अध्ययन किया, उसमें परिश्रम बहुत है, ईमानदारी बिल्कुल नहीं है। उनसे इसकी आशा करना हमारी मूर्खता होगी। इस देश पर अंग्रेजों का शासन था, हम उनके दास थे, यह कैसे समभव है कि कोई स्वामी अपने दास को अपने से श्रेष्ठ माने? उसे तो यहाँ की जनता पर शासन करना है तो वह आपके अच्छे को भी बुरा कहने का अधिकार रखता है। हमने स्वयं भूल की है कि अंग्रेज को अपना आदर्श बनाया और जैसा वह चाहता था, स्वतन्त्रता के बाद भी वही किया, जो अंग्रेजों के समय इस देश में हो रहा था। उसमें गति और विस्तार तो आया, परन्तु परिवर्तन किञ्चित् मात्र भी नहीं आया। आज परिणाम हमारे सामने है।

अंग्रेजों ने हमारे इतिहास, साहित्य और संस्कृति से बलात्कार किया है, सामान्य व्यक्ति उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। शोध के नाम पर उसने इतिहास संस्कृति के लिये, जो अध्ययन का प्रकार अपनाया और यहाँ की प्रचलित परमपरा को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। मैक्समूलर के शोध ने इस देश के निवासियों को यहाँ का मानने से ही इन्कार कर दिया। उसने आर्य द्रविड़ के काल्पनिक सिद्धान्त को हमारे ऊपर थोपा और अपनी सत्ता व पैसे के बल पर हमें ही इस देश में विदेशी और पराया घोषित कर दिया। आजतक भी इस सिद्धान्त को प्रमाणित नहीं किया जा सका, परन्तु किसी को कहने से कौन रोक सकता है? पैसा साधन मिल जाये तो प्रचार करने में क्या बाधा है। उससे भी बड़ी बात सत्ता में बैठे लोगों को ही इस विचार के लिये सहमत कर लिया जाये तो यह विचार शासन का विचार बन जाता है, जिसका परिणाम आज हमारे सामने है। आज जब सारे संसार में विभिन्न भाषाओं की पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है, ऐसी परिस्थिति में विश्व पुस्तक मेले में एक भी संस्कृत साहित्य के पुस्तक विक्रेता का नहीं आना, संस्कृत पाठक के अभाव को दर्शाता है।

अंग्रेजों का अन्य षड़यन्त्र है- संस्कृत भाषा को मृत भाषा घोषित करना। यह कार्य बहुत सरलता से हो गया, जब सरकार ने संस्कृत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया। इस देश में शासन की भाषा, संसद की भाषा, न्यायालय की भाषा, शिक्षा की भाषा, प्रशासन और व्यवहार की भाषा जब अंग्रेजी बना दी गई तो संस्कृत-हिन्दी किस खेत की मूली हैं? थोड़े से पुराने लोग जो अंग्रेजी नहीं जानते, जब तक वे जीवित हैं, हिन्दी बोलते देखे जा सकते हैं। जैसे ही अगले दस-पन्द्रह वर्ष में ये लोग मर जायेंगे, अगली आने वाली पीढ़ी गर्व से कहेगी, हमें हिन्दी नहीं आती।

अंग्रेजों ने संस्कृत को पढ़ने और उसकी व्याया करने के लिये अपने ही आधार बनाये हैं। संस्कृत में जो ग्रन्थ लिखा गया है, लेखक को उसके लिखने का क्या प्रयोजन है, इसका निर्णय भी अंग्रेज ने अपने हाथ में रखा है। पुस्तक में विचारों के श्रेष्ठता निमनता का निर्णय भी अंग्रेज उस पुस्तक को पढ़कर बतायेगा। विड़मबना यह है कि इस पुस्तक का लेखक इस देश है, भाषा इस देश की है, परमपरा इस देश की है, परन्तु इस सब को तिरस्कृत करके निर्णय का आधार स्वयं अंग्रेज का अपना बनाया हुआ है वह परमपरा से प्रचलित आधार को वह स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार कालक्रम के निर्णय में कौन-सा ग्रन्थ कब लिखा गया, यह भी वह जो कहेगा, वही माना जायेगा। कितना अच्छा न्याय है! अंग्रेज हमें बता रहा कि ऋग्वेद पहले बना या अथर्ववेद ? इसका आधार क्या है, इसका निर्णया भी वही करेगा। क्या यह बन्दर बिल्ली का न्याय नहीं है! बिल्लियों के झगड़े में न्याय तो बन्दर का ही माना जायेगा। इस पद्धति से अंग्रेज ने अपना प्रयोजन पूर्ण सिद्ध किया है।

शेल्डन पोलक की मान्यता है संस्कृत एक मृत भाषा है और संस्कृति तो इस देश में कोई थी ही नहीं, जब भाषा नहीं तो विचार कहाँ से आयेंगे? अंग्रेज की संस्कृत सेवा का प्रयोजन पहले भी वही था जिसे मैकाले-मैक्समूलर ने स्थापित किया था। दुर्भाग्य तो यही है कि वही कार्य पहले बोडेन के धन से हुआ था, आज वह वह एक भारतीय नारायण मूर्त्ति के धन से हो रहा है। इस देशवासियों के लिये इससे अधिक गर्व की और क्या बात होगी!

शेल्डन पोलक के इस अनुवाद के पीछे एक ओर षड्यन्त्र है, संस्कृत ग्रन्थों का अंग्रेजी में ऐसा अनुवाद करना, जो उनके विचार से मेल खाता हो। इस अनुवाद के करने से लोगों को संस्कृत पढ़ने की आवश्यकता ही अनुभव न हो, जैसा आज मैक्समूलर का अनुवाद पढ़ कर हम वेद समझते हैं वैसे ही पोलक का वेद-अनुवाद हमारे लिये वेद से अधिक प्रामाणिक प्रतीत होगा। इस कार्य का परिणाम होगा- शोध, अनुसन्धान, संस्कृति एवं इतिहास को जानने की भाषा संस्कृत नहीं रहेगी, उसे वह सममान नहीं मिल पायेगा, जो अंग्रेजी को मिल रहा है और अंग्रेजी का ही सममान इस देश में बढ़ जायेगा। शेल्डन पोलक की मान्यता है कि संस्कृत में तब तक शोध नहीं हो सकता, जब तक संस्कृत का विद्वान् बढ़िया अंग्रेजी नहीं जानता। जब अंग्रेजी के बिना शोध नहीं हो सकेगा, तो संस्कृत पढ़ने की आवश्यकता ही क्या रहेगी? संस्कृत का प्रामाणिक अनुवाद शेल्डन पोलक आपकी सेवा के लिये ही तो कर रहा है। इस प्रकार संस्कृता भाषा शोध एवं अनुसन्धान की धारा से अपने-आप ही बाहर हो जायेगी।

अंग्रेज लेखक चाहे मैक्समूलर हो या पोलक, सभी संस्कृत पढ़कर यह स्थापित करना चाहते हैं कि संस्कृत तथा कथित कुलीन, दरबारी लोगों की भाषा है। राजे-रजवाड़ों को प्रसन्न करने के लिये संस्कृत में ग्रन्थों की रचना की गई। इसमें महिलाओं और दलितों का अपमान ही किया गया, उनको समान के योग्य भी नहीं माना गया, अधिकार देना तो बहुत दूर की बात है।

शेल्डन पोलक की मान्यता है कि हिन्दू और हिन्दुत्व को इस देश के लोगों में भय उत्पन्न करने के लिये उपयोग में लाया जा रहा है। पोलक का उद्देश्य ईसाई, मुसलमान, दलित को हिन्दुत्व से अलग करके प्रस्तुत करना है। हिन्दुत्व को अल्पसंखयक और दलितों को दबाने वाला समुदाय बताया जाता है। शेल्डन पोलक के मत में हिन्दुत्व की बात करना संकीर्ण मानसिकता का द्योतक है, वही बात ईसाई, मुसलमान करें तो यह उदारता का परिचायक है। राष्ट्र की एकता देशभक्ति की बात करना संकीर्णता है, देशद्रोह की घोषणा करना, विचारों की अभिव्यक्ति और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का परिचायक है। हिन्दू और इनकी भाषा का इस देश की अन्य भाषाओं और लोगों से कोई सबन्ध नहीं है और हिन्दुत्व की विचारधारा देश की बहुसंखयक विचारधारा से अलग है, यह भी उसकी मान्यता है।

शेल्डन पोलक के अनुसन्धान से आप गद्गद् हो जायेंगे। उसकी स्थापना है कि वेद बुद्ध के बाद की रचना है। मीमांसा जैसे दार्शनिक विचार बुद्ध के बाद ही संस्कृत में लिये गये हैं। रामायण का लेखन भी बुद्ध के बाद हुआ है। रामायण-महाभारत कोई इतिहास नहीं हैं, ये तो मनोरंजन के लिये लिखे गये काल्पनिक काव्य हैं। इनमें दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न के अतिरिक्त कोई आदर्श बात नहीं है। पोलक को सबसे पीड़ा देने वाली बात लगती है, संस्कृत साहित्य में आदर्श और अध्यात्म की बात करना। उसके विचार से वेद, वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत और बाद के साहित्य का अध्यात्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ये सब काल्पनिक बातें हैं। ये ग्रन्थ धर्म निरपेक्षता, व्यक्तिगत विचार स्वातन्त्र्य से कोई समबन्ध नहीं रखते हैं।

इन्हीं सब बातों से कुछ भारतीय विद्वानों ने इस संस्था और उसके संचालकों के विरुद्ध वाद दायर किया है, जिसमें शेल्डन पोलक को हटाने और भारत से समबद्ध कार्य को भारत से बाहर न किया जाकर, भारत में ही करने की माँग की गई है। इस विषय में विस्तार से जानकारी के लिये राजीव मल्होत्रा की पुस्तक ‘द बैटल फॉर संस्कृत’ पढ़ें, दिल्ली में सुलभ है।

इस परिस्थिति में भारतीय संस्कृति, साहित्य और इतिहास अंग्रेज तो नष्ट करेगा ही, परमपरावादी भी उसे रुढ़ि और अन्धविश्वास से बाहर नहीं निकलने देंगे। तब कौन वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति को बचाने का बीड़ा उठायेगा? आज फिर यह पंक्ति उत्तर माँग रही है-

किं करोमि क्व गच्छामि, को वेदानुद्धरिष्यति।।

– धर्मवीर

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-29
मम पुत्राः शत्रुहणाऽथो मे दुहिता विराट्
तीसरा मन्त्र परिवार के सदस्यों के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाल रहा है। इसकी प्रथम पंक्ति में अपने पुत्र और पुत्रियों की क्या योग्यता है? परिवार में उनका क्या स्थान है?- यह इन शबदों से प्रकाशित होता है। मेरे पुत्र शत्रुओं को नष्ट करने में समर्थ हैं तथा पुत्रियों का व्यक्तित्व विशाल है। उनका प्रभाव क्षेत्र विस्तृत है। आज परिवार में सन्तान तो होती है, परन्तु सभी को अपनी सन्तानों पर गर्व करने का अवसर नहीं मिलता। विशेषकर आज की परिस्थिति में हमारा संकट है- हम उत्साह से सन्तान का पालन-पोषण तो करते हैं, पर सन्तान के बड़े होने पर हमें उतनी ही निराशा हाथ लगती है।
मनुष्य के साथ यह स्वाभाविक नहीं है कि वह सन्तान से प्रेम करता है तो सन्तान भी उससे प्रेम करे। बचपन में बालक माता पर निर्भर रहता है, माँ उस पर समर्पित रहती है। यह परिस्थिति समय के साथ बदलने लगती है। बालक जब परिवार और समाज के दूसरे लोगों के समपर्क में आता है, तब उसके उनसे समबन्ध बनने लगते हैं, तब तक वह घर से बँधा रहता है। बालक घर से दूर होता जाता है तो उसका बन्धन शिथिल होता जाता है, परन्तु माता-पिता का मोह उसे बाँधे रखने के लिये व्याकुल रहता है। धीरे-धीरे यह स्थिति माता-पिता के लिये कष्टप्रद होने लगती है। विशेषकर जब माता-पिता अपनी सन्तानों का विवाह कर देते हैं, तब स्थिति विकट हो जाती है। पुराने समबन्ध अपने अधिकार छोड़ने के लिए तत्पर नहीं होते, वहाँ नये अधिकार उसे जकड़ने लगते हैं। परिवार में संघर्ष की स्थिति बन जाती है।
सन्तान के लिये मोह तो पशुओं में भी होता है, परन्तु जब तक सन्तान उन पर निर्भर रहती है, तभी तक उनका अपनी सन्तान से मोह होता है, उसके बाद वे अपरिचित हो जाते हैं। यह उनकी प्राकृतिक स्थिति है, बाकि तो वे मनुष्य के अधीन होते हैं, जैसा वे चाहें, उन्हें रखे। मनुष्य का मोह यथावत् जीवन भर बना रहता है। इसका उपाय उसे बुद्धि से करना पड़ता है। जब तक कर्त्तव्य का भाव रहेगा, तब तक मनुष्य निर्भय रहेगा, परन्तु मोह का भाव रहेगा, तो हर समय भयभीत रहेगा। माता-पिता अपना अधिकार न मानकर कर्त्तव्य समझें तो उनको कभी सन्तान से दुःख नहीं होगा, न अपने किये पर पश्चात्ताप होगा, न सन्तान के किये की पीड़ा होगी।
सन्तान को यदि माता कर्त्तव्यनिष्ठ बनाने का प्रयास करे तो उनको भी सन्तान की ओर से दुःखी होने के अवसर नहीं आयेगा। इस मन्त्र में एक माता अपने कर्त्तव्य पालन की घोषणा कर रही है। मेरा पुत्र शत्रुओं का नाश करने में समर्थ है, वे शत्रु चाहें आन्तरिक हों अथवा बाह्य। माँ ने अपने बालक को इतना समर्थ बनाया है कि वह अपने आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार के शत्रुओं को अपने वश में करने में समर्थ है। शत्रुओं को अपने वश में करने की विद्या केवल बाहरी साधनों पर निर्भर नहीं रहती। बाहरी नियम और व्यवस्था से बाहर के शत्रुओं से लड़ा जा सकता है, परन्तु पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों से लड़ाई आन्तरिक साधनों द्वारा ही लड़नी पड़ती है। हम अपने बच्चों को खिला-पिला कर, महँगे कपड़े पहना कर, ऊँचे मूल्य के विद्यालयों में पढ़ाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं, परन्तु आन्तरिक संघर्ष करने का सामर्थ्य अपने बच्चों में उत्पन्न नहीं कर पाते। यह संघर्ष आत्मिक गुणों के विकास के बिना समभव नहीं है। आज के युग में माता-पिता, समाज, सरकार किसी के पास भी आत्मा के विकास का विचार नहीं है। अधिकांश को तो इसकी कल्पना ही नहीं है, शेष के पास ऐसा करने का अवसर नहीं है। मनुष्य के अन्दर वह थोड़ा है, जो स्वाभाविक है, अधिकांश तो वह अर्जित है। कुछ वह अपने पुराने जीवन के संस्कारों से लेकर आता है, कुछ माता-पिता से प्राप्त करता है, शेष समाज से उसे मिलता है, अतः हम यदि अपनी सन्तान को अपने शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ बनाना चाहते हैं, तो हमें वैसी शिक्षा और वैसे ही संस्कार देने पड़ेंगे। मनुष्य सिखाने से सीखता है, मनुष्य देखकर सीखता है। परिवार में, समाज में वह अपने लोगों को जैसा करता हुआ पाता है, वैसा स्वयं सीख लेता है, बताने पर भी उसका विचार वैसा बनता है, अतः यह तो सब प्रयास करने से ही समभव है। यह प्रयास प्रथम माता-पिता को करना होता है फिर समाज और शिक्षक की भूमिका आती है।
आज हम अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा और संस्कार देने में असमर्थ पाते हैं, अतः यह घोषणा नहीं कर पाते हैं कि हमारी सन्तान अपने शत्रुओं को वश में करने में समर्थ है। वेद की माँ कहती है- मैंने माता के रूप में अपने पुत्रों को शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ बनाया है, इसलिये तो शास्त्र कहता है कि एक मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिये माता-पिता, आचार्य का योगदान होता है, अतः कहा गया है –
मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद ।
स्वामी दयानन्द प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता यस्य।
अर्थात् धार्मिक और विदुषी माता ही, ऐसे माता-पिता और आचार्य ही मनुष्य को योग्य बना सकते हैं।

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-28

ममेदनुक्रतुंपतिः सेहानाया उपाचरेत्।

मन्त्र के प्रथम भाग में नारी की घोषणा थी- परिवार में मैं केतु हूँ, मैं मूर्धा हूँ, मैं विवाचनी अर्थात् विवेक पूर्वक बात कहने वाली हूँ। इस प्रकार परिवार के प्रति योग्यता और सामर्थ्य दोनों बातों का उल्लेख आ गया। योग्यता से मनुष्य में सामर्थ्य आता है। मनुष्य ज्ञान से आत्मशक्ति समपन्न बनता है। इसलिये शास्त्र में कहा है- आत्मवत्तेति- आत्मवान तभी बन पाता है, जब उस अन्दर ज्ञान की उपस्थिति होती है।  आगे कहा गया है कि केवल ज्ञान और योग्यता ही नहीं, मेरे अन्दर कर्मनिष्ठा भी है।

मनुष्य का जीवन चाहे व्यक्तिगत हो, पारिवारिक अथवा सामाजिक, वह जितना कर्मशील होगा, उतना ही लोगों को प्रिय होगा। हम समाज में ऐसे लोगों को बहुशः देखते हैं, जिनके पास ज्ञान है, कर्म करने का सामर्थ्य भी है, परन्तु आलस्य और प्रमाद से जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते। जो उत्पन्न हुआ, वह बड़ा भी होगा, वृद्ध भी होगा। उसकी मृत्यु भी होगी, यह किसी मनुष्य के चाहने से न होता है, न हो सकता है। इसी समय को आप सोकर, मनोरञ्जन करके व्यतीत कर सकते हैं, यदि इसी अवधि में मनुष्य कोई सार्थक कार्य करता है, तो वह सफलता को प्राप्त कर लेता है। मनुष्य के पास सफलता अकस्मात, एक बार में नहीं आती, उसे परिश्रम पूर्वक उपार्जित करना पड़ता है। मनुष्य को क्रतु बनना चाहिए, कर्मशील होना चाहिए। वैदिक साहित्य में क्रतु कर्म और बुद्धि दोनों का नाम है। जो कर्म नहीं करते, उन्हें वेद दस्यु कहता है। दस्यु का अर्थ होता है- डाकू। डाकू कहने से हमें लगता है जो शारीरिक बल से दूसरे का धन हरण करता है, वही डाकू है, परन्तु इसका केवल इतना ही अर्थ नहीं, जो व्यक्ति बुद्धि-बल से भी दूसरे के अधिकार का, स्वत्व का हनन करते हैं, अपहरण करते हैं, वे भी डाकू ही हैं।अकर्मण्य बुद्धिमान् लोग दूसरों का धन छल से, ठगी से हर लेते हैं, ऐसे कर्म क्रतु नहीं हैं।

क्रतु यज्ञ को भी कहा गया है। यज्ञ कर्म है परन्तु किसी के धन अथवा स्वत्व के अपहरण के लिये नहीं किया जाता। यज्ञ परोपकार का ही दूसरा नाम है। बुद्धि का उपयोग परोपकार और उन्नति की भावना से किया जाय तो ऐसा कर्म क्रतु है, यज्ञ है। परिवार का संचालन यज्ञ है। यज्ञ कर्त्ता अपने कर्म नहीं करता, वह सबके लिये यज्ञ करता है। सबका कल्याण करने की भावना से यज्ञ किया जाता है। वैसे तो परिवार में सभी सदस्यों को परस्पर एक-दूसरे के हित की कामना करनी चाहिये, परन्तु वहाँ सब समान रूप से शिक्षित या ज्ञानवान नहीं होते हैं और न ही अनुभवी। अतः मुखय व्यक्ति को ही सबके हित व कल्याण की चिन्ता करनी होती है। परिवार में दो ही व्यक्ति धुरा का वहन करते हैं, जिन्हें हम पति-पत्नि कहते हैं। इन दोनों की योग्यता व विचार समान होने के साथ-साथ गति भी समान होनी चाहिए। सभी परिवार के सदस्यों की चिन्तन की दिशा एक हो तो समायोजन में कोई असुविधा नहीं आती। कठिनाई तब होती है, जब विचारों की भिन्नता के साथ हम परिवार को अपनी-अपनी इच्छानुसार चलाना चाहते हैं।

वेद कह रहा है- पति केवल सहनशीलन हीं है, वह पत्नी के कार्यों का समर्थन भी करता है, परिवार में उन विचारों को क्रियान्वित करने में प्रयास पूर्वक लगा रहता है। इस सन्दर्भ में दो बातों की ओर संकेत किया गया है, पत्नी के विचार श्रेष्ठ हैं और कार्य उत्तम हैं। इतना पर्याप्त नहीं है, पत्नी के कार्यों के लिये पति का समर्थन भी चाहिए और सहयोग भी। मन्त्र इन्हीं बातों को बता रहा है। मनुष्य का स्वभाव है कि यदि वह कुछ अनुचित करता है, तो वह उसे सबसे अज्ञात रखना चाहता है, परन्तु उससे कुछ अच्छा हुआ है, तो उसकी इच्छा रहती है, सभी लोगों को उसके श्रेष्ठ कार्य का ज्ञान हो। स्वाभाविक है किसी बात का ज्ञान होगा तो उसकी चर्चा भी होगी। यह चर्चा उस कार्य की प्रशंसा है, कार्य करने वाले व्यक्ति की प्रशंसा है। प्रशंसा से व्यक्ति उत्साहित होकर, उस कार्य में अधिक परिश्रम करता है। निन्दा-प्रशंसा का मनुष्य ही नहीं, प्राणियों के जीवन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। अनुचित कार्य की निन्दा नहीं होती अथवा प्रशंसा की जाती है तो अनुचित कार्यों को करने में मनुष्य की अधिकाधिक प्रवृत्ति होती है। अतः उचित की प्रशंसा उचित कार्य की वृद्धि का हेतु होता है।

शास्त्र कहता है- यदि कोई दुष्ट मनुष्य भी यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म कर रहा है, तो उस समय उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए, ऐसा कार्य करते हुए मनुष्य की निन्दा करने से श्रेष्ठ कार्य की भी निन्दा हो जाती है। यह मनोविज्ञान की ही बात है।मनुष्य के मन पर आलोचना और प्रशंसा का परोक्ष-प्रत्यक्ष बहुत प्रभाव पड़ता है। हम परिवार में अच्छे कामों के लिये जब बच्चों की प्रशंसा करते हैं, तो उनमें अच्छा कार्य करने का उत्साह बढ़ता है, यह बात बड़ों के लिये भी उतनी ही स्वाभाविक है। हम बड़ों के द्वारा किये कार्यों को पाप-पुण्य से जोड़कर देखते हैं। बच्चों के कार्य का प्रभाव बहुत नहीं होता, परन्तु बड़े व्यक्ति के द्वारा किया गया कार्य परिवार और समाज को गहरा प्रभावित करता है। अतः कहा गया है- पति को प्रशंसक और सहयेागी होना चाहिए।

यह देशद्रोह है

यह देशद्रोह है

‘पाकिस्तान जिन्दाबाद, भारत के सौ टुकड़े करेंगे, किस में रहोगे? कितने अफजल मारोगे ? घर-घर से अफजल निकलेगा। भारत की बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी। कश्मीर की आजादी लेकर रहेंगे, केरल की आजादी लेकर रहेंगे, बंगाल की आजादी लेकर रहेंगे! अफजल, हम शर्मिन्दा हैं तेरे कातिल जिन्दा हैं।’ ये शबद पाकिस्तान के किसी नगर से सुनाई पड़ते तो भी हमें उत्तेजित करने के लिये पर्याप्त होते। पाकिस्तान को कोसते, शत्रु को दण्ड देने की घोषणा करते, परन्तु ये शबद 9 फरवरी 2016 को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में गूँजे। विश्वविद्यालय के छात्रों ने ये नारे लगाये। एक बार नहीं, अनेक बार, इसी बात को दूरदर्शन पर कहा गया। अफजल गुरु की सजा को न्यायिक हत्या बताया गया। सर्वोच्च न्यायालय तथा संविधान की निन्दा की गई। कोई देश अपने नागरिकों द्वारा इस प्रकार के कार्य करने की कल्पना कर सकता है? यह है भारत की सहिष्णुता। इस सबको देख कर लगता है कि इन लोगों को इस देश में रहना बड़ा दुःखद लग रहा है।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली, प्रारमभ से ही अराष्ट्रीय गतिविधियों का गढ़ रहा है। उसके अन्दर देशद्रोह से लेकर नंगेपन तक सब प्रगतिशीलता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अन्दर आ जाता है। इस विश्वविद्यालय की नींव भारत विरोध पर रखी गई है। जब यह विश्वविद्यालय बना, तब सब विभाग खुले, परन्तु संस्कृत विभाग नहीं खोला गया। भाजपा के शिक्षा मन्त्री मुरली-मनोहर जोशी ने जब इस विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग खोला, तो यहाँ के लोगों ने हड़ताल, धरने कर आन्दोलन चलाया और उसको रोकने का प्रयास किया, परन्तु केन्द्र सरकार ने विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग खोल दिया।

पिछले दिनों गोमांस के भोज का भी इस विश्वविद्यालय में आयोजन किया गया था, जिसे विद्यार्थी परिषद् और हिन्दू संगठनों के विरोध के चलते नहीं होने दिया गया। जितने देश व समाज विरोधी कार्य इस विश्वविद्यालय में होते हैं, वे सब प्रगति और स्वतन्त्रता के नाम पर किये जाते हैं। अभी तक इन गतिविधियों को प्रकाश में नहीं लाया गया, इसी कारण इस पर कार्यवाही नहीं हो पाई । सरकार भी इनकी समर्थक थी। विश्वविद्यालय के अधिकारी, असामाजिक और अराष्ट्रीय विचारों को प्रश्रय देनेवाले रहे हैं। आज भी विश्वविद्यालय के अध्यापकों की ओर से जो वक्तव्य प्रसारित हुआ, यह उसी परमपरा का उदाहरण है। संदीप पात्रा ने जी न्यूज पर कहा था कि वहाँ इन अराष्ट्रीय और असामाजिक गतिविधियों का विरोध करने पर ऐसे छात्रों और अध्यापकों को दण्डित किया जाता था, उनको अपमानित करके विश्वविद्यालय से निकाल दिया जाता था।

आज जी न्यूज ने जब इस घटना को देश के सामने उजागर किया तो सारे देश में आक्रोश फैल गया। कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो अपने ही देश में अपने लोगों द्वारा शत्रुता से भी अधिक घृणित व्यवहार करे और अपने कार्य को अपना अधिकार बताये? जो लोग इस देश के पैसे से पढ़ रहे हैं, वे इस देश से द्रोह करने को अपनी अभिव्यक्ति का अधिकार बता रहे हैं। किसी भी देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है? यदि चीन में इस प्रकार की घटना घटी होती तो यह ख्येनआङ्मन चौक बन गया होता। इस घटना का दूसरा पक्ष इससे भी निन्दनीय है- सामयवादी, कांग्रेस और दूसरे राजनैतिक दल निर्लज्जता पूर्वक इन छात्रों का समर्थन कर रहे हैं। ऐसा करने वाले लोग बाहर के थे, ऐसा बहाना बना रहे हैं। इस घटना को एक सामान्य घटना कह कर अनदेखी करना चाहते हैं, तो ये लोग अभिव्यक्ति के नाम पर इसको ठीक सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं।

छात्रों द्वारा किया गया यह कार्य देशद्रोह के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जो इनके समर्थक हैं, वे भी सब देशद्रोही हैं। जो किसी भी प्रकार से देशद्रोह का समर्थन करता है, वह भी निश्चित रूप से देशद्रोही है। इस घटना का देश के सामने आना इसलिये संभव हो सका, क्योंकि वह सब कैमरों में कैद है। जब न्यायालय में छात्राध्यक्ष से उसके कृत्य के बारे में स्पष्टीकरण माँगा गया तो वह कहने लगा कि मैंने ऐसा कुछ नहीं किया, बाहर के लोगों ने किया होगा। जब उसे कैमरे में नारे लगाते हुए दिखाया गया तो उसका उत्तर था कि विद्यार्थी परिषद् के लोगों ने विरोध करके वातावरण को बिगाड़ा है। क्या तर्क है! चोर को चोरी करते रोकना वातावरण बिगाड़ना होता है। इस घटना को कैमरे में देखकर भी बेशर्म नेता कह रहे हैं कि अभी पता नहीं है कि किसने ये नारे लगाये हैं, तब तक कार्यवाही करना उचित नहीं। राजनेता आज भी कह रहे हैं कि परिसर में पुलिस को नहीं जाना चाहिये। वहाँ पाकिस्तान समर्थक रह सकते हैं या पाकिस्तानी जासूस रह सकते हैं और इस देश की रक्षा में लगी पुलिस विश्वविद्यालय परिसर में नहीं जा सकती। क्या देशभक्ति है इन लोगों की!

इस अवसर पर हम एक बात भूल रहे हैं। यह घटना पहली नहीं, यह कार्य शृंखलाबद्ध रूप से किया जा रहा है। यही कार्य हैदराबाद विश्वविद्यालय में इसी प्रकार हुआ था, परन्तु उसकी कैमरा प्रति नहीं थी, इस कारण उस घटना को दलितवर्ग से जोड़कर शोर मचाया गया। वहाँ भी यही सबकुछ हुआ था, जो दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हो रहा है। हैदराबाद विश्वविद्यालय में इसी प्रकार तीन सौ से अधिक लोगों ने इकट्ठे होकर  याकूब मेमन की फाँसी की सजा का विरोध किया था। वहाँ छाती पीटकर रोया गया। याकूब मेमन की आत्मा की शान्ति की प्रार्थना की गई। वहाँ पर भी एक याकूब की जगह घर-घर याकूब पैदा होने की बात की गई थी। जब विद्यार्थी परिषद् के एक छात्र ने इन कार्यक्रमों का विरोध किया, उसने फेसबुक पर इस कार्य की निन्दा की, इसे गलत बताया, तब याकूब समर्थकों ने तीस से अधिक संखया में इकट्ठे होकर आधी रात को उस युवक के कमरे पर जाकर उसे पीटा और इतना पीटा कि अधमरा कर दिया। उस छात्र को दरवाजे पर लाकर उससे बलपूर्वक क्षमा याचना लिखवाई और जो उसने लिखा था, उसी से उस लेख को हटवाया गया। क्या यह सहिष्णुता है? क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है? क्या यह सामाजिक न्याय है? आप गलत भी करें तो वह अभिव्यक्ति की आजादी है और दूसरा विरोध करे तो आप उसे जान से मार देंगे? विश्वविद्यालय की इस घटना से दुःखी होकर छात्र की माँ ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तो हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने हड़ताल कर दी, इसी बीच रोहित ने आत्महत्या कर ली। बस, राजनेताओें और देशद्रोही लोगों ने उसे मोदी सरकार के विरुद्ध दलितों पर अत्याचार का मुद्दा बना दिया। राहुल गाँधी और केजरीवाल जैसे लोग सहानुभूति दिखाने दौड़े चले गये, आज तक चीख-चिल्ला रहे हैं। वास्तविक घटना पर ध्यान नहीं देना चाहते और कोई राहुल-केजरीवाल विश्वविद्यालय में छात्रों को समझाने नहीं गया। उनके कार्यों की किसी ने निन्दा नहीं की।

दिल्ली की घटना हैदराबाद की घटना की अगली कड़ी है। वहाँ की घटनाओं को रोकने के लिये ही छात्र ने केन्द्र सरकार को लिखा था। केन्द्र सरकार का कार्य नितान्त उचित व देश और समाज के हित में था, परन्तु भारत तो जयचन्दों का देश है। आज कांग्रेस और पूरा विपक्ष केवल एक कार्य में लगा है। वह हर कार्य को, घटना को मोदी-विरोध के रूप में काम में लाना चाहता है। दिल्ली में ही दूसरी घटना घटी। अफजल गुरु और मेमन के चित्र के पत्रक छाप कर उनकी फाँसी की निन्दा की गई। इस कार्य को बुद्धिजीवियों के प्रमुख स्थान प्रेस क्लब ऑफ इण्डिया में किया गया । इस सममेलन के आयोजन में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक भी समिलित हैं। क्या सरकारी स्थानों पर देशद्रोह के कार्यों को सार्वजनिक रूप से किसी देश में करने की कोई कल्पना कर सकता है?

यहाँ ऐसा क्यों हो सकता है? क्योंकि हमारी सरकार में शत्रु देश के समर्थक लोग रहते रहे हैं। नेहरू से सोनिया तक की सरकारों का इस देश की संस्कृति का विरोध और नाश करना ही उद्देश्य रहा, इस कारण इस देश की जनता में देश और संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जन्म नहीं ले सका। हमारी नई पीढ़ी में हमारी बातों को पुराना, पिछड़ा और दकियानूसी मानने की परमपरा बन गई है। यहाँ की संस्कृति, भाषा और सभयता को नष्ट करने के लिये विदेशी आचार-विचार को आदर्श बनाकर प्रस्तुत किया गया, जिसका जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय उदाहरण है। इसी कारण देश में देश-विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा मिला। राजनीति में सत्ता के लालच में तुष्टीकरण का उपयोग इतना हुआ कि देश-विरोधी कार्यों को अनदेखा किया गया। आज की घटना उसी का परिणाम है। आज जो कुछ हुआ और उसकी प्रतिक्रिया में जो हो रहा है, वह केवल जागरूकता के कारण हो रहा है। विश्वविद्यालय में छात्र परिषद के द्वारा विरोध किया जाना तथा जी न्यूज द्वारा इसको दृढ़ता पूर्वक उजागर करना, जिसके चलते समाज में चेतना आ गई और देशद्रोहियों पर न्यायालय की कार्यवाही संभव  हो पाई । देशद्रोह में लिप्त लोग कोई बलवान नहीं हैं। वे तो कार्यवाही प्रारमभ होते ही छिपने के लिये भाग गये, अभी तक तो केवल एक ही पकड़ में आया है, जैसे ही दस-बीस पर न्यायालय की कार्यवाही होगी, ये सब छिपते दिखाई देंगे।

जनता में कोई पाकिस्तान जिन्दाबाद कहे, अफजल गुरु जिन्दाबाद कहे, इनके चित्र लगाये, इनका गुणगान करे, वह देशद्रोही है। कोई पाकिस्तान जिन्दाबाद कहता है या खालिस्तान जिन्दाबाद का नारा लगाता है, भिण्डराँवाले का चित्र लगाता है, भिण्डराँवाला जिन्दाबाद का नारा लगाता है, ये सब देशद्रोही हैं। इनकी सहायता करने वाले, इनका समर्थन करने वाले, सभी देशद्रोही हैं- चाहे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी हो या आप पार्टी के अरविन्द केजरीवाल हो, अथवा कयूनिस्ट नेता सीताराम येचूरी व डी. राजा। देशद्रोह का अपराध किसी भी परिस्थिति में क्षमय नहीं है। इनको योग्य दण्ड दिया गया तो आगे इस प्रकार की गतिविधियों पर अंकुश लग सकता है। सरकार के साथ-साथ समाज को भी आज की तरह जागरूक होना चाहिए। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली के वे छात्र जिन्होंने देशद्रोहियों का विरोध किया तथा जी न्यूज बधाई के पात्र हैं।

शास्त्र देशद्रोहियों को कठोर दण्ड देने का आदेश देता है-

यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहाः।

प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत् साधुपश्यति।।

– धर्मवीर

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-27

अहं केतुरहं मूर्धा अहमुग्राविवाचनी।।

इस सूक्त का यह दूसरा मन्त्र है। यह एक महिला की घोषणा है, जिसमें आत्मविश्वास और योग्यता का समन्वय है। विवेचन की योग्यता बिना ज्ञान के नहीं आती। आजकल का ज्ञान हमें अर्थोपार्जन की क्षमता देता है, परन्तु अपने आप पर नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं उत्पन्न करता। आजकल की शिक्षा उसे स्वार्थी बनाती है, उसका मूल कारण है- मनुष्य का सुविधाजीवी होना, दुःख सहने की इच्छा और सामर्थ्य का अभाव होना। हमारे छोटे-छोटे बच्चों को लगता है, हम साधनों के बिना कैसे जी सकते हैं? समाचार पत्र में पढ़ा- एक सातवीं कक्षा की बच्ची ने आत्महत्या कर ली। कारण ? उसने माता से चल दूरभाष (मोबाइल) माँगा। माँ ने कहा- बेटा, अभी तुम छोटी हो, तुम दसवीं उत्तीर्ण कर लो, तब ले देंगे। बस, लड़की को सहन नहीं हुआ, वह फाँसी लगा के मर गई। विचार करने की बात है, क्या मृत्यु के लिये यह कारण पर्याप्त है? मनुष्य क्या, कोई भी प्राणि मरने की इच्छा नहीं करता, मरने के नाम से भी डरता है, मृत्यु का अवसर आ जाये तो प्राणपण से संघर्ष करता है, संघर्ष में हराकर ही मृत्यु उसे जीतती है। यहाँ बिना लड़े ही हार मान ली है। मृत्यु की कामना वही करता है, जो जीवन में हार जाता है। छोटे-छोटे साधनों के बिना, सुविधाओं के बिना कैसे जीवित रहूँगा- यह भय ही मनुष्य को मारने के लिये आज पर्याप्त हो गया है।

मनुष्य को साधनों की अधिकता ने उतावला, असहिष्णु और भीरु बना दिया है। पुराने समय में छात्र को असुविधा में रहना सिखाया जाता था। ऐसा नहीं था कि छात्रों को सुविधायें दी नहीं जा सकती थीं, जब घर में, नगर में लोगों के पास सुविधाएँ हों, तो उन्हें क्यों नहीं दी जा सकतीं?  मनुष्य को सुविधा में जीने की शिक्षा नहीं देनी पड़ती। धन-सपत्ति साथ आते ही उनका सुख उठाना आ जाता है। सुविधा में जीना सिखाने से असुविधा में जीना नहीं आता, परन्तु असुविधा में जीना सिखाने से सुविधा न मिलने पर, सुविधा समाप्त होने पर भी वह सरलता से सहज ही जीवन यापन कर सकता है।

आज कल बड़ी कपनियाँ बहुत सारा वेतन, साधन एवं अनेक सुविधायें दे कर मनुष्य को भीरु बना देती हैं। उनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं करता। दुर्भाग्य से कभी साधन न मिले, नौकरी छूट जाये तो ऐसा व्यक्ति अनुचित-अनैतिक माध्यमों से धन कमाने में लग जाता है या आत्महत्या कर लेता है। इसी कारण ऋषि लोग तपस्या और कठिन जीवन की बात करते हैं। सुविधा-भोगी अपने साधनों का बँटवारा नहीं कर पाता, दूसरे को सहयोग करने में उसका विश्वास नहीं होता। सुविधा-भोगी मनुष्य को कभी साधनों से तृप्ति नहीं होती, वह सदा और अधिक के चक्र में उलझ जाता है। उसकी योग्यता उसे अधिक कमाने के लिये प्रेरित करती है। इस दुश्चक्र में वह पराजित हो जाता है, बीमार हो जाता है, अन्ततः मर जाता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं- शास्त्र मनुष्य को अपने पर नियन्त्रण करने की शिक्षा देता है। शास्त्र का अध्ययन करने से मनुष्य के अन्दर धैर्य उत्पन्न होता है। उसके अन्दर सहन शीलता बढ़ती है। चाहे जय मिले या पराजय, वे उसे विचलित नहीं करते। उसके अन्दर उचित-अनुचित, अच्छे-बुरे, न्याय-अन्याय को समझने का सामर्थ्य आता है। ऐसे व्यक्ति को विचारों की स्पष्टता, निर्णय की क्षमता और कार्य को सपन्न करने की योग्यता प्राप्त होती है। ऐसा व्यक्ति आत्मविश्वास से भरा होता है। उसके अन्दर भय नहीं रहता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है- जिसके अन्दर भय नहीं रहता, उसके अन्दर उदारता, सहिष्णुता, परोपकार आदि गुण सहज ही आ जाते हैं। ऐसा मनुष्य दूसरों के कष्टों को देखकर अपना सुख छोड़ देता है। उसके अन्दर नेतृत्व का गुण पूर्णरूप से विकसित होता है, जो सब उत्तरदायित्व को स्वीकार करने के लिये तैयार रहता है वही घोषणा कर सकता है- मैं सबसे ऊँचा हूँ, मैं सबके लिये उत्तरदायी हूँ।

मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह किसी भी गलती, भूल या अपराध की जिमेदारी दूसरे पर डालने का यत्न करता है। ऐसा व्यक्ति कह नहीं सकता कि मैं सर्वोपरि हूँ। मैं सबका नेता हूँ। उत्तरदायित्व के गुण के बिना नेतृत्व का गुण नहीं आ सकता। स्वार्थी और असहिष्णु व्यक्ति कभी नेता नहीं बन सकता। आजकल की शिक्षा से इन गुणों की आशा नहीं की जा सकती। आज मनुष्य योग्यता के बिना ही अधिकार की आशा करता है। आशा तो की जा सकती है, परन्तु उसका निर्वाहन हीं हो सकता। ज्ञान के बिना योग्यता नहीं आती, परिश्रम के बिना ज्ञान नहीं आता। यही कारण है कि आजकल के युवाओं में सामान्य रूप से इन गुणों की कमी देखी जाती है। योग्यता के बिना विचार में,  वचन में एवं प्रामाणिकता का आभाव रहता है। जब आप किसी को कुछ कहते, बोलते, सुनते हैं, तो जब उससे उलट कर पूछा जाता है- क्या वास्तव में ऐसा है, आपके ऐसा कहने का आधार क्या है? सौ में नबे से अधिक व्यक्ति इधर-उधर झाँकने लगते हैं।

पुरानी शिक्षा जिसे अनुपयोगी समझते हैं, उसकी विशेषता है- वह शिक्षा मनुष्य को सहनशील, प्रामाणिक और उत्तरदायी बनाती है। आज किसी को कोई काम देकर आप निश्चिंत नहीं हो सकते, न तो कार्य होने का विश्वास है और न कार्य न हो पाने की सूचना। और यह कहा जाता है- तो क्या हो गया? हुआ तो कुछ नहीं, परन्तु उत्तरदायित्व का गुण समाप्त हो जाता है। इस मन्त्र के शबद घोषणा करके कह रहे हैं- घर की गृहिणी योग्य है, समर्थ है, उत्तरदायी है और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। ऐसी नारी की कल्पना करना आज कठिन है, परन्तु वेदों का आदर्श तो यही कहता है।

सन्ति सन्तः कियन्तः

सन्ति सन्तः कियन्तः

इसका अर्थ है- संसार में ऐसे सन्त कितने हैं, जो दूसरे के छोटे-से गुण को बड़ा बना कर उसकी प्रशंसा करते हैं और प्रसन्न होते हैं? हमारी सभा के संरक्षक गजानन्दजी आर्य के लिये यह पंक्ति मुझे सर्वाधिक सटीक लगती है। सभा में आर्यजी का जब से साथ मिला है, मेरे अनुमान और अनुभव से उनकी उदारता को बड़ा ही पाया है। गत दिनों उन्होंने मुझे फिर चकित कर दिया, उस घटना का उल्लेख करना सभा के हित में तथा पाठकों के लिये प्रेरणाप्रद होगा।

विगत तीन वर्षों से निरन्तर आर्यसमाज विधान सरणी के वार्षिक उत्सव में जाने का प्रसंग बना। यह अवसर आर्यसमाज के उत्सव से अधिक मुझे अपनी सभा के प्रधान गजानन्दजी आर्य से मिलने का, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने के अवसर के रूप में अधिक आकर्षित करता है। प्रतिवर्ष जब भी कोलकाता जाने का अवसर मिलता है, मेरा उनके घर जाकर दो-तीन बार भेंट करने का संयोग बन जाता है। प्रधान जी को अजमेर पधारे बहुत समय हो गया था। सभा के सभी सदस्यों की इच्छा थी कि प्रधान जी से मिलना चाहिए। सदस्यों के आग्रह पर सभा की एक बैठक कोलकाता में प्रधान जी के घर पर रखी थी, उस समय सभा सदस्यों से उनका अच्छा संवाद हुआ। प्रधान जी को भी सबसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई। इस बैठक के समय परोपकारिणी सभा के सदस्यों के आवास एवं भोजन आदि की व्यवस्था आर्यसमाज विधान सरणी ने बड़े स्नेह और उदारता से की। कोलकाता की आर्य समाजें आर्य जी के लिये प्रेम और आदर का भाव रखती हैं। सभी उनको श्रेष्ठ आर्यपुरुष के रूप में देखते हैं।

गत वर्षों की भाँति दिसबर मास में आर्य समाज विधान सरणी के उत्सव में पहुँचने की सूचना आर्य जी को मिल गई थी। उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा- मिलने का अवसर मिलेगा, अवश्य आओ । कार्यक्रम के अनुसार आर्य समाज के उत्सव के लिये मेरा कोलकाता जाना हुआ। उत्सव का प्रथम दिन शोभा यात्रा का दिन होता है। उस दिन कहीं जाना संभव नहीं था। विचार था, अगले दिन आर्यजी से भेंट करने के लिये जाऊँगा, तभी आर्य जी का दूरभाष आ गया- कब आ रहे हो? मुझे लगा, आर्यजी शीघ्र मिलने की इच्छा रखते हैं। अगले दिन प्रातःकालीन कार्यक्रम सपन्न कर मैं उनके आवास पर पहुँचा। सहज भाव से दरवाजे की घण्टी बजाई। द्वार खुलते ही मैं आर्य जी को नमस्ते कर एक और बैठना चाहता था कि आर्य जी ने अपने स्थान पर खड़े होकर मुझे निर्देश दिया- मैं उनके निकट आकर खड़ा रहूँ। उन्होंने माताजी को बुला लिया। एक शाल लाकर माता जी ने आर्यजी के हाथ में दिया। आर्य जी ने शाल खोलकर मेरे कन्धे पर डालते हुए प्रसन्नता के साथ कहा- आज हमारी सभा के प्रधान हमारे घर पधारे हैं, हम आपका अभिनन्दन करते हैं। माता जी ने भी आशीर्वाद देते हुए अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। मैं अवाक् और चकित था। वहाँ दो-तीन घर के सेवकों के अतिरिक्त कोई नहीं था। मेरे पास अपने भाव व्यक्त करने के लिये शबद नहीं थे। मुझे फिर लगा, आर्य जी मेरी कल्पना से भी बड़े हैं।

पद ने मुझे मेरे कार्य से कभी पृथक् अनुभव नहीं होने दिया। जिस दिन सभा का सदस्य नहीं था, स्वामी ओमानन्दजी महाराज सभा के प्रधान थे, उनके कारण सभा से जुड़ने का सौभाग्य मिला। उस दिन भी सभा का कार्य करते हुए ऋषि दयानन्द के कार्य को कर रहा हॅूँ, यही अनुभव था। सभा ने मुझे सदस्य बनाया, तब भी मेरा यही अनुभव रहा। मुझे पुस्तकाध्यक्ष पुकारा, तब भी मेरा वही काम और वही भाव था। मुझे आर्यजी ने अपने साथ संयुक्तमंत्री बनाया, तब भी मेरे लिये न कार्य के स्तर पर कुछ नया था, न विचारों के स्तर पर। आर्य जी को सभा ने प्रधान बनाया, आर्य जी ने मुझे अपना मंत्री चुना, तब भी मेरे सेवा कार्य का कोई स्वरूप नहीं बदला और आज आर्यजी ने अपने को प्रधान पद से मुक्त करते हुए मुझे अपना दायित्व सौंपा, तब भी मुझे मेरे कार्य में कुछ भी नवीनता नहीं लगी। जो कर रहा हूँ, उसमें बदलने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। पहले उत्तरदायित्व आर्यजी के पास था और मैं मुक्त था, परन्तु आज भी वे सभा के संरक्षक हैं, तब भी मैं उनको उतना ही अपने निकट अनुभव करता हूँ। आर्यजी ने सभा के सदस्यों को परस्पर इस तरह से जोड़ा है कि सभी लोग समान विचार से परस्पर सहयोग करते हैं, जिससे सभा की निरन्तर प्रगति और उन्नति हो रही है।

सभा की वर्तमान कार्य विधि का श्रेय स्वामी सर्वानन्दजी महाराज तथा सभा संरक्षक गजानन्दजी आर्य को है। उनकी उदारता और लोकप्रियता के कारण समाज का उदारतापूर्ण सहयोग सभा को प्राप्त हो सका। पुराने आर्य जन सभा से जुड़े और कार्य में गति आई। हमारे सभाप्रधान आर्य जी सभा की उन्नति क्यों हो रही है- इसका मूल्यांकन इस तरह करते हैं। हमारी सभा में कोई नहीं कहता कि यह कार्य मैंने किया है। सब कहते हैं- यह प्रधानजी के कारण हो सका है। प्रधान जी कहते हैं- सदस्यों के सहयोग से यह कार्य हो सका है। अधिकारी सदस्य, सदस्यों के सहयोग को कारण मानते हैं। सदस्य अधिकारियों की कर्मठता को श्रेय देते हैं। इसका कारण था- स्वामी सर्वानन्दजी और गजानन्दजी का अपने सदस्यों के साथ आत्मीय भाव।

सभा के किसी पद की आर्य जी ने कभी इच्छा नहीं रखी और सभा ने कभी उन्हें मुक्त नहीं होने दिया। आर्य जी ने जब भी पद छोड़ा, अपने आग्रह से छोड़ा और सभा ने उन्हें बलपूर्वक पद पर बनाये रखा। संभवतः यही दुर्लभ बात सभा की प्रगति का कारण है।

आर्य समाज के प्रारभिक काल को छोड़ कर सभा और संगठनों पर कहीं राजनीतिक लोगों का, कहीं जातिवादी लोगों का तो कहीं धनी लोगों का वर्चस्व रहा है। उनका हित ही संगठन का हित समझा जाता है। विद्वान् व् संन्यासियों को तो ये नेता कहलाने वाले लोग यह कह कर दूर कर देते हैं कि आपका काम प्रचार करना है, संगठन चलाना नहीं। कोई इनसे पूछे कि संगठन का काम प्रचार करना नहीं होकर क्या अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये झगड़े करना और सभा समाज की सपत्ति का दुरुपयोग करना है? आज यह परोपकारिणी सभा के लिये गौरव की बात है कि इसके तेईस सदस्यों में अट्ठारह सदस्य विद्वान् प्रचारक, लेखक और पत्रकार हैं। किसी संस्था में एक भी व्यक्ति कर्मठ, निष्ठावान् होता है तो संस्था उन्नति करती है, आज सभा का प्रत्येक सदस्य तन-मन-धन से सभा की उन्नति में लगा है तो सभा की प्रगति कैसे नहीं होगी? सभा जातिवाद, राजनीतिवाद, धनवाद, वर्गवाद के सभी रोगों से मुक्त है। आर्यजी की कार्यशैली, ऋषि के प्रति दृढ़भक्ति और सिद्धान्तों के प्रतिनिष्ठा का ही यह परिणाम है। सभा के द्वारा जो कार्य हस्तगत हो रहे हैं, उसमें अधिक कार्य ऐसे हैं, जो दिखाई नहीं देते। उनका वर्तमान के लिये विशेष लाभ दिखाई न दे, परन्तु भविष्य के कार्य की वे आधारशिला हैं। इनकी चर्चा किसी और प्रसंग के लिये छोड़ते हैं। सभा द्वारा अपनी गतिविधियों में पठन-पाठन, प्रचार, प्रकाशन के साथ योग साधना शिविरों का आयोज नवर्ष में दो बार किया जाता है। इनमें भाग लेने से व्यक्ति के विचारों में स्पष्टता आती है, सिद्धान्त की मान्यता दृढ़ होती है, कार्य करने का उत्साह बढ़ता है और निराशा समाप्त होती है। इसका एक उदाहरण कभी नहीं भूलता। दिल्ली के लाला श्याम सुन्दर जी, जो मूल रूप से बादली-झज्जर के निवासी थे, आश्रम के शिविरों में आते रहते थे। शिविर की समाप्ति पर शिविरार्थी अपने शिविर काल के अनुभव सुनाते हैं। एक शिविर के अनुभव सुनाते हुए लाला जी ने कहा- मुझे शिविर में आकर पहला अनुभव यह हुआ कि मैं समझने लगा था कि आर्य समाज का कार्य शिथिल हो गया है, उसका वर्चस्व समाप्त हो गया है, परन्तु शिविर का अनुभव कहता है-आज भी आर्यसमाज में जीवन डालने वाले लोग हैं और आर्य समाज का कार्य प्रगति पर है। लाला जी ने दूसरी बात कही- आश्रम में आकर अनुभव हुआ कि यहाँ किसी की अनुपस्थिति से कोई कार्य रुकता नहीं। प्रधान नहीं है तो मन्त्री, मन्त्री नहीं है तो सदस्य, वह नहीं है तो कार्यालय का व्यक्ति, कभी वह भी नहीं हुआ तो सेवक ही सारे काम कर देता है, किसी की अनुपस्थिति से कोई कार्य बाधित नहीं होता। यह सामूहिक रूप से कार्य करने का परिणाम है।

सभा को स्वामी जी और आर्यजी जैसे वीतराग व्यक्तियों का मार्गदर्शन और संरक्षण प्राप्त रहा, यही सभा का सौभाग्य है।

प्रधान जी में सरलता और निरभिमानता कूट कूट कर भरी है। अनेक बार मेरी शिकायतें लेकर लोग प्रधान जी के पास पहुँचते हैं, वे मुझे बता देते हैं- कौन आया था और क्या कह रहा था। एक बार एक व्यक्ति के बारे में बता रहे थे, वह व्यक्ति कह रहा था- यह धर्मवीर प्रधान को महत्त्व नहीं देता, स्वयं सब कार्य करता है। मैंने पूछा- आपको यह बात बुरी लगी होगी, तो कहने लगे- मुझे क्यों बुरी लगेगी, जो कार्य तुम करते हो, उसके लिए तुमहें ही उत्तरदायी बनकर आगे आना होगा। पौत्र पराग के विवाह के अवसर पर मुबई में होटल में मिले तो एक तरफ ले जा कर हाथ पकड़ कर कहने लगे- जब कोई व्यक्ति तुमहारे विषय में अन्यथा बात करता है तो मुझे बहुत दुःख होता है, बुरा लगता है। मैंने कहा- मुझे तो बुरा कहने वाले का बुरा नहीं लगता है, आपको भी नहीं लगना चाहिए । बोले- नहीं, यह सहन नहीं होता। ऐसे सहृदय सज्जन संसार में कितने हैं, जो अन्यों के परमाणुतुल्य गुणों को पर्वताकार बनाकर नित्य ही अपने अन्दर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं? प्रधानजी के व्यक्तित्व को देखकर महाराज भृर्तहरि की ये पंक्तियाँ होंठों पर आ जाती हैं-

मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा

स्त्रिभुवनमुपकारः श्रेणिभिः प्रीणयन्तः।

परगुणपरमाणून  पर्वतीकृत्य नित्यं,

निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।।

– धर्मवीर

This is treason: Dr. Dharmveer

This is treason 

“ Pakistan Zindabad, India will bleed with a thousand cuts, How many Afzal’s will you sentence to death when each house will given birth to an Afzal, Kasmir will win its freedom, This fight will continue till India is destroyed”. These slogans even if heard in Pakistan would have been enough to make us agitated. We would have cursed Pakistan, made some announcements condemning the episode may be even announced action, but these slogans were heard on the 9th February in India’s capital at the Jawaharlal Nehru University. These slogans were raised by the students of the university. These slogans were repeated and the sentencing of the terrorist Afzal Guru was claimed to be the murder of justice. The Supreme court of India and her constitution were cursed repeatedly. Can a country expect its very own citizens to raise such slogans in the heart of its capital city and in a university! This is the tolerance of India! and it seems that these people are very miserable living in India.

JNU Delhi, has always been notorious for its anti national activities. From treason to nudity of Hindu goddesses, everything is seen to be a sign of being progressive, liberal and freedom of expression. The very foundation of this University is anti India. When the university was established it had all the departments except Sanskrit. When the then HRD Minister Murli Manohar Joshi decided to open Sanskrit department in the university, the students organized strikes, demonstrations and protests. However the central government went ahead and opened the Sanskrit department here.

The University also organized a beef festival on its campus which could not materialize due to protests by the ABVP and other hindu organizations. All the anti national and anti social activities are in the name of progress and freedom of expression.  These activities had so far not been brought to light and therefore no action had been taken. The past governments were also with them.  The University management and officials were also guardians of the same anti national brigade. The statement of the university professors and the officials in light of this incident is the result of the same tradition that has so far continued at this university.

Sandip Patra recently said on a news channel that the students and faculty who had earlier protested against the anti social and anti national activities at the university were punished, insulted and ultimately thrown out of the university.

When Zee news first broadcast the recent incident at JNU, the whole nation was enraged. Which citizen would hate his own country and detest his own fellow countrymen and claim his behavior to be his right. Those who study with the money paid for by the country declare their treason as their freedom of expression. There cannot be a greater misfortune for a country than this.  If this incident had transpired in China, Tiananmen square episode would have been repeated by now. The more disgraceful part of this episode is the way the media, political parties like Congress, AAP and the marxists are supporting these anti national students. Some want to dismiss this episode as just another incident by some outsiders and not the students. Others are trying to defend the incident as the freedom of expression.

This episode is nothing but treason and all those who are defending it are India’s traitors. Anyone who supports a traitor is also definitely a traitor himself. This episode could come to light because it was all captured over camera. When the president of the student union was brought before the judge he declined having shouted anti India slogans and blamed it on the outsiders. When he was shown the video evidence of him shouting the slogans, he blamed it on the students of ABVP of having spoilt the JNU environment. Basically he is saying that to stop a thief from stealing is spoiling the environment.  Some shameless politicians have also adopted this line and saying that it is not confirmed who was shouting the anti national slogans. They are also saying that the police should not enter the university campus to arrest these anti national students. It is interesting to note that the Pakistan supports can stay there, pakistani spies can live there, but the police protecting Indian citizens cannot enter the university.

 

We should also note here that this is not the first incident of this kind. There has been a chronology of such events. A similar episode had happened in Hyderabad. However a camera recording was not available for that incident. There it was associated with the atrocities on the Dalits. In the Hyderabad University more than 300 students had gathered to protest against the death sentence given to Yakub Menon. Students prayed for his soul and shouted that Yakub Menon will be born in each house. One of the member of the students’ council protested against this episode and wrote a scathing piece on his Facebook page. More than 30 Yakub Menon supporters dragged him out of his room in the middle of the night, beat him up and forced him to write an apology letter and got his Facebook post removed. Is this tolerance? Is it freedom of expression or social justice? Even if you do wrong it is your freedom of expression and if someone protests you will kill him? The mother of the student approached the court after this episode. The students of the University went on a strike and amidst all this the student” Rohit” committed suicide. The politicians and the anti national forces used this episode as the atrocities of the Modi Government on the Dalits and oppressed class. Rahul Gandhi and Kejriwal went to Hyderabad University to express their solidarity with the students. No one wants to pay attention to the real cause of this incident. No one went their to dissuade the students and no one criticized their actions.

 

The JNU episode is the second in the series. The student Rohit from Hyderabad had written to the central government to intervene and put an episode to such incidents. The central government’s response was in the interest of the society and the country. But India is a nation of Jaichands. Today the Congress and the whole opposition is occupied with just one thing – to make every action and every episode as an act against the Modi Government.  While the students of JNU were shouting anti India slogans, another episode was taking place simultaneously. Pamphlets with photos of Afzal Guru and Yakub Menon were distributed. They were criticizing the death sentence awarded to these terrorists. This was organized in another liberal bastion, the press club of India. Needless to stay that the faculty members of JNU were also a part of this group.

 

Is it possible in any other country of the world to use the government institutions for anti national activities?  It can happen only in India because the enemies of the State are a part of the system and the government machinery. From Nehru to Sonia gandhi, the objective of all governments was the same – destruction of India’s culture and it traditions. It is a result of their policies that Indians do not take pride in their own country, culture and traditions. Newer generations consider our beliefs to be backward and obsolete. The Western traditions were glorified and considered ideal at the same time destroying our own values. JNU is an example of this policy. These policies have nurtured anti national elements in the country. To grab the power appeasement has been followed to such an extent that all anti national activities were ignored.

 

The protests against the JNU episode are the result of awareness in the general public. The fact that some members of the student council opposed it and that a couple of news channels like Zee news stood firm and brought this episode to light have made a judicial investigation and action possible. These traitors are weak and cowardly and most of them ran at the first sign of trouble. Some of them are still at large. If those arrested are dealt with strictly then most of the supporters and comrades would be seen absconding.

 

Anyone in public who supports Afzal guru, shouts Long live Pakistan, eulogizes terrorists is a traitor. Anyone who shouts slogans of “ Long live Khalistan, praises Bhindarwale and distributes pamphlets in support of his actions is a traitor. Those who support them are also guilty of treason. Treason is an unpardonable offense and if dealt with strictly and firmly it might restraint these anti national activities. The students, zee news and times now and the public who raised their voice against the anti national activities at JNU deserve to be lauded.

Our scriptures say that the traitors should be punished severely –

In a nation where leadership is strong and justice and punishments is severe, it does not let its subjects deviate from the righteous path.

देश में असहिष्णुता बढ़ रही है, क्योंकि हमें मोदी सहन नहीं है।

देश में असहिष्णुता बढ़ रही है, क्योंकि हमें मोदी सहन नहीं है।

बिहार चुनाव के समय असहिष्णुता पर बड़ी बहस चल रही थी जिसको देखो, वह इस देश की बढ़ती हुई असहिष्णुता से चिन्तित दिखाई दे रहा था। देश के राष्ट्रपति से लेकर गली के नेता तक प्रतिदिन वक्तव्य दे रहे थे। असहिष्णुता कोई नई घटना है या किसी परिवर्तन का परिणाम ! गत दिनों असहिष्णुता पर लेख लिखते हुए एक लेखक ने ऑक्सफोर्ड शब्दकोष के आधार पर असहिष्णुता की परिभाषा को दो भागों में बाँटा था-

(क) किसी ऐसी बात की उपस्थितिया अभिव्यक्ति को ( जो कि उसे पसन्द नहीं है या जिससे उसकी सहमति नहीं है ) बिना विरोध सहन करने की सामर्थ्य या सहनशीलता।

(ख) किसी अप्रसन्नता वाली वस्तु ( दवाई आदि भी ) को बिना विपरीत प्रतिक्रिया के सहन करना।

यह परिभाषा एक प्रामाणिक कोष की परिभाषा है, ठीक ही होगी। भारत में सहिष्णुता-असहिष्णुता का मूल्यांकन इस परिभाषा पर नहीं किया जा सकता। भारत में स्वतन्त्रता के बाद से जो हो रहा था, उसकी परिभाषा गाँधी जी की दी हुई थी। उनके विचार से इस देश में दो ही विचारधाराएँ हैं- एक हिन्दू समर्थक, एक हिन्दू विरोधी । भारत की सहिष्णुता केवल हिन्दू-विरोध का दूसरा नाम है। यह हिन्दू विरोध मुस्लिम, ईसाई विरोधी हो जाये तो असहिष्णुता है और हिन्दू अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का विरोध करे तो वह भी घोर असहिष्णुता है।

यदि ईसाई चर्च प्रलोभन अथवा भय से हिन्दुओं का धर्मान्तरण कराये तो यह उदारता सहिष्णुता है, यदि हिन्दू इसका विरोध करने लगे तो यह असहिष्णुता है। कहीं किसी ईसाई को हिन्दू बनाने की बात की तो यह असहिष्णुता बढ़ाना है। कश्मीर में कई हजार हिन्दूस्थानों का नाम एक आदेश से बदल देना और किसी के द्वारा विरोध में स्वर न उठाना, यह सहनशीलता है और दिल्ली के औरंगजेब मार्ग का नाम कलाम के नाम पर करना, यह असहिष्णुता है।

कोलकाता में दुर्गा-पूजा पर पण्डाल तोड़ना सहिष्णुता है और मुसलमानों को सड़क पर यातायात अवरुद्ध करने से रोकना असहिष्णुता है। मन्दिर तोड़ना, हिन्दू महिलाओं को निर्वस्त्र कर दौड़ाना सहिष्णुता है, मस्जिद में इकट्ठे होकर देशद्रोह के व्यायानों की निन्दा करना असहिष्णुता है। साध्वी प्रज्ञा को आतंकी मान, बिना अपराध जेल में रखना सहिष्णुता है। आतंकी को न्यायालय द्वारा फाँसी दिया जाना असहिष्णुता है। गोधरा में गाड़ी के डिब्बे बन्द करके पैट्रोल डालकर जला डालना सहिष्णुता है। प्रतिक्रिया में हिन्दुओं का आक्रामक होना असहिष्णुता है। संसद के अन्दर वन्दे मातरम का  गान होते समय गान का अपमान करनेवाले की प्रशंसा करना सहिष्णुता है और वन्देमातरम गानेवाले की प्रशंसा करना असहिष्णुता है। आजम खाँ का संघ को आतंकी कहना सहिष्णुता है और तिवारी द्वारा बदले में इस्लाम पर टिप्पणी करना असहिष्णुता है। हिन्दुओं द्वारा आत्मरक्षा में उठाया गया काम असहिष्णुता और अपराध है, मुसलमानों द्वारा नवादा में गाड़ियों को जला देना, थाने पर आक्रमण करके आग लगा देना सहिष्णुता की परिभाषा में आता है। ओड़िशा में एक सन्त को कुल्हाड़ी से काट देना सहिष्णुता है और पादरी को जला देना असहिष्णुता है। मुसलमानों द्वारा गाय-ऊँट को मारने पर रोक लगाना असहिष्णुता है, चौराहे पर गोवध करना सहिष्णुता है।

इतिहास में इससे पहले भी बड़ी-बड़ी घटनायें घटीं, तब भी किसी को असहिष्णुता का बोध नहीं हुआ। इन्दिरा गाँधी ने 1975 में आपात्काल की घोषणा की, तब साहित्यकारों ने पुरस्कार स्वीकारना भी बन्द नहीं किया, लौटाना तो दूर की बात है। 1984 में इन्दिरा गाँधी की हत्या की प्रतिक्रिया में तीन हजार से अधिक सिक्खों की हत्या कर दी गई और बदले में सहिष्णु लोगों की प्रतिक्रिया थी। जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है। इससे पता लगता है कि सहिष्णुता की दिशा क्या है ? भागलपुर के दंगे प्रसिद्ध हैं, तब भी असहिष्णुता का कोई अवसर नहीं था। विचारों की स्वतन्त्रता का ढोंग करनेवाले वामपन्थी, कांग्रेसी और तथाकथित प्रगतिशील लोग हिन्दूदेवी-देवताओं को गाली देना, विचार-स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति का अधिकार मानते हैं। तसलीमा नसरीन के देश निकाले और जान से मार देने के फतवे को सुनकर कबूतर की तरह बिल्ली के आने पर आँखें बन्द कर लेते हैं। विचार-स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की बात करनेवाले ये ही लोग भारत में रुशदी की पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने की बात करते हैं। रुशदी के भारत में आने पर उसका विरोध करते हैं। जयपुर कार्यक्रम से बाहर जाने के लिये बाध्य करते हैं। केरल में एक ईसाई प्रोफेसर का हाथ इसलिये काट दिया जाता है कि उसने इस्लाम के विरोध में लिखा था, यह भी इस देश की सहिष्णुता का उदाहरण है। इन प्रगतिशील विचारकों की सहिष्णुता प्रशंसनीय है।

एक बार मुझे रेल में जाते हुए सीमा सुरक्षा बल के अधिकारी ने अपने अनुभव बताते हुए कहा था- कश्मीर चुनाव में एक मतदान केन्द्र पर उसकी नियुक्ति थी। वहाँ केवल दो मतदाता थे, वह गाँव कश्मीरी पण्डितों का था। उस अधिकारी ने बताया- गाँव के वृद्ध ने कश्मीरी पण्डितों को भगाने की घटना सुनाते हुये कहा था कि इसी वृक्ष के नीचे छबीस कश्मीरी पण्डितों की हत्या की गई थी।जहाँ सैंकड़ों लोगों की हत्या हुई हो और जिस देश में अपने ही घर से बेघर कर बीस वर्षों से भी अधिक समय से शेष लोगों को शरणार्थी बना दिया गया हो- क्या यह हमारी सहिष्णुता का प्रमाण नहीं है? कश्मीर में पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाना सहिष्णुता नहीं है? जब कश्मीर में भारतीय सेना के जवान आतंकियों की छानबीन करते हैं, उन्हें मार गिराते है, तब निःसन्देह भारत की सहिष्णुता खतरे में होती है। हिन्दू लड़कियों को भगाना, बलात्कार करना, हत्या कर देना, आदि को एक सामान्य बात मानना, इस देश में सहिष्णुता का ही प्रमाण है। कौन इसके विरोध में आवाज उठाता है? कौन अपने पुरस्कार लौटाता है? एक दादरी काण्ड पर सारा देश पुरस्कार लौटाने के लिये पंक्ति में खड़ा हो जाता है। यहाँ आतंकियों का सम्मान करने में होड़ लगती है। चाहे दिल्ली का बटाला हाउस काण्ड हो या गुजरात में इशरतजहाँ का मारा जाना। आतंकियों के घर पुरस्कार के रूप में लाखों रुपये के चेक लेकर सहिष्णु लोग ही तो पहुँचते हैं।ये थोड़े से उदाहरण धार्मिक सहिष्णुता के हैं।

इस देश में दो वर्ग विशेष रूप से असहिष्णुता से पीड़ित हैं- राजनीतिक दृष्टि से कांग्रेस और उसके पिछलग्गू लोग। इनका असहिष्णु होना बनता भी है। कांग्रेस की सत्ता छिन गई और ये लोग सोचते हैं कि देश में सहिष्णुता रहनी चाहिये। जो लोग साठ साल से इस देश पर राज्य कर रहे थे और उन्होंने इसे अपना पैतृक अधिकार समझ रखा था, उनको इस देश की जनता ने पराजित कर सत्ता से बाहर कर दिया तो जनता का इससे बड़ा उनके साथ अन्याय क्या हो सकता है? ऐसे लोगों में आक्रोश होना स्वाभाविक है, वे असहिष्णुता की बात करें तो ठीक ही है, इस देश की जनता ने उनको सहने से इन्कार कर दिया, क्या इस देश की जनता असहिष्णु नहीं हो गई है? केवल सत्ता ही गई हो, ऐसा तो नहीं है। सत्ता के जाने से सम्पत्ति और समान भी तो जाता है। सत्ता से एक महिला इंग्लैण्ड की महारानी से भी अधिक सम्पत्ति उपार्जित कर लेती है, क्या बिना सत्ता के ऐसा सभव है? बिना सरकार में हुए सरकार से बड़ा पद मिल जाना, क्या सत्ता के बिना संभव है? राजा के घर पैदा होकर राज्य का अधिकार मिलने की सहज  परम्परा का टूट जाना, क्या सहन करने योग्य बात है ? इसके कारण देश के लोगों में असहिष्णुता बढ़ना सहज बात है। उनकी सरकार के रहते मन्त्री और अधिकारियों और नेताओं ने जो लूट मचा रखी थी, क्या उसके रुक जाने पर कोई शान्तिपाठ कर सकता है? मुझे गत दिनों आर्यसमाज शामली के कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। वहाँ के आर्य सज्जन रघुवीर सिंह आर्यजी के साथ छः दिन रहने का अवसर मिला। उनका लोहे का कारखाना है, गाड़ी के धुरे आदि बनाते हैं। उनके पुत्र ने एक बात बताई कि मोदीजी के आने से उनको व्यापार में घाटा हुआ, परन्तु देश को लाभ। पूछने पर उन्होंने बताया कि मोदी सरकार के आने से भारत का कच्चा लोहा बाहर जाना बन्द हो गया। लोहे का निर्यात बन्द हुआ तो लोहा भारत के बाजार में सस्ता हो गया। इससे देश के व्यापारी को तो तत्काल हानि हो गई, पर कच्चे लोहे का निर्यात बन्द होने से उपभोक्ता को लोहा सस्ता मिल रहा है और देश में ही लोहे का निर्माण हो रहा है। कांग्रेसराज में खनिज निर्यात करके दलाल लोग अपनी जेबें भर रहे थे और देश को हानि हो रही थी। इसी प्रकार खाद्यान्न आदि में भी हो रहा है। इससे जिनलोगों की बेनामी बेहिसाब सम्पत्ति मिल रही थी, क्या उनमें असहिष्णुता नहीं बढ़ेगी । जिस-जिस के भी स्वार्थ पर चोट पड़ेगी, वह असहिष्णु तो होगा ही। इस देश में कांग्रेस ने कुछ सहिष्णुता के केन्द्र बनाये थे, जिनमें देश के अन्दर सहिष्णुता उत्पन्न की जाती है।उनमें से एक है- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय। यह विश्वविद्यालय प्रगति और आधुनिकता का जनक है।जब यह विश्वविद्यालय बना तो इसमें सब भाषाओं के विभाग खोले गये, परन्तु संस्कृत भाषा का विभाग नहीं खोला गया, क्योंकि इस देश के लोगों में संस्कृत पढ़ने से असहिष्णुता बढ़ती है। जब मुरली मनोहर जोशी ने इस विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग खोलने की अनुमति दी तो यहाँ पर विरोध, हड़ताल और आन्दोलन किये गये, परन्तु संस्कृत विभाग तो खुल गया, फिर असहिष्णुता तो इस देश में बढ़नी ही है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की सहिष्णुता का एक उदाहरण देना असंगत नहीं होगा। इस विश्वविद्यालय में एक छात्र जितेन्द्र धाकड़ संस्कृत विषय में एम.फिल. का छात्र है।यह परिवार से आर्यसमाजी है। यह प्रतिवर्ष अपना जन्मदिन हवन, यज्ञ करके ही मनाता है। इसने इस वर्ष 21 नवम्बर को विश्वविद्यालय में छात्रावास के अपने कक्ष में मित्रों के साथ यज्ञ का आयोजन किया।फिर क्या था, छात्रावास के कामरेडों ने इसकी शिकायत छात्रावास अधीक्षक से कर दी। छात्रावासअधीक्षक (वार्डन) भी एक ईसाई बर्टेनक्लेट्स है, वह तुरन्त कक्ष संख्या 130 में पहुँचा । उसके साथ कामरेड शिकायत करनेवाले भी थे। इन्होंने जबरदस्ती उस छात्र का हवन बन्द करा दिया।छात्रावास मुस्लिम छात्रों को जब नमाज पढ़ने से नहीं रोकता, ईद मनाने से नहीं रोकता, क्रिसमस धूमधाम से मनाया जाता है, बीफपार्टी का आयोजन करने की अनुमति मिल सकती है। फिर हवन को जबरदस्ती बन्द कराना कौन-सी सहिष्णुता का उदाहरण है- ये असहिष्णुता से पीड़ित लोग बता सकेंगे। देश के प्रधानमन्त्री को अलीगढ़ में न बुलाने देना, यह भी सहिष्णुता का ही उदाहरण है। जिन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं से इतनी पीड़ा है कि उन्हें अपने देश में अपनी परम्परा का निर्वाह करने में विरोध सहना पड़ रहा है, वे मुस्लिम देशों की सहिष्णुता से कुछ क्यों नहीं सीखते? पिछले दिनों 22 दिसम्बर को ब्रुनेई के सुल्तान ने क्रिसमस का पर्व मनाने पर बड़ी सजा देने की घोषणा की तथा ऐसा करने वालों को पाँच साल की जेल या बीस हजार डॉलर का दण्ड देना होगा। यदि कोई घर में अकेले मनाना चाहता है तो उसे प्रशासन से अनुमति लेनी होगी । 24 दिसम्बर को अफ्रीकी देश सोमालिया के मन्त्री शेखमोहमद खेचरो ने अपने देश के लोगों को आदेश दिया कि क्रिसमस और नव वर्ष न मनाया जाय, यह ईसाइयों का पर्व है,  इससे मुसलमानों का कोई सम्बन्ध नहीं। गुप्तचर विभाग को निगरानी करने के लिये कहा है।

इन घटनाओं के चलते भारत में असहिष्णुता दीखती है तो वह चाहे धार्मिक हो, जातीय हो या राजनैतिक, मूल कारण है मोदी का प्रधानमन्त्री बनना और हिन्दुओं का अन्याय के विरुद्ध मुखर होना। जो लोग कहते हैं कि मोदी से पहले देश में शान्ति और भाईचारा था, यहाँ गंगाजमुनी संस्कृति है- यह झूठ और आत्मप्रवञ्चना है। इस देश में अल्पसंखयकों और सरकार द्वारा हिन्दुओं पर जितने अत्याचार हुए हैं, उनकी कोई गिनती नहीं, फिर भी यह देश सहिष्णु था तो इसका असहिष्णु होना ही ठीक है। अच्छा होता, यह देश एक हजार वर्ष पूर्व असहिष्णु हो जाता तो दास न बना होता। नीतिकार ने कहा है- जन्मान्ध नहीं देखता, कामान्ध नहीं देखता, उन्मत्त-पागल नहीं देखता और स्वार्थी भी नहीं देखता। इन अन्धों की सहिष्णुता पर क्या कहा जा सकता है-

नैव पश्यति जन्मान्धो कामान्धो नैव पश्यति।

मदोन्मत्ता न पश्यन्ति हयर्थो दोषं न पश्यति।।

 

– धर्मवीर

स्तुता मया वरदा वेदमाता- डॉ धर्मवीर

 

वेद जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखने का सन्देश देता है। इस मन्त्र में महिला के द्वारा कहा जा रहा है। प्रतिदिन सूर्योदय के साथ ही प्राणियों का भाग्योदय होता है। प्रत्येक सूर्योदय नये जीवन का सन्देश लेकर आता है। मनुष्य को अपने जीवन से निराशा को समाप्त करना चाहिए। निराशा असफलता को स्वीकार करने का दूसरा नाम है। मनुष्य के सभी मनोरथ पूर्ण नहीं हो पाते। मनुष्य को असफलता मिलती है तो निराश होने की सभावना होती है, किन्तु यदि दूसरा-तीसरा अवसर उसके सामने होता है तो वह निराशा की ओर न जाकर फिर से प्रयत्न करने के लिये तैयार हो जाता है। वेद कहता है- मनुष्य को कितनी भी बार असफलता क्यों न मिले, हर नया दिन एक नई सफलता का अवसर लेकर आता है, इसीलिये मन्त्र में ऋषिवर ने कहा है- यह सूर्योदय मात्र सूर्योदय नहीं है, यह मेरे सौभाग्य का उदय है। प्रतिदिन सूर्योदय के साथ मनुष्य को निराशा छोड़कर नये उत्साह और विश्वास के साथ नये दिन का प्रारभ करना चाहिए।

एक महिला की सफलता उसके साथ जीवन बिताने वाले की योग्यता से जुड़ी होती है। मन्त्र कहता है- अहं तद् विद्वला– मैंने वर को प्राप्त कर लिया है। संस्कृत भाषा के शदों में अद्भुत शक्ति है- अर्थ को अपने अन्दर समाने की। होने वाले पति की विवाह संस्कार के समय वर संज्ञा होती है। वर शब्द  का मूल अर्थ चुना गया होता है। वर का एक अर्थ श्रेष्ठ भी होता है, व्यक्ति जब बहुतों में से चुनाव करता है, तो वह श्रेष्ठ का ही चुनाव करता है, इसी कारण विवाह के समय विवाह कर रहे युवक की संज्ञा वर होती है। जब विवाह में युवक को वर कहते हैं, तो उसी समय युवती की संज्ञा वधू होती है। वधू शब्द  का अर्थ है- इसे जीवन के लक्ष्य तक पहुँचाना है अथवा जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के साथ लेना है, जिसके साथ रखने का उत्तरदायित्व वर स्वीकार करता है। वधू को साथ रखने का जिसमें सामर्थ्य है, ऐसा चुने गये व्यक्ति की संज्ञा वर है। इससे भी रहस्य की बात है, वर शब्द  बताता है कि उसे किसी ने अपने लिए चुना है, स्वीकार किया है, अतः चुनने का अधिकार वर का नहीं, वधू का है। वर तो वधू का चयन स्वीकार करता है। चुनाव की प्रक्रिया को स्वयंवर कहते हैं। स्वयंवर में वर तो युवक है, परन्तु चुनने का अधिकार युवती का है, उस चुनाव से सहमत होना, न होना, युवक की स्वतन्त्रता है। जब अनेक युवक एक युवती को प्राप्त करने में इच्छुक होते हैं, तो चयन का अधिकार युवती का होता है। भारतीय इतिहास में अनेकशः स्वयंवर के उदाहरण मिलते हैं, द्रौपदी स्वयंवर है, सीता स्वयंवर है। कालिदास के प्रसिद्ध महाकाव्य में अज- इन्दुमति स्वयंवर का चित्रण बड़ा रोचक है। स्वयंवर के समय देश के विभिन्न भागों से इन्दुमति से विवाह करने के इच्छुक राजकुमार स्वयंवर स्थल पर उपस्थित होते हैं। स्वयंवर के समय इन्दुमति की दासी सुनन्दा राजकुमारी इन्दुमति के साथ चलती है और प्रत्येक राजकुमार के सामने खड़ी होकर, राजकुमार के गुण, वैभव, विद्या, वीर्य, पराक्रम का वर्णन करती है। राजकुमारी इन्दुमति द्वारा अस्वीकृत करने पर वह अगले राजकुमार के सामने पहुँच जाती है। इस चित्रण को कालिदास ने अपने काव्य में बहुत सुन्दर ढंग से बाँधा है। वे कहते हैं-

संचारिणी दीपशिखेव रार्त्रो ये ये व्यतीयाय पतिंवरासा

नरेन्द्र मार्गट्ट इव प्रपेदे विवर्ण भावं स स भूमिपालः।।

अर्थात् जब इन्दुमति राजकुमारों के समुख वरमाला लेकर उपस्थित होती थी, तब राजकुमार का मुख कान्ति से दैदीप्यमान हो जाता था, जैसे चलते हुए दीपक के किसी महल के समुख आने पर भवन की भव्यता प्रकाशित होती है, परन्तु जब राजकुमारी राजकुमार के सामने से बिना वरण किये आगे बढ़ जाती थी तो उस राजकुमार की कान्ति वैसी मलिन पड़ जाती थी, जैसे दीपक के भवन के सामने से निकल जाने पर, कितना भी विशाल भवन हो- अन्धकार में विलुप्त हो जाता है।

इस प्रकार महिला के अधिकारों पर एक सहज विचार इन शदों में प्रतिबिबित होता है। आज महिला के अधिकार और कर्त्तव्य का निश्चय पुरुष करना चाहता है, तब हमें वेद के इस सन्देश पर ध्यान देना चाहिये।

वेद प्रत्येक मनुष्य को ज्ञान का अधिकार देता है। ज्ञान प्राप्त करके ही मनुष्य अपने हित-अहित का विचार कर सकता है। यदि महिला शिक्षित नहीं होगी, तो निर्णय और विचार कैसे कर सकेगी? इन मन्त्रों में अपने अधिकार, अपने कर्त्तव्य, अपनी योग्यता के कारण जो आत्मविश्वास व्यक्ति के अन्दर आता है, उसका स्पष्ट पता चलता है। अतः तद् विद्वला पतिम् अर्थात् मैंने अपने योग्य पति को प्राप्त कर लिया है, यह कथन उचित ही है।

 

संरक्षण औचित्य का, आरक्षण का नहीं: – डॉ. धर्मवीर

 

आरक्षण के औचित्य और अनौचित्य को लेकर समय-समय पर विचार होता रहता है। विगत दिनों दो मुय व्यक्तियों की टिप्पणियाँ चर्चित रहीं, इनमें प्रथम- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत की टिप्पणी का अपना महत्त्व है। जब बिहार विधानसभा के चुनाव चल रहे थे, तब संघ चालक की टिप्पणी ने बिहार में भाजपा को और मोदी को जो लाभ पहुँचाया, उसे पार्टी और सरकार दोनों बहुत समय तक याद रखेंगे। तब सर संघ चालक ने कहा था- आरक्षण की निरन्तरता पर विचार होना चाहिये। लालू और नीतीश को ऐसा हथियार मिला कि पूरे चुनाव में इसे खूब चलाया, इतना चलाया कि लोगों ने बिहार में भाजपा की हार का इसे बड़ा कारण बताया। उस चुनाव के समय इस प्रकार की टिप्पणी अनावश्यक थी, परन्तु कुछ वक्तव्यों  एवं घटनाओं का मूल्य घटित होने के पश्चात् पता लगता है। घटते समय या पूर्व उसका अनुमान लगाना बहुत कठिन होता है और जो लोग घटित बातों के परिणाम का अनुमान लगा सकते हैं, वे इस प्रकार की घटनाओं को घटित ही नहीं होने देते।

अभी 17 दिसबर को एक समेलन में ‘सामाजिक समावेश’ के सन्दर्भ में बोलते हुए अपने पुराने विचारों के विपरीत, उन्होंने कहा, ‘‘आरक्षण प्रणाली को खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता। यह व्यवस्था भारतीय समाज में भेदभाव मौजूद रहने की स्थिति तक बनी रहनी चाहिए। सामाजिक समावेश की शुरूआत खुद से कर उसे दूसरे परिवार और फिर समाज तक बढ़ानी चाहिए। इस सामाजिक विविधता को बरकरार रखते हुए अंजाम दिया जाना चाहिए। इसके अलावा हिन्दुत्व के पीछे की भावनाओं, मूल्यों और दर्शनों का अनुसरण करना चाहिए।’’ समाचार पत्र आगे लिखता है- ‘‘सामाजिक समरसता एवं अखण्डता के बारे में संघ प्रमुख ने कहा कि कोई भी धर्म, सप्रदाय, समाज-सुधारक या सन्त मानव समुदाय के बीच भेदभाव का समर्थन नहीं कर सकता।’’ (दैनिक जागरण कोलकाता, 18 दिसबर)

इसमें पहली टिप्पणी अवसर के विपरीत थी तो दूसरी सिद्धान्त के विपरीत। दूसरी टिप्पणी में आगे कहा गया है कि आरक्षण तब तक चलता रहना चाहिए जब तक आरक्षण प्राप्त लोग स्वयं ही इसको समाप्त करने की माँग न करें। पं. नेहरू ने भी हिन्दी को तब तक राष्ट्रभाषा न बनाने की बात कही थी, जब तक एक भी प्रदेश उसका विरोध करेगा। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति ऐसे कथन का कहीं से भी समर्थन नहीं कर सकता। संघ प्रमुख की प्रथम टिप्पणी समयोचित नहीं तो दूसरी टिप्पणी सिद्धान्त के विपरीत और समाज के लिए लाभदायक नहीं है। ऐसी परिस्थिति पर लोक में कहावत है- किसी ने कहा कि मेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली। लोगों ने कहा- बुरा किया। कुछ दिनों बाद जब लोगों ने बुरा माना तो उसने फिर बताया- मेरे पिता ने दूसरी शादी छोड़ दी, तो लोगों ने कहा- यह उससे भी बुरा किया।

यह देश पिछले पाँच हजार साल से आरक्षण से ही पीड़ित है। यहाँ जन्म आरक्षित है, यहाँ कर्म आरक्षित है, यहाँ ज्ञान आरक्षित है, यहाँ अधिकार आरक्षित हैं, यहाँ साधन-सपत्ति आरक्षित है, यहाँ तो सभी कुछ आरक्षित है। इस आरक्षण के कारण ही यह देश दास बना। हजार साल तक दासता की बेड़ियों से निकला भी तो दूसरे आरक्षण के रूप में दासता का पट्टा गले में डालकर। मोहन भागवत कहते हैं- आरक्षण प्रणाली खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता। यहाँ तो जिन्होंने हजारों साल से आरक्षण का ठेका ले रखा था, उनकी दुकानें उठ रही हैं। यह नया आरक्षण ऐसी कौन-सी चीज है, जिसे खत्म करने का सवाल नहीं उठता? खत्म करने का सवाल तो पहले वक्तव्य में आपने ही उठा दिया, फिर दूसरा क्यों नहीं उठायेगा।

लोग कहते हैं- आरक्षण से समाज में समानता बढ़ेगी। पहले के आरक्षण से समाज में समानता नहीं आई, तो इसमें कौन रामबाण नुस्खा लगा है, जो समाज में समानता उत्पन्न कर देगा? आरक्षण अयोग्यता का और स्वार्थ का है। जिस दिन ब्राह्मण ने आरक्षण किया था, तब भी उसने सारे अधिकार जन्म के आधार पर अपने लिये आरक्षित कर लिये थे। जब ब्राह्मण के आरक्षण से समाज या देश का भला नहीं हुआ, तब दलित के आरक्षण से समाज का भला कैसे हो जायेगा? ब्राह्मण या सवर्ण व्यक्ति जन्म के आधार पर अपने पद, पैसे, सुरक्षा के अधिकार समाज में प्राप्त करता था, तब उसने समाज में किसके साथ न्याय किया था? संघ प्रमुख किस दर्शन, सप्रदाय और समाज सुधारक की बात कर रहे हैं? उनमें आचार्य शंकर तो आते ही होंगे और यदि आते हैं तो आरक्षण के विषय में शंकराचार्य के विचारों से भी मोहन भागवत परिचित होंगे ही। शंकराचार्य जो समस्त संसार में अद्वैत के प्रयात आचार्य हैं, जो संसार में ब्रह्म के अतिरिक्त किसी की सत्ता को ही स्वीकार नहीं करते, जिनकी दृष्टि में जड़ पदार्थ, कुत्ता या विद्वान् सभी कुछ ब्रह्म है, जिनमें लिये भेद बुद्धि पाप से कम नहीं है, वे ही शंकराचार्य अपने वेदान्त-दर्शन के भाष्य में वेदाध्ययन के अधिकार में स्त्री और शूद्र को वेद सुनने पर कान में सीसा पिघला कर डालने की बात करते हैं। यदि वे मन्त्र बोलें तो उनकी जीभ काट लेने की वकालत करते हैं तथा स्त्री शूद्र के वेद मन्त्र याद करने पर मार देने की बात को स्मृति के प्रमाण रूप में प्रस्तुत करते हैं। (वेदान्त शांकर भाष्य- 1/3/38) इतना ही नहीं, शंकराचार्य अपने दर्शन, गीता, उपनिषद् भाष्यों में श्रुति के नाम पर वेदमन्त्र न देकर केवल उपनिषद् वाक्यों से काम चलाते हैं। क्या यह आरक्षण का परिणाम नहीं है?

जब मनुष्य साधन, सुविधा और अधिकार सहज जन्म के आधार पर पाता है, तो उसे कुछ भी प्राप्त करने के लिये संघर्ष करने की आवश्यकता ही नहीं रहती और जिसको संघर्ष नहीं करना पड़ता, वह कभी योग्य और विद्वान् नहीं बन सकता। ब्राह्मण और तथाकथित द्विजों का यही हुआ। सारा समाज ब्राह्मण गुरुओं के कारण अज्ञानी, आलसी, स्वार्थी बनकर रह गया। दूसरों को मूर्ख रखा तो स्वयं भी मूर्ख बन गये और अपने आप दूसरों के घरों में भोजन बनाकर अपनी सन्तुष्टि करने लगे। क्या यही हाल आज के आरक्षण में नहीं है कि एक बालक अपने परिश्रम और बुद्धि से नबे-पचानवे प्रतिशत अंक पाकर शिक्षा और अवसर से वञ्चित हो जाता है और जन्म के आधार पर दो-पाँच अंक प्राप्त करने वाला, आज बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ प्राप्त कर उच्च पदों का अधिकारी बन बैठता है। अयोग्यता का संरक्षण करने से जहाँ योग्यता का दास होता है, वहाँ अयोग्य व्यक्ति अपनी-अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिये व्यर्थ के अहंकार में अपने सहकर्मियों को प्रताड़ित करता है। चिकित्सा, पठन-पाठन और तकनीक के कार्यों में जहाँ आरक्षण के कारण अयोग्य व्यक्ति पहुँच गये हैं, वे सारे अपने उत्तरदायित्व, अपने अधीन योग्य लोगों से करवाते हैं और उन्हें नीचा दिखाने का अवसर नहीं चूकते।

संघ प्रमुख की दूसरी बात का जहाँ तक प्रश्न है, वह भी मिथ्या है, क्योंकि मनुष्य और पशु का मौलिक स्वभाव समान है। दोनों स्वार्थ के प्रति स्वतः प्रेरित होते हैं। न्याय, परोपकार, धर्म, विद्या, विज्ञान विचार के परिणाम हैं। अज्ञानी तो जब भी बात करेगा, स्वार्थ की करेगा, दूसरे की हानि की बात करेगा। उससे किसी आदर्श की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि आरक्षण- प्राप्त लोगों को तृप्ति होती तो तथाकथित सवर्ण समाज बहुत पहले पिछड़ों और दलितों के अधिकार लौटा चुका होता, परन्तु समाज ने तो ऐसा नहीं किया। समाज में व्यक्ति होते हैं, जो अपनी विचार संवेदनशीलता से अन्याय का विरोध करते हैं, परन्तु समूह का विवेकशील बनना सभव नहीं है। आज जो दलितों के पास आरक्षण अधिकार है, वह सवर्णों की कृपा से तो नहीं है। आज भारत में वयस्क मताधिकार का ये कमाल है कि उनके मत पाने के लिये आप उन्हें आरक्षण देने को बैठे हैं और आज संघ चालक को आरक्षण बनाये रखने की वकालत करनी पड़ रही है, यह प्रजातन्त्र के मताधिकार का सामर्थ्य है। यदि देश में प्रजातन्त्र नहीं होता या दलित मतदाता निर्णायक संया में नहीं होते, तो क्या तब भी आरक्षण चलता रहता?कभी नहीं।

दलितों की बात छोड़ें, मुसलमान और ईसाइयों के भी आरक्षण की माँग की जा रही है। क्या इसके लिये किसी के पास कोई न्यायसंगत आधार है परन्तु राजनेताओं को लगता है कि इनके मतों से हम सत्ता तक पहुँच सकते हैं तो उनके लिये भी आरक्षण की माँग होने लगी। मायावती ने आरक्षण के बल पर सत्ता प्राप्त की, मुलायमसिंह ने भी मुस्लिम-यादव गठजोड़ कर उन्हें आरक्षित कर लिया और सत्ता पर अधिकार कर लिया। दक्षिण में दलित मतों के आधार पर जयललिता सत्ता में है तो बिहार में आरक्षण बचाओं के नेता सत्ता में है। आज आरक्षण राजनैतिक हथियार बन गया। जहाँ सवर्णों के मत खिसकने का भय सताता है, वहाँ सवर्णों के आरक्षण की बात की जाती है।

यह कहना तो उचित ही है कि समाज के अनेक वर्ग लबे समय से पीड़ित और प्रताड़ित किये जाते रहे हैं। जो लोग दलितों के उत्पीड़न की बात करते हैं, वे यह क्यों भूल जाते हैं कि जो ब्राह्मण दलितों को पीड़ित करता रहा है, वह घर की महिला का भी उसी प्रकार शोषण कर रहा है। परपरा से वेद पढ़ने वाले पण्डित की पत्नी को वह आज वेद पढ़ने और वेद सुनने का अधिकार देने के लिये तैयार नहीं। इसके पीछे केवल मनुष्य का स्वार्थ और अज्ञान कारण है। इसको दूर करना आवश्यक है और यह किसी भी प्रकार के सामाजिक आरक्षण से दूर नहीं हो सकता। मूल बात तक हम पहुँचना नहीं चाहते कि जब तक किसी को समान अवसर नहीं मिलते, तब तक वह अपनी योग्यता प्रदर्शित करने में समर्थ नहीं हो सकता, आरक्षण की व्यवस्था समान अवसर की विरोधी और अयोग्य को संरक्षण प्रदान करती है।

संघ प्रमुख का मानना है कि समाज में दलितों-पिछड़ों का बहुत उत्पीड़न हुआ है, अतः उन्हें आरक्षण प्राप्त करने का अधिकार है। यदि न्याय के सिद्धान्त में यह स्वीकार्य हो कि जिसने मेरे पिता को मारा है, उसके पिता को मारने का मुझे अधिकार है, तब यह तर्क उचित है कि जिन सवर्णों के पूर्वजों ने समाज के इन लोगों को प्रताड़ित किया है, वे लोग उन पीड़ित लोगों की सन्तानों का उसी प्रकार उत्पीड़न करें। समाज में हत्या करने के बदले हत्या करने वाले को न्यायालय दण्डित करता है, तो दूसरी ओर हत्यारे को भी फाँसी देता है। दण्ड अपराध करने वाले को मिलता है, अपराध किसी ने किया, बदले में किसी और को दण्डित करे, यह न्यायसंगत नहीं है।

हम उस बिन्दु को देखकर भी अनदेखा करना चाहते हैं, जो सारे पाप की जड़ है। वह है-हिन्दू समाज में व्याप्त जन्मना जाति व्यवस्था। पहला आरक्षण बना, जन्मना जाति को आधार मानकर आज भी हम जन्मना जाति को आरक्षण का आधार मान रहे हैं। जब जन्म पर आधारित एक व्यवस्था दोषपूर्ण है तो दूसरी जन्मगत जाति पर आधारित आरक्षण व्यवस्था श्रेष्ठ कैसे हो सकती है? अन्तर इतना है कि पहले समाज सवर्ण को अधिकारी मानता था, अब सरकार दलित को अधिकारी मानती है। हमारे न्याय में एक विचित्रता इस आरक्षण के कारण उत्पन्न हो गई है। एक ओर आरक्षण पाने वाले को अपनी जाति की घोषणा करनी पड़ती है तथा जाति प्रमाण-पत्र प्राप्त करना पड़ता है, वहीं कोई ऐसे व्यक्ति की जाति का उल्लेख करता है तो नियमानुसार दण्ड का भागी बनता है, क्योंकि समाज में जाति-सूचक शदों के साथ आज भी मान-अपमान के भाव जुड़े हुए हैं। एक सवर्ण व्यक्ति दलित को जातिसूचक शदों से पुकार कर मन में बड़ा सन्तोष अनुभव करता है, क्योंकि उसके मन में अपनी जाति के प्रति अहंकार का भाव रहता है।

आरक्षण को लेकर दूसरी घटना है गुजरात की, जहाँ हार्दिक पटेल के नेतृत्व में आरक्षण की माँग को लेकर पटेल समुदाय आन्दोलन कर रहा है। वहाँ न्यायाधीश परदीवाला ने एक दिसबर को हार्दिक पटेल के वाद में टिप्पणी की थी। न्यायाधीश परदीवाला ने व्यवस्था दी कि दो चीजों ने इस देश को तबाह कर दिया है या इस देश की सही दिशा में प्रगति नहीं हुई- पहला आरक्षण व दूसरा भ्रष्टाचार। न्यायाधीश ने इस बात का भी उल्लेख किया कि जब हमारा संविधान बनाया गया तो यह समझा गया कि आरक्षण दस वर्ष की अवधि के लिये रहेगा, पर दुर्भाग्यवश यह आजादी के 65 वर्ष बाद भी जारी है। इस टिप्पणी पर राज्यसभा के सदस्यों द्वारा न्यायाधीश पर महाअभियोग लगाने का नोटिस राज्यसभा के सभापति को दिया गया। न्यायाधीश ने, हो सकता है संविधान के अनुकूल काम न किया हो, परन्तु बात तो सच ही कही थी। आज हमने आरक्षण संविधान में स्वीकार किया है, इसलिये उसका मानना अनिवार्य भी है और कर्त्तव्य भी, परन्तु जब हमें लगा है, संविधान में सुधार की आवश्यकता है तो हमने सुधार किया है। संविधान में जो लिखा है वह एक नागरिक को मान्य है, यह तो ठीक है परन्तु ‘उसको उचित है’, यह स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। नियम कानून बहुमत से बनते हैं, सही या गलत होने से नहीं। इसलिये न्यायाधीश का कथन विधि के अनुकूल न हो, यह सभव है, परन्तु सत्य है, इसमें कोई सन्देह नहीं।

अब विचारणीय इतना ही है कि संघ प्रमुख कहते हैं- ‘‘आरक्षण पर विचार करने का प्रश्न ही नहीं उठता’’, परन्तु न्यायाधीश का मानना है कि आज सबसे अधिक विचारणीय प्रश्न ही यह है कि आरक्षण का क्या औचित्य है? प्राचीनाारत के सबन्ध में विचार करते हैं तो जो लोग जाति व्यवस्था को बुरा मानते हैं तो उन्हें यह भी मानना होगा कि यह समाज अच्छा भी रहा होगा, उन्हें यह भी मानना होगा कि यह समाज आज बुरा है। यह तो नहीं हो सकता कि प्रारभ बुराई से हुआ होगा। यदि प्रारभ बुराई से हुआ है तो यह बुराई कभी समाप्त नहीं हो सकती, यदि बुराई बाद में आई तो मौलिक बात अच्छाई है, जिसे फिर भी लाया जा सकता है। वह अच्छाई है कि जाति जन्म से होती है, परन्तु वह है मनुष्य और पशु की जाति, मनुष्यों में स्त्री-पुरुष, पशुओं में घोड़ा, गधा, बैल, ऊँट, जिन्हें बदला नहीं जा सकता। जो जन्म की जाति को अपरिवर्तनीय मानते हैं, उन्हें ऋषि दयानन्द की एक बात याद रखनी चाहिये। एक जन्मना जाति मानने वाले ने ऋषि दयानन्द से पूछा- आप जन्म से जाति मानते हैं या कर्म से? तो स्वामी जी ने उसी से प्रश्न पूछा-तुम कैसा मानते हो? तो उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- हम तो जन्म से जाति मानते हैं। तब स्वामी जी ने उस व्यक्ति से प्रतिप्रश्न किया- यदि कोई जन्म का ब्राह्मण व्यक्ति मुसलमान हो जाये तो उसकी जाति क्या होगी, क्या ब्राह्मण रहेगा? तो पूछने वाला निरुत्तर हो गया। जाति को आपने जन्म से मान रखा है, वह जन्म से होती नहीं है।

जहाँ तक कर्म का प्रश्न है, तो वे अच्छे-बुरे होते हैं और मनुष्य उन्हीं के अनुसार अच्छा-बुरा या यह या वह बनता है। वास्तविकता तो यह है कि कार्य से कोई ऊँचा-नीचा, अच्छा-बुरा नहीं होता। वह नाम उसकी योग्यता का सूचक है और योग्यता अनुसार वह नाम बदल जाता है, इसी का नाम वर्ण व्यवस्था है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति योग्यता के अनुसार अपने को कहीं भी स्थापित कर सकता है। शूद्र को ब्राह्मण बनने का अधिकार है तथा ब्राह्मण को अपने कर्म छोड़ने पर शूद्र बनने की बाध्यता, यही वर्ण व्यवस्था है, जो मनु के शदों में इस प्रकार है जो आरक्षण का विकल्प भी है-

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैयात् तथैव च।।

– डॉ. धर्मवीर