दुर्भाग्य से जब कोई आर्यसमाज पर, वेद पर, ऋषि पर जानबूझकर या अनजाने से वार करता है तो हमारे उपाधिधारी तथा कथित लेखक, वक्ता और योगनिष्ठ वक्ता-प्रवक्ता मौन धारण किये रहते हैं। ये लोग घर में ही ‘‘शास्त्रार्थ कर लो’’ की चुनौती देना जानते हैं। डॉ. जे. जार्डन्स जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी विषयक अपनी पुस्तक में बहुत कुछ अच्छा लिखा, परन्तु एक अनर्थकारी घटना अधूरी देकर विष परोस दिया। स्वामी सम्पूर्णानन्द जी को इसका पता चला तो आप चिन्तित हो गये। कौन उत्तर दे? आपने इन पंक्तियों के लेखक को इसका उत्तर देने को कहा। उन्हें कहा गया कि आप सार्वदेशिक व प्रान्तीय सभाओं को यह कार्य सौंपें। वे उत्तर न दे सकें तो फिर मैं इसका सप्रमाण उत्तर दूँगा। इस घटना की पूरी शव-परीक्षा कर दी जावेगी। किसने उत्तर देना था?
उस पुस्तक में वायसराय के नाम स्वामीजी के द्वारा लिखे गये एक पत्र का उल्लेख है। कहा गया कि अंग्रेज से मिलकर (कुछ लेकर)स्वामी जी ने हिन्दू-मुसलमानों में घृणा पैदा कर लड़ाया।
पूरा प्रसंग तो फिर कभी देंगे। स्वामीजी ने फिर इस सेवक को पुकारा। लेख भी दिया। भाषण भी देकर बताया। दस्तावेज हमारे पास थे। देश के लीडरों की भरी सभा में नेहरू जी के एक लाडले मियाँ जी ने दोष लगाया तो धीर-वीर-गम्भीर श्रद्धानन्द ने वहाँ हुँकार भरकर चुनौती दी कि मेरे उस पत्र का फोटो प्रकाशित किया जावे, ताकि देशवासी सच्चाई को जान सकें। यह चुनौती दी गई तो श्वेत दाढ़ी वाले उस मौलाना के चेहरे का रंग ही उड़ गया। बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन व मालवीय जी भी उस बैठक में इस शूरता की शान श्रद्धानन्द जी के निष्कलङ्क जीवन के साक्षी बने। पाठकवृन्द! आर्यसमाज ने पाखण्ड खण्डन के लिए इसे कभी मुखरित ही नहीं किया।
लम्बे समय के पश्चात् आज दम्भ की, अहंकार की चीरफाड़ कर सत्य के तथ्य का बोल बाला करके महर्षि की महिमा का सप्रमाण बखान करने का निश्चय किया है। सोचा था कि मान्य ज्वलन्त जी से इसकी विस्तृत चर्चा की जाये। फिर वही इस विषय पर लिखें। वह मिले। श्री धर्मवीर जी के शोक में हम सब डूबे थे, सो कोई और चर्चा नहीं की। दयानन्द सन्देश,वैदिक पथ आदि पत्रों में चाँदापुर शास्त्रार्थ पर लच्छेदार लेख देकर हमारे कथन को झुठलाया गया। आर्य-पत्रों के पास महाशय चिरञ्जीलाल जी ‘प्रेम’, श्री सन्तराम जी (द्वय), पं. शान्तिप्रकाश जी, डॉ. धर्मवीर जी की कोटि के सम्पादक नहीं बचे, इसलिये कुछ कहना सुनाना भैंस के आगे वीणा बजाने जैसी बात है। ज्वलन्त जी विचारशील विद्वान् हैं। उनसे निवेदन करना चाहता था।
आज सारा आर्यजगत् ध्यान से सुन ले और पढ़ ले कि जो कुछ हमने चाँदापुर शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में लिखा है व कहा है, वह सब प्रामाणिक है। हमारा लिखा एक-एक वाक्य इतिहास का कठोर सत्य है। सब पुराने दस्तावेज हम दिखा सकते हैं। वैदिक-पथ आदि में कुल्लियाते आर्य मुसाफ़ि र में से दिये गये प्रमाण को यह कहकर झुठलाया गया कि पण्डित लेखराम जी ने इसके पश्चात् ऋषि जीवन लिखा। ऋषि जीवन में यह उद्धरण नहीं दिया। इससे स्पष्ट है कि उनका मत बदल गया-यह कथन मिथ्या है। यह निर्णय थोप दिया गया। वकील बनते-बनते जज भी बन गये। आर्य जनता नोट कर ले कि शास्त्रार्थ से पूर्व चाँदापुर में कुछ मौलवी ही ऋषि से मिलकर यह निवेदन करने आये थे कि हिन्दू व मुसलमान मिलकर ईसाई पादरियों से शास्त्रार्थ करें।
भला और किसी को यह निवेदन करने की आवश्यकता ही क्या थी? ईसाई तो यह बात क्यों कहेंगे? हिन्दुओं में शास्त्रार्थ करने की हिम्मत ही कहाँ थी? उस क्षेत्र के कबीर-पंथियों को मुसलमान बनाने से बचाने के लिये तो इस मेले पर मुसलमानों से टक्कर लेने के लिये महर्षि को बुलाया गया था। यह ऋषि-जीवन के कई बड़े-बड़े लेखकों तथा राधास्वामी मत के तत्कालीन (बाद में तृतीय गुरु बने) अनुयायी श्री शिवव्रतलाल वर्मन ने सविस्तार लिखा है।
पं. लेखराम जी को झुठलाते हुए अपना निर्णय देने वाले को पता होना चाहिये कि पण्डित जी ने अपने लेखों, पुस्तकों तथा व्याख्यानों में दी गई ऋषि-जीवन विषयक सामग्री अपने द्वारा रचित ऋषि-जीवन में नहीं दी। कोई बुद्धिमान् यह नहीं मानेगा कि पण्डित जी का इस सामग्री की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं रहा था। आश्चर्य यह है कि कोई विरोधी, कोई मुसलमान तो आज पर्यन्त ऐसा न कह सका। ऐसा अनर्गल प्रलाप करके ये पत्र धन्य-धन्य हो गये! पण्डित लेखराम जी की देन उनके बलिदान, उनके साहित्य की मौलिकता पर ये सज्जन क्या जानते हैं? उन पर किये गये प्रहार का कभी उत्तर दिया क्या?
‘मन्कूल’ शब्द को समझे क्या?ः- पण्डित जी ने अपने ग्रन्थ में इस घटना का वर्णन अपने शब्दों में नहीं किया। वहाँ स्पष्ट शीर्षक दिया गया है मन्कूल अज़ मुबाहिसा चाँदापुर। ‘मन्कूल’ अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है उद्धृत करना। ये शब्द पण्डित जी के नहीं, उसी समय छपी एक पुस्तक से हैं और कॉमा में उद्धृत किये गये हैं। पण्डित जी के साहित्य पर सात बार भिन्न-भिन्न नगरों में मुसलमानों ने केस चलाये। एक बार भी इस कथन को किसी ने नहीं झुठलाया। श्री पं. भगवद्दत्त जी ने महर्षि के आरम्भिक काल के नेताओं व शिष्यों के व्यक्तित्व तथा विद्वत्ता एवं उपलब्धियों की चर्चा करते हुए पं. लेखराम जी को सर्वोपरि माना है। जिस व्यक्ति ने पं. लेखराम जी की ऊहा व तपस्या के प्रसाद ‘ऋषि जीवन की सामग्री’ के लिये प्रयुक्त ‘‘विवरणों का पुलिन्दा’’ जैसे निकृष्ट फ़त्वे को ठीक सिद्ध करने के लिये भरपूर बौद्धिक व्यायाम करने में गौरव अनुभव किया’- वह अब कुछ भी लिखता जावे, उसे खुली छूट है।