विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीत्र्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते।।
– (यजु. ४०/१४)
साधारण संस्कृत भाषा का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी इस वेदमन्त्र के सामान्य अर्थ को समझ सकता है।
अर्थ-जो विद्वान् विद्या और अविद्या को साथ-साथ जानता है, वह महान् आत्मा, अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमृत (मोक्ष) सुख को प्राप्त कर लेता है, परन्तु चिन्तन इस विषय का है कि महर्षि स्वामी दयानन्द जी सरस्वती तथा आर्यसमाज तथा वैदिक-धर्मी विद्वानों के सिद्धान्तानुसार विद्या से सुख और अविद्या से दु:ख की प्राप्ति होती है और ‘‘जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही मानना’’ विद्या है, इसके विपरीत ‘‘जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा न मानना’’ अविद्या है।
महर्षि पतञ्जलि ने भी ‘योगदर्शन’ में विद्या का लक्षण बताते हुए कहा है-
अनित्याशुचिदु:खानात्मसुनित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या
अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दु:ख को सुख और जड़ को चेतन आत्मा या परमात्मा मानना अविद्या है। इसके विपरीत मानना अर्थात् अनित्य को अनित्य, नित्य को नित्य, अपवित्र को अपवित्र, पवित्र को पवित्र, दु:ख को दु:ख, सुख को सुख, जड़ पदार्थ को जड़ एवं चेतन आत्मा व परमात्मा को चेतन मानना विद्या कहलाती है। व्याख्या के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति यह मानता है कि यह भौतिक शरीर या पंचभूतों से निर्मित ब्रह्माण्ड ऐसा ही था, ऐसा ही है और ऐसा ही रहेगा- यह नास्तिकवादियों की अविद्या नहीं है तो और क्या है? यक्ष के प्रश्र के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर ने ठीक ही उत्तर दिया है-
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयं, शेषा: स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यत: परम्।
प्रतिदिन हम देख रहे हैं कि प्राणी मृत्यु का ग्रास बनते जा रहे हैं, फिर भी सबसे अधिक आश्चर्य यह है कि शेष बचे प्राणियों (चिन्तनशील मानव) को यह विश्वास नहीं हो रहा कि एक दिन हमको भी मृत्यु का ग्रास बनना पड़ेगा। इससे बड़ी अविद्या और क्या हो सकती है? यदि यह भौतिक शरीर ऐसा ही था और ऐसा ही रहेगा तो जिन माता-पिता ने हमें उत्पन्न किया, पालन-पोषण किया, वे माता-पिता, दादा-दादी, दयानन्द, श्रद्धानन्द, राम और कृष्ण हमें छोडक़र क्यों चले गये?
पतञ्जलि ऋषि ने अविद्या का दूसरा लक्षण अशुचि को शुचि मानना अर्थात् अपवित्र को पवित्र मानना कहा है। वास्तव में ऋषि जी ने बात तो सत्य ही कही है, लेकिन शास्त्रों ने तो इस शरीर की उपमा राम की प्यारी नगरी अयोध्या से की है, यथा-
‘अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पुरयोध्या’
इस शरीर रूपी देवताओं की सुन्दर नगरी में नौ द्वार हैं तथा इसकी रक्षा हेतु अष्ट (आठ) चक्र लगे हुए हैं। कवियों ने इसकी सुन्दरता का वर्णन करते हुए अपनी कलम ही तोड़ दी है। इस शरीररूपी अयोध्या के मुख्य द्वार मुख की उपमा चन्द्रमा से की है। इसके दूसरे द्वार नेत्रों की उपमा कमलनयन कमल के फूल की पँखुडिय़ों से की है। तीसरे, मुख पर होठों की उपमा गुलाब के फू ल की पंखुडिय़ों से की है। चौथे, नाक की तुलना सुन्दर पक्षी तोते की नाक से की है। नर और मादा एक-दूसरे के साथ ऐसे समाहित हो जाते हैं कि स्वयं को भूल जाते हैं। इसी प्रकार सांसारिक भौतिक धन, ऐश्वर्य, महल, अटारी के लिये तथा उपरोक्त सुन्दर शरीर रूपी अयोध्या के पोषण के लिए प्राणी, प्राणी की हत्या कर रहा है। आज इस स्वार्थसिद्धि के लिए मानव जिस गोमाता के दुग्ध से अपने तथा अपने परिवार का पालन-पोषण करता है, उसी के खून, मांस का भी स्वाद ले रहा है।
अब उस शरीर रूपी अयोध्या का दूसरा रूप भी देखें। जिस मुख की तुलना चन्द्रमा से की गई है, उस मुख से क्या निकलता है? जिन नेत्रों की तुलना कमल की पंखुडिय़ों से की गई है, प्रात:काल उन नेत्रों से कौन-सा मल निकलता है? जिस नाक की तुलना तोते की नाक से की है, उससे क्या निकलता है? शरीर के प्रत्येक रोम से पसीने के रूप में क्या निकलता है? गुह्य इन्द्रियों से क्या निकलता है? इन सभी मलों को नाम लेने मात्र से मानव को घृणा होती है। इसके उपरान्त भी इस अशुचि, अपवित्र शरीर को पवित्र मानकर इसके पोषणार्थ मानव प्राणियों की ही नहीं, मानवों की भी हत्या कर हाड़-मांस का व्यापार करता है, जबकि इस शरीर ने एक दिन साथ छोडऩा है। जिन भौतिक पदार्थों का हम संग्रह कर रहे हैं, उन्हें हमारे साथ चलना नहीं है, फिर मानव ऐसा क्यों कर रहा है? इसी का नाम तो अविद्या है तथा जानते हुए भी न जानना है।
तीसरा, ऋषि पतञ्जलि ने अविद्या का लक्षण दु:ख को सुख मानना बताया है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दु:ख के कारणों में मानव सुख की इच्छा से फँसता है। कामवासना-जो दु:ख का कारण है, उसको सुख का कारण समझकर रावण ने सीता का हरण किया। कामवासना रूपी दु:ख के कारण को सुख मानने के कारण ही रावण स्वर्ण नगरी लंका सहित विनाश को प्राप्त हुआ। संयोगिता के मोह में फँसकर पृथ्वीराज स्वयं नष्ट हो गया तथा सम्पूर्ण भारत को लगभग ग्यारह सौ वर्षों तक गुलाम कर गया। क्रोध के वशीभूत होकर दुर्योधन ने महाभारत के युद्ध का सूत्रपात किया, जिसके परिणाम को आज तक राष्ट्र भुगत रहा है। लोभरूपी दु:ख को सुख मानने के कारण घर-बार, जमीन-जायदाद के लोभ में आज भाई-भाई की हत्या कर रहा है। पुत्र पिता का हत्यारा बना हुआ है। भाई बहन के मुकदमे चले हुए हैं। दु:ख को सुख मानने वाली अविद्या ने मानव का ही पतन नहीं किया, अपितु राष्ट्र को भी भयंकर कालग्रस्त किया हुआ है।
चौथा-‘अनात्मसु आत्मख्यातिरविद्या’ कहा है, अर्थात् अनात्म जड़ भौतिक पत्थर मूर्ति को चेतन आत्मा अथवा परमात्मा मानना अविद्या का चौथा लक्षण कहा है। इस प्रकार माता-पिता तथा ईश्वर की जड़, पत्थर मूर्ति बनाकर पूजना, उनके किये गये उपकारों के प्रति भयंकर कृतघ्रता है, जिसका कोई भी प्रायश्चित्त नहीं हो सकता है, क्योंकि आत्मा व परमात्मा जड़-पदार्थ के बने हुए नहीं है।
आत्मा का लक्षण- आत्मा का लक्षण बताते हुए न्यायदर्शनकार मुनि ने कहा है कि
‘सुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नज्ञानानि आत्मनो लिङ्गम्’
जो सुख-दु:ख को अनुभव करता हो, जिसमें इच्छा, राग, द्वेष, प्रयत्न तथा ज्ञान हो, ये लक्षण आत्मा के होते हैं। बहुत से व्यक्ति यह कहेंगे कि सुख-दु:ख का अनुभव शरीर करता है। इच्छा, राग, द्वेष, प्रयत्न और ज्ञान ये भी शरीर के ही लक्षण हैं, परन्तु उनका यह कथन तर्क एवं विज्ञान की कसौटी में नहीं आता, न ही इसका कोई प्रमाण है।
श्रुति, उपनिषद् तथा दर्शनों के प्रमाण आत्मा के लिये तो अनेक प्राप्त हो जायेंगे, जैसे उदाहरण के लिये एक प्रमाण यहाँ प्रस्तुत करते हैं-
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति:।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
– केनोपनिषद्
जो आँख से नहीं देखता, जिसके कारण से आँख देखती है, वही ब्रह्म (अध्यात्म) है।
अन्यच्च ‘परांचिखानि व्यतृणत् स्वयंभू:’ (कठोपनिषद्)। परमात्मा ने इस शरीर के पुतले में काट-काटकर पाँच छेद बनाए हैं, जिसमें से ज्ञान अन्दर आता है। ये पाँच छेद वाली पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ स्वयं कुछ नहीं करतीं, इन छेदों (इन्द्रियों) के भीतर बैठा (आत्मा) जो झाँक रहा है, वही सब ज्ञान प्राप्त करता है। आँखें खुली हों, परन्तु देखने वाला कहीं अन्यत्र मग्र हो तो आँखें खुली होने पर भी नहीं देखतीं, कान खुले होने पर भी नहीं सुनते।
इस शरीर में जो सुन्दरता, ओज, कान्ति आदि दिखाई देती हैं, वह भी आत्मा के कारण ही दिखाई देती हैं। जब आत्मा शरीर को छोडक़र निकल जाती है, तब न तो आँखें देखने का कार्य करती है, न कान सुन सकते है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ जड़ हो जाती हैं। शरीर का ओज व कान्ति नष्ट हो जाती है। इस शरीर से कोसों दूर तक दुर्गन्ध आने लग जाती है, अत: मूर्ति जड़ पदार्थ की होती है, चेतन आत्मा की नहीं।
परमात्मा का लक्षण- क्लेषकर्मविपाकाश-यैरपरामृष्ट:पुरुषविशेष ईश्वर:। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश-मानव के जीवन में ये पाँच क्लेश हैं। इन क्लेशों से ईश्वर अछूता है, दूर है। चारों प्रकार की अविद्या का वर्णन तो ऊपर कर ही चुके हैं।
अस्मिता- ज्ञान को प्राप्त करने वाला जीवात्मा तथा ज्ञान को आत्मा जिस बुद्धिरूपी साधन से प्राप्त करता है, उन दोनों को एक मानना अस्मिता नामक क्लेश है।
राग- सुख भोगने पर पुन: सुख भोगने की तृष्णा राग नामक क्लेश है।
द्वेष- दु:ख भोगने के उपरान्त उसके प्रति क्रोध, रोष द्वेष नामक क्लेश है।
अभिनिवेश- पूर्वजन्मों के संस्कारों के वश मैं मृत्यु को प्राप्त नहीं होऊँ, यह दु:ख सभी प्राणियों की तरह शब्द ज्ञानी विद्वानों को भी होता है, जिसे अभिनिवेश नामक क्लेश कहते हैं। ये पाँच क्लेश परमात्मा को नहीं छूते। उसके अन्दर नहीं आते।
कर्म- कर्म तीन प्रकार के होते हैं, जिन्हें सामान्य व्यक्ति करते हैं- सत्, असत् और मिश्रित, अर्थात् शुभ-अशुभ व मिले-जुले, पुण्य, पाप व पाप-पुण्य से मिले-जुले। इन तीनों प्रकार के कर्मों तथा इनके फलों से ईश्वर अछूता होता है। परमात्मा आत्मा से भिन्न है। आत्मा पुरुष है तो परमात्मा पुरुषविशेष ईश्वर है। परमात्मा कभी भी क्लेश, कर्म आदि के निकट नहीं आता। जीव क्लेश तथा तीनों प्रकार के कर्मों के सम्पर्क में आते रहते हैं और छूटते रहते हैं।
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्- योगदर्शनकार बताते हैं कि ईश्वर के समान तथा उससे अधिक किसी का ज्ञान नहीं है, अत: वह सर्वज्ञ है, जबकि जीवात्मा अल्पज्ञ तथा प्रकृति जड़ है। ईश्वर पूर्व समय के गुरुओं, ऋषियों, महर्षियों का भी गुरु है, क्योंकि वह तीनों कालों में एकरस रहता है। उसका जन्म-मरण नहीं होता। सृष्टि के आदि तथा पूर्व सृष्टियों में भी ईश्वर ने ही ऋषियों के हृदय में वेद का ज्ञान दिया है, अत: ईश्वर ही पूर्व के सभी गुरुओं, ऋषियों, महर्षियों का गुरु है और रहेगा।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्- इस ब्रह्माण्ड में, सृष्टि में जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, उसके कण-कण में ईश्वर का निवास उसी प्रकार है, जिस प्रकार दूध के एक-एक कण में घृत समाया हुआ होता है अथवा यह कहा जाये- जिस प्रकार फूल में सुगन्ध का वास होता है, अर्थात् वह एकदेशीय नहीं, सर्वव्यापक विभु है।
‘अकायमव्रणम्’ (यजु. ४०/४) वह परमपिता परमेश्वर निराकार शरीर रहित बिना नस-नाडिय़ों वाला है।
‘न तस्य प्रतिमास्ति’ (यजु. ३२/३) उस ईश्वर की कोई प्रतिमा अर्थात् मूर्ति नहीं है।
‘स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम्’ वह ईश्वर ही पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा तथा तारागण आदि लोक-लोकान्तरों को धारण किये हुए है।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति
इसी ईश्वर के प्रकाश को लेकर ये सब सूर्य, चन्द्र, तारे और बिजली आदि प्रकाशित होते हैं। यदि ईश्वर इनको प्रकाश न दे तो ये कुछ भी प्रकाश नहीं कर सकते। इनके अन्दर जो भी प्रकाश है, वह उनका अपना नहीं, यह प्रकाश परमात्मा का दिया हुआ ही है। जैसे सभी व्यक्ति जानते हैं कि घड़ी में अपनी गति नहीं है, किसी के द्वारा चाबी भरकर गति दी गई है, अत: इस ब्रह्माण्ड मेें जो गति दिखाई दे रही है, वह उस परमात्मा की दी हुई है।
‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’- जिस प्रकार आत्मा इस शरीर को गति दिये हुये है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड में जो गति दिखाई दे रही है, वह उस परमपिता परमेश्वर की ही दी हुई है।
अत: जड़ अनात्म को चेतन आत्मा अथवा परमात्मा मानना अविद्या का चौथा लक्षण है। इस अविद्या के चौथे लक्षण ने व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को बहुत बड़ी हानि पहुँचाई है, जिसकी पूर्ति होना संभव नहीं है।
जैसा कि महर्षि पतञ्जलि ने योगशास्त्र में कहा है-
‘विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्’
विपर्यय मिथ्या (विपरीत) ज्ञान को कहते हें। जैसे अँधेरे मेें पड़ी रज्जू (रस्सी) को साँप मान लेने से वह साँप नहीं हो सकती, इसी प्रकार जीवित माता-पिता का अपमान कर उनकी मूर्ति बना, भोग लगा, पूजा करने से माता-पिता का प्यार व सम्पत्ति प्राप्त नहीं हो सकती, न ही ऐसा व्यक्ति कभी भी जन्म-जन्मान्तरों तक मोक्ष सुख के मार्ग का अनुगामी ही हो सकता है। उस परम कृपालु ईश्वर की दया के लिये महर्षि दयानन्द के बताये आर्यसमाज के दूसरे नियम के स्वरूप वाले ईश्वर की आराधना ही करनी आवश्यक है।
शेष भाग अगले अंक में….