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पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर (द्वितीय पुण्यतिथि पर स्मरण)

पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर

वह तेज पुंज, वैदिक विचारधारा के संरक्षण हेतु सतत जागरूक प्रहरी, धर्माघात करने वालों के हृदयों को जिनकी वाणी पाञ्चजन्य की ध्वनि सम विदीर्ण करती रही सहसा ही हमारे मध्य नहीं रहा . “ऊर्जा के स्त्रोत” अमर धर्मवीर को हमसे विमुख हुए २ वर्ष व्यतीत हो गए लेकिन वह रिक्त स्थान यथावत है उसकी पूर्ति वर्तमान परिस्तिथियों में दुष्कर प्रतीत हो रही है एवं इस वास्तविकता का निरन्तर भान कराती है.

शिवाजी की भूमि पर स्वात्रंत्र प्रेमी ऋषि भक्त पण्डित भीमसेन जी के घर जन्मा यह बालक कपिल कणादि जैमिनी से दयानन्द पर्यंत ऋषियों द्वारा प्रदत्त ज्ञान रूपी सोम का पान कर , शश्त्र शाश्त्रों से सुसज्ज्ति धर्म पर स्व एवं परकीयों द्वारा हो रहे आघातों से आकुल ह्रदय लिय वह धर्मरक्षक योद्धा इस समर भूमि में सर्वस्व न्योछावर कर अम्रत्व्य को प्राप्त हो गया .

उनका जीवन, कर्म क्षेत्र, घर्म क्षेत्र, समर क्षेत्र में अधर्मियों के कृत्यों से पीड़ित होने के उपरान्त अंगद सम धर्म पथ पर अटल रहने का उद्धरण प्रदर्शित करता हुआ अनंत काल तक युवकों को प्रेरणा देता हुआ कीर्ति पुंज है उनका जीवन दर्शन अगणित ऐसी घटनाओं से शोभित  है जो धर्म पथगामियों को सदा ही प्रेरित करता रहेगा.

आरोप पत्र या अभिनन्दन पत्र: भारतवर्ष का इतिहास साक्षी है कि विदेशियों की विजय पताका फहराने में सहायक स्वजन ही थे बिना उसके इस धर्म भूमि पर परकीयों के वर्चस्व का ध्वज कैसे गगन चूम सकता था !

हमने ही स्वयं की तलवारों से स्व बान्धवों के रक्त का पान कर इस मातृभूमि को विधर्मियों के सुपुर्द कर दिया . भला आर्य समाज इस रोग से ग्रसित होने से कहाँ रह सकता था ? लाला मूलराज आदि के द्वारा बोया गया यह परजीवी पौधा, मानस पुत्रों को जन्म देता रहा और वैदिक धर्म के प्रचार में अभिनव प्रयोग कर अनेकों बाधाएं  पग पग पर वैदिक धर्म के दीवानों के रास्ते में खडी की गयी.

धर्मवीर जी का जीवन इससे अछुता नहीं था . आचार्य रामचंद्र जी ने ऐसी ही एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है की अधिकारियों ने व्यक्तिगत खुन्नस के कारण दयानन्द कॉलेज अजमेर से आपकी सेवाओं को निलम्बित कर दिया . आपके विरुद्ध जो आरोप पत्र जारी किया गया वह भी वास्तव में आपके कार्यों के महत्व का , आपके दृढ चरित्र का एक प्रमाण पत्र है . उसमें आरोप लगाया लगाया था – १. आप परोपकारिणी सभा का कार्य करते हें .२ आप परोपकारी पत्रिका का संपादन करते हैं ३. आप आर्य समाज का प्रचार करते हैं . इस पत्र को पढ़कर अचम्भित होना स्वाभाविक ही है कि ये अभिनन्दन पत्र है या आरोप पत्र !

धर्मवीर जी परिस्थियों से घबराने का नाम नहीं है धर्मवीर वह ज्वाला है जो तम आवृत जग के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य करती रही. क्या ये यातनाएं धर्मवीर को पथ से विचलित कर सकती थी ?  क्या ये यातनाएं वेदनाएं उनके साहस को चूर चूर करने में सक्षम थीं ? वह ऋषि भक्ति के लिए समर्पित योद्धा विश्व के वैभव लालसाओं का त्याग कर चुका था . ऋषि दयानन्द ही उसके लिए सर्वस्व था .

जीत की हार : श्रद्धेय श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आचार्य धर्मवीर जी की जीवनी में एक घटना का  उल्लेख किया है कि जब प्राचार्य वाब्ले धर्मवीर जी को अपमानित करने व कुचलने  पर तुला हुआ था उन्ही दिनों उसने अहंकार में आकर धर्मवीर जी से कहा “ मैं यदि तुम्हें निकाल दूँ तो सुप्रीम कोर्ट भी तुम्हें नहीं रखवा सकता “

जितने भरपूर अहंकार में पाचार्य वाब्ले ने धर्मवीर जी को धमकी देकर डराया और उनका मनोबल गिराना चाहा उतने ही अटल ईश्वर – विश्वास तथा आत्मबल से आपने उसे  तत्काल उत्तर दिया “ मैं मनुष्य को भगवान् नहीं मानता और अजमेर को सकल सृष्टि नहीं मानता “

प्रखर ऋषिभक्ति: धर्मवीर जी महाराणा प्रताप के साहस अभिमन्यु के महान पौरुष की प्रतिमूर्ति थे .भला वह इन वज्र सम विपदाओं से कहाँ विचलित हो सकते थे . ऋषि मार्ग  के पथिक  का समझौता वादी व्यक्तित्व न होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानों वे स्वयं विपदाओं को आमन्त्रित कर रहे हों . ये जग उन्हीं धर्मवीरों का गायन करता है जो विपदाओं की परवाह किये बिना प्राण हथेली पर लिए रण भूमि में अर्जुन के गांडीव की तरह गुंजायमान हो रिपु दल के हृदयों को विदीर्ण कर विजय रस का पान करते हैं .

आचार्य धर्मवीर जी की इस विशेषता से कोई अभागा ही हो जो परिचित न हो . वैदिक धर्म पर यदि कहीं भी प्रहार होता था तो उनकी आत्मा कम्पायमान हो उठती थी, उनका ह्रदय वेदना से भर उठता था और कभी ऐसा न हुआ कि वैदिक धर्म पर प्रहार हुआ हो और धर्म रक्षक धर्मवीर की लेखनी न चली हो .

ऐसी ही घटना का  “ धौलपुर सत्यागृह शताब्दी यात्रा “ के समय सभा के मंत्री श्री ॐ मुनि जी ने वर्णण किया कि  एक दर्शनाचार्य ने ऋषी दयानन्द अब  अप्रसान्गिक  हो गए हैं, यदि अधिक लोगों को आकर्षित करना है तो ऋषि दयानंद का नाम मंच से न लिया जाये ऐसा कहने का दुस्साहस किया . इस घटना को दो और सज्जनों ने शब्द भेद, यथा “ऋषि दयानंद का नाम बदनाम हो गया है अतः प्रचार को संकुचित न करने के लिए इस नाम को प्रयोग न किया जाये” , के साथ सुनाया .

जिस धर्मवीर का रोम रोम ऋषि भक्ति के रंग में रंगा हुआ था जो ऋषि दयानन्द के लिए सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रतिपल सहर्ष तैयार था वह भला कहाँ ये सुन के चुप रह सकता था . ऋषि के लिए स्वजनों ने ऐसे शब्द  सुनते ही उनके ह्रदय में प्रबल प्रचण्ड धधकती हुयी ज्वाला जाग्रत होना स्वाभाविक ही था. धर्मवीर जी ने काल सम तुरन्त ध्वनियंत्र को लेकर सिंह गर्जना करते हुए कहा कि आपने जो शब्द अभी बोले हैं क्या वो दोहरा सकते हो ? सभा में सन्नाटा छा गया ! इस धधकती हुयी ज्वाला का सामना कौन करे . दर्शनाचार्य को माफी मांगनी पडी.

धर्म पर प्रतिवाद विश्व के किसी भी कौने में हो , चाहे वो ईसाईयों का “ पवित्र ह्रदय “ पत्रिका , जमाअते इस्लामी के  “ कांति “ मासिक का पुनर्जन्म खंड विशेषांक , रामपाल का ऋषि के प्रति विष वमन या स्वजनों का द्रोहराग  धर्मवीर जी की लौह लेखनी सदैव उद्वेग से आवेश से इनका  प्रतिकार करती रही . श्रद्धेय राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा लिखित “ अमर धर्मवीर “ में ऐसे अंकों उद्धरण उन्होंने दिए हैं. धर्मवीर जी विधर्मियों दारा धर्म पर कुत्सित प्रहार का बिना प्रतिकार लिए कहा चैन से बैठने वाले थे . धार्मिक गर्व पर अरि का प्रहार हो और जब तक प्राण  हैं गौरव मर्दन कैसे हो सकता है .धर्मवीर जी भीम की गदा, अर्जुन के गांडीव, हिमगिरि  सदृश्य रक्षक बन सदैव खड़े हो जाते थे. उस  धीरता की प्रतिमा कोमल दृदय देव का पौरुष, क्षत्रित्व सदा जागृत रह मानो धर्म की रक्षार्थ प्रज्वलित ज्वाला लिए न केवल अम्बर को गुंजायमान कर रहा था अपितु अनेकों आर्य वीरों को सुप्तता से जगाने धर्म के प्रति सजग होने की प्रेरणा का निमित्त था.

धर्म पर प्रहार होने की स्तिथी में आर्य लोग केवल परोपकारिणी प्रत्रिका की तरह ही आशा लिए निहारते थे. उन्हें आभास था यह वो धर्मवीर पौरुष है जो किसी लोभ के वश मूक नहीं रह सकते यह वह नेता कथित योगी नहीं जो दिन रात निमग्न योगचिंतनादि में ही लीन रहे. अपितु वो तो वह वीर योद्धा है जिसकी तलवार कभी म्यान में नहीं सोती वह तो हर दुषाशन के लिए भीम का प्रतिशोध है हर हिरण्यकश्यप के लिए नृसिंह का प्रतिशोध है वह तो लेखराम जैसी धर्म धुन का धुनी है जो यज्ञ वेदी पर धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व समर्पित करने के लिए सदैव उद्धत है .

वैदिक सिद्धातों पर निष्कंप निष्ठायुक्त , ऋषि की वाटिका के पुष्पों के रक्षार्थ सर्वस्व समर्पण का प्रण लिए ,स्वधर्मियों के अन्यायों से त्रसित वह विप्र, समर्पण का प्रतिकार करता हुआ , वज्र सम धर्म के मार्ग पर अविचल जीवन व्यतीत कर वर्तमान और भावी पीढी के लिए ऐसा जीवन दर्शन प्रस्तुत कर गया जो अनेक धर्म रक्षकों के पथ को अंतरिक्ष में ध्रुव के सम द्वीपित करता रहेगा .

धर्मवीर प्रतिपल युवकों में गौरवमयी आर्यत्व चैतन्य भरने का प्रयास सतत करते रहते थे. उनका स्नेह उनका समर्पण युवकों को सदैव आकर्षित करता था. वह प्रतिभा के धनी गहन शोध, ऋषि भक्ति, देशभक्ति के पर्याय थे उनका जीवन स्वयं में एक दर्शन है. आज आवश्यकता है कि हम उनके जीवन से प्रेरणा लें उन धुन के धुनी बनें .

लक्ष्मण जिज्ञासु ( पण्डित लेखराम वैदिक मिशन )

 

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है: आचार्य धर्मवीर

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है

वर्तमान समय में योग एक बहुत प्रचलित शब्द है, परन्तु अपने अर्थ से बहुत दूर चला गया है। योग के सहयोगी शब्दों के रूप में समय-समय पर कुछ शब्दों का प्रयोग होता रहता है- योगासन, योग-क्रिया, योग-मुद्रा आदि। इसी प्रकार कुछ अलग-अलग क्रियाएँ, जिनसे प्रयोजन की सिद्धि हो सकती है, उनका भी योग नाम दिया गया है- राजयोग, मन्त्रयोग, हठयोग आदि। इनसे परमात्मा की प्राप्ति होना अलग-अलग ग्रन्थों में बताया गया है। मूलत: योग शब्द का अर्थ जोडऩा है। जोडऩा गणित में भी होता है, अत: संख्याओं के जोडऩे को योग कहते हैं। जिस कार्य से प्रयोजन की सिद्धि न हो, उसे वह नाम देना निरर्थक है। योग में किसी से जुडऩे का भाव अवश्य है। हम समझते हैं, योग प्रात:काल-सायंकाल करने की चीज है। योग चाहे आसन के रूप में किये जायें, चाहे साधना के रूप में। आसन के रूप में योगासन स्वास्थ्य के लिए किये जाते हैं, किन्तु पूरे दिन स्वास्थ्य-विरोधी आचरण करते हुए योगासन करके कोई स्वस्थ नहीं हो सकता, क्योंकि प्रात:काल-सायंकाल योगासन करके शरीर को सक्रिय तो कर लिया, परन्तु भोजन और विश्राम के द्वारा ऊर्जा का संग्रह किया जाता है। भोजन, विश्राम यदि ठीक नहीं तो आसन व्यर्थ हो जाते हैं। व्यायाम, आसन, प्राणायाम आदि से तो तन्त्र को दृढ़ता और सक्रियता प्रदान की जाती है। उसी प्रकार योग-साधना का प्रयोजन परमेश्वर से मिलना है, उससे जुडऩा या उस तक पहुँचना है। यदि योग परमेश्वर तक पहुँचने के उपाय का नाम है, तो विचार करने की बात यह है कि उस परमेश्वर की प्राप्ति का यत्न तो प्रात:काल सायंकाल घण्टा-दो-घण्टा किया जाये, उससे दूर होने के काम सारे दिन किये जायें तो कल्पना कर सकते हैं कि हम कब तक परमेश्वर को मिल सकेंगे? यह तो ऐसा हुआ जैसे प्रात:काल-सायंकाल अपने गन्तव्य की ओर दौड़ लगाना और दिनभर उसके विपरीत दिशा में दौडऩा। ऐसा व्यक्ति जन्म-जन्मान्तर तक भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार पूरे जीवन प्रात:-सायं सन्ध्या, योग करते रहने वाला कभी भी परमेश्वर तक नहीं पहुँच सकता, क्योंकि वह उद्देश्य की ओर थोड़े समय चलता है, उद्देश्य के विपरीत अधिक समय चलता है। ऐसा व्यक्ति लक्ष्य से दूर तो हो सकता है, परन्तु लक्ष्य तक कभी भी नहीं पहुँच सकता।

योग परमेश्वर तक पहुँचने का उपाय है, तो यह कार्य कुछ समय का नहीं हो सकता। जैसे कोई व्यक्ति यात्रा पर निकलता है, तो सभी कार्य करते हुए भी उसकी यात्रा, उसी दिशा में निरन्तर आगे-आगे बढ़ती रहती है। मार्ग में वह सोता है, खाता है, बात करता है, किन्तु उसकी न तो यात्रा की दिशा बदलती है, न यात्रा पर विराम लगता है और वह देरी से या जल्दी गन्तव्य तक पहुँच ही जाता है। इसी कारण वेदान्त दर्शन में साधना कब तक करनी चाहिए- इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है- आ प्रायणात्तत्रापि दृष्टम्। लक्ष्य की प्राप्ति तक साधना करने का विधान किया गया है, अत: योग केवल प्रात:काल-सायंकाल की जाने वाली क्रिया नहीं है। यह जीवनरूपी यात्रा है, जिसका प्रयोजन परमेश्वर तक पहुँचना या उसे प्राप्त करना है। यह यात्रा तब तक समाप्त या पूर्ण नहीं हो सकती, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये। यह जीवन-यात्रा कैसे सम्भव है? इसको बताने वाले अनेक शास्त्र हैं, परन्तु योगदर्शन इसका सबसे अधिक व्यवस्थित, उपयोगी एवं सरल शास्त्र है। इस सारे योगदर्शन को संक्षिप्त किया जाये, तो तीन सूत्रों में बाँधा जा सकता है, शेष शास्त्र तो इन सूत्रों का व्याख्यान है।

प्रथम योग कैसे होता है, यह सूत्र में कहा गया है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। चित्त की वृत्तियों के निरोध-अवरोध करने का नाम योग है। जब चित्त की वृत्तियाँ अर्थात् उनका बाह्य व्यापार रुक जाता है, तो प्रयोजन की प्राप्ति हो जाती है। अगले सूत्र में बतलाया गया है, वह प्रयोजन क्या है, जो चित्त के बाह्य व्यापार को रोकने से सिद्ध होता है? तो पतञ्जलि मुनि कहते हैं- तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानम्। चित्त का कार्य ही आत्मा को संसार से जोडऩा है, जब उसे संसार से जोडऩे के काम से रोक दिया जाता है तो वह बाहर के व्यापार को छोड़ कर भीतर के व्यापार में लग जाता है। उसके भीतर का व्यापार आत्मदर्शन कहलाता है, जब वह स्वयं में स्थित होता है तो अपने में स्थित परमात्मा का भी उसे सहज साक्षात्कार होता है, अत: योग परमात्मा के साक्षात्कार करने का नाम है। जब हमारा चित्त हमारी आत्मा में नहीं होता तो निश्चित रूप से विपरीत दिशा में लगा होता है। क्योंकि मन एक क्षण के लिए भी निष्क्रिय नहीं रहता, अत: मनुष्य के सोते, जागते, वह कार्य में लगा रहता है, तब यदि वह अन्तर्मुखी नहीं होगा तो निश्चित रूप से बहिर्मुखी होगा। उसी को बताने के लिये पतञ्जलि मुनि ने सूत्र बनाया है- वृत्तिसारूप्यमितरत्र चित्त की वृत्तियों का निरोध न करने की दशा में चित्त सांसारिक व्यापार में ही लगा रहता है। यह स्वाभाविक और अनिवार्य है।

योग एक यात्रा है, जो जीवन के प्रयोजन को प्राप्त करने के लिए की जाती है। इस योग को समझने के लिए एक और विधि हो सकती है। संक्षेप में योग क्या है- जैसे एक शब्द में योग को समझाना हो तो कैसे समझा जाये? एक शब्द में योग को जानना हो तो वह शब्द है- ईश्वरप्रणिधान। प्रणिधान शब्द का अर्थ है- समर्पण। जब कोई साधक सिद्ध बन जाता है, अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, तब वह ईश्वर के प्रति अपना समर्पण कर देता है। जब व्यक्ति में समर्पण आता है, तब उसे अपना कुछ भी पृथक् रखने की इच्छा नहीं रहती, सब कुछ उसे उसका ही लगता है, जिसके प्रति वह समर्पित होता है। इसकी व्याख्या करते हुए व्यास जी कहते हैं- ऐसे साधक के कर्मों में- ईश्वरार्पणं तत्फलसंन्यासो वा, जैसे वह या तो स्वामी से पूछ कर कार्य करता है, उसके आदेश का पालन करता है और स्वयं कोई कार्य करता है तो उसे स्वामी के अर्पण कर देता है अर्थात् किये हुए कार्य के फल की इच्छा नहीं करता। ईश्वर और उसके मध्य स्वामी-सेवक का सम्बन्ध होता है, जैसे- श्रेष्ठ सेवक सदैव स्वामी को प्रसन्न करना चाहता है, सदा स्वामी के हित साधन में तत्पर रहता है, उसी प्रकार उपासक अपने उपास्य को प्रसन्न करने में तत्पर रहता है। स्वामी के आदेश की प्रतीक्षा करता है, आज्ञा पालन कर प्रसन्न होता है, अपने को धन्य समझता है, कृत-कृत्य मानता है।

ईश्वरप्रणिधान का महत्त्व समझने के लिये योगदर्शन के सूत्रों पर चिन्तन करना अच्छा रहता है। सूत्रों पर विचार करने से पता लगता है कि योग के अंगों में सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द ईश्वरप्रणिधान है। योग दर्शन में साधना, समाधि की सिद्धि के बहुत सारे उपायों में पहला मुख्य उपाय बताया है, ईश्वरप्रणिधान। पतञ्जलि ने सूत्र लिखा है- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्- ईश्वरप्रणिधान से समाधि सिद्ध हो जाती है। व्यास कहते हैं- ईश्वरप्रणिधान से परमेश्वर प्रसन्न होकर तत्काल उसे अपना लेता है।

कुछ विस्तार से योग समझाते हुए योगदर्शन के दूसरे पाद में, जिसे साधन पाद कहा गया है, उसमें क्रिया योग और अष्टांग योग का व्याख्यान किया है। इन दोनों स्थानों पर ईश्वरप्रणिधान का उल्लेख किया गया है। क्रिया योग का पहला सूत्र है- तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:। तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान क्रिया योग के तीन अङ्ग हैं। इसी प्रकार अष्टांग योग में सर्वप्रथम यम-नियमों की चर्चा की गई है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि। इन आठ अंगों में प्रथम दो हैं- यम और नियम। यम हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। नियम हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान। इस प्रकार नियमों में अन्तिम है- ईश्वरप्रणिधान। विस्तार से जब योग का कथन किया जाता है तो उसे अष्टांग योग कहते हैं। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है। कुछ कम विस्तार से योग के अंग बतलाये गये हैं- तप: स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोग:। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है तथा समाधि पाद में एक शब्द में जब योग की बात की गई है तो भी कहा गया- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्। अर्थात् एक शब्द में योग ईश्वरप्रणिधान है। यही उपासना है।

उपासना का अर्थ समझने के लिए उपनिषद् में एक सुन्दर दृष्टान्त आया है। वहाँ कहा गया है- जैसे भूखे बच्चे माँ की उपासना करते हैं, उसी प्रकार देवता अग्निहोत्र की उपासना करते हैं। उपासना ऐच्छिक नहीं है, जब इच्छा हुई की, जब इच्छा हुई नहीं की। समय मिला तो कर ली, नहीं समय मिला तो नहीं की। उपासना एक आन्तरिक भूख है, एक आवश्यकता है, जिसे पूरा किये बिना रहा नहीं जा सकता। एक भूख से पीडि़त बालक को माँ की जितनी आवश्यकता लगती है, उतनी ही तीव्र उत्कण्ठा एक उपासक के मन में उपास्य के प्रति होती है। तब उपासना सार्थक होती है। मनुष्य जिससे प्रेम करता है, जिसे चाहता है उसके निकट रहना चाहता है, उसी प्रकार परमेश्वर को उपासक अपने निकट देखना चाहता है। सदा अपने प्रिय की निकटता की इच्छा करना ही उपासना है।

जनसामान्य के मन में उपासना करने को लेकर बहुत संशय रहता है। उपासना कैसे प्रारम्भ की जाये, चित्त की वृत्तियों को कैसे रोका जाये, मन परमेश्वर में कैसे लगे आदि-आदि। जो लोग उपासना के अभ्यासी हैं, उनके अनुभव नवीन साधक के लिये उपयोगी हो सकते हैं। जहाँ तक मन को एकाग्र करने का प्रश्न है, मन कभी खाली नहीं रहता, उसकी रचना प्रकृति से हुई है, अत: वह स्वाभाविक रूप से सांसारिक विषयों की ओर दौड़ता है। उसे हम रोकना चाहते हैं, वह रुकने का नाम नहीं लेता। ऐसी परिस्थिति में मन को नियन्त्रित करने का सरल उपाय है- अपने पूर्व कार्यों का चिन्तन करना। इसमें प्रतिदिन प्रात:-सायं अपने दिनभर, रातभर के कार्यों पर विचार करने का विधान तो है ही, यदि दिन में जब भी खाली समय मिले, अपने पिछले कार्यों के विचार में मन को लगाया जाये, तो मन सरलता से अपने कार्यों पर विचार करने में व्यस्त हो जाता है। आज के, कल के, सप्ताह के या मास के कार्यों पर चिन्तन करते-करते मन अनायास ही उपासक के नियन्त्रण में हो जाता है। मन अपेक्षा करने लगता है कि उसे किसी कार्य में लगाया जाये, उसी समय मन को वाञ्छित कार्य में लगाया जा सकता है। उपासना की सफलता और उपासना में गति लाने के कई सरल नियम हैं, उनमें उपासना के लिए स्थान और समय का निश्चित करना भी आता है। निश्चित स्थान और निश्चित समय उपासक को उपासना के  लिये प्रेरित करते हैं। उपासना में बैठने के बाद आसन को सहज भाव से बिना बदले उपासक कितने समय बैठ सकता है, यह महत्त्वपूर्ण है। वस्तुत: आसन में इन्द्रियों को एकाग्र करने में सबसे सहयोगी क्रिया यही है कि उपासक कितनी देर तक आँखें बन्द करके बैठ सकता है? इन सामान्य बातों से उपासना में रुचि और गति दोनों बढ़ती हैं।

अब हमारी समझ में आ सकता है कि योग केवल प्रात:काल और सायंकाल किया जाने वाला व्यायाम नहीं, अपितु चौबीस घण्टे आनन्द में रमण करने का नाम है। जब हम जागते हुये, प्रात:काल के समय ब्रह्ममुहूर्त में सन्ध्या करते हैं, तब आँख बन्द करके योग करते हैं। सूर्योदय के समय सबके साथ बैठकर घी, सामग्री, समिधा से अग्निहोत्र करते हैं, यह भी उपासना है। अग्निहोत्र के लाभ बतलाते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं- यज्ञ में मन्त्रों के पढऩे से परमेश्वर की उपासना भी होती है। हम कह सकते हैं- यह आँख खोलकर अग्निहोत्र करना उपासना ही है। इसी प्रकार चौबीस घण्टे के व्यवहार में भी उपासना होनी चाहिए, तब उपासना क्या होगी? तब उपासना यम-नियम का पालन करना, दुकान करना, खेती करना, मजदूरी करना, नौकरी करना, सब कुछ उपासना होगी। उस समय यम-नियमों का पालन हो रहा होगा। इस प्रकार अकेले उपासना करना सन्ध्या है, परिवार के साथ उपासना करना अग्निहोत्र है और पूरे दिन सबके साथ, सभी प्रकार का व्यवहार यम-नियम पूर्वक करना सार्वजनिक उपासना है। यही योग है।

सामान्यजन की धारणा रहती है कि मुक्ति तो परमेश्वर की वस्तु है, वह उसकी कृपा व उसकी उपासना से मिलती है। यह बात सब लोग मानते और समझते हैं परन्तु संसार के विषय में ऐसा समझते हैं कि यह ईश्वर की वस्तु नहीं है या उससे विपरीत वस्तु है, इसीलिए संसार की वस्तुओं को पाने के लिए हम ईश्वर के विपरीत चलना आवश्यक मानते हैं। जबकि सच तो यह है कि संसार भी उसी ईश्वर का है जिसकी मुक्ति है, फिर जिस योग की साधना से ईश्वर मुक्ति देता है, वही ईश्वर योग की साधना करने से संसार के सामान्य सुख से वञ्चित क्यों रखेगा? योग संसार से होकर मुक्ति तक जाने का मार्ग है, इसलिए संसार का सुख भी बिना योग के मिलने की कल्पना नहीं की जा सकती। इस प्रकार संसार योग का विरोधी नहीं, योग की प्रयोगशाला है।

योग जीवन की यात्रा है, इसमें कभी गति तीव्र होती है, कभी मध्यम और कभी मन्द। इतना ही सब उपासना काल के बीच अन्तर है। इसी भाव को कृष्ण जी ने गीता के निम्न श्लोकों में कहा है-

नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।।

प्रलपन्विसृजन्गृöन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।

ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन? –डॉ. धर्मवीर जी

साभार :- परोपकारी पत्रिका 1994

ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन?

 

कुछ दिन पहले परली बैजनाथ में था, वहाँ यमुनानगर से श्री इन्द्रजित देव का दूरभाष आया, जिसमें सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में अग्निवेश द्वारा दिये गये वक्तव्य की चर्चा थी। कल उनके द्वारा भेजी गई समाचार पत्रों की कतरने भी मिलीं, जिनमें अग्निवेश का वक्तव्य तथा पंजाब में उस पर हुई प्रतिक्रिया छपी है। अग्निवेश का यह वक्तव्य भड़काऊ और शान्तिभंग करने वाला है। यह बात उस पर हई प्रतिक्रिया से भली प्रकार जानी जा सकती है।

११ जून के पंजाबी दैनिक स्पोक्समेन चण्डीगढ़ के पृष्ठ १ पर छपे अग्निवेश के वक्तव्य में कहा गया है कि वह आर्यसमाज का मुखिया हैं। और उन्होंने जोर देकर कहा- मुखिया होने के नाते वह वायदा करता है कि सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ दोबारा छापा जायेगा, इस ग्रन्थ को दोबारा छापने से पूर्व शिरोमणि कमेटी से वांछनीय सझाव मांगे जायेंगे। उसका यह भी कहना है कि सब धर्म महान् और सब ग्रन्थ पवित्र हैं।

इस वक्तव्य को पढ़कर ऐसा लगता है कि कल अग्निवेश पाकिस्तान में मुशर्रफ से मिलने जाये और तोहफे में दिल्ली भेट कर आये तो आप उसे क्या कहेंगे? यह तो उसकी मर्जी है, वह दिल्ली भेंट दे सकता है, परन्तु क्या अग्निवेश के कहने से दिल्ली मुशर्रफ की भेंट हो जायेगी?

सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में दिया गया वक्तव्य इसी कोटि का है।

पहले तो जो व्यक्ति अपने को आर्यसमाज का मुखिया बता रहा है, वह मुखिया है भी? इस व्यक्ति ने अपने जीवन में जो किया, चोर दरवाजे से, उलटे रास्ते किया। दूसरों के द्वारा बुलाये गये सम्मेलनों में जाकर उनका कार्यक्रम बिगाड़ना इस व्यक्ति फितरत रही है।

सभी संस्थाओं में धाँधली करना. चोर दरवाजे से घुसने की कोशिश करना जीवन भर का कार्यक्रम रहा उसी के चलते सार्वदेशिक सभा के भवन में उसने कब्जा कर लिया, ऐसा करके यदि कोई अपने को मुखिया कहे तो इसमें गलत कुछ भी नहीं। आज समाज और राजनीति में दादा लोग स्वयं ही मुखिया बन जाते हैं, उन्हें कोई मुखिया बनाता नही है।

इससे भी महत्त्वपूर्ण बात है कि इस मुखिया को पता नहीं है कि आर्यसमाज के संगठन की वैधानिक स्थिति क्या है, ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में तीन संगठन बनाये और तीन ही संविधान बनाये।

गोकरुणानिधि लिखी तो गोकृष्यादिरक्षणी सभा बनाई, उसके नियम और विधान बनाये, जीवन के अन्तिम दिनों में ऋषि ने परोपकारिणी सभा बनाई और उसका विधान और नियम बनाये।

इस अन्तिम सभा को महाराणा उदयपुर के यहाँ पर पंजीकृत कराया और सभा को अपनी समस्त चल, अचल सम्पत्ति सौंपी तथा अपने ग्रन्थ, यंत्रालय, वस्त्र, रुपये के साथ अपना उत्तराधिकार सौंपा।

इतनी ही नहीं, ऋषि ने अधिकांश ग्रन्थों की रजिस्ट्री भी कराई, जिससे कोई अग्निवेश उनके ग्रन्थों में उलट फेर न कर सके। चूंकि रजिस्ट्री कानूनन पचास साल तक चलता है, अत: अन्य लोग ऋषि ग्रन्थ पचास साल बाद ही छाप सके। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में अग्निवेश को किसी तरह का वक्तव्य देने का अधिकार ही नहीं है, परन्तु अग्निवेश को नियम औचित्य की परवाह ही कब है? यह फुंस के ढेर में आग लगाकर तमाशा देखने का आदी है।

यह वक्तव्य गलत है, एक अनधिकृत व्यक्ति के द्वारा दिया गया है, परन्तु लोगों को क्या पता कौन अधिकृत है। और कौन नहीं है? समाज गुटों में बँटा है, मुकदमों में फँसा है, जो चाहे अपने को मुखिया कह सकता है, इसलिए इस गलत वक्तव्य का भी समाज पर गंभीर प्रभाव होना ही था, हो रहा है।

पंजाबी दैनिक स्पोक्समेन चण्डीगढ़ १२ जून के पृष्ठ ३ पर खबर जो बरनाला शहर के हवाले से छपी है, उसमें कहा गया है,

“आर्यसमाज के मुखिया अग्निवेश की ओर से अमृतसर में श्री गुरु अर्जुनदेव की चौथी बलिदान शताब्दी को समर्पित शिरोमणि कमेटी की ओर से कराये गये आर्यसमाज के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को दोबारा शोध कर प्रकाशित करने की घोषणा का हार्दिक स्वागत करते हुए गुरु गोविन्द सिंह स्टडी सर्किल युनिट बरनाला के प्रधान प्रि. कर्मसिंह भण्डारी ने कहा कि इस ग्रन्थ का शोधन करते समय केवल गुरु नानक देव जी के बारे में लिखे अपशब्द ही नहीं हटाये जायें अपितु श्री गुरु अर्जुनदेव जी के महावाक्य ‘ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर’ के अर्थ का बिगाड़ रूप, श्री गोविन्दसिंह जी की ओर सज्जित व खालसा पन्थ के वरदान रूप में दिये ५ ककारों का उड़ाया गया मखौल तथा श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के सत्कार प्रति लिखे अपशब्दों के अतिरिक्त भक्त शिरोमणि कबीर जी, दाददयाल, महात्मा बद्ध तथा जैन धर्म की की गई निन्दा के शब्द भी हटाये जायें।”

समाचारों की इन पंक्तियों को पढने के बाद यह समझना इतना कठिन नहीं है कि अग्निवेश ने अपने वक्तव्य से ऋषि दयानन्द को गलत साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अगले ही दिन १२ जून के पंजाबी अखबार दैनिक स्पोक्समेन पृष्ठ ३ पर जालन्धर के हवाले से छपी पंक्तियां गौर करने लायक हैं-

“अमृतसर में अग्निवेश की ओर से सत्यार्थ प्रकाश में संशोधन करने सम्बन्धी बयान पर प्रतिक्रिया प्रकट करते हुए महान् चिन्तक श्री सी.एल. चुम्बर ने इस पुस्तक पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने की माँग की। उन्होंने  कहा कि इस पुस्तक में श्री गुरुनानक देव साहिब के अतिरिक्त भक्त कबीर जी, ईसाइयों, बौद्धों, जैनियों तथा मुसलमानों विरुद्ध काफी कुछ आपत्तिजनक शब्द लिखे गये हैं…। सत्यार्थ प्रकाश सम्बन्धी और विवरण देते हुए श्री चुम्बर ने बताया कि इसमें समाज को जातियों-पॉतियों में बाँटने वाली मनुस्मति के १५० से अधिक सन्दर्भ दर्ज हैं।” |

२६ जून २००६ को आउटलुक पत्रिका ने लिखा- चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता और प्रगतिशील संत कहे जाने वाले स्वामी अग्निवेश ने एक नया शिगूफा छोड़ दिया है। पंजाब में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा पंचम गुरु अर्जुन देव जी के ४०० वे शहीदो वर्ष को समर्पित एक सेमीनार को संबोधित करते हुए स्वामी अग्निवेश ने यह दावा कर दिया कि आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में सिखों के प्रथम गुरु गुरुनानक देव जी  के बारे में की गई टिप्पणियों को संशोधित किया जाएगा।

वर्ल्ड कौंसिल ऑफ आर्यसमाज के अध्यक्ष होने के नाते स्वामी अग्निवेश ने पंजाब के राज्यपाल जनरल (सेवा.) एस. एफ. रोड्रिग्स, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, एसजीपीसी के मुखिया अवतार सिंह मक्कड बोबी जागीर कौर की मौजूदगी में यह दावा किया कि सत्यार्थ प्रकाश का आगामी संस्करण संशोधित होगा और जिन बातों पर सिख बुद्धिजीवियों को आपत्ति है, उन अंशों को हटा दिया जाएगा।

उसके इस दावे से पंजाब में एक नई बहस उठ खड़ी हुई है, जिसने नई पीढ़ी के सिख युवकों में जिज्ञासा पैदा कर दी है कि स्वामी दयानन्द जी ने प्रथम गुरु श्री गुरुनानक देव जी के बार में ऐसी कौन-सी आपत्तिजनक बातें लिखी थी जिन्हें इस वक्त हटाने की जरूरत पड़ गई है? दूसरी तरफ पुरानी पीढ़ी के सिखों को शिरोमणि अकाली दल व आर्यसमाज के बीच पुराने विवादों का वह दौर याद आ गया है, जब अकालियों व आर्यसमाजियों के बीच तनातनी के रिश्ते थे |

 

 अग्निवेश को आर्यसमाज के सिद्धान्तों में कोई आस्था नहीं रही। ऋषि में कोई निष्ठा नहीं, उसकी आर्यसमाज को समाप्त करने के लिए विधर्मी और राष्ट्र विरोधी लोगों की ताकत बढ़ाने वाले कार्यकर्ता की छवि है। जो व्यक्ति सब धर्मों को पवित्र और सब धर्म ग्रन्थों को महान् बता रहा है, वही व्यक्ति ऋषि दयानन्द को और सत्यार्थ प्रकाश को गलत साबित कर रहा है। उसकी नजर में वैदिक धर्म महान् नहीं है, सत्यार्थ प्रकाश उसके लिए पवित्र नहीं है।

अग्निवेश का यह कोई आर्यसमाज और दयानन्द को गलत साबित करने का पहला प्रयास नहीं है, व्यक्तिगत रूप से और मंच से ऐसी बातें पहले भी अनेक बार कही गई हैं। परली बैजनाथ में कार्यकर्ताओं से विचार-विमर्श के दौरान दिल्ली सभा के प्रधान श्री राजसिंह ने बताया था कि हवाई जहाज में यात्रा करते हुए सत्यार्थ प्रकाश से १३वें व १४वें समुल्लास को निकालने की चर्चा अग्निवेश ने की थी। आर्यसमाज को सन्ध्या एण्ड हवन कम्पनी कहना इन्हीं लोगों ने शुरू किया था।

पिछले दिनों स्वामी सम्पूर्णानन्द करनाल वालों ने एक प्रसंग सुनाया। जब उड़ीसा में एक पादरी को जिन्दा जलाया गया था, अग्निवेश ने एक यात्रा निकालने की तैयारी की थी। इस व्यक्ति ने स्वामी सम्पूर्णानन्द को यात्रा के लिये निमन्त्रित किया।

उन्होंने कहा- उससे अधिक हिन्दू कश्मीर में मारे गये हैं, उनके लिए यात्रा निकालना पहले आवश्यक है।

अग्निवेश ने कहा ईसाई अल्पसंख्यक हैं, अत: उनका समर्थन जरूरी है।

स्वामी सम्पूर्णानन्द ने कहा- कश्मीर में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, इसलिए उनका ध्यान रखना अधिक जरूरी है।

इसका उत्तर अग्निवेश के पास नहीं था, क्योंकि समर्थन कमजोर का नहीं ईसाई का करना था। यहाँ स्मरण दिलाना उचित होगा कि अग्निवेश की सिफारिश पर चर्च ने धर्मबन्धु को २२ लाख रुपये का सहयोग किया था।

इससे अग्निवेश और चर्च के रिश्तों का अनुमान लगाया जा सकता है। अमेरिका वैदिक धर्म का प्रचार करने वालों को राय बहादुर नहीं बनाता, राय बहादुर बनने के लिए उनकी सेवा उनकी शर्तों पर करनी पड़ती है।

इस व्यक्ति की न संगठन में आस्था है, न सिद्धान्त में। इस व्यक्ति ने अपने जीवन में संगठन और सिद्धान्त को जितना तहसनहस किया जा सकता था, उसे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, फिर इस व्यक्ति को जो मिला, उसके पीछे समाज में और संगठन में सिद्धान्तहीन, स्वार्थी, कमजोर लोगों का होना ही मुख्य कारण रहा है। जिस समय इस व्यक्ति ने सार्वदेशिक सभा भवन पर कब्जा किया, उस समय आर्यजनता को दु:ख हुआ, परन्तु जो गये उनको समाज के लोग स्वार्थी और कमजोर मानते थे। समाज के लोग सिद्धान्तहीन होते जाते हैं, तभी दुष्ट लोग नेतृत्व पर काबिज होते हैं।

सार्वदेशिक भवन में बैठकर तथा उससे पहले भी संगठन को विकृत करने के लिए अग्निवेश ने मुसलमान, ईसाइयों को आर्यसमाज का सदस्य बनाने की वकालत की थी। ऐसा करने वालों के बारे में हमें स्पष्ट होना चाहिए जो कि स्वार्थी दष्ट प्रकृति का होता है उसे संस्था, समाज या देश के नुकसान की चिन्ता नहीं होती। यह कहना कि ईसाई मुसलमान रहते हुए वह आर्यसमाजी हो सकता है तो उससे भी आसान है सनातनी रहते हुए आर्यसमाजी रहना। अग्निवेश की नजर में सनातनी, मूर्तिपूजक, पुराणपन्थी का आर्यसमाजी होना रुचिकर नहीं होगा, जबकि वेद विरोधी सिद्धांत

 

विरोधी ईसाई और मुसलमानों का आर्यसमाजी होना उसे सही लगता है। वास्तविकता यह है कि ईसाई, की उपासना करने वाले व्यक्ति को आर्यसमाजी कहना बौद्धिक व्यभिचार व सैद्धान्तिक वेश्यावृत्ति है। या वेश्या, स्त्री के नाते तो एक है, परन्तु अन्तर इतना ही हैं कि एक की एक के साथ निष्ठा है, दूसरा निष्ठा नहीं, उसकी निष्ठा पैसों के साथ है।

ऐसे ही अग्निवेश की निष्ठा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ लक्ष्य की पूर्ती में है अतः उसका यह कथन कि कोई मुसलमान, ईसाई, जड़ पूजक, साकार उपासना वाला व्यक्ति हो सकता है, यह केवल बौद्धिक वेश्यावृत्ति है और कुछ नहीं।

इस बात की पुष्टि में एक और प्रसंग उद्धृत करना उचित रहेगा। दिसम्बर मास में नागपुर में राष्ट्रीय संगोष्ठी का प्रसंग। गोष्ठी की समाप्ति के दिन सायंकाल भोजन के पश्चात् डॉ. रामप्रकाश और अग्निवेश चर्चा कर रहे थे। अग्निवेश को डॉ. साहब से शिकायत थी।

अग्निवेश ने आचार्य बलदेव जी और आचार्य विजयपाल जी को हवालात पहुचाने का षड्यंत्र रच रखा था, जिसे डॉ. राम प्रकाश जी ने अनुचित मानकर असफल करा दिया। उनका कहना था- उनके जानते-बुझते आर्यसमाज की साधु गलत आरोप में हवालात भेजा जाय, यह कभी संभव नहीं। अग्निवेश से कहा गया- आचार्य बलदेव साधु हैं, उनके विरुद्ध ऐसा मिथ्या आरोप उचित नहीं, तो अग्निवेश का उत्तर था- कोई भी गेरवे कपड़े से क्या साधु हो जाता है? अब कोई बताये कौन साधु है या नहीं- यह प्रमाण-पत्र भी ढोंगी साधु से लेना पड़ेगा?

इससे इस व्यक्ति की मानसिकता का पता चलता है।

पाठको को याद होगा, अग्निवेश डॉट काम पर वर्षों तक वैदिक धर्म और ऋषि विरोधी बातों का प्रचार-प्रसार होता रहा। जब आपत्ति हुई तो मासूम कहता है, ये तो हमारे नाम से किसी ने बना दी है। हर बार अपराध करना और लोगों ने मुझे गलत समझा है- कहकर पीछा छुड़ाना, क्या यह लोगों को बेवकूफ बनाने वाली बात नहीं है? अग्निवेश का सिद्धान्तों और स्वामी दयानन्द से कितना प्रेम है.

इसके उदाहरण रूप में जनसत्ता दिनांक ६ अक्टूबर १९८९ का निम्न सन्दर्भ पढ़ने लायक है- “मुकदमें में स्वामी अग्निवेश ने मनु को देशद्रोही करार देते हुए उसे समाज का प्रबल शत्रु बताया। उन्होने कहा कि न्यायालय में जात-पाँत और छुआछुत के जन्मदाता मनु की प्रतिमा की स्थापना अन्यायपूर्ण है।” क्या ऐसा व्यक्ति ऋषि दयानन्द के सम्मान की रक्षा कर सकता है? अग्निवेश के बारे में सत्यार्थ प्रकाश की एक पंक्ति बड़ी सटीक लगती है

“अन्तः शाक्ता बहिश्शैवा: सभा मध्ये त वैष्णवाः’।

जहाँ तक दूसरे लोगों द्वारा सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप करने का प्रश्न है, उन लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ऋषि दयानन्द का स्थान किसी समाज सुधारक की तुलना में कम आँकने से ऋषि दयानन्द का कुछ बिगड़ने वाला है, परन्तु यह काम आकलन कर्ता के बुद्धि के दिवालियेपन का द्योतक अवश्य है।

ऋषि दयानन्द ने जो लिखा और जो कहा, छिप कर नहीं कहा, समाज में उन वर्गों में जाकर कहा। उनका उद्देश्य देश और समाज के हित में वास्तविकता का बोध कराना मात्र था, किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं। उन्होंने किसी बात को अच्छी लगने पर उसकी प्रशंसा में कोई कमी नहीं छोड़ी।।

सत्यार्थ प्रकाश पिछले डेढ़ सौ वर्षों से पढ़ा-पढ़ाया जा रहा है, क्या पहले लोगों की समझ नहीं थी? मालूम होना चाहिए कि पटियाला नरेश के सामने शास्त्रार्थ के समय यही प्रश्न उठा था। उस समय भी यही उचित समझा गया था कि गुरु भी बड़े हैं स्वामी जी भी बड़े। किसी ने किसी को कुछ कहा-सुना तो उसके लिए अनुयायियों को लड़ना उचित नहीं है।

आज तो नेता बनने के चक्कर में लोग ऐसी बात ढूँढने की कोशिश में रहते हैं, जिससे समाज में विघटन और संघर्ष पैदा हो और उनको नेतागिरी करने का मौका मिले। हमें स्मरण रखना चाहिए कि सिक्खों में बहुत लोग आर्यसमाजी थे, क्या वे गुरुओं का महत्त्व नहीं मानते थे या शहीद भगतसिंह के पिता, चाचा को सत्यार्थ प्रकाश समझ में नहीं आता था? जब तब आपत्ति नहीं हुई तो आज क्यों होनी चाहिए?

जो व्यक्ति सत्यार्थ प्रकाश से आपत्तिजनक वक्तव्य हटाने की बात कर सकता है, क्या वह कुरान की उन आयतों को जिसे न्यायालय ने भी आपत्तिजनक माना है, उन्हें हटाना तो दूर हटाने की सिफारिश भी कर सकता है या नहीं, क्योंकि उसकी नजर में इस्लाम महान् धर्म है और कुरान पवित्र धर्म पुस्तक है। यहाँ वह उनका वकील है। ईसाइयों द्वारा देश में किये जा रहे षड्यन्त्रों की वह वकालत करता है, क्योंकि राजनीति में स्थान चाहिए।

क्या गुरु गोविन्दसिंह के शब्दों को वह पुस्तक से निकलवा सकता है, जिनमें तुर्क को गो-ब्राह्मण घातक कहकर उनके नाश की प्रतिज्ञा की है

जगे धर्म हिन्दू सकल धुन्ध भाजे

 

संध्योपासना क्यों?: – डॉ. धर्मवीर

यह लेख आचार्य धर्मवीर जी द्वारा बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में दिये गये प्रवचन का संकलन है। ये प्रवचन एक निश्चित विषय पर दिये गये हैं, इसलिये अति उपयोगी हैं। इन प्रवचनों को आचार्य प्रवर की ज्येष्ठ पुत्री सुयशा आर्य द्वारा लेखबद्ध किया गया है। – सम्पादक

आदरणीय प्रधान जी, मन्त्री जी, उपस्थित माताओ, बहनो, बन्धुओ! बनिए तो बहुत देखे, पर सुधीर जैसा नहीं मिला, आना था एक कार्यक्रम में पर वो कहने लगे कि एक दिन पहले आ रहे हो तो कार्यक्रम रख लेते हैं। मैंने कहा, खाली नहीं रहना चाहिए कोई आदमी। मैं तो इससे डरता हँू कि मैं १० साल से आपको बता रहा हँू, नया क्या बताऊँगा। लेकिन चलिए,  दोहराने में भी कोई बुराई नहीं है। आपने प्रश्र रखा है, संध्योपासना क्यों और कैसे? कोई भी काम जब हम करते हैं तो पहले यह प्रश्र आता ही आता है कि हम यह क्यों करें? हम किसी से भी कहते हैं-संध्योपासना करो, तो वो कहता है-क्यों करें? बच्चों को भी कहते हैं तो पूछते हैं, क्यों करें? किसी दुकानदार को कहते हैं तो वह कहता है, अरे क्या संध्योपासना, दुकान पर बैठेंगे तो दो ग्राहकों का काम होगा। अत: किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व उस कार्य की आवश्यकता अनुभव होनी चाहिए। यदि आवश्यकता अनुभव नहीं होती तो न उसे आप कर सकते, न करवा सकते और यदि किसी की आवश्यकता अनुभव होने लगे तो आप उसे मना भी करेंगे और रोकेंगे तो भी वो नहीं मानेगा, उसे करेगा ही। तो पहली चीज यह देखते हैं कि क्या संध्या करने की हमें कभी आवश्यकता अनुभव होती है?

सबसे पहले देखिए कि संध्या शब्द क्या कहता है-सम् कहते हैं ‘भली प्रकार’ और ‘ध्य’ का अर्थ होता है चिन्तन करना, विचार करना, भली प्रकार से ध्यान करना और दूसरा इसका नाम इसलिए भी संध्या है कि ये सन्धिकाल में किया जाने वाला कार्य है। अब सन्धिकाल तो हर क्षण है। एक क्षण से दूसरे क्षण के बीच का जो समय है, वो उन दोनों का सन्धिकाल है। घंटे से घंटे के बीच का समय है, वो सन्धिकाल है। परन्तु जो मुख्य सन्धिकाल है, अर्थात् काल के दो बड़े विभाग हैं-एक दिन और एक रात। उन दोनों के सन्धिकाल को संध्या का काल कहा जाता है।

दोनों की सन्धि होती है इसीलिए वो संध्या है, संध्या समय है। जैसे हम कहते हैं यह काम संध्या समय करने का है, तो  सायंकाल करने का है। संध्या समय तो दोनों समय हो सकता है। प्रात:काल दिन के प्रारम्भ की और रात के अन्त की सन्धि है। ये दोनों संधिकाल हमारे लिए संध्या करने के लिए चुने गए हैं। ये इसलिए चुने गए हैं कि हमारा कार्य से और समय से एक ताल-मेल है। काम का भी विभाजन है और समय का भी विभाजन है। अर्थात् जब रात शुरू होती है तो रात के काम अलग और दिन जब प्रारम्भ होता है तो दिन के काम अलग। एक व्यक्ति रात भर विश्राम करता है, घर में रहता है, दिनचर्या करता है, लेकिन सवेरे जब उठता है तो जागने के काम शुरू हो जाते हैं। वो समाज के, घर के, व्यक्ति के, व्यवसाय के कामों को करता है। दो अलग-अलग काम उसके जीवन से बन्धे हुए हैं। एक का प्रारम्भ और एक की समाप्ति उन दोनों की सन्धि है। काल की दृष्टि से ‘सन्धि’ और ध्यान की दृष्टि से सम्यक् ध्यान के कारण ‘संध्या’ और जो दो सन्धियों का काल है इसके कारण भी संध्या। हमारे ऋषियों ने दो समयों को चुना है कि दो समय हमको संध्या करनी चाहिए। सम्यक् ध्यान करना चाहिए। पहले तो इसको यूँ समझ लीजिए कि जब एक काम पूरा हो जाए, तो उस पर विचार कर लेना चाहिए कि इसमें कोई भूल, कोई त्रुटि तो नहीं हुई। दूसरा यह होना चाहिए कि जब कोई कार्य प्रारम्भ किया जाए तो उस पर भी विचार हो जाना चाहिए कि इसको कैसे किया जाए। ताकि इसमें कोई त्रुटि न हो। यदि ये दो बातें हो जायें तो वो काम कम से कम त्रुटि वाले होंगे। एक नियम है कि आप जिस काम को करना चाहते हैं, उस पर आपने यदि चिन्तन किया हुआ है, उसकी विधि पर विचार किया हुआ है तो आपको कोई असुविधा नहीं होगी। अकस्मात् करना पड़े तो कई समस्यायें पैदा हो सकती हैं। कुछ भूल सकता है, कुछ अतिरिक्त आ सकता है। इसी तरह जब कोई काम हो जाता है तो उसके बारे में यदि व्यक्ति चिंतन करता है, उसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि उसमें यदि कोई त्रुटि हो जाती है तो भविष्य में वो त्रुटि नहीं होती है।

चिंतन का एक नियम है, जैसे आप किसी चर्चा को सुन रहे हैं, आप चर्चा सुन तो रहे हैं, लेकिन यह चर्चा आप वास्तव में ग्रहण कर रहे हैं या नहीं, इसका बोध तब होता है, जब आपके सामने कहा हुआ विचार आपके मस्तिष्क में दोबारा आ जाए। आपका ध्यान उस पर दोबारा चला जाए तो वो चीज फिर भूलती नहीं है। हम भाषण में बहुत बातें सुनते हैं, लगता है कि हम सुन रहे हैं, वास्तव में हम सुनने की परिस्थिति में होते ही नहीं, क्योंकि सुनता शरीर नहीं है, सुनता तो मन है। मतलब मन हमारी बातों में लगा है तो हम सुनते हैं और यदि मन हमारी बातों में नहीं लगा है तो उस समय हम बैठे होने पर भी सुनते नहीं हैं। जब कभी मुझे विद्यार्थियों से चर्चा करने का अवसर होता है, तो मैं उनसे एक बात कहता हँू, अध्यापक को यह कैसे पता लगता है कि आप सुन रहे हैं या नहीं सुन रहे हैं? कान में तो यह विशेषता नहीं है कि वो उधर जाए जिधर बात हो रही हो, लेकिन आँख में एक विशेषता है, वो उधर जाती है, जिधर आप देख रहे हैं। उसी तरह से एक नियम है कि जिधर आँख होगी, आपके कान भी अपने आप उधर ही होंगे। यदि कोई व्यक्ति वक्ता की ओर दृष्टि डाले हुए है, तो एक स्वाभाविक-सी बात है कि वो सुन रहा है। इसलिए मैं छात्रों से कहता हँू कि छात्र यदि अध्यापक को देख रहा है तो अध्यापक को सुन रहा है और यदि अध्यापक को नहीं देख रहा है तो नहीं सुनता। वो बैठा जरूर है, लेकिन सुनने से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। उसी तरह से जब हम किसी बात को वक्ता के बोलते-बोलते सोच लेते हैं तो हमारा उस पर ध्यान चला जाता है और वह हमें याद रह जाता है। इसलिए जो चीज आप याद करना चाहते हैं उसका आपक ो चिन्तन करना होगा, विचार करना होगा, ध्यान करना होगा।

आपने प्रश्र उठाया है कि संध्या क्यों करनी चाहिए। कोई कारण होना चाहिए, कोई उपयोग होना चाहिए, कोई उससे मतलब निकलना चाहिए तब ही तो हम कोई काम करेंगे। इसको आप ऐसे समझ सकते हो, आप किसी भी व्यक्ति को देखिये कि वो कहीं जाता है पूजा करने, उपासना करने, किसी की आराधना करने, मुसलमान मस्जिद की ओर जा रहा है, ईसाई चर्च की ओर जा रहा है, सिख गुरुद्वारे की ओर जा रहा है, कोई मन्दिर की ओर जा रहा है, तो आपको लगता है कि सब अलग-अलग जा रहे हैं, इसका मतलब ये एक नहीं हंै। आप विचार करके देखेंगे तो वो इस अंश में एक हैं कि वो क्यों जा रहे हैं। जो मस्जिद की ओर जा रहा है, उसके जाने का भी कारण है और जो चर्च में जा रहा है, उसके जाने का भी कारण है, जो मन्दिर में जा रहा है, उसके जाने का भी कारण है। इन सबका जो कारण है, वो समान मिलेगा। जिन इच्छाओं को लेकर वो अलग-अलग व्यक्ति जा रहे हैं, वो इच्छाएँ सबकी समान हैं। चाहे वो मुसलमान है, चाहे वो हिन्दू है, चाहे ईसाई है या कोई और है।  इसका अभिप्राय यह है कि हमारी एक आवश्यकता जो मनुष्यों की है वो समान है। उसके लिए हमने उपाय अलग-अलग किए हैं। उपाय ठीक हैं या नहीं हैं। ये अलग चीज है।

हम क्यों करें उपासना, उसका उत्तर यदि हम ढूँढ़ना चाहते हैं, खोजना चाहते हैं तो आप ये याद करें कि कोई व्यक्ति कब मन्दिर की ओर जाता है? उसे मन्दिर की याद कब आती है? इसको दूसरे शब्दों में कहें कि हम सब ईश्वर को कब याद करते हैं? जब प्रसन्न होते हैं तब तो नहीं करते, जब हम अपने कामों में व्यस्त रहते हैं, हमें कोई बाधा नहीं होती है, तब भी हम नहीं करते हैं। हम ईश्वर को याद तब करते हैं जब आपको कहीं से किसी की सहायता की आवश्यकता लगे। जब ऐसा लगे कि यह बात पूरी नहीं हो रही है या अपने पास आस-पास के साधनों से किसी काम को करने में असमर्थ हो जाते हैं। कोई व्यक्ति बीमार है, रोगी है, सामान्य रोग होता है, तो दवा ले लेता है। विशेष रोग होता है तो डॉक्टर के पास चला जाता है। लेकिन डॉक्टर से भी कुछ ऐसा लगता है कि ठीक होना कठिन है। तब उसको लगता है कि अब हमारा सामथ्र्य समाप्त है।

शेष भाग अगले अंक में…..

छ: दर्शनों की वेद मूलकता डॉ. धर्मवीर

साहित्य के अन्य क्षेत्रों की भांति भारतीय दर्शनों का भी अनेकधा विद्वानों ने विस्तृत अध्ययन किया है। दर्शन साहित्य को अनेक दृष्टिकोण से जाँचा और परखा है। इसका वर्गीकरण आस्तिक या नास्तिक, वैदिक या अवैदिक, सेश्वर, निरीश्वर अनेक प्रकार से देखने में आता है। इस सबके पश्चात् हमारे इस निबन्ध में ऐसा क्या शेष रहता है, जो आलोच्य हो। दर्शन सम्बन्धी अध्ययन करने पर एक बात बार-बार ध्यान आती रहती है, दर्शनों का अध्ययन करने वालों ने इसे समग्र रूप में देखने का प्रयास कम किया है। अनेक विद्वानों ने दर्शन शास्त्र का अध्ययन करते हुये, इनको पृथक्-पृथक् मानकर इनका अध्ययन व समालोचन किया है। इस कारण इनमें विद्यमान सामंजस्य की अपेक्षा विभेद विरोध में परिवर्तित होता दिखाई पड़ता है, जिसके कारण अनेक सम्प्रदाय परस्पर नीचा दिखाते अपशब्दों का प्रयोग करते दिखाई देते हैं। यह विरोध क्या उचित और वास्तविक है? इसे जाँचने के लिए इनके समग्र रूप का चिन्तन किया जाना चाहिए। इस दृष्टि से छ: भारतीय दर्शनों में क्या परस्पर सामंजस्य है, इस पर इस निबन्ध में विचार किया जायेगा।

समग्र अध्ययन की आवश्यकता- विरोध की विद्यमानता में एकरूपता की खोज क्यों आवश्यक है, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है। दर्शन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वस्तुओं का विवेचन कर यथार्थ का बोध कराने में सहायक होता है। इसलिए सभी दर्शनों में विरोध स्वाभाविक है, तो उनका निर्णय भिन्न-भिन्न होगा, ऐसा निर्णय दर्शन के लक्ष्य को पूरा करने में समर्थ नहीं होगा। विद्वानों के विचार में अनेक प्रकार से वस्तु को परखने की प्रवृत्ति हो सकती है, परन्तु वह विभिन्नता विरोध हो, यह अनिवार्य नहीं है। दर्शनों में विरोध स्वाभाविक इस कारण भी नहीं है, क्योंकि दर्शनों को शास्त्र कहा गया है। इनका दूसरा नाम उपाङ्ग है, जिस प्रकार वेदांग वेद के अंग होकर वेद के विरोधी नहीं हो सकते, उसी प्रकार वेद के उपांग वेद के विरोधी नहीं होने चाहिएं। यदि विरोध दिखाई दे तो उसे जानने का यत्न करना चाहिए कि यह विरोध वास्तविक है या कल्पित है। इस विरोध और अविरोध को जाँचने के कई प्रकार हो सकते हैं, उनमें से एक प्रकार है- दर्शनों की वेद के विषय में क्या सम्मति है। इस सम्मति को सब दर्शनों में देखने से विरोध या अविरोध का निश्चय करने में सहायता मिल सकती है।

प्रसिद्ध रूप में छ: दर्शन हैं, उनको दो-दो के साथ रखकर देखने की परम्परा है, जिससे प्रतीत होता है कि इनमें परस्पर निकटता है। यथा- सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त। इनकी एकरूपता या परस्पर पूरक होने के लिए ये प्रचलित कथ्य सहायक हो सकते हैं। यद्यपि आज ईश्वर-विचार के कारण सांख्य और योग में कोई साम्य नहीं दिखाई देता, परन्तु डॉ. राधाकृष्णन् का कथन है- ‘सांख्य इज़ द थ्योरी ऑफ योग एण्ड योग इज़ द प्रेक्टिस ऑफ द सांख्य’, यदि इनमें विरोध है तो समानता के इस प्रकार के प्रसंग निश्चय ही विरोध से अधिक होने चाहिएँ।

इसी प्रकार मीमांसा और वेदान्त विरोधी समझे जाते हैं, परन्तु एक का नाम पूर्व मीमांसा है और दूसरे का नाम उत्तर मीमांसा है, जो दर्शन के लक्ष्य और क्षेत्र को प्रकाशित कर रहे हैं। मीमांसा करना दोनों का लक्ष्य है, परन्तु पूर्व और उत्तर शब्द मीमांसा के क्षेत्र पर स्पष्ट रूप से प्रकाश डाल रहे हैं। इस प्रकार क्षेत्र भिन्न होने पर भी उनमें विरोध हो, यह अनिवार्य नहीं है। इस प्रकार इन दर्शनों को विरोधी कहने से पूर्व हमको विचार अवश्य कर लेना चाहिए। इसमें विद्वानों के विचार के साथ-साथ दर्शन स्वयं इस पर कैसी दृष्टि रखते हैं, यह जानना उचित है। इसी बात के लिए इस प्रसंग में दर्शनों में वेद सम्बन्धी विचारों का विवेचन किया गया है।

योग दर्शन और वेद- योग दर्शन में वेद की चर्चा अनेक स्थानों पर आई है। स्पष्ट रूप से वेद शब्द नहीं है, परन्तु अन्य प्रकार से वहाँ वेद का ही ग्रहण है, इसे व्याख्याकारों ने भी उसी प्रकार स्वीकार किया है। सर्वप्रथम योगदर्शन में वृत्तियों के निरूपण प्रसंग में प्रमाणों की विवेचना करते हुए कहा गया है- प्रत्यक्षानुमानागमा: प्रमाणानि। (१-७) यहाँ आगम शब्द मुख्य रूप से वेद का बोधक है, जैसा कि समस्त आर्ष साहित्य में अधिगृहीत होता है।

इसी प्रकार वैराग्य की विवेचना करते हुए आनुश्रविक शब्द का प्रयोग किया गया है, जो वेद के अर्थ में आता है अनुश्रवो वेद:- इस प्रकार लौकिक एवं वैदिक विषयों का योग में निषेधात्मक सम्बन्ध दर्शाया है कि जो सम्बन्ध आत्मा में आसक्ति के भाव बढ़ाते हैं। दृष्टानुश्रविक विषय वितृष्णस्य वशीकार संज्ञा वैराग्यम्। – योग (१-१५)

योगदर्शन के द्वितीय पाद में क्रिया योग को समझाते हुए तप और ईश्वर प्रणिधान के साथ स्वाध्याय का उल्लेख है, जिससे मुख्य रूप से वेद एवं गौण रूप से उपनिषदादि आध्यात्मिक शास्त्रों का ग्रहण होता है। ‘तप: स्वाध्यायेश्वर-प्रणिधानानि क्रियायोग:’ -योगदर्शन (२-१)

इसी प्रकार इसी पाद में योग के आठ अंगों में से नियम की व्याख्या करते हुए फिर से स्वाध्याय शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ वेद है। ‘शौच सन्तोष तप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा:’ (२-३२)। इसी प्रसंग में स्वाध्याय का लाभ दर्शाते हुए इसे परमात्मा का साक्षात्कार कराने वाला कहा है – ‘स्वाध्यायादिष्टदेवता सम्प्रयोग:’ (२-४४)

योगदर्शन के कैवल्य पाद में सिद्धियों के भेद बतलाते हुए मन्त्रजा सिद्धियों का उल्लेख है। इसकी व्याख्या करते हुए मन्त्र का अर्थ वेद किया है।

इस विवरण से स्पष्ट है कि दर्शन का लक्ष्य ईश्वर होने पर भी उसकी प्राप्ति का साधन वेद है और योगदर्शन का ईश्वर वेद प्रतिपादित ईश्वर से भिन्न नहीं है। इस प्रकार योगदर्शन को वेद का उपाङ्ग कहा जाना उचित प्रतीत होता है।

सांख्य दर्शन और वेद- सांख्य दर्शन को आजकल का पठित व्यक्ति निरीश्वरवादी जानता है। सांख्य ग्रंथ के रूप में ईश्वर कृष्ण विरचित सांख्यकारिका का ही पठन-पाठन होता है। यह स्पष्ट रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। सांख्य सूत्र को अन्य सूत्र ग्रन्थों की भांति विद्वानों ने प्राचीन स्वीकार किया है। इस विषय में दर्शन के इस युग के विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री के सांख्यदर्शन का इतिहास और सांख्य सिद्धान्त ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार सांख्य निरीश्वरवादी नहीं है। यह दर्शन वैदिक दर्शन है अत: वेद के सम्बन्ध में दर्शन ने क्या कहा है, प्रस्तुत प्रसंग में इतना ही विवेचन पर्याप्त है। इस विवेचन से स्वत: स्पष्ट होगा कि जिसे वेद मान्य है, उसे वेदोक्त विचार भी मान्य हैं।

जीव के मध्यम परिमाण की सिद्धि करते हुए जीवन में गति किस प्रकार होती है, इसका विवेचन करते हुए कहा गया है- ‘गतिश्रुतिरप्युपाधियोगादाकाशवत्’ (१-५१) यहाँ पर श्रुति द्वारा प्रतिपादित गति का आकाश की भांति जीव में घटित होना बताया है, श्रुति में वेद व उपनिषदों में इसके उदाहरण दर्शाये हैं, यथा- ‘आयोधर्माणि प्रथम’ (अथर्व. ५-१-२)

इसी भांति प्रकृति के उपादानकारण का निरूपण करते हुए कहा है- तदुत्पत्तिश्रुतेश्च (सांख्य १-७७) श्रुति में प्रकृति को उपादान कारण कहा गया है।

मुक्तात्मन: प्रशंसोपासा सिद्धस्य वा (सां. १-१५) सृष्टिकत्र्ता परमात्मा की प्रशंसा वेद में सपर्य. यजु. ४०-८ तथा पूर्णात् पूर्ण. अथर्व. १०-८-२९ उसमें आगे सिद्धरूपबोद्धृत्वाद्वाक्यार्थोपदेश: (सां. १-९८) में ईश्वर से वेद के प्रादुर्भाव की चर्चा है। इसी प्रकार तीसरे अध्याय के श्रुतिश्च (सां. ३-८०) वेद के आधार पर विवेक-ज्ञान हो जाने पर जीवन्मुक्त होने की चर्चा है। आगे वैदिक कर्मों के अनुष्ठान की आवश्यकता बतलाते हुए कहा गया है, मंगलाचरणं शिष्टाचारात् फलदर्शनात् श्रुतितश्चेति (सां. ५-१) कुर्वन्नेवेहकर्माणि. यजुर्वेद (४०-२) में वैदिक कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने के लिए कहा है। श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य (सां. ५-१२) में प्रकृति के कार्य को बताने में श्रुति को प्रमाण कहा है। लोक की भांति वेद की भी सार्थकता बताते हुए कहा है- लोके व्युत्पन्नस्य वेदार्थप्रतीति:। (सां. ५-४०) जिस प्रकार लौकिक वाक्यों का अर्थ होता है, उसी प्रकार वेद-वाक्यों का भी अर्थज्ञान होता है। इससे आगे स्पष्ट रूप से वेद के प्रयोजन को इस प्रकार बताया है- न त्रिभिरपौरुषेयत्वाद् वेदस्य तदर्थस्याप्यतीन्द्रियत्वात् (सां. ५-४१) और आगे के सूत्रों में वेद की अपौरुषेयता प्रतिपादित की गई- न पौरुषेयत्वं तत्कत्र्तु: पुरुषस्याभावात्। (५-४६) वेद को अपौरुषेय के साथ स्वत: प्रमाण भी माना गया है- निजशक्त्याभिव्यक्ते: स्वत: प्रामाण्यम्। (सां. ५-५१) वेद ईश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्ति होने से स्वत: प्रमाण है। सांख्यदर्शन का उद्देश्य भी अन्य दर्शन से भिन्न नहीं है, जिस प्रकार योगदर्शन का उद्देश्य समाधि और मोक्ष है, उसी प्रकार सांख्य में भी इसी उद्देश्य का प्रतिपादन किया गया है- समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता। (सां. ५-११६) अर्थात् समाधि, सुषुप्ति और मोक्ष में ब्रह्म के साथ स्थिति रहती है।

इस प्रकार सांख्य और योग में कहीं भी विरोध की प्रतीति नहीं होती, वेद के सम्बन्ध में भी दोनों दर्शनों के दृष्टिकोण में कोई विरोध नहीं मिलता।

वैशेषिक दर्शन- सांख्य-योग की भांति न्याय-वैशेषिक को भी एक युग्म स्वीकार किया जाता है। अन्य दर्शनों की भांति वैशेषिक दर्शन में वेद विषय की धारणा अन्य दर्शनों से भिन्न या विरोधी नहीं है। दर्शन में धर्म के प्रमाण के लिए वेद को मुख्य कहा गया है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् (वै. १-१-३) धर्म का मुख्य प्रतिपादक प्रमाण वेद है। आगे वायु की संज्ञा वैदिक बताते हुए कहा है- तस्मादागमिकम् (वै. २-१-१७) आगे पुन:- तस्मादागमिक: (वै. ३-२-८) में आत्म संज्ञा को वेदोक्त बताया है। अयोनिज शरीरों की चर्चा में वेद को प्रमाण मानते हुए कहा है- वेदलिङ्गाच्च (वै. ४-२-११) अर्थात् वेद प्रमाण से भी उक्त अर्थ की सिद्धि होती है। आगे वैदिकाच्च (वै. ५-२-१०) दर्शनकार वेद को प्रमाण मानते हुए कहता है- बुद्धिपूर्वावाक्यकृतिर्वेदे (वै. ६-१-१) वेद में जो उपदेश किया गया है, वह सब बुद्धिपूर्वक है। बुद्धिपूर्वो ददाति (वै. ६-१-३) वेद द्वारा दान देने का विधान बुद्धिपूर्वक है। दर्शनकार अन्त में कहता है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यमिति (वै. १०-२-९) ईश्वर का वचन होने से वेद स्वत: प्रमाण है।

इन सूत्रों में वेद विषय में जो विचार व्यक्त किये हैं, इनसे स्पष्ट प्रतीत होता है। वेद विषय में दर्शन की धारणापूर्वक मान्यता समान प्रतीति होती है। अत: वेद की मान्यता से किसी भी दर्शन का विरोध नहीं है, अत: दर्शन में भी परस्पर विरोध का प्रतिपादन करना किस प्रकार उचित कहा जा सकता है।

न्याय दर्शन- न्याय दर्शन में अनेक प्रसंग है, जिसमें वेद के प्रति आदरभाव दर्शाया गया है। वेद को स्पष्ट रूप से प्रमाण मानते हुए दर्शनकार कहता है- मन्त्रायुर्वेद-प्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात्। (न्याय २/१/६९) मन्त्र तथा आयुर्वेद के समान आप्तोक्त होने से वेद प्रमाण है। आगे शरीर पार्थिव होने में शब्द प्रमाण का कथन करते हुए कहा गया है- श्रुतिप्रामाण्याच्च (न्याय. ३/१/३२) भस्मान्तं शरीरम्- आदि श्रुति के प्रमाण होने से शरीर पार्थिव है। अन्तिम अध्याय में दर्शन का उपसंहार करते हुए- समाधिविशेषाभ्यासात् (न्याय. ४/२/३८) में तत्त्वज्ञान के लिए योगदर्शन की भांति समाधि के अभ्यास का विधान किया गया है और तदर्थं यमनियमाभ्यामात्म-संस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायै:। (न्याय. ४/२/४६) में योग का साधन यम-नियमों का पालन करने का विधान किया है।

इस प्रकार दर्शनों का लक्ष्य भी समान प्रतीत होता है। लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन भी समान हैं। फिर उनके सैद्धान्तिक विरोध की कल्पना करना, इन प्रमाणों की विद्यमानता में उचित प्रतीत नहीं होता।

पूर्व मीमांसा और वेद- मीमांसा दर्शन वेद के शब्द अर्थ सम्बन्ध को नित्य प्रतिपादित करता है यथा (१/१/५) साथ ही वेद के अपौरुषेय और नित्य होने में जितनी बाधक युक्तियाँ हैं, उनका निरसन किया गया है। इस प्रकरण में- वेदांश्चैके सन्निकर्षपुरुषाख्या:। (मीमांसा १/१/२७) कुछ लोग वेदों का रचयिता पुरुषों को बतलाते हैं- इस प्रसंग में इसका खण्डन किया गया है तथा परन्तु श्रुतिसामान्यमात्रम्। (मीमांसा १/१/३१) मन्त्र में आये ऋषि नामों को सामान्य संज्ञा बतलाया है। साथ ही सर्वत्वमाधिकारिकम् (१/२/१६) में सभी का वेदाध्ययन में अधिकार प्रतिपादित किया है। वेद का पाठ मात्र दर्शनकार को अभिप्रेत नहीं है- बुद्धशास्त्रात् (मीमांसा १/२/३३) में वेद के अर्थ सहित पठन-पाठन का विधान किया है। वेद से भिन्न वेद व्याख्या ग्रन्थों को दर्शनकार बाह्य कहता है- शेषे ब्राह्मणशब्द: (२/१/३३)

मीमांसा दर्शन यज्ञ-कर्मकाण्ड का प्रतिपादक है और वेद को परम प्रमाण स्वीकार करने वाला ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के अधिकांश सूत्र वेद की समस्याओं का समाधान करते हैं। इस प्रकार यह शास्त्र वेद के सम्बन्ध में उत्पन्न अनेक समस्याओं का समाधान करने वाला होने से विभिन्न कार्य का प्रतिपादक प्रतीत होने पर भी अन्य दर्शनों का विरोधी नहीं हो सकता।

उत्तर मीमांसा और वेद- उत्तर मीमांसा नाम के अनुसार यदि पूर्व मीमांसा का वेद से सम्बन्ध है तो उत्तर मीमांसा का वेद से सम्बन्ध होना स्वाभाविक है। इसका दूसरा नाम इस वेद से साक्षात् सम्बन्ध को प्रतिपादित करता है। वेदान्त नाम बता रहा है कि इस दर्शन का उद्देश्य वेद के रहस्य का प्रतिपादन करना है। इसका प्रत्येक सूत्र रहस्य का प्रतिपादक है। मध्यकाल में वेद को मनुष्यों से दूर करने का प्रयत्न किया गया और इसी दर्शन के आधार पर स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम् पंक्ति वेदान्त दर्शन के श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधात् स्मृतेश्च- १/३/३८ के भाष्य में आचार्य शंकर उद्धृत करते हैं, परन्तु सूत्र स्पष्ट रूप से आचारवान् का वेदाध्ययन में अधिकार और आचारहीन का अनधिकार प्रतिपादित करते हैं। वेद कहता है- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च। (यजु. २६/२) और सूत्रकार इसी बात की पुष्टि करते हुए कहता है- भावं तु बादरायाणोऽस्ति हि। (वेदान्त १/३/३३)

इसी प्रकार जीवात्मा के परमात्मा के एक देश में अंश साहचर्य के कारण है, इसमें दर्शनकार ने वेद प्रतिपादन को प्रमाण बतलाते हुए- मन्त्रवर्णाच्च (वेदान्त २/३/४४) कहा है।

परमात्मा को जीव के कर्मफलों का प्रदाता प्रतिपादित करते हुए सूत्रकार वेद को प्रमाण रूप में उपस्थित करता है श्रुतत्वाच्च (वेदान्त ३/२/३९) यदङ्गदाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि (ऋ. १/१/६) शन्नोऽस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे (यजु. ३६/८) अन्य दर्शनों की भांति वेदान्त का लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति है। दूसरे शास्त्रों की भांति योग साधना उसका साधन है। इस विषय में द्रष्टव्य है- ध्यानाच्च (वेदान्त ४/१/८) ध्यान से ब्रह्मोपासना होती है। अचलत्वं चापेक्ष्य (४/१/९) अचलत्व के बिना ध्यान सम्भव नहीं है और ध्यान के लिए आसन और आसन के लिए अनुकूल स्थान की अपेक्षा है- यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् (वेदान्त ४/१/११) जिस स्थान में एकाग्रता हो, उस स्थान में आसन लगाकर ब्रह्मोपासना करें।

इस प्रकार अन्य सभी दर्शनों की भांति वेदान्त भी वैदिक सिद्धान्तों का प्रतिपादक शास्त्र सिद्ध होता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि दर्शनों का पृथक्-पृथक् अध्ययन करके उनको परस्पर विरोधी प्रतिपादित करने की परम्परा किस प्रकार और कब प्रारम्भ हुई, यह विचारणीय है। जब सभी दर्शन वेद को परम प्रमाण मानते हैं तो परस्पर विरोधी होने पर वेद में एकवाक्यता गुण की प्राप्ति सम्भव नहीं है। दर्शनशास्त्र बुद्धिहीन बातों का प्रतिपादक शास्त्र नहीं हो सकता, अत: दर्शनों का विरोध कल्पित और अनावश्यक है।

आर्यसमाज – समस्या और समाधान:- धर्मवीर

आर्यसमाज से सम्बन्ध रखने वाले, आर्यसमाज का हित चाहने वाले लोग समाज की वर्तमान स्थिति से चिन्तित हैं। उन्हें दु:ख है कि एक विचारवान्, प्राणवान् संगठन निष्क्रिय और निस्तेज कैसे हो गया? इसके लिए वे परिस्थितियों को दोषी मानते हैं, आर्यों की अकर्मण्यता को कारण समझते हैं। यह सब कहना ठीक है, परन्तु इसके साथ ही इसके संरचनागत ढांचे पर भी विचार करना आवश्यक है, जिससे समस्या के समाधान का मार्ग खोजने में सहायता मिल सकती है।

स्वामी दयानन्द जी ने अपने समय की सामाजिक परिस्थितियों को देखकर ऐसा अनुभव किया कि धार्मिक क्षेत्र में गुरुवाद ने एकाधिकार कर रखा है, उसके कारण उनमें स्वेच्छाचार और उच्छृंखलता आ गई है। इनके व्यवहार पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता, इस परिस्थिति का निराकरण करने की दृष्टि से इसके विकल्प के रूप में प्रजातन्त्र को स्वीकार करने पर बल दिया। मनुष्य के द्वारा बनाई और स्वीकार की गई कोई भी व्यवस्था पूर्ण नहीं होती, जिस प्रकार अधिनायकवादी प्रवृत्ति दोषयुक्त है, उसी प्रकार प्रजातान्त्रिक पद्धति में दोष या कमी का होना स्वाभाविक है।

शासन में यह पद्धतियों का परिवर्तन चलता रहता है, परन्तु स्वामी दयानन्द की यह विशेषता है कि उन्होंने धार्मिक क्षेत्र में उसे चलाने का प्रयास किया जबकि धार्मिक क्षेत्र आस्था से संचालित होता है, जिसका बहुमत अल्पमत से निर्धारण सम्भव नहीं होता, परन्तु स्वामी जी का धर्म केवल भावना या मात्र आस्था का विषय नहीं अपितु वह ज्ञान और बुद्धि का भी क्षेत्र है। इसी कारण वे इसे प्रजातन्त्र के योग्य समझते हैं।

इससे पूर्व गुरु परम्परा की सम्भावित कमियों को देखकर गुरु गोविन्द सिंह सिक्ख सम्प्रदाय के दशम गुरु ने अपना स्थान पंचायत को दे दिया था, यह भी धार्मिक क्षेत्र की अधिनायकवादी प्रवृत्ति के निराकरण का प्रयास था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उसे और अधिक विस्तार दिया और समाज के सदस्यों को बहुमत से फैसला करने का अधिकार दिया।

यह प्रजातन्त्र का नियम आर्यसमाज के संस्थागत ढांचे का निर्माण करता है। समाज के सदस्यों की संख्या बहुमत के आधार पर उसके अधिकारियों का चयन करती है। अत: बहुमत जिसका होगा, वह प्रधान और मन्त्री बनेगा, मन्त्री बनने की कसौटी अच्छा या बुरा होना नहीं अपितु संख्या बल का समर्थन है, इसलिए अच्छे व्यक्ति अधिकारी बनें, यह सोच गलत है। अच्छा या बुरा होना अधिकारी बनने की वैधानिक परिधि में नहीं आता। अच्छे और बुरे का फैसला भी तो अन्तत: कानून के आधीन है। अत: जैसे सदस्यों की संख्या अधिक होगी, वैसे ही अधिकारी बनेंगे।

आर्यसमाज का सदस्य कौन होगा, जो आर्य हो, स्वामी दयानन्द द्वारा बनाये गये नियमों और सिद्धान्तों में विश्वास रखता हो तथा तदनुसार आचरण करता हो। चरित्र नैतिकता का क्षेत्र है, वह अमूर्त है, इसका फैसला कौन करेगा? अन्तिम फैसला सभा के सदस्य करेंगे, जिसका बहुमत होगा वह चरित्रवान् होगा, जिसका समर्थन कम होगा, वह चरित्रवान् नहीं कहलायेगा, जैसा कि आजकल संगठन हो रहा है, हम भली प्रकार जानते हैं।

सामाजिक संगठन की रचना सदस्यों के द्वारा होती है, सदस्यता चन्दे से प्राप्त होती है। जिसने भी चन्दा दिया है, वह आर्यसमाजी है, अन्य नहीं। ऐसी परिस्थिति में आप जब तक चन्दा देते हैं या जब तक संगठन आपका चन्दा स्वीकार करता है, आप आर्यसमाजी है, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार आपके परिवार का कोई सदस्य चन्दा देता है, तो आर्यसमाजी हैं, अन्यथा नहीं, ऐसी स्थिति में जिसके स्वयं के आर्यसमाजी होने का भरोसा नहीं, उसके परिवार और समाज के आर्यसमाजी बनने की बात वैधानिक स्तर पर कैसे सम्भव होगी, यह एक संकट की स्थिति है।

परमेश्वर का मुख्य नाम ‘ओ३म’ ही क्यों?: आचार्य धर्मवीर

यह लेख आचार्य धर्मवीर जी द्वारा बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में दि. २६/०६/२००१ को दिया गया व्याख्यान है, इस व्याख्यान में ईश्वर के स्वरूप और उसके नाम ओ३म् का विवेचन बड़ी ही दार्शनिक शैली से किया गया है।

-सम्पादक

ओ३मï् भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयातïï्।।

आज हम परमेश्वर के मुख्य नाम ‘ओ३मï्’ पर चर्चा करेंगे। बड़ा ही प्रसिद्ध नाम है। गायत्री-मन्त्र बोलते समय सबसे पहले  ‘ओ३मïï्’ शब्द आता है, पहले हम ‘ओ३मï्’ का स्मरण करते हैं। स्वामी जी इसका अर्थ करते हुए लिखते हैं कि ‘‘यह परमेश्वर का मुख्य और निज नाम है।’’ इसमें तीन चीजें ध्यान देने योग्य हैं- एक तो मुख्य, दूसरा निज और तीसरा है नाम। ये कोई विशेषण नहीं हैं।

सामान्यत: हम किसी से प्रश्न करते हैं कि आप कहाँ गये थे? वह कहता है कि भगवानï् के दर्शन करने, लेकिन भगवानï् तो कोई नाम नहीं होता, क्योंकि जो सबके साथ लगता है, वह नाम नहीं होता, सर्वनाम होता है। हम भगवानï् राम कहते हैं, भगवानï् कृष्ण कहते हैं, भगवती दुर्गा कहते हैं, भगवान् दयानन्द या भगवान् हनुमान कहते हैं। इस दृष्टि से देखा जाये तो सभी भगवान् हैं। समझ में नहीं आता कि आप कौन-से भगवान् की बात कर रहे हैं? आग्रहपूर्वक पूछने से पता लगा कि आप भगवान् राम की बात कर रहे हैं। जब हम राम की बात करते हैं तो राम का एक स्वरूप हमारे सामने आता है। राम की एक मूर्ति हमारे सामने आती है। उसमें एक धनुष होता है, एक ओर लक्ष्मण होता है, एक ओर सीता होती है। हमको पता चलता है कि यह राम है। बहुत सारे शब्दों के बहुत सारे अर्थ होते हैं, उन शब्दों का प्रयोग हम जब किसी प्रसंग में करते हैं, तब हमें उसका अर्थ मालूम पड़ता है। उदाहरण के लिए हम कहें कि ‘‘खाली है’’। अब बर्तन भी खाली होता है और दिमाग भी खाली होता है, लेकिन खाली होने में हमें कोई संदेह नहीं होता कि इस खाली का यहाँ पर अर्थ क्या होगा। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है कि जिस भाषा पर हमारा अधिकार है, जिस भाषा का हम अच्छी तरह प्रयोग करते हैं, जो भाषा हमें अच्छी तरह आती है, उसमें संदेह नहीं होता। लेकिन हम यदि अंग्रेजी या संस्कृत पढ़ रहे हों और उसे अच्छी तरह नहीं जानते हों तो उस शब्द का कोष में अर्थ देखना पड़ता है और जब कोष में अर्थ देखते हैं तो हमारी संगति नहीं बैठती। उदाहरण के लिए अग्नि शब्द का अर्थ स्वामी जी भगवान् करते हैं, वह हमें कुछ जमता नहीं, जँचता नहीं। कोष देखते हैं तो वहाँ पर अग्नि का अर्थ आग या फायर लिखा मिलता है। अब भगवान् अर्थ कहाँ से आ गया, यह हमारी समझ से परे है। हमें संदेह होता है कि कहीं गलती है समझने-समझाने में। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारा भाषा पर अधिकार नहीं है, इसलिए हमारे मस्तिष्क में कोष के अर्थ आते हैं, प्रसंग के अर्थ, उस पर घटित होने वाले अर्थ नहीं आते। जब किसी शब्द के अर्थ का निर्णय करना हो तो उसके आस-पास का प्रसंग देखना पड़ता है।

जब हम यह कहते हैं कि हम राम के दर्शन करने गये थे तो राम कहने के साथ उसका चित्र हमारे मन में उभरता है, निश्चित रूप से उभरता है। जिसका चित्र उभरता है, हम उसी के दर्शन करने गये थे। उसी के बारे में हम जानते हैं कि उसका पिता दशरथ है, उसकी माता कौशल्या है, उसका भाई लक्ष्मण है, उसकी पत्नी सीता है, वह अयोध्या का राजा है, उसका रावण के साथ युद्ध हुआ था। इसके अतिरिक्त और कोई बात हमारे ध्यान में नहीं आती। हाँ, राम नाम के बहुत से लोग हैं, वह याद आ सकते हैं, जैसे- परशुराम इत्यादि, किन्तु यदि हम केवल राम कहते हैं या दशरथ, सीता, अयोध्या  से सम्बन्धित राम कहते हैं तो हमें केवल एक ही राम याद आता है। राम भगवान् है, इसमें कोई दो राय नहीं हैं, किन्तु हम जिस अर्थ में मानते हैं, केवल उस अर्थ में। जब हम भगवान् कहते हैं तो उसका अर्थ उस चित्र में घटना चाहिए।

हम भगवान् को ऐसा मानते हैं कि वह सब जगह है, सबका है लेकिन राम कहने पर ऐसा होता नहीं है। भगवान् कहने से जो रूप सामने आता है, राम कहने से उससे भिन्न रूप सामने आता है, हरि कहने से उससे भिन्न रूप ध्यान में आता है। दुनिया में जितने भी व्यक्ति हुए हैं, उनका कोई नाम अवश्य है। हमें एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए कि बिना नाम के हमारा व्यवहार नहीं चल सकता। दुनिया में कुछ भी हो, सभी का कुछ न कुछ नाम अवश्य है। दुनिया की किसी भी वस्तु का, चाहे वह वास्तविक हो या काल्पनिक, भूत हो या भविष्य, जड़ हो या चेतन, हमें उसका नाम रखना ही पड़ता है। नामकरण करने के बाद उसे हम व्यवहार में ला सकते हैं और नाम क्योंकि आरोपित है, अर्थातï् हमने अपनी मर्जी से चस्पा कर रखा है, जैसे कोर्ट का आदेश किसी दुकान में चस्पा रहता है तो पता चलता है कि इसकी नीलामी होने वाली है, इससे पहले मालूम नहीं पड़ता। वैसे ही हम किसी पर नाम चस्पा करते हैं, यदि ऐसा नहीं होता तो हमारे पैदा होने के साथ हमारा कुछ नाम अवश्य होता। नाम हमारी मर्जी का होता है। गरीब का हम अमीरदास नाम रख सकते हैं, करोड़पति का गरीबदास नाम रख सकते हैं, क्योंकि यह हमारी मर्जी से चलता है। तो नाम हमारे द्वारा दिया गया है और हमारी मर्जी से चलता है, लेकिन यदि हम परमेश्वर को नाम दें तो क्या हो? क्योंकि अक्सर यह देखा गया है कि नाम देने वाला पहले होता है, जिसका नाम रखा जाता है, वह बाद में होता है। अब कल्पना करें कि राम को किसी ने नाम दिया, किसने दिया? दशरथ ने दिया, विश्वामित्र ने दिया, वशिष्ठ ने दिया और ये राम से पहले हुए, राम इनके बाद है। इससे साफ है कि जिसका नाम रखा, वह बाद में हुआ और जिसने नाम रखा, वह पहले हुआ। क्या भगवान् ऐसा है? ओ३मï् नाम क्या हमने रखा है? इसका उत्तर स्वामी जी ने दिया कि यह निज नाम है, उसका अपना नाम है, क्योंकि वह हमारे बाद में नहीं हुआ है, बल्कि हम बाद में हुए हैं। निज उसका अपना है और वह पहले से है। जब कभी हम एक दूसरे को मिलते हैं तो नाम बतलाना पड़ता है, क्योंकि बिना बतलाए तो समझ में नहीं आता है, तो परमेश्वर को भी अपना नाम बतलाना होगा और वह  नाम कहाँ बतलाया है? उसके तो बतलाने का एक ही शास्त्र है, वह है वेद। ‘‘ओ३मï् खं ब्रह्म।’’ ‘‘ओ३मï् क्रतोस्मर।’’ ऐसा कई जगह बतलाया है। वेद में आया है कि उसका नाम ओ३मï् है और ओ३मï् नाम केवल उसका है, क्योंकि ओ३मï् कहते ही हमें राम की तरह, हनुमान की तरह कोई मूर्ति ध्यान में नहीं आती। आ सकती है, बशर्ते कि हम किसी मूर्ति के ऊपर ओ३मï् लिखकर चिपका दें और हम उसके दर्शन करते रहें तो हमें शायद यह भ्रम हो जाये कि यह ओ३मï् है, लेकिन इतिहास में ऐसा अब तक हुआ नहीं है। एक बात हमारे समझने की है कि राम कहने से एक चित्र ध्यान में आया, शिव कहने से दूसरी घटना ध्यान में आई अर्थातï् दुनिया के जितने देवी देवता हैं, जिन्हें हम भगवान् मानते हैं, उन सबका एक विशेष चित्र है और वह दूसरे से भिन्न हैं। दोनों का स्टेटस, दोनों की स्थिति, दोनों की शक्ति, सामथ्र्य, योग्यता यदि एक है, तो उनके अलग-अलग चित्र क्यों हैं?

अलग-अलग चित्र हंै, अलग-अलग इतिहास है, अलग-अलग स्थान है। इसका मतलब उनकी अलग अलग सत्ता है तो यह अलग-अलग होना जो है, वह हमारी समस्या का हल नहीं है। उनका कभी होना और कभी नहीं होना, यह समस्या का हल नहीं करता। वकील मुझे सुलभ है, डॉक्टर मुझे सुलभ है तो वह मेरे काम आता है। मैं बीमार हूँ, मेरा डॉक्टर बाहर गया है तो मेरे काम नहीं आता है। मेरी पेशी है, मेरा वकील छुटï्टी पर है तो मेरा काम नहीं चलता है। भगवान् ऐसा चाहिए जो कभी मेरे से दूर न हो, मेरे से अलग न हो, मेरे से ओझल न हो, लेकिन ये जितने देव हैं, जितने भगवान् हैं, जितने मान्यता के पुरुष हैं, ये सब किसी समय में रहे हैं, उनसे पहले नहीं थे और उनके बाद नहीं हैं। उन सबकी मृत्यु कैसे हुई, कब हुई, उसका एक इतिहास हम पढ़ते, सुनते, जानते हैं, इसलिए उसका नाम शिव है। वह भगवान् विशेषण के साथ तो भगवान् है, किन्तु शिव अपने-आपमें भगवान् नहीं है। राम विशेषण के साथ तो भगवान् है, लेकिन राम रूप में भगवान् नहीं है, इसलिए यह बात बड़ी सीधी-सी है। फिर ओ३मï् का इससे क्या अंतर है, यह सोचने की बात है। इसके आगे स्वामी जी कहते हैं कि यह मुख्य नाम है। यदि बहुत सारे हों, तब उनमें से किसी को मुख्य किसी को गौण, किसी को आम, किसी को खास कह सकते हैं। यदि एक ही हो तो खास नहीं कह सकते। किसी के एक से ज्यादा नाम हो भी सकते हैं, ऐसा देखने में भी आता है।

हम घर में बच्चे को किसी नाम से पुकारते है, स्कूल में दूसरे नाम से पुकारते हैं। उन नामों को हम परिस्थिति से, गुणों से, सम्बन्धों से रखते हैं, लेकिन जब उसका नाम पूछा जाता है तो वह यह नहीं कहता कि मेरा नाम मामा जी है या चाचा जी है। वह बोलता है कि मेरा नाम अमुक है, जो उसका रजिस्टर में है, जो उसका स्कूल में है, जो निर्वाचन की नामावली में है, जो उसका सरकारी कागजों में है, उसको हम नाम कहते है, तो परमेश्वर के भी बहुत सारे नाम हो सकते हैं और इतने सारे हो सकते हैं कि हम परमेश्वर को कभी जड़ बना लेते हैं, कभी चेतन भी बना लेते हैं, कभी मूर्ति भी बना लेते हैं। जब कभी हम बहुत भक्ति के आवेश में होते हैं, तो एक श्लोक पढ़ा करते हैं – त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं ममï देव देव। उसे माँ भी कहते हैं, उसे पिता भी कहते हैं, उसे बन्धु, सखा सभी कहते हैं, अर्थातï् जितने सहायता के कारण हंै उनसे उसे पुकारते हैं, इसलिए यह कहना पड़ा कि परमेश्वर का मुख्य नाम ओ३मï् है। स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश में लगभग १०८ नामों की चर्चा की है और उन्होंने यह कहा है कि यह तो समुद्र में बूँद जैसा है, अर्थातï् जितनी वस्तुएँ इस दुनिया में हंै, उनके जितने गुण-धर्म हो सकते हैं, उनकी योग्यता, उसका स्वरूप हो सकता है, वह सबके सब परमेश्वर में हैं, इसलिए वह सारे शब्द परमेश्वर के वाचक हो सकते हैं, लेकिन उसका मुख्य नाम ये सब नहीं हो सकते। राम उसका नाम हो सकता है, गणेश उसका नाम हो सकता है, लेकिन उसका मुख्य नाम और एक ही नाम यदि कोई हो सकता है तो वह ओ३मï् ही हो सकता है। इसका पहला प्रमाण हमें वेद से मिलता है, दूसरा प्रमाण हमें वेद के बाद के ग्रन्थों से मिलेगा। वेद के बाद के ग्रन्थ को हम शास्त्र कहते हैं, उपनिषदïï् कहते हैं, दर्शन कहते हैं, आरण्यक कहते हैं। सभी उपनिषदों में इसकी पर्याप्त चर्चा है।

कठोपनिषदï् में इसकी विशेष चर्चा है। कठोपनिषदï् में जो चर्चा है, उसमें मुख्य बात यह है कि नाम के साथ उसका रूप भी घटना चाहिए। हमारे नाम और रूप, गुण इत्यादि में सम्बन्ध नहीं होता, लेकिन परमेश्वर में एक विशेष बात है- उसका नाम, जो उसने स्वयं रखा है, वह हमारी तरह अवैज्ञानिक नहीं होगा, अनपढ़ों जैसा नहीं होगा, अनुचित-सा नहीं होगा अर्थातï् बहुत अच्छा होगा। नाम के बारे में एक बार किसी ने शोध किया कि आर्यसमाज से पहले कैसे नाम रखे जाते थे और बाद में कैसे रखे जाते गये, उदाहरण के लिए मिर्चूमल, पंजमल, कोठूमल इत्यादि, किन्तु ऐसे लोगों का जब आर्यसमाज के साथ सम्बन्ध बना तो ये लोग वेदप्रकाश, धर्मप्रकाश इत्यादि नाम लिखने लगे।

स्वामी जी ने एक जगह लिखा है कि हम गुणों से भ्रष्ट हो गये तो कोई बात नहीं, किन्तु नाम से तो न हों। परमेश्वर के नाम में यह विशेषता होनी चाहिए कि वह और उसके गुण समान हों।

मनुस्मृति में लिखा है कि इस दुनिया में सबसे अन्त में मनुष्य पैदा हुआ, क्योंकि मनुष्य सबसे मुख्य है। जो मुख्य होता है, वह सबसे अन्त में आता है। किसी समारोह में मुख्य अतिथि पहले नहीं आता है, यदि आ जाता है तो गड़बड़ हो जाती है। एक समारोह में मुख्य अतिथि पहले आ गये तो मंत्री जी बोले- यह तो गड़बड़ हो गया, आप ऐसे कैसे आ गये? वह बोले- आ गये तो आ गये। मंत्री बोले-ऐसे नहीं होगा, हमारे जुलूस का क्या होगा? हम आपको फिर दोबारा लेकर आयेंगे।

मनुष्य इस संसार में सबसे बाद में आया है, सबसे मुख्य है, और क्योंकि मुख्य है, इसलिए उसका संसार से मुख्यता का सम्बन्ध है। एक प्रकार से सारा संसार उसके लिए ही है। इसे हम यदि ध्यान में रखेंगे तो हमें सारा विचार, सारा दर्शन समझ में आ जायेगा।

शेष भाग अगले अंक में…..

आचार्य धर्मवीर जी के प्रति उद्गार: – सोमेश पाठक

वही ऋष्युद्यान है, वही बगीचे, वही पक्षियों की चहचहाहट…

वही गगनचुंबी यज्ञशाला, वही सवेरा, वही वेद मन्त्रों की ध्वनियाँ…

वही रास्ते हैं और रास्तों पर चलने वाले भी।

वही हवाओं के झोंके, वही पेड़ों की सरसराहट और मन्द-मन्द खुशबुएँ……पर न जाने क्यूँ ये नीरस से हो गये हैं।

वही कतार में खड़े भवन कि जैसे मजबूर हैं स्थिर रहने को।

और आनासागर भी शान्त… कि जैसे रूठ गया हो और कह रहा हो कि वो आवाज कहाँ है?

जिसकी तरंग मुझमें उमंग लाती थी।

आह! सब कुछ तो वही है पर कोई है…..जो अब नहीं है।

– सोमेश पाठक

शिक्षा समानता का आधार है: -धर्मवीर

मनुष्य का व्यवहार जड़ वस्तुओं से भी होता है तथा चेतन पदार्थों से भी होता है। जड़ वस्तुओं से व्यवहार करते हुए वह जैसा चाहता है, वैसा व्यवहार कर सकता है। जड़ वस्तु को तोडऩा चाहता है, तोड़ लेता है, जोडऩा चाहता है, जोड़ लेता है, फेंकना चाहता है, फेंक देता है, पास रखना चाहता है, पास रख लेता है। वह पत्थर को भगवान् बनाकर उसकी पूजा करने लगता है, वह पत्थर उसका भगवान् बन जाता है। व्यक्ति उस पत्थर को अपनी सीढिय़ों पर लगाकर उन पर जूते रखता है, उसे उसमें भी कोई आपत्ति नहीं होती। अत: जड़ वस्तु के साथ मनुष्य का व्यवहार अपनी इच्छानुसार होता है, अपनी मरजी से होता है, जड़ वस्तु क ी कोई मरजी इसमें काम नहीं करती।

चेतन पदार्थों से मनुष्य सर्वथा अपनी इच्छानुकूल व्यवहार नहीं कर सकता। चेतन में पशु-पक्षी आदि प्राणियों के साथ अपना व्यवहार बलपूर्वक करता है। यद्यपि प्राणियों में चेतन पदार्थों में इच्छा होती है, उन्हें अच्छा बुरा लगता है, परन्तु मनुष्य अपनी इच्छा उन पर थोपता है। उन्हें अपनाता है, दूर करता है, प्रेम करता है, हिंसा करता है, उसमें अपनी इच्छा को ऊपर रखता है। दूसरे प्राणी प्रतिकार करते हैं, प्रतिक्रिया करते हैं, परन्तु जितना उनका सामथ्र्य है, वे उतने ही सफल हो सकते हैं। अधिकांश में मनुष्य अपने बल से उनको अपने वश में करने का प्रयास करता है और सफल रहता है।

मनुष्य का मनुष्य के साथ इस प्रकार व्यवहार करना संभव नहीं होता। मनुष्य अज्ञानी, दुर्बल, निर्धन भी हो सकता है, इसके विपरीत ज्ञानवान्, सबल और साधन सम्पन्न भी हो सकता है। इस कारण मनुष्यों का परस्पर व्यवहार किसी एक प्रकार का या एक नियम से होने वाला नहीं होता। जो मनुष्य दुर्बल या निर्धन है, उसे अपने साधनों से मनुष्य अपने अनुकूल करने का प्रयास करता है, परन्तु जो कुछ समझ सकते हैं, उनको वश में करने के लिए ये उपाय निरर्थक हो जाते हैं। ज्ञानवान् व्यक्ति को अपने अनुकूल बनाने के लिए मनुष्य दो उपाय काम में लाता है। यदि वह किसी का अपने लिए उपयोग करना चाहता है अपने स्वार्थ के लिए उन्हें काम में लेना चाहता है तो वह उनको बहकाता है, भडक़ाता है और अपना स्वार्थ सिद्ध करता है।

इन सबसे अलग भी एक उपाय मनुष्य अपनाता है, जिनसे वह दूसरे मनुष्यों को अपने अनुकूल बनाता है। यह परिस्थिति मनुष्य की सबसे ऊँची स्थिति होती है, जब वह अपनी बुद्धि और अपने ज्ञान से दूसरे को अपने साथ चलने के लिए सहमत कर लेता है। इसमें किसी का स्वार्थ नहीं होता। इस प्रकार सबका हित सबका लाभ मुख्य उद्देश्य होता है।

यह उपाय सबसे उत्तम होने के साथ-साथ सबसे कठिन भी है। जहाँ जड़ वस्तु मनुष्य की इच्छा के विरुद्ध नहीं चल सकती, पशु-पक्षी उसके बल से उसके बन्धन में पड़े रह सकते हैं, परन्तु मनुष्य ज्ञानवान् या साधन सम्पन्न होकर दूसरे मनुष्य के विरुद्ध चला जाता है। इसलिए एक कम बुद्धि और कम सामथ्र्य वाले व्यक्ति को अपने आधीन रखने का प्रयास करता है। वह यह प्रयास भी करता है कि उसके आधीन काम करने वाला उससे कम बना रहे। इसी भावना ने समाज में कुछ वर्गों को कमजोर बनाकर रखा है।

आज समाज में स्त्री और शूद्रों की स्थिति इसी भावना का परिणाम है। जो लोग सबको ज्ञान का अधिकारी नहीं मानते वे दूसरे पक्ष के ज्ञानवान् होने से डरते हैं। क्योंकि जो मनुष्य शिक्षित, समर्थ और स्वावालम्बी होता है, ऐसे मनुष्य को आधीन बनाकर रखना संभव नहीं है। अत: समाज के समर्थ लोगों ने स्त्री और शूद्र कहकर कमजोर लोगों को कमजोर बनाये रखने की व्यवस्था की और अपनी इच्छा को धर्म, समाज और शासन का नाम देकर कमजोर वर्ग को मानने, स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। आज जितने एक तरफा बन्धन हंै, उन पर लादे गये हैं। जैसे पर्दा, अशिक्षा, स्वतन्त्रता का अभाव। पिछले दिनों अफगानिस्तान में महिलाओं को शिक्षा से वञ्चित कर बुर्के मेें रहने के लिए बाध्य किया गया, कोई अंग बाहर दिखने पर उसे काट दिया गया। यह नृशंसता धर्म, सिद्धान्त और समाजिक व्यवस्था के नाम पर की गई, जो दूसरे पक्ष की अज्ञानता और दुर्बलता के कारण संभव है।

इसके विपरीत मनुष्य मनुष्य होने के नाते समान अधिकार और कत्र्तव्य का उत्तरदायी है। इस आदर्श को वैदिक-धर्म स्वीकार करता है। वेद मनुष्यों को पारस्परिक व्यवहार और सम्बन्ध समानता के आधार पर स्थापित करने का उपदेश देता है। वैदिक-धर्म ने सभी मनुष्यों को शिक्षा का अधिकार दिया है तथा समानता से कत्र्तव्य पालन करने की भी प्रेरणा की है। आचार्य शिष्य को अपने समान बनाने की इच्छा रखता है, पति-पत्नी परस्पर एक दूसरे को समान मानने की प्रतिज्ञा करते हैं। विवाह संस्कार की यह विधि ध्यान देने योग्य है-

मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तं तेऽस्तु।

मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिस्त्वा नियुनक्तु मह्यम्।

विवाह संस्कार में वर-वधू एक-दूसरे के हृदय पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा करते हैं, हम परस्पर एक दूसरे के व्रतों, कार्यों कत्र्तव्यों का बोध करेंगे, उनके पालन में सहयोगी बनेंगे, ऐसा करने के लिए परस्पर संवाद बनाकर रखेंगे, एक दूसरे की बात को ध्यान से सुनेंगे, गम्भीरता से लेंगे, इसके पालन में प्रभु से सहायता की याचना करेंगे।

यही मन्त्र उपनयन-वेदारम्भ संस्कार में आचार्य शिष्य को कहते हैं।

यहां किसी को बलपूर्वक अपनी बात मनवाने का प्रयास नहीं है, अपितु बात के औचित्य को समझकर उस बात को स्वीकार करने और सहमत होने का प्रयास है। इसके लिए दोनों पक्षों को समझदार और शिष्ट होना आवश्यक है।

समानता के अधिकार को वैदिक-धर्म कहाँ तक स्वीकार करता है, उसके लिए विवाह संस्कार का सप्तपदी प्रकरण ध्यान  देने योग्य है, सप्तपदी की सात प्रतिज्ञाओं में अन्तिम और सप्तम प्रतिज्ञा है-

सरखे सप्तपदी भव….।

हम गृहस्थ जीवन में सखा=मित्र बनकर रहेंगे। किसी को भी ‘‘मैं बड़ा हँू’’ यह कहना नहीं पड़ेगा। अत: दोनों एक दूसरे को अपने से बड़ा मानने की पहल करेंगे। ऐसा तभी संभव होगा, जब दोनों शिक्षित हों और दोनों समझदार हों। इस समझदारी की पराकाष्ठा में वैदिक नारी कहती है-मेरे पुत्र शत्रु पर विजय पाने वाले हैं। मेरी पुत्री भी उन्हीं के समान तेजस्विनी है। वह किसी का भी मुकाबला करने में समर्थ है। पति उसका प्रशंसक है-

मम पुत्रा: शत्रुहणोऽथो में दुहिता विराट्।

उताहमस्मि संजया पत्यौ में श्लोक उत्तम:।।

-धर्मवीर

अब स्मृतियाँ ही शेष: -साहब सिंह ‘साहिब’

पक्षी पिंजड़ा छोडक़र चला गया कोई देश,

डॉ. धर्मवीर की अब स्मृतियाँ ही शेष।

स्मृतियाँ ही शेष नाम इतिहास बन गया,

लेकिन हम लोगों में यह दुख खास बन गया।

लेकिन हमको याद रहे हम जिस पथ के हैं अनुगामी,

देह स्वरूप मरण धर्मा है आत्मा तत्व अपरिणामी।

मन में उनकी ले स्मृतियां याद करें अवदान को,

आर्य समाजी इस योद्धा के ना भूलें बलिदान को।

और सब मिलकर यही प्रार्थना सदा करें भगवान् से,

जो अनवरत् चला करता है चलता जाये शान से।

उनके लक्ष्यों को धारण कर ऐसा इक परिवेश बने,

वेदभक्त हो सकल विश्व यह गुरु फिर भारत देश बने।

कृतज्ञता ज्ञापन

-आनन्दप्रकाश आर्य

जिन क्षेत्रों में आर्य समाज शिथिल था सपने टूट रहे थे।

धर्मवीर जी के उपदेशों से अब वहाँ अंकुर फूट रहे थे।।

समाचार मिला ये दु:खद अचानक कि जहाँ से धर्मवीर गये।

ये शब्द सुने जिस आर्य ने उसका ही कलेजा चीर गये।।

परोपकारिणी सभा में छटा बिखेरी ज्योत्स्नापुंज चमत्कारी थे।

उत्तराधिकारिणी सभा में ऋषि के सच में उत्तराधिकारी थे।।

आर्यसमाज का यशस्वी योद्धा महा विद्वान् रणधीर गया।

दयानन्द के तरकश में से मानो एक अमूल्य तीर गया।।

देह चली गई तो क्या घुल गये हो सबकी आवाजों में।

हे धर्मवीर! तुम रहोगे जिन्दा हर जगह आर्यसमाजों में।।