पिछली सरकारों ने हिन्दी-संस्कृत को योजनाबद्ध रूप से समाप्त करने का कार्य किया। मोदी सरकार के आने से यह षड़यन्त्र अधिकारिक रूप से तो हट गया, परन्तु पिछले साठ वर्षों से जो इस कार्य में लगे हुए थे और आज भी शासन में प्रमुख पदों पर बैठे हैं, उनकी तड़प समझी जा सकती है। वे आज आदेश निर्देश की भाषा छोड़कर परामर्श व समझदारी के बहाने हिन्दी को समाप्त करने के अपने प्रयास को बढ़ाने लगे हैं। मनमोहनसिंह के प्रधानमन्त्रीत्व काल में हिन्दी के बिगाड़ का सर्वाधिक सरकारी प्रयास हुआ। मनमोहनसिंह की सरकार में हिन्दी के प्रयोग के लिए तीन ऐसे व्यक्ति उ ारदायी थे जो हिन्दी के विरोधी तो है ही,
परन्तु उनको हिन्दी आती भी नहीं थी, उनमें प्रथम मनमोहनसिंह स्वयं थे। वे उर्दू, अंग्रेजी पढ़े होने से उनका हिन्दी भाषण सदा उर्दू में लिखा होता था, जिसे वे लालकिले से लेकर सम्मेलनों तक में पढ़ते थे, अन्यथा उनकी भाषा मन-वचन-कर्म से अंग्रेजी थी। दूसरी थी सोनिया गाँधी, जिन्हें हिन्दी नहीं आती थी और वे अपना हिन्दी भाषण रोमन में लिखकर पढ़ती थीं, यह उनका भाषा का प्रेम नहीं, विवशता थी। तीसरे व्यक्ति थे चिदम्बरम, जिन्हें हिन्दी से चिड़ थी। वे हिन्दी में न भाषण देते थे न बातचीत ही करते थे। चिदम्बरम को हिन्दी का मह व चुनाव में याद आया यदि वे हिन्दी में भाषण दे सकते तो वह भी प्रधानमन्त्री पद के प्रत्याशी होते। इन्हीं चिदम्बरम के गृहमन्त्रीत्व काल में श्री मनमोहनसिंह की अध्यक्षता में संविधान के विपरीत जाकर हिन्दी में उर्दू और अंग्रेजी श दों को भरने की छूट दी गई। इन्हीं के कारण हिन्दी स्वरूप बिगाड़कर दूरदर्शन और समाचार पत्रों में हिन्दी के स्थान पर उर्दू, अंग्रेजी के श दों का और हिन्दी को रोमन में लिखने का देशद्रोही प्रयास प्रारम्भ हुआ। आज सारे समाचार पत्र और दूरदर्शन ऐसे काम करते हैं जैसे सारे भारतीयों को अंग्रेजी भाषा और रोमन लिपि सिखाने का ठेका इन्हीं ने ले रखा है। सरकार के स्तर पर यह अभियान भले ही ठण्डा पड़ गया हो परन्तु सरकारी विद्वान् और तथाकथित विद्वान् अंग्रेजी के प्रभाव को बनाये रखने और उसकी गुणव ाा सिद्ध करने में लगे हुए हैं। स्वतन्त्रता के साथ ही पराधीनता को बनाये रखने के जो निर्णय हुए उनमें सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी की अनिवार्यता भी है।
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में हिन्दी के प्रयोग की माँग करने वाली जनहित याचिका का केन्द्र सरकार ने विरोध किया। जिसमें याचिकाक र्ाा ने कहा कि अब समय आ गया है कि संविधान के अनुच्छेद ३४३ में वर्णित प्रावधानों के अन्तर्गत हिन्दी को उच्च न्यायपालिका में राजभाषा बनाया जाये।
देशभर के २४ उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव करने वाली जनहित याचिका को केन्द्र सरकार ने एक शपथ पत्र प्रस्तुत करते हुए अस्वीकार कर दिया है।
सर्वोच्च न्यायालय में यह जनहित याचिका शिव सागर तिवारी अधिवक्ता द्वारा दायर की गयी थी जिसमें कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद ३४८ में कही गयी यह बात कि उच्च न्यायालय की राजभाषा अंग्रेजी होगी, संविधान का उल्लंघन है। यह वादी-प्रतिवादियों द्वारा नहीं समझी जाती है। इस सिलसिले में न्यायमूर्ति द ाू और बोबड़े की खण्डपीठ ने केन्द्र सरकार को नोटिस दिया था।
इसके प्रत्यु ार में गृह मन्त्रालय के राजभाषा विभाग ने उच्च न्यायपालिका में भाषा बदलकर हिन्दी करने का प्रस्ताव वर्ष २००४ के विधि आयोग के २१६वीं रिपोर्ट पर भरोसा करते हुए अस्वीकार कर दिया। रिपोर्ट में सांविधिक प्रावधानों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया गया और इस सम्बन्ध में उच्च न्यायपालिका के वरिष्ठ सदस्यों के विचारों की ओर भी ध्यान दिया गया। इसमें कहा गया है-
‘‘किसी भी वर्ग के लोगों पर कोई भाषा उनकी इच्छा के विपरीत न थोपी जाए क्योंकि इससे हानि होने की सम्भावना है, उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों के लिए निर्णय करने की प्रक्रिया में भाषा एक मह वपूर्ण कारक है। न्यायाधीशों को दोनों पक्षों की प्रस्तुति को सुनना और समझना होता है और उनके सम्यक् समायोजन के लिए कानून का प्रयोग करना होता है। उच्च न्यायपालिका में प्रायः अंग्रेजी और अमरीकन पुस्तकों एवं अभियोग विधि प्रकरणों पर आधारित है।’’
इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि न्यायपालिका में अंग्रेजी के प्रयोग से न्यायाधीश के एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानान्तरण के समय सुविधा रहती है और यही बात उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय में स्थानान्तरण के समय भी होती है।
केन्द्र सरकार ने अपने शपतथ-पत्र के अनुच्छेद ३४८ के उपभाग (२) में कही बात को सन्दर्भित किया है जिसके अनुसार राष्ट्रपति की पूर्व सहमति प्राप्त करके उस राज्य का राज्यपाल उस राज्य उच्च न्यायालय में हिन्दी के प्रयोग को अधिकृत कर सकता है।
जो मोदी शपथ मञ्च से संयुक्त राष्ट्र के मञ्च तक हिन्दी की महिमा गा रहे हैं, उनकी सरकार का विभाग हिन्दी की जड़ खोदने में लगा हुआ है। यह एक दासता का पोषक और देश के लिये लज्जित करने वाला कार्य है। मोदी सरकार को इस घटना का संज्ञान में लेकर तत्काल इसका सुधार करना चाहिए।
इस प्रकार का प्रयास अनेक स्तर पर चल रहा है। इसको इस बात से समझा जा सकता है कि पिछले दिनों दैनिक भास्कर समाचार पत्र में एक प्रसिद्ध स्तम्भ लेखक ने बड़े ही भोलेपन से हिन्दी को रोमन में लिखने का प्रस्ताव कर डाला। लेखक बड़ी दूर की कौड़ी लाया है, वह कहता है- अंग्रेजी बिना प्रोत्साहन के बड़ी तेजी से बढ़ रही है, उससे टक्कर लेने के लिए एक ही उपाय है- हिन्दी को रोमन में लिखा जाय। सम्भवतः लेखक समझता है कि हिन्दी रोमन में लिखते ही हिन्दी अंग्रेजी बन जायेगी जैसे भारतीय पेण्ट पहनकर अंग्रेज हो गये। लेखक का विचार है कि हम नवयुवकों पर हिन्दी थोपते हैं वह विद्रोह करता है ऐसे में हिन्दी को बचाने के लिए हिन्दी को रोमन में लिखना चाहिए। यह एक विडम्बना की बात है, आप कहते हैं नवयुवक हिन्दी के प्रति विद्रोह का भाव रखता है। मूल बात है आपने उसे हिन्दी सिखाई नहीं, वह हिन्दी नहीं बोलता या हिन्दी नहीं जानता, इसमें उसका क्या दोष? जब अंग्रेजी जो उसकी भाषा नहीं है वह आप उसे सीखने के लिए बाध्य करते हैं तो वह सीख जाता है, फिर वह हिन्दी नहीं सीख सकता- यह कथन तो इस देश के युवा का अपमान है। मोबाइल, कम्प्यूटर पर वह अंग्रेजी का उपयोग करने के लिए विवश है। यदि सरकार चाहती तो प्रारम्भ से ही हिन्दी का विकल्प दे सकती थी परन्तु सरकार हिन्दी को समाप्त कराना चाहती थी, इसलिये युवकों ने अंग्रेजी सीखली। इसमें सरकार दोषी है, युवक नहीं।
आज हिन्दी को रोमन में लिखकर आप क्या अनुभव कराना चाहते हैं? यदि आप हिन्दी रोमन में लिखते हैं और हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी उर्दू के श दों का उपयोग करते हैं तो इसके पीछे केवल दो कारण हो सकते हैं। पहला आपकी दृष्टि में नागरी लिपि या हिन्दी श दों में आपके भावों को अभिव्यक्त करने की क्षमता नहीं है या आप उन श दों से परिचित नहीं हैं। दूसरा कारण है आपको अपनी भाषा और लिपि का प्रयोग करने में शर्म का अनुभव होता है। तीसरा तो कोई कारण हो नहीं सकता। लेखक ने ऐसे देशों का उदाहरण दिया है जिन्होंने अपने देश से अपनी लिपि को विदाई देकर अपनी भाषा को रोमन लिपि दी। लेखक को यह ध्यान नहीं है कि संसार की लिपियों में नागरी लिपि तथा भाषाओं में संस्कृत भाषा सबसे अधिक वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक और समर्थ भाषा व लिपि को छोड़कर अवैज्ञानिक लिपियों की वकालत करना अपनी अज्ञानता को ही प्रकाशित करना है। जो लोग अंग्रेजी की वकालत करते हैं वे भूल जाते हैं कि अंग्रेजी को बढ़ाने और भारतीय भाषाओं को नष्ट करने के जितने प्रयत्न इन साठ वर्षों में सरकार द्वारा किये गये हैं उसका दसवाँ हिस्सा भी भारतीय भाषाओं के लिये किया होता तो आज इस देश का युवक ज्ञान-विज्ञान सीखने में कितना आगे बढ़ चुका होता, यह एक वैज्ञानिक देश बन चुका होता।
आज भाषा के पढ़ने की बात भाषा की योग्यता नहीं है अपितु भाषा को आजीविका से जोड़ना है। आज अंग्रेजी पढ़ने वाले को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और अंग्रेजी पढ़े-लिखे को आजीविका के अवसर अधिक सुलभ हैं इसलिये अंग्रेजी पढ़ी जाती है। यह भाषा न तो वैज्ञानिक, न सरल, न हमारे लिए किसी तरह का गौरव देने वाली है। हम समझते हैं कि अंग्रेजी पढ़कर यूरोप अमेरिका में सुविधा से काम कर सकते हैं, बहुत धन कमा सकते हैं, यह बात मान कर उन्हें यूरोप में बसाना चाहते हैं पर बाहर जाने वालों की कितनी भी बड़ी संख्या हो वह भारत की जनसंख्या का एक दो प्रतिशत ही तो हो सकती है। फिर अठानवे प्रतिशत लोगों का गला क्यों घोट रहे हैं? प्रतिभा का विकास जो मातृभाषा में होता है, वह विदेशी भाषा में कभी नहीं हो सकता, फिर भी हम स्वयं पर अत्याचार करने के लिये विवश हैं। यह दासता हम क्यों नहीं छोड़ना चाहते। जो लोग आज हिन्दी को रोमन में लिखकर वैश्विक बनना चाहते हैं उनके लिये कभी विनोबा भावे द्वारा दिये परामर्श का स्मरण करना चाहिए। विनोबा भावे ने आज से पचास वर्ष पहले कहा था हमें एशिया महाद्वीप की भाषाओं को नागरी लिपि देने का प्रयास करना चाहिए। इससे पूरे एशिया महाद्वीप को मजबूत बना सकते हैं और यूरोप को टक्कर दे सकते हैं। ये अन्तर है सोच का। एक व्यक्ति अपने गौरव को विश्व में स्थापित करने का इच्छुक है, एक भिखारी बनकर सेठ के साथ दिखना चाहता है। स्तम्भकार मनमोहनसिंह की सोच को आगे बढ़ाने के लिए तत्पर दीखता है। इस षड़यन्त्र को समझने के लिए एक प्रसंग याद रखना उचित होगा। जब मनमोहनसिंह सरकार ने हिन्दी में अंग्रेजी उर्दू श दों को भरने की संविधान विरुद्ध योजना को स्वीकृति दी, उसकी सबसे अधिक प्रशंसा पेंगुइन प्रकाशन ने की थी। उसने करोड़ों रुपये खर्च कर सम्मेलन करके सरकार के इस प्रयास की प्रशंसा की थी, इतना ही नहीं उसने यह भी कहा था कि यह प्रयास बहुत पहले स्वतन्त्रता के साथ ही हो जाना चाहिए था। आज भी विदेशी शक्तियाँ इस देश की औपचारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी को इस देश में स्थापित देखना चाहती हैं। यह उन्हीं का विचार और उनकी ही योजना है। हिन्दी में अंग्रेजी श दों की भरमार करके इसके भाषाई स्वरूप को समाप्त कर दिया जाये तथा इस देश की सभी प्रादेशिक भाषाओं को हिन्दी सहित रोमन लिपि दी जाये, जिससे इस देश की आत्मा ही समाप्त हो जाये, हम अपनी स्वतन्त्रता को भूल जाये और हमें उसका मह व का कभी बोध न हो सके।
जो लोग हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी को अधिक समर्थ और योग्य मानते हैं और देवनागरी की तुलना में रोमन का अधिक स्मरण करके उसे सक्षम समझते हैं, वे तुलना करके देखें। हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के पीछे हजारों वर्ष का अनुभव और अनुसन्धान है। इसकी वैज्ञानिकता की तुलना करने का प्रयास करें तो उच्चारण की सटीकता और अर्थ प्रकाशन का सामर्थ्य किसी भी विश्व भाषा से अधिक है। आज जो अंग्रेजी की स्पेलिंग शुद्ध उच्चारण के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ते हैं, उन्हें इस अंग्रेजी से होने वाली मूर्खता का तो बोध भी नहीं होता। अभी दूरदर्शन समाचारों पर तलपदे का समाचार देते हुए। सारे अंग्रेजी पढ़े उद्घोषक तलपदे को तलपडे-तलपडे चिल्ला रहे थे।
रेल्वे में जितनी घोषणाएँ होती हैं, वे अंग्रेजी पढ़कर हिन्दी को भ्रष्ट करने वाली होती है- बांदीकुई को बन्दीकुई चिल्लाते हैं, घर घोड़ा को धारा धोरा हम अंग्रेजी से अनुवाद करके बोलते हैं और उससे होने वाली मूर्खता को हिन्दी के माथे पर मढ़ते हैं। इस प्रकार के प्रयत्न का बलपूर्वक विरोध करके अपनी भाषा और अपने गौरव को स्थापित करना होगा। जो अंग्रेजी का प्रयोग चाहते हैं वे उसका उपयोग कर उनपर हिन्दी न थोपी जाय परन्तु हिन्दी भाषा और भारतीय भाषा बोलने वालों पर अंग्रेजी क्यों थोपी जा रही है। इस अन्याय का निराकरण होना चाहिए। यह केवल हमारी भाषा के श दों में सामर्थ्य है जिसे ऋषियों ने कहा है-
एकः श दः सम्यक् ज्ञातः।
सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुक् भवति।।
– धर्मवीर