मित्रो बोद्ध ने कोई नया धर्म या मत नही चलाया था उनका धम्म वैदिक धर्म का एक सुधारवादी धम्म था जसी तरह वैदिक धम्म में कई मिलावट , ओर वेद विरुद्ध मत बन गये उन्हें सुधारने का कार्य बुद्ध ने किया लेकिन धीरे धीरे बुद्ध के उपदेशो में भी उनके शिष्यों ने गडबड कर दी ये धम्म भी कई सम्प्रदायों में टूट गया जिनमे अन्धविश्वास ,अश्लीलता ,जातिवाद आदि भर गये …
यहा हम बोद्ध के अष्टांगिक मार्ग की तुलना वेदों के उपदेशो से करेंगे जिससे ये साबित होगा की इस धम्म का मूल वेद ही है जो वेद में है उससे नया किसी मत की पुस्तक में नही है –
बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग धम्म चक्क प्पवत्तन सूक्त में निम्न दिए है –
(१) सम्मादिठ्ठि (सम्यक दृष्टि )- शुद्ध दृष्टि या शुद्ध ज्ञान
(२) सम्मा संकल्प (सम्यक संकल्प )-शुद्ध संकल्प
(३) सम्मा वाचा (सम्यक वाणी )- शुद्ध वाणी
(४) सम्मा कम्मन्त (सम्यक कर्म )- शुभ कर्म
(५) सम्मा आजीविका (सम्यक आजीविका )- शुद्ध जीविका वृति
(६) सम्मा व्यायाम (सम्यक व्यायाम )- शुद्ध उद्योग या परिश्रम
(७) सम्मास्ति (सम्यक स्मृति )- शुद्ध विचार
(८) सम्मा समाधि (सम्यक समाधि )- शुद्ध ध्यान व् मन की शान्ति
इन्हें बुद्ध ने आर्य अष्टांगिक मार्ग नाम दिया था ..
अब प्रत्येक को वेदों से दिखलाते है –
(१) सम्मा दिठ्ठि- ऋग्वेद में भावना से युक्त देखने ओर सुनने का उपदेश है –
भद्र कर्णेभि: श्रृणुयाम देवा भद्र पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:- ऋग्वेद १/८९/८
-मानव देखकर ओर सुनकर ही भद्र या अभद्र भावना वाला बन सकता है |
(२) सम्मा संकल्प – इस पर तो वेदों में कई मन्त्र है लेकिन हम एक ऋचा लिख देते है ताकि समझदार समझ जायेंगे –
तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु -यजु. ३४/१-६
मेरा मन शुभ विचारो .संकल्प वाला हो |
(३) सम्मा वाचा – वेदों में आया है – ” अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत -अर्थव. ३/३०/५ एक दुसरे से मनोहर वचनों का प्रयोग करते हुए मिलो |भूयास मधुसंदृश्य: -अर्थव १/३४/३ -शहद के समान मीठे होए |
(४)सम्मा कममन्त -यजुर्वेद में शुभ कर्म की प्रेरणा देते हुए कहा है – ” परि माग्ने दुश्चरिताद बाधस्व मा सुचरिते भज -यजु ४/२८ है अग्नि ! मुझे दुश्यचरित्र से रोको सुचरित्र या शुभ कर्म के लिए प्रेरित करो |
(५) सम्मा जीविका – अग्ने नय सुपथा राये -यजु ५/३६ ,७/४३ ४०/१६ है ईश्वर हमे धन प्राप्ति हेतु सुपथ मार्ग पर ले चल |
शुद्धो रयि निधारय -ऋग. ८/१५/८ है इंद्र परमएश्वर्य शाली ईश्वर हमे शुभ ऐश्वर्य प्रदान कर | इस तरह शुद्द आजीविका का उलेख वेदों में मिलता है |
(६) सम्मा व्यायाम – ऋग्वेद में श्रम के विषय में कहा है – ” भूम्या अंत प्रयेके चरन्ति रथस्य धूर्षु युक्तासो अस्तु | श्रमस्य दाय विभ्जन्त्येभ्यो यदा यमो भवति हमर्ये हित:||-ऋग्वेद १०/११४ /१० इसका भावार्थ है की परिश्रमी व्यक्ति को यम (ईश्वर ) श्रम दाय अवश्य देते है अर्थात पुरुस्कृत करते है |
(७) सम्मा सति – शुद्ध विचारों या स्मृति का नेतिक जीवन में बहुत महत्व है | वेदों में पवित्रता का उपदेश अनेक जगह हुआ है – ” य: पोता स पुनातु न: -ऋग्वेद ९/६७/२२ -जो पवित्र करने वाले है वे हमे पवित्र करे ..”मा पुनीहि: विश्वत: ” (ऋग ९/६७/२५ ) मुझे सभी ओर से पवित्र करे |
(८) सम्मा समाधि – समाधिस्थ योगीजन के विषय में वेद कहता है – तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवास: समिन्धते| विष्णोर्यत्परम पदम् ||- ऋग १/२२/२१ – जागरूक योगी जन व्यापक परमात्मा को स्वात्मा में पाते है |
उपर हमने बोद्ध मार्गो की वैदिक उपदेशो से तुलना की इन सभी से सिद्ध होता है कि वेद सभी मतो का मूल है ओर बुद्ध ने कोई नये उपदेश नही दिए वो वेद में पहले से ही थे |
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डा अम्बेडकर का खंडन प. शिवपूजन सिंह कुशवाह द्वारा भाग २
पिछले लेख में शिवपूजन सिंह जी द्वारा अम्बेडकर साहब के अछूत कौन ओर केसे का खंडन हमने प्रकाशित किया था अब शुद्रो की खोज की उन बातो के खंडन का अंश जो अम्बेडकर जी ने वैदिक विचारधरा पर आक्षेप किया था उसका प्रत्युतर है |
डा. अम्बेडकर – पुरुष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रक्षिप्त किया है | कोल बुक का कथन है कि पुरुष सूक्त छंद तथा शैली में शेष ऋग्वेद से सर्वथा भिन्न है |अन्य भी विद्वानों का मत है कि पुरुष सूक्त बाद का बना है |
शिवपूजन सिंह जी – आपने जो पुरुष सूक्त पर आक्षेप किया है ये आपकी वेद की अनभिज्ञता प्रकट करता है |आधिभौतिक दृष्टि से चारो वर्णों के पुरुषो का समुदाय एक पुरुष रूप है | इस समदाय पुरुष या राष्ट्र पुरुष के यथार्थ परिचय के लिए पुरुष सूक्त के मुख्य मन्त्र -ब्राह्मणोंsस्य मुखमासीत …(यजु ३९/११)
पर विचार करना चाहिय | उक्त मन्त्र में कहा है ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय भुजाय, वैश्य जंघाए,शुद्र पैर ,,केवल मुख पुरुष नही ,भुजाय पुरुष नही ,जंघाए पुरुष नही ,पैर पुरुष नही अपितु मुख ,भुजाय ,जंघाए ,पैर इन सबका समुदाय पुरुष है | वह समुदाय भी यदि असंगत ,या क्रमरहित अवस्था में है तो उसे हम पुरुष नही कह सकते है | उसे पुरुष तभी कहेंगे जब वो एक विशेष प्रकार के क्रम में हो ओर विशेष प्रकार से संगठित हो |राष्ट्र में मुख के स्थापन ब्राह्मण है ,भुजाओं के क्षत्रिय ,जंघाओं के वैश्य ओर पैरो के शुद्र | राष्ट्र के ये चारो वर्ण जब शरीर के मुख आदि अवयवो की तरह व्यवस्थित ओर सुसंगत हो जाते है तभी इनकी पुरुष संज्ञा है | अव्यवस्थित तथा छीनभिन अवस्था में स्थित मनुष्य समुदाय को पुरुष नही पुकार सकते है | आधिभौतिक दृष्टि में यह सुव्यवस्थित तथा एकता के सूत्र में पिरोया हुआ ज्ञान ,क्षात्र , व्यवसाय तथा परिश्रम – मजदूरी इनका निर्दशक जनसमुदाय ही एक पुरुष रूप है |
चर्चित मन्त्र का मह्रिषी दयानद इस प्रकार अनुवाद करते है ” इस पुरुष की आज्ञा के अनुसार विद्या आदि उत्तम गुण तथा सत्य भाषण ओर सत्योपदेश आदि श्रेष्ट कर्मो से ब्राह्मण वर्ण उत्पन्न होता है |इन गुण कर्मो के सहित होने से वह पुरुष उत्तम कहलाता है और ईश्वर ने बल पराक्रमयुक्त आदि पूर्वोक्त गुणों से क्षत्रिय को उत्पन्न किया | इस पुरुष के उपदेश से खेती,व्यापर ओर सब देशो की भाषाओ को जानना तथा पशुपालन आदि मध्यम गुणों से वैश्य वर्ण सिद्ध होता है | जैसे पग सबसे नीचे का गुण है वैसे मुर्खता आदि गुणों से शुद्र वर्ण सिद्ध होता है |
आपका लिखना की पुरुष सूक्त बहुत बाद में वेदों में जोड़ दिया गया सर्वथा भ्रमपूर्ण है | चारो वेद ईश्वर का ज्ञान है पुरुष सूक्त बाद का नही है | मैंने अपनी पुस्तक ऋग्वेद के १० मंडल पर पाश्चताप विद्वानों का कुठाराघात में सम्पूर्ण ” पाश्चताय और प्राच्य विद्वानों का खंडन किया है |
डा. अम्बेडकर – शुद्र क्षत्रियो के वंशज होने से क्षत्रिय है | ऋग्वेद में सुदास, शिन्यु, तुरवाशा, त्र्प्सू , भरत आदि शुद्रो के नाम आये है |
प.शिवपूजन सिंह जी – वेदों के सभी शब्द यौगिक है रूढ़ नही | आपने ऋग्वेद में जिन नामो को प्रदर्शित किया है | वे ऐतिहासिक नाम नही है| वेद में इतिहास नही है क्यूंकि वेद सृष्टि के आरम्भ में दिया ज्ञान है|
डा.अम्बेडकर – छत्रपति शिवाजी शुद्र तथा राजपूत हूणों की सन्तान है |
प.शिवपूजन सिंह जी – शिवाजी शुद्र नही वरन क्षत्रिय थे | इसके लिए अनेको प्रमाण इतिहास में भरे पड़े है | राजस्थान के प्रख्यात इतिहासक ,महोपाध्याय डा. गौरी शंकर हरीचंद औझा लिखते है – मराठा जाति दक्षिणी हिन्दुस्तान की रहने वाली है | इनके प्रसिद्ध राजा क्षत्रपति शिवाजी का मूल मेवाड़ का सिसोदिया राज्य वंश ही है | कविराज श्यामलदासजी लिखते है कि -शिवाजी महाराणा अजयसिंह के वंश में थे | यहो सिद्धांत बालकृष्ण ,लिट् आदि का है | इसी प्रकार राजपूत हूणों की सन्तान नही शुद्ध क्षत्रिय थे | श्री चिंतामणी विनायक वेद्य ऍम ए ,श्री ई.बी.कावेल ,श्री शेरिंग, श्री वहीलर, श्री हंटर, श्री क्रुक ,पंडित नागेब्द्र भट्टाचार्य आदि विद्वान् राजपूतो को शुद्ध क्षत्रिय मानते है| प्रिवी कौंसिल ने निर्णय किया है कि जो क्षत्रिय भारत में रहते है और राजपूत एक ही श्रेणी के है |
इस तरह उन्होंने अपने खंडन अम्बेडकर जी को भी पंहुचाय लेकिन अम्बेडकर जी इसके ५ साल ओर ३ माह बाद चल बसे | उन्होंने इसका प्रत्युतर भी नही दिया ओर ना ही अपनी जिद्द के कारण अपनी उन दोनों किताबो में कोई परिवर्तन किया |
डा . अम्बेडकर का खंडन प. शिवपूजन सिंह कुशवाह (आर्य समाज ) द्वारा
डा . शिवपूजन सिंह जी आर्य समाज के एक उत्क्रष्ट विद्वान् थे तथा अच्छे वैदिक सिद्धांत मंडन कर्ता थे | उन्होंने अम्बेडकर जी की दो किताब शुद्रो की खोज ओर अच्छुत कौन ओर केसे की कुछ वेद विरुद्ध विचारधारा का उन्होंने खंडन किया था | ये उन्होंने अम्बेडकर जी के देह्वास के ५ साल पूर्व भ्रान्ति निवारण एक १६ पृष्ठीय आलेख के रूप में प्रकाशित किया ओर अम्बेडकर साहब को भी इसकी एक प्रति भेजी थी | हम यहा उसके कुछ अंश प्रस्तुत करते है –
डा. अम्बेडकर – आर्य लोग निर्विवाद से दो संस्कृति ओर दो हिस्सों में बटे थे जिनमे एक ऋग्वेद आर्य ओर दुसरे यजुर्वेद आर्य थे ,जिनके बीच बहुत बड़ी सांस्कृतिक खाई थी | ऋग्वेदीय आर्य यज्ञो में विश्वास करते थे ओर अर्थ्व्वेदीय जादू टोनो में |
प. शिव पूजन सिंह जी – दो आर्यों की कल्पना आपके ओर आप जेसे कुछ मष्तिस्क की उपज है ,ये केवल कपोल कल्पना ओर कल्पना विलास है केवल | इसके पीछे कोई एतिहासिक प्रमाण नही है | कोई एतिहासिक विद्वान् भी इसका समर्थन नही करता है | अर्थववेद में किसी प्रकार का जादू टोना नही है |
डा. अम्बेडकर – ऋग्वेद में आर्य देवता इंद्र का सामना उसके शत्रु अहि वृत्र (सर्प देवता ) से होता है ,जो कालान्तर में नाग देवता के नाम से प्रसिद्ध हुआ |
प.शिव पूजन सिंह जी – वैदिक संस्कृत ओर लौकिक संस्कृत में रात दिन का अंतर है | यहा इंद्र का अर्थ सूर्य ओर वृत्र का अर्थ मेघ है यह संघर्स आर्य देवता ओर नाग देवता का न हो कर सूर्य ओर मेघ का है | वैदिक शब्दों के पीछे नेरुक्तिको का ही मत मान्य होता है नेरुक्तिक प्रक्रिया से अनभिज्ञ होने के कारण आपको यह भ्रम हुआ |
डा. अम्बेडकर – महोपाध्याय डा. काणे का यह मत है कि – ” गाय की पवित्रता के कारण ही वाजसेनी संहिता में गौ मॉस भक्षण की प्रथा थी |
प.शिवपूजन सिंह जी – काणे जी ने कोई प्रमाण नही दिया है ओर न ही आपने यजुर्वेद पढने का कष्ट उठाया | जब आप यजुर्वेद का स्वाध्याय करेंगे तो स्पष्ट आपको गौ वध निषेध के प्रमाण मिलेंगे |
डा. अम्बेडकर – ऋग्वेद से ही स्पष्ट है कि तत्कालीन आर्य गौ वध करते थे ओर गौ मॉस भक्षण करते थे |
प. शिवपूजन सिंह जी – कुछ प्राच्य एवम पश्चमी विद्वान् आर्यों पर गौ मॉस भक्षण का दोषारोपण करते है किन्तु कुछ विद्वान् इस मत का खंडन भी करते है | वेद में गौ मॉस भक्षण का विरोध करने वाले २२ विद्वानों का मेरे पास स सन्धर्भ प्रमाण है | ऋग्वेद में आप जो गौ मॉस भक्षण का विधान आप कह रहे है वो लौकिक संस्कृत ओर वैदिक संस्कृत से अनभिज्ञ होने के कारण कह रहे है | जेसे वेद में उक्ष बल वर्धक औषधि का नाम है भले ही लौकिक अर्थ उसका बैल ही क्यूँ न हो |
डा. अम्बेडकर – बिना मॉस के मधु पर्क नही हो सकता है | मधुपर्क में मॉस और विशेष रूप से गौ मॉस एक आवश्यक अंश होता है |
प.शिवपूजन सिंह जी – आपका यह विधान वेद पर नही अपितु गृहसूत्रों पर आधारित है | गृहसूत्रों के वचन वेद विरोध होने से मान्य नही है | वेद को स्वत: प्रमाण मानने वाले मह्रिषी दयानद के अनुसार – दही में घी या शहद मिलाना मधुपर्क कहलाता है | उसका परिमाण १२ तौले दही में ४ तौले शहद या घी मिलाना है |
डा. अम्बेडकर – अतिथि के लिए गौ हत्या की बात इतनी समान्य हो गयी थी कि अतिथि का नाम ही गौघन पड़ गया था अर्थात गौ की हत्या करने वाला |
प. शिवपूजन सिंह जी – ” गौघ्न”का अर्थ गौ की हत्या करने वाले नही है | यह शब्द गौ और हन दो के योग से बना है | गौ के अनेक अर्थ है – वाणी,जल ,सुखविशेष ,नेत्र आदि | धातुपाठ में मह्रिषी पाणिनि हन का अर्थ गति ओर हिंसा बतलाते है | गति के अर्थ है – ज्ञान ,गमन ,प्राप्ति | प्राय सभी सभ्य देशो में जब कभी किसी के घर अतिथि आता है तो उसके स्वागत करने के लिए ग्रह पति घर से बहार आते हुए कुछ गति करता है ,उससे मधुर वाणी में बोलता है | फिर उसका जल से स्वागत करता है , फिर उसके लिए कुछ अन्य सामग्री प्रस्तुत करता है ,यह जानने के लिए की प्रिय अतिथि इन सत्कारो से प्रसन्न है या नही गृहपति की आँखे भी उसकी ओर टकटकी लगाये होती है | गौघ्न का अर्थ हुआ – गौ: प्राप्यते दीयते यस्मै स गौघ्न: अर्थत जिसके लिए गौदान दी जाती है , वह गौघ्न कहलाता है |
डा. अम्बेडकर- हिन्दू चाहे ब्राह्मण हो या अब्राह्मण ,न केवल मासाहारी थे अपितु गौमासाहार भी थे |
प.शिवपूजन सिंह जी -ये बात आपकी भ्रम है , वेदों में गौ मॉस भक्षण का विधान की बात जाने दीजिये मॉस भक्षण भी नही है |
डा. अम्बेडकर – मनु ने भी गौ हत्या पर कोई कानून नही बनाया बल्कि विशेष अवसरों पर उसने गौ मॉस भक्षण को उचित ठहराया है |
प.शिवपूजन सिंह जी – मनु स्मृति में कही भी मॉसभक्षण का विधान नही है ओर जो है वो प्रक्षिप्त है | आपने भी इस बात का कोई प्रमाण नही दिया की मनु ने कहा पर गौ मॉस भक्षण उचित ठहराया है | मनु (५/५१) के अनुसार मॉस खाने वाला ,पकाने वाला ,क्रय ,विक्रय करने वाला इन सबको घातक कहा है |
ये उपरोक्त खंडन के कुछ अंश थे इसमें पूर्व पक्ष अम्बेडकर का अछूत कौन ओर कैसे से था |
अब इस लेख का अगला अंश दूसरी पोस्ट में प्रसारित किया जाएगा जिसमे शिवपूजन सिंह जी द्वारा अम्बेडकर जी की शुद्र कौन पुस्तक के खंडन का कुछ अंश होगा |
अम्बेडकर वादी का गलत गायत्री मन्त्र का अर्थ और उसका प्रत्युत्तर
उस पोस्ट मे उस अम्बेडकरवादी ने प्रचोदयात् शब्द को प्र+चोदयात को अलग कर के अत्यन्त असभ्य अर्थ किया है। इस मन्त्र पर विचार करने से पहले संस्कृत के कुछ शब्दो पर विचार करे जो हिन्दी मे बिलकुल अलग अर्थों मे प्रयोग करते हैं।संस्कृत के अनेक शब्द हिन्दी में अपना अर्थ आंशिक या पूर्ण रूप से बदल चुकें हैं।
पूरण रूप से अर्थ परिवर्तन- उदाहरण-
1-अनुवाद- (हिन्दी)-भाषान्तर, Translation
(संस्कृत)- विधि और विहित का पुनःकथन (विधिविहितस्यानुवचनमम्नुवादः -न्यायसूत्र 4।2।66),
प्रमाण से जानी हुई बात का शब्द द्वारा कथन( प्रमाणान्तरावगतस्यार्थस्य शब्देन सङ्कीर्तनमात्रमनुवादः -काशिका)
2-जयन्ती- (हिन्दी)- जन्म तिथि (संस्कृत)—पताका,आयुर्वेद में औषधि
3- प्रकाशन- (हिन्दी)किसी पुस्तक को छपना या छपवाना, Publication (संस्कृत) – उजाला, प्रकट करना
4-सौगन्ध-(हिन्दी)- कसम (संस्कृत)- सुगन्धि, सुगन्धि युक्त
5-कक्षा- (हिन्दी)- विद्यालय की श्रेणि (संस्कृत)- रस्सी, हाथी को बान्धने की जंजीर, परिधि
6-निर्भर-(हिन्दी)- आश्रित (संस्कृत)-अत्याधिक, जैसे निर्भरनिद्रा= गहरी नींद (हितोपदेश)
7- विश्रान्त- (हिन्दी) थका हुआ (संस्कृत) – विश्राम किया हुआ
आंशिक रूप से अर्थ परिवर्तन – उदाहरण-
1- धूप- (हिन्दी)- सूर्य का ताप, सुगंधित धुंआ (संस्कृत)-सुगन्धित धुंआ, सूर्य ताप संस्कृत में नहीं है
2- वह्नि- (हिन्दी)- आग (संस्कृत)- आग, ले जानेवाला
3- साहस- (हिन्दी) – हिम्मत, कठिन कार्य में दृढता, उत्साह,वीरता, हौसला आदि।
(सस्कृत) संस्कृत में साहस के ये अर्थ भी हैं परन्तु संस्कृत में साहस शब्द लूट, डाका, हत्या आदि के अर्थों में प्रयोग होता है।4 प्रजा- (हिन्दी)- राजा के अधीन जनसमूह (संस्कृत)- राजा के अधीन जनसमूह, सन्तान
पुरानी हिन्दी पुस्तकों मे भी ऐसे शब्दों का प्रयोग मिलता है जो आधुनिक हिन्दी के अर्थों के प्रतिकूल और संस्कृत के शब्दों के अनुकूल है —-उदाहरण –
गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस –
1- मुदित महीपति मंदिर आए । सेवक सचिव सुमंत बुलाए ॥ यहाँ मंदिर का अर्थ देवालय न होकर राजमहल है।
2- करहूँ कृपा प्रभु आस सुनी काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥ – यहाँ पर निर्भर का अर्थ आश्रित न हो कर भरपूर है ।
3- खैर खून खांसी खुशी क्रोध प्रीति मद पान। रहिमन दाबे न दबे जानत सकल जहान॥
यहाँ पर पान का अर्थ हिन्दी मे पान का पत्ता (ताम्बूल) न होकर पीना है। आधुनिक हिन्दी मे पान का प्रयोग पौधे के पत्ते के लिए होता है ।
हिन्दी मे बहुत से शब्द ऐसे हैं जो देशज शब्द कहलाते हैं जो संस्कृत से कोई सम्बंध नहीं रखते जैसे लड़का, छोरा, लुगाई, चारपाई, कुर्सी आदि।
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यदि मैं इंगलिश के CAT का अर्थ कुत्ता , RAT का अर्थ हाथी करूँ और यह जिद्द करूँ कि सभी इंगलिश जानने वाले गधे हैं। केवल मेरा अर्थ ही सही माना जाए तो क्या यह कोई स्वीकार करेगा। इसलिए गायत्री मंत्र का अर्थ भी वेद व संस्कृत के विशेषज्ञों द्वारा किया गया ही स्वीकार किया जाएगा।
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नीचे वेद के विद्वान महर्षि दयानन्द जी द्वारा सत्यार्थ प्रकाश मे गायत्री मंत्र का जो अर्थ किया है वह दिया जा रहा है।
ओ३म् भूर्भुवः स्व: । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
इस मन्त्र में जो प्रथम (ओ३म्) है उस का अर्थ प्रथमसमुल्लास में कर दिया है, वहीं से जान लेना। अब तीन महाव्याहृतियों के अर्थ संक्षेप से लिखते हैं-‘भूरिति वै प्राणः’ ‘यः प्राणयति चराऽचरं जगत् स भूः स्वयम्भूरीश्वरः’ जो सब जगत् के जीवन का आवमार, प्राण से भी प्रिय और स्वयम्भू है उस प्राण का वाचक होके ‘भूः’ परमेश्वर का नाम है। ‘भुवरित्यपानः’ ‘यः सर्वं दुःखमपानयति सोऽपानः’ जो सब दुःखों से रहित, जिस के संग से जीव सब दुःखों से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘भुवः’ है। ‘स्वरिति व्यानः’ ‘यो विविधं जगद् व्यानयति व्याप्नोति स व्यानः’ । जो नानाविध जगत् में व्यापक होके सब का धारण करता है इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘स्वः’ है। ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक के हैं। (सवितुः) ‘यः सुनोत्युत्पादयति सर्वं जगत् स सविता तस्य’। जो सब जगत् का उत्पादक और सब ऐश्वर्य का दाता है । (देवस्य) ‘यो दीव्यति दीव्यते वा स देवः’ । जो सर्वसुखों का देनेहारा और जिस की प्राप्ति की कामना सब करते हैं। उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) ‘वर्त्तुमर्हम्’ स्वीकार करने योग्य अतिश्रेष्ठ (भर्गः) ‘शुद्धस्वरूपम्’ शुद्धस्वरूप और पवित्र करने वाला चेतन ब्रह्म स्वरूप है (तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग (धीमहि) ‘धरेमहि’ धारण करें। किस प्रयोजन के लिये कि (यः) ‘जगदीश्वरः’ जो सविता देव परमात्मा (नः) ‘अस्माकम्’ हमारी (धियः) ‘बुद्धीः’ बुद्धियों को (प्रचोदयात्) ‘प्रेरयेत्’ प्रेरणा करे अर्थात् बुरे कामों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे।
यहाँ ओ३म का अर्थ – सर्वव्यापक रक्षक आदि है
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जो चित्र मैंने पोस्ट के साथ लगाया है उसमे सायण (SY) महीधर (Mah) उदगीथ (U ) व आचार्य सायण की भाष्य भूमिका (BB) का उदाहरण दिया है।
प्रचोदयात् के अर्थ को रेखांकित किया है
—
क्या आर्य विदेशी थे ?
आजकल एक दलित वर्ग विशेष (अम्बेडकरवादी ) अपने राजनेतिक स्वार्थ के लिए आर्यों के विदेशी होने की कल्पित मान्यता जो कि अंग्रेजी और विदेशी इसाई इतिहासकारों द्वारा दी गयी जिसका उद्देश्य भारत की अखंडता ओर एकता का नाश कर फुट डालो राज करो की नीति था उसी मान्यता को आंबेडकरवादी बढ़ावा दे रहे है | जबकि स्वयम अम्बेडकर जी ने “शुद्र कौन थे” नाम की अपनी पुस्तक में आर्यों के विदेशी होने का प्रबल खंडन किया है | आश्चर्य की बात है कि अम्बेद्कर्वादियो के आलावा तिलक महोदय जेसे अदलितवादी लेखक ने भी आर्यों को विदेशी वाली मान्यता को बढ़ावा दिया है | पहले इस मान्यता द्वारा द्रविड़ (दक्षिण भारतीय ) और उत्तर भारतीयों में फुट ढल वाई गयी जबकि जिसके अनुसार उत्तर भारतीयों को आर्य बताया और उन्हें विदेशी कह कर मुल्निवाशी दक्षिण भारतीयों का शत्रु बताया और हडप्पा और मोहनजोदड़ो को द्रविड सभ्यता बताया लेकिन फिर बाद में इन्होने द्रविड़ो को भी विदेशी बताया और भारत में मुल्निवाशी दलित और आदिवासियों को बताया .. जबकि न तो उन्होंने आर्यों को समझा और न ही दस्युओ को ,वास्तव में आर्य नाम की कोई नस्ल या जाति कभी थी ही नही आर्य शब्द एक विशेषण है जिसका अर्थ श्रेष्ट है | और कई लोगो ,महापुरुषों और भाषाओ में आर्य शब्द का प्रयोग किया गया है | आर्य शब्द की मीमासा से पहले मै कुछ अंश विदेशी इतिहास कारो और विद्वानों के उद्दृत करता हु जिससे उन लोगो के षड्यंत्र और कपट का पता आप लोगो को चलेगा … इस सन्धर्भ में मेकाले का प्रमाण देता हु मेकाले ने अपने पिता को एक पत्र लिखा था जिसमे उसने उलेख किया है कि हिन्दुओ को अपने धर्म और धर्मग्रन्थो के खिलाफ भड़का कर कर अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार कर इसाईयत को बढ़ावा देना था ,देखे मेकाले का वह पत्र –
इसी तरह वेदों के एक मन्त्र में उपदेश करते हुए कहा है ” कृण्वन्तो विश्वार्यम ” अर्थात सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाओ यहाँ आर्य शब्द श्रेष्ट के अर्थ में लिया गया है यदि आर्य कोई जाति या नस्ल विशेष होती तो सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाओ ये उपदेश नही होता |
- ऋग्वेद १/१०३/३ ऋग. १/१३०/८ और १०/४९/३ में आर्य का प्रयोग श्रेष्ठ के अर्थ में हुआ है |
- ऋग्वेद ५/३४/६ ,१०/१३८/३ में ऐश्वर्यवान (इंद्र ) के रूप में प्रयुक्त हुआ है |
- ऋग्वेद ८/६३/५ में सोम के विशेषण में हुआ है |
- ऋग्वेद १०/४३/४ में ज्योति के विशेषण में हुआ है |
- ऋग्वेद १०/६५/११ में व्रत के विशेषण में हुआ है |
- ऋग्वेद ७/३३/७ में प्रजा के विशेषण में हुआ है |
- ऋग्वेद ३/३४/९ में वर्ण के विशेषण में हुआ है |
ऋग्वेद १०/३८/३ में ” दासा आर्यों ” शब्द आया है यहाँ दास का अर्थ शत्रु ,सेवक ,भक्त आदि ले और आर्य का महान ,श्रेष्ट और बलवान तो दासा आर्य इस पद का अर्थ होगा बलवान शत्रु ,महान भक्त .श्रेष्ठ सेवक आदि | यहाँ दास को आर्य कहा है |
”
दस्यु अनार्य शब्दों की मीमासा – कुछ इतिहासकारों का मत है कि वेदों में दास ,असुर आदि शब्दों द्वारा भारत के मुल्निवाशियो (द्रविड़ो या आदिवासियों ,दलितों ) को सम्बोधित किया है जबकि वेदों में दास ,असुर शब्द किसी जाति या नस्ल के लिए प्रयुक्त नही हुआ है बल्कि इसका भी आर्य के समान विशेषण ,विशेष्य आदि पदों में प्रयोग हुआ है | यहा कुछ प्रमाण द्वरा स्पष्ट हो जाएगा – अष्टाध्यायी ३/३/१९ में दास का अर्थ लिखा है -दस्यते उपक्षीयते इति दास: जो साधारण प्रत्यन्न से क्षीण किया जा सके ऐसा साधारण व्यक्ति वा. ३/१/१३४ में आया है ” दासति दासते वा य: स:” अर्थात दान करने वाला यहा दास का प्रयोग दान करने वाले के लिए हुआ है | इसी के ३/३/११३ में लिखा है ” दासति दासते वा अस्मे” अर्थत जिसे दान दिया जाए यहा दान लेने वाले को दास कहा है अर्थात ब्रह्मण यदि दान लेता है तब उसे भी दास कहते है |” इसी में ३/१/१३४ में दास्यति य स दास: अर्थात जो प्रजा को मारे वह दास ” यहा दास प्रजा को और उसके शत्रु दोनों को कहा है | अष्टाध्यायी ५/१० में हिंसा करने वाले ,गलत भाषण करने वाले को दास दस्यु (डाकू ) कहा है | निरुक्त ७/२३ में कर्मो के नाश करने वाले को दास कहा है | दास शब्द का वेदों में विविध रूपों में प्रयोग –
- मेघ के विशेषण में ऋग्वेद ५/३०/७ में हुआ है |
- शीघ्र बनने वाले मेघ के रूप में ऋग्वेद ६/२६/५ में हुआ है |
- बिना बरसने वाले मेघ के लिए ७ /१९/२ में हुआ है |
- बल रहित शत्रु के लिए ऋग्वेद १०/८३/१ में हुआ है |
- अनार्य (आर्य शब्द की मीमासा दी हुई है उसी का विलोम अनार्य है अत: ये भी विशेषण है ) के लिए ऋग्वेद १०/८३/१९ में हुआ है |
- अज्ञानी ,अकर्मका ,मानवीय व्यवहार से शून्य व्यक्ति के लिए ऋग्वेद १०/२२/८ में प्रयोग हुआ है |
- प्रजा के विशेषण में ऋग्वेद ६/२५/२,१०/१४८/२ और २/११/४ में प्रयोग हुआ है |
- वर्ण के विशेषण रूप में ऋग्वेद ३/३४/९ ,२/१२/४ में हुआ है |
- उत्तम कर्महीन व्यक्ति के लिए ऋग्वेद १०/२२/८ में दास शब्द का प्रयोग हुआ है अर्थात यदि ब्राह्मण भी कर्महीन हो जाय तो वो भी दास कहलायेगा |
- गूंगे या शब्दहीन के विशेषण में ऋग्वेद ५/२९/१० में दास का प्रयोग हुआ है |
इन विवेचनो से स्पष्ट हो जाता है कि दास शब्द का प्रयोग किसी नस्ल या जाति के लिए नही हुआ ये निर्जीव बादल आदि और सजीव प्रजा आदि दोनों के लिए भी हुआ है | इसी तरह असुर शब्द भी विविध अर्थो में प्रयुक्त हुआ है – ” इसका प्रयोग भी आर्य के विलोम में अनेक जगह हुआ है | ” निघंटु में मेघ के पर्याय में असुर का प्रयोग हुआ है | ऋग्वेद ८/२५/४ में असुर का अर्थ बलवान है | ईरान में अहुरमजदा कर ईश्वर के नाम में प्रयोग किया जाता है | स्कन्द स्वामी निरुक्त की टीका करते हुए पृष्ठ १७२ पर असुर का अर्थ प्राणवानुदगाता कियाहै | दुर्गाचार्य ने पृष्ठ ३६१ पर प्रज्ञावान अर्थ किया है | उपरोक्त सभी उदाहरणों से स्पष्ट है कि वेदों में दास ,आर्य ,असुर कोई विशेष जाति ,नस्ल के लिए प्रयुक्त नही हुए है ..जबकि कुछ लोग कुचेष्टा द्वारा वेदों में आर्य अनार्य का अर्थ दर्शाते है | कुछ विशेष शब्दों को देख उन्हें आदिवासी या मूलनिवासी बताते है | इसमें एक उदाहरण इंद्र और वृत्र के युद्ध का दिया जाता है जबकि ये कोई युद्ध नही बल्कि आकाशीय घटना है इस बारे में शतपत ब्राह्मण में स्पष्ट लिखा है – – “ तस्मादाहुनैतदस्मि यद देवा सुरमिति ” (शतपत ११/६/१/९ ) अर्थात वृत्रा सुर युद्ध हुआ नही उपमार्थ युद्ध वर्णन है | इस के बारे में हमारे निम्न लेख में विस्तार पूर्वक देख सकते है – ” वेदों में इंद्र अब कुछ उन शब्दों पर गौर करेंगे जिन्हें मुल्निवाशी या आदिवासी बताया है | वेद और आदिवासी युद्ध – वेदों में इतिहास नही है इस बारे में पिछले कई लेखो और आगे भी कई लेखो में लिखते रहेंगे लेकिन कुछ लोग वेदों में जबरदस्ती बिना निरुक्त और वेदांगो की साहयता से किये हुए भाष्य को पढ़ या स्वयम कल्पना कर वेदों में इतिहास मान कर उसमे कई आदिवासी और मूलनिवासी सिद्ध करते है | इनमे से कुछ निम्न है – (अ) काले रंग के अनार्य या आदिवासी – ऋग्वेद में आये कृष्ण शब्द को देख कई लोगो ने काले रंग के आदिवासी की कल्पना की है ये बिलकुल वेसे ही है जेसे मुस्लिम शतमदीना देख मदीना समझते है , ईसाई ईश शब्द को ईसामसीह ,रामपालीय कवीना शब्द से कबीर , वृषभ शब्द से जैन ऋषभदेव ऋग्वेद १/१०१/१ ,१/१३०/८ ,२/२०/७ ,४/१६/१३ और ६/४७/२१ ,७/५/३ में कृष्ण शब्द का प्रयोग हुआ है जिसे अम्बेडकरवादी असुर मूलनिवासी बताते है | जबकि १/१०१/१ में कृष्णगर्भा शब्द है जिसका अर्थ नेरुक्तिक प्रक्रिया से मेघ की काली घटा होता है | ऋग्वेद ७/१७/१४ में सायण ने भी कृष्ण का अर्थ काले बादल किया है | ऋग्वेद १/१३०/८ में त्वच कृष्णामरन्ध्यत इस मन्त्र में काले मेघ छा जाने पर अन्धकार हो जाने का वर्णन है ..इस मन्त्र की व्याख्या में एक पुराने भाष्यकार वेंकट माधव ने त्वच कृष्ण का अर्थ मेघ वशमनयत किया है |ऋग्वेद २/२०/७ में कृष्णयोनी शब्द है यहा योनी शब्द दासी के विशेषण में आया है और कृष्ण का अर्थ काला मेघ और दासी का अर्थ मेघ की घटाए अत कृष्ण योनि का अर्थ हुआ मेघ की विनाशकारी घटाए | कृष्णयोनी – कृष्णवर्णा: मेघ: योनीरासा ता: कृष्णयोन्य दास्य: (वेंकट ) ऋग्वेद ४/१६ /१३ में भी कृष्ण का अर्थ काले मेघ है | ऋग्वेद ६/४७/२१ पर महीधर ने भी कृष्ण का अर्थ कोई व्यक्ति विशेष के लिए नही कर काली रात्रि किया है | ऋग्वेद ७/५/३ में अस्किनी पद आया है जिसका अर्थ काले रंग की जाति पाश्चात्य विद्वानों ने किया है जबकि निघंटु १/७ में इसको रात्रि का पर्याय दिया है जिसका अर्थ है अँधेरी रात अत: स्पष्ट है कि वेदों में कोई काले आदिवासी ,काले मूलनिवासी नही है बल्कि ये सब मेघ ,रात्रि आदि के लिए प्रयुक्त हुए है | (ब) चपटी नाक वाले आदिवासी – ऋग्वेद ५/२९/१० में अनास शब्द आया है जिसका अर्थ पश्चमी विद्वानों ने चपटी नाक वाले आदिवासी किया है | जबकि धातुपाठ अनुसार अनास का अर्थ होगा नासते शब्द करोति अर्थात जो शब्द नही करता है अर्थात बिना गरजने वाला मेघ (स ) लिंग पूजक आदिवासी – ऋग्वेद ७/२१/५ और १०/९९/३ में शिश्नदेव शब्द आया है जिसे कुछ लोग लिंग पूजक आदिवासी बताते है चुकि सिन्धु सभ्यता में कई लिंग और योनि चित्र मिले है जिससे उनका अनुमान किया जाता है जबकि शिश्नदेवा का अर्थ यास्क ने निरुक्त ४/१९ में निम्न किया है – ” स उत्सहता यो विषुणस्य जन्तो : विषमस्य मा शिश्नदेवा अब्रह्मचर्या ” यहा शिश्नदेव का अर्थ अब्रह्मचारी किया है अर्थात ऐसा व्यक्ति जो व्यभिचारी हो | आदिवासियों के विशिष्ट व्यक्ति और उनकी समीक्षा – पाश्चात्य विद्वानों और उनके अनुयायियों ने वेदों में से निम्न शब्द शम्बर , चुमुरि ,धुनि ,प्रिप्रू ,वर्चिन, इलिविश देखे और इन्हें आदिवासियों का मुखिया बताया | (अ) शम्बर – ये ऋग्वेद के १/५९/६ में आया है यास्क ने निरुक्त ७/२३ में शम्बर का अर्थ मेघ किया है ” अभिनच्छम्बर मेघम ” (ब) चुमुरि – यह ऋग्वेद के ६/१८/८ में आया है चुमुरि शब्द चमु अदने धातु से बनता है | चुमुरि का अर्थ है वह मेघ जो जल नही बरसाता | (स) वर्चिन – यह ऋग्वेद के ७/९९/५ में है ये शब्द वर्च दीप्तो धातु से बना है जिसका अर्थ है वह मेघ जिसमे विद्युत चमकती है | (द) इलीबिश – ये ऋग्वेद १/३३/१२ में है इस शब्द से मुस्लिम कुछ विद्वान् शेतान इब्लीस की कल्पना करते है जो की कुरआन में ,बाइबिल आदि में आया है लेकिन यहा वेदों में यह कोई शेतान नही है सम्भवत वेदों के इसी शब्द से अरबी ,हिब्रू आदि भाषा में इब्लीस शब्द प्रचलित हुआ हो क्यूंकि चिराग ,अरव , अल्लाह ,नवाज आदि संस्कृत भाषा से उन भाषाओ में समानता दर्शाते शब्द है | निरुक्त ६/१९ में इलीबिश के अर्थ में यास्क लिखते है ” इलाबिल शय: ” अर्थात भूमि के बिलों में सोने वाला अर्थात वृष्टि जल जब भूमि में प्रवेश कर जाता है तो उसे इलिबिश कहते है | (य) पिप्रु – ये ऋग्वेद ६/२०/७ में आया है ये शब्द ” पृृ पालनपूरणयो: ” धातु से बनता है | जिसका अर्थ है ऐसा मेघ जो वर्षा द्वारा प्रजा का पालन करता है | (र) धुनि – ये ऋग्वेद ६/२०/१३ में है | निरुक्त १०/३२ में धुनि का अर्थ लिखा है ” धुनिमन्तरिक्षे मेघम | ” अर्थात यह एक प्रकार का मेघ है | धुनोति इति धुनि: अर्थात ऐसा मेघ जो काँपता है गर्जना करता है | अत: स्पष्ट है की वेदों में किसी आदिवासी का उलेख या युद्ध नही बल्कि सभी जड सम्बन्धी और विशेषण सम्बन्धी शब्द है | प्रश्न – हम ये मान लेते है कि आर्य शब्द विशेषण है और ये किसी के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है जो श्रेष्ठ हो लेकिन स्वर्ण इस देश के नही थे बल्कि बाहर से आये थे ? उत्तर – हमारे किसी भी ग्रन्थ में सवर्णों का बाहर से आया नही लिखा है बल्कि भारत से क्षत्रिय ,ब्राह्मण ,वेश्य आदि अन्य देशो में गये इसका वर्णन है | भारतीय वैदिक सभ्यता की अन्य सभ्यताओ से समानता को देखते हुए लोग ये कल्पना करते है की विदेशी भारत में आये और यहा की सभ्यता को नष्ट कर अपनी विदेशी सभ्यता प्रचारित की जबकि ये बात कल्पना है आर्य भारत से अन्य देश में गये थे इसके निम्न प्रमाण – मनु स्मृति में आया है कि – शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय:। वृषलत्वं गता लोके ब्रह्माणादर्शनेन्॥10:43॥ – निश्चय करके यह क्षत्रिय जातिया अपने कर्मो के त्याग से ओर यज्ञ ,अध्यापन,तथा संस्कारादि के निमित्त ब्राह्मणो के न मिलने के कारण शुद्रत्व को प्राप्त हो गयी। ” पौण्ड्र्काश्र्चौड्रद्रविडा: काम्बोजा यवना: शका:। पारदा: पहल्वाश्र्चीना: किरात: दरदा: खशा:॥10:44॥ पौण्ड्रक,द्रविड, काम्बोज,यवन, चीनी, किरात,दरद,यह जातिया शुद्रव को प्राप्त हो गयी ओर कितने ही मलेच्छ हो गए जिनका विद्वानो से संपर्क नही रहा। इन श्लोको से स्पष्ट है कि आर्य लोग भारत से बाहर वश गये थे और विद्वानों के संग न मिलने से उनकी मलेछ आदि संज्ञा हुई | मुनि कात्यायन अपने याजुष ग्रन्थ प्रतिज्ञा परिशिष्ट में लिखता है कि ब्राह्मण का मूलस्थान भारत का मध्य देश है | महाभारत में लिखा है कि ” गणानुत्सवसंकेतान दस्यून पर्वतवासिन:| अजयन सप्त पांडव ” अर्थात पांड्वो ने सप्त गणों को जीत लिया था | इस तरह स्पष्ट है कि आर्य विदेशो से नही बल्कि भारत से अन्य देशो में गये थे | भारतीयों का विदेश गमन – भारतीयों का मिश्र गमन – भविष्य पुराण खंड ४ अध्याय २१ में कण्व ऋषि का मिश्र जाना लिखा है जहा उन्होंने १०००० लोगो का शुद्धिकरण किया था | भारतीयों का रूस और तुर्किस्थान गमन – lassen की indiscehe alterthumskunda में भारत का तुर्क और रूस में गमन के बारे में लिखते हुए लिखता है कि ” it appears very probable that at the dawn of history ,east turkistaan was inhabited by an aryan population ” भारतीयों का सिथिया देश में गमन – सिथिया देश किसी समय भारत से निकले शक नामक क्षत्रियो ने बसाया था जिसका प्रमाण विष्णुपुराण ३/१/३३-३४ में है ” वैवस्त मनु के इस्वाकु ,नाभागा ,धृष्ट ,शर्याति ,नाभा ने दिष्ट ,करुष ,प्रिश्ध्र ,वसुमान ,नरीशयत ये नव पुत्र थे | हरिवंश अध्याय १० श्लोक २८ में लिखा है – ” नरिष्यंत के पुत्रो का ही नाम शक था “ विष्णु पुराण ४/३/२१ में आया है कि इन शको को राजा सगर ने आधा गंजा करके निकाल दिया और ये सिन्थ्निया (शकप्रदेश ) जा कर वश गये | भारतीयों का चीन गमन – मनुस्मृति के अलावा चीनियों के आदिपुरुषो के विषय में प्रसिद्ध चीनी विद्वान यांगत्साई ने सन १५५८ में एक ग्रन्थ लिखा था | इस ग्रन्थ को सन १७७३ में हुया नामी विद्वान ने सम्पादित किया उस पुस्तक का पादरी क्लार्क ने अनुवाद किया उसमे लिखा है कि ” अत्यंत प्राचीन काल में भारत के मो लो ची राज्य का आह . यू . नामक राजकुमार युनन्न प्रांत में आया | इसके पुत्र का नाम ती भोगंगे था | इसके नौ पुत्र हुए | इन्ही के सन्तति से चीनियों की वंश वृद्धि हुई | ” यहा इन राजकुमार आदि का चीनी भाषानुवादित नाम है इनका वास्तविक नाम कुछ और ही होगा जेसे की शोलिन टेम्पल के निर्माता बोधिधर्मन का नाम चीनियों ने दामो कर दिया था | इन सबके अलवा भारतीय क्षत्रिय वेश्य ब्राह्मण अन्य कारणों से भी समुन्द्र पार कर अन्य देशो में जाते थे क्यूंकि भारतीयों के पास बड़ी बड़ी यांत्रिक नौकाये थी जिनका उलेखभारतवर्ष के प्राचीन वाङ्गमय वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि में जहाजों का उल्लेख आता है। जैसे बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में ऐसी बड़ी नावों का उल्लेख आता है जिसमें सैकड़ों योद्धा सवार रहते थे।
नौका विशेषज्ञ भोज चेतावनी देते हैं कि नौका में लोहे का प्रयोग न किया जाए, क्योंकि संभव है समुद्री चट्टानों में कहीं चुम्बकीय शक्ति हो। तब वह उसे अपनी ओर खींचेगी, जिससे जहाज को खतरा हो सकता है। अत : स्पष्ट है कि भारतीय नावो द्वारा अन्य देशो में जाया करते थे | इसी कारण भारतीयों और अन्य देशो की सभ्यताओ में काफी समानताये है | जिनको विस्तारित रूप से p n oak जी की पुस्तको , स्वामी रामदेव जी गुरुकुल कांगड़ी की भारतवर्ष का इतिहास ,रघुनंदन शर्मा जी की पुस्तक वैदिक सम्पति ,स्टेपहेन केनप्प की पुस्तको , पंडित भगवतदत्त जी की वृहत भारत का इतिहास , वैदिक वांगमय का इतिहास में देख सकते है | सिन्धु सभ्यता और आर्य आक्रमणकारी – कुछ लोग सिन्धु सभ्यता के बारे में यह कल्पना करते है कि सिन्धु सभ्यता को विदेशी आर्यों ने नष्ट कर दिया जबकि हमारा मत है कि सिन्धु सभ्यता आज भी विद्यमान है | केवल सिन्धु वासियों के पुराने नगर नष्ट हुए है जो की प्राक्रतिक आपदाओं के कारण हो सकते है |
सिन्धु घाटी सभ्यता और मेवाड़ के एकलिंगनाथ जी |
आप देख सकते है की सिन्धु घाटी सभ्यता के शिव और मेवाड़ के एकलिंगनाथ यानि भगवान शिव में कितनी समानता है ,एक समय मेवाड़ में भी सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग रहते थे और आज भी वह के लोग 4 सर वाले शिव की पूजा करते है
कृष्ण और वृक्ष से निकलते 2 यक्ष |
गणेश |
मित्रो उपर्युक्त जो चित्र है वो हडप्पा संस्कृति से प्राप्त एक मुद्रा(सील) का फोटोस्टेट प्रतिकृति है।ये सील आज सील नं 387 ओर प्लेट नंCXII के नाम से सुरक्षित है,, इस सील मे एक वृक्ष पर दो पक्षी दिखाई दे रहे है,जिनमे एक फल खा रहा है,जबकि दूसरा केवल देख रहा है। यदि हम ऋग्वेद देखे तो उसमे एक मंत्र इस प्रकार है- द्वा सुपर्णा सुयजा सखाया समानं वृक्ष परि षस्वजाते। तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्तयनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥ -ऋग्वेद 1/164/20 इस मंत्र का भाव यह है कि एक संसाररूपी वृक्ष पर दो लगभग एक जैसे पक्षी बैठे है।उनमे एक उसका भोग कर रहा है,जबकि दूसरा बिना उसे भोगे उसका निरीक्षण कर रहा है।
डा अम्बेडकर के लेखन में परस्पर विरोध
डा अम्बेडकर ने शंकराचार्य की आलोचना करते हुए उनके लेखन में परस्पर विरोधी कथन माने है | उन्होंने उन परस्पर विरोधो के आधार पर शंकराचार्य के कथनों को अप्रमाणिक कहकर अमान्य घोषित किया है और यह कटु टिप्पणी की कि जिसके लेखन में परस्पर विरोधी कथन पाए जाए उसे पागल ही कहा जाएगा |(अम्बेडकर वा. खंड ८,पृष्ठ २८९ )
अब देखिये अम्बेडकर जी के लिखे लेखो में कितना परस्पर विरोध है –
(*१) क्या मह्रिषी मनु जन्मजा जाति के जनक थे ?
इस सम्बन्ध में अम्बेडकर के तीन प्रकार के परस्पर विरोधी कथन है –
(अ) मनु ने जाति का विधान नही बनाया अत: वह जाति का जनक नही –
(क) ” एक बात मै आप लोगो को बताना चाहता हु कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नही किया न वह ऐसा कर सकता था| जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी| वह तो उसका पौषक था “(अम्बेडकर वा. खंड १ पृष्ठ २९)
(ख) ” कदाचित मनु जाति के निर्माण के लिए जिम्मेदार न हो, परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया था|……वर्ण व्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु जातिव्यवस्था का जनक न भी हो परन्तु उसके पूर्वज होने का उस पर निशिचित ही आरोप लगाया जा सकता है| ” (वही खंड ६,पृष्ठ ४३)
(आ) जाति- संरचना ब्राह्मणों ने की –
(क) ‘ तर्क में यह सिद्धांत है कि ब्राह्मणों ने जाति संरचना की| ‘ (वही खंड १,पृष्ठ२९)
(ख) ” वर्ण निर्धारण करने का अधिकार गुरु से छीन कर उसे पिता को सौंपकर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया|”(वही,खंड१,पृष्ठ १७२)
(इ)मनु जाति का जनक है –
(क) “मनु ने जाति का सिद्धांत निर्धारित किया है |”(वही,खंड ६,पृष्ठ ५७)
(ख) “वर्ण को जाति में बदलते समय मनु ने अपने उद्देश की कही व्याख्या नही की|”(वही,खंड ७,पृष्ठ१६८ )
(*२) चातुर्वर्ण्य व्यवस्था प्र्श्नसीय या निंदनीय –
(अ) चातुर वर्णव्यवस्था प्रशंसनीय –
(क) ” प्राचीन वर्णव्यवस्था में दो अच्छाई थी, जिन्हें ब्राह्मणवाद ने स्वार्थ में अंधे होकर निकाल दिया| पहली ,वर्णों की आपस में एक दुसरे से पृथक स्थिति नही थी| एक वर्ण दुसरे वर्ण में विवाह ,सह भोजन दो बातें ऐसी थी जो एक दुसरे को साथ जोड़े रखती थी | विभिन्न वर्णों में असामाजिक भावना पैदा करने की कोई गुंजाइश नही थी ,(अम्बेडकर वा. खंड ७ ,पृष्ठ २१८ )
(ख) ” यह कहना कि आर्यों में वर्ण के प्रति पूर्वाग्रह था जिसके कारण इनकी पृथक सामजिक स्थिति बनी, कोरी बकवास होगी, अगर कोई ऐसे लोग थे जिनमे वर्ण के प्रति पूर्वाग्रह नही था तो वह आर्य थे |”(अम्बेडकर वा. खंड ७ ,पृष्ठ३२०)
(ग) ब्राह्मणवाद ने प्रमुखत जो कार्य किया, वह अंतरजातीय विवाह और सहभोज को समाप्त करना जो प्राचीनकाल में चारो वर्णों में प्रचलित थी “(वही खंड ७ ,पृष्ठ १९४)
(घ) ” बोद्ध पूर्व चातुर्य वर्णव्यवस्था एक उदार व्यवस्था थी उसमे गुंजाइश थी| इसमें जहा चार विभिन्न वर्गों का अस्तित्व स्वीकार किया गया था वाहा इन वर्गों में आपस में विवाह आदि का निषेध नही था ….(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ १७५)
(आ) चातुर्य वर्णव्यवस्था निंदनीय –
(क) चातुर्य वर्ण व्यवस्था से अधिक नीच सामजिक व्यवस्था कौनसी है ,जो लोगो को किसी भी कल्याण कारी कार्य करने से विकलांग बना देती है | इस बात में कोई अतिश्योक्ति नही है |(वही,खंड ६ पृष्ठ ९५)
(ख) ” चातुर्य वर्ण के प्रचारक ये बहुत सोच समझकर बताते है कि उनका वर्ण व्यवस्था जन्म के आधार पर नही बल्कि गुणों के आधार पर है | यहा पर मै पहले ही बताना चाहता हु भले ही यह गुणों के आधार पर हो,किन्तु यह आदर्श मेरे विचार से मेल नही खाता|”(वही ,खंड १,पृष्ठ ८१)
(३)वेदों की वर्ण व्यवस्था
(अ) वेदों की वर्णव्यवस्था उत्तम और सम्मान जनक –
(क) ” शुद्र आर्य समुदाय के अभिन्न,जन्मजात और सम्मनित सदस्य थे | यह बात यजुर्वेद के एक मन्त्र में उलेखित एक स्तुति से पुष्ट होती है |” (वही खंड ७ पृष्ठ ३२२)
(ख) ” शुद्र समुदाय का सदस्य होता था और वह समाज का सम्मानित सदस्य था “(वही खंड ७ ,पृष्ठ ३२२)
(ग) वर्णव्यवस्था की वैदिक पद्धति जाति व्यवस्था की अपेक्षा उत्तम थी (वही,खंड ७,पृष्ठ २१८)
(घ) ” वेद में वर्ण की धारणा का सारांस यह है कि व्यक्ति वह पेशा अपनाय ,जो उसकी योग्यता के लिए उपयुक्त हो ……..वैदिक वर्णव्यवस्था केवल योग्यता को मान्यता देती है ……वर्ण और जाति दो अलग अलग मान्यताये है ..(वही,खंड१,पृष्ठ ११९)
(आ) वेदों की वर्णव्यवस्था समाज विभाजन और असमानता का जनक –
(क) “यह निर्विवाद है कि वेदों ने वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत की रचना की है,जिसे पुरुष सूक्त नाम से जाना जाता है| यह दो मुलभुत तत्वों को मान्यता देता है | उसने समाज के चार भागो में विभाजन को एक आदर्श योजना के रूप में योजना के रूप में मान्यता दी है | उसने इस बात को भी मान्यता दी है कि इन चारो भागो के सम्बन्ध असमानता के आधार पर होने चाहिए |” (वही ,खंड ६, पृष्ठ १०५)
(ख) ” जाति प्रथा, वर्णव्यवस्था का नया संस्करण है,जिसे वेदों से आधार मिलता है|” (वही,खंड ९,पृष्ठ १६०)
(*४) वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था का सम्बन्ध
(अ) जातिव्यवस्था वर्ण व्यवस्था का विकृत रूप है –
(क) ” कहा जाता है कि जाति,वर्ण व्यवस्था का विस्तार है | बाद में मै बताऊंगा कि यह बकवास है| जाति वर्ण का विकृत स्वरूप है | यह विपरीत दिशा में प्रसार है | जात पात ने वर्णव्यवस्था को पूरी तरह विकृत कर दिया |”(वही , खंड १ पृष्ठ २६३)
(ख) “जातिप्रथा चातुर्य वर्ण का ,जो कि हिन्दू आदर्श है का विकृत रूप है |”(वही ,खंड १ ,पृष्ठ २६३)
(ग) “अगर मूल पद्धति का यह विकृत रूप केवल सामजिक व्यवहार तक सीमित रहता तो सहन हो सकता था| लेकिन ब्राह्मण धर्म इतना करने के बाद भी संतुष्ट नही रहा |उसने इस वर्ण के विकृत रूप को कानून बना डाला | (वही खंड ७,पृष्ठ२१६)
(आ) जाति व्यवस्था वर्णव्यवस्थ का विकास है –
(क) ” वर्णव्यवस्था जातिजननी है |”(वही ,खंड६ ,हिंदुत्व का दर्शन ,पृष्ठ ४३)
(ख) “कुछ समय तक ये केवल वर्ण ही रहे, कुछ समय तक वर्ण ही थे वे अब जातिया बन गये और ये ४ जातोय ४००० बन गयी |इस प्रकार आधुनिक जातिव्यवस्था प्राचीन वर्णव्यवस्था का विकास है |
(*५) शुद्र आर्य या अनार्य ?
(अ) शुद्र मनुमतानुसार आर्य ही थे
(क) “धर्म सूत्रों की यह बात शुद्र अनार्य है नही माननी चाहिय| यह सिद्धात मनु और कौटिल्य के विपरीत है|”(शुद्रो की खोज पृष्ठ ४२ )
(ख) ” आर्य जातिया का अर्थ है चार वर्ण – ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शुद्र| दुसरे शब्दों में मनु चार वर्णों को आर्यवाद का सार मानते है |”……[ब्राह्मण: ,क्षत्रिय वैश्य: त्रयो वर्णों:”(मनु १०.०४ ]
यह श्लोक दो कारणों से अत्यंत महत्वपूर्ण है| एक तो इससे पता चलता है कि शुद्रो को भिन्न बताया है | दुसरे इससे पता चलता है कि शुद्र आर्य है|”(अम्बेडकर वा. खंड ८ पृष्ठ२१७)
(आ) शुद्र मनुमतानुसार अनार्य थे
(क) “मनु शुद्रो का निरूपण इस प्रकार करता है,जैसे वे बहार से आने वाले अनार्य थे |”(वही,खंड ७ ,पृष्ठ ३१९ )
(*६) शुद्रो को वेदाध्यानन अधिकार
(अ) वेदों में सम्मान पूर्वक शुद्रो का अधिकार था
(क) “वेदों का अध्ययन करने के बारे में शुद्रो के अधिकारों के प्रश्न पर ‘छान्दोग्योपनिषद् उलेखनीय है|……एक समय ऐसा भी था,जब अध्ययन के सम्बन्ध में शुद्रो पर कोई प्रतिबन्ध नही था|”(वही ख्न्द७,पृष्ठ ३२४ )
(ख) ” केवल यही बात मही थी कि शुद्र वेदों का अधयन्न कर सकते थे| कुछ शुद्र ऐसे थे जिन्हें ऋषि पद प्राप्त था और जिन्होंने वेदमंत्रो की रचना की| कवष ऐलुष नामक ऋषि की कथा बहुत ही महत्वपूर्ण है | वह एक ऋषि था और ऋग्वेद के १० मंडल में उसके रचे अनेक मन्त्र है |”(वही,खंड ७ ,पृष्ठ ३२४)
(ग)”जहा तक उपनयन संस्कार और यज्ञोपवीत धारण करने का प्रश्न है, इस बात का कही कोई प्रमाण नही मिलता की यह शुद्रो के लिए वर्जित था| बल्कि संस्कार गणपति में इस बात का स्पष्ट प्रावधान है और कहा है कि शुद्रो के लिए उपनयन अधिकार है “(वही खंड ७,पृष्ठ ३२५-३२६)
(आ) वेदों में शुद्रो का अधिकार नही था
(क)” वेदों के ब्राह्मणवाद में शुद्रो का प्रवेश वर्जित था,लेकिन भिक्षुओ के बौद्ध धर्म के द्वार शुद्रो के लिए खुले हुए थे |”( वही,खंड ७ पृष्ठ १९७)
(*७) शुद्र वेतनभोगी सेवक या पराधीन ?
(अ) शुद्र को उचित वेतन और जीविका दे
(क) “शुद्र की क्षमता,उसका कार्य तथा उसके परिवार में उस पर निर्भर लोगो की संख्या को ध्यान में रखते हुए वे लोग उसे अपनी पारिवारिक सम्पति से उचित वेतन दे (मनु १०.१२४ )|” (अम्बेडकर वा.,खंड ६ ,पृष्ठ ६२ ; खंड ७ पृष्ठ २०१,खंड ७ पृष्ठ २३४,३१८ ,खंड ९,पृष्ठ ११६ ,१७८ )
(आ) शुद्र गुलाम था
(क)”मनु ने गुलामी को मान्यता प्रदान की है |परन्तु उसने उसे शुद्र तक ही सीमित रखा |”(वही ,खंड ६,पृष्ठ ४५ )
(ख)”प्रत्येक ब्राह्मण शुद्र को दास कर्म करने के लिए बाध्य कर सकता है, चाहे उसने उसे खरीद लिया हो अथवा नही,क्यूंकि शुद्रो की सृष्टि ब्राह्मणों को दास बनने के लिए ही की है [मनु .८.४१३ ]”(वही खंड ७ ,पृष्ठ ३१८ )
(*८) शुद्र का सेवाकार्य स्वेच्छापूर्वक
(अ) शुद्र सेवा कार्य में स्वतंत्र है –
(क)” ब्रह्मा ने शुद्रो के लिए एक ही व्यवसाय नियत किया है -विनम्रता पूर्वक तीन अन्य वर्णों की अर्थात ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य की सेवा करना [मनु ९.१९] |” (अम्बेडकर वा.,खंड ९ पृष्ठ १०५ ,१०९,१७७ ,खंड १३ पृष्ठ ३० )
(ख) “यदि शुद्र (जो ब्राह्मण की सेवा से अपना जीविका निर्वाह नही कर पाता ) और जीविका चाहता है तो वह क्षत्रिय की सेवा करे या वह किसी धनी वेश्य की सेवा करे (मनु १०,१२१ )|”(वही खंड ९ ,पृष्ठ ११६ ,११७ )
(आ) शुद्र को केवल ब्राह्मण की सेवा करनी है
(क) “ब्रह्मा ने ब्राह्मणों को शुद्र की सेवा करने के लिए ही शुद्रो की सृष्टि की है [मनु ८,४१३] |” (वही,खंड ७ ,पृष्ठ २०० ;पृष्ठ १७७ )
(*९) मनु की दंड व्यवस्था कौनसी है ?
(अ)ब्राह्मण सबसे अधिक दंडनीय और शुद्र सबसे कम –
(क) ” चोरी करने पर शुद्र को आठ गुना,वैश्य को सोलह गुना ,और क्षत्रिय को बतीस गुना पाप होता है |ब्राह्मण को ६४ गुना या १२८ गुना तक,इनमे से प्रत्येक को अपराध की प्रक्रति की जानकारी होती है [मनु ८.३३७ ]|”(वही ८.३३७ )
(आ ) ब्राह्मण दंडनीय नही है शुद्र अधिक
(क) ” पुरोहित वर्ग के व्यभिचारी को प्राण दंड देने के बजाय उसका अपकीर्ति कर मुंडन करा देना चाहिय तथा इसी अपराध के लिए अन्य वर्गों को म्रत्यु दंड देना चाहिय (मनु ८.३७१)|(वही खंड ६,पृष्ठ ४९)
(ख) ” लेकिन न्यायप्रिय राजा तीन निचली जातियों के व्यक्तियों को केवल आर्थिक दंड देगा और उन्हें निष्कासित कर देगा,जिन्होंने मिथ्या साक्ष्य दिया है ,लेकिन ब्राह्मण को वे केवल निष्काषित करेगा (मनु ८.१२३,१२४ )(वही ,खंड ७,पृष्ठ १६१ ,२४५ )
(*१०) शुद्र का ब्राह्मण बनना
(अ) आर्यों में शुद्र ब्राह्मण बन सकता था
(क) ” इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शुद्र होने से बच जाते थे ,ये ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य होने के लिए चुने जाते थे, जबकि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य होने के लिए चुने जाते वे शुद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे | इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे |”(वही खंड ७ ,पृष्ठ १७० )
(ख) ” अन्य समाजो के समान भारतीय समाज भी चार वर्णों में विभाजित था |….इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा की आरम्भ में यह अनिवार्य रूप से वर्ग विभाजन के अंतर्गत व्यक्ति दक्षता के आधार पर अपना वर्ण बदल सकता था और इसलिए वर्णों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी |”(वही ,खंड १ पृष्ठ ३१)
(ग) ” प्रत्येक शुद्र जो शुचिपूर्ण है,जो अपने से उत्कृष्ट का सेवक ,मृदुभाषी है ,अहंकार रहित है,और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है,वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है (मनु ९.३३५)(वही ,खंड ९ ,पृष्ठ ११७ )
(आ) आर्यों में शुद्र ब्राह्मण नही बन सकता था
(क) “आर्यों के समाज में शुद्र अथवा नीच जाति का मनुष्य कभी ब्राह्मण नही बन सकता था|”(अम्बेडकर वा.,खंड ७ ,पृष्ठ ९३ )
(ख) ” वैदिक शासन में शुद्र ब्राह्मण बनने की कभी आकांशा नही कर सकता था |”(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ १९७ )
(ग) “उच्च वर्ण में जन्मे और निम्न वर्ण व्यक्ति की नियति उसका जन्मजात वर्ण ही है |”(वही ,खंड ६ ,पृष्ठ १४६ )
(*११) ब्राह्मण कौन हो सकता था ?
(अ) वेदों का विद्वान् ब्राह्मण होता था
(क) “स्वयम्भू मनु ने ब्राह्मणों के कर्तव्य वेदाध्ययन,वेद की शिक्षा देना ,यज्ञ करना अन्य को यज्ञ में साहयता देना ,यदि वो धनी है तो दान देना और निर्धन है तो दान लेना निश्चित किया (मनु २.८८) |”(अम्बेडकर वा.खंड ७ ,पृष्ठ २३० ,खंड ६ ,पृष्ठ १४२ ,खंड ९ ,पृष्ठ १०४ ,खंड १३ ,पृष्ठ ३० )
(ख) “वर्ण के अधीन कोई ब्राह्मण मूढ़ नही हो सकता| ब्राह्मण के मूढ़ होने की सम्भावना तभी हो सकती है ,जब वर्ण जाति बन जाए ,अर्थात जब कोई जन्म के आधार पर ब्राह्मण हो जाता है |”(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ १७३)
(आ) वेदाध्ययन से रहित मुर्ख भी ब्राह्मण होता था
(क) “कोई भी ब्राह्मण जो जन्म से ब्राह्मण है अर्थात जिसने जिसने न तो वेदों का अधयन्न किया है न वेदों द्वारा अपेक्षित कोई कर्म किया है ,वह राजा के अनुरोध पर उसके लिए धर्म का निर्वचन कर सकता है अर्थात न्यायधीश के रूप में कार्य कर सकता है ,लेकिन शुद्र यह नही कर सकता चाहे कितना ही विद्वान् क्यूँ न हो (मनु ८.२०)|”(वही खंड ७ ,पृष्ठ ३१७ ,खंड ९ ,पृष्ठ १०९ ,१७६ ,खंड १३ ,३० )
(*१२) मनु स्मृति विषयक मान्यता
(अ)मनुस्मृति धर्मग्रन्थ और नीति शास्त्र है
(क) “इस प्रकार मनुस्मृति कानून का ग्रन्थ है ….चुकी इसमें जाति का विवेचन है जो हिन्दू धर्म की आत्मा है,इसलिए यह धर्म ग्रन्थ है |”(वही खंड ७ ,पृष्ठ २२६)
(ख) “मनु स्मृति को धर्मग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिय |”(वही खंड ७ ,पृष्ठ २२८)
(ग) “अगर नैतिकता और सदाचार कर्तव्य है, तब निस्सदेह नीतिशास्त्र का ग्रन्थ है |”(वही,खंड ७ ,पृष्ठ २२६)
(आ) मनुस्मृति धर्मग्रन्थ और नीतिशास्त्र नही है
(क) “यह कहना कि मनुस्मृति एक धर्मग्रन्थ है,बहुत कुछ अटपटा लगता है|”(वही,खंड ७ ,पृष्ठ २२६)
(ख)”हम कह सकते है कि मनु स्मृति नियमो की एक संहिता है |……यह न तो नीति शास्त्र है और न ही धर्म ग्रन्थ है |(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ २२४ )
(*१३) समाज में पुजारी की आवश्कयता
(अ)पुजारी आवश्यक था बुद्ध धर्म के लिए
(क) बौद्ध धर्म के समर्थन में डा. अम्बेडकर लिखते है –
“धर्म की स्थापना केवल प्रचार द्वारा ही हो सकती है |यदि प्रचार असफल हो जाय तो धर्म भी लुप्त हो जाएगा |पुजारी वर्ग वो चाहे कितना भी घृणास्पद हो धर्म प्रवर्तन के के लिए आवश्यक होता है| धर्म ,प्रचार के आधार पर ही रह सकता है | पुजारिय के बिना धर्म लुप्त हो जाता है |”(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ १०८ )
(आ) हिन्दू धर्म में पुजारी नही हो
हिन्दू धर्म का विरोध करते हुए वे लिखते है –
(क) “अच्छा होगा,यदि हिन्दुओ में पुरोहिताई समाप्त की जाय |”(वही ,खंड१,पृष्ठ १०१)
इस तरह हम देखते है कि अम्बेडकर जी की बातों में विरोधाभास था ..जबकि वे दुसरो के विरोधाभास को देख उन्हें पागल तक कहने से नही चुके थे जबकि उन्होंने खुद के कथन नही देखे जिनमे विरोधाभास था इस तरह जो अम्बेडकर जी दुसरो को कहते वो उन पर भी लागू होता है | उनके कथनों में आपसी विरोधाभास होने से वे प्रमाण की कोटि में नही आते है |
यह अम्बेडकर जी के बारे में निम्न बातें स्पष्ट होती है –
अम्बेडकर जी दो प्रकार की मनस्थति में जीते थे – जब उन का मन समीक्षात्मक होता तब वे तर्क पूर्ण मत प्रकट करते थे जब प्रतिशोधात्मक मत प्रकट होता तब वे सारी सीमाय लांध कर कटुतम शब्दों का प्रयोग करने लगते थे |उनका व्यक्तित्व बहु सम्पन्न किन्तु दुविधा पूर्ण ,समीक्षक किन्तु पुर्वाग्रस्त, चिंतक किन्तु भावुक ,सुधारक किन्तु प्रतिशोधात्मक थे |
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तक –
मनु बनाम अम्बेडकर – डा. सुरेन्द्र कुमार
अम्बेडकर द्वारा मनु स्मृति के श्लोको के अर्थ का अनर्थ कर गलत या विरोधी निष्कर्ष निकालना (अम्बेडकर का छल )
डा. अम्बेडकर ने अपने ब्राह्मण वाद से घ्रणा के चलते मनुस्मृति को निशाना बनाया और इतना ही नही अपनी कटुता के कारण मनुस्मृति के श्लोको का गलत अर्थ भी किया …अब चाहे अंग्रेजी भाष्य के कारण ऐसा हुआ हो या अनजाने में लेकिन अम्बेडकर जी का वैदिक धर्म के प्रति नफरत का भाव अवश्य नज़र आता है कि उन्होंने अपने ही दिए तथ्यों की जांच करने की जिम्मेदारी न समझी |
यहाँ आप स्वयम देखे अम्बेडकर ने किस तरह गलत अर्थ प्रस्तुत कर गलत निष्कर्ष निकाले –
(१) अशुद्ध अर्थ करके मनु के काल में भ्रान्ति पैदा करना और मनु को बोद्ध विरोधी सिद्ध करना –
(क) पाखण्डिनो विकर्मस्थान वैडालव्रतिकान् शठान् |
हैतुकान् वकवृत्तीश्र्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत् ||(४.३०)
डा . अम्बेडकर का अर्थ – ” वह (गृहस्थ) वचन से भी विधर्मी, तार्किक (जो वेद के विरुद्ध तर्क करे ) को सम्मान न दे|”
” मनुस्मृति में बोधो और बुद्ध धम्म के विरुद्ध में स्पष्ट व्यवस्था दी गयी है |”
(अम्बेडकर वा. ,ब्राह्मणवाद की विजय पृष्ठ. १५३)
शुद्ध अर्थ – पाखंडियो, विरुद्ध कर्म करने वालो अर्थात अपराधियों ,बिल्ली के सामान छली कपटी जानो ,धूर्ति ,कुतर्कियो,बगुलाभक्तो को अपने घर आने पर वाणी से भी सत्कार न करे |
समीक्षा- इस श्लोक में आचारहीन लोगो की गणना है उनका वाणी से भी अतिथि सत्कार न करने का निर्देश है |
यहा विकर्मी अर्थात विरुद्ध कर्म करने वालो का बलात विधर्मी अर्थ कल्पित करके फिर उसका अर्थ बोद्ध कर लिया |विकर्मी का विधर्मी अर्थ किसी भी प्रकार नही बनता है | ऐसा करके डा . अम्बेडकर मनु को बुद्ध विरोधी कल्पना खडी करना चाहते है जो की बिलकुल ही गलत है |
(ख) या वेदबाह्या: स्मृतय: याश्च काश्च कुदृष्टय: |
सर्वास्ता निष्फला: प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ता: स्मृता:|| (१२.९५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – जो वेद पर आधारित नही है, मृत्यु के बाद कोई फल नही देती, क्यूंकि उनके बारे में यह घोषित है कि वे अन्धकार पर आधारित है| ” मनु के शब्द में विधर्मी बोद्ध धर्मावलम्बी है| ” (वही ,पृष्ठ१५८)
शुद्ध अर्थ – ‘ वेदोक्त’ सिद्धांत के विरुद्ध जो ग्रन्थ है ,और जो कुसिधान्त है, वे सब श्रेष्ट फल से रहित है| वे परलोक और इस लोक में अज्ञानान्ध्कार एवं दुःख में फसाने वाले है |
समीक्षा- इस श्लोक में किसी भी शब्द से यह भासित नही होता है कि ये बुद्ध के विरोध में है| मनु के समय अनार्य ,वेद विरोधी असुर आदि लोग थे ,जिनकी विचारधारा वेदों से विपरीत थी| उनको छोड़ इसे बुद्ध से जोड़ना लेखक की मुर्खता ओर पूर्वाग्रह दर्शाता है |
(ग) कितवान् कुशीलवान् क्रूरान् पाखण्डस्थांश्च मानवान|
विकर्मस्थान् शौण्डिकाँश्च क्षिप्रं निर्वासयेत् पुरात् || (९.२२५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” जो मनुष्य विधर्म का पालन करते है …….राजा को चाहिय कि वह उन्हें अपने साम्राज्य से निष्कासित कर दे | “(वही ,खंड ७, ब्राह्मणवाद की विजय, पृष्ठ. १५२ )
शुद्ध अर्थ – ‘ जुआरियो, अश्लील नाच गाने करने वालो, अत्याचारियों, पाखंडियो, विरुद्ध या बुरे कर्म करने वालो ,शराब बेचने वालो को राजा तुरंत राज्य से निकाल दे |
समीक्षा – संस्कृत पढने वाला छोटा बच्चा भी जानता है कि कर्म, सुकर्म ,विकर्म ,दुष्कर्म इन शब्दों में कर्म ‘क्रिया ‘ या आचरण का अर्थ देते है | यहा विकर्म का अर्थ ऊपर बताया गया है | लेकिन बलात विधर्मी और बुद्ध विरोधी अर्थ करना केवल मुर्खता प्राय है |
(२) अशुद्ध अर्थ कर मनु को ब्राह्मणवादी कह कर बदनाम करना –
(क) सेनापत्यम् च राज्यं च दंडेंनतृत्वमेव च|
सर्वलोकाघिपत्यम च वेदशास्त्रविदर्हति||(१२.१००)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – राज्य में सेना पति का पद, शासन के अध्यक्ष का पद, प्रत्येक के ऊपर शासन करने का अधिकार ब्राह्मण के योग्य है|’ (वही पृष्ठ १४८)
शुद्ध अर्थ- ‘ सेनापति का कार्य , राज्यप्रशासन का कार्य, दंड और न्याय करने का कार्य ,चक्रवती सम्राट होने, इन कार्यो को करने की योग्यता वेदों का विद्वान् रखता है अर्थात वाही इसके योग्य है |’
समीक्षा – पाठक यहाँ देखे कि मनु ने कही भी ब्राह्मण पद का प्रयोग नही किया है| वेद शास्त्र के विद्वान क्षत्रिय ओर वेश्य भी होते है| मनु स्वयम राज्य ऋषि थे और वेद ज्ञानी भी (मनु.१.४ ) यहा ब्राह्मण शब्द जबरदस्ती प्रयोग कर मनु को ब्राह्मणवादी कह कर बदनाम करने का प्रयास किया है |
(ख) कार्षापण भवेद्दण्ड्यो यत्रान्य: प्राकृतो जन:|
तत्र राजा भवेद्दण्ड्य: सहस्त्रमिति धारणा || (८.३३६ )
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” जहा निम्न जाति का कोई व्यक्ति एक पण से दंडनीय है , उसी अपराध के लिए राजा एक सहस्त्र पण से दंडनीय है और वह यह जुर्माना ब्राह्मणों को दे या नदी में फैक दे ,यह शास्त्र का नियम है |(वही, हिन्दू समाज के आचार विचार पृष्ठ२५० )
शुद्ध अर्थ – जिस अपराध में साधारण मनुष्य को एक कार्षापण का दंड है उसी अपराध में राजा के लिए हज़ार गुना अधिक दंड है | यह दंड का मान्य सिद्धांत है |
समीक्षा :- इस श्लोक में अम्बेडकर द्वारा किये अर्थ में ब्राह्मण को दे या नदी में फेक दे यह लाइन मूल श्लोक में कही भी नही है ऐसा कल्पित अर्थ मनु को ब्राह्मणवादी और अंधविश्वासी सिद्ध करने के लिए किया है |
(ग) शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते |
द्विजातिनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते|| (८.३४८)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – जब ब्राह्मणों के धर्माचरण में बलात विघ्न होता हो, तब तब द्विज शस्त्र अस्त्र ग्रहण कर सकते है , तब भी जब द्विज वर्ग पर भयंकर विपति आ जाए |” (वही, हिन्दू समाज के आचार विचार, पृष्ठ २५० )
शुद्ध अर्थ:- ‘ जब द्विजातियो (ब्राह्मण,क्षत्रिय ,वैश्य ) धर्म पालन में बाँधा उत्पन्न की जा रही हो और किसी समय या परिस्थति के कारण उनमे विद्रोह उत्पन्न हो गया हो, तो उस समय द्विजो को शस्त्र धारण कर लेना चाहिए|’
समीक्षा – यहाँ भी पूर्वाग्रह से ब्राह्मण शब्द जोड़ दिया है जो श्लोक में कही भी नही है |
(३) अशुद्ध अर्थ द्वारा शुद्र के वर्ण परिवर्तन सिद्धांत को झूटलाना |
(क) शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः मृदुवागानहंकृत: |
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्रुते|| (९.३३५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” प्रत्येक शुद्र जो शुचि पूर्ण है, जो अपनों से उत्कृष्ट का सेवक है, मृदु भाषी है, अंहकार रहित हैसदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है (अगले जन्म में ) उच्चतर जाति प्राप्त करता है |”(वही ,खंड ९, अराजकता कैसे जायज है ,पृष्ठ ११७)
शुद्ध अर्थ – ‘ जो शुद्र तन ,मन से शुद्ध पवित्र है ,अपने से उत्क्रष्ट की संगती में रहता है, मधुरभाषी है , अहंकार रहित है , और जो ब्राह्मणाआदि तीनो वर्णों की सेवा कार्य में लगा रहता है ,वह उच्च वर्ण को प्राप्त कर लेता है|
समीक्षा – इसमें मनु का अभिप्राय कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था का है ,जिसमे शुद्र उच्च वर्ण प्राप्त करने का उलेख है , लेकिन अम्बेडकर ने यहाँ दो अनर्थ किये – ” श्लोक में इसी जन्म में उच्च वर्ण प्राप्ति का उलेख है अगले जन्म का उलेख नही है| दूसरा श्लोक में ब्राह्मण के साथ अन्य तीन वर्ण भी लिखे है लेकिन उन्होंने केवल ब्राह्मण लेकर इसे भी ब्राह्मणवाद में घसीटने का गलत प्रयास किया है |इतना उत्तम सिधांत उन्हें सुहाया नही ये महान आश्चर्य है |
(४) अशुद्ध अर्थ करके जातिव्यवस्था का भ्रम पैदा करना
(क) ब्राह्मण: क्षत्रीयो वैश्य: त्रयो वर्णों द्विजातय:|
चतुर्थ एक जातिस्तु शुद्र: नास्ति तु पंचम:||
डा. अम्बेडकर का अर्थ- ” इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि मनु चातुर्यवर्ण का विस्तार नही चाहता था और इन समुदाय को मिला कर पंचम वर्ण व्यवस्था के पक्ष में नही था| जो चारो वर्णों से बाहर थे|” (वही खंड ९, ‘ हिन्दू और जातिप्रथा में उसका अटूट विश्वास,’ पृष्ठ१५७-१५८)
शुद्ध अर्थ – विद्या रूपी दूसरा जन्म होने से ब्राह्मण ,वैश्य ,क्षत्रिय ये तीनो द्विज है, विद्यारुपी दूसरा जन्म ना होने के कारण एक मात्र जन्म वाला चौथा वर्ण शुद्र है| पांचवा कोई वर्ण नही है|
समीक्षा – कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था ,शुद्र को आर्य सिद्ध करने वाला यह सिद्धांत भी अम्बेडकर को पसंद नही आया | दुराग्रह और कुतर्क द्वारा उन्होंने इसके अर्थ के अनर्थ का पूरा प्रयास किया |
(५) अशुद्ध अर्थ करके मनु को स्त्री विरोधी कहना |
(क) न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविध्यो न बालिश:|
होता स्यादग्निहोतरस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा||( ११.३६ )
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” स्त्री वेदविहित अग्निहोत्र नही करेगी|” (वही, नारी और प्रतिक्रान्ति, पृष्ठ ३३३)
शुद्ध अर्थ – ‘ कन्या ,युवती, अल्पशिक्षित, मुर्ख, रोगी, और संस्कार में हीन व्यक्ति , ये किसी अग्निहोत्र में होता नामक ऋत्विक बनने के अधिकारी नही है|
समीक्षा – डा अम्बेडकर ने इस श्लोक का इतना अनर्थ किया की उनके द्वारा किया अर्थ मूल श्लोक में कही भव ही नही है | यहा केवल होता बनाने का निषद्ध है न कि अग्निहोत्र करने का |
(ख) सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया |
सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तह्स्त्या|| (५.१५०)
डा. अम्बेकर का अर्थ – ” उसे सर्वदा प्रसन्न ,गृह कार्य में चतुर , घर में बर्तनों को स्वच्छ रखने में सावधान तथा खर्च करने में मितव्ययी होना चाहिय |”(वही ,पृष्ठ २०५)
शुद्ध अर्थ -‘ पत्नी को सदा प्रसन्न रहना चाहिय ,गृहकार्यो में चतुर ,घर तथा घरेलू सामान को स्वच्छ सुंदर रखने वाली और मित्यव्यी होना चाहिय |
समीक्षा – ” सुसंस्कृत – उपस्करया ” का बर्तनों को स्वच्छ रखने वाली” अर्थ अशुद्ध है | ‘उपस्कर’ का अर्थ केवल बर्तन नही बल्कि सम्पूर्ण घर और घरेलू सामान जो पत्नीं के निरीक्षण में हुआ करता है |
(६) अशुद्ध अर्थो से विवाह -विधियों को विकृत करना
(क) (ख) (ग) आच्छद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्|
आहूय दान कन्यायाः ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तित:||(३.२७)
यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते|
अलकृत्य सुतादान दैव धर्म प्रचक्षते||(३.२८)
एकम गोमिथुंनं द्वे वा वराददाय धर्मत:|
कन्याप्रदानं विधिविदार्षो धर्म: स उच्यते||(३.२९)
डा अम्बेडकर का अर्थ – बाह्म विवाह के अनुसार किसी वेदज्ञाता को वस्त्रालंकृत पुत्री उपहार में दी जाती थी| देव विवाह था जब कोई पिता अपने घर यज्ञ करने वाले पुरोहित को दक्षिणास्वरूप अपनी पुत्री दान कर देता था | आर्ष विवाह के अनुसार वर, वधु के पिता को उसका मूल्य चूका कर प्राप्त करता था|”( वही, खंड ८, उन्नीसवी पहेली पृष्ठ २३१)
शुद्ध अर्थ – ‘वेदज्ञाता और सदाचारी विद्वान् कन्या द्वारा स्वयम पसंद करने के बाद उसको घर बुलाकर वस्त्र और अलंकृत कन्या को विवाहविधिपूर्वक देना ‘ बाह्य विवाह’ कहलाता है ||’
‘ आयोजित विस्तृत यज्ञ में ऋत्विज कर्म करने वाले विद्वान को अलंकृत पुत्री का विवाहविधिपूर्वक कन्यादान करना’ दैव विवाह ‘ कहाता है ||”
‘ एक या दो जोड़ा गाय धर्मानुसार वर पक्ष से लेकर विवाहविधिपूर्वक कन्यादान करना ‘आर्ष विवाह ‘ है |’ आगे ३.५३ में गाय का जोड़ा लेना वर्जित है मनु के अनुसार
समीक्षा – विवाह वैदिक व्यवस्था में एक संस्कार है | मनु ने ५.१५२ में विवाह में यज्ञीयविधि का विधान किया है | संस्कार की पूर्णविधि करके कन्या को पत्नी रूप में ससम्मान प्रदान किया जाता है | इन श्लोको में इन्ही विवाह पद्धतियों का निर्देश है | अम्बेडकर ने इन सब विधियों को निकाल कर कन्या को उपहार , दक्षिणा , मूल्य में देने का अशुद्ध अर्थ करके सम्मानित नारी से एक वस्तु मात्र बना दिया | श्लोको में यह अर्थ किसी भी दृष्टिकोण से नही बनता है | वर वधु का मूल्य एक जोड़ा गाय बता कर अम्बेडकर ने दुर्भावना बताई है जबकि मूल अर्थ में गाय का जोड़ा प्रेम पूर्वक देने का उलेख है क्यूंकि वैदिक संस्कृति में गाय का जोड़ा श्रद्धा पूर्वक देने का प्रतीक है |
अम्बेडकर द्वारा अपनी लिखी पुस्तको में प्रयुक्त मनुस्मृति के श्लोको की एक सारणी जिसके अनुसार अम्बेडकर ने कितने गलत अर्थ प्रयुक्त किये और कितने प्रक्षिप्त श्लोको का उपयोग किया और कितने सही श्लोक लिए का विवरण –
सृष्टि रचना पर प्रश्न करने वाले नास्तिक मित्र को आर्य मित्र का उत्तर
जैसे हम जानते हैं की प्रथ्वी आग का गोला थी और ठंढे होने पर इसपर जीवन आरम्भ हुआ । यदि हम यह माने की पृथ्वी ईश्वर द्वारा बनाया हुआ घर है तो जिसपर हम निवास करते हैं ,तो ईश्वर ने सीधा सीधा पृथ्वी को आज जैसा ही क्यों न बना दिया? आग का गोला बना के लाखो साल बाद इंसान को क्यों बनाया? ईश्वर ने सीधा सीधा रहने लायक बना के इंसान की उत्पत्ति क्यों नहीं की?
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समीक्षा – वाह क्या मुर्खता की पराकाष्ठा दिखाई है ? इन महाशय का कहना है की ईश्वर ने इतना समय लिए बिना सीधा पृथ्वी और मनुष्य को उत्पन्न क्यूँ नही किया ?? मैं पूछता हु की हालांकि यह विग्यांविरुद्ध , सृष्टिं नियम विरुद्ध है फिर भी अगर इश्वर ऐसा कर भी दे तो ये नास्तिक फिर भी कहेंगे की ईश्वर ने जब सीधा पृथ्वी को ही बना दिया तो हम इंसानों के लिए आवश्यक सामग्री भी बना देता जैसे की विज्ञान के आविष्कार यथा car , skooter , mobile , train इत्यादि । पुनः यदि ऐसा संभव है तो सीधा प्रलय भी क्योंकर न हो ?
नियमबद्धता का ही नाम विज्ञान है , पुनः आधुनिक विज्ञानं को ही सब कुछ मानने वाले नास्तिक इसी विज्ञानं को ही नहीं जानते । यदि ईश्वर सीधा पृथ्वी को बना दे तो जो वैज्ञानिक सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया खोज रहे है वो कभी सफल हो पायेंगे जब पृथ्वी बिना नियमबद्धता के ही अस्तित्व में आ गयी हो ? पुनः उन महान वैज्ञानिकों के पुरुषार्थ का कोई फल ना मिलने पर ये नास्तिक इस अन्याय का दोष भी ईश्वर पर थोपने से बाज नहीं आयेंगे ।
लगता है नास्तिक जी ने ईश्वर को कुरान का अल्ला समझ रखा है ।
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दावा –
पृथ्वी 100% परफेक्ट नहीं है यंहा कंही समुन्द्र ही समुन्द्र है, तो कंही रेत ही रेत तो कंही जंगल ही जंगल। जापान में जंहा रोज भूकंप आते हैं तो अरब जैसे देशो में पानी ही नहीं जबकि चेरापुंजी में वर्षा ही वर्षा होती है । कंही लोग सूखे से मर रहे हैं तो कंही लोग बाढ़ से , कंही ज्वालामुखी फटते रहते हैं । कंही हजारो फिट खाइयाँ हैं तो कंही हजारो फिट पहाड़ जंहा रहना संभव नहीं। कंही बिजली गिरने से लोग मारे जाते हैं,क्या मारे जाने वाले लोग ईश्वर के बच्चे नहीं हैं?
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समीक्षा –
इनका कथन है की पृथ्वी 100 % perfect नही है कहीं समुन्द्र ही समुन्द्र तो कही मरुस्थल व् कही खाई
ऐसा होना ये imperfection मानते है मैं पूछना चाहता हु की आप के अनुसार क्या होना चाहिए ? कैसे पृथ्वी को design करना चाहिए था ??
चलिए ईश्वर की रचना के विपरीत कल्पना करके देखते है क्या होगा ?
समुद्र की स्थिति की कितनी सम्भावनाए हो सकती है
सम्पूर्ण पृथ्वी पर समुद्र ही होता तो सिर्फ जलीय जीव ही रह पाते पुनः मनुष्य व अन्य जानवरों को आप कहाँ रखते केशव जी अरे इन जीवो व मनुष्यों की छोडिये आप खुद कहाँ रहते?
एक सम्भावना यह भी है सिर्फ थोड़े ही मात्र में बहुत जगहों पर जल हो
लेकिन यहाँ प्रश्न फिर से होगा की बड़े या छोटे अनेकों समुद्री जीवों का थोड़े ही जल में रहना कैसे सम्भव होता ? पुनः थोड़े ही जल में रहना उन जीवों के लिए बंधन रूप होगा स्वतंत्रता नहीं होगी जो की उनके लिए अन्याय होगा ।
समुद्र ही नही होता बल्कि थल ही होता तो भी जलीय जीवों को कैसे रखते ?
इसीलिए समुद्र व थल दोनों की अवश्यकता रहेगी । किसी निश्चित मात्र में ही समुद्र होगा ।
रेगिस्तान में भी जीव रहते है ।
ज्वालामुखी से ही पहाड़ बनते है और सब जानते ह की पहाड़ कितने उपयोगी है खनिज पदार्थ प्राप्त होते है , हमरे घर बनाने में उपयोगी है , सड़कें बनाने में और मुख्यतः नदियाँ पहाड़ों से बहकर समुद्र में मिलती है व् नदियों का पानी पीने के लिए उपयोग होता है अगर केशव जी के अनुसार ईश्वर पहाड़ नहीं बनता तो नदियों को बहाव देने के लिए क्या आपके तथाकथित महात्मा बुद्ध को बुलाना पड़ता ??
इस से पता चला कहीं समुद्र ,कहीं पहाड़ कही थल ऐसी व्यवस्था ही सही होगी ।
आपने प्रश्न करने से पहले यह भी न सोचा की ये सभी समुद्र व् पहाड़ एक दुसरे से किस प्रकार सम्बन्ध रखते है ।आपकी बुद्धि की क्या दाद दें ?
प्रत्येक विज्ञानं व् सामान्य ज्ञान का विद्यार्थी भी जानता है की पर्यावरण विज्ञानं के अनुसार इन बाढ़ , भूकंप , सूखे के लिए हम इंसान ही उत्तरदायी है प्रकृति का अत्यधिक दोहन करने के कारण ।
नास्तिक जी कृपया पुनः पर्यावरण विज्ञानं पढने की कोशिश करें ।
नास्तिक जी आपको हर जगह रहने की ही फ़िक्र सता रही है ??
हर जगह सिर्फ रहने के लिए ही नही होती ।
यहाँ पर एक और बात है केशव जी हर जगह सुरक्षा पर अपनी चिंता जता रहे है अब इनको बताते है की पूर्ण सृष्टि में आपकी किस प्रकार सुरक्षा भी की गयी है ।
पृथ्वी की सुरक्षा के लिए सूर्य , चन्द्रमा व् बृहस्पति गृह का भी भूमिका है
जब भी कोई उल्कापिंड आता है तो पहले उसे बृहस्पति गृह अपने गुरुत्व बल से खिंच लेता यदि वह पृथ्वी की सीमा में आ भी जाये तो उसे चन्द्रमा के गुरुत्व बल से सामना करना पड़ता है व् कुछ उल्कापिंड सूर्य में समा जाते है । अब यदि पृथ्वी पर भी गिरे तो अधिकतर भाग समुद्र , रेगिस्तान , खाई आदि है व् अधिकतर उल्का पिंड भी यही गिरते है । अब देखिये ईश्वर की व्यवस्था में इनका कितना उपयोग है ? यही नही पृथ्वी की सीमा में प्रवेश करते ही वायुमंडल के अत्यधिक घर्षण से बड़ा उल्का पिंड ध्वस्त होकर कई भागों में विभक्त हो जाता है ।
कहिये नास्तिक जी कैसी लगी सृष्टि की पूर्णता ।
दावा -आस्तिको का तर्क है की सभी चीजो का रचियेता ईशश्वर है और उसकी प्रत्येक रचना का कुछ उद्देश्य होता है ,तो हैजे, एड्स, केंसर आदि के सूक्ष्म जीवाणु को किस उद्देश्य से बनाया है ईश्वर ने?
मरे हुए बच्चो को किस उदेश्य से पैदा करता है ईश्वर?
जैसा की सभी जानते हैं की मानव शरीर में लगभग 200 रचनाये ऐसी हैं जिनका मनुष्य के लिए कोई उपयोग नहीं जैसे अपेंडिक्स , अब यदि हमें ईश्वर ने बनाया तो ईश्वर कैसे यह मुर्खता बार बार करता जा रहा है और अनुपयोगी चीजो को बनता जा रहा है?
कैसा परफेक्ट ईश्वर है?
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समीक्षा –
यह सवाल पूछ कर आपने बहुत अच्छा किया ताकि इस के उत्तर में नास्तिकों के कुकृत्य के बारे में भी बता दिया जाये ।
aids का virus एक चिम्पांजी और मनुष्य के यौन सम्बन्ध से पैदा हुआ था
इस बारे में यह धारणा भी ह की चिम्पांजी का मांस खाने पर यह वायरस mutation से बढ़ कर aids का virus बन गया था
व एक और धरना है की us america में सबसे पहले समलैंगिक पुरुषों में यह पाया गया
बाकी जीवाणु भी इसी प्रकार सृष्टि नियमविरुद्ध कार्यों का ही परिणाम है ।
apandix का अवश्य कोई कार्य है ही वर्ना अधिक वजन उठाने पर ये ख़राब क्यूँ होती ?
यदि madical science शरीर विज्ञानं पूरा जानती तब तो यह प्रश्न उठ सकता था लेकिन अभी तो विज्ञानं को और भी बातें खोजनी है इसलिए आपका यह तथ्य बालू की रेत से बनाये महलों के सामान ध्वस्त होता है ।
अब आप ये निर्णय कर लें की मुर्खता किसने की है ?
दावा -आस्तिक कहते हैं सूरज समय पर उगता है, प्रथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, 24 घंटे में अपना चक्कर पूरा करती है,ग्रहों का अपने परिक्रमापथ पर एक निर्धारति गति से घूमना आदि ईश्वर के नियम हैं।
पर, यह तर्क भी तर्कहीन है और आस्तिको के अल्पज्ञान का परिचारक है ।
गंभीरता से सोचने पर हम पाते हैं की प्रतिदिन सूर्य के उगने और अस्त होने में एक आध मिनट का फर्क रहता है ,फर्क इतना है की सर्दियों में राते 13 घंटे की तक की हो जाती है और इतने ही समय का दिन हो जाता है गर्मियों में ।
इसी प्रकार पृथ्वी कभी भी 365 दिन में सूर्य की परिक्रमा नहीं पूरी कर पाती है , समय घटता बढ़ता रहता है।
तो फिर यह कहना की सृष्टि ईश्वर के नियम से चल रही है सरासर मुर्खता है। एक प्रश्न और उठता है यंहा की यदि ईश्वर ने सृष्टि को नियमों से बाँधा हुआ है तो ईश्वर के लिए कौन नियम निर्धारित करता है?
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समीक्षा- पहली बात कि जो आस्तिक यह बात कहते है वह अपने सामान्य ज्ञान के अनुसार नियमबद्धता को जानकर ऐसा कहते है इस हिसाब उनका कहना सही भी है ।
लेकिन यहाँ जो तथ्य दिखाए गए है उनसे नियमबद्धता टूटती नही देखते है कैसे ?
हम आधुनिक विज्ञान के कारण जानकर पता करते है की ऐसा क्यूँ होता है तो हमारा विश्वाश ईश्वर के प्रति और दृढ होता है ।
नास्तिक जी ने गंभीरता से सोचकर यह आक्षेप लगाया है की प्रतिदिन व् हर साल सूर्योदय व सुर्यस्त में फर्क आता है लेकिन यदि नास्तिक जी थोडा और गंभीरता की गहराई में जाते तब तो सत्य का पता चलता लेकिन इन्हें ईश्वर पर दोष लगाने का बहाना मिल गया तो और गहराई में क्यों जाये भला ??
जिस परिवर्तन की बात यहाँ की गयी है वह पृथ्वी का अपने अक्ष पर झुकाव के कारण होता है । अब इस झुकाव के कारण पृथ्वी से सूर्य की स्थिति बदलती रहती है एक वर्ष तक । अब इस स्थिति के बदलने से जो पथ बनता है वह लगभग 8 अंक जैसी होती है । और यह पथ हर वर्ष वैसा ही बनता है बदलता नही । केशव जी इसे कहते है नियमबद्धता और इसे कहते है पूर्णता ।
पृथ्वी अपने अक्ष पर घूर्णन करते हुए उसी अक्ष के सापेक्ष साथ ही वृत्ताकार आकृति का अनुसरण करती है यह वृत्ताकार आकृति का पथ 26000 साल में एक बार ख़त्म होता है व् 26000 सालों के हर प्रवाह के अंत में पृथ्वी का अक्ष एक तारे की और इंगित होता है अर्थात 26000 साल खत्म होने के अगले 26000 साल के प्रवाह में भी अंत में पृथ्वी का अक्ष उसी तारे की और इंगित होता है ।
और उस तारे की और इंगित होने पर पृथ्वी की ice age पर effect पड़ता है ।
नास्तिक जी इसे कहते ह पूर्णता ।
अभी कहानी ख़त्म नहीं हुयी है पृथ्वी सूर्य के चारों और elliptical orbit में घुमती है ।अब यह elliptical orbit का पथ भी सूर्य के केंद्र के सापेक्ष ऊपर निचे गति करता है यह गति भी कई सालों में संपन्न होती है ।
अब इतने सरे complication के बाद भी नियमबद्धता बनी हुयी है यहाँ तक सूर्य भी आकाशगंगा के केंद्र के चरों घूमता है और वह तारा जिस की और पृथ्वी का अक्ष इंगित होता है वह भी सूर्य की तरह इस प्रकार के complications से घिरा हुआ है अब इतने complication के बाद भी पृथ्वी का प्रत्येक 26000 साल के चरण में उस तारे की और इंगित करना व सूर्य का हर साल अपने पथ पर पुनः अनुगमन करना सृष्टि की पूर्णता को ही साबित करता है ।
अब सामान्य आस्तिक बंधु इन complications को न जानकर भी इस नियमबद्धता के सिद्धांत को अपने सामान्य ज्ञान से बतलाते है तो उसमे कुछ गलत नही ।
नास्तिक जी आप भी अपने पूर्वाग्रह को छोड़कर सूर्य की तरह सत्य पथ के अनुगामी बनिए ।
अतः हमें अंत में पता चला कि सृष्टि में अनेक रहस्य भरे पड़े है जिन्हें इन्सान पूर्ण रूप से नही जानता इसलिए सृष्टि को बिना जाने ईश्वर पर आक्षेप लगाना मुर्खता है ।
इसीलिए वेद में आया
की इस सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुयी यह कोई नही जानता क्यूँ कि यह रहस्य जानने वाले विद्वानों की उत्पत्ति भी बाद में हुयी ।
नास्तिक जी आपने यह मन्त्र दिया था व् आक्षेप लगाया लेकिन यही मन्त्र आपकी पोस्ट का उत्तर बना ।
नास्तिक जी यहाँ सृष्टि की पूर्णता सिद्ध हुयी अतः पूर्णता सिद्ध होने पर ईश्वर की भी सिद्धि मेरी पिछली पोस्ट के अनुसार जिसमे आपने ईश्वर के कारण पर प्रश्न उठाया था ।
इसलिए अब आपको सत्य को ग्रहण करने से पीछे नही हटना चाहिए , व सत्य से भागने का असफल प्रयास नही करना चाहिए ।
क्या वेदों में वर्णित जर्भरी तुर्फरी का कोई अर्थ नही है ?(चार्वाक मत खंडन )
मित्रो कई नास्तिक वादी और अम्बेडकर वादी वेदों पर चार्वाक दर्शन के आधार पर आरोप लगाते है कि वेदों में जर्भरी तुर्फरी का कोई अर्थ नही है ये युही लिखे गये है | कुछ दलित साहित्य कार जो आर्यों को विदेशी साबित करने पर तुले है वो कहते है कि ये ईराक आदि देशो के नदियों या किसी शहर के नाम थे जहा से आर्य भारत आये |
इस तरह की काल्पनिक बातें या कहानिया ये लोग गढ़ लेते है |
चार्वाक कहते है :-
” त्रयो वेदस्य कर्तारो भंडधूर्तनिशाचरा:|
जर्फरीतुर्फरीत्यादी पंडितानां वच: स्मृतम्||चार्वाक||”
भंड ,धूर्त ,निशाचर ये लोग वेदों के कर्ता है |इनके नाना प्रकार के बेमतलब शब्दों जर्भरी तुर्फरी से वेद भरा पड़ा है |
यहा चार्वाक और अनेक अम्बेडकर वादी ये भ्रम पैदा कर दिया कि वेदों में कई अनर्थक बिना मतलब वाले शब्द है |जिनका कोई अर्थ नही है | तो कुछ इन शब्दों को संस्कृत का न बता कर अन्य भाषा का बताते है |क्यूंकि ये लोग लोकिक संस्कृत और वैदिक संस्कृत के भेद से परिचित नही है या थे इसलिए इस तरह की कल्पनाये या बातें मन में धारण कर लेते है |
वेदों में वर्णित सभी शब्द या धातु अपना अर्थ रखती है ..
इस संधर्भ में निरुक्त में कौत्स के नाम से ऐसा पूर्वपक्ष उठाकर यही बात कहलाई गयी है | और यास्क उत्तर देते हुए कहते है कि वेदों में वर्णित सभी शब्दों के अर्थ है और स्पष्ट अर्थ है |
जैमिनी मुनि ने मीमासा में पूर्वपक्ष में इस तरह के प्रश्नों का समाधान करते हुए कहा है कि वेदों में सब शब्द अर्थ पूर्ण है |
ये जर्भरि और तुर्फरी शब्द ऋग्वेद के १०/१०६/६ में आये है :-
” सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतु नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका |
उदन्यजेव जेमना म्देरु ता में जराय्वजरं मरायु ||६||”
ये दोनों शब्द दिवचन है और अश्विनो के विशेषण है यास्क मुनि निरुक्त परिशिष्ट अध्याय १३ के ६ खंड में इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करते हुए ऋग्वेद के १०/१०६/६ की व्याख्या करते हुए कहते है – ” सृण्येवेति द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च तथाश्विनौ चापि भर्तारो जर्भरी भर्तारावित्यर्थस्तूर्फरीतू हन्तारो| निरुक्त १३/६/४ |
यहा इसे अश्विनो का विशेषण बताते हुए यास्कचार्य जर्भरी को भर्ता से व्यक्त करते है अर्थात पोषण करने वाला अत: जर्भरी का अर्थ हुआ पोषण करने वाला |
तुर्फरी को हन्ता से व्यक्त करते है अर्थात ताड़ने वाला या मारने वाला होता है | अत: तुर्फरी का अर्थ हुआ मारने वाला या सताने वाला |
यहा दोनों शब्दों का अर्थ स्पष्ट कर दिया है |
अश्विनी का अर्थ विद्युत भी होता है और इस मन्त्र में इसे यास्क ने इसी का विशेषण बताया है | इस मन्त्र में जर्भरी ओर तुर्फरी को पालन करने वाला बताया है जेसा की हम देखते है कि विद्युत का कई तरह से उपयोग कर हम अपने जीवन को सरल और आरामदायक बना रहे है ,जैसे मिक्सी ,चक्की ,फ्रिज,वाशिंगमशीन ,हीटर आदि में विद्युत के उपयोग द्वारा …
तो दूसरी तरफ यही विद्युत दुर्घटना वश लोगो को करंट दे कर ताड़ती है ,कई बार आकाशी विद्युत गिर जाती है तो बहुत हानि करती है ,अत्यधिक वोल्टेज के या ३ फेस तारो को कोई छू लेता है तो वो मर जाता है या विधुयुत उसे मारती है ..इस तरह इस मन्त्र में यही रहस्य प्रकट करते हुए विद्युत को जर्भरी पालने वाली और तुर्फरी नाशक बताया गया है |
इन सब प्रमाणों से इस बात का खंडन हो जाता है कि वेदों में बिना अर्थ वाले शब्द है या विदेशी शब्द है |
ओम ……………
क्या वेदों में यज्ञो में गौ आदि पशु मॉस से आहुति या मॉस को अतिथि को खिलाने का विधान है ??(अम्बेडकर के आक्षेप का उत्तर )..
नमस्ते मित्रो |
अम्बेडकर साहब आर्ष ग्रंथो और वैदिक ग्रंथो पर आक्षेप करते हुए अपनी लिखित पुस्तक “THE UNTOUCHABLE WHO WERE THEY WHY BECOME UNTOUCHABLES” में कहते है कि प्राचीन काल (वैदिक काल ) में गौ बलि और गौ मॉस खाया जाता था | इस हेतु अम्बेडकर साहब ने वेद (ऋग्वेद ) और शतपथ आदि ग्रंथो का प्रमाण दिया है |
हम उनके वेद पर किये आक्षेपों की ही समीक्षा करेंगे | क्युकि शतपत आदि ग्रंथो को हम मनुष्यकृत मानते है जिनमे मिलावट संभव है लेकिन वेद में नही अत: वेदों पर किये गए आक्षेपों का जवाब देना हमारा कर्तव्य है क्यूंकि मनु महाराज ने कहा है :-
” अर्थधर्मोपदेशञ्च वेदशास्त्राSविरोधिना |
यस्तर्केणानुसन्धते स धर्म वेदनेतर:||”-मनु
जो ऋषियों का बताया हुआ धर्म का उपदेश हो और वेदरूपी शास्त्र के विरुद्ध न हो और जिसे तर्क से भी सिद्ध कर लिया हो वही धर्म है इसके विरुद्ध नही |
मनु महाराज ने स्पष्ट कहा है कि यदि अन्य ग्रंथो में वेद विरुद्ध बातें है तो त्याज्य है | शतपत ,ग्र्ह्सुत्रो में जो गौ वध आदि की बात दी है वो वेद विरुद्ध और वाम मर्गियो द्वारा डाली गयी है ,पहले यज्ञो में पशु बलि नही होती थी | अब हम यहा बतायेंगे कि ये वाममार्ग और मॉस भक्षण का विधान कहा से आया तो पता चलता है यज्ञ सम्बंधित कर्मकांड वेद के यजुर्वेद का विषय है और यजुर्वेद की दो शाखाये है :-
शुक्ल यजुर्वेद
कृष्ण यजुर्वेद
यहा शुक्ल का अर्थ है शुद्ध ,सात्विक जबकि कृष्ण का तमोगुणी ,अशुद्ध |
अर्थात जिस यजुर्वेद में सतोगुणी यज्ञ का विधान हो वह शुक्ल है और जिसमे तमोगुणी (मॉस आहुति आदि ) का विधान है वो कृष्ण है |
इनमे से शुक्ल यजुर्वेद ही प्राचीन और अपोरुष मानी गयी वेद संहिता है जबकि कृष्ण बाद की और मनुष्यकृत है |
इस कृष्ण यजुर्वेद के संधर्भ में महीधर भाष्य भूमिका से पता चलता है कि याज्ञवल्क्य व्यास जी के शिष्य वैश्यायन के शिष्य थे | उन्होंने वैशम्पायन से यजुर्वेद पढ़ा | एक दिन किसी कारण वंश याज्ञवल्क्य जी पर वैशम्पायन क्रुद्ध हो गये | और कहा मुझ से जो पढ़ा है उसे छोड़ दो ,याज्ञवल्क्य ने वेद का वमन कर दिया |
तब वैशम्पायन जी ने दुसरे शिष्यों से कहा कि तुम इसे खा लो ,शिष्यों ने तुरंत तीतर बन कर उसे खा लिया |
उससे कृष्ण यजुर्वेद हुआ | यद्यपि ये बात साधारण मनुष्यों की बुधि में असंगत ओर निर्थक ठहरती है लेकिन बुद्धिमान लोग तुरंत परिणाम निकाल लेंगे |इससे पता चलता है कि तमो गुणी यज्ञ का विधान याज्ञवल्क्य के समय (महाभारत के बाद ) से चला |
और तभी से आर्ष ग्रंथो में मिलावट होना शुरू हो गयी थी |शतपत में भी याज्ञवल्क्य का नाम है अत: स्पष्ट है इसमें भी मिलावट हो गयी थी |और तामसिक यज्ञो का प्रचलन शुरू होने लगा …
जबकि प्राचीन काल में ऐसा नही था इसके बारे में स्वयं बुद्ध सुतानिपात में कहते है :-
“अन्नदा बलदा नेता बण्णदा सुखदा तथा
एतमत्थवंस ञत्वानास्सु गावो
हनिसुते |
न पादा न विसाणेन नास्सु हिंसन्ति केनचि
गानों एकक समाना सोरता कुम्भ दुहना |
ता विसाणे गहेत्वान राजा सत्येन घातयि |”
अर्थ -पूर्व समय में ब्राह्मण लोग गौ को अन्न,बल ,कान्ति और सुख देने वाली मानकर उसकी कभी हिंसा नही करते थे | परन्तु आज घडो दूध देने वाली ,पैर और सींग न मारने वाली सीधी गाय को गौमेध मे मारते है |
इसी तरह सुतनिपात के ३०० में बुद्ध ने ब्राह्मणों के लालची ओर दुष्ट हो जाने का उलेख किया है |
इससे पता चलता है कि बुद्ध के समय में भी यह ज्ञात था कि प्राचीन काल में यज्ञो में गौ हत्या अथवा गौ मॉस का प्रयोग नही था |इस संधर्भ में एक अन्य प्रमाण हमे कूटदंतुक में मिलता है | जिसमे बुद्ध ब्राह्मण कुतदंतुक से कहते है कि उस यज्ञ में पशु बलि के लिए नही थे | इस बात को अम्बेडकर ने हसी मजाक बना कर टालमटोल करने की कोशिस की है ,जबकि कूटदंतुक में बुद्ध ने यज्ञ पुरोहित के गुण भी बताये है :- सुजात ,त्रिवेद (वेद ज्ञानी ) ,शीलवान और मेधावी | और यज्ञ में घी ,दूध ,दही ,अनाज ,मधु के प्रयोग को बताया है |
अत: स्पष्ट है कि बुद्ध यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ में हिंसा विरोधी थे ,सुतानिपात ५६९ में बुद्ध का निम्न कथन है :-
अर्थात छंदो मे सावित्री छंद(गायत्री छंद ) मुख्य है ओर यज्ञो मे अग्निहोत्र । अत: निम्न बातो से निष्कर्ष निकलता है कि बुध्द वास्तव मे यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ मे जीव हत्या करने वाले के विरोधी थे।
इमं मा हिंसीर्द्विपाद पशुम् (यजु १३/४७ )
दो खुरो वाले पशुओ की हिंसा मत करो |
इमं मा हिंसीरेकशफ़ पशुम (यजु १३/४८ )
एक खुर वाले पशु की हिंसा मत करो |
मा नो हिंसिष्ट द्विपदो मा चतुष्यपद:(अर्थव ११/२/१)
हमारे दो ,चार खुरो वाले पशुओ की हिंसा मत करो |
मा सेंधत (ऋग. ७/३२/९ )
हिंसा मत करो |
वेद स्पष्ट अंहिसा का उलेख करते है जबकि मॉस बिना हिंसा के नही मिलता और यज्ञ में भी बलि आदि हिंसा ही है |
अब यज्ञो में पशु वध या वैदिक यज्ञो में पशु मॉस आहुति के बारे में विचार करेंगे :-
आंबेडकर जी का कहना है कि वेदों में बाँझ जो दूध नही दे सकती उनकी बलि देने और मॉस खाने का नियम है जबकि वेद स्वयम उनकी इस बात का खंडन करते है
वेदों में मॉस निषेध :- ऋग्वेद १०/८७/१६ में ही आया है की राजा जो पशु मॉस से पेट भरते है उन्हें कठोर दंड दे …
पय: पशुनाम (अर्थव १९/३१/१५ )
है मनुष्य ! तुझे पशुओ से पैय पदार्थ (पीने योग्य पदार्थ ) ही लेने है |
यदि पशु मॉस खाने का विधान होता तो यहा मॉस का भी उलेख होता जबकि पैय पदार्थ दूध और रोग विशेष में गौ मूत्र आदि ही लेने का विधान है |
वेदों में यज्ञ में हिंसा और मॉस भक्षण के संधर्भ में आंबेडकर जी निम्न प्रमाण वेदों के देते है :-
यजुर्वेद के एक अध्याय में यज्ञ में कई पशु लाने का उलेख है जिसका उदेश्य उनकी हत्या नही बल्कि यज्ञ में दी गयी ओषधी आदि की आहुति से लाभान्वित करना है क्यूँ की यज्ञ का उदेश्य पर्यावरण और स्रष्टि में उपस्थित प्राणियों को आरोग्य प्रदान करना पर्यावरण को स्वच्छ रखना है | क्यूंकि यज्ञ में दी गयी आहुति अग्नि के द्वारा कई भागो में टूट जाती है और श्वसन द्वारा प्राणियों के शरीर में जा कर आरोग्य प्रदान करती है
जरा यजुर्वेद का यह मंत्र देखे-
“इमा मे अग्नS इष्टका धेनव: सन्त्वेक च दश च दश च शतं च शतं च सहस्त्रं च सहस्त्रं चायुतं चायुतं च नियुतं च नियुतं च प्रयुतं चार्बुदं च न्यर्बुदं च समुद्रश्र्च मध्यं चान्तश्र्च परार्धश्र्चैता मे अग्नS इष्टका धनेव: सन्त्वमुत्रामुष्मिल्लोके”॥17:2॥
अर्थ-है अग्नीदेव!ये इष्टिकाए(हवन मे अर्पित सूक्ष्म इकाईया)हमारे लिए गौ के सदृश(अभीष्ट फलदायक) हौ जाए। ये इष्टकाए एक,एक से दसगुणित होकर दस,दस से दस गुणित हौकर सौ,सौ की दस गुणित होकर हजार,हजार की दस गुणित होकरअयुत(दस हजार),अयुत की दस गुणित होकर नियुत(लाख),नियुत की दस गुणित हो कर प्रयुत(दस लक्ष), प्रयुत की दस गुणित हो कर कोटि(करौड),कोटि की दस गुणित हो कर अर्बुद(दस करौड),अर्बुद की दस गुणित होकर न्युर्बुद इसी प्रकार दस के गुणज मे बढती है।न्युर्बुद का दस गुणित खर्व(दस अरब),खर्व का दस गुणित पद्म(खरब)पद्म का दस गुणित महापद्म(दस खरब)महापद्म का दस गुणित मध्य(शंख पद्म)मध्य का दस गुणित अन्त(दस शंख)ओर अन्त की दस गुणित होकर परार्ध्द(लक्ष लक्ष कोटि)संख्या तक बढ जाए॥
उपरोक्त मन्त्र में स्पष्ट है की यज्ञ से आहुति कई भागो नेनो में बट जाती है तथा कई दूर तक फ़ैल कर कई प्राणियों को लाभान्वित करती है |
अब अम्बेडकर जी के दिए प्रमाणों पर एक नजर डालते है :-
आंबेडकर जी ऋग्वेद १०/८६/१४ में लिखता है :- इंद्र कहता है कि वे पकाते है मेरे लिए १५ बैल ,मै खाता हु उनका वसा ….!
यहा लगता है अम्बेडकर ने किसी अंग्रेजी भाष्यकार का अनुसरण किया है या फिर जान बुझ ऐसा लिखा है इसका वास्तविक अर्थ जो निरुक्त ,छंद ,वैदिक व्याकरण द्वारा होना चाहिए इस प्रकार है :-
“परा श्रृणीहि तपसा यातुधानान्पराग्ने रक्षो हरसा श्रृणीहि|
परार्चिर्षा मृरदेवाञ्छृणीहि परासुतृपो अभि शोशुचान:(ऋग्वेद १०/८३/१४ )”
उपरोक्त मन्त्र में कही भी इंद्र ,बैल ,वसा ,खाना आदि शब्द नही है फिर अम्बेडकर जी को कहा से नजर आये ..इसका भाष्य – (अग्ने) यह अग्नि (अभि शोशुचान) तीक्ष्ण होता हुआ (तपसा) ताप से (यातुधानान) पीड़ाकारक जन्तुओ (रोगाणु आदि ) (परशृणीहि ) मारता है (मृरदेदान) रोग फ़ैलाने वाले अथवा मारक व्यापार करने वाले घातक रोगाणु को (अचिषा) अपने तेज से (परा श्रृणीहि ) मारता और (असृतृप:) प्राणों से तृप्त होने वाले क्रिमी को मारता अथवा नष्ट करता है |
इसमें अग्नि के ताप से सूक्ष्म रोगानुओ के नष्ट होने का उलेख है | वेदों में सूर्य और उसकी किरण को भी अग्नि कहा है तो यह सूर्य किरणों द्वारा रोगाणु का नाश होना है ..इस मन्त्र में सूर्य किरण या ताप द्वारा चिकित्सा और रोगाणु नाश का रहस्य है |
एक अन्य मन्त्र १०/७२/६ का भी अम्बेडकर वेदों में हिंसा के लिए उलेख करते है |
” यद्देवा ………………….रेणुरपायत(ऋग. १०/७२/६)”
(यत) जो (देवा) प्रकाशरूप सूर्य आदि आकाशीय पिंड (अद:) दूर दूर तक फैले है (सलिले) प्रदान कारण तत्व वा महान आकाश में (सु-स-रब्धा) उत्तम रीती से बने हुए और गतिशील होकर (अतिष्ठित) विद्यमान है |
है जीवो ! (अत्र) इन लोको में ही (नृत्यतां इव वा ) नाचते हुए आनंद विनोद करते हुए आप लोगो का (तीव्र: रेणु 🙂 अति वेग युक्त अंश ,आत्मा स्वत: रेणुवत् अणु परिणामी वा गतिशील है वह (अप आयत ) शरीर से पृथक हो कर लोकान्तर में जाता है |
इस मन्त्र में लोको में प्राणी (पृथ्वी आदि अन्य ग्रह में प्राणी ) एलियन आदि का रहस्य है और आत्मा और मृत्यु पश्चात आत्मा की स्थिति का रहस्य है | यहा कही भी मॉस या मॉस भक्षण नही है जेसा की अम्बेडकर जी ने माना …
एक अन्य उदाहरन अम्बेडकर जी ऋग्वेद १०/९१/१४ का देते है :-अग्नि में घोड़े ,गाय ,भेड़ ,बकरी की आहुति दी जाती थी |
” यस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशामेषा अवसृष्टास आहूता:|
कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदामर्ति जनये चारुमग्नये (ऋग्वेद १०/९१/१४)”
(यस्मिन) जिस सृष्टी में परमात्मा ने (अश्वास:) अश्व (ऋषभास) सांड (उक्ष्ण) बैल (वशा) गाय (मेषा:) भेड़ ,बकरिया (अवस्रष्टास) उत्पन्न किये और (आहूता) मनुष्यों को प्रदान कर दिए | वाही ईश्वर (अग्नेय) अग्नि के लिए (कीलालपो) वायु के लिए (वेधसे) आदित्य के लिए (सोमपृष्ठाय) अंगिरा के लिए (हृदा) उनके ह्रदय में (चारुम) सुन्दर (मतिम) ज्ञान (जनये) प्रकट करता है |
यहा भी मॉस आदि नही बल्कि सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर द्वारा वेद ज्ञान प्रदान करने का उलेख है |
लेकिन इस मन्त्र में कोई हट करे की अग्नि बैल ,अश्व ,भेड़ गौ आदि शब्दों से इनकी अग्नि में आहुति है |
तो ऐसे लोगो से मेरा कहना है की क्या ये नाम किसी ओषधी आदि के नही हो सकते है | क्यूँ कि वेदों में आहुति में ओषधि का उलेख मिलता है | जो की महामृत्युंजय मन्त्र में “त्र्यम्बकम यजामहे …..” में देख सकते है इसमें त्रि =तीन अम्ब =ओषधी का उलेख है और यजामहे =यज्ञ में देने का …अत: ये नाम ओषधियो के है |
इसे समझने के लिए कुछ उदाहरण देता हु –
(१) बुद्ध ग्रन्थ में आया है :-
हिन्दी करे तो होगा सूकर कन्द ओर संस्कृत मे बराह
कन्द यदि आम भाषा मे देखे तो सकरकन्द चुकि ये दो प्रकार
का होता है १ घरेलु मीठा२ जंगली कडवा इस
पर छोटे सूकर जैसे बाल आते है इस लिए इसे बराह कन्द
या शकरकन्द कहते है|ये एक कन्द होता है जिसका साग
बनाया जाता है |इसके गुण यह है कि यह चेपदार मधुर और गरिष्ठ
होता है तथा अतिसार उत्पादक है जिसके कारण इसे खाने से बुद्ध को अतिसार हो गया था |
एक अन्य उदाहरण भी देखे :-
हठयोग प्रदीप में आया है :-
” गौमांसभक्षयेन्नित्यं पिबेदमरवारुणीम् |
कुलीन तमहं मन्ये इतर कुलघातक:||”
अर्थात जो मनुष्य नित्य गौ मॉस खाता है और मदिरा पीता है,वही कुलीन है ,अन्य मनुष्य कुल घाती है |
यहा गौ मॉस का उलेख लग रहा है लेकिन अगले श्लोक में लिखा है :-
” गौशब्देनोदिता जिव्हा तत्प्रवेशो हि तालुनि गौमासभक्षण तत्तु महापातकनाशम्”
अर्थात योगी पुरुष जिव्हा को लोटाकर तालू में प्रवेश करता है उसे गौ मॉस भक्षण कहा है |
यहा योग मुद्रा की खेचरी मुद्रा का वर्णन है ..गौ का अर्थ जीव्हा होती है और ये मॉस की बनी है इस्लिते इसे गौ मॉस कहा है और इसे तालू से लगाना इसका भक्षण करना तथा ऐसा माना जाता है की ये मुद्रा सिद्ध होने पर एक रस का स्वाद आता है इसी रस को मदिरा पान कहा है |
यदि यहा श्लोक्कार स्वयम अगले श्लोक में अर्थ स्पष्ट नही करता तो यहा मॉस भक्षण ही समझा जाता …
इसी तरह वेदों में आय गौ ,अश्व ,आदि नाम अन्य वस्तुओ ओषधि आदि के भी हो सकते है ..यज्ञ के आहुति सम्बन्ध में ओषधि और अनाज के ,,जिसके बारे में वेदों में ही लिखा है :-
धाना धेनुरभवद् वत्सो अस्यास्तिलोsभवत (अर्थव १८/४/३२)
धान ही धेनु है औरतिल ही बछड़े है |
अश्वा: कणा गावस्तण्डूला मशकास्तुषा |
श्याममयोsस्य मांसानि लोहितमस्य लोहितम||(अर्थव ११/३ (१)/५७ )
चावल के कण अश्व है ,चावल ही गौ है ,भूसी ही मशक है ,चावल का जो श्याम भाग है वाही मॉस है और लाल अंश रुधिर है |
यहा वेदों ने इन शब्दों के अन्य अर्थ प्रकट कर दिए जिससे सिद्ध होता है की मॉस पशु हत्या का कोई उलेख वेदों में नही है |
अनेक पशुओ के नाम से मिलते जुलते ओषध के नाम है ये नाम गुणवाची संज्ञा के कारण समान है ,श्रीवेंकटेश्वर प्रेस,मुम्बई से छपे ओषधिकोष में निम्न वनस्पतियों के नाम पशु संज्ञक है जिनके कुछ उधाहरण नीचे प्रस्तुत है :-
वृषभ =ऋषभकंद मेष=जीवशाक
श्वान=कुत्ताघास ,ग्र्न्थिपर्ण कुकुक्ट = शाल्मलीवृक्ष
मार्जार= चित्ता मयूर= मयुरशिखा
बीछु=बिछुबूटी मृग= जटामासी
अश्व= अश्वग्न्दा गौ =गौलोमी
वाराह =वराह कंद रुधिर=केसर
इस तरह ये वनस्पति भी सिद्ध होती है अत: यहा यज्ञो में प्राणी जन्य मॉस अर्थ लेना गलत है |
अम्बेडकर कहते है कि प्राचीन काल में अतिथि का स्वागत मॉस खिला कर किया जाता था| ये शायद ही इन्होने नेहरु या विवेकानद जेसो की पुस्तक से पढ़ा होगा विवेकानद की जीवनी द कोम्पिलीत वर्क में कुछ ऐसा ही वर्णन है जिसके बारे में यहा विचार नही किया जाएगा ..जिसे आप आर्यमंत्वय साईट के एक लेख में सप्रमाण देख सकते है |
इस संधर्भ में मै कुछ बातें रखता हु :-
ऋग्वेद १०/८७/१६ में स्पष्ट मॉस भक्षी को कठोर दंड देना लिखा है तो अतिथि को मॉस खिलाना ऐसी बात संभव ही नही वेदानुसार …
मनुस्मृति में आया है ” यक्षरक्ष: पिशाचान्न मघ मॉस सुराssसवम (मनु ११/९५ )”
मॉस और मध राक्षसो और पिशाचो का आहार है |
यहा मॉस को पिशाचो का आहार कहा है जबकि भारतीय संस्कृति का प्राचीन काल से अतिथि के लिए निम्न वाक्य प्रयुक्त होता आया है ” अतिथि देवोभव:” अर्थात अतिथि को देव माना है अब भला कोई देवो को पिशाचो का आहार खिलायेगा …
” अघतेsत्ति च भुतानि तस्मादन्न तदुच्यते (तैत॰ २/२/९)”
प्राणी मात्र का जो कुछ आहार है वो अन्न ही है |
जब प्राणी मात्र का आहार अन्न होने की घोषणा है तो मॉस भक्षण का सवाल ही नही उठता |
कुछ अम्बेडकर के अनुयायी या वेद विरोधी लोग अर्थव॰ के ९/६पर्याय ३/४ का प्रमाण देते हुए कहते है की इसमें लिखा है की अथिति को मॉस परोसा जाय|
जबकि मन्त्र का वास्तविक अर्थ निम्न प्रकार है :-” प्रजा च वा ………………पूर्वोष्शातिश्शनाति |”
जो ग्रहस्थ निश्चय करके अपनी प्रजा और पशुओ का नाश करता है जो अतिथि से पहले खाता है |
इस मन्त्र में अतिथि से छुप कर खाने या पहले खाने वाले की निंदा की है …उसका बेटे बेटी माँ ,पिता ,पत्नी आदि प्रजा दुःख भोगते है ..और पशु (पशु को समृधि और धनवान होने का प्रतीक माना गया है ) की हानि अथवा कमी होती है …अर्थात ऐसे व्यक्ति के सुख वैभव नष्ट हो जाए | यहा अतिथि को मॉस खिलाने का कोई उलेख नही है |
अत: निम्न प्रमाणों से स्पष्ट है की प्राचीन काल में न यज्ञ में बलि होती थी न मॉस भक्षण होता था ..न ही वेद यज्ञ में पशु हत्या का उलेख करते है न ही किसी के मॉस भक्षण का …..
यदि कोई कहे की ब्राह्मण मॉस खाते थे तो सम्भवत कई जगह खाते होंगे, और यज्ञ में भी हत्या होती थी लेकिन कहे की वेदों में हत्या और मॉस भक्षण है तो ये बिलकुल गलत और प्रमाणों द्वारा गलत सिद्ध होता है | और कहे प्राचीन काल यज्ञो में मॉस भक्षण और मॉस आहुति होती थी तो ये भी उपरोक्त प्रमाणों से गलत सिद्ध होता है यज्ञ का बिगड़ा स्वरूप और ब्राह्मण ,ग्रहसूत्रों में मॉस के प्रयोग वाममर्गियो द्वारा महाभारत के बाद जोड़ा गया जो की उपरोक्त प्रमाणों में सिद्ध क्या गया है |
अत: अम्बेडकर का कथन प्राचीन आर्य (ब्राह्मण आदि ) यज्ञ में पशु हत्या और मॉस भक्षण करते थे ,वैदिक काल में अतिथि को मॉस खिलाया जाता था आदि बिलकुल गलत और गलत भाष्य पढने का परिणाम है |
समभवतय उन्होंने ये ब्राह्मण विरोधी मानसिकता अथवा बुद्ध मत को सर्व श्रेष्ट सिद्ध करने के कारण लिखा हो |
ओम
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तके :- (१) वेद सौरभ – जगदीश्वरानन्द जी
(२) वैदिक सम्पति -रघुनंदन शर्मा जी
(३) यज्ञ में पशुवध वेद विरोध – नरेंद्र देव शास्त्री जी
(४) वैदिक पशु यज्ञ मिमास -प्रो. विश्वनाथ जी
(५) सत्यार्थ प्रकाश उभरते प्रश्न गरजते उत्तर -अग्निव्रत नैष्ठिक जी
(६) the untouchable who were they and why become untouchables-अम्बेडकर जी
(७) महात्माबुद्ध और सूअर का मॉस -अज्ञात
(८) भारत का वृहत इतिहास -आचार्य रामदेव जी
(९) mahatma budha an arya reformer-धर्मदेवा जी
(१०) ऋग्वेदभाष्य -आर्यसमाज जाम नगर ,हरिशरणजी ,जयदेव शर्मा जी
(११) स्वामी दर्शनानंद ग्रन्थ संग्रह (क्या शतपत आदि में मिलावट नही )-स्वामी दर्शनानद जी