Category Archives: Dr. Dharmveer Paropkarini Sabha Ajmer

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-39

आप इद्वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः।

आपः सर्वस्य भेषजीस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।।

– ऋग्. 10/137/6

यह चिकित्सा का सूक्त है। मनुष्य कैसे स्वस्थ रह सकता है, इसका प्रत्येक मन्त्र में सन्देश है। मनुष्य का शरीर प्राकृतिक पदार्थों से बना है। शरीर में जिन पदार्थों की अनुपात से कमी या अधिकता होती है, उन्हीं के कारण रोग होता है। इसकी चिकित्सा भी प्राकृतिक पदार्थ ही हैं। जिन पदार्थों की शरीर में न्यूनता होती है, उसी प्रकार का पदार्थ शरीर में पहुँचाया जाता है। अधिकता होने पर उसकी न्यूनता के उपाय किये जाते हैं। इसी आधार पर वेद में कहा गया है- जल इस शरीर के लिये महत्त्वपूर्ण औषध है। शरीर पाँच भूतों से बना है। अतः इसे भौतिक शरीर कहा जाता है। पाँच भूतों में शरीर में सबसे अधिक मात्रा जल की होती है। शरीर के पदार्थों में जल की मात्रा सत्तर प्रतिशत होती है। इस कारण शरीर में जल के सन्तुलन को बनाये रखने का यत्न सदा करना चाहिये।

जल सबसे अधिक सुलभ है, सरलता से उसे प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु मनुष्य आलस्य, प्रमाद और अज्ञान के कारण रोग ग्रस्त हो जाता है। इसका महत्त्व तब ज्ञात होता है, जब हम उसकी न्यूनता से होने वाले कष्ट से पीड़ित हो जाते हैं। गत दिनों एक परिवार में जाने पर पता लगा कि उनका पुत्र रोग से पीड़ित हो गया है और रोग का कारण चिकित्सों ने बतलाया है कि यह व्यक्ति पानी नहीं पीता या बहुत कम मात्रा में पानी पीता है। इस कारण रोगी की आंते संकुचित होकर चिपक गई है। इतना बड़ा रोग केवल पानी का प्रयोग न करने से हो गया। परमेश्वर ने ऐसी व्यवस्था की है कि यदि शरीर में किसी पदार्थ की न्यूनता होती है तो शरीर में उसकी आवश्यकता अनुभव होने लगती है। हम भोजन से, पानी से, औषध और वायु से उनकी पूर्ति करते हैं। पानी की उपयोगिता और आवश्यकता देखते हुए हमारी परमपराओं में पानी को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। प्रातःकाल उठते ही मुख प्रक्षालन के साथ उषःपान का विधान किया गया है। प्रातःकाल नित्य/नियमित रूप से जल पीते रहने से शरीर में होने वाली पानी की कमी पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। पानी का पर्याप्त मात्रा में प्रयोग करने से शरीर की कोशिकाओं में पूर्णता आती है। स्वच्छ जल जहाँ शरीर से दोषों को बाहर निकालता है, वहीं ऊर्जा का स्रोत भी बनता है। रक्त की मात्रा को भी कम नहीं होने देता, जिससे शरीर में कान्ति, स्फूर्ति, उत्साह का संचार होता है। भोजन को सुपाच्य बनाने के लिये भोजन में जल की उचित मात्रा अपेक्षित है। भोजन में जल का अभाव भोजन को दुष्पाच्य बनाता है, वहीं भोजन के साथ जल की अधिकता भोजन को पचाने वाले द्रवों का प्रभाव कम कर देती है। इसलिये भोजन के एक घण्टा बाद पर्याप्त जल लेने का निर्देश किया गया है।

आधुनिक अध्ययन के अनुसार हर तीन घण्टे के पश्चात् शरीर की क्रियायें शिथिल होने लगती हैं, यदि थोड़ा सा जल पी लिया जाये तो शरीर में पुनः सक्रियता का संचार हो जाता है। अतः थोड़े-थोड़े समय पर स्वल्प मात्रा में जल पीते रहने से शरीर में ऊर्जा का स्तर बना रहता है। वेद में बहुत सारे मन्त्र हैं जिनमें जल को भेषज कहा गया है। जल का सौमय गुण है, सभी प्रकार के सन्ताप- चाहे वे शारीरिक हों या मानसिक, जल उनको शान्त करने में समर्थ है। जल को शान्ति प्रदान करने वाला कहा गया है और इसे सबसे अधिक शान्ति प्रदान करने वाला बताते हुए शान्ततम कहा है। जल कल्याण करने वाला है तथा अत्यन्त कल्याण करने वाला होने से इसे शिवतम कहा गया है।

मन्त्र में आपः (जल) को भेषज बताते हुए रोग-कृमियों का नाश करने वाला कहा है। जहाँ जल स्वतन्त्र रूप से स्वास्थ्यवर्धक है, वहीं औषध द्रव्य के संयोग से घोल बनाकर, क्वाथ बनाकर, शर्बत बनाकर स्वास्थ्य वृद्धि और रोग का नाश करने के लिये काम में लिया जाता है। अमीव-रोग कारक वृति को कहते हैं, चातनः- नाश करने वाला अर्थात् जल में रोग कृमियों के नाश की क्षमता है। सभी ओषधियों का उपयोग जल के माध्यम से किया जा सकता है। वेद कहता है- हमें उचित है कि हम जल के महत्त्व और गुण को समझें और उसका प्रयोग कर स्वयं को स्वस्थ व निरोग बनायें।

 

स्वतन्त्रता-दिवस पर ऋषि दयानन्द का उल्लेख न होना भय या अज्ञान

स्वतन्त्रता-दिवस पर ऋषि दयानन्द का उल्लेख न होना भय या अज्ञान

अभी-अभी देश ने स्वतन्त्रता-दिवस उत्साहपूर्वक मनाया। कांग्रेस की सरकार स्वतन्त्रता-दिवस को नेहरू-गांधी तक सीमित रखने का प्रयास करती थी। नेहरू परिवार को ही देश मान बैठी थी। मोदी सरकार के आने से इस विचार में परिवर्तन आया है। आज देश के क्रान्तिकारियों का, साधु-सन्तों का, देश के महापुरुषों का उल्लेख सरकारी कार्यक्रमों में होने लगा है। सावरकर, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे लोगों को सरकार ने अछूत समझ रखा था, आज उनका समानपूर्वक उल्लेख होता है। उनके चित्र दिखाये जाते हैं।

इस वर्ष स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर आजादी नाम से एक चित्र पन्द्रह अगस्त को दूरदर्शन पर दिखाया जा रहा था। उसमें बहुत सारे क्रान्तिकारियों, महापुरुषों, राजनेताओं के चित्र गीत-संगीत की पृष्ठभूमि में चल रहे थे। प्रस्तुति बहुत अच्छी थी, उसमें शंकराचार्य और स्वामी विवेकानन्द के चित्र थे। अन्य धार्मिक महापुरुषों के भी चित्रों की झलक थी। राजनेताओं की चर्चा देश के साथ स्वाभाविक है। इस सबमें एक खटकने वाली बात लगी कि कहीं भी ऋषि दयानन्द का उल्लेख इसमें दिखाई नहीं दिया।

लाल किले की प्राचीर से भाषण प्रारभ करते हुए तथा भाषण के मध्य प्रधानमन्त्री मोदी ने बहुत सारे व्यक्तियों का नामोल्लेख किया। महात्मा गांधी के गुरु की अंहिसा की परिभाषा बताई। आचार्य रामानुज के समाज सेवा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए ऊँच-नीच के भेद, अस्पृश्यता सबन्धी उनके विचारों का उल्लेख भी किया। पंजाब के चुनावों को ध्यान में रखते हुए गुरु गोविन्द सिंह की साड़े तीन सौ वीं जयन्ती का एकाधिक बार नाम लिया। भाषण प्रारमभ करते हुए विवेकानन्द को वेद से भी जोड़ दिया, जबकि बेचारे विवेकानन्द का वेद से कितना समबन्ध है, यह वेद जानने वाले भली प्रकार जानते हैं। हमारे हिन्दुत्त्ववादी विवेकानन्द के विचारों को ही वेद समझ लें, तो इनका कोई दोष नहीं है।

आश्चर्य की बात तो ये है कि जब आप आचार्य रामानुज की बात कर रहे हैं, आचार्य शंकर का नाम ले रहे हैं, गुरु गोविन्दसिंह की चर्चा हो रही है, वेद का प्रकरण चल रहा है, तब ऋषि दयानन्द इस चर्चा से कैसे ओझल हो गये? दुनियाँ में दयानन्द को कोई किसी से जोड़े या न जोड़े परन्तु वर्तमान युग में वेद और दयानन्द पर्याय हैं। आप दयानन्द के विरोध में खड़े हैं तो भी दयानन्द साथ होंगे और वेद के समर्थन में खड़े हैं तो भी दयानन्द के साथ होंगे। विदेशी दयानन्द के विरोधी हों, ये स्वाभाविक है, क्योंकि उन्हें दयानन्द का विचार अपने अनुकूल नहीं लगता। ईसाई या मुसलमान दयानन्द का विरोध करें, तो भी तर्क संगत है, क्योंकि दयानन्द ने उनके धर्म और दर्शन की धज्जियाँ उड़ाने में कसर नहीं छोड़ी, परन्तु हिन्दू समाज की मिथ्या बातों का, पाखण्डों का, अन्धविश्वासों का खण्डन करके दयानन्द ने उनका भला ही किया है, उनका सुधार किया, इनके प्रयत्नों से हिन्दू समाज की प्रतिष्ठा बढ़ी है। आज हिन्दुओं की सरकार कही जाती है, परन्तु जो हिन्दू सहनशीलता के नाम पर मुसलमान, पीर, फकीरों की कब्रों को स्वीकार करता है, नास्तिक चार्वाक और आज के चार्वाक ओशो का आदर करता है, वही तथाकथित हिन्दू समाज दयानन्द को सहन करने का साहस नहीं रखता। दयानन्द के काल में दयानन्द की जय ने पाखण्डियों के मन में भय को उत्पन्न किया था, लगता है वह भय अभी भी नहीं गया है, यह भय ही दयानन्द की जय है।

मोदी के भाषण में जहाँ भाषा और अभिव्यक्ति तो अच्छी है, परन्तु एकरूपता के विशृंखलन का अनुभव हुआ। इसका कारण ये कि जिन लोगों ने इस भाषण को तैयार किया है, उन्होंने अपने-अपने विषय तो लिखे, परन्तु सब को एक क्रम में  संजोना उन्हें नहीं आया।

जिन महापुरुषों ने देश-सेवा के कार्य किये हैं, वे प्रशंसनीय हैं। उनके कार्यों पर विचार करते हुए ऋषि दयानन्द के कार्यों पर दृष्टि डाली जाये तो कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें ऋषि की भूमिका महत्त्वपूर्ण न हो, इस देश के दीन-अनाथों की पीड़ा को ऋषि ने कैसा अनुभव किया था, इसे जानना हो तो उनकी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा के स्वीकार-पत्र को देखना चाहिए, जहाँ ऋषि ने सभा के नियम व उद्देश्यों की चर्चा करते हुए तीसरे उद्देश्य में सभा द्वारा आर्यावर्तीय दीन-अनाथों की रक्षा और पालना करने की बात की है। आज नेता लोग जिस दलित को हथियार बनाकर अपनी राजनीति चमका रहे हैं, उस दलित की पीड़ा को ये नेता तो अनुभव नहीं कर सकते, परन्तु ऋषि ने उस पीड़ा को अनुभव करते हुए आदेश दिया था कि हमारे देश की शिक्षा-व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जिसमें एक गरीब और राजा के बच्चे के लिये समान आसन, भोजन, शिक्षा का निर्देश दिया हो।

ऋषि दयानन्द ने हिन्दू समाज को बल प्रदान किया। यह समाज अपने अन्दर व्याप्त पाखण्ड, कुरीतियों और अन्धविश्वास से जकड़ा हुआ था। समाज स्वार्थवश परस्पर के वैर-विरोध से विभाजित और दुर्बल भी था। ऐसे समय में ईसाई और इस्लाम के हिन्दू समाज पर आक्रमण निरन्तर हो रहे थे। इस परिस्थिति को देखकर ऋषि दयानन्द ने इस समाज को बचाने के लिये दो प्रकार से कार्य किया, प्रथम- इस देश में संस्कृति, साहित्य, इतिहास के माध्यम से इस समाज की अस्मिता को जगाया और समाज में व्याप्त कुरीतियों का जोरदार खण्डन किया। कुरीति और अन्धविश्वास की चपेट में इस्लाम और ईसाइयत भी थे, ऋषि ने उन पर भी आक्रामक रूप से प्रहार किये, उनके साथ शास्त्रार्थ किये। साहित्य के माध्यम से बाइबिल और कुरान की अज्ञानता, पाखण्ड, झूठ का भाण्डाफोड़ किया, जिससे एक ओर हिन्दू समाज में सुधार प्रारमभ हुआ, साथ ही आत्मबल के आने से समाज बचाव के स्थान पर आक्रमण की मुद्रा में आ गया। इस भावना ने पराधीनता से संघर्ष करने और स्वतन्त्रता की इच्छा को प्रबल रूप से जगा दिया।

दयानन्द ने समाज में फैले जातिवाद पर प्रहार किया। मनुष्य में मनुष्यता के रूप में कोई भेद, ऊँच-नीच मानने से इन्कार कर दिया। समाज में ऊँचनीच की भावना को जन्म देता है- अवतारवाद। जातिवादी श्रेष्ठता को बल देता है, अतः ऋषि ने अवतारवाद का खण्डन किया। जड़-पूजा से मनुष्य अकर्मण्य, भाग्यवादी और दीन-हीन याचक बन जाता है। ऋषि ने हिन्दू समाज के पतन के कारण- इस जड़-पूजा पर कठोर प्रहार किया। जिन लोगों के स्वार्थ और आजीविका इस जड़ पूजा से जुड़े हैं, उनका ऋषि-विरोधी होना स्वाभाविक है। आज जड़ताओं को जो लोग हिन्दू धर्म का अंग बनाकर रखना चाहते हैं, उनको ऋषि दयानन्द के नाम से भय लगता है। उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और आजीविका जाने का भय सताता रहता है।

ऋषि दयानन्द समाज के पिछड़े, दलित और उपेक्षित लोगों के कल्याण के लिये सतत् प्रयत्नशील रहे। ऋषि दयानन्द के मानवीय पक्ष को वे लोग अनुभव कर सकते हैं, जिन्होंने ऋषि के उस ज्ञापन को देखा हो, जिसमें सरकार से माँग की गई कि जो सन्तानें अवैध कही जाकर उपेक्षा और प्रताड़ना का शिकार हैं, वे निर्दोष हैं। वे प्रकृति के नियम से उत्पन्न हैं, यदि मनुष्य के बनाये नियमों को मनुष्य ने तोड़ा है तो उसके लिये निर्दोष सन्तान को क्यों उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए? ऋषि ने पिछड़े पुरुष, महिला, अनाथ, दलित के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदला। दयानन्द की उपेक्षा कृतघ्नता होगी। ये कृतघ्नता हमारे व समाज के लिये ही हानिकारक सिद्ध होगी, ऋषि दयानन्द ने तो स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में निर्भीक होकर कहा है-

निन्दन्तु नीति-निपुणा यदि वा स्तुवन्तु,

लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,

न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।

– धर्मवीर

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-38

त्रायन्तामिह देवास्त्रायतां मरुतां गणः।

त्रायन्तां विश्वा भूतानि यथायमरपा असत्।।

– ऋक्. 10/137/5

प्रसंग रोग से संरक्षण का है। देवता रोगी की रक्षा करें, मरुत्गण रोगी की रक्षा करें। समस्त भूत रोगी की रक्षा करें, जिससे यह व्यक्ति रोग रहित हो सके।

प्रश्न उठता है- यहाँ चेतन की बात भी जा रही है या जड़ की। यहाँ प्रसंग जो भी हो, शदार्थ दोनों हो सकते हैं। देव शद चेतन और जड़ दोनों का वाचक है। देव में परमेश्वर, मनुष्य, प्राणी तक सबका ग्रहण हो सकता है। मरुद् भी जड़-चेतन दोनों का वाचक है। चेतन में योद्धा या सैनिक के अर्थ में इसका प्रयोग बहुधा वेद में आता है। भूत भी जड़ और चेतन हैं। रोगी को चेतन तो ठीक कर ही सकते हैं, परन्तु ऊपर से प्रसंग रोग और औषध का चल रहा है। तब देव मरुत्, भूत, चेतन के वाचक नहीं होंगे।

यहाँ पर रोग निवारक जड़ पदार्थों की चर्चा चल रही है। मनुष्य को सबसे आवश्यक जीवनीय पदार्थों की चर्चा है। जो वस्तुएँ मनुष्य को जीवित रखने में उपयोगी है, वही स्वास्थ्य की उन्नति और सुरक्षा में भी आवश्यक हैं। गत मन्त्रों में जीवनीय तत्त्वों के रूप में जलवायु की अनेकशः चर्चा हुई हैं। उसी प्रसंग में देवता कौन हैं जो रोगी को रोगरहित करने में प्रमुखता से उपयोगी हैं। मन्त्र का अर्थ करते हुए स्वामी ब्रह्म मुनि कहते हैं- देवाः रश्मयः। यहाँ देवता का अर्थ सूर्य की रश्मियाँ हैं। यह बात सर्वविदित है कि संसार में सूर्य ही जीवन का आधार है। जहाँ सूर्य ऊर्जा देता है, वहाँ सूर्य रोगाणुओं को समाप्त करने वाला प्रथम अस्त्र है। वेद कहता है- उघट रश्मिर्भिः कृमीणहन्ति। उदय होता हुआ सूर्य रोग कृमियों को नष्ट करता है। स्वस्थ दशा में भी सूर्य रश्मियों का सेवन करने का विधान है। आजकल सूर्य के प्रकाश में रहने की प्रेरणा की जाती है। चिकित्सकों का विचार है कि प्रत्येक मनुष्य को दिन के कुछ घण्टे सूर्य के प्रकाश में व्यतीत करने चाहिए, इससे शरीर के रोगाणु नष्ट होकर, जीवनीय शक्ति बढती है। कहा जाता है कि सूर्य के प्रकाश में विटामिन डी की प्राप्ति होती है। इससे हमारे शरीर में दृढता आती है।

वेद कहता है- मनुष्य को घर भी ऐसा बनाना चाहिए जिसमें सूर्य की किरणें प्रचुरता से प्रवेश कर सकें। मन्त्र है- यत्र गावोाूरिशृंगा अयासः। घर के अन्दर सूर्य की किरणें बहुत मात्रा में आयें। वेद में गो शद किरणों का वाचक है, भूरि शृंगा बहुत प्रकार से गहराई तक घर में प्रवेश करें। जिस घर में सूर्य की किरणें प्रवेश करती हैं, उस घर में रोग के कृमि नष्ट हो जाते हैं। इसलिए मन्त्र में कहा गया है कि सूर्य की किरणें रोगी की रोग से रक्षा करें। जहाँ अंधेरा, सीलन होता है, प्रकाश की कमी होती है, वहाँ दमा, खांसी आदि रोग बढते हैं।

मन्त्र में आगे कहा गया है- त्रायतां मरुतां गणः। मरुतों के गण रोगी की रक्षा करें। यहाँ मरुत् का सैनिक अर्थ घटित नहीं होता, यहाँ सूर्य के प्रकाश के साथ-साथ शुद्ध वायु की संगति बैठती है। अतः रोगी को प्रकाश के साथ शुद्ध वायु की प्राप्ति होनी आवश्यक है। रोगी के कमरे में स्वच्छ हवा का आवागमन सदा बना रहे तो रोगी को स्वास्थ्य लाभ शीघ्र होता है। आज और पुराने समय में भी रोगी को स्वास्थ्य लाभ के लिये पर्वतीय स्थानों पर जाने का परामर्श दिया जाता है। पहले यक्ष्मा के रोगी को चिकित्सा के लिये पर्वत क्षेत्रों में चिकित्सालय बनाये गये थे। आज भी उत्तम जलवायु से स्वास्थ्य लाा प्राप्त करने के लिये शुद्ध वायु और सूर्य के प्रकाश की अधिकाधिक प्राप्ति हो, वहाँ जाना चाहिए या अपने घर में ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। यहाँ पर मरुतों से प्रार्थना की गई है, वे रोगी की रक्षा करें। तीसरे चरण में कहा गया- त्रायन्तां विश्वा भूतानि। विशेषरू प से सूर्य के प्रकाश का शुद्ध वायु के रूप में उल्लेख किया गया है। सामान्य रूप से सभी पदार्थ या वस्तुएँ, चाहे वे औषध के रूप में हों अथवा वातावरण या प्रयोग में आने वाली वस्तु के रूप में हों। सभी रोगी के अनुकूल और उसके स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिये उपयोगी होनी चाहिए। विश्वा का अर्थ विश्वानि अर्थात् सब भूत, जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी आदि में प्राप्त होने वाले सभी पदार्थ रोगी को रोग से बचाने वाले हों। कभी कभी रोगी समझता है- केवल औषध खाने मात्र से वह स्वस्थ हो जायेगा, उतना पर्याप्त नहीं है। चिकित्सा में कहा जाता है कि जितना महत्त्व औषध का है, उतना ही महत्त्व पथ्य का है। यदि पथ्य नहीं है तो औषध व्यर्थ हो जाती है तथा पथ्य हो तो रोगी को कम औषध से भी स्वस्थ किया जा सकता है। वास्तव में रोग को शरीर स्वयं दूर करता है और वस्तुएँ तो सहायक मात्र है। अतः चिकित्सक रोगी को परामर्श देते हैं- स्वास्थ्यवर्धक अन्नपान सेवन के साथ पूर्ण विश्राम करना चाहिए। मूलभूत बात है- प्रत्येक वह कार्य और वस्तु उपयोग में आती है, जिससे रोगी रोग से मुक्त हो, इसीलिए कहा गया है- यथा यमरपा असत्। कैसे भी हो, रोगी को रोग मुक्त करना, चिकित्सा का उद्देश्य है।

 

अजमेर विश्वविद्यालय में दयानन्द शोधपीठ

अजमेर विश्वविद्यालय में दयानन्द शोधपीठ

राज्यपाल की घोषणा

इस मास के प्रथम दिन एक अगस्त को समपन्न हुये दीक्षान्त समारोह में राजस्थान के राज्यपाल महामहिम कल्याणसिंह जी ने अपने दीक्षान्त भाषण में महर्षि दयानन्द के कार्यों की चर्चा करते हुए कहा कि ऋषि दयानन्द वेदों के प्रचारक और समाज में व्याप्त  अन्धविश्वासों को झकझोरने वाले थे, उस समाज सुधारक की स्मृति में स्थापित इस महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय में महर्षि के कार्य और जीवन पर अनुसन्धान करने के लिये एक शोधपीठ की स्थापना होनी चाहिए।

राज्यपाल, जो पदेन राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते हैं, उनके आग्रह को आदेश मानते हुए विश्वविद्यालय ने शोधपीठ स्थापित करने का निर्णय ले लिया है। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. कैलाश सोडानी ने इस बात की घोषणा की और निर्णय की जानकारी देते हुए बताया कि इसके लिये विश्वविद्यालय की ओर से एक करोड़ रुपये की राशि प्रदान की जायेगी। इसी सत्र से शोधपीठ की स्थापना कर दी जायेगी तथा अगले सत्र से शोधपीठ का कार्य प्रारमभ हो जायेगा।

जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री बने और अजमेर को विकसित करने और यहाँ की सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करने की घोषणा हुई, तभी से परोपकारिणी सभा ने अजमेर को महर्षि के स्मारक के रूप में स्थापित करने के अनेक सुझाव सरकार और जिलाधीश के मार्गदर्शन में स्थापित समिति के सममुख रखे थे। विश्वविद्यालय के कुलपति से भेंट कर विश्वविद्यालय में शोधपीठ स्थापित करने का प्रस्ताव दिया था। जब गत वर्ष अनेक महापुरुषों की स्मृति में शोधपीठ स्थापित हुए, तब भी सभा ने प्रयास किया था, परन्तु बात निर्णय तक नहीं पहुँच सकी। सभा द्वारा शोधपीठ की स्थापना के लिये प्रधानमन्त्री मोदी जी को पत्र लिखा गया, उनका निर्देश भी विश्वविद्यालय को मिला, परन्तु प्रस्ताव क्रियान्वित नहीं हो पाया। इस वर्ष मोदी जी के साथ-साथ महामहिम राज्यपाल की सेवा में भी निवेदन किया गया और उनसे अनुरोध किया कि आप राज्यपाल होने के नाते विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं तथा आप ऋषि दयानन्द की मान्यता और सिद्धान्तों के मर्मज्ञ और मानने वाले हैं, आप द्वारा यह शुभ कार्य किया जाना चाहिए। यह एक सुखद संयोग है कि महामहिम ने पत्र का उत्तर दीक्षान्त समारोह में पीठ की स्थापना का परामर्श देकर दिया। मान्य कुलपति ने उनके निर्देश को स्वीकार करते हुए, उसी दिन विश्वविद्यालय में दयानन्द शोधपीठ की स्थापना का निर्णय लेकर शोधपीठ प्रारमभ करने की घोषणा कर दी। सभा के प्रयास को सफलता मिली। सारा आर्यजगत् मोदी जी, महामहिम राज्यपाल कल्याणसिंह जी तथा विश्वविद्यालय के कुलपति कैलाश सोडानी जी का हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता है।

किसी व्यक्ति विशेष के सामाजिक, शैक्षणिक एवं शोधपरक योगदान को देखते हुए, उनके जीवन एवं कार्य को समाज के सामने लाने के लिये तथा उनके कार्यों का महत्त्व और उपयोगिता को समझाने के लिये, उनके नाम पर शोधपीठ स्थापित करने की परमपरा है। विश्वविद्यालयों में शोधपीठ की स्थापना जहाँ व्यक्ति के कार्य और महत्त्व का मूल्यांकन के लिये की जाती है, वहीं किसी भी विभाग में अध्ययन के लिये किसी व्यक्ति विशेष के नाम से भी पीठ की स्थापना की जाती है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति अपने या किसी के नाम से विशेष अध्ययन के लिये शोधपीठ की स्थापना कराते हैं, जैसे ऑक्सफोर्ड में वोडन चेयर है, जिस पर रहकर मैक्समूलर ने वेद भाष्य के अंग्रेजी अनुवाद का कार्य किया। ऋषि दयानन्द का समाज- सुधार, देश, संस्कृति, इतिहास, शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान है। उनके विचारों और कार्यों से देश का गौरव बढ़ा है। समाज की विषमताओं पर चोट पहुँची है। इस देश के निवासियों में स्वाभिमान और देश के प्रति गौरव का भाव बढ़ा है।

ऋषि दयानन्द की शिक्षा पद्धति और विचार का प्रसार करने के लिये ऋषि के जीवन काल से ही प्रयास प्रारमभ हो गये थे, पण्डित गुरुदत्त जी के नेतृत्व में डी.ए.वी. संस्थान की स्थापना हुई, परन्तु स्वयं गुरुदत्त को ही इससे निराशा हाथ लगी। दूसरा प्रयास गुरुकुल कांगड़ी के रूप में हुआ। बहुत वर्षों तक यहाँ वेद के विद्वान् तैयार हुये, परन्तु आज वेद और आर्ष पद्धति दोनों ही गौण हैं व वर्तमान पाठ्यक्रमों की भरमार है तथा ऋषि दयानन्द कहीं बहुत पीछे छूट गये प्रतीत होते हैं। आर्य समाज के संगठन की आपसी लड़ाई ने संस्था को व्यर्थ कर दिया है।

ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों, कार्य और जीवन पर अनुसन्धान करने के लिये आर्य वैदिक विद्वान् एवं गुरुकुल कांगड़ी के कुलाधिपति डॉ. रामप्रकाश जी के प्रस्ताव से सर्वप्रथम पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में दयानन्द पीठ की स्थापना डिपार्टमेण्ट ऑफ वैदिक स्टडीज के नाम से की गई, जिसमें डॉ. रामानाथ वेदालंकार तथा डॉ. भवानीलाल भारतीय जी के माध्यम से अच्छा कार्य हुआ। आजकल वहाँ कोई स्वतन्त्र अध्यक्ष नहीं है। संस्कृत विभाग के प्रो. वीरेन्द्र अलंकार उस शोधपीठ का कार्य सभाल रहे हैं, गतिविधियों के माध्यम से सक्रियता बनाये हुए हैं।

दूसरा प्रयास कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में हुआ था, वहाँ जब तक विद्यानिवास मिश्र रहे, उनके निर्देशन में भी अच्छा कार्य हुआ। उनके जाने के बाद वहाँ कार्य समाप्त प्रायः है। यह शोधपीठ बाद में रोहतक में स्वामी दयानन्द विश्वविद्यालय में स्थानान्तरित कर दी गई। महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय रोहतक में भी दयानन्द शोधपीठ है, परन्तु वहाँ भी कोई स्वतन्त्र अध्यक्ष नहीं है। संस्कृत-विभाग के अध्यक्ष डॉ. सुरेन्द्र कुमार ही इसको समभाल रहे हैं। जहाँ विश्वविद्यालय के कुलपतियों के लिये यह कार्य उनकी प्राथमिकता का नहीं है, वहीं आर्यसमाज में संगठन नहीं है, ना ही उनकी इस प्रकार की सोच है, अतः इस दिशा में जो कार्य होना चाहिए था, वह नहीं हुआ।

पुराने विद्वानों ने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को लगवाने का प्रयास किया। इसमें आधुनिक समझे जाने वाले तथा पौराणिक लोगों ने यथासम्भव विरोध किया। यह एक प्रकार से ज्ञान से शत्रुता का ही उदाहरण है, फिर भी अनेक विश्वविद्यालयों में वेद के पाठ्यक्रम में सहायक ग्रन्थों में ऋषि दयानन्द की ‘वेद भाष्य भूमिका’ लगाई जा सकी है, इसमें मेरठ, अजमेर  और कानपुर विश्वविद्यालयों के नाम उल्लेखनीय हैं। रोहतक विश्वविद्यालय में वेद वर्ग में भूमिका और वेदभाष्य लगाये गये हैं तथा रामानुज तथा दयानन्द दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन कराया जाता है। कर्मकाण्ड की पुस्तकों में संस्कार विधि को भी स्थान दिया गया है। ऋषि दयानन्द के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष उनका दार्शनिक चिन्तन है। उसको जितना प्रकाश में लाने की आवश्यकता है, उतना कार्य नहीं हुआ, तो भी नये-पुराने विद्वानों ने इस पर प्रशंसनीय कार्य किया है- आचार्य उदयवीर शास्त्री, आर्यमुनि, तुलसीराम स्वामी, गंगाप्रसाद उपाध्याय, स्वामी सत्यप्रकाश। वर्तमान में डॉ. जयदेव वेदालंकार ने इस पर पर्याप्त कार्य किया है। कुछ विश्वविद्यालयों ने दयानन्द दर्शन को अपने पाठ्यक्रम में स्थान भी दिया है, परन्तु जो मौलिकता और प्रखर चिन्तन ऋषि दयानन्द ने किया है, उसका यथार्थ स्वरूप विश्वविद्यालयों के लेखन और विचारों में परिलक्षित नहीं होता। ऋषि दयानन्द के सर्वांगीण व्यक्तित्व एवं विचार पर अनुसन्धान करने के लिये अधिकाधिक विश्वविद्यालयों में शोधपीठ की स्थापना और दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का पाठ्यक्रम में समावेश कराने की आवश्यकता है।

विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में आर्ष पद्धति को स्थान दिलाने के लिये प्रथम पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु ने प्रयास करके समपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में आर्ष विभाग को स्थापित कराया था, यह पाठ्यक्रम प्राचीन व्याकरण के नाम से अष्टाध्यायी पद्धति से पढ़ाया जाता है। इसी प्रकार स्वामी ओमानन्द जी के प्रयास ने महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय रोहतक में आर्ष पाठ विधि को स्वीकृति दिलाकर उसके पाठ्यक्रम और उपाधियों को मान्यता दिलाई। इस विश्वविद्यालय में यह पाठ्यक्रम गुरुकुल स्कीम नाम से चलता है।

विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्वामी दयानन्द के विचार तथा अधिक-से-अधिक शिक्षा संस्थानों में ऋषि दयानन्द के कार्य एवं विचारों पर शोध कार्य हो, ऐसा प्रयास आर्यसमाज को करना चाहिए। ऋषि दयानन्द ऐसे महापुरुष हैं, जो मनुष्य मात्र को विद्या का अधिकारी मानते हैं। सबको विद्या का अधिकार देते हैं तथा अपने विवेक से निर्णय करने का सामर्थ्य उत्पन्न करने की प्रेरणा करते हैं।

वेद का सन्देश है- मनुष्य को सदा ज्ञान के अनुसार ही आचरण करना चाहिए तथा कभी भी ज्ञान विरोधी नहीं होना चाहिए। वेद का अधिकार ज्ञान का अधिकार है। वेद कहता है-

सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन विराधिषि।।

– धर्मवीर

यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पाँव – धर्मवीर

यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पाँव
– धर्मवीर
प्रस्तुत सपादकीय प्रो. धर्मवीर जी ने आकस्मिक निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।
-सम्पादक गत दिनों एक संस्था की यज्ञशाला देखने का अवसर मिला। यज्ञशाला भव्य और सुन्दर बनी हुई देखकर अच्छा लगा। प्रतिदिन यज्ञ होता है, यह जानकर प्रसन्नता होनी स्वाभाविक है।
यज्ञशाला देखने पर दो बातों की यज्ञ से संगति बैठती नहीं दिखी। संस्था प्रमुख उस समय संस्था में थे नहीं, अतः मन में उठे प्रश्न अनुत्तरित ही रहे। पहली बात यज्ञशाला के बाहर और सब बातों के साथ-साथ एक सूचना पर भी दृष्टि गई, उसमें लिखा था- ‘आप यज्ञ नहीं कर सकते, न करें, आप यज्ञ के निमित्त राशि उक्त संस्था को भेज दें। आपको यज्ञ का फल मिल जायेगा।’
दूसरी बात ने और अधिक चौंकाने का काम किया, वह बात थी कि वहाँ जो रिकॉर्ड बज रहा था, उस पर वेद मन्त्रों की ध्वनि आ रही थी, प्रत्येक मन्त्र के अन्त में स्वाहा बोला जा रहा था। एक व्यक्ति यज्ञ-कुण्ड के पास आसन पर बैठकर घृत की आहुतियाँ दे रहा था। इस क्रम को देखकर विचार आया कि मन्त्र-पाठ का विकल्प तो मिल गया, मन्त्रों को रिकॉर्ड करके बजा लिया पर अभी आहुति डालने वाले का विकल्प काम में नहीं लिया। यदि वह भी ले लिया जाय तो यज्ञ का लाभ भी मिल जायेगा और उस कार्य में लगने वाले समय को अन्यत्र इच्छित कार्य में लगाने का अवसर भी मिल जायेगा। मेरे साथ संयोग से सार्वदेशिक सभा के मन्त्री प्रकाश आर्य भी थे। मैंने उनसे इस विषय पर प्रश्न किया और उनकी समति जाननी चाही, तो वे केवल मुस्कुरा दिये और कहने लगे- मैं क्या बताऊँ।
इसके बाद इस बात की चर्चा तो बहुत हुई, परन्तु अधिकारी व संस्था-प्रमुख व्यक्ति से संवाद नहीं हो सका। संयोग से कुछ दिन पहले उस संस्था के प्रमुख से साक्षात्कार हुआ, सार्वजनिक मञ्च से मुझे उनसे अपनी शंकाओं का समाधान करने का अवसर मिल गया। जब मैंने दोनों बातें उनके सामने रखकर इसका अभिप्राय जानना चाहा तो उन्होंने अपने चालीस मिनट में इसका उत्तर इस प्रकार दिया। उन्होंने कहा- हमने कभी यह नहीं कहा और न ही कभी हमारा मन्तव्य ऐसा रहा कि हमारा यज्ञ किसी के व्यक्तिगत यज्ञ का विकल्प है। हमारे यज्ञ में सहयोग करने वाले व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से यज्ञ करने का लाभ तो नहीं मिलेगा। परन्तु उसके धन की सहायता से जिस घृत और सामग्री से हमारे यहाँ यज्ञ किया जा रहा है, उस सद्कर्म के पुण्य का लाभ उस व्यक्ति को भी मिलेगा। इसमें आपत्तिजनक कोई भी बात नहीं।
पहली बात व्यक्तिगत रूप से घर पर किया गया यज्ञ करने वाले के घर की परिस्थिति और वातावरण की शुद्धि का कारण होता है, वह दूर देश में जाकर करने पर घर की पवित्रता का कारण नहीं बन सकता। दूसरी बात यज्ञ केवल पर्यावरण शुद्धि का स्थूल कार्य मात्र नहीं है, यह मनुष्य के लिये उपासना का भी आधार है। इससे वेद-मन्त्रों के पाठ, विद्वानों के सत्संग और यज्ञ में किये जाने वाले स्वाध्याय से परमात्मा की उपासना भी होती है। यज्ञ का यह लाभ दूसरे के द्वारा तथा दूर देश में किये जाने पर केवल धन देने वाले यज्ञकर्त्ता या यजमान को प्राप्त नहीं हो सकता। किसी भी शुभ कार्य के लिये किसी के द्वारा दिये सहयोग, दान का पुण्य दाता को अवश्य प्राप्त होगा, क्योंकि वह उस दान का वह कर्त्ता है।
जहाँ तक दूसरे प्रश्न की बात है कि मन्त्र को रिकॉर्ड पर बजाकर आहुति देने से यज्ञ सपन्न होता है। उनका यह कहना ठीक है कि इतने विद्वान् या वेदपाठी कहाँ से लायें, जो पूरे दिन मन्त्र-पाठ कर सकें? रिकॉर्ड पर मन्त्र चलाकर अपने को तो समझा सकते हैं, परन्तु यह अध्यापक या विद्वान् का विकल्प नहीं हो सकता। संसार की सारी वस्तुयें साधन बन सकती हैं, परन्तु कर्त्ता का मूल कार्य तो मनुष्य को ही करना पड़ता है। सभवतः आचार्य के उत्तर से सन्तुष्ट हुआ जा सकता था, परन्तु संस्था की ओर से जो लिखित स्पष्टीकरण प्राप्त हुआ, वह मौािक स्पष्टीकरण से नितान्त विपरीत है।
स्पष्टीकरण में शास्त्रों की पंक्तियाँ उद्धृत करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि यज्ञ के लिये दान देने वाले को यज्ञ का फल मिलता है, प्रमाण के रूप में मनुस्मृति के ‘‘अनुमन्ता…….’’, योग-दर्शन के ‘‘वितर्का हिंसादय……’’ आदि कई प्रमाण दिये गये हैं। वे शायद ये भूल जाते हैं कि संसार की किन्हीं भी दो अलग-अलग क्रियाओं का फल एक जैसा नहीं हो सकता। दान करने वाले व्यक्ति को दान का फल मिलेगा,ये भी हो सकता है कि अन्य कार्यों के लिये दान करने की अपेक्षा यज्ञ हेतु दान करने का फल अधिक अच्छा हो पर फल तो दान का ही होगा। दरअसल जब हम यज्ञ का फल केवल वातावरण की शुद्धि-मात्र ही समझ लेते हैं, तब इस तरह के तर्क मन में उभरने लगते हैं, और जब कहीं के भी वातावरण की शुद्धि को यज्ञ का फल मान बैठें तो तर्क और अधिक प्रबल दिखाई देने लगते हैं।
ऋषि दयानन्द ने जिस दृष्टि से यज्ञ का विधान किया है, वह अन्यों सेािन्न है। उन्होंने यज्ञ का विधान भौतिक शुद्धि के साथ-साथ अध्यात्म और वेद-मन्त्रों की रक्षा के लिये भी किया है, साथ ही केवल एक ही जगह और कुछ एक व्यक्तियों के द्वारा ही यज्ञ किये जाने से यज्ञ का भौतिक फल एक ही स्थान पर होगा। यदि इन्हीं सब सीमित परिणामों को यज्ञ का फल मान रहे हैं तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।
एक और तर्क ये दिया गया है कि संस्कार विधि में ऋषि दयानन्द ने पति-पत्नी के एक साथ उपस्थित न होने पर किसी एक के द्वारा ही दोनों की ओर से आहुति देने का विधान किया है, इससे सिद्ध होता है कि एक दूसरे के लिये यज्ञ किया जा सकता है। ऋषि दयानन्द ने ये विधान केवल इसलिये किया है, जिससे कि यज्ञ की परपरा बनी रहे, न कि कर्मफल की व्यवस्था को परिवर्तित करने के लिये। एक और तर्क ये कि यदि कोई व्यक्ति भण्डारा, ऋषि लंगर आदि की व्यवस्था करता है, तो उसका फल दानी व्यक्ति को ही मिलना है, पकाने या परोसने वाले को नहीं। यहां पर ये महानुााव अपने ही तर्क ‘‘अनुमन्ता विशसिता………’’ का खण्डन कर गये, जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंसा का अपराध माँस बेचने, खरीदने, सलाह देने वाले आदि सभी व्यक्ति द्वारा होता है। एक और तर्क सुनिये- राजा समयाभाव के कारण अपने माता-पिता की सेवा भृत्यों से कराता है। ऋषि दयानन्द व मनु के अनुसार राजा स्वयं राजकार्य में रहकर अग्निहोत्र व पक्षेष्टि आदि के लिये पुरोहित व ऋत्विज् को नियुक्त करे।
ऐसे कई उदाहरण दिये गये हैं, और अन्य भी दिये जा सकते हैं, पर इन सभी उदाहरणों में एक सामान्य सी बात ये है कि सभी जगह अति-आपात् की स्थिति या अन्य बड़ा दायित्व होने की स्थिति में अन्यों से यज्ञादि कराने का विकल्प है, वह भी तब, जबकि व्यक्ति मन में ईश्वर के प्रति आस्था, अध्यात्म, वेद की रक्षा के प्रति पूर्ण निष्ठा रखता हो और किसी अति-अनिवार्यता के कारण से यज्ञादि कार्य में असमर्थ हो। इस परिस्थिति में जिनको नियुक्त किया जाता है वे वेतन, पारिश्रमिक आदि लेकर कार्य करते हैं। यदि दान लेकर दाता के नाम से यज्ञ कराने वाले भी यज्ञ करने का पारिश्रमिक लेते हैं, और दानदाता वास्तव में यज्ञ, वेद, ईश्वर, अध्यात्म के प्रति पूर्ण निष्ठावान् रहते हुये भी यज्ञ करने में पूर्ण अक्षम है तो शायद बात कुछ मानी जा सके, लेकिन उतने पर भी वायु तो वहाँ की ही शुद्ध होगी, जहाँ यज्ञ हो रहा है, वेद-मन्त्र तो उसे ही स्मरण होंगे जो कि मन्त्र बोल रहा है। ईश्वर व अध्यात्म में अधिक गति तो उसकी होगी जो आहुति दे रहा है।
इतने पर भी आप यदि अपनी बात को सैद्धान्तिक और सत्य मानना चाहें तो मानें, परन्तु यह अवश्य स्मरण रखना होगा कि ऋषि दयानन्द ने जिन अन्धविश्वासों का खण्डन किया था, वह सब मिथ्या और व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा। एक बार सोनीपत आर्यसमाज के उत्सव पर वहाँ के कर्मठ कार्यकर्त्ता सत्यपाल आर्य जी ने अपने जीवन की घटना सुनाई, उन्होंने बताया कि लोकनाथ तर्क-वाचस्पति उन्हीं के गाँव के थे, वे स्वतन्त्रता संग्राम में आन्दोलन करके जेल गये। उस धरपकड़ में उनके गाँव का पौराणिक पण्डित भी धर लिया गया। जेल में तो वह रहा, परन्तु छूटते समय लोकनाथ जी से बोला, इतने दिनों में तुमने कुछ कमाई की या नहीं? लोकनाथ जी बोले- जेल में कैसी कमाई करेंगे? तो पण्डित ने कहा- मैंने तो इन दिनों अपने सेठों के नाम पर इतना जप किया है, जाते ही पैसे ले लूंगा। तब आप क्या करेंगे?
सारे पौराणिक पण्डित यही तो करते हैं। इनको जो लोग दान देंगे, तो क्या पण्डित जी के कार्य का पुण्य फल उन भक्तों को नहीं मिलेगा? फिर ईसाई लोग स्वर्ग की हुण्डी लेते थे, तो क्या बुरा करते थे, दान का पुण्य तो स्वर्ग में मिलेगा ही। फिर श्राद्ध का भोजन, गोदान, वैतरणी पार होना, यज्ञ में पशुबलि आदि सब कुछ उचित हो जायेगा।
धार्मिक कार्य स्वयं करने, दूसरों से कराने और कराने की प्रेरणा देने से निश्चित रूप से पुण्य मिलेगा, परन्तु स्वयं करने का विकल्प-करने की प्रेरणा देना और दूसरों को सहायता देकर कराना नहीं हो सकता। मेरा भोजन करना आवश्यक है, मुझे दूसरों को भी भोजन कराना आवश्यक है। मेरे भोजन करने का विकल्प दूसरे को प्रेरणा देना और सहायता देकर कराना नहीं होता। मेरे घर कोई आता है तो उसे भोजन कराना ही है। मेरे घर कोई नहीं आया, तो मेरे संस्कार बने रहें, इसलिये मैं कहीं किसी को भोजन कराने की सहायता देता हूँ, वह स्वयं कराये गये भोजन का विकल्प नहीं है। एक के अभाव में अन्य के भोजन की बात है।
यज्ञ, संस्कार आदि का प्रयोजन ऋषि ने शरीरात्म विशुद्धये कहा है। दूर किये गये यज्ञ से या दूसरे के यज्ञ से मेरे शरीर-आत्मा की शुद्धि नहीं होती। किसी की तो होती है, उससे दूसरे का भला करने का लाभ होगा, पर आत्मलाभ की बात इससे पूर्ण नहीं होती। प्राचीन सन्दर्भ से देखें तो ऋषि का यज्ञ-विधान परपरा से हटकर है। पुराने समय के यज्ञ चाहे राजा के हों या ऋषि के, सभी व्यक्तिगत रूप से किये जाने वाले रूप में मिलते हैं। ऋषि की उहा ने यज्ञ को एक सामूहिक रूप दिया है, जिसमें यजमान के आसन पर बैठा व्यक्ति पूरे समूह का प्रतिनिधि है, यह यज्ञ सामाजिक संगठन का निर्माण करने वाला होता है।
यज्ञ में वेद-मन्त्र पढ़ने का लाभ बताते हुए ऋषि लिखते हैं-
जैसे हाथ से होम करते, आँख से देखते और त्वचा से स्पर्श करते हैं, वैसे ही वाणी से वेद-मन्त्रों को भी पढ़ते हैं, क्योंकि उनके पढ़ने से वेदों की रक्षा, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना होती है तथा होम से जो फल होते हैं, उनका स्मरण भी होता है। वेद मन्त्रों का बार-बार पाठ करने से वे कण्ठस्थ भी रहते हैं और ईश्वर का होना भी विदित होता है कि कोई नास्तिक न हो जाये, क्योंकि ईश्वर की प्रार्थनापूर्वक ही सब कर्मों का आरभ करना होता है।
वेद-मन्त्रों के उच्चारण से यज्ञ में तो उसकी प्रार्थना सर्वत्र होती है। इसलिये सब उत्तम कर्म वेद-मन्त्रों से ही करना उचित है। – ऋग्वेद भूमिका पृ. 721
यह बात इस कारण लिखनी आवश्यक हुई, जिससे जनसामान्य यथार्थ से परिचित हों। किसी के दान से किसी को क्यों द्वेष हो तथा किसी की प्रसिद्धि से ईर्ष्या का क्या लेना? इस अवसर पर संस्कृत की एक उक्ति सटीक लगती है, इसलिये लेख दिया-
का नो हानिः परकीयां खलुचरति रासभोद्राक्षम्।
तथापि असमञ्जसमिति ज्ञात्वा खिद्यते चेतः।।
– धर्मवीर

पण्डित लेखराम वैदिक मिशन की गुरुवर वेदग्य देव धर्मवीर जी को श्रद्धांजली

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ओउम
धर्मवीर जी का यूँ जाना ……….
हाय ! देव के दुर्विपाक से , ये क्या अपने साथ हो गया I
धर्मवीर जी का यूँ जाना, बहुत बड़ा आघात हो गया II
जिनको पाकर परोपकारिणी प्रगति पथ पर चल निकली थी I
परोपकारी पत्र लोकप्रिय , ऋषि उद्यान सनाथ हो गया …….
उनके जितने सद्गुण वाला व्यक्ति मिलना महा कठिन है I
इसीलिये आने वाला दिन , दिन न रहा , अब रात हो गया …
उनके अपनेपन की परिधि , इतनी विस्तृत और विशाल थी I
सत्यनिष्ठ , सिद्धांतनिष्ठ , हर व्यक्ति उनके साथ हो गया ……
लेकिन कपट कुटिलता रखकर सज्जनता का पहन मुखौटा
जो छलने टकराने आया, तर्क बुद्धि से मात हो गया ……

स्वाध्याय उनका सजीव था , वेद शाश्त्र भाषा पण्डित थे I
आयुर्वेद , व्याकरण उनको , तत्व रूप से ज्ञात हो गया …..
उनके प्रवचन लेखन दोनों वर्तमान में अद्वितीय थे I
सम्पादकीय पढ़ा जिसने भी , सबको आत्मसात हो गया
पता नहीं वो क्या नाता था उनका कितनों से ऐसा था ?
बढे बड़ों का धीरज टूटा , खुलकर अश्रुपात हो गया ….
यह सब कुछ लिखते लिखते “गुणग्राहक” तू भी रोया था I
महीनों तक यूँ ही रोयेगा ऐसा विकट विषाद हो गया …
भावी कल को आज समान देखने कि अन्तर्दृष्टि थी I
जिसके बल उनका हर निर्णय , आज सुखद संवाद हो गया
रवि सम ज्ञान प्रकाश हमें , मिलता संग शीतल सी ज्योत्सना के
सुखद सुहाना समय हाय क्यों , सहसा उल्कापात हो गया
अधिक क्या कहूँ सद्गुण प्रेरक , सज्जनता का पोषक जीवन
कल जो हम सबका हिस्सा था , आज पुरानी बात हो गया I I
राम निवास गुणग्राहक

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-38

आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्ट तातिभिः।

दक्षं ते भद्रमाभार्षं परा यक्ष्मं सुवामि ते।।

इससे पूर्व मन्त्र में वायु की शुद्धता से रोग को दूर करने की तथा रोगी के अन्दर बल संचार करने की चर्चा की गई थी। इस मन्त्र में वैद्य अपने सामर्थ्य का वर्णन कर रहा है। जब रोगी पीड़ा से त्रस्त होता है, उसे वैद्य की आवश्यकता अनुभव होती है। रोगी को विश्वास होता है कि चिकित्सक रोग और पीड़ा को दूर कर देगा। चिकित्सक को भी वैसा ही होना चाहिए। चिकित्सा ऐसा कार्य है, जिसमें मनुष्य पर असीम उपकार करने का सामर्थ्य होता है। यह सामर्थ्य वैद्य के अन्दर नैतिक और मानवीय गुण होने पर ही समभव है।

वैद्य के सामने रोगी विवश होता है। चिकित्सक योग्य एवं धार्मिक है, तो वह रोगी को प्राणदान कर सकता है, यदि मूर्ख या लोभी हो तो उसका जीवन भी नष्ट कर सकता है। चिकित्सा शास्त्र में इसी आधार पर चिकित्सकों के दो भेद किये गये। पहले वे हैं जो रोगी के प्रति सद्भाव रखते हैं, उसके कष्ट को दूर करने की इच्छा रखते हैं। रोगी की पीड़ा को दूर करके उसे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं, ऐसे चिकित्सक रोगाभिसर कहलाते हैं। इसके विपरीत स्वार्थी एवं अज्ञानी चिकित्सक रोगी के प्राणों का हरण करने वाले होते हैं, अतः उन्हें प्राणाभिसर कहा गया है।

अच्छे चिकित्सक के पास शास्त्रीय ज्ञान तो होता ही है, उसके साथ ही योग्य चिकित्सक गुरुओं के पास रहकर वह अनुभव भी प्राप्त किया रहता है, क्रिया को अनेक बार होते हुये देखा होता है। इससे कार्य में दक्षता प्राप्त होती है। चिकित्सक को मन-वचन-कर्म से पवित्र रहने का निर्देश दिया गया है। ऐसा व्यक्ति ही मन्त्र की भाषा बोल सकता है।

मन्त्र में चिकित्सक रोगी को कह रहा है- मैं तेरे पास आ गया हूँ, अब डरने की आवश्यकता नहीं है। मेरे पास ऐसे उपाय हैं, जिनसे मैं तुमहारा कल्याण कर सकता हूँ। त्वा आगमम्– मैं तुमहारे पास आया हूँ। शंतातिभिः कल्याण करने वाले उपाय से। उपाय जानने वाला कभी विषम परिस्थितियों में किंर्त्तव्यविमूढ़ नहीं होता, इसलिये युक्ति जानने वाले चिकित्सक की शास्त्र में प्रशंसा की गई है। उपरितिष्ठति युक्तिज्ञः द्रव्य ज्ञानवतां सदा जो लोग द्रव्य औषध के विषय से परिचित हैं, परन्तु देश, काल, परिस्थिति में उनका उपयोग कैसे किया जाय, इसका विचार नहीं रखते, वे अनेक बार सफल नहीं हो पाते। अतः युक्तिज्ञ को शास्त्रज्ञान वालों से ऊँचा स्थान दिया गया है।

मन्त्र कह रहा है- मेरे पास दोनों उपाय हैं, एक जो शं= कल्याण करने वाले हैं, स्वास्थ्य को बढ़ाने वाले हैं, दूसरे उपाय है- अरिष्ट तातिभिः जो लक्षण तुहारे में रोग के हैं, उनके निराकरण का उपाय भी मेरे पास है। चिकित्सा दोनों प्रकार की होती है- विकार की शान्ति तथा स्वास्थ्य की उन्नति। इसको मन्त्र के उत्तरार्ध में इस प्रकार कहा गया है- दक्षं ते भद्रमाभार्षं, मेरी चिकित्सा में बल बढ़ाने की योग्यता है। औषध रोग निवारक सामर्थ्य की वृद्धि में सहायता करती है। शरीर के अन्दर यदि रोग निरोधक क्षमता शेष न रहे, तो औषध निष्प्रभावी हो जाती है। यहाँ वैद्य रोगी से कह रहा है- दक्षं ते भद्रं अर्थात् तुमहारे शरीर का कल्याण करने वाली, बल बढ़ाने वाली औषध मैं तुमहारे लिये लाया हूँ। इससे तुमहारा बल निश्चय ही बढ़ेगा।

अन्त में कहा गया है- परा यक्ष्मं सुवामि– रोग को शरीर से समाप्त ही करता हूँ। परा-दूर बहुत दूर रोग को हटाता हूँ। रोग के कारण तो सब स्थानों पर रहते हैं, परन्तु सभी लोग तो उससे पीड़ित नहीं होते। सभी रोगी नहीं हो जाते। जो बलवान हैं, जिनके पास रोग को रोकने का सामर्थ्य है, उस वातावरण में रहकर भी वे रोगी नहीं होते। जो दुर्बल होते हैं, जिनमें रोग निरोधक क्षमता नहीं है या स्वल्प है, उनको ही रोग पकड़ते हैं। अतः चिकित्सक कहता है- मैं रोगी को ऐसी औषध दे रहा हूँ, जिससे भविष्य में रोगी इन रोगों से बचा रहे। रोग उस पर आक्रमण करने में समर्थ न हो।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-37

आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः।

दक्षं ते भद्रमाभार्षं परा यक्ष्मं सुवामि ते।।

चिकित्सक का आना आशा का सूचक है। इससे रोगी को आश्वासन मिलता है। मनुष्य को आश्वासन से बड़ा बल मिलता है। चिकित्सक रोगी को आश्वासन दे रहा है-मैं तेरे पास आ रहा हूँ। ऐसे ही नहीं आ रहा हूँ, मैं श्रेय कल्याण को लेकर आ रहा हूँ। मेरे हाथों से तेरा कल्याण निश्चित है। कल्याण करने वाले उपायों को लेकर आ रहा हूँ। रिष्ट रोग हिंसा और कष्ट को कहते हैं। वैद्य कहता है- मैं तुझे रोग रहित करने आ रहा हूँ।

इस सूक्त के सभी मन्त्रों में जहाँ औषध की चर्चा है, वहाँ वाणी और स्पर्श चिकित्सा का भी वर्णन मिलता है। हाथ को विश्वभेषजः कहा है। चिकित्सक के हाथ के स्पर्श से रोगी को शान्ति और स्वास्थ्य का अनुभव होता है। मेरा हाथ समस्त रोगों की औषध है। स्पर्श मात्र से रोग का निवारण करता हूँ। समस्त अशिव को मेरा हाथ मसल देने में समर्थ है। वाणी से भी रोगी को स्वास्थ्य का अनुभव कराता हूँ।

मूल रूप से मनुष्य शरीर के रोग तो सहन कर लेता है, परन्तु यदि मानसिक रूप से निराशा का अनुभव करने लगे तो फिर उसको स्वस्थ करना कठिन हो जाता है। मनुष्य को किसी की सहायता का विश्वास होता है तो वह अपने में बल का अनुभव करता है। आस्तिक होने का मनुष्य को सबसे अधिक लाभ मानसिक स्तर पर ही मिलता है। आस्तिक मनुष्य परमेश्वर की सहायता का अनुभव हर समय कर सकता है, अतः उसे भय नहीं लगता। डेल कार्नेगी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘चिन्ता छोड़ो, सुख से जीओ’ में अपने अनुभव लिखे हैं। एक अनुभव में कहा गया है कि रोगी पर औषध उपचार के साथ-साथ आस्तिकता का क्या प्रभाव पड़ता है, इसका भी परीक्षण किया गया। आस्तिक और नास्तिक रोगियों पर औषध का समान उपयोग किया गया, परिणाम में पाया गया कि आस्तिक रोगी शीघ्र स्वस्थ हुये तथा उनका प्रतिशत भी अधिक रहा। मनुष्य को परमेश्वर का विश्वास होता है तो उसका आन्तरिक बल बढ़ता है।

इसके साथ वातावरण भी मनुष्य के मन पर प्रभाव डालता है। जहाँ का वातावरण स्वच्छ होता है, पवित्र होता है तो ऐसे स्थान पर जाकर मन प्रसन्न होता है। इसका मुखय कारण वातावरण में ऊर्जा बढ़ाने वाले तत्त्वों का होना है। शुद्ध वायु में ऊर्जा का होना, प्राण शक्ति का होना ही वायु की शुद्धता है। शुद्ध वायु का शरीर में संचार होते ही शरीर की कोशिकाएँ विस्फारित होने लगती हैं। प्रसन्नता में शरीर की मांसपेशियों में विस्तार आता है। जो व्यक्ति प्रसन्न रहता है, उसे ही स्वास्थ्य का बल मिलता है। मन्त्र कहता है- मैं तेरे लिये बल बढ़ाने वाली औषध लाया हूँ। पिछले मन्त्र में भी कहा गया है कि वातावरण की वायु ऐसी होनी चाहिये, जो अन्दर जाते हुए बल का संचार करे, प्राण शक्ति को बढ़ावे और अन्दर से बाहर की ओर निकलती हुई वायु अन्दर के दोषों को बाहर ले जावे। वैद्य कह रहा है- मैं तेरे लिये बल और सुख की प्राप्ति का उपाय लेकर आया हूँ। निश्चित रूप से तेरे रोग को ‘परा सुवामि’ दूर करने में समर्थ हूँ। तेरे रोग को निकाल कर दूर फेंक  देता हूँ।

मन्त्र के शबद से चिकित्सा की विश्वसनीयता तथा वैद्य की योग्यता और आत्मविश्वास-दोनों का बोध होता है। जैसे वैद्य में आत्मविश्वास होता है, वैसे ही रोगी में भी जिजीविषा होनी आवश्यक है। इस सूक्त के मन्त्रों में रोगी को विश्वास  बढ़ाने की प्रेरणा की गई है। इन मन्त्रों के पाठ से रोगी के विचारों को बल मिलता है। इससे पता लगता है कि चाहे स्वस्थ होना हो या रोग दूर करना हो, किसी अकेले उपाय से सिद्धि नहीं मिलती। जितनेाी प्रयत्न समभव हैं, सबका उपयोग करना चाहिये, इसीलिये औषध के साथ पथ्य पर बल दिया जाता है। पुराने चिकित्सक पथ्य को भी औषध का भाग स्वीकार करते हैं। उसके मत में औषध पथ्य होता है, अतः औषध के साथ पथ्य भी आवश्यक है। आजकल की चिकित्सा लाक्षणिक है, अतः औषध केवल लक्षण का निवारण करती है, कारण का नहीं। औषध रोग का निवारण करती है, पथ्य कारण को दूर करता है, अतः दोनों को मिलाकर ही मनुष्य शीघ्र और पूर्ण स्वस्थ हो सकता है।

मेरी अमेरिका यात्रा – डॉ. धर्मवीर

मेरी अमेरिका यात्रा

– डॉ. धर्मवीर

पिछले अंक का शेष भाग…..

8 अप्रैल को आर्य समाज के पुरोहित पं. वेदश्रमी जी ने घर पर नववर्ष का आयोजन रखा था, यज्ञ के पश्चात् प्रवचन किया। भोजन कर घर लौटे। सायंकाल  का कार्यक्रम आर्य समाज के संस्थापक और संरक्षक दीनबन्धु चन्दौरा जी के घर था। आप डॉक्टर हैं, जोधपुर के निवासी थे, बहुत समय से अमेरिका में हैं। डॉ. ओप्रकाश अरोड़ा और आप सहपाठी थे, यहाँ फिर मिल गये। मिलकर और लोगों को साथ लेकर आर्य समाज की स्थापना की। पहले समाज घरों पर चलता था, फिर स्थान लेकर भवनाी बना लिया। आपने अनेक लोगों को पुरोहित के रूप में बुलाया, बाद में किसी कारण से विवाद हुआ, वे लोग पृथक् होकर कार्य करने लगे। लाभ यह हुआ कि इस बहाने आर्य समाज के अनेक प्रचारक अटलाण्टा में हो गये। सायंकाल का कार्यक्रम श्री चन्दौरा जी के घर पर हुआ। मैंने कुछ चर्चा की फिर प्रश्नोत्तर व भोजन हुआ, लौटकर विश्राम किया।

9 अप्रैल को विश्रुत जी ने तेलुगु लोगों के साथ कार्यक्रम रखा था। स्थान दूर था, पहुँचने में एक घण्टा लगा। परिवार में कार्यक्रम था 30-40 स्त्री-पुरुष थे। तेलुगु अनुवाद की व्यवस्था थी। कार्य 11 बजे से चार बजे तक चला, मध्य में भोजन हुआ। इस चर्चा में ईश्वर, वेद, मूर्त्तिपूजा आदि दार्शनिक विषयों पर खूब चर्चा हुई, सबने उत्साह से भाग लिया। पश्चात् घर तक पहुँचा गये। रात्रि आर्य समाज में कार्यक्रम था, एक घण्टा व्याखयान और आधा घण्टा प्रश्नोत्तर हुए। भोजन के साथ कार्यक्रम समपन्न हुआ। यहाँ आर्य विद्वान् श्री आशीष जी देहरादून वालों की मौसी जी डॉ. विजय अरोड़ा रहती हैं। वे और उनके पति डॉ. ओप्रकाश अरोड़ा आर्य समाज का बहुत कार्य करते हैं, निर्माण के कार्य की देखरेख आप ही करते हैं। बच्चे बाहर रहते हैं। घर में दो ही प्राणी हैं।

10 अप्रैल रविवार था, तैयार होकर प्रातराश किया। श्रीमती अरोड़ा भोजन बनाने में व्यस्त रही, क्योंकि आर्य समाज के भोजन में सब सदस्य कार्य बाँट लेते हैं, किसे क्या-क्या लाना है और डॉ. अरोड़ा समाज पहुँचे, प्रथम यज्ञ हुआ फिर प्रवचन, विषय था ‘समय का जीवन पर प्रभाव’ पश्चात् प्रश्नोत्तर हुए। भोजन के साथ कार्यक्रम समपन्न हुआ। कार्यक्रम के बाद डॉ. चन्दौरा जी के साथ उनके घर गया, आर्य समाज के विषयों पर चर्चा हुई। सायं विश्रुत के घर लौटा। 6 बजे डॉ. वीरदेव बिष्ट आ गये, उनके साथ उनके घर गये, उन्हें अपने मित्रों का आतिथ्य करने में बड़ा आनन्द आता है। वैसा ही स्वभाव उनकी श्रीमती का है। वे परिवार सहित अजमेर की यात्रा कर चुके हैं। डॉ. वीरदेव मूलरूप से नेपाल के नागरिक हैं, वे पूरे नेपाल देश के प्रथम पी-एच.डी. हैं। आपकी शिक्षा का प्रारमभ गुरुकुल चित्तौड़ से हुआ फिर गुरुकुल झज्जर से व्याकरणाचार्य कर गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय से एम.ए., पी-एच.डी. किया। नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने, वहाँ से दक्षिण अफ्रीका गये, जहाँ से डॉ. चन्दौरा के माध्यम से अमेरिका आये। कुछ मतभेद होने पर स्वतन्त्र रूप से वैदिक धर्म के प्रचार में संलग्न हैं। वे बता रहे थे कि उन्होंने अभी तक अमेरिका में 11 हजार कार्यक्रम किये हैं। आपकी दो पुत्रियाँ हैं, बड़ी पुत्री ने अमेरिका में प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से चिकित्सा में एम.डी. किया है तथा छोटी पुत्र प्रशासनिक सेवा में चयनित होकर फ्रान्स में राजदूत हैं। आपके साथ गुरुकुल की पुरानी स्मृतियाँ दोहराने का अवसर मिला। सायंा्रमण करते यहाँ का प्रसिद्ध अक्षरधाम मन्दिर देखा, आकर भोजन कर विश्राम किया।

11 अप्रैल प्रातः परिवार के साथ यज्ञ किया। आज उनको इस घर में आये 20 वर्ष हो गये थे। भोजन करके विदा ली, विश्रुत के घर गया, वहाँ से चन्दौरा जी के छोटे भाई श्री ब्रह्मदत्त चन्दौरा जी मध्याह्न भोजन के लिये अपने घर ले गये। आप आर्य वीर दल के स्वयं सेवक रहे हैं। घर में दृढ़ शाकाहारी हैं, बच्चे भी शाकाहारी हैं, आपकी पत्नी भोजन की पवित्रता का बहुत ध्यान रखती हैं। सभा के पुराने सहयोगी हैं। भोजन करके विश्रुत के घर लौटा। सायं डॉ. दीनबन्धु चन्दौरा जी के साथ पं. गिरी जी के घर गये, आपको भी डॉक्टर जी ही अमेरिका लाये थे। कुछ मतभेद होने से पण्डित जी ने स्वतन्त्र कार्य प्रारमभ किया। आप भी आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में तन-मन से लगे हैं। स्वभाव से सरल एवं सहयोगी हैं। आपने अपने घर यज्ञ एवं सत्संग का आयोजन रखा था, पड़ौस में मुस्लिम परिवार रहता है, वह भी प्रेम से सत्संग में भाग लेता है। आज बालकों के लिये प्रवचन किया, भोजन कर विश्रुत के यहाँ लौटकर विश्राम किया।

12 अप्रैल को प्रस्थान का दिन था, परन्तु सभी बन्धुओं का अपने-अपने घर चलने का आग्रह था, सबकी इच्छा तो पूरी नहीं हो सकती थी। पहले श्रीमती रूपा लूथरा पधारीं, उनके घर प्रातराश करके अटलाण्टा का दर्शनीय स्थल देखा, यह पूरा पर्वत ग्रेनाइट पत्थर का है, इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया है, इस पर्वत में खोद करके तीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों की मूर्त्तियाँ बनाई गई हैं। उद्यान है, वन है, मनोरञ्जन के स्थान हैं। वहाँ से बाजार देखते हुए घर लौटकर भोजन किया, फिर आर्य समाज में पं. वेदश्रमी जी के यहाँ पहुँचा। उनके साथ भारत जी के घर गये, आप भी इञ्जीनियर हैं, स्वतन्त्र रूप से काम करते हैं। विश्रुत विराट के साथ मिलकर अमेरिका से शाकाहार का आन्दोलन चलाते हैं। आधा घण्टा बात करके पं. वेदश्रमी जी के साथ हवाई अड्डे पहुँचा, वहाँ पर पहले विश्रुत धर्मपत्नी स्वाति तथा श्री श्याम चन्दोरा की धर्मपत्नी श्रीमती प्रवीण चन्दौरा सहित उपस्थित थे, घर से सायं का भोजन भी बनाकर साथ लाये थे। छः बजे हवाई अड्डे के अन्दर गया, सुरक्षा जाँच के बाद यान में बैठा, यथा समय चल कर यहाँ के समय अनुसार 10 बजे सैनहोजे पहुँच गया। सुयशा भास्कर आ गये थे, वहाँ घर पहुँचकर विश्राम किया।

13 अप्रैल का समय स्वाध्याय और लेखन कार्य में व्यतीत किया।

14 अप्रैल प्रातराश करके लॉसएञ्जिलिस के लिये निकले। सुयशा भास्कर ने दो दिन का अवकाश ले लिया था, गाड़ी से मार्ग के दर्शनीय स्थलों का भ्रमण करते घर से निकले, जाने का मार्ग समुद्रतट वाला चुना। 17 मील होते हुए, समुद्र के किनारे पहाड़ी पर बने हुये एक महल के पास पहुँचे, इसको हर्स्ट कैसल कहते हैं। इस महल में बहुत से कक्ष, तरणताल, पुस्तकालय सभी कुछ हैं। यह व्यक्ति समाचार पत्र समूह का संचालक था, जिसने पूरे विश्व से साढ़े बाइस हजार वस्तुओं का संग्रह किया था। यह महल मरते समय वह व्यक्ति सरकार को दे गया था, जो एक संग्रहालय के रूप में देखा जाता है। उसको यह महल बनाने की प्रेरणा माता से प्राप्त हुई थी, जिसके साथ यूरोप की यात्रा पर गया था, उससे उस क्षेत्र की गाय का मांस बहुत प्रसिद्ध है, जिसे कैसल की दुकानों से बेचा जाता है। दो घण्टे तक इन वस्तुओं को देखकर आगे चले। इस महल से सब ओर समुद्र और पर्वतों के सुन्दर दृश्य दिखाई देते हैं। इसको बनाते समय एक भी पेड़ काटा नहीं गया, स्थानान्तरित किये गये हैं।

फिर समुद्र के साथ-साथ सान्ता बारबरा पहुँचे। समुद्र किनारे का सुन्दर नगर, समुद्र के अन्दर दृश्य देखने के स्थान को पीयर कहते हैं, यह लकड़ी का बना होता है, इसके ऊपर चलकर समुद्र के अन्दर दूर तक जाया जा सकता है। वहाँ दृश्य देखकर रहने का स्थान खोजा, पूरे नगर में कोई स्थान नहीं मिला। दस मील दूर जाके होटल में स्थान मिला, रात्रि विश्राम किया।

15 अप्रैल प्रातः होटल से निकलकर समुद्र का किनारा पकड़ा, मार्ग में खेत, पहाड़ों का सौन्दर्य देखते हुये लॉसएञ्जिलिस के उपनगर सैण्टा मोनिका पहुँचे। यहाँ का समुद्रतट सुन्दर और मनोरञ्जन से भरपूर है, पहले रेलगाड़ी का अनुभव लिया। दोपहर लॉसएञ्जिलिस पहुँचकर शाकाहारी भोजनालय की खोज की। इण्डियन स्वीट्स नाम का भोजनालय मिला, यहाँ गोरे और भारतीय शाकाहारी भोजन के लिये आते हैं। होटल वाले ने कहा- भोजन एक घण्टा देर से मिलेगा, क्योंकि उसे नबे पराठों का ग्राहक मिला है, पहले उसका काम पूरा करूँगा। भोजन करके मुखय बाजार में आये। विश्व प्रसिद्ध हॉलीवुड स्थान देखा। यहाँ की सड़कों की दोनों पटरियों पर पीतल के पट्टे पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर हॉलीवुड के प्रसिद्ध हस्तियों के नाम लिखकर लगाये हुए हैं। वह विशाल भवन देखा, जिसमें ऑस्कर पुरस्कार दिये जाते हैं। एक वाहन लेकर नगर भ्रमण किया, जिसमें उसने हॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता-अभिनेत्रियाँ जिस क्षेत्र में रहते हैं, वहाँ का भ्रमण कराया। मार्गदर्शक ने प्रसिद्ध लोगों के घर बाहर से बताये। सायंकाल होटल खोजते हुए एक उपनगर में गये, वहाँ कमरा लेकर विश्राम किया।

16 अप्रैल को श्री सुरेन्द्र मेहता जी के घर कार्यक्रम था, उनसे सपर्क किया, दोपहर दिल्ली वाला भोजनालय पर मिलने का निश्चय हुआ। हम यथासमय पहुँच गये। मेहता जी भी पत्नी के साथ पहुँच गये, परिचय हुआ, भोजन करके उनके साथ घर पहुँचे। घर में दोनों प्राणी एकाकी रहते हैं। दो बेटे हैं, दोनों बाहर काम करते हैं। सायं पाँच बजे परिवार में सत्संग रखा था, 30-40 व्यक्ति आ गये थे, श्री सुधीर आनन्द जी भी पहुँच गये थे। योग विषय पर चर्चा हुई, दो घण्टा कार्यक्रम चला, सबने भोजन किया, कार्यक्रम समाप्त कर घरेलू बातें की, विश्राम किया। दोनों पति-पत्नी आर्य समाज के अच्छे कार्यकर्त्ता हैं। आपने लॉस एंजिलिस में स्वामी रामदेव जी के योग शिविर का आयोजन किया था। आज भी नियमित योग कक्षा लेते हैं। रात्रि विश्राम किया।

आपने बताया कि यूरोपियन और अमेरिकी विद्वानों और राजनीतिज्ञों को भारत की कोई भी अच्छी बात स्वीकार करने का साहस नहीं। अपनी निनता को छिपाकर वे दूसरे को अपने से नीचा करके अपनी उच्चता प्रदर्शित करने का यत्न करते हैं। आजकल अमेरिका में एक विवाद चल रहा था। वहाँ की सरकार अपने इतिहास के पाठ्यक्रम में यह नहीं पढ़ाना चाहती कि भारत को इस काल में स्वतन्त्रता मिली। देश का उल्लेख करने से उसका अस्तित्व और इतिहास पर दृष्टि जाती है, इसके स्थान पर वे बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं कि साऊथ ईस्ट एशिया को स्वतन्त्रता कब मिली? भारतीय लोगों ने वहाँ इसका इतना विरोध किया कि इस प्रस्ताव को समाप्त तो नहीं किया गया, परन्तु इसको स्थगित कर दिया गया है। ऐसे प्रयासों का उद्देश्य यही रहता है कि वहाँ रहने वाले भारतीय का अपने मूल से सबन्ध समाप्त हो जाये।

एक घटना का उल्लेख करना उचित होगा, जिससे मुस्लिम मानसिकता का पता चलता है। वे अमेरिका में रहकर भी हिन्दू विरोधी मानसिकता से कितना पीड़ित और प्रताड़ित है कि अमेरिका भी उसे आधुनिक नहीं बना सका। लॉस एञ्जिलिस में सुरेन्द्र कुमार मेहता बता रहे थे, ह्यूस्टन के एक मुसलमान ने समाचार पत्रों में विज्ञापन छपवाया कि कोई मुस्लिम युवक किसी हिन्दू लड़की से विवाह करके उसे एक साल बाद तलाक दे देगा तो उस युवक को वह पन्द्रह हजार डॉलर का पुरस्कार देगा। इस घटना में हिन्दू को मुसलमान बनाने से अधिक हिन्दू को अपमानित करने का भाव अधिक है।

अमेरिका के हिन्दू संगठनों ने इसका विरोध किया और इस विज्ञापन पर प्रतिबन्ध लगवाया।

17 अप्रैल रविवार था, प्रातः घर पर मेहता जी से ‘दर्शन’ विषय पर चर्चा हुई। प्रातराश करके मेहता जी के साथ आर्य समाज पहुँचे। आर्य समाज का सत्संग एक क्लब में होता है, जो चार घण्टे के लिये मास में एक बार किराये पर लिया जाता है। पहले समाज का भवन था, परन्तु आपसी झगड़े में बिक गया। प्रथम यज्ञ हुआ फिर श्री सुधीर आनन्द जी ने मेरा परिचय दिया। मैंने ‘आज के युग में वेदों की आवश्यकता’ विषय पर व्याखयान दिया, फिर प्रश्नोत्तर हुए। भोजन के बाद कार्यक्रम समाप्त हुआ। विश्रुत के भाई विराट यहाँ कार्य करते हैं, वे भी यहाँ कार्यक्रम में उपस्थित थे। सबसे विदा लेकर छोटे रास्ते से लौटे, यह मार्ग यद्यपि खेतों और फलों के उद्यानों का था, परन्तु वर्षा के अभाव में सर्वत्र सूखे का साम्राज्य दीख रहा था। मार्ग में पहाड़ों के बीच सुन्दर झील थी। इस प्रकार पाँच सौ किलोमीटर की यात्रा कर रात्रि को घर पहुँच गये। गाड़ी चलाने का काम भास्कर ने किया।

इन दिनों अधिकांश समय स्वाध्याय और लेखन कार्य में लगाया।

23 अप्रैल की सुयशा और भास्कर के साथ सनफ्रान्सिस्को देखने का विचार किया, नगर पुराना और बहुत सुन्दर है। जहाँ से भी देखें स्वच्छता, सुन्दरता व्यवस्था सब ओर दिखाई देती है। हम पहले गोल्डन गेट पार्क देखने गये। यह उद्यान नगर के मध्य में होने पर भी कहीं कोई अतिक्रमण नहीं है। उद्यान एक हजार एकड़ में फैला हुआ है। इसमें संग्रहालय, खुला रंगमञ्च, विभिन्न उद्यान, खेल के मैदान, उल्लास यात्राओं के अनेक स्थान बने हुए हैं। अवकाश के दिन माता-पिता और बच्चे तथा पर्यटकों का मेला लगा रहता है। एक घण्टे से अधिक समय गाड़ी खड़ी करने का स्थान खोजने में लगा। दो घण्टे उद्यान के अनेक भाग देखे। प्रकृति का संरक्षण बहुत अच्छे प्रकार से किया हुआ है।

उद्यान देखकर नगर का प्रसिद्ध स्थान लोबर्ड स्ट्रीट गये। नगर समुद्र के तट पर पहाड़ी पर बसा हुआ है। नगर के मार्ग बहुत ऊँचे-नीचे हैं। यहाँ पर एक दर्शनीय स्थल है, जिसे क्रुकेड स्ट्रीट कहते हैं। एक सड़क ऊपर से आते हुए एकदम नीचे सड़क से मिलती है, उस ऊँचाई पर एक सर्पाकार मार्ग कारों के उतरने के लिये बनाया है। सड़क के दोनों ओर उतरने-चढ़ने के लिये कम ऊँचाई की सीढ़ियाँ बनी हुई है। उनकी संया चार सौ के लगभग लिखी थी। इस मार्ग पर गाड़ी चलाने का अनुभव रोमाञ्च भरा होता है। हम सीढ़ियों से उतरे और चढ़े। यह स्थान एक सौ बासठ वर्ष पूर्व का बना हुआ है। दर्शकों की उत्कण्ठा और प्रसन्नता देखते ही बनती है। लौटकर सायं घर पहुँच कर विश्राम किया।

24 अप्रैल को स्वदेश प्रस्थान का दिन था, विमान के चलने में विलब की सूचना थी। समय का उपयोग कर के साप्ताहिक बाजार गये, सामान क्रय कर लौटे। 11 बजे घर से निकल सनफ्रांसिस्को हवाई अड्डे पर पहुँचे। सुरक्षा जाँच तक सुयशा भास्कर ने प्रतीक्षा की फिर नमस्ते कर अन्दर पहुँच गया, दो बजे के बाद वायुयान ने उड़ान भरी, सोलह घण्टे निरन्तर उड़ते हुए, जापान के मार्ग से अगले दिन 6 बजे दिल्ली इन्दिरा गाँधी हवाई अड्डे पर उतरा। विशेष बात यह रही कि तकनीकी दृष्टि से यात्रा में 25 घण्टे लगे। वास्तव में 16 घण्टे लगे। दिन में चलकर दिन में ही दिल्ली पहुँच गया, बिना मध्य में रात्रि आये दो दिन हो गये। विपरीत दिशा में चलते हुए ऐसा हुआ।

हवाई अड्डे पर ज्योत्स्ना और ऋचा पहुँच गये थे। उनके साथ घर पहुँच गया और अगले दिन अजमेर, इस प्रकार उक्ति सार्थक हुई- ‘बेताल फिर डाल पर।’

 

गोमूत्र में सुवर्ण तो गोदुग्ध में विष क्यों? : डॉ धर्मवीर

गोमूत्र में सुवर्ण तो गोदुग्ध में विष क्यों?

29 जून 2016 को समाचार पत्रों में यह समाचार प्रमुख रूप से प्रकाशित हुआ है कि अनुसन्धान से सिद्ध हुआ है कि गोमूत्र में सुवर्ण के कण पाये गये हैं। समाचार की मुखय सूचना इस प्रकार है-

गुजरात के जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय के बायो टेक्नोलोजी विभाग के प्रमुख उक्त अनुसंधान करने वाली टीम के अगुवा डॉ. बी.ए. गोलकिया ने बताया कि गुजरात के सौराष्ट्र इलाके के गिर में पाई जाने वाली गायों के मूत्र में प्रति लिटर तीन से दस मिलीग्राम तक सोना, 2 मिलीग्राम चाँदी, 025 मिलीग्राम जस्ता और 1.2 मिलीग्राम बोरॉन होने की पुष्टि हुई है। यही नहीं, इनके अतिरिक्त अन्य 5100 रसायनों की भी पहचान की गई, जिनमें एंटी कैंसर, एंटी कॉलेस्ट्रोल, एंटी डायबिटीज, एंटी एजिंग के गुण वाले रसायन शामिल हैं। ऐसा प्रयोग गायों की अन्य प्रजातियों पर नहीं हुआ है। यह सोना जैविक सोना है, जो चिकित्सकीय गुणों के मामले में लाजवाब तथा आम तौर पर चिकित्सा के लिये प्रयुक्त होने वाली स्वर्ण भस्म आदि से कहीं आगे है।

इस देश का यह दुर्भाग्य है कि अनुसन्धान में गोमूत्र में सुवर्ण की उपस्थिति प्रमाणित हो रही है, परन्तु आज प्रत्येक व्यक्ति दूध के नाम पर जो पी रहा है, खा रहा है, वह केवल विष है। पहले समय में दूध जब अधिक था, अतिथि का सत्कार दूध से किया जाता था, पानी पिलाना समान के प्रतिकूल समझा जाता था। तब इस देश में गौओं की संखया मनुष्यों से अधिक थी। जैसे-जैसे हिंसा के कारण, अनुपात घटता गया, परिस्थितियाँ बदलती गईं। दूध माँगने पर भी दूध न मिले, ऐसी दशा में दूध में पानी मिलाकर दिया जाने लगा। दूध में पानी की मिलावट करना, उसे बेचना एक सर्वप्रचलित अपराध बन गया। घर में दूध की मात्रा कम होने पर पानी मिला कर उसकी पूर्ति करना एक सामान्य आचार बन गया। पशुओं की निरन्तर घटती संखया ने इस परिस्थिति को बदल दिया। अब दूध में पानी मिलाने के स्थान पर पूरा दूध ही नकली बनने लगा। दूध वाशिंग पावडर, तेल आदि डालकर बनाया जाने लगा। एक बार दिल्ली में श्री कृष्णसिंह जी के गाँव में कार्यक्रम में जाते हुए वहाँ के निवासी ने बताया- आचार्य जी, इस गाँव में पशु नहीं हैं, परन्तु हजारों लीटर दूध प्रतिदिन डेयरी को भेजा जाता है। अब आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि ऐसा दूध डेयरी में एक गाँव से लिया जा रहा है, तो क्या शेष लोग मूर्ख हैं जो शुद्ध दूध डेयरी को देंगे? एक बार उत्तर प्रदेश में दिल्ली की ओर आने वाले दूध की जाँच की जाने लगी तो सारे के सारे दूध बेचने वालों ने अपना दूध सड़कों पर फेंक दिया और किसी भी प्रकार के परीक्षण के लिये तैयार नहीं हुए। उस समय समाजवादी नेता और मुखयमन्त्री मुलायमसिंह की टिप्पणी थी- दूध बेचने वालों को भी तो अपने बच्चे पालने हैं, वे मिलावट नहीं करेंगे तो उनके परिवार का भरण-पोषण कैसे होगा? इस प्रकार दूध में मिलावट ही नहीं, नकली दूध को भी हमने मान्यता दे दी, चाहे ऐसा करने से किसी की भी मृत्यु हो तो हो!

दूध की कमी को पूरा करने के लिये बाजार में सोयाबीन और मूंगफली का दूध बनाकर बेचा जाने लगा। सोयाबीन और मूंगफली का घोल दूध जैसा दीखता है, तो कुछ गुण भी मिलते हैं, परन्तु वह घोल क्या दूध का स्थान ले सकता है? इधर हमारा अनुसन्धान विपरीत दिशा में बढ़ता ही जा रहा है। दूध का आधार पशु बढ़ाने के स्थान पर पशु को समाप्त कर दूध के विकल्प खोज रहे हैं। पशु बढ़ाने के स्थान पर पशु में दूध की मात्रा बढ़ाने की बात करते हैं। पशु से अधिक दूध प्राप्त करने के लिये पशुओं पर तरह-तरह के अत्याचार करते हैं। दूध के लिये पशुओं को इंजेक्शन लगाते हैं, यह बिना सोचे कि इसका पशु पर और दूध पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यह एक कष्ट व पीड़ा देने वाला उपाय है। इस औषध का उपयोग प्रसव शीघ्र कराने के लिये किया जाता है। इसके लगाने से गर्भाशय में संकोच होकर शीघ्र प्रसव होता है। इस इंजेक्शन के लगाने से पशु में प्रसव पीड़ा होती है बिना सोचे दिन में दो बार पशुओं को यह इंजेक्शन लगाते हैं।

इस दवा का यदि पशु पर प्रभाव पड़ता है तो दूध पर भी पड़ता है, दूध में इसके प्रभाव से जो बच्चे ऐसा दूध पीते हैं, उनके अन्दर वयस्कता का भाव जल्दी प्रकट होने लगता है। जो बच्चे 15-16 वर्ष में बड़े लगते थे, उनमें यह परिस्थिति 10-12 वर्ष में ही दिखाई देने लगती है। ऐसा दूध, दूध के प्राकृतिक गुणों से रहित हो जाता है। हम दूध अधिक लेने के लिये गाय-भैंस के बच्चों को मार देते हैं तथा कई लोग उनके अन्दर भूसा भर देते हैं। जब दूध निकालना होता है, तब उसे पशु के सामने रख देते हैं, पशु उसे चाटता है और आप सरलता से दूध निकाल लेते हैं। यह अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये किया जाने वाला पाप है।

हमारे समाज में दूध की आवश्यकता तो बढ़ रही है, परन्तु दूध का स्रोत घट रहा है, ऐसी परिस्थिति में अपराध ही शरण बन जाता है। चोरी और मिलावट तभी होती है, जब वस्तु दुर्लभ हो। आज कोई व्यक्ति कितने भी पैसे देकर शुद्ध घी-दूध प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक उसके अपने पशु न हों। हमें दूध, दही, मक्खन, पनीर, मावा, मिठाई, घी-सब कुछ चाहिए, परन्तु गाय नहीं चाहिए, तब ऊपर बताये सब विकल्प ही काम आयेंगे। गत दिनों मध्य प्रदेश के एक गाँव में जाने का अवसर मिला, वहाँ एक व्यक्ति भट्टी जलाकर मावा बना रहा था। हमने सोचा-अच्छा मावा मिलेगा, ले चलते हैं। भट्टी के पास जाकर बैठे, तो एक व्यक्ति चमच से डालडा दूध में मिला रहा था। पूछने पर पता लगा कि पहले यह व्यक्ति गाँव से दूध लाता है, उसकी क्रीम निकाल कर घी बनाता है, फिर बचे हुए दूध में वनस्पति तेल डालकर मावा बनाता है। आज जितने भी उपाय जिसको आते हैं, उतने उपायों से दूध और खाद्य पदार्थ बनाये जा रहे हैं। इसमें भारत हो या विदेश, गरीब हो या अमीर, गाँव हो या शहर, किसी की कोई भी सीमा नहीं है। जितना अपराध नगर में होता है, उससे कम ग्राम में नहीं होता। जितना हमारे देश के अन्दर दूध में मिलावट का पाप हो रहा है, उससे अधिक यूरोप अमेरिका आदि के नगरों में किया जा रहा है। वहाँ अपराध करने का प्रकार वैज्ञानिक साधनों से साफ-सुथरा, आधुनिक है। हमारे देश में दूध में मिलावट करते हैं, उन्होंने गाय में ही मिलावट कर दी।

आज बड़ी-बड़ी विदेशी कमपनियों का दूध और दूध का चूर्ण विष के अतिरिक्त कुछ नहीं है। भारत की सभी डेयरियाँ दूध की मात्रा को पूर्ण करने के लिये इसी दुग्ध चूर्ण का उपयोग करती हैं। यूरोप के लोगों ने दूध के लिये नई गाय बना डाली, इन गायों को हम जर्सी, रेड डेन, हेलिस्टन आदि के नाम से जानते हैं। इनसे प्राप्त होने वाले दूध की मात्रा ने हमें पागल बना दिया है। हम अपनी गिर, राठी, साहीवाल, नागौरी, थारपारकर आदि सैंकड़ों देसी नस्ल को छोड़कर विदेशी गायों को ले आये। उनके बीज से अपनी गायों को संकर नस्ल का बना लिया। आज जब विदेशों में अनुसन्धान किया गया, तो पता चला कि हम ठगे गये। विदेशी गायों के दूध से मधुमेह, कैंसर घुटने का दर्द जैसी अनेक बीमारियाँ हमारे समाज में बढ़ रही हैं, परन्तु विदेशी कमपनियों का अरबों-खरबों का व्यापार दूध, दूध के पाउडर, घी तथा दुग्ध उत्पादों का है, वे इस पाप को न रोकना चाहते हैं, न प्रकाशित होने देना चाहते हैं। वास्तव में गाय जैसा दीखने वाला विदेशी पशु अमेरिका में पाये जाने वाले जंगली सूअर और युरास नामक पशु के प्रजनन से अधिक दूध और अधिक मांस प्राप्त करने के लिये वैज्ञानिकों द्वारा बनाई गई एक नई प्रजाति है। इसके कारण इस मांस और दूध का सेवन करने वाले चाहे अमेरिकी हों या भारतीय, सभी में घातक रोग बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं।

आजकल जहाँ यह पशु है, उन देशों ने भी इन पशुओं के दूध को पीना छोड़ दिया है और वहाँ के लोग इसे सफेद जहर मानने लगे हैं। वहाँ के लोग मांस के लिये भी भारतीय गाय को ही पसन्द करते हैं, इस कारण भारत विश्व का सबसे बड़ा गो-मांस निर्यात करने वाला देश बन गया है। दूध के लिये जर्मनी, ब्राजील जैसे देशों ने भारत की गिर गाय को बहुत वर्षों पहले से ले जाना प्रारमभ किया था। आज वहाँ बड़ी संखया में इनका पालन किया जाता है। आज वहाँ इन देसी गायों का मूल्य एक करोड़ रुपये प्रति गाय तक पहुँच गया है। हम अपने पशु और अपने मनुष्यों के स्वास्थ्य का मूल्य नहीं समझते हैं, अतः विदेशी गायों के प्रति मोह रखते हैं, उनके दूध से अपने अन्दर कैंसर, मधुमेह, घुटनों के दर्द जैसे रोगों को आमन्त्रण दे रहे हैं। हम मांस के लिये सोना देने वाली गाय को मार रहे हैं।

आज हमें विचार करने की आवश्यकता है कि केवल दूध की मात्रा का लोभ करने से समस्या का हल नहीं होगा। इसके मूल में जाकर इस समस्या का हल करना होगा, नहीं तो महर्षि दयानन्द का यह वाक्य सार्थक होगा- गौ आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा का भी नाश होता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं, तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कार्यों कीाी घटती होती है। देखो, इसी से जितने मूल्य से जितना दूध और घी आदि पदार्थ तथा बैल आदि पशु  सात सौ वर्ष पूर्व मिलते थे, उतना दूध, घी और बैल आदि पशु इस समय दस गुने मूल्य सेाी नहीं मिल सकते, क्योंकि सात सौ वर्षों में इस देश में गौ आदि पशु को मारने वाले मांसाहारी विदेशी मनुष्य बहुत आ बसे हैं। वे उन सर्वोपकारी पशुओं के हाड़-मांस तक भी नहीं छोड़ते, नष्टे मूले नैव फलं न पुष्पम्। जब कारण का नाश कर दे तो कार्य नष्ट क्यों न हो जावे। हे मांसाहारियो! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे, तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे वा नहीं?

हम जहाँ पशुओं को मारकर दूध बढ़ाने के उपाय कर रहे हैं, उसी प्रकार उपजाऊ भूमि को घटाकर अन्न बढ़ाने का उपाय भी कर रहे हैं, यह गणित उल्टा पड़ेगा। अन्न भी नकली और बीमार मिलेगा, दूध भी नकली और रोगकारक ही प्राप्त होगा। इन दोनों समस्याओं का हल हमारी प्राचीन परमपरा में निहित है। उसका हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं है। पुराने समय में जंगलों की सुरक्षा अनिवार्य थी। नगर-ग्राम के समीप जो जंगल होते थे, वह गोचर भूमि कहलाती थी। जंगल के अधिक होने से पशुओं की सुरक्षा और वृद्धि सहज समभव है, वहीं जंगल के कारण वनस्पतियों की प्राप्ति से दूध में औषधीय गुण प्राकृतिक रूप में सहज प्राप्त होते हैं। गाय आदि पालतू पशुओं के अतिरिक्त जंगली पशु-पक्षियों की भी सहज रक्षा हो जाती है। जंगल में घूमने वाली गायों के दूध से आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम आदि सद्गुण मनुष्यों में बढ़ते हैं। पशु-पक्षियों की अधिकता से जंगल में गोमूत्र-गोबर आदि से भूमि को पर्याप्त खाद मिलने से वृक्ष-वनस्पतियों की वृद्धि होती है। वृक्षों की अधिकता से वर्षा, जलवायु की शुद्धता तथा उष्णता की मात्रा भी कम हो कर वातावरण सौमय बनता है। इसका दूसरा लाभ भी होता है। दूध-घी की मात्रा अधिक होने से गरीब-से-गरीब आदमी को भी उचित पौष्टिक भोजन मिलता है तथा दूध-घी का उपयोग करने वाले व्यक्ति को अन्न खाने की कम ही आवश्यकता पड़ती है। इससे मलमूत्र, दुर्गन्ध भी न्यून होकर पर्यावरण की शुद्धि होती है। रोग कम होते हैं। दुर्गन्ध कम रहने से वायु व वृष्टि-जल की शुद्धि बनी रहती है।

आज हम दूध की कमी को अन्न से पूर्ण करना चाहते हैं। मांस को अन्न का विकल्प मान बैठे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि मांस खाने वाला व्यक्ति अन्न भी अधिक खाता है। अधिक अन्न से रोग बढ़ते है। मांस खाने वाले लोग पशुओं को समाप्त कर देंगे तो दूध तो समाप्त होगा ही, मनुष्य की प्रकृति मांसाहारी होकर मनुष्य का मांस खाने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। इस सबका उपाय गो-संवर्धन है। जब तक मनुष्यों के पास अधिक गायें नहीं होगी, तब तक समस्या का हल नहीं होगा। पशु-पक्षी अधिक हों, इसलिये परमेश्वर ने जंगल अधिक बनाये हैं। ईश्वर की सृष्टि में मनुष्यों से अधिक पशु-पक्षी आदि अधिक रहने से ही मनुष्यों का कल्याण समभव है। इनके लिये भोजन की व्यवस्था परमेश्वर ने प्राकृतिक रूप से की है। घास, वृक्ष, फल-फूल, पशु-पक्षियों के लिये बनाये हैं। सारी वनस्पतियाँ स्वयं उत्पन्न होती हैं। परमेश्वर ने पशु-पक्षियों की मात्रा मनुष्य के भोजन से अधिक बनाई है। पशु-पक्षियों को भोजन के लिये खेत नहीं जोतना-बोना पड़ता, इसलिये प्रकृति में इनका अधिक होना मनुष्य के हित में है। परमेश्वर के नियम के विपरीत चलकर हम कभी सुखी नहीं रह सकते। अतः वेद ने कहा है-

यजमानस्य पशून् पाहि।।

– धर्मवीर