Category Archives: शंका समाधान

‘‘कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। पापकर्मों को ईश्वर कभी-भी क्षमा नहीं करता।’’ तो मनुष्य ईश्वर की प्रार्थना-स्तुति क्यों करें?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासामैं परोपकारी का आजीवन सदस्य वर्षों से हूँ। पत्रिका पढ़कर बड़ा आनन्द आता है। बहुत कुछ अच्छी जानकारी मिलती है। धन्यवाद वसन्त

(क) महर्षि दयानन्द के अनुसार- ‘‘कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। पापकर्मों को ईश्वर कभी-भी क्षमा नहीं करता।’’ तो मनुष्य ईश्वर की प्रार्थना-स्तुति क्यों करें?

– संसार में, एक व्यक्ति किसी के प्रति अपराध करता है, किन्तु क्षमा माँगने पर, पश्चात्ताप करने पर प्रथम व्यक्ति उसको क्षमा कर देता है, क्या ईश्वर को इसी प्रकार क्षमा नहीं कर देना चाहिए? कहते हैं- वह बड़ा दयालु है, तो उसको दया क्यों नहीं आती?

समाधान– (क) महर्षि दयानन्द की वैदिक मान्यतानुसार कर्मों का फल भोगना पड़ता है। किये हुए पाप कर्मों को ईश्वर क्षमा नहीं करता, वह तो न्यायपूर्वक उन कर्मों का फल यथावत् देता है। परमेश्वर के द्वारा पाप कर्म क्षमा न करने पर आपकी जिज्ञासा है कि फिर ईश्वर की स्तुति प्रार्थना क्यों करें? इस विषय में हम यहाँ पहले महर्षि दयानन्द के विचार लिखते हैं-

‘प्रश्न- परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए वा नहीं?      उत्तर- करनी चाहिए।

प्रश्न क्या स्तुति आदि करने से ईश्वर अपना नियम छोड़, स्तुति प्रार्थना करने वाले का पाप छुड़ा देगा?

उत्तर नहीं।

प्रश्न तो फिर स्तुति प्रार्थना क्यों करना?

उत्तर उसके करने का फल अन्य ही है।

प्रश्न क्या है?

उत्तर स्तुति से ईश्वर में प्रीति, उसके गुण-कर्म-स्वभाव से अपने गुण कर्म स्वभाव का सुधरना। प्रार्थना से निराभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना। उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना।’’ स.प्र. 7।

यहाँ महर्षि के मतानुसार स्तुति प्रार्थना से पाप क्षमा तो नहीं होंगे, किन्तु स्तुति-प्रार्थना करने के अन्य अनेक लाभ बताए हैं। इन अन्य लाभों को प्राप्त करने के लिए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना आवश्य करें, करनी चाहिए। हम मनुष्य जो लौकिक कार्य करते हैं, वह भी लाभ ही के लिए करते हैं। किसी कार्य को हमने पाँच लाभ प्राप्त करने के लिए प्रारभ करने का विचार किया। विचार करने पर पता लगा कि इस कार्य से पाँच लाभ न होकर, चार ही लाभ होंगे और जो लाभ होंगे, वे बड़े महत्त्वपूर्ण लाभ प्राप्त होंगे। ऐसी स्थिति में विचारशील व्यक्ति को क्या पाँच लाभों में से एक लाभ न मिलता देखकर, उस कार्य को छोड़ देना चाहिए या करना चाहिए? बुद्धिमान् व्यक्ति निश्चित रूप से इस कार्य को छोड़ेगा नहीं, अपितु चार लाभ के लिए अवश्य करेगा। ऐसे ही ईश्वर की स्तुति प्रार्थना से पाप छूटने वाला लाभ तो नहीं हो रहा, किन्तु अन्य बहुत से सद्गुण रूप सदाचार प्राप्त हो रहे हैं, जिनके प्राप्त होने पर पाप कर्म करने की प्रवृत्ति नष्ट होती है। क्या ऐसे ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, रूप, कर्म को छोड़ना चाहिए? तो इसका प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति यही उत्तर देगा कि ऐसे कर्मों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। इसलिए गुणों में प्रीति, अपने गुण कर्म स्वभाव को सुधारने, निरभिमानता, उत्साह और ईश्वर का सहाय प्राप्त करने के लिए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करनी चाहिए।

– संसार में किसी व्यक्ति के प्रति किये गये अपराध को व्यक्ति सहन कर, उस अपराध को करने वाले अपराधी को क्षमा कर देता है। यदि क्षमा करता है तो वह धर्म का पालन कर रहा है। जब हम व्यक्तिगत हानि, अपराध, अपमान आदि के होने पर किसी को क्षमा करते हैं, तो यह उचित है, यह धर्म कहलायेगा, जो महर्षि मनु ने धर्म के दश लक्षणों में से एक ‘क्षमा’ कहा है। यदि व्यक्ति सामाजिक और राष्ट्रीय अपराधी को क्षमा करता है, तब वह धर्म न होकर अधर्म हो जायेगा, अन्याय हो जायेगा।

ऐसे ही न्यायकारी परमेश्वर स्वअपराधियों को सहन करने वाला है, क्षमा करने वाला है, जो कोई परमेश्वर को गाली देता है, उसको छोटा मानता है, उसकी सत्ता को स्वीकार नहीं करता, ऐसे व्यक्ति को अपने प्रति किये इस दुर्व्यवहार को सहन करता है, क्षमा करता हैं, किन्तु जब व्यक्ति उसकी आज्ञा का पालन न कर, पाप कर्म करता है अर्थात् शरीर, मन, वाणी से दूसरे की हानि करता है, तब न्यायकारी परमात्मा उसको क्षमा न कर दण्डित करता है। यह उसकी दया है, दयालुपना है। यदि परमेश्वर ऐसा न करे तो व्यक्ति अधिक-अधिक पाप कर्म कर अधिक-अधिक अधोगति को प्राप्त हो जावे। जब परमात्मा उसके पाप कर्म का फल देता है, तो फल भोगने से पाप क्षीण होते हैं, यह परमेश्वर की दया नहीं तो क्या है। उसको पाप कर्मों को भुगा कर फिर से मनुष्य शरीर देकर उन्नति का अवसर देना- इसमें परमात्मा की दया ही तो द्योतित हो रही है। परमात्मा तो दया का भण्डार है, हम अज्ञानी लोग उसकी दया को समझ नहीं पाते, यह हमारा दोष है।

कहते हैं कि महाभारत युद्ध में 18 अक्षौणी सेना नष्ट हुई थी जिसमें लगभग 48 लाख मनुष्य लाखों घोड़े, हाथी और हजारों रथ नष्ट हुये। अगर ऐसा है तो इन सबको डिस्पोजल कैसे किया गया या इनका निपटारा कैसे किया गया।

कहते हैं कि महाभारत युद्ध में 18 अक्षौणी सेना नष्ट हुई थी जिसमें लगभग 48 लाख मनुष्य लाखों घोड़े, हाथी और  हजारों रथ नष्ट हुये। अगर ऐसा है तो इन सबको डिस्पोजल कैसे किया गया या इनका निपटारा कैसे किया गया।

समाधान-

महाभारत युद्ध में जो भी मनुष्य वा हाथी घोड़े मरे थे, उन सबका विधिवत् अन्तिम संस्कार किया गया-ऐसा ‘स्त्रीपर्व’ के छठे अध्याय में वर्णन कर रखा है। आपने जो पूछा कि इन सबका निपटारा कैसे हुआ होगा, सो वह निपटारा विधिवत् हुआ है, उस समय में बड़े बुद्धिमान् और कुशल लोग थे, जिन्होंने इस सबका कुशलता से निदान किया था। अलम्।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

महाभारत में लिखा है कि लाखों गौओं के सींग और खुर सोने से जड़े थे। लाखों हाथी और घोड़ों की काठियाँ (बैठने के गद्दे), झूमर, पैर सोने में मढ़े थे। क्या उस समय लाखों टन सोना था भारत में?

महाभारत में लिखा है कि लाखों गौओं के सींग और खुर सोने से जड़े थे। लाखों हाथी और घोड़ों की काठियाँ (बैठने के गद्दे), झूमर, पैर सोने में मढ़े थे। क्या उस समय लाखों टन सोना था भारत में?

समाधान- 

 वर्तमान की अपेक्षा हमारा भारतवर्ष अधिक ऐश्वर्य सपन्न था-विश्व में सबसे अधिक सपन्न। प्राचीन काल में तो था ही मध्यकाल को भी देखें तो यहाँ धन धान्य की कोई कमी न थी। सोमनाथ के मन्दिर का इतिहास देखिये! इस मन्दिर के पास अपार धन था। सोना, चाँदी, हीरे, मोती, सोने की ठोस मूर्तियाँ चाँदी की मूर्तियाँ, बर्तन आदि यह तो एक मन्दिर की सपदा है, ऐसे-ऐसे हजारों मन्दिर इस देश में थे, जिनके पास ऐश्वर्य की कमी नहीं थी। ऐसा लगता है कि राजाओं के पास धन कम था और मन्दिरों के पास अधिक। आज वर्तमान में भी मन्दिरों के पास कितना धन है- इसका अनुमान आप लगा सकते हैं। तिरुपति बालाजी मन्दिर की वार्षिक आय लगभग दो हजार छः सौ अस्सी करोड़ है। इस मन्दिर के पास सोना कितना इसका पता ही नहीं। अन्य-अन्य मन्दिरों के पास भी ऐसा ही धन सोना आदि हैं। जब इस समय हमारे मन्दिरों आदि के पास इतना धन है तो पहले यह भारत देश इससे कई गुणा सपन्न था, इसलिए गौ आदि के सींगों पर सोना चढ़ा देते थे। उपनिषद् में भी सोने से मढ़ी सींगों वाली हजारों गौवों का वर्णन आता है।

ऐसा तो नहीं लगता कि उस समय की प्रत्येक गाय आदि को सोने से सजाया जाता हो। हाँ, इतना अवश्य प्रतीत होता है कि राजा लोग अपने पशुओं को सोने-चाँदी आदि से अलंकृत करते थे। जब कभी कुछ चीज ज्यादा दिखती हैं तो उसको बढ़ा-चढ़ाकर बोला जाता है। यह भाषा का प्रयोग है, इसको अर्थवाद कहते हैं। जैसे हनुमान जी संजीवनी बूटी लेकर आये तो पुरा गट्ठड़ ही बाँधकर ले आये थे, इस पूरे गट्ठड़ को देखकर उनको कह डाला कि पूरा पहाड़ का पहाड़ उठा लाये। बहुलता को देखकर पहाड़ कह दिया था। इस पहाड़ वाले भाषा प्रयोग को न समझने वालों ने वास्तविक पहाड़ ही समझ लिया। ऐसे ही यहाँ समझे कि बहुलता को देखकर ऐसा वर्णन किया गया है।

यह तो निश्चित है कि उस समय इन चीजों का अधिक प्रचलन था, जब आज एक पत्थर की मूर्ति बना सांई बाबा करोड़ों रु. के सोने के सिहांसन पर बैठा है तो उस समय चेतन प्राणियों क ो इस प्रकार के आभूषणों से क्यों नहीं अलंकृत करते होंगे।

१. हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव बनने का प्रयास करना चाहिए? – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा- निम्नलिखित जिज्ञासाओं का समाधान करने का कष्ट करेंः-
१. हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव बनने का प्रयास करना चाहिए?
मनुष्य बनेंगे तो ‘‘शतपथ’’ वाली बात बाधा डालती है, जिन्हें यज्ञ करने तक का अधिकार नहीं है। जब महर्षि दयानन्द द्वारा अनेक स्थलों पर दी गई ‘‘मनुष्य’’ की परिभाषा में सभी श्रेष्ठ गुण आ जाते हैं, तो फिर देव बनने की क्या आवश्यकता रह जाएगी और इस तरह मन्त्र में ‘‘मनुर्भव’’ वाली बात का औचित्य भी सिद्ध हो जाएगा।

समाधान-(क) वेद व ऋषियों के तात्पर्य को समझने के लिये वेद व ऋषियों की शैली को ही अपनाना पड़ता है। इस आर्ष शैली को अपनाकर जब हम वेद और ऋषि वाक्यों को देखते हैं, तब वे वाक्य हमें स्पष्ट समझ में आते चले जाते हैं। महर्षि दयानन्द ने वक्ता अथवा लेखक का भाव, उद्देश्य समझने के लिए सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में चार बातें-आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्य को जानने के लिए कहा है। प्रायः जब हम भाषा-शैली वा भाषा-विज्ञान को नहीं जान रहे होते, तब हम किसी बात के अर्थ को ठीक से नहीं जान पाते।
महर्षि दयानन्द ने मनुष्य की परिभाषा अनेक स्थानों पर दी है। वे परिभाषाएँ अपने-अपने स्थान पर उचित हैं। महर्षि मनुष्य के अन्दर जो मनुष्यता के भाव होने चाहिए उनको लेकर परिभाषित कर रहे हैं, जैसे स्वात्मवत्, सुख-दुःख में वर्तना, विचार पूर्वक कार्य करना आदि। यह मनुष्य बनने की प्रेरणा वेद भी ‘मनुर्भव’ वाक्य से कर रहा है। इसको देखकर आप तो शतपथ के वाक्य को देख रहे हैं और उसमें विरोधाभास दिख रहा है, सो है नहीं। यहाँ जो ‘‘अनृतं मनुष्याः’’ कहा है, वह एक सामान्य कथन है। इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि मनुष्य सदा झूठ ही बोलता है, सत्य बोलता ही नहीं। हाँ, इसका यह तात्पर्य तो अवश्य है कि मनुष्य अपने अज्ञान आदि के कारण झूठ बोल देता है, जबकि यह भाव देवताओं में नहीं होता, क्योंकि विद्वानों, ज्ञानियों को देवता कहा गया है, ‘‘विद्वांसो वै देवाः’’। विद्वान् ज्ञानी लोगों में अज्ञान स्वार्थ आदि के न होने के कारण वे सत्य बोलते हैं, सत्य का आचरण करते हैं। इसका यह भी तात्पर्य नहीं है कि कभी झूठ बोल ही नहीं सकते, नहीं बोलते। हाँ, देव और मनुष्य कोई अलग नहीं हैं। दोनों में एक ही अन्तर है कि देवों से त्रुटियाँ नहीं होती अथवा यूँ कहें कि अत्यल्प होती हैं। जो होती हैं, वे जीव की अल्पज्ञता के कारण होती हैं और इनसे इतर जो हैं, वे मनुष्य हैं। मनुष्यों से त्रुटियाँ अधिक हो सकती हैं, होने की सम्भावना अधिक रहती हैं।
‘‘अनृतं मनुष्याः’’ इस सामान्य कथन को लेकर ‘‘मनुर्भव’’ से विरोध देखना उचित नहीं हैं। ‘‘मनुर्भव’’ मनुष्यता से युक्त मनुष्य बनने की बात कह रहा है और ‘‘अनृतं मनुष्याः’’ कह रहा है कि मनुष्य से अज्ञान के कारण त्रुटि हो सकती है। इन दोनों में कोई विरोध नहीं है, दोनों वाक्य अपने-अपने स्थान पर अपनी बात कह रहे हैं।
हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव? तो हमें श्रेष्ठता की ओर बढ़ना चाहिए। मनुष्य बनना कोई हीन बात नहीं है। वेद ने मनुष्य बनने के लिए कहा है और इससे आगे अपने अन्दर देवत्व पैदा करने की बात कही, अर्थात् मनुष्य से आगे हम देव बनें।
आप शतपथ की इस बात को लेकर कह रहे हैं कि ‘‘इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है।’’
शतपथ के इस पूरे प्रसंग से कहीं भी ऐसी बात प्रतीत नहीं हो रही कि मनुष्य को यज्ञ से दूर रखा जा रहा हो और देवताओं के लिए यज्ञ करने का विघान हो। यहाँ तो केवल सामान्य परिभाषा की जा रही है कि जो असत्य बोल देता है (किन्हीं कारणों से) वह मनुष्य और जो सत्य बोलता है, देवता होता है। यहाँ मनुष्यों के यज्ञ न करने की बात कहाँ से आ गई? अपितु शास्त्र में यह कथन तो मिलता है- ‘‘मनुष्याणां वारम्भसामर्थ्यात्।।’’ का. श्रौ. पू. १.४ अर्थात् यज्ञ-याग आदि कर्म करने का अधिकर मनुष्यों का है, मनुष्य इस कार्य के लिए समर्थ हैं। इस शास्त्र वचन में मनुष्य ही यज्ञ का अधिकारी है और आप इसके विपरीत देख रहे हैं जो कि है ही नहीं।
अभी हमने पीछे कहा कि मनुष्य बनना कोई हीन काम नहीं है,मनुष्य बनना एक श्रेष्ठ स्थिति है। जिस स्थिति को महर्षि दयानन्द परिभाषित करते हैं, वहाँ यहाँ वाली स्थिति नहीं है। महर्षि की मनुष्य वाली परिभाषा में धर्म का बाहुल्य है, विचार का बाहुल्य है। किन्तु देव मनुष्यों से आगे धर्म और विचार का बाहुल्य रखते हुए विवेक विद्या का बाहुल्य भी रखते हैं, वे राग-द्वेष से ऊपर उठे हुए होते हैं। यह सब होते हुए देव बनने की आवश्यकता है, इसलिए वेद ने कहा ‘मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।’ इस आधार पर मनुष्य और देव दोनों बनने का औचित्य है।

यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है? आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा :-

आचार्य जी, ‘‘समाधान – 93’’ में आपने जो दिया है, उसमें थोड़ी-सी शंका शेष रह गई है और वह यह है कि ईश्वर ने इस साकार जगत् की रचना प्रकृति के परमाणुओं से की है। इसका मतलब प्रकृति के परमाणुओं में साकारत्व का गुण है, तभी तो साकार जगत् बन पाया। पंचभौतिक तत्त्व भी प्रकृति के परमाणुओं से ही बने हैं, तो इन परमाणुओं से निराकार पदार्थ कैसे बन जाते हैं और फिर वे निराकार पदार्थ परस्पर मिलते हैं, तो आकार कैसे ग्रहण कर लेते हैं, अर्थात् साकार कैसे बन जाते हैं? यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है?

निम्न बिन्दुओं पर भी स्थिति स्पष्ट करने का कष्ट करें-

(1) आपने आकाश निराकार बताया है। यह प्रकृति के परमाणुओं से बना है। इसी तरह वायु भी निराकार है, अग्नि जब प्रकट होती तब साकार होती है, अन्यथा निराकार। यह क्यों है?

(2) मेरे विचार से प्रलयकाल में जब प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में होती है, तब निराकार ही होती है और ईश्वर तथा जीव निराकार होते ही हैं। फिर निराकार प्रकृति से साकार जगत् कैसे बना?

(3) महर्षि दयानन्द जी ने बताया है कि साकार चीजें असीम नहीं होती, बल्कि जीवात्माएँ भी संया वाली हैं, चाहे वे मनुष्य की गिनती से बाहर हों। ऐसी अवस्था में आकाश या अवकाश रूप आकाश असीम है या ससीम है?

(4) वायु ससीम है या असीम?

(5) क्या ईश्वर के अतिरिक्त अन्य भी कोई तत्त्व ऐसा है, जो असीम हो?

कृपया, समाधान करने का कष्ट करें।

– इन्द्रसिंह पूर्व एस.डी.एम. 29- नई अनाज मण्डी, भिवानी (हरियाणा) चलभाषः – 9416057813

समाधानः परमेश्वर ने यह संसार अपने सामर्थ्य से मूल प्रकृति को लेकर बनाया है। संसार के बनाने में परमेश्वर निमित्त कारण और प्रकृति उपादान कारण है। स्थूल जगत् के बनने की प्रक्रिया महर्षि कपिल ने अपने सांय दर्शन में दी है-

सत्त्वरजतमसां सायावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान्, महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिद्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूलभूतानि……।।  सां.- 1.61

सत्त्व, रज, तम- इन तीन वस्तुओं से मिलकरजो एक संघात है, उसका नाम प्रकृति है। उस प्रकृति से महतत्त्व बुद्धि, उस महतत्त्व से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्रा अर्थात् सूक्ष्म भूत- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द , दस इन्द्रियाँ तथा ग्यारहवाँ मन, पाँच तन्मात्राओं से पाँच स्थूल भूत अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और इन पाँच महाभूतों से यह दृश्य जगत्।

प्रकृति से जो कुछ भी उत्पन्न होता है, वह आकार वाला होता है, क्योंकि प्रकृति स्वयं आकार वाली है, जो गुण कारण में नहीं होते, वे कार्य में भी नहीं होते। यदि ऐसा होने लग जाये, तो अभाव से भाव की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जो द्रव्यात्मक पदार्थों में कभी घट ही नहीं सकता। महर्षि दयानन्द ने भी प्रकृति को आकार वाला माना है। महर्षि लिखते हैं-‘‘…….वह प्रकृति और परमाणु जगत् का उपादान कारण है और वे सर्वथा निराकार नहीं, किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य कार्य से सूक्ष्म आकार रखते हैं।’’ – स. प्र. स. 8

आपने जो कहा कि ‘‘मेरे विचार से प्रलयकाल में जब प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में होती है, तब निराकार ही होती है।’’ यह विचार ऋषि के विचार से नहीं मिल रहा है। यदि ऐसा मान भी लें तो अभाव से भाव की उत्पत्ति वाली बात हो जायेगी, जो कि युक्त नहीं है। ऊपर जो लिखा कि प्रकृति से उत्पन्न पदार्थ आकार वाले होते हैं, इस कथन से आकाश निराकार कैसे सिद्ध होगा- यह प्रश्न खड़ा हो जायेगा। इसके लिए मेरा कथन है कि जो आपने परोपकारी के जिज्ञासा समाधान-93 की चर्चा की है, उसमें साकार निराकार की तीन परिभाषाएँ लिखी हैं, उनको यहाँ पुनः उद्धृत करता हूँ-

  1. साकार वह है, जो प्रकृति से बना हुआ, इसके अतिरिक्त निराकार।
  2. साकार वह, जिसमें रूप, रस, गन्धादि पाँचों गुण प्रकट हों, इससे भिन्न अर्थात् जिसमें पाँचों गुण प्रकट न हों, वह निराकार।
  3. साकार वह, जिसमें केवल रूप गुण प्रकट रूप में हो, अर्थात् जो आँखों से दिखाई दे वह साकार, इससे भिन्न निराकार।

इन परिभाषाओं के आधार से पहली परिभाषा के अनुसार देखें तो जो प्रकृति से बना आकाश है, वह भी साकार होगा। जहाँ आकाश को निराकार कहा है, वहाँ सापेक्ष रूप से कहा है। आकाश पाँच भूतों में सबसे सूक्ष्म है, उसको हम केवल शब्द  के आधार से अनुमान लगाकर जान पाते हैं। इसी प्रकार वायु को स्पर्श से जान पाते हैं। रूप क ी दृष्टि से तो ये निराकार ही कहलाएँगे।

हाँ, जिस अवकाश रूप आकाश की बात ऋषि करते हैं, जो कि प्रकृति से नहीं बना, वह तो निराकार ही है और यह अवकाश रूप आकाश असीम है। इन आकाश, वायु आदि के असीम-ससीम के विषय में हम इतना ही कह सकते हैं कि ये पदार्थ प्रकृति से बने होने केकारण ससीम हैं। शेष बाद में लिखेंगे।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

‘सर्वव्यापक कर्मों का साक्षी परमात्मा मुनष्य को बुरे काम करने पर रोकता क्यों नहीं?’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, जीवों के प्रत्येक कर्म का साक्षी व फल प्रदाता है। जीवात्मा सत्य व चेतन, सूक्ष्म, एकदेशी, अल्पज्ञ, अनादि,  अविनाशी, नित्य, अजर, अमर आदि गुणों वाली सत्ता व पदार्थ है। जीवात्मा को पूर्वजन्म के अभुक्त कर्मों, पाप-पुण्य वा प्रारब्ध के आधार पर भिन्न भिन्न योनियों में से किसी एक योनि में जन्म प्राप्त होता है। मनुष्य योनि में जन्म लेने वाले बालक व युवा-वृद्ध आदि समय के साथ शैशव अवस्था को पाकर बाल अवस्था और फिर किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं और उसके बाद युवा हो जाते है। मृत्यु पर्यन्त मनुष्य की शारीरिक अवस्थायें बदलती रहती हैं। हम अनेक मनुष्यों को कभी अच्छे व कभी बुरे कर्म करते हुए देखते हैं तो हमारे व अन्यों के मन में प्रश्न उठता है कि सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान और सभी जीवों के कर्मों का साक्षी ईश्वर इन पाप व बुरे कर्म करने वालों को बुरा काम करने से रोकता क्यों नहीं है? अनेक अल्पज्ञानी मनुष्य तो इसी कारण से नास्तिक बन जाते हैं। विषय कुछ कठिन है परन्तु जीव की स्वतन्त्रता के सिद्धान्त के आधार पर इस व ऐसे प्रश्नों का समाधान भी वैदिक धर्मियों के पास उपलब्ध है। वह समाधान क्या है? इस पर विचार करते हैं।

 

जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है और अपने किये हुए कर्म के फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र वा पराधीन है। यहां हमें जीव को कर्म करने की स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को समझना है। यदि यह समझ लिया तो समस्या का समाधान हो जायेगा। एक उदाहरण पर विचार करते हैं। हमारे देश में अनेक सरकारी अधिकारी काम करते हैं। उन्हें काम करने के नियम बता दिये जाते हैं और उन्हें उसके अन्तर्गत काम करने की स्वतन्त्रता होती है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध नियम बने हुए हैं। भ्रष्टाचार दण्डनीय अपराध होता है। प्रत्येक अधिकारी जानता है कि यदि उसने भ्रष्टाचार किया तो वह दण्डित किया जायेगा। इस पर भी वह लोभवश भ्रष्टाचार कर बैठता है। वह सोचता है कि किसी को पता नहीं चलेगा, वह धनवान बन जायेगा और सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करेगा। वह प्रथम बार छुप कर भ्रष्टाचार करता है और बच जाता है। अब उसे इस अनुचित आचरण का  संस्कार पड़ जाता है जो उसे पुनः बुरे कामों को करने की प्रेरणा करता है। वह अब बार बार अनुचित काम वा भ्रष्टाचार करता है। कभी न कभी वह फंस जाता है। उसके भ्रष्टाचार के प्रमाण उपलब्ध हो जाते हैं और उसे न केवल काम से हटा दिया जाता है अपितु जेल की सजा का दण्ड भी मिलता है। यहां हम देखते हैं कि भ्रष्टाचार के आरोप में उसे तब दण्ड मिलता है जब वह अपराध कर लेता है और जांच के बाद उसका अपराध सिद्ध हो जाता है। उसे कर्मं करने की स्वतन्त्रता थी इसलिये उसे बीच में रोका नहीं गया। दण्ड विधान के डर से वह बुरा काम नहीं करेगा, इसकी उससे अपेक्षा की जाती है। जब उसका अपराध पूरा हो गया और उच्चाधिकारियों को इसकी जानकारी मिली तो उसे जांच कराकर उसके अपराध के अनुसार दण्ड दिया गया। दण्ड मिलने पर उसको पश्चाताप होता है। जीवात्मा के साथ भी कुछ इसी प्रकार व्यवहार ईश्वर करता है। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, अतः ईश्वर उसको अपराध न करने की प्रेरणा, उसके मन में भय-शंका-लज्जा आदि उत्पन्न कर, करता तो है परन्तु जीव की स्वतन्त्रता के कारण उसे बलपूर्वक रोकता नहीं है। यदि वह मनुष्य को बुरे काम करने से बलपूर्वक रोके तो फिर यह जीव की स्वतन्त्रता में बाधा होगी। हमने कई बार गलती करने, यथा नशा करने व बुरे लोगो की संगति करने आदि मामलों में माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को डांटे जाने पर बच्चों को यह कहते हुए सुना है कि यह जिन्दगी उनकी है, वह जो चाहें सो करें। इस पर कुछ माता-पिता तो मौन हो जाते हैं और कुछ उत्तर देते हैं परन्तु फिर भी माता-पिता की सलाह को मानना व न मानना उनकी सन्तानों के अपने अधिकार व वश में है। यहां माता पिता को दण्ड देने का अधिकार नहीं है परन्तु माता-पिता जानते हैं कि सन्तान के बुरे कर्मों का परिणाम व फल भविष्य में बुरा ही होना है। यह कर्म-फल सिद्धान्त है और बुरे कर्म का यथासमय दुःखरूपी बुरा फल मिलना ही ईश्वरी नियम है। अच्छे काम करने से मनुष्य की उन्नति होती है, वह सुखी होता है और अशुभ कर्म करने से अवनति होकर दुःख पाता है। ईश्वर जीवात्मा को बुरे काम न करने की प्रेरणा तो देता है परन्तु बलपूर्वक रोकता नहीं है क्योंकि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। हां, जीव को भविष्य में अपने किए हुए बुरे कर्म का दुःख रूपी फल अवश्य मिलता है। जीव को बुरे कर्मों को करते समय व कर्म करने से पूर्व ही रोकना व कर्म की समाप्ती पर भी दण्ड न देकर बहुत बाद में दण्ड देना, इसका कारण बहुत लोगों की समझ में नहीं आता और इस अनभिज्ञता के कारण कई बार शिक्षित व अशिक्षित लोग कर्म संबंधी गलत निर्णय कर बैठते हैं।

 

यहां एक समस्या यह भी आती है कई लोग बुरे कर्म करते हैं और सुखी देखे जाते हैं और म्त्यु तक भी उनके बुरे कर्मों का फल उनको मिलता हुआ नहीं देखा जाता। इसका क्या कारण है? इसका कारण जो समझ में आता है वह यह है कि जीव अनादि व अमर है और अनन्त काल तक उसका जन्म व मरण होता रहेगा। एक जन्म के बचे हुए कर्मों को वह आगामी जन्म में व उसके बाद के जन्मों में भी भोग सकता है। हमें यह जो जन्म मिला है इसकी जाति, आुय व भोग हमारे प्रारब्ध अर्थात् पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार निर्धारित व निश्चित हुए हैं। इसका प्रमाण योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने दिया है और बताया है कि मनुष्य के पूर्वजन्म के कर्मों वा प्रारब्ध के अनुसार ही जीवात्मा के भावी जन्म के जाति, आयु व भोग निर्धारित होते हैं। मनुष्य वा किसी भी प्राणी पूर्ण आयु को जीवन का भोग काल कह सकते हैं और जिन कर्मों का भोग करना है वह भी पूर्वजन्म के कर्मों पर ही अधिकांशतः आधारित है। इस जन्म के क्रियमाण कर्मों से इतर कर्म अभी पके नहीं, अतः उनके पकने पर ही फल मिलेगा। कर्म के पके बिना ही बीच में सभी क्रियमाण व अन्य संचित होने वाले आदि कर्मो के फल दे देना ईश्वर की न्याय व्यवस्था में सम्मिलित नहीं है। कुछ क्रियमाण कर्मों का फल मिलता है और कुछ कर्म संचित खाते में चले जाते हैं। यदि इस जन्म में संचित श्रेणी के कर्मों का फल पहले दे दिया जायेगा तो पिछले कर्म तो बचे ही रहेंगे। न्याय यही कहता है कि पहले पुराना कर्मों का ऋण चुकता हो फिर नया चुकता किया जाये। यह बात जहां बुरे कर्मों पर लागू होती है वहीं नये शुभ कर्मों पर भी लागू होती है। हम ईश्वरोपासना, यज्ञादि एवं माता-पिता-आचार्यो व पात्रों की सेवा व सत्कार करते हैं। इन कर्मों का फल हमें साथ-साथ नहीं मिलता। इसी तरह से सभी बुरे कर्मों का भी नहीं मिलता। जिन व कुछ क्रियमाण कर्मों का फल मिल जाता है उनसे अतिरिक्त बचे हुए कर्म संचित कर्म बन जाते हैं जिनका फल बाद में, परजन्म व जन्मों में मिलता है, ऐसा वैदिक साहित्य सहित विचार व चिन्तन करने पर ज्ञात होता है और यह उचित ही है। वेद ने तो मनुष्य को आगाह व सावधान किया ही हुआ है कि, हे मनुष्य! तू वेद विहित कर्मों को करते हुए सौ वर्ष व अधिक आयु पर्यन्त सुखपूर्वक जीवित रहने की इच्छा करे। इससे अच्छा अन्य कोई मार्ग नहीं है। अतः निष्कर्ष यही निकलता है कि जिस प्रारब्ध व जिन कर्मों के आधार पर हमारा जन्म हुआ, जाति मिली, आयु निश्चित हुई व भोग निर्धारित हैं, इस जन्म में पहले उनका ही हमें भोग करना होगा और इस जन्म के कर्मों का फल, क्रियमाण के अतिरिक्त, इस जन्म के बाद परजन्मों में मिलेगा। अतः कर्म फल सिद्धान्त व ईश्वर के विधान को समझना व विश्वास करना ही सच्ची आस्तिकता व मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है। बुरा व्यक्ति इस जन्म में अपने पूर्व कर्मों के कारण सुखी है। पाप कर्मों को करके भी उसे सुख मिल रहा है परन्तु जब इसका फल ईश्वर देगा तो उसे दुःख की स्थिति से ही गुजरना होगा। यह स्थिति इस जन्म व अगले जन्मों में निश्चित रूप से प्राप्त होगी।

 

हम समझते हैं कि जो लोग बुरा काम करते हैं और उसकी सफलता में प्रसन्न होते हैं वह अज्ञानी ही कहे जायेंगे क्योंकि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं। अर्थात् मनुष्य को अपने किये हुए सभी कर्मों के सुख-दुःख रूपी फल अवश्यमेव भोगने होंगे। इन्हीं शब्दों के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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जिज्ञासा समाधान: आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा 2- मैं महर्षि दयानन्द जी का एक बहुत छोटा सिपाही हूँ, दैनिक यज्ञ एवं दोनों समय सन्ध्या करता हूँ, किन्तु सन्ध्या करते वक्त जब मैं मनसा परिक्रमा मन्त्र का अर्थ भाव के साथ उच्चारण करता हूँ तो निनलिखित शंका घेर लेती है-

(क) मनसा परिक्रमा मन्त्रों में हम दिशाओं, अग्नि, सूर्य, लता आदि जड़ पदार्थों को नमन करते हैं। कृपया, भाव स्पष्ट करें।

(ख) हर जीव अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर आयु, देश, स्थिति आदि प्राप्त करता है, लेकिन बहुत से लोग बेईमानी, छल-कपट के द्वारा भाग्य से अधिक धन अर्जित कर लेते हैं, जो कि उसके प्रारध से ज्यादा होता है। कृपया, थोड़ा प्रकाश डाल कर अज्ञान दूर करें।

– सुरेन्द्र कुमार, डल्यू-2-349-बी, नांगल राया, नई दिल्ली-110046

समाधान– 2 (क) महर्षि ने सन्ध्या करने का विधान मनुष्यों के लिए किया है। सन्ध्या में जिन मन्त्रों का विनियोग जिस क्रम से किया है, वह अपने आप में सन्ध्योपासना करने की वैज्ञानिक शैली है। सन्ध्या के प्रारभ से अन्त तक जिस क्रम को महर्षि ने रखा है, उस क्रम से साधक स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाता चला जाता है।

आर्य जगत् मूर्धन्य दार्शनिक योग्य विद्वान् पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने इस विषय पर चिन्तन कर सन्ध्या विषय को लेकर ‘सन्ध्या क्या, क्यों, कैसे’ पुस्तक लिखी है। उसके आधार पर यहाँ हम कुछ लिखते हैं।

सन्ध्या को चार भागों में विभक्त करके देखें- 1. आचमन मन्त्र से लेकर प्राणायाम मन्त्र पर्यन्त, 2. अघमर्षण मन्त्र, 3. मनसा परिक्रमा मन्त्र और 4. उपस्थान मन्त्र। प्रथम भाग में अपने शरीर=पिण्ड में ईश्वर के गुणों का विचार करना। इन्द्रिय स्पर्श, मार्जन एवं प्राणायाम मन्त्र में इसी पर बल दिया गया है, अर्थात् शरीर, प्राण व इन्द्रियों की बलवत्ता पर बल दिया गया है। दूसरापिण्ड से आगे ब्रह्माण्ड को देखते हुए, ईश्वर का विचार करना, जो अघमर्षण मन्त्रों में हैं। पिण्ड केवल मेरा अपना है, किन्तु ब्रह्माण्ड मेरा अपना भी है और सभी प्राणियों का भी। ब्रह्माण्ड सबके साझे का पिण्ड है। तीसरा स्थूल से सूक्ष्मता की ओर लेकर जाने का है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड ये स्थूल हैं, इन स्थूल से सूक्ष्म मन है, उस मन को सर्वत्र दौड़ाकर सर्वत्र परमेश्वर का चिन्तन करना, अर्थात् सब दिशाओं-उपदिशाओं में परमेश्वर का भान करना। चौथा मन से भी परे आत्मा को परमात्मा के निकट ले जाना, जो कि हम उपस्थान मन्त्रों के द्वारा परमेश्वर के निकट होते हैं। यह स्थिति सन्ध्या में सर्वोत्कृष्ट है। हमें इस स्थिति तक पहुँचना है, अर्थात् परमेश्वर के निकट अपनी आत्मा को ले जाना है।

अब आपकी जिज्ञासा पर विचार करते हैं। मनसा परिक्रमा मन्त्रों में जो कहा गया है कि सब दिशाओं में परमात्मा अपनी विभिन्न शक्ति स्वरूप से स्वामी है। सबके लिए नमस्कार व अपने अन्दर व अन्य के अन्दर स्थित द्वेष को दूर करने की प्रार्थना। आपका कथन है कि ‘‘इन दिशाओं, अग्नि, सूर्य, लता आदि को नमन करने का क्या भाव है?’’ इन मन्त्रों में जड़ और चेतन दोनों का ही कथन है और दोनों के लिए नमस्कार करने को कहा है। इन छः मन्त्रों में अग्नि, इन्द्र, वरुण, सोम, विष्णु और बृहस्पति, ये नाम सब दिशाओं में स्थित परमात्मा के हैं और इसी प्रकार असितः स्वजः और श्वित्र, ये नाम भी परमेश्वर के हैं। इन सभी स्वरूप वाले परमेश्वर को नमस्कार करना, अर्थात् उस परमेश्वर का समान करना, उससे यथायोग्य व्यवहार करना, अर्थात् उसकी आज्ञा का पालन करना। मन्त्रों में एक चेतन परमात्मा का वर्णन है, दूसरे चेतन पितर लोग, कीट-पतंग, विषधर प्राणी, वृक्ष-लता-बेल आदि हैं, इनको भी नमस्कार किया गया है। नमस्कार का अर्थ है- झुकना, नमन करना, यथायोग्य व्यवहार करना। इस यथायोग्य व्यवहार को लेकर जब नमस्कार को देखेंगे तो पितर, जो चेतन हैं, उनके लिए क्या व्यवहार होगा, वह हमारे सामने आ जायेगा। कीट, पतंग, विषधर प्राणी, लता, बेल, वृक्ष आदि ये हमारे लिए कितने उपयोगी हैं, इस प्रकृति के लिए कितने उपयोगी हैं, ऐसा विचार करना और इनके उपयोग को देखकर वैसा ही इसका उपयोग करना, व्यवहार में लाना, इनके लिए नमस्कार होगा और जो जड़ पदार्थ- आदित्य, अन्न, अशनि, वर्षा है, इनको भी नमस्कार अर्थात् इनका यथायोग्य उपयोग लेना, इनसे उपकार लेना, यह इनके लिए नमस्कार होगा।

कीट, पतंग, विषधर प्राणी, वृक्ष, लता, वेल, आदित्य, अन्न, अशनि, वर्षा, इषु आदि को नमस्कार करने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि इनकी जैसे पौराणिक वर्ग पूजा करता है, वैसे नमस्कारादि करना। यह व्यवहार चेतन मनुष्यों व परमेश्वर के लिए हो सकता है, अन्य के लिए नहीं।

(ख) जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह पाप-पुण्य रूप कर्म दोनों ही कर सकता है। इन्हीं पाप-पुण्य रूप कर्म के आधार पर परमेश्वर जीवों को फल देता है। वर्तमान जीवन में पिछले कर्मों के आधार पर व इस जीवन में किये पुरुषार्थ से जीव भोग भोगता है। पिछले कर्म श्रेष्ठ  थे, उसके आधार पर बहुत अच्छा शरीर, परिवार, समाज आदि मिला। ये मिलने के बाद भी जीवात्मा इस जीवन में विपरीत कर्म करता हुआ दुःखी हो सकता है। भले ही पिछले कर्म अच्छे थे, किन्तु इस जीवन में उसने जघन्य पाप किये, तो वह इस जीवन व अगले जीवन में दुःख भोगेगा।

एक बात और यहाँ कह दें कि जो कुछ हम जीवन में सुख-दुःख भोगते हैं, वह सब हमारे कर्मों का फल नहीं होता। हाँ, यह अवश्य है कि सुख-दुःख फल हमारे कर्मों का होता है, किन्तु सभी सुख-दुःख हमारे कर्मों का नहीं होता। किसी अन्य व्यक्ति के कारण या प्राकृतिक आपदा के कारण भी सुख-दुःख हो सकता है।

अब आपकी बात- जिस व्यक्ति का कर्माशय सामान्य था और इस आधार पर उसको फल भी सामान्य मिलना था, किन्तु वह व्यक्ति छल, कपट, अधर्म कर-करके बहुत धनादि अर्जित कर लेता है। उस अधर्म अर्जित धन वाले व्यक्ति को दूसरे लोग देखकर यह सोचने लग जाते हैं कि धर्म करने वाला दुःखी और यह अधर्म करने वाला सुखी है। ऐसा सोचना नासमझी है, क्योंकि धर्म का फल सदा ही श्रेष्ठ और अधर्म का फल सदा विपरीत ही होता है।

जिस व्यक्ति ने अधर्म से साधन अर्जित किये हैं, निश्चित रूप से उसको आगे जो फल मिलने वाला है, वह घोर दुःख ही होगा। महर्षि दयानन्द ने इस विषय में मनु का श्लोक देते हुए लिखा है-

अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।

ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति।।

‘‘जब अधर्मात्मा मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़ (जैसे तालाब के बाँध तोड़, जल चारों ओर फैल जाता है वैसे) मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड, अर्थात् रक्षा करने वाले वेदों का खण्डन और विश्वासधातादि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर प्रथम बढ़ता है, पश्चात् धनादि ऐश्वर्य से खान-पान, वस्त्र, आभूषण, यान, स्थान, मान, प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है। अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है, पश्चात् शीघ्र नष्ट हो जाता है। जैसे जड़ से काटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे अधर्मी नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।’’ सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 5, इसलिए अधर्मी को बढ़ते देख यह कभी न सोचें कि इसका जीवन अच्छा है, अपितु यह विचारें कि यह नादान परमेश्वर के न्याय को नहीं देख रहा, यह परमेश्वर के न्याय से कभी नहीं बच सकता। जो इसने छल-कपट से अर्जन किया है, उससे वह विशेष सुख तो नहीं ले पायेगा, अपितु परमात्मा के न्याय से उसने जो छल-कपट के कर्म किये हैं, उनका विशेष दुःख अवश्य भोगेगा। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

विचित्र शंका समाधानः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री स्वामी विवेकानन्द जी रोजड़ का शंका समाधान पढ़ सुनकर कुछ स्वाध्याय प्रेमी उनके समाधान पराी प्रश्न उठाते हैं। उन पर कुछ टिप्पणी करने को कई कारणों से टाल देना उचित जाना। वह दर्शनों के पण्डित हैं अतः उन्हीं से उनके समाधान पर प्रश्न पूछने का परामर्श देना ठीक लगा। अब बहुत कहा गया तो उनके दो विचारों पर कुछ निवेदन किया जाता है। पाठक तथा विद्वान् इस पर गभीरता से विचारें।

एक प्रश्न के उत्तर में गऊ को कसाई से बचाने के लिए असत्य कतई न बोलने और ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र को आपने न्यारा-न्यारा उपाय करने का उपदेश दिया है। किसी भी अवस्था में असत्य न बोलने का आपका उपदेश है। गुप्तचर विभाग में कार्यरत व्यक्ति देश की रक्षा करने में लगे रहते हैं। वे झूठ बोलकर क्या पाप करते हैं? पं. रुचिराम जी ने श्याम भाई का शव क्या सत्य बोल कर प्राप्त किया। वीर भगतसिंह ने साण्डर्स को मारा तो पुलिस ने पं. भगवद्दत्त जी, पं. रामगोपाल जी वैद्य तथा ठाकुर अमरसिंह से पूछा, वे गोली चलाकर किधर को भागे? तीनों ने कहा, हमने तो किसी को इधर से भागते देखा ही नहीं। क्रान्तिकारी पुलिस के हाथ नहीं आए। क्या ये तीन असत्य बोलने के कारण पापी माने जायें?

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने शाही किला में जाँच करने वालो को कहा, ‘‘मैं भापडोद की पंचायत में आने वाले किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं जानता।’’ वे जिसका भी नाम बताते सरकार उसे यातनायें देती। स्वामी जी ने झूठ बोलकर इतिहास बनाया। इसे आप पाप मानेंगे क्या?

रोजड़ में छपे एक बड़े ग्रन्थ में व उत्कृष्ट समाधान में मोक्ष प्राप्ति को ही सर्वोत्तम कर्म बताया गया है। जन्म लेने से दुःख भी भोगना पड़ता है सो जन्म लेना कोई बुद्धिमत्ता का कर्म नहीं। इस आाशय के वाक्य इस लेखक ने कई बार पढ़ें हैं। मोक्ष का महत्त्व सब जानते हैं परन्तु यह मत भूलिए कि ऋषि के पत्र-व्यवहार में ही समाधि का आनन्द छोड़कर लोकोपकार, वेद-प्रचार के लिए समर्पित होने की चर्चा पढ़ लीजिये। ऋषि दूसरों के बन्धन काटने के लिए बार-बार नरजन्म पाने की घोषणा या कामना करते हैं। ध्यान से ऋषि जीवन का पाठ कीजिये, मनन कीजिये। रोजड़ के कई महात्मा मोक्ष विषयक एकाङ्गी विचार देते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने प्राणोत्सर्ग से पूर्व धर्म प्रचार जाति रक्षा के लिए फिर से नर-जन्म पाने की कामना व्यक्त की थी। क्या यह वेद-विरुद्ध माना जावे?

शंका समाधान करते समय ऋषि के पत्र-व्यवहार तथा जीवन-चरित्र का भी गाीर ज्ञान होना चाहिये। वेद के सिद्धान्तों को, वैदिक दर्शन को समझने के लिए इनका भी उतना ही महत्त्व है जितना अन्य आर्ष ग्रन्थों का है। बुद्धि-भेद पैदा करने से हानि ही होगी। संगति का लगाना बहुत आवश्यक है।

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 12”

इस्लाम, नारी और महिला विकास का अवरोधक बुरका

“ग्यारहवे अध्याय का जवाब पार्ट 1 ”

सत्यार्थ प्रकाश समीक्षा की समीक्षा पुस्तक में सतीशचंद गुप्ता जी एक अध्याय प्रस्तुत करते हैं “क्या पर्दा नारी के हित में नहीं है ?” अपनी परदे वाली थियोरी को जायज़ (वैध) सिद्ध करने के चक्कर में लेखक इतने मशगूल हुए की बिना सिद्धांतो के ही कुतर्क और मिथ्याभाषण करते हुए, वर्तमान युग में भारतीय नारी का उद्धार करने वाले ऋषि दयानंद को इस्लाम और मुसलमानो का कटुआलोचकर बना दिया। क्या ये समाज को सच्चाई दिखाने की जगह खुद ही सच्चाई पर पर्दा डालने वाली बात न हुई ? लेखक को चाहिए था की नारी की मनोस्थति को समझते हुए उसकी भावनाओ का सम्मान करते, मगर इस्लामी धारणा से ओतप्रोत हुए लेखक ने सच को नकारते हुए, विशुद्ध रूप से मजहबी कट्टरता का परिचय देकर सम्पूर्ण नारी जाती का अपमान कर दिया। क्या ये आक्षेपकर्ता का मानसिक दिवालियापन नहीं है ?

देखिये, पर्दा प्रथा न तो भारतीय संस्कार हैं, न ही ये शब्द ही भारतीय हिंदी भाषा से सम्बंधित है, “पर्दा” शब्द स्वयं विदेशी है जो फ़ारसी भाषा से है, संपादक “डॉ सैयद असद अली” प्रकाशक राजपाल इन संस, दिल्ली से प्रकाशित “व्यवहारिक उर्दू हिंदी शब्दकोष” पृष्ठ संख्या १८८ में शब्द “पसेपर्दा” आता है, जो “फ़ारसी पुल्लिंग” शब्द है। जिसका अर्थ है आड़ में। तो ये बात तो क्लियर है की पर्दा शब्द खुद में ही विदेशी शब्द है, तो इसका मूल भी भारतीय नहीं हो सकता, वैदिक संस्कृति में नारी को सम्मान का सूचक “देवी” कहा गया है, जो कभी भी छुपाने की वस्तु वाले नजरिये से नहीं देखि गयी। क्योंकि “औरत” शब्द अरबी है जो अरबी धातु औराह या आईन-वाव-रा (ayn-waw-ra) से जिसका मतलब है कानापन या एक आंख से देखना से बना है। सीधा सीधा अर्थ है, शायद अरब के लोग नारी को केवल भोग की वस्तु या शारीरिक सम्बन्ध बनाने वाली नजर से ही देखते थे, जिस कारण नारी को “औरत” शब्द यानी छुपाने वाली बना दिया ताकि ऐसी दुष्ट और काम वास्नामयी नजरो से बचा सके।

जबकि भारतीय पद्धति में महिला को देवी का दर्जा प्राप्त है, जिससे ज्ञात होता है की भारतीय परंपरा और संस्कार नारियो के प्रति कितने उदारशील और संस्कारी थे। अब जो बात है पर्दा की तो किसी भी वैदिक साहित्य में महिला को छुपाने या पर्दा करने का विवरण प्राप्त नहीं होता देखिये :

निरुक्त में पर्दा प्रथा का विवरण कहीं मौजूद नहीं।

निरुक्तानुसार संपत्ति संबंधी मामले निपटाने के लिए न्यायालयों में स्त्रियों के आने जाने के लिए कहीं पर्दा व्यवस्था का विवरण नहीं, बल्कि अधिकार है।

रामायण और महाभारत काल में भी महिलाओ की पर्दा प्रथा नहीं पायी जाती, इसके उल्ट रावण की बहन जब श्री राम और लक्ष्मण के सामने आई तब भी कोई पर्दा न था, जब रावण माता सीता को ले जाकर, अशोक वाटिका में रखा वहा भी कोई पर्दा व्यवस्था नहीं थी। रामायण और महाभारत कालीन इतिहास में स्वयंवर होते थे, तब भी पर्दा व्यवस्था का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।

इन सब तथ्यों से ज्ञात हो जाता है की आर्य सभ्यता में पर्दा व्यवस्था थी ही नहीं, क्योंकि आर्य जाति सदैव सदाचारी और संयमी रही है, अतः पुरुषो को अपनी इन्द्रियों को वश में करना ही सदाचार है, महिलाओ को ढक कर, छिपा कर पुरुष इन्द्रियों को वश में नहीं कर सकता, खैर ये ढकने और छिपाने जैसी प्रथा से पुरुष की इन्द्रिय संयम में रहती हैं और पुरुष सदाचार की शिक्षा प्राप्त करता है, इतना विज्ञानं अरबी सभ्यता में ही था।

अब हम आपको वेद से प्रमाण दिखाते हैं, देखिये :

सुमंगलीरियं वधुरिमा समेत पश्यत
सौभाग्यमस्यै दत्वायाथास्तं वि परेतन

ऋग्वेद (10.85.33)

हे विवाह में उपस्थित भद्र स्त्री पुरुषो ! यह वधु शुभा और सौभाग्यशालिनी है। आप लोग आइये, देखिये और इसे सौभाग्य का आशीर्वाद देकर अनन्तर अपने अपने घरो को जाइए।

यहाँ स्पष्ट है की पर्दा प्रथा का कोई औचित्य भारतीय संस्कृति में महिलाओ के लिए निर्धारित नहीं किया गया। बल्कि आश्वलायनगृह्यसूत्र (1/8/7) के अनुसार वधु को अपने घर ले आते समय वर को चाहिए कि वह प्रत्येक निवेश स्थान (रुकने के स्थान) पर दर्शकों को ऋग्वेद के उपर्युक्त मंत्र के साथ दिखाए। इससे स्पष्ट है कि वैदिक सभ्यता (भारतीय संस्कृति) में वधुओं द्वारा अवगुण्ठन (पर्दा) नहीं धारण किया जाता था, प्रत्युत वे सबके सामने निरावगुण्ठन आती थी। पर्दा प्रथा का उल्लेख सबसे पहलेे महाकाव्यों में हुआ है पर उस समय यह केवल कुछ राजपरिवारों तक ही सीमित था। (धर्मशास्त्र का इतिहास पृ.336)

अब मूल सवाल यह है की ये पर्दा प्रथा जैसी कुप्रथा हमारे भारतीय समाज में कैसे दाखिल हुई ? इसका जवाब हमें हुतात्मा पंडित लेखराम कृत “महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन चरित्र” नामक पुस्तक में बेहद तर्कपूर्ण आधार पर मिलता है, जहाँ महर्षि ने एक शंकालु की शंका समाधान करते हुए कहा :

“स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार में डालना है। जब उनको विद्या होगी वह स्वयं अपनी विद्या के द्वारा बुद्धिमती होकर प्रत्येक प्रकार के दोषो से रहित और पवित्र रह सकती हैं। परदे में रहने से सतीत्व रक्षा नहीं कर सकती और बिना विद्या प्राप्ति के बुद्धिमती नहीं हो सकती हैं और परदे में रखने की प्रथा इस प्रकार प्रचलित हुई की जब इस देश के शासक मुस्लमान हुए तो उन्होंने शासन की शक्ति से जिस किसी की बहु बेटी को अच्छी रूपवती देखा उसको अपने शासनाधिकार से बलात छीन लिया और दासी बना लिया। उस समय हिन्दू विवश थे, इस कारण उनमे सामना करने की सामर्थ्य न थी। इसलिए अपने सम्मान की रक्षा के लिए उन्होंने अपनी स्त्रियों और बहु बेटियो को घर से बाहर जाने का निषेध कर दिया। सो मूर्खो ने उसको पूर्वजो का आचार समझ लिया। देखो, मेमो अर्थात अंग्रेज की स्त्रियों को, वे भारत की स्त्रियों की अपेक्षा कितनी साहसी, विद्यावती और सदाचारिणी होती हैं।”

ऋषि ने जो समझाया उसे न समझकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हो आक्षेपकर्ता ने कुछ और ही समझा, स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार है, क्योंकि ये महिला की इच्छा विरुद्ध है, अनेको मुस्लिम महिलाये ही बुरखा का विरोध करती हैं, यहाँ तक की अनेको मुस्लिम महिलाओ ने तो नग्न तक होकर विरोध किया है, ऐसी अनेको खबरों से फ्रांस, ब्रिटेन आदि देशो के समाचार पत्र भरे पड़े हैं। हम नग्न्ता का समर्थन तो बिलकुल नहीं करते, विरोध सदैव ही शालीन और मर्यादित होना चाहिए, लेकिन शायद उन मुस्लिम महिलाओ को नग्न्ता की राह दिखाने वाला भी बुरखा ही था जिसमे उन्हें घुटन महसूस हो रही थी। खैर हम ऋषि की दूसरी बात समझते हैं, उन्होंने कहा महिला कभी भी परदे से अपनी सतीत्व रक्षा नहीं कर सकती, ये कटु सत्य है, क्योंकि भारत में ही अनेको मुस्लिम परिवारो में मुस्लिम बहु की इज्जत को तार तार करने में उसके ही अपने मुस्लिम ससुर का योगदान था। मुजफ्फरनगर उ० प्र० में इमराना का केस मात्र एक उदहारण है, मुस्लिम पति नूर इलाही की जो पत्नी इमराना थी, उसके ससुर अली मोहम्मद ने बलात्कार किया था, तब इस्लामी कानून अनुसार दारुल उलूम देवबंद ने एक फतवा निकाला जो दुनिया से मानवता शर्मसार करने वाला था, इस कानून में पीड़ित महिला जो ससुर की हैवानियत का शिकार हुई थी, उसे उस हैवान की पत्नी बना दिया गया, और जो उसका पति था, जिससे उस महिला को पांच बच्चे थे, उसे बेटा बना दिया, अंततः पीड़ित ने भारतीय संविधान का दरवाजा खटखटाया और पीड़िता को इंसाफ मिला। अब सवाल ये है, क्या बुरखा यहाँ स्त्री की सतीत्व रक्षा कर पाया ? क्या ये जरुरी नहीं था, की पुरुष अपनी इन्द्रियों को वश में करना सीखे। महिलाओ को शिक्षित करने से ही महिलाओ का शोषण रुकेगा, क्योंकि महिलाओ को जो अधिकार प्राप्त हैं, वो शरिया कानून नहीं देता, क्योंकि इस्लाम में महिलाओ का पढ़ना लिखना हराम है, महिलाओ का नौकरी करना हराम है, महिलाओ का पर पुरुषो (ऑफिस सहकर्मी) के साथ बैठना, काम करना, सब हराम है। खैर इस विषय पर हम अगले लेख में विचार करेंगे। आप अभी केवल ये सोचिये की यदि महिला शिक्षित होकर नौकरी करना चाहे तो क्या वो ऑफिस में बुरखा पहने हुए, बैठ सकती है ? क्या ये एक प्रकार का मानसिक अत्याचार नहीं है ? क्या पुरुष को भी बुरखे में रहने की आज्ञा है ? यदि नहीं, तो क्यों एक नारी पर अत्याचार किया जाता है, वो भी मजहब के नाम पर ? फिर भी कहते हैं की महिला और पुरुष को इस्लाम में समान अधिकार प्राप्त हैं ? क्या ये एक प्रकार का बेहूदा मजाक नहीं ?

यही बात यहाँ महर्षि ने बताई, की महिला को शिक्षित होना चाहिए, ताकि वो अपने अधिकार प्राप्त कर सके, मगर खेद की इस्लाम में महिलाओ का पढ़ना लिखना, उनको अधिकार देना इस्लामी शरिया में हराम है, पाकिस्तान की मलाला युसूफ ज़ई से ज्यादा इस बात को कोई नहीं समझ सकता।

उपरोक्त तथ्यों से सिद्ध है की भारतीय सभ्यता में तो पर्दा का कोई रोल नहीं, ये कुप्रथा विशुद्ध रूप से मुस्लिम शासको के कारण ही भारतीय परिवेश में दाखिल हुई। ऋषि ने जो तर्क दिया था, उसका ही समर्थन करते हुए “भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे” ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री आफ धर्मशास्त्र (धर्मशास्त्र का इतिहास) में पृष्ठ ३३७ में लिखते हैं :

“उत्तरी भारत एवं पूर्वी भारत में पर्दा की प्रथा जो सर्वसाधारण में पाई जाती है, उसका आरंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ।

इसके तीन कारण थे-

हिन्दू स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से।

विजेता शासकों की शैली का चाहे-अनचाहे तरीके से अनुसरण।

विपरीत परिस्थितियों के कारण स्त्रियों में बढ़ती अशिक्षा और मुस्लिम शासकों के राज में गिरता स्तर।

इतिहास को आप छुपा नहीं सकते, इस विषय पर अनेको लेखको ने स्वतंत्रता से लिखते हुए अपनी सहमति दी है, क्योंकि मुस्लिम शासक और आक्रांता, इस देश में आक्रमण करते और पुरुषो को मारकर, उनकी स्त्रियों को उठा ले जाते तथा अरब आदि देशो में गुलाम दासी के तौर पर दो दो दिनार में बेच देते थे, ये तो इतिहास था, मगर इतिहास फिर दुहरा गया, सीरिया में इस्लामी आतंकी संगठन ने यजीदी महिलाओ को निर्वस्त्र करके गली मोहल्ले में बोली लगाकर १०० डॉलर में बेचा, ये तो अभी हाल की ही खबर है, बिलकुल यही परिस्थिति मुग़ल काल में भी थी राजपुताना में मौजूद अनेको जौहर स्थल इसके साक्षात प्रमाण हैं। इतिहास साक्षी है, की मुस्लिमो की बादशाहत दौरान हिन्दू महिलाओ को अगवा कर बलात्कार किया जाता था, डॉ श्रीवास्तव अपनी पुस्तक अकबर द मुग़ल पृष्ठ ६३ में लिखते हैं “when people Deosa and other places on Akbar’s route fled away on his approach” अब यहाँ शंका ये है यदि राजा भारमल की पुत्री जोधा का विवाह वधु पक्ष की मर्जी से हुआ था तो अकबर के आने पर जनता भाग क्यों गयी ? जाहिर है, वो विवाह था ही नहीं, ये स्पष्ट है की अकबर ने राजा भारमल की पुत्री की सुंदरता के प्रसिद्द किस्से सुने थे, इसीलिए उसे पाने को राजा भारमल पर आक्रमण किया, यही हाल सती रानी दुर्गावती की कहानी का भी है, हालांकि जौहर करने से दो महिलाये बच गयी थी एक दुर्गावती की बहन कमलावती और दूसरी राजा पुरंगद की बेटी थी जिन्हे अकबर के हरम में पंहुचा दिया गया था (जे एम शेलत, अकबर 1964)

अनेको इतिहासिक दस्तावेजो से ये सिद्ध है की उत्तर भारतीय हिन्दू परिवारो में पर्दा प्रथा मौजूद नहीं थी, ये कुप्रथा हिन्दू समाज में मुस्लिम आक्रंताओ से हिन्दू महिलाओ को बचाने के लिए अपनाया गया, नवाब वज़ीर लखनऊ का तत्कालीन नवाब सुन्दर हिन्दू महिलाओ को अगवा कर उनको प्रताड़ित किया करता था, और जबरन मुसलमान बनवाता था (इट इज कॉन्टिनुएड, अशोक पंत, पृष्ठ १३०)

औरंगजेब के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री का नवासा मिर्ज़ा तवाख्खुर ने हिन्दुओ की दुकानो को नष्ट किया और हिन्दू महिलाओ को अगवा कर बलात्कार किया (India & South East Asia to 1800 सांडर्सन बेक)

औरंगजेब के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री का नवासा मिर्ज़ा तवाख्खुर ने घनश्याम जो नवविाहित वधु को डोली में बैठा कर घर ला रहा था, उसे अपने घर के गेट के सामने ही लूट लिया, २ हिन्दू मार दिए गए और घनश्याम की पत्नी को मिर्ज़ा तवाख्खुर अपने घर ले गया (Ahkam-i-Alamgiri)

The Afghan ruler Ahmad Shah Abdali attacked India in 1757 AD and made his way to the holy Hindu city of Mathura, the Bethlehem of the Hindus and birthplace ofKrishna.

The atrocities that followed are recorded in the contemporary chronicle called : ‘Tarikh-I-Alamgiri’ :

“Abdali’s soldiers would be paid 5 Rupees (a sizeable amount at the time) for every enemy head brought in. Every horseman had loaded up all his horses with the plundered property, and atop of it rode the girl-captives and the slaves. The severed heads were tied up in rugs like bundles of grain and placed on the heads of the captives…Then the heads were stuck upon lances and taken to the gate of the chief minister for payment.

“It was an extraordinary display! Daily did this manner of slaughter and plundering proceed. And at night the shrieks of the women captives who were being raped, deafened the ears of the people…All those heads that had been cut off were built into pillars, and the captive men upon whose heads those bloody bundles had been brought in, were made to grind corn, and then their heads too were cut off. These things went on all the way to the city of Agra, nor was any part of the country spared.”

कितने ही प्रमाण दिए जा सकते हैं, जो सिद्ध करते हैं, की हिन्दू महिलाओ पर मुस्लिम आक्रंताओ द्वारा कितना अत्याचार किया गया, की इससे हमारी सभ्यता और संस्कृति में अनेको परिवर्तन आ गए। जिनमे मुख्य रूप से :

पर्दा कुप्रथा का भारतीय महिलाओ द्वारा अपनाना मुख्य है।
बाल विवाह, ताकि हिन्दू महिलाओ को शोषण से बचा सके।
सती प्रथा, ये जौहर का परिणाम था जिसे स्वेच्छा से अपनाया जाने लगा ताकि मृत हिन्दू पति के बाद हिन्दू महिला की आबरू बच सके।

इसके अतरिक्त सतीशचंद गुप्ता से पूछना चाहेंगे की, जो पर्दा प्रथा हालिया हिन्दू समाज में पायी जाती है, वह केवल घूंघट या सर पर पल्लू रख कर देखि जाती है, लेकिन जो पर्दा प्रथा का समर्थन आक्षेपकर्ता ने किया वो बुरखा है, वो किसी भी लिहाज से घूँघट का कार्य तो करता नहीं, फिर बुरखा की बराबरी घूँघट से करना मानसिक दिवालियापन ही है। क्योंकि हालिया समय में हिन्दू समाज में घूँघट या सर पर पल्लू रखना एक नजरिये से देखे तो आदर सूचक ही लगता है जो बड़े बुजुर्गो के सम्मान हेतु रखते हैं, लेकिन बुरखा घूँघट या पर्दा की बराबरी नहीं कर सकता, फिर क्यों बराबर जोड़ा गया ?

अब हम इस लेख में ज्यादा तो अब नहीं लिख सकते, क्योंकि बड़ा हो जाएगा, अतः अब हम अगले लेख में देखेंगे, कि :

बुरका प्रथा मुस्लिम समाज में कैसे आया ?

बुरखे की हानिया और आज का आतंकवाद

बुरखे से महिलाओ को होने वाली बीमारियां तथा बुरखे पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण

बुरखे के कारण मुस्लिम महिलाओ की स्थति

महिला विकास में अवरोधक बुरखा

और क्या बुरखा महिलाओ के प्रति छेड़ छाड़ और बलात्कार रोक पाता है ?

अगले लेख में।

आओ लौट चले वेदो की और।

नमस्ते

योगेश्वर श्री कृष्ण और १६ कलाएं तथा जन्माष्टमी

नमस्ते मित्रो,

५००० वर्ष और उससे भी पूर्व अनेको मनुष्य उत्पन्न हुए मगर इतिहास में याद केवल कुछ ही लोगो को किया जाता है, इतिहास में केवल उनके लिए जगह होती है जो कुछ अनूठा करते हैं, कुछ लोग अपने द्वारा की गयी बुराई से अपना नाम इतिहास में दर्ज करवाते हैं, और कुछ अपने सदगुणो, सुलक्षणों और महान कर्तव्यों से अपना नाम अमर कर जाते हैं, क्योंकि आज कृष्ण जैसा सुलक्षण नाम अपने पुत्र का तो कोई भी रखना चाहेगा, मगर रावण, कंस आदि दुर्गुणियो के नाम कोई भी अपने पुत्र का न रखना चाहेगा, इसी कारण कृष्ण अमर हैं, राम अमर हैं, हनुमान अमर हैं, मगर रावण, कंस आदि मृत हैं।

आर्यावर्त में उत्पन्न हुए अनेको ऐतिहासिक महापुरषो में से एक महापुरुष, ज्ञानी, वेदवेत्ता योगेश्वर श्री कृष्ण का आज ही के दिन जन्म हुआ था, इस दिन को आज जन्माष्टमी कहते हैं, क्योंकि आज भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि है, इसी दिन कृष्ण महाराज का जन्म हुआ था। इसलिए इस दिन को जन्माष्टमी के नाम से जाना जाता है।

हमारे बहुत से बंधू कृष्ण महाराज को पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं। यहाँ हम अवतार का अर्थ संक्षेप में बताना चाहेंगे, “अवतार का शाब्दिक अर्थ “जो ऊपर से नीचे आया” और “पूर्ण” “पुरुष” इस हेतु कहते हैं पूर्ण कहते हैं जो अधूरा न रहा, और पुरुष शब्द के दो अर्थ हैं :

1. पुरुष शब्द का अर्थ सामान्य जीव को कहते हैं जिसे आत्मा से सम्बोधन करते हैं।

2. पुरुष शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए भी किया जाता है जिसने इस सम्पूर्ण ब्राह्मण की रचना, धारण और प्रलय आदि का पुरषार्थ किया और करता है।

हम सभी जीव जो इस धरती पर व अन्य लोको पर विचरण कर रहे वो सभी अवतारी हैं क्योंकि हम सब ऊपर से ही नीचे आये क्योंकि मरने के बाद हमारी आत्मा यमलोक (यम वायु का नाम है अतः वायुलोक यानी अंतरिक्ष में जाती है) तब नीचे आती है। और हम सभी अपनी आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर पाते अर्थात मोक्ष को ग्रहण करने योग्य गुणों को धारण नहीं कर पाते और कुछ ही गुणों को आत्मसात कर पाते हैं। इसलिए हम आवागमन के चक्र में फंसे रह जाते हैं। अतः इसी कारण हम अवतार होते हुए भी मृतप्राय रह जाते हैं अमर नहीं हो पाते।

अब हम आते हैं कृष्ण को १६ कलाओ से युक्त पूर्ण अवतारी क्यों कहते हैं यहाँ हमारे कुछ पौराणिक बंधू पहले इस तथ्य को भली भांति समझ लेवे की परमात्मा जो पुरुष है वह अनेको कलाओ और विद्याओ से पूर्ण है, जबकि जीव पुरुष अल्पज्ञ होने से कुछ कलाओ में निपुण हो पाता है, यही एक बड़ा कारण है की जीव ईश्वर नहीं हो सकता। क्योंकि जीव का दायित्व है की ईश्वर के गुणों को आत्मसात करे इसीलिए कृष्ण महाराज ने योग और ध्यान माध्यम से ईश्वर के इन्ही १६ गुणों (कलाओ) को प्राप्त किया था इस कारण उन्हें १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं।

अब आप सोचेंगे ये १६ कलाएं कौन सी हैं, तो आपको बताते हैं, देखिये :

इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, आकाश, दशो इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह के स्वामी को प्रजापति कहते हैं।

ये प्रश्नोपनिषद में प्रतिपादित है।

(शत० 4.4.5.6)

योगेश्वर कृष्ण ने योग और विद्या के माध्यम से इन १६ कलाओ को आत्मसात कर धर्म और देश की रक्षा की, आर्यवर्त के निवासियों के लिए वे महापुरष बन गए। ठीक वैसे ही जैसे उनसे पहले के अनेको महापुरषो ने देश धर्म और मनुष्य जाति की रक्षा की थी। क्योंकि कृष्ण महाराज ने अपने उत्तम कर्मो और योग माध्यम से इन सभी १६ गुणों को आत्मसात कर आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण किया इसलिलिये उन्हें पूर्ण अवतारी पुरुष की संज्ञा अनेको विद्वानो ने दी, लेकिन कालांतर में पौरणिको ने इन्हे ईश्वर की ही संज्ञा दे दी जो बहुत ही

अब यहाँ हम सिद्ध करते हैं की ईश्वर और जीव अलग अलग हैं देखिये :

यस्मान्न जातः परोअन्योास्ति याविवेश भुवनानि विश्वा।
प्रजापति प्रजया संरराणस्त्रिणी ज्योतींषि सचते स षोडशी।

(यजुर्वेद अध्याय ८ मन्त्र ३६)

अर्थ : गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषो को चाहिए की जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोको का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात सदा ऐसा ही बना रहता है, सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम व जिसके सामान नहीं है, उसकी उपासना करे।

यहाँ मन्त्र में “सचते स षोडशी” पुरुष के लिए आया है, पुरुष जीव और परमात्मा दोनों को ही सम्बोधन है और दोनों में ही १६ गुणों को धारण करने की शक्ति है, मगर ईश्वर में ये १६ गुण के साथ अनेको विद्याए यथा (त्रीणि) तीन (ज्योतिषी) ज्योति अर्थात सूर्य, बिजली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थो में स्थापित करता है। ये जीव पुरुष का कार्य कभी नहीं हो सकता न ही कभी जीव पुरुष कर सकता क्योंकि जीव अल्पज्ञ और एकदेशी है जबकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है, इसी हेतु से जीव पुरुष को जो गृहाश्रम की इच्छा करने वाला हो, ईश्वर ने १६ कलाओ को आत्मसात कर मोक्ष प्राप्ति के लिए वेद ज्ञान से प्रेरणा दी है, ताकि वो जीव पुरुष उस परम पुरुष की उपासना करता रहे।

ठीक वैसे ही जैसे १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष योगेश्वर कृष्ण उस सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान, परम पुरुष परमात्मा की उपासना करते रहे।

आइये हम भी इन गुणों को अपना कर कृष्ण के सामान अपने को अमर कर जाए। हम १६ कला न भी अपना पाये तो भी वेद पाठी होकर कुछ उन्नति कर पाये।

आइये सत्य को अपनाये और असत्य त्याग कर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी का त्यौहार मनाये। आप सभी मित्रो, बंधुओ को योगेश्वर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये।

लौटिए वेदो की और।

नमस्ते।

नोट : अब स्वयं सोचिये जो पुरुष (जीव) इन १६ कलाओ (गुणों) को योग माध्यम से प्राप्त किया क्या वो :

कभी रास रचा सकता है ?

क्या कभी गोपिकाओं के साथ अश्लील कार्य कर सकता है ?

क्या कभी कुब्जा के साथ समागम कर सकता है ?

क्या अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य महिला से सम्बन्ध बना सकता है ?

क्या कभी अश्लीलता पूर्ण कार्य कर सकता है ?

नहीं, कभी नहीं, क्योंकि जो इन कलाओ (गुणों) को आत्मसात कर ले तभी वो पूर्ण कहलायेगा और जो इन सोलह कलाओ को अपनाने के बाद भी ऐसे कार्य करे तो उसे निर्लज्ज पुरुष कहते हैं, पूर्ण अवतारी पुरुष नहीं।

इसलिए कृष्ण का सच्चा स्वरुप देखे और अपने बच्चो को कृष्ण के जैसा वैदिक धर्मी बनाये।

योगेश्वर महाराज कृष्ण की जय।

धन्यवाद