“भगवाकरण शब्द के इर्द-गिर्द भारतीय राजनीति घूम रही है। इस राजनीति में दोनों पक्ष भगवाकरण शब्द को नकार रहे हैं । कांग्रेस, कम्युनिस्ट, बसपा, सपा आदि को भगवा शब्द से एलर्जी चिढ़ सीमा तक है। एक बार मैं रेलगाड़ी में सफर कर रहा था । मरे बगल के कूपे में कांग्रेस के एक राज्य के शिक्षा मंत्री सपरिवार सफर कर रहे थे। मैं “अयोध्या विजय सूत्र” पुस्तक से कुछ परिभाषाएं पढ़ रहा था। उषा काल का समय था। बीच-बीच में मैं सूर्योदय का भी आनन्द उठा लेता था। वहां से निकलते-निकलते उन ब्राह्मण मन्त्री ने उस पुस्तक का शीर्षक देखा। वे रुके। उन्होंने पुस्तक उठाई, उलटी-पलटी। मैंने उन्हें बताया इसमें वैदिक परिभाषाएं हैं। उन्होंने कहा- वो तो ठीक है, पर ये शीर्षक- “अयोध्या विजय सूत्र” इस नाम से ही कैसा-कैसा लगता है। मैंने उन्हें बताने की कोशिश की कि इस पुस्तक में अयोध्या से तात्पर्य आठ चक्र नौ द्वार तथा हिरण्य कोष वाला सुखम शरीर रथ है। पर आगे वे कुछ समझने को तैयार ही नहीं हुए। उस एक शीर्षक शब्द “अयोध्या विजय सूत्र” ने उनके सारे सुबह स्वाद कड़वे कर दिये थे। मैंने उन्हें अपनी वह पुस्तक दे दी और सोचा कहीं वे उम्र भर कड़वाहट तो नहीं भोगते रहेंगे । वैसे वे राजनीति में आकंठ डूबे हैं अतः भगवाकरण उनकी उम्र की कड़वाहट है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ `भगवा’ का परम भक्त स्वयं को बताता है। संघ भगवा शब्द का अर्थ हिन्दू ध्वज समझता है, जिसका रंग भगवा है। वह भगवाकरण को “हिन्दू राष्ट्र” बनाने के सन्दर्भ में लेता है। संघ सूत्रों से उपजी भाजपा ने कभी भी खुलकर यह नहीं कहा कि वह भगवाकरण के पक्ष में है। उस पर जब शिक्षादि के भगवाकरण के आरोप लगे तो उसने इन्हें नकारा। उसका कहना था कि वह शिक्षा का भगवाकरण नहीं कर रही है। साहित्य वर्ग में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले लेखक स्वयं को प्रगतिशील या जनवादी आदि कहते हैं। इन सारे लेखकों ने भारतीय संस्कृति के मूल ग्रन्थ वेद, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद पढ़ना तो दूर देखे भी नहीं। कभी कदा सुनी सुनाई बातों पर ये सस्ती, छिछली, घटिया कथाओं द्वारा उनका खंडन करते हैं। एक कथा जो सारे विद्वान कमलेश्वर, परसाई, नागार्जुन और नामावर सिंह आदि ससहमत सुना चुके हैं यह है कि एक जगह मंदिर, मसजिद, गिरजा, गुरुद्वारा सब थे। सब लोग अपने अपने पूजा गृह पूजा करने जाते थे। एक आदमी ने वहां एक शौचालय बनवा दिया। फिर सारे लोग पहले उस शौचालय में हाथ मुंह धो कर अपने अपने पूजा घरों में जाने लगे। जनवादियों- प्रगतिवादियों का इस कथा का उद्देश्य पूजा घरां को शौचालय से घटिया बताना है। कमलेश्वर, नागार्जुन तथा नामावर सिंह को चर्चा में मैं बता चुका हूँ कि घर में सारे लोग एक ही पाखने- स्नानघर स्नान करके अलग अलग कुर्सी बैठ अलग अलग प्लेटों में खाना खाते हैं या अलग अलग कोर्स पढ़ते हैं तो इससे कोई भी विद्या घटिया बढ़िया नहीं हो सकती। सब समान सोते हैं। जगने पर अलग अलग हो जाते हैं। तो सोना जगने से बेहतर है। यह घटिया असंगत तर्क है। वैसे भी मन्दिर, मसजिद, गिरजे, गुरुद्वारे में अपने-अपने शौचालय होते हैं।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है `भगवा’ शब्द `भगवान’ का प्रवेशद्वार है। भगवा ध्वज भगवान की ओर इंगन करने वाली पताका है। उस स्तर उठकर देखो सृष्टि का चप्पा-चप्पा ज्ञान ध्वजों के समान भगवान की ओर इंगन कर रहा है। `भगवा’ यहां विश्व के समस्त स्फुरणों का नाम है जो भगवान की ओर इंगन करते हैं। “भज सेवायाम” धातु से `भग’ शब्द सिद्ध होता है। इससे मतुप् होने से `भगवान’ शब्द निर्मित हुआ है।
भग शब्द का अर्थ है ऐश्वर्य, सौभाग्य और समृद्धि। भगवान शब्द का भावार्थ “जो समग्र ऐश्वर्य, सौभाग्य तथा समृद्धि से युक्त, इनका न्याय पूर्वक संवाहक तथा इस सन्दर्भ में मानव द्वारा सेवन करने योग्य या भजने योग्य है।” भगवा शब्द भगवान के ऐश्वर्य पाने का हकदार होने का रास्ता दर्शाता है। यह रास्ता समृद्धि शब्द द्वारा भी अभिव्यक्त होता है। सम ऋद्धि – इद्धि इस शब्द द्वारा समृद्धि स्पष्ट है। अर्थापत्ति से इसमें सिद्धि शब्द भी जुड़ जाता है। ऋद्धि, सिद्धि, इद्धि विज्ञान वह भगवा विज्ञान है जो भगवान तक ले जाता है। ऋद्धि भौतिक ऐश्वर्य का नाम है। सिद्धि मानसिक बौद्धिक ऐश्वर्य का नाम है। इद्धि आत्मिक ऐश्वर्य का नाम है। ऋद्धि प्राप्ति का पथ कर्म है। सिद्धि प्राप्ति का पथ ज्ञान है। इद्धि प्राप्ति का पथ उपासना- अथर्व होना- या ब्रहम निकटतम होना है।
इन तीनों के प्रचलित नाम तप, तितिक्षा, मुमुक्षत्व हैं। तप द्वन्द्व सहते सौ वर्ष तक कर्म करते रहने का नाम है। द्वन्द्व- सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी, दिन-रात, मान-अपमान को कहते हैं। द्वन्द्वों में भी सतत मेहनत करते रहना तप है। इससे निःसन्देह धनादि मिलता है। श्रम और धन एक दूसरे के पर्यायवादी शब्द हैं। धन वास्तव में संचित श्रम का नाम है, यही ऋद्धि है। तप- ऋद्धि भगवा विज्ञान का प्रथम चरण है। शारीरिक द्वन्द्व सहनशक्ति तप है। मानसिक द्वन्द्व सहनशक्ति तितिक्षा है। कर्मेन्द्रियां तथा नासिका, रसना, नेत्र, त्वक एवं कान तक के क्षेत्र हैं। प्राण तथा वाक् दोनां तप तितिक्षा के तथा मन, बुद्धि, धी, चित्त, मानसिक क्षेत्र हैं। ये ज्ञान के तितिक्षा क्षेत्र हैं। लगन, धैर्य, सन्तोष पूर्वक वस्तुओं को यथावत जैसी हैं वैसी जानना तथा वैसी ही कहना एवं वैसा ही उनका उपयोग करना तितिक्षा है। सत्य के प्रति दृढ़ निष्ठा तितिक्षा है। ऋत, शृत, प्राकृतिक, नैतिक शाश्वत नियमों का दृढ़ता पूर्वक त्रुटिहीन पालन करना तितिक्षा है। इससे सिद्धि प्राप्त होती है। सिद्धि मानव में अट्ठाइस शक्तियों का अवतरण है। इन शक्तियों का तात्पर्य आज गलत लिया जाता है।
तितिक्षा भगवा विज्ञान का दूसरा चरण है। भगवा संस्कृति का तीसरा चरण मुमुक्षत्व है। ब्रहम या लक्ष्य के प्रति उत्कट सतत तीव्र लगन का नाम मुमुक्षत्व है। लक्ष्य का कर्म़ों में, मानस में, अस्तित्व में ओत-प्रोत हो हर पल उतरना या सिद्ध होते जाना मुमुक्षत्व है। लक्ष्य तक कई उपलक्ष्यों की मदद से पहुंचा जाता है। इन कार्य़ों में भी लक्ष्य का सतत ध्यान रखना मुमुक्षत्व प्रबंधन है।
भगवा का अर्थ कर्म-ज्ञान-उपासना त्रयी है। इसे ही तप, तितिक्षा, मुमुक्षत्व कहते हैं। ये तीनों वेदों के विषय है। यजुर्वेद मुख्यतः कर्म वेद है या तप वेद है। त्यागन, लक्ष्यन, संगठन (मानव तथा संसाधन उपयोग) या यजन कर्मवेद का विषय है। ऋग्वेद ज्ञान का वेद है। ज्ञान दृढ़ता का नाम तितिक्षा है। ऋग्वेद तितिक्षा वेद है। सामवेद लक्ष्य निकटतम होने उपासना का वेद है। उपासना सातत्य का नाम मुमुक्षत्व है। सामवेद मुमुक्षत्व वेद है। अथर्ववेद में तीनों वेदों का मिश्र रूप है। अथर्व-बिना कम्पन या बिना तनाव त्रयी जीने के उद्देश्य से दिया गया है। वाक् में ऋग्वेद, मन में यजुर्वेद, प्राण में सामवेद, इन्द्रियों में अथर्ववेद भर लेना और जीवन के हर कदम में इनका प्रयोग करना वास्तविक भगवाकरण है।
एक बार भिलाई होटल के एक अपार्टमेंट में कवि अशोक बाजपेयी कवियों तथा प्रबन्धकों सहित अनेक विद्वानों के मध्य चर्चा चल रही थी। चर्चा में वेद का सन्दर्भ खण्डन रूप में आने पर मैंने पूछा आपने वेद पढ़े हैं..? अशोक बाजपेयी ने गर्व में कहा- हमें वेद पढ़ने की क्या आवश्यकता है हम वेद रचते हैं। लोगों ने तालियां बजाइऔ। कहा हाँ, हम वेद रचते हैं- हम वेद रचते है। मैंने बिना हतप्रभ हुए उत्तर दिया- मैंने वेद पढ़े हैं आपकी कविताएं भी पढ़ी हैं। आपकी कविताएं सारी मिलकर भी वेद जैसा एक शब्द जो पूरी व्यवस्था परिभाषित करे नहीं गढ़ सकी हैं। ऋग्वेद के पहले मंत्र में सात शब्द सात महान विधाओं को प्रदर्शित करते हैं- `अग्नि’- अग् धातु से बना गति, ज्ञान, गमन, प्राप्ति, पूजन, सत्कार व्यवस्था का प्रतीक ब्रहम-तेज व्यवस्था दर्शाता है। `इळे’ परिशुद्ध अवस्था में मुमुक्षत्व भाव ब्रहम अर्चना भक्ति व्यवस्था दर्शाता है। पुरोहितम्- घेरकर पुर में सुरक्षिततम् निकटतम् रखते अधिकतम् हित करते द्वितीय जन्म देने की शिक्षा व्यवस्था को दर्शाता है। यज्ञस्य देव- सृष्टि के व्यक्त अव्यक्त होने के महा विज्ञान का परिचायक है। ऋत्विजम्- ऋतु ऋतु की संधियों के ज्ञाता होने के विज्ञान के माध्यम से मौसम विज्ञान दायित्व तथा परियोजना प्रबन्धन विज्ञान दर्शाता है। `होतारम्’ गन्धर्व या नाद लय या गान विधा का बीज शब्द है। और रत्नधातम् ज्योर्तिमय द्यौ द्युति अर्थात क्वांटम स्तरीय शक्ति स्फुरण विज्ञान को दर्शाता है। और यह सब मात्र एक पंक्ति में “अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देव ऋत्विजं। होतारं रत्नधातमम्” रूप में अभिव्यक्त है। और तो और वर्डस्वर्थ जैसे कवि के सारे काव्य का बीज “पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति” है। वेद में ऐसी लाखों व्यवस्था परिभाषाएं हैं। आप वेद रचना तो दूर वेद का `व’ भी नहीं जानते हैं।
अशोक बाजपेयी ने या किसी और ने कहा- पर आज इनकी कोई उपादेयता नहीं है। हम आज के वेद रचते हैं। मैं चुप रहा। पर सोचता रहा- घुग्घुओं को हजार सूरज बेकार हैं। मेरी यह सोच कमलेश्वर, नामवर, नन्दूलाल चोटिया, मायाराम सुरजन, आदि से चर्चा करने के बाद पैदा हुई है। यह और परिपक्व ही होती जा रही है।
भगवा शब्द की व्युत्पति में `भज’ सेवा शब्द हैं। यहां `इळे’ शब्द `भज्’ का परिष्कृत रूप है। ऋग्वेद का पहला मन्त्र कहता है कि हम अग्नि व्यवस्था, पुरोहितम शिक्षा व्यवस्था, यजन व्यवस्था, देव व्यवस्था, ऋत्विज व्यवस्था, होतार व्यवस्था और रत्नधातमम् ब्रह्म व्यवस्थाओं के निकटतम होते उनकी भक्ति करते अपना जीवन सार्थक करें। यह भगवाकरण है या भगवा प्रबन्धन है।
भगवा शब्द का अर्थ भगवत् अर्थात भगवान के समान भी होता है। विष्णु पुराण 6/5/66-69 में अव्यक्त, अजर, अचिन्त्य, अज, अव्यय, अनिर्देश्य, अरूप, अतीन्द्रिय, विभु (नियन्ता) व्यापक, नित्य, सर्व भूतात्मा, स्वयं अकारण, व्याप्य में व्याप्त, विद्वत जन सम्मत, ब्रहम (विस्तरण शील) परधाम, मुमुक्षु का ध्येय, श्रुति सम्मत, अक्षय, अनादि, सूक्ष्म, विष्णु परम पद आदि भगवत् शब्द के वाचक हैं। ये सारे अति उच्च प्रबन्धन या आदर्श प्रबन्धन के गुण हैं। यह असीम प्रबन्धन है। ससीम मानव इनका अपने जीवन में प्रयोग कर ऐश्वर्य सम्पन्न हो सकता है।
`भगवा’ शब्द तीन अक्षरों से बना है। भ, ग और व। भ- संभर्ता भाव, ग- नेतृत्व भाव तथा व सर्व व्यापक तथा सर्व सहेजक भाव दर्शाते हैं। सम्भर्ता अर्थात प्रकृति या संसाधनों को कार्य योग्य बनाने वाला तथा उनका पोषण करने वाला। ग- नेतृत्व के साथ-साथ गमयिता- संहर्ता और सृष्टा- रचनाकार रूप में प्रदर्शित करता है। (विष्णु पुराण 6/5/73-75) सम्भर्तीति तथा भर्ता भकारो।़र्थ द्वान्वितः। नेता गमयिता स्त्रष्टा गकारार्थस्तथा मुने। …वसन्ति तत्र भूतानि भूतात्मन्यखिलात्मनि। स च भूतेष्वशेषेशु वकारार्थस्तोतो।़व्ययः। `भ’ सम्भरण कर्ता भर्ता, `ग’ से नेतृत्वकर्ता गमनशील होता, सृष्टि करता या रचना करता तथा `व’ से सर्वभूतों में व्याप्त सर्व भूतों का निवास अर्थ भगवा में निहित है। यह सृष्टि प्रबन्धन का सूत्र है, जिसका उपयोग मानव उद्योग क्षेत्र में भी कर सकता है।
हर निर्माण के तीन कारण होते हैं- 1) निमित कारण, 2) उपादान कारण, 3) साधारण कारण। निमित कारण उसे कहते हैं जो कृति करता है- उसके कृत करने से कृति बनती है न करने से नहीं बनती। कृति करता स्वयं न बने पर कृति में परिवर्तन करे । चैतन्यता कृति का कारण है। ब्रहम तथा जीव निमित्त कारण हैं। ब्रहम असीम तो जीव ससीम है। पर इन दोनों का कृति कार्य अन्तर-अन्तर के मध्य के अन्तराल याने अन्तरिक्ष में होता है। अन्तराल शून्य रूप नहीं है वरन बिन्दु रूप है। बिना लम्बाई, चौड़ाई, गहराई, आयतन पर अस्तित्व रखते पदार्थ को बिन्दु कहते हैं। यह अन्तर अन्तर (जिसे शून्य समझा जाता है) बिन्दु बिन्दु से भरा है। इन बिन्दु बिन्दु पर अभौतिकी चिति शक्ति कार्य करती है यह शक्ति निमित्त कारण है। बिन्दु बिन्दु उपादान कारण या प्रकृति है। निमित्त कारण की शक्ति को ईक्षण कहते हैं। अन्तर-इक्ष नाम इसीलिए है। यहां स्फोट- विस्तरण संघनन कई स्तरीय पूरे ब्रह्माण्ड में सतत होने से ऊर्जा- पदार्थ का एक वितान ब्रह्माण्ड में फैल जाता है। इसमें से कुछ संसाधन रूप में और परिवर्तन में सहायक होते हैं। इन्हें साधारण कारण कहते हैं। उपादान कारण यहां बिन्दु बिन्दु प्रकृति के बिना कुछ भी नहीं बनता है। यह ही अवस्थान्तर होकर बनता बिगड़ता है। परिवर्तन सहायक कारकों को साधारण कारक कहते हैं।
ससीम निमित्त कारण हृदय में आदि कोषिका में एक अन्तर अन्तर गुहामात्र एक बिन्दु में कार्य करता है। यहां असीम ससीम निमित्त कारण मिलते हैं। सर्व सूक्ष्म होने के कारण भगवान तीनों कारणों में सूक्ष्म रूप में व्याप्त है। संसार में हर उद्योग में या कार्य में तीन कारण ही प्रबन्धन का आधार तत्व होते हैं। भगवा संस्कृति में एक सरल उदाहरण कुम्हार-बर्तन का है। कुम्हार निमित्त कारण, मिट्टी-पानी उपादान कारण तथा चाक, लकड़ी, रस्सी आदि साधारण कारण माने गए हैं। एक बड़े उद्योग में उद्योगपति मुख्य निमित्त कारण, प्रबन्धक- कार्मिक आदि उपनिमित्त कारण, कच्चा माल उपादान कारण और चल अचल मशीनें साधारण कारण हैं। इस प्रकार मूल रूप में उद्योग प्रबन्धन ही भगवाकरण है। इसका कोई भी विरोध विश्व प्रगति के पथ में बाधक है।
उद्योग लगाने के बाद नियमित अन्तराल पर उद्योग के कारण साधारण कारण- मशीनों, उपकरणों, आदि का रख रखाव किया जाता है। घर, साईकिल, स्कूटर, कार, हवाईजहाज, अन्तरिक्ष यान तक सभी के रख रखाव में उद्योगों के समान 1) दोषमार्जनम्- उत्पन्न दोषों को दूर किया जाता है। 2) हीनांगपूति- टूटे फूटे अंग बदलना, 3) अतिशय आधान- अतिरिक्त नव तकनीक का प्रावधान, से हुआ है। दोष-मार्जन, हीनांगपूति, अतिशयाधान त्रय को संस्कार करना या भगवाकरण कहते हैं। इस प्रकार विश्व के सारे उद्योग अ) निमित्त कारण, ब) उपादान कारण, स) साधारण कारण, द) दोष-मार्जनम्, इ) हीनांगपूर्ति, फ) अतिशयाधान पर ही आधारित हैं। विश्व उद्योग शास्त्र की परिभाषा ही भगवाकरण है। उद्योग ही हर राष्ट्र की उन्नति का आधार है और सारे राष्ट्र नायक चाहे कांग्रेस हो या किसी अन्य दल के वे औद्योगिक प्रगति चाहते हैं। अतः भगवाकरण का समर्थन करते हैं। वे खाते तो गुड़ हैं पर गुलगुले से परहेज करते हैं। यह तो वह बात हुई कि एक घोर अंग्रेजी मानसिकता वाला लार्ड मैकाले की औलाद व्यक्ति प्यास लगने पर जल पीता हुआ कहता है कि मैं पानी नहीं वाटर पी रहा हूँ।
`भग’ सम्यक् छै का नाम है। ये छै हैं- 1) सम्यक् ऐश्वर्य, 2) सम्यक् धर्म, 3) सम्यक् यश, 4) सम्यक् श्री, 5) सम्यक् ज्ञान तथा 6) सम्यक् वैराग्य। (विष्णु पुराण 6/5/74) यह षट् समग्र का निर्माण करते हैं। समकक्षों में प्रथम का नाम समग्र है। सम्यक् छै के आधार पर उद्योग करना या लगाना मानव जीवन को अभीष्ट है। ऐश्वर्य का आधार `ईश’ शब्द है, जिससे ईश्वर शब्द बना है। ऐश्वर्य के त्यागन से उद्योग उत्पत्ति होती है। दहलीज सीमा तक के ऐश्वर्य का उपभोग करते पूर्ण सन्तुष्ट रहते यजन याने त्यागन लक्ष्यन संगठन करना ऐश्वर्य प्रबन्धन है। सारे सफल उद्योग त्याग पर आधारित हैं। लगाए जा रहे उद्योग के निर्माण तथा परिचालन के धारणीय नियम धर्म हैं। ग्राहक, उपभोक्ता की पूर्ण सन्तुष्टि यश है। यश उद्योग में कार्यरत लोगों के धर्म पालन से उत्पन्न त्रुटिहीन उत्पादन से ही मिलता है। श्री शब्द पांच अर्थ देता है। 1) शृ-विस्तारे 2) शृण- दान- गति, 3) शृ- संहार, 4) शृ- श्रवण, 5) श्रिञ्- सेवा। विस्तार दृष्टि- व्यापक दृष्टिकोण, दान- उदार दृष्टि, दोष संहारदृष्टि, सम्प्रेषण एवं सेवा भाव उद्योग के लिए श्री कारक हैं। सूचनाओं के पुलिंदों से उनके अन्तर्संबन्ध समझते हुए उनका सटीक विविध प्रयोग ज्ञान है। और ऐश्वर्य, धर्म, श्री, ज्ञान की सिद्धि, पश्चात् प्राप्त समृद्धि के प्रति समस्त लगाव का त्याग वैराग्य है। ऐश्वर्य, नियम, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य अर्थात सम समृद्धि पूर्वक नियमबद्ध दूसरों को दृष्टि देते, उदार- विस्तारदृष्टि रखते हुए प्रगति करते सुख पूर्वक शांति से रहना भगवाकरण है। संसार का घटिया से घटिया व्यक्ति भी अपने जीवन का भगवाकरण करना चाहेगा।
तुलसीदास भगवाकरण रूप में भगवान के नौ गुणों को देह में उतारने की बात इस प्रकार कहते हैं। “एक, अनीह, अरूप, अनामा, अज, सच्चिदानंद, परधामा, व्यापक, विस्वरूप, भगवाना।” “तेहिं धर देह चरित कृत नाना।” इन श्लोकों में देह के भगवाकरण की बात कही गई है। भगवान इन नौ गुणों के आधार पर ब्रह्माण्ड की रचना तथा प्रबन्धन करता है। आत्मा भी इन नौ गुणों के देह में धारण द्वारा जीवन चरित्र का प्रबन्धन करे।
1) एक :- एक महानतम प्रबन्धन सूत्र हैं। एकालाप- अपने आप से करना बात सर्वश्रेष्ठ सम्प्रेषण है, जिसमें सच ही सच का समावेश है और सही गुण दोष समालोचना है। एकालाप जैसा सम्प्रेषण सबसे करना व्यवस्था को पारदर्शी बना देगा। एक प्रबन्धन का दूसरा प्रारूप व्यवहार प्रारूप है। भगवान के बारे में कहा गया है कि दूसरा न तीसरा चौथा भी है नहीं। पांचवा न छठा सातवां भी है नहीं । आठवां न नौवां दसवां भी है नहीं। ग्यारहवां न सौवां अरबवां भी है नहीं। प्रथम ही प्रथम ब्रह्म प्रथम स्वर है। ब्रह्म पहला है। जिस प्रकार ब्रह्म जगत में पहला है इसी प्रकार जीवात्मा इस जीवन में पहला है। जन्मता पहला है फिर उस एक को नाम दिया जाता है। नाम के बाद वह क्रमशः बहुरूपा होता जाता है। बेटा-बेटी, भाई-बहन, भतीजा-भांजा, भतीजी-भांजी दोस्त आदि रूपों में बंटता बंटता वही एक पति, पत्नि, मां, पिता आदि आदि रूपों के साथ साथ दुकानदार – नौकरीपेशा आदि आदि होता चला जाता है और कई बार अपना `एक’ पहला रूप भूल जाता है। रूप भूलते ही दुःख पाता है। वह यह भी भूल जाता है कि दूसरा भी वास्तव में उसकी ही तरह `एक’ है। इस समय वह “तू तू मैं मैं” में उलझकर एक उलझन हो जाता है। एक प्रबन्धन का सार यह है कि मानव अपना तथा दूसरे का भी एक रूप समझे और दूसरे के साथ एक-वत या आत्मवत व्यवहार करे। जो संसार के प्राणियों को आत्मवत जानता है उनसे आत्मवत व्यवहार करता है उसे कहां मोह? कहां शोक? वह तो “एक ही एक” देखता है। यह `एक’ आपसी प्रबन्धन सूत्र है। `एक’ पहचान कर आपसी सही व्यवहार करना अस्तित्व पहचयान संकट (आयडेण्टिटी क्राईसिस) का इलाज है।
2) अनीह :- अनीह का अर्थ है अन + ईह। ईहा कहते हैं इच्छा को या एषणा को। एषणाएं तीन हैं। धन की इच्छा, पुत्र परिवार की इच्छा, पद- यश की इच्छा। तीनों इच्छाओं के कारण ही मानव कर्तव्य पथ या अनुशासन पथ से गिर जाता है। सच्चा प्रबन्धक ब्रह्म के जगतकार्य के समान अनीह होता है।
3) अरूप :- ब्रह्म जगत में सूक्ष्मतम अरूप हो कार्य करता है इसीलिए सर्वव्यापक होता है। एक कुशल प्रबन्धक भी सुसम्प्रेषण व्यवस्था के कारण कार्य के चप्पे चप्पे की परिवर्तनीय अवस्था को जानता है।
4) अनामा :- खुद के नाम को खो देना अनामा होता है। सफल प्रबन्धक को लोग सार्वजनीन नाम से पुकारते हैं। इन नामों में ज्यादा अपनत्व तथा श्रद्धा का भाव होता है। महात्मा गांधी को लोग बापू कहते थे इसी प्रकार विनोबा भावे को लोग बाबा कहते थे। पवनार आश्रम में विनोबा भावे का `बाबा’ सर्वव्यापक नाम से अनामा प्रबन्धन चलता था। एक, अनीह, अरूप, अनामा ये चारों प्रबन्धन अव्यक्त या अपरोक्ष या अप्रत्यक्ष प्रबन्धन हैं। अगले पांच प्रबन्धन व्यक्त या प्रत्यक्ष प्रबन्धन हैं। अज, सच्चिदानंद, परधामा, व्यापक तथा विश्वरूपा प्रबन्धन प्रत्यक्ष प्रबन्धन हैं।
5) अज :- अज सर्वाधिक प्रत्यक्ष प्रबन्धन है। `अज’ नाम ही सदायी प्रत्यक्ष का है। बढ़े चलो बढ़े चलो जो परिश्रम से थककर चकनाचूर नहीं होता है उसे सफलता नहीं मिलती। जो भाग्य के भरोसे बैठ जाता है उसका भाग्य भी बैठ जाता है। सोने वाला कलयुग है। करवट बदलने वाला द्वापर है। उठकर खड़ा होने वाला त्रेता है, चल पड़ने वाला सतयुग है और समय से तेज दौड़ने वाला अज युग है। ब्रह्म प्रगटते अनन्त है इसलिए समय से तेज चलता अज है। ब्रह्म तब अब तब रूपी अब अब सातत्य है। हमारा अस्तित्व तब न, अब, तब न रूपी अस्सी-सौ वर्षीय जीवन है। यदि हम इसे ब्रह्म अज-अब को जीना शुरू कर दें तो अजयुग हो जाएंगे, समयजित हो जाएंगे। यह समय प्रबन्धन का महासूत्र है। जीवन में हर पल हर कार्य हर समय ब्रह्म गुणों का ही प्रयोग अजयुग होना है। उपर भगवा `अजयुग’ होने का पहला सूत्र चरैवेति चरैवेति बढ़े चलो बढ़े चलो दिया गया है। भगवाकरण का दूसरा अजयुग प्रबन्धन सूत्र इस प्रकार है- “वह भगवान इन्द्रियां एवं उनके देवों का हित करने वाला तब अब तब है- वह शून्य समय में अनन्त गतित सर्वगुण सम्पन्न हमारे निकटतम है, हम जीवन में उसे वाचें (बोलें-पढ़े) शत अधिकम वर्ष, प्राणें शत अधिकम वर्ष, सुनें वर्ष शत अधिकम, देखें वर्ष शताधिकम, आस्वादें वर्ष शत अधिकम, आगंधे वर्षशताधिकम। उसके अज सानिध्य से अदीन -स्वस्थ रहें वर्षशताधिकम तक।” आज की औद्योगिक संस्कृति दस-पन्द्रह वर्ष़ों की परियोजनाओं का समय आयोजन करती है वर्ष, माह, सप्ताह, दिवस, घण्टा, एक मिनट प्रबन्धन करती हैं। यह आज का समय-प्रबन्धन है। भगवा समय प्रबन्धन अज युग – मानव गढ़ता है जो शताधिक वर्ष जीवन का ब्रह्म गुण प्रबन्धन कर समय साध होता है। `अज’ भगवा प्रबन्धन संसार का महानतम जीवन समय प्रबन्धन है- संसार का महानतम मूर्ख भी इस सरल सत्य को समझ सकता है। उससे घटिया जड़ भौतिकीय बुद्धि व्यक्ति ही इसका विरोध करेंगे वे कलयुग नहीं जड़युग हैं। अब के पल में गुण व्यापक होकर समय जीने का नाम अज प्रबन्धन है।
6) सच्चिदानंद :- सत, सतचित, सच्चिदानंद यह सच्चिदानंद प्रबंधन है। सामान्य अर्थ़ों में यह अचल, चल, संसाधनों का आनन्दपूर्वक प्रबन्धन हैं। कलपुर्जे, उपकरण, जल, भूमि, मशीनें तथा धन अचल संसाधन है। सतचित चल संसाधन विभिन्न पदों पर कार्यरत अतन्सम्बन्धित तथा कई समूहित श्रेणी बद्ध कार्मिक हैं और सच्चिदानंद हैं कार्य नियमों अर्हताओं का निर्माता ज्ञाता जो यजन अर्थात त्यागन, लक्ष्यन, संगठन करता है। सत, सतचित और सच्चिदानन्द प्रबन्धन नहीं उद्योगशास्त्र के मूल भगवा नियम हैं।
7) परधाम :- परधाम का अर्थ है दिव्यधाम या श्रेष्ठ धाम या उच्च समकक्षों में प्रथम (श्रेष्ठ)। वह व्यवस्था जिसमें श्रेष्ठ होने की एक स्वस्थ होड़ होती है परधाम व्यवस्था है। परधाम का दूसरा अर्थ तेज या प्रभाव में श्रेष्ठ होता है। जिस व्यवस्था में हर व्यक्ति अपने अपने क्षेत्र श्रेष्ठ निर्दोष प्रभावशाली होता है उस व्यवस्था को परधाम कहते है। धाम शब्द द्यामरूप प्रयुक्त करने पर जिस व्यवस्था में प्रकाश व्यवस्था कार्य परिस्थितिकी (इरगोनामिकलि) उपयुक्त सुखद और अन्य व्यवस्थाओं से श्रेष्ठ है वह परधामा है।
8) व्यापक :- अधिष्ठान-भूत व्याप्ति उसे कहते हैं जिसमें प्रबन्धक कहीं नजर तो नहीं आता है पर उसकी छाप व्यवस्था के चप्पे-चप्पे पर स्पष्ट दिखाई देती है। यह व्यापक- भगवा प्रबन्धन है।
9) विश्वरूप :- विश्वरूप वह है जो आत्मा देह सम्बन्ध से स्पष्ट होती है। देह में रहता आत्मा ऐसा प्रतीत होता है। मानों वह देह रूप ही हो। इसी प्रकार वह प्रबन्धन जिसमें अपने अपने क्षेत्र हर प्रबन्धक- क्षेत्ररूप ही हो विश्वरूप प्रबन्धन है।
10) भगवाना :- भगवाना अर्थात् उपरोक्त नौ प्रबन्धन गुणों का हर क्षेत्र प्रयोग करने से ऐश्वर्यमयी व्यवस्था का परिचालन करने वाला। नौ गुणों के संयुक्त रूप को भी भगवान कह सकते हैं। एक अनीह, अरूप, अनामा, अज, सच्चिदानंद, परधामा, व्यापक, विश्वरूप ये नौ संयुक्त स्वरूप में एक होने पर भगवाना है। “भज सेवायाम्” उच्च कोटि की भक्ति तथा जीवन में गुणों का सेवन भगवान का वास्तविक अर्थ है। उच्च कोटि की भक्ति का वैदिक नाम `ईड’ है। इसका सटीक स्वरूप ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र है। इसका बीज स्वरूप आलेख में पूर्व में दिया जा चुका है। अधिक विस्तार `प्रथमम्’ पुस्तक में पढ़ा जा सकता है। विष्णु पुराण 6/5/66-69, 73-75 में भगवान का संक्षिप्त विवरण पूर्व में दिया गया है उसका तनिक विस्तार अपेक्षित है।
अव्यक्त – प्रबन्धन वह प्रबन्धन है जिसे `अ’ प्रबन्धन कहा जा सकता है। `अ’ संसार के सारे अक्षरों का आधार है पर सामान्यतया इसकी प्रतीति नहीं होती। यह `अ’ अपना आधार स्वरूप अक्षर में विलय कर उसे स्वरूप दे देता है। `क’ में `अ’ है, `स’ में `अ’ है। इसी प्रकार सभी अक्षरों में `अ’ आधार तथ्य है। वह प्रबन्धन जो हर कार्मिक में आधार रूप इस प्रकार सभी में `अ’ आधार तथ्य है। वह प्रबन्धन जो हर कार्मिक में आधार रूप इस प्रकार विद्यमान रहता है कि वह कार्मिक का आधार स्वरूप रहता है पर कार्मिक को उसका पता नहीं रहता है अव्यक्त प्रबन्धन है।
अजर :- अजर प्रबन्धन उस कार्य व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा निर्मित वस्तु में न्यूनतम क्षरण होता है। `जर’ का अर्थ `क्षर’ भी होता है। जिसका जरण या क्षरण या क्रमशः नाश हो उसे जर कहते है। जिसमें नाश की सम्भावना न हो या कम से कम हो उसे `अक्षर’ या `अजर’ कहते हैं। सामान्य भाषा में इसे टिकाऊ कहते है। आज सारा संसार टिकाऊ माल बनाने की दौड़ में है। इस सन्दर्भ में भगवाकरण या अजर करण या अक्षत करण का विरोध करना महा पिछड़ापन है। अक्षत करण या अजर करण वह प्रबन्धन है जिसके द्वारा पूरा सैगा चावल प्राप्त किया जाता है। अनाजों में सैगा चावल प्राप्त करना सबसे श्रम साध्य प्रक्रिया है। सैगा गेंहू, मूंग, अरहर, बाजरा, मक्का आदि आसानी से प्राप्त किया जा सकता है पर सैगा चावल प्राप्त करना अत्यधिक सावधानी, लगन की अपेक्षा रखता है। इसलिए अक्षत सारी पूजाओं के काम आता है।
अचिन्त्य :- अचिन्त्य व्यवस्था का आधुनिक नाम नवीनीकरण है। वह व्यवस्था यथार्थ में लागू कर देना जो लोगों के लिए अचिन्त्य हो या लोग जिसके बारे में सोच भी न सकें। सारी विश्व प्रगति अचिन्त्य या नवीनीकरण व्यवस्था की ही उपज है। विश्व उद्योग जगत में विन्सेंट टेलर ने प्रबन्धन विज्ञान द्वारा, एल्टन मेयो ने सामाजिक विज्ञान द्वारा, इशिकावा ने सामाजिक तकनीक द्वारा अचिन्त्य नवीन क्रांति की। हम सांस्कृतिक तकनीक सामाजिक (सांतसा) द्वारा भगवाकरण कर भारत को विश्व श्रेष्ठ करें। विश्व में नई प्रबन्धन विधा को जन्म दें। न्यूटन, आंइस्टीन आदि वैज्ञानिक अचिन्त्य विचारों के कारण ही प्रसिद्ध हुए। वेद अचिन्त्य विज्ञान पथ बताते कहता है कि लकीर के फकीर ने नया कदम बढ़ाया नया सूर्य गढ़ लिया। अचिन्त्य प्रबन्धन का आधार बीज भगवान है जिसे “ज्ञेय-अज्ञेय” (केनोपनिषद में) कहा गया है। भगवाकरण के विरोधी नवीनीकरण के विरोधी हैं। इतिहास इन्हें कभी माफ नहीं करेगा ।
`अज’ प्रबन्धन का विवरण पूर्व में दिया जा चुका है। अव्यय प्रबन्धन उन आधारों पर किए गए प्रबन्धन का नाम है जो प्रक्रिया में अतिसहायक होते हुए भी व्यय न हों। वैज्ञानिक विधि को किससे नापोगे? आधुनिक वैज्ञानिक विधि के चरण हैं 1. प्राकल्पना, 2. अवलोकन, 3. तथ्य संकलन, 4. सारिणीकरण, 5. निष्कर्ष, 6. पुनर्सिद्धि। भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक विधि का नाम परीक्षा है जिसका एक भाग अवयव है। इस परीक्षा के चरण हैं- 1. ब्रह्म गुणों के अनुरूप, 2. प्राकृतिक नियमों के अनुरूप या ऋत, 3. नैतिक नियमों के अनुरूप या शृत, 4. आठ प्रमाणों द्वारा जांचित, 5. आत्मवत नियम अनुरूप, 6. अवयव सम्मत – अवयव के पांच चरण हैं – अ) प्रतिज्ञा (प्राकल्पना), ब) हेतु (अवलोकन), स) उदाहरण (तथ्य संकलन), द) उपनय (सारिणीकरण), ई) निगमन (निष्कर्ष पुर्न निष्कर्ष) 7. आप्त या दक्ष सिद्ध नियमों के अनुरूप। सप्त परीक्षा सिद्ध तथ्य ही सत्य है। ये पूरी प्रक्रिया में व्यय नहीं होते हैं अतः अव्यय भगवान हैं।
आधुनिक वैज्ञानिक विधि जिस पर वैज्ञानिकों को नाज है – भगवा संस्कृति की परीक्षा का मात्र सातवां हिस्सा है अर्थात पन्द्रह प्रतिशत से भी कम। अंश सत्य की बुनियाद पर खड़े आज के विश्व को पूर्ण सत्य की ओर लौटना ही होगा अर्थात पूरे विश्व को भगवाकरण अपनाना ही होगा। सारा का सारा आधार संस्कृत साहित्य उपरोक्त परीक्षा के अतिरिक्त मंगलाचरण (उत्तम आरम्भ अर्ध कार्य सम्पन्न), अनुबन्ध चतुष्टय तथा साहित्य क्षेत्र में अन्य साहित्य माप दण्डों के (दशरूपकम्, औचित्य, विज्ञान, काव्य- सिद्धान्तों) अनुरूप रचित वैज्ञानिक है। मूर्ख व्यक्ति ही इसे अवैज्ञानिक या सम्प्रदायी कहकर नकार सकता है या इसका विरोध कर सकता है। अनिर्देश्य प्रबन्धन वह प्रबन्धन है जिसमें व्यवस्था या कर्मिकों को बार बार निर्देश देने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। एक बार पूर्ण विचार करके दिए गए सटीक निर्देश पूरे कार्य के दौरान पर्याप्त होते हैं। पुनर्निर्देश या अतिरिक्त निर्देश व्यवस्था में हर पदधारी अपने कार्य में इतना सुदक्ष होता है कि बिना सहायता मदद की अपेक्षा रखे अपना सारा कार्य स्वयं ही कर लेता है। यह स्व कार्यव्यवस्था होती है।
अरूप प्रबन्धन वह प्रबन्धन है जो सांचों में ढला हुआ नहीं है या नित नूतन नवीन होता रहता है। इस प्रबन्धन को पारदर्शी प्रबन्धन भी कहा जा सकता है। पाणिपादसंयुक्तम् प्रबन्धन वह है जो हस्त पाद आदि रहित या हस्तपाद आदि के संयम से युक्त या जिसमें हाथापाई आदि नहीं होती या घूंसे लात नहीं चलते। वर्तमान में हड़ताल प्रबन्धन घूंसेलात प्रबन्धन है। श्रमिक संघ प्रबन्धन चर्चाएं बातों के घूंसे लात होती है। संसद में घूंसेलात चलते लोग देख चुके हैं। इन व्यवस्थाओं का पाणिपादसंयुक्तम् अर्थात भगवाकरण होने से ये स्वस्थ संयत् शान्त हो जाएंगी तथा इनकी कार्य क्षमता असीम अति अधिक हो जाएगी।
विभु-प्रबन्धन :- विभु प्रबन्धन वह प्रबन्धन है जिसमें नियन्ता का सम्पूर्ण नियन्त्रण रहता है। जिस व्यवस्था में कार्य-लक्ष्य तथा फल नियत सटीक होते हैं व्यवस्था विभु होती है। कानूनों का निरर्थ पुलिंदा व्यवस्था घोर तहस नहस होती है अविभु होती है। व्यापक प्रबन्धन सटीक सम्प्रेषण युक्त होता है। द्वि तरफा सम्प्रेषण इसका लक्ष्य है। इसे सर्वगतं कहा गया है। हर एक में समाविष्ट और मूलरूप में समविष्ट प्रबन्धन का नाम सर्वगतं है। मधुमक्खी व्यवस्था में हर मधुमक्खी पूरे समुदाय का एक अभिन्न एकक भिन्न भिन्न होने पर भी होती है। इसकी व्यवस्था प्राकृतिक सर्वगतं है। मानव समूह व्यवस्था चैतन्य सर्वगतं इससे कहीं श्रेष्ठ हो सकती है।
नित्य प्रबन्धन :- नित्य प्रबन्धन वह है आज कल आज में जिसका सम सातत्य बना रहता है। जिस प्रकार इस धरा की अन्तरिक्ष नाव व्यवस्था सुखमय, अदिति, प्रवहणशील, अछिद्रमय, ज्योर्तिमय, उत्तम नित्य है ऐसी ही कार्यव्यवस्था नित्य प्रबन्धन को अभीष्ट है।
भूतयोनिकारणम प्रबन्धन :- भूतयोनिकारणम प्रबन्धन का अर्थ यह है कि व्यवस्था में अतिरिक्त संसाधनों की उत्पत्ति करते जाने का भी निश्चित कारण रूप प्रावधान होना चाहिए। वे व्यवस्थाएं डूब जाती हैं या थम जाती हैं जिनके निर्माण में ही विकास संसाधनों का प्रावधान नहीं किया जाता है।
व्याप्य व्याप्तम प्रबन्धन :- व्याप्य व्याप्तम प्रबन्धन वह है जिसमें संसाधन तथा उनके उपयोगकर्ता की पूर्ण उपयुक्तता है। जिस प्रकार शरीर और शरीरी एक दूसरे से इतने मिले हुए हैं कि सहसा अति दर्द तीव्रता में शरीरी कहता है- “हाय मैं मर गया..” या साधना की उच्चावस्था में साधक सम्पूर्ण अस्तित्व सहित आल्हादमय हो जाता है। ऐसी व्याप्य व्याप्त प्रबन्धन व्यवस्था भगवा संस्कृति को अभीष्ट है।
सूरयः पश्यन्ती : – विद्वान जन जिसकी प्रशंसा करते हैं वह प्रबन्धन सूरयः पश्यन्ती है। विद्वान जनों (प्रजा का नहीं) प्रशंसित उपरोक्त भगवा प्रबन्धन है।
इस प्रकार वह व्यवस्था जो अव्यक्त, अजर, अचिन्त्य, अज, अव्यय, अनिर्देश्य, अरूप, हस्तपादसंयुक्तम्, विभु, व्यापक, नित्य, भूतयोनिकारणम, व्याप्यव्याप्तम्, विद्वतजन प्रशंसित है और जो मुमुक्षत्व है (दृढ़ लगन – सतत आकांक्षा) से ब्रह्मरूप तथा परधामरूप प्राप्त होती है और श्रुति सम्मत है वह सूक्ष्म विष्णु परम पद – परम – आत्म (आत्मा की परम अवस्था) भगवत् शब्द से वाच्य है। ऐसा अनादि अक्षय आत्मा प्रबन्धक `भगवत्’ शब्द द्वारा अभिव्यक्त है। (विष्णु पुराण 6-5-66-69)
भगवान वह प्रबन्धक है “जो भौतिक अभौतिक संसाधनों की उत्पत्ति, आगमन, गमन, नाश विद्या तथा अविद्या को जानता है (विष्णु पुराण 6, 6, 78)। उपरोक्त परिभाषा में दिया भगवाकरण उद्योग शास्त्र के लिए यांत्रिकी मशीनों, उपकरणों तथा मानव शक्ति के आयोजन की आत्मा है। किसी भी यांत्रिकी मशीन को उद्योग में लगाने से पूर्व उसकी उत्पत्ति अर्थात निर्माण कारखाना व्यवस्था, गुणवत्ता, क्षमता आदि आंकना आवश्यक है। हर संस्थान उपकरणादि की उत्पत्ति जांच के लिए एक अलग विभाग रखता है। आगमन भी एक महत्वपूर्ण व्यवस्था है। भिलाई इस्पात संयन्त्र हेतु निर्माण अवस्था में विशालकाय ढाचों के आगमन पथ की सड़क, पुल आदि की पूर्व क्षमता आंकने के लिए अलग से एक समूह का निर्माण किया गया था। संयन्त्र की जटिल सड़कों और आवागमन व्यवस्था के साथ साथ, पाली के समय की भीड़ देखते ढांचों, मशीनों, उपकरणों, कच्चे माल, अवशेष आदि के आवागन-गमन के लिए विशेष व्यवस्था परियोजना निर्माण समिति द्वारा की जाती है। मशीनों के साथ साथ मानवों के आगमन-गमन का भी ध्यान रखा जाता है। ब्लास्टिंग आदि के समय को तय करने में उसकी महत्ता और बढ़ जाती है।
नाश प्रबन्धन :- नाश प्रबन्धन इसलिए महत्वपूर्ण है कि कल पुर्ज़ों की क्षरण गति चलन के अनुपात में परिवर्तित होती है इस कारण उनके विस्थापन का प्रबन्धन पूर्व में ही किया जाता है।
विद्या-अविद्या के जानने का अर्थ गुण-दोष उपयोग-अनुपयोग क्षेत्र, जानना या मानना। संसाधनों की योग्यता अयोग्यता जानकर संसाधनों का सटीक उपयोग करना है। किसी भी उद्योग या अन्य संस्थान में उत्पत्ति, आगमन, गमन, नाश, विद्या, अविद्या का षष्ट प्रबन्धन एक आवश्यकता है। `नाश’ व्यवस्था तो अपने आप में अति महत्वपूर्ण व्यवस्था है जो आगमन- भरती, गमन- सेवा निवृत्ति तथा क्षमता हास के आंकलन अर्थात विद्या-अविद्या आंकलन तथा प्रशिक्षण को दर्शाती है। क्षमता-नाश के प्रसिद्ध नियम- “हर मानव उद्योग में या व्यवस्था में अक्षमता के स्तर तक पहुंचने के लिए ही प्रवेश लेता है।” पर कई किताबें लिखीं जा चुकी हैं।
`भ’ शब्द का अर्थ प्रकाश तथा `ग’ शब्द का अर्थ गति भी है। प्रकाश और गति का एक साथ नियन्ता भगवान है। इसलिए भगवान को “प्रगटते अनन्तम्” कहा है। प्रकाश प्रकटते ही शाश्वत गति से विस्तारित होता है। भग शब्द से “प्रगटते अनन्तम्” से कई महासूत्र जो सारे ज्ञान विज्ञान के बीज सूत्र हैं, उत्पन्न हुए हैं। ये सूत्र हैं- 1) प्रगटते अनन्तम्, 2) सूक्ष्मतम् महानतम्, 3) आदितम् अन्ततम् 4) अकम्प सर्व कम्पनम्, 5) एकत्व सर्वगत, 6) निकटतम्-दूरतम्, 7) भीतरतम्-बाहरतम् 8) अरूपम्-सर्वरूपम् 9) एकम्-एक अनन्तानन्तम् आदि। शून्य शक्ति पर इक्षण शक्ति के प्रभाव या संसर्ग से स्फोट से भ + ग से आदि सृष्टि अभिव्यक्त हुई। इसी भग शब्द से ही वर्तमान प्रबन्धन की व्यक्तित्व प्रबन्धन की महान विधा का यह सूत्र अभिव्यक्त हुआ “वह आया, उसने देखा, वह फैला और उसने जीत लिया।” `भग’ शब्द इस प्रबन्धन को ठीक ठीक प्रदर्शित कर रहा है। `भग’ गुणों से युक्त राम और कृष्ण भी इस प्रबन्धन की सार्थकता सिद्ध करते हैं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि भगवाकरण न केवल भारत वरन पूरे विश्व की आवश्यकता है। तथा विश्व को इसे तत्काल अपना कर हर मानव को सुखी समृद्ध बनाना चाहिए।
स्व. डा. त्रिलोकी नाथ क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), सत्यार्थ शास्त्री, बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)