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मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द -2

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

पिछले अंक का शेष भाग…..

महर्षि दयानन्द मूर्तिपूजा को आर्थिक हानि का कारण मानते हैं। इससे सामाजिक भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है। (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास मूर्तिपूजा से 15 हानियाँ) मूर्तिपूजा के लिये दिये जाने वाले तर्कों की समीक्षा भी उन्होंने की है। जो लोग मूर्तिपूजा को स्थूल लक्ष्य और ईश्वर तक पहुँचने की सीढ़ी बताते हैं, उनके लिए महर्षि दयानन्द कहते हैं- मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं, खाई है। मूर्तिपूजा गुड़ियों के खेल के समान ब्रह्म तक जाने का साधन मानने वालों  को महर्षि दयानन्द अज्ञानी मानते हैं, अतः शास्त्रों का अध्ययन, विद्वानों की सेवा, सत्संग, सत्यभाषाणादि व्यवहार से ही ब्रह्म की प्राप्ति सभव है। परमेश्वर को मूर्ति में व्यापक होने से मूर्तिपूजा से परमेश्वर की पूजा हो जाती है- ऐसा मानने वालों के लिए महर्षि दयानन्द का उत्तर है- ‘‘जब परमेश्वर सर्वत्र व्यापक है तो किसी एक वस्तु में परमेश्वर की भावना करना, अन्यत्र न करना- यह ऐसी बात है कि जैसे चक्रवर्ती राजा को सब राज्य की सत्ता से छुड़ा के एक छोटी-सी झोंपड़ी का स्वामी मानना।’’ (सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 11वाँ) जो लोग मूर्ति में परमेश्वर की भावना करने की बात करते हैं, उनके लिए महर्षि दयानन्द का उत्तर है- ‘‘भाव सत्य है या झूठ? जो कहो सत्य है तो तुहारे भाव के अधीन होकर परमेश्वर बद्ध हो जायेगा और तुम मृत्तिका में सुवर्ण-रजतादि, पाषाण में हीरा-पन्ना आदि, समुद्रफेन में मोती, जल में घृत, दुग्ध, दही आदि और धूलि में मैदा-शक्कर आदि की भावना करके उनको वैसा क्यों नहीं बनाते हो?’’

(सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 11वाँ, पृ. 368)

मन्त्रों के आवाहन-विसर्जन से देवता के आ जाने और चले जाने की बात पर वे कहते हैं- ‘‘जो मन्त्र पढ़कर आवाहन करने से देवता आ जाता है तो मूर्ति चेतन क्यों नहीं हो जाती? और विसर्जन करने से चला जाता है तो वह कहाँ से आता और कहाँ जाता है? सुनो अन्धो! पूर्ण परमात्मा न आता और न जाता है। जो तुम मन्त्र बल से परमेश्वर को बुला लेते हो तो उन्हीं मन्त्रों से अपने मरे हुए पुत्र के शरीर में जीव को क्यों नहीं बुला लेते? और शत्रु के शरीर में जीवात्मा का विसर्जन करके क्यों नहीं मार सकते? सुनो भाई भोले लोगो! ये पोप जी तुम को ठग कर अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। वेदों में पाषाणादि मूर्तिपूजा और परमेश्वर का आवाहन, विसर्जन करने का एक अक्षर भी नहीं।’’ (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास, पृ. 369)

जहाँ तर्क युक्तियों से महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पूजा का खण्डन किया, वहाँ मूर्तिपूजा वेद विरुद्ध है, इसके लिए भी वेदादिशास्त्रों से प्रमाणों को प्रस्तुत किया। स्तुति प्रार्थना उपासना, ब्रह्म विद्या आदि प्रकरणों में वेद मन्त्रों की व्याखया करते हुए मूर्तिपूजा की व्यर्थता को सिद्ध किया है- ‘‘जो असमभूति अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान पर उपासना करते हैं, वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःख सागर में डूबते हैं और समभूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्य रूप पृथ्वी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं, वे इस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् महामूर्ख, चिरकाल घोर दुःख रूप नरक में गिर के महाक्लेश भोगते हैं।9

जो सब जगत् में व्यापक है, उस निराकार परमात्मा की प्रतिमा, परिमाण, सादृश्य वा मूर्ति नहीं है।।10

जो वाणी की इदन्ता अर्थात् यह जल है लीजिए, वैसा विषय नहीं और जिसके धारण और सत्ता से वाणी की प्रवृत्ति होती है उसी को ब्रह्म जान और उपासना कर और जो उससे भिन्न है, वह उपासनीय नहीं। जो मन से ‘इयत्ता’ करके मनन में नहीं आता, जो मन को जानता है उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। जो उससे भिन्न जीव और अन्तःकरण है, उसकी उपासना ब्रह्म के स्थान में मत कर। जो आँख से नहीं दीख पड़ता और जिससे सब आँखें देखती हैं, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर और जो उससे भिन्न सूर्य, विद्युत् और अग्नि आदि जड़ पदार्थ हैं, उनकी उपासना मत कर। जो श्रोत्र से नहीं सुना जाता और जिससे श्रोत्र सुनता है, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर और उससे भिन्न शबदादि की उपासना उसके स्थान में मत कर। जो प्राणों से चलायमान नहीं होता, जिससे प्राण गमन को प्राप्त होता है, उसी ब्रह्म को तू जान और उसी की उपासना कर। जो यह उससे भिन्न वायु है, उसकी उपासना मत कर।’’ (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास, पृ. 371)11

महर्षि दयानन्द ने वेद में निराकार सर्वव्यापक ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन करने वाले अनेक मन्त्रों का उल्लेख अपने वेदभाष्य और अन्य ग्रन्थों में किया है, सपर्यगात्0, सहस्रशीर्षा0, विश्वतश्चक्षु0, आदि  मन्त्र तथा उपनिषद् वाक्यों के प्रमाण दिये हैं।

जहाँ महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा का खण्डन किया है, वहीं इस खण्डन से मूर्तिपूजा के अभाव में होने वाली रिक्तता को भी पूर्ण किया है। पञ्चमहायज्ञविधि, संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में निराकार ब्रह्म की उपासना कैसे की जाती है- इसका भी उल्लेख किया है। मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए देवपूजा का प्रकार बताते हुए वास्तविक देव और उनकी पूजा के प्रकार का भी उल्लेख किया है, यथा ‘‘प्रश्न- किसी प्रकार की मूर्तिपूजा करनी नहीं और जो अपने आर्यवर्त्त में पञ्चदेवपूजा शबद प्राचीन परमपरा से चला आता है, उसकी यही पञ्चायतन पूजा जो कि शिव, विष्णु, अमबिका, गणेश और सूर्य की मूर्ति बनाकर पूजते हैं, यह पञ्चायतन पूजा है या नहीं?

उत्तर- किसी प्रकार की मूर्तिपूजा न करना, किन्तु ‘मूर्तिमान्’ जो नीचे कहेंगे, उनकी पूजा अर्थात् सत्कार करना चाहिए। वह पञ्चदेवपूजा, पञ्चायतन पूजा शबद बहुत अच्छा अर्थ वाला है, परन्तु विद्याविहीन मूढ़ों ने उसके उत्तम अर्थ को छोड़ कर निकृष्ट अर्थ को पकड़ लिया। जो आजकल शिव आदि पाँचों की मूर्तियाँ बनाकर पूजते हैं, उनका खण्डन तो अभी कर चुके हैं, पर जो सच्ची पञ्चायतन वेदोक्त और वेदानुकूल देवपूजा और मूर्ति पूजा है, सुनो- प्रथम माता- मूर्तिमती पूजनीय देवता, अर्थात् सन्तानों को तन, मन, धन से सेवा करके माता को खुश रखना, हिंसा अर्थात् ताड़ना कभी न करना। दूसरा पिता- सत्कर्त्तव्य देव, उसकी भी माता के समान सेवा करनी। तीसरा- आचार्य जो विद्या का देने वाला है, उसकी तन, मन, धन से सेवा करनी। चौथा अतिथि- जो विद्वान् धार्मिक, निष्कपटी, सबकी उन्नति चाहने वाला जगत् में भ्रमण करता हुआ सत्य उपदेश से सबको सुखी करता है, उसकी सेवा करें। पाँचवाँ स्त्री के लिए पति और पुरुष के लिए स्व-पत्नी पूजनीय है।12

ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से, मनुष्य देह की उत्पत्ति पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त करने की सीढ़ियाँ हैं। इनकी सेवा न करके जो पाषणादि मूर्ति पूजते हैं, वे अतीव वेदविरोधी हैं। (पृ. 375-376)

ऋषि दयानन्द के जीवन में जो क्रान्ति मूर्ति की पूजा करने से उत्पन्न हुई थी, वह उनके पूरे जीवन में बनी रही। महर्षि दयानन्द ने अपने भाषण, लेखन, वार्तालाप द्वारा मूर्तिपूजा की निस्सारता को प्रतिपादित किया है। ऐसी पद्धति जो जीवन में लाभ के स्थान पर हानि करती है, जिससे व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक लाभ की कोई समभावना नहीं, जिसके करने से मनुष्य का पतन अवश्यभावी है, वह कार्य इस समय में इतने बड़े रूप में कैसे चला? इसके चलने के पीछे क्या कारण है, इनका भी उन्होंने युक्ति प्रमाण पुरस्सर प्रदर्शन किया है। इस प्रकार संक्षेप में कह सकते हैं कि महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा के दार्शनिक, सामाजिक, आर्थिक सभी पक्षों का गहराई से अध्ययन किया और साहसपूर्वक समाज के सामने रखा। समाज में जिनको मूर्तिपूजा से प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ मिलता है, वे कभी भी  इसका खण्डन देखना नहीं चाहेंगे, परन्तु महर्षि दयानन्द ने अपने प्राणों की परवाह किये बिना इसका प्रबल खण्डन किया और एक निराकार सर्वव्यापक ईश्वर जिसका स्वरूप आर्यसमाज के दूसरे नियम में बताया गया है, उसी की पूजा करने का विधान किया।

स्वामी दयानन्द ने जब भली प्रकार समझ लिया कि मूर्ति पूजा असत्य के साथ पाखण्ड भी है, जिसके द्वारा जनता को भ्रमित करके उनका धन लूटा जा रहा है, उन्हें अकर्मण्य बना कर भीरु परमुखापेक्षी बनाने में समाज का श्रेष्ठ कहा जाने वाला वर्ग लगा है, इससे समाज को जो दिशा और मार्गदर्शन मिलना चाहिए, वह तो नहीं मिला उसके स्थान पर समाज के रक्षक ही समाज को लूटने वाले बन गये। इसके लिए महर्षि दयानन्द ने जो मार्ग अपनाया, उनमें प्रथम यह था कि समाज में जिन वेदों की प्रतिष्ठा थी, उन वेदों में तथा वेदानुकूल वैदिक साहित्य में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है, यह घोषणा की। इसके साथ दूसरा- युक्ति और तर्क से भी मूर्ति पूजा को निरर्थक और पाखण्ड पूर्ण कृत्य है, यह सिद्ध किया।

महर्षि दयानन्द ने प्रचार क्षेत्र में उतरने के साथ ही मूर्तिपूजा पर प्रहार करना प्रारभ कर दिया। पण्डित लोग शास्त्रार्थ में पराजित हो जाते थे, बुद्धिमान् श्रोता स्वामी जी की युक्ति व प्रमाणों से सहमत होकर मूर्तिपूजा छोड़ने के लिए तैयार हो जाते थे, परन्तु पण्डे, पूजारी, मन्दिर, मठ के संचालकों की आजीविका पर यह सीधी चोट थी, इसलिए पण्डित लोग भागकर काशी पहुँचते थे और काशी के पण्डितों से मूर्ति पूजा के पक्ष में व्यवस्था लिखवा लाते थे। इसी कारण मूर्तिपूजा के गढ़ काशी को ही जीतने के लिए स्वामी दयानन्द ने काशी के पण्डितों को चुनौती दे डाली और यह चुनौती भी काशी नरेश के माध्यम से दी।

काशी शास्त्रार्थ का निश्चय काशी नरेश की आज्ञा अनुसार हुआ। वे शास्त्रार्थ में मध्यस्थ बने। मूर्तिपूजा के पक्ष-विपक्ष में जो कुछ इस शास्त्रार्थ में मिलता है, वह विषय से समबद्ध तो न्यून ही है, शास्त्रार्थ की दिशा भटकाने वाला अधिक है। इसकी चर्चा काशी शास्त्रार्थ की छपी पुस्तक की भूमिका देखने से स्पष्ट हो जाता है-

  1. पाषाणादि मूर्ति पूजनादि में वैदिक प्रमाण होता तो क्यों न कहते?
  2. 2. स्व पक्ष को वैदिक प्रमाणों से सिद्ध किये बिना मनुस्मृति आदि को वेदानुकूल हैं या नहीं, इस प्रकरणान्तर में क्यों जा गिरते?
  3. 3. पुराण आदि शबद ब्रह्म वैवर्त आदि ग्रन्थों से भी अपना पक्ष सिद्ध नहीं कर सके।
  4. 4. प्रतिमा शबद से मूर्तिपूजा को सिद्ध करना चाहा, वह भी उनसे नहीं हो सका।
  5. 5. पुराण शबद स्वामी जी विशेषण वाची मानते हैं, काशीस्थ पण्डित विशेष्य वाची, परन्तु पण्डित लोग अपना पक्ष सिद्ध नहीं कर सके।

(स्वामी दयानन्द, काशी शास्त्रार्थ, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग-3, पृ.-451-452)

स्वामी दयानन्द के मूर्ति  पूजा विषयक विचारों को जानने के क्रम में काशी शास्त्रार्थ के पश्चात् स्वामी दयानन्द का एक और संस्कृत भाषा शास्त्रार्थ जो प्रतिमा पूजन विचार नाम से प्रथम बार समवत् 1930 में आर्य भाषा व बंगला भाषा में अनूदित होकर लाइट प्रेस बनारस से छपा था। यह कोलकाता के पास हुगली नामक स्थान में हुआ था। शास्त्रार्थ सवत् 1930 चैत्र शुक्ल एकादशी, मंगलवार तदनुसार 8 अप्रैल 1873 के दिन हुआ था।

इस शास्त्रार्थ में प्रतिमा शबद पर, पुराण शबद पर तथा देवालय, देवपूजा शबद पर विचार किया गया है। स्वामी दयानन्द कहते हैं- प्रतिमा प्रतिमानम्= जिससे प्रमाण अर्थात् परिमाण किया जाय, उसको कहते हैं जैसे पाव, आधा सेर आदि। इसके अतिरिक्त यज्ञ के चमसा आदि को भी प्रतिमा कहते हैं। इसके लिए स्वामी दयानन्द ने मनु का प्रमाण उद्धृत किया है-

तुलामानं प्रतिमानं सर्वं च स्यात् सुलक्षितम्।

षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत्।।              – मनु 8/403

स्वामी दयानन्द पुराणों को अमान्य करते हैं। पुराणों में मूर्ति पूजा का विस्तार से वर्णन है, जिन्हें आजकल की भाषा में शिव, ब्रह्म वैवर्त, भागवत आदि कहते हैं, परन्तु स्वामी दयानन्द पुराण को शदार्थ के रूप में पुराना अथवा पुस्तक के रूप में शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों के नाम पुराण स्वीकार करते हैं।

शेष भाग अगले अंक में…..

– डॉ. धर्मवीर

मेरी अमेरिका यात्रा – डॉ. धर्मवीर

मेरा विदेश जाने का यह तीसरा प्रसंग था। प्रथम यात्रा १९८४ में सिंगापुर की थी, दूसरी यात्रा श्री देवनारायण आर्य के निमन्त्रण पर हॉलैण्ड की थी। उसका विवरण ‘मेरी हॉलैण्ड यात्रा’ की डायरी के रूप में परोपकारी में प्रकाशित हुआ था। अमेरिका यात्रा का जिनको पता था, उन मित्रों का आग्रह था- मैं यात्रा विवरण अवश्य लिखूँ। इस लेखन का प्रमुख लाभ यह होता है कि पाठकों को अन्य देशों में आर्यसमाज की चल रही गतिविधियों का ज्ञान होता है, साथ ही सभा के कार्यकलाप एवं प्रगति से परिचय भी हो जाता है। मेरी इस अमेरिका यात्रा का कार्यक्रम बहुत आकस्मिक रूप से बना। बैंगलोर के डॉ. सतीश शर्मा निष्ठावान्, कर्मठ, सिद्धान्तप्रिय आर्य हैं। उनका परिचय हमारी बेटी सुयशा के कारण हुआ। दोनों की भेंट आर्य समाज के सत्संग में होती थी। सुयशा ने डॉ. सतीश शर्मा से मेरी वार्ता कराई। डॉक्टर जी अजमेर ऋषि मेले के अवसर पर पधारे, वेद गोष्ठी में अपने विचार रखे, तब से उनका मुझसे भातृवत् स्नेह है।
डॉक्टर जी की बड़ी बेटी गार्गी, जो ऑक्लाहोमा में चिकित्सा में स्नातकोत्तर का अध्ययन कर रही है, उसका विवाह ऑक्लाहोमा में डॉ. कौस्तुभ से निश्चित हुआ था। उस निमित्त डॉक्टर सतीश जी ने अपने जन्म स्थान मथुरा में, बैंगलोर में तथा अक्लाहोमा में कार्यक्रम निश्चित किया।
इसी विवाह के प्रसंग में डॉक्टर जी ने इच्छा व्यक्त की और कहा- भाई साहेब! गार्गी की और मेरी भी इच्छा है कि आप अमेरिका चलें और विवाह संस्कार का कार्यक्रम सम्पन्न करायें। आप अमेरिकन वीजा के लिये आवेदन कर दें। मेरा विचार है, आपको सरलता से वीजा मिल जायेगा, क्योंकि आपकी पुत्री अमेरिका में रहती है।
इस विचार के बाद मैंने पुत्री सुयशा आर्य और प्रिय भास्कर से चर्चा की। दोनों ने सब कार्यों की औपचारिकता शीघ्र ही पूर्ण कर दी और दूतावास में चार-पाँच फरवरी २०१६ को साक्षात्कार का समय मिल गया। मैंने दिल्ली पहुँचकर डॉ. राजवीर शास्त्री के साथ प्रथम दिन नेहरू प्लेस पहुँचकर प्राथमिक कार्यवाही पूर्ण की और अगले दिन चाणक्यपुरी स्थित अमेरिकी दूतावास में जाकर साक्षात्कार दिया। सुयशा ने साक्षात्कार की बहुत तैयारी कराई थी। यथाक्रम दो मिनट में साक्षात्कार पूर्ण हो गया। अधिकारी ने पूछा- आपके बच्चे कहाँ काम करते हैं, कब जायेंगे और सहज उत्तर दिया- आपका वीजा हो गया और पासपोर्ट रख लिया और इसके साथ ही अमेरिका की यात्रा भी निश्चित हो गई। डॉ. शर्मा जी को सूचित किया तो उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई।
इस विवाह के प्रसंग में डॉ. शर्मा जी ने ६ मार्च २०१६ को मथुरा में तथा ८ मार्च को बैंगलोर में विवाह पूर्व कार्यक्रम रखा था। विवाह ११ मार्च २०१६ को ऑक्लाहोमा में होना निश्चित था।
मथुरा में कार्यक्रम सम्पूर्ण वैदिक रीति से हो, उसमें बड़े व्यक्तियों के रूप में आर्य समाज के अधिक-से-अधिक विद्वान् सम्मिलित हों, उनका आशीर्वादात्मक प्रवचन हो, ऐसी डॉक्टर जी की भावना थी। इसके लिये डॉ. सतीश जी ने मुझे व ज्योत्स्ना (मेरी धर्मपत्नी) को आमन्त्रित किया। उनका आग्रह था, मैं कुछ विद्वानों के नाम दूँ और उनसे मथुरा के कार्यक्रम में पहुँचने का आग्रह करूँ। उनकी इच्छा के अनुसार मैंने प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु, डॉ. वेदपाल, डॉ. सुरेन्द्र कुमार, डॉ. राजेन्द्र विद्यालंकार, आचार्य सत्यजित् जी आदि का नाम सुझाया था। डॉ. सतीश शर्मा ने सबको साग्रह निमन्त्रित भी किया। इनमें से आचार्य सत्यजित् जी और प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी, श्री आनन्द प्रकाश जी, श्री धरणे जी, श्री म्हेत्रे जी ने इस कार्यक्रम में उपस्थित होकर सौ.कां. गार्गी और पूरे शर्मा परिवार को आशीर्वाद प्रदान किया।
मथुरा का कार्यक्रम समाप्त कर प्रो. जिज्ञासु जी, ज्योत्स्ना तथा मैं दिल्ली लौट आये। मेरी यात्रा का प्रारम्भ दिल्ली से ९ मार्च २०१६ को था। सायंकाल पाँच बजे ज्योत्स्ना मुझे इन्दिरा गाँधी हवाई अड्डे पर पहुँचा गई।
यात्रा में उथल-पुथल न हो, कठिनाई न हो, वह भी क्या यात्रा? बस मेरी यह यात्रा असली यात्रा हो गई। पहली सूचना आई- दुबई जाने वाला वायुयान दो घण्टे देरी से जायेगा। विलम्ब के कारण दुबई से डैलस जाने वाले विमान में मुझे डॉक्टर शर्मा जी के साथ जाना था। बैंगलोर से विमान कुछ विलम्ब से चला, परन्तु हमारे विमान से पहले पहुँच गया और प्रतीक्षा करने पर भी हमारा विमान दुबई नहीं पहुँचा तो वह विमान प्रस्थान कर गया।
भारत से बाहर जाते ही मेरा दूरभाष बन्द हो गया। सम्पर्क करना सम्भव नहीं हुआ। रात्रि ढाई बजे वहाँ के समय अनुसार हमारा यान दुबई पहुँचा। अब इधर से उधर, उधर से इधर भटकना प्रारम्भ किया। भाषा की कठिनाई, अपरिचित स्थान, कभी ऊपर-कभी नीचे, कभी इस पंक्ति में, कभी उस पंक्ति में, सवेरे छः बजे खिड़की तक पहुँचा, तो उस समय कोई यान नहीं था। बाद में सूचना मिली- ह्यूस्टन होकर डैलस जाने वाला विमान ९ बजे प्रस्थान करेगा, वही ठीक है। टिकट लेकर प्रतीक्षा करता रहा। यहाँ शाकाहारी भोजन में कुछ था नहीं, जो कुछ साथ रख छोड़ा था, उसी से काम चला लिया। ९ बजे फिर विमान में सवार हुआ। निरन्तर तेरह घण्टे की यात्रा कर ह्यूस्टन पहुँचा। वहाँ दिन के तीन बज रहे थे। विदेश प्रवेश की औपचारिकता और सामान खोजने में दो घण्टे से भी अधिक समय लगा। अगली उड़ान पकड़ने के लिये द्वार तक गया तो पता लगा- विमान तो जा चुका है। फिर अधिकारी से सम्पर्क किया, वह एक हिन्दी भाषी सहृदय महिला थी। उसने बताया- वह मुझे दो टिकट देगी, पहला सात बजे की उड़ान का, उसमें स्थान न मिले तो नौ बजे की उड़ान का। हवाई अड्डा बहुत बड़ा था, एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिये रेलगाड़ी की व्यवस्था थी। पहले सात बजे के लिये गया, स्थान नहीं था। फिर नौ बजे की प्रतीक्षा की। इस बीच में एक युवक नागपुर से श्री जोशी मुझे धोती-कुर्ते में देखकर मुस्कुराया तो मैंने उससे बात की और उसके दूरभाष की सहायता से सुयशा से सम्पर्क किया। वह सम्पर्क न हो पाने से बहुत चिन्तित थी। बात करके शान्ति हुई। उसने डॉ. शर्मा जी को भी सूचित कर दिया। मैं नौ बजे चलकर दस बजे डैलस पहुँचा। बाहर शीत था। हवाई अड्डे से बाहर प्रतीक्षा में एक अपरिचित महिला यात्री बैठी थी। उससे मैंने दूरभाष की सहायता माँगी, तो उसने मुझे देखकर कहा- विदेश के लिये फोन नहीं दूँगी। मैंने कहा- अमेरिका में ही करना है, तब उसने सुयशा से मेरी बात करा दी। डॉ. शर्मा जी को सूचना मिलते ही उनके मित्र श्री वर्मा जी और उनकी डॉ. पुत्री मुझे लेने हवाई अड्डे पर आये थे। उन्होंने मुझे खोज लिया और मेरे संकट का अन्त हो गया।
डॉ. वर्मा जी डॉ. शर्मा जी के मित्र हैं। इस विवाह के अवसर पर अधिकांश मित्र मण्डल शर्मा जी के रोगियों का है और जैसे जो पहले उनके मित्र बने, बाद में उनके रोगी बन गये। मैंने शर्मा जी से पूछा- आपके सब मित्र आपके रोगी ही हैं, तो वे कहने लगे- ये सब पहले मेरे रोगी बनकर आये थे, ये ही आज मित्र और सहयोगी हैं। डॉ. वर्मा और डॉ. सिंह परस्पर समाधि हैं और इनके पुत्र राजीव डैलस में रहते हैं तथा राजीव इञ्जीनियर हैं और बेटी डॉक्टर है। रात्रि में वर्मा जी के घर पर ही ठहरा। फिर ११ मार्च को प्रातः पाँच बजे घर से अपनी गाड़ियों से ओक्लाहोमा के लिये निकले और ग्याहर बजे होटल पहुँच गये। डॉ. शर्मा जी प्रतीक्षा कर रहे थे। सबसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई।
होटल में मुझे बैंगलोर के होटल व्यवसायी श्री चन्द्रशेखर राजू जी के साथ तीन दिन रहने का अवसर मिला। वे वेद और यज्ञ में बहुत निष्ठा रखते हैं। बैंगलोर में डॉ. सतीश शर्मा, श्री चन्द्रशेखर जी मिलकर यज्ञ पर अनुसन्धान करने में लगे हुए हैं।
स्नानादि से निवृत्त होकर सभी एक बजे विवाह स्थल पर पहुँचे। यहाँ का विशाल भवन गुजराती समाज का है। किराये पर लिया गया था। टेबल-कुर्सी लगाने से लेकर साजसज्जा तक, शेष सभी लोगों ने मिलकर कर लीं। यहाँ कर्मचारी बहुत महँगे होते हैं, उनसे काम सम्भव भी नहीं होता। घरेलू काम हो या सामाजिक, सभी काम स्वयं करने होते हैं। हॉल में कुछ लोगों ने पहले पहुँचकर व्यवस्था की, फिर जलपान कर संस्कार का कार्य प्रारम्भ किया। संस्कार की सारी सामग्री डॉ. शर्मा जी भारत से लेकर आये थे। संस्कार दो भागों में किया गया। संस्कार की सामान्य विधियाँ पहले कर ली गईं, फिर जो वर-वधू के मित्र अमेरिकन लोग थे, वे कार्यालय से साढ़े पाँच बजे के बाद पहुँचे, उनके लिये सब व्यवस्थाएँ पाणिग्रहण, लाजाहोम, सप्तपदी की प्रक्रिया बाद में की गई। मैंने विधिभाग सम्पन्न कराया, सबकी अंग्रेजी में व्याख्या डॉक्टर शर्मा जी ने की। यहाँ के लोगों को वैदिक विधि से संस्कार कैसे होता है, बताना तथा उसका महत्त्व समझाना, इस कार्यक्रम का उद्देश्य था। डॉक्टर शर्मा जी की तीनों पुत्रियाँ सुपठित हैं। श्रीमती गार्गी, जिसका संस्कार सम्पन्न किया, वह एम.बी.बी.एस कर स्नातकोत्तर का अध्ययन ओक्लाहोमा विश्वविद्यालय से कर रही हैं। उसके पति डॉ. कौस्तुभ न्यूक्लियर मेडिसिन में पीएच.डी. करके कार्यरत हैं। डॉ. शर्मा जी की दूसरी बेटी शिकागो में एवियेशन में अध्ययन कर रही है। तीसरी बेटी भारत में एम.बी.बी.एस. कर रही है।
संस्कार का कार्य सम्पन्न होने के पश्चात् भोजन हुआ, फिर नृत्य, संगीत का कार्यक्रम करके ११ बजे कार्यक्रम सम्पूर्ण हुआ। फिर सबने मिलकर सब सामान यथास्थान पहुँचाकर हॉल खाली कर दिया। वह कार्य सम्पन्न हो गया था, जिसके निमित्त से अमेरिका आना हुआ। आकर होटल में विश्राम किया।
१२ मार्च प्रातः सभी अतिथि धीरे-धीरे विदा हो रहे थे। समय मिलने पर श्री चन्द्रशेखर राजू से वेद के प्रचार-प्रसार पर बातें हुईं, उन्होंने अपने द्वारा किये जाने वाले कार्यों की जानकारी दी। जिनको प्रस्थान करना था, उनको विदाकर शेष लोगों का ओक्लाहोमा के दर्शनीय स्थल की यात्रा का विचार बना। सब मिलकर ओक्लाहोमा के काऊब्वाय संग्रहालय में गये। अंग्रेजों के अमेरिका में आने से पहले, यहाँ रहने वाले लोग जिनको रेड इण्डियन्स कहा जाता है, उनके जीवन व सामाजिक व्यवस्था को बताने वाला संग्रहालय है। धीरे-धीरे यहाँ के लोगों को मार दिया गया और अंग्रेजों ने यहाँ अपना राज्य स्थापित किया। शासन की प्रारम्भिक व्यवस्थाओं का भी यहाँ आकृति बनाकर प्रदर्शन किया गया है। संग्रहालय बड़ा और दर्शनीय है। वहाँ से गार्गी के घर पर भोजन करके होटल पर लौटकर विश्राम किया।
१३ मार्च अगले दिन प्रातराश करके निकले। आज के दिन गार्गी ने अपना विश्वविद्यालय दिखाया। रोगी बच्चों के लिये नया भवन बना है, जो किसी बड़े होटल जितना और उतना ही सुन्दर बना है। विश्वविद्यालय का पुस्तकालय देखा, वह भी विशाल है। यहाँ लोग पुस्तकालय का भरपूर उपयोग करते हैं। रात्रि को भट्टाचार्य जी के परिवार ने सबको भोजन पर आमन्त्रित किया, वहाँ सब भोजन पर गये। वहाँ से लौटकर होटल पर विश्राम किया।
१४ मार्च को होटल से निकल कर चन्द्रशेखर राजू को हवाई अड्डे पर विदा करने गये। आज का दिन मिलने में बीता। शर्मा जी के साथ निकलकर नगर का भ्रमण किया। सायं डॉ. शाह के घर सब भोजन पर आमन्त्रित थे। भोजन करके होटल में विश्राम किया।
१५ मार्च को प्रातः भ्रमण करते हुए प्राकृतिक दृश्यों का अवलोकन किया। आज तेज हवा चल रही थी। ओक्लाहोमा-अमेरिका का सूखा प्रदेश है। अन्य प्रान्तों की तुलना में बहुत हरा-भरा नहीं है। गर्मी भी भारत की भाँति बहुत अधिक होती है। इसे अमेरिका में पिछड़ा प्रदेश माना जाता है। आज लौटने का कार्यक्रम था। डॉ. गार्गी पाँच बजे चिकित्सालय से लौटीं। बड़ी गाड़ी नहीं मिल सकी, अतः कौस्तुभ के माता-पिता ओक्लाहोमा में रहे। बाकी लोगों ने डैलस के लिये प्रस्थान किया। रात्रि को दस बजे डैलस पहुँचे। भोजन करके शर्मा जी के आग्रह पर पूरे परिवार के साथ एक घण्टा धार्मिक चर्चा हुई, प्रश्नोत्तर हुए। यहाँ हम राजीव जी के यहाँ ठहरे। राजीव जी इञ्जीनियर हैं। राजीव जी के श्वसुर डॉ. वर्मा तथा पिता श्रीचन्द जी दोनों पुराने सहपाठी और मित्र हैं। दोनों केन्या में रहते हैं। दोनों डॉक्टर जी के मित्र हैं। विवाह के लिये केन्या से यहाँ आये हुए थे। रात्रि विश्राम किया।
१६ मार्च प्रातः शीघ्र उठकर प्रस्थान की तैयारी की, इतनी शीघ्रता में राजीव जी की पत्नी और गार्गी ने मिलकर भोजन तैयार करके साथ रख दिया। कौस्तुभ, राजीव जी, शर्मा जी, सब बस अड्डे तक छोड़ने आये। बस अड्डे के पास पहुँचकर राजीव जी ने हम सब को वह स्थान दिखाया, जहाँ अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी को गोली मारी गई थी। जिस घर से गोली मारी गई तथा जिस स्थान पर गोली लगी, सड़क पर गोली लगने के स्थान पर सफेद चिह्न बनाये गये हैं तथा जहाँ से गोली मारी गई थी, भवन की उस मंजिल को संग्रहालय बनाया गया है। बस यथासमय चली। दोनों ओर खेत-जंगल के दृश्य थे, साफ चौड़ी सड़क पर चलते हुए ११ बजे ह्यूस्टन पहुँच गया। श्री मुनीश गुलाटी जी बीमार होने पर भी अपनी पत्नी के साथ बस अड्डे पर पहुँचे, उन्हें ज्वर था। उनके साथ मार्ग में उनकी बेटी प्रिया, जो चिकित्सा विज्ञान में पढ़ती है, उसका भी एक सप्ताह का अवकाश था, उसको लेकर हम सब घर पहुँचे। गुलाटी जी का परिवार पुराना आर्य परिवार है। शुद्ध शाकाहारी है, विश्वविद्यालय में मांस बनता है, अतः उनकी बेटी वहाँ भोजन नहीं करतीं। पीने के पानी के नल के नीचे मांस धोया जाता है, अतः पानी की बोतलें भी घर से लेकर जाती हैं। यह है संस्कार का प्रभाव। भोजन के बाद विश्राम कर गुलाटी परिवार के साथ आर्य समाज ह्यूस्टन पहुँचा। प्रथम पं. सूर्यकुमार नन्द जी से भेंट हुई। उन्हें मैं गुरुकुल गौतमनगर से जानता हूँ। आर्य समाज मन्दिर विशाल तथा सुन्दर है। अमेरिका में यह सबसे समर्थ समाज माना जाता है। यहाँ के दूसरे विद्वान् डॉ. हरिश्चन्द्र हैं, वे और उनकी पत्नी कविता जी से भी पुराना परिचय है। वे अनेक बार अजमेर आते रहे हैं। यहाँ निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ७ बजे से ८ बजे तक प्रवचन तथा आधा घण्टा प्रश्नोत्तर हुए। आज के व्याख्यान का विषय था- ‘ईश्वर का सच्चा स्वरूप’। व्याख्यान के पश्चात् भोजन के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ। गुलाटी जी के साथ घर विश्राम किया।
१७ मार्च को प्रातः समाचार देखे। लेखन कार्य किया। दिन में डॉ. हरिश्चन्द्र जी तथा कविता जी भेंट के लिये पधारे, उनसे आर्य समाज के प्रचार-प्रसार की चर्चा होती रही। सायंकाल आर्य समाज गये। आज का विषय था- ‘आर्य समाज का प्रचार-प्रसार कैसे हो?’ उसके पश्चात् प्रश्नोत्तर हुए, भोजन करके घर लौटे।
१८ मार्च को प्रातःकाल का समय स्वाध्याय चर्चा में व्यतीत हुआ। दोपहर डॉ. हरिश्चन्द्र जी व कविता जी पधारे, उनके साथ मार्ग में मुनीष जी के भाई प्रवीण जी से मिलते हुए श्री जसवीर सिंह जी के घर पहुँचे। ये फरीदाबाद के पास गाँव दयापुर के निवासी हैं। आपके भाई वेदपाल जी ऋषि उद्यान के साधना शिविर में भाग ले चुके हैं। वर्षों से अमेरिका में निवास कर रहे हैं। निष्ठावान् आर्यसमाजी हैं। घर में प्रतिदिन यज्ञ करते हैं। आज सायं इनके घर पर यज्ञ किया और फिर आर्य समाज पहुँचे, आज का विषय ‘वैदिक वाङ्मय का महत्त्व’ था। उसी प्रकार शंका-समाधान हुआ, भोजन के साथ कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। आज अजमेर में ज्योत्स्ना के साथ अध्ययन करने वाली श्रीमती उषा जी अपने पति के साथ कार्यक्रम में आईं। चर्चा कर समाचार जाने, पुराना परिचय फिर नया हुआ। आप भारतीय वाणिज्य दूतावास (कॉन्स्युलेट) में कार्यरत हैं, आपके पति इञ्जीनियर हैं। आज रात्रि को जसवीरसिंह जी के घर पर ही निवास रहा।
१९ मार्च को प्रातःकाल आर्य समाज में जसवीरसिंह जी की ओर से गायत्री यज्ञ का आयोजन रखा गया था। आठ बजे से प्रथम ओम् संकीर्तन, गायत्री यज्ञ तथा गायत्री मन्त्र का अर्थ कर प्रवचन किया। इसके बाद जलपान कर शनिवार होने के कारण प्रवचन का कार्यक्रम भी यज्ञ के साथ ही रखा गया था। आज ‘उपासना का महत्त्व’ पर व्याख्यान दिया, शंका समाधान हुआ। भोजन करके जसवीर सिंह जी घर जाते हुए श्रीमती उषा जी के घर पर रुके, कुशलक्षेम की चर्चा हुई, वहाँ से घर पहुँचकर विश्राम किया। सायं जसवीर जी की बेटी, जो विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान की छात्रा है, जिसके अवकाश समाप्त हो रहे थे, उसे छात्रावास तक पहुँचाकर आये। विश्वविद्यालय बहुत भव्य बना हुआ है, घर लौटकर रात्रि विश्राम किया।
शेष भाग अगले अंक में…..

वैदिक धर्म प्रचार की शैली क्या हो? : डॉ. धर्मवीर

वैदिक धर्म प्रचार की शैली क्या हो?
सम्पूर्ण समय में सब कुछ विकसित या सब कुछ अविकसित नहीं हो सकता। इस बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि सदा सब कुछ एक जैसा नहीं होता। ज्ञान-विज्ञान की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि समय को चलाने के लिये उसका थोड़ा होना भी बहुत होता है। हम उसे समाज का मुख भी कह सकते हैं। वह ही संसार में आगे चलता है। जैसे शरीर में मुख के अतिरिक्त बहुत कुछ है, परन्तु सब ज्ञानेन्द्रियाँ मुख पर ही आश्रित हैं, सारा शरीर उसी से चलता है। समाज को सभी वर्णों की आवश्यकता होती है, परन्तु समाज को विद्या और विज्ञान जानने वाला वर्ग ही चलाता है। पहले भी ऐसा ही था, आज भी ऐसा ही है और आगे भी ऐसा ही होगा। यदि विद्या वाला वर्ग सोचे कि वह कुछ नया नहीं जानेगा और समाज का संचालन करेगा, तो यह सोचना गलत होगा। तब तक समाज में उसका स्थान दूसरे ले चुके होंगे। ज्ञान ही मनुष्य को संचालित करेगा, चाहे वह किसी भी दिशा से आये या किसी भी भाषा से आये। जब कभी कोई संसार में प्रगति को अवरुद्ध करता है, तब गति की दिशा और स्थान बदल जाते हैं, परन्तु गति बनी रहती है। संसार में निरन्तर ऐसा ही होता रहता है।
इस बात को एक और तरह से भी समझ सकते हैं। इस जीवित शरीर में चेतना होने पर ही जीवन रहता है। चेतना के समाप्त होने पर शरीर तो रह सकता है, परन्तु उसमें जीवन नहीं हो सकता, इसी कारण मनुष्य शरीर के लिये सब कुछ करके भी अपने को अपूर्ण अनुभव करता है। यह अपूर्णता हमें पूर्णता के लिये कुछ करने को विवश करती है। यह विवशता धार्मिकता के बिना दूर नहीं हो सकती, इसे रूढ़िवादी धर्म कभी भी पूरा नहीं कर सकते। वैदिक धर्म की वैज्ञानिकता ही इस शरीर और आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ है।
जो लोग बिना ज्ञान के चलना चाहते हैं, उन्हें उनका आग्रह समाज में पीछे धकेल देता है। प्रायः हम धर्म के नाम पर अपने को एक स्थान पर बाँध लेते हैं और जब बँध जाते हैं तो हमारी गति रुक जाती है। संसार में सबसे अधिक ईसाई और मुसलमान हैं, उन्होंने धर्म और विज्ञान से अपने को विचित्र तरह से जोड़ा। इस्लाम की विचाराधारा ज्ञान-विज्ञान पर रोक लगाने वाली है, वहाँ प्रगति के लिये कोई स्थान नहीं। ईसाइयत ने इसे दो भागों में बाँट लिया है, गति के लिये विज्ञान का आश्रय लिया है, परन्तु धर्म के बन्धन को भी नहीं छोड़ा है, इसलिये वह विज्ञान को स्वीकार करने पर भी अपने धर्म को वैज्ञानिक नहीं बना सका। वैदिक धर्म ने जब तक अपने ज्ञान-विज्ञान को जीवित रखा, तब तक वह विज्ञान-सम्मत था, गति करता रहा। जब वह वैज्ञानिक सोच से वञ्चित हो गया, प्रगति से शून्य हो गया।
इस युग में ऋषि दयानन्द का आगमन वैदिक धर्म को विज्ञान-सम्मत बनाने का प्रयास था। धर्मों की लड़ाई में ऋषि दयानन्द की वैज्ञानिकता ने वैदिक धर्म को गति दी। उनके अनुयायियों ने धर्म को तो अपनाया, परन्तु वैज्ञानिक सोच को भूल गये या वह उनसे छूट गया, परिणाम स्वरूप उनकी लड़ाई अन्य धर्म वालों के साथ रह गई, वैज्ञानिकों के साथ छूट गई। दूसरे शब्दों में आर्य समाज शिक्षा, विद्या एवं विज्ञान के क्षेत्र में अपना स्थान नहीं बना सका। वह उन्हीं धार्मिक लोगों से लड़ता रहा और आज भी लड़ रहा है। हमारी लड़ाई विज्ञान के बिना और वैज्ञानिक लोगों से न होकर रूढ़िवादी धार्मिक लोगों के साथ रह गई है, जो वैज्ञानिक सोच बिल्कुल नहीं रखते। ऋषि दयानन्द के समय हमारी धार्मिक लड़ाई हमें आगे ले जा सकी थी, परन्तु आज हमारी धार्मिक लड़ाई हमें आगे क्यों नहीं ले जा पा रही है- इसके विषय में विचार करने की आवश्यकता है।
प्रगति के अवरुद्ध होने का जो कारण हमारी समझ में आता है, वह यह है कि ऋषि दयानन्द के समय संसार भर में धर्म का प्रभाव अधिक था, विज्ञान का विकास थोड़ा था, प्रभाव भी थोड़ा था, इसलिये धर्म के नाम पर कही गई वैज्ञानिक बातों को धार्मिक लोग आसानी से स्वीकार कर लेते थे, परन्तु आज विज्ञान का अनुयायी वर्ग संसार में बहुत बढ़ गया है और धार्मिक वर्ग प्रतिशत में अधिक होने पर भी पहले से बहुत घट गया है, ऐसी स्थिति में आर्य समाज या वैदिक धर्म की लड़ाई वर्तमान धार्मिक परिस्थितियों में पिछड़ गई है। इसका एक कारण है- इन धार्मिक संगठनों का प्रभाव क्षेत्र, उनका संगठन तथा प्रचार तन्त्र और उसके लिये प्राप्त उनके साधन हमारी तुलना में हजारों गुना अधिक हैं। हमारे पास वैज्ञानिक विचार तो हैं, परन्तु इन विचारों को गति देने वाला तन्त्र नहीं है। नये विचारक उत्पन्न करने के साधन नहीं हैं, प्रतिभाशाली लोगों तक पहुँचने के उपाय भी नहीं, व्यक्ति भी नहीं। इस स्थिति में हमारे किये जाने वाले प्रयास समुद्र के सम्मुख बिन्दु जैसे भी नहीं दीखते। ऐसी परिस्थिति में क्या किया जा सकता है और क्या किया जाना चाहिए?
प्रथम जिस परिवेश और समाज में हम लोग रह रहे हैं, उसमें दोनों प्रकार के लोग हैं, एक वे जो अपने को धार्मिक कहते हैं और दूसरे वे जो अपने को प्रगतिशील या वैज्ञानिक सोच का व्यक्ति मानते और समझते हैं। वैदिक विचारों के लिये जो अवसर पहले था, आज भी वही है। विज्ञान कितना भी आगे क्यों न बढ़ गया हो, कितना भी विकसित क्यों न हुआ हो, आज भी शरीर के स्तर से आगे नहीं बढ़ा है। मनुष्य के लिये शरीर ही अन्तिम नहीं है। यहाँ आकर व्यक्ति अपने को वैज्ञानिक विचारधारा वाला मान कर स्वयं को धर्म से- रूढ़िवादिता से दूर कर लेता है, परन्तु अपने-आपको विज्ञान की खोज से सन्तुष्ट नहीं कर पाता। ऐसे लोग अपने को वैज्ञानिक मानते हैं, परन्तु धार्मिकता की परम्पराओं से स्वयं को दूर रखते हुए विज्ञान के अन्दर जो अभाव है, उसे पूरा करने के लिये अपने को अध्यात्मवादी कहते हैं। उनका मानना है कि भले ही वे धर्म के नाम पर पाखण्ड को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं हैं, परन्तु सोचते कुछ और हैं, जिसे विज्ञान से अभी तक समझा नहीं जा सका है। इसी कारण वे अपने को धार्मिक (रिलीजियस) न कहकर अध्यात्मवादी (स्प्रिच्युलिस्ट) कहते हैं।
ऋषि दयानन्द ने अपने विचार समाज के बुद्धिजीवी वर्ग में ही रखे थे। स्वामी दयानन्द ने अपने जीवन काल में जितना प्रचार किया, साहित्य लिखा, उसका सम्पर्क तत्कालीन बुद्धिजीवी लोगों से रहा, जिसके कारण उनके विचारों का प्रभाव समाज के बुद्धिजीवी वर्ग पर देखा जा सकता है। राजा-महाराजा हों, न्यायाधीश, पत्रकार, विद्वान्, लेखक हों। सभी उनके विचारों से परिचित थे, चाहे लोग स्वामी जी के विचारों से सहमत हों या असहमत हों। इसी चर्चा के कारण देश में ही नहीं, देश के बाहर भी उनके विचारों की चर्चा, उनके जीवन काल में हम देख सकते हैं।
धीरे-धीरे आर्य समाज की चर्चा समाज में तो रही, परन्तु उसके केन्द्र से बुद्धिजीवी वर्ग बाहर होता गया, उस वर्ग के लोगों को आर्य समाज के विचार और सिद्धान्तों से परिचित होने का अवसर कम होता गया। इसके दो कारण रहे- एक तो शिक्षा के क्षेत्र में पठन-पाठन क्रम का पाश्चात्य विचारधारा वाले लोगों के हाथ में जाना, सरकार द्वारा इसी को स्वीकार करना। इस प्रयास से शिक्षा का प्रचार-प्रसार तो हुआ, परन्तु पूरा समाज दो भागों में बंट गया। एक अंग्रेजी शिक्षा में दीक्षित वर्ग अभिजात्य श्रेणी में आ गया, देसी भाषा में शिक्षा लेने वाले बहुसंख्यक शेष लोग पीछे रह गये। आर्य समाज का क्षेत्र जनसामान्य का क्षेत्र रहा, उनमें प्रचार तो हुआ, परन्तु विचारों का प्रसार नहीं हो सका, क्योंकि नई पीढ़ी के लोग इस देश में सामान्य लोग श्रोता तो हो सकते हैं, समाज के संचालक नहीं हो सकते, अतः संचालक तथाकथित शिक्षित वर्ग रहा। किसी भाषा के बोलने वाले बहुत हैं, इसलिये उनकी आवाज सत्ता पर प्रभावकारी हो, यह अनिवार्य नहीं है। अंग्रेज तो एक प्रतिशत भी नहीं थे, परन्तु उनकी सत्ता अंग्रेजी से चलती थी, आज यह संख्या समाज में पाँच प्रतिशत से भी अधिक है, अतः सत्ता ही मजबूत हुई है, समाज नहीं। शिक्षा में जो लोग हैं, उनतक वैदिक विचारों की पहुँच शून्य स्तर पर है, अतः समाज पर हम अपना विशेष प्रभाव डाले, ऐसी सम्भावना कम है।
सामान्य वर्ग परम्परागत धर्म व रुढ़िवाद के साथ बंधा है। उसे मन्दिर, मस्जिद, चर्च ने अपने साथ बांध रखा है, जिसका विकल्प आर्य समाज के पास नहीं है। उनसे बहुत परिवर्तन की आशा नहीं की जा सकती। शिक्षित और बुद्धिजीवी लोग भी उसी प्रकार धार्मिक अन्धविश्वास और परम्पराओं से बंधे हुए हैं, परन्तु उनको वैज्ञानिक विचारों से परिचित कराने पर उनमें स्वीकृति की सम्भावना अधिक होती है और उनकी स्वीकृति समाज पर प्रभावकारी होती है।
महर्षि दयानन्द का धर्म-वेद का धर्म, अध्यात्म और विज्ञान को एक साथ देखता है। आत्मा की अनुभूति की ओर जाने वाले मार्ग को वह धर्म कहता है और ज्ञान की प्राप्ति के मार्ग को विज्ञान कहता है। हम धर्म को विज्ञान समझे बिना ग्राह्य नहीं बना सकते। हमारी समस्या है- हम जिन्हें धार्मिक कहते हैं, वे सब विज्ञान विरोधी हैं, चाहे वे इस्लाम या ईसाइयत के अनुयायी हों या रूढ़िवादी हिन्दू कहलाने वाले लोग। जो कोरे वैज्ञानिक हैं, उन्हें धर्म के नाम से भी चिढ़ है और जो कट्टर धार्मिक हैं, उन्हें विज्ञान से सम्बन्ध रखने की इच्छा भी नहीं है। अब वे शेष रहते हैं, जो धर्म को नहीं मानते, पर वैज्ञानिक दृष्टि रखते हैं तथा विज्ञान सम्मत धार्मिक विचारों को सुनने के लिये और स्वीकार करने के लिये तैयार हैं। वे ही हमारे कार्य के क्षेत्र में होने चाहिए। इन लोगों का कोई परिभाषित या चिह्नित वर्ग नहीं है। प्रत्येक स्थान पर जिनकी वैज्ञानिक बुद्धि में जिज्ञासा विद्यमान है, उनको इन विचारों से परिचित कराया जाये तो वे इन्हें सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। आज उनको केन्द्र में रखकर प्रचार करने की आवश्यकता है।
किसी भी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में व्यक्ति के विचारों में परिवर्तन लाना आवश्यक है। विज्ञापनों से प्रचार उन बातों का हो सकता है, जो मनुष्य की आवश्यकता है। चाहे फिर तेल, साबुन आदि या अन्य, उपभोग की वस्तु जिनके प्रति किसी भी मनुष्य का स्वाभाविक आकर्षण होता है। भाषणों से प्रचार तात्कालिक प्रभाव के लिये उपयोगी रहता है। आप कोई आन्दोलन चला रहे हैं, चुनाव लड़ रहे हैं, तब सार्वजनिक सभा, व्याख्यान अनिवार्य हो जाता है, केवल समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर या लेख देकर या पत्रक बाँटकर काम नहीं चलता, ये बातें सम्पर्क करने में सहायक अवश्य होती हैं, परन्तु इनसे प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती।
मत, सम्प्रदाय धार्मिक विचारों का प्रभाव तो व्यक्ति के साथ निकट सम्पर्क से ही पड़ता है। सार्वजनिक सभा वार्ता कथा सत्संग मनुष्य को निकट लाने के लिये साधन है। सत्संग, सभा, कथा, वार्ता से थोड़े समय के लिये मनुष्य के विचारों पर प्रभाव पड़ता है, परन्तु इसकी निरन्तरता के लिये कर्मकाण्ड की आवश्यकता होती है। कोई मनुष्य आपकी बात सुनके क्या करे? जिससे आप के द्वारा बताये गये लाभ उसे प्राप्त हो सके। इस कर्मकाण्ड में भी ऐसे आचार्य गुरुओं का भक्तों और शिष्यों से निरन्तर सम्पर्क रहना आवश्यक है। गुरु लोग यजमानों के घर पर जायें अथवा यजमान गुरुओं के आश्रम पर पहुँचकर अपने विचारों को पुष्ट करें। जहाँ आचार्य शिष्य या साधु, सन्त, भक्तों का सम्पर्क बनता है, वहाँ धार्मिक परम्परा चलती है। इसके स्थापित होने में बहुत समय लगता है और इसका क्षेत्र भी बहुत लम्बा नहीं हो पाता फिर आज के वातावरण में आर्य समाज या वैदिक विचारों को केवल प्रचार करने मात्र से नहीं फैलाया जा सकता। जिन लोगों की आजीविका, व्यापार या स्वार्थ पुरातन परम्परा से जुड़ा है, उनके द्वारा इन विचारों से परिचित होने पर उचित मानने पर भी स्वीकार करना कठिन होता है। ऐसी परिस्थिति में वैदिक धर्म या विचार के प्रचार-प्रसार करने का क्या उपाय हो?
हमें एक बात स्मरण रखनी चाहिए- समाज के तीन प्रतिशत लोग ही समाज को संचालित करते हैं, परन्तु इन तीन प्रतिशत लोगों का ज्ञानवान और समर्थ होना आवश्यक होता है। समाज में बुद्धिजीवी लोग यदि किसी बात को स्वीकार कर लेते हैं, तब शेष लोगों को उसे स्वीकार करने में संकोच या कठिनाई नहीं होती। जो स्थापित है, उनको समझाना सबसे कठिन है। विचारों के प्रचार के लिये सबसे सरल मार्ग है- बुद्धिजीवी युवकों को, जो अभी ऊँच शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, उनको इन विचारों से परिचित कराया जाय, वे बुद्धिजीवी होने के साथ युवा होने के कारण जो विचार उन्हें उचित लगते हैं, विचारों को अपनाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होती। यदि शिक्षा संस्थानों को विशेष रूप से महाविद्यालय विश्वविद्यालय को केन्द्र बना कर सर्वोच्च बुद्धि वाले युवकों को विचारों से जोड़ा जाय तो यह कार्य कुछ वर्षों में प्रभावकारी हो सकता है। पाँच से दस वर्षों में समाज पर प्रभाव परिलक्षित होने लगेगा तथा बीस वर्ष में आप इससे यथेच्छ परिणाम भी प्राप्त कर सकते हैं।
यह कार्य केवल कल्पना नहीं है अपितु महाराष्ट्र में स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने जीवन के साठ वर्ष से अधिक समय इस पद्धति का प्रयोग कर इसकी सफलता का अनुभव किया है। किसी विचारधारा या संगठन के लिये दस-बीस वर्षों का समय बहुत नहीं होता। आवश्यकता है- योजना और निष्ठा से इस कार्य को करने की और धर्म का मूल वेद बुद्धिमानों के ही समझ में आ सकता है और उन्हीं के द्वारा इसका विस्तार भी हो सकता है।
हम कितने जिज्ञासुओं तक अपना समाधान पहुँचा सकते हैं, इस पर ही हमारी सफलता निर्भर करती है। ऋषि दयानन्द के विचार ही वैदिक धर्म को जीवित रख सकते हैं, ऐसा धर्म मनुष्यता को जीवित रख सकता है, जिससे वर्तमान और भविष्य दोनों का कल्याण हो। इसीलिये कहा है-
यतोऽभ्युदय निः श्रेयस् सिद्धिः स धर्मः।
– धर्मवीर

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-३३

असपत्ना सपत्नध्नी जयन्त्यभि भूवरी

यथाहमस्य वीरस्य विराजानि जनस्य च।

मन्त्र का उत्तरार्ध कहता है- मैं केवल अपने पति के लिये ही स्वीकार्य या मान्य हूँ, ऐसा नहीं है। मैं अपने साथ रहने वाले सभी मनुष्यों के लिये स्वीकार्य हूँ। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि कोई व्यक्ति जब अपने आपको शक्तिशाली, महत्त्वपूर्ण और अधिकार सम्पन्न समझता है, उस समय वह अपने लिये महत्त्वपूर्ण हो सकता है, परन्तु सबके लिये स्वीकार्य होना तभी सम्भव है, जब वह सामर्थ्यवान होकर भी सर्वोपकारी हो, सर्वसुलभ हो। ऐसी अवस्था में ही वह सर्वजन स्वीकार्य और सर्वजन मान्य हो सकता है।

विवाह में शिलारोहण के साथ लाजा होम किया जाता है, तब इन्हीं दो बातों के विषय में वर-वधू को ध्यान दिलाया जाता है कि हमें अपने  वैवाहिक जीवन में दृढ़ता रखनी है। मैं दृढ़ रहूँगा, तुम भी मेरे साथ दृढ़ रहना, पत्थर उसका प्रतीक है। जब भाई द्वारा कन्या का पैर शिला पर रखा जाता है और वह मन्त्र पढ़ता है- अरिह – तुम इस शिला पर आरूढ़ हो जाओ, क्योंकि तुमको इस पत्थर की भाँति दृढ़ होकर रहना है। तुम्हारा साथ पत्थर की भाँति दृढ़ व्यक्ति के साथ है, तुम भी दृढ़ रहोगी, तभी साथ रह पाओगी।

जीवन में दृढ़ता के बिना न गति है, न प्रगति है। दृढ़ता से स्थिरता आती है। चञ्चलता अस्थिरता का दूसरा नाम है, स्थिर व्यक्ति बाधाओं को दूर कर सकता है, स्थिर योद्धा ही शत्रुओं का सामना कर सकता है, शत्रुओं पर आक्रमण कर सकता है। भागने वाला अस्थिर व्यक्ति आक्रामक कैसे हो सकता है? इसलिये वर वधू से कहता है- मैं स्थिर हूँ, मैं दृढ़ पत्थर की भाँति हूँ। तुमको भी मेरे साथ रहना है तो पत्थर की तरह दृढ़ होकर रहना होगा, नहीं तो संसार की समस्याओं का और हम पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं का नाश नहीं कर सकते।

विवाह की इस प्रक्रिया की रोचकता यह है कि इस विधि को लाजा होम के साथ संभवतः इसीलिये किया जाता है, क्योंकि एक क्रिया के बिना दूसरी क्रिया अधूरी है। प्रथम कार्य दृढ़ होना, दूसरा कार्य अन्यों का उपकार करना है। इसमें उपकार का क्रम भी बताया गया है, क्योंकि उपकार करने का अर्थ कर्त्तव्य को भूलना नहीं है। आहुति के क्रम में कर्त्तव्य का क्रम भी बताया गया है।

लाजा होम की प्रथम आहुति देते हुए वधू कहती है- आज के बाद मेरे कर्त्तव्य में प्राथमिकता पति की है। पति के प्रति मेरा प्रथम कर्त्तव्य है, उसका सम्मान और सत्कार मुझे करना है, वह भी उसी प्रकार मेरा सम्मान करता है। दूसरी आहुति के साथ वधू का कर्त्तव्य घर के निवासियों के साथ है। घर में रहते हुए ऐसा नहीं हो सकता- आपने केवल अपने बारे में सोचकर ऐसा निर्णय कर लिया तो परिवार में विघटन और द्वेष भाव प्रारम्भ हो जायेगा। परिवार के सभी सदस्यों के साथ भी अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना होगा, तभी अपने को और पति को परिवार के साथ बाँध के रखने में वधू समर्थ हो सकती है। तीसरी आहुति देते हुए वधू कहती है- पति और घर के साथ-साथ अपने सामाजिक दायित्वों का भी मुझे निर्वाह करना है। इसमें चाहे मेरे सम्बन्धी लोग हैं, चाहे विद्वान् अतिथि हैं अथवा बुभुक्षित, पीड़ित, असहाय, दुर्बल मनुष्य, बालक, पशु-पक्षी- सभी की चिन्ता करना, उनकी यथासम्भव सहायता सहयोग करना, सान्त्वना देना, यह भी कर्त्तव्य है, तभी ऐसी नारी न केवल अपने पति की प्रेम भाजन होगी, अपितु परिवार एवं समाज के प्रत्येक सदस्य की प्रशंसा प्राप्त करने वाली बन जायेगी।

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

सम्पादकीय

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

– धर्मवीर

मूर्ति शब्द प्रतिमा या साकार वस्तु के अर्थ में प्रचलित है। संस्कृत में मूर्त शब्द व्यक्त होने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसका दूसरा अर्थ निराकार से साकार होना है। संसार में दो प्रकार की सत्ताएँ दृष्टिगोचर होती हैं- एक चेतन और दूसरी अचेतन। ऋषि दयानन्द की मान्यता के अनुसार दो चेतन सत्तायें स्वरूप से अनादि और पृथक्-पृथक् हैं। एक अचेतन सत्ता प्रवाह से अनादि और एक है। दूसरी चेतन सत्ता के रूप में जीव और ईश्वर दोनों निराकार हैं और एक अचेतन सत्ता प्रवाह से अनादि होने के कारण कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त होती है। इसी को संसार के रचना काल में व्यक्त और प्रलय काल में अव्यक्त दशा में बताया है। इस प्रकार संसार ही कभी मूर्त व्यक्त और कभी अमूर्त अव्यक्त दशा में होता है। इसी अर्थ में उपनिषद् ग्रन्थों में मूर्तञ्च-अमूर्तञ्च इसका प्रयोग दिखाई देता है।३ संस्कृत साहित्य में मूर्त शब्द का अनेकार्थ प्रयोग पाया जाता है। अमरकोष तृतीय काण्ड नानार्थ वर्ग-३ श्लोक ६६ में मूर्ति शब्द का अर्थ बताते हुए कहा गया है- मूर्तिः काठिन्यकाययोः। -अर्थात् मूर्ति शब्द का प्रयोग कठोरता और काया-शरीर के अर्थ में पाया जाता है। मूर्ति शब्द का अर्थ है- आकार वाली वस्तु। इस प्रकार सोना, चाँदी, पीतल, लोहा, मिट्टी आदि से बनी साकार वस्तु मूर्ति कहलाती है।

एक साकार वस्तु से दूसरी साकार वस्तु की तुलना प्रतिमा कही जाती है। संस्कृत में प्रतिमा शब्द का मूल अर्थ बाट है। जिससे वस्तु को तोला जाता है, उस साधन को प्रतिमा कहा जाता है। एक वस्तु की दूसरी वस्तु से तुलना अनेक प्रकार से होती है- रूप से, भार से, योग्यता से। बहुत प्रकार से किन्हीं दो वस्तुओं के बीच समानता देखी जा सकती है। यह तुलना जड़ पदार्थों में ही सम्भव है। साकार से साकार की प्रतिमा हो सकती है। निराकार से  साकार प्रतिमा की रचना सम्भव नहीं है, इसलिए साकार व्यक्ति, वस्तु आदि की प्रतिमा बन सकती है। एक समान आकृति को देखकर दूसरी समान आकृति का बोध होता है, जैसे चित्र को देखकर व्यक्ति का या व्यक्ति को देख कर चित्र और व्यक्ति की समानता का ज्ञान होता है। ईश्वर के समान कोई नहीं, इसलिए वेद कहता है-

न तस्य प्रतिमा अस्ति।     -यजु. ३२/३।।

आगे चलकर समानता के कारण मूर्ति के लिए भी प्रतिमा शब्द का प्रयोग होने लगा। आज प्रतिमा शब्द से मूर्ति का ही अर्थ ग्रहण किया जाता है।

संसार मूर्त है, इसलिए इसमें मूर्तियों का अभाव नहीं है। साकार पदार्थों से बहुत सारे दूसरे साकार पदार्थ बनाये जाते हैं, स्वतः भी बन सकते हैं, अतः मूर्ति कोई विवाद या विवेचना का विषय नहीं है। मूर्ति के साथ जब पूजा शब्द का उपयोग किया जाता है, तब अर्थ में सन्देह उत्पन्न होता है। पूजा शब्द सत्कार, सेवा, आदर, आज्ञा पालन, रक्षा आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता है। पूजा शब्द का उपयोग जब-जब पदार्थों के प्रसंग में किया जाता है, तो सन्देह की स्थिति उत्पन्न होती है। यज्ञ शब्द का प्रयोग अग्निहोत्र के लिए किया जाता है, जिसका अर्थ देवपूजा भी है। वेद में जड़ पदार्थों को भी देवता कहा है। इसी क्रम में चेतन को भी देव कहा गया तथा परमेश्वर को महादेव कहा गया। इस प्रकार देव शब्द से साकार और निराकार तथा जड़ और चेतन दोनों प्रकार के पदार्थों का ग्रहण होने लगा। इनमें एक के मूर्त होने से दूसरे के मूर्त होने की सम्भावना  बन जाती है। मूर्त पदार्थों में जड़ और चेतन दोनों पदार्थ देवता की श्रेणी में आते हैं- पहले अग्नि, वायु, जल आदि, दूसरे माता-पिता, आचार्य, अतिथि आदि। इस प्रकार देव शब्द की समानता से पूजा की समानता जुड़ती दिखाई देती है। इस तरह साकार, निराकार, जड़, चेतन में देवत्व बन गया तो सब की पूजा में भी समानता मानी व की जाने लगी।

सामर्थ्य और उपयोगिता के कारण चेतन से जिस प्रकार प्रार्थना की जाती है, उसी प्रकार जड़ से उसके सामर्थ्य के सामने विवश होकर अग्नि, वायु, जल आदि से भी प्रार्थना की जाने लगी। चेतन को भोजन, आसन, माला, सेवा, सत्कार आदि से सन्तुष्ट किया जाता है, उसी प्रकार जड़ देवता को भी सन्तुष्ट करने की परम्परा चल पड़ी। सभी देव शब्दों का मानवीकरण कर दिया, चाहे वह जड़ हो या चेतन, साकार हो या निराकार। मनुष्यों ने इन सब की मूर्ति बना ली। उन वस्तुओं के गुण उन मूर्तियों में चिह्नित कर दिये गये। ऐसा करते हुए ईश्वर का भी मानवीकरण हो गया। मानवीकरण होने में रूप और नाम के बिना उसका उपयोग नहीं हो सकता, इसलिए महापुरुषों का रूप और नाम ईश्वर की श्रेणी में आ गया। पहले दौर में शिव, विष्णु, राम, कृष्ण आदि रूप देवत्व की श्रेणी में आते दिखाई देते हैं। ईश्वर के स्थान पर समाज में इन देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ पूजी जाने लगीं और इनसे ही प्रार्थना भी होने लगी। इस प्रकार इन मूर्तियों से मनुष्य के दो अभिप्राय सिद्ध हो जाते हैं- प्रथम जो उपस्थित नहीं है, वह उपस्थित हो जाता है। जिसकी मृत्यु हो चुकी है जो इस संसार से जा चुका है, उसकी स्मृति को स्थायित्व मिल जाता है तथा दूसरा अप्रत्यक्ष परमेश्वर इस मूर्ति के माध्यम से प्रत्यक्ष हो जाता है। इस प्रकार निराकार ईश्वर को साकार बनाने का विचार मूर्ति-पूजा का आधार है।

जब ईश्वर को अपनी इच्छानुरूप रूप दिया जा सकता है तो बाद के लोगों ने राम-कृष्ण के स्थान पर उनके इष्ट प्रिय व्यक्तियों को ही ईश्वर के स्थान पर मन्दिर में रख दिया। इस क्रम में मत-मतान्तरों के संस्थापक मन्दिरों के पूज्य देव बन गये। कुछ महावीर, नानक आदि ईश्वर की श्रेणी में आ गये। इसके बाद के युग में मन्दिर के महन्त, महामण्डलेश्वर, गुरु आदि लोगों की भी मूर्तियाँ बनने लगीं, उनकी भी ईश्वर के स्थान पर पूजा होने लगी। कुछ लोगों ने अपने माता-पिता, प्रियजनों को ही मन्दिर के देवताओं के स्थान पर अधिष्ठित कर दिया। उनकी पूजा को ही ईश्वर की पूजा समझने लगे। आज तो शंकराचार्य के स्थान पर आसाराम, रामरहीम, रामपाल दास जैसे कुछ पीर-फकीर भी मूर्ति के रूप में या समाधि के रूप में पूजे जाने लगे और कुछ लोग स्वयं ही अपने को पुजवाने लगे। इस तरह निराकार चेतन, सर्वव्यापक ईश्वर की यात्रा, साकार जड़ में बदल गई।

मूर्तिपूजा का समाज पर दो प्रकार से प्रभाव पड़ा। मूर्तिपूजा करने से मनुष्य कायर और भीरु बनता गया। देवता के रुष्ट होने का भय दिखाकर पुजारियों ने राजा से जनसामान्य तक को ठगा है, आज भी ठग रहे हैं। दूसरा प्रभाव समाज में मूर्तिपूजा का यह हुआ कि पुरुषार्थहीनता बढ़ी। मनुष्य के मन में इस प्रकार के विचार दृढ़ होते गये कि मनुष्य को बिना पुरुषार्थ के ही इच्छित फल की प्राप्ति हो सकती है। देवता पूजा से प्रसन्न होकर मनोवाञ्छित फल प्रदान करते हैं। इस विचार पर आर्य विचारक एवं दार्शनिक पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय ने इस प्रकार लिखा है- ‘‘वह (मूर्तिपूजक) अन्धकार में है और उसी में रहना चाहता है। वह प्रकाश का इच्छुक नहीं है। यदि आप बातचीत करके इस सम्बन्ध में उसे बतलाना चाहें तो वह बात उसे रुचिकर न होगी और वह उससे घबरायेगा। उसे भय है कि इस प्रकार की बौद्धिक छानबीन उसे अविश्वासी न बना दे और इसीलिए वह उससे बच निकलने का प्रयत्न करता है। इसका कारण यह नहीं कि वह तर्क-वितर्क की योग्यता नहीं रखता। मूर्तिपूजकों में आपको सर्वोत्तम वकील, जो चकित करने वाली तीव्र तार्किक बुद्धि रखते हैं, तर्क शास्त्र के उपाध्याय, जो सूक्ष्म हेत्वाभास को ढूँढ़ निकालने की क्षमता रखते हैं तथा चतुर राजनीतिज्ञ, जो संसार के राजनैतिक क्षेत्र में गुह्य-से-गुह्य कार्य करने वाली शक्तियों का सहज साक्षात् कर लेते हैं, मिलेंगे। उनमें आपको वाणिज्य कुशल व्यापारी, जिनकी दृष्टि से संसार की किसी मण्डी का कोई कोना छिपा हुआ नहीं है, अर्थशास्त्री जो शोषक-वर्ग की चालों का सफलतापूर्वक प्रतिकार कर सकते हैं, ज्योतिष-विद्याविशारद, जिनको आकाशस्थ ग्रह-उपग्रहों का अपने ग्रह से भी कहीं अधिक परिज्ञान है तथा गणितज्ञ, जिन्हें गणित के सूक्ष्म तत्त्वों पर पूर्ण अधिकार है, भी मिल जायेंगे। ये सब बुद्धि विशेषज्ञ है, परन्तु आप इन्हें मन्दिरों में अनपढ़ लोगों के साथ वैसी ही भक्ति-भावना तथा अनिश्चित बुद्धि से मूर्तिपूजा करते देखेंगे।’’

(लेखक पं. राजेन्द्र, भारत में मूर्तिपूजा, पृ. १९९)

ऋषि दयानन्द के जीवन में मूर्तिपूजा के प्रति अनास्था का भाव उनके बाल्यकाल से देखने में आता है। जिस समय बालक मूलशंकर की आयु मात्र तेरह वर्ष की थी, उस समय जिस घटना ने उनके जीवन में झंझावात उत्पन्न किया, वह घटना मूर्तिपूजा से ही सम्बन्ध रखती है। महर्षि दयानन्द ने इस घटना का वर्णन अपनी आत्मकथा में इस प्रकार किया है- ‘‘जब मैं मन्दिर में इस प्रकार अकेला जाग रहा था तो घटना उपस्थित हुई। कई चूहे बाहर निकलकर महादेव के पिण्ड के ऊपर दौड़ने लगे और बीच-बीच में महादेव पर जो चावल चढ़ाये गये थे, उन्हें भक्षण करने लगे। मैं जाग्रत रहकर चूहों के इस कार्य को देखने लगा। देखते-देखते मेरे मन में आया कि ये क्या है? जिस महादेव की शान्त पवित्र मूर्ति की कथा, जिस महादेव के प्रचण्ड पाशुपतास्त्र की कथा, जिस महादेव के विशाल वृषारोहण की कथा गत दिवस व्रत के वृत्तान्त में सुनी थी, क्या वह महादेव वास्तव में यही है? इस प्रकार मैं चिन्ता से विचलित चित्त हो उठा। मैंने सोचा भी यदि यथार्थ में ये वही प्रबल, प्रतापी, दुर्दान्तदैत्यदलनकारी महादेव हैं तो अपने शरीर पर से इन थोड़े-से चूहों को क्यों विताड़ित नहीं कर सकते? इस प्रकार बहुत देर तक चिन्ता स्रोत में पड़कर मेरा मस्तिष्क घूमने लगा। मैं आप ही अपने से पूछने लगा कि जो चलते-फिरते हैं, खाते-पीते हैं, हाथ में त्रिशूल धारण करते हैं, डमरु बजाते हैं और मनुष्यों को श्राप दे सकते हैं, क्या यह वही वृषारूढ़ देवता हैं जो मेरे सामने उपस्थित हैं?’’ इस घटना के बाद बालक मूलशंकर ने पिता को जगाकर अपनी शंकाओं का समाधान कराना चाहा, सन्तोषजनक उत्तर न मिलने पर घर आकर व्रत तोड़ दिया और भोजन करके सो गया। हम देखते हैं कि यह बालक जीवन भर मूर्तिपूजा के पाखण्ड को खण्डित करता रहा। इसकी निरर्थकता बताने में जिस योग्यता और साहस को हम देखते हैं, वह उल्लेखनीय है। महर्षि दयानन्द के सामने उदयपुर के भगवान् एकलिंग की गद्दी का प्रस्ताव था, शर्त केवल एक थी- मूर्तिपूजा खण्डन छोड़ना, परन्तु महर्षि दयानन्द का उत्तर था- ‘‘मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ति करूँ अथवा ईश्वरीय आज्ञा का पालन करूँ?’’ (भारत में मूर्ति पूजा, पृ. १६२)

महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पूजा के खण्डन में कभी कोई समझौता नहीं किया। इस पर पादरी के. जे. लूकस ने जो विचार दिये हैं, वे ध्यातव्य हैं। उक्त पादरी ने १८७७ में फर्रुखाबाद में मूर्ति पूजा के विषय में उनके व्याख्यान सुने थे, पादरी लूकस ने बतलाया- ‘‘वे मूर्तिपूजा के विरुद्ध इतने बल, इतने स्पष्ट और विश्वास के साथ बोलते थे कि मुझे फर्रुखाबाद की जनता की ओर से उनका हार्दिक स्वागत किये जाने पर आश्चर्य हुआ। मुझे उनका यह कथन स्मरण है कि जब मैंने उनसे कहा कि यदि आपको तोप के मुँह पर रखकर कहा जाए कि यदि तुम मूर्ति को मस्तक न झुकाओगे तो तुम को तोप से उड़ा दिया जायेगा, तो आप क्या कहेंगे? स्वामी जी ने उत्तर दिया कि ‘मैं कहूँगा कि उड़ा दो’ दयानन्द इतने निर्भीक थे।’’

(भारत में मूर्तिपूजा पृ. १६८)

महर्षि दयानन्द का मूर्तिपूजा खण्डन एक आग्रह मात्र नहीं था। उन्होंने मूर्तिपूजा की निरर्थकता सिद्ध करने में दार्शनिक, आर्थिक, सामाजिक-सभी पक्षों पर गहरा विचार किया है। जो लोग ईश्वर उपासना में मूर्तिपूजा को सहायक समझते हैं, उनके तर्कों का प्रबल तर्कों से खण्डन किया है।

‘‘प्रश्न- साकार में मन स्थिर होना और निराकार में स्थिर होना कठिन है, इसलिए मूर्तिपूजा करनी चाहिए।

उत्तर- साकार में मन स्थिर कभी नहीं हो सकता, क्योंकि उसको मन झट ग्रहण करके उसी के एक-एक अवयव में घूमता और दूसरे में दौड़ जाता है और निराकार परमात्मा के ग्रहण में मन अत्यन्त दौड़ता है तो भी अन्त नहीं पाता। निरवयव होने से चञ्चल भी नहीं रहता, किन्तु उसी के गुण-कर्म-स्वभाव का विचार करता-करता आनन्द में मग्न होकर स्थिर हो जाता है और जो साकार में स्थिर होता तो सब जगत् का मन स्थिर हो जाता, क्योंकि जगत् में मनुष्य स्त्री, पुत्र, धन, मित्र आदि साकार में फँसा रहता है, परन्तु किसी का मन स्थिर नहीं होता, जब तक निराकार में न लगावें, क्योंकि निरवयव होने से उसमें मन स्थिर हो जाता है। इसलिए मूर्तिपूजा करना अधर्म है।’’

शेष भाग अगले अंक में…..

– डॉ. धर्मवीर

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-३२

इदं तदक्रिदेवा असपत्ना किलाभुवम्

हम शत्रुता करने को अपना स्वभाव समझते हैं। शत्रुता हमारे जीवन की बाधा है, रुकावट है। शत्रु तो रोकता है, परन्तु शत्रुता का भाव मनुष्य के आन्तरिक गुणों में ह्रास उत्पन्न करता है। इसे दूर करने के लिये मनुष्य को शत्रुता के भाव को भी पराजित करना पड़ता है। इसके लिये व्यक्ति को अपने अन्दर दिव्य भाव उत्पन्न करने पड़ते हैं, दिव्य भाव के बिना मनुष्य शत्रुता के भावों को दूर नहीं कर पाता। इस मन्त्र के शब्द कह रहे हैं- असपत्ना किला भुवम्। मैं शत्रु मठों से रहित हो गई हूँ। इन शत्रुओं से रहित होने के क्रम में मैंने अपने अन्दर की शत्रुता भी समाप्त कर दी है, शत्रु का समाप्त करना, क्रिया का बाहरी प्रभाव है, परन्तु शत्रुता समाप्त करना अन्दर की विजय का परिणाम है।

मनुष्य बाहर के शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते समय वह केवल बाहर ही युद्ध नहीं कर रहा होता है, अपितु उसे अपने अन्दर शत्रु के लिये क्रोध उत्पन्न करना पड़ता है, वीरता का भाव उत्पन्न करना पड़ता है, सामने शत्रु को देखकर उसे भयभीत करने के लिये उसे काल के समान साक्षात् विकराल बनना पड़ता है। बाहर के शत्रु को तो हम पराजित कर लेते हैं, परन्तु शत्रुता के भाव को पराजित करना, उसे निकालना, देवों की सहायता के बिना नहीं होता। जब हम देवों की सहायता लेते हैं, अपने अन्दर दिव्य भाव उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं, तब हमारे अन्दर से शत्रुता का भाव समाप्त होता है।

परमेश्वर सभी शत्रुओं को समाप्त कर देता है, परन्तु उसके अन्दर कभी शत्रुता का भाव नहीं आता, इसका कारण है- उसका भाव क्रोध का भाव नहीं है, उसका भाव मन्यु का भाव है। मन्यु क्रोध से भिन्न जैसे माता अपने शिशु पर अपने बालक पर क्रोध करती है, परन्तु वह क्रोध द्वेष मूलक नहीं होता, द्वेष मूलक क्रोध में शत्रुता का भाव होता है, जब की मन्यु माता का गुरु का क्रोध है। इसीलिये हम उसे सहनशील कहते हैं, सहोदगीन कहते हैं, सहनशीलता में विरोध को, शत्रुता को सहन करना आता है। सहनशीलता शत्रुता में जो अन्तर है, वह सामर्थ्य का अन्तर है। सहन करने वाले या विरोध या शत्रुता करने वाले के सामर्थ्य को कम देखता है, उसकी परवाह करने योग्य भी नहीं समझता। उसे कभी अनुकूल करने योग्य मानता है। जबकि विरोध शत्रु को सीमा का उल्लंघन करने से रोकने का प्रयास है। उसके सामर्थ्य को अधिक बढ़ने से रोकना चाहता है। मनुष्य को अधिक सामर्थ्य के लिये परमेश्वर की सहायता की आवश्यकता होती है। शत्रु पर विजय पाकर शत्रुता के भाव को भी हृदय से निकालने के लिये देवों की दिव्यशक्ति की आवश्यकता होती है। अन्यथा शत्रुओं पर विजय का अहंकार मन से शत्रुता के भाव को निकलने नहीं देता। केनोपनिषद् में कथा आती है- देवताओं ने देवासुर संग्राम में अपनी विजय को अपना सामर्थ्य और अपनी महत्ता समझ लिया। ईश्वर ने समझाया- यह देवत्व से दूर होने का मार्ग है। देवत्व का मार्ग तो उस परमेश्वर की शक्ति को स्वीकार करना है, हमें उस सर्वशक्तिमान को अनुभव करना चाहिये। संसार की शक्तियाँ उसी दिव्य शक्ति से कार्य करती है। देवताओं ने अपरीचित यक्ष को जानने के लिये अग्नि देवता को यक्ष के पास भेजा था, यक्ष ने पूछा- तुम कौन हो? अग्नि ने कहा- मैं अग्नि और जातवेदा हूँ। मेरे में संसार की समस्त वस्तुओं को जलाकर भस्म करने की शक्ति है। यक्ष ने उसके सामने एक तिनका रखकर कहा- इसको जला दो। अग्नि अपने पूरे सामर्थ्य से भी जला न सका। देवताओं ने वायु को कहा, वायु यक्ष के पास पहुँचा। यक्ष ने पूछा- तुम्हारा क्या सामर्थ्य है? वायु ने कहा- जो कुछ इस संसार में है, मैं उसे उड़ा सकता हूँ। यक्ष ने तिनका उसके सामने रखा, उस तिनके को वायु पूरे सामर्थ्य से भी नहीं उड़ा सका। तब आत्मा ने यक्ष को जानने-समझाने का प्रयास किया। बुद्धि से समझ में आया- संसार के सारे सामर्थ्य उस परमेश्वर के हैं, उसके बिना संसार का सामर्थ्य कुछ काम नहीं आता। अतः इस मन्त्र में कहा गया है- देवताओं ने यह सामर्थ्य मुझे दिया है कि मेरे शत्रु और मेरे अन्दर की शत्रुता समाप्त हो गई।

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप -2

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

पिछले अंक का शेष भाग….

लोग एक तर्क रखते हैं- अमुक व्यक्ति के अमुक स्थान पर जाने से, पूजा करने से, स्मरण से उसकी इच्छा पूरी हो गई। यह सुनते ही सभी इच्छा पूर्ति चाहने वाले लोगों की दौड़ उसी ओर प्रारम्भ हो जाती है। यहाँ विचारणीय है कि यदि स्थान विशेष में, किसी की इच्छा पूरी करने का सामर्थ्य है तो वहाँ जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा पूरी होनी चाहिए। इच्छापूर्ति के साथ कोई शर्त या योग्यता निश्चित हो तो उस योग्यता वाले लोगों की इच्छा तो अवश्य पूरी होनी चाहिए, परन्तु लाखों लोग जहाँ जाते हैं, वहाँ कठिनता से हजारों की इच्छा पूर्ण होती है। फिर शेष की इच्छा पूरी क्यों नहीं हुई? यहाँ पर एक प्रश्न पूछा जाता है यदि सबकी इच्छा पूरी नहीं होती तो हर वर्ष भक्तों की संख्या क्यों बढ़ जाती है? इसका उत्तर है कि जिनकी इच्छा पूरी होती है, उनका प्रचार होता है, वे अगली बार अधिक संख्या में एकत्रित होकर देवता के दर्शन करने जाते हैं। इसके विपरीत जिनकी मनोकामना पूर्ण नहीं होती, वे शान्त होकर बैठ जाते हैं। अब प्रश्न उठता है कि जिनकी इच्छा पूरी हुई, वह कैसे पूरी हो गई, यदि देवता कुछ करता नहीं है? इसका उत्तर है कि लोगों की इच्छाएँ सामान्य और सांसारिक होती हैं। जाने वाले लोगों में कुछ की पूरी हो जाती हैं, कुछ की नहीं। यह बात किसी देवता के पास न जाने पर भी पूर्ण होती है, परन्तु जिसकी इच्छा पूरी हो गई वह समझता है, देवता ने उसकी इच्छा पूरी की है। जिसकी इच्छा पूरी नहीं हुई, वह मानता है, देवता उससे रुष्ट है।

वस्तुतः देवता इच्छा पूरी करने का सामर्थ्य रखते तो यह सामर्थ्य सबके पास है या एक के पास? यदि एक देवता के पास यह हो तो दूसरे के पास वह सामर्थ्य नहीं होना चाहिए। मन्दिर में हिन्दू की इच्छा पूरी होती है, पीर दरगाह में मुसलमान की, गुरुद्वारे में सिक्ख की। फिर तो सभी में इच्छापूर्ति का सामर्थ्य हो जाता, परन्तु ऐसा है नहीं। मनुष्य जिस वस्तु, व्यक्ति, स्थान में सामर्थ्य मान लेता है, वही देवता उस भक्त के लिए इच्छापूर्ति का काल्पनिक कारण बन जाता है।

मूर्ति पूजा चलने का एक और कारण है मूर्ति पूजा एक व्यापार है। इसमें हजारों-लाखों लोगों को व्यवसाय मिला है, अतः इसे कोई छोड़ना नहीं चाहता। दूसरे किसी व्यापार में पूँजी लगती है, श्रम लगता है, जिम्मेदारी होती है, परन्तु मूर्ति पूजा के व्यापार में मालिक को कुछ नहीं मिलता, सेवक सब कुछ का अधिकारी बन जाता है। एक मन्दिर को बनाने में कुछ भी नहीं लगता या कितना भी लग सकता है- यह मनुष्य की इच्छा पर निर्भर करता है। एक पत्थर रखकर भी कार्य चलाया जा सकता है, उसमें देवता को कुछ भी नहीं मिलता। मिली हुई सारी धन-सामग्री पुजारी व मन्दिर संचालकों की होती है। इच्छा पूर्ति की भावना से देवता पर प्रसाद चढ़ाने वाला इच्छापूर्ण न होने की दशा में पुजारी से कोई प्रश्न नहीं कर सकता। इसमें उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं होती। मन्दिर का देवता वस्तु का उपयोग नहीं करता, इसलिए उसकी एक सामग्री एक दिन में सैकड़ों बार भेंट चढ़ती है। इससे अधिक लाभदायक व्यवसाय और कौन-सा हो सकता है? जो व्यक्ति इस व्यवसाय में लगा है, वह इस लाभ को क्यों छोड़ना चाहेगा?

मूर्तिपूजा दोनों के लिए लाभदायक है, करने वाले के लिए भी और कराने वाले के लिए भी। करने वाला मूर्ति की पूजा भय या प्रलोभन वशात् करता है, अतः मूर्ति उसको भय से मुक्त करती है और यही उसकी इच्छाओं को पूर्ण भी करती है। यह एक मानसिकता ही है या मनोवैज्ञानिक परिस्थिति है। दोनों स्थितियों में मन्दिर चलाने वाले को लाभ होता है।

ईश्वर को जानने के भी दो साधन हैं। विद्वान् लोग और शास्त्र ईश्वर के सिद्धान्त पक्ष को बताते हैं, फिर व्यवहार से उसका प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

जो लोग कहते हैं ईश्वर को देखना है, देखेंगे तो ही स्वीकार करेंगे, उनसे एक प्रश्न किया जा सकता है। क्या कोई केवल देखने पर ही उस वस्तु को मानता है? जो वस्तु दिखाई नहीं देती, क्या उसे स्वीकार नहीं करता? प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि भूख,प्यास, गर्मी, सर्दी, सुख-दुःख, पीड़ा, हर्ष कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे आँखों से देखा जा सके। संसार में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसने इनको देखा हो, परन्तु सभी इनका अनुभव करते हैं, अतः यह कथन कि दिखने वाली वस्तु को ही स्वीकर करते हैं न दिखने वाली को नहीं- यह कथन मिथ्या सिद्ध हो जाता है। ज्ञानेन्द्रियों से जो वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे भौतिक होती हैं। इन्द्रियाँ भौतिक हैं, अतः अपने समान भूतों को वे पहचानती हैं। आँख अग्नि का स्वरूप है, आँख से रूप जाना जाता है। गन्ध पृथ्वी का गुण है, अतः नासिका से पृथ्वी तत्त्व का बोध होता है। रस जल का गुण है, अतः रसना से रस का ज्ञान होता है। स्पर्श वायु का गुण है, अतः त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होता है। पाँचों वस्तुओं को जानने के लिए पाँच इन्द्रियाँ कार्य करती हैं। पाँच इन्द्रियों से पाँच भूतों को जाना जा सकता है।

इन्द्रियाँ भौतिक हैं, अतः भौतिक पदार्थों को जानने का इनमें सामर्थ्य है, परन्तु इनके जानने का सामर्थ्य उनका अपना है, यह गोलक का नहीं है। यदि इनमें जानने का सामर्थ्य होता तो मरने के पश्चात् भी आँख देखती, परन्तु ऐसा नहीं होता। इसके विपरीत आँख एक मरे हुए व्यक्ति के चेहरे से निकल कर जीवित व्यक्ति में लगा दी जाती है तो वही आँख देखने लगती है। इन भौतिक इन्द्रियों से भौतिक पदार्थ जाने जाते हैं, परन्तु दोनों भौतिक पदार्थ आँख और वस्तु विद्यमान होने पर भी ज्ञान का अभाव होना सर्वत्र परिलक्षित होता है, अतः ज्ञान भूतों का गुण नहीं है, अन्यथा भौतिक पदार्थों में अवश्य विद्यमान होता। इसी प्रकार चेतन की इच्छापूर्वक क्रिया भौतिक पदार्थों में दिखाई देती है, पर वह क्रिया भौतिक वस्तुओं का धर्म नहीं है, अन्यथा मृतक के शरीर में जीवित अवस्था में होने वाली क्रियाएँ पाई जातीं, जबकि इसके विपरीत जड़ पदार्थ में होने वाली क्रियाएँ सड़ना, गलना, सूखना आदि प्रारम्भ हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त कोई मानता है कि चेतन प्राणी, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि जो दिखाई देते हैं, इन सबका केवल शरीर दिखाई देता है, इनके अन्दर विद्यमान जीवात्मा नहीं, अतः आत्मा नहीं होती। इसका उत्तर है- कोई भी अपनी या किसी की भी आत्मा को अपनी स्थूल आँखों से नहीं देख सकता, वह केवल अनुमान कर सकता है। मनुष्य जब शरीर में विद्यमान आत्मा को शरीर में अनुभव करता है, उस समय मनुष्य से पूछें- क्यों भाई, अपने माता-पिता आदि को देखा है? तो सामान्य रूप से शरीर को देखकर वह कहता है, हाँ देखा है। परन्तु वही व्यक्ति उस मनुष्य के मर जाने पर कहता है- मेरे माता-पिता मर गये। उससे पूछो- फिर यह शरीर कौन है? तो वह कहता है- वह चेतन इस शरीर में रहता था, तभी तक यह मेरा पिता था, उसके चले जाने पर इससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। इससे निराकार जीवात्मा का बोध होता है। शरीर में प्रारम्भ से शरीर से भिन्न एक चेतन रहता है, इसका हमें कैसे बोध होता है? शरीर में उसके होने का बोध शरीर के प्रत्यक्ष होने से नहीं हो सकता। शरीर और चेतना साथ-साथ हैं, परन्तु शरीर चेतना के बिना न क्रिया कर सकता है, न स्थिर रह सकता है। शरीर से चेतना के पृथक् होते ही शरीर नष्ट होने लगता है। इस प्रकार किसी के होने पर किसी बात का होना और किसी के न होने पर किसी बात का न होना ही उस पदार्थ के अस्तित्व का प्रमाण है। जीवन के होने पर शरीर में क्रिया का होना और जीवन के समाप्त हो जाने पर उस प्रकार की क्रियाओं का समाप्त हो जाना, जीवन का शरीर से भिन्न होना सिद्ध करता है। इस प्रमाण से शरीर में जीव के होने पर घटित होने वाली क्रियाएँ उसके द्वारा हो रही हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वह जीवात्मा ही उन क्रियाओं का कर्त्ता है।

शरीर ही जीवन और जड़ की भिन्नता को प्रमाणित करता है। शरीर का बनना, उसका जीवित रहना, शरीर का घटना-बढ़ना, शरीर के द्वारा क्रियाओं का होना शरीर से भिन्न जीवात्मा के होने का प्रमाण है। इसी प्रकार भौतिक पदार्थ जड़ हैं, परन्तु चेतन के संयोग से उनमें क्रिया दिखाई देती है। इन सब भौतिक पदार्थों में क्रिया का अभाव होने से ये स्वयं कुछ नहीं कर सकते। जब जड़ होने से ये भौतिक पदार्थ पृथक्-पृथक् कोई क्रिया करने में समर्थ नहीं हैं, अतः इन सब पदार्थो का संयोग भी किसी क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकता और अपने से भिन्न चैतन्य को उत्पन्न करने का सामर्थ्य भी इनमें नहीं हो सकता।

शरीर का बने रहना, सक्रिय होना चेतना के होने का लक्षण है। अन्य कोई भी प्रकार चेतना के जानने-पहचानने का हो नहीं सकता। बहुत सारे शरीरों में यह प्रक्रिया घटते, बढ़ते, देखते हैं, अतः शरीर से भिन्न आत्मा की पहचान कर लेते हैं। यह पहचान ईश्वर के साथ नहीं कर पाते, इसके दो कारण हैं। प्रथम- वह एक है, अतः उस जैसा दिखाकर उसे नहीं बताया जा सकता। बृहदारण्यक उपनिषद् में महर्षि याज्ञवल्क्य से ईश्वर का स्वरूप पूछते हुए कहा है- तुम ईश्वर को जानते हो तो बताओ, वह कहाँ है? महर्षि ने बताया- संसार में जो कुछ हो रहा है, उससे ईश्वर के होने का पता चलता है। ऋषि कहते हैं- यह कोई उत्तर नहीं है जो दूध देती है वह गाय होती है, जो सवारी कराता है वह घोड़ा होता है- यह कथन किसी के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त नहीं है। हमें तो प्रत्यक्ष बताओ कि यह ईश्वर है तो याज्ञवल्क्य उत्तर देते हैं- उसे इदम् इत्थम् नहीं बताया जा सकता, क्योंकि वह प्रत्यक्ष नहीं है। दूसरा उसकी तुलना नहीं हो सकती, क्योंकि कोई उस जैसा दूसरा नहीं है, अतः जो भी उससे भिन्न है, उसे इंगित करके यह बताया जा सकता है कि यह ईश्वर नहीं है। इसलिए उपनिषद्कार एक प्रसिद्ध शब्द का प्रयोग करते हैं- नेति, नेति, वह ऐसा नहीं है। ईश्वर  के स्वरूप को समझने के लिए यह नकारात्मक प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।

लोग कहते हैं- ईश्वर को कैसे जानें? किसी भी वस्तु के जानने के क्या साधन हैं? यदि वस्तु उपलब्ध है तो हम उसे प्रत्यक्ष कर लेते हैं, यदि प्रत्यक्ष नहीं है तो उपायों से प्रत्यक्ष कर लेते हैं। प्रथम शब्दों से जानते हैं, फिर व्यवहार से। इसको समझने के लिए विज्ञान के उदाहरण से समझा जा सकता है। प्रथम हम सिद्धान्त को कक्षा में समझते हैं, फिर प्रयोगशाला में उसका साक्षात् करते हैं।

आवश्यकता पर वस्तु की प्राप्ति न हो तो उसका होना व्यर्थ हो जायेगा। संसार में कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं है, फिर ईश्वर कैसे व्यर्थ हो सकता है?

आवश्यक वस्तुओं में विकल्प नहीं होता। जैसे भूख है तो भोजन मिले या न मिले- यह विकल्प नहीं चलेगा। भूख है तो भोजन मिलना ही चाहिए। इसी प्रकार संसार में दुःख है तो दूर होना ही चाहिए। संसार की वस्तुओं से दुःख दूर नहीं होता, संसार की वस्तुएँ भौतिक हैं, वे शरीर के दुःखों को तो दूर कर सकती हैं, क्योंकि शरीर भी भौतिक है, परन्तु दुःख का अनुभव जीवात्मा करता है। उसका दुःख आत्मा के न्यून सामर्थ्य को दूर करने से मिटेगा। जैसे जड़ वस्तुएँ मिलकर जड़ के सामर्थ्य को बढ़ा देती हैं, वैसे चेतन का आश्रय चेतन के सामर्थ्य को बढ़ा देता है, अतः चेतन को चेतन की प्राप्ति करनी होगी। दुःख को दूर करने के लिए ईश्वर का मानना एक अनिवार्यता है। एक और प्रश्न हमारे मन में उत्पन्न हो सकता है, वह यह कि ईश्वर को एक मानें या अनेक मानें? अनेक मानने में हमें प्रतीत होता है, जैसे अनेक होना अधिकता का द्योतक है, जैसे एक से अधिक दो या तीन होते हैं, परन्तु एक से अधिक संख्या वास्तव में अपूर्णता की सूचक है। जो एक होगा, वही पूर्ण होगा। सम्पूर्णता ही एकत्व का आधार होता है। जब ईश्वर अनेक होंगे तो बड़े-छोटे होंगे, एक जगह होंगे तो दूसरी जगह पर नहीं होंगे, जो एक कर सकता होगा वह दूसरा नहीं कर सकता होगा। ईश्वरत्व की सम्भावना को दो में बाँट नहीं सकते, अतः ईश्वर पूर्ण व एक ही होगा।

जब ईश्वर एक है और पूर्ण है, तब वह एक स्थान पर हो दूसरे स्थान पर न हो, ऐसा कैसा सम्भव है? एक स्थान पर होकर अन्य स्थान पर न हो तो उसमें अपूर्णता होगी। इस तरह ईश्वर का एक होना पूर्ण होना, सर्वत्र होना, ईश्वर होने की शर्त है।

ईश्वर के ईश्वरत्व का जो अनिवार्य गुण है, वह ईश्वर का सर्वज्ञ होना है। ज्ञान का सम्बन्ध उपस्थिति के बिना अधूरा है, जो जहाँ होता है, वह ही वहाँ के विषय में जान सकता है। जो जहाँ पर नहीं रहता, वह वहाँ के विषय में नहीं जान सकता। जानने के लिए होना अनिवार्य होने से वह सर्वव्यापक होगा। जो सर्वव्यापक होगा, वह सर्वज्ञ होगा। जो सर्वज्ञ होगा, वही सर्वशक्तिमान् होगा। ईश्वर सब जानने वाला होने से सर्वव्यापक सर्वत्र रहने वाला है, अतः वही सर्वसामर्थ्य से सम्पन्न होने से सर्वशक्तिमान् होगा।

अब एक प्रश्न रहता है। ईश्वर सर्वव्यापक है, सर्वव्यापक होने से सर्वज्ञ है और सर्वज्ञ होने के कारण वह सर्वशक्तिमान् है। ऐसे ईश्वर को साकार होना योग्य है या निराकार होना योग्य है? साकार मानना सबसे सुविधाजनक है। प्रथम प्रश्न है- साकार होना एक परिस्थिति है। स्थूल भूत साकार हैं, परन्तु सूक्ष्म अवस्था में निराकार भी हैं। साकारता निराकारता पदार्थों में एक परिवर्तनशील अवस्था है। यह परिवर्तनशीलता, व्यवस्था की अपेक्षा से है। संसार का निर्माण करते हुए सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ा जाता है।

संसार अनित्य है, अतः उसमें परिवर्तन सम्भव है। परिवर्तन अनित्यता का ही दूसरा नाम है। एक जैसा रहना नित्यता है, बदलते रहना अनित्यता है। संसार बदलता रहता है, इसी कारण अनित्य है। जो नित्य है, वह अपरिवर्तनीय है। प्रकृति भी मूलरूप में नित्य है, अतः प्रवाह से अनित्य होने पर भी स्वरूप से वह नित्य है। इस प्रकार ईश्वर का साकार होना सम्भव नहीं, वह साकार होते ही अनित्य हो जायेगा, क्योंकि संसार में जितनी भी साकार वस्तुएँ हैं वे सब अनित्य हैं। ईश्वर पूर्ण, एक और नित्य होने से साकार नहीं हो सकता, अतः निराकार है।

एक और प्रश्न ईश्वर के सम्बन्ध में किया जाता है जीवात्मा को ही ईश्वर क्यों न मान लिया जाए? प्रथम तो जीवात्मा की अनेकता उसकी अपूर्णता की पहचान है। फिर संसार में कुछ कार्य मनुष्य के द्वारा किये जाते हैं, परन्तु उन्हीं कार्यों का बड़ा भाग मनुष्य के द्वारा किया जाना सम्भव नहीं है, तब हमारे करने से जितना हो रहा है, उसका शेष कौन कर रहा है? जो कर रहा है, वह हमारी तरह होने वाली वस्तु से पृथक् है, हमसे अधिक सामर्थ्यवान् है और हमारा सहायक है।

ईश्वर के अस्तित्व के लिए शास्त्र एक और तर्क देता है। संसार में कोई वस्तु है तो उसका उपयोग अवश्य होता है। संसार में किसी समस्या का अनुभव कोई व्यक्ति करता है तो उसका समाधान भी इसी संसार में होना चाहिए।१० भूख है तो समाधान के रूप में भोजन है। प्यास है तो उसका समाधान पानी है। ऐसे ही रोग-शोक, गर्मी-सर्दी यदि कष्ट हैं तो संसार में इन कष्टों का उपाय भी निश्चित होगा। इसी आधार पर ईश्वर है तो हमारी किसी समस्या का समाधान भी उससे होना चाहिए। इसका एक सरल उपाय है। जब कोई समस्या हमारे सामने आती है तो उसके समाधान का उपाय भी हमें स्मरण हो जाता है। जैसे भूख में भोजन का, फिर किस परिस्थिति में व्यक्ति ईश्वर का स्मरण करता है, वह उसका समाधान है। मनुष्य को दुःख में ईश्वर का स्मरण आता है, वही हमारे दुःखों के समाधान का साधन है।११

मनुष्य का अस्तित्व उसके शरीर से प्रतीत होता है। उसका सुख-दुःख, हानि-लाभ शरीर के बिना सम्भव नहीं, परन्तु यह शरीर मनुष्य ने अपनी इच्छा से प्राप्त नहीं किया है। यह एक व्यवस्था से प्राप्त है, कोई व्यवस्थापक है तथा उसकी व्यवस्था में प्राणियों का बड़ा स्थान है, उसे ही लोग ईश्वर कहते हैं। जैसे मनुष्य का जन्म उसके हाथ में नहीं, उसी प्रकार उसका जीवन भी अधिकांश में उसके वश में नहीं होता। मृत्यु तो उसके वश में है ही नहीं। यही परिस्थिति विशाल रूप में देखने पर संसार के निर्माण, संचालन और विनाश की भी है। जब इतना सब हो रहा है, मनुष्य की अपनी इच्छा से भी नहीं हो रहा है, जीवन के सुख-दुःख की व्यवस्था में जहाँ हमारी इच्छा काम नहीं आती, वहाँ जिसकी नियमावली व व्यवस्था काम करती है, उसे ही ईश्वर कहते हैं।

कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध विद्यमान ज्ञान से है, अतः ज्ञान चेतन का धर्म है और हमारे पास ज्ञान है, हमारी अल्पशक्ति के कारण वह पूर्ण ज्ञान हमारे पास नहीं है। अतिरिक्त ज्ञान जो भी इस संसार में मनुष्य के लिए आवश्यक है, वह उसी से प्राप्त हो सकता है। जो ज्ञान का स्रोत है, वही ईश्वर कहलाता है।

इसी भाँति ईश्वर के बोध कराने वाले दो शास्त्र हैं। ये वेद के व्याख्यान हैं- एक दर्शन और दूसरे उपनिषद्। एक ईश्वर की सत्ता को अनुभव कराते हैं, दूसरे में बुद्धि से ही उसका समाधान करते हैं। इसके लिए युक्ति, प्रमाण, उदाहरण, तर्क आदि का सहारा लेते हैं, परन्तु उपनिषद् की दृष्टि अनुभव को बाँटने की है। उसको युक्ति प्रमाणों से बहुत नहीं समझा जा सकता, उसे अनुभव करने वाला सहज स्वीकार कर सकता है, अतः ईश्वर अनुभव का विषय होने पर भी सिद्धान्त से निश्चय किये बिना उसका अनुभव करना सरल नहीं है। ईश्वर ज्ञान के भी दो पक्ष हैं- सैद्धान्तिक और प्रायोगिक। जिसे मनु के शब्दों में इस प्रकार समझा जा सकता है-

स्वाध्याय के द्वारा योग को सिद्ध किया जाता है। योग के प्रयोग से स्वाध्याय की सहायता प्रमाणित होती है। स्वाध्याय और योग साधना से परमात्मा की प्राप्ति होती है, साधक के हृदय में परमात्मा का प्रकाश होता है-

स्वाध्यायद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत्।

स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते।।

टिप्पणी

१. कि कारणं ब्रह्म – श्वेताश्वतर

२. कालः स्वभावो – श्वेताश्वतर

३. ते ध्यान – श्वेताश्वतर

४. इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारी

व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्। – न्यायदर्शन

५. पणव्यवहारे स्तुतौ च। -धातुपाठ

६. एतदालम्बन श्रेष्ठं, एतदालम्बनं परम्।

एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते। – कठोपनिषद्

७. नेति नेति- बृहदारण्यक्

८. तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्। -योगदर्शन

९. स पर्यगात् – यजुर्वेद ४०

१०. दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे सापार्थाचेन्नैकन्तात्यन्ततोऽभावात्। – सांख्यकारिका

११. परिणामताप- योगदर्शन

– डॉ. धर्मवीर

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता-

स्तुता मया वरदा वेदमाता-31

समजैषमिमाहं सपत्नीरभि भूवरीऋक्. 10/159/6

घर को सफलतापूर्वक चलाने के लिये मनुष्य में आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। आत्मविश्वास योग्यता और सामर्थ्य से उत्पन्न होता है। आचार्य चाणक्य कहते हैं- मनुष्य को अपने अन्दर आत्मविश्वास उत्पन्न करने के लिये ज्ञानवान बनना चाहिए। ज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, परन्तु ज्ञान का प्रारमभिक भाग सब प्राप्त कर सकते हैं और वह सबके लिये उपयोगी है। सामान्य ज्ञान को चार भागों में शास्त्रकारों ने विभक्त किया, जिसे आन्विक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति कहा गया है। ये चारों विशेषज्ञता के कारण चार वर्णों की योग्यता का आधार बनती हैं। प्रत्येक व्यक्ति को कम या अधिक रूप में इनकी आवश्यकता होती ही है।

ये योग्यताएँ सबके लिये क्यों और कैसे आवश्यक होती हैं, इसको समझने के लिये शास्त्र के वचनों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। छोटी-से-छोटी इकाई में जो गुण होते हैं, बड़ी-से-बड़ी इकाई में भी वे ही गुण होते हैं, अन्तर उनकी मात्रा का होता है। सभी गुण सभी में होने पर उनकी मात्रा की भिन्नता से व्यक्ति के व्यक्तित्व का भेद होता है। एक व्यक्ति का बुद्धि पक्ष ब्राह्मण कहलाता है, सामर्थ्य पक्ष को क्षत्रिय कहते हैं, साधनों के संग्रह एवं वितरण पक्ष को, उपयोग को वैश्य नाम दिया गया है। वहीं इन सबको करने के लिये सहज प्राप्त सामर्थ्य को शूद्र कहा गया है। इनमें कोई भी अनावश्यक नहीं है, परन्तु उपार्जन की क्षमता के कारण इनके क्रम में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रत्व की कल्पना की गई है। प्रत्येक व्यक्ति चारों सामर्थ्य से युक्त होने पर ही पूर्णता को प्राप्त होता है। इनमें से कोई भी सामर्थ्य कम होने पर व्यक्ति अपूर्ण और असमर्थ हो जाता है।

इसी आधार पर मनुष्य शरीर को चार भागों में बाँटकर सिर को ब्राह्मण, भुजाओं को क्षत्रिय, मध्य भाग को वैश्य तथा पैरों को शूद्र कहा गया है। शरीर की इकाई के चार भाग किये गये हैं, उसी प्रकार समाज के चार भागों को मिलाकर एक शरीर बनता है। व्यक्ति, समाज एवं देश सभी एक व्यक्ति हैं और सभी के चार भाग हैं। इन्हीं को आन्विक्षिकी, त्रयी, वार्ता एवं दण्डनीति से सीखा जाता है। त्रयी से ज्ञानवान धर्माधर्म को जानता है, उसे ब्राह्मण कहा गया। दण्डनीति से न्याय-अन्याय को देखा जाता है, उसे क्षत्रिय कहते हैं। जहाँ हानि-लाभ को समझा जाता है, उसे वार्ता कहा गया है। इन तीनों का सामञ्जस्य आन्विक्षिकी के द्वारा आता है।

आन्विक्षिकी क्या है? इसके लिये कहा गया है- सांयं योगो लोकायतनं चेत्यान्विक्षिकी- सांय योग लोकायतन को समझना तीनों के लिये आवश्यक है। इस ज्ञान से ही व्यक्ति के अन्दर कार्य करने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है। जब विषम परिस्थिति और समस्या सामने आती है, तो मनुष्य निर्णय करने में असमर्थ होता है। मनुष्य स्वस्थ सहज होने पर ही ठीक निर्णय लेने में समर्थ होता है। जो मनुष्य धार्मिक होता है, आस्तिक होता है, वह समस्या के आने पर विचलित नहीं होता। विवेक करके निर्णय करना उसके लिये कठिन नहीं होता। मनुष्य केवल दुःख में ही विचलित होता हो, ऐसी बात नहीं। वह अधिक प्रसन्नता, प्राप्ति एवं उत्साह की दशा में उचित समय पर निर्णय नहीं ले पाता और भूल कर बैठता है। जो घोषणा मन्त्र में एक गृहिणी कर रही है, उसके पीछे उसकी योग्यता ही कारण है। निर्णय करने की योग्यता में जो बाधा आ सकती है, उनको जान कर दूर करने का सामर्थ्य नेता में होना चाहिए। गृहिणी घर की नेतृ है, उसने सभी शत्रुओं को जीत लिया है। यहाँ शत्रु मनुष्य या व्यक्ति हो, यह अनिवार्य नहीं। कार्य में आने वाली सारी बाधायें भी शत्रु ही हैं। किसी भी प्रकार की बाधा को समझ सकना और बिना विचलित हुए उसे दूर करने के उत्साह को इस मन्त्र में बताया गया है।

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

सम्पादकीय

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

ईश्वर के समबन्ध में विचार करते हुए इस विषयक सभी संभावनाओं पर विचार करना आवश्यक है। प्रथम समभावना है- ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है, अतः ईश्वर की सत्ता भी नहीं है। द्वितीय समभावना है- किसी भी वस्तु को ईश्वर मान लिया जा सकता है। तृतीय समभावना है- यदि वस्तु को ईश्वर मानने में असुविधा है तो चेतन मनुष्य को ईश्वर माना जा सकता है। ये प्रश्न सदा से मनुष्य के लिए विचारणीय रहे हैं और आज भी विचारणीय हैं। इन प्रश्नों के उत्तर भी हमें विभन्न विचारकों के साहित्य में मिलते हैं। इन विचारकों के तर्कों, युक्तियों और प्रमाणों पर विचार करके ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं।

प्रथम समभावनाजब-जब हमारे सामने कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं, तब-तब ईश्वर के मानने की आवश्यकता पड़ती है। यह संसार कैसे बना, इसकी बनाने की सामग्री क्या है, इसका बनाने वाला कौन है, संसार में जितने भी चेतन प्राणी दृष्टिगत हो रहे हैं वे कहाँ से प्रकट हो रहे हैं, संसार में उनकी सत्ता का आधार व औचित्य क्या है, जो आये हैं बने हैं वे कहाँ जा रहे हैं, उनका जाना उनकी अपनी इच्छा से है या वे इन सब परिस्थितियों के लिए किसी और के आधीन हैं, इन प्राणियों के जीवन में होनेवाले सुख-दुःख प्राणियों की अपनी इच्छा का परिणाम है या ये भी किसी से नियन्त्रित हैं?1

द्वितीय समभावनाइसके विकल्प में जितने समाधान हो सकते हैं, उनमें प्रथम है- संसार की दृश्यमान वस्तुएँ इस संसार का कारण हो सकती हैं। इसमें दो विकल्प हैं- वस्तु पृथक्-पृथक् रुप में कारण है या इन सबका मेल कारण है?

तृतीय समभावनायदि ये अपने-आप संसार को नहीं बना सकते तो संसार का चेतन दीखने वाला मनुष्य इस संसार का रचयिता हो सकता है। यदि वह समर्थ है तो उसके सुख-दुःख का वह स्वयं नियन्त्रक क्यों नहीं है? इस प्रकार का चिन्तन पुरातन काल से चला आ रहा है और आज भी ये प्रश्न वैसे ही हमारे सामने खड़े हैं।3

ईश्वर नहीं होने का पहला तर्क है- ईश्वर होता तो एक पदार्थ होता और पदार्थों को जाना जाता है, अतः ईश्वर को भी जान लिया जाता। मनुष्य के पास जानने के साधनों के रूप में उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, जिनसे संसार के सभी पदार्थ जाने जाते हैं।4 जानने के इन साधनों में से किसी भी साधन से ईश्वर की प्रतीति नहीं होती, अतः ईश्वर का अस्तित्व नहीं है।

जानने के साधनों में सबसे प्रमुख नेत्र हैं, अतः अधिकांश लोग ईश्वर को आँखों से देखना चाहते हैं। आँखों से देखने का अर्थ वस्तु के रूपवान् होने से लेते हैं। कोई वस्तु रूपवाली होने पर ही दिखाई दे सकती है, परन्तु संसार में केवल आँख से दिखाई देना मात्र किसी वस्तु के होने का आधार नहीं बनता। नेत्र से अतिरिक्त ज्ञानेन्द्रियों से जो वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे सभी रूप से रहित हैं। जैसे गन्ध, शबद आदि, इनका आँख से कोई समबन्ध नहीं है, परन्तु इन वस्तुओंका अस्तित्व हम सभी अनुभव करते हैं, अतः इनसे जानी जाने वाली वस्तुओं के लिए भी देखना शबद का प्रयोग करते हैं। देखो, शबद कितना मीठा है, गन्ध कितनी अच्छी है! देखो, स्पर्श कितना कोमल है, स्वाद कैसा मधुर है! इस प्रकार देखना शबद का अभिप्राय जानना होता है।

संसार की वस्तुओं को देखने से भी इन बातों की पुष्टि होती है। जो वस्तु साकार है, वह अनेक है। जो साकार है, वह एकदेशीय है। जो साकार है, वह निर्मित है, उसे किसी ने बनाया है, उसका कोई बनाने वाला है। जो बनी है, वह नाशवान् है। जो वस्तु बनी है, साकार है, वह जड़ भी है। इस प्रकार ईश्वर को साकार मानने में बहुत सारी बाधाएँ आती हैं, अतः ईश्वर एक और निराकार है।

इसी प्रकार हम मानते हैं, परमेश्वर खाता है, पीता है, सोता है, अतः परमेश्वर के साथ सभी कार्य जोड़ लिए जाते हैं, जैसे लड़कियाँ छोटी अवस्था में गुड़ियों का खेल करते हुए उन्हें खिलाती, पिलाती, सुलाती हैं। गुड़िया वास्तव में खाती नहीं। बच्ची जानती नहीं, परन्तु इसके मन में सन्देह तो है। लोग पूरे जीवन मूर्ति को खिलाकर आते हैं और उनके मन में सन्देह भी उत्पन्न नहीं होता, यह विचित्रता है।

एक और प्रश्न ईश्वर के समबन्ध में विचारणीय है। कहते हैंअजी, मानो तो पत्थर भी भगवान् है, न मानो तो पत्थर है। यहाँ समझने की बात यह है कि हम ईश्वर है, इसलिए मानते हैं या ईश्वर को मानते हैं, इसलिए वह है। पत्थर को भगवान् मानने की बात से तो लगता है- ईश्वर है नहीं, केवल हम मानते हैं, इसलिए है। मानने और होने में बड़ा अन्तर है। मानने पर केवल मानने वाले के लिए ही वह होता है, जो नहीं मानते उनके लिए वह नहीं हो सकता। इसके विपरीत होने पर सबके लिए मानने की बाध्यता है। उदाहरण के लिए इस बात को इस तरह समझा जा सकता है। एक व्यक्ति का एक पुत्र है, इसको पिता भी मानता है, पुत्र भी मानता है, दूसरे लोग भी मानते हैं। दूसरे व्यक्ति का पुत्र नहीं है, उसने किसी बालक को गोद लिया है, परन्तु वह उसे पुत्र मानता है, पुत्र भी उसे पिता मानता है, अन्य लोग भी वैसा ही स्वीकार करते हैं। एक मनुष्य किसी जानवर को बेटा कहता है, कुत्ते को बेटा कहता है, गाय को माता कहता है। माननेवाला व्यक्ति कहता है, कहता रहे, वह कुछ भी मानता रहे, परन्तु न प्राणी उसे अपना पिता मानता है, न अन्य लोग। इसी भाँति पत्थर को न तो दूसरा कोई भगवान् मानता है, न पत्थर स्वयं को भगवान कहता है। भूमि को हिन्दू माता कहकर नमन करता है, मुसलमान ऐसा करने से इन्कार कर देता है। जब हम किसी वस्तु को भगवान् मानते हैं, तब वह वस्तु भगवान् होती नहीं, हम केवल उसे मानते हैं। इसी कारण जो जिसको चाहे भगवान् मान सकता है और वह वस्तु उसके लिए भगवान् होती है। यही भगवान् के अनेक होने का कारण है। कोई स्थान को भगवान् मानता है, कोई पिण्ड को, कोई पहाड़ को, कोई पशु को, कोई पृथ्वी को, कोई पानी को, कोई पुस्तक को, कोई व्यक्ति को । ईश्वर है हम इसलिए नहीं मानते, अपितु मानते हैं इसलिए ईश्वर है।

वस्तु के ईश्वर मानने में एक बाधा और आती है, वह बाधा है-हम वस्तु को ईश्वर मानते हैं या उसमें विद्यमान रूप को? क्योंकि ईश्वर के दर्शनों की इच्छा से वस्तु में रूप को ही मुखय मानते हैं, अन्य गुणों का हमारे लिए बहुत महत्त्व नहीं होता। इस मान्यता में जो शंका है, वह यह कि यदि वस्तु को ईश्वर मानते हैं तो वस्तु मात्र ईश्वर होगी, तब यदि हमारा पत्थर भगवान् है तो ईसाई का, मुसलमान का या किसी और का पत्थर भी भगवान् ही होगा। यदि आकृति को भगवान् मानेंगे तो प्रश्न उठेगा- आकृति विशेष भगवान् है या आकृति सामान्य? आकृति सामान्य भगवान् मानने पर सभी आकृतियाँ भगवान् होंगी, हर आकृति भगवान् होंगी। यदि आकृति विशेष को भगवान् मानें तो व्यवहार में ऐसा नहीं पाया जाता, अनेक वस्तुएँ भगवान् के रूप में पूजी जाती हैं और अनेक आकृतियों के रूप में भगवान् देखा जाता है, अतः भगवान् है इसलिए नहीं मानते, अपितु मानते हैं इसलिए है।

मूर्ति पूजा करते समय एक और प्रश्न उपस्थित होता हैहम मूर्ति को भगवान् मानते हैं, उसके दर्शन करने के लिए मन्दिर में जाते हैं। आश्चर्य की बात है कि जिससे मिलने और जिसके दर्शन करने के लिए मन्दिर में जाते हैं, हम उसके सामने आँखें बन्द करके क्यों बैठते या खड़े होते हैं? यदि हम किसी से मिलने किसी के घर पर जायें और उसके सामने बैठकर आँख बन्द करके ‘बन्धु, आपके दर्शनों के लिए आया हूँ’ ऐसा कहें तो गृहस्वामी उस व्यक्ति को अवश्य ही मूर्ख कहेगा, परन्तु मूर्ति के सामने सदा हम आँखें बन्द करके बैठना पसन्द करते हैं तो यह और भी अनुचित है। जो मिल गया, उसका ध्यान नहीं किया जाता, ध्यान तो अज्ञात का किया जाता है। प्राप्त से तो व्यवहार किया जाता है।

मनुष्य जब भी परमेश्वर का ध्यान या विचार करता है तो दो कार्य उससे स्वाभाविक रूप से होते हैं- एक आँखों का बन्द करना और हाथों का जुड़ना। हाथों का जुड़ना स्तुति का प्रतीक है, हाथों से स्तुति की जाती है। संस्कृत में हाथ को पाणि कहते हैं। पाणि कहने का कारण है- इससे स्तुति और व्यवहार किया जाता है। आँख बन्द करना किसका द्योतक है? इसको समझने के लिए हमें जीवन के प्रारमभ को देखना होगा। जब बालक छोटा होता है, हम उसे संसार की वस्तुओं से परिचित कराते हैं। बालक धीरे-धीरे वस्तुओं को पहचानने लगता है। हम बार-बार वस्तु को दिखाकर उसका नाम पुकारते हैं। इस आवृत्ति से बालक वस्तु और नाम से सबन्ध स्थापित कर लेता है। फिर उसे वस्तु के दिखने पर नाम और नाम के सुनने पर वस्तु का बोध होता है। वह जब-जब भी नाम सुनता है, वस्तु की समभावित उपस्थिति की दिशा में देखता है। चूँकि ईश्वर नाम की भिन्न-भिन्न वस्तुओं से बालक का परिचय कराया गया होता है, अतः वह उन्हीं नाना पदार्थों को ईश्वर कहता, जानता और मानता है। ईश्वर के इस बाह्य परिचय के साथ प्रत्येक मनुष्य का ईश्वर के विषय में एक आन्तरिक परिचय होता है, जिसके कारण मनुष्य कहीं भी खड़ा हो चाहे मस्जिद में, मन्दिर में, चर्च में या गुरुद्वारे में, उसके मन में भगवान् के भाव आते ही उसके हाथ जुड़ जाते हैं  और उसकी आँखें बन्द हो जाती हैं, क्योंकि मनुष्य का आन्तरिक भाव कहता है कि ईश्वर का साक्षात्कार एक आन्तरिक प्रक्रिया है। उसे आन्तरिक दृष्टि से ही देखा जा सकता है, बाह्य चक्षुओं से नहीं। परमेश्वर का ध्यान आते ही हमारी दृष्टि अन्दर की ओर चली जाती है, अतः स्वाभाविक रूप से हमारी आँखें बन्द हो जाती हैं।

आगे की बात है कि यदि मूर्ति पूजा व्यर्थ है, असत्य है तो प्रश्न उठता है- मूर्ति पूजा चल क्यों रही है? चल ही नहीं रही, अपितु दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। लोग कहते हैं- इतनी बड़ी संखया में लोग मूर्ति पूजा कर रहे हैं वे सब गलत कैसे हो सकते हैं? प्रथम बात पर विचार करते हैं। दुनिया में कोई भी बात अथवा कोई क्रिया नितान्त मिथ्या शत-प्रतिशत हानि करनेवाली नहीं होती। पञ्चतन्त्र में कथा आती है अन्धे को मछली के स्थान पर उसे मारने के लिए साँप पकाकर देना चाहा। उस अन्धे को ही पक रहे साँप वाली कड़ाही चलाते रहने के लिए कह दिया, साँप के विषैले धुएँ से अन्धे को दिखने लग गया। उसने कुबड़े व्यक्ति को क्रोध में पीठ पर लात मारी तो वह व्यक्ति सीधा हो गया। यही हाल मूर्ति पूजा में भी है। दुःखी व्यक्ति को जो भी मिलता है, उसे बिना विचारे स्वीकार कर लेता है, उसी का सहारा ले लेता है, अतः जिसको मूर्ति का सहारा दे दिया जाता है, वह उसे पकड़े रहता है। व्यक्ति एक क्षण के लिए भी असहाय नहीं रहना चाहता, सत्य उसे मिलता नहीं, असत्य को भय के कारण छोड़ता नहीं । वैसे जो भी मूर्ति में सुख का अनुभव करता है, वह मूर्ति के उपासक की अपनी मनोदशा है, उसमें मूर्ति का कोई योगदान नहीं होता। मूर्ति जड़ है, अतः वह कोई सहायता नहीं कर सकती, परन्तु वहाँ का वातावरण और उपासक की मनःस्थिति उसे दुःखमय वातावरण से कुछ समय के लिए दूर ले जाती है। पुरानी परिस्थिति से निकलकर नई परिस्थिति में आने से मनुष्य का ध्यान बँटता है तथा कुछ समय के लिए वह तनाव से मुक्त हो जाता है।6

मनुष्य के साथ एक और बात भी उसे अपने पुरानेपन से दूर नहीं होने देती। मनुष्य को जीवन में जो विश्वास मान्यता, परमपरा, भोजन आदि पहले मिल जाता है, वह उसे सहज स्वीकार कर लेता है तथा उसे श्रेष्ठ मानता है, उसे बचाने का प्रयास भी करता है। कोई हिन्दू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई पौराणिक है उसे संस्कार, भोजन, मान्यता जैसी मिल जाती है, स्वाभाविक रूप से वह उन्हें स्वीकार कर लेता है। वह जल्दी से उसे नहीं छोड़ता। फिर प्रश्न उठता है- ऐसे व्यक्ति को बदलने का प्रयास क्यों करना चाहिए? मनुष्य बदल सकता है, यदि उसे प्राप्त से श्रेष्ठ विकल्प दिया जाए। मनुष्य स्वभाव से जहाँ है, यदि उसे उससे अच्छी वस्तु, उत्तम स्थिति, अधिक लाभ का अवसर मिले तो वह स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाता है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति को नये विचार अच्छे लगते हैं तो वह उन विचारों को स्वीकार कर लेता है। इसी कारण गुरुलोग, पैगमबर लोग अपने अनुयायी और भक्तजनों को किसी दूसरे की बात सुनने से रोकते हैं। मुस्लिम समुदाय इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वह किसी दूसरी बात को स्वीकार करना तो दूर, अपने पैगमबर से भिन्न बात को सुनना भी स्वीकार नहीं करता।

समाज में एक और तर्क है। संसार में अधिकांश लोग मूर्ति पूजा करते हैं और मूर्ति को ईश्वर मानते हैं। यह मान्यता नितान्त मिथ्या है कि संखया अधिक होने से कोई बात सत्य होती है। यदि ऐसा स्वीकार कर लिया जाए तो अनपढ़ और मूर्खों की संखया इस संसार में अधिक है और अधिक ही रहेगी, क्योंकि अनपढ़ उत्पन्न होते हैं, शिक्षित बनाये जाते हैं। जो वस्तु बनाई जाती है, वह स्वयं बनने वाली वस्तु से मात्रा व संखया में सदा न्यून होगी, अतः यह तर्क स्वीकार्य नहीं हो सकता। यदि एक गाँव में एक हजार लोग रहते हैं, नौ सौ निन्यानवे अनपढ़ हैं और एक शिक्षित है तो समाज में किसको अच्छा समझा जाएगा? सत्य और संखया में कोई तुलना नहीं की जा सकती।

शेष भाग अगले अंक में…..

स्तुता मया वरदा वेदमाता-30

स्तुता मया वरदा वेदमाता-30

उताहमस्मि संजयापत्यौ मे श्लोक उत्तमः।। 10/159/3

परिवार को सुखी और सफल बनाने के लिये मुखय व्यक्ति का योग्य और परिश्रमी होना आवश्यक है। मन्त्र में घर की अधिष्ठात्री देवी कहती है- जहाँ मेरे पुत्र शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले हैं? मेरी पुत्री तेजस्विनी होकर विराजमान है, वहाँ पर मैं स्वयं भी घर की धुरा हूँ। मैं संजया हूँ। संस्कृत में संजया स्थूणा खमभे को कहते हैं। जैसे घर की छत का भार खमभे के ऊपर टिका होता है, उसी प्रकार घर में मैं स्थूणा हूँ, समस्त उत्तरदायित्व मुझ पर ही हैं, इसीलिये मैं संजया हूँ।

हमारे परिवार की समस्या है कि एक ओर घर में पति-बच्चे हैं और साथ-साथ घर में बड़े वृद्ध लोग रहते हैं, उनकी सेवा सहायता का कार्य भी घर के उत्तरदायित्व में सममिलित होता है। आज जब महिलायें बहुपठित हो गई हैं, तब उन्हें भी लगता है कि उनकी अपनी योग्यता और ज्ञान का उपयोग होना चाहिए, इससे जहाँ समाज को लाभ होगा, वहीं घर की आय में वृद्धि होने से आर्थिक आधार भी प्राप्त होता है। धन कमाने वाले के अधिकार भी बढ़ जाते हैं। धन का कहाँ व्यय करना है, इसकी स्वतन्त्रता भी धन कमाने वाले को मिल जाती है। नौकरी (सेवा-कार्य) करने से अपने पुरुषार्थ का लाभ, आर्थिक उपलबधि से स्वावलमबन और स्वतन्त्रता की अनुभूति होती है। इस आकर्षण के चलते हर कोई धन कमाने की इच्छा रखता है।

गृहस्थ और परिवार में आर्थिक आधार की आवश्यकता होती है। यदि प्राथमिक आवश्यकता के लिये अर्थोपार्जन करना पड़े तो असुविधा और कष्ट उठाकर उसे करना ही पड़ता है। आवश्यकता की कोई सीमा रेखा नहीं बन सकती, अतः प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक धनोपार्जन के लिए प्रयत्न करता है। संकट तब उत्पन्न होता है, जब घर में सन्तान हो। सन्तान की प्रारमभिक स्थिति में आपके सामने दो परिस्थितियाँ होती हैं, आपको धन भी कमाना है, अपना स्थान भी समाज में बनाकर रखना है, दूसरी ओर अपने बच्चों का पालन-पोषण के साथ शिक्षा एवं संस्कार देने की व्यवस्था भी करनी है। दोनों का लाभ उठा सकना आज असमभव नहीं तो कठिन अवश्य होगा, इसको सन्तुलित करने में एक पक्ष के साथ अन्याय तो होगा ही। आप बाहर कार्य करते हैं, आपके बच्चे नौकरों के हाथों पलते हैं या पालनागृह में पलते हैं, जो माँ का और घर का विकल्प कभी नहीं बन सकते। एक की हानि तो आपको उठानी ही पड़ेगी।

घर में एक बार अतिथि, आने वाले सबन्धी की बात छोड़ भी दें तो घर के सदस्य के रोगी, असमर्थ होने की दशा में आपको अपने दायित्वों के विभाजन पर विचार तो करना ही पड़ेगा। आज वृद्ध माता-पिता को घर में रखना अपने सामाजिक, व्यावसायिक उत्तरदायित्व में बड़ी बाधा है, इसी कारण आजकल वृद्धाश्रम और सहायता सेवा केन्द्रों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। इन समस्याओं में प्राथमिकता के चुनाव में आजकल के युवा दमपती अपने को मुखय मानकर चलते हैं, परन्तु इसका परिणाम वृद्धावस्था में भोगना पड़ता है। वर्तमान व्यवस्था चिन्तन की प्रक्रिया है, परिणाम नहीं। यह व्यवस्था स्वीकार्य इसलिये नहीं हो सकती, क्योंकि इससे अगली पीढ़ी के निर्माण में त्रुटि हो रही है। वृद्धावस्था को प्राप्त पीढ़ी अपने को एकाकी और असहाय अवस्था में पाती है। आज के सन्दर्भों को बदला नहीं जा सकता, इतनी बड़ी हानि को सहन नहीं किया जा सकता है, निर्णय कर्त्ता को स्वयं करना है। यह स्वयं का निर्णय ही इस मन्त्र में निर्देशित है।

परिवार की अधिष्ठात्री की घोषणा है- मैं घर के कर्त्तव्यों का पालन करती हूँ और मेरे कार्य से मेरा पति मेरा प्रशंसक बन गया है। मेरा कार्य मेरे लिये अच्छा हो सकता है, परन्तु परिवार के सदस्यों में भी मेरे लिये प्रशंसा का भाव हो यह कार्य मुझे करना है। एक महिला का बच्चे के सामने एक प्राध्यापक, एक प्राचार्य, एक अधिकारी का रूप काम नहीं देगा, उसे तो बच्चे की माँ बनकर ही रहना होगा, तभी उसकी सार्थकता है। घर में माता, पिता, पति की उपस्थिति में वह अपनी समाज की भूमिका में नहीं आ सकती, उसे तो एक गृहिणी की भाँति सबकी सेवा-आवश्यकता की चिन्ता करनी होगी। इस परिस्थिति में यदि दोनों में से एक चुनाव करना पड़े तो घर को चुनना पड़ेगा, क्योंकि सबका अस्तित्व घर से जुड़ा है। पूरा घर उसे केन्द्र बिन्दु बना कर चल रहा है। बच्चों के निर्माण और आर्थिक लाभ में बच्चों के निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी, नहीं तो उत्पन्न समस्याओं का सामना करना होगा।

जब मुखिया अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करेगा, तो घर में सभी उसकी प्रशंसा करेंगे, उसका सहयोग करेंगे, प्रोत्साहन देंगे। त्याग के बिना प्राप्ति नहीं है, सेवा के बिना प्रशंसा नहीं मिलती, अतः वेद अधिष्ठात्री घोषणापूर्वक कह रही हूँ- मैं घर की धुरा है, सारे सदस्य मेरे प्रशंसक है, पति मुझ पर गर्व करता है।