गत पृष्ठों में यज्ञ के प्रत्येक अङ्ग को आध्यात्मिक विचार किया गया है। इसका अभिप्राय कहीं यह न समझा जाय कि विना कुण्ड तथा वेदी बनाए, तथा आहुति दिये, काल्पनिक कुण्ड में काल्पनिक यज्ञ किया जा सकता है। मानसिक हवन की स्थिरता क्रियात्मिक हपन के बिना नहीं हो सकती। भारतीय विचार शैली में यह बड़ा दोष है कि मन की एकाग्रता के बहाने वास्तविक संसार से आंखें मूंद लेते हैं। मन का संयम अलौकिक अभ्यास है। यह भारत की पैतृक पूंजी है । इसे त्यागने की आवश्यकता नहीं। किन्तु अलौकिक से लौकिक बनाने की आवश्यकता है । संसार से सम्बद्ध सर्वोत्तम समाधि है।
___आगामी पृष्ठों में हम उन मन्त्रों की व्याख्या करेंगे जिन से नित्य का हवन किया जाता है । यह हवन करते हुए उप र्युक्त तत्व का दर्शन करना वास्तविक तत्त्वदर्शन है। इसके बिना न भौतिक जीवन सिद्ध होगा न तत्त्वदर्शन ही हो सकेगा। बिना माया के ब्रह्म भी भ्रम मात्र रह जायगा।
विधि :आर्यसमाजियों को हवन दूभर हो रहा है। किसी को समय के आभाव से वाधा है किसी को धन के व्यय का भ्रम है। वास्तव में यह दोनों भ्रम काल्पनिक हैं। जितना अग्नि होत्र न्यून से न्यून करने की विधि है, उस में तो कोई पांच सात मिनट समय और कोई डेढ़ छटांक भर सामग्री वाञ्छित पञ्चमहायज्ञ विधि तथा ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में प्रातः काल के लिए चार विशेष आहुतियां ‘सूर्योज्योतिः‘ इत्यादि मन्त्रों से और सायंकाल की चार विशेष आहुतियां ‘अग्निोति‘ इत्यादि मन्त्रोंस और पांच दोनों समयकी सामा न्य आहुतियां भूरग्नये‘ इत्यादि मन्त्रों से देनी लिखी हैं। इन के अतिरिक्त ३ पूर्णाहुतियां होती हैं।
अतः ओ एक समय दोनों समयों का हवन करते हैं उनके लिए सारी मिल कर सोलह आहुतियां और जो दो समय हवन करने हैं उनके लिए सारी २४ आहुतियां हुई । इसमें न बहुत व्यय लगता है न समय । आहुति का परिमाण हव्य तथा धत मिला कर ६ माशे है। (देखो सत्यार्थप्रकाश बारहवीं आवृत्ति पृ. ३६) जो इससे अधिक समय देशके और खर्च को सामर्थ्य रखता हो वह आचमन अङ्गस्पर्श, अग्न्याधान, जल सिञ्चन तथा आधारावाज्याहुतियां दे। __ और समय हो तो ईश्वरस्तुति, स्वस्ति वाचन, शान्ति पाठ कर लिया करे । इससे बढ़ेतो सारे वेद मन्त्रों को स्वाहान्त कर के आहुतियां दे सकता है।
हवन का समय सूर्योदय से पीछे और सूर्यास्त से पूर्व है। यदि किसी कारण से सायंकाल हवन का समय अतिवाहित हो जाय तो मन्त्रों का उच्चारण तो अवश्य करले जिससे नियम टूटने न पाए । और अग्निप्रदीप्तन करें। इस में कीड़ियां गिरेंगी तो पाप होगा। अग्नि सामूहिक हवन हो तो यज्ञशाला में बैठने का नियम यह है।
यज्ञ के उपकरण तथा उन का प्रयोग
(पञ्च महायज्ञ विधि से उद्धृत) इसका आचरण इस प्रकारसे करनाचाहिये कि सन्ध्यो पासन करने के पश्चात् अग्निहोत्र का समय है । इसके लिये सोना, नांदो, ताम्बा, लोडा वा मट्टो का कुण्ड बनवा लेना चाहिए जिला परिम ण १६ अंगुठ बौड़ा, १६ अंगुठ गहरा और उसका नका चार अंगुल लम्मा चोड़ा रहे । एक नमसा समिधा के लिए रख ले। पुनः वृत को ग म कर छान लेवे। और १ सर घो मे एक रत्ता कस्तूरी एक मास केमा पोस के मिला कर उक्त पात्र के तुल्य दूसरे पात्र मे रख छाई । जब अग्निहोत्र को तब शुद्ध स्थान में बैठ कर पूर्वोक्त मामग्री पास रख लेवे । जठ के पात्र में जल और घो के पात्र में एक छटांक वा अधिक जितना सामर्थ्य हो उतने शोये हुए घो का निकाल कर अग्नि मे तपा कर सामने रख लेवे । पुनः उन्हीं पलाशादि वा चन्दनादि लकड़ियों को वेदी में रख कर उन में आग धर कर पंखे से प्रदीप्त कर एक २ मन्त्र से एक २ आहुति देता जाय। जिसको दण्डी १६ अंगुठ और उसके अग्रभाग मैं गंगूठा की यव रेखा के प्रमाण से लम्बा चौड़ा आचमनी के समान बनवा लेवे सो भी सोना नांदी व पलाशादि लकड़ी का हो । एक आज्य स्थाली अर्थात् घृतादि सामग्री रखने का पात्र सोना, चांदी व पूर्वोका लकड़ी का बनवा लेवे । एक जल का पात्र तथा एक चिमटा और पलाशादि की लकड़ी
१. ओ३म् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ।
अर्थः-(ओ३म्) हे परमात्मन् । आप (अमृत–उपस्तरणम्) अमृत के फैलाने वाले ( असि) हैं । (स्वाहा) यह वाक्य सुन्दर है। इस मन्त्र से एक आचमन करे
२ प्रोम् अमृतापिधानमसि वाहा ।
अर्थः ( ओ३म् ) हे परमात्मन् ? आप ( अमृतापि धानम् ) अमृत के धारण करने वाले ( असि) हैं । ( स्वाहा।) यह वाक्य कल्याण कारी है इस मन्त्र से दूसरा आचमन करे ।
३. ओ३म् सत्यं यशः श्रीमयि श्रीः श्रयताम् स्वाहा ।
तैत्तरी प्र० १० अनु० अर्थः-(ओ३म्) हे परमात्मन् ! ( सत्यं ) सच ( यशः) यश (श्रीः) शोभा और ( श्रीः धन (मय) मुझे (श्रयताम्) प्राप्त हों। (स्वाहा) यह वाक्य ठीक प्रकार कहा गया। इससे तीसरा आचमन करे। आचमन से अभीष्ट शान्ति होती है । सो तोन प्रकार की है । आध्यात्मिक अर्थात् आत्मा संबन्धिनी, आधिदैविक अर्थात् इन्द्रियों तथा मनसे सम्बन्धिनी और आधिभौतिक अर्थात् भौतिक जगत् तथा शरीर संबन्धिनी। तीन वार आचमन इसी लिये करते हैं कि एक २ करके तीनों प्रकार की शान्ति का ध्यान तथा प्रार्थना की जाए। अमृत का अर्थ यहां आनन्द है । परमात्मा आनन्द स्वरूप है। सारे संसार को आनन्द देने वाले हैं । आनन्द धाम हैं। सब आनन्द उन्हीं के आश्रय हैं। संसार का विस्तार उन का यश है। उनकी शोभा तथा कीर्ति अणु २ के मुखसे गान की जारही है । वह शोभा दिखाये की नहीं। उसका आधार सत्य है। तभी तो वह आनन्ददायिनी है। ___ परमात्मा के उन गुणों का गान करते हुए मनुष्य अपने लिये आनन्द का संचय करता है । परमात्मा को अमृत का पुंज कह कर अमृत का घोंठ चढ़ाता है । जल शान्ति प्रद औषध है। शारीरिक रोगों का शमन, मानसिक विकारों का दमन तथा आत्मा परमात्मा का सम्मेलन जल द्वारा ही होता है। शारीरिक लाभ तो पानी के इतने हैं कि वेद कहता है
अप्स्वन्तर्विश्वानि भेषजः। __
अर्थात् पानी में सब औषध हैं। यह जल–चिकित्सकों की धारणा है । मानसिक रोग क्रोध, कृश, काम आदि भी जल ही से शान्त होते हैं। दो घोंट ठंडे जल के पान तथा हस्त पाद प्रक्षालन से सब विकार ठंडे पड़ जाते हैं। इससे भी सन्तोष न हो तो सबही उपद्रवों को मिटा देता है ।
परमात्मा का स्मरण कराने का जल ने मानो ठेका लिया है। और किसी समय ध्यान न आये, जहां दो चुल्लू पानी सिर पर पड़ा, वहीं परमात्मा का पुनीत नाम जिह्वा पर आ गया।
अमृतपान का रस वस्तुतः अमृत होना चाहिये । अर्थात् उस में कोई मल तथा अशुद्धि नहीं । कुर्षों में चावल तथा आटे के पिंड डालने की प्रथा अनीव कुत्सित है। इससे जल जहां दुर्गन्धि–युक्त होना है , यहां रोग के किमियों का कोड़ा स्थल वन जाता है। पानी उबार का ठंडा कर लिया जाए तो
बहुत लाभकारी है।
२ अङ्ग स्पर्श
अर्थः – (ओ३म् ) हे
नाच -पो।
( वाक् ) वोलने
की शक्ति ( मैं
) ( मेरे ) ( भास्ये ) मुख में ( अस्तु ) हो।
अर्थः- ओ३म् ) हे प्राणेश्वर ! ( मे ) मेरे ( नसोः) नथनों में (प्राणः ) प्राण ( अस्तु ) हो ।
३ ओ३म् अक्षणोर्मे चक्षरस्तु ।
अर्थ:-( ओ३म् ) हे सर्व द्रष्टः ! (मे) मेरे (अक्षणोः) आंखों में ( चक्षुः ) देखने की शक्ति ( अस्तु ) हो।
४ ओ३म् कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ।
अर्थः-(ओ३म् ) हे सर्व श्रोतः ! ( मे ) मेरे (कर्णयोः ) कानों में (श्रोत्रम् ) सुनने की शक्ति (अस्तु) हो।
5
ओ३म् वाह्वोर्मे
बलमस्तु ।
अर्थः-(ओ३म्
) हे महाबलिन् ! ( मे
) मेरे ( बाह्वोः
) बाहुओं में (बलम्
) बल ( अस्तु
) हो।
६ ओम् ऊर्वोर्म प्रोजोऽस्तु।
अर्थः-(ओ३म् ) हे महौजस्थिन् ! ( मे ) मरी (ऊर्वोः ) जंघाओं में ( ओजः) ओज ( अस्तु) हो ।
७ ओ३म् अरिष्टोनि मे ऽङ्गोनि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु।
अर्थः — ( ओ३म् ) हे गेग विनाशक ! ( में ) मेरे (अङ्गानि) अङ्ग (अरिष्टानि ) अटूट विकार राहत तथा ( मे ) मेरे (तनूः) नीनों शरीर ( तन्त्रा मह ) फैलाव वाले ( सन्तु ) हों।
बाई हथेली में जल लेकर दाए हाथ की मध्यमा अर्थात् बीच पालो अंगुली और अनामिक अर्थात् उसके साथ वाली अंगुली को उन जल से भिगोने साप और जिस अंग का नाम मन्त्रों में आए, उसे छूने जाएं । अन्तिम मन्त्र में सब अंगों का नाम आया है। उसे पढ़कर जल देह पर छिड़कें।
अंगरूप में बल का यानना होतो है अन्तिम मन्त्रमें “अरि टानि” तथा ‘तन्य स: शब्दों से अंगों को नैरोग्य तथा फैलाव स्पष्टतया मांगा है।
मुख्य २ अंगों का उल्लेख कर सारे शरीर के लिए बल की याचना की है । हम ने संध्या रहस्य में जताया है कि प्रार्थना प्रतिक्षा है । जो वस्तु परमात्मा से मांगी जाए उसकी उपलब्धि का स्वयं यत्न करना है । मन्त्रों के पीछे स्वाहा का यही तात्पर्य है। जो बात कह कर कार्य में न लाई जाए वह ठीक प्रकार नहीं कही गई । वह स्वाहा नहीं।
_ सन्ध्या रहस्य में उन साधनों का विस्तृत वर्णन आया है जिनके प्रयोग से अंग पुष्ट होते हैं। पाठक को उस पुस्तक का अंग स्पर्श प्रकरण अवश्य पढ़ लेना चाहिए । ___ जल लगाने का अभिप्राय शुद्धि की प्रार्थना है। बल के साथ २ अंगों की निर्मलता तथा इन्द्रियों की वृत्ति की निर्दो पता आवश्यक है। देखो सन्ध्या रहस्य का मार्जन प्रकरण ।
३. अग्नि–प्राधान भों भूभुवः स्वः गोभिल गृ. प्र.१। खं. १सू. ११
अर्थ🙁ओ३म् ) परमात्मा (भूः) प्रणस्वरूप अर्थात् जगत के जीवन के हेतु (भुवः) अपान अर्थात् मल नाशक (स्वः) और सुखवर्धक तथा तेजः प्रसारक हैं। अग्नि में भी गौणरूपेण यह गुण है।
यह शब्द कह कर कपूर में अग्नि लगावे।
१. ओ३म् भूर्भुवः स्वोरिव भूना पृथिवीव रिम्णा । तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निम
नादमन्नाधायाधे ॥ यजुः ३.५
अर्थः-( ओ३म् ) परमात्मा (भूः ) जगत्प्राण (भुवः) दुःख नाशक ( स्वः ) सुखस्वरूप ( भूम्ना) बड़ाई में अर्थात् व्यापकता में ( द्यौः ) आकाश (इव ) जैसा और ( वरिम्गा) धारण धर्मरूप श्रेष्ठना में ( पृथिवी ) पृथिवी (इव ) जैसा है। परमात्मा की व्यापकता तथा धारणारुप शक्ति को आकाश तथा पृथिवी की उपमा देकर यहीं तक परिमित नहीं किया किंतु उस की सर्वव्यापकता के ध्यान का सूधा मार्ग बत.या है जैसे आकाश अर्थात् स्थान अपने बीच रहने वाले अणुओं में भी व्यापा हुआ है। ऐसे ही परमात्मा ब्रह्माण्ड भर में विद्यमान है। उस की सत्ता सब सत्ताधारियों में है और वह स्वरूप से उन से पृथक् नहीं है।
(पृथिवी ) हे पृथिवी ( देवयजनि ) देवताओं की यज्ञ वेदि (तस्या) उस (ते ) तेरी ( पृष्ठे ) पोठ पर ( अन्नादम् ) अन्न अर्थात् हव्य खाने बाले ( अग्निं ) अग्नि को ( अन्नाधाय ) खाने योग्य अन्न के लिये ( आधे ) स्थापित करता हूं।
संसार रूपी यज्ञ की वेदी पृथिवी है। उस पर ब्रह्माण्ड भर की दिव्य शक्तियां यज्ञ करती हैं। वायु तथा अग्नि, सूर्य, तथा चन्द्रमा किरणों के चभसों से यथा सामर्थ्य आहुति दे रहे हैं। देवों के देव परमात्मा इस यज्ञ के ब्रह्मा हैं। उस महा यज्ञ का छोटा रूप यजमान का यज्ञ है । जो यह यज्ञ करते हैं, वह भी देव हैं अर्थात् सज्जन, ईश्वरानुरागी।
अग्नि का काम है यज्ञ को खा लेना। इस की चारों और
लपकती जिहवाओं को देखो । क्षण भर में सारी सामग्री को भस्म करती हैं। ऐसे उदरंभर को उद्दीप्त करने और उसे घृतोपहार देने की आवश्यकता? कहते
हैं ‘अन्नाद्याय’
खाने योग्य अन्न की प्राप्ति के लिये ऐसा किया जाता है। अग्नि सत्ययुगी ब्राह्मण है । अपने लिये कुछ नहीं खाता । जो खाता है उस से दसगुणा संसार को देता है । वायु में औषधियों का रस पहुंचा कर नैरोग्य का विस्तार करता है । .व्य
को मेघमिश्रित कर आनन्दप्रद वृष्टि करता है। आकाश में उष्णता लाकर वनस्पति की वृद्धि करता है। अग्नि के मुख में डाला हुआ अन्न तो यों समझो कि ऊर्ध्वमुखी पृथिवी में बीज हो छिड़का है।
कोई कहेगा इतने बड़े आकाशमें हव्य की मुट्ठा स्वाहा हुई, न जाने कहां लुप्त हो जाएगो । कहते हैं- परमात्मा भी विस्तृति आकाश के साथ २ है । किया कर्म और छिड़का बीज निष्फल न होगा ।न पृथिवा उस को पचा सकती है भाकाश उड़ा सकता है। –
–
अग्नि–प्रबोध ३ ओ३म् उध्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वामि ष्टापूत्ते स ७ सृजेथामयं च । अस्मिन्त् सधस्थ अध्युतरस्मिन् विश्वदेवा यजमानश्च सीदत ॥
य० १५॥ ५४॥
(औ३म् ) परमेश्वर को साक्षी कर (अग्ने ) हे विद्वान् उद्घध्यस्व ) उठ ( प्रतिजागृहि ) जाग ( त्वम् )तू (च) और (अयं) यह अग्नि (इष्टापूर्त) यश कर्म मे ( ससजेथाम् ) मिलो। ( अरिमन् ) इस । उत्तरस्मिन् ) उत्तम (सधस्थे) यज्ञ स्थान में (विश्वे) सब (दवा) विद्वानो! ( अधिसीदन) मान पूर्वक बैठो।
नालल्य त्याग का अनुपम उपदेश है । अग्नि सजग है। उसे प्रमाद नरें। वह यज्ञ करने में तन्द्रारदित है। यजमान को भी नन्दारहित होजाना चाहिये । उत्साह शन्य हृदय राख की मुट्ठः । अग्नि के साथ गना अपो में अग्निप्रदीप्त करना है। भले कामों में आलस्य अपनी सत्ता का नाश है।
___संसार यज्ञ का स्थान है। वेद करता है–ईशावास्य मिदं सर्वम् । य: सब ईघर के रहने योग्य है । संसार का त्याग मूगता है। ऐसा सुन्दर स्थल करां है। देवता कार्य क्षेत्र में आन हे । दान । वचार है वहाने से काम करने से भागते हैं ।
मनुष्य की स्थिति इस जगत् में गौरव की स्थिति है। हम यहाँ आत्माविकार से बसते हे । जहां मान नही, वह जीवन नही । गिड़गिड़ाने तथा शिर झुका कर बठने वाले यज्ञ नहीं किया करते । आत्माभिमान छोड़ कर आत्मा की रक्षा नहीं होता। यज्ञ की बैठक ही संसार में विचरने की विधि का उपदेश देती है।
यह शिक्षा तो स्वतः ही होगई कि यज्ञ का स्थान सुहा वना होना चाहिये । कहा भी तो है–यह स्थल “उत्तर‘ है अर्थात् अच्छा । जहां संसार को देवों का यज्ञ स्थल समझना है, वहां अपनी यज्ञशाला को तो देव भूमि बनाए विना यश यश ही नहीं रहता।
४. समिदाधान
१. मो३म् भयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेने ध्यस्व वर्धस्व चेद्धवर्धय । चास्मान् प्रजया पशुभि ब्रह्मवर्चसेनानायेन समेधय स्वाहा । इदमग्नये जातवेदसे इदन्नमम ॥
इस मन्त्र से एक समिधा जो घी में भिगो रक्खी हो भग्नि में डालो।
(ओ३म् ) हे परमात्मन् ( जातवेदः) उत्पन्नों में वि धमान अग्निवत् प्रकाशक परमेश्वर ! (अयं) यह मेरा (आत्मा) आत्मा (ते) तेरे लिये ( इध्मः ) ईधन है । (तेन) उससे (इध्यस्व ) प्रदीप्त हो (वर्धस्व ) बढ़, (च) और (इद्ध) प्रदीप्त कर (वर्धय ) बढ़ा। (च) और ( अस्मान् ) हमें (प्रजया) प्रजा से ( पशुभिः) पशुओं से ( ब्रह्मवर्चसेन ) ब्राह्म तेज से ( अन्नाद्येन ) खाने योग्य अन्न से (सम्) भली प्रकार ( एधय ) समृद्ध कर । ( इदं) यह आहुति (अग्नये) परमेश्वरार्पण है । ( इदं ) यह ( मम ) मुझ एक की (न) नहीं।
उधर अग्नि में लकड़ी डालते हैं, इधर आत्मा को पर मात्मा के समर्पण करते हैं । लकड़ी से अग्नि प्रदीप्त होती है
और उसे प्रदोत करती है । परमात्मा का प्रकाश बढ़ता घटता नहीं। परन्तु प्रकाश का काम क्या जब प्रकाश्य न हो। जीवों की गृष्टि से तटस्थ होने पर परमेश्वर का प्रकाश अधिकाधिक प्रकट हाता है।
ऐसी उच्च वृत्ति के योगी के लिये भी की आत्मा को परमात्मा की ज्योति का ईन्धन बना चुका है, संसार के पदार्थ हेंच नहीं। वह प्रजा मांगता है। ब्रह्मवर्चस् अर्थात् भात्म-ज्ञान और आत्मिक ज्योतिः मांगता है। फिर मांगता है–खाने योग्य अन्न।
ऋषियों ने यजमान को निरा पेटू नहीं बनाया। किन्तु यह तथ्य अवश्य झलकाया है कि योगी का भी पेट होना है। इसे भी भूख लगती है और उसे भ्रान्ति कह देने से शान्त नहीं होती।
__ परमात्मा की हम सब प्रजा हैं। तत्स्थं होने का तो सूधा मार्ग यही है कि हम प्रजावान् हों। परमात्मा पशुपति हैं। पाशुपत्य हमारे योग की सिद्धि है । वह महावर्चस्वी हैं। हमारी उपासना वर्चस्वी होने में है । अन्न के साथ अद्य क्या लिखा, अन्न का यथार्थ रूप बताया । रुपया धन नहीं। कागज़ी वस्तु हैं । सुवर्ण का वर्ण सुन्दर है परन्तु उदर की तृप्ति इससे भी नहीं होती। वास्ताविक सम्पत्ति है नाज। महँगी के दिनों रुपया होो हुए भा पेट की पूर्ति पूर्णतया नहीं हो सक्तो। उयोग को वह तुओं को बहुतायत सुकाल है और इन्हीं की न्यूनता मात्र ही दुष्कल है।
यह सब कुछ मांगा हुए भी स्वार्थ बुद्धि नहीं रखी। परमात्मा के लिये सब कुछ चाहा है। वह सब के पिता हैं, सबको बांट देंगे । अग्नि के मुख में आहु। डालदी है कि यह दैवों का दून है, हव्यवाद है। सबको अपना २ भाग पहुँचा देगा। उन देवियों में हम भा हैं। जहां भारत तृन होगा, वहां हमारी तृप्ति भी हो रहेगा।
२. [क] ओ३म् समिधाग्नि दुव्यस्त घृतै: धयतनातिथं । आस्मिन् हव्याजुहोतन स्वाहा । इदमग्नये इदन्न मम। यजु० अ० ३ । मं०१ ।
(ओ३म् ) परमात्मा को साक्षी मान कर (समिधा) लकड़ी से ( अग्नि ) अग्नि को (दुवख्यत ) सत्कृत करो (घृतैः) घृत से (आंतथि ) अतिथि के समान आए हुए अग्नि को (बोधयत ) जगाओ अर्थात् प्रदीप्त करो। (अस्मिन् ) इसमें ( हव्याहव्यानि ) हवन सामग्री को (आ) अच्छी तरह (जुहोतन = जुहुन ) डालो । ( स्वाहा ) जो कहा सो किया। (इदम् ) यह (मम ) अकेले मेरी (न) नहीं।
[ख] ओ३म् सुसमिद्वाय शोचिषे घृत तीन जुहोतन । अग्नये जातवेदसे इदन्नमम ।
यजु० अ०३ । म०२।
अर्थः –(ओश्न ) परमात्मा को लाक्षी कर (सुसमि द्धाय ) पूर्णतया प्राठिा (शोचिष ) शोधक (जातवेदमे ) जात संसार में विद्यमान ( अन्न) अग्नि के लिये ( नीत्र ) तेज़ साफ़ (घृतम् ) घृत को (जुनन-जुहन) हरन करो। ( स्वाहा ) जो कहा सो किया । ( इदम् ) या आहुति (जात. वेदमे ) जातवेदः ( अग्नये ) अग्निशिए है । ( दम् ) यह (मम ) मुझ अकेले को (न ) नहीं।
इन दो मन्त्रों ने उसी प्रकार दूसरी समिधा डालें।
यज्ञ को सामग्री लकड़ः पृ तथा हा है। यह तीनों शुद्ध और उत्तम हो । अग्नि पूर्णतया प्रदान की जाए। नहीं तो हानि करेगी।
ऐसे ही संसार के प्रत्येक यज्ञ कर्ष में अपना उत्तम सर्वस्त्र स्वाहा करना चाहिए । और मन्द अग्नि से नहीं किन्तु भड़कते हृदय से कार्यक्षेत्र में प्रवृत्त होना चाहिए।
३. ओम् तन्त्वा समिद्भिरगिरो घृतेन वर्धया मसि । वृहच्छोचायविष्ठ्य स्वाहा । इदमग्नयेऽङ्गि रसे इदन्नमम । यजु० अ० ३। मं० ३
(४६ ) ( ओ३म् ) हे परमात्मन् ( अङ्गिरः) व्यापक (समि द्भिः) वृत्तिक लकड़ियों से तथा (घृतेन ) उपासना के घृन से ( तम् ) उस (त्वां ) तुझ को (वर्धयामसि ) बढ़ाते हैं। (यविष्ठ्य ) हे सब से बड़े मिलाने वाले तथा बखेरने वाले ( बृहत् ) बहुत (शोचा–शोच) प्रकाशित हो। (इदम् ) यह आहुति ( अङ्गिरसे) व्यापक ( अग्नये ) अग्नि के लिये है। (इदन्नमम ) यह मुझ अकेले की नहीं। इस मन्त्र से तीसरी समिधा डालें।
यज्ञ उपासना है। लकड़ियों से अग्नि प्रज्वलित होती है। आत्मा समर्पण से परमात्मा के प्रकाश का अधिक मान होता है । भक्ति युक्त कर्म ज्ञान चक्षु का उन्मीलन करते हैं
और सर्व प्रकाश का साक्षात्कार होता है । अग्नि पदार्थों को मिलाता और तोड़ता है । परमात्मा सृष्टि और प्रलय करते हैं। ऐसे ही मनुष्य भूतों को मिलाए और बखेरे । जिस तरह काम चले, चलाओ। सब पदार्थों का सार निकालें और उन उत्तम प्रयोग करे
५ घृताहुति
ओ३म् अयन्त इध्म आत्मा जाजवेदस्तेने ध्य स्व वर्धस्व चेद्धवर्धय। चास्मान् प्रजया पशुभिब्रम वर्चसेनानायेन समेधय स्वाहा । इदमनयेजातवेदसे इनमम् ।
–
इस मन्त्र का अर्थ पूर्व हो चुका है। इस मन्त्र का पाठ पांच वार करे और प्रत्येक पाठ में स्वाहा कह कर एक आहुति घृत की दे।
धृत विषनाशक और पुष्टिप्रद पदार्थ है। इससे अग्नि की वृद्धि और प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस् तथा अन्नाद्य से समृद्धि होती है । इन पांच कामनाओ की साधक पांच आहुतियां हैं।
६ जल सेंचन १ ओ३म् अदिते ऽनुमन्यस्व । गोभिल प्र० खंड ३ । सू०१।
अर्थ -(ओ३म् ) हे परमात्मन ! ( अदिते ) न टूटने वाले अखण्ड ! (अनुमन्यस्व) हमारे अनुकूल हो।
इस मन्त्र से वेदी के पूर्व में जल छिड़के। २ ओ३म् अनुमते ऽनुमन्यस्व । गोभिल प्र० खं० ३। सू० २।
(ओ३म्) हे परमेश्वर !
( अनुमते ) अनुकूल मति बाले (अनुमन्यस्व) हमारे अनुकूल हो।
इससे वेदी के पश्चिम में जल छिड़के।
३ ओ३म् सरस्वत्यनुमन्यस्व । गोभिल गृ० प्र. ख.३ । सू०३।
अर्थः-(ओ३म् ) हे परमात्मन् ! ( सास्वति ) सर्वज्ञ सब विद्याओं के प्रकाशक ! (अनुमन्यस्त्र) अनुकूल हो।
इस मन्त्र से उत्तर में जल छिड़के।
४ ओ३म् देव सवित प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपति भगाय दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतन्नः पुनातु वाच स्पतिर्वाचनः स्वदतु । यजु० अ० ३० । मं०१।
अर्थः-(ओ३म्) हे परमेश्वः ! ( देव ) प्रकाशक ! (सवित) प्रेरक ! ( यज्ञं) यत्र को (प्रसुष) बढ़ाइए ( यज्ञपतिं ) यजमान को (भगाय ) भजन तथा सौभाग्य के लिए (प्रसुन ) बढ़ा. इप । (दिव्यः ) दिव्य (गन्धर्वः) ज्ञान का आधार (केतपूः) बुद्धि को पवित्र करने वाला परमात्मा (नः) हमारी (केतपू) बुद्धि को (युनातु ) पवित्र करे ( वाचस्पतिः ) वाणी का स्वामी परमात्मा (नः) हमारी ( वानम् ) वाणी को (स्वदतु) स्वाद युक्त करें। ___ इस से वेदो अथवा कुण्ड के चारों ओर जल छिड़के। जल डालने के लिये वेदी के चारों ओर नाली होती है। नहीं तो पृथिवी पर छिड़क दें। चिंवटी आदि को आग में जाने से रोकने के लिये यह नाली बड़ा काम देती है। इससे पूर्व आग के जल जाने से कीटक कुंड से भाग जाते हैं। पानी की पराकार बन जाने से फिर उस में नहीं जाते। इस लिये नाली को पूर्व ही जल से भर देना हानिकारक है। इन मन्त्रों से ही भरना उचित है।
परमात्मा को इन मन्त्रों में पहिले अदिति फिर अनुमति और सरस्वति कहा है । परमात्मा एक रस रहते हैं। उन के नियम कभी नहीं टूटते । उनको अपने अनुकूल करने के लिए अपने आपको उनके अनुकूल कर लेना चाहिए । यही अदिति को अनुमन्यस्व‘ कहने का प्रयोजन है। .
कोई यह न समझ ले कि परमात्मा निरेकठोर हैं। उनकी कठोरता, उनकी नियमारूढ़ता हमारी हितकारिणी है। उनके प्रसन्न होने का भी एक अटूट नियम है। यह मूढ़ लोगों का मुग्ध वचन है कि न जाने परमात्मा किस चेष्टा से राज़ि होते हैं । यदि यह विधि नियत नहीं, तो कोई भले कर्म करे ही क्यों ? तरंगी परमात्मा भले ही रुष्ट रहा करें। जिन के रीझने का प्रकार निश्चित नहीं, उनके रिझाने का यत्न व्यर्थ है । भक्तों की भक्ति अवश्य स्वीकार होती है। दर को दण्ड देने में कोई आना कानी नहीं की जाती और परमात्मा की यह व्रतशीलता हमारे व्रतों को सहायता देती है। जभी तो कहा है अदितेऽनुअन्यस्व‘ । हे हमारे अनु कूल मति वाले! हमारे अनुकूल मतिवाले! हमारे अनुकूल मति कर! अर्थात् हम वह कर्म करने का व्रत लेते हैं जो आप की मति के अनुकूल हों। ___ जल को अनुकूलता का भौतिक लक्षण बनाया है क्योंकि वह स्थान के अनुकूल बहता है। इस अनुकूलता के लिए पर मात्मा से प्रेरणा चाही है कि हे सवितः देव! प्रेरक परमेश्वर
यजमान की अर्थात् उस की जो आप के विस्तृत यज्ञ का संक्षेप में अनुकरण करता है वृद्धि कीजिए। भजन के लिए तथा सौभाग्य के लिए उसके सहायी हूजिये।
वेदी के बीच में जाज्वल्यमान अग्नि है और उसके चारों ओर जल का कोट खिंचा है। यजमान इसमें अपना अभीष्ट स्वरूप देखता है। कि मेरी अन्तरात्मा ज्ञान से प्रचण्ड हो। उन्नतिशील संकल्प के साथ मैं प्रति क्षण ऊँचा उठू। वुद्धि में मल का लेश न रहे। पवित्र प्रदीप्त अग्नि की भांति पतितपावन परमात्मा की पुनीत प्रेरणा से पवित्र होऊँ। सत्य पर आरूढ़ रहूं परन्तु वह सत्य जगत् को जलाने वाला न हो। शुद्धपानी की तरह सरस हो । मेरे वाक्य मधुर हों और मेरा अन्तःकरण स्वच्छ तथा सजग हो।
____ “सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्” का व्याख्यान अत्युत्तम रीति से हुआ है। लोग दिल दुखाने का नाम सत्यवादिता रख लेते हैं । वागिन्द्रिय वश में नहीं और कहते हैं हम स्पष्ट वक्ता हैं । सत्य योग का अङ्ग है। इस का अनुष्ठान मुंहफटों से नहीं होता, न आडम्बरी मौनधारी ही इसके निवाहने का साहस कर सकते हैं। सत्य संयम चाहता है । समयोचित मति चाहता है। हित साधक प्रतिमा चाहता है। परोपका रिणी मुखयत्ति चाहता है । इसके अन्दर अग्नि की लपट है परन्तु वाह्यरूप जल का है।
७.आधारावाज्याहुतिः १ मोश्म् अग्नये स्वाहा । इदमग्नये–इदन्न मम । ____
अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( अग्नये ) सर्व प्रकाशक तथा भौतिक अग्नि के लिये (स्वाहा) सुन्दर आहुति है। ‘(इदं ) यह ( अग्नये ) अग्नि के निमित्त हैं (इदं ) यह (मम)
एक मेरी (न) नहीं।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग से घृत की आहुति दे। २ ओ३म् सोमाय स्वाहा । इदं सोमाय इदन्नमम । गोभिल पृ० प्र० १ । खं० ८ । सू० १४ ।
अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( सोमाय ) शान्तिस्वरूप सर्वोत्पादक तथा चन्द्रमा के लिये (स्वाहा) सुन्दर आहुति है । ( इदं ) यह (सोमाय ) सोम के निमित्त है (इदं ) यह (मम ) एक मेरी नहीं।
इस मन्त्र से दक्षिण भाग में घृत की आहुति दे।
३. ओ३म् प्रजापतये स्वाहा । इदं प्रजापतये इदन्कमम।
अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा (प्रजापतये ) प्रजा पाकक तथा सूर्य के लिए (स्वाहा ) सुन्दर आहुति है (इदं ) यह (प्रजापतये) प्रजापति के लिये है (इदं) यह (मम) एक ‘मेरी (न) नहीं। इस मन्त्र से वेदी अथवा कुण्ड के मध्य भाग में घृत को आहुति दे।
४ ओ३म् इन्द्राय स्वाहा । इदमिन्द्राय–इदन्नमम
अर्थ🙁 ओ३म् ) परमेश्वर (इन्द्राय) सर्वैश्वर्यवान् सथा विजली के लिए (वाहा) सुन्दर आहुति हैं । इदं) यह (इन्द्राय ) इन्द्र के लिए है ( इदं) ये (मम ) एक मेरी (न) नहीं।
इस मन्त्र से भी वेदी अथवा कुण्ड के मध्य भाग में घृत की आहुति दें।
भिन्न २ भागों में आहुति देने का यह प्रयोजन है कि कुण्ड में सर्वत्र अग्नि प्रज्वलित हो जाए। एक क्रम रखने से नियम रहता है । आगे घृत के साथ साकल्प ( हवन सामग्री) डालनी है । इस से पूर्व आग को पूर्ण तथा प्रचण्ड कर लेना उचित है।
ज्योति विशेषतया चार साधनों से प्राप्त होती है। एक अग्नि द्वारा, दूसरे चांद द्वारा, तीसरे सूर्य द्वारा और चौथे बिजली द्वारा इन चारों प्रकारों के प्रकाश का पुञ्ज परमा. त्म–देव है। इन भौतिक ज्योतियों में उस परम ज्योति की झलक झलकती है । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के यज्ञ में इन ज्योतियों की क्या स्थिति है। यह आहुति मात्र ही तो है। जैसे घृत डालने से अग्नि की ज्वाला उठती है वैसे ही इस
विस्तृत यज्ञ की विशेष आहुतियां यह ज्योतियां दृष्टिगोचर होती हैं और अपना कृत्य साधती हैं । यजमान इन ज्योतिषियों में अपनी ज्योति मिला, इन ज्योतियों से सम्पूर्ण लाभ उठा सकल विश्व के अनूठे यश में अपनी आहुति देना है। यही यजमान की यजमानता है। इसी में उस के समस्त परिश्रम की सिद्धि है।
छोटी से छोटी
नैत्यिक यज्ञविधि
उड़ लोगों के लिये जिन के पास समय और धन की न्यूनता है ऋषियों ने यज्ञ की छोटी सी मात्रा आवश्यक कर दी है। आगे उसी भाग का विचार किया जायगा । विषय सम्बद्ध होने कारण जिन बातों का उल्लेख पीछे कर चुके हैं, उनकी पुनरावृत्ति नहीं की उन लोगो की भी जो यज्ञ का भनुष्ठान इतना करेंगे जितना आगे बतलाया है, इस पुस्तक का परायण आद्योपान्त कर जाना चाहिये । ताकि इतने यज्ञ में भी उनकी वह दृष्टि वहीं बनी रहे जिसका उल्लेख सारे यज्ञ के विषय में किया है।
यजमान स्वयं देख लेंगे कि इतना हवन करने में केवल सात मिनट समय और घृतादि मिला कर डेढ़ दो छटांक सामग्री से अधिक व्यय नहीं होता।
इतने को भी व्यर्थ समझना विचार न्यूनता है । संसार में कोई कोई कार्य कितना भी अल्प–परिमाण में क्यों न हो व्यर्थ नहीं। भौतिक लाभ के अतिरिक्त पारिवारिक प्रेम सामाजिक स्नेह इत्यादि की स्थिरता जो स्वतः प्राप्त हो जाती है, वह ममूल्य लाभ है।
८. प्रातःकाल का यज्ञ १ ओ३म सूर्योज्योतिर्योतिः सूर्यः स्वाहा । अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( सूर्यः) अन्तर्यामी (ज्योतिः) प्रकाश है। और (ज्योतिः) प्रकाश (सूर्यः) अन्तर्यामी है । अथवा भौतिक सूर्य प्रकाश का पुंज है। (स्वाहा ) यह सुन्दर भाहुति है।
२ ओ३म सूर्यों वों ज्योतिर्वचः स्वाहा। अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( सूर्य्यः) अन्तर्यामी (वर्चः ) तेज है । और ( वर्चः ) तेज (ज्योतिः) प्रकाश है । ऐसा ही भौतिक सूर्य है । ( स्वाहा ) यह सम्यक् आहुति है।
३. ओ३म् ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योति स्वाहा। अर्थ🙁ओ३म् ) परमात्मा (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप (सूर्यः) सर्वव्यापक है। तथा (सूर्यः) सर्व व्यापक (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप है । ऐसेही भौतिक सूर्य है। (स्वाहा) मन शरीर वचन द्वारा यह कहा।
४. ओ३म् सजूदेवेन सवित्रासजूरुषसेन्द्रवत्या जुषाणः सूर्योवेतु स्वाहा ।
अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा (देवेन) प्रकाशमान् (सवित्रा) प्रेरक के (सजूः) साथ तथा (इन्द्रवत्या) प्रकाश वाली (उषसा) उषा के साथ ( जुषाणः) इस आहुति को ग्रहण करता हुआ (वेतु) चमके। स्वाहा) मन वचन कर्म ने मिल कर आहुति दी।
प्रातः काल की सुवर्णमय समय ! उषा के केसर में स्नान किया हुआ सूर्य । परमात्मा के अलौकिक प्रकाश का ही तो दश्य है । भक्त इसी में भक्ति भोजनका दर्शन करते हैं। कभी सूर्य को ज्योति और कभी ज्योति को सूर्य कहा । उसका भौतिक भाग निकल दिया । सूक्ष्म ध्यान सूक्ष्म ज्योति को ही ध्यान गोचर किया।
ऊँची २ दीवारों में घिरे रहने वाले इस कौतुक को नहीं देखते। जो तमाशा योगी को निरन्तर योग से वर्षों पीछे देखना प्राप्त होता है यजमान को नित्य सहसा ही दृष्टिगोचर है। एकाग्र वृत्ति से कोई इस रङ्ग को देखे सही, आत्मा रङ्ग जाती है।
सूर्य की ज्योति, उपा की ज्योति और इन सब में परमात्मा को ज्योति को ओत प्रोत कर सर्व व्यापक की सर्व व्यापकता का अपूर्व निश्चय हुआ। आहुति क्या दी ! ज्योतिः स्वरूप की ज्योति में अपनो ज्योति मिलाई । आत्मा की अनूठी जोत जगी।
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९. व्याहृत्याहुतियां १ ओ३म् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा । इदमग्नये प्राणाय इदन्न मम। ___ अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( भूः) प्राण स्वरूप है
(अग्नये ) सर्वव्यापक (प्राणाय) प्राण के लिए अथवा गति
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शील अन्दर जाते श्वास के लिए (स्वाहा) यह सुन्दर आहुति है । (इदम् ) यह ( अग्नये) सर्व व्यापक तथा गतिशील (प्राणाय ) प्राण के लिए है ( इदम् ) यह (मम) मेरी एक
की (न) नहीं।
२ ओ३म् भुवर्षायवे ऽपानाय स्वाहा । इदं वा यवे अपानाय इदन्न मम ।
अर्थ-(ओ३म् ) परमात्मा ( भुवः) अपान अर्थात् दुःख नाशक है। (वायवे) बल स्वरूप (अपनाय ) दुःख नाशक अथवा बाहिर जाने वाले उच्छ्वास के लिए (स्वाहा ) यह उचित आहुति है । ( इदम् ) यह ( अपानाय ) अपान (वायवे) वायु तथा दुःख हर्ता बलवान् परमेश्वर के लिए है। (इदम् ) यह (मम ) अकेली तेरी (न) नहीं।
३. ओ३म् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा । इदमादित्याय व्यानाय इदन्न मम ।
अर्थ-(ओ३म् ) परमात्मा ( स्वः ) ब्यान अर्थात् व्यापक है। ( आदित्याय ) अखण्ड (व्यानाय ) सर्वव्यापक परमेश्वर अथवा शरीर व्यापी व्यान वायु के लिए ( स्वाहा) सुन्दर आहुति है। ( इदम् ) यह (आदित्याय) अखण्ड (व्यानाय ) व्यापक परमात्मा तथा व्यान वायु के लिए है। (इदम) यह (मम) मेरी अकेली (न) नहीं।
४. ओ३म् भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापान व्यानेभ्यः स्वाहा । इदमग्निवावा दित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम ।
अर्थ-(ओ३म् ) परमात्मा (भूः) प्राण ( भुवः) दुःख नाशक कर्ता (स्वः) सर्वव्यापक सुख स्वरूप है। अग्नि–वायु
आदित्येभ्यः) सर्वव्यापक बलस्वरूप तथा अखण्ड (प्राण–अपान व्यानेभ्यः) प्राणस्वरूप दुःखनाशक तथा सर्व व्यापक परमेश्वर के लिये अथवा गति शील इत्यादि विशेषणों वाले प्राण आदि वायुओं के हितार्थ (स्वाहा ) यह सुन्दर आहुति है। ( इदं) यह ( अग्नि–वायु आदित्यभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः ) इन विशेषणों वाले ईश्वर और प्राणों के लिये है। ( इदम् ) यह (मम) मेरी (न) नहीं।
पहले परमात्मा की ज्योतिष्मत्ता का चिन्तन सूर्य तथा उषा के प्रकाश द्वारा किया। अब उसकी शक्ति, उसकी व्यापकता तथा आनन्ददायित्व का चिन्तन प्राणों की उपमा से करते हैं। अचिन्त्य के चिन्तन की विधि उन पदार्थों का अवलोकन है जिन में उन के गुणों का कोई अंश झलक सके । प्रतिमापूजन से उस के किसी गण का भान नहीं होता।
प्राणायाम करने वग्ले को हवन की सुगन्धि अतीव लाभकारी है। वायु में औषधों का संचार कर प्राण के लिए सुख की सामग्री इकट्ठी कर दी है।
५ ओ३म् पापो ज्योतिरसोऽमृतं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् स्वाहा।
अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( आपः) सर्व–व्यापक (ज्योतिः) प्रकाश–स्वरूप ( रसः ) आनन्द–स्वरूप ( अमृतम्) अमर (ब्रह्म) सब से बड़ा (भूः) जगत का प्राण (भवः) दुःखनाशक (स्वः) सुखस्वरूप (ओम् ) रक्षक है। (स्वाहा ) यह सुंदर वाणी हैं।
१० पूर्णाहुति १ ओ३म् सर्व वै पूर्ण ७ स्वाहा । २ ओ३म् सर्वां वै पूर्ण ७ स्वाहा । ३ ओ३म् सर्व वै पूर्ण ७ खाहा ।
अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( सर्वम् ) सब तरह (वै ) निश्चय से ( पूर्णम् ) पूर्ण है । ( स्वाहा ) यह अच्छी वाणी है अथवा परमात्मा को साक्षी कर यज्ञ को पूर्ण किया है। अपूर्ण मात्मा जितना पूर्ण परमात्मा का ध्यान करेगा उतना उसका श्रुटियां मिटाकर पूर्णता आयेगी।
११ ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः __ अर्थ🙁ओ३म् ) हे परमात्मन् हमें (शान्तिः३) तीनों प्रकार की शान्ति दीजिए।
यश के अन्त में शान्ति कहने का अर्थ यह है कि शान्ति अकर्म में नहीं । पूर्ण साहस के साथ यज्ञशील रहने से ही त्रिविध शान्ति प्राप्त होती है । आलसी को निद्रा का सुख भी नहीं मिलता । अवकाश का सुख वह भोगते हैं जो अवकाश नहीं करते।
१२ सायंकाल का हवन
१. मोश्म अग्निज्योतिज्योतिरग्निः स्वाहा। अर्थ-(ओ३म्) परमात्मा ( अग्निः) सर्वज्ञ (ज्योतिः) प्रकाश है । और ( ज्योतिः ) प्रकाशवरूप ( अग्निः) सर्ववित् है । भौतिक अग्नि भी प्रकाश है। ( स्वाहा ) यह सुन्दर माहुति है।
२ भोम् अग्निवों ज्योतिवेच स्वाहा । अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा (अग्निः) सर्वज्ञ ( वर्चः) तेजः स्वरूप है। तथा (ज्योतिः ) प्रकाशवरूप (वर्चः ) तेज का पुञ्ज है । ( स्वाहा ) यह सुन्दर आहुति है।
३. मोश्म् अग्निज्योतिज्योतिरमिः खाहा । अर्थ हो चुका है।
४. ओ३म् सजूदेवेन सवित्रा सजूराश्येन्द्रवत्या सुषाणो अग्निवेंषु स्वाहा।
अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( देवेन ) प्रकाशस्वरूप ( सवित्रा ) प्रेरक से ( सजूः) मिलकर [ इन्द्रवत्या ] प्रकाश युक्त [राश्या] सन्ध्या वेला से [ सजूः] मिलकर [जुषाणः] सेवन करता हुआ अग्निः [वेतु ] चमके । [स्वाहा ] यह सुहावनी वाणी है। __ प्रातःकाल सूर्य था अब अग्नि है । सन्ध्या वेला का रङ्ग उषा का सा ही होता है। शेष सब कुछ वह है जो प्रातः था समय पलटा है । समा नहीं पलटा।।
इस मन्त्र से यह स्पष्ट हो गया कि सायंकाल का हवन रात्रि होने से पूर्व करना चाहिये। उस के पीछे सन्ध्या वेला का सुवर्णमय तेज न दीखेगा । कीटकों के अग्नि में गिर कर मरने का भी भय रहता है जिस में हिंसा दोष लगता है।
इन आहुतियों के पीछे व्याहृति–आहुतियां प्रातःकाल की भान्ति उन्हीं मन्त्रों से दें। ऐसे ही पूर्णा हुति । ___ यदि प्रातः सायं दोनों समय हवन न कर सकें तो प्रातः काल ही पहिले [ सूर्यो ज्योतिः ] इत्यादि से चार आहुतियां, फिर [ अग्निज्योति से चार, तत्पश्चात् व्याहृति और पूर्ण आहुतियां डालें।
गुरुकुलों में प्रयुक्त होने वाले विशेष मंत्र। ___ गुरुकुलों में साधारण नैत्यिक हवन के पीछे वेदारम्भ संस्कार के लिए हुए व्रत पालन के पांच मन्त्र और पढ़े जाते हैं, और उनके साथ एक २ आहुति दा जाती है। मन्त्र और उन के अर्थ यह है :
१ ओ३म् अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब बीमितच्छकेयम् । तेनासमिदमहमन्तात्सत्य मुपेमि स्वाहा । इदमग्नये इदन्नमम ।
अर्थ :–(ओ३म् अग्ने) हे शानस्वरूप ओ३म् (व्रतपते) व्रतों के पालने वाले ! मैं ( व्रतं ) व्रत का (चरिष्यामि ) आच. रण करूं ( तत् ) वह (ते) तुझ से (प्रत्रवीमि) प्रकटतया कहना हूं (तत्) इस में (शकेयम् ) मैं शक्त होऊं । (तेन) उस से (अध्यासम् ) मैं समृद्ध होऊ। ( अहं ) मैं ( अनृतात् ) असत्य से [ मुक्त होकर ] ( इदम् ) इस ( सत्यम् ) सत्य को ( उपैमि ) प्राप्त होता हूं ( स्वाहा ) यह सुन्दर वाणी है (इदम्) यह ( अग्नये ) ज्ञान स्वरूप के लिए है (इदम् ) यह ( मम ) मेरी अकेले की (न) नहीं।
२ ओ३म् वायो व्रतपते…..”‘इदन्न मम ।
अर्थः-(ओ३म् वायो ) हे बल स्वरूप ओ३म् ! …… …….”शेष पूर्ववत् ।