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“द्रौपदी का चीरहरण” – भारतीय संस्कृति को बदनाम करने का षड्यंत्र – पार्ट 2

जैसे की पिछली पोस्ट से स्पष्ट हुआ की “द्रौपदी का चीरहरण” मात्र कुछ धूर्तो की मिलावट का परिणाम है – क्योंकि महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण जैसी कुत्सित घटना का होना एक असंभव कृत्य था – भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आदि गुरुओ और विदुर जैसे महानितिनिपुण के होते – ये कार्य हो ही नहीं सकता था –
फिर भी यदि कुछ हिन्दू भाई इस पक्ष में नहीं हैं – यदि वो अभी भी कहते हैं की द्रौपदी का चीरहरण हुआ था – तो इस पोस्ट को भी ध्यानपूर्वक पढ़ – सत्य से अवगत होकर अपने दुराग्रह और पूर्वाग्रह को छोड़ – संस्कृति और सभ्यता को बदनाम करना छोड़ देवे –

आइये गतलेख से आगे थोड़ा और विस्तार से समझते हैं –

जब पांडव जुए में राज्य के साथ साथ अपने आप को और द्रोपदी को हार गए तब पांड्वो की स्थिति दासों की तरह और द्रोपदी की स्थिति दासी की तरह रह गयी थी , अतः अब उन्हें राजाओ अथवा राजकुमारों जैसे वस्त्र धारण करने का कोई अधिकार नहीं रह गया था । यही दशा द्रोपदी की भी थी , पर जब द्रोपदी सभा में लाई गयी , उस समय केवल पांडव उच्च कोटि और सज्जित वस्त्र धारण किये थे , और द्रौपदी ने केवल एक वस्त्र धारण किया हुआ था क्योंकि द्रौपदी उस समय रजस्वला थी। अतः उनसे उनके वस्त्र उतर के दासो और दासी के परिधान पहन लेने के लिए कहा गया।

द्रौपदी ने विरोध किया – क्यों की वो अपने आप को हारी हुयी नहीं मानती थी – द्रौपदी ने कहा – जब युधिष्ठर स्वयं अपने को हार गए तब किस प्रकार वे मुझे दांव पर लगाने का अधिकार रखते थे ?

द्रौपदी के प्रश्नो के उत्तर हेतु – विदुर ने सभासदो से पूछा – साथ में – धृतराष्ट्र का एक पुत्र “विकर्ण” स्वयं द्रौपदी के समर्थन में उत्तर आया – उसने भी यही कहा – जब युधिष्ठर स्वयं अपने को दांव पर लगा हार गए – तब किस प्रकार द्रौपदी को दांव लगाने का अधिकार युधिष्ठर के पास रहा ?

तब कोई जवाब ना पाकर – द्रौपदी हताश और निराश हो गयी – दुःशासन द्रौपदी को “दासी” कहकर सम्बोधित करने लगा – इतने में कर्ण ने अपने अनुचित वचनो से द्रौपदी को अनेक बुरे वचन कहकर दुःशासन को द्रौपदी और पांडवो के वस्त्र उतार लेने को कहा।

दु:शाशन ! यह विकर्ण अत्यंत मूढ़ है तथापि विद्वानों सी बाते बनाता है , तुम पांड्वो और द्रोपदी के भी वस्त्र उतर लो ”
द्यूतपर्व अध्याय ६८ श्लोक ३८

ध्यान देने की बात है की कर्ण केवल द्रोपदी के ही वस्त्र उतरने के लिए नहीं कहता वरन पांड्वो के भी वस्त्र उतरने के लिए कहता है । इस बात से स्पष्ट है की “द्रौपदी का चीरहरण” मात्र कुछ लोगो की “धूर्त मानसिकता” का परिणाम है।

असल में हुआ ये था की – पांडवो ने अपने वस्त्र उतार कर रख दिए और दासो के वस्त्र धारण किये होंगे –

वैशम्पायन जी कहते हैं – “जनमेजय ! कर्ण की बात सुन के समस्त पांड्वो ने अपने अपने राजकीय वस्त्र उतार कर सभा में बैठ गए ( सभा पर्व अध्याय 68, श्लोक 39)

क्योंकि द्रौपदी अपने को हारी नहीं मानती थी – इसलिए दुःशासन को जबरदस्ती द्रौपदी के कपडे बदलवाने हेतु विवश किया गया था – जिसे “धूर्तमंडली” व्याख्याकारों ने – चीरहरण का नाम दिया।

यदि एक बार ऐसा भी मान ले – की दुःशासन ने चीरहरण करने को द्रौपदी की साडी खींची और कृष्ण ने साडी को बढ़ा दिया – तो भाई जरा इस श्लोक पर भी एक सरसरी नजर डाल लेवे –

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! उस समय द्रौपदी के केश बिखर गए थे। दुःशासन के झकझोरने से उसका आधा वस्त्र भी खिसककर गिर गया था। वह लाज से गाड़ी जाती थी और भीतर ही भीतर दग्ध हो रही थी। उसी दशा में वह धीरे से इस प्रकार बोली

द्रौपदी ने कहा – अरे दुष्ट ! ये सभा में शास्त्रो के विद्वान, कर्मठ और इंद्र के सामान तेजस्वी मेरे पिता के सामान सभी गुरुजन बैठे हुए हैं। मैं उनके सामने इस रूप में कड़ी होना नहीं चाहती।

क्रूरकर्मा दुराचारी दुःशासन ! तू इस प्रकार मुझे ना खींच, ना खींच, मुझे वस्त्रहीन मत कर। इंद्र आदि देवता भी तेरी सहायता के लिए आ जाएँ, तो भी मेरे पति राजकुमार पांडव तेरे इस अत्याचार को सहन नहीं कर सकेंगे।
द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३५-३७

यदि कृष्ण ने साडी देकर नग्न होने से बचाया – तो भाई – इन श्लोक के अनुसार तो द्रौपदी अर्धनग्न हो चुकी थी – तभी क्यों नहीं बचा लिया ? या फिर जब दुःशासन बाल पकड़कर जबरदस्ती द्रौपदी को खींच रहा था – और द्रौपदी कृष्ण को आवाज़ लगा बुला रही थी – तब ही क्यों नहीं कृष्ण ने बचा लिया ?

क्या कृष्ण जी इस बात का इन्तेजार कर रहे थे की – कब दुःशासन साडी खींचे और मैं चमत्कार दिखाऊ ?

क्या कृष्ण द्रौपदी की पहली आवाज़ सुनकर ही नहीं बचा सकते थे ? यदि पहली आवाज़ पर ही बचा लिया होता – तो ये धूर्तो ने जो मिलावट करने की कोशिश की – वो होती ही नहीं –

आगे देखिये –

वनपर्व मेँ जब श्रीकृष्ण जंगल मेँ पांडवोँ से मिलने गए थे। वहाँ श्रीकृष्ण ने बताया की वेँ द्युतसभा मेँ जो कुछ भी हुआ था उससे अनभिज्ञ है। उन्होने ये भी कहा की अगर वेँ वहाँ मौजुद होते तो युधिष्ठिर को ऐसा कभी नही करने देतेँ। युधिष्ठिर ने पुछा की उस वक्त वेँ कहाँ थे तब श्रीकृष्ण ने बताया की उस वक्त शाल्व ने अपने प्रचंड ‘सौभ’ विमान से द्वारका पर उपर से बमबारी शुरु कर द्वारका जला रहा था, इसलिए श्रीकृष्ण उसे मारने के लिए गए थे, जब वो विमान का संहार करके वापिस आए तब उन्हे सात्यकी से खबर मिली की द्युतसभा मेँ युधिष्ठिर जुए मेँ सारा राज्य हार गया और इसलिए वेँ दौडते पांडवोँ से मिलने जंगल मेँ आए।

आगे किसी जगह दु:खी द्रौपदी भी युधिष्ठिर, अर्जुन और अपने भाई को कोसते हुए कहती है की उनमेँ से कोई भी उसकी विटंबना रोकने नहीँ आया इसलिए उनमेँ से कोई भी उसका अपना नहीँ है। वो उधर खडे श्रीकृष्ण को भी कहती है की तुम भी मेरी मदद के लिए नहीँ आए इसलिए कृष्ण तुम भी मेरेँ नहीँ। अगर कृष्णने सचमेँ वस्त्रावतार लिया था तब द्रौपदी क्या उन्हे ऐसे शब्द कहती?

ये सारी घटनाओ से ज्ञात होता है की द्रौपदी का चीरहरण हुआ नहीं था – मात्र कुछ धूर्तो ने कृष्ण के चमत्कार को दर्शाने के लिए ये सब मनगढ़ंत बात गढ़ी है –

एक आखरी पोस्ट और आएगी – जिसमे इस द्यूतपर्व में मिलावट की पूरी स्थति आपके सामने आ जाएगी

अपनी सभ्यता और संस्कृति पर स्वयं ही मिथ्या दोष न गढ़े।

कृपया सत्य को जानिये –

 

वेदो की और लौटिए

ईश्वर का वैदिक स्वरुप – ईश्वर, जीव और प्रकृति – तीनो कारण स्वयं सिद्ध और अनादि हैं

संस्कृत भाषा में परमात्मा = परम + आत्मा तथा जीवात्मा = जीव + आत्मा दो शब्द हैं।

परमात्मा शब्द का अर्थ है – सर्वश्रेष्ठ आत्मा

और जीवात्मा का अर्थ है प्राणधारी आत्मा

आत्मा शब्द दोनों के लिए आता है और बहुधा परम-आत्मा तथा जीव-आत्माओ का भेदभाव किये बिना समस्त जीवनतत्वो के लिए व्यवहृत किया जाता है।

परमात्मा और जीवात्माओं के कार्यो में इतनी समानता है [मगर दोनों के कार्य क्षेत्र निसंदेह अत्यंत विभिन्न हैं] की प्रायः इनके सम्बन्ध के विषय में भ्रम हो जाता है और इस भ्रम के कारन दर्शनशास्त्र तथा धर्म दोनों क्षेत्रो में बाल की खाल निकाली जाती है।

खासतौर पर ईश्वर को ना मानने वाले लोग मनुष्य को ही “सिद्ध” व “ईश्वर” का दर्ज देकर अपनी अल्पज्ञता के कारण ऐसा विचार लाते हैं –

वैदिक ईश्वर का स्वरुप कैसा है और जीव का स्वरुप कैसा है – जब इस प्रकार की चर्चा की जाती है तब आवश्यक हो जाता है इस प्रकृति के बारे में भी कुछ जाना जाए – तो आइये – इस विषय पर कुछ विचार करे –

इस कार्यरूप सृष्टि में तीन नियम बहुत ही स्पष्ट रूप से दीखते हैं :

पहिला – इस सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ नियमपूर्वक, परिवर्तनशील है।

दूसरा – प्रत्येक जाती के प्राणी अपनी जाती के ही अंदर उत्तम, माध्यम और निकृष्ट स्वाभाव से पैदा होते हैं।

तीसरा – इस विशाल सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है वह सब नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है।

पहिला नियम : सृष्टि नियमपूर्वक परिवर्तनशील है इसका अर्थ जो लोग सृष्टि को स्वाभाविक गुण से परिवर्तनशील मानते हैं वे गलती पर हैं क्योंकि स्वाभाव में परिवर्तन नहीं होता ऐसे लोग भूल जाते हैं की परिवर्तन नाम है अस्थिरता का और स्वाभाव में अस्थिरता नहीं होती क्योंकि उलटपलट, अस्थिर ये नैमित्तिक गुण हैं स्वाभाविक नहीं। इसलिए सृष्टि में परिवर्तन स्वाभाविक नहीं। इसकी एक बड़ी वजह ये भी है की यदि प्रकृति में परिवर्तन स्वाभाविक माने तो ये अनंत परिवर्तन यानी अनंत गति माननी पड़ेगी और फिर एकसमान अनंत गति मानने से संसार में किसी भी प्रकार से ह्रासविकास संभव नहीं रहेगा किन्तु सृष्टि में बनने और बिगड़ने की निरंतर प्रक्रिया से सिद्ध होता है की सृष्टि का परिवर्तन नैमित्तिक है सवभविक नहीं, इसीलिएि इस परिवर्तनरुपी प्रधान नियम के द्वारा यह सिद्ध होता है की सृष्टि के मूल कारणों में से यह एक प्रधान कारण है जो खंड खंड, परिवर्तन शील और परमाणुरूप से विद्यमान है। परन्तु यह परमाणु चेतन और ज्ञानवान नहीं हैं इसकी बड़ी वजह है की जो भी चेतन और ज्ञानवान सत्ता होगी वो कभी दूसरे के बनाये नियमो में बंध नहीं सकती बल्कि ऐसी सत्ता अपनी ज्ञानस्वतंत्रता से निर्धारित नियमो में बाधा पहुचाती है – जहाँ तक हम देखते हैं परमाणु बड़ी ही सच्चाई से अपना काम कर रहे हैं – जिस भी जगह उनको दूसरे जड़ पदार्धो में जोड़ा गया – वहां आँख बंद करके भी कार्य कर रहे हैं जरा भी इधर उधर नहीं होते इससे ज्ञात होता है की इस सृष्टि का परिवर्तनशील कारण जो परमाणु रूप में विद्यमान है ज्ञानवान नहीं बल्कि जड़ है – इसी जड़, परिवर्तनशील और परमाणु रूप उपादान कारण को माया, प्रकृति, परमाणु मेटर आदि नामो से कहा जाता है और संसार के कारणों में से एक समझा जाता है

दूसरा नियम : सभी प्राणियों के उत्तम और निकृष्ट स्वाभाव हैं। अनेक मनुष्य प्रतिभावान, सौम्य और दयावान होते हैं, अनेक मुर्ख उद्दंड और निर्दय होते हैं। इसी प्रकार अनेक गौ, घोडा आदि पशु स्वाभाव से ही सीधे होते हैं और अनेक शेर, आदि क्रोधी और दौड़दौड़कर मारने वाले होते हैं यहाँ देखने वाली बात है की ये स्वभावविरोध शारीरिक यानी भौतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक है, जो चैतन्य बुद्धि और ज्ञान से सम्बन्ध रखता है। लेकिन ध्यान देने वाली है ये ज्ञान प्राणियों के सारे शरीर में व्याप्त नहीं है, क्योंकि यदि सारे शरीर में ये ज्ञान व्याप्त होता तो किसी का कोई अंग भंग यथा अंगुली, हाथ, पैर आदि कट जाने पर उसका ज्ञानंश कम हो जाना चाहिए लेकिन वस्तुतः ऐसा होता नहीं इसलिए यह निश्चित और निर्विवाद है की ज्ञानवाली शक्ति जो प्राणियों में वास करती है वो पुरे शरीर में व्याप्त नहीं है प्रत्युत वह एकदेशी, परिच्छिन्न और अनुरूप ही है क्योंकि सुक्षतिसूक्ष्म कृमियों में भी मौजूद है दूसरा तथ्य ये भी है की यदि पुरे शरीर में ज्ञानशक्ति मौजूद होती तो जैसे शरीर का आकर बढ़ता है वैसे उस शक्ति को भी बढ़ना पड़ता जबकि ऐसा होता नहीं और ये शक्ति परमाणुओ के संयोग से भी नहीं बनी क्योंकि ऊपर सिद्ध किया गया की ज्ञानवान तत्व, परमाणु संयुक्त होकर नहीं बन सकता और न ही ये हो सकता है की अनेक जड़ और अज्ञानी परमाणु एकत्रित होकर परस्पर संवाद ही जारी रख सकते हो। यदि कोई मनुष्य ब्रिटेन में जिस समय पर गाडी दौड़ा रहा है – तो उसी समय पूरी दुनिया में मौजूद इंसान उस गाडी और मनुष्य को नहीं देख पा रहे इसलिए प्राणियों में मौजूद ज्ञानवान शक्ति, अल्पज्ञ है, एकदेशी है, परिच्छिन्न है। इसलिए इस शक्ति को जीव, रूह और सोल के नाम से जानते हैं।

इस विस्तृत सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है, वह नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है। सूर्य चन्द्र और समस्त ग्रह उपग्रह अपनी अपनी नियत धुरी पर नियमित रूप से भ्रमण कर रहे हैं। पृथ्वी अपनी दैनिक और वार्षिक गति के साथ अपनी नियत सीमा में घूम रही है। वर्षा, सर्दी और गर्मी नियत समय में होती है। मनुष्य और पशुपक्ष्यादि के शरीरो की बनावट वृक्षों में फूलो और फलो की उत्पत्ति, बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज का नियम और प्रत्येक जाती की आयु और भोगो की व्यवस्था आदि जितने इस सृष्टि के स्थूल सूक्ष्म व्यवहार हैं, सबमे व्यवस्था, प्रबंध और नियम पाया जाता है। नियामक के नियम का सब बड़ा चमकार तो प्रत्येक प्राणी के शरीर की वृद्धि और ह्रास में दिखलाई देता है। क्यों एक बालक नियत समय तक बढ़ता और क्यों एक जवान धीरे धीरे ह्रास की और – वृद्धावस्था की और बढ़ता जाता है इस बात का जवाब कोई नहीं दे सकता यदि कोई कहे की वृद्धि और ह्रास का कारण आहार आदि पोषक पदार्थ हैं, तो ये युक्तियुक्त और प्रामाणिक नहीं होगा क्योंकि हम रोज देखते हैं एक ही घर में एक ही परिस्थिति में और एक ही आहार व्यवहार के साथ रहते हुए भी छोटे छोटे बच्चे बढ़ते जाते हैं और जवान वृद्ध होते जाते हैं तथा वृद्ध अधिक जर्जरित होते जाते हैं। इन प्रबल और चमत्कारिक नियमो से सूचित होता है की इस सृष्टि के अंदर एक अत्यंत सूक्ष्म, सर्वव्यापक, परिपूर्ण और ज्ञानरूपा चेतनशक्ति विद्यमान है जो अनंत आकाश में फ़ैल हुए असंख्य लोकलोकान्तरो का भीतरी और बाहरी प्रबंध किये हुए हैं। ऐसा इसलिए तार्किक और प्रामाणिक है क्योंकि नियम बिना नियामक के, नियामक बिना ज्ञान के और ज्ञान बिना ज्ञानी के ठहर नहीं सकता। हम सम्पूर्ण सृष्टि में नियमपूर्वक व्यवस्था देखते हैं, इसलिए सृष्टि का यह तीसरा कारण भी सृष्टि के नियमो से ही सिद्ध होता है। इसी को परमात्मा, ईश्वर खुदा और गॉड कहते आदि अनेक नामो से पुकारते हैं हैं जिसका मुख्य नाम ओ३म है।

सृष्टि के ये तीनो कारण स्वयंसिद्ध और अनादि हैं।

मेरे मित्रो, ज्ञान और विज्ञान की और लौटिए,

सत्य और न्याय की और लौटिए

वेदो की और लौटिए….

आओ लौट चले वेदो की और।

ईश्वर विचार – तर्क आधार पर ईश्वर की सिद्धि

जब हम संसार में किसी पदार्थ को देखते हैं तो हमें उस में दो प्रकार के पदार्थ प्रतीत होते हैं – एक परिणामी दूसरे अपरिणामी।

जितने साकार पदार्थ हैं वे सब परिणामी और जितने निराकार पदार्थ हैं वे अपरिणामी हैं।

परन्तु जब हम इन साकार पदार्थो में प्रथम मनुष्य शरीर को देखते हैं तो यह शरीर माता पिता के संयोग से उत्पन्न होता है बढ़ता है घटता है और अंत को नष्ट हो जाता है इससे हमें क्या अनुमान होता है जो पैदा हुआ है वो नष्ट भी होगा जिस में परिणाम है वह पैदा हुआ है। जब परिणामी पदार्थो को उत्पत्ति वाला सिद्ध कर लेते हैं तो हम व्यष्टि पदार्थ अर्थ एक व्यक्ति को छोड़ कर समष्टि जगत को देखते हैं तो यह ही परिणाम प्रतीत होता है की अवयवी के अवयव परिणाम को प्राप्त होते हैं वह अवयवी भी परिणामी होता है क्योंकि सम्पूर्ण अवयवो का नाम अवयवी है जब हम इस प्रकार सूक्ष्म विचार करते हैं तो हमें जगत परिणामी प्रतीत होने लगता है हम जगत के परिणामी होने से उसकी उत्पत्ति का अनुमान कर लेते हैं यद्यपि मध्य अवस्था में उसकी उत्पत्ति का बोध अनुमान के बिना नहीं होता फिर भी शब्द प्रमाण से जगत हुतपन्न हुआ और जगत, संसार, सृष्टि इसके पर्यायवाचक जितने शब्द दिए जाते हैं सब के अर्थ उत्पत्ति वाले के हैं।

जब हमने जगत को उत्पत्ति वाला अनुभव किया तो हमारा विचार वह होता है की यह उत्पत्ति स्वाभाविक है या नैमित्तिक दूसरे हम जिस पदार्थ की उत्पत्ति जिस पदार्थ से देखते हैं उसका लय भी उसी पदार्थ में होता है इस से कार्यरुप सब पदार्थो में अनित्यता और कारणरूप पदार्थो में नित्यता का बोध होता है जब हम पांच भूतो में अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश में सब पदार्थो का लय देखते हैं तो उन्ही पंच पदार्थो से इस जगत की उत्पत्ति का विचार करते हैं.

यद्यपि कार्य अवस्था इन पदार्थो की अनित्य है परन्तु कर्णावस्था में यह नित्य होते हैं जब हम जगत के उपादान कारण निमित्त भी हैं अथवा जगत पंचभूतों ही से उत्पन्न हुआ वा इन के बिना कोई और भी पदार्थ है ?

जब हम पृथ्वी को विचरते हैं तो जड़ प्रतीत होती है जल भी ज्ञानशून्य है अग्नि भी ज्ञान नहीं रखती वायु में भी ज्ञान का अभाव वही प्रतीत होता है आकाश ज्ञान से हीं है इस प्रकार के विचार से हम सम्पूर्ण भूतो को ज्ञान से रहित पाते हैं।

परन्तु जब हम संसार में जो सोने के बने गहने में सोने और गुण और चांदी में चांदी के गुण पाते हैं इस से हमको बोध होता है की कारण के गुण अनुकूल कार्य में गन रहते हैं। जब भूतो में ज्ञान गुण नहीं हैं तो उसके कार्यरूप जगत में भी ज्ञान नहीं हो सकता और जगत में मनुष्यो को ज्ञान से युक्त देखते हैं तो शीघ्र विचार उत्पन्न होता है की यह ज्ञान गुण किसका है ?

बहुत से लोग खासकर चार्वाकी कहते हैं पृथक भूतो में तो चैतन्यता नहीं किन्तु संयोग से उत्पन्न होती है यहाँ ध्यान देने वाली बात है की जो गुण एक एक में न रहे वह संयोग से उत्पन्न नहीं होता जैसे मैदे में मधुरता नहीं – जल में मधुरता नहीं उत्पन्न होती – चीनी में मधुरता है – जल में मिलाने से तुरंत मधुरता उत्पन्न हो जाती है।

दूसरे रेल के इंजन में पृथ्वी है, जल है, अग्नि है, वायु है, आकाश है परन्तु ज्ञानशक्ति नहीं है, मृतक शरीर में पांचो ज्ञानशक्ति का आधार कोई दूसरी वास्तु है। जब हम इस प्रकार सृष्टि में जड़ चैतन्य को दो स्वरूप करके विचार लेते हैं तो हमको सृष्टि में इनका संयोग और सृष्टि में स्वाभाव से संयोग है या निमित्त से यह विचार उत्पन्न होता है। जब हम बाज़ार जाते हैं तो हम को कभी कहीं ईंटे गिरी पड़ी पाती है तो हम अनुमान से जान जाते हैं ये स्वाभाविक गिरी होंगी। परन्तु यदि किसी स्थान पर १० की निश्चित संख्या में गिन गिन के किसी ने राखी हैं तो इससे यह सिद्ध होता है की जहाँ पर नियम हैं वह नैमित्तिक और जो वे नियम हैं वह स्वाभाविक हैं।

जब सृष्टि में नियम को देखते हैं तो इसके हर एक पदार्थ में नियम प्रतीत होता है, मनुष्य स्त्री के संयोग से लड़का उत्पन्न होता है, घोडा घोड़ी के संयोग से घोडा ही होता है, घोड़ी और गधे के संयोग से खच्चर – इसी प्रकार सब पदार्थ नियमानुसार प्रतीत होते हैं, गर्मी में देश घंटे की रात और सर्दी में १४ घंटे की – कहने का तात्पर्य जिधर देखो उधर नियम बंध रहा है फिर इसे किस युक्ति से स्वाभाविक माने ?

दूसरा जो स्वाभाविक गुण हैं वे सर्वदा एक रास रहते हैं वे बिना किसी निमित्त के बदलते नहीं जैसे जल का स्वाभाव शीतल है वह बिना अग्नि संयोग के उष्ण न होगा – इससे सिद्ध है की जल में उत्पन्न वह उष्णता अग्नि की है – न की जल की – इससे सिद्ध है की पंचभूतों में ज्ञान नहीं – ना ही वे स्वयं से संयोग वियोग कर ही सकते हैं क्योंकि पंचभूत जड़ पदार्थ हैं –

इसलिए भूतो के स्वाभाव से तो जगत की उत्पत्ति असंभव है – इसलिए यह निश्चित किया जाता है की जगत का निमित्त कारण ज्ञानशक्ति संपन्न सर्वशक्तिमान कोई ना कोई अवश्य ही है।

जब हम इस प्रकार ईश्वर को मानेंगे तो कुछ लोगो को शंका उत्पन्न होगी की –

ईश्वर ने जगत उत्पन्न किया है तो ईश्वर को किसने उत्पन्न किया ?

इसका उत्तर है की –

परिणामी पदार्थ कार्य होते हैं उनको कारण की अपेक्षा होती है यदि ईश्वर परिणामी हो तो उसका भी कारण हो मगर ईश्वर नित्य है अपरिणामी है – उसका कर्ता नहीं हो सकता।

यदि कोई कहे ईश्वर कहाँ है ?

तो उत्तर यही ठीक है रहने का ठिकाना एकदेशी के लिए होता है – विभु के लिए नहीं –

इसलिए ईश्वर निराकार शक्ति है जो जगत का निमित्त कारण है

इति सिद्धम

न जहर, न मांसाहार, दूध है अमृत

दूध – मधुर, स्निग्ध, रुचिकर, स्वादिष्ट और वात-पित्त नाशक होता है। यह वीर्य,

बुद्धि और कफ वर्धक होता है। शीतलता, ओज, स्फूर्ति और स्वास्थ्य प्रदायक होता है।

स्त्री और गाय का दूध गुण-धर्म की दृष्टि से समान होता है। उसमें विटामिन ए और
खनिज तत्व होते हैं, जो रोगों से लड़ने की ताकत (प्रतिरोधक क्षमता) प्रदान करते हैं
और आंखों का तेज बढ़ाते हैं। दूध एक पूर्ण आहार है। शरीर को पुष्ट और स्वस्थ रखने के
लिए जितने तत्वों की जरूरत होती है, वे सभी उसमें पाए जाते हैं।

दूध रक्त नहीं है। इसका सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रमाण तो यह है कि दूध में जो केसीन
नामक प्रोटीन मौजूद रहता है, वह खून और मांस में नहीं पाया जाता। जो रक्त कणिकाएं
(डब्ल्यूबीसी, आरबीसी) और प्लेटलेट्स खून में पाए जाते हैं, वे दूध में नहीं होते। यह बात
साइंसदानों ने दूध का बेंजोइक टेस्ट करके बताई है। यह परीक्षण किसी भी पैथोलॉजी लैब
में किसी भी डॉक्टर से कराकर देखा जा सकता है। दूध एनिमल प्रॉडक्ट होने पर भी रक्त-
मांस से बिल्कुल अलग एक शुद्ध रस है।

कोई यह तर्क दे सकता है कि दूध में वही प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स और
शर्करा आदि तत्व पाए जाते हैं, जो खून में पाए जाते हैं, इसलिए दोनों एक हैं। लेकिन अगर
यह तर्क सही है, तो वे सभी तत्व हरे या भिगोए हुए सोया, गेहूं, चना आदि अनाज में
भी पाए जाते हैं, लिहाजा उन्हें भी मांसाहार कहना पड़ेगा, जो कि सही नहीं होगा।

यह सही है कि जेनेटिक ब्लू प्रिंट के मुताबिक अपनी-अपनी प्रजाति की मां का दूध सबसे
अच्छा होता है इसलिए गाय का बछड़ा गाय का दूध, बकरी का मेमना बकरी का दूध,
बिल्ली का बच्चा बिल्ली का दूध और शेरनी का बच्चा शेरनी का दूध पीता है। इस प्रकार
सभी स्तनधारी प्राणियों की मांएं अपने बच्चों के पोषण और विकास के लिए दूध देती हैं।

लेकिन यह भी सदियों से आजमाई हुई बात है कि जिन प्राणियों की मां नहीं होती या दूध
नहीं दे पाती, गाय उनकी मां बन जाती है। गाय का दूध सभी प्राणियों के अनुकूल पड़ता है
और पर्याप्त मात्रा में प्राप्त किया जा सकता है। इसके उलट अन्य प्राणियों का दूध
प्रतिकूल और अपर्याप्त होने से सभी के काम नहीं आता। लेकिन याद रखें कि दूध
मां का हो या गाय का, उसका सेवन करने की एक निश्चित मात्रा होती है। यदि उससे
अधिक ग्रहण किया जाएगा, तो हानि पहुंचाएगा। इसलिए ‘हितमित भुख’ यानी थोड़ा और
हितकारी भोजन करने को कहा गया है। अति तो हर चीज की बुरी होती है। यह कह कर
भी दूध को खारिज नहीं किया जा सकता कि वह छह से आठ घंटे में पचता है। बहुत
सी ऐसी शक्तिवर्धक चीजें (बादाम, काजू, मूंगफली आदि) हैं, जिन्हें पचने में इससे
ज्यादा समय लगता है।

शिशु अवस्था में लेक्टॉस एंजाइम का पर्याप्त मात्रा में स्त्राव होता है। वे ही एंजाइम दूध
को पचाते हैं, इसलिए बच्चों का वह पूर्ण आहार होता है, लेकिन जैसे-जैसे उम्र
बढ़ती जाती है, लेक्टॉस एंजाइम का स्त्राव घटता जाता है। फिर भी लगातार दूध पीने
वालों को यह पचता रहता है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफॉर्निया में क्लिनिकल
इम्यूनोलॉजी के प्रोफेसर डॉ. ट्यूबर का कहना है कि जो वयस्क आदतन दूध और उससे
बने उत्पादों का सेवन करते हैं, उनके लेक्टॉस एंजाइम सक्रिय बने रहते हैं और दूध
पचता रहता है। लेकिन जो बचपन के बाद दूध का सेवन बंद कर देते हैं, उनमें इस एंजाइम
का संश्लेषण बंद हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों को दूध पीने के बाद डायरिया और पेट दर्द
की शिकायत हो सकती है। लेकिन दूध नहीं पचा सकने वाला व्यक्ति अगर (चावल,
रोटी आदि के साथ) थोड़ा-थोड़ा बढ़ाते हुए क्रम से दूध का सेवन करता है, तो एंजाइम
की मात्रा सुधर जाती है और दूध पचने लगता है।

दूध इतना अधिक होता है कि उसे दुहा जाना जरूरी है। हानाह शोध संस्थान के डॉक्टर
वाइल्ड का कहना है कि अगर दूध दुहा न जाए, तो स्तन ग्रंथियों पर बुरा असर पड़ता है।
इससे स्तन कोशिकाएं मरने लगती हैं। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि बछड़े को पेट भर
दूध मिले। इंजेक्शन का इस्तेमाल कभी नहीं करना चाहिए।

दूध का उपयोग अनादिकाल से हो रहा है। हमारे महापुरुष इसी अमृत को पीकर बड़े हुए।
इसलिए दूध के आलोचकों को न सिर्फ तथ्यों से, बल्कि परंपरा से भी सबक लेना चाहिए।

ईश्वर नियंता है, न्यायकारी है, आधीन नहीं

मित्रो,

आज बात करते हैं सिद्धांतो और नियमो की – क्योंकि बिना इनके न तो धर्म संभव है न ही ज्ञान –

वैदिक विचार – ईश्वर ऐसा कुछ नहीं कर सकता जो सृष्टि नियम और सिद्धांत विरुद्ध हो – क्योंकि ईश्वर सर्वज्ञ है – न्यायकारी है – सत्य है – ज्ञानी है आदि आदि।

कुछ हिन्दू भाई धर्म तत्त्व से अनभिज्ञ होकर सृष्टि नियम व सिद्धांतो को ताक पर रखकर ईश्वर पर केवल दोष सिद्ध करके उसे न्यायकारी परमात्मा को अन्यायकारी और नियम विरुद्ध चलने वाला मान बैठते हैं – जिससे वो खुद ही नहीं जान पाते की ईश्वर क्या है – आइये एक छोटे से उदहारण से समझने की कोशिश करते हैं –

सिद्धांत क्या हैं और नियम क्या हैं – पहले ये समझना होगा –

सिद्धांत – जो अटल हो – सत्य हो – तर्कपूर्ण हो – जिनसे सिद्ध किया जाता है – ये छोटी सी परिभाषा है – समझने के लिए।

नियम – जो नियमित हो – जिनमे परिवर्तन न होता हो – जो मान्य हो – सत्य और न्याय पर आधारित हो – ये छोटी सी परिभाषा है – समझने के लिए।

2 + 2 = 4 ये एक बहुत छोटा सा सवाल है जिसे एक पहली कक्षा में पढ़ने वाला विद्यार्थी भी आसानी से हल कर सकता है – ये सवाल जिसका जवाब सैद्धांतिक और नियमानुसार नहीं बदल सकता – एक ही जवाब आएगा चाहे किसी भी प्रकार सिद्ध किया जाये।

यदि हम भी इस सवाल का उत्तर देंगे तो यही होगा – क्योंकि यह न्याय और सिद्धांतो की बात है – इसका कतई मतलब ये नहीं निकल सकता की हम इस सिद्धांत के आधीन हैं।

आधीनता और स्वाधीनता चेतन तत्वों में ही चरितार्थ हो सकती है – जड़ तत्वों में नहीं। क्योंकि सिद्धांत और नियम जड़ तत्व हैं – इसलिए कोई चेतन वस्तु इनके आधीन नहीं हो सकती।

अब कुछ लोग कहेंगे क्योंकि भारतीय संविधान है वो जड़ है मगर एक जज उसके आधीन है। तो यहाँ दो बाते समझने वाली हैं –

१. क्योंकि संविधान है – तो उसको किसीने बनाया होगा – और बनाने वाला चेतन होगा क्योंकि विचार और कर्म चेतन में ही संभव है जड़ में नहीं। इसलिए यदि आप कहो की कोई जज भारतीय संविधान के आधीन है तो पहले तो आपको यही सिद्धांत स्वीकार करना पड़ेगा की ईश्वर है क्योंकि इस सृष्टि के नियम और सिद्धांत स्वयं नहीं बन सकते उनको बनाने वाली कोई सत्ता होनी चाहिए जो चेतन हो इसलिए ईश्वर है।

२. जज आधीन नहीं, स्वतंत्र है क्योंकि वो अपने विवेक और न्याय से फैसला करता है। यदि जज किसी के आधीन हो तो न्याय नहीं कर सकता क्योंकि न्याय करने के लिए नियम होने चाहिए इसलिए वो नियमानुसार ही न्याय करेगा यदि नियमानुसार न्याय न करे तो पक्षपाती और दुष्ट कहलाये फिर उसको जज कोई कैसे कहे ? इसलिए की ईश्वर न्यायकारी है और न्याय के लिए नियम चाहिए क्योंकि वो सबको एकसमान न्याय करता है पक्षपात नहीं इसलिए वो नियंता है –

नियंता आधीन नहीं होता – नियंता नियम से न्याय करता है इसीलिए वो स्वतंत्र होना चाहिए – बिना स्वतंत्र हुए वो नियमपूर्वक न्याय नहीं कर सकता।

जीव नियमो के आधीन है क्योंकि जीव को कर्मो के फल भोग करने हैं। और ईश्वर स्वतंत्र है इसलिए नियमानुसार कर्मो के फल, जीव को भोग करवाता है।

अतः ईश्वर सर्वज्ञ, न्यायकारी है इसलिए स्वतंत्र है।

जीव अल्पज्ञ है, कर्मो के फल भोग हेतु परतंत्र है।

जगत और जगत का कारण जड़ है।

नमस्ते

शिवलिंग – ईश्वर के कल्याणकारी और मंगलमय होने का प्रमाण

कुछ लोग लिंग शब्द की व्याख्या ठीक नहीं करते –

कुछ लिंग शब्द की व्याख्या ही गलत करते हैं –

कुछ ऐसे भी हैं जो लिंग शब्द की व्याख्या अपने अनुरूप करते हैं –

अब पता नहीं ये अति विशिष्ट ज्ञानी – कौन से ज्ञान का प्रदर्शन करते है ?????

सदैव अर्थ का अनर्थ ही करते हैं –

उनमे कुछ ऐसे भी हैं जो बस केवल लिंग शब्द की व्याख्या कर “शिवलिंग” को सिद्ध करना चाहते हैं – जब इन व्यख्याकारो से इस शब्द के अर्थ का प्रमाण मांगो की ये अर्थ कहाँ से किस आधार पर किया तो वो उनके पास होता नहीं – फिर और ज्ञान का प्रदर्शन कर अपशब्द और भद्दी भद्दी गालियाँ शुरू हो जाती हैं – जब पुराणो से “शिवलिंग” बताओ तो मानते नहीं – बस अपना अनर्थ ही सिद्ध करने का प्रयोजन करते हैं जो ठीक विदित नहीं होता –

आइये देखते हैं – लिंग का अर्थ आखिर है क्या ???

लिंग का अर्थ होता है “प्रमाण” –
ब्रह्म सूत्र के चौथे अध्याय के पहले पाद का दूसरा सूत्र है-

“लिंगाच्च”

वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आया है. सूक्ष्म शरीर 17 तत्त्वों से बना है. शतपथ ब्राह्मण-5-2-2-3 में इन्हें सप्तदशः प्रजापतिः कहा है. मन बुद्धि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ पांच कर्मेन्द्रियाँ पांच वायु. इस लिंग शरीर से आत्मा की सत्ता का प्रमाण मिलता है. वह भासित होती है. आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी के सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंशों से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन बुद्धि की रचना होती है. आकाश सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंश से श्रवण ज्ञान, वायु से स्पर्श ज्ञान, अग्नि से दृष्टि ज्ञान जल से रस ज्ञान और पृथ्वी से गंध ज्ञान उत्पन्न होता है. पांच कर्मेन्द्रियाँ हाथ, पांव, बोलना. गुदा और मूत्रेन्द्रिय के कार्य सञ्चालन करने वाला ज्ञान.
प्राण अपान,व्यान,उदान,सामान पांच वायु हैं. यह आकाश वायु, अग्नि, जल. और पृथ्वी के रज अंश से उत्पन्न होते हैं. प्राण वायु नाक के अगले भाग में रहता है सामने से आता जाता है. अपान गुदा आदि स्थानों में रहता है. यह नीचे की ओर जाता है. व्यान सम्पूर्ण शरीर में रहता है. सब ओर यह जाता है. उदान वायु गले में रहता है. यह उपर की ओर जाता है और उपर से निकलता है. सामान वायु भोजन को पचाता है.

आइये अब देखते हैं शिव का अर्थ क्या होता है –

“मंगलमय और कल्याणकर्ता”

अब इन दोनों अर्थो को मिला कर देखिये –

शिव + लिंग = मंगलमय और कल्याणकर्ता + प्रमाण

तो इससे सिद्ध है की शिवलिंग का अर्थ हुआ

वह ईश्वर जो मंगलमय और कल्याणकर्ता है उसका यह प्रमाण है की – मृत्यु के उपरान्त प्राणी की आत्मा को आवृत्त रखनेवाला वह सूक्ष्म शरीर जो पाँचों, प्राणों, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों सूक्ष्मभूतों, मन, बुद्धि और अहंकार से युक्त होता है परन्तु स्थूल अन्नमय कोश से रहित होता है। लोक-व्यवहार में इसी को सूक्ष्म-शरीर कहते हैं। विशेष—कहते हैं कि जब तक पुनर्जन्म न हो या मोक्ष की प्राप्ति न हो, तब तक यह शरीर बना रहता है।

शिव कल्याणकर्ता है – मंगलमय है इसीलिए वह ईश्वर (शिव) यह कर्मफल व्यवस्था है कि आप जब तक मोक्ष प्राप्त न कर लो – इस हेतु आपका पुनर्जन्म होता रहेगा – और ये सूक्ष्म शरीर इसी लिए प्रमाण है की आप स्थूल शरीर से उत्तम कर्म करते हुए मोक्ष प्राप्त करो – इसी कारण ईश्वर को शिव अर्थात कल्याणकारी कहा जाता है।

यह है वैज्ञानिक और वेदो के आधार पर “शिवलिंग” का अर्थ –

वह शिवलिंग नहीं जिसका पुराणो में बड़ा ही अश्लील चित्रण मिलता है –

मैं सभी हिन्दू भाइयो से विनम्र प्रार्थना करता हु कृपया सत्य को जाने – वेदो को पढ़िए – ज्ञान और विज्ञानं की और लौटिए – दुराग्रह को त्याग कर सत्य को जाने और शिव को शिव (मंगलमय और कल्याणकर्ता) ही जाने – अन्य नहीं –

नमस्ते –

द्रौपदी का चीरहरण – मिथक से सत्यता की ओर

मेरे सभी हिन्दू भाइयो और बहिनो –

जो जो भी व्यक्ति – महाभारत में ऐसा सोचते और समझते हैं की द्रौपदी के “चीर हरण” जैसा कुत्सित और भ्रष्ट आचरण हुआ था –

तो ऐसी विसंगति को दिमाग से पूरी तरह हटा देवे – और जो इस पोस्ट में लिखा जा रहा है – उसे ध्यान पूर्वक पढ़े – निष्पक्ष होकर जांच करे और जो सत्य हो उसे मान लेवे –

यहाँ पोस्ट को बड़ी करने का उद्देश्य नहीं है – इसलिए पॉइंट तो पॉइंट बात लिखूंगा – यदि किसी भाई को स्पष्टीकरण चाहिए तो विषय से सम्बंधित सन्दर्भ दिए गए हैं स्वयं जांच कर लेवे – तब भी कोई शंका शेष हो तो सवाल पूछ लेवे –

पहली बात – जब द्यूतक्रीड़ा महाभारत में आरम्भ हुई और युधिष्ठर ने स्वयं और अपने भाइयो को तथा अपनी “पत्नी द्रौपदी” को दांव पर लगा दिया – और हार गए –
तब यहाँ ये जानना आवश्यक है कि वो क्या हार गए और हारने के बाद क्या बन गए ?

देखिये –

दुर्योधन ने जब देखा की शकुनि ने युधिष्ठर से सब कुछ जीत लिया है तो आदेश दिया –

दुर्योधन बोला – विदुर ! यहां आओ। तुम जाकर पांडवो की प्यारी और मनोनुकूल द्रौपदी को यहाँ ले आओ। वह पापाचारिणी शीघ्र यहां आये और मेरे महल में झाड़ू लगाये। उसे वहीँ दासियों के साथ रहना होगा।

द्यूतपर्व – अध्याय ६६ श्लोक १

यहाँ स्पष्ट है – दुर्योधन ने पांडवो और द्रौपदी को केवल लज्जित ही करना था इसलिए विदुर को बोला गया की द्रौपदी जो एक कुल की रानी थी – को “दासी” और पांडव जो राजा थे उन्हें – “दास” बना कर लज्जित ही करना मात्र दुर्योधन का मंतव्य था –

विदुर के विरोध और नीतिवचन सुनने के बाद दुर्योधन ने “प्रतिकामिन” को आदेश दिया की द्रौपदी को यहाँ ले आवो (दासीरूप में झाड़ू लगाने हेतु)

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक २

प्रतिकामिन ने द्रौपदी से कहा –

द्रुपदकुमारी ! धर्मराज युधिष्ठर जुए के मदसे उन्मत्त हो गए थे। उन्होंने सर्वस्व हारकर आप को दांव पर लगा दिया। तब दुर्योधन ने आपको जीत लिया। याज्ञसेनी ! अब आप धृतराष्ट्र के महल में पधारे। मैं आपको वहां दासी का काम करवाने के लिए ले चलता हूँ।

यहाँ भी बिलकुल स्पष्ट है की द्रौपदी को केवल दासी के काम हेतु महल की सफाई आदि करवाने के उद्देश्य से दुर्योधन ने प्रतिकामिन को भेजा था – ताकि द्रौपदी और पांडवो का मानमर्दन हो सके – अन्य कोई मंतव्य दुर्योधन का नहीं था।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक ४

उपरोक्त श्लोको से स्पष्ट है – दुर्योधन का मंतव्य द्रौपदी का चीरहरण करना तो बिलकुल गलत और समाज को भ्रामित करने वाली बात गढ़ी गयी है।

आगे देखिये –

कुछ मित्र कहते हैं की दुःशासन द्रौपदी को जबरदस्ती पकड़ कर – सभाग्रह ले आया – यहाँ पर भी कुछ शंका खड़ी होती है –

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! दुर्योधन क्या करना चाहता है, यह सुनकर युधिष्ठर ने द्रौपदी के पास एक ऐसा दूत भेजा, जिसे वह पहचानती थी और उसी के द्वारा यह सन्देश कहलाया – “पाँचालराजकुमारी ! यद्यपि तुम रजस्वला और नीवी (नाभि) को नीचे रखकर एक ही वस्त्र धारण कर रही हो, तो भी उसी दशा में रोती हुई सभामे आकर अपने श्वसुर के सामने खड़ी हो जाओ।

“तुम जैसी राजकुमारी को सभा में आई देख सभी सभासद मन ही मन इस दुर्योधन की निन्दा करेंगे।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक १८-२१

यहाँ धर्मराज युधिष्ठर की बात से भी प्रमाण मिलता है की द्रौपदी का चीरहरण जैसी घटना – समाज को भ्रमित करने हेतु कुछ धूर्तो ने रची – यदि दुर्योधन का मंतव्य केवल द्रौपदी का चीरहरण करना ही था – तो युधिष्ठर द्रौपदी को सभा में आने के लिए क्यों कहते ?

जबकि यह स्पष्ट है की द्रौपदी को युधिष्ठर ने सभा में आने के लिए दूत से बुलावा भेज दिया – और द्रौपदी भी सभा में आने को तईयार थी – तब ये कहना की दुःशाशन जबरदस्ती द्रौपदी को पकड़ कर सभा में ले आया संदेह प्रकट करता है – खैर यदि ये मान भी ले की दुःशासन ने द्रौपदी को बाल से खींच घसीट कर सभा में ले आया – तो उसका वृतांत महाभारत में देखिये

दुःशासन के खींचने से द्रौपदी का शरीर झुक गया। उसने धीरे से कहा -‘ओ मंदबुद्धि दुष्टात्मा दुःशासन। में रजस्वला हूँ तथा मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र है। इस दशा में मुझे सभा में ले जाना अनुचित है।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३२

दुःशासन बोला – द्रौपदी ! तू रजस्वला, एकवस्त्रा अथवा नंगी ही क्यों न हो, हमने तुझे जुए में जीता है ; अतः तू हमारी दासी हो चुकी है, इसलिए अब तुझे हमारी इच्छा के अनुसार दासियों में रहना पड़ेगा।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३४

यहाँ दुःशासन के बोले शब्द देखिये – दुःशासन का उद्देश्य भी द्रौपदी का चीरहरण करना नहीं था – बल्कि यहाँ भी स्पष्ट है की कौरवो – दुर्योधन आदि को केवल पांडवो और द्रौपदी को “दास” आदि बनाकर भरी सभा में अपमानित ही करना था।

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! उस समय द्रौपदी के केश बिखर गए थे। दुःशासन के झकझोरने से उसका आधा वस्त्र भी खिसककर गिर गया था। वह लाज से गाड़ी जाती थी और भीतर ही भीतर दग्ध हो रही थी। उसी दशा में वह धीरे से इस प्रकार बोली

द्रौपदी ने कहा – अरे दुष्ट ! ये सभा में शास्त्रो के विद्वान, कर्मठ और इंद्र के सामान तेजस्वी मेरे पिता के सामान सभी गुरुजन बैठे हुए हैं। मैं उनके सामने इस रूप में कड़ी होना नहीं चाहती।

क्रूरकर्मा दुराचारी दुःशासन ! तू इस प्रकार मुझे ना खींच, ना खींच, मुझे वस्त्रहीन मत कर। इंद्र आदि देवता भी तेरी सहायता के लिए आ जाएँ, तो भी मेरे पति राजकुमार पांडव तेरे इस अत्याचार को सहन नहीं कर सकेंगे।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३५-३७

यहाँ ही वह शब्द है जहाँ पर द्रौपदी को घसीटने के कारण – द्रौपदी के रजस्वला अवस्था में पहने हुए एक वस्त्र के सरकने से द्रौपदी के चीरहरण की कथा गढ़ ली गयी – जबकि ये चीरहरण नहीं था – केवल द्रौपदी को दुःशासन द्वारा खींचा गया –
घसीटा गया – जिसके परिणामस्वरूप द्रौपदी का एकमात्र पहना हुआ वस्त्र शरीर से थोड़ा सरक गया – जिसके आधार पर पूरी की पूरी मिथ्या कथा बना दी गयी – की द्रौपदी का चीरहरण हुआ –

यदि द्रौपदी का चीरहरण करना उद्देश्य ही नहीं था दुर्योधन का तो चीरहरण जैसी कुत्सित भ्रान्ति क्यों और किसलिए फैलाई गयी ?

इस लेख को ज्यादा बड़ा बनाने का कोई औचित्य नहीं – इसलिए यहाँ से स्पष्ट होगा की द्रौपदी का चीरहरण नहीं हुआ –

अब जो महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण की झूठी और बेबुनियाद कथा जोड़ी गयी है अगले लेख में उसका भंडाफोड़ करेंगे – कैसे “द्रौपदी का चीरहरण” घटना जो महाभारत में जबरदस्ती ठूंसा गया – और क्यों ?

शेष अगले लेख में अगले लेख का इन्तेजार करे –

सीता की उत्पत्ति – मिथक से सत्य की और

जनक के हल जोतने पर भूमि के अन्दर फाल का टकराना तथा उससे एक कन्या का पैदा होना और फिर उसी का नाम सीता रखना आदि असंभव होने से प्रक्षिप्त है । इस विषय में प्रसिध्द पौराणिक विद्वान स्वामी करपात्री जी ने स्वरचित ”रामायण मीमांसा’ में लिखा है – “पुराणकार किसी व्यक्ति का नाम समझाने के लिए कथा गढ़ लेते है। जनक पुत्री सीता के नाम को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने वैदिक सीता ( = हलकृष्ट भूमि) से सम्बन्ध जोड़कर उसका जन्म ही भूमि से हुआ

बता दिया” ( पृ ० 89 ) अथवा यह हो सकता है कि किसी ने कारणवश यह कन्या खेत में फेक दी हो और संयोगवश वह जनक को मिल गई हो अथवा किसी ने ‘खेत में पडी लावारिस कन्या मिली है’ यह कहकर जनक को सौप दी हो फिर उन्होंने उसे पाल लिया हो । महर्षि कण्व को शकुन्तला इसी प्रकार मिली थी। और प्राप्ति के समय पक्षियों द्वारा संरक्षित एवं पालित (न कि प्रसूत) होने से उसका नाम शकुन्तला रख दिया था ।

धरती को फोड़कर निकलने बालों की “उद्भिज्ज” संज्ञा है। तृण, औषधि, तरु, लता आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं । मनुष्य, पश्वादि, जरायुज, अण्डज और स्वेदज प्राणियों के अन्तर्गत है । मनुष्य वर्ग में होने के कारण सीता की उत्पत्ति पृथिवी से होना प्रकृति विरुध्द होने से असंभव है।

सीता की उत्पति पृथिवी से कैसे मानी जा सकती है, जबकि बाल्मीकि रामायण में अनेक स्थलों में उसे जनक की आत्मजा एवं औरस पुत्री तथा उर्मिला की सहोदरा कहा गया है –

वर्धमानां ममात्मजाम् (बाल० 66/15) ;

जानकात्मजे (युद्ध० 115/18) ;

जनकात्मजा (रघुवंश 13/78)

महाभारत में लिखा है –

विदेहराजो जनक: सीता तस्यात्मजा विभो
(3/274/9)

अमरकोश (2/6/27) में ‘आत्मज’ शब्द का अर्थ इम प्रकार लिखा है –

आत्मनो देहाज्जातः = आत्मजः अर्थात जो अपने शरीर से पैदा हो, वह आत्मज कहाता है। आत्मा क्षेत्र (स्त्री) का पर्यायवाची है ; क्षेत्र और शरीर पर्यायवाची है।

क्षीयते अनेन क्षेत्रम

स्त्री को क्षेत्र इसलिए कहते हैं की वह संतान को जनने से क्षीण हो जाती है। पुरुष बीजरूप होने से क्षीण नहीं होता ।

रघुवंश सर्ग 5, श्लोक 36 में लिखा है –

ब्राह्मे मुहूर्ते किल तस्य देबी कुमारकल्पं सुषुवे कुमारम् ।
अत: पिता ब्रह्मण एव नाम्ना तमात्मजन्मानमजं चकार ।।

महामना पं ० मदनमोहन मालवीय की प्रेरणा से संवत 2000 में विक्रमद्विसहस्राब्दी के अवसर पर संस्थापित अखिल भारतीय विक्रम परिषद द्वारा नियुक्त कालिदास ग्रंथावली के संपादक मण्डल के प्रमुख साहित्याचार्य पं ० सीताराम चतुर्वेदी ने उक्त श्लोक में आये “आत्मजन्मान्म” का अर्थ रघु की रानी की कोख से जन्मा किया हैं । तव जनक की ‘आत्मजा’ का अर्थ पृथिवी से उत्पन्न कैसे हो सकता है ? ब्रह्म मुहुर्त में जन्य लेने के कारण रघु ने अपने पुत्र का नाम अज (अज ब्रह्मा का पर्यायवाची है, क्योंकि ब्रह्मा का भी जन्म नहीं होता) रखा। अज का अर्थ जन्म न लेने वाला होता है। कोई मूर्ख ही कह सकता है कि अज का यह नाम इसलिए रखा गया था, क्योंकि वह पैदा नहीं हुआ था।

आत्मज या आत्मजा उसी को कह सकते हैं जो स्त्री – पुरुष के रज-वीर्य से स्त्री के गर्म से उत्पन्न हो, इसमें सामवेद ब्राह्मण प्रमाण है-

अंगदङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायते ……. आत्मासि पुत्र।
(1.5.17)

है पुत्र ! तू अंग-अंग से उत्पन्न हुए मेरे वीर्य से और हदय से पैदा हुआ है, इसीलिए तू मेरा आत्मा है । खेत से उत्पन्न होने से तो तृण, औषधि, वनस्पति, वृक्ष, लता आदि सभी आत्मज और आत्मजा हो जाएँगे और बाप-दादा की सम्पत्ति में भागीदार हो जाएंगे।

‘जनी प्रादुर्भावे’ से जननी शब्द निष्पन्न होता है। इससे जन्म देने वाली को ही जननी कहते है। पालन-पोषण करने वाली यशोदा माता कहलाती थीं, परन्तु जन्म न देने के कारण जननी देवकी ही कहलाती थी। बनवास काल में अत्रि मुनि
के आश्रम में अनसूया से हुई बातचीत में सीता ने कहा था –

पाणिप्रदानकाले च यत्पुरा तवाग्निसन्निधौ।
अनुशिष्टं जनन्या में वाक्यं तदपि में घृतम् ।।
अयो० 118/8-9

विवाह के समय मेरी जननी ने अग्नि के सामने मुझे जो उपदेश दिया था, उसे मैं किंचित भूली नहीं हूँ । उन उपदेशों को मैंने हृदयंगम किया है ।

क्या यहाँ विवाह के समय उपदेश देने वाली यह ‘जननी’ पृथिवी हो सकती है ?
और क्या बेटी को विदा करते समय बिलख बिलख कर रोने वाली पृथिवी थी ?
यहाँ माता को ही जननी कहकर स्मरण किया है, पृथिवी को जननी नहीं कहा।

तुलसीदास जी ने तो माता = जननी का नाम भी इस चौपाई
में लिख दिया है :-

जनक वाम दिसि सोह सुनयना ।
हिमगिरि संग बनी जिमि मैना ।।
(रामचरितमानस बालकाण्ड 356/2)

(विवाह वेदी पर) सुनयना (महारानी) महाराजा जनक की बाई और ऐसी शोभायमान थी, मानो हिमाचल के साथ मैना (पार्वती की माता) विराजमान हो।

पाणिग्रहण संस्कार के समय जिस प्रकार रामचन्द्र जी की पीढियों का वर्णन किया गया था उसी प्रकार सीता की भी 22 पीढियों का वर्णन किया गया। यदि सीता की उत्पत्ति पृथिवी ये हुई होती तो पृथ्वी से पहले की पीढ़िया कैसे बनती ?
इसे शाखोच्चार कहते है । राजस्थान में विवाह के अवसर पर दोनो पक्षों के पुरोहित आज भी 22 के ही नहीं, 30-40 पीढ़ियों तक के नामो का उल्लेख करते हैं । साधारणतया सौ वर्ष में चार पुरुष समझे जा सकते हैं। इस प्रकार 40 पीढियों में लगभग एक हजार वर्ष बनते है। अर्थात् सर्वसाधारण लोग भी मुहांमुही सैकडों वर्षो के पारिवारिक इतिहास का ज्ञान रख सकते थे। जिसका 22 पीढ़ियों का क्रमिक इतिहास ज्ञात है उसे कीड़े-मकौडों या पेड़-पौधों की तरह पृथिवी से उत्पन्न हुआ नहीं माना जा सकता। वस्तुतस्तु सीता के पृथिवी से उत्पन्न होने

सम्बन्धी गप्प का स्रोत विष्णु पुराण, अंश 4, अध्याय 4, वाक्य 27-28 है जिसका वाल्मीकि रामायण में प्रक्षेप कर दिया गया है। जन्म को पृथ्वी से मानकर सीता का अंत भी पृथ्वी में समाने की कल्पना करके ही किया गया है ।

अयोनिजा – सीता को अनेक स्थलों में अयोनिजा कहा गया है । पृथिवी से उत्पन्न होने का अर्थ माता-पिता के बिना अर्थात स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना उत्पन्न होना है। इसी को अयोनिज सृष्टि कहते है, क्योंकि इसमें गर्भाशय से
बाहर निकलने में योनि नामक मार्ग का प्रयोग नहीं होता । सृष्टि के आदि काल में समस्त सृष्टि अमैथुनी होती हैं –

अमैथुनी सृष्टि से सम्बंधित पोस्ट का लिंक – यहाँ से पढ़े
https://www.facebook.com/Aryamantavya/photos/a.1418444565059896.1073741828.1418437208393965/1618030795101271/?type=1&theater

यहाँ यह तथ्य जरूर जोड़ा जाता है की सृष्टि चाहे मैथुनी हो अथवा अमैथुनी – प्राणियों के शरीरो की रचना परमेश्वर सदा माता पिता के संयोग से ही करता है।
पर दोनों में अंतर केवल इतना है की आदि सृष्टि में माता (जननी) पृथ्वी होती है और वीर्य संस्थापक सूर्य (ऋग्वेद 1.164.3) में कहा है –

“द्यौर्मे पिता जनिता माता पृथ्वी महीयम”

अर्थात सृष्टि के आदि काल में प्राणियों के शरीरो का उत्पादक पिता रूप में सूर्य था और माता रूप में यह पृथ्वी। परमात्मा ने सूर्य और पृथ्वी – दोनों के रज वीर्य के संमिश्रण से प्राणियों के शरीरो को बनाया। जैसे इस समय बालक माता के गर्भ में जरायु में पड़ा माता के शरीर में रस लेकर बनता और विकसित होता है, वैसे ही आदि सृष्टि में पृथ्वी रुपी माता के गर्भ में बनता रहता है। इसी शरीर को साँचा रुपी शरीर भी कहा जाता है जिससे हमारे जैसे मैथुनी मनुष्य उत्पन्न होते रहते हैं।

सीता का जन्म सृष्टिक्रम चालु होने और साँचे तैयार होने के बाद त्रेता युग में हुआ था, अतः सीता के अयोनिजा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जनक उनके पिता थे और रामचरितमानस के अनुसार सुनयना उनकी माता का नाम था।

मेरी सभी बंधुओ से विनती है, कृपया लोकरीति, मिथक, दंतकथाओं आदि पर आंखमूंदकर विश्वास करने से अच्छा है – खुद अपनी धार्मिक पुस्तको और सत्य इतिहास को पढ़ कर बुद्धि को स्वयं जागृत करते हुए दूसरे हिन्दू भाइयो को भी जगाये – ताकि कोई विधर्मी हमारे सत्य इतिहास और महापुरषो महा विदुषियों पर दोषारोपण न कर सके

आओ लौटे ज्ञान और विज्ञानं की और –

आओ लौट चले वेदो की और

नमस्ते

धर्मात्मा महाराज जटायु कोई पक्षी गिद्ध नहीं – क्षत्रिय वर्ण के मनुष्य थे

महाराज जटायु की वंशावली –

ऋषि मरीचि कुलोत्त्पन्न – ऋषि ताक्षर्य कश्यप

और महाराज दक्ष कुलोत्त्पन्न – विनीता

ताक्षर्य कश्यप और विनीता के दो पुत्र –

गरुड़ और अरुण

अरुण के दो पुत्र हुए –

सम्पात्ति और जटायु

इन सभी महापुरषो का विवरण धीरे धीरे प्रस्तुत किया जायेगा – फिलहाल आज हम चर्चा करेंगे –

धर्मात्मा महाराज जटायु के बारे में –

महाराज जटायु – ऋषि ताक्षर्य कश्यप और विनीता के पुत्र थे, आप गृध्रराज भी कहे जाते हैं, क्योंकि गृध्र एक पर्वत क्षेत्र है – जिसकी आकृति एक गिद्ध की चोंच जैसी है – इनका राज्य – अवध (अयोध्या और मिथिला) के बीच का हिस्सा था – जो एक पहाड़ी क्षेत्र था। ऐसा में कोई भ्रान्ति वश नहीं लिख रहा हु – ना ही मेरी कोई कपोल कल्पना है – आप रामायण में रावण और जटायु का संवाद पढ़े तो स्पष्ट दीखता है – देखिये –

रावण को अपना परिचय देते हुए जटायु ने कहा –

मैं गृध कूट का भूतपूर्व राजा हूँ और मेरा नाम जटायु हैं

सन्दर्भ – अरण्यक 50/4 (जटायुः नाम नाम्ना अहम् गृध्र राजो महाबलः | 50/4)

क्योंकि उस समय में आश्रम व्यवस्था की मान्यता थी जिसकी वजह से समाज और देश व्यवस्थित थे – आज ये वयवस्था चरमरा गयी है जिसके कारण ही देश पतन की और अग्रसर है – खैर – उस समय धर्मात्मा जटायु वानप्रस्थ आश्रम में होंगे – तभी वे अपने राज्य को युवा हाथो में सौंप देश और समाज की व्यवस्था में लग गए – इसका महत्वपूर्ण परिणाम था की माता सीता को रावण से बचाने के लिए अपनी प्राणो की भी बाजी लगा दी –

कुछ लोग धर्मात्मा जटायु को – एक पक्षी – या फिर बहुत बड़ा शरीर वाला गिद्ध समझते हैं – ऐसे लोग केवल वो पढ़ते हैं जिससे उन्हें अपना मनोरथ सिद्ध करना हो – जो सत्य और न्याय से परिपूर्ण हो वो पढ़ना नहीं चाहते – क्योंकि यदि पक्षपात और दुराग्रह त्याग कर – सत्य अन्वेषी बने तो सब कुछ साफ़ और स्पष्ट है की वे एक मनुष्य ही थे – देखिये

1. जैसे की ऊपर वंशावली दी गयी है – धर्मात्मा जटायु – ऋषि मरीचि के कुल में उत्पन्न ताक्षर्य कश्यप ऋषि और महाराज दक्ष के कुल में उत्पन्न विनीता के पुत्र थे – तो भाई क्या एक मनुष्य के गिद्ध संतान उत्पन्न हो सकती है ?

2. प्रभु राम ने धर्मात्मा जटायु को अरण्य काण्ड में “गृध्राज जटायु” अनेक बार बोला है क्योंकि वो उन्हें जान गए थे की वो गृध्र प्रदेश नरेश जटायु हैं।

3. जटायु राज को इसी सर्ग में श्री राम ने द्विज कहकर सम्बोधित किया – जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए ही उपयोग होता है –

4. जटायु राज को श्री राम इसी सर्ग में अपने पिता दशरथ का मित्र बताते हैं।

5. जिस समय रावण सीता का अपहरण कर उसे ले जा रहा था तब जटायु को देख कर सीता ने कहाँ – हे आर्य जटायु ! यह पापी राक्षसपति रावण मुझे अनाथ की भान्ति उठाये ले जा रहा हैं । (सन्दर्भ-अरण्यक 49/38) – यहाँ भी जटायु महाराज को द्विज सम्बोधन है – और यहाँ द्विज किसी भी प्रकार से पक्षी के लिए नहीं हो सकता – क्योंकि रावण को अपना परिचय देते हुए – जटायु महाराज अपने को – गृध्र प्रदेश का भूतपूर्व राजा बता रहे हैं।

6. जटायु राज का इसी सर्ग के बाद अगले सर्ग में दाह संस्कार स्वयं श्री राम ने किया – कुछ लोग ध्यान पूर्वक पढ़ लेवे – क्योंकि बहुत से हिन्दू भाइयो के मन में विचार आता है की जटायु – एक बहुत विशाल – पर्वत तुल्य – और बृहद पक्षी (गिद्ध) थे – तो भाई मुझे केवल इतना बताओ –

यदि जटायु महाराज इतने ही विशाल गिद्ध थे – तो बाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड सर्ग 68 में – प्रभु श्री राम बाल्मीकि के शव को अपनी गोद में रखते हुए बड़े प्रेम से लक्ष्मण को कहते हैं – लक्ष्मण इनका दाह संस्कार हम करेंगे – प्रबंध करो – तब चिता पर जटायु महाराज को चिता पर लेटाकर – उनका दाह संस्कार प्रभु राम ने किया। तो बताओ भाई श्री राम इतने पर्वत तुल्य गिद्ध शरीर – को कैसे उठा कर चिता पर रखकर – दाह किया होगा ?

कुछ भाई अरण्य काण्ड के सर्ग ६७ का एक श्लोक प्रस्तुत करके कहते हैं की – श्री राम ने भी जटायु को गिद्ध ही समझा था – क्योंकि उन्होंने कहा की

“ये पर्वत के किंग्रे के तुल्य ने ही वैदेही सीता खा ली है, इसमें कोई संदेह नहीं।”

यहाँ पर्वत के किंग्रे तुल्य का सही अर्थ ना जानकार व्यर्थ ही आक्षेप करते हैं – पर्वत के किंग्रे तुल्य अर्थ बड़ा डील वाला – यानी औसत शरीर से बड़ा – और यहाँ वैदेही सीता खा ली है से तात्पर्य है की – उस वन में अनेक “जंगली – असभ्य – राक्षस प्रवर्ति के लोग निवास करते थे जो मांसभक्षी थे – इसलिए प्रभु राम ने ऐसी सम्भावना व्यक्त की। भाई कृपया समझ कर पढ़िए –

यदि पर्वत के किंग्रे तुल्य का अर्थ इतना ही बड़ा होगा – तो बताओ कैसे इतने बड़े भरी भरकम शरीर को प्रभु राम ने उठाकर चिता पर रखा होगा ? कैसे अपनी गोद में उस धर्मात्मा जटायु के सर को रखकर लक्ष्मण से वार्ता की होगी ?
इसी दाह संस्कार के बाद प्रभु राम ने – महाराज जटायु के लिए उदककर्म भी संपन्न किया था।

अब जहाँ तक हिन्दुओ को भी पता होगा – ये उदककर्म – मनुष्यो द्वारा – मनुष्यो के लिए ही किया जाता है – अब यदि फिर भी कोई धर्मात्मा जटायु को गिद्ध समझे – तो ये उसकी मूरखता ही सिद्ध होगी।

कृपया अपने महापुरषो के सत्य स्वरुप को जानिये – उनके बल, पराक्रम, शौर्य और वीरता को व्यर्थ ना करे। उनके पुरषार्थ का मजाक न बनाये। उन्हें पशु पक्षी तुल्य जानकार बताकर – समझकर – उनके चरित्र का मजाक ना स्वयं बनाये न किसी को बनाने ही दे।

कृपया वेदो की और लौटिए – सत्य और न्याय की और लौटिए

धन्यवाद

महर्षि दयानंद और मनुस्मृति के वचनो पर आक्षेप का उत्तर

हथिनी और हंसिनी चाल संपन्न युवती विवाह के लिए क्यों उपयुक्त है

सत्यार्थ प्रकाश – एक ऐसा कालजयी ग्रन्थ जो सभी आरोपों से आज तक मुक्त रहा है – क्योंकि इसमें कोई ऐसी बात नहीं लिखी गयी जो निरर्थक हो – सभी बाते – ऋषि ने वेदो और अनेको आर्ष ग्रंथो का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने के बाद ही लिखा। फिर भी कुछ लोग जानबूझकर अथवा स्वशंका से उत्पन्न कारणों से इस ग्रन्थ के कुछ हिस्सों की यदा कदा आलोचना करते रहते हैं। ऐसे आक्षेपों का इन्हे केवल एक लाभ उठाना है किसी प्रकार इस ग्रन्थ में खोट निकाल कर समाज को दिखा देवे जिससे समाज इस ग्रन्थ को निरर्थक मानकर त्याग दे और फिर ऐसे लालची लोगो की पूछ पुनः समाज में स्थापित हो जावे। कुछ ऐसे भी हैं जो स्वशंका उत्पन्न कर जवाब हासिल करना चाहते हैं। अंतर केवल इतना है की स्वशंका जिसमे उत्पन्न हुई वो सत्य को जानकार मिथ्या को तुरंत त्याग देगा इसमें शंका नहीं लेकिन जो वो लालची लोग हैं जिन्होंने इस आक्षेप को मढ़ा ही अपने प्रपंच के लिए है वो सत्य जानने के बाद भी इस आक्षेप को नहीं छोड़ेंगे।

हम बात कर रहे हैं कुछ लोगो द्वारा ऋषि के लिखे सन्दर्भ पर आक्षेप करने की तो पहले देखते हैं ऋषि ने आखिर लिखा क्या है :

ऋषि ने चतुर्थ समुल्लास में गृहस्थाश्रम के लिए आर्ष ग्रंथो में उपलब्ध व्यवस्थाओ को इंगित किया है। जिस प्रकार सम्पूर्ण सत्यार्थ प्रकाश में बिना आर्ष ग्रंथो के प्रमाण कुछ नहीं लिखा इसी प्रकार इस चतुर्थ समुल्लास में भी बिना आर्ष ग्रंथो के प्रमाण ऋषि ने कोई व्यवस्था नहीं की है।

चतुर्थ समुल्लास गृहस्थ आश्रम को इंगित करता है इसलिए पूरी व्यवस्था गृहस्थों के लिए कब क्या कैसी और क्यों होनी चाहिए से सम्बंधित है। जब ऋषि ने ये ग्रन्थ लिखा था तब की परिस्थिति पर एक बार नजर डालिये :

1. बाल विवाह से देश त्रस्त था।

2. दहेज़ पीड़ा का बोझ था।

3. महिलाओ को शिक्षा आदि अधिकार से वंचित रखना प्रथम दायित्व था।

4. सती प्रथा जैसी कुप्रथा और महाबुराई फैली थी।

5. बाल विवाह के कारण “अबोध विधवा” का दुःख।

ये कुछ कारण मैंने गिनाये – ऋषि ने इन पीडाओ को महसूस किया – एक नारी का दर्द जाना – महसूस किया की ये देश और धर्म के लिए कितना खतरनाक है। क्या इतने कार्यो से ज्ञात नहीं होता की ऋषि स्त्री विरोधी नहीं थे बल्कि “नारी के उत्थान” हेतु पूर्ण संकल्पित थे। क्या केवल कुछ मूढ़ व्यक्तियों की कल्पनाओ के आधार पर ऋषि दयानंद की विचारधारा को “नारी विरोधी” सिद्ध किया जा सकता है ?

क्या इन कुप्रथाओ विरोध करना अपराध था ?

ऋषि ने केवल सत्य बोला। और कुप्रथाओ का त्याग करने के लिए ही इस कालजयी ग्रन्थ को लिखा। ऋषि के अनेक महान कार्यो को ना देखकर – केवल स्वार्थवश कुछ बातो पर आक्षेप करना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? चलो आपने आक्षेप किया – लेकिन सोच समझकर तो करते भाई – आइये देखिये जिस आक्षेप को तोड़ मरोड़कर पेश कर रहे उसमे प्रमाण क्या हैं और विज्ञानं क्या है – आइये देखिये :

आक्षेप 1. हथिनी और हंसिनी जैसी चाल जिस युवती की हो उससे विवाह करे, हिरणी जैसी चाल वाली लड़की से विवाह न करे।

उत्तर : आश्वलायन गृह सूत्र के अनुसार कन्या में निम्नलिखित शुभलक्षण होने चाहिए –

1. बुद्धि 2. रूप 3. लक्षण अर्थात शुभ लक्षण 4. शील 5. आरोग्य

रूप की परिभाषा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं की जिसमे वर का मन रमे उसे रूप कहते हैं।

आपस्तम्ब ऋषि का भी कथन है की –

“यस्यां मनशचक्षुषोनिबन्धस्तस्यामृद्धिरिति”

अर्थात जिसको देखने से, नेत्र और मन जहाँ बांध जाए, ऐसी कन्या से विवाह शुभ है।

अब कुछ महानुभाव जिन्होंने ऋषि पर आक्षेप कर दिया की चाल के बारे में लिखा यानी ऋषि ने चाल पर ध्यान दिया – मंत्रो को तवज्जो नहीं दी – वो आपस्तम्ब ऋषि के बारे में भी यही सोचेंगे की ऋषि का ध्यान कन्या के चेहरे पर था – ज्ञान आदि विषय पर नहीं।

कन्या के शुभलक्षणयुक्त होने पर बहुत जोर अनेको ऋषियों ने दिया है ताकि गृहस्थाश्रम में विघ्न न हो – दुःख क्लेश आदि उत्पन्न न हो – जैसे

मनु महाराज ने कहा – कन्या लक्षणान्विता होने चाहिए – कन्या अंगहीन न हो, न ही कोई अंग छोटा बड़ा हो, जिसके नाम में सौम्य हो, जो हंस या हाथी की भांति चलती हो, जिसके शरीर के रोम, केश और दांत पतले हो, जिसका शरीर मृदु हो, ऐसी कन्या से विवाह करना उचित है।

दक्ष तथा याज्ञवल्क्य ऋषि ने भी लिखा है की विवाह के पूर्व कन्या के लक्षणों को अवश्य देखे।

शातातप प्रणीत – “पृथ्वी चंद्रोदय” में लिखा है की जिसकी वाणी हंस के सामान हो और वर्ण मेघ की तरह हो अर्थात चिकनाई लिए हुए श्याम वर्ण, ऐसी कन्या से विवाह करने से गार्हस्थ सुख प्राप्त होता है।

नारद जी ने भी लिखा है की मृग के सामान जिसके नेत्र और ग्रीवा हो और हंस के सामान जिसकी गति और वाणी हो ऐसी स्त्री राजपत्नी होती है।

आजकल ऋषि के कथन का विरोध और मजाक उड़ाना फैशन बन गया है – ऋषि ने चतुर्थ समुल्लास में ग्रस्थ आश्रम के लिए लिखा जिसमे स्त्री लक्षणों के बारे में जो शास्त्रो में बताया गया – उन सम्भावनाओ – लक्षणों को बताया ताकि वर स्वयं अथवा वर के माता पिता आदि गुरुजन अच्छी कन्या का अन्वेषण करते समय अपने मन में यह निश्चय कर ले की अमुक कन्या में क्या क्या शुभ लक्षण हैं और उससे विवाह करना कहाँ तक उपयुक्त होगा।

शुभ लक्षणों का जानना इसलिए आवश्यक है ताकि भावी संतान सब सुख और गुणों से भरपूर है, दुर्गणों का लेशमात्र भी न हो। जिससे देश धर्म और समाज की व्यवस्था बानी रहे।

हाँ ये बात भी ठीक है कि स्त्री-लक्षण शास्त्र का ज्ञान करके यह कहना उचित नहीं है की अमुक की पत्नी अच्छी है, अमुक की पत्नी दुष्ट लक्षणा है, लेकिन इतना अवश्य है की यदि इन नियमो का यथावत पालन न किया जाए तो दो प्रकार के दोषो की सम्भावना है :

1. शुभाशुभ दोनों प्रकार के लक्षण प्रत्येक व्यक्ति में पाये जाते हैं। जिस प्रकार के लक्षण अधिक बलवान और विशेष संख्या में होते हों वे विपरीत लक्षणों को दबा देते हैं। “विवेक विलास” आर्ष ग्रन्थ तो नहीं लेकिन वहां एक पंक्ति समझने योग्य है :

“पुष्टं यादव देहे स्याल्लक्षणम् वाप्यलक्षणम्।
इतराब्दाद्यते तेन बलवत फलदं भवेत्।।

भावार्थ : हो सकता है किसी लक्षण से कोई स्त्री दुष्ट प्रतीत होती हो किन्तु उसमे ऐसे बलवान शुभ लक्षण भी हो जिनको हम नहीं देख सकते।

2. प्रत्येक स्थान पर ज्योतिष की भाँती लक्षण शास्त्र में भी देश, काल और पात्र का विचार करना उचित है।

आगे के पोस्ट में इसी विषय को जारी रखकर पुराण आदि ग्रंथो से प्रमाणित किया जाएगा की ऋषि का ज्ञान कितना उच्च कोटि का था। और मॉडर्न विज्ञानं भी पुष्टि करता है ये सिद्ध होगा