Category Archives: Dr. Dharmveer Paropkarini Sabha Ajmer

मेरे अंतेवासी बन्धु : डॉ. धर्मवीर: -स्वामी वेदात्मवेश

मैं और डॉ. धर्मवीर जी एक ही कुल के अन्तेवासी थे। वह महर्षि दयानन्द सरस्वती के कर्मठ, तपस्वी, प्रिय शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द की तप:स्थली गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार थी। वहाँ से डॉ. धर्मवीर जी ने एम.ए. और आयुर्वेदाचार्य किया और मैंने वेदालंकार। श्रद्धेय तप:पूत, सरल, प्राञ्जल, गुरुवर्य पं. रामप्रसाद जी वेदालंकार, आर्यनगर, ज्वालापुर हरिद्वार में उनके आवास पर मैं वेदपठन के लिये गया था। तब डॉ. धर्मवीर जी अपनी धर्मपत्नी ज्योत्स्ना जी के साथ स्नातक से पदौन्नत हो ‘नव-गृही’ (गृहस्थी) बन आचार्य जी को प्रथम बार मिलने आये थे। उस समय आर्यसमाज और गुरुकुल का स्वर्णिमकाल था। अतित के गुरु शिष्य के गौरवशाली संबन्ध का कितना सुन्दर निरुपण है यह रूपक। अन्तेवासी आचार्य चरणों में समित्पाणि होकर आया था। ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’ पवित्र ऋषियों की तपस्थली की तरह वेद की ऋचाओं के अनुरूप स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गुरुकुल काँगड़ी की स्थापना की थी और वेद का यह संदेश सामने रख कर गुरुकुल भूमि का चयन किया था।

उपह्वरे च गिरीणां संगमे च नदीनाम्।

धिया विप्रो अजायत।।  यजु.।।

गुरुकुल के दीक्षान्त समारोह में यह कुलगीत सब दीक्षित स्नातकों की हृत्तन्त्रि को झंकृत करने वाला ओजस्वी संदेश देता था। प्राणों से हमको प्यारा है कुल हो सदा हमारा। विष देनेवालों के  भी बन्धन कटाने वाला। मुनियों का जन्मदाता कुल हो सदा हमारा। कट जाय सिर न झुकना यह मन्त्र जपने वाले वीरों का जन्मदाता कुल हो सदा हमारा। तन मन सभी निछावर कर वेद का संदेशा जग में पहुँचाने वाला। कुल हो सदा हमारा। स्वाधीन दीक्षितों पर सब कुछ लुटाने वाले धनियों का जन्मदाता, कुल हो सदा हमारा। हिमशैल तुल्य ऊँचा भागीरथी-सा पावन, बटुक का मार्ग दर्शक कुल हो सदा हमारा। अदित्य ब्रह्मचारी ज्योति जगा गया है अनुरूप पुत्र उसका कुल हो सदा हमारा।

ऐसे ओजस्वी आर्यसमाज के प्रहरी, कर्मठ, कुलपुत्र के रूप में डॉ. धर्मवीर जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन देश जाति, संस्कृति, समाज के लिये समर्पित किया था। प्रखर राष्ट्रवादी पंजाब केसरी ला. लाजपतराय आर्य समाज को अपनी ‘माँ’ मानते थे। उस आर्यसमाज रूपी ‘माँ’ को जिस पुत्र पर गर्व अनुभव हो ऐसे गौरवशाली सुपुत्र थे, डॉ. धर्मवीर। बचपन में कभी सुनते थे ‘‘महानाश की ज्वालायें भारत पर दौड़ी आ रही हैं, आर्यों तुमको कुछ करना है मानवता चिल्ला रही इस धरती पर कौन बढेगा हमें बता दो आर्यसमाज!! कौन बढेगा? आर्यसमाज!! कौन बढेगा? आर्यसमाज!!’’ व्यक्तिश: मैं डॉ. धर्मवीर जी के रूप में ‘परोपकारी’ पत्रिका के माध्यम से आर्यसमाज के बढते चिह्नों से निश्चिन्त था कि आर्यसमाज का एक प्रहरी अभी जिन्दा है। व्यक्तिश: मेरा डॉ. धर्मवीर जी और ज्योत्स्ना जी दोनों परिवार से जुड़ाव रहा। परोपकारी के सम्पादक श्री धर्मवीर जी के रूप में। यह आश्वासन उनकी उपस्थिति मात्र से मिलता था। बस आज वह भी स्वप्र भी भंग हो गया। डॉ. धर्मवीर जी से श्वसुर भारतेन्द्रनाथ जी से हमारा जुड़ाव था, पृष्ठभूमि थी आर्यसमाज, जो बाद में वेदभिक्षु बने। वे दयानन्द के दीवाने थे। तब पं. राकेशरानी का ‘जनज्ञान’ के माध्यम से हमें पत्र मिला- कौन करेगा स्वीकार, मेरे राखी के ये तार। तो हमने भी हम करेंगे स्वीकार, आपके राखी के ये तार। के उत्तर के रूप में ‘जनज्ञान’ में एक लेख भी दिया था। तब मैं श्रीमद् दयानन्द ब्राह्म महाविद्यालय (उपदेशक महाविद्यालय) हिसार, हरियाणा में पढ़ता था। बाद में गुरुकुल काँगड़ी आया। ज्योत्स्ना जी के साथ जब डॉ. धर्मवीर जी के वाग्दान का निश्चय हुआ था तब मैं दोनों ओर से था। दिल्ली में डॉ. योगानन्द शास्त्री के यहाँ वह आयोजन था। तब यज्ञ में आर्यजगत् के  प्रथित यश आर्य संन्यासी डॉ. सत्यप्रकाश जी भी उपस्थित थे। डॉ. धर्मवीर जी के  अनुज भाई प्रकाश जी तब गुरुकुल काँगड़ी में हमारे साथ पढ़ते थे। महाराष्ट्र के गुंजोटी से जुड़े होने से प्राध्यापक जिज्ञासु जी के माध्यम से मेरी और श्री भारतेन्द्रनाथ जी (वेदभिक्षु) से उनके करौल बाग स्थित ‘जनज्ञान’ कार्यालय में मेरा प्रथम परिचय हुआ था। चूंकि शोलापुर दयानन्द कॉलेज में प्राध्यापक जिज्ञासु जी मेरे बड़े भाई श्री शिवराज आर्य ‘‘बेधडक़’’ एवम् मुझसे वे पूर्व परिचित थे। जन्म स्थली गुंजोटी से उनका विशेष लगाव रहा है। जिसे वे प्यार से आज भी अपने पंजाबी लहजे में गंजोटी (महाराष्ट्र) ही कहते हैं। जिसे आर्यजगत् के  विद्वान् आचार्य विश्वबन्धु जी जो गुँज उठी वह गुंजोटी अपने व्याख्यानों में उसका निर्वचन करते थे। आज आर्यसमाज में सक्रिय स्व. पं. दिगम्बरराव गुरुजी, श्री रमेश गुरुजी, श्री काशीनाथ गुरुजी, पं. प्रियदत्त शास्त्री जी, पं. रायाजी शास्त्री जी, श्री प्रताप सिंह चौहान इसी गुंजोटी की देन हैं। जो भूमि हैदराबाद के सत्याग्रह के समय हुये प्रथम बलिदानी हुतात्मा वेदप्रकाश के बलिदान से पावन हुई है जिसकी मिट्टी की महकती खुशबू ने आचार्य डॉ. धर्मवीर जी को अभी हाल ही में वहाँ बुलाया था और वाग्मी धर्मवीर जी ने वहाँ की जनता को अमृतमय् वेदोपदेश से खुब संतृप्त भी किया था।

गुरुकुल काँगड़ी ने आर्य जगत् में पत्रकारिता के बड़े-बड़े मानदंड स्थापित किये हैं। १९७५ के बाद दैनिक हिन्दुस्तान से अलग होकर पं. क्षितिज वेदालंकार ने ‘आर्यजगत्’ को जिस ऊँचाई पर पहुँचा दिया था अथवा उससे पूर्व ‘आर्योदय’ एवं ‘जनज्ञान’ के माध्यम से भारतेन्द्रनाथ जी ने जो यश आर्यजगत् में अर्जित किया था। बाद में वही यश डॉ. धर्मवीर जी ने ‘परोपकारी’ पत्रिका के माध्यम से अर्जित किया और एक मानदंड स्थापित किया। वर्तमान में आर्यजगत् में सम्पादन कौशल में डॉ. धर्मवीर जी कवि कुलगुरु कालिदास की तरह ‘कनिष्ठिकाधिष्ठित धर्मवीर:’ ऐसा कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। डॉ. धर्मवीर जी के लेखन में निर्भिकता, प्रज्ञा की विलक्षण अद्भुतता, प्रवाह, अन्वेक्षा, लाघव, सरलता, दृढ़ता, समन्वय एवं प्रासंगिकता का सुन्दर, सन्तुलित समायोजन मिलता है। डॉ. धर्मवीर जी वर्तमान के  ‘आर्यसमाज की आशा की किरण’ थे। बस आज दु:ख के साथ यह बताने में हमें यद्किंचित भी संकोच नहीं है कि सम्पूर्ण आर्यसमाज का नेतृत्व आर्यसमाज की गाड़ी को पटरी से उतारने में मशगूल है। जिस वाटिका का माली दयानन्द था उसको उजाडऩे में लोग लगे हैं। असली, नकली, फसली आर्यसमाजियों के बीच नकली, फसली लोगों का बोलबाला अधिक है, जबकि असली ‘विजनवास’ को भोगने के लिये अभिशप्त हैं। यह आर्य समाज ही नहीं देश और विश्व के लिये बड़ी पीड़ा एवं यन्त्रणा का विषय है। इस तरह की जटिल राजनीति की दुर्भिसन्धि के मध्य डॉ. धर्मवीर जी की अन्त:पीड़ा उनके सम्पादकीय के माध्यम से पुन:-पुन: उजागर होती थी। जो सच्चे आर्यसमाजियों क ो उत्साह और निरन्तर प्रेरणा देती रहती थी। डॉ. धर्मवीर जी के शंकराचार्य, विवेकानन्द का हिन्दुत्व और हाल ही में स्वतन्त्रता दिवस पर मोदी जी द्वारा दयानन्द का उल्लेख न होना -भय या अज्ञान, अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी और अन्यान्य भारतीय भाषाओं को बढावा देने वाली एक उनकी समसामयिक सम्यक सुलझी हुई सोच, उनके द्वारा लिखित सम्पादकीय में दूरदृष्टि को ही रेखांकित करती है। मैं अभी हाल ही में माता राकेश रानी जी को मिलने दिल्ली गया था। तब ज्योत्स्ना जी से उनकी बहन सुमेधा जी के साथ परिवार की चर्चा चल रही थी। सुमेधा जी के अन्यत्र जाने पर ज्योत्स्ना जी और हमारे मध्य चर्चा का एक ही विषय था। वे थे डॉ. धर्मवीर जी। मैं काफी अन्तराल के बाद ज्योत्स्ना जी को मिला था। डॉ. धर्मवीर जी का विषय आते ही अपने पिता की तरह सरल, स्पष्टवादी ज्योत्स्ना जी भावुक हो गई थी। डॉ. धर्मवीर जी नहीं बनते यदि ज्योत्स्ना जी का उन्हें पूरा-पूरा सहयोग साथ नहीं मिलता। ज्योत्स्ना जी कहती हंै वे गृहस्थी संन्यासी थे। ऐसा ही रूप उनके पिता का भी था। पं. भारतेन्द्रनाथ जी और डॉ. धर्मवीर जी से आर्यजगत् को बड़ी आशायें थीं। माता राकेशरानी जी ने पं. भारतेन्द्रनाथ जी के न होने पर जो भोगा, वो डॉ. धर्मवीर जी के न होने पर ज्योत्स्ना जी को सहना पड़ रहा है, किन्तु उनके होठों पर उफ तक नहीं है। आर्यसमाज को ऐसी गौरवशाली बेटियों पर, विरांगनाओं पर सती साध्वी माता बहनों और देश धर्म पर आत्मोत्सर्ग करने वाली देवियों एवं सन्नारियों पर गर्व है। इनका आत्मोत्सर्ग ही इस देश को आर्यसमाज को संजीवनी देगा। जीवन एवं चैतन्य देगा इसमें संदेह नहीं। मैंने तब ज्योत्स्ना जी को कहा था। ज्योत्स्ना जी व डॉ. धर्मवीर जी नोबल पुरस्कार प्राप्त ‘श्री कैलाश सत्यार्थी’ से भी किसी भी रूप में कम हस्ती नहीं हैं। भारतेन्द्रनाथ जी और माता राकेशरानी जी को उनके इन दो मानसपुुत्रों पर निश्चित रूप से गर्व होगा। ये दोनों मानसपुत्र उनकी दो आँखें रही हैं। डॉ. धर्मवीर जी ज्ञान के समुद्र थे। आर्यसमाज को ऐसे कर्मठ ओजस्वी युवाओं की आवश्यकता है।

आर्यसमाज का अतीत उज्जवल रहा है। आर्यसमाज ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के बाद पं. गुरुदत्त, श्यामजी कृष्ण वर्मा, स्वामी श्रद्धानन्द, ला. लाजपतराय, पं. लेखराम, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द, स्वामी वेदानन्द, स्वामी आत्मानन्द, नारायण स्वामी, आचार्य अभयदेव, स्वामी ब्रह्ममुनि, स्वामी ओमानन्द सरस्वती जैसे लोगों के मध्य आर्यसमाज का ही नहीं देश का भी उज्जवल काल देखा। एंड्रू डेविड जेक्सन को एक आग दिखाई देती थी जो आदित्य ब्रह्मचारी दयानन्द के अन्तस् में उद्बुद्ध हुई थी। उस अग्रि को स्वामी श्रद्धानन्द के परम शिष्य डॉ. धर्मवीर जी ने निरन्तर जलाये रखा।

श्रद्धया अग्रि: समिध्यते श्रद्धयाहूयते हवि:।

श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि।।

संसार की कोई भी अग्रि श्रद्धा के बिना प्रदिप्त नहीं होती और कोई भी बलिदान श्रद्धा के बिना किया नहीं जा सकता। डॉ. धर्मवीर जी को यह मन्त्र प्रिय था। वे मरे नहीं राष्ट्र, समाज, संस्कृति और मानवता के लिये अपनी आत्मा की ही नहीं सर्वस्व की आहुति दी है। यह आत्म-बलिदान आर्यजगत् को निरन्तर प्रेरणा देता रहेगा और इस अग्रि स्फुलिंग से हजारों ‘धर्मवीर’ और पैदा होंगे। इसमें संदेह नहीं। धर्म पर ‘धर्मवीर बलिदान’ हुये हैं इसमें अत्युक्ति नहीं। धर्मवीर जी का न होना आर्यजगत् को निश्चय ही खलेगा, किन्तु उनकी यश: काया को कोई नहीं मार सकता। अपने कार्य एवं परोपकारी पत्रिका के सम्पादकीय के माध्यम से डॉ. धर्मवीर हमेशा अमर रहेंगे।

उत्पद्यन्ते म्रियन्ते च बहव: क्षुद्र जन्तव:।

अनेन सदृश्यो लोके न भूतो न भविष्यति।

ऐसे लोकोत्तर युग-मानव को विश्व लम्बे समय तक भुलाये नहीं भूल सकता। संसार में कोई भी प्राणी मृत्यु के चंगुल से बच नहीं सकता। महाकाल ने प्रत्येक जीव को अपने पाँव तले दबोच रखा है जिस दिन उसकी इच्छा होती है उस दिन उस पाँव को दबाकर प्राणी को मृत्यु कुचल डालती है। समाप्त कर देती है, विशेषत: शरीर धारी मानव में आत्म-शक्ति का प्रकाश करने के लिये ही आत्मा शरीर को धारण करती है। अत: शरीर पाकर इस जगत् में संसार में आई सब महान् आत्मायें इस संसार में कुछ न कुछ जगत् हितकारी वस्तु का सृजन करके जगत् में उच्च से उच्च ऐश्वर्य को बढ़ा्रकर चली जाती है। अत: डॉ. धर्मवीर जी जैसे वेदवीणा के मधुरगान करने वाले हमें यही संदेश देंगे-‘‘हे अमर पुत्रों उठो! जागो! मरणधर्मा जीवन के सुखसुविधाओं के पिछलग्गु बनना छोड़ो। बेकार में मुरझायी, गिरी हुई तबीयत वाला जीवन क्यों ढोते हो? शुद्ध, पूत समर्पित और आत्म बलिदानी उन्नत जीवन जीकर मृत्यु के पैर को परे हटाकर, अपने अमरत्व की घोषणा कर दो।’’

‘कीर्तिर्यस्य स जीवति।’ का संदेश देते हुये डॉ. धर्मवीर जी हमें मानो कह रहे हैं ‘मरना एक कला एक चाँस है।’ निरन्तर यात्रा करने वाले ‘यायावर’ धर्मवीर जी अब एक लम्बी यात्रा के लिये निकल गये हैं। हमें उपनिषदों का यह संदेश देते हुये चरैवेति! चरैवेति! धर्म के लिये, सत्य के लिये, न्याय के लिये, परोपकार के लिये, करुणा के लिये, मानव मात्र के कल्याण के लिये निरन्तर अनथक चलते रहे। ऋषिवर देव दयानन्द के इस सन्देश को कदापि न भूलें कि ‘‘संसार का उपकार करना आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य है।’’ इस लक्ष्य को पूरा करके ही हम डॉ. धर्मवीर जी को सच्ची श्रद्धाञ्जलि दे सकते हैं। आज राष्ट्र्र, समाज, राजनीति, धर्म, संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रहे है। चरित्र की अपेक्षा धन का नशा समुचे विश्व को अक्रान्त कर रहा है। ऐसे समय में मनु महाराज का यह सन्देश भारत ही नहीं समूचे विश्व को प्रेरणा देगा।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मना।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा।

काल इन्द्र समय-समय पर भारी-भारी आहुतियाँ माँगता है और इसी से यह संसार निरन्तर उन्नत हो रहा है। वह महाकाल समय-समय पर बड़े-बड़े बलिदान चाहता है, आत्मबलिदान की हवि चाहता है। ‘उत्तिष्ठत अव पश्यत’।। ‘ऋग्वेद १०.१७९.१’ इस ऋग्वेद की ऋचा के अनुसार उठो! खड़े हो और सावधानी से देखो ‘ऋत्वियं भागं जुहोतन’ समय-समय पर दिये जाने वाली ‘आत्म बलिदान’ रूपी हवी को दो। स्वामी दयानन्द जैसे सर्वात्मना बलिदानी ने जिसकी नींव डाली। स्वामी श्रद्धानन्द, लेखराम जिस भवन पर खड़े हुये, उस पर डॉ. धर्मवीर जैसे गर्वोन्नत कलश शिखर विश्वसागर में ‘दिपस्तम्भ’ बनकर सर्वदा मार्गदर्शन करते रहेंगे, इसमें सन्देह नहीं।

पर्यावरण की समस्या – उसका वैदिक समाधान: डॉ धर्मवीर

जब मनुष्य को जैसी आवश्यकता होती है, जैसी इच्छा करता है। यदि उसकी वह इच्छा पूरी हो जाती है तो सुख अनुभव करता है, इच्छा के पूरा होने में बाधाएँ आती हैं तो दु:ख अनुभव करता है, इसलिए आवश्यकता, इच्छा और समाधान के क्रम में सन्तुलन बना रहना चाहिए। सन्तुलन बनाये रखना प्राकृतिक नियम है। प्रकृति अपने स्वाभाविक क्रम में सन्तुलन की प्रक्रिया को निरन्तर जारी रखती है। वर्षा का जल भूमि पर गिरकर तथा अन्य तत्त्वों के साथ मिलकर अशुद्ध होता है। मनुष्यों, पशुओं, प्राणियों के द्वारा उपयोग में लिया जाकर उत्सर्जित पदार्थों के संयोग से मलिनता को प्राप्त होता है और बहकर नाली, नाले, नदी बनकर समुद्र में मिल जाता है या तालाबों में एकत्रित हो जाता है। प्रकृति इस अशुद्ध जल को वाष्पित करके पुन: शुद्ध कर देती है। मनुष्य शुद्ध तत्त्व जलवायु, पृथ्वी, अग्नि, आकाश के माध्यम से प्राप्त करता है, परिणामस्वरूप मनुष्यों से प्राप्त अशुद्धता को प्रकृति अपने नियम से शुद्ध कर देती है। इस प्रकार मनुष्य जो प्रकृति से प्राप्त करता है, वह उसका शुद्ध रूप होता है तथा जो प्रकृति को देता है, उसमें विकृति होती है। विकृति की मात्रा जब प्राकृतिक नियम से दूर होना कठिन हो, तब समस्या का जन्म होता है। प्रकृति में विषमता की मात्रा अधिक होने पर वर्षा का जल भी दूषित होने लगता है। इसी प्रकार वायु, भूमि और ध्वनि से प्रदूषण बढक़र प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ देता है, परिणामस्वरूप मनुष्यों व अन्य प्राणियों के लिए प्रकृति से उन्हें आवश्यक तत्त्व प्राप्त नहीं हो पाते, इस अभाव की स्थिति को हम पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं।

प्रश्न उठता है कि प्रकृति में असन्तुलन क्यों उत्पन्न हुआ? दो कारण हो सकते हैं- प्रथम प्रकृति की क्षमता का घट जाना, दूसरा मनुष्यों द्वारा प्रकृति की क्षमता से अधिक का उपयोग करना। इसमें प्रथम कारण सम्भव नहीं, क्योंकि प्रकृति अपनी पूर्ण क्षमता के साथ हमारे सामने हैं। प्राणियों द्वारा विशेषकर मनुष्यों द्वारा प्रयोग में लाये जाने पर प्राकृतिक तत्त्वों की न्यूनाधिकता हम अनुभव करते हैं, इसलिए प्रकृति से सामंजस्य बैठाने के लिए प्रकृति को कुछ नहीं करना, जो कुछ करना है मनुष्य को ही करना है। ऐसी स्थिति में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने वालों की संख्या अधिक होगी तो आवश्यक तत्त्व अधिक मात्रा में अपेक्षित हैं। उन्हें कैसे पूरा किया जाए? उनकी पूर्ति के लिए एक तरीका तो यह है कि उपभोक्ताओं की संख्या कम की जाए। यह मानवीय पक्ष नहीं हो सकता है, फिर इसका निर्णय कौन करेगा कि इस संसार में जीवित रहने का अधिकार किसे है और किसे नहीं, तो प्रकृति के अनुसार योग्यतम की विजय का सिद्धान्त स्वीकार करने पर मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रहेगा, इसलिए मनुष्यता का पक्ष है कि जो प्राप्त है, उसका सम्यक् विभाजन और प्रदूषण पर अंकुश। यही पर्यावरण की समस्या का सम्भव समाधान है।

पर्यावरण की समस्या पहले विचार में उत्पन्न होती है, पश्चात् व्यवहार में, इस कारण मनुष्य का प्रकृति से सम्बन्ध आदिकाल से चला आ रहा है और यथार्थ है, इस कारण अन्य बातों के विचार के साथ प्रकृति से उसके सम्बन्धों पर भी उसने विचार किया हो, यह स्वाभाविक है। जिस प्रकार आज की परिस्थितियों ने मनुष्य को सोचने के लिए बाध्य किया है, उसी प्रकार पहले भी कोई प्रसंग आया हो, जब मनुष्य को इस दिशा में सोचने की आवश्यकता अनुभव हुई हो। पुराना चिन्तन पुरातन साहित्य में सुलभ है। भारतीय साहित्य की विशाल सम्पदा आज भी हमें प्राप्त है। उस अनुभव से आज हम अपने ज्ञान को समृद्ध करते हैं। पर्यावरण के विषय में यत्र-तत्र विचार बिखरे मिलते हैं। उन विचारों को लेकर यदा-कदा समाचार पत्रों में लेख भी प्रकाशित होते हैं। इस प्रकार यदि इन विचारों को संग्रह कर व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया जा सके तो आज की इस ज्वलन्त समस्या के समाधान में निश्चित सहायता मिल सकती है।

भारतीय चिन्तक और पाश्चात्य चिन्तन परम्परा में मौलिक अन्तर है। पाश्चात्य चिन्तन पहले लाभ के अवसरों का पूर्ण दोहन करने में विश्वास करता है, फिर उत्पन्न समस्या के समाधान का उपाय खोजता है। जैसे लाभ प्राप्त करना ध्येय होने से कुछ लोग ही उससे सम्पन्न होंगे, परन्तु  उसके दुष्प्रभाव और हानियाँ अधिक होंगी और अधिक लोगों को प्रभावित करेंगी, उसका समाधान बड़े स्तर पर अधिक व्यय-साध्य होता है। इसके विपरीत प्राचीन भारतीय मनीषी आवश्यकता के लिए स्वीकार करने और समाज की आवश्यकता के लिए उत्पादन करने को महत्त्व देते थे, इससे विभाजन और वितरण विके्रन्द्रित होता है, अत: सभी लोग समस्या के समाधान में सहभागी हो सकते हैं। पर्यावरण की समस्या के समाधान में भी सबकी सहभागिता आवश्यक है। इस बात को पुष्ट और प्रमाणित कर समाज को उत्तरदायित्व से अवगत कराना इस कार्य का उद्देश्य है। पर्यावरण की समस्या से परिचित व्यक्ति अपने स्तर पर भी समाधान में योगदान कर सकता है। उसे अपने प्राचीन साहित्य के तथ्य, उसका ध्यान इस ओर आकर्षित करने और उद्देश्य की ओर प्रेषित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं, क्योंकि इस देश की जनता में प्राचीन मर्यादा की स्थापना करने वाले पुरुषों ने पाप-पुण्य, धर्माधर्म के नाम से समाज में जो प्रथाएँ प्रचलित की हैं, उनके मूल में इस प्रकार की समस्याओं का समाधान निहित है।

विष्णु धर्मसूत्र में लिखा है कि जो व्यक्ति इस जन्म में जितने वृक्ष लगाता है, वे उसे परलोक में सन्तान के रूप में मिलते हैं-

वृक्षा रोपयितुर्वृक्षा: परलोके पुत्रा: भवन्ति

वराह पुराण में लिखा है- वृक्ष लगाने वाला नरक में नहीं जाता-

अश्वत्थमेकं पियुमन्दमेकं

न्यग्रोधमेकं दश पुष्प जाती:।

द्वे द्वे तथा दाडिम मातुलुंगे

पंचाम्र रोपी नरकं न याति।।

श्रद्धेय आचार्य डॉ धर्मवीर को प्रथम पुण्य तिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि

Dharmveer ji

भला समय बीतते भी कहीं समय लगता है? विश्वास नहीं होता कि डॉ. धर्मवीर जी को पार्थिवता से मुक्त हुये एक वर्ष हो गया। हो भी कैसे? एक दिन की …. है जो हमारे हृदय पटल पर उस दिव्य मूर्ति का सौम्य स्वरूप न प्रकट हुआ हो, जो हमारी सांसों के स्पन्दन में भीगी हुयी करुणा न छायी हो, जो हमारे कण्ठ ने फफक-फफक कर आहें न भरी हों, जो इन शुष्क आखों ने यह जानते हुये कि यह सम्भव नहीं है राह तकते-तकते तनिक आराम की ख्वाहिश की हो। पर समय पर जोर किसका? वह तो यूँ भी बीतेगा और यूँ भी।

हाय रे! निष्ठुर हृदय, निष्ठुरता पर आश्चर्य है। इतने संताप को तू सह कैसे गया?

हे आचार्य! जरा देखो तो, आपकी सजाई बगिया का हर नुक्कड़ आपकी बाट जोहता है। ये झील, ये पर्वत, ये उमड़ती हुयी बदलियाँ आपके गुञ्जायमान शब्दों के श्रवण को लालयित हैं। देखें इन वृक्षों को और लताओं को, इन खिलती हुयी कलियों की मजबूर हँसी को। लगता है जैसे हँसने की कोई कीमत ली हो इन्होंने। निरापद झूठी और फीकी हँसी। यह निष्प्राण उद्यान अब किसी बीहड़ वन सा मालूम होता है। न जाने क्यूँ? पर सब कछ नीरस सा हो गया है। सब कुछ बिखर सा गया है। किस-किस बात पर रोयें। उस जगन्नाथ के रहते हम स्वयं को अनाथ भी नहीं कह सकते, भला हम क्या जगत् से बाहर हैं? और सनाथ कहने का भी अब कोई कारण न रहा है। हाय! माता जी की अन्तर्वेदना को कौन मरणधर्मा जान सकता है। कौन सुन सकता है उनके दर्द की पुकार। अब तो आँसू भी थक गये है। किसका सामथ्र्य है जो उन पथरायी हुयी आँखों से आखें मिला सके। दिन में न जानें किनी बार एक ही प्रश्र उनकी जिह्वा पर उठता है बाकी सब ठीक पर धर्मवीर जी  क्यों …..? कदाचित् आपके पास इसका उत्तर हो।

काश….काश! कि आप इस पीड़ा को सुन पाते। पर अफसोस! ‘काश’ जैसे शब्द तो पीड़ा को बढ़ाने के लिये बनते हैं।

वो और दौर था जब संन्यासी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त और पं. लेखराम जैसे दिग्गजों की धाक् थी। स्वामी दर्शनानन्द, पं. गणपति और पं. चमूपति जैसे सूरमा विचरते थे। किसी एक के हाथ से पतवार छूटे तो पलक झपकते ही उसे दूसरा सम्भाल लेता था। पर आज तो आर्यजगत् की पतवार सिर्फ और सिर्फ आपके हाथ में थी। और कोई दीखता ही नहीं जो खिवैया बन सके। न जाने इस नैया को और कितना वक्त लगे अपना सिपैया ढूढऩे में। वैदुष्य के दर्शन को हमारी आखें तरस गयी हैं। वेद और उपनिषद् की बातें तो जैसे बातें ही बनकर रह गयी हैं। अब अगर विरोधी प्रश्र उठायें तो हमारी आँखें झुक जायेंगी। मगर हाँ! आपको ये जानकर सन्तोष होगा कि आपकी जलाई लौ मन्द बेशक पड़ी हो, पर बुझी नहीं है और हमारा विश्वास है कि दयानन्द के स्वप्र पर बलिहारी होने को फिर अनेकों धर्मवीर उठ खड़े होंगे। ऋषिवर की जय-जयकार चहुँओर गूँजेगी।

‘आप नहीं हैं’ इस सत्य को स्वीकार करने में हम अब तक समर्थ न हो पाये हैं। और शायद हो भी न सकें। यतो हि यह सत्य भी असत्य सा मालूम होता है और कदाचित् हो भी। आपकी वाणी और आपकी लेखनी आज भी हृदयों को झंकझोरने में समर्थ है। आपके व्याख्यानों को लिपिबद्ध किया जा रहा है। ये समस्त कार्य सदैव आपके होने की सूचना देते रहेंगे।

हे आचार्य! हमें प्रेरणा दीजिये कि हम आपके पथ के पथिक बन सकें।

 

नकली भगवान्: डॉ धर्मवीर

नकली भगवान्

पाठकगण! इससे पूर्व के अंक में सम्पादकीय को अन्तिम कहकर प्रकाशित किया गया था, परन्तु जब विश्व पुस्तक मेले के लिये श्रीमती ज्योत्स्ना जी दिल्ली गईं, तो उन्हें दिल्ली स्थित आश्रम के डॉ. धर्मवीर जी के कक्ष से यह लेख प्राप्त हुआ, जो कि सम्पादकीय के रूप में ही लिखा गया था। -सम्पादक

किसी भी चित्र को देखकर उसे पहचान लेते हैं, तो यह कलाकार की सफलता है। यदि हम एक चित्र को देखें, उसे कोई दूसरे नाम से पुकारे और किसी अन्य चित्र को किसी और नाम से, तो निश्चय ही नाम और आकृति की भिन्नता से वे दोनों चित्र दो भिन्न व्यक्तियों के होंगे। हम मन्दिर में राम की मूत्र्ति को देखकर उसे भगवान् की मूर्ति नहीं कहते, उसे हम भगवान् राम की मूर्ति कहते हैं। हनुमान् की मूर्ति को भगवान् नहीं कहते, भगवान् हनुमान् कहते हैं। भगवान् विशेषण है, राम, हनुमान् नाम है। अत: मूर्तियाँ भगवान् की नहीं हैं, भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की हैं। राम और हनुमान् की। भगवान् की मूर्ति होती तो दो नाम और भिन्न आकृतियाँ नहीं होती और एक मन्दिर में अनेक प्रकार की मूर्तियों की आवश्यकता भी नहीं होती। हर व्यक्ति किसी विशेष आकृति का उपासक है। अत: सभी को सन्तुष्ट करने के लिए सभी आकृतियों को भगवान् के रूप में स्थापित कर लिया जाता है।

सबसे विचित्र बात है- भगवान् को भोग लगाना। हम पूजा करते हुए यह मानते हैं कि भगवान् खाता है, पीता है। आजतक मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी भी बिना मुख खोले नहीं खा सकते। एक माँ अपने तत्काल उत्पन्न हुए शिशु को भी बिना मुख खोले अपना दूध नहीं पिता सकती, फिर हम हजारों वर्षों से भगवान् को भोग लगाने के नाम पर खिलाने का अभिनय करते हैं और उसे सत्य मानते हैं। घर आये अतिथि को खिलाने में, घर में पाले पशु, गाय, कुत्ते आदि प्राणियों को खिलाने में कष्ट होता है, परन्तु भगवान् को जीवनभर खिलाते हैं और खिलाने की सन्तुष्टि का अनुभव करते हैं, क्योंकि वह खाता ही नहीं। मन्दिर में जाकर भगवान् से माँगते हैं, परन्तु भगवान को अपने घर पधारने का निमन्त्रण नहीं देते, क्योंकि वह जड़ है, चल-फिर नहीं सकता।

जो सदा रहता है, वह कभी नहीं रहा, ऐसा नहीं हो सकता, परन्तु जड़ वस्तुओं से बनाया भगवान् आज होता है, कल नहीं होता। गणेश जी, देवी-देवताओं की प्रतिमायें गणेश चतुर्थी या दुर्गा-पूजा पर हजारों नहीं, लाखों की संख्या में कूड़े-कचरे से बनाई जाती हैं, उनको पण्डाल में सजाया जाता है, उनकी पूजा आरती की जाती है, भोग लगाया जाता है, उनसे प्रार्थनाएँ की जाती हैं, नमस्कार किया जाता है और अगले दिन कचरे के ढ़ेर पर फेंक दिया जाता है। इस प्रकार कचरे से बना भगवान्, वापस कचरे में चला जाता है। यदि जड़ वस्तु को आप भगवान् मानते हैं तो मूर्ति बनने से पहले भी कचरा भगवान् था और वापस कचरे में फेंकने के बाद भी भगवान् ही रहेगा, परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं होता, अत: जड़ वस्तु भगवान् नहीं है। आप उसे कुछ समय के लिए भगवान् मान लेते हैं। इसीलिए गणेश विसर्जन के पश्चात् समुद्र में फेंके गये चित्रों के नीचे लिखा था- कचरे का भगवान् कचरे में।

कभी कोई बात लाख उक्ति, प्रमाणों से नहीं समझाई जा सकती, वह घटना से एक बार में समझ में आ जाती है।

एक बार दिल्ली में वेद मन्दिर में स्वामी जगदीश्वरानन्द जी के निवास पर एक परिवार उनसे भेंट करने आया, परिवार दिल्ली का ही रहने वाला था। पति-पत्नी दोनों केदारनाथ की यात्रा करके लौटे थे। सब कुशलक्षेम की बातें होने के बाद अपनी यात्रा का वृत्तान्त सुनाते हुए एक रोचक घटना सुनाई, जो बहुत शिक्षाप्रद है-

केदारनाथ मन्दिर में प्रात:काल वे दोनों दर्शन के लिए गये। भीड़ बहुत थी, पंक्ति में खड़े थे, उनके पीछे एक वृद्ध राजस्थान से भगवान् के दर्शन के लिये आया था, वह भी पंक्ति में चल रहा था। उन्होंने बताया मन्दिर में पहुँचे, मूर्ति के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे, पीछे के वृद्ध व्यक्ति ने दर्शन करते हुए वहाँ खड़े पुजारी से प्रार्थना की- पुजारी जी, बहुत वर्षों से भगवान् के दर्शनों की इच्छा थी, बड़ी दूर से चलकर आया हूँ। थोड़ी देर खड़े रहने दीजिए, जिससे भगवान् के भली प्रकार दर्शन कर सकूँ, यह सुनकर पुजारी झल्लाया और उस वृद्ध को आगे की ओर धक्का देते हुए बोलो- तुझे दो मिनट में भगवान् क्या दे देगा? मैं यहाँ बत्तीस साल से खड़ा हूँ, मुझे आज तक  कुछ नहीं दिया। चलो, आगे बढ़ो। यह है भगवान् की वास्तविकता। यदि कोई भी भगवान् प्रभावशाली होते तो पुजारी, पादरी, ग्रन्थी, मुल्ला, मनुष्य समाज में आदर्श जीवन के धनी होते, परन्तु पाप सम्भवत: सामान्य भोगों की अपेक्षा इनके पास अधिक है, क्योंकि ये भगवान् से डरते नहीं, उन्हें वास्तविकता का पता है।

योगदर्शन में ईश्वर की पहचान बताते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।।

– धर्मवीर

हमने खो दिया लेखराम के पथ पर चलने वाला: – पं. जागेश्वर प्रसाद ‘निर्मल’

दयानन्द और वेद के लिये, जीने मरने वाला।

हमने खो दिया लेखराम के पथ पर चलने वाला।।

देश-विदेश का कोना इनके लिये http://aryamantavya.in/wp-admin/post-new.phpमुहुर्मुह छाना,

वे गृहस्थ में संन्यासी थे, सबने इनको माना।

कौन है उनके जैसा तप और त्याग को करने वाला,

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

अद्भुत था अधिकार वेद, उपनिषद और दर्शन पर,

मुख खुलता तो शब्द सुमन से, झरते थे सुन्दर तर।

उनके जैसा मिला न कोई सत् पर अड़ने वाला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

सभी जगह श्री धर्मवीर ने पहुँचा दी परोपकारी,

आर्य जगत् की एकमात्र पत्रिका बन गई हमारी।

होता था सम्पादकीय उनका सबसे ही आला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

ऋषि उद्यान को तीर्थधाम में करना है परिवर्तित,

आज हम सभी को मिलकर के करना यही सुनिश्चित्।

दूर हो गया रेखाचित्र में रंग का भरने वाला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

वाणी, कलम, कर्म तीनों से साथ हो उनकी पूरी,

उनके किसी भवन की हो दीवार न कोई अधूरी।

उसके किसी प्रकल्प का दीपक नहीं हो बुझने वाला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

सदा सरलता और सादगी उनके जैसी धारें,

देश, जाति और धर्म के लिये उन समान बन वारें।

होती रहे अतिथि-सेवा बन्द न हो गोशाला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

 

शाश्वत-स्वर: – धर्मवीर

सत्यधर्माय दृष्टये

धर्म संसार का अनिवार्य संचालक तत्त्व है। कोई भी व्यक्ति संसार में मिलना कठिन है, जिसके मन में विश्वास न हो। विश्वास और आस्था ही धर्म है। हो सकता है यह विश्वास किसी का जड़ के प्रति हो, दूसरे का चेतन के प्रति, एक का साकार के प्रति तो दूसरे का निराकार के प्रति। इस विश्वास के कारण ही मनुष्य जीवित है। यह धर्म ही मनुष्य के जीवन का आधार है, इसलिये धर्म चेतन का आधार है। धर्म मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। इसके बिना जीवन चल नहीं सकता, लेकिन सहज नहीं लगता कि धर्म क्या ऐसी मजबूरी हो सकता है, जिसके बिना जीवन का आधार समाप्त हो सके। भोजन मनुष्य के जीवन का आधार है, क्या धर्म भी भोजन की भांति अनिवार्य है? स्थूल रूप से ऐसा लगता नहीं परन्तु विचारकों की दृष्टि में इसका भी उतना ही महत्त्व है, जितना कि जीवन के आधार भोजन का। भोजन वित्त है, भोजन हिरण्य है, इसीलिये तो शोषण का हथियार है। संसार में शोषण का आधार आज अर्थ है। शोषण का साधन आज सत्ता है-शक्ति है, इसलिये बल आज शारीरिक बल का धनी शोषणकर्त्ता बन बैठता है।

इसी प्रकार आज धर्म को मार्क्सवाद से आधुनिक विचार तक शोषण का स्रोत माना जाता रहा है। यही आधार है कि धर्म मनुष्य की बड़ी मजबूरी है, अनिवार्य आवश्यकता है, तभी शोषण का साधन बन सकता है। जो वस्तु पोषण का, प्रगति का जितना बड़ा आधार होगी, शोषण के लिये वह उतनी ही सक्षम भी होगी।

अर्थ अन्न का प्रतीक है, जीवन धारण का प्रमुख व प्रथम साधन है इसलिये अर्थ को माध्यम बनाकर समाज का निर्देशन किया जा सकता है और किया जाता है। सब स्वीकार करते हैं, जीवन को सम्पूर्ण और सुखी बनाने के लिये राष्ट्र, समाज और व्यक्ति को आर्थिक दासता से मुक्त करना ही होगा। इसी प्रकार बल की दासता से, सत्ता की दासता से भी मुक्त हुये बिना नैतिक और मर्यादित आचरण के लिये मनुष्य के पास उपयुक्त वातावरण नहीं मिल पाता और यही स्थिति धर्म के साथ है। मनुष्य के शारीरिक, बौद्धिक विकास का लक्ष्य आत्मा का विकास है और इस लक्ष्य के आधार को ही धर्म कहा जाता है। प्रत्येक शरीर के लिये, बुद्धि के लिये, भावना के लिये सब आवश्यकताओं की भाँति धर्म की भी आवश्यकता है। मनुष्य मिथ्या विश्वास कर सकता है, अन्धविश्वास कर सकता है, धर्मान्ध हो सकता है परन्तु धर्मरहित नहीं हो सकता। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को धर्म का वास्तविक स्वरूप जानना चाहिये और जानना आवश्यक है।

जो धर्म नहीं जानता, वास्तविक धर्म नहीं पहचानता अथवा स्वार्थ पूर्ति को ही धर्म स्वीकार करता है तो वह धर्म के द्वारा ही अपने स्वार्थ को सहज पूरा करता है, क्योंकि ऐसा करके मनुष्य को उसकी आवश्यकता पूर्ति का आभास कराता है। जो आवश्यकता की पूर्ति करता है, वह उसका उपभोग कर सकता है, इस कारण धर्म का उपयोग संसार में सबसे अधिक किया जा रहा है। धर्म के नाम पर किसी से कुछ भी कराया जा सकता है, इस कारण धर्म अनिवार्यता है, मजबूरी है, इसलिए शोषण का आधार है। जैसे राज्य के शोषण को दूर करने के लिये राज्य को सर्वथा समाप्त नहीं किया जा सकता, जैसे अर्थ के शोषण से मुक्त होने के लिये मनुष्य भूखा और नंगा नहीं रह सकता, उसी प्रकार धर्म के शोषण से बचने के लिये मनुष्य अधार्मिक या अविश्वासी नहीं बन सकता। धर्म को त्यागा नहीं जा सकता, वह आवश्यकता है। हानि केवल तब होती है, जब विष को औषध समझ लिया जावे और अभक्ष्य को भक्ष्य। अतः वेद कहता है, जानने योग्य केवल एक वस्तु है और उसी के लिये सारा प्रयत्न करना चाहिए- वह है सत्य धर्म।

अधर्म के आवरण में धर्म छिप गया है, छिप जाता है, छिपा दिया जाता है, उसी आवरण के भेदन में सारा प्रयत्न करना है। वह आवरण आसानी से भेदन योग्य नहीं है, यह कार्य सरल होता तो वेद में ईश्वर से शक्ति की प्रार्थना करने की आवश्यकता न होती, यह आवरण बड़ा दृढ़, बड़ा रमणीय है, मोहक है, सत्य के ऊपर सबसे कठिन आवरण है, तो मोह का, मूढ़ता का है, मिथ्यापन है, इस कारण हम जो मानते हैं और जितना जानते हैं, उसी को सब समझ लेते हैं, उसी को सत्य समझ लेते हैं- उसके बिना छूटे और बिना टूटे अन्तर्निहित सत्य का साक्षात्कार सम्भव नहीं होता। हम सत्य का साक्षात् बिना किये सत्य से भय खाते हैं, यह सत्य का ही प्रभाव है। संसार का समग्र असत्य सत्य कहकर ही प्रचारित किया जा सकता है और किया जाता है। संसार का सारा अधर्म-धर्म के नाम पर ही चल सकता है। इस संसार में आज तक कोई भी ऐसा व्यक्ति, विचार या दर्शन नहीं बन सका जो असत्य को, अधर्म को, पाखण्ड को अधर्म के नाम पर चला सका हो, यही सबसे बड़ी आवश्यकता धर्म के रूप में, सत्य के रूप में हमारे सम्मुख आती है। शास्त्रकार धर्म को सत्य और सत्य को ही धर्म कहते हैं। स्वामी दयानन्द का धर्म और सत्य पर्यायवाची हैं। अतः शास्त्रकार सत्य को धर्म के विशेषण के रूप में प्रत्युक्त करता है, धर्म तो सभी हैं परन्तु सत्य धर्म सब नहीं है, इसीलिये इनमें अन्तर्विरोध है, मोह है और कलह है। सत्य सब है, समग्र है। जिसके पास सब है, उसे भय कहाँ, उसमें कलह कहाँ? जहाँ कलह है, विरोध है, वहाँ अधर्म है। यह धर्म का भय है, जो हम बुद्धि से अधर्म को स्वीकार करते हैं और वाणी से धर्म के महत्त्व को बखानते हैं। ये दोहरे मूल्य, दोहरी आचार पद्धति हमारी अधूरी सत्य निष्ठा को इंगित करती है। जो अधूरा है, वह असन्तुष्ट है, कभी इधर भागता है, कभी उधर, कभी ऐसा करता है, कभी वैसा- यह चंचलता बिना सत्य ज्ञान के, बिना सत्य धर्म के समाप्त नहीं हो सकती। हम सत्य के मूल्य को आंक नहीं पाते तभी तो महर्षि दयानन्द द्वारा राज्य, वैभव, समृद्धि का त्यागना बहुत बड़ा समझते हैं, क्योंकि हम सत्य को उससे मूल्यवान नहीं समझ पाये। हमारी दृष्टि आज भी भौतिक सम्पत्ति को मूल्यवान सिद्ध करने में लगी है। जब हम वास्तविकता से परिचित हो जायेंगे, तब सब वस्तुएँ नगण्य ही जावेंगी। तब हमारे मन में धर्म के ह्रास की चिन्ता भी नहीं होगी, तब तो केवल कर्त्तव्य पूर्ण करने में सुख और शान्ति का अनुभव हो सकेगा। जब हम धर्म की, ईमानदारी की संसार में कमी का उल्लेख करते हैं, तो वास्तविक चिन्ता यह होती है कि कहीं हम सांसारिक मूल्यों में पिछड़ तो नहीं जायेंगे? संसार के इतने लोग झूठे तो नहीं हो सकते, जो सत्य को छोड़कर भाग रहे हैं, धर्म के नाम पर अधर्म कर रहे हैं, इसलिए हम चिन्तित हैं धर्म के लिये, सत्य के लिये, न्याय के लिये। परन्तु सत्य इतना दुर्बल और शक्तिहीन होता तो दुनिया के लोगों द्वारा कभी का नष्ट कर दिया गया होता, आज सत्य का समर्थन करने का साहस किसी में नहीं होता। परन्तु वस्तविकता इससे विपरीत है। सत्य के कारण केवल दण्ड-कमण्डलधारी सारी दुनिया से लोहा लेना चाहता है। सुकरात विष का प्याला पीना चाहता है फिर उस सत्य के लिये हम क्या अधर्म करेंगे, जब उक्त सत्य को हम जीवित रखने का दम्भ कर सकते हैं? सत्य का सहारा मिल जाये, धर्म का अवलम्बन प्राप्त हो जावे तो हम निर्द्वन्द्व और निर्भय अवश्य हो सकते हैं। फिर हम सत्य के जिज्ञासुओं को पाकर प्रसन्न हो जाते हैं, आँखों को मार्ग दिखाने का प्रयत्न कर सकते हैं, मूढ़ व्यक्ति जो अधर्म को धर्म समझता है, उसकी तो उपेक्षा करने वाले चिकित्सक बन सकते हैं, तभी तो आचार्य चरक ने कहा है-

मैत्रीकारुण्यमार्तेषु शक्ये प्रीतिरुपेक्षणम्।

प्रकृतिस्थेषु भूतेषु वैद्यवृत्तिश्चतुर्विधा।।

वेद एक है अथवा चार? डॉ धर्मवीर

प्रस्तुत सम्पादकीय प्रो. धर्मवीर जी का अन्तिम सम्पादकीय है, यह एक शोधपरक लेख है। इसको पढ़कर आचार्यश्री की विद्वत्ता स्पष्ट दिखाई देती है। अब वे हमारे मध्य में नहीं हैं, पर उनके दार्शनिक जीवनोपयोगी उपदेश परोपकारी के पाठकों को मिलते रहेंगे।                                                                 -सम्पादकहिन्दू समाज में एक मान्यता है कि वेद पहले एक ही था। महर्षि व्यास ने उसके चार भाग करके चार वेद बनाये। इसलिये बहुत सारे लोग महर्षि वेद व्यास को वेदों का कर्त्ता मानते हैं। वेद के एक होने और चार होने का क्या आधार है? इस पर विचार करने पर इसके अनुसार हर कल्प में व्यास के होने और वेद के विभाजन से वेद-व्याख्यान के रूप में ब्राह्मण एवं शाखा ग्रन्थों का उल्लेख होना संगत है।

वस्तुस्थिति से वेद के विषय और जिन ऋषियों पर वेद का प्रकाश हुआ है, उनका उल्लेख प्रारम्भ से ही देखने में आता है-

. महीधर अपने यजुर्वेद-भाष्य के आरम्भ में लिखता है-

तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन् मनुष्यान् विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजुः सामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैल वैशम्यायनजैमिनिसुमन्तुभ्यः क्रमादुपदिदेश।

अर्थात् ब्रह्मा की परम्परा से प्राप्त वेद को मनुष्यों की सुविधा के लिये व्यास ने चार भागों में बाँट कर अपने चार शिष्य पैल, वैशम्पायन, जैमिनि व सुमन्तु को उपदेश किया।

. महीधर से पूर्ववर्ती तैत्तिरीय संहिता के भाष्यकार भट्ट भास्कर ने अपने भाष्य के आरम्भ में लिखा है-

पूर्वं भगवता व्यासेन जगदुपकारार्थमेकीभूय स्थिता वेदाः व्यस्ताः शाखाश्च परिछिन्नाः।

अर्थात् पहले जो वेद एक रूप में थे, जगदुपकार के लिये व्यास ने उनका विभाग किया और शाखाओं में बाँटा।

. भट्ट भास्कर से पूर्व निरुक्त के भाष्यकार आचार्य दुर्ग ने निरुक्त १/२० की वृत्ति में लिखा है-

वेदं तावदेकं सन्तमतिमहत्त्वाद् दुरध्येयमनेकशाखा भेदेन समाम्नासिषुः। सुखग्रहणाय व्यासेन समाम्नातवन्तः।।

अर्थात् वेद एक होने से बड़ा और अध्ययन में कठिन होने के कारण सुविधा के लिये व्यास ने शाखा-भेद से उसके अनेक विभाग किये।

इस कथन का मूल विष्णु पुराण में इस प्रकार मिलता है-

जातुकर्णोऽभवन्मत्तः कृष्णद्वैयापनस्ततः।

अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासाः पुरातनाः।।

एको वेदश्चतुर्धा तु यैः कृतो द्वापरादिषु।

– विष्णु पुराण ३/३/१९-२०

इसी प्रकार मत्स्य पुराण में उल्लेख मिलता है-

वेदश्चैकश्चतुर्धा तु व्यख्यते द्वापरादिषु।

– मत्स्य पुराण १४४/११

अर्थात् प्रत्येक द्वापर के अन्त में एक ही वेद चतुष्पाद चार भागों में विभक्त किया जाता है। पुराण के अनुसार अब क्यों कि अट्ठाईसवाँ कलियुग चल रहा है, तो यह वेद विभाजन २८ बार हो चुका है। इन सभी विभाग करने वालों का नाम व्यास ही होता है।

श्वेताश्वतर उपनिषद् में-

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो

वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।।

-६/१८

जो प्रथम ब्रह्मा को उत्पन्न करता है और उसके लिये वेदों को दिलवाता है।

वेदान्त दर्शन का भाष्य करते हुए शङ्कराचार्य लिखते हैं-

ईश्वराणां हिरण्यगर्भादीनां वर्तमानकल्पादौ प्रादुर्भवतां परमेश्वरानुगृहीतानां सुप्तप्रबुद्धवत् कल्पान्तर-व्यवहारानुसन्धानोपपत्तिः। तथा च श्रुतिः-यो ब्रह्माणम्।।

– वेदान्त सूत्र भाष्य १/३/३० तथा १/४/१

आचार्य शंकर वेदात्पत्ति हिरण्यगर्भ से कहते हैं, उनके मत में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा है। इस ब्रह्मा की बुद्धि में कल्प के आदि में परमेश्वर की कृपा से वेद प्रकाशित होते हैं।

वेदान्त सूत्र के शांकर भाष्य की व्याख्या करते हुए श्री गोविन्द ने इस प्रकार लिखा है-

पूर्वं कल्पादौ सृजति तस्मै ब्रह्मणे प्रहिणोति= गमयति= तस्य बुद्धौ वेदानाविर्भावयति।

– वेदा. १/३/३०

इसी सूत्र की व्याख्या पर आनन्दगिरि ने लिखा है-

वि पूर्वो दधातिः करोत्यर्थः।

पूर्वं कल्पादौ प्रहिणोति ददाति।

इन सभी स्थानों पर वेद का बहुवचन में प्रयोग किया गया। अतः चारों वेद की उत्पत्ति प्रारम्भ से ही है। व्यास द्वारा चार भागों में विभक्त किया गया, यह कथन सत्य नहीं है।

. सर्वप्रथम वेद में ही चार वेदों का उल्लेख पाया जाता है। ऋग्वेद में-

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे

छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।।

– १०/९०

. इसी प्रकार यजुर्वेद के पुरुषाध्याय में भी सभी वेदों का उल्लेख मिलता है।

. सामवेद में वेद का उल्लेख मिलता है।

. अथर्ववेद का मन्त्र ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदात्पत्ति प्रकरण में ऋषि दयानन्द ने उद्धृत किया है।

अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।

. ब्राह्मण ग्रन्थों में-

अग्नेर्ऋग्वेदोः वायो यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः।

. उपनिषदों में चारों वेदों की चर्चा आती है। बृहदारण्यक में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद में –

तस्य निश्वसितमेतद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्ववेदः।

छान्दोग्य में सनत्कुमार और नारद के संवाद में नारद सनत्कुमार को अपनी विद्या का परिचय देते हुए कहते हैं-

ऋग्वेदं भगवोऽध्योमि,

यजुर्वेदमध्येमि सामवेदमथर्ववेदं।

तैत्तिरीय शिक्षा वल्ली में साम की चर्चा है-

साम्ना शंसन्ति यजुभिर्ययजन्ति।

मुण्डक में अथर्ववेद का विस्तार से उल्लेख मिलता है-

ब्रह्मा देवानां….।

यहाँ पर ब्रह्म विद्या को अथर्व विद्या का विषय बताया है और ऋषियों की लम्बी परम्परा का उल्लेख किया है।

. रामायण में किष्किन्धा काण्ड में राम-लक्ष्मण के साथ हनुमान् के प्रसंग में लक्ष्मण राम से हनुमान् की योग्यता का वर्णन करते हुए कहते हैं-

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।

नासामवेदविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम्।।

नूनं व्याकरणं कत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।

बहुव्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्।।

न मुखे नेत्रयोर्वोपि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।

अन्येष्वपि च गात्रेषु दोषः संविदितः क्वचित् अस्थिरमसिन्दिरधमविलम्बितमद्रुतम्।

उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यगे स्वरे।।

संस्कार क्रम सम्पन्नामद्रुतामविलम्बिताम्।

उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहरिणीम्।।

अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि।।

– कि.का. ३/२८-३३

अत्राभ्युदाहरन्तीमां गाथां नित्यं क्षमावहाम्।

गीताः क्षमावतां कृष्णे काश्यपेन महात्मना।।

क्षमा धर्मः क्षमा यज्ञः क्षमा वेदाः क्षमा श्रुतम्।

यस्तमेवं विजानाति स सर्वं क्षन्तुर्महति।।

– महाभारत वन पर्व २९/३८-३९

इन श्लोकों में महाराज युधिष्ठिर द्रौपदी को उपदेश दे रहे हैं, महात्मा कश्यप की गाई गाथा का उल्लेख कर बता रहे हैं, क्षमा ही वेद हैं, यहाँ वेद का बहुवचन में प्रयोग किया गया है।

ऋचो बह्वृच मुख्यैश्च प्रेर्यमाणाः पदक्रमैः।

शुश्राव मनुजव्याघ्रो विततेष्विह कर्मसु।।

अथर्ववेदप्रवराः पूर्वयाज्ञिकसंमताः।

संहितामीरयन्ति स्म पदक्रमयुतां तु ते।।

-महाभारत आदि पर्व अ. ६४/३१, ३३

जब दुष्यन्त कण्व के आश्रम में प्रवेश करते हैं, तब आश्रम के वातावरण में ऋग्वेद के विद्वान् पद और क्रम से ऋचाओं का पाठ कर रहे थे। अथर्ववेद के विद्वान् पद व क्रम युक्त संहिता का पाठ पढ़ रहे थे।

इससे पता लगता है कि दुष्यन्त के काल में अथर्ववेद संहिता का क्रम पाठ व पद पाठ पढ़ा जाता था।

महाभारत के अनेक प्रसंग हैं, जिनमें वेदों के लिये बहुवचन का प्रयोग मिलता है।

पुरा कृतयुगे राजन्नार्ष्टिषेणो द्विजोत्तमः।

वसन् गुरुकुले नित्यं नित्यमध्ययने रतः।।

तस्य राजन् गुरुकुले वसतो नित्यमेव च।

समाप्तिं नागमद्विद्या नापि वेदा विशांपते।।

– महा. शल्य पर्व अध्याय ४१/३-४

अर्थात् प्राचीन काल में कृतयुग में आर्ष्टिषेण गुरुकुल में पढ़ता था, तब वह न विद्या समाप्त कर सका, न ही वेदों को समाप्त कर सका।

वेदैश्चतुर्भिः सुप्रीताः प्राप्नुवन्ति दिवौकसः।

हव्यं कव्यं च विविधं निष्पूर्तं हुतमेव च।।

– महा. द्रोण पर्व अध्याय ५१/२२

अर्थात् राम के राज्य में चारों वेद पढ़े हुये विद्वान् लोग थे।

ब्रह्मचर्येण कृत्स्नो मे वेदः श्रुतिपथं गतः।

– महा. आदि पर्व ७६/१३

इसमें ययाति ने देवयानी से कहा है- मैंने ब्रह्मचर्य पूर्वक सम्पूर्ण वेदों को पढ़ा है।

राज्ञश्चाथर्ववेदेन सर्वकर्माणि कारयेत्।

– महा. शान्ति पर्व ७/५

भीष्म ने उशना का प्राचीन श्लोक उद्धृत कर राजा पुरोहित से अथर्ववेद द्वारा सारे कार्य करावे। यहाँ अथर्ववेद का स्पष्टतः उल्लेख है।            – धर्मवीर

मैं दुःखी क्यों हूँ?

मैं दुःखी क्यों हूँ?

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा गया था। ये लेख अधूरा है, अगर पूरा होता तो स्वयं एक जीवन-शास्त्र होता। पर जितना भी है, उतना ही उपयोगी है, सारगर्भित है। इस लेख में आचार्य जी ने जीवन जीने की आदर्श शैली की ओर संकेत किया है। इससे पाठकों को अवश्य लाभ मिलेगा।

-समपादक

मुझे लगता है कि संसार में सबसे दुःखी व्यक्ति मैं ही हूँ। सब मुझे सदा दुःख ही देते रहते हैं। भगवान् भी मुझे दुःख ही देता है। मैं अपने माता-पिता से दुःखी हूँ, मुझे लगता है कि घर में मुझसे पक्षपात् होता है और सबकी सुनी जाती है, सबकी इच्छाएँ पूरी होती हैं। मुझे इच्छा करना ही अपराध लगने लगा है। मैं अच्छा करता हूँ, पूरा करने का प्रयत्न भी करता हूँ, पर पूरा न होने पर एक दुःख और अपने दुःख में जोड़ लेता हूँ। इच्छा पूरी न होने का एक दुःख था, उसमें असफलता का दुःख और जोड़ लिया। क्या संसार में मैं दुःख पाने के लिये ही आया हूँ?

मुझे लगता है कि संसार में मेरे चारों ओर मुझे दुःख देने वाले एकत्र हो गये हैं। मुझे लगता है ये लोग गलत हैं, ठीक नहीं हैं। ये सुधर जायें तो सब ठीक हो सकता है। ये बच्चे सुधर जाते तो सब ठीक हो जाता, परन्तु इनको मेरी बात समझ में ही नहीं आती। समझा-समझा कर दुःखी हो गया हूँ। पत्नी है कि सुनती नहीं है, बच्चों को बिगाड़ दिया है। मैं जो कहता हूँ उसका उल्टा करती है, बच्चों को उल्टा सिखाती है। मेरा पड़ौसी नालायक है, गन्दा है, कोई अच्छी आदत ही उसमें नहीं है। गन्दा रहता है, गन्दगी करता है, शराब पीता, गालियाँ देता है, समझाने पर भी समझता नहीं है। मेरे कार्यालय में मेरे साथी चापलूस और कामचोर हैं, अधिकारी रिश्वतखोर, पक्षपाती हैं। संसार में जिधर देखता हूँ, सब बिगाड़-ही-बिगाड़ है। उससे मैं बहुत दुःखी हो गया हूँ।

मुझे लगता है कि लोग मन्दिर जाते हैं, सत्संग करते हैं, प्रवचन सुनते हैं, क्या इनसे दुःख दूर होता है? यदि ऐसा करने से दुःख दूर होता है तो सारे मन्दिर जाने वाले सुखी हो जाते। सारे प्रवचन करने वाले क्या सुखी हैं? सत्संग में सुख होता तो सभी सत्संग करके सुखी हो चुके होते, परन्तु ऐसा लगता नहीं। फिर सोचता हूँ कि यदि इन सबसे सुख नहीं मिलता, तो इतने लोग सुख प्राप्त करने के लिये यहाँ की ओर क्यों दौड़ रहे हैं? सुनने में आता है कि सत्संग सुनकर डाकू सय मनुष्य बन गया, अंगुलीमाल डाकू भगवान् बुद्ध का भक्त बन गया। ये ठीक है, सब तो नहीं सुखी होते, परन्तु कुछ तो सुखी होते देखे जाते हैं। जैसे खेत में डाले गये सारे बीज नहीं उगते। कोई पत्थर पर गिरकर पड़ा सड़ जाता है। किसी को पक्षी खा लेता है, तो कोई कीड़े से नष्ट कर दिया जाता है, कोई उगकर पशु-पक्षियों द्वारा खा लिया जाता है, फिर भी खेती की जाती है और उसी से भूखे मनुष्यों को भोजन मिलता है। लगता है सत्संग की खेती का भी यही हाल है, जो बीज उर्वरा भूमि में गिर जाता है, उसमें बीज पौधा बनकर फल देने लगता है। प्रवचनकर्त्ता सभवतः यही उपदेश कर रहे थे कि दुःख दूर करने का सत्संग ही एक उपाय है।

संसार में दुःख है, लोग इसे दूर भी करना चाहते हैं तो इसका उपाय भी निश्चित होगा। सत्संग में दुःख दूर करने का उपाय बताते हुए यही तो कहा जा रहा था। दुःखी हम इसलिये हैं कि हम अपने से बाहर की वस्तुओं को दुःख का कारण समझ रहे हैं। जब तक मैं दूसरों को दुःख का कारण समझूँगा, तब तक मेरे दुःखों से मुझे छुटकारा नहीं मिलेगा, क्योंकि दुःख का कारण मेरे अन्दर  है। जिन बातों से, जिन वस्तुओं से, जिन व्यक्तियों से मैं दुःखी हूँ, उसका कारण है कि मैं उनसे असन्तुष्ट हूँ। मेरे असन्तोष का मूल मेरी उनसे अपेक्षा है, मैंने सबसे अपेक्षा पाल रखी है। जब मेरी इच्छा पूरी नहीं होती तो मेरे अन्दर असन्तोष जन्म लेने लगता है। यह असन्तोष ही मेरे दुःख का कारण है।

मेरे दुःख का दूसरा कारण है कि मैं सब व्यक्तियों को सुधारना चाहता हूँ। सभी वस्तुओं को अपने अनुकूल बनाना चाहता हूँ। ऐसा करना मेरे सामर्थ्य से परे है। मेरे लिये समभव नहीं है। मैं जिसे सुधारने का यत्न करता हूँ और जिसे मैं सुधार नहीं सकता, उन दोनों में अन्तर होता है। जिसे मैं पहले से सुधारने योग्य नहीं मानता, उनसे मैं दुःखी नहीं होता, उन्हें वैसा ही मानकर व्यवहार करता हूँ, जिनको सुधारने की इच्छा करता हूँ, उनके लिये प्रयत्न करता हूँ, फिर असफल होने पर दुःखी होता हूँ। सुधार का प्रयत्न करना अच्छी बात है, परन्तु असफलता पर दुःखी होना बुरी बात है, जब कोई नहीं सुधरता तो उसको भी उपेक्षा की कोटि में डाल दिया जाए, तो मेरा दुःख दूर हो सकता है।

मैंने दुःखों के नाम रख दिये हैं। ये सास है, ये बहू है, ये देवरानी या जेठानी है, इन नामों से दुःख लगने लगता है, यथार्थ तो यह है कि दुःख व्यवहार में है, संज्ञा में नहीं। दुःख तो बेटे-बेटी से भी होता है। माता-पिता, भाई से भी होता है। संसार में रक्त-समबन्ध को सुख का कारण तथा दूर को दुःख का कारण मानते हैं, परन्तु यथार्थ में जितना दुःख समबन्धियों में, सगे भाइयों में होता है, उतना दुःख किसी और से नहीं मिलता। जितने झगड़े, लड़ाई, मुकद्दमें भाइयों में परस्पर होते हैं, उतने दूसरों से तो नहीं होते। फिर दुःख का कारण व्यक्ति नहीं, विचार है। विचार ठीक न होने की दशा में कोई भी दुःख का कारण बन सकता है, परन्तु मैंने मान लिया कि सास दुःख ही देगी, बहु विरोध ही करेगी।

जिनको मैं बदल नहीं सकता, जिन्हें मैं छोड़ भी नहीं सकता, क्या उनसे लड़ाई, झगड़ा, तनाव करके मैं सुखी रह सकता हूँ? कदापि नहीं। फिर मैं क्या करूँ, जिससे मेरा दुःख दूर हो? इसलिये उनसे मेरा व्यवहार निष्पक्षता का हो, उदासीनता का हो। ………

– धर्मवीर

 

शाश्वत-स्वर

शाश्वत-स्वर

– आचार्य धर्मवीर

3म् वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्।

3म् कृतोः स्मर कृतं स्मर क्रतोः स्मर कृतं स्मर।।

मन्त्र परिचित है, परन्तु स्पष्ट नहीं है, कुछ बातें तो बहुत ही स्पष्ट हैं, कुछ बहुत अस्पष्ट। इसलिये कि मन्त्रों का अर्थ करते समय व्याखयाकारों की व्याखयायें बहुत भिन्न हैं, कुछ बातें एक-सी है। इसके विपरीत कुछ शबदों पर कहीं भी एक मत दिखाई नहीं पड़ता। अर्थ की भिन्नता ही अर्थ की अस्पष्टता को इंगित कर रही है। अर्थ करते समय लेखकों को अपने-अपने सिद्धान्त व मान्यता के आधार पर अर्थ करने का पर्याप्त अवसर मिल गया है। यहाँ विवादास्पद बिन्दुओं की चर्चा करना उद्देश्य नहीं है। इस मन्त्र में कुछ बातें बहुत स्पष्ट हैं और बहुत ही महत्त्वपूर्ण उनका विचार उपयोगी है।

मन्त्र में प्रथम पंक्ति बड़ी निर्णायक है, निर्णय दो बातों का किया गया है। बात कुछ इस प्रकार कही गई है, अथ इदं अमृतम्, इदं भस्मान्तम् यह तो अमृत है, अमर है, इसके नष्ट होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसके विपरीत दूसरी वस्तु अमर नहीं हो सकती। ये दोनों कौन-सी वस्तुयें हैं, यह तो भस्मान्तं से स्पष्ट है, जो भस्म हो सकता है, वह अमर भी नहीं हो सकता, वह भौतिक है, स्थूल है। जिसे नष्ट नहीं होना, वह भौतिक नहीं हो सकता, स्थूल नहीं हो सकता। तभी तो बचा रह सकता है। यह शरीर तो भस्म हो सकता है, हो जाता है, होना ही चाहिए। नाश के बहुत सारे प्रकार हैं- गल सकता है, सूख सकता है, प्राणियों द्वारा जल-थल में भक्ष्य बन सकता है, परन्तु अच्छा प्रकार तो भस्मान्तम् है और कोई भी प्रकार ऐसा नहीं जो इस कार्य को जल्दी समपन्न कर सके। गलने, सड़ने, सूखने, प्राणियों द्वारा खाये जाने में न तो पूरा समाप्त हो पाता है, न कम समय में हो पाता है। अतः वैज्ञानिक प्रकार अर्थात् उचित प्रकार, बुद्धिसंगत प्रकार ‘भस्मान्तं’ है, इसलिये शरीर के साथ इस विशेषण को लगाया गाया है।

चेतन का शरीर जड़ संसार की उत्कृष्ट रचना है, उसमें भी मनुष्य-शरीर अधिक उत्कृष्ट है, सर्वोत्कृष्ट है, सर्वश्रेष्ठ है। जब यह शरीर ही भस्मान्त है, तो संसार की सारी जड़ वस्तुओं का यही होना है, यही होता है। इसके अतिरिक्त कुछ हो भी नहीं सकता। फिर इसके लिये क्या सोचें, क्यों सोचें और सोचेंगे तो भी होगा क्या? संसार की सारी उलझन यहीं तो है। इस संसार में जड़ वस्तुओं के समुदाय में शरीर को, अपने शरीर को हम जड़ नहीं समझ पाते, उसे ‘हम’ समझ लेते हैं, मैं समझ लेते हैं और इसकी रक्षा में लगे रहते हैं, इसे अलंकृत करते हैं, परन्तु वेद ने इस सन्देह को एक झटके से दूर कर दिया है, एक विभाजक रेखा से इसका क्षेत्र दर्शा दिया है। केवल जड़ है, यह शरीर सदा रहने वाला नहीं है, इतने मात्र से समस्या का समाधान संभव नहीं है, नहीं तो सामान्य मनुष्य जो जड़ को चेतन समझ भ्रम में चल रहा था, उसे जड़ की उपासना से तो छुड़ा दिया, परन्तु चेतन का विश्वास नहीं करा सके, तो वह शून्य में भटकता रहेगा। अतः भस्मान्त शरीर तो चेतन नहीं है, फिर कोई सत्कर्म क्यों करे?

इसके लिये वास्तविकता से वेद ने इसे भी पहले अवगत कराया है और बतलाया है-‘इदं अमृतम्’यह अमृत है, कभी मर नहीं सकता, अमर है अपरिवर्तनशील है। अपरिवर्तनशील है, तभी तो अमर है, मरना तो मात्र परिवर्तित होना है, परिवर्तन की अनुकूलता का न होना ही दुःख का कारण है। परिवर्तन की अनुकूल अनुभूति सुख है, इसलिये हम जन्म को सुख कहते हैं, इसके विपरीत परिवर्तन की प्रतिकूल अनुभूति मृत्यु है, दुःख है। इसी कारण संसार में आना सुख है, संसार से जाना दुःख है। इस आने-जाने की अनुभूति से जुड़ा मनुष्य सुख-दुःख की परिस्थिति में स्वयं को सुखी व दुःखी समझता है, जबकि आने-जाने का समबन्ध शरीर से है, आत्मा से नहीं, इसलिये वेद ने स्पष्ट रूप से समझा दिया-इदं अमृतम्, इदं भस्मान्तम्। अब जो भस्मान्त नहीं, उसी का विचार करना है, उसका नहीं जो साथ जाने वाला नहीं है।

यह विचार कैसे संभव है, इसका उपाय मन्त्र के उत्तरार्ध में बतलाया है ‘‘ओ3म् क्रतो स्मर कृतं स्मर’’यदि स्मरण करना आता है, तो पाप करना संभव नहीं है। संसार का सारा अपराध अपने लिये, अपने शरीर के सुख के लिये व्यक्ति करता है। वह स्वयं को सुखी अनुभव करना चाहता है और इस सुख का गणित है भी बड़ा विचित्र। व्यक्ति हर दिन परिश्रम करता है, सुख ढूढंता है, उसे लगता है सुख भोजन में है, सुस्वाद भोजन में, और वह भोजन करता रहता है। लगता है कि वह सुख पा रहा है, परन्तु उस सुखद क्षण को अनुकूल किया जाए तो लगेगा कि उसे बहुत मूल्य चुकाना पड़ा है। इसका लाभ तो कुछ क्षणों का ही था-बहुत थोड़े से क्षणों का। फिर वह कुछ देखने का, सुनने, सूंघने का, और स्पर्श का सुख पाना चाहता है। स्पर्श का सुख नहीं-स्पर्श में सुख को खोजता है। यदि स्पर्श ही सुख होता तो जो भी स्पर्श करता, उसी को सुख की अनुभूति होती, परन्तु स्पर्श सदा तो सुखकर नहीं लगता, स्पर्श मात्र भी तो सुखकर नहीं लगता। सुख वस्तु में नहीं, स्पर्श में नहीं, सूंघने में नहीं, खाने में नहीं, सुनने में और देखने में भी नहीं, फिर सुख की खोज ही तो करनी है। परन्तु पहली गलती सुख वस्तु में मानकर बैठ जाने में हो गई है। दूसरी ‘गलती’ होने काय है। यह सच है सुख वस्तु में नहीं, शरीर से उपभोग में नहीं, फिर क्या शरीर निरर्थक है? निरर्थक तो इस दुनिया में कुछ भी नहीं, फिर शरीर को निरर्थक कैसे कहा जा सकता है। वास्तव में शरीर के बिना आत्मा कुछ भी करने का सामर्थ्य नहीं रखता, शरीर के बिना भुक्ति भी नहीं और मुक्ति भी नहीं।

शरीर परमात्मा से आत्मा के साक्षात्कार का उत्कृष्ट साधन है। इतना महत्त्वपूर्ण साधन कि जिसका स्थान दूसरा कोई साधन नहीं ले सकता। शरीर ऐसा साधन है कि आत्मा के साथ संयोग होते ही आत्मा का चैतन्य शरीर में साक्षात् होने लगता है। दूसरी जड़ वस्तुओं जैसी जड़ता इस शरीर में नहीं, नहीं तो आत्मा शरीर के स्थान पर पत्थर में प्रवेश कर उससे योग-साधना कर लेता, परन्तु ऐसा नहीं हो सकता। अपने स्वयं के साक्षात्कार के लिये भी उसे शरीर की आवश्यकता है। बुद्धि जड़ वस्तुओं में सबसे सूक्ष्म है, इतनी सूक्ष्म कि जिसमें चैतन्य प्रतिबिमबित हो सकता है और बुद्धि के साथ सारा शरीर चेतनवत् प्रतीत होता है। फिर आत्मा को शरीर से ही पहचानते हैं। देवदत्त अच्छा है, बुरा है, साधु है इत्यादि गुण व विशेषताओं का प्रकार शरीर के माध्यम से होता है। देवदत्त के मरने के बाद देवदत्त मर गया कहते हैं, क्योंकि अब आत्मा पहचान से बाहर चली गयी, पकड़ से बाहर चली गयी, फिर किसका देवदत्त, कहाँ का देवदत्त। तो आत्मा का कार्य शरीर के बिना नहीं, परन्तु शरीर ही तो कार्य नहीं, साध्य नहीं, बस यही स्मरण करना है। वेद यही स्मरण करने के लिये कह रहा है।

इस संसार में दो बातें स्मरण की जा सकें, करायी जा सकें, तो संसार में आने का उद्देश्य ही पूरा हो जाता है। स्मरण रखना है कि आत्मा अमृत है। दूसरी स्मरण रखने की बात है कि शरीर भस्म बन जाने वाली राख है, मुठ्ठी भर राख, जिसके कण हवा में तैरेंगे तो पता भी न लगेगा कि यह कोई शरीर था-बड़ा विशाल, बड़ा सुन्दर, बड़ा महत्त्वपूर्ण। यह अभिमान रह ही नहीं सकेगा। यदि ये बातें स्मरण हो जायें, यह पहचान हो जाये कि क्या अमर है और क्या नश्वर है। इस स्मरण में अमरता का स्मरण करना है। अमर तो आत्मा है और अमर परमात्मा है, बस दो बातें स्मरण रखनी हैं और दो के लिये ही रखनी हैं-एक स्मरण करना है ओ3म् को, फिर स्मरण करना है कर्म को। ओ3म् का स्मरण आवश्यक है, क्योंकि संसार का वह स्रष्टा है, साधनों को उसने दिया है, जीवात्मा के लिये बनाया है। यही उपनिषद् के प्रारमभ में समझाने की चेष्टा है, प्रतिज्ञा है, उद्देश्य है।

यदि यह समझ लिया कि इस संसार में हमारा तो कुछ नहीं है तो फिर स्वामित्व का झगड़ा ही न रहा-संसार में झगड़े का दूसरा तो कोई कारण ही नहीं। स्वयं को उठाने के लिये अपने कर्म की जाँच की आवश्यकता है, क्योंकि व्यक्ति बिना किये नहीं रह सकता, वह बना ही करने के लिये है। कर्म के बिना जीवन ही नहीं, इसलिये कर्म पर विचार करना आवश्यक है, यदि विचार नहीं किया तो कर्म अकर्म बन सकता है। कर्म तो होना है, विचार कर रकेंगे तो भी होगा बिना विचार भी होगा, परन्तु बिना विचारे किया गया कर्म मनुष्य का कर्म नहीं होगा, क्योंकि वह तो मत्वा कर्माणि सीव्यति की कसौटी पर कसा नहीं गया। मनन करके कर्म करने से ही इस भस्मान्त शरीर की उपयोगिता और अनुपयोगिता समझ में आ सकती है, ध्यान किया जा सकता है। प्रातः नये संकल्प के साथ, सावधानी के साथ तथ्य को स्मरण करते हुये कर्म करने का विचार किया जाता है। दिन भर कार्य होता रहता है, संसार में रहकर संसार के कार्य किये जाते हैं। इस शरीर की समपत्ति को, निधि को जो जड़ समूह में बहुत मूल्यवान्  है, इसका संचालन, इसकी सुरक्षा तो संसार की सामग्री से ही होगी। उस व्यस्तता में हो सकता है कि कोई क्षण ऐसा भी आ जाय जब स्मृति भटक जाय, बुद्धि विचलित हो जाय। अतः फिर सायं सन्ध्या का समय आ जाता है, फिर स्मरण करना पड़ता है। तभी वेद कहता है- ‘कृतं स्मर’ यदि किये को स्मरण नहीं किया तो प्रगति का, अधोगति का मूल्यांकन कहाँ किया? सायं इस मूल्यांकन के बिना जीवन का व्यवसाय अधूरा रहेगा, जीवन कर्म निरर्थक हो जायगा। अतः वेद कहता है कि हमें इस बात को निश्चित रूप से समझना है। इदं यह आत्मा तो अमर है इदं यह शरीर भस्मान्त है, परन्तु इस तथ्य को समझने का कि उसे पाने का, लक्ष्य तक पहुँचने का साधन है-स्मरण। स्मरण करेंगे परमेश्वर का, स्मरण करेंगे कर्म का, किये का, तभी तो सुख पा सकेंगे। इसी बात को उपनिषत्कार कहता है-

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति।

नो चेदिहावेदीन्महती विनष्टि।।

 

वेद एवं वैदिक साहित्य के अर्थ-ज्ञान का प्रकार

वेद एवं वैदिक साहित्य के अर्थ-ज्ञान का प्रकार

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-समपादक

शास्त्र को समझने के लिये प्राचीन शास्त्रकारों ने एक कसौटी बनाई है, उसका नाम है- ‘अनुबन्ध चतुष्टय’। इसमें चार बातों का परस्पर समबन्ध जाना जाता है, जिससे किसी भी प्रकार के सन्देह की सम्भावना नहीं रहती। अनुबन्ध चतुष्टय है- विषय, अधिकारी, समबन्ध और प्रयोजन। विषय– शास्त्र, अधिकारी- जिसमें शास्त्र को समझने की योग्यता हो, समबन्ध- शास्त्र और उसे पढ़ने वाले के बीच समबन्ध, प्रयोजन- शास्त्र को पढ़ने वाले का उद्देश्य। ये चार बातें स्पष्ट हों तो  .पढ़ने-पढ़ाने वालों में शास्त्र को लेकर किसी प्रकार का संशय नहीं रहता।

वेद और वैदिक साहित्य को लेकर जो समस्या आज हमारे सामने उपस्थित है, उसका मूल कारण है- शास्त्र और पढ़ने-पढ़ाने वाले का परिचय न होना। ऐसी स्थिति में अकस्मात् जब कोई शास्त्र को पढ़ना प्रारमभ करता है तो वह  अपनी बुद्धि से उसे समझता है, पर शास्त्र-बुद्धि उसके पास नहीं होती। ऐसी परिस्थिति में हमारे पास न ज्ञान होता है, न परमपरा, फिर शास्त्र के साथ न्याय कोई कैसे कर सकता है?

वर्तमान में जो शास्त्र पढ़ते हैं, उनमें भी शास्त्र का ज्ञान कम और परमपरा का ज्ञान अधिक होता है। हर पढ़ने वाला शास्त्र में अपने विचारों की पहचान का प्रयास करता है।

वर्तमान में संस्कृत और वेद का सामान्य ज्ञान न होने से अर्थ करना समभव नहीं होता। आज अर्थ करने वाले कैसे-कैसे अर्थ वेद-मन्त्रों के करते हैं, उनको देखकर यह बात समझ में आती है। ईसाई लोगों का मानना है कि यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के प्रथम मन्त्र में ‘ईशावास्यम्’ पद आया है, उनका कहना है कि यह ‘ईशा’ पद ईसा का वाचक है। इसे बोलकर ईसा की वेद में उपस्थिति प्रमाणित करने में कोई कठिनाई नहीं होती। सामान्य जनता में इस पर कोई प्रश्न आने की समभावना नहीं।

इसी प्रकार एक समप्रदाय के प्रचारक ने ‘कविर्मनीषी’ वैदिक पद में ‘कविर्’ को कबीर बोलकर वेद में कबीर की उपस्थिति सिद्ध कर दी। यह कोई अनुसन्धान नहीं है, परन्तु सामान्य मनुष्य की बुद्धि को भ्रमित करने का साधन तो है। एक बार सनातन धर्म के विद्वान् स्वामी करपात्री से हिन्दू शबद की प्राचीनता सिद्ध करने की माँग हुई, तो उन्होंने यजुर्वेद के मन्त्र की दो पंक्तियों के आदि अक्षरों को जोड़कर हिन्दू शबद वेद में उपस्थित कर दिया। प्रथम पंक्ति से हिहिङ्कृण्वन्ति तथा दूसरी पंक्ति से दूदूहाना। इस प्रकार वेद-मन्त्रों से अभिप्राय की सिद्धि की जाती रही है। इस्लाम के शोधकर्त्ता तो इससे भी आगे पहुँच गये, उन्होंने एक विद्वान् से शोध कराया और मोहमद की उपस्थिति वेद में बता दी। उनका कहना था कि एक सफेद वस्त्र धारण कर घोड़े जैसे जानवर पर चढ़कर आने वाले का वर्णन वेद में है, तो वह वर्णन मोहमद का ही है, क्योंकि उनका व्यक्तित्व ऐसा ही था। इसमें कल्पना को यथार्थ तक पहुँचा दिया।

विद्वत्ता व अनुसन्धान की दृष्टि से अपने प्रयोजन सिद्ध करने वालों की भी कमी नहीं है। सायण, उव्वट आदि यज्ञपरक अर्थ करते हैं, तो महीधर वेदार्थों को अश्लीलता तक पहुँचाने वाला भाष्यकार है। फिर पाश्चात्य विद्वान् भी  पीछे क्यों रहें, उन्होंने भी बहती गंगा में हाथ धोने में कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने भाषा-विज्ञान का अपना ही मानदण्ड बना लिया। अपने प्रमाण से प्रमाणित कर जो इच्छित परिणाम प्राप्त करने थे, कर लिये। उनकी दृष्टि में वेद एक नहीं, रचना एक साथ नहीं, परस्पर कोई समबन्ध नहीं, किसी एक सिद्धान्त या विचार का प्रतिपादन नहीं। अच्छा-बुरा, नया-पुराना सब कुछ वेद में बताकर सिद्ध कर दिया कि भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन के उपयोग में आने के अतिरिक्त इसका कोई विशेष महत्त्व नहीं है।

अब विचार की बात यह है कि इनमें से किस मत को स्वीकार किया जाए और क्यों? यदि एक भी मत इसमें अनुचित है, तो सारे ही उस कसौटी पर अनुचित हैं और यदि किसी मत को उचित ठहराने का प्रयास करते हैं, तो सभी को उचित मानना पड़ेगा। उचित दृष्टिकोण से विचार करने का पहला आधार है- वेद की उपस्थिति। हमें उस ग्रन्थ के विषय में विचार करना है, जिसकी सत्ता है, उपस्थिति है। अतः जो कोई, जो कुछ कहता है, उसे उस ग्रन्थ में देखा जा सकता है, खोजा जा सकता है।

वेद ग्रन्थ कोई कल्पना नहीं है। वेद कोई नई पुस्तक भी नहीं है। जो पक्ष-विपक्ष हैं, उनकी भी परीक्षा की जा सकती है। बहुत सूक्ष्म विश्लेषण का यह अवसर नहीं है, परन्तु स्थाली पुलाक न्याय से कुछ बिन्दुओं पर विचार किया जा सकता है। वेद और वैदिक साहित्य को पढ़ने से इनके परस्पर समबन्ध का पता चल जाता है। आर्यों का धर्म वैदिक है अर्थात् वेद-प्रतिपादित है, अतः वेद आर्यों का धर्म-ग्रन्थ है। इसका कोई निषेध नहीं कर सकता। वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, शाखा-ग्रन्थ, उपवेद, वेदांग, इनमें गौण-मुखय सबन्ध है, अतः ये नितान्त पृथक् रचना नहीं हैं। जब उपवेद के साथ वेद, वेदांग के साथ कहीं श्रुति, कहीं आगम शबदों का प्रयोग आता है, तो आप इनको असमबद्ध कहकर अपनी स्थापना बलात् प्रतिपादित नहीं कर सकते।

वेद चार हैं, ब्राह्मण-ग्रन्थ अनेक हैं। शाखा-प्रातिशायों का सब कुछ समाप्त होने के बाद भी बहुत कुछ उपलबध है। भारतीय दर्शनों का नाम ही वैदिक-दर्शन या आस्तिक-दर्शन है। वेदांग साक्षात् वेद के अंग हैं। इनको वेदांग कहते हुए वेद से पृथक् किस प्रकार कर सकते हैं। अतः प्रथम बात है वेद और वैदिक-साहित्य पुस्तक रूप में अनेक होने पर भी प्रयोजन की अपेक्षा से एक ही है। यदि कोई कहता है कि इनमें परस्पर विरुद्ध कथन पाया जाता है, तो ये सब एक कैसे हो सकते हैं। इसका समाधान है- ‘स्वतः प्रमाण और परतः प्रमाण’ का सिद्धान्त। वेद स्वतः प्रमाण हैं और समस्त वैदिक-साहित्य परतः प्रमाण है, वेदानुकूल होने पर ही प्रमाण कोटि में आता है, अन्यथा नहीं। इसके लिये पाश्चात्य विद्वान् कह सकते हैं कि वे इसे प्रमाण नहीं मानते, न मानें, परन्तु जिनकी रचना है, उन्होंने ही इसको प्रमाण माना है। अत : विदेशी कथन केवल उनके कहने से प्रमाण कोटि में नहीं आता।

वेद का अर्थ होता है और ठीक से किया जा सकता है, क्योंकि वेद भाषा में है। भाषा में शबद होते हैं, शबदों का अर्थ होता है। अतः मनुष्य उन शबदों के द्वारा अपने अभिप्राय को व्यक्त करता है। यह भाषा का प्रयोजन है। वेद के शबदों का अर्थ न हो तो वेद का प्रयोजन ही सिद्ध नहीं होगा। अब प्रश्न उठता है कि वेद के शबदों का जो अर्थ किया जा रहा है, वही स्वीकार क्यों न कर लिया जाये। इस का उत्तर है- किसी भी शबद का प्रयोग अर्थरूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये किया जाता है। यदि प्रयोजन सिद्ध होता है तो प्रयोग उचित है अन्यथा बुद्धिमान् का प्रयोग नहीं कहलायेगा। क्या वेद के शबदों का अर्थ किया जा रहा है? उससे वेद के प्रयोजन की सिद्धि हो रही है। यदि प्रयोजन सिद्ध है तो प्रयोग ठीक है, अन्यथा प्रयोग अनुचित है।

हम देखते हैं कि वेद का अध्ययन करने वाले वेद- मन्त्रों के जितने अर्थ करते हैं, उनमें सबसे बड़ा भाग परस्पर विरुद्ध कथन का होता है। परस्पर विरोधी कथन बुद्धिमान् व्यक्ति की रचना नहीं हो सकती। इस कारण अर्थ करने के लिये कसौटी बनाई गई है। अतः देशी या विदेशी विद्वानों ने जो अर्थ किये हैं, उन्होंने इन कसौटियों का पालन ही नहीं किया, न कोई मान्य कसौटी का प्रतिपादन ही किया।

हम बहुत स्थूल-बुद्धि से भी विचार करें तो वेदार्थ करते समय निमनलिखित बिन्दुओं पर विचार किये बिना वेद-मन्त्रों का उचित अर्थ नहीं हो सकता।

प्रथम बिन्दु है समस्त वेदों और वैदिक-साहित्य के कथन में परस्पर विरोध नहीं होना चाहिए। यदि विरोध दिखाई देता है तो इसके दो कारण हैं- विशेष रूप से वेद से भिन्न जो भी वैदिक-साहित्य है, उसमें या तो प्रक्षेप हैं, या वह अर्वाचीन वेद-विरुद्ध विचार है, जो ग्रन्थ में प्रक्षेप कहा जाता है। दूसरी परिस्थिति है- हमारे समझने, संगति लगाने में भूल है।

दूसरा बिन्दु है हम मन्त्रों का जो भी अर्थ करें, उसकी वहाँ संगति लगनी चाहिए। अर्थ प्रसंग के अनुकूल घटना चाहिए। बिना प्रसंग के किसी भी शबद, वाक्य को लेकर अर्थ करेंगे तो निश्चय ही अनर्थ करने का कारण बनेगा। इसलिये यास्काचार्य ने कहा है- प्रसंग से मन्त्रों का अर्थ करना चाहिए। इतना ही नहीं, वे बिना प्रसंग के मन्त्रों के अर्थ करने का निषेध करते हैं।

तीसरा बिन्दु है जब हम वेद-मन्त्रों का अर्थ करते हैं तो शबदों का वही अर्थ हमारे सममुख होता है, जो अर्थ हम जानते हैं। कालक्रम से शबदों के अर्थ बदल जाते हैं। वेद प्राचीन ग्रन्थ हैं, हम वैदिक शबदों के वर्तमान में प्रचलित अर्थों को लेकर मन्त्रार्थ करने का प्रयास करते हैं, जिससे मन्त्र के अनर्थ होने की समभावना अधिक होती है। अतः यदि वेद-मन्त्र का हमें अर्थ करना है, तो इसमें वेद और वैदिक-साहित्य की सहायता लेनी होगी। वैदिक शबदों के अर्थ के लिये वैदिक कोष का उपयोग करना चाहिए। वैदिक-साहित्य के नष्ट हो जाने से केवल एक कोष ही हमें आज उपलबध है, जिसे निघण्टु कहा जाता है। यह एकमात्र वैदिक-कोष है और इसकी व्याखया के रूप में हमें निरुक्त उपलबध है, जिससे वेदार्थ करने में सहायता उपलबध होती है।

चौथा बिन्दु है एक शबद के अनेक अर्थ होते हैं, प्रसंग में कौन सा अर्थ संगत होगा। इस पर भी वेदार्थ करते समय विचार करना चाहिए। उदाहरण के लिये-सारे आधुनिक वेदभाष्यकार ‘गौ’ का अर्थ गाय करते हैं। परन्तु निघण्टु के प्रथम अध्याय के प्रथम खण्ड का प्रथम शबद गौ = पृथ्वी का वाचक है, बाद में यह गाय पशु के अर्थ में भी आता है। अतः मन्त्र में ‘गौ’ शबद का अर्थ गाय होगा या भूमि होगा, इसको बिना जाने वेदार्थ करेंगे तो वह अर्थ न होकर अनर्थ ही होगा।

पाँचवाँ बिन्दु है वेद में शबदों के अर्थ यौगिक और योगरूढ़ हैं, उन्हें केवल रूढ़ अर्थ में ग्रहण किया जायेगा, तो मन्त्रार्थ में विचलन होगा। इसके अतिरिक्त भी वेद और वैदिक-साहित्य के प्रसंगों की तुलना से अर्थनिर्णय में सहायता मिलती है।

जितने भी अर्थ आज वेद-मन्त्रों के किये जाते हैं, उनमें इन बातों का विचार नहीं किया जाता, इसलिये वेदार्थ में कोई गौरव नहीं आता। यदि प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अनुसरण किया जाए तो वेदार्थ में गति और उचित अर्थ की प्राप्ति हो सकती है। यह कार्य इस युग में ऋषि दयानन्द की अपूर्व देन है। इससे ही वेदार्थ का ज्ञान और वेदों की रक्षा समभव है, क्योंकि वेद की रचना को बुद्धिपूर्वक की गई रचना कहा गया है-

बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे।

– धर्मवीर