समीक्षा — यद्यपि वेद में जल स्थल और वासतीवर आदि का वर्णन नहीं तथापि वृहद्देवता ऐसा कहता है । वेदों के एक ही स्थान कुम्भ में दोनों ऋषियों की उत्पत्ति कही गई है। इसका भी भाव यह है कि क्या जल और क्या स्थल दोनों स्थानों में धर्म नियम तुल्य रूप में प्रचलित होते हैं । अब पुराणों की बात पर दृष्टि दीजिये । पुराण सर्वदा एक न एक भूल करते ही रहते हैं । पुराण ब्रह्मा से सारी उत्पत्ति मानते हैं, परन्तु बहुत सी बातें प्राचीन चली आती हैं जहाँ ब्रह्मा का कुछ भी सम्बन्ध नहीं, किन्तु पौराणिक समय में वे बातें इतनी प्रचलित थीं कि उनको दूर नहीं कर सकते थे । उर्वशी में मित्रावरुण द्वारा वसिष्ठ की उत्पत्ति और वही सूर्यवंशीय राजाओं का गुरु है, यह बात अति प्रसिद्ध थी । इस कथा को पुराण लोप नहीं कर सकते थे । अतः इनको एक नवीन कथा गढ़नी पड़ी। पुराणों की दृष्टि में असम्भव कोई बात नहीं, अतः ब्रह्मा से लेकर केवल छ : पीढ़ियों में हजारों चौयुगी काल को समाप्त कर देते हैं । कहाँ सृष्टि की आदि में ब्रह्मा का पुत्र वसिष्ठ ! और कहाँ केवल छठी पीढ़ी में शुकाचार्य के कलि युगस्थ परीक्षित् को कथा सुनाना । कितना लम्बा-चौड़ा यह गप्प है ।
यास्क की सम्मति – उर्वशी शब्द का व्याख्यान करते हुए यास्क भी ” तस्या दर्शनान्मित्रावरुणयो रेतश्चस्कन्द ” उसके दर्शन से मित्र और वरुण का रेत स्खलित हो गया, ऐसा लिखते हैं । आश्चर्य की बात है कि वे भाष्यकार निरुक्तकार आदि भी ऐसी-ऐसी जटिल कथा का आशय न बतला गये ।
वसिष्ठ पुरोहित – यही उर्वशी पुत्र मैत्रावरुण वसिष्ठ राजवंशों के पुरोहित थे । यही आशय सर्वकथाओं से सिद्ध होता है । वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में इस प्रकार लिखा है- ” कस्य चित्त्वथ कालस्य मैत्रावरुणसंभवः”। वसिष्ठस्तेजसा युक्तो जज्ञे इक्ष्वाकुदैवतम् ॥ ७ ॥ तमिक्ष्वाकुर्महातेजा जातमात्रमनिन्दितम् । वव्रे पुरोधसं सौम्यं वंशस्यास्य हिताय नः ॥ ८ ॥ रा० । उ० । सर्ग ५७ ॥ सूर्यवंशी के आदि राजा इक्ष्वाकु हैं । इन्होंने इसी उर्वशी सम्भव मैत्रावरुण वसिष्ठ को अपने पुरोहित बनाया । शुकाचार्य बड़े आदर के साथ इनको ही अपना प्रपितामह कहते हैं । अब विचार करने की बात है कि इस सबका यथार्थ तात्पर्य क्या है ? मैं अभी जो पूर्व में लिख आया हूँ, यही इसका वास्तविक तात्पर्य है । वसिष्ठ कोई आदमी नहीं हुआ, न उर्वशी आदि ही कोई देहधारी जीव है। इस प्रकार मित्र और वरुण सामान्य वाचक शब्द हैं किसी खास व्यक्ति वाचक नहीं। अब मैं नामार्थ से भी उस विषय को दृढ़ करता हूँ ।
वसिष्ठादि नामों के अर्थ – ‘ वसु’ शब्द से यह वसिष्ठ बना है । जो सबके हृदय में बसे, वह वसु तथा जो अतिशय वास करनेहारा है, वह वसिष्ठ । मैं लिख आया हूँ कि यहाँ धर्म नियम का नाम वसिष्ठ है । निःसन्देह वे ही धर्म नियम संसार में प्रचलित होते हैं जो सबके रुचिकर हों, जिन्हें सब कोई अपने हृदय में वास दे सकें । अतः धर्म नियम का नाम यहाँ वसिष्ठ रखा है । वसु शब्द, धन सम्पत्ति आदि अर्थ में भी आया है, अतः जो नियम अतिशय सम्पत्तियों को उत्पन्न करने हारा हो, प्रजाओं में जिनसे चारों तरफ अभ्युदय हो, उसी नियम का नाम वसिष्ठ है | अगस्त्य = अग+पर्वत, यहाँ अचल रूप से स्थिर जो प्रजाओं में नाना अज्ञान, उपद्रव विघ्न हैं वे ही अग रूप हैं, उन्हें जो विध्वंस करे वह अगस्त्य ” अगान् विध्रान् अस्यति विध्वंसयति यः
सोऽगस्त्यः ” । वेद में आया है कि अगस्त्यो यत्त्वा विश आजभार । ७ । ३३ । १० ॥ वसिष्ठ को अगस्त्य प्रजाओं के निकट ले जाते हैं अर्थात् ब्रह्मक्षत्रसभा से निश्चित धर्म नियम को साथ ले अगस्त्य (प्रचारकगण ) प्रजाओं के समस्त विघ्नों को विध्वस्त कर देते हैं, अत: प्रचार वा प्रचारक मण्डल का नाम यहाँ अगस्त्य कहा है। उर्वशी जिसको बहुत आदमी चाहें वह उर्वशी “याम् उरवो वहव उशन्ति कामयन्ते सा उर्वशी ” । पाठशाला, न्यायशाला आदि संस्थाओं को जहाँ-जहाँ बहुत आदमी मिलकर स्थापित करना चाहते हैं वहाँ-वहाँ ब्रह्मक्षत्रसभा की ओर से वह वह संस्था स्थापित होती है । अतः यहाँ संस्था का नाम उर्वशी है ।
आवश्यक नियम – वसिष्ठ अगस्त्य और उर्वशी आदि शब्द वेदों में अनेकार्थ प्रयुक्त हुए हैं । किन्तु अपने-अपने प्रकरण में वही एक अर्थ सदा स्थिर रहेगा अर्थात् जहाँ मैत्रावरुण वसिष्ठ कहा जाएगा उस प्रकरण भर में यही अर्थ होगा और ऐसे ही अर्थ को लेकर संगति भी लगती है ।
वसिष्ठ राजपुरोहित कैसे हुए- अब आप इस बात को समझ सकते हैं कि वसिष्ठ राजपुरोहित कैसे बने | यह प्रत्यक्ष बात है कि नियम बनाने वाले का ही प्रथम शासक नियम होता है अर्थात् जो विद्वान् नियम बनाता है वही प्रथम पालन करता है यदि ऐसा न हो तो वह नियम कदापि चल नहीं सकता । मित्र वरुण अर्थात् ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों मिलकर नियम बनाते हैं, अतः प्रथम इनका ही वह शासक होता है । जिस कारण ब्रह्मवर्ग में स्वभावतः नियम पालन करने की शक्ति है । वे उपद्रवी कदापि नहीं हो सकते, क्योंकि परम धर्मात्मा पुरुष का ही नाम ब्रह्म है । क्षत्रवर्ग सदा उद्दंड उच्छृंखल आततायी अविवेकी हुआ करते हैं, अतः इनके लिए धर्म नियमों की बड़ी आवश्यकता है जिनसे वे सुदृढ़ होकर अन्याय न कर सकें । आजकल भी पृथिवी पर देखते हैं कि क्षत्रवर्ग ही परम उद्दण्ड हो रहे हैं, इनको ही वश में लाने के लिए बड़ी-बड़ी सभा कर प्रजाओं से मिल ब्रह्मवर्ग नियम स्थापित कर रहे हैं, अतः वह वसिष्ठ नामी नियम विशेषकर क्षत्रिय कुलों का ही पुरोहित हुआ । पुरोहित शब्द का यही प्राचीन अर्थ है जो सदा आगे में रहे जिससे सम्राट् भी डरे । जिसका
अनिष्ट महासम्राट् भी न कर सकता हो। जिसके पक्ष में सब प्रजाएँ हों, जो प्रजाओं के प्रतिनिधि होकर सदा उनकी हित की बात करे और राजा को कदापि उच्छृङ्खल ने होने दे। जैसे आजकल रक्षित राज्यों को वश में रखने के लिए रेजिडेण्ट हुआ करता है ।