Category Archives: Dr. Dharmveer Paropkarini Sabha Ajmer

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-37

आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रपः।

त्वं हि विश्व भेजजो देवानां दूत ईपसे।।

हम वायु को प्राण कहते हैं। वायु के साथ प्राण शबद का प्रयोग प्रायः देखा जाता है, वे प्राण वायु। वायु तो बिना प्राण के भी हो सकता है। वायु में प्राणप्रद तत्व हो तभी वायु, प्राण वायु होता है, प्राण को बढ़ाने वाले वायु की प्रार्थना की गई है। वायु शुद्ध पवित्र होना चाहिए। वायु को योगवाह कहा गया है। जैसे पदार्थों से वायु का संयोग होता है, वायु वैसा ही हो जाता है। मन्त्र में आने वाले वायु को श्वास के रूप में अन्दर जाने वाली वायु को भेषज का वहन करने वाला कहा गया है। निकलने वाले शरीर से बाहर जाने वाले वायु को रपः पाप अशुद्धियों को ले जाने वाला कहा है। इस प्रकार वायु एक माध्यम है, प्राण को प्राप्त कराने का और अशुद्धि मलिनता को दूर निकालने का।

वायु प्राकृतिक रूप से प्राणशक्ति से भरपूर होता है, जब हम खुले में श्वास लेते हैं, हमारे अंग का विस्तार होता है, शरीर के अंग खुलते हैं। इनमें गति करने का सामर्थ्य आ जाता है, उत्साह, प्रसन्नता आती है। जब प्रकृति के स्वच्छ वातावरण में मनुष्य जाता है, तो उसको उल्लास का अनुभव होता है। प्रकृति में जल और सूर्य की किरणें वायु को हर समय शुद्ध करती हैं। सूर्य के प्रकाश से वायु के अन्दर विद्यमान कृमि नष्ट हो जाते हैं। जल के संसर्ग से वायु उसके अन्दर की उष्णता और अशुद्धि को छोड़ देता है।

चिकित्सा विज्ञानियों का मत है कि कार्बन डाई ऑक्साइड गैस से युक्त वायु जब जल के संसर्ग में आती है, तो उसमें रासायनिक परिवर्तन होकर वायु की विषाक्तता कम हो जाती है। नीचे की गैस को जल ग्रहण करता है तथा जो गैस ऊपर की ओर जाती है, उससे वातावरण में उष्णता बढ़कर वनस्पतियों को पुष्ट करती है। इसी प्रकार हवन करते समय जो-जो पदार्थ हवन कुण्ड में डाले जाते हैं, उनको अग्नि विखण्डित कर सूक्ष्म कर देता है, जिससे हवन में डाली गई, वस्तु का प्रसार वायु मण्डल में दूर तक हो जाता है तथा उसका सामर्थ्य भी अधिक होता है। वायु को जहाँ सूर्य और जल शुद्ध कहते हैं, वहीं हवन के माध्यम से अग्नि  भी वायु की अशुद्धि को दूर करता है। विष कणों को रोगाणुओं को नष्ट करने की शक्ति अग्नि में ही होती है। अग्नि में भेदक गुण होता है, जिससे वस्तु कणों को भेदकर, उससे ऊर्जा को उत्पन्न करता है। इस प्रकार हवन द्वारा शुद्ध की गई वायु विश्व भेषज हो जाती है। जिस भी प्रकार की औषध अग्नि में डालेंगे, उसी गुण की वायु, उस रोग से मुक्त करने वाली बन जायेगी।

हवन में डाले जाने वाले पदार्थों में घृत भी विषनाशक है, अग्नि में रोगाणुओं को बड़ी संखया में नष्ट करता है। हवन सामग्री में कपूर गूगल भी रोग कृमियों को नष्ट करता है। यज्ञ की सुगन्ध और धूम शरीर के सीधे समपर्क में आकर शरीर के कोषों में से अशुद्धि को नष्ट कर उनमें ऊर्जा का संचार करते हैं। रक्त में हवन के धूम से सक्रियता बढ़ती है, जिससे रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता की शरीर में वृद्धि होती है, जिस प्रकार गूगल रोग कृमियों का नाश करता है, उसी प्रकार गिलोय, चिरायता, मधु आदि पदार्थ यज्ञ में डालने से रक्त शोधन होता है। मुनक्का, काजू, किशमिश आदि यज्ञ में डालने से पौष्टिकता आती है, शरीर में बल बढ़ता है।

इसलिये मन्त्र में कहा गया है कि यह वायु आता हुआ बल की वृद्धि करता है और जाता हुआ रोग को नष्ट करता है।

मन्त्र में इसी बात को बताने के लिये वायु के विशेषण के रूप में उसे विश्व भेषज कहा है। हमें जैसे रोगों की चिकित्सा करनी हो, उसी प्रकार की औषध यज्ञ की सामग्री में मिलानी चाहिए। मन्त्र में वायु के लिये देवों का दूत शबद का प्रयोग किया गया है, जैसे दूत स्वामी के सन्देश को दूर तक, दूसरे तक पहुँचाता है, उसी प्रकार वायु रोग नाशक सामर्थ्य को दूर तक पहुँचाता है। अतः दूतईय से कहा गया है कि जैसे देवताओं के दूत गतिशील होते हैं, उसी प्रकार वायु भी दिव्य गुणों का संचार मनुष्य में तीव्रता से करता है।

इस मन्त्र से हमें बोध होता है कि औषध का शीघ्र लाभ प्राप्त करने के लिये औषध को यज्ञ में डालना चाहिए। वायु को रोग विशेष के अनुसार औषध गुणों से युक्त करना उतित है तथा सामान्य रूप में पर्यावरण की शुद्धि के लिये यज्ञ में वायु शोधक पदार्थों का उपयोग करना चाहिए, जिससे स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक बना रहे।

मेरी अमेरिका यात्रा – डॉ. धर्मवीर

मेरी अमेरिका यात्रा

– डॉ. धर्मवीर

      पिछले अंक का शेष भाग…..

20 मार्च 2016 को रविवार था, नियमानुसार सत्संग में प्रथम पं. सूर्यकुमार जी ने यज्ञ कराया, श्रीमती श्रीवास्तव ने भजन गाये। फिर मेरा व्याखयान हुआ। आज का विषय था ‘आधुनिक पीढ़ी को वैदिक संस्कर कैसे दिये जायें?’। व्याखयान के बाद प्रश्नोत्तर हुए। आर्य समाज में विद्यालय चलता है, बच्चों के साथ होली का पर्व बहुत उत्साह के साथ मनाया गया।

भोजन के साथ कार्यक्रम समपन्न हुआ। कार्यक्रम में श्री मनीष गुलाटी जी नहीं आ पाये थे, उनका हालचाल पूछने उनके घर गये। पहले से स्वास्थ्य में सुधार था। श्री हरिश्चन्द्र जी के घर बैठकर अमेरिका आर्यसमाज के कार्य में कैसे प्रगति हो सकती है? क्या बाधायें हैं? आदि विषयों पर विचार विमर्श चलता रहा। रात्रि का भोजन श्री प्रवीण जी के घर था। वे पक्षाघात से पीड़ित हैं, कहीं आना-जाना समभव नहीं है, उनके घर जाकर भोजन किया। समाज के कार्यक्रम की बातें हुईं। रात्रि जसवीरसिंह जी के घर लौटकर विश्राम किया।

21 मार्च भोजन करके जसवीर जी के साथ नासा केन्द्र के लिये प्रस्थान किया। यह अमेरिका का अन्तरिक्ष अनुसन्धान केन्द्र है, इसकी शाखाएँ अनेक स्थानों पर है, पर कार्यालय ह्यूस्टन में है।

नासा जाकर पहले नासा का परिचय देने वाली एक फिल्म देखी, उसमें भेजे जाने वाले उपग्रहों के विषय में परिचय दिया गया था। फिर संग्रहालय में रखे हुये उपग्रह देखे, जो अन्तरिक्ष की यात्रा करके लौटे हैं। जनता उनके अन्दर जाकर उपग्रह कैसे काम करता है, देख सकती है। वहाँ से लौटते हुए डॉ. राजसिंह छिकारा जी के घर जाकर उनसे भेंट की, ये जूआँ सोनीपत के निवासी हैं। विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं, आपका परिचय सोनीपत यज्ञ समिति के समारोह के अवसर पर रणधीरसिंह जी ने दिया था, उन्होंने आपसे बात भी कराई थी। उनसे भेंट की, उनके यहाँ भोजन कर, भारत व वहाँ चल रहे आर्य समाज के कार्य की चर्चा की। वहाँ से लौटकर श्रीमती बेला जैन के घर गये, घर पर उनके पति आनन्द जैन और शेखर अग्रवाल व श्रीमती अग्रवाल भी मिले। श्रीमती बेला सभा के वरिष्ठ उपप्रधान शत्रुघ्न आर्य जी की पुत्री हैं तथा संरक्षक गजानन्द जी आर्य की भांजी हैं। मिलकर प्रसन्नता हुई तथा घर-परिवार की चर्चा हुई। उनका यहाँ आर्य समाज से समपर्क है।

वहाँ से लौटते हुए श्री अमृत बहन जी की छोटी बहन श्रीमती रजनी कोहली आर्य समाज के कार्यक्रम में मिली थी और उन्होंने घर आने का आग्रह किया था। उनके घर पहुँचे, घर पर उनके पति और पुत्र थे। बहन केन्या रहती हैं। ह्यूस्टन में उनका बेटा पढ़ता है। बेटे की आयुर्वेद और अध्यात्म में रुचि है। आयुर्वेद औषध वनस्पतियों के उत्पादन का उसका प्रयास है। बहन जी के यहाँ भोजन करके जसवीर जी के साथ घर लौट कर अगले दिन की यात्रा की सज्जा की। विश्राम किया।

22 मार्च आज सनफ्रान्सिस्को के लिये प्रस्थान किया। जसवीर जी आज कार्यालय के कार्य में व्यस्त थे, डॉ. हरिश्चन्द्र जी तथा डॉ. कविता जी आ गये। 8 बजे उनके साथ हवाई अड्डे के लिये निकले। मार्ग लबा था, समय आर्य समाज के प्रचार-प्रसार की चर्चा में निकला। जार्जबुश हवाई अड्डे पहुँचकर आपने सुरक्षा जाँच पूर्ण होने तक प्रतीक्षा की। जाँच पूर्ण होने की सूचना देने पर वे विदा हुए। साढ़े चार घण्टे की यात्रा कर साढ़े तीन बजे यान सनफ्रांसिस्को पहुँचा। अड्डे पर भास्कर और सुयशा दोनों आ गये थे। औपचारिकता करके हम सुयशा के घर सनीवेल पहुँच गये। यह क्षेत्र खाड़ी का क्षेत्र है, हरा-भरा होने के साथ सम तापमान वाला है, यहाँ अधिक गर्मी-सर्दी नहीं होती। यहाँ सभी सूचना तकनीकी के बड़े संस्थान कार्यरत हैं। सभी के मुखय कार्यालय इसी स्थान पर हैं। घर पर थोड़ा विश्राम कर सुयशा के साथ यहाँ के हिन्दू मन्दिर में जाना हुआ। इस मन्दिर की विशेषता है। इस क्षेत्र में रहने वाले भारतीय जितने देवी-देवता मानते हैं, सभी एक मन्दिर में स्थापित हैं, किसी भी देवता के लिये अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं। इस क्षेत्र में भारतीय बाजार हैं, जिसमें सभी प्रकार का भारतीय सामान मिल जाता है। लौट कर संगणक पर समाचार देखे, रात्रि विश्राम किया।

23 मार्च को सुयशा के साथ स्थानीय पुस्तकालय देखा। एक गाँव का पुस्तकालय भी ऐसा है, जैसा हमारे विश्वविद्यालयों में नहीं होता। आज डॉ. सोनी जी और श्री विश्रुत प्रधान प्रतिनिधि सभा अमेरिका से वार्ता हुई। दोनों का आग्रह था कि यहाँ का भी कार्यक्रम अवश्य बनायें।

24 मार्च को दोपहर बाद यहाँ का प्रसिद्ध विश्वविद्यालय देखने गये। इसका नाम स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय है। इसके संस्थापक ने अपने पुत्र की मृत्यु के पश्चात् उसके स्मारक के रूप में इसका निर्माण कराया था। यह एक सौ पच्चीस वर्ष पुराना विश्वविद्यालय है। विश्वविद्यालय के द्वार पर बहुत विशाल सुन्दर चर्च बना हुआ है। पुराने भवन एक ही शैली में बने हुये हैं। आधुनिक विषयों के भवन अत्याधुनिक ढंग से बने हैं। बहुत बड़ी और बहुत ऊँची वेधशाला बनी हुई है। विश्वविद्यालय, हरे-भरे मैदान और ऊँचे-ऊँचे वृक्ष विशाल क्षेत्र तक दिखाई देते हैं। पुस्तकालय भी विशाल है। परिसर में अधिकांश लोग पैदल और साइकिल पर ही चलते दिखाई देते हैं।

25 मार्च को प्रथम विश्रुत से बात हुई तो अटलाण्टा का कार्यक्रम बनाकर टिकिट ले लिये। डॉ. सोनी जी से देर से सपर्क हुआ, उनका भी आग्रह रहा, तो अलग टिकिट लेना पड़ा, क्योंकि पहले टिकट के पैसे मिलने नहीं थे। इस प्रकार जो यात्रा एक दौर में हो सकती थी, वह दो दौर की हो गई। सनफ्रान्सिस्को से शिकागो, शिकागो से सनफ्रान्सिस्को एवं सैनहोजे से अटलाण्टा-सैन होजे।

26 मार्च शनिवार था, अतः आज भ्रमण के लिये यहाँ का प्रसिद्ध स्थान रेड वुड राष्ट्रीय उद्यान जाने का कार्यक्रम बना। सनीवेल से सनफ्रांसिस्को, वहां समुद्र पर पुल बना है, जिसे गोल्डन ब्रिज के नाम से जाना जाता है। यहीं समुद्र में एक पुरानी जेल है, जिसमें खूँखार कैदियों को रखा जाता था। यहाँ से समुद्र पार कर एक जंगल में गये, जो सुरक्षित वन है। यह बहुत बड़ा नहीं है फिर भी पर्याप्त बड़ा है। इस में तीन सौ फुट ऊँचे वृक्षों को संरक्षित रखा गया है। इस जंगल में चारों ओर पहाड़ियाँ हैं। पर्यटक पगडण्डियों से पहाड़ों पर चढ़कर जंगल का सौन्दर्य देखते हैं। इसमें पानी के छोटे-छोटे झरने हैं। अभी अनेक वर्षों से इस प्रदेश में वर्षा नहीं हुई है। पर्वत पर घूमते हुए वापस घर पहुँच गये।

27 मार्च का रविवार था। आज एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल की ओर गए, यह समुद्रतट है। प्रशान्त महासागर के किनारे-किनारे सत्रह मील तक मध्य-मध्य में दर्शनीय स्थल हैं, जहाँ समुद्र का तथा समुद्री जीवों को देखने का आनन्द पर्यटक उठाते हैं। यह स्थल किसी का निजी है। टिकिट लेकर यहाँ भ्रमण किया जा सकता है। इन स्थानों पर पेड़-पौधे व अन्य जीवों की सुरक्षा एवं संरक्षण की उत्तम व्यवस्था की गई है। पेड़ों को छूना भी मना है। इस क्षेत्र को मॉण्टे 17 माइल ड्राइव के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार समुद्र, वन, पर्वतों के दृश्य देखते हुए सायंकाल घर लौटे आये।

28 मार्च के दिन स्वाध्याय किया और पुस्तकालय जाकर वहाँ के साहित्य का अवलोकन किया।

29 मार्च का दिन लेख लिखने और सपर्क करने में व्यतीत हुआ।

30 मार्च को इस क्षेत्र में एक जापानी पार्क जो सुन्दर उद्यान है, वह देखा। उसमें जापानी वातावरण दिखाई देता है, उद्यान बहुत बड़ा नहीं, परन्तु बहुत सुन्दर और स्वच्छता वाला है।

31 मार्च के दिन स्थानीय विद्वानों से विचार-विमर्श किया तथा अगले दिन शिकागो जाना था, उसकी सज्जा में व्यतीत किया।

1 अप्रैल 2016 को प्रातः 6 बजे घर से सुयशा भास्कर के साथ हवाई अड्डे के लिये निकले, आधा घण्टे में सन्फ्रासिस्को हवाई अड्डे पहुँच गये, सुरक्षा जाँच तक दोनों ने प्रतीक्षा की, फिर मैं अन्दर चला गया, दोनों घर लौट गये। वायुयान 10 बजे चला और वहाँ के समयानुसार 3 बजे शिकागो पहुँच गया। वहाँ पर आर्य समाज की ओर से श्री भूपेन्द्र शाह और उनकी धर्मपत्नी लेने आये हुए थे। शाह पहले इंजीनियर थे। अब सामाजिक कार्यों में समय देते हैं। हम सब किरीटभाई शाह के घर पहुँचे, वहाँ डॉ. सोनी और श्रीमती सोनी जी आ गये थे। प्रथम सबने कुछ स्वल्पाहार लिया, फिर धार्मिक संवाद चला, दो घण्टे ईश्वर की साकारता-निराकारता, मूर्त्तिपूजा की निस्सारता आदि पर बातें हुई। भोजन करके अन्य सब लोग अपने घर लौट गये। मैं किरीटभाई शाह का अतिथि रहा। वहीं रात्रि विश्राम किया।

2 अप्रैल प्रातः 10 बजे डॉ. सोनी पधारे, उनके साथ सबने प्रातराश किया, फिर डॉ. सोनी जी ने साथ चलने को कहा। वहाँ से निकल कर सबसे पहले स्वामी विवेकानन्द केन्द्र गये। पुस्तकालय, कार्यालय, सभा भवन देखा। मुय स्वामी जी केन्द्र से बाहर व्याखयान देने गये थे। केन्द्र का बड़ा मन्दिर और भवन बनने वाला है। जानकारी मिली कि इनके कई केन्द्रों पर मांसाहारी-शाकाहारी दोनों भोजन बनते हैं, क्योंकि स्वामी विवेकानन्द ने दोनों को उचित माना है। औरों के लिये कोई तर्क हो सकता है, परन्तु संन्यासी के साथ इसकी संगति नहीं बैठती। यहाँ से चिन्मय मिशन गये, वहाँ कोई नहीं था, सब कहीं शिविर में गये हुए थे। फिर हिन्दू मन्दिर गये, वहाँ एक ओर सभा चल रही थी, भक्त लोग मन्दिर में पूजा अर्चना में लगे थे। दोपहर का समय हो रहा था, डॉक्टर जी की बहन के घर पहुँचे, भोजन किया, कुछ चर्चा हुई। वहाँ से निकल कर शिकागो नगर केन्द्र में जाकर मिशिगन झील देखी, यहाँ पहले संसार का सबसे ऊँचा भवन कहा जाने वाला सी.एस. टावर देखा। अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उमीदवार का ट्रप टावर देखा। नक्षत्र मण्डल, कला संग्रहालय आदि पर बाहर से एक दृष्टि डाली, लौटते हुये एक संस्था क्रिया योग केन्द्र देखा। साधु स्वामी सहजानन्द और उनके साथी साधु से मिलकर संन्यास-योग सबन्धी बातचीत हुई, लौटकर घर पहुँचे। भोजन कर भ्रमण का विचार किया, वर्षा हो रही थी। यहाँ का मौसम विचित्र है, कहने को तो बसन्त का समय है, प्रातः हिमपात हो रहा था, दिन में धूप खिली थी, सायंकाल वर्षा हो रही थी। वर्षा के कारण गाड़ी में घूमने निकले, लौटते हुए मार्ग में बहुत बड़ा जुआघर था, देखने के लिये अन्दर गये। हजारों स्त्री-पुरुष बड़ी-छोटी सभी आयु के अलग-अलग तरीकों से खेलने में लगे थे। यहाँ के लोगों का अपने अकेलेपन को दूर करने का यह सामाजिक केन्द्र है। लौटकर घर पहुँचे। डॉक्टर जी के श्वसुर डॉ. ओप्रकाश वर्मा वाले पुराने आर्य और कर्मठ कार्यकर्त्ता थे, वे परोपकारी पत्रिका के आजीवन पाठक रहे। उन्होंने बर्मा, अमेरिका में बहुत सारे लोगों को परोपकारी पत्रिका का ग्राहक बनाया था। डॉक्टर जी ने शिकागो में एक बड़ा भवन, जिसमें पहले चर्च था, क्रय करके यहाँ आर्य समाज मन्दिर बनाया है। आपके सहयोग से संघ के लिये बहुत बड़ी भूमि आर्य समाज के साथ ही दी हुई है। संघ की सौ से अधिक शाखायें अमेरिका में चलती हैं। आप यहाँ संगठन के अध्यक्ष हैं। आपके श्वसुर दृढ़ आर्य थे, उन्हीं ने आपको आर्य समाज की ओर प्रेरित किया। विपश्यना के प्रवर्तक गोयनका डॉ. ओप्रकाश जी के साथ बर्मा में आर्य समाज के कामों में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे।  अमेरिका में बने विपश्यना भवन की भूमि का दान भी डॉ. सोनी जी ने ही किया था। डॉ. सोनी कैन्सर विशेषज्ञ हैं, अब 80 वर्ष की आयु हो गई है, अतः चिकित्सा कार्य छोड़ दिया। अधिक समय आर्य समाज के काम में लगाने का प्रयास करते हैं। आर्य समाज में डॉ. दिलीप वेदालंकार की मृत्यु के बाद योग्य विद्वान् की कमी बनी हुई है।

3 अप्रैल को प्रातराश करके डॉ. सोनी, श्रीमती सोनी के साथ आर्य समाज के लिये निकले, लगभग एक घण्टे का मार्ग है, कुछ पहले पहुँच गये थे तो एक चक्कर गुजराती मन्दिर अक्षरधाम  का लगाकर आये, रविवार के कारण पर्याप्त भीड़ थी। लौटकर समाज मन्दिर पहुँचे। प्रथम यज्ञ हुआ, एक बालक और उसके पिता का साथ जन्मदिन था। विशेष आहुतियाँ दिलाकर आशीर्वाद दिया। फिर एक भजन और मेरा व्याखयान हुआ। एक घण्टा प्रवचन और आधा घण्टा प्रश्नोत्तर हुए, सबने मिलकर भोजन किया। वहाँ से मैं पटेल जी के साथ उनके घर आया। पटेल जी का घर हवाई अड्डे के निकट है। डॉक्टर जी के घर से हवाई अड्डा बहुत दूर है और अवस्था बड़ी होने से शारीरिक श्रम अधिक समभव नहीं है। सायं पटेल जी के साथ शिकागो के हिन्दू मन्दिर गया। यह विशाल एवं भव्य बना हुआ है। यहाँ अधिकांश गुजराती समुदाय के लोग दिखाई दे रहे थे। आज सत्यनारायण कथा का आयोजन था। कथा के बाद सबसे भेंट की, भोजन किया और घर पर लौटे। यहाँ एक पत्रकार श्री सीताराम पटेल मिलने आये, भारत की परिस्थिति के बारे में चर्चा की, प्रातः जाना था, वार्ता समाप्त कर विश्राम किया।

4 अप्रैल प्रातः जागरण, यात्रा की सज्जा की, श्रीमती पटेल ने भोजन तैयार करके रखा था। वे एक डाकखाने में काम करती हैं। श्री पटेल सेवानिवृत्त हैं। डॉ. सोनी जी के साथ समाज सेवा का कार्य करते हैं। गुजरात में आपके पिता विधानसभा के सदस्य थे। श्री पटेल के साथ हवाई अड्डे पहुँचा, उनका धन्यवाद किया, नमस्ते कर अन्दर गया। सुरक्षा जाँच के बाद यान में बैठा, यान यथासमय चला और यहाँ के समयानुसार सनफ्रांसिस्को 11 बजे पहुँच गया। भास्कर और सुयशा आ गये थे, उनके घर पहुँच कर स्वाध्याय व लेखन कार्य कर विश्राम किया।

5 अप्रैल को यहाँ के बाजारों में भ्रमण किया। स्वाध्याय और लेखन कार्य किया।

6 अप्रैल को अटलान्टा की यात्रा की सज्जा की। सुयशा भास्कर के साथ सैन होजे हवाई अड्डा पहुँचे, सुनसान लग रहा था। मुझे पहुँचाकर दोनों लौट गये। यान के प्रस्थान में समय था, धीरे-धीरे लोगों की संखया बढ़ने लगी। यान के प्रस्थान तक पूरा यान भर गया। सारे सहयात्री अभारतीय थे, अतः किसी से कोई बात नहीं हो सकी।

7 अप्रैल को प्रातः सात बजे यान अटलाण्टा पहुँच गया। यहाँ के समय में अन्तर था, सनफ्रान्सिसको में सुबह 4 बजे थे। दूरभाष में कुछ खराबी आ रही थी, कोई नहीं मिला। एक गोरे युवक से सहायता ली, पहले उसकी समझ में भी कुछ नहीं आया, उसने फिर प्रयास किया और दूरभाष ठीक हुआ। विश्रुत से सपर्क  किया, विश्रुत अपनी पत्नी और पुरोहित जी के साथ अड्डे पर पहुँच गये थे, थोड़ी देर में सब मिल गये। गाड़ी से विश्रुत के घर पहुँचकर आवश्यक कार्य सपन्न किये। परिवार में श्री सुभाष वेदालंकार का प्रयास फलित हो रहा है, सभी बच्चों के साथ संस्कृत बोलने का प्रयास करते हैं, बच्चे भी उत्साह से उत्तर देते हैं। इनके परिवार में विश्रुत उनकी धर्मपत्नी स्वाति और पुत्र हविष्कृत है तथा छोटे भाई विराट, पत्नी अनन्या तथा बेटा अनुभव व बेटी ऋचक्षा है। यह अतिशय प्रसन्नता की बात है। वैसे भारत में भी हमारा अंग्रेजी प्रेम उबाल खाता है, परन्तु भारतीय अमेरिका में तो अपने को गोरा ही समझते हैं, बच्चों को हिन्दी या मातृभाषा से दूर रखने में ही गौरव समझते हैं। विश्रुत के बेटे हविष्कृत ने मुझसे कहा- दादा जी, आप जब तक यहाँ रहें, मेरे साथ संस्कृत में ही बोलें। हम दोनों ने ऐसा ही किया। उसे कुछ संस्कृत के श्लोक भी स्मरण कराये। आज आर्य समाज से श्री विद्याधर शर्मा मिलने आये, वे बीकानेर के निवासी हैं, भारत की चर्चा होती रही। सायंकाल आर्य समाज भवन में सत्संग हुआ, आज का विषय था- ‘संस्कारों की आवश्यकता’ पश्चात् प्रश्तोत्तर हुए। भोजन के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ। श्री गिरीश खोसला जी को पधारना था, वे रुग्णता के कारण नहीं आ सके।

शेष भाग अगले अंक में…..

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-३६

द्वा विमो वातौ वात आ सिन्धो रा परावतः।

दक्षते अन्य आ वातु परान्यो वातु पद्रपः।।

यह सम्पूर्ण सूक्त एक मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये शरीर के अन्दर चल रहे किन-किन कार्यों को हमें जानना चाहिये और उनसे कैसे लाभ उठाना चाहिए? इस बात का उल्लेख है। प्रथम मन्त्र में मानसिक रूप से हमारे उत्थान-पतन की चर्चा की गई है। देवता लोग पतन के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को उत्थान की ओर ले जाते हैं, उन्हें निष्पाप कर देते हैं। आगे बताया गया है कि इस शरीर में प्राणधारण वायु के माध्यम से हो रहा है। वायु शरीर में गति कर रहा है। यहाँ क्रिया भेद से दो प्रकार की गति हो रही है- एक वायु जब शरीर के अन्दर की ओर जा रही है, वह सिन्धु तक पहुँच रही है। दूसरी लौटने वालीवायु परावत तक जा रही है। सिन्धु क्या है? शरीर का वह स्थान जो वायु से पुष्ट हो रहा है। हृदय के अन्दर संचरित होने वाला रक्त, इस प्राण वायु से शुद्ध किया जा रहा है।

हृदय और फेफड़े इस शरीर में रक्त के सम्बन्ध में कार्य करने वाले दो मुख्य संस्थान हैं। शरीर का सारा रक्त हृदय में आता है और वहाँ से फेफडों में पहुँचता है। हृदय का कार्य शिराओं के माध्यम से रक्त का संग्रह करना और धमनियों के माध्यम से फेफडों और शरीर के अंगों में वितरण करना है। फेफडों का कार्य रक्त का शोधन करना है। फेफडों में लाखों कोष बने हुए हैं, इनमें रक्त जाता है और वहाँ से लौटकर हृदय में जमा होता है, जहाँ से फिर हृदय द्वारा शरीर के अंगों को  भेजा जाता है। लोग कहते हैं कि शरीर में हृदय, जो रक्त संचार का केन्द्र है, उसका ज्ञान पाश्चात्य विद्वानों ने किया है, परन्तु छान्दोग्य उपनिषद् में हृदय की परिभाषा करते हुए कहा है- हृदय शब्द में तीन अक्षर हैं, इसके तीन कार्यों को बताते हैं- हृ से हरति अर्थात् जो रक्त का संग्रह करता है। द से ददाति अर्थात् जो रक्त का वितरण करता है तथा य से यति अर्थात् गति करता है। जो लेता है, जो देता है और चलता रहता है, इसलिये उसे हृदय कहते हैं।

उपनिषद् में मस्तिष्क का कार्य, विचार भावना के अर्थ में भी हृदय शब्द का उपयोग हुआ है, परन्तु वायु के सम्बन्ध में जब हृदय कहा जायेगा, तब रक्त का संचरण करने वाले हृदय की बात की जायेगी। फेफडे रक्त का शोधन करते हैं, हृदय रक्त को शरीर से लेकर फेफडों को देता है और फेफडों से लेकर शरीर को देता है। इस क्रिया को करने के लिये वायु शरीर में आता है, प्रवेश करता है- उसे सिन्धु तक, हृदय तक प्रभावकारी होना चाहिये और बाहर की ओर भी वह वायु दूर तक जानी चाहिए। यहाँ परावतः दूर तक शब्द बहुत महत्वपूर्ण है, जब श्वास बाहर दूर तक जायेगा, तभी अन्दर तक जायेगा। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। गहरा श्वास लेने के लिए श्वास को बाहर दूर तक ले जाना होगा। श्वास छोटा होगा, तो अन्दर बाहर भी छोटा-छोटा ही रहेगा। वह रक्त को पूर्ण रूप से शुद्ध करने में समर्थ नहीं होगा। प्रथम सम्पूर्ण रक्त से शुद्ध वायु का संसर्ग नहीं हो पायेगा और रक्त के सम्पर्क में आयेगा, उसे भी सम्पूर्ण प्राण की प्राप्ति नहीं होगी। इसलिए यह अन्दर जाने वाला वायु बल का देने वाला है और बाहर जाने वाला वायु पाप=दोष को बाहर निकाल कर मनुष्य को स्वस्थ करता है।

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-35

उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुनः।

मनुष्य ही है जो पाप कर सकता है। मनुष्य सदा श्रेष्ठता की परिस्थिति में नहीं रहता। उसका मन बहुत चञ्चल है, उसका वेग भी अधिक है। जैसे वायु वेग से चलती है तो उसके विपरीत चलना या उसे रोक पाना अत्यन्त कठिन होता है, इसी कारण गीता में इसके लिये वायोरिव दुष्करं कहा गया है। इस गतिशीलता के कारण उसे रोकना या स्थिर करना अत्यन्त कठिन होता है। जैसे तुला में सन्तुलन बनाना कठिन होता है, वह बहुत थोड़े हवा के झोंके से ही ऊपर नीचे होने लगती है, उसी प्रकार मन की स्थिति है। यह भी विचारों के अनुसार इधर-उधर होता रहता है, ऊपर-नीचे आता-जाता है।

मन को ऊपर की ओर ले जाने का यत्न करना पड़ता है। मन स्वयं तो भौतिक है, जड़ भी है, परन्तु सूक्ष्म तथा आत्मा के सन्निकट और सहायक होने के कारण उसे आत्मा के चैतन्य का सामर्थ्य प्राप्त है। जब आत्मा उसे निर्देशित नहीं कर रही होती तो वह भौतिक पदार्थों की ओर प्रवृत्त होता है। वास्तव में तो भौतिक पदार्थों से सपर्क करने के लिये और उन्हें जानने के लिये ही उसे बनाया गया है, इस कारण वह भौतिक पदार्थों की ओर आकृष्ट हो, यह स्वाभाविक है। भौतिक पदार्थों के जितने प्रकार हैं, उन्हें शरीर की पाँच इन्द्रियों से ही जाना जाता है। इन्द्रियाँ जहाँ आत्मा के लिये काम करती हैं, वहीं आत्मा के माध्यम से शरीर के लिये भी काम करती हैं। कब उन्हें आत्मा के लिये काम करना है और कब शरीर के लिये- इसका निर्णय मन नहीं करता, उसे आत्मा करती है और इस कार्य में वह बुद्धि की सहायता लेती है। यही वह अवसर है, जब मन को एक कार्य से हटाकर दूसरे कार्य की ओर प्रवृत्त करना होता है। जब आत्मा इस कार्य को नहीं कर रही होती है, तो हम कहते हैं- मन ऐसा कर रहा है। मन तो ठीक ही कर रहा है, वह अपना कार्य कर रहा है। आत्मा का कार्य है- उसे अनावश्यक से हटाकर आवश्यक और अपेक्षित की ओर लाये।

जब ऐसा नहीं हो पाता, तब हम उस कार्य को करने लगते हैं। जब वह कार्य शरीर या मन के स्तर पर हमारे लिये हानिकारक होता है, तब वह हानि ही पाप कहलाती है। इस  हानि को हम सावधान होकर ही रोक सकते हैं। इस प्रयत्न को करने के लिए आत्मा को जागना होता है, मन को रोकना होता है। जो क्षति हो गई है, उस की पूर्ति करने का प्रयास करना होता है। यह परिस्थिति हमारे श्रेष्ठ विचारों के द्वारा ही समभव है। ये विचार कभी हमारे अन्दर से आते हैं, कभी बाहर से उन्हें लाने का, जगाने का प्रयास किया जाता है। बाहर के इन प्रयासों में सहायक लोग देव हैं, जो हमारे अन्दर के दिव्य सामर्थ्य को जाग्रत करते हैं, नीचे की ओर, पाप की ओर जाते हुए मन को उच्चता की ओर प्रेरित करते हैं। हम मन के द्वारा ही नीचे की ओर जाते हैं। नीचे जाने का कारण मन ही है, अतः उसे ही मोड़ना होगा। यह सामर्थ्य दिव्य विचारों में है, उन देवताओं में है, जो हमें ऐसे विचार दे सकते हैं।

यहाँ पर हमें एक तथ्य समझ लेना चाहिये कि हम सदा नीचे गिरने के लिये मन को दोषी मानते हैं। जब मन भौतिक है तो उसके जड़ होने की अनिवार्यता है। जड़ वस्तु कितनी भी बड़ी और शक्तिशाली क्यों न हो, उसमें विवेक, निर्णय या विचार का सामर्थ्य नहीं होता, फिर मन में निर्णय का सामर्थ्य कैसे आ सकता है? मन शक्तिशाली है, पर क्या वह आत्मा से अधिक सामर्थ्यवान है? चाहे संसार के सारे पदार्थ भी एक ओर हो जायें तो वे चेतना की बराबरी नहीं कर सकते, फिर मन का क्या सामर्थ्य है कि वह अपनी इच्छा से आत्मा को चलाये? जो आत्मा जड़ मन को भी चैतन्य का भान करा सकती है, वह स्वयं जड़ मन के साथ जड़ कैसे बन सकती है? अतः गलती, अपराध, पाप आदि मन के कारण नहीं, आत्मा के कारण ही होते हैं। आत्मा विवेक का उपयोग नहीं करती, अपितु अनुचित की इच्छा करती है, उसे अच्छा मानती है, तभी तो पाप में प्रवृत्त होती है। जब आत्मा पाप को अनुभव करती है, उसे पाप के रूप में पहचानती है, तब उसे वह कभी भी स्वीकार नहीं कर सकती। जो मनुष्य एक बार आग से जल चुका हो, वह जान-बूझकर आग में हाथ डालेगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। अतः मन ऐसा करता है- यह कथन शरीर या मन के स्तर पर हमारी आत्मिक दुर्बलता को ही प्रकट करता है। वस्तुतः ऐसा कहना मिथ्या ही है।

यदि मन अपने-आप कार्य करने में स्वतन्त्र होता तो उसके लौटने की समभावना ही समाप्त हो जाती। वह जो चाहता है, उसे छोड़कर विपरीत दिशा में क्यों जाता? मन का भौतिक विषयों की ओर जाना इस कारण स्वाभाविक है कि वह भौतिक तत्त्वों से बना है। वह आत्मा का साधन है, उसे जो भी सामर्थ्य प्राप्त है, आत्मा के कारण ही प्राप्त है। जब जड़ शरीर आत्मा के कारण चेतन बना हुआ है और आत्मा से पृथक् होते ही जड़ दिखाई  देने लगता है, तब जड़ मन के चेतन प्रतीत होने में क्या बाधा है? यह शरीर भी तभी तक चेतन लगता है, जब तक चैतन्य से संयुक्त होता है। इस कार्य के समाप्त होने पर आत्मा इसको त्याग देती है, उसी प्रकार जड़ मन भी जब तक आत्मा के लिये उपयोगी होता है, जब तक चेतन बना रहता है। उसका उपयोग आत्मा प्रलय तक अथवा मुक्ति तक करती है, तब तक वह आत्मा के अनुसार चलता है फिर नष्ट हो जाता है। यही सामर्थ्य इस मन्त्र भाग में वर्णित है। हम दिव्य विचारों से पाप को छोड़कर, मृत्यु से बचकर जीवन को प्राप्त कर सकते हैं।

 

क्या शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित करना उचित होगा?

क्या शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित करना उचित होगा?

बुधवार 11 मई को आदि शंकराचार्य की जयन्ती मनाई गई। इस अवसर पर संघ के वरिष्ठ सदस्य एवं विचारक पी. परमेश्वरन द्वारा स्थापित स्वयंसेवी संस्था (एन.जी.ओ.) नवोदयम् तथा फेथ फाउण्डेशन ने सरकार से माँग की है कि आदि शंकराचार्य के जन्मदिन को राष्ट्रीय दार्शनिक दिवस के रूप में मनाया जाय। इस अवसर पर केन्द्रीय संस्कृति राज्य मन्त्री महेश शर्मा ने बताया कि सरकार इस प्रकार के प्रस्ताव पर विचार कर रही है।

इस समारोह में बताया गया कि संघ के संयुक्त महासचिव को भाजपा से वार्ता करने के लिये अधिकृत किया गया है। समारोह में अखिल भारतीय सह प्रचारक जे. नन्दकुमार एवं अनेक प्रमुख व्यक्ति उपस्थित थे। अनेक वक्ताओं ने शंकराचार्य के दर्शन को शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम में समिलित करने की माँग की। संघ के विचारक पी. परमेश्वरन का नाम पढ़कर मुझे एक प्रसंग स्मरण हो आया। कुछ वर्ष पूर्व मुझे केरल यात्रा के प्रसंग में उनसे भेंट करने का और वार्तालाप करने का अवसर मिला था। उन्होंने उदारतापूर्वक दो घण्टे तक वार्ता की। मुझे आश्चर्य हुआ, जब मुझे उनके विचार सुनने को मिले। उस समय तक वे आर्य द्रविड़ सिद्धान्त को उचित मानते थे, आज इस विषय में उनके विचारों में परिवर्तन आ गया हो तो प्रसन्नता की बात है। दूसरी बात, ईश्वर को एक और निराकार मानना कैसे सम्मभव है? उनके विचार से भारत में जितने मत-सप्रदाय और विचार हैं, उनमें सबके अपने ईश्वर हैं और सभी ठीक हैं। यह हिन्दू समप्रदाय की विशेषता है। परमेश्वरन इसको ठीक मानते हैं, परन्तु सिद्धान्त इसे मिथ्या कहता है। परमेश्वरन से जुड़ा एक प्रसंग और है। उन्होंने पणजी में एक शोध-संस्थान बनाया। इसे केरल की कमयुनिस्ट सरकार ने मान्यता देने से मना कर दिया, तो राजस्थान की भाजपा सरकार ने उस संस्थान को महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, अजमेर से मान्यता दिला दी।

जब तक कांग्रेस की सरकार थी, ईसाई-मुसलमानों की मौज थी। श्रीमती सोनिया गाँधी ने अल्पसंखयक सुरक्षा विधेयक के माध्यम से अपना उद्देश्य और विचार प्रकाशित कर दिया था। यदि बिल संसद में पारित हो जाता तो यह भारत हिन्दुओं का न होकर, आधा इस्लाम और आधा ईसाइयों का हो जाता। समभवतः परमेश्वर को ऐसा स्वीकार नहीं था, अतः भारतीयता की प्राप्त आसन्न मृत्यु होते-होते बच गई। आज से पहले हिन्दुत्व के नाम पर किसी बात की माँग करना तुच्छ और आधुनिक युग में निन्दनीय माना जाता था, इस चुनाव ने नरेन्द्र मोदी को विजयी बनाकर हिन्दुत्व को समाप्त होने से बचा लिया। यह तो इतिहास की गौरवपूर्ण घटना रही।

अब हिन्दुत्व को स्वाभाविक रूप से अपने स्वरूप को प्रकाशित करने का अवसर है। यदि हिन्दुत्व में प्रचलित धारणाएँ सत्य और हितकर होतीं, तो उनकी पुनः स्थापना करने में कोई बुराई नहीं थी। हिन्दुत्व इस देश का दुर्भाग्य रहा है। हिन्दुत्व के नाम पर जो पाखण्ड, अज्ञान, शोषण और कायरता इस देश में फैली है, वही इस देश में दासता का कारण है। क्या हिन्दुत्व के नाम पर उन्हीं सब बातों को महिमा-मण्डित करना उचित होगा? हमारा विचार है कि पाखण्ड, अज्ञान, अन्याय एवं पक्षपातपूर्ण व्यवहार को हिन्दुत्व के नाम पर न कभी स्वीकार किया जा सकता है, न ऐसे विचार का समर्थन किया जा सकता है, फिर वह विचार चाहे सरकार का हो या किसी नेता, मन्त्री का।

आज ऐसे विचार और ऐसी माँगों की बाढ़ आ गई है। ऐसा लगता है कि हिन्दुत्व के नाम पर प्रचलित प्रत्येक मूर्खता, सत्ता से मान्य कराने की स्पर्धा प्रारमभ हो गई है। गंगा या क्षिप्रा में स्नान करने के धार्मिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक लाभ हो सकते हैं, परन्तु यह कहना कि गंगा में स्नान करने से मुक्ति मिलती है, यह पहले भी पाखण्ड था और आज भी पाखण्ड है। इसको कौन कह रहा है- इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता।

आज समाचार पत्रों में ‘शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक’ घोषित करने की सरकार की योजना है। ये विचार भी पाखण्ड पूर्ण हिन्दुत्व का ही परिणाम है। आचार्य शंकर अपने समय के अद्वितीय दार्शनिक ब्राह्मणधर्म के पुनरुद्धारक रहे हैं। जिस समय यह सारा देश जैन और बौद्ध मान्यताओं का शिकार हो गया था, वेद का पठन-पाठन समाप्त प्रायः था, वैदिक धर्म का लोप था, उस समय सारे मत-मतान्तरों के आचार्यों को शंकर ने शास्त्रार्थ में पराजित् करके सभी राजाओं, विद्वानों को वैदिक धर्म का अनुयायी बनाया था। देश के चार कोनों में शंकराचार्य ने पीठों की स्थापना करके सारे देश को अपना अनुयायी बना लिया था।

आचार्य शंकर के महत्त्व को स्थापित करने वाली एक घटना आज भी स्मृति पटल पर अंकित है। गुरुकुल ज्वालापुर के स्नातक और निरुक्त के हिन्दी भाष्यकार पं. भगीरथ शास्त्री गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर के उपाध्याय थे। वे सेवानिवृत्त होकर अपने गाँव लौटने लगे, तब अपने पुराने शिष्य डॉ. रामवीर शास्त्री से मिलने श्रद्धानिकुञ्ज स्थित हमारी कुटिया में पधारे, उस समय हम कुटिया में तीन छात्र रहते थे- डॉ. रामवीर, डॉ. सुरेन्द्र- वर्तमान कुलपति गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय तथा इन पंक्तियों का लेखक। बहुत समय अपने मधुर उपदेशों का वे हमें पान कराते रहे। आशीर्वाद देकर जाने लगे। बीस कदम गये, लौटे तो हम लोगों ने सोचा कि गुरुजी कोई वस्तु भूल गये हैं, लेने आये हैं। वे आये तो कहने लगे- मैं एक बात तो कहना भूल ही गया। हमने उत्सुकता से पूछा- बताइये। वे बोले- देखो, यदि पाण्डित्य क्या होता है- यह जानना हो तो आचार्य शंकर को पढ़ना, भाषा क्या होती है, उस पर अधिकार कैसा होता है- यह जानना हो तो आचार्य पतञ्जलि का महाभाष्य पढ़ना और विषय की व्यापकता जाननी हो तो व्यास रचित महाभारत पढ़ना, बस यही कहने आया था। गुरुजी का विद्या-प्रेम देखकर हम गद्गद् हो गये।

इसी प्रकार एक बार आर्य जगत् के मूर्धन्य विद्वान्, उच्च वैज्ञानिक डॉ. स्वामी सत्यप्रकाश जी के साथ ऋषि उद्यान अजमेर में घूमते हुए आचार्य शंकर के पाण्डित्य पर चर्चा चल रही थी। स्वामी जी कहने लगे- आचार्य शंकर स्वयं इतने विद्वान् थे कि वे चाहते तो अपना नया दर्शन बना सकते थे। स्वामी जी से मैंने पूछा- फिर उन्होंने बनाया क्यों नहीं? तब स्वामी जी ने उत्तर दिया- यदि वे अपना दर्शन बनाते तो उसे पढ़ता कौन? किसी भी नई वस्तु को स्थापित होने में सैंकड़ों वर्ष लगते हैं। आचार्य शंकर ने सरल मार्ग अपनाया। जो दर्शन समाज में प्रचलित था, उसी का अर्थ अपने अनुसार करने का प्रयास किया और उन्होंने उसे शिष्यों में प्रचारित किया। भले ही वह सर्वमान्य नहीं हुआ, परन्तु आज सारे दर्शन की बात करने वाले शंकर का नाम लेकर ही वेदान्त की बात करते हैं। यह आचार्य शंकर का वेदान्त सूत्रों के साथ बलात्कार है। जो बात सूत्र में है ही नहीं, आचार्य शंकर उन सूत्रों की व्याखया में निकालते हैं। यह उनकी योग्यता या पाण्डित्य हो सकता है, औचित्य नहीं।

वर्तमान युग के दर्शनों के व्याखयाकार आचार्य उदयवीर जी ने वेदान्त दर्शन की व्याखया करते हुए आचार्य शंकर के अद्वैत पर टिप्पणी करते हुये लिखा है- आचार्य शंकर का अद्वैत, वेदान्त दर्शन से वही समबन्ध रखता है, जैसे दुकान और मकान में ‘कान’ के होने का कोई निषेध नहीं कर सकता, परन्तु ‘कान’  का दुकान, मकान से कोई सबन्ध नहीं है।

ऋषि दयानन्द यद्यपि आचार्य शंकर के सिद्धान्तों का खण्डन करते हैं, परन्तु उनकी विद्वत्ता और कार्य की प्रशंसा करते हुए कहते हैं- यदि आचार्य शंकर ने ये सिद्धान्त बौद्धों के खण्डन के लिये स्वीकार किये हैं, तो तात्कालिक उपयोग के लिये हो सकते हैं, परन्तु सत्य के विपरीत हैं।

आचार्य शंकर बड़े पण्डित और धर्म संस्थापक रहे हैं, परन्तु क्या उन्हें राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित किया जाना उचित होगा? आचार्य शंकर की भाँति अनेक आचार्यों ने वेदान्त पर अपनी-अपनी  व्याखया लिखी, शंकर की व्याखया प्रचलित अधिक होगी, परन्तु सर्वमान्य नहीं रही है, अतः ऐसे में लोगों के बीच में उच्चता की स्थापना न्याय संगत नहीं है।

आचार्य शंकर मौलिक दर्शनकार की योग्यता रखते हैं, परन्तु मौलिक दर्शनकार नहीं है। उन्होंने वेदान्त सूत्रों पर अपना भाष्य किया नहीं, थोपा है। यह मूल शास्त्र और शास्त्रकार के साथ अन्याय है।

जब भी सूत्रों और उपनिषदों की प्रसंगों की व्याखया करनी होती है, आचार्य शंकर उन शबदों, वाक्यों का सहज संगत अर्थ छोड़कर- इसका अभिप्राय यह है- कहकर अपनी बात वहाँ स्थापित करते हैं। जैसे अर्थ तो निकल रहा है, यह जीवात्मा का स्वरूप है तो अर्थ कहते हुए बतायेंगे- अखण्ड अद्वैत ब्रह्म के अंश का कथन है। अर्थ तो निकला घोड़ा आ रहा है, आचार्य शंकर कहेंगे- इसका अभिप्राय ऊँट आ रहा है।

आचार्य शंकर ब्राह्मण धर्म के संस्थापक थे, परन्तु ब्राह्मण धर्म की कुरीतियों का उन्होंने खण्डन नहीं किया, अपितु स्पष्ट रूप से उनका समर्थन किया है। उनका सिद्धान्त उस काल की प्रचलित परमपरा होने पर भी स्वीकार्य नहीं हो सकता, आचार्य शंकर कहते हैं- द्वारं किमेकं नरकस्य नारी। नरक का एक मात्र द्वार नारी है। क्या इस कथन को आज स्वीकार किया जा सकता है? यदि पुरुष की दृष्टि में नारी नरक का द्वार है तो नारी की दृष्टि में पुरुष नरक का द्वार क्यों नहीं? राष्ट्रीय दार्शनिक की इस मान्यता को आज कोई स्वीकार कर सकता है?

इतना ही नहीं, आचार्य शंकर कितने भी महान् दार्शनिक हों, क्या सूत्रकार के स्थान पर भाष्यकार को श्रेष्ठता दी जा सकती है? राष्ट्रीय दार्शनिक ही बनाना है, तो सूत्रकारों की बड़ी लबी परपरा है। यह दुर्भाग्य ही होगा कि वेदान्त के सूत्रकार महर्षि व्यास के स्थान पर वेदान्त सूत्रों की व्याखया करने वाले को राष्ट्रीय दार्शनिक का स्थान दिया जा रहा है। इसे कौन न्याय संगत बतायेगा?

यह हमारे पौराणिक भाइयों का स्वभाव बन गया है- मूल शुद्ध स्वरूप को छोड़कर अशुद्ध स्वरूप को गौरवान्वित करने की उनकी परमपरा है। वेद दर्शन छोड़कर, वे पुराणों को वेद से ऊपर रखने का प्रयास करते हैं। इनके लिये सूत्रकार पाणिनि से महान् कौमुदीकार भट्टोजी दीक्षित है। वही स्थिति है वेदान्त के सूत्रकार से बड़ा इनकी दृष्टि में भाष्यकार है।

सारे अद्वैत के आधारभूत वाक्य हैं –

प्रज्ञानं ब्रह्म। – ऐतरेय उपनिषद्/3/5/3

अहं ब्रह्मास्मि। – बृहदारण्यक/1/4/10

तत्त्वमसि। – छान्दोग्य 6/8/7

अयमात्मा ब्रह्म। – माण्डूक्य 2

इन उपनिषद् वाक्यों को महावाक्य और वेद-वाक्य कहा जाता है।

इस सारे कथन में परस्पर विरोध है। प्रथम, उपनिषद् को एक ओर वेद कहा जा रहा है, दूसरी ओर वेद मन्त्रों को ब्राह्मणेतर से दूर रखने के लिये उनको उद्धृत करने से बचा जा रहा है

आचार्य शंकर ने अपने ग्रन्थों को ‘श्रुति’ कहकर केवल उपनिषद् वाक्यों को ही उद्धृत किया, कहीं भी वेद मन्त्र का उल्लेख प्रमाण के लिये नहीं किया।

इसलिये ऋषि दयानन्द लिखते हैं- ये वेद वाक्य नहीं है, किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के वचन हैं और इनका नाम ‘महावाक्य’ कहीं सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा। इन वाक्यों की दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब चार वाक्य चार भिन्न-भिन्न ग्रन्थों से प्रसंग से हटकर लिये गये हैं, तब एक ग्रन्थ का ब्रह्म पद दूसरे ग्रन्थ के तत् का अर्थ कैसे बन सकता है? यहाँ किसी भी तरह से ब्रह्म पद की अनुवृत्ति नहीं आ सकती। इस पर ऋषि दयानन्द ने लिखा है- तुमने इस छान्दोग्य उपनिषद् का दर्शनाी नहीं किया, जो वह देखी होती तो ऐसा झूठ क्यों कहते? वहाँ ब्रह्म शबद का पाठ नहीं है। – सत्यार्थ प्रकाश पृ. 224

आचार्य शंकर अद्वैत के बहाने शेष पाँचों दर्शनों का विरोध करते हैं, क्या यह मान्य किया जा सकता है?

शंकर परा पूजा में मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, दूसरी ओर ‘भज गोविन्दम्’ का पाठ करते हैं। कौन-सा सिद्धान्त मान्य होगा?

इससे भी आगे आचार्य शंकर उस क्रूर और पाखण्डपूर्ण हिन्दुत्व के समर्थक हैं, जिसके अनुसार स्त्री-शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। आचार्य शंकर ने अपने वेदान्त दर्शन के भाष्य में पहले अध्याय के तीसरे पाद में वेद पढ़ने के अधिकार के लिये इति ऐतिह्यं= ऐसा पारपरिक कथन है, कहकर पंक्तियाँ लिखी है- जिह्वाच्छेद।

यदि स्त्री और शूद्र वेद मन्त्र सुनें तो उनके कान में सीसा गर्म करके डाल देना चाहिए। यदि मन्त्र बोले तो जिह्वा छेदन कर देना चाहिए और वेद स्मरण करे तो शरीर भेद कर देना चाहिए। क्या पौराणिक लोग शंकर के इस कथन को राष्ट्रीय आदर्श घोषित कराना पसन्द करेंगे?

स्वामी ब्रह्ममुनि अपने वेदान्त दर्शन के भाष्य में प्रथम अध्याय के तृतीय पाद के 38वें सूत्र की व्याया में आचार्य शंकर के विषय में लिखते हैं-

यहाँ शाङ्करभाष्य में वेद का श्रवण करते हुए शूद्र के कानों को गर्म सीसे, धातु और लाख से भरना, वेद का उच्चारण करते हुए का जिह्वाछेदन करना, वेद का स्मरण कर लेने पर शिर काट देने का प्रतिपादन और उसका स्वीकार शङ्कराचार्य के द्वारा करना महान् आश्चर्य और अनर्थ की बात है। साथ ही इसको स्वीकार करने से भी बड़ी बात यह कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’ = मैं ब्रह्म हूँ, जीव ब्रह्म की एकता के वाद का स्वीकार और प्रचार करने वाला व्यक्ति इस प्रकार के निर्दय कृत्य को उचित मानता है और सूत्रकार व्यास मुनि का सिद्धान्त है- ऐसा प्रतिपादन करके सूत्रकार को भी कलङ्कित करता है। यह ऐसा शिष्टाचार शिष्ट ऋषि-मुनियों का आचार नहीं जो कि यहाँ शङ्कराचार्य ने दिखलाया। यह तो शिष्टविरुद्ध और वेदविरुद्ध है।

हिन्दुत्व का अभिप्राय अन्याय, पाखण्ड और अन्ध-परमपरा नहीं है, आपने इसी अन्धी चाल के चलते श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे क्रान्तिकारी की स्मृति में गुजरात में संग्रहालय तो बना दिया पर उसमें बड़े चित्र, काष्ठ मूर्तियाँ विवेकानन्द की लगा दीं, क्यों? कोई बता सकता है कि स्वामी विवेकानन्द और श्याम जी कृष्ण वर्मा के कार्य में कोई सामञ्जस्य है? स्वामी विवेकानन्द ने अपने पूरे जीवन में राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिये कोई कार्य किया है? जीवन में कभी अंग्रेज सरकार का विरोध किया है? किसी क्रान्तिकारी के लिये सहानुभूति या समर्थन में दो शबद कहे हैं, तो उन्हें अवश्य संग्रहालय दीर्घा में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए, अन्यथा तो राष्ट्रीय दार्शनिक उपाधि भी आचार्य शंकर के स्थान पर स्वामी विवेकानन्द को ही दे दें, तो अच्छा होगा, फिर बिरयानी और अद्वैत के मेल से अच्छा वेदान्त बनेगा। यदि किसी गौरव को स्थापित करना है तो वेद शास्त्र की और प्राचीन ऋषियों, आचार्यों की सुदीर्घ परमपरा है, उनको स्मरण करने की आवश्यकता है। ऐसा करने से भारत का गौरव बढ़ेगा और नई युवा पीढ़ी को प्रेरणा मिलेगी। आप सत्ता के सहारे मूर्खता को स्थापित करेंगे तो जो परिणाम पहले हुआ, वही फिर होगा। इसी अज्ञान से देश दासता को प्राप्त हुआ था, फिर भी वैसा ही होगा। यही कहना उचित होगा-

तातस्य कूपोऽमिति ब्रुवाणा

क्षारं जलं का पुरुषा पिबन्ति।।             – धर्मवीर

 

अमेरिका – एक विहंगम दृष्टि

अमेरिका – एक विहंगम दृष्टि

– डॉ. धर्मवीर

लगभग एक करोड़ भारतीय अमेरिका में रहते हैं। लाखों भारतीय प्रतिवर्ष अमेरिका की यात्रा करते हैं। अमेरिका के समबन्ध में हमारे देशवासियों की जानकारी बहुत है, फिर भी गत 11 मार्च को अमेरिका आने पर यात्रा में कुछ बातों ने मेरा ध्यान खींचा। वैसे बातें तो बहुत छोटी हैं, परन्तु किसी व्यक्ति के लिये जिज्ञासा को शान्त करने या उत्सुकता उत्पन्न करने के योग्य हो सकती हैं, ऐसी कुछ बातें यहाँ प्रस्तुत हैं-

सबसे पहले इस देश में आने पर जिस बात ने चौंकाया, वह थी हमारे यहाँ किसी बिजली के बटन को प्रकाश के लिये नीचे करना होता है। यहाँ बिजली, पंखा, दरवाजा सभी को खोलने, बन्द करने के लिये बटन को नीचे से ऊपर करना पड़ता है। ऐसा क्यों है? इसको कोई नहीं बता सका, परन्तु ऐसा होता है। एक ही बटन से बिजली का प्रकाश कम-अधिक भी किया जा सकता है। यहाँ बल्ब ही देखने में आते हैं, दण्ड (ट्यूबलाईट) नहीं।

भारत में बायीं ओर चलने की परमपरा है। गाड़ी में चालक का स्थान भी दायीं ओर होता है। भारत में इंग्लैण्ड के कारण ऐसी परमपरा आई है। वहाँ पर सड़क के बायीं और चलने का नियम है, परन्तु अमेरिका में सड़क के दायीं और चलते हैं। यहाँ की बस, कार, ट्रक आदि में चालक का स्थान बायीं ओर होता है, परन्तु डाक बाँटने वाली गाड़ी में चालक दायीं ओर बैठता है, क्योंकि गाड़ी में बैठे-बैठे वह घर के सामने सड़क के किनारे पर लगे डिबे में पत्र आदि डालता जाता है।

छोटी सड़क बड़ी सड़क से मिलती है, तो वहाँ पर स्टॉप लिखा होता है। यहाँ पर आगे कोई वाहन न होने पर भी रुकना होता है, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो।

सड़क को गन्दा करने पर पाँच सौ से हजार डॉलर तक अर्थ दण्ड हो सकता है।

अमेरिका बहुत बड़ा देश है, यह भौगोलिक दृष्टि से भारत से तीन गुना बड़ा है और जनसंखया में तीन गुना छोटा, अतः सब कुछ बहुत खुला-खुला लगता है।

देश का भूभाग बहुत बड़ा होने के कारण यहाँ समय को तीन भागों में बाँटा गया है। तीनों क्षेत्र में अलग-अलग समय होता है। गर्मी-सर्दी में हमारे यहाँ सुविधा के लिये समय बदलते हैं, जैसे ग्रीष्म काल में कार्य का प्रारमभ साढ़े छः बजे होता है तो शीत काल में सात बजे होगा, परन्तु अमेरिका में घड़ी बदली जाती है। काम तो उतने ही बजे होता है, परन्तु मार्च मास में घड़ी एक घण्टा आगे को जाती है तो नवमबर मास में एक घण्टा पीछे को जाती है। देश की सारी घड़ियाँ ऐसे ही चलती हैं।

नगर केन्द्र भाग को डाउन टाउन कहा जाता है। यहाँ ऊँचे भवन, बाजार आदि होते हैं। डाउन टाउन क्यों कहते हैं, कोई नहीं बता पाया।

यहाँ केन्द्रीय सरकार के पास केवल तीन काम हैं- डाक व्यवस्था, सेना और मुद्रा। उसको यहाँ के लोग थ्री एम कहते हैं- मनी, मिलीट्री, मेल। शेष सब कुछ निजी व्यवस्था में हैं।

नियम-कानून की पालना कठोरता से की जाती है। जब यह कहा जाता है कि यह कानून है, फिर कोई प्रश्न नहीं किया जा सकता, फिर तो पालन करना ही होगा।

निर्धारित गति सीमा से अधिक गाड़ी चलाने पर पुलिस पकड़ती है, तो उसे टिकिट देना कहते हैं। तीन बार टिकिट मिलने पर चालक का लाइसेन्स निरस्त कर दिया जाता है। गलत गाड़ी चलाते हुए पकड़े जाने पर बीमे की राशि अधिक भरनी पड़ती है।

आप कहीं से भी पैदल सड़क पार नहीं कर सकते, सड़क पार करने के लिये सड़क के किनारे खमभे पर बटन लगा रहता है, उसे दबाने पर संकेत मिलता है, तभी सड़क पार कर सकते हैं।

सड़कें बहुत चौड़ी और अच्छी बनी हुई हैं। सड़कों पर पुलों की भरमार है। कहीं-कहीं तो एक ही सड़क पर आठ मार्ग आने के और आठ मार्ग जाने के होते हैं, दो-चार-छः तो प्रायः हैं। लमबे मार्गों पर एक कार एक सौ बीस किलोमीटर की गति से प्रायः चलती है। कार में प्रायः एक व्यक्ति यात्रा करता है। घर में हर सदस्य की कार अलग है। सरकार द्वारा एक से अधिक व्यक्ति यदि एक कार में यात्रा करते हैं, तो सड़क पर चलने के लिये अलग से मार्ग दिया गया है।

इस देश में सार्वजनिक वाहन की व्यवस्था बहुत कम स्थानों पर है। यहाँ पर सभी लोग अपनी-अपनी कार से चलते हैं। कहा जाता है कि यहाँ की कार कमपनियाँ सार्वजनिक वाहन व्यवस्था को बनने ही नहीं देतीं, जिससे कार पर चलना सबकी विवशता है। यहाँ समपन्नता बहुत है, बहुत लोग निजी वायुयान रखते हैं, उसी से यात्रा करते हैं।

इसी प्रकार यहाँ की शस्त्र निर्माण कमपनियाँ भी हथियारों पर रोक नहीं लगाने देती। यहाँ शस्त्रास्त्र व्यवसाय बहुत बड़ा है और इनका सरकार पर बहुत प्रभाव है। शस्त्र के लिये अनुमति-पत्र की आवश्यकता नहीं है।

यह देश वैधानिक रूप से एक ईसाई देश है। जब भी कोई नगर या कॉलोनी बनाई जाती है, तो उसमें तीन-चार बड़े-बड़े प्रमुख स्थान चर्च के लिये छोड़े जाते हैं।

नगर, ग्राम सभी स्थानों पर अग्नि-शमन की सपूर्ण व्यवस्था है। अग्निशमन के समय जहाँ से जल लिया जायेगा, वह स्थान लाल रंग से चिह्नित किया गया होता है, वहाँ पर कोई वाहन नहीं खड़ा किया जा सकता, उस स्थान को सदा खाली रखना होता है। यहाँ लोगों में नियम पालन के अयास में सज्जनता से अधिक दण्ड-भय का है, जिससे सब बचना चाहते हैं।

छोटे-से-छोटे स्थान पर अन्य सुविधाओं के साथ-साथ पुस्तकालय होता है। यह प्रतिदिन प्रातः 9 बजे से रात्रि 9 बजे तक खुला रहता है। पुस्तक को कभी भी जमा किया जा सकता है। यह काम कमप्यूटर से होता है। पुस्तक निर्धारित मशीन में डाल दीजिये, आपके नाम पर जमा हो जायेगी। अलमारी में पुस्तक देखने के लिये ऊँचाई के लिये सीढ़ी तथा बैठकर देखने के लिये छोटी चौपाई सब स्थानों पर सुलभ है। बच्चों के लिये पृथक् कक्ष होता है। कमप्यूटर पर काम करने की सुविधा है। पुस्तकालय का उपयोग करने के लिये केवल उस क्षेत्र का नागरिक होना आवश्यक है। कोई शुल्क नहीं लगता। लोग हर समय पुस्तकालय का उपयोग करते देखे जा सकते हैं।

अमेरिका में साबुन से कपड़े धोने की प्रथा नहीं है, अतः इस देश में स्नान के लिये साबुन मिल जाता है, परन्तु कपड़े धोने का साबुन नहीं मिलता।

कपड़े मशीन में धोये जाते हैं और कपड़े सुखाने का कार्य भी मशीन से किया जाता है। घर के बाहर कपड़े सुखाना असभयता समझी जाती है।

यहाँ सार्वजनिक स्थानों पर पीने के पानी के नल लगे होते हैं, परन्तु उनमें पानी ऊपर की ओर निकलता है। नल की धार में मुँह लगाकर लोग पानी पीते हैं। यहाँ पात्र या अंजलि का प्रयोग कोई नहीं करता।

यहाँ शौचालयों में पानी की व्यवस्था नहीं होती। इस देश में भोजनालय से शौचालय तक सफाई का काम कागज से ही किया जाता है। यहाँ रूमाल का प्रयोग करने की प्रथा नहीं है।

दूरभाष या बैट्री चार्ज करने के लिये उपकरण में पिन के स्थान पर पत्ती होती है। अमेरिका में उतरते ही मेरे सामने सबसे पहले यही समस्या आई। मेरे पास पिन वाला चार्जर था, यहाँ पत्ती वाला काम आता है।

यहाँ के निवासियों को बहुत समय होने पर भी भोजन बनाना नहीं आता। इनका भोजन बर्गर, पिज्जा, नूडल, सिरियल्स आदि कुछ भी मिलाकर, कुछ भी बनाने जैसा है। किसी भी भोजन में मैदा और मांस ही मुखय होता है। इनके भोजन में दाल, शाक जैसी कोई कल्पना नहीं है, इसीलिये इनके यहाँ सूप और सलाद की कल्पना की गई है। हमारे यहाँ दाल, शाक, चटनी जैसी चीजों के रहते सलाद सूप की कल्पना नकल से अधिक कुछ नहीं है। यहाँ के लोग दाल-शाक के अभाव में भोजन के साथ कॉफी या कोक का प्रयोग करते हैं।

यहाँ रहने वाले भारतीय प्रायः अपना भोजन रविवार को बना लेते हैं और एक सप्ताह तक गर्म करके खाते हैं।

एक ओर यहाँ शुद्धता का बहुत ध्यान रखा जाता है, परन्तु इनके भोजन में विटामिन, प्रोटीन, मिनरल के नाम पर खाने के पदार्थों में भयंकर मिलावट रहती है। यहाँ आकर कोई यह नहीं कह सकता कि वह शाकाहारी बचा है। यहाँ दूध में विटामिन आदि के नाम पर कुछ भी पशु उत्पाद मिलाते रहते हैं। दही जमाने के लिये बछड़े की आँतों से निकलने वाले रेनिन का उपयोग किया जाता है। दही को गाढ़ा जमाने के लिये जिलेटिन उसमें मिलाया जाता है। डबल रोटी में अण्डा मिलाना सामान्य बात है, नान और रोटी के आटे में अण्डा मिला देते हैं। पनीर बनाने के लिये रेनिन का ही प्रयोग किया जाता है।

चॉकलेट, टॉफी, बिस्कुट में सब मांस के पदार्थ मिश्रित रहते हैं, अतः कोई भी मिठाई शाकाहार नहीं है।

यहाँ एक अच्छी बात है। भारत में रसोई के कचरे को लेकर बड़ी समस्या होती है। गीले कचरे को बाहर फेंका जाता है, परन्तु अमेरिका में गीला कचरा नल के नीचे डालकर बहा दिया जाता है, जिसे उसमें लगी मशीन चूरा करके पानी के साथ बहा देती है।

इस देश में शिक्षा निःशुल्क है। दसवीं तक शिक्षा के साथ भोजन की आवश्यकता हो तो सरकार उसकी भी व्यवस्था करती है। पूरे देश में शिक्षा व्यवस्था एक जैसी है, पूरे देश की भाषा एक ही है, इसलिये माध्यम में किसी प्रकार का संकट नहीं हैं। जो परिवार जिस क्षेत्र में रहता है, उसे अपने बच्चों को उसी क्षेत्र के विद्यालय में पढ़ाना अनिवार्य होता है। निजी विद्यालय बहुत कम और बहुत महँगे होते हैं।

छोटे बच्चों को कार की आगे की सीट पर बैठाना दण्डनीय होता है, उनके लिये पीछे की सीट पर अलग व्यवस्था करनी पड़ती है।

बारह वर्ष तक के बालक को अकेले घर पर छोड़ना दण्डनीय अपराध है।

दूरभाष पर बात करते हुए समबन्धित व्यक्ति न मिलने पर शबद सन्देश देने की परमपरा है।

घर से निकलते समय व्यक्ति समय के साथ वातावरण कैसा रहेगा, यह भी देखता है।

यहाँ वर्षा, आँधी, हवा, धूप, गर्मी, शीत का अनुमान बहुत पहले लग जाता है। पर्यावरण विज्ञान कार्यालय की घोषणा सटीक होती है, लोग उसके अनुसार अपने कार्यक्रम बनाते हैं।

भारत में पुराने छत के पंखों में दो पत्तियाँ होती थीं, फिर प्रायः तीन पत्ती होती हैं। अब कहीं-कहीं चार पत्तियाँ भी देखी जा सकती है, परन्तु अमेरिका में पंखों में पाँच पत्तियाँ होती हैं।

केलिफोर्निया में पीने का पानी छः सौ मील की दूरी से पहाड़ों से आता है, जबकि प्रदेश समुद्र के किनारे है।

अमेरिका में आयकर बहुत अधिक है। प्रदेश और केन्द्र का आयकर मिलकर चालीस से पैंतालीस प्रतिशत है। सभी सेवा कार्य करने वाले लोग इससे पीड़ित रहते हैं।

अमेरिका में चिकित्सकों की प्रतिष्ठा बहुत है, उनकी आय भी अधिक है। चिकित्सक बीमा कमपनियों से बँधे रहते हैं। स्वतन्त्र चिकित्सक बीमा के बिना देखता है तो बहुत पैसे लगते हैं। एक दाँत उखड़वाने में भारत जाकर आने और दाँत की चिकित्सा कराने जितना पैसा लगता है। सामान्य व्यक्ति के लिये आवास, भोजन, वाहन, भाषा की समस्या का संकट रहता है।

इस देश में सहायता के लिये एक अंक 711 है, इससे भारतीय लोग बहुत भयभीत रहते हैं। किसी भी प्रकार की सहायता के लिये पुलिस को बुलाया जा सकता है। विद्यालय में बच्चों को सिखाया जाता है- जब कोई तुमसे दुर्व्यवहार करे तो तुम इस अंक पर सूचना दे सकते हो। बच्चों को डांटना, पीटना इस देश में अपराध है। ऐसा अनेक बार होता है। भारतीय माता-पिता बच्चों को डाँटते या मारते हैं, तो बच्चे पुलिस में शिकायत कर देते हैं। पुलिस पकड़कर ले जाती है, पीटने वाले को जेल में बन्द कर देती है।

शिकागो में श्री भूपेन्द्र शाह ने बताया कि यहाँ एक माता-पिता अपने पुत्र-पुत्रवधू के पास रहने के लिये भारत छोड़कर अमेरिका आ गये। सास ने किसी बात पर नाराज होकर पुत्रवधू को बहुत डांट दिया। बहू ने इस अंक पर शिकायत कर दी, पुलिस सास-श्वसुर को पकड़कर थाने ले गई। फिर अलग होटल में रखा और फिर भारत भेज दिया।

16 वर्ष की आयु के बाद बच्चे स्वतन्त्र होते हैं। आप उन्हें घर जबरदस्ती नहीं रख सकते, वे घर छोड़कर कहीं भी जा सकते हैं।

इस देश में विद्यालय की शिक्षा निःशुल्क है, परन्तु कॉलेज विश्वविद्यालय की उच्च शिक्षा बहुत महँगी है। जो प्रतिभाशाली बच्चे हैं, उन्हें छात्रवृत्ति मिल जाती है, जो समपन्न है या पुरुषार्थी हैं, स्वयं कमाकर पढ़ते हैं। शेष लोग अपनी आजीविका में लग जाते हैं। यहाँ के संस्थानों में ईसाई लोगों को प्राथमिकता दी जाती है।

इस देश की विशेषता है कि आपके पास धन है तो आपके पास सब कुछ है। आप जो सुविधा चाहो, प्राप्त कर सकते हो। यहाँ पर संवेदना, भावात्मकता का कोई स्थान नहीं। जिन बातों से मन में संवेदना जागती है, उनका यहाँ नितान्त अभाव है। डॉ. सुखदेव सोनी के शबदों में यहाँ के लोगों के पास माता-पिता, गुरु, अतिथि को छोड़कर सब कुछ है। माता-पिता उत्पन्न कर देते है, परन्तु उनका कब और कितनी बार तलाक होगा, पता नहीं। ऐसे में बच्चों की संवेदना किससे जुड़ेगी? कक्षा में शिष्य अध्यापक के सामने टेबल पर पैर फैलाकर बैठता है तो अध्यापक उसे कुछ भी नहीं कह सकता, फिर आदर का भाव कहाँ से उत्पन्न होगा? अतिथि तो यहाँ कोई होता ही नहीं। सबके सब यहाँ अनुमति से आते-जाते हैं।

यहाँ निवास करने वाले भारतीयों का स्वभाव भिन्न है। किसी गोरे व्यक्ति से दृष्टि मिलती है, तो वह हँसकर ‘कैसे हो’ पूछता है, ‘धन्यवाद’ कहता है, परन्तु अधिकांश भारतीयों के चेहरे पर देखकर अप्रसन्नता का भाव प्रकट होता है, आँख मिलने पर चेहरा घुमा लेते हैं।

भारतीय लोग घर में भी अंग्रेजी का व्यवहार करने में गौरव समझते हैं। बच्चों से अंग्रेजी ही बोलते हैं। परिणामस्वरूप बच्चों को मातृभाषा या हिन्दी से परिचय नहीं हो पाता। कुछ परिवार घर में मातृभाषा का प्रयोग करते हैं।

इस देश में दूरी आज भी मील में नापी जाती है, तोल नाप के लिये पौण्ड, गेलन का ही प्रयोग होता है,गर्मी का माप फारनहाइट में ही होता है।

बस में परिचालक नहीं होता। एक पास राज्य या नगर में चलता है। एक यात्रा का नगर में एक ही टिकिट होता है।

सड़क पर कोई पैदल चलता हुआ दिखाई नहीं देता। सड़क पर कारें या बड़े लमबे-लमबे बन्द ट्रक चलते दीखते हैं।

सभी यान, सार्वजनिक स्थानों पर नियम से अशक्तों की पृथक् से व्यवस्था करनी होती है। इसमें किसी प्रकार की कमी दण्डनीय होती है।

कारों में पेट्रोल अपने-आप भरना होता है। कोई सहायक या दुकानदार नहीं होता। लेन-देन का सारा काम क्रेडिट कार्ड से होता है। नकद का व्यवहार बहुत कम होता है।

यहाँ सरकार पर पूँजीपतियों और बड़ी कमपनियों का कबजा है तो दवा बनाने वाले, डॉक्टर, बीमा कपनियाँ और वकील मिलकर जनता को लूटते हैं। एक डॉक्टर ने अपने व्यवसाय के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा था- डॉक्टर क्या करता है,एक मनुष्य की सारे जीवन की कमाई का नबे प्रतिशत उसकी आयु के अन्तिम पाँच सालों में लूट लेता है।

बड़ा देश होने के कारण यहाँ की जलवायु सभी प्रदेशों में भिन्न-भिन्न है। आज धूप में चलने पर लॉस एन्जलस में दिल्ली की तरह गर्मी लगती है, वहीं सनीवेल में गर्मी-सर्दी दोनों नहीं है। यहाँ धूप प्रातः पाँच बजे से सायं सात बजे तक रहती है।

शिकागो में प्रातः उठा तब हिमपात हो रहा था। मध्याह्न में धूप निकल रही थी। सायंकाल के समय तेज हवायें चल रही थीं।

ह्यूस्टन पर समुद्र का प्रभाव बहुत रहता है। आज समुद्री तूफान में डूब रहा है, एक दिन उत्तर की हवायें चलती हैं, शीत बढ़ जाता है। दक्षिण की हवा चलती है, उष्णता बढ़ जाती है।

सड़क पर कोई किसी से आगे भागने का प्रयास नहीं करता। बड़े राज मार्ग पर तेज चलने के लिये अपनी पंक्ति बदलनी होती है।

सड़क पर कहीं भी  अकस्मात् रुक नहीं सकते। रुकने के लिये स्थान बने होते हैं।

सड़क को कहीं से पार नहीं कर सकते। सड़क पार करने के लिये निशान बने हैं, गाड़ी वहीं से पार हो सकती है। गाड़ी के उपमार्ग से मुखय मार्ग पर आने का स्थान निश्चित है, उसी प्रकार बाहर निकलने के लिये भी स्थान निश्चित है।

इस देश में सड़क पर यात्रा करते हुए बड़े खेतों में गायों के झुण्ड चरते हुए देख कर प्रसन्न मत होइये। गाय अमेरिका का सबसे दुर्भाग्यशाली पशु है। इसका समबन्ध इसका मांस खाने से है। यहाँ वालों का मुखय भोजन गाय का मांस (बीफ) है। इसके बाद सूअर, घोड़े आदि आते हैं। यहाँ का भाग्यशाली जानवर कुत्ता है, इसकी बहुत सेवा होती है।

दूध मशीन से निकालते हैं, अतः बछड़ा पैदा होने पर मारकर गाय को चारे में मिलाकर खिला देते हैं। दूध में खून आने पर उसका मिल्क चॉकलेट बन जाता है।

इस देश में दैनिक घरेलू काम से लेकर सामाजिक समारोह तक के सारे काम सभी लोग मिल-बाँट कर ही कर लेते हैं। मजदूर से कार्य कराना, महँगा होने से समभव नहीं है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

 

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

पिछले अंक का शेष भाग…..

  1. पुराभवं पुरा भवा पुराभवश्च इति पुराणं पुराणी पुराणः।
  2. 2. वहाँ ब्राह्मण पुस्तक जो शतपथादिक हैं, उनका ही नाम पुराण है तथा शंकराचार्य जी ने भी शारीरक भाष्य में और उपनिषद् भाष्य में ब्राह्मण और ब्रह्म विद्या का ही पुराण शबद से अर्थ ग्रहण किया है।
  3. 3. तीसरा देवालय और चौथा देव पूजा शबद है। देवालय, देवायतन, देवागार तथा देव मन्दिर इत्यादिक सब नाम यज्ञशालाओं के ही हैं।
  4. 4. इससे परमेश्वर और वेदों के मन्त्र उनको ही देव और देवता मानना उचित है। अन्य कोई नहीं।

(-स्वामी दयानन्द, प्रतिमा पूजन विचार, पृ. 483-485, दयानन्द ग्रन्थमाला)

ऋषि दयानन्द के जीवन में मूर्तिपूजा की अवैदिकता और अनौचित्य पर वाद-संवाद, शास्त्रार्थ, भाषण, चर्चा, परिचर्चा तो बहुत मिलती है, परन्तु एक आश्चर्यजनक प्रसंग भी मिलता है। स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तों और मान्यताओं को लेकर कोलकाता की आर्य सन्मार्ग सन्दर्शिनी सभा का एक अधिवेशन 22 जनवरी रविवार सन् 1881 को कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल में भारत के 300 विद्वानों की उपस्थिति में हुआ, जिसमें स्वामी दयानन्द के मन्तव्यों को सर्वसमति से अस्वीकार किया गया। इसमें आश्चर्य और महत्त्व की बात यह है कि इस सभा में पूर्व पक्षी के रूप में स्वयं स्वामी दयानन्द या उनका कोई प्रतिनिधि उपस्थित नहीं था, न ही निमन्त्रित किया गया था और न ही किये जाने वाले प्रश्नों के उनसे उत्तर माँगे गये थे। यह कार्य नितान्त एकपक्षी और सभा की ओर से ऋषि दयानन्द की मान्यता को अस्वीकार करते हुए पाँच उत्तर स्वीकृत हुए थे।

आर्यसमाज के आरमभिक काल के एक और सुयोग्य लेखक बाबा छज्जूसिंह जी द्वारा लिखित व सन् 1903 ई. में प्रकाशित  Life and Teachings of Swami Dayananda पुस्तक की भी एतद्विषयक कुछ पंक्तियाँ यहाँ देना उपयोगी रहेगा। विद्वान् लेखक ने लिखा है-

“While Swami Dayananda was at Agra,  a Sabha called the Arya Sanmarg Sandarshini Sabha, was established at Calcutta, with the object of having it decided and settled, once for all, by the most distinguished representatives of orthodoxy in the land (that could be got hold of for the purpose of course) that Dayanand’s views on Shraddha, Tiraths, Idol-Worship, etc. were entirely unorhodox and unjustifiable. Sanskrit scholars rising to the number of three hundred responded to the call of the Sabha, and a grand meeting composed of the local men and of the outsiders, came off in the Senate Hall on 22nd January, 1881. It is significant that not  one of the numerous distinguished pandits present thought of suggesting or moving that the man upon whom the Sabha was going to sit in judgement, should be condemned or acquitted after he had been fully heard. It may be urged that the Sabha was not in humour to acquit Dayanand under any circumstances, but still he should have been permitted to have his say before he was condemned. Surely, one man could be dealt with very well by and assemblage so illustrious and so erudite. But the Pandits and their admirers were wise in their  generation. Dayanand, though ine, had proved too many for still a more learned and august gathering at Benares.”1

(1. Life and Teachings of Swami Dayananda, Page. 39, Part-II)

आर्य सन्मार्ग सन्दर्शिनी सभा कलकत्ता और स्वामी दयानन्द सरस्वती का सिद्धान्त- सबको ज्ञात हो कि 22 जनवरी सन् 1881 ई. को रविवार के दिन सायंकाल सीनेट हॉल कलकत्ता में वहाँ के श्रीमन्त  बड़े-बड़े लोगों और प्रसिद्ध पण्डितों ने एकत्र होकर यह सभा दयानन्द सरस्वती जी की कार्यवाहियों पर विचार करने के उद्देश्य से आयोजित की थी। इस सभा का विस्तृत वृत्तान्त हम ‘सार सुधा निधि’ पत्रिका से नीचे अंकित करते हैं। इस सभा के व्यवस्थापक पण्डित महेशचन्द्र न्यायरत्न जी कॉलेज के प्रिंसिपल थे। इस सभा में पण्डित तारानाथ तर्कवाचस्पति, जीवानन्द विद्यासागर बी.ए. और नवदीप के पण्डित भुवनचन्द्र विद्यारत्न आदि बंगाल के लगभग तीन सौ पण्डित और कानपुर के पण्डित बाँके बिहारी वाजपेयी और यमुना नारायण तिवारी और वृन्दावन के सुदर्शनाचार्य जी और तञ्जौर (मद्रास प्रेसीडैन्सी) के पण्डित राम सुब्रह्मण्यम शास्त्री जिनको सूबा शास्त्री भी कहते हैं, पधारे थे। इनके अतिरिक्त श्रीमन्त लोगों में वहाँ के सुप्रसिद्ध भूपति ऑनरेबल राजा यतीन्द्र मोहन ठाकुर सी.एस.आई., महाराज कमल कृष्ण बहादुर, राजा सुरेन्द्र मोहन ठाकुर, सी.एस.आई., राजा राजेन्द्रलाल मलिक, बाबू जयकिशन मुखोपाध्याय, कुमार देवेन्द्र मलिक, बाबू रामचन्द्र मलिक, ऑनरेबल बाबू कृष्णदास पाल, लाला नारायणदास मथुरा निवासी, राय बद्रीदास लखीम बहादुर, सेठ जुगलकिशोर जी, सेठ नाहरमल, सेठ हंसराज इत्यादि कलकत्ता निवासी सेठ उपस्थित थे। यद्यपि पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर व बाबू राजेन्द्रलाल मित्र एल.एल.डी. ये दोनों महानुभाव पधार नहीं सके थे, तथापि इन महानुभावों ने सभा की कार्यवाही को जी-जान से स्वीकार किया। जिस समय ये सब सज्जन सीनेट हॉल में एकत्र हुए, तब पण्डित महेशचन्द्र न्यायरत्न जी ने इस सभा के आयोजन करने का विशेष प्रयोजन बता करके निनलिखित प्रश्न प्रस्तुत किये-

प्रश्न 1- पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न जी ने पहला प्रश्न यह किया कि वेद का संहिता भाग जैसा प्रामाणिक है ब्राह्मण भाग भी वैसा ही प्रामाणिक है अथवा नहीं? और मनुस्मृति धर्मशास्त्र के समान अन्य स्मृतियाँ मानने योग्य हैं अथवा नहीं। पृ. 639

उत्तर इस प्रकार बहुत-सी युक्तियों से यह बात सिद्ध होती है कि संहिता के समान ब्राह्मण भाग तथा मनुस्मृति के समान विष्णु याज्ञवल्क्य आदि समस्त स्मृतियाँ मानने योग्य हैं तथा यही सब पण्डितों का सर्वसमत मत है। पृ. 641

प्रश्न 2- पण्डित महेशचन्द्र न्यायरत्न ने दूसरा प्रश्न यह किया कि शिव, विष्णु, दुर्गा आदि देवताओं की मूर्तियों की पूजा और मरणोपरान्त पितरों का श्राद्ध आदि और गंगा, कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों व क्षेत्रों में स्नान तथा वास, शास्त्र के अनुसार उचित है अथवा अनुचित? पृ. 641

उत्तर …..अतः देवताओं की मूर्ति और उनकी पूजा करना सब श्रुतियों और स्मृतियों के अनुसार उचित है। पृ. 645

….अतः यह बात सुस्पष्ट होकर निर्णीत हो गई कि मृतकों का श्राद्ध श्रुति व स्मृति दोनों के अनुसार विहित है। पृ. 646

…..अतः गंगा आदि का स्नान और कुरुक्षेत्र आदि का वास श्रुति और स्मृति दोनों से सिद्ध है। पृ. 646

प्रश्न 3- पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न ने तीसरा प्रश्न यह किया कि अग्निमीळे. इत्यादि मन्त्र में अग्नि शबद से परमात्मा अाि्रिेत है अथवा आग? पृ. 647

उत्तर….अतः इस मन्त्र में अग्नि शबद का अर्थ जलाने वाली आग ही है। पृ. 647

प्रश्न 4- पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न जी ने चौथा प्रश्न यह किया कि अग्निहोत्र इत्यादि यज्ञ करने का प्रयोजन (उद्देश्य) जल, वायु की शुद्धि है अथवा स्वर्ग की प्राप्ति? पृ. 647

उत्तरयजुर्वेद के मन्त्रों से अग्निहोत्र आदि यज्ञ स्वर्ग साधक हैं। पृ. 647

प्रश्न 5- पं. महेशचन्द्र जी ने पाँचवाँ प्रश्न यह किया कि वेद के ब्राह्मण भाग का निरादर करने से पाप होता है अथवा नहीं? पृ. 647

उत्तरइसका उत्तर देते हुए पं. सुब्रह्मण्यम शास्त्री ने कहा कि यह तो प्रथम प्रश्न के उत्तर में कह चुके हैं कि ब्राह्मण भाग भी वेद ही हैं, फिर ब्राह्मण भाग का अपमान करने से मानो वेद का ही अपमान हुआ।…. पृ. 647

उसके पश्चात् पण्डितों की समति लेनी आरमभ हुई। निनलिखित पण्डितों ने सर्वसमति से हस्ताक्षर कर दिये। पृ. 648

इन प्रश्नों में दूसरा प्रश्न मूर्तिपूजा से सबन्धित है। इसमें सुब्रह्मण्यम शास्त्री ने मूर्ति पूजा के समर्थन में ऋग्वेद के मन्त्र का उल्लेख करके बताया- शिवलिङ्ग की पूर्ति की पूजा स्थापना आदि से पूजन का फल होता है, मन्त्र है-

तव श्रिये मरुतो मर्जयन्त रुद्र यत्ते जनिम चारु चित्रम्।।

-ऋग्वेद 5/3/3

उसके अतिरिक्त रामतापनी, बृहज्जाबाल उपनिषद् में शिवलिंग की पूजा करना लिखा है। मनुस्मृति में लिखा है-

नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम्।

देवतायर्चनं चैव, समिदाधानमेव च।।

-मनु. 2/176

इसके अतिरिक्त देवल स्मृति, ऋग्वेद गृह्य परिशिष्ट बौधायन सूत्र आदि के प्रमाण दिये हैं।

इन प्रमाणों के उत्तर में लेखक ने स्वामी दयानन्द का जो पक्ष रखा है, उसका मुखय आधार है- वेद स्वतः प्रमाण हैं और शेष ग्रन्थ परतः प्रमाण हैं, अतः उनकी प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध नहीं है। फिर भी जिन प्रमाणों को दिया गया है, वह प्रसंग मूर्ति पूजा पर घटित नहीं होता। स्वामी दयानन्द ने सामवेद के ब्राह्मण के पाँचवें अनुवाक के दसवें खण्ड में स्पष्ट लिखा है- सपरन्दिव0 आदि यहाँ देवताओं की मूर्ति का प्रसंग ब्रह्म लोक का है। पृ. 643

मूर्तिपूजा के पक्ष में प्रमाण देते हुए मनु को उद्धृत किया है और कहा गया है- दो ग्रामों के मध्य मन्दिरों का निर्माण करना चाहिए तथा उसमें प्रतिमा स्थापित की जानी चाहिए-

सीमासन्धिषु कार्याणि देवतायतनानि च।

8/248

संक्रमध्वजयष्टीनां प्रतीमानां च भेदकः।

प्रतिकुर्याच्च तत् सर्वं पञ्च दद्याच्छतानि च।।

9/285

मूर्तिपूजा के समर्थन में दिये गये तर्कों पर लेखक ने स्वामी दयानन्द का पक्ष निमन प्रकार से उपस्थित किया है-

स्वामी दयानन्द जिन शास्त्रों का प्रमाण मूर्तिपूजा के खण्डन में देते हैं, मूर्तिपूजा का समर्थन करने वालों को उन्हीं शास्त्रों से मूर्तिपूजा के समर्थन के प्रमाण देने चाहिए जो नहीं दिये गये।

ऋग्वेद के जिस मन्त्र का अर्थ शिवलिंग की स्थापना किया है, वह मर्जयन्त शबद मृज धातु से बना है जिसका अर्थ शुद्ध करना, पवित्र करना, सजाना, शबद करना है, अतः इसका अर्थ पूजा करना कभी नहीं है, अपितु परमेश्वर की स्तुति करना है।

जो गाँव की सीमा में देवताओं के मन्दिर बनाने का विधान है, इसी प्रसंग में सीमा पर तालाब, कूप, बावड़ी आदि के वाचक शबदों का प्रयोग किया गया है, अतः मन्दिर की बात नहीं है। उत्तर काल में इन स्थानों पर मन्दिर बनने लगे, वह शास्त्र विरुद्ध परमपरा है।

अन्त में मूर्ति पूजा वेद विरुद्ध है, इसको बताने के लिए वेद मन्त्रों के प्रमाण दिये गये हैं।

मूर्तिपूजा के निषेध में प्रमाण अतः उपर्युक्त युक्तियों से यह तो भली-भाँति निश्चित हो गया कि मूर्ति-पूजा उचित नहीं और अब उसके खण्डन में वेदों तथा उपनिषदों के कुछ प्रमाण देकर इस विषय को समाप्त करते हैं-

‘‘न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः।’’

अर्थउस परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं, उसका नाम अत्यन्त तेजस्वी है।

स पर्य्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।

अर्थवह परमात्मा सर्वव्यापक, सर्वद्रष्टा, सर्वशक्तिमान्, शरीररहित, पूर्ण, नस-नाड़ी के बन्धन से रहित, शुद्ध है तथा पापों से पृथक् है।

अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते।

ततो भूय इव ते तमो य उ सभूत्यां रताः।।

अर्थजो लोग प्रकृति आदि जड़-पदार्थों की पूजा करते हैं, वे नरक में जाते हैं तथा जो उत्पन्न की हुई वस्तुओं की पूजा करते हैं वे  इससे भी अधिक अन्धकारमय नरक में जाते हैं।

तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।

जो बुद्धिमान् उसे आत्मा में स्थित देाते हैं, उन्हीं को शाश्वत सुख प्राप्त होता है, औरों को नहीं।

ततो तदुत्तरतरं तदरूपमनामयम्।

य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापि यान्ति।।

जो सृष्टि व सृष्टि के उपादान कारण से उत्कृष्ट है, वह निराकार व दोषरहित है। जो उसको जानते हैं, उनको अमर जीवन प्राप्त होता है और दूसरे लोग केवल दुःख में फँसे रहते हैं।

तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति,

नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।

अर्थउसी के ज्ञान से मृत्यु के पंजे से छुटकारा होता है और कोई मार्ग ध्येय धाम का नहीं है।

किसी देवता की उपासना भी उचित नहीं है। शतपथ ब्राह्मण में जहाँ तैंतीस देवताओं की व्याखया की है (और उन्हीं तैंतीस के आज तैंतीस करोड़ बन गये हैं और उस सूची के पूरा होने के पश्चात् जो उसमें और गुगा पीर जैसे समय-समय पर सममिलित होते रहे हैं, वे इनसे अतिरिक्त हैं) वहाँ भी परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य की पूजा विहित नहीं रखी, प्रत्युत उसका खण्डन किया है।

आत्मेत्येवोपासीत। स योऽन्यमात्मनः प्रियं ब्रुवाणं ब्रूयात्प्रियं रोत्स्यतीश्वरो ह तथैव स्यात्।

योऽन्यां देवतामुपास्ते न स वेद।

तथा पशुरेव स देवानाम्।

परमेश्वर जो सबका आत्मा है, उसकी उपासना करनी चाहिये। जो परमेश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को प्यारा अर्थात् उपास्य समझता है, उसे जो कहे कि तू प्रिय के विरह में दुःख में पड़ेगा, वह सत्य पर है। जो और देवता की उपासना करता है, वह वास्तविकता को नहीं जानता। वह निश्चित रूप से बुद्धिमानों में पशु सदृश है।

(दयानन्द ग्रन्थमाला, पृ. 665)

टिप्पणियाँ

  1. द्वा सुपर्णा., पृ. 277 मुण्डक उपनिषद्, एकादशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, प्रकाशक- विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली, संस्करण-2006
  2. अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।

रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त सञ्ज्ञके।।

– गीता, अध्याय 8, श्लोक 18, गीता प्रेस

  1. पृ. 112, प्रश्नोपनिषद्, एकादशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, संस्करण-2000, प्रकाशक-विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली
  2. न तस्य प्रतिमा अस्ति। -यजु. 32 मन्त्र-3, परोपकारिणी सभा, अजमेर, पृ.
  3. यज् वेदपूजा संगतिकरण दानेषु। -धातु पाठ, पाणिनी मुनि
  4. वातो देवता चन्द्रमा देवता।-प्रतिमा पूजन विचार, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग 1,परोपकारिणी सभा, संस्करण-2012
  5. मातृदेवो भव, पृ. 230, तैत्तिरीयोपनिषद्, एकदशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, संस्करण 2000, प्रकाशक- विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली
  6. यजु. 40/9, सत्यार्थप्रकाश, पृ. 370, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग 1, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा, संस्करण-2012
  7. पृ. 813, उपदेश मञ्जरी, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग 2, प्रकाशक- परोपकारिणी साा, अजमेर, संस्करण-2012
  8. पृ. 373, दयानन्द ग्रन्थमाला भाग 1, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा, संस्करण-2012
  9. पृ. 373, दयानन्द ग्रन्थमाला भाग 1, दयानन्द ग्रन्थमाला, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा अजमेर, संस्करण-2012
  10. अन्धन्तमः प्रविशन्ति। -यजु. 40/9
  11. केन उपनिषद्। पृ. 230, तैत्तिरीयोपनिषद्, एकादशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, संस्करण 2000, प्रकाशक- विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली

– डॉ. धर्मवीर

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता-34

स्तुता मया वरदा वेदमाता-34

उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः

ऋग्वेद के दशम मण्डल में एक सौ सैतीसवाँ सूक्त हे। इसमें सात मन्त्र है। इन मन्त्रों के ऋषि के रूप में सप्तर्षयः ऐसा उल्लेख है। इस का अभिप्राय है- प्रत्येक ऋचा का एक-एक ऋषि है। सप्तर्षयः कहने से सात ऋषियों का गहण होता है। वैदिक साहित्य से सप्त ऋषय कहने से पाँच प्राण और अहंकार महत का ग्रहण है, कही सप्त ऋषि, पञ्चप्राण, सूत्रात्मा, धनञ्जय का उल्लेख है। सप्तर्षयः सूर्य की रश्मियों का नान भी है। पाँच इन्द्रियों के साथ मन और विद्या को भी सप्तर्षयः कहा गया। मन्त्र के देवता के रूप में विश्वेदेवाः कहा गया है। यहाँ देवा, विद्वान्सः विद्वान् समझदार, बड़े लोगों का ग्रहण किया जाता है। इन्द्रियों के लिये भी देव शद का उपयोग किया गया है।

इस पूरे सूक्त में मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक बातों का उल्लेख किया गया। मनुष्य जड़ चेतन का संयोग है। चेतन आत्मा तो स्वरूप से अनादि है, उसके स्वभाव में, स्वरूप में कोई परिवर्तन कभी नहीं होता। शरीर का भौतिक स्वरूप दो प्रकार का है, एक स्थूल तथा दूसरा सूक्ष्म। जो पदार्थ जितना स्थूल होगा, उसका स्वरूप उतना ही अधिक परिवर्तनशील होगा। दूसरे शबदों में उसका नाश उतना ही शीघ्र होगा। भौतिक पदार्थों में स्थूल शरीर तो बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है, परन्तु मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, भौतिक होने पर भी सूक्ष्म होने के कारण इनकी अवधी पूरी सृष्टि के काल तक है।

संसार यात्रा स्थल है। यात्रा का लक्ष्य आत्म साक्षात्कार है। इसके साधन स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर है। बाह्यजगत् की यात्रा स्थूल शरीर से होती है और अन्तर्जगत् की यात्रा मन, बुद्धि से या सूक्ष्म शरीर से होती है। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और जीवात्मा मिलकर एक इकाई बनती है, जिसे शास्त्र में आत्मेन्द्रिय मनोभुक्तं भोक्ते, यादुर्मजीषीणः कहा है। आत्मा इन्द्रिय मन जब संसार से जुड़ते हैं, तब आत्मा की सेता भोक्ता होती है, तब वह संसार का उपभोग करने में समर्थ होता है। केवल चेतन आत्मा संसार का साक्षात्कार नहीं कर सकता है। केवल सूक्ष्म शरीर के साथाी संसार के सपर्क में नहीं आ सकता। संसार की यात्रा स्थूल शरीर से होती है। मुक्ति की यात्रा सूक्ष्म शरीर से होती है। ये दोनों ही साधन स्वस्थ, समर्थ होने चाहिए। इसलिये इस सूक्त में दोनों को स्वस्थ रखने की बात कही गई है।

जब-जब मनुष्य अनुचित विचारों के सपर्क में आता है, तब-तब उसका मानसिक पतन होता है। मानसिक पतन का कारण यदि बुरे विचार हैं, तो मानसिक स्वास्थ्य के लिये अच्छे विचारों का विकल्प चाहिए। वैद्य मन और शरीर दोनों की चिकित्सा करता है। वात, पित, कफ से शरीर चिकित्सा की जाती है। रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण के ज्ञान से मानस चिकित्सा की जाती है। शरीर की चिकित्सा के लिये परमेश्वर की प्रार्थना और औषधियों का युक्तिपूर्वक सेवन करना, स्वस्थ होने का उपाय है, तो मन के स्वास्थ्य के लिये शास्त्र कहता है- ज्ञान विज्ञान धैर्य स्मृति समाधिर्भिः। ज्ञान आत्मा के विषय में जानना, विज्ञान शास्त्र का जानना, धैर्य, धीरता, स्मरण शक्ति, समाधि, एकाग्रता, इन बातों से मन के रोगों की चिकित्सा की जाती है। यह चिकित्सा विद्वान् वैद्य के बिना सभव नहीं होती।

मन और शरीर दोनों भौतिक हैं, इस कारण एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। शरीर में रोग, असमर्थता होने पर मन में निराशा, अनुत्साह होने लगता है। मन में खिन्नता होती है। मानसिक दुःख होता है, तब उसका प्रभाव शरीर पर होने लगता है। मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये शरीर, आत्मा दोनों का ध्यान रखना पड़ता है। हम केवल शरीर की चिन्ता करें और मन को स्वस्थ रखने का उपाय न करें, तो मनुष्य के अन्दर राग, द्वेष, ईर्ष्या, काम, क्रोध आदि की भावनाएँ बढ़ने लगती हैं। इसको केवल शरीर के उपायों से नियन्त्रित नहीं किया जा सकता। मनुष्य काम, क्रोध से राग द्वेष में पड़ जाता है, तो उसकी भूख और नींद समाप्त होने लगती है, शरीर रोगी होने लगता है। मानसिक रोगों का मूल कारण स्वार्थ है। मानसिक स्वास्थ्य का प्रमुख उपाय परोपकार है। जो मनुष्य स्वार्थी है, वह कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता, परोपकारी व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होता। स्वार्थी व्यक्ति किसी बात को करने के लिये, किसी वस्तु को पाने के लिये अनुचित विचारों की सहायता लेता ही है, उसके न मिलने की आशंका से भय, ईर्ष्या, द्वेष स्वाभाविक रूप से बनते हैं। इसलिये मनुष्य को प्रतिदिन शरीर के स्वास्थ्य के उपायों के साथ-साथ मानसिक उपाय का प्रयास करना चाहिए।

मनुष्य के मन में रजोगुण बढ़ता है, तो मन चंचल और रागद्वेष से युक्त होता है। परोपकार और उपासना से मन में सतोगुण की वृद्धि होती है। देव लोग पतित मनुष्य को भी इन उपायों से उठा देते हैं, मानसिक रूप से स्वस्थ कर देते हैं।

 

पुस्तक – समीक्षा पुस्तक का नाम – सत्यार्थप्रकाश का व कशासाठी?

पुस्तक – समीक्षा

पुस्तक का नाम – सत्यार्थप्रकाश का व कशासाठी?

लेखक माधव के देशपांडे

प्रकाशक आर्य प्रकाशन, पिंपरी, पुणे-411018

मूल्य 60/-    पृष्ठ संया– 93

सत्यार्थप्रकाश एक चर्चित ग्रन्थ है, जितना क्रान्तिकारी व्यक्तित्व स्वामी दयानन्द का है, उतने ही क्रान्तिकारी विचार उनके लिखे ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में है। यह ग्रन्थ जब प्रकाशित हुआ था, तब जितना चर्चित था, आज भी चर्चा में इस ग्रन्थ का उतना ही महत्त्व है। यह ग्रन्थ वैदिक सिद्धान्त मानने वाले के लिये बौद्धिकता की पराकाष्ठा प्रदान करता है, वहाँ विरोधी विचार वाले को बुद्धि का उपयोग करने के लिये बाध्य करता है।

भारत में हिन्दू धर्म में प्रचलित जितने मत-सप्रदाय हैं, उन सब में जितनी मान्यतायें, रूढि, अन्धविश्वास और पाखण्ड पर आधारित हैं, उन सबका तार्किक विश्लेषण इस ग्रन्थ में उपलध है। जो विदेशी स्वयं पाखण्ड में फँसे हुये थे, परन्तु हिन्दुओं की मूर्खता पर हँसने में बड़प्पन समझते थे, उन विदेशी मतों में मुखय रूप से ईसाइयत और इस्लाम की मिथ्या धारणाओं का भी तार्किक खण्डन इस ग्रन्थ के 13 वें और 14 वें समुल्लास में किया गया। ग्रन्थ की इस विवेचना के कारण ही क्रान्तिवीर सावरकर ने लिखा था- ‘‘सत्यार्थ प्रकाश के रहते कोई विदेशी अपने मत की डींगें नहीं हाँक सकता।’’

इस ग्रन्थ में तार्किक और न्याय संगत विचार होने के कारण जितने भी बुद्धिजीवी समाज में हुये, सबने मुक्तकण्ठ से इस ग्रन्थ की प्रशंसा की है। आर्य समाज और ऋषि दयानन्द के सपर्क में जो विद्वान् नेता, राजा-महाराजा आये, उन्होंने इस ग्रन्थ को पढ़ने की प्रेरणा सबको की।

दक्षिण में छत्रपति शाहू महाराज ने अपने विद्यालयों में सत्यार्थप्रकाश पढ़ाने की अनिवार्यता की थी। जोधपुर, उदयपुर राज्यों में भी ऋषि ग्रन्थों के पठन-पाठन की व्यवस्था अनेक स्थानों पर की गई। शाहपुराधीश नाहरसिंह वर्मा का शाहपुरा राज्य आर्य राज्य कहलाता था। यहाँ विद्यालयों में प्रतिदिन हवन होता था तथा विद्यालयों में ऋषि कृत ग्रन्थों के पठन-पाठन की व्यवस्था की गई थी।

इस ग्रन्थ की भाषा तार्किक होने के साथ दृढ़ता प्रदर्शित करती है, जिसके कारण जिन मत-मतान्तरों का इसमें खण्डन किया गयाहै, उनमें से कुछ लोगों ने इस पर आपत्ति की तो कुछ लोगों ने न्यायालय की शरण ली, परन्तु इस ग्रन्थ के पक्षपात रहित न्याय संगत तार्किक विचारों का सर्वत्र आदर किया गया। इस ग्रन्थ को पढ़ने के बाद मनुष्य की विचार करने की शक्ति जागृत हो जाती है। वह कुछ भी करने से पहले क्या, क्यों, कैसे, जैसे प्रश्नों पर उन विचारों को परखता है तभी अनुकूल होने पर स्वीकृति की ओर बढ़ता है।

ऋषि दयानन्द की ऐसी विशेषता है कि जो किसी प्रचलित गुरुओं के धर्मग्रन्थ हैं, उनमें दिखाई नहीं देती, कोई गुरु अपने शिष्य को उसकी परीक्षा करने का अधिकार नहीं देता, परन्तु ऋषि दयानन्द कहते हैं- मनुष्य को गुरु बनाने से पहले गुरु की ओर से पढ़े जाने वाले शास्त्र की परीक्षा अवश्य करनी चाहिए। गुरु का तो, शिष्य की परीक्षा का अधिकार था, परन्तु शिष्य को गुरु की परीक्षा करने का अधिकार ऋषि दयानन्द ही देते हैं। वे सत्यार्थ प्रकाश में परीक्षा के पाँच प्रकार भी बताते हैं। इसी कारण जहाँ अन्य गुरु अपने शिष्य को ज्ञान और विवेक का अधिकार नहीं देते, वहीं ऋषि दयानन्द शिष्य को ज्ञानवान् और विवेकी बनने की प्रेरणा करते हैं।

इस प्रकार जीवन के सभी क्षेत्र और सभी अवसर सत्यार्थप्रकाश के विचार क्षेत्र में आते हैं। मनुष्य के बाल्य से लेकर मृत्यु तक की अवधि हो या विविध ज्ञान-विज्ञान को समझने के अवसर हों, इसी कारण सत्यार्थप्रकाश के 7, 8, 9 वें समुल्लास में सपूर्ण दार्शनिक पक्ष प्रस्तुत किया गया है।

ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को मराठी भाषा में प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास श्री माधव देशपाण्डे ने किया है। श्री देशपाण्डे ने स्वयं और अपनी धर्मपत्नी और अपने बच्चों को इस ग्रन्थ के माध्यम से प्रबुद्ध बनाया है और अब वे समाज के युवाओं को भी इस उत्कृष्ट विचार से जोड़ना चाहते हैं। मैं इनके इस उत्तम प्रयास की प्रशंसा करता हूँ और ग्रन्थ के लोकप्रिय होने की कामना करता हूँ।

-डॉ. धर्मवीर

 

जाकिर नाईक – देशद्रोही क्यों? डॉ. धर्मवीर

जाकिर नाईक – देशद्रोही क्यों?

इस समाज की समस्या है कि यहाँ सत्य से सामना करने का किसी में साहस नहीं है। जो लोग कुछ जानते नहीं उनको हम दोषी नहीं मान सकते, उनके सामने तो जो भी कोई अपनी बात को अच्छे प्रकार से रखेगा, वे उसी को स्वीकार कर लेते हैं। जिनके पास अच्छा-बुरा पहचानने की क्षमता है, वे स्वार्थ के वशीभूत सत्य कहने से बचते हैं। इसी अज्ञान के वातावरण में इस्लाम का जन्म हुआ है। इस्लाम के जन्म के समय जो लोग थे, वे मूर्त्ति पूजक थे। पैगबर मोहमद ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया। मन्दिर तोड़े, लोगों को मूर्ति-पूजा से दूर रहने के लिये कहा। पैगबर मोहमद का यह प्रयास पहले से अधिक घातक और अज्ञानता को बढ़ाने वाला रहा। पहले लोग मूर्ति-पूजा के अज्ञान में अनुचित कार्यों को करते थे। अब इसमें और अधिक अज्ञानता और उसके प्रति दुराग्रह उत्पन्न हो गया।
इस्लाम में जो सबसे अमानवीय बात है, वह मनुष्य को स्वविवेक से वञ्चित करना है। प्रायः सभी गुरु, नेता, पण्डित इस उपाय का आश्रय लेते हैं, परन्तु इस्लाम में दूसरे के विचार की उपस्थिति ही स्वीकार नहीं की गई। पैगबर ने शिष्यों, अनुयायियों को निर्देश दिया कि मेरे अतिरिक्त किसी की बात सुननी ही नहीं। विरोधी की बात सुनना भी पाप है, मानना तो दूर की बात है। दूसरे का विचार सुनने को पाप (कुफ्र) माना गया। जो कुछ मोहमद साहब ने किया और कहा, वही आदर्श है, जो कुछ कुरान में लिखा गया, वह अल्लाह का अन्तिम आदेश है।
इस विषय में इस्लाम पर शोध करने वाले विद्वान् अनवर शेख लिखते हैं- कुरान अल्लाह का वचन नहीं हैं, बल्कि (पैगबर) मुहमद की रचना है, जिसके लिये उसने अपनी पैगबरता बनाये रखने के लिये अल्लाह को श्रेय दिया है। इसके अनेकों प्रमाण हैं- (सम आस्पेक्ट्स ऑफ कुरान, पृ. 17, 18, 21)
दूसरी सपूर्ण मानव समाज के प्रति हानि पहुँचाने वाली बात- दुनिया में एक ही दीन है और वह है इस्लाम और इसके अतिरिक्त संसार में किसी भी विचार का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं है। वह विचार दूसरा नहीं है बल्कि विरोधी और शत्रु है। इस संसार में रहना हो तो उसे मुसलमान बनकर ही रहना चाहिए। सोचने की बात है कि क्या किसी अन्य पर किसी का इतना अधिकार हो सकता है कि वह उसके जीने के और स्वतन्त्रता के अधिकार को ही समाप्त कर दे? इस्लाम या मोहमद साहेब को यह अधिकार किसने दिया? किसी ने भी नहीं दिया। यह अधिकार उनका स्वयं का उपार्जित है। परन्तु संसार बड़ा विचित्र है, उस अधिकार को ऐसे बताया जा रहा है, जैसे भगवान ने उन्हें ही यह अधिकार देकर भेजा है।
इस्लाम के संस्थापक ने जहाँ इस्लाम को एक मात्र संसार का वास्तविक धर्म घोषित किया, वहाँ इस विचार के लिये, इसको मानने वाले को यह भी अधिकार दिया कि किसी भी उपाय से वे इस धर्म का प्रचार-प्रसार करें। इसके लिये लोभ, लालच, धोखा, हिंसा, बलात्कार, किसी भी उपाय का सहारा क्यों न लेना पड़े। पैगबर ने अपने धर्म को बढ़ाने-फैलाने के लिये सत्ता का सहारा लिया और तलवार के बल पर अपने देश में और दूसरे देशों में उसको फैलाया। इसको जिहाद कहा गया। मुसलमानों के लिये जिहाद एक प्रेरणा और आवश्यक कर्त्तव्य होने के कारण इस्लाम अहिंसक नहीं हो सकता। एक मुसलमान के लिये किसी गैर-मुसलमान के विरुद्ध जिहाद से मुकर जाना एक महापाप है। जो ऐसा करेंगे वे जहन्नुम की आग में पकेंगे। डॉ. के.एस. लाल (थ्योरी एण्ड प्रेक्टिस ऑफ मुस्लिम स्टेट इन इण्डिया, पृ. 286)
इस धर्म को सुरक्षित और बलवान बनाने के लिये एक और सिद्धान्त प्रतिपादित किया- ‘‘संसार में राज्य करने का अधिकार केवल मुसलमान को है।’’ पैगबर की मान्यता के अनुसार मुसलमान और अन्य धर्मावलबी में राज्य करने का अधिकार इस्लाम के मानने वाले का है। यदि दो व्यक्ति मुसलमान हैं तो राज्य का अधिकार अरब के मुसलमान का है, अरब से बाहर के मुसलमान को नहीं। यदि सत्ता का विभाजन अरब के दो मुसलमानों के बीच होना है, तो यह अधिकार मक्का के मुसलमान को ही मिलना चाहिये। यदि दोनों मुसलमान मक्का के ही हों, तो यह अधिकार कुरैश को मिलना चाहिए। अपने आपको ही ठीक और श्रेष्ठ मानने के इस विचार को कुछ भी करके प्राप्त करने की स्वतन्त्रता ने इस्लाम के अनुयायी को अपराध की ओर प्रेरित किया।
इस्लाम को धर्म की श्रेणी में रखने की आवश्यकता खुदा और जन्नत के कारण है। ये दोनों वस्तुएँ तो इस संसार में मिलती नहीं है, अन्यथा इस्लाम का धर्म से कोई सबन्ध नहीं है। सभी धर्म अंहिसा और संयम के बिना नहीं चलते, क्योंकि धर्म के यात्रा-रथ के ये दोनों पहिये हैं। इनके बिना धर्म का रथ चलेगा कैसे? परन्तु इस्लाम ने इन दोनों को ही समाप्त कर दिया है। इसलिये सारे मुस्लिम इतिहास में हिंसा और महिलाओं के प्रति अत्याचार को बढ़ावा मिला है।
इस विचार ने मनुष्य को अपराध करने का अधिकार दे दिया। यह व्यक्ति नहीं, विचार का परिणाम है। इस्लाम की मान्यता को सत्य सिद्ध करने के प्रयास को जाकिर नाईक के कथन में देखा जा सकता है। एक संवाद में जाकिर नाईक से प्रश्न किया गया है कि इस्लामी देशों में मन्दिर चर्च आदि क्यों नहीं बनाने दिया जाता, जबकि गैर मुस्लिम देशों में मस्जिद बनाने और उनकी परपरा का पालन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। इस पर नाइक का उत्तर है- यदि तीन व्यक्तियों को अध्यापक बनाने के लिये बुलाया गया हो और उनसे प्रश्न पूछा जाये कि चार और तीन कितने होते हैं? एक का उत्तर हो- चार-दो सात होते हैं, दूसरे का उत्तर हो, चार और चार सात होते हैं और तीसरे का उत्तर हो चार और तीन सात होते हैं। जिसका उत्तर ठीक होगा, उसे ही अध्यापक बनाया जायेगा, वैसे ही जो धर्म शत-प्रतिशत ठीक है, उसी को हमारे देश में स्थान दिया जाता है, दूसरे को नहीं। धर्म इनका, निर्णय भी इनका, परीक्षा की आवश्यकता नहीं। जब बिना परीक्षा के ही निर्णय करना है तो शेष लोगों का धर्म ठीक क्यों नहीं? आप कहते हैं- मेरा धर्म ही ठीक है, कहने से तो कोई ठीक नहीं होता, परन्तु इस्लाम में यही सिखाया जाता है। एक ही दीन ठीक है और उसे ही रहना चाहिये। दूसरे को संसार में रहने का अधिकार नहीं है।
जाकिर नाईक को आर्य समाज ने सदा ही चुनौती दी है। लिखित भी, मौािक भी। वह ‘आप और हम दोनों मूर्ति पूजक नहीं हैं’ कहकर पीछे हट जाता है। जाकिर नाईक दूसरों की मान्यता पर तर्क करता है, प्रश्न उठाता है, परन्तु इस्लाम पर प्रश्न उठाने को अनुचित कहता है। वह हिन्दू धर्म पर चोट करते हुये कहता है- ‘जो शिव अपने बेटे गणेश को नहीं पहचानता, वह मुझे कैसे पहचानेगा।’ परन्तु पैगबर द्वारा अंगुली से चाँद के दो टुकड़े करने को ठीक मानता है।
वह धर्म की रक्षा के लिये मानव बम बनकर शत्रु को नष्ट करने को उचित ठहराता है। जब कोई आतंकवादी देशद्रोही सेना के हाथों मारा जाता है, तो उससे पीछा छुड़ाने के लिये कहा जाता है- आतंकी का कोई धर्म नहीं होता। फिर उसकी अन्तिम यात्रा धार्मिक रूप से क्यों निकाली जाती है? हजारों लोग उसे श्रद्धाञ्जलि क्यों देते हैं? उसके लिये जन्नत की कामना क्यों करते हैं?
इस्लाम में दोजख का भय और जन्नत का आकर्षण इतना अधिक है कि सामान्य व्यक्ति भी अपराध के लिये प्रेरित हो जाता है। जन्नत में हूरें, शराब, दूध की नदियाँ, वह सब जो इस दुनिया में नहीं मिल सका, जन्नत में मिलेगा। केवल उसे पैगबर का हुकुम मानना है। उसे पता है- जीवन चाहे जैसा हो, यदि वह एक काफिर को मार डालता है, तो उसे जन्नत बशी जायेगी। कुछ जो उस मनुष्य ने संसार में चाहा, परन्तु उसके भाग्य में नहीं था, फिर वह सब कुछ जन्नत में इतनी सरलता से पा सकता है, तो वह क्यों नहीं प्राप्त करना चाहेगा।
इसी प्रकार दोजख का भय भी एक मुसलमान को कोई दूसरी बात सोचने से भी डराता है। उसे सिखाया जाता है- जो कुरान को न माने, पैगबर को न माने, वह काफिर है, उसकी सहायता करना गुनाह है, अपराध है और अपराध का दण्ड दोजख है। कुरान में लिखा है- ‘जो लोग ईमान लाते हैं, अल्लाह उनका रक्षक और सहायक है। वह उन्हें अन्धेरे से निकाल कर प्रकाश की ओर ले जाता है। रहे वे लोग, जिन्होंने इन्कार किया, तो उनके संरक्षक बढ़े हुये सरकश हैं, वे उन्हें प्रकाश से निकाल कर अन्धेरे की ओर ले जाते हैं। वे ही आग (जहन्नुम) में पड़ने वाले हैं।’ (2.257, पृ. 40)
जिसे अल्लाह मार्ग दिखाये, वह ही मार्ग पाने वाला है और वह जिसे पथ-भ्रष्ट होने दे, तो ऐसे लोगों के लिये उससे इतर तुम सहायक नहीं हो पाओगे। कयामत के दिन हम उन्हें औंधे मुँह इस दशा में इकट्ठा करेंगे कि वे अन्धे, गूंगे और बहरे होंगे। उनका ठिकाना जहन्नुम है। जब भी उसकी आग धीमी पड़ने लगेगी, तो हम उसे उनके लिये और भड़का देंगे। (17.97, पृ. 247)
यदि कोई मुसलमान अपने धर्म का त्याग करे, तो उसके लिये कहा गया है-
और तुम में से जो कोई अपने दीन से फिर जाय और अविश्वासी होकर मरे, तो ऐसे लोग हैं, जिनके कर्म दुनिया और आखिर में नष्ट हो गये और वही आग (जहन्नुम) में पड़ने वाले हैं। वे उसी में सदैव रहेंगे। (2:217, पृ. 33)
जहन्नुम जिसमें वे प्रवेश करेंगे, तो वह बहुत ही बुरा विश्राम-स्थल है। यह है, उन्हें अब इसे चखना है- खौलता हुआ पानी और रक्त-युक्त पीप और इसी प्रकार की दूसरी चीजें, यह एक भीड़ है, जो तुहारे साथ घुसी चली आ रही है। कोई आरामगाह उनके लिये नहीं, वे तो आग में पड़ने वाले हैं। (38:56-58, पृ. 405)
भला इस परिस्थिति में इस्लाम के मानने वाले में कहाँ से इतना साहस आयेगा कि वह गैर-मुस्लिम की सहायता करने की सोचे।
इस प्रकार के इन धार्मिक आदेशों के कारण इस्लाम जहाँ अन्य सप्रदायों के साथ समन्वय नहीं कर पाता, वहीं इस्लाम में जो सत्तर से अधिक प्रशाखायें हैं, उनमें भी परस्पर इसी प्रकार का संघर्ष देखने में आता है।
मुसलमान किसी भी देश में वहाँ के संविधान का पालन करने में समर्थ नहीं है। यदि वे किसी गैर-मुस्लिम देश में हैं, तो वह ‘दारुल हरब’ है। उसमें रहकर उन्हें उस देश को ‘दारुल इस्लाम’ बनाना है, यह उसका धार्मिक कर्त्तव्य है। और एक मुसलमान के लिए देश, समाज, परिवार से ऊपर धर्म है, अल्लाहताला का हुक्म है। फिर वह कैसे किसी संविधान का आदर करेगा? कैसे उसको मान्यता देगा? यह वैचारिक संघर्ष उसे कभी शान्ति से बैठने नहीं देता, यही देश की अशान्ति का मूल कारण है। भारतीय संस्कृति कहती है- मनुष्य मनुष्य का रक्षक होना चाहिए, प्राणिमात्र की रक्षा की जानी चाहिये। वेद मनुष्य मात्र को परमेश्वर का पुत्र कहता है, रक्षा करने का उपदेश देता हैं।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः
पुमान् पुमान्सं परिपातु विश्वतः।।
– धर्मवीर