Category Archives: Dr. Dharmveer Paropkarini Sabha Ajmer

शाश्वत-स्वर

शाश्वत-स्वर

– धर्मवीर

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम।।

– यजु-5-36

बड़ा सुपरिचित मन्त्र है। मन्त्र कुछ इस प्रकार का है कि जहाँ पर सारे प्रयत्नों की समाप्ति दृष्टि-गोचर होती है, उपासक अपनी समस्त सामर्थ्य प्रभु को समर्पित कर चुका है, स्वयं को उसकी शरण में डाल चुका है, उसकी इच्छानुसार चलने के लिये अपना मानस बना चुका है। अतः प्रभु से कह रहा है कि अब आप ही ले चलो-मेरे चलने से पहुँचना समभव नहीं है, बिल्कुल नहीं है।

मन्त्र में ईश्वर को अग्नि-रूप में देखा गया है। अग्नि क्रिया का सर्वाधार है, अग्नि के अभाव में क्रिया समभव ही नहीं है, फिर संसार की गति बिना अग्नि के कैसे समभव है, तो वह स्वयं अग्नि है, अग्नि-रूप है, प्रकाश, ज्ञान, क्रिया का भण्डार है।

वह अग्नि ही है, अग्नि उसका ही नाम है। उसको अग्नि के रूप में ही प्रत्यक्ष किया है। भक्त जानता है-इस अग्नि के सिवाय चेतना और क्रिया का अनन्त भण्डार कहीं और नहीं है। संसार का सारा प्रकाश उसी अग्नि से प्रकाशित है। आँख उसी के सामर्थ्य से देख पाती है, सूर्य उसी के प्रकाश से प्रकाशित है, संसार की प्रत्येक वस्तु उसी से गतिमान् है।

अग्नि स्थूल को सूक्ष्म की ओर ले जाता है। सूक्ष्म बना देता है, अदृश्य कर देता है, परन्तु प्रभाव बढ़ जाता है। स्थूल का प्रभाव कम है, परन्तु सूक्ष्म होकर क्षमता बढ़ती है। अग्नि ऊर्ध्वगामी है, कहीं भी-कभी भी उसका स्वरूप दृष्टि में आया, तो वह ऊपर की ओर ही जाने वाला होगा। सूक्ष्म होगा तो ही ऊपर की ओर उठ सकेगा। स्थूल की तो अधोगति अवश्यभावी है, अतः अग्नि सूक्ष्म है, ऊर्ध्वगति वाला है, व्यापक है। अपने साथ-साथ दूसरों को भी विस्तृत करने की, व्यापक करने की क्षमता रखता है-वह ज्ञान का प्रकाश गति का कारण है। समिधा को प्रज्वलित कर अपने साथ प्रकाशित करता है, समिधा के साथ जलता है, उसे जलाता है। प्रकाशित होता है समाप्त हो जाता है, समाप्त कर देता है, परन्तु वास्तव में समाप्त नहीं होता न करता है। वह तो सूक्ष्म-व्यापक होकर अदृश्य होता है, स्थूल दृष्टि से ओझल हो जाता है। भक्त समिधा है, तभी तो परमेश्वर को अग्नि के रूप में देख पाता है। गुरु के  पास शिष्य समित्पाणि होकर जाता है, बिना समिधा बने कुछ नहीं पाया जा सकता है। समिधा बनना स्वयं को जलने के लिये, अग्नि में ढलने के लिये तैयार करना है, उसके लिये अपने को समर्पित कर देना है, कहीं कमी रही तो बात बनेगी नहीं। समिधा गीली रही तो जलेगी नहीं। जल्दी नहीं जलेगी, बहुत धुआँ होगा, प्रकाश नहीं होगा। अतः समिधा की, सूखी हुई समिधा की आवश्यकता है, तभी समिधा बना भक्त परमेश्वर को अग्ने कहता है।

अग्नि को प्रार्थना करता है-सुपथा नय! आश्चर्य है-चलने के लिये पैर दिये हैं, विवेक के लिये, पथ की पहचान के लिये बुद्धि दी है, परन्तु भक्त जानता है कि इन पैरों से वहाँ नहीं पहुँचा जा सकता है, भटका जा सकता है। संसार में भटकता रहता है, भटकता रहेगा, जब तक वह यह नहीं समझ लेगा कि इन पैरों से नहीं चला जा सकता, वहाँ तक नहीं पहुँचा जा सकता। तब उपासक कहता है-हे अग्ने! नय-ले चल, ले जा। आज तक मैं जो भी चला, जो चलने का दमभ किया, वह तो व्यर्थ ही है-न मैं चला, न मैं चल सकता हूँ। आप ही ले चलो, मैं आपकी शरण में हूँ। आप जहाँ ले जायेंगे, वास्तव में वही सुपथ है। जिसे मैं सुपथ समझ रहा था, वह तो पथ ही नहीं है, अन्धकूप है। मैं उसमें चलने के भ्रम में पड़ा रहा- मैं तो अब समझा हूँ कि सुपथ तो तेरे बिना होता ही नहीं, इसलिये अग्ने! मुझे सुपथ पर ले चल।

जब मैं जानता था कि मैं जानता हूँ, तब मेरा अहंकार मुझे कुछ जानने नहीं देता था। मैं जानने के स्थान पर जानने के दमभ में जीता रहा हूँ। जब मैंने तुझे, ज्ञान के सागर को जाना है तो मैंने जाना है कि मैं कुछ भी नहीं जान पाया हूँ, मैं कुछ भी जानने में समर्थ नहीं। मैं एक तुच्छ कण से स्वयं को जानने वाला समझता रहा हु। हे अग्ने! आप ज्ञानमय हो- प्रकाशमय हो, आप ही मुझे ले चलो, अपने मार्ग से ले चलो-मैं आपके बिना नहीं चल पाऊँ गा।

मैंने सोचा था मेरा सामर्थ्य बहुत है, मैं सारे संसार का ऐश्वर्य एकत्रित कर लूँगा, सारा सुख मेरे पास होगा। मैंने जीवन भर प्रयत्न करके बहुत इकट्ठा किया, बड़े-बड़े महल खड़े किये, बहुत सारी भूमि का अधिपति बना और बहुत सपत्ति भी एकत्रित की। सारा संसार मेरी प्रशंसा करता था, परन्तु आज मैं देखता हूँ कि मैंने सारी आयु और सारा सामर्थ्य पत्थरों के ढोने में लगा दिया और एक मजदूर जितना भी नहीं पा सका-जो पत्थर तो ढोता है, परन्तु बदले में कुछ पाकर सन्तुष्ट हो जाता है, परन्तु मैं देखता हूँ जिसको मैं ऐश्वर्य समझता था, वह धन है ही नहीं। जिसको मैं सुख समझता रहा, वह तो दुःख का ही मूल है। भला मैं उससे सुख किस प्रकार प्राप्त कर सकता हूँ? इसलिये मेरा चला पथ सुपथ नहीं था, कभी भी नहीं हो सकता। सुपथ तो वही है जो रयि को, वास्तविक धन को, सत्यसुख को प्राप्त करा सके, वहाँ तक पहुँचा सके। इसलिये आप ही सुख को जानते हो। हे देव! सारे कर्मों को, सारे ज्ञान को आप ही जानते हो, अतः आप ही सुमार्ग पर लेकर चलो, दूसरा कोई ऐसा करने में समर्थ नहीं होगा।

अब तो मेरा यह सामर्थ्य भी  नहीं कि मैं अपनें को पाप से अलग कर सकूँ। मेरे संस्कार इस प्रकार के हो गये हैं कि जन्म-जन्मान्तर की छाया मेरे चित्त पर सञ्चित हैं। मैं बहुत प्रयत्न करता हूँ, परन्तु संस्कार उसी ओर ले जाता है, जहाँ से दूर होना चाहता हूँ। क्योंकि पाप का मार्ग सीधा नहीं होता, वह टेढ़ा-मेढ़ा होता है, उसमें आँख-मिचौनी हैं, हर मोड़ पर आगे कुछ पाने की आशा है, और प्रलोभन बढ़ता ही जाता है। मेरा सारा प्रयत्न पाप से छूटने का धरा का धरा रह जाता है। आश्चर्य होता है कि टेढ़े मार्ग पर चलने का, बुराई करने का सामर्थ्य मुझमें कहाँ से आता है और सुपथ पर, सरल पथ पर चलना आसान होना चाहिए, उधर कदम ही नहीं उठते। क्यों नहीं उठते? यही तो मैं नहीं जान पाया।

ज्ञानी कहते हैं कि धार्मिक वह है जो सरल है। पता नहीं सब धार्मिक क्यों नहीं हो पाते। जो सहज है, सरल है, वह कठिन है। जो टेढ़ा है, कुटिल है, दुर्लभ है, वही सरल प्रतीत होता है। इस संसार की रीत ही कुछ ऐसी है, यहाँ धर्म कठिन लगता है, अधर्म सरल। सत्य अस्वाभाविक लगता है, झूठ सहज। ईमानदारी अनहोनी लगती है, बेईमानी आदत। तभी तो मैं छूट नहीं पाता हूँ। हे अग्ने! मुझे-सरल और सहज होना ही तो नहीं आता। प्रभु, तुम ही मुझे कुटिल मार्ग की कठिनता से हटाकर पुण्य के सहज सरल मार्ग का पथिक बना सकते हो। यही मेरी बारंबार आपसे प्रार्थना है। मैं प्रार्थी होकर, याचक होकर, आपकी शरण में आया हूँ। मैं नमन करता हूँ, बार-बार करता हूँ-मेरा मुझ में अब कुछ भी नहीं बचा। मैं तो जैसा भी हूँ, तेरे आधीन हूँ। यह नम्रता निरभिमानता ही सरलता का आधार है। जब नम्रता आ गयी, फिर कुछ करना शेष नहीं रहा। सारे शास्त्र, सारे उपदेश, सारी साधना यहाँ तक पहुँचने के लिये है। यहाँ से आगे जाने का सामर्थ्य तो किसी में नहीं-वह तो सब ईश्वर की इच्छा से ही संभव है।

जब एक बार बरेली में स्वामी दयानन्द के भाषण हो रहे थे तो प्रतिदिन ईश्वर के अस्तित्व पर नवयुवक मुन्शीराम तर्क करते थे। अन्तिम दिन युवक मुन्शीराम ने कहा मुझे तर्क से तो आपने निरुत्तर कर दिया, परन्तु विश्वास नहीं हुआ। तब महाराज ने उत्तर दिया-नवयुवक! यह तो ईश्वर की इच्छा से होगा। जब प्रभु चाहेंगे, तब तुमहारी आत्मा में प्रकाश होगा।

बस यही सूत्र है जो विश्वास का आधार है-

भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।

ऋषि दयानन्द की दृष्टि में मुक्ति

ऋषि दयानन्द की दृष्टि में मुक्ति

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-समपादक

मुक्ति एक सापेक्ष शबद है। मुक्ति, जिसका अर्थ है-छूटना। छूटना बन्धन के बिना समभव नहीं। जो बन्धन में है, वही छूटना चाहता है, छूटता है। बन्धन और मुक्ति दोनों शबद अनुभव से समबन्ध रखते हैं। इसलिए मुक्ति की चर्चा चेतन से ही समबद्ध हो सकती है, अचेतन से नहीं। संसार में दुःख और बन्धन अनुभव करने वाले को जीव कहते हैं। दुःख का अनुभव जीवात्मा शरीर से ही कर सकता है। शरीर का प्रारमभ जन्म से होता है, इसलिए शास्त्र में जन्म को ही दुःख का कारण माना गया है-

दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः।।    – सांखय

शरीर का जन्म न होना अर्थात् आत्मा का बन्धन से मुक्त होना।

शरीर के बिना आनन्द का अनुभव कैसे हो सकता है? इस विषय में ऋषि दयानन्द शास्त्र के विचार से सहमत हैं कि जीवात्मा अपने स्वाभाविक गुण और सामर्थ्य से मुक्ति के आनन्द का उपभोग करता है।

‘‘शृण्वन् श्रोत्रम्…….।       -छा. 8/12/4-5

मुक्ति में जीव के साथ अन्तःकरण, आनन्द, प्राण, इन्द्रियों का शुद्ध भाव बना रहता है।’’ -सत्यार्थप्रकाश नवम समुल्लास

ऋषि दयानन्द सूक्ष्म-शरीर के दो भेद स्वीकार करते हैं। एक सूक्ष्म-शरीर भौतिक है, जिससे जीव संसार के अन्दर जन्म-जन्मान्तर की यात्रा करता है। दूसरा सूक्ष्म-शरीर अभौतिक है, जो मुक्ति में आनन्द का अनुभव कराता है-

‘‘दूसरा- पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच सूक्ष्मभूत और मन तथा बुद्धि, इन सतरह तत्त्वों का समुदाय सूक्ष्म-शरीर कहाता है। यह सूक्ष्म शरीर जन्म-मरणादि में भी जीव के साथ रहता है। इसके दो भेद हैं- एक भौतिक अर्थात् जो सूक्ष्म-भूतों के अंश से बना है। दूसरा स्वाभाविक, जो जीव के स्वाभाविक गुण रूप हैं। यह दूसरा अभौतिक शरीर मुक्ति में भी रहता है। इसी से जीव मुक्ति में सुख को भोगता है।’’ – सत्यार्थप्रकाश नवम समुल्लास

एक तीसरी समस्या है- मुक्ति से लौटना। सामान्य जो लोग जीव को परमेश्वर का अंश मानते हैं, वे जीव का मुक्ति में परमेश्वर में ही लय हो जाना स्वीकार करते हैं। जो लोग जीव को परमेश्वर से भिन्न स्वीकार करते हैं, वे भी जीव का मुक्ति से लौटना स्वीकार नहीं करते। ‘‘मुक्ति में ईश्वर के साथ- सालोक्य- ईश्वर के लोक में निवास, सानुज्य- छोटे भाई के सदृश ईश्वर के साथ रहना, सारूप्य- जैसे उपासनीय देव की आकृति है, वैसा बन जाना, सामीप्य- सेवक के समान ईश्वर के समीप रहना, सायुज्य- ईश्वर के साथ संयुक्त हो जाना- ये चार प्रकार की मुक्ति मानते हैं।’’

ऋषि दयानन्द कहते हैं कि ये मुक्ति तो कीट-पतंग, गधे-घोड़े आदि सबको प्राप्त है-

‘‘ये जितने लोक हैं, वे सब ईश्वर के हैं, इन्हीं में सब जीव रहते हैं, इसलिए सालोक्य मुक्ति अनायास प्राप्त है। सामीप्यईश्वर सर्वत्र व्याप्त होने से सब उसके समीप है, इसलिए सामीप्य मुक्ति स्वतः सिद्ध है। जीव ईश्वर से सब प्रकार छोटा और चेतन होने से स्वतः बन्धुवत् है। इससे सानुज्य मुक्ति भी बिना प्रयत्न के सिद्ध है और सब जीव सर्वव्यापक परमात्मा में व्याप्य होने से संयुक्त हैं। इससे सायुज्य मुक्ति भी स्वतः सिद्ध है और जो अन्य साधारण नास्तिक लोग करने से तत्त्वों में तत्व मिलकर मुक्ति मानते हैं, वह तो कुत्ते, गधे आदि को भी प्राप्त है।’’

– सत्यार्थप्रकाश 290

‘‘बन्ध– सनिमित्तक अर्थात्- अविद्यादि निमित्त से है। जो-जो पापकर्म ईश्वरभिन्नोपासना, अज्ञानादि, ये सब दुःख फल करने वाले हैं। इसीलिए यह बन्ध है कि जिसकी इच्छा नहीं और भोगना पड़ता है।

मुक्ति अर्थात् सब दुःखों से छूटकर बन्धरहित सर्वव्यापक ईश्वर और उसकी सृष्टि में स्वेच्छा से विचरना, नियत समय पर्यन्त मुक्ति के आनन्द को भोग के पुनः संसार में आना।’’

– स्वमन्तव्या.

‘‘मुक्ति- अर्थात् जिससे सब बुरे कामों और जन्ममरणादि दुःखसागर से छूटकर सुखस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होके सुख ही में रहना मुक्ति कहाती है।’’

– आर्य्योद्देश्यरत्नमाला

जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं, उन्हें मुक्ति को भी स्वीकार करना पड़ता है। ईश्वर और मुक्ति का समबन्ध कैसा है, इसी में सिद्धान्त का भेद हो जाता है।

प्रथम, जो जीवात्मा को ईश्वर का अंश मानते हैं, उनकी दृष्टि में ईश्वर में जीव का लय हो जाना मुक्ति है। इस मत में ईश्वर से जीवात्मा का होना और जीवात्मा का ईश्वर में लय हो जाना, इसकी तार्किकता शास्त्रों में बहुत है, परन्तु उसकी स्वीकार्यता कठिन है। ब्रह्म में माया, अविद्या या अज्ञान की उपस्थिति जीवात्मा के बनने का कारण है, किन्तु कितने ब्रह्म का भाग जीवात्मा बन जाता है, जीवात्मा अपने अन्दर व्याप्त माया का अनुभव करके उससे मुक्त होकर पुनः ब्रह्मरूप हो जाता है, यह मुक्ति है, परन्तु यह मुक्ति कितने समय के लिये है, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि माया का पुनः ब्रह्म से मेल कब और कहाँ होगा, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।

जो लोग ब्रह्म से भिन्न जीवात्मा की सत्ता स्वीकार करते हैं, उनमें भी दो सिद्धान्त प्रचलित हैं। प्रथम वे लोग जो मुक्ति के बाद जीव का भी ब्रह्म में ही लय स्वीकार करते हैं। ऋषि दयानन्द उनमें से हैं, जो जीवात्मा की मुक्ति तो मानते हैं, परन्तु उसमें लय न मानकर ब्रह्म के साथ-साथ पृथक् सत्ता के साथ विचरना स्वीकार करते हैं। इस परिस्थिति में दो समस्याएँ, विचारक के सममुख आती हैं- एक जीवात्मा मुक्त दशा में शरीर के बिना रहता हुआ मुक्ति या ब्रह्मानन्द के सुख का अनुभव कैसे करता है? तथा दूसरी समस्या है- यदि जीवात्मा पृथक् सत्ता है तो उसकी मुक्ति की दशा कब तक रहती है एवं उसका आधार क्या है?

ऋषि दयानन्द मुक्ति से लौटने के जो तार्किक आधार देते हैं, वे निन हैं-

  1. यदि मुक्ति में गये जीव लौटकर न आयें तो संसार का उच्छेद हो जाये, क्योंकि कभी न कभी तो संसार के जीव समाप्त हो जायेंगे। कितना भी बड़ा कोष क्यों न हो, जिसमें आगम न हो और निर्गम सतत् बना रहे तो वह कोष अवश्य समाप्त हो जायेगा।
  2. मुक्ति के सुख का महत्त्व तभी है, जब संसार के दुःख का अनुभव हो। दुःख के बिना मुक्ति के सुख का कोई मूल्य नहीं। धर्म-अधर्म, हानि-लाभ, निन्दा-स्तुति, सत्य-असत्य में एक के बिना दूसरे का कोई अर्थ नहीं होता, वैसे ही दुःख के बिना सुख का कोई महत्त्व नहीं होता। इस प्रकार दुःख-सुख के बारी-बारी से अनुभव में ही सुख का उत्कर्ष और मुक्ति का महत्त्व है।
  3. सान्त कर्मों का फल अनन्त नहीं हो सकता। मनुष्य कितने भी कर्म करे, सभी की सीमा है। ऐसे सीमित कर्मों का फल अधिक तो हो सकता है, परन्तु असीम या अनन्त नहीं हो सकता।
  4. केवल मुक्ति में पहुँचकर न लौट पाना, यह भी एक प्रकार का बन्ध ही है। जहाँ एकरसता या एक ही प्रकार का जीवन है, वहाँ नीरसता का अनुभव होगा। इस प्रकार मुक्ति का प्रयोजन ही समाप्त हो जाता है।

मुक्ति से लौटने में वेद का प्रमाण-

कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।

को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च।।

अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।

स नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मातरं च।।

-ऋ. 1/24/1-2

प्रश्न हम लोग किसका पवित्र नाम जानें? कौन नाश रहित पदार्थों के मध्य में वर्तमान देव सदा प्रकाशस्वरूप है, हमको मुक्ति का सुख भुगाकर पुनः इस संसार में जन्म देता और माता तथा पिता का दर्शन कराता है।।1।।

उत्तर हम इस प्रकाशस्वरूप, अनादि, सदा मुक्त परमात्मा का नाम पवित्र जानें, जो हमको मुक्ति में आनन्द भुगाकर पृथिवी में पुनः माता-पिता के समबन्ध में जन्म देकर माता-पिता का दर्शन कराता है। वही परमात्मा इस प्रकार मुक्ति की व्यवस्था करता और सबका स्वामी है।

इस लौटने की अवधि क्या होगी? इस समस्या का समाधान ऋषि दयानन्द उपनिषद् के एक वाक्य ‘परान्त काल’ से करते हैं-

प्रश्न जो मुक्ति से भी जीव फिर आता है तो वह कितने समय तक मुक्ति में रहता है?

उत्तर – ते ब्रह्मलोके ह परान्तकाले, परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे। – मुण्डक 3/2/6

वे मुक्त जीव मुक्ति में प्राप्त होके ब्रह्म में आनन्द को तब तक भोग के पुनः महाकल्प के पश्चात् मुक्ति-सुख को छोड़ के संसार में आते हैं। इसकी संखया यह है कि- तेंतालीस लाख, बीस सहस्र वर्षों की एक ‘चतुर्युगी’, दो सहस्र चतुर्युगियों का एक ‘अहोरात्र’, ऐसे तीस अहोरात्रों का एक ‘महीना’, ऐसे बारह महीनों का ‘एक वर्ष’, ऐसे शत वर्षों का ‘परान्त काल’ होता है। इसको गणित की रीति से यथावत् समझ लीजिये। इतना समय मुक्ति में सुख भोगने का है। -सत्यार्थ प्रकाश, नवम समु.

ऋषि दयानन्द जीव के मुक्ति में रहने के वेद से प्रमाण देते हुए लिखते हैं-

ये यज्ञेन दक्षिणया समक्ता इन्द्रस्य सयममृतत्वमानश।

तेयो भद्रमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृणीत मानवं सुमेधसः।।                   -ऋ. 8/2/1/1

(ये यज्ञेन) अर्थात् पूर्वोक्त ज्ञान, रूप, यज्ञ और आत्मादि द्रव्यों की परमेश्वर को दक्षिणा देने से वे मुक्त लोग मोक्ष सुख में प्रसन्न रहते हैं। (इन्द्रस्य) जो परमेश्वर के सखय अर्थात् मित्रता से मोक्ष भाव को प्राप्त हो गये हैं, उन्हीं के लिये भद्र नाम सब सुख नियत किये गये हैं (अङ्गिरसः) अर्थात् उनके जो प्राण हैं वे (सुमेधसः) उनकी बुद्धि को अत्यन्त बढ़ाने वाले होते हैं और उस मोक्ष प्राप्त मनुष्य को पूर्व मुक्त लोग अपने समीप आनन्द में रख लेते हैं और फिर वे परस्पर अपने ज्ञान से एक दूसरे को प्रीतिपूर्वक देखते और मिलते हैं।

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।

यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।।

– यजु. 32/10

(स नो बन्धुः) सब मनुष्यों को यह जानना चाहिए कि वही परमेश्वर हमारा बन्धु अर्थात् दुःख का नाश करने वाला, (जनिता) सब सुखों को उत्पन्न और पालन करने वाला है तथा वही सब कामों को पूर्ण करता और सब लोकों को जानने वाला है कि देव अर्थात् विद्वान् लोग मोक्ष को प्राप्त होके सदा आनन्द में रहते हैं और वे तीसरे धाम अर्थात् शुद्ध सत्व से सहित हो के सर्वोत्तम सुख में सदा स्वच्छन्दता से रमण करते हैं।

– धर्मवीर

 

आचार्य धर्मवीर कृतज्ञता-समेलन

आचार्य धर्मवीर कृतज्ञता-समेलन

-प्रभाकर

ऋषि मेलाआर्यों का महाकुमभ, विद्वानों का समेलन, ऊर्जा का भण्डार, सैद्धान्तिक चर्चा का मंच- और भी अनेक नामों से आर्यजनों के हृदय में जो आशा का केन्द्र बना हुआ है, इस ऋषि मेले को इन उपाधियों से विभूषित कराने वाले महामनीषी को इसी मंच से एक दिन श्रद्धाञ्जलि देनी होगी, ये कल्पना से परे था।

ये इतिहास का नियम है या शायद समाज की सहज प्रवृत्ति कि अमूल्य वस्तु अप्राप्त होने पर ही बहुमूल्य बनती है। व्यक्ति की महानता, उसकी उपयोगिता उसके न होने पर ही अनुभव में आती है। एक ऐसे ही महामानव, संन्यासी, दार्शनिक, ऋषितुल्य व्यक्तित्व के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये आयोजित कृतज्ञता सममेलन का चित्रण ही इस लेख का विषय है।

आचार्य धर्मवीर जी को मैं केवल एक विद्वान् कहूं तो ये ना मुझे स्वीकार्य है और ना ही पाठकों को। वे शास्त्रों के जादूगर थे। वेद की ऋचाओं का व्याखयान करते समय वेद-मन्त्रों के राजमार्ग पर चलते-चलते शास्त्र, उपनिषद्, व्याकरण, निरुक्त, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आयुर्वेद, कालिदास, पंचतन्त्र, गीता, मनुस्मृति और हास्य-व्यंग्य के गलियारों से होते हुये कब पुनः उसी राजमार्ग पर ले आते-पता ही नहीं चलता। उठने से लेकर सोने तक, हँसने से लेकर रोने तक उनकी पूरी दिनचर्या ही वेद-शास्त्रों से ओत-प्र्रोत थी। वेद की ऋचायें और दर्शन-व्याकरण के सूत्र ही उनके खिलौने थे। उन्हीं से खेलना, उन्हीं से मनोरंजन करना उनका स्वभाव था।

सिद्धान्त उनके मस्तिष्क में कितने स्पष्ट थे, इसके लिये एक ताजा संस्मरण उपयोगी होगा। इसी वर्ष के ऋषि मेले का आमन्त्रण देने के लिये मैं भी आचार्य जी के साथ था। एक घर पर गये तो गृहस्वामी ने मीमांसा दर्शन की शंका उपस्थित कर दी। शंका ये थी कि ‘‘मीमांसा दर्शन में पशुबलि की चर्चा है, तो क्या हमारे शास्त्र बलि प्रथा का विधान करते हैं?’’ आचार्य धर्मवीर जी ने सहजता से कहा कि ‘‘मैंने दर्शनों को गुरमुख से नहीं पढ़ा और ना ही मैं कोई बड़ा विद्वान् हूँ।’’ बार-बार पूछने पर बड़ी सहज भाषा में सटीक उत्तर देते हुए बोले कि ‘‘मीमांसा दर्शन कर्म-काण्ड का नहीं, बल्कि वाक्य-शास्त्र है और व्याक्यार्थों को समझने के लिये जो कार्य कर्मकाण्ड में प्रचलित थे, वे उदाहरण के रूप में दिये गये। इसलिये मीमांसा में बलिप्रथा का विधान नहीं है।’’ ये घटना उनकी विद्वत्ता और सरलता दोनों का उदाहरण है।

ऐसे अतुलनीय शास्त्रवारिधि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने देश के कोने-कोने से विद्वान् व आर्यजन एकत्रित हुये। इस सममेलन का आयोजन ऋषि मेले के दूसरे दिन अर्थात् 5 नवमबर की शाम को रखा गया। मंच और पंडाल दोनों ही भरे हुये थे। सत्र का संयोजन डॉ. राजेन्द्र विद्यालंकार जी कर रहे थे। वक्ता हो या श्रोता सब के हृदय वेदना से भरे हुए थे। जो मञ्च कभी आचार्य धर्मवीर जी से सुशोभित होता था, जिस मञ्च की समपन्नता ही आचार्य प्रवर पर निर्भर थी, आज ये मञ्च उस आचार्य को श्रद्धाञ्जलि देने के लिये मजबूर था। ईश्वर की व्यवस्था और प्रकृति के नियम के सामने मनुष्य का सामर्थ्य कितना छोटा है-ये आज सभी अनुभव कर रहे थे।

सममेलन के प्रारमभ में कुछ पुरस्कार व समान विद्वानों और कार्यकर्त्ताओं को दिये गये। उसके बाद परोपकारिणी सभा के संरक्षक व आचार्य धर्मवीर जी के पितातुल्य श्री गजानन्द आर्य जी की लिखित संवेदना उनके पुत्र श्री महेन्द्र आर्य जी ने पढ़कर सुनाई। अस्वस्थता के कारण वे स्वयं तो उपस्थित नहीं हो पाये, किन्तु उनके हृदय का कष्ट उनके पत्र से झलक रहा था। इसके बाद सभा के समाननीय कोषाध्यक्ष श्री सुभाष नवाल जी ने अपने हृदय के भाव प्रकट किये। श्री सुभाष नवाल जी की पीड़ा को समझने के लिये आचार्य धर्मवीर जी के लिये किया गया उनका समबोधन ही पर्याप्त होगा-

‘‘आचार्य धर्मवीर जी! परोपकारिणी सभा के प्राण! मेरे मानस पिता! मेरे दयानन्द! किन शबदों में उनका उल्लेख करुँ, कुछ समझ नहीं आता।’’ ये मात्र शबद नहीं हैं किसी असहनीय आघात के पश्चात् अनायास ही निकली एक चीख है, जो सहज ही धर्मवीर जी की दिव्यता को प्रकट करती है। और ये वेदना हर उस कार्यकर्त्ता के मन में है, जिसने उस आचार्य के पितृतुल्य निर्देशन में पुत्र की भांति कार्य किया है।

‘उनका जाना अपूरणीय क्षति है’- यह वाक्य किन्हीं स्थानों पर भावुकतापूर्ण या औपचारिक हो सकता है, पर आचार्य धर्मवीर जी के लिये शत-प्रतिशत सत्य है। विद्वान् की पूर्ति विद्वान से, वक्ता की वक्ता से, लेखक की लेखक से, और प्रचारक की पूर्ति प्रचारक से हो सकती है, अधिकारी का स्थान भी अधिकारी से भरा जा सकता है, पर एक पिता का स्थान………? परोपकारिणी सभा और ऋषि उद्यान आज जिन ऊँचाइयों पर है, उसके पीछे विद्वान् के साथ-साथ धर्मवीर जी की पिता के रूप में बहुत बड़ी भूमिका है। इसके लिये सुभाष जी द्वारा कही गई एक और पंक्ति मैं यहाँ लिखना चाहूँगा-‘‘उनका असमय चले जाना ऐसा लगता है, जैसे कोई उंगली पकड़कर चलना सिखाये और रास्ते में छोड़कर चला जाये।’’

उसके बाद सभा के संयुक्त मन्त्री व आचार्य जी के साथ परिवार की तरह जुड़े रहे डॉ. दिनेशचन्द्र जी ने अपनी कृतज्ञता व्यक्त की। यूं तो जो भी उनसे मिला, उनके परिवार का हिस्सा बन गया, पर डॉ. दिनेशचन्द्र जी से उनका समबन्ध अतिघनिष्ट था। शास्त्र की भाषा में कहा जाये तो ‘‘वसुधैव कुटुबकम्’’ की सार्थकता आचार्य धर्मवीर जी में स्पष्ट देखने को मिली। श्रीमती ज्योत्स्ना जी से जो भी मिलने आया, उसके मुख से ये भाव स्वतः ही व्यक्त हो जाता था कि आचार्य धर्मवीर जी आपसे अधिक हमारे परिवार के सदस्य थे। जिसने भी उनको निकट से देखा है, वो जानते हैं कि आचार्य जी ने अपने परिवार पर कम और आर्यसमाज व ऋषि के कार्य पर अधिक ध्यान दिया, या यूं कहूँ कि पूरा जीवन ऋषि दयानन्द के लिये ही जिया।

आई.आई.आई.टी. हैदराबाद के प्रोफेसर श्री शत्रुञ्जय रावत जी ने अपना संस्मरण सुनाया। ‘‘जिन दिनों आचार्य जी की आर्थिक स्थिति अत्यन्त कमजोर थी, उन दिनों मेरे पिता जी ने उन्हें संस्कार के बहाने बुलाकर आर्थिक सहायता करनी चाही। संस्कार के बाद पिता जी ने जो दक्षिणा दी, उसका पता मुझे तब चला जब मेरे पास परोपकारी पत्रिका आने लगी। उन्होंने अपनी दक्षिणा से मुझे परोपकारी का आजीवन सदस्य बना दिया। मेरे पिता जी द्वारा दी गई दक्षिणा मुझे आशीर्वाद के रूप में आज तक मिल रही है।’’

परोपकारिणी सभा के इतिहास में ऋषि दयानन्द को पहली बार ऐसा प्रतिनिधि मिला, जिसने दयानन्द के अधिकार को अक्षुण्ण रखा। सभा को अपना घर माना, सभा के कार्य को अपना कार्य मानकर किया, साा पर हुये आक्षेप को अपनी गरिमा का प्रश्न बना लिया। सभा के लाभ में प्रसन्नता, हानि में दुःख, मानो परोपकारिणी सभा और आचार्य धर्मवीर जी एक-दूसरे का पर्यायवाची थे। सभा का नाम सुनते ही आचार्य धर्मवीर जी की छवि मन में सहज ही उभर आती थी।

हैदराबाद से प्रो. बाबुराव हेत्रे जी भी अपने कुछ संस्मरण सुनाने को उद्यत हुये, परन्तु रुंधा हुआ गला और आंखों से अनवरत बहती अश्रुधारा ने ही वो सब कह दिया जो वाणी से कहा जाना असभव था। हेत्रे जी अपनी बात अधूरी ही छोड़कर भीगी आंखों से वापस बैठ गये। उसके पश्चात् परोपकारिणी सभा के मन्त्री श्री ओममुनि जी के सुपुत्र श्री श्रुतिशील जी ने उपस्थित आर्यजनों से ये अपील की कि आचार्य धर्मवीर जी ने जो प्रकल्प प्रारमभ किये, उनके सुचारु संचालन में लगभग 12 लाख रु. का मासिक व्यय होता है, एतदर्थ परोपकारिणी सभा द्वारा बनाई जा रही ‘‘आचार्य धर्मवीर स्थिर निधि’’ में अपना अधिकाधिक योगदान दें।

आचार्या सूर्या देवी चतुर्वेदा, श्री उग्रसेन राठौर, डॉ. रघुवीर जी वेदालंकार, डॉ. रामचन्द्र जी, डॉ. नयन कुमार आर्य आदि ने भी अपने आचार्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। आचार्य सत्यानन्द वेदवागीश जी ने रोषपूर्ण शबदों में कहा कि ‘‘आचार्य धर्मवीर जी जैसा दार्शनिक हमने इतनी आसानी से कैसे खो दिया? हमें अपने विद्वानों की सुरक्षा करनी चाहिये।’’ आचार्य जी के अनन्य सहयोगी एवं इतिहास के मर्मज्ञ प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आचार्य जी के पितृकुल व मातृकुल की राष्ट्रबलिदानी परपरा पर प्रकाश डाला। स्वामी सपूर्णानन्द जी की पीड़ा थी कि एक-एक करके हमारे बीच से आर्य विद्वान् जा रहे हैं, पर हम इसे गभीरता से नहीं समझ पा रहे। आने वाले समय में हम डॉ. धर्मवीर जी से अधिक ना सही पर उनके बराबर विद्वत्ता वाला कोई व्यक्तित्व पैदा कर सकें तो ये हमारी सच्ची श्रद्धाञ्जलि होगी। परोपकारिणी सभा के कार्यकारी प्रधान और गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने आचार्य जी से अपने विद्यालयीय मैत्री समबन्धों की चर्चा करते हुये उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला।

सममेलन के अन्त में आचार्य धर्मवीर जी के जीवन पर एक छोटा-सा वृत्तचित्र (डॉक्यूमेन्ट्री) दिखाया गया। उसमें आचार्य जी द्वारा परोपकारिणी सभा के लिये किये गये कार्यों को क्रमवार तरीके से प्रस्तुत किया गया। जिस समय आचार्य जी परोपकारिणी सभा के समपर्क में आये, तब सभा की स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। कार्यालय के औपचारिक कार्यों का वहन भी जैसे-तैसे होता था। फिर आचार्य जी ऋषि उद्यान में आने लगे। ऋषि उद्यान में उस समय भवन के नाम पर सरस्वती भवन और कुछ कोठरियाँ थीं। ऋषि मेले का आयोजन केवल एक औपचारिक कार्य था। पर आज इस आयोजन में तीन हजार के लगभग पंजीकरण होते हैं। आचार्य जी आकर आश्रम की झाड़ियाँ साफ करते। आश्रम में साधुओं के रहने की व्यवस्था की। आर्यसमाज के प्रचारकों और विद्वानों के रहने व खाने-पीने की व्यवस्था भी की। धीरे-धीरे ऋषि उद्यान का परिचय बढ़ने लगा।

प्रातःकाल नित्य उपनिषद् के प्रवचन व यज्ञ का प्रारभ किया। पौरोहित्य व प्रचार आदि के लिये जहाँ भी जाते, वहाँ सभा की ही बात करते। परोपकारी पत्रिका के सदस्य उन दिनों उंगलियों पर गिने जा सकते थे। फिर आचार्य जी के सपादकत्व में परोपकारी ने जिन ऊँचाइयों को छुआ, वह सर्वविदित है। आश्रम का वर्तमान स्वरूप उस आचार्य के अथक परिश्रम का प्रत्यक्ष प्रमाण है। ऋषि उद्यान का एक-एक पौधा उस माली ने अपने पसीने से सींचा है। परोपकारिणी सभा द्वारा संचालित गुरुकुल की स्थापना उसी कर्मयोगी के बृहत् चिन्तन का ही परिणाम है।

उस महान् दूरदर्शी, महान् मानवशिल्पी ने केवल पांच-सात लोगों से शिविरों का आरा किया। प्रशिक्षक का कार्यभार वे अकेले ही समभालते थे। आज वही शिविर वर्ष में दो बार आयोजित होता है, और प्रतिभागियों की संया लगभग 250 होती है। ये समृद्धि, ये भव्यता, ये विशालता यूँ ही नहीं आई। इस निर्माण के लिये आर्यसमाज को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है, एक पूरा जीवन इस महायज्ञ में आहूत हुआ है।

लिखने को तो इतना लिखा जा सकता है कि लिखते-लिखते स्याही और कागज दोनों ही कम पड़ जायें, पर इस विशाल व्यक्तित्व के पीछे भी एक नींव छिपी है। इस नींव को भुलाकर ये विवरण अधूरा ही रहेगा।

उस नींव का नाम है- श्रीमती ज्योत्स्ना। सपादक शिरोमणि श्री भारतेन्द्रनाथ जी की ज्येष्ठ पुत्री। बचपन से ही जो वैदिक साहित्य की पुस्तकों में पली-बढ़ी हों। ‘‘वेद मन्दिर’’ ही जिनका घर था। वेद की पुस्तकें ही उनके लिये खिलौने थीं और उन्हें बंडल बनाकर डाकघर तक पहुँचाना ही उनका खेल। छोटी-सी आयु में ही उन्होंने पुस्तकों का संशोधन करना प्रारमभ कर दिया। समपादन की कला उन्हें विरासत में मिली, विद्वानों की संगति और उच्च बौद्धिक सामर्थ्य उनके लिये सहज प्राप्य था। वह स्वाभाविक विदुषी आचार्य धर्मवीर जी की जीवन संगिनी के रूप में जीवन भर उनकी सारथीवत् रहीं। घर की आन्तरिक व्यवस्था से लेकर बेटियों की उच्च शिक्षा-व्यवस्था तक, और यहाँ तक कि आर्थिक तंगी के दिनों में अपनी शैक्षणिक योग्यता का परिचय देते हुये घर को आर्थिक दृष्टि से भी सभाला। आचार्य जी इतना बृहत् कार्य कर पाये, उसका सबसे बड़ा कारण था- श्रीमती ज्योत्स्ना जी का हर दृष्टि से सक्षम होना। आज भी आचार्य जी के प्रचार कार्यक्रमों की व्यवस्था व उनके रेल आरक्षण जैसे कार्य भी श्रीमती ज्योत्स्ना जी ही करती थीं।  उनकी योग्यता को देखते हुए उन्हें परोपकारिणी सभा का सदस्य चुना गया।

सभा की प्रथम महिला सदस्यपरोपकारिणी सभा के इतिहास में पहली बार किसी महिला को सदस्य के रूप में चुना गया। इसका कारण उनका धर्मवीर जी की धर्मपत्नी होना नहीं है, अपितु उनकी बौद्धिक, सैद्धान्तिक व प्राशासनिक योग्यता है। ऋषि दयानन्द ने बौद्धिक दृष्टि से स्त्री व पुरुष को समान ही माना है। बराबर अधिकार दिलाने की वकालत भी प्रथमतः ऋषि दयानन्द ने ही की। श्रीमती ज्योत्स्ना जी ने अपनी योग्यता के बल पर ऋषि के कार्य में अपना योगदान दिया है। सभा और उसके कार्यों व उद्देश्यों से ज्योत्स्ना जी का आत्मिक जुड़ाव लबे समय से रहा है। आचार्य धर्मवीर जी के बाद सभा एक पिता की जो कमी अनुभव कर ही थी, वो कमी बहुत कुछ अंशों में श्रीमती ज्योत्स्ना जी ने एक माता के रूप में पूरी की है।

ये छिपी हुई नींव आचार्य श्री का सबसे बड़ा बल था। इस कृतज्ञता सममेलन के विवरण का समापन करते हुए ये अनुभव कर रहा हूँ कि हम सब आर्य-जन, ये आर्य समाज, ये राष्ट्र आचार्य प्रवर का कृतज्ञ तो है ही, साथ ही इस व्यक्तित्व को निखारने में श्रीमती ज्योत्स्ना जी का भी कृतज्ञ है, ऋणी है।

धर्म और दर्शन के क्षेत्र में ऋषि दयानन्द की देन

धर्म और दर्शन के क्षेत्र में ऋषि दयानन्द की देन

प्रस्तुत सपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-समपादक

हर आर्यसमाजी को एक चिन्ता सताती है कि आर्यसमाज का प्रचार-प्रसार कैसे हो। अलग-अलग लोग अपनी-अपनी सममति देते हैं। सबसे पहले वे लोग हैं जो लोगों को आकर्षित करने के लिये लोकरञ्जक उपायों को अपनाने का सुझाव देते हैं। कोई सत्संग में भोजन का सुझाव देता है, तो कोई बच्चों में मिठाई बाँटने की बात करता है। खेल-मेले, आयोजन की बात करता है। स्वामी सत्यप्रकाश जी कहा करते थे कि आज आर्यसमाज का सारा कार्यक्रम तीन बातों तक सिमट गया है- जलसा, जूलूस और लंगर। भीड़ जुटाने के लिये हमारे पास विद्यालय के छात्रों के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। बच्चों और विद्यालय के अध्यापकों की संखया जोड़कर आर्यसमाज के कार्यक्रम सफल किये जाते हैं।

नगर के स्तर पर यदि दो-चार समाजें हैं तो उत्सव के समय आर्यसमाजों के लोग मिलकर एक-दूसरे के कार्यक्रम में समिलित हो जाते हैं, तो संखया सौ-पचास हो जाती है और हम उत्सव सफल मान लेते हैं, प्रान्तीय स्तर हो या राष्ट्रीय स्तर, सभी स्थानों पर वही मूर्तियाँ आपको दिखाई देती हैं। यदि इस संखया को बढ़ाना हो तो हम अपने कार्यक्रम में किसी राजनेता को बुला लेते हैं।

ऐसे व्यक्ति के आने से उनके साथ आने वालों की संखया से समारोह की भीड़ बढ़ जाती है। समाज का भी कोई कार्य हो जाता है तथा राजनेताओं को जन-समपर्क करने का अवसर मिल जाता है। हमारी इच्छा रहती है कि हम कोई ऐसा कार्य करें, जिससे हमारे कार्यक्रमों में लोगों की भागीदारी बढ़े। हम अपने कार्यक्रमों की तुलना समाज के पन्थों, महन्तों के कथा आयोजनों से करते हैं। आजकल ये कथाएँ भागवत, सत्यनारायण, सुन्दरकाण्ड, और भी बहुत सी पौराणिक कथायें चलती हैं, इनसे लोगों का मनोरञ्जन हो जाता है, कथावाचक को अच्छी दक्षिणा की प्राप्ति हो जाती है और आयोजक भी  सोचता है कि वह पुण्य का भागी है। आर्यसमाज के पास ऐसी लोक लुभावन कथा तो है नहीं। आर्यसमाज वेद-कथा करता है, इस कथा को करने वाले ही नहीं मिलते तो सुनने वाले कहाँ से मिलेंगे।

हमें समझना चाहिए कि हमारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं, जिससे भीड़ को आकर्षित किया जा सके। भीड़ आकर्षित करने का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकार है- चमत्कार दिखाकर जनसामान्य को मूर्ख बनाना। साईं बाबा, सत्य सांई, आसाराम, निर्मल दरबार, सच्चा सौदा व सैंकड़ों मत-मतान्तर हैं, जो चमत्कारों से जनता पर कृपा की वर्षा करते हैं, ऋषि दयानन्द ने किसी को कोई चमत्कार नहीं दिखाया।

न कोई झूंठा आश्वासन दिया। आज व्यक्ति ही नहीं बल्कि मत-समप्रदाय भी लोगों को चमत्कारों से ही मूर्ख बनाते हैं। ईसाई लोग चंगाई का पाखण्ड करते हैं, दूसरों के पाप ईसा के लिये दण्ड का कारण बताते हैं। ईसा पर विश्वास लाने पर सारे पाप क्षमा होने की बात करते हैं। मुसलमान खुदा और पैगमबर पर ईमान लाने की बात करते हैं। खुदा पर ईमान लाने मात्र से ईमान लाने वाले को जन्नत मिल जाती है। जिहाद करने, काफ़िर को मारने से और कुछ भी बिना किये खुदा जन्नत बखश देता है। पौराणिक गंगा-स्नान कराके ही मुक्त कर देता है। व्रत-उपवास, कथाओं से ही दुःख ढ़ल जाते हैं, स्वर्ग मिल जाता है। मन्दिर में देव-दर्शन से पाप कट जाते हैं। सारे ही लोग जनता को मूर्ख बनाते हैं और भीड़ चमत्कारों के वशीभूत होकर ऐसे गुरु, महन्त, मठ, मन्दिरों पर धन की वर्षा करती है। क्या ऋषि दयानन्द ने कोई चमत्कार किया अथवा क्या आर्यसमाज के पास कोई चमत्कार है, जिसके भरोसे भीड़ को अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है?

इसके अतिरिक्त लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का उपाय है-प्रलोभन। कोई व्यक्ति किसी के पास किसी के लाभ विचार से जाता है। कुछ लोग भोजन, वस्त्र, धन का प्रलोभन देते हैं। ईसाई लोग गरीबों में भोजन, वस्त्र बाँटकर लोगों को अपने पीछे जोड़ते हैं। कुछ लोग प्रतिष्ठा के लिये किसी गुरु, महन्त के चेले बन जाते हैं। किसी मठ-मन्दिर में नौकरी, समपत्ति का लोभ मनुष्य  को उनके साथ जोड़ता है। मुसलमान और ईसाई लोगों को नौकरी और विवाह का प्रलोभन देते हैं। आर्यसमाज में प्रलोभन के अवसर बहुत थोड़े हैं, परन्तु उनका उपयोग नये लोगों को अपने साथ जोड़ने या पुराने लोगों से काम लेने के लिये नहीं किया जाता, आर्यसमाज की समपत्ति या उसकी संस्थाओं का उपयोग अधिकारी प्रबन्धक लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिये करते हैं। इसी कारण इन संस्थाओं में कार्य करने वाला व्यक्ति आर्य-सिद्धान्तों से जुड़ना तो दूर जानने की इच्छा भी नहीं करता।

आर्यसमाज में आने का एक लोभ रहता है- सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करना। समाज की प्रजातान्त्रिक चुनाव-पद्धति के कारण किसी का भी इस संस्था में प्रवेश सरल है, दूसरे लोग संस्थाओं में घुसकर सपत्ति व पदों पर अधिकार कर लेते हैं, इनका विचार या सिद्धान्त से विशेष समबन्ध नहीं होता। संगठन के पास ऐसे अवसर इतने अधिक भी नहीं हैं कि इनसे अन्य मत-मतान्तर के लोगों में इसके प्रति कोई आकर्षण उत्पन्न हो सके। ऋषि दयानन्द के पीछे आने वाले लोगों में पहले भी कोई प्रलोभन नहीं था। आज तो संस्था के पास समपत्ति, भूमि, भवन, विद्यालय, दुकानें आदि बहुत कुछ हैं, परन्तु आर्यसमाज के प्रारमभिक दिनों में आर्यसमाज में आने वालों ने अपना समय, धन, प्रतिष्ठा, प्राण सभी कुछ समाज और ऋषि की भावना के लिये अर्पित किया। फिर कौन सा कारण है, जिससे हमें लगता है कि लोग ऋषि के पीछे आते थे और आज हमारे पीछे क्यों नहीं आते?

लोग चमत्कारों के पीछे जाते हैं। हमारे पास चमत्कार नहीं है, ऋषि के पास भी नहीं थे। हमारे पास भी किसी को लाभ पहुँचाने के लिये कोई साधन नहीं है। फिर कौन सी बात है, जिसके कारण लोग ऋषि के अनुयायी बने, उनके पीछे चले और फिर आज हमारे में कौन सी कमी आ गई है, जिसके कारण लोग हमारी ओर आकर्षित नहीं हो रहे हैं? वह इन सब बातों का एक उत्तर है- ऋषि दयानन्द ने जो कुछ कहा था, वह बुद्धि को स्वीकार करने योग्य और तर्क-संगत था। जो कहा, यथार्थ था, सत्य था, तर्क और प्रमाण से युक्त था। लोगों को स्वीकार करने में संकोच नहीं होता था। जो भी उनकी बात सुनता था, उसकी समझ में आ जाती थी और वह उनका अनुयायी हो जाता था।

ऋषि दयानन्द ने दुकानदारी का सबसे बड़ा आधार कि भगवान् पाप क्षमा करता है, इसे ही समाप्त कर दिया। ईश्वर ने संसार बनाया और जीवों के उपकार के लिये बनाया। प्रत्येक प्राणी के जीवन के लिये जो जितना आवश्यक है, उसे देता है, परन्तु जिसका जितना व जैसा कर्म है, उसको उतना और वैसा ही फल देता है। वह अपनी इच्छा से कम या अधिक नहीं कर सकता। इसका कारण बताया कि वह न्यायकारी है। यदि किसी को कुछ भी दे सकता तो सबको सब कुछ बिना किये ही दे देता। सबको सब कुछ बिना किये ही मिलता तो किसी को कुछ भी करने की आवश्यकता ही नहीं थी। कर्म करने की आवश्यकता नहीं रही, तो संसार के बनाने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी।

ऋषि कहते हैं- ईश्वर से जीव भिन्न है, न वह उससे बना है और न कभी उसका उसमें लय होता है। न जीव कभी ईश्वर बनता है और न ईश्वर कभी जीव बनता है। अवतारवाद पाखण्ड है। गंगा आदि में स्नान करने से मुक्ति मानना पाखण्ड है। देवता जड़ भी होते हैं, चेतन भी। परमेश्वर निराकार चेतन देवता है, शरीरधारी साकार चेतन तथा शेष जड़ देवता हैं। मूर्ति न परमेश्वर है, न मूर्ति-पूजा परमेश्वर की रजा है, यह तो व्यापार है, ठगी है। तीर्थ यात्रा से भ्रमण होता है, कोई पुण्य या स्वर्ग नहीं मिलता। जन्म से ऊँच-नीच, जाति-व्यवस्था मानना मनुष्य समाज का दोष है, इससे दुर्बलों को उनके अधिकार से वञ्चित किया जाता। विद्या-ज्ञान का अधिकार सब मनुष्यों को समान रूप से प्राप्त है। इस प्रकार सैकड़ों पाखण्ड इस समाज में व्याप्त थे, उन सबका ऋषि दयानन्द ने प्रबल खण्डन किया। यह अनुचित है तो फिर ईसाई हो या मुसलमान, जैन हो या बौद्ध, हिन्दू हो या पारसी, आस्तिक हो या नास्तिक, कुरान में हो या पुराण में, देशी हो या विदेशी, जहाँ पर जो भी गलत लगा, ऋषि ने उसका खण्डन किया। इस प्रकार उनके भाषण, उनकी पुस्तकें, जिसके पास भी पहुँची, उसे बुद्धिगय होने से स्वीकार्य लगीं। यही ऋषि दयानन्द के विचारों का तीव्रता से फैलने का कारण था।

आज हमारी समस्या यह है कि हम दूसरे के पाखण्ड का खण्डन करने में असमर्थ हैं और स्वयं पाखण्ड से दूसरों को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं। इस कारण इस कार्य में सफलता कैसे मिल सकती है। सफलता के लिये बुद्धिमान लोगों तक ऋषि के विचारों का पहुँचना आवश्यक है, जिसमें हम असफल रहे हैं। आज समाज में युवा-वर्ग अपनी भाषा से दूर हो गया है, उस तक उसकी भाषा में पहुँचना आवश्यक है। इसके लिये सभी भाषाओं में साहित्य और प्रचारक दोनों ही सुलभ नहीं हैं, परिणामस्वरूप नई पीढ़ी से हमारा समपर्क समाप्त प्राय है। समाज को यदि बढ़ना है तो बुद्धिजीवी व्यक्ति तक वैदिक विचारों को पहुँचाने की आवश्यकता है, इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।

नान्यः पन्था विद्यतेऽभनाय।

– धर्मवीर

 

टी.वी. चैनलों की मनमानी राष्ट्र के लिये घातक

टी.वी. चैनलों की मनमानी राष्ट्र के लिये घातक

प्रस्तुत सम्पादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-सम्पादक

सामान्य रूप से कोई किसी के देश में घुस नहीं सकता। सीमा पर सेना की कड़ी सुरक्षा रहती है। यात्रियों को आने-जाने के लिये अनुमति लेनी पड़ती है। वायुयान, जलयान भी एक-दूसरे की अनुमति के बिना किसी दूसरे की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकते, परन्तु इस विज्ञान के युग में आकाश से होने वाले आक्रमण को हम नहीं रोक पा रहे हैं।

दूरदर्शन विज्ञान का वरदान है, समस्त ज्ञान-विज्ञान मनुष्य के लिये है, परन्तु उसका सदुपयोग या दुरुपयोग मनुष्य की इच्छानुसार होता है। अतः समाचार की यह नवीन विधा भी प्रयोगकर्त्ता की इच्छा पर निर्भर करती है।

आज भारत में एक हजार के लगभग टी.वी. चैनल हैं, इनका वर्गीकरण किया जाय तो मुख्य रूप से समाचार प्रसारित करने वालों की संख्या अधिक है। इसके अतिरिक्त सिनेमा, खेल, मनोरञ्जन, धार्मिक, वैज्ञानिक, मार्केटिंग, इन सभी चैनलों में विज्ञापन की भरमार रहती है। इनके द्वारा भारी आय, इनके संचालकों को होती है। संचालक अधिक से अधिक विज्ञापन प्रसारित करने का प्रयास करते हैं। जो कार्यक्रम जितने लोकप्रिय होते हैं, उनको उतने ही अधिक विज्ञापन मिलते हैं। फिर अधिक से अधिक लोग किस समय, कौन-सा कार्यक्रम देखते हैं, उस समय अधिक विज्ञापन प्रसारित होते हैं। इस प्रकार कभी कोई व्यक्ति कोई विशेष कार्यक्रम या समाचार देखना चाहे तो उसे पहले अधिक से अधिक विज्ञापन देखने होंगे। जैसे समाचार दर्शक को प्रभावित करते हैं, उसी प्रकार विज्ञापन भी देखने वाले को प्रभावित करते हैं। जैसे व्यापार के विस्तार के लिये विज्ञापन सशक्त माध्यम है, वैसे ही विचारों के प्रचार-प्रसार के लिये भी टी.वी. चैनल सशक्त माध्यम हैं। इनके प्रभावकारी होने का कारण ये है कि अन्य सब माध्यम केवल पढ़ने या सुनने तक ही सीमित थे, परन्तु इसमें पढ़ना, सुनना, देखना, इन सबके साथ सक्रिय भागीदारी भी दिखाई देती है, जिससे दर्शक तत्काल प्रभावित होता है।

दृश्य मनुष्य के मन को सीधे प्रभावित करते हैं। घटना का प्रत्यक्ष घटित होना दीखता है। अतः उसे व्यक्ति सहज स्वीकार कर लेता है। इस कारण जो बात चैनल पर दिखाई जा रही है या बोली जा रही है, मनुष्य उससे प्रभावित होकर अपना विचार उसके अनुकूल बना लेता है। यह टी.वी. का तात्कालिक लाभ है। इस पर कही गई बात यदि गलत और तथ्यहीन है तो उसके चैनल पर आने तक पहली घटना का प्रभाव परिणाम में बदल चुका होता है।

इसके उदाहरण के रूप में उन छोटी-छोटी घटनाओं को ले सकते है, जिनका स्थानीय प्रभाव तो बहुत थोड़ा या छोटा सा है, परन्तु टी.वी. चैनलों के समाचार के रूप में उसका प्रभाव अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाता है। बंगाल के किसी निजी विद्यालय में व्यक्तिगत राग-द्वेष के कारण किसी ईसाई साध्वी से दुर्व्यवहार होता है, परन्तु टी.वी. पर देश देखता है कि भारत में ईसाई समुदाय प्रताड़ना और आतंक का शिकार हो गया है। किसी पागल ने चर्च की खिड़की पर पत्थर मारकर काँच तोड़ दिया और संवाददाता ने इसे समाचार बना दिया। जैसे ही ये घटना नमक-मिर्च लगाकर टी.वी. पर प्रसारित होती है तभी अमेरिकन चर्च से घोषणा होती है- ‘भारत में चर्च पर आक्रमण हो रहे हैं।’ इस प्रकार के उदाहरण हम प्रतिदिन देख सकते हैं।

रोहित वेमुला की घटना- उसकी आत्महत्या उसकी व्यक्तिगत निराशा का परिणाम था, परन्तु टी.वी. के समाचारों ने उसे साम्प्रदायिक रूप देकर देश तथा समाज में भय और आतंक का वातावरण बनाने का प्रयास किया।

इसी प्रकार मुरादाबाद में एक मुस्लिम को मारने की घटना। देश में प्रतिदिन के घटनाक्रम में ऐसी अनेक घटनाएँ घटित होती हैं। किसी की हानि, हत्या अनुचित है, परन्तु एक हत्या को साम्प्रदायिक बताकर दूसरे पर मौन रहना कहाँ का न्याय है? हमारे विचारों की बेईमानी की इसमें बड़ी भूमिका रहती है।  गोधरा काण्ड के बाद मुसलमानों की हत्या को तो बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है, परन्तु रेल के डिब्बे को जलाकर जिनको मारा गया, उनकी चर्चा पर इन समाचार दिखाने वालों की जीभ हिलती भी नहीं थी।

हिन्दू एकत्र होकर उत्सव करते हैं, तो अल्पसंख्यकों पर आतंक स्थापित करना माना जाता है और अल्पसंख्यकों द्वारा नारा लगाने और शस्त्र दिखाने में सहनशीलता की बात की जाती है। एक अल्पसंख्यक बीमारी या नशे में मर जाय तो सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों की उपेक्षा माना जाता है, परन्तु केदारनाथ जैसी दुर्घटना में पन्द्रह हजार लोग मारे गये, तब किसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था ने सहायता पहुँचाने का विचार नहीं किया। हिन्दू यदि कहता है कि देश के प्रति अल्पसंख्यकों को निष्ठावान होना चाहिए, तो इसे हिन्दुओं के कड़वे बोल कहा जाता है और मुसलमान, ईसाई देश-विरोधी बात करता है तो उसे अपनी परम्परा का पालन करना बताया जाता है।

इस प्रकार के अनर्गल मिथ्या विचारों के द्वारा दृश्य-तन्त्र जन मानस को प्रभावित करते हैं। इन समाचार संस्थाओं द्वारा राजनैतिक पार्टी, किसी विचारधारा या किसी व्यक्ति विशेष को इस तरह प्रचारित किया जाता है कि उसकी वास्तविकता का दर्शक को पता ही नहीं चल पाता।

दृश्य समाचारों पर जो समाचार दिखाये जाते हैं, उनका चयन उनकी इच्छा से होता है। जो समाचार इनकी रीति-नीति के अनुकूल नहीं होते, वे कितने भी महत्त्वपूर्ण हों, उनको चैनल पर नहीं दिखाया जाता। इसको बहुत बार फेसबुक, व्हाट्सैप, ट्विटर आदि के माध्यम से जाना जा सकता है। इसके साथ इन चैनलों पर होने वाले साक्षात्कार और संवाद भी प्रायोजित ही होते हैं तथा अपने विचारों को प्रस्तुत करने वाले और उन विचारों का समर्थन करने वाले लोगों को ही इसमें भाग लेने के लिये बुलाया जाता है। इन समाचार चैनलों का अधिकांश नियन्त्रण विदेशी व्यक्ति या विदेशी संस्थाओं के हाथ में है। वे जैसा चाहते हैं, वैसी बातों को प्रसारित करते हैं। जिन्हें अपना विरोधी समझते हैं, उनकी बातों को दबा देते हैं या दूसरा रंग देकर प्रस्तुत करते हैं। दृश्य समाचारों ने छपे समाचार पत्रों को पीछे छोड़ दिया है। या तो उन तक समाचार समय पर पहुँचते नहीं हैं और यदि पहुँचते हैं तो देर से पहुँचते हैं। टी.वी. पर समाचार घटते हुए दीखते हैं या घटने के तुरन्त बाद दीख जाते हैं, पर समाचार पत्र में तो अगले दिन आयेंगे। इस कारण दृश्य समाचारों का प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है।

दृश्य समाचार-तन्त्र की बढ़ती व्यापकता को देखते हुए इनकी प्रामाणिकता बनाये रखने और इनके दुरुपयोग को रोकने के लिये नियम बनाने और नियन्त्रण रखने की आवश्यकता है, जिससे उस माध्यम से देश की सुरक्षा पर किसी प्रकार का संकट न हो तथा देश की सामाजिक एकता का ताना-बाना छिन्न-भिन्न न हो।

इस सन्दर्भ में हमें ध्यान रखना चाहिये कि जब इन्हीं चैनलों ने समाचार दिखाने के नाम पर भारतीय सेना की कार्यवाही को प्रसारित किया, जिससे देश की सेना को कार्यवाही करने में अधिक कठिनाई आई और हमारे लोगों को अधिक संख्या में प्राण भी गंवाने पड़े, क्योंकि हमारी सैन्य योजना का शत्रु को समाचार के माध्यम से तत्काल पता चल जाता था और शत्रु अपने बचाव और लड़ने वालों पर आक्रमण करने में प्रभावी रहता था। समाचार के नाम पर ऐसी मूर्खता करने की अनुमति कोई सरकार और देश नहीं दे सकता, परन्तु हमारे यहाँ इसको रोकने का प्रयास नहीं होने से देश और समाज की बहुत हानि हो रही है। अतः जैसे दैनिक, साप्ताहिक, मासिक पत्रों के लिये नियम और नीति बनी हुई है, वैसा ही प्रभावी नियम दृश्य संस्थानों के लिये बनाने की आवश्यकता है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर इनकी स्वेच्छाचारिता को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

संचार माध्यमों से निम्नलिखित कार्य होते हैं-

प्रथम समाचार हमारी जानकारी बढ़ाते हैं। इस जानकारी से मनुष्य अपने को अद्यतन करता है। घटना की जानकारी प्रत्येक मनुष्य को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करती है। वर्तमान घटनाक्रम आगे बनने वाले इतिहास का वर्तमान होता है। जैसे सत्य इतिहास उज्ज्वल भविष्य का आधार होता है, उसी प्रकार वर्तमान सत्य समाचार, सत्य इतिहास का आधार होता है। समाचारों की अप्रामाणिकता जहाँ इतिहास को भ्रष्ट करती है, वहाँ वर्तमान को भी दिग्भ्रमित करती है।

आजकल समाचार जानने के साधन जिस तीव्रता से क्रियाशील हैं, उनका प्रभाव भी उतना ही गहरा पड़ रहा है। इस महत्त्व को समझकर प्रत्येक समर्थ, राजनीतिक व्यक्ति, व्यवसायी और विचारों से समाज को प्रभावित करने वाले वर्ग समाचार साधनों का भरपूर उपयोग करते हैं। समाचार पत्र से आगे आज दूरदर्शन के माध्यम आ गये हैं। इनको लगाने चलाने में समाचार पत्रों से भी अधिक व्यय आता है, इनसे उत्पन्न प्रभाव को पाने के लिये धन व्यय करना पड़ता है, इस कारण यह एक बड़ा और प्रभावशाली व्यवसाय बन गया है। बड़े-बड़े व्यवसायी घराने राजनैतिक दल और नेताओं ने अपने-अपने टी.वी. संचार प्रभाग बनाये हुए हैं।

२०१३ के अध्ययन के अनुसार हमारे देश में प्रसारित होने वाली टी.वी. चैनल संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण सात टी.वी.  चैनल संस्थान राजनेताओं के अधिकार में हैं। पहले समाचार पत्रों के विषय में ही समझा जाता था कि कौनसा समाचार-पत्र किस राजनीतिक दल का पक्ष लेता है। अब समाचार चैनलों का हाल उससे बहुत आगे है। पहले राजनीतिक दल अपने समाचार प्रकाशित करने के लिये टी.वी. संस्थाओं को विज्ञापन के रूप में बहुत धन देते थे, इन विज्ञापन देने वालों को लगा कि विज्ञापन में धन व्यय करने से अधिक लाभदायक है- स्वयं टी.वी. चैनल चलाना, इसका प्रमाण है कि आज अधिकांश राजनैतिक दल और राजनेताओं के स्वयं के दूरदर्शन संस्थान हैं।

– ‘न्यूज लाइव रेग’ संस्था की अध्यक्ष हैं रिणिकी भूपान, जो उस समय कांग्रेस के स्वास्थ्य मन्त्री की पत्नी है।

– कर्नाटक का जनश्री समाचार-पत्र तथा अन्य समाचार-पत्र तत्कालीन पर्यटन मन्त्री जनार्दन रेड्डी तथा स्वास्थ्य मन्त्री श्रीरामुलु रेड्डी के स्वामित्व में है।

कस्तूरी न्यूज-२४ के स्वामी हैं पूर्व मुख्यमन्त्री एच.डी. कुमार स्वामी।

– सुवर्ण चैनल के स्वामी संस्था प्रधान हैं, राज्य सभा सदस्य- राजीव चन्द्रशेखर।

– साक्षी चैनल, एन. टी.वी., टी.वी ५- इनके स्वामी हैं आन्ध्र प्रदेश के जगनमोहन रेड्डी।

– एन. स्टूडियो के स्वामी नारंने श्रीनिवास राव हैं- जो चन्द्रबाबू नायडू के सम्बन्धी हैं।

– ओडिशा टी.वी. के स्वामी वैजयन्त पण्डा ‘बीजू जनता दल’ के हैं। ओडिशा के अन्य चैनल भी राजनेताओं के हैं।

– इण्डिया विजन टी. वी. के स्वामी मुस्लिम लीग के सचिव एम.के. मुनीर हैं।

– टी.वी.-२४ घण्टे साम्यवादी मार्क्सवादियों के नियन्त्रण में है।

– कोलकाता टी.वी. तृणमूल कांग्रेस के अधीन है।

– पीटीसी, पीटीसी न्यूज, पीटीसी पंजाबी, पीटीसी चकदे का स्वामित्व सुखबीर सिंह बादल के पास है।

बड़े टी.वी. चैनल संस्थानों में –

. जया टीवी, जया मैक्स, जया प्लस, जे मूवी- ये सब जयललिता की कम्पनी मैविस सतकॉम लिमिटेड के स्वामित्व में हैं। तमिलनाडू में ही कांग्रेस के दो अन्य चैनल- मैगा टी.वी. और वसन्त टी.वी. भी हैं, जबकि ए.डी.एम.के. पार्टी के विजयकान्त ‘कैप्टन टी.वी.’ के मालिक हैं।

. सन टी.वी. तमिलनाडु के डी.एम.के. पार्टी के चीफ करुणानिधि के भतीजे कलानिधि मारन का है।

इसके अतिरिक्त सन न्यूज, सन म्युजिक, के. टी.वी., छुट्टी टीवी, सुमंगली केबल, आदित्य टीवी, चिन्टू टीवी, किरन टीवी, खुशी टीवी, उदय कॉमेडी, उदय म्युजिक, जैमिनी टीवी, जैमिनी कॉमेडी, जैमिनी मूवी, करुणानिधि के स्वामित्व में कालाईगनर टी.वी. उनके निकट व्यक्ति एम. राजेन्द्रन् के स्वामित्व में राज टी.वी. और राज डिजिटल प्लस हैं।

. आई.बी.एन. लोकमत- का स्वामित्व कांग्रेस सरकार में स्कूली शिक्षा के मन्त्री राजेन्द्र दर्डा और उनके भाई राज्यसभा के सदस्य विजय दर्डा के पास है। महाराष्ट्र में सर्वाधिक प्रसार वाला मराठी समाचार ‘लोकमत’ तथा ‘टीवी १८’ ग्रुप भी इन्हीं का है।

. इण्डिया न्यूज- इसके स्वामी विनोद शर्मा के पुत्र कार्तिकेय शर्मा हैं, जिनके भाई मनु शर्मा को जेसिका लाल की हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। इसके अतिरिक्त आई. टी.वी. मिडिया ग्रुप के अनेक प्रसारण जिनमें न्यूज एक्स भी सम्मिलित है, इनका स्वामित्व भी कार्तिकेय शर्मा के पास है।

. न्यूज २४- इसका स्वामित्व कांग्रेस सरकार में केन्द्रीय मन्त्री रहे राजीव की पत्नी अनुराधा प्रसाद शुक्ला के पास है। इसके अतिरिक्त आपनो-२४ तथा ई-२४ का स्वामित्व भी इन्हीं के पास है, इसमें रोचक तथ्य यह है कि अनुराधा प्रसाद भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद की बहन हैं।

. एन.डी. टीवी- का स्वामित्व पत्रकार प्रणव राय के पास है। इसी के साथ एन.डी. टीवी ग्रुप के पास एन.डी. टी.वी. इण्डिया, एन.डी. टी.वी. गुड टाइम्स, एन. डी. टी.वी. २४×७, एन.डी. टी.वी. प्रॉफिट व और भी अनेक संस्थान इससे जुड़े हैं। एन.डी. टी.वी. साम्यवादी विचारधारा से जुड़ा संस्थान है। प्रणव राय की पत्नी राधिका राय है। राधिका राय पूर्व राज्यसभा सदस्य वृन्दा कारत की बहन हैं, जो साम्यवादी मार्क्सवादी दल के महासचिव प्रकाश करात की पत्नी हैं।

.  टाइम्स नाओ- बहुत बड़े संचार संस्थान टाइम्स ऑफ इण्डिया का है। इसमें- मिड डे, नवभारत टाइम्स, स्टार डस्ट, फेमिना, विजय टाइम्स, विजय कर्नाटक और टाइम्स नाओ, ये सब समाचार-पत्र इसी संस्थान के हैं। इस संस्था का स्वामित्व बैनेट एण्ड कोलमैन कम्पनी के पास है। इसकी भागीदारी सोनिया गांधी के नजदीकी सम्बन्धी इटली के रॉबर्ट मिन्डो के पास है।

एक अध्ययन के अनुसार राजनेताओं ने संचार-तन्त्र में अपनी पूंजी लगाकर इन पर पकड़ बनाई हुई है। वहाँ व्यवसायी लोगों ने अपने माल के प्रचार और बिक्री के लिये इन माध्यमों पर अधिकार किया हुआ है।

इस सारे तन्त्र का दुःखद और चिन्तनीय पक्ष यह है कि इन पर तथ्यहीन, निराधार, मिथ्या समाचार, सूचनाएँ, परामर्श दिये जाते हैं, जिससे पाठक भ्रमित होता है और उसकी हानि होती है। इसका उदाहरण- सभी टी.वी. चैनल  स्टॉक बाजार के लिये अपने-अपने परामर्श देते हैं, वे इतने असत्य होते हैं कि सरकार को इनके लिए चेतावनी देनी पड़ी कि ग्राहक इनकी सूचनाओं पर विश्वास न करें, इनमें धोखा हो सकता है। इन टी.वी. चैनल संस्थाओं की असत्यता के समाचार आज सामाजिक संचार के साधनों- ब्लॉग, ट्विटर, आदि से सीधे और वास्तविक रूप में पाठक को मिलते हैं। अतः दृश्य संचार माध्यमों की विश्वसनीयता कम हुई है।

सामान्य जन इन्ळीं संचार माध्यमों के आधार पर निर्णय लेते हैं, अतः इनको विश्वसनीय बनाना आवश्यक है। सामाज के प्रतिनिधि तत्व ठीक हों, अतः योगेश्वर कृष्ण गीता में कहते हैं-

यदिह्यहं न वर्तेयं जातुः कर्मण्यतन्द्रितः।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।

– धर्मवीर

 

यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पाँव

यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पाँव

– धर्मवीर

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी ने आकस्मिक निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-सपादकगत दिनों एक संस्था की यज्ञशाला देखने का अवसर मिला। यज्ञशाला भव्य और सुन्दर बनी हुई देखकर अच्छा लगा। प्रतिदिन यज्ञ होता है, यह जानकर प्रसन्नता होनी स्वाभाविक है।

यज्ञशाला देखने पर दो बातों की यज्ञ से संगति बैठती नहीं दिखी। संस्था प्रमुख उस समय संस्था में थे नहीं, अतः मन में उठे प्रश्न अनुत्तरित ही रहे। पहली बात यज्ञशाला के बाहर और सब बातों के साथ-साथ एक सूचना पर भी दृष्टि गई, उसमें लिखा था- ‘आप यज्ञ नहीं कर सकते, न करें, आप यज्ञ के निमित्त राशि उक्त संस्था को भेज दें। आपको यज्ञ का फल मिल जायेगा।’

दूसरी बात ने और अधिक चौंकाने का काम किया, वह बात थी कि वहाँ जो रिकॉर्ड बज रहा था, उस पर वेद मन्त्रों की ध्वनि आ रही थी, प्रत्येक मन्त्र के अन्त में स्वाहा बोला जा रहा था। एक व्यक्ति यज्ञ-कुण्ड के पास आसन पर बैठकर घृत की आहुतियाँ दे रहा था। इस क्रम को देखकर विचार आया कि मन्त्र-पाठ का विकल्प तो मिल गया, मन्त्रों को रिकॉर्ड करके बजा लिया पर अभी आहुति डालने वाले का विकल्प काम में नहीं लिया। यदि वह भी ले लिया जाय तो यज्ञ का लाभ भी मिल जायेगा और उस कार्य में लगने वाले समय को अन्यत्र इच्छित कार्य में लगाने का अवसर भी मिल जायेगा। मेरे साथ संयोग से सार्वदेशिक सभा के मन्त्री  प्रकाश आर्य भी थे। मैंने उनसे इस विषय पर प्रश्न किया और उनकी समति जाननी चाही, तो वे केवल मुस्कुरा दिये और कहने लगे- मैं क्या बताऊँ।

इसके बाद इस बात की चर्चा तो बहुत हुई, परन्तु अधिकारी व संस्था-प्रमुख व्यक्ति से संवाद नहीं हो सका। संयोग से कुछ दिन पहले उस संस्था के प्रमुख से साक्षात्कार हुआ, सार्वजनिक मञ्च से मुझे उनसे अपनी शंकाओं का समाधान करने का अवसर मिल गया। जब मैंने दोनों बातें उनके सामने रखकर इसका अभिप्राय जानना चाहा तो उन्होंने अपने चालीस मिनट में इसका उत्तर इस प्रकार दिया। उन्होंने कहा- हमने कभी यह नहीं कहा और न ही कभी हमारा मन्तव्य ऐसा रहा कि हमारा यज्ञ किसी के व्यक्तिगत यज्ञ का विकल्प है। हमारे यज्ञ में सहयोग करने वाले व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से यज्ञ करने का लाभ तो नहीं मिलेगा। परन्तु उसके धन की सहायता से जिस घृत और सामग्री से हमारे यहाँ यज्ञ किया जा रहा है, उस सद्कर्म के पुण्य का लाभ उस व्यक्ति को भी मिलेगा। इसमें आपत्तिजनक कोई भी बात नहीं।

पहली बात व्यक्तिगत रूप से घर पर किया गया यज्ञ करने वाले के घर की परिस्थिति और वातावरण की शुद्धि का कारण होता है, वह दूर देश में जाकर करने पर घर की पवित्रता का कारण नहीं बन सकता। दूसरी बात यज्ञ केवल पर्यावरण शुद्धि का स्थूल कार्य मात्र नहीं है, यह मनुष्य के लिये उपासना का भी आधार है। इससे वेद-मन्त्रों के पाठ, विद्वानों के सत्संग और यज्ञ में किये जाने वाले स्वाध्याय से परमात्मा की उपासना भी होती है। यज्ञ का यह लाभ दूसरे के द्वारा तथा दूर देश में किये जाने पर केवल धन देने वाले यज्ञकर्त्ता या यजमान को प्राप्त नहीं हो सकता। किसी भी शुभ कार्य के लिये किसी के द्वारा दिये सहयोग, दान का पुण्य दाता को अवश्य प्राप्त होगा, क्योंकि वह उस दान का वह कर्त्ता है।

जहाँ तक दूसरे प्रश्न की बात है कि मन्त्र को रिकॉर्ड पर बजाकर आहुति देने से यज्ञ समपन्न होता है। उनका यह कहना ठीक है कि इतने विद्वान् या वेदपाठी कहाँ से लायें, जो पूरे दिन मन्त्र-पाठ कर सकें? रिकॉर्ड पर मन्त्र चलाकर अपने को तो समझा सकते हैं, परन्तु यह अध्यापक या विद्वान् का विकल्प नहीं हो सकता। संसार की सारी वस्तुयें साधन बन सकती हैं, परन्तु कर्त्ता का मूल कार्य तो मनुष्य को ही करना पड़ता है। समभवतः आचार्य के उत्तर से सन्तुष्ट हुआ जा सकता था, परन्तु संस्था की ओर से जो लिखित स्पष्टीकरण प्राप्त हुआ, वह मौलिक स्पष्टीकरण से नितान्त विपरीत है।

स्पष्टीकरण में शास्त्रों की  पंक्तियाँ उद्धृत करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि यज्ञ के लिये दान देने वाले को यज्ञ का फल मिलता है, प्रमाण के रूप में मनुस्मृति के ‘‘अनुमन्ता…….’’, योग-दर्शन के ‘‘वितर्का हिंसादय……’’आदि कई प्रमाण दिये गये हैं। वे शायद ये भूल जाते हैं कि संसार की किन्हीं भी दो अलग-अलग क्रियाओं का फल एक जैसा नहीं हो सकता। दान करने वाले व्यक्ति को दान का फल मिलेगा,ये भी हो सकता है कि अन्य कार्यों के लिये दान करने की अपेक्षा यज्ञ हेतु दान करने का फल अधिक अच्छा हो पर फल तो दान का ही होगा। दरअसल जब हम यज्ञ का फल केवल वातावरण की शुद्धि-मात्र ही समझ लेते हैं, तब इस तरह के तर्क मन में उभरने लगते हैं, और जब कहीं के भी वातावरण की शुद्धि को यज्ञ का फल मान बैठें तो तर्क और अधिक प्रबल दिखाई देने लगते हैं।

ऋषि दयानन्द ने जिस दृष्टि से यज्ञ का विधान किया है, वह अन्यों से भिन्न है। उन्होंने यज्ञ का विधान भौतिक शुद्धि के साथ-साथ अध्यात्म और वेद-मन्त्रों की रक्षा के  लिये भी किया है, साथ ही केवल एक ही जगह और कुछ एक व्यक्तियों के द्वारा ही यज्ञ किये जाने से यज्ञ का भौतिक फल एक ही स्थान पर होगा। यदि इन्हीं सब सीमित परिणामों को यज्ञ का फल मान रहे हैं तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।

एक और तर्क ये दिया गया है कि संस्कार विधि में ऋषि दयानन्द ने पति-पत्नी के एक साथ उपस्थित न होने पर किसी एक के द्वारा ही दोनों की ओर से आहुति देने का विधान किया है, इससे सिद्ध होता है कि एक दूसरे के लिये यज्ञ किया जा सकता है। ऋषि दयानन्द ने ये विधान केवल इसलिये किया है, जिससे कि यज्ञ की परमपरा बनी रहे, न कि कर्मफल की व्यवस्था को परिवर्तित करने के लिये। एक और तर्क ये कि यदि कोई व्यक्ति भण्डारा, ऋषि लंगर आदि की व्यवस्था करता है, तो उसका फल दानी व्यक्ति को ही मिलना है, पकाने या परोसने वाले को नहीं। यहां पर ये महानुभव अपने ही तर्क ‘‘अनुमन्ता विशसिता………’’का खण्डन कर गये, जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंसा का अपराध माँस बेचने, खरीदने, सलाह देने वाले आदि सभी व्यक्ति द्वारा होता है। एक और तर्क सुनिये- राजा समयाभाव के कारण अपने माता-पिता की सेवा भृत्यों से कराता है। ऋषि दयानन्द व मनु के अनुसार राजा स्वयं राजकार्य में रहकर अग्निहोत्र व पक्षेष्टि आदि के लिये पुरोहित व ऋत्विज् को नियुक्त करे।

ऐसे कई उदाहरण दिये गये हैं, और अन्य भी दिये जा सकते हैं, पर इन सभी उदाहरणों में एक सामान्य सी बात ये है कि सभी जगह अति-आपात् की स्थिति या अन्य बड़ा दायित्व होने की स्थिति में अन्यों से यज्ञादि कराने का विकल्प है, वह भी तब, जबकि व्यक्ति मन में ईश्वर के प्रति आस्था, अध्यात्म, वेद की रक्षा के प्रति पूर्ण निष्ठा रखता हो और किसी अति-अनिवार्यता के कारण से यज्ञादि कार्य में असमर्थ हो। इस परिस्थिति में जिनको नियुक्त किया जाता है वे वेतन, पारिश्रमिक आदि लेकर कार्य करते हैं। यदि दान लेकर दाता के नाम से यज्ञ कराने वाले भी यज्ञ करने का पारिश्रमिक लेते हैं, और दानदाता वास्तव में यज्ञ, वेद, ईश्वर, अध्यात्म के प्रति पूर्ण निष्ठावान् रहते हुये भी यज्ञ करने में पूर्ण अक्षम है तो शायद बात कुछ मानी जा सके, लेकिन उतने पर भी वायु तो वहाँ की ही शुद्ध होगी, जहाँ यज्ञ हो रहा है, वेद-मन्त्र तो उसे ही स्मरण होंगे जो कि मन्त्र बोल रहा है। ईश्वर व अध्यात्म में अधिक गति तो उसकी होगी जो आहुति दे रहा है।

इतने पर भी आप यदि अपनी बात को सैद्धान्तिक और सत्य मानना चाहें तो मानें, परन्तु यह अवश्य स्मरण रखना होगा कि ऋषि दयानन्द ने जिन अन्धविश्वासों का खण्डन किया था, वह सब मिथ्या और व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा। एक बार सोनीपत आर्यसमाज के उत्सव पर वहाँ के कर्मठ कार्यकर्त्ता सत्यपाल आर्य जी ने अपने जीवन की घटना सुनाई, उन्होंने बताया कि लोकनाथ तर्क-वाचस्पति उन्हीं के गाँव के थे, वे स्वतन्त्रता संग्राम में आन्दोलन करके जेल गये। उस धरपकड़ में उनके गाँव का पौराणिक पण्डित भी धर लिया गया। जेल में तो वह रहा, परन्तु छूटते समय लोकनाथ जी से बोला, इतने दिनों में तुमने कुछ कमाई की या नहीं? लोकनाथ जी बोले- जेल में कैसी कमाई करेंगे? तो पण्डित ने कहा- मैंने तो इन दिनों अपने सेठों के नाम पर इतना जप किया है, जाते ही पैसे ले लूंगा। तब आप क्या करेंगे?

सारे पौराणिक पण्डित यही तो करते हैं। इनको जो लोग दान देंगे, तो क्या पण्डित जी के कार्य का पुण्य फल उन भक्तों को नहीं मिलेगा? फिर ईसाई लोग स्वर्ग की हुण्डी लेते थे, तो क्या बुरा करते थे, दान का पुण्य तो स्वर्ग में मिलेगा ही। फिर श्राद्ध का भोजन, गोदान, वैतरणी पार होना, यज्ञ में पशुबलि आदि सब कुछ उचित हो जायेगा।

धार्मिक कार्य स्वयं करने, दूसरों से कराने और कराने की प्रेरणा देने से निश्चित रूप से पुण्य मिलेगा, परन्तु स्वयं करने का विकल्प-करने की प्रेरणा देना और दूसरों को सहायता देकर कराना नहीं हो सकता। मेरा भोजन करना आवश्यक है, मुझे दूसरों को भी भोजन कराना आवश्यक है। मेरे भोजन करने का विकल्प दूसरे को प्रेरणा देना और सहायता देकर कराना नहीं होता। मेरे घर कोई आता है तो उसे भोजन कराना ही है। मेरे घर कोई नहीं आया, तो मेरे संस्कार बने रहें, इसलिये मैं कहीं किसी को भोजन कराने की सहायता देता हूँ, वह स्वयं कराये गये भोजन का विकल्प नहीं है। एक के अभाव में अन्य के भोजन की बात है।

यज्ञ, संस्कार आदि का प्रयोजन ऋषि ने शरीरात्म विशुद्धये कहा है। दूर किये गये यज्ञ से या दूसरे के यज्ञ से मेरे शरीर-आत्मा की शुद्धि नहीं होती। किसी की तो होती है, उससे दूसरे का भला करने का लाभ होगा, पर आत्मलाभ की बात इससे पूर्ण नहीं होती। प्राचीन सन्दर्भ से देखें तो ऋषि का यज्ञ-विधान परपरा से हटकर है। पुराने समय के यज्ञ चाहे राजा के हों या ऋषि के, सभी व्यक्तिगत रूप से किये जाने वाले रूप में मिलते हैं। ऋषि की उहा ने यज्ञ को एक सामूहिक रूप दिया है, जिसमें यजमान के आसन पर बैठा व्यक्ति पूरे समूह का प्रतिनिधि है, यह यज्ञ सामाजिक संगठन का निर्माण करने वाला होता है।

यज्ञ में वेद-मन्त्र पढ़ने का लाभ बताते हुए ऋषि लिखते हैं-

जैसे हाथ से होम करते, आँख से देखते और त्वचा से स्पर्श करते हैं, वैसे ही वाणी से वेद-मन्त्रों को भी पढ़ते हैं, क्योंकि उनके पढ़ने से वेदों की रक्षा, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना होती है तथा होम से जो फल होते हैं, उनका स्मरण भी होता है। वेद मन्त्रों का बार-बार पाठ करने से वे कण्ठस्थ भी रहते हैं और ईश्वर का होना भी विदित होता है कि कोई नास्तिक न हो जाये, क्योंकि ईश्वर की प्रार्थनापूर्वक ही सब कर्मों का आरमभ करना होता है।

वेद-मन्त्रों के उच्चारण से यज्ञ में तो उसकी प्रार्थना सर्वत्र होती है। इसलिये सब उत्तम कर्म वेद-मन्त्रों से ही करना उचित है। – ऋग्वेद भूमिका पृ. 721

यह बात इस कारण लिखनी आवश्यक हुई, जिससे जनसामान्य यथार्थ से परिचित हों। किसी के दान से किसी को क्यों द्वेष हो तथा किसी की प्रसिद्धि से ईर्ष्या का क्या लेना? इस अवसर पर संस्कृत की एक उक्ति सटीक लगती है, इसलिये लेख दिया-

का नो हानिः परकीयां खलुचरति रासभोद्राक्षम्।

तथापि असमञ्जसमिति ज्ञात्वा खिद्यते चेतः।।

– धर्मवीर

– धर्मवीर

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी ने आकस्मिक निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-सपादकगत दिनों एक संस्था की यज्ञशाला देखने का अवसर मिला। यज्ञशाला भव्य और सुन्दर बनी हुई देखकर अच्छा लगा। प्रतिदिन यज्ञ होता है, यह जानकर प्रसन्नता होनी स्वाभाविक है।

यज्ञशाला देखने पर दो बातों की यज्ञ से संगति बैठती नहीं दिखी। संस्था प्रमुख उस समय संस्था में थे नहीं, अतः मन में उठे प्रश्न अनुत्तरित ही रहे। पहली बात यज्ञशाला के बाहर और सब बातों के साथ-साथ एक सूचना पर भी दृष्टि गई, उसमें लिखा था- ‘आप यज्ञ नहीं कर सकते, न करें, आप यज्ञ के निमित्त राशि उक्त संस्था को भेज दें। आपको यज्ञ का फल मिल जायेगा।’

दूसरी बात ने और अधिक चौंकाने का काम किया, वह बात थी कि वहाँ जो रिकॉर्ड बज रहा था, उस पर वेद मन्त्रों की ध्वनि आ रही थी, प्रत्येक मन्त्र के अन्त में स्वाहा बोला जा रहा था। एक व्यक्ति यज्ञ-कुण्ड के पास आसन पर बैठकर घृत की आहुतियाँ दे रहा था। इस क्रम को देखकर विचार आया कि मन्त्र-पाठ का विकल्प तो मिल गया, मन्त्रों को रिकॉर्ड करके बजा लिया पर अभी आहुति डालने वाले का विकल्प काम में नहीं लिया। यदि वह भी ले लिया जाय तो यज्ञ का लाभ भी मिल जायेगा और उस कार्य में लगने वाले समय को अन्यत्र इच्छित कार्य में लगाने का अवसर भी मिल जायेगा। मेरे साथ संयोग से सार्वदेशिक सभा के मन्त्री  प्रकाश आर्य भी थे। मैंने उनसे इस विषय पर प्रश्न किया और उनकी समति जाननी चाही, तो वे केवल मुस्कुरा दिये और कहने लगे- मैं क्या बताऊँ।

इसके बाद इस बात की चर्चा तो बहुत हुई, परन्तु अधिकारी व संस्था-प्रमुख व्यक्ति से संवाद नहीं हो सका। संयोग से कुछ दिन पहले उस संस्था के प्रमुख से साक्षात्कार हुआ, सार्वजनिक मञ्च से मुझे उनसे अपनी शंकाओं का समाधान करने का अवसर मिल गया। जब मैंने दोनों बातें उनके सामने रखकर इसका अभिप्राय जानना चाहा तो उन्होंने अपने चालीस मिनट में इसका उत्तर इस प्रकार दिया। उन्होंने कहा- हमने कभी यह नहीं कहा और न ही कभी हमारा मन्तव्य ऐसा रहा कि हमारा यज्ञ किसी के व्यक्तिगत यज्ञ का विकल्प है। हमारे यज्ञ में सहयोग करने वाले व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से यज्ञ करने का लाभ तो नहीं मिलेगा। परन्तु उसके धन की सहायता से जिस घृत और सामग्री से हमारे यहाँ यज्ञ किया जा रहा है, उस सद्कर्म के पुण्य का लाभ उस व्यक्ति को भी मिलेगा। इसमें आपत्तिजनक कोई भी बात नहीं।

पहली बात व्यक्तिगत रूप से घर पर किया गया यज्ञ करने वाले के घर की परिस्थिति और वातावरण की शुद्धि का कारण होता है, वह दूर देश में जाकर करने पर घर की पवित्रता का कारण नहीं बन सकता। दूसरी बात यज्ञ केवल पर्यावरण शुद्धि का स्थूल कार्य मात्र नहीं है, यह मनुष्य के लिये उपासना का भी आधार है। इससे वेद-मन्त्रों के पाठ, विद्वानों के सत्संग और यज्ञ में किये जाने वाले स्वाध्याय से परमात्मा की उपासना भी होती है। यज्ञ का यह लाभ दूसरे के द्वारा तथा दूर देश में किये जाने पर केवल धन देने वाले यज्ञकर्त्ता या यजमान को प्राप्त नहीं हो सकता। किसी भी शुभ कार्य के लिये किसी के द्वारा दिये सहयोग, दान का पुण्य दाता को अवश्य प्राप्त होगा, क्योंकि वह उस दान का वह कर्त्ता है।

जहाँ तक दूसरे प्रश्न की बात है कि मन्त्र को रिकॉर्ड पर बजाकर आहुति देने से यज्ञ समपन्न होता है। उनका यह कहना ठीक है कि इतने विद्वान् या वेदपाठी कहाँ से लायें, जो पूरे दिन मन्त्र-पाठ कर सकें? रिकॉर्ड पर मन्त्र चलाकर अपने को तो समझा सकते हैं, परन्तु यह अध्यापक या विद्वान् का विकल्प नहीं हो सकता। संसार की सारी वस्तुयें साधन बन सकती हैं, परन्तु कर्त्ता का मूल कार्य तो मनुष्य को ही करना पड़ता है। समभवतः आचार्य के उत्तर से सन्तुष्ट हुआ जा सकता था, परन्तु संस्था की ओर से जो लिखित स्पष्टीकरण प्राप्त हुआ, वह मौलिक स्पष्टीकरण से नितान्त विपरीत है।

स्पष्टीकरण में शास्त्रों की  पंक्तियाँ उद्धृत करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि यज्ञ के लिये दान देने वाले को यज्ञ का फल मिलता है, प्रमाण के रूप में मनुस्मृति के ‘‘अनुमन्ता…….’’, योग-दर्शन के ‘‘वितर्का हिंसादय……’’आदि कई प्रमाण दिये गये हैं। वे शायद ये भूल जाते हैं कि संसार की किन्हीं भी दो अलग-अलग क्रियाओं का फल एक जैसा नहीं हो सकता। दान करने वाले व्यक्ति को दान का फल मिलेगा,ये भी हो सकता है कि अन्य कार्यों के लिये दान करने की अपेक्षा यज्ञ हेतु दान करने का फल अधिक अच्छा हो पर फल तो दान का ही होगा। दरअसल जब हम यज्ञ का फल केवल वातावरण की शुद्धि-मात्र ही समझ लेते हैं, तब इस तरह के तर्क मन में उभरने लगते हैं, और जब कहीं के भी वातावरण की शुद्धि को यज्ञ का फल मान बैठें तो तर्क और अधिक प्रबल दिखाई देने लगते हैं।

ऋषि दयानन्द ने जिस दृष्टि से यज्ञ का विधान किया है, वह अन्यों से भिन्न है। उन्होंने यज्ञ का विधान भौतिक शुद्धि के साथ-साथ अध्यात्म और वेद-मन्त्रों की रक्षा के  लिये भी किया है, साथ ही केवल एक ही जगह और कुछ एक व्यक्तियों के द्वारा ही यज्ञ किये जाने से यज्ञ का भौतिक फल एक ही स्थान पर होगा। यदि इन्हीं सब सीमित परिणामों को यज्ञ का फल मान रहे हैं तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।

एक और तर्क ये दिया गया है कि संस्कार विधि में ऋषि दयानन्द ने पति-पत्नी के एक साथ उपस्थित न होने पर किसी एक के द्वारा ही दोनों की ओर से आहुति देने का विधान किया है, इससे सिद्ध होता है कि एक दूसरे के लिये यज्ञ किया जा सकता है। ऋषि दयानन्द ने ये विधान केवल इसलिये किया है, जिससे कि यज्ञ की परमपरा बनी रहे, न कि कर्मफल की व्यवस्था को परिवर्तित करने के लिये। एक और तर्क ये कि यदि कोई व्यक्ति भण्डारा, ऋषि लंगर आदि की व्यवस्था करता है, तो उसका फल दानी व्यक्ति को ही मिलना है, पकाने या परोसने वाले को नहीं। यहां पर ये महानुभव अपने ही तर्क ‘‘अनुमन्ता विशसिता………’’का खण्डन कर गये, जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंसा का अपराध माँस बेचने, खरीदने, सलाह देने वाले आदि सभी व्यक्ति द्वारा होता है। एक और तर्क सुनिये- राजा समयाभाव के कारण अपने माता-पिता की सेवा भृत्यों से कराता है। ऋषि दयानन्द व मनु के अनुसार राजा स्वयं राजकार्य में रहकर अग्निहोत्र व पक्षेष्टि आदि के लिये पुरोहित व ऋत्विज् को नियुक्त करे।

ऐसे कई उदाहरण दिये गये हैं, और अन्य भी दिये जा सकते हैं, पर इन सभी उदाहरणों में एक सामान्य सी बात ये है कि सभी जगह अति-आपात् की स्थिति या अन्य बड़ा दायित्व होने की स्थिति में अन्यों से यज्ञादि कराने का विकल्प है, वह भी तब, जबकि व्यक्ति मन में ईश्वर के प्रति आस्था, अध्यात्म, वेद की रक्षा के प्रति पूर्ण निष्ठा रखता हो और किसी अति-अनिवार्यता के कारण से यज्ञादि कार्य में असमर्थ हो। इस परिस्थिति में जिनको नियुक्त किया जाता है वे वेतन, पारिश्रमिक आदि लेकर कार्य करते हैं। यदि दान लेकर दाता के नाम से यज्ञ कराने वाले भी यज्ञ करने का पारिश्रमिक लेते हैं, और दानदाता वास्तव में यज्ञ, वेद, ईश्वर, अध्यात्म के प्रति पूर्ण निष्ठावान् रहते हुये भी यज्ञ करने में पूर्ण अक्षम है तो शायद बात कुछ मानी जा सके, लेकिन उतने पर भी वायु तो वहाँ की ही शुद्ध होगी, जहाँ यज्ञ हो रहा है, वेद-मन्त्र तो उसे ही स्मरण होंगे जो कि मन्त्र बोल रहा है। ईश्वर व अध्यात्म में अधिक गति तो उसकी होगी जो आहुति दे रहा है।

इतने पर भी आप यदि अपनी बात को सैद्धान्तिक और सत्य मानना चाहें तो मानें, परन्तु यह अवश्य स्मरण रखना होगा कि ऋषि दयानन्द ने जिन अन्धविश्वासों का खण्डन किया था, वह सब मिथ्या और व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा। एक बार सोनीपत आर्यसमाज के उत्सव पर वहाँ के कर्मठ कार्यकर्त्ता सत्यपाल आर्य जी ने अपने जीवन की घटना सुनाई, उन्होंने बताया कि लोकनाथ तर्क-वाचस्पति उन्हीं के गाँव के थे, वे स्वतन्त्रता संग्राम में आन्दोलन करके जेल गये। उस धरपकड़ में उनके गाँव का पौराणिक पण्डित भी धर लिया गया। जेल में तो वह रहा, परन्तु छूटते समय लोकनाथ जी से बोला, इतने दिनों में तुमने कुछ कमाई की या नहीं? लोकनाथ जी बोले- जेल में कैसी कमाई करेंगे? तो पण्डित ने कहा- मैंने तो इन दिनों अपने सेठों के नाम पर इतना जप किया है, जाते ही पैसे ले लूंगा। तब आप क्या करेंगे?

सारे पौराणिक पण्डित यही तो करते हैं। इनको जो लोग दान देंगे, तो क्या पण्डित जी के कार्य का पुण्य फल उन भक्तों को नहीं मिलेगा? फिर ईसाई लोग स्वर्ग की हुण्डी लेते थे, तो क्या बुरा करते थे, दान का पुण्य तो स्वर्ग में मिलेगा ही। फिर श्राद्ध का भोजन, गोदान, वैतरणी पार होना, यज्ञ में पशुबलि आदि सब कुछ उचित हो जायेगा।

धार्मिक कार्य स्वयं करने, दूसरों से कराने और कराने की प्रेरणा देने से निश्चित रूप से पुण्य मिलेगा, परन्तु स्वयं करने का विकल्प-करने की प्रेरणा देना और दूसरों को सहायता देकर कराना नहीं हो सकता। मेरा भोजन करना आवश्यक है, मुझे दूसरों को भी भोजन कराना आवश्यक है। मेरे भोजन करने का विकल्प दूसरे को प्रेरणा देना और सहायता देकर कराना नहीं होता। मेरे घर कोई आता है तो उसे भोजन कराना ही है। मेरे घर कोई नहीं आया, तो मेरे संस्कार बने रहें, इसलिये मैं कहीं किसी को भोजन कराने की सहायता देता हूँ, वह स्वयं कराये गये भोजन का विकल्प नहीं है। एक के अभाव में अन्य के भोजन की बात है।

यज्ञ, संस्कार आदि का प्रयोजन ऋषि ने शरीरात्म विशुद्धये कहा है। दूर किये गये यज्ञ से या दूसरे के यज्ञ से मेरे शरीर-आत्मा की शुद्धि नहीं होती। किसी की तो होती है, उससे दूसरे का भला करने का लाभ होगा, पर आत्मलाभ की बात इससे पूर्ण नहीं होती। प्राचीन सन्दर्भ से देखें तो ऋषि का यज्ञ-विधान परपरा से हटकर है। पुराने समय के यज्ञ चाहे राजा के हों या ऋषि के, सभी व्यक्तिगत रूप से किये जाने वाले रूप में मिलते हैं। ऋषि की उहा ने यज्ञ को एक सामूहिक रूप दिया है, जिसमें यजमान के आसन पर बैठा व्यक्ति पूरे समूह का प्रतिनिधि है, यह यज्ञ सामाजिक संगठन का निर्माण करने वाला होता है।

यज्ञ में वेद-मन्त्र पढ़ने का लाभ बताते हुए ऋषि लिखते हैं-

जैसे हाथ से होम करते, आँख से देखते और त्वचा से स्पर्श करते हैं, वैसे ही वाणी से वेद-मन्त्रों को भी पढ़ते हैं, क्योंकि उनके पढ़ने से वेदों की रक्षा, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना होती है तथा होम से जो फल होते हैं, उनका स्मरण भी होता है। वेद मन्त्रों का बार-बार पाठ करने से वे कण्ठस्थ भी रहते हैं और ईश्वर का होना भी विदित होता है कि कोई नास्तिक न हो जाये, क्योंकि ईश्वर की प्रार्थनापूर्वक ही सब कर्मों का आरमभ करना होता है।

वेद-मन्त्रों के उच्चारण से यज्ञ में तो उसकी प्रार्थना सर्वत्र होती है। इसलिये सब उत्तम कर्म वेद-मन्त्रों से ही करना उचित है। – ऋग्वेद भूमिका पृ. 721

यह बात इस कारण लिखनी आवश्यक हुई, जिससे जनसामान्य यथार्थ से परिचित हों। किसी के दान से किसी को क्यों द्वेष हो तथा किसी की प्रसिद्धि से ईर्ष्या का क्या लेना? इस अवसर पर संस्कृत की एक उक्ति सटीक लगती है, इसलिये लेख दिया-

का नो हानिः परकीयां खलुचरति रासभोद्राक्षम्।

तथापि असमञ्जसमिति ज्ञात्वा खिद्यते चेतः।।

– धर्मवीर

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-४१

सप्तमर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहुरो गात्।

आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीडे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ।।

– ऋ. १०/५/६

परमेश्वर ने मनुष्य के अन्दर दो सत्ताओं को समाविष्ट कर रखा है। देखने में प्रत्येक प्राणी के पास एक शरीर है, जो उसकी पहचान है। पहचान नष्ट हो जाये तो कोई शरीरधारी उसे खोजकर नहीं ला सकता। जो इस शरीर से पहचाना जाता है, वह जीवात्मा है। आत्मा अपनी इस पहचान से ही जाना जाता है कि वह अपनी संसार यात्रा से कहाँ तक पहुँचा है।

शरीर तो सभी प्राणियों के पास है, एक-एक प्रकार के शरीर धारण किये भी बहुत सारे प्राणी होते हैं और फिर प्राणियों  के प्रकार, नस्ल भी बहुत हैं। ये दो बातें संकेत करने के लिये पर्याप्त हैं कि सभी प्राणी यात्री हैं और प्रत्येक की यात्रा की पहुँच भिन्न-भिन्न चरणों में चल रही है। हमारे लिये इस यात्रा के कारण कोई प्राणी ऊँचा या नीचा हो सकता है, परन्तु परमेश्वर की दृष्टि में तो सभी उस तक पहुँचने के इच्छुक यात्री हैं, कोई उससे बहुत दूर है तो कोई उसके निकट है।

संसार को देखने से दो बाते समझ में आती हैं- जीव बहुत प्रकार के हैं, उसी प्रकार संसार में सबकी अनिवार्यता और उपयोगिता भी है। जैसे भवन के निर्माण में एक व्यक्ति भवन की आवश्यकता वाला है, वह अपने को उसका स्वामी समझता है। वह अपने को निर्माण करने वाला कहता है। स्वयं को स्वामी भले ही कहे, परन्तु वह उसका निर्माण नहीं कर सकता। भवन का निर्माण करने के लिये कुछ व्यक्ति उसके विचार को क्रियान्वित करने का स्वरूप बताते हैं। हम उन्हें वास्तुकार कहते हैं। वे उसे उसकी इच्छा के अनुकूल भवन का चित्र बनाकर देते हैं। कुछ लोग लोहा, मिट्टी, लकड़ी, पत्थर से उस स्वरूप को आकार देते हैं। दूसरे लोग उसे उपयोगी बनाते हैं, तीसरे उसकी सुन्दरता को चित्रित करते हैं, वैसे ही संसार में समस्त प्राणियों की भूमिका बनती है। जैसे हम आशा करते हैं कि सरकार-राज्य इस देश के नागरिकों को कार्य दे और उनके पुरुषार्थ तथा बुद्धि का सदुपयोग ले और उसे सार्थक से करे। उसी प्रकार परमात्मा ने भी संसार में जितने कार्य हैं, उतने प्रकार के प्राणियों की रचना की है। कोई भी प्राणी अनुपयोगी नहीं है, यदि अनुपयोगी होता तो न तो उसको उसके कर्मों का फल मिलता, न संसार के वे विशेष कार्य दूसरा कर सकता।

इन प्राणियों में परमेश्वर ने अपने कार्यों के प्रति कुछ को उत्तरदायी बनाया है, कुछ को उत्तरदायी नहीं बनाया। सांसारिक व्यवस्था में कुछ लोग निर्णय करने वाले होते हैं, कुछ लोग अनुपालना करने वाले। उत्तरदायी निर्णय करने वाले माने जाते हैं। कार्य के अच्छे-बुरे, हानि-लाभ के लिये अनुपालना करने वालों को उत्तरदायी नहीं माना जाता। जो उत्तरदायी है, उसे ही पुरस्कार और दण्ड मिलता है। अनुपालना करने वाले को केवल उसके जीवन यापन के साधन मिलते हैं, जिसे हम मजदूरी कहते हैं।

इसी प्रकार संसार में भोग-योनि के प्राणी अनुपालना करने वाले हैं। परमेश्वर ने उन्हें संसार में जिस कार्य के योग्य बनाया है, वह स्वयं उनके जीवन से पूर्ण होता है और उनके जीवित रहने के उपाय परमेश्वर ने उन्हें दिये हैं। उनके कार्य में बाधा पहुँचाना, उनके जीवन को मध्य में समाप्त करना, उन्हें कष्ट देना- ये कार्य मनुष्य अपने विवेक से करता है, इसके लिये मनुष्य ही इसके परिणाम का उत्तरदायी बनता है। संसार में मनुष्य से भिन्न सारे प्राणी इसी श्रेणी में आते हैं। अतः इनको भोग-योनि कहा जाता है। इनके कार्य का निर्णय परमेश्वर ने इनके जीवन के साथ किया है। अतः वही उत्तरदायी है।

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-40

हस्तायां दशशाखायां जिह्वा वाचः पुरोगवी।

अनामयित्नुयां त्वा तायां त्वोप स्पृशामसि।।

– ऋग्. 10/137/7

संस्कृत भाषा में वैद्य को पीयूष-पाणि कहा जाता है। पीयूष का अर्थ है-अमृत और पाणि का अर्थ होता है-हाथ। जिसके हाथ में अमृत हैं, ऐसे वैद्य की चर्चा इस मन्त्र में की गई है, वैद्य के दोनों हाथ ही नहीं, हाथ के पोर-पोर में, अंगुलियों में अमृत भरा है। वह हाथ जिस भी रोगी का स्पर्श करते हैं, उसे निरोग करते हैं। वैसे सभी लोग जो भी कार्य करते हैं, हाथ से ही करते हैं, सारे कला-कौशल के कार्य हाथ से ही किये जाते हैं। लेखन, निर्माण, कृषि सभी कुछ तो हाथों से ही होता है। इन सभी में जो उत्कर्ष आता है, वह हाथों से ही आता है।

वैद्य का हाथ दो प्रकार से उत्कर्ष को देने वाला होता है। रोगी की नाड़ी देखकर, त्वचा का स्पर्श देखकर रोगी की चिकित्सा की जाती है तथा हस्ताभिमर्श चिकित्सा में रोगी के शरीर में जहाँ-जहाँ पीड़ा होती है, वहाँ हाथ का स्पर्श कर अथवा रोगयुक्त अंग के पास ले जाकर हाथ से रोग दूर किया जाता है।

वेद में अन्यत्र भी हस्ताभिमर्श चिकित्सा का वर्णन आया है। वहाँ मनुष्य द्वारा अपने हाथ के सामर्थ्य का वर्णन करते हुये कहा गया है, मेरा हाथ भगवान् है, ऐश्वर्यवान् है, ऐश्वर्य से महत् है। यह मेरा हाथ विश्व-भेषज है। वहाँ ‘अयं मे विश्व भेषजः’ कहा है। हाथ में समस्त समस्याओं के समाधान करने का सामर्थ्य है। इसलिये यहाँ ‘भेषज’ शबद का प्रयोग किया गया है। संस्कृत में ‘भिषक’ वैद्य के लिये है। परमेश्वर को ‘भिषकतम’ कहकर पुकारा गया है। वह परमेश्वर सब वैद्यों से भी बड़ा वैद्य है। ‘भिषकतमं त्वा भिषजां शृणोमि’-मैं भली प्रकार जानता हूँ, तु संसार के समस्त रोगों की दवा है। मनुष्य भी अपने हाथ को कहता है- यह हाथ विश्व-भेषज है। यह हाथ अभिमर्श चिकित्सा का सूत्र है, यह हाथ समस्त कल्याण को देने वाला और अकल्याण को दूर करने वाला है। हम यदि वाणी से न भी बोलें, तो भी हमारे शरीर के अंगों के स्पर्श से हमारे भाव दूसरे तक पहुँचते हैं, दूसरे को प्रभावित करते हैं। भारतीय शिष्टाचार में आशीर्वाद के रूप में अपने से छोटे के सिर पर हाथ रखा जाता है। बड़ा व्यक्ति प्रणाम करने वाले व्यक्ति के सिर पर हाथ रखकर ही प्रणाम के उत्तर में आशीर्वचन कहता है। माता-पिता, गुरुजन सिर पर हाथ रखते हैं। देवता भी सिर पर हाथ रखकर वरदान या अभय दान देते हैं। इसीलिये लोक में भी किसी व्यक्ति के निर्भय होने पर उसके बड़े का या परमेश्वर का हाथ उसके सिर पर होने की बात की जाती है। बालकों की पीठ पर हाथ रखकर उसका उत्साह बढ़ाया जाता है। किसी सफलता पर शाबासी दी जाती है। साथी के पीठ पर हाथ रखकर समर्थन जताया जाता है। तुम आगे बढ़ो, तुमहारी पीठ पर हमारा हाथ है।

इस मन्त्र में हाथ की विशेषता बताते हुए कहा गया है- ‘हस्तायां दश शाखायां’ दश शाखाओं वाले दोनों हाथों से। हाथ की योग्यता में आगे कहा है- ‘अनामयित्नुयां’ आमय रोग को कहा जाता है। ये हाथ रोग को दूर करने का सामर्थ्य लिये हुये हैं। इन रोगों को दूर करने वाले हाथों से मैं तेरा स्पर्श करता हूँ। मेरे हाथ का स्पर्श तुझे निरोग करने का सामर्थ्य रखता है। हाथ निरोग करने में समर्थ है, यह वाणी का कथन है- मैं तो रोगी को स्वस्थ करने की घोषणा करता ही हूँ। इसके अतिरिक्त जिन्होंने भी  मेरी इस योग्यता का लाभ उठाया है, उनकी वाणी भी मेरी योग्यता का बखान करती है। मेरी चिकित्सा से स्वस्थ हुये व्यक्ति सदा मेरी प्रशंसा करते हैं।

इस पूरे सूक्त में मनुष्य को किस प्रकार स्वस्थ रखा जा सकता है, यह कथन किया है। वायु चिकित्सा, जल चिकित्सा, आश्वासन चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा के सूत्र इन मन्त्रों में बताये गये हैं। सामान्य बात है कि शरीर जिन पंच महाभूतों से बना है, उनके कम अधिक होने पर मनुष्य रोगी होता है। इन भौतिक तत्त्वों का सामान्य रूप ही शरीर को स्वस्थ रख सकता है। अतः चिकित्सा में केवल एक ही विचार सपूर्ण नहीं होता। इसको वैद्यक पथ्यापथ्य कहते हैं। औषध का उपयोग करने पर भी यदि पथ्य न किया जाये तो औषध से पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। पथ्य के महत्त्व को बताते हुए कहा गया है- यदि मनुष्य पथ्य करता है, तो बिना औषध के मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। वैद्य को पता होना चाहिए कि रोगी के शरीर में कौन से तत्त्व की कमी है और कौन सा पदार्थ उस तत्व को पूरा कर सकता है। यही इन मन्त्रों का सन्देश है।

संस्कृत और संस्कृति-विनाश के चार अध्याय

संस्कृत और संस्कृति-विनाश के चार अध्याय

– धर्मवीर

भारत के इतिहास में भारत के पतन का क्रम किसी युद्ध की पराजय से प्रारमभ नहीं होता। हमारे इतिहास में महाभारत, रामायण जैसे इतिहास हैं। इनमें भारत के पराजय की कहानी नहीं मिलती। बहुत सारे राजा और उनके मध्य चलने वाले युद्धों का क्रम कितना भी लमबा क्यों न रहा हो, इससे जनता पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं था। इस देश के धार्मिक स्थल इस देश की सीमा को निर्धारित करते थे। हिमालय में कैलाश-मानसरोवर तो दक्षिण में रामेश्वरम्। इस सीमा को तीर्थ यात्री ही चिह्नित करते थे। पश्चिम में हिंगलाज माता का मन्दिर या पूर्व में सागर की यात्रा, समस्त देश एक ही था। इसको जोड़ने वाला धर्म और धर्म को चलाने वाले शास्त्र ही देश का संचालन करते थे। शास्त्रों से शिक्षा आती थी और धर्म से व्यवहार।

इस देश के पतन की पटकथा राजनीति से प्रारमभ नहीं होती, धर्म और शिक्षा से प्रारमभ होती है। क्योंकि ये दोनों ही इस देश की जनता का संचालन करते थे। इनके नाश से ही इस देश का नाश हुआ। केवल राजनीति की हार से दबाया गया देश राजनीति से उठाया जा सकता है, परन्तु इस देश में मृत्यु समाज की हुई है, राजा की नहीं। समाज की मृत्यु में धर्माचार्य और शासन की सहमति रही है। इस मृत्यु का प्रभाव ये हुआ कि आकलन करने वालों का समाज में अभाव होता गया। मध्य में प्रयास हुए होंगे, परन्तु वे प्रयास इस देश की सामाजिक मृत्यु को नहीं टाल सके। पराधीनता के समय या उससे कुछ पूर्व कौटिल्य और शिवाजी जैसे लोगों ने समाज को जीवित करने का प्रयास किया, परन्तु वह थोड़ा और स्वल्प कालीन रहा। समाज की मृत्यु इसके अन्दर से देशाभिमान का भाव समाप्त होने के कारण हुई। समाज उदासीन निरपेक्षता की मनोदशा में चला गया, क्योंकि हमारी व्यवस्था ने उसे विचार-शून्य बना दिया था।

विचार शिक्षा और अनुभव से बनते हैं, हमने समाज को इनसे बध्यतापूर्वक वञ्चित् किया है। मनु सबको शिक्षा का अधिकार देते हैं। शिक्षा से समाज में मनुष्य का स्थान निर्धारित होता है। आज भी उच्च-शिक्षित लोग समाज में ऊँचा स्थान रखते हैं, ऊँचे पदों का समबन्ध उच्च-शिक्षा से ही होता है। पुराने भारतीय समाज में इस देश की वर्ण व्यवस्था मनुष्य के बौद्धिक और शैक्षणिक स्तर को बताने वाली थी। ऐसी व्यवस्था को रोका नहीं जा सकता है, परन्तु इस देश के समाज-व्यवस्थापकों ने इसे रुकने के लिये बाध्य किया। मनु ने तो कहा है-

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विधाद्वैश्यात्तथैव च।

– मनु. 10/65

अर्थात् योग्यता के क्रम से कोई भी मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र बनता था और उसका आधार थी शिक्षा। शिक्षा की स्वतन्त्रता ही मनुष्य को ऊँचा उठाने वाली होती है।

मनु की व्यवस्था समाज में दीर्घकाल तक चलती रही है, क्योंकि आपस्तब-धर्मसूत्रकार ने इस व्यवस्था को दोहराया है।

धर्मचर्य्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।

अधर्मचर्य्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।।

– आपस्तब धर्मसूत्र-प्र. 2, प. 5, क. 11, सूत्र 10-11

यह जाति परिवर्तन जन्म के नहीं, गुणों के आधार पर ही समभव है। शिक्षा से समाज को वञ्चित करके ही इस व्यवस्था को अवरुद्ध किया जा सकता था। वास्तव में नियमपूर्वक बाध्यता का नियम किसने कब बनाया, यह कहना कठिन है, परन्तु गत शताबदियों में इस व्यवस्था का जिस कठोरता से पालन किया जाता रहा है, उससे इसके चलाने का प्रयोजन स्पष्ट हो जाता है।

समाज में स्त्री और शूद्रों को वेद पढ़ने के अधिकार से वञ्चित करने का उल्लेख महाभारत के बाद के साहित्य में अनेक स्थानों पर मिलता है। शंकराचार्य ने अपनी वेदान्त-दर्शन की व्याखया में स्त्री-शूद्रों के वेदाध्ययन के केवल अनधिकार ही नहीं अपितु वेदाध्ययन पर दण्डित करने का भी उल्लेख किया है, यह कितनी विडमबना है कि हम किसी को विद्याध्ययन के लिये दण्डित करें।

दण्डित करने की मानसिकता का मूल महाभारत के गीता प्रसंग में सामाजिक पतन का कारण वर्णसंकरता को कहा है। महाभारत में युद्ध के परिणामस्वरूप समाज में उत्पन्न होने वाली वर्णसंकरता तथा उसके परिणामों का उल्लेख मिलता है-

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।

पतन्ति पितरोह्येषां लुप्तपिण्डोदक क्रियाः।।

उत्सन्नकुल धर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।

नरकेनियतं वासो भवतीत्यनुसुश्रुम।।

वर्ण-संकरता सामाजिक मर्यादाओं के उच्छेद का कारण है। वेदाध्ययन का अनधिकार इसी परिस्थिति का परिणाम है। यह परिस्थिति कितने लमबे समय तक चली, इसका उदाहरण है समाज के अधिकांश लोगों का अशिक्षित रहना। विद्या को समाज से समाप्त होने में कितना समय लगा होगा कि आज उस विद्या का जानने वाला दुर्लभ हो गया? यह परिस्थिति समाज में अकस्मात् या एक दिन में तो उत्पन्न होने वाली नहीं है।

इस कार्य के परिणामस्वरूप समाज में जो परिस्थिति बनी, उसे हम अपने सामाजिक पतन का दूसरा अध्याय कह सकते हैं। इस समय वेदाध्ययन को प्रतिबन्धित करने के प्रयास को सफल बनाने के लिये जो कार्य किये गये, वे थे- वेद मन्त्रों के अर्थ अपने अनुकूल करना तथा शास्त्र ग्रन्थों में प्रक्षेप कर उन प्रक्षेपों के समर्थन में ग्रन्थ लिखना।

वेद, जो समाज के सर्वांगीण विकास की विद्या थी, उसे केवल यज्ञ के कर्मकाण्ड तक सीमित कर दिया तथा कर्मकाण्ड में पुण्य के नाम पर व्यभिचार और पशु-बलि को स्थापित कर दिया गया। इससे जिन लोगों को वेद नहीं पढ़ने दिया गया था, उनके मन में हिंसा के विरोध में ‘अतिविरोध-रूप अहिंसा’ का समाज में स्थान बनता गया। वेद-विरोधी प्रक्रिया दो विचारधाराओं में आगे बढ़ी, जैन-बौद्ध धर्म के रूप में इस देश में अहिंसा का अतिवादी रूप सामने आया तथा चार्वाक के माध्यम से वैदिकों ने भी तर्कहीन स्थापनाओं का खण्डन किया। वेद पर निरर्थकता के आक्षेप किये गये। यह कार्य निरुक्त-मीमांसा के समय में प्रारमभ हो गया था। आचार्य यास्क ने वेदों के अर्थज्ञान के लिये निरुक्त की अनिवार्यता को बताते हुये ‘‘निरर्थका हि मन्त्रा इति कौत्सः।’’ कहकर वेद मन्त्रों को निरर्थक मानने वाले लोगों का खण्डन किया। वेदाध्ययन पर प्रतिबन्ध के कारण वेदाध्ययन की परमपरा समाप्त होती गई और वेद के नाम पर ब्राह्मण वर्ग की मनमानी के विरोध में नास्तिक मतों का प्रारमभ होता चला गया। संस्कृत का लोप होने से लोकभाषा में जिन विचारकों ने समाज को उपदेश दिया, उनका समाज में प्रभाव बढ़ता गया। स्थानीय लोगों में विद्वानों के स्तर पर विरोध होने पर भी संस्कृत और वेद की परमपरा सर्वथा समाप्त नहीं हुई। राज्याश्रय और गुरु परमपरा से उसकी प्रतिष्ठा बनी रही।

जिस समय इस्लाम का भारत में प्रवेश हुआ और इस्लामी शासन का प्रारमभ हुआ, तब इस देश में इस्लामी भाषा का व्यवहार और शिक्षा का प्रारमभ हुआ। अरबी-फारसी पढ़ने की परमपरा समाज में चल पड़ी। अरबी-फारसी पढ़ने वाले को प्रतिष्ठा और राज्याश्रय के कारण प्रशासन में स्थान मिलने लगा और अरबी-फारसी अर्थकरी भाषा बन गई, परन्तु हिन्दू समाज में धार्मिक स्तर पर तथा विद्वत् समाज में संस्कृत का प्रचलन बना रहा। कर्मकाण्ड और विद्या की भाषा संस्कृत मानी जाती रही, जैसे-जैसे अंग्रेजी शासन की भारत में स्थापना हुई, वैसे-वैसे प्रशासन की भाषा और राज्य की भाषा अंग्रेजी बनती गई। अंग्रेज सरकार ने अपने शासन को स्थायी बनाने के लिये शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा को बनाया। राजाराम मोहनराय के निर्देशन में अंग्रेजी शासन ने इस देश की शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को घोषित किया।

अंग्रेजी शासन में मैकाले के विचार को सरकार ने स्वीकार कर संस्कृत पठन-पाठन की परमपरा को ध्वस्त करना प्रारमभ किया। गुरुकुल, पाठशाला, मन्दिर, गुरु परमपरा, इन सब प्रयासों को दण्डित कर नष्ट कर दिया। ऐसा करने के लिये शासन और शिक्षा का आश्रय लिया गया। इसके सथ संस्कृत-नाश का तीसरा अध्याय प्रारमभ होता है। इंग्लैण्ड के मार्गदर्शन में भारत को शत्रु देश मानते हुए, यहाँ के इतिहास, भाषा, संस्कृति का अध्ययन किया गया। जो कुछ भी इस देश में गौरवपूर्ण था या तो उसको नष्ट किया, छुपा दिया या विकृत करके प्रस्तुत किया तथा समाज में जो कोई भी दुर्बलता, बुराई दिखाई दी, उसे प्रमुख रूप से प्रकाशित करने का यत्न किया, जिससे शत्रु और पराधीन-देश का गौरव नष्ट हो और यहाँ के लोगों में आत्महीनता का भाव उत्पन्न हो सके। ईस्ट इण्डिया कपनी के समय भारत के लोगों को ईसाई बनाने का कार्य प्रारमभ हो गया था। सेना का अधिकारी कर्नल बोडम था, उसको अपने कार्यकाल में ऐसा अनुभव हुआ कि हिन्दू समाज में वेद के प्रति गहरी आस्था है। इसके चलते भारतीय लोगों को ईसाइयत की ओर आकृष्ट करना कठिन ही नहीं, असमभव है। अपने इस अनुभव के आधार पर वेद के इस महत्त्व को समाप्त करने के प्रयास के रूप में उसने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत में शोध के लिये चेयर की स्थापना के लिये अपना धन प्रदान किया और अपने नाम से चेयर की स्थापना कराई। इस चेयर के माध्यम से मैक्समूलर ने वेद भाष्यों का अंग्रेजी में अनुवाद प्रस्तुत किया तथा संस्कृत एवं वैदिक साहित्य के विषय में भी उसने बहुत सारा काम किया। इसके अतिरिक्त अनेक लोगों ने वैदिक साहित्य और वेद भाष्यों का अनुवाद किया। सभी के लिये तो नहीं कहा जा सकता कि उनका विचार अंग्रेजी सरकार से प्रेरित था, परन्तु अधिकांश लोगों का कार्य उसी साम्राज्यवादी सोच को लेकर क्रियाशील था।

भारत में संस्कृत पठन-पाठन की परमपरा समाप्त हो चली थी तथा अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम होने से अंग्रेजी में लिखे साहित्य और अनुवाद का बोलबाला हो गया। संस्कृत के मूल-ग्रन्थ विद्वानों के पठन-पाठन से दूर हो गये। अंग्रेजी प्रतिष्ठा और आजीविका दोनों की भाषा बन गई, अंग्रेज शासकों की योजना फलीभूत हो गई और संस्कृत व संस्कृति विनाश का तीसरा चरण सफल रहा।

वैदिक साहित्य और इतिहास के विद्वान् पं. भगवद्दत्त ने इस विषय में अपने शोध में लिखा है- मैं अनिच्छा से इस दुःखद निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि जिसको आज वैज्ञानिक, वस्तुपरक और समीक्षात्मक शोध कहा जाता है, वह वस्तुतः उस मूलभूत एवं सूक्ष्म प्रभाव से दूषित है, जिसका उद्देश्य शैक्षणिक किञ्चिन्मात्र भी नहीं था।

-(भारतीय इतिहास की विकृतियांः कुछ कारण, पृ. 6)

जो कारण पाश्चात्य विद्वानों को सत्य कहने से रोकता है, वह कारण है- उनकी मानसिकता। इस मानसिकता की घोषणा 1654 में आयरलैण्ड के आर्क विशप अशर ने दृढ़ता से की कि- उसका प्राचीन धर्म-ग्रन्थ का अध्ययन सिद्ध कर चुका है कि सृष्टि की रचना ईसा पूर्व 4004 वर्ष पूर्व हुई। इस मान्यता के कारण इन पाश्चात्य लोगों में एक अहंकार ने जन्म ले लिया कि वे संसार की प्राचीनतम संस्कृति और धर्म हैं, जिसके कारण बाद में जो कुछ इनके सामने आया, उसको इन लोगों ने ईसा के आगे-पीछे समेटने का प्रयास किया। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. मोनियर विलियस ने कर्नल बोडन द्वारा स्थापित पीठ के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा था-

‘मुझे इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना है कि मैं बोडनपीठ का द्वितीय अधिकारी हूँ और इसके संस्थापक कर्नल बोडन ने अपनी वसीयत दि. 15 अगस्त 1811 में स्पष्ट रूप से निर्देश किया था कि उसके उदार दान का मुखय उद्देश्य है कि बाईबिल आदि धर्म-ग्रन्थों के संस्कृत अनुवाद को प्रोन्नत किया जाये, जिससे हमारे देशवासी भारतीय मूल के लोगों को ईसाई-धर्म में दीक्षित कराने में आगे बढ़ाने के लिये सक्षम बनें।’

– (संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी की भूमिका, पृ. 9/1899)

इस विचार को आधार बनाकर पाश्चात्य विद्वानों ने कार्य किया- रुडोल्फ राथ ने वेद-विषयक शोध-लेख में लिखा है- ‘वैदिक मन्त्रों का अनुवाद निरुक्त की अपेक्षा कहीं अच्छा जर्मन भाषा-विज्ञान की सहायता से किया जा सकता है।’

– (जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल-1847)

इसी प्रकार डल्यू.डी. विदने ने लिखा- ‘वेदों का यथार्थ स्वरूप समझने के लिये एक मात्र जर्मन समप्रदाय के सिद्धान्त ठीक-ठीक मार्गदर्शन कर सकते हैं।’

– (अमेरिकन ओरियन्टल सोसाइटी प्रोसिडिंग- अक्टूबर 1867)

मैक्समूलर की वेद विषयक धारणा से उसकी वेद की दृष्टि पर प्रकाश पड़ता है-

‘‘वैदिक सूक्तों की बड़ी संखया अत्यन्त बालिश, अरुचिकर, निन और तुच्छ है।’’

– (चिप्स फ्राम जर्मन वर्कशाप, 2 संस्करण 1866, पृ. 27)

हमारे वर्तमान भारतीय विद्वान् मोनियर विलियस का गुणगान करते हैं, परन्तु उसके शबद क्या कहते हैं-

‘जब ब्राह्मणवाद के सुदृढ़ दुर्ग की दीवारें चारों ओर से घेर ली गई हैं, सुरंगे लगा दी गई हैं और अन्ततः ईसा के सैनिकों/पादरियों ने अन्तिम धावा बोल दिया है, अतः ईसाइयत की विजय असाधारण और पूर्ण होगी।’

– (मॉर्डन इण्डिया एण्ड दि इण्डियन्स, तृतीय संस्करण 1879, पृ. 26)

मोनियर विलियस का एक कथन उसके उद्देश्य को प्रकाशित करने के लिये पर्याप्त है-

‘बाइबिल यद्यपि सत्य दैव प्रकाशन है।’

– (द क्रिश्चियन इन्टेलिजेन्स कोलकाता, मार्च 1870, पृ. 79)

इसी समय के विद्वान् विन्टरनिज को शोपनहार की उपनिषद् की प्रशंसा इतनी बुरी लगी कि उसकी भावना इन शबदों में झलकती है- ‘तो भी मैं विश्वास करता हूँ कि वह उन्मत्त अतिशयोक्ति है’, जब शोपनहार कहता है- ‘उपनिषदों की शिक्षा मनुष्य के सर्वोच्च ज्ञान और बुद्धि के तल को दर्शाती है और उसमें लगभग अतिमानव अवधारणायें विद्यमान हैं, जिनके आविष्कर्ता कठिनाई से ही मनुष्य समझे जा सकते हैं।’

– (सम प्रालस ऑफ इन्डियन लिटरेचर कलकत्ता, पृ. 61/1925)

आगे वेद के विषय में वह लिखता है-

‘यह सत्य है कि इन सूक्तों के रचनाकार कदाचित् ही यहूदियों के धार्मिक काव्य की उच्च उड़ानों और गमभीर भावनाओं तक पहुँच पाते हैं।’

– (हिस्ट्री ऑफ इन्डियन लिट्रेचर, पृ. 79/1927)

इन विद्वानों के दुराग्रहपूर्ण विचारों के कारण भारतीय इतिहास और संस्कृति का मूल्यांकन समभव न हो पाया। भारतीय इतिहास की तिथियों और तथ्यों को विद्वानों के सामने नहीं लाया जा सका।

भारत में संस्कृत और संस्कृति के नाश का चौथा अध्याय भारत की स्वतन्त्रता के साथ प्रारमभ होता है। इसका प्रारमभ तभी हो जाता है जब यहाँ संविधान और संसद ने इस देश की भाषा के रूप में अंग्रेजी को स्वीकार कर लिया। दूसराइसमें भाषा के साथ पाश्चात्य विद्वानों के तथ्य और तर्क भी उस देश के इतिहास के भाग मान लिये गये। इस देश में आर्य-द्रविड कल्पना का इतिहास आज भी हमारे पाठ्यक्रम का विषय है। तीसरा पाश्चात्य विद्वानों की मिथ्या धारणाओं व पूर्वाग्रह पर आधारित विचारों को इतिहास के निर्णय के रूप में स्वीकार कर लिया गया। भारतीय इतिहास को सरकार पोषित विद्वानों ने आधुनिकता और प्रगतिशीलता के नाम पर विकृत कर लेखन किया तथा प्रगति के नाम पर सामयवादी लेखकों ने भारत विरोधी विचारों से प्रस्तुत किया। चौथा दलित और अल्पसंखयक के नाम पर उनके शोषण और उत्पीड़न के लिये मनुष्य के अपराध को शास्त्र और भाषा का अपराध बताकर प्रस्तुत किया गया। जैसे दलित नेता कान्ता चैलय्या ने मांग की- भारत में दलितों के शोषण के लिये संस्कृत भाषा जिममेदार है और हम इस देश से इसकी समाप्ति चाहते हैं। क्या हिटलर को अपराधी बताने के लिये जर्मन भाषा को उत्तरदायी माना जा सकता है? पाँचवा- शिक्षा के माध्यम  के रूप में इस देश में दो पद्धतियाँ प्रचलित की गईं, एक प्रान्तीय भाषा की और दूसरी अंग्रेजी भाषा की। प्रशासन और सरकार ने अंग्रेजी को प्रोत्साहन दिया तो परिणामस्वरूप अंग्रेजी स्कूलों की बाढ़ में संस्कृत दब गई। छठा सरकार की नीति संस्कृत को समाप्त करने की रही, धीरे-धीरे पाठ्यक्रम से संस्कृत समाप्त होती गई।

आज शॉन पोलक जिन विचारों की स्थापना करना चाहता है, उसका आधार अंग्रेजी ही है, उसका कहना है- संस्कृत शोध के योग्य भाषा ही नहीं है और संस्कृत में शोध करना है तो अंग्रेजी के बिना संस्कृत में शोध हो ही नहीं सकता। उसका प्रयास है- भारतीय साहित्य का अंग्रेजी अनुवाद कर लेने के बाद भारतीय संस्कृत-हिन्दी भाषा में कुछ पढ़ने योग्य शेष नहीं होगा तथा संस्कृत का शोध करना अंग्रेजी के माध्यम से न केवल सरल होगा अपितु प्रामाणिक भी होगा। ऐसे लोगों का परिणाम होता है

अन्धेनैव नियमाना यथान्धाः।।

– धर्मवीर

 

शैल्डन पोलॉक का शोध- संस्कृति का शीर्षासन

शैल्डन पोलॉक का शोध

संस्कृति का शीर्षासन

चार सितम्बर के दिन कर्नाटक यात्रा के प्रसंग में हम्पी भ्रमण करते हुये विजय नगर साम्राज्य के खण्डहर देख रहे थे। विरुपाक्ष मन्दिर, मन्दिर समूह, कृष्ण मन्दिर, विट्ठल मन्दिर, अच्युतराय मन्दिर देखते हुए एक मुस्लिम शासक निर्मित भवन दिखाई दिया। उसके परिचय में लिखा हुआ था- ‘एक सैक्यूलर इमारत’ पढ़कर हृदय गदगद हो गया। इस देश की नई शब्दावली से परिचित हुये बिना यहाँ की और इस देश को लेकर सोचने वालों की मानसिकता को नहीं समझा जा सकता। इस देश में पीड़ित को साम्प्रदायिक और आक्रान्ता को सैक्युलर, धर्म-निरपेक्ष, समाजवादी और उदार कहा जाता है।

आजकल हमारे तथाकथित प्रगतिशील लोगों की यह शब्दावली है जहाँ शब्द भी उनका भी दिया अर्थ बताते हैं। वास्तविक अर्थ कुछ रहा होगा तो रहे, परन्तु आज तो यही अर्थ ठीक है। वेद, शास्त्र, हिन्दू, ब्राह्मण आदि ऐसे शब्द हैं जिनका अर्थ होता है- शोषक, उत्पीड़क, रुढ़िवादी, स्त्री-विरोधी, दलित-विरोधी, अल्पसंख्यक-विरोधी, असभ्य, असंस्कृत आदि। यदि कोई मुसलमान की बात हो, चाहे औरंगजेब हो, अकबर हो, गजनी हो, ख्ुादा हो, कुरान हो या पैगम्बर हो, उनका अर्थ होता है- सैक्युलर, उदार, समन्वयवादी आदि। कहीं अंग्रेज, अंग्रेजी, विदेशी शोधकर्त्ता का नाम आ जाये तो अर्थ होगा प्रगतिशील, वैज्ञानिक दृष्टिवाला, दयालु, परोपकारी आदि। ऐसे शब्द आजकल के सुपठित लोगों की भाषा में इन्हीं अर्थों में आते हैं।

इन शब्दों का उदारता से व्याख्यानपूर्वक प्रयोग देखना हो तो आजकल के महान् शोधकर्त्ता कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रोफे सर सर शैल्डन पोलॉक हैं। जिनका बहुत सारा शोध कार्य है, परन्तु रामायण को उन्होंने जिस दृष्टि से देखा है वह इस शब्दावली से समझा जा सकता है। शैल्डन पोलॉक के शोध के अनुसार वेद निरर्थक हैं (मीनिंग लेस) बाकि जितने भी शास्त्र हैं इनमें अपना कुछ नहीं है, ये सब वेद से दबे हुए हैं। बाद के काव्य, व्याकरण आदि राजाओं के प्रभाव को स्थापित करने, जनता को दबाने, उनका शोषण करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा लिखे गये। इसका एक उदाहरण रामायण है। रामायण कोई इतिहास नहीं है। राम नाम का कोई व्यक्ति नहीं हुआ। राम के नाम पर राजाओं के प्रभाव को बढ़ाने और जनता को दबाकर रखने के लिये वाल्मिकी ने इस की रचना की है।

शैल्डन पोलॉक का शोध दूर की कौड़ी है। श्लोकों का अर्थ मनमाना और अप्रासंगिक है। तटस्थ अध्ययनकर्त्ता यदि ग्रन्थकर्ता की एक  बात को प्रस्तुत करता है तो उसके विपरीत बातों को भी उद्धृत करना उसका कर्त्तव्य बनता है। पोलॉक महाभारत का श्लोक उद्धृत कर कहता है कि संस्कृत ग्रन्थों में राजा के  माहात्म्य को बढाने के लिये उसे भगवान् का रूप दिया गया है। ऐसा करने के पीछे उद्देश्य यह है कि कोई राजा का विरोध न कर सके और राजा अपने को भगवान् मानकर प्रजा पर मन मरजी चला सके। प्रजा का शोषण कर सके। पोलॉक के विचार से सारा संस्कृत साहित्य राजाओं के द्वारा अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए ब्राह्मणों के माध्यम से कराया गया प्रयास है। पोलॉक का विचार है कि पूरे संस्कृत साहित्य में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसमें मनुष्य की स्वतन्त्रता, बौद्धिकता, समानता की बात दिखाई पड़ती हो। उसके विचार से हिन्दुओं में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव इन संस्कृत ग्रन्थों द्वारा बौद्धिक स्वतन्त्रता को बन्धक बनाये जाने के कारण है। वेद या शास्त्रों में आध्यात्मिकता की बात करना निरी मूर्खता है। वेद, शास्त्र, संस्कृत साहित्य दलित-विरोधी, स्त्री-विरोधी और अल्पसंख्यक विरोधी है। पोलॉक का मानना है कि रामायण के माध्यम से शासकों ने प्रजा के मन में मुस्लिम विरोधी भावनाओं को भड़काने का कार्य किया है। वह यहाँ तक कहता है कि भाजपा या विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा रथ-यात्रा निकालना हिन्दुओं के मन में रामायण के माध्यम से मुस्लमानों के प्रति शत्रुता का भाव उत्पन्न करने का प्रयास है।

पोलॉक रामायण को मुस्लिम विरोध के लिये लिखवाया ग्रन्थ कहकर दो बात सिद्ध करना चाहता है, एक– राम नाम का कोई इतिहास में व्यक्ति ही नहीं हुआ, उसके आदर्श राजा होने की बात तो बहुत दूर है। दूसरी रामायण की रचना का समय वह इस्लाम के भारत आक्रमण के बाद का सिद्ध करना चाहता है। यह ग्रन्थ के साथ और इतिहास की परम्परा के साथ भी मनमानी है। इस्लाम के उत्पन्न होने से पहले ही रामायण का विश्व में प्रचार प्रसार हो चुका था। जहाँ इस्लाम का जन्म चौदह सौ वर्ष पुराना है तो रामायण के चित्रों का प्रदर्शन ब्राह्यीलिपि के साथ तीन हजार वर्ष से भी पुराना मिलता है। चीन, तिब्बत, लंका, मलेशिया, इन्डोनेशिया आदि देशों में रामायण का प्रचार-प्रसार वहाँ इस्लाम के पहुंचने से पहले ही पहुँच चुका था। साहित्य में हजारों ग्रन्थ ऐसे हैं जिनकी रचना रामायण के आधार पर की गई है। रामायण इन ग्रन्थों का उपजीव्य है।

शैल्डन पोलॉक का शोध है कि रामायण में राक्षस शब्द मुसलमानों के लिये प्रयुक्त हुआ है। संस्कृत साहित्य में मुसलमानों के लिये यवन शब्द तो देखने में आता है पर किसी भी शब्दकोश में राक्षस का अर्थ मुसलमान देखने को नहीं मिलता। वैदिक साहित्य में दो ही वर्ग देखने में आते हैं। इनमें एक को आर्य कहते हैं दूसरे को दस्यु कहा जाता था। दस्यु के लिये भी अनार्य शब्द का प्रयोग मिलता है। ये दोनों शब्द एक वर्ग के लोगों के लिये प्रयुक्त होते थे, क्योंकि ये शब्द गुणवाचक हैं न कि जाति के वाचक। संस्कृत साहित्य में दस्यु शब्द का अर्थ करते हुये कहा गया है ‘अकर्मा दस्युः’ जो पुरुषार्थ न करके निर्वाह करना चाहता है वह दस्यु है। वह कोई भी हो सकता है। जिन का आचरण आर्योचित या मर्यादा रहित होता था, उनके लिये म्लेच्छ शब्द का प्रयोग देखा जा सकता है। जहाँ तक राक्षस शब्द की बात है। राक्षस शब्द बहुत पुराना है, वेद में भी प्रयुक्त हुआ, प्रारम्भ में इसका अर्थ बुरा नहीं था, बाद में बुरे अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है। राक्षस का अर्थ किसी भी रूप में मुसलमान अर्थ में रामायण में प्रयुक्त नहीं हुआ है।

रामायण में राक्षस वंशों का वर्णन मिलता है। राक्षसों के नाम, स्थान, वंश, क्षेत्र आदि का उल्लेख रामायण में विस्तार से पाया जाता है। ऐसी स्थिति में रामायण के राक्षस शब्द से मुसलमान अर्थ लेना- यह मनमानापन शोध तो नहीं कहा जा सकता है। शैल्डन पोलॉक का मानना है कि बुद्ध से पहले हिन्दुओं को लिखना-पढ़ना नहीं आता था। पोलॉक का शोध कहता है कि रामायण की रचना बौद्ध जातक कथाओं की नकल पर की गई है। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है रामायण बुद्ध से पूर्व भी इस देश में प्रचलित थी। इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। सोचने की बात है कि सब कुछ इस देश में बुद्ध के बाद आया तो बुद्ध से पहले यहाँ क्या था। इतना ही नहीं, बुद्ध ने जो कुछ जाना-सीखा वह सब कहाँ से सीखा। बौद्ध-दर्शन यदि वैदिक दर्शन का खण्डन करता है तो वैदिक दर्शन की उपस्थिति बुद्ध से पहले हुए बिना खण्डन कैसे हो सकता है। जैन, बौद्ध साहित्य में ब्राह्मणवाद का खण्डन बताया जाता है तो ब्राह्मण धर्म बुद्ध से पहले था तभी तो खण्डन किया जा सका। जब कोई विचार किसी विचार की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न होता है तो जिसके लिये विरोध या प्रतिक्रिया हुई है, उसका पहले स्थापित होना तो स्वतः सिद्ध होता है। फिर यह कहना कि वेद से लेकर पुराण तक की रचना बुद्ध काल के बाद हुई है- युक्ति संगत नहीं कहा जा सकता। संस्कृत साहित्य में काल निर्णय की समस्या चार कारणों से उत्पन्न होती है। प्रथम है नाम साम्य-एक ही नाम के अनेक व्यक्ति विभिन्न समय और स्थानों पर होते रहे इसलिये उनका काल निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है। दूसरा कारण है- वेद को छोड़कर समस्त शास्त्रीय साहित्य में समय-समय पर मिलावट होती रही है, जिस कारण ग्रन्थ के मूलपाठ को प्रक्षेप से पृथक् करना एक कठिन और चुनौती वाला कार्य है। तीसरा कारण- भारत में क्रमबद्ध इतिहास लिखने की परम्परा बहुत कम मिलती है। हमारे देश में रामायण व महाभारत को छोड़कर बचे इतिहास ग्रन्थ कम ही मिलते हैं। इतिहास के लिये पुराणों का अध्ययन आवश्यक है, परन्तु इनमें मिलावट होने के कारण तथ्यों को छांटना कठिन कार्य है। फिर चौथा कारण है- इस देश की दासता की लम्बी अवधि और मुसलमानों द्वारा साहित्य को जलाना और अंग्रेज, डच, फ्रेंच आदि द्वारा साहित्य, संस्कृति कला की वस्तुओं को इस देश से उठा ले जाना। ऐसी परिस्थिति में इतिहास न होने का दोष किसे दिया जा सकता है। रामायण में भी प्रक्षेप हैं जिसका लाभ पोलॉक उठाना चाहता है। रामायण में एक श्लोक आता है-यथा हि बुद्धस्तथा हि चौर– जैसा बुद्ध वैसा चोर, जैसी पंक्तियों के आधार पर आप रामायण को बुद्ध के बाद बताना चाहते हैं, पर पहले रामायण की प्राचीनता को प्रतिपादित करने वाले प्रमाणों का खण्डन करना होगा। जिसे शैल्डन पोलॉक का शोध स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है।

एक और महत्त्वपूर्ण शोध कार्य शैल्डन पोलॉक ने किया है, उस पर भी दृष्टिपात् करना उचित होगा। शैल्डन पोलॉक अपने शोध कार्य से इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि रामायण हिन्दुओं की मरी हुई, दबी-कुचली इच्छाओं, अपूर्ण-दामित कामवासनाओं को काव्य के माध्यम से प्रकाशित कर सन्तुष्टि पाने वाला ग्रन्थ है। इसमें दबी इच्छाओं और उनको पूर्ण करने में आने वाले भय का निरुपण किया गया है। शैल्डन पोलॉक की दृष्टि में हिन्दू समग्ररूप से विकृत काम-वासना से ग्रसित समुदाय है। यह पोलॉक ही नहीं, बहुत सारे योरोपियन अमेरिकन वर्ग के लेखक भी कहते हैं, पिछले दिनों वेन्डीडोनिगर की एक पुस्तक निकली ‘हिन्दू-एन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री’। इस पुस्तक में क्या होगा इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पुस्तक के मुख पृष्ठ पर एक नग्न महिला पर चढ़कर कृष्ण को बांसुरी बजाते हुये दिखाया गया है। यह मनोविकृति कृष्ण की है या हिन्दुओं की अथवा वेन्डिडोनिगर और उनके साथी यूरोप, अमेरीकी शोधकर्त्ता की- यह समझना कठिन नहीं है।

पोलॉक के शोध में सारा प्रयास यह दिखाई देता है कि वह समाज को टुकड़ों में बँटा हुआ और एक-दूसरे के विरोध में खड़ा हुआ देखना चाहता है। वह संस्कृत को क्षेत्रीय भाषाओं के विरोध में, बौद्धों को हिन्दुओं के विरोध में, हिन्दुओं को मुसलमानों के विरोध में, पुरुषों को स्त्रियों के विरोध में, ब्राह्मणों को दलितों के विरोध में, सवर्णों को शूद्रों के विरोध में खड़ा करना चाहता है। सारे प्रयत्न उसके शोध के निष्कर्ष के रूप में दिखाई देते हैं। इस समाज में पोलॉक को सब कुछ खराब और घटिया दिखाई देता है। उसकी सद्भावना इतनी ही है कि वह हिन्दू समाज को इस कलंक से दूर करना चाहता है, इसलिये वह इस समाज को संस्कृत से बचने और दूर रहने की सलाह देता है, जिससे यह समाज बौद्धिक स्वतन्त्रता का अनुभव कर सके और योरोप-अमेरीका के शोध कर्त्ताओं का धन्यवाद कर सके, उनके आदर्शों पर चलकर अपना जीवन धन्य मान सके।

इस सारी शोध मानसिकता की भूमि में जो बात है वो ये कि जब संस्कृत के विचारों की शोपनहावर ने प्रशंसा की तो वह भारत पर राज्य करने वाले अंग्रेजों को अच्छी नहीं लगी। एक ओर उन्हें भारत में पैर जमाने के लिये ईसाइयत के प्रचार-प्रसार में आने वाली मुख्य बाधा संस्कृत और वेद के रूप में आ रही थी। दूसरी ओर ऊपर से योरोप में संस्कृत के, वेद-ज्ञान के प्रशंसक हों यह उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगा। इसके बाद सर विलियम जोन्स ने संस्कृत का अध्ययन किया, उसमें वो अपनी नस्लीय श्रेष्ठता और बाइबिल की उच्चता को अपने मस्तिष्क से नहीं निकाल सके और इसी मानसिकता को लेकर उन्होंने जो शोध किये, पोलॉक उसी परम्परा का निर्वाहक है।

यह संस्कृ त भाषा और साहित्य का अध्ययन पहले संस्कृति स्टडी फिर तुलनात्मक व्याकरण (कम्पेरेटिव ग्रामर) कहा गया। बाद में इसका नाम भाषा विज्ञान (लिंलिंग्विस्टिक) हुआ। फिर भारतीय इतिहास और संस्कृति के अध्ययन के रूप में इन्डोलॉजी कहा गया। आजकल इस अध्ययन को दक्षिण एशिया के अध्ययन के रूप में साउथ एशियन स्टडी कहा जाता है। इस अध्ययन की एक ही विशेषता है, यह सारा अध्ययन शोध के लिये न होकर अपने प्रयोजन को सिद्ध करने के लिये किया जा रहा है। पहले योरोप और इंग्लैण्ड के विद्वानों ने इस अध्ययन से संस्कृत, भारतीय संस्कृति और इतिहास को अपनी तरह से व्याष्यायित करके भारतीयों को पढ़ाने का काम किया। अब अमेरिकी विद्वान् शैल्डन पोलॉक जैसे लोग भारत के संस्कृत इतिहास, संस्कृति, भाषा के विषय में हमें बताने का  प्रयास कर रहे हैं।

इस सारे शोध और अध्ययन की विशेषता है- भाषा भारत की, संस्कृ ति यहाँ की इतिहास भारतीयों का, परम्परा भारतीयों की और निर्णायक हैं मैक्समूलर और शैल्डन पोलॉक। किसी देश की इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि उसके साहित्य, इतिहास, संस्कृति की व्याख्या करने का अधिकार विदेशी और शत्रु के हाथ में हो।

यह अधिकार उन्होंने अपने हाथ में बलपूर्वक ले लिया है, क्योंकि उन्होंने इस अपने से जोड़ने वाली वस्तु भाषा को हम से छीन लिया । आज हम हमारे विषय उनकी भाषा में पढ़ते हैं तो फिर वो जैसा चाहते है। उसे वैसा ही पढ़ना और समझना भी पड़ता है, इसे कहते हैं- मियाँ जी की जूती, मियाँ जी का सर। आज हम संस्कृत को भी उन्हीं की पद्धति से पढ़ते हैं। मनुष्य अपनी भाषा बोलना और समझना पहले सीखता है। लिखना और पढ़ना बाद में आता है पर अंग्रेज हमको संस्कृत लिखना-पढ़ना पहले सिखाता है। बोलना समझना हमें आता नहीं। इसी आधार पर वह कहता है कि जिसमें बोला न जाय और बोला हुआ समझा न जाय- वह भाषा मृत भाषा है।

अन्त में शैल्डन पोलॉक का शोध समझाता है कि रामायण में कुछ भी अच्छा नहीं, सम्भवतः यह विचार भी नहीं-

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

– धर्मवीर