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कुरआन के नामकरण में गफलतबाजी

लेखक -देव प्रकाश
मुस्लिम विद्वान जलालुद्दीन सिद्दीकी ने अपनी पुस्तक तफसीर इत्तिकान में कुरआन और सूरतो के नाम के सम्बन्ध में चर्चा की है ,कि खुदावन्द ने अपनी पुस्तक के नाम उनके विपरीत रखे |
इसी पुस्तक में कुरआन के ५५ नाम लिखे है – तफसीर इत्तिकान ,प्रकरण १७ पेज १३२-३४
मुजफ्फरी के अनुसार अबूबकर ने कुरान को जमा किया तब लोगो ने इसका नामकरण करने को कहा तो किसी ने इंजील कुछ ने सफर नाम सुझाया लेकिन अबूबकर ने इब्ने मसूद के प्रस्ताव से नाम मुसहिफ़ रख दिया |
इसी प्रकार इब्ने अश्त्ता किताबुल मुसहिफ़ में मूसा बिन अकवा के आधार पर इब्ने शहाब की रवायत की अबू बकर ने सम्मति से मुसहिफ़ नाम रखा |
व्याख्याकार लिखता है कि अबूबकर वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कुरआन को संकलित कर उसका नाम मुसहिफ़ रखा |
– तफसीर इत्तिकान ,प्रकरण १७ पृष्ठ १३७
इस विषय पर हमने कुरआन के ५५ नाम फिर अबू बकर द्वारा मुसहिफ़ नाम रखना बताया अगले पोस्ट में इस विषय पर अन्य प्रमाणों के साथ कुरआन के नाम का कौल लिखेंगे | इन बातो से यह स्पष्ट है कि अबूबकर तक मुसलमान कुरआन का नाम ही निश्चय नही कर पाए थे ,और अगली पोस्ट में स्पष्ट करेंगे कि कुरआन का कुरआन नाम यहूदियों से लिया गया है | जिस पुस्तक का नाम ही निश्चय करना इतना मुश्किल रहा वो भला ईश्वरीय ग्रन्थ कैसे स्वीकार जा सकता है ?( शेष ……….

क्या राजा दशरथ शिकार के लिए गये थे ? क्या राजा दशरथ ने हिरण के धोखे में श्रवण कुमार को मार दिया था ?

कुछ मासाहारी ,मुस्लिम ,राजपूत समुदाय (केवल मासाहारी ),कामरेड वादी ,संस्कृति द्रोही लोग सनातन धर्म में मासाहार सिद्ध करने के लिए राजा दशरथ द्वारा शिकार पर जाना ओर हिरण के धोखे में श्रवण को मारने का उलेख करते है | लेकिन उनकी यह बात बाल्मिक रामायण के अनुरूप नही है वे लोग आधा सच दिखाते है ओर आधा छुपाते है | राज्य व्यवस्था व न्याय के निपुण आचार्य चाणक्य (ऋषि वात्साययन ) भी अपने सूत्रों में शिकार का निषेध बताते हुए लिखते है – ” मृगयापरस्य धर्मार्थो विनश्यत ” (चाणक्यसूत्राणि ७२ ) अर्थात आखेट करने वाले ओर व्यवसनी के धर्म अर्थ नष्ट हो जाते है | जब इस काल के आचार्य निषेध करते है तब दशरथ के समय जब एक से बढ़ एक ऋषि थे जेसे वशिष्ठ ,गौतम ,श्रृंगी ,वामदेव ,विश्वामित्र तब कैसे दशरथ शिकार कर सकते है | रामयाण के अनुसार दशरथ वन में शिकार के लिए नही बल्कि व्यायाम के लिए गये थे जेसा कि बाल्मिक रामायण के अयोध्याकाण्ड अष्टचत्वारिश: सर्ग: में आया है –
तस्मिन्निति सूखे काले धनुष्मानिषुमान रथी |
व्यायामकृतसंकल्प: सरयूमन्वगान्नदीम ||८||
अथान्धकारेत्वश्रौष जले कुम्भस्य पूर्यत: |
अचक्षुर्विषये घोष वारणस्येवनर्दत: ||
अर्थ – उस अति सुखदायी काल में व्यायाम के संकल्प से धनुषबाण ले रथ पर चढ़कर संध्या समय सरयू नदी के तट पर आया ,वहा अँधेरे में नेत्रों की पहुच से परे जल से भरे जाते हुए घट का शब्द मैंने इस प्रकार सूना जेसे हाथी गर्ज रहा हो ||
यहा पता चलता है कि वे व्यायाम हेतु गये थे ओर उन्हें जो शब्द सुनाई दिया वो हाथी की गर्जना समान सुनाई दिया न कि हिरण के समान …
राजा दशरथ इसे हाथी समझ बेठे और उन्होंने इसे वश में करना चाहा | ये हम सभी जानते है कि राजाओं की सेना में हाथी रखे जाते है उनहे प्रशीक्षण दिया जाता है ये हाथी जंगल से पकड़े जाते है और हाथी पकड़ने के लिए उसे या तो किसी जगह फसाया जाता है या फिर बेहोश कर लाया जाता है अत: हाथी को बेहोश कर वश में करने के लिए दशरथ ने तीर छोड़ा न कि जीव हत्या या शिकार के उद्देश्य से |
हाथी को सेना में रखने का उद्देश्य चाणक्य अपने अर्थशास्त्र में बताते है –
” हस्तिप्रधानो हि विजयो राज्ञाम | परानीकव्यूहदुर्गस्कन्धावारप्रमर्दना ह्मातिप्रमाणशरीरा: प्राणहरकर्माण हस्तिन इति ||६ || (अर्थशास्त्र भूमिच्छिद्रविधानम ) अर्थात हस्तिविज्ञान के पंडितो के निर्देशानुसार श्रेष्ठ लक्षणों वाले हाथियों को पकड़ते रहने का अभियान सतत चलाना चाहिए ,क्यूंकि श्रेष्ठ हाथी ही राजा की विजय के प्रधान और निश्चित साधन है | विशाल और स्थूलकाय हाथी शत्रु सेना को , शत्रुसेना की व्यूह रचना को दुर्ग शिविरों को कुचलने तथा शत्रुओ के प्राण लेने में समर्थ होते है और इससे राजा की विजय निश्चित होती है |
राजा दशरथ ने भी हाथी को प्राप्त करने के लिए बाण छोड़ा था न कि मारने के लिए इसकी पुष्टि भी रामयाण के अयोध्याकाण्ड अष्टचत्वारिश सर्ग से होती है –
ततोअहम शरमुध्दत्य दीप्तमाशीविषोपमम |
शब्द प्रति गजप्रेप्सुरभिलक्ष्यमपातयम ||
तत्र वागुषसि व्यक्ता प्रादुरासीव्दनौकस: |
हां हेति पततस्तोये वाणाद्व्यथितमर्मण:||
राजा दशरथ कहते है कि तब मैंने हाथी को प्राप्त करने की इच्छा से तीक्ष्ण बाण निकालकर शब्द को लक्ष्य में रखकर फैंका ,और जहा बाण गिरा वहा से दुखित मर्म वाले ,पानी में गिरते हुए मनुष्य की हा ! हाय ! ऐसी वाणी निकली ||
तो पाठक गण स्वयम ही देखे राजा दशरथ हाथी को वश में प्राप्त करना चाहते थे लेकिन ज्ञान न होने से तीर श्रवण को लग गया | ओर सम्भवत तीर ऐसा होगा (या तीर में लगा कोई विष ) जिससे हाथी आदि मात्र बेहोश होता है लेकिन मनुष्य उसे सह नही पाता और प्राण त्याग देता है इसलिए श्रवण उस तीर के घात को सह नही सका और प्राण त्याग दिए |
अत: शिकार और मासाहार के प्रकरण में दशरथ का उदाहरण देना केवल एक धोखा मात्र है |

वर्षा और अग्निहोत्र (अग्निहोत्र की वैज्ञानिकता )

(इस लेख के शौधकर्ता स्व. मीरीलाल जी गोयल है इस लेख को हम रामनाथ वेदालंकार कि पुस्तक आर्ष ज्योति से उद्द्र्त कर रहे है )
” यह तो सभी जानते है कि बादल बनने के लिए निम्नलिखित शर्ते आवश्यक है –
(क) हवा में नमी का होना |
(ख) हवा में रेणु कणों का होना |
(ग) यदि हवा में रेणु कण न हो तो अल्ट्रा वायोलेट रेज ,एक्सरेज या रेडियम इमेनेशन गुजार कर कृत्रिम रेणु कण स्वयम बना लिए जाए | जो रेणु कणों का काम करे |
(घ) हवा को इतना ठंडा कर दिया जाए कि उस में विद्यमान पानी स्वयम जम जाए | इस अवस्था में पानी गैस के ही मौलिक्युल्स पर जम जाता है |
इन शर्तो के अतिरिक्त बादल बनने की विधि में निम्न लिखित शर्तो का जानना अत्यधिक आवश्यक है –
(ङ) हवा में नमी की राशि |
(च) वायु मंडल का ताप परिमाण
(छ) वायु के फेलने की गुंजाइश
(ज) नमी के लिए रेणु कणों के गुण ,आकार और संख्या |
यह सब बादल बनने और बरसने की विधि से स्पष्ट हो जाएगा |
बादल बनने की विधि –
पृथ्वी के वायुमंडल की दो मुख्य परते है | एक १० किलोमीटर (६ मील ) की उंचाई तक और दूसरी उपर २०० किलोमीटर (१२४ ) की उचाई तक | वर्षा के प्रकरण में हमारा सम्बन्ध १० किलोमीटर के वायुमंडल से ही है , क्यूंकि इससे उपरली परत में हवा नही जाती और इसलिए वहा बादल नही बनते | हां कभी कभी प्रबल उर्ध्वमुख वायु की धारा नमी को उपर धकेल देती है ,जिससे बादल बन जाते है वे यहा स्पष्ट हो जाएगी |
समुद्र ,नदी आदि से पानी सदा उड़ता रहता है ,परन्तु फिर भी हवा अतृप्त रहती है | इसका कारण यह है कि नमी वाली गर्म हवा उर्ध्व गति वाली हवा द्वारा ऊपर धकेल दी जाती है और वहा की शुष्क और ठंडी हवा उसके स्थान पर नीचे आती रहती है | नीचे आ कर फिर वह पानी चुसना शुरू करती है | इस प्रकार चक्कर चलता रहता है | हवा जितनी अधिक गर्म होती है उतनी अधिक नमी लेती है | १० शतांश वाली हवा ११ श. वाली होने पर पहले से दुगनी नमी ले सकती है | ०८ श. पर हवा ०.२ श. नमी से ही तृप्त हो जाती है ,परन्तु ४५ श. की हवा को ५ श. नमी की आवश्यकता होती है | हवा की फ़ालतू नमी ही ,जो उसमे उसके ताप परिमाण की दृष्टि से अधिक होती है ,ओस बिंदु की शीतलता पर रेणु कणों पर जम सकती है | रेणु कणों के प्रकरण में यह भी लिखा जाएगा कि ये जरे जितने अधिक होते है उतने ही वर्षा बिंदु छोटे होते है और जितने छोटे बनेंगे उतना ही अधिक देर तक वे बादल के रूप में उपर टिके रहेंगे | बरसेंगे नही |
गर्म और नमीदार हवा उर्ध्व गति द्वारा उपर जाकर फ़ैल जाती है , क्यूंकि उपर दबाब कम होता है | फैलने के कारण वह ठंडी हो जाती है और जम कर बादल बना देती है | बादल की शक्ल और वह ऊचाई जिसपर वह नमी से बादल बन जाता है ,हवा की गर्मी ,उस की नमी और उपर धकलने वाली हवा की तेजी पर निर्भर है | हवा का जीतना तापमान ज्यादा होगा , उसमे जितनी नमी कम होगी और वह जितनी तेजी से उपर जायगी ,उतनी ही उचाई पर बादल बनेगा | अतृप्त हवा जहा जहा १०० गज उपर चढने पर १ शतांश ठंडी होती है वहा तृप्त हवा ०.४ श. ही ठंडी होती है |
आद्र हवा उपर चढने पर जितनी उंचाई तक पहुचती है वहा के दबाव के अनुसार एक दम फैलती ,ठंडी और अतिसंपृक्त होती है और जम जाती है |वायु मंडल में ज्यो ज्यो उपर चढ़ते जाते है ,त्यों त्यों हवा की घनता कम होती जाती है | ५० किलोमीटर तक दबाब लगातार घटता जाता है और वह नमी को बादल बनाने में बहुत साहयक है |
हम उपर कह आये है कि बादल जमाने में रेणु कणों की संख्या ,गुण तथा आकार का बहुत बड़ा हाथ है |
प्रथ्वी की पहली परत में नेत्रजन ,ओषजन ,कार्वन द्विओषजिद के अतिरिक्त पानी के ठोस कण भी बहुत होते है | ये जरे भार आदि के अनुसार उपर नीचे होकर चारो तहों में विभक्त हो जाते है | हल्के उपर और भारी नीचे रहते है | चारो तहों में से पहली प्रथ्वी से १ किलोमीटर तक , दूसरी ४ किलोमीटर तक ,तीसरी १० किलोमीटर तथा चौथी १० किलोमीटर से उपर होती है | एक म्यु परिमाण से बड़े जर्रे भारी होने के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ते है | इन जर्रो का कम अधिक होना स्थान विशेष पर धुए आदि की मात्रा के कम अधिक होने और हवा चलने पर निर्भर है | ख़ास ख़ास जगहों पर १ घन सेंटीमीटर वायु में १०० जर्रे मिलते है ,परन्तु लन्दन जैसे शहर की १ घन सेंटी वायु में वे १ लाख से १.५ लाख तक पाए जाते है | धुली कणों के अतिरिक्त आयोनाइजेशन होने के कारण उन से बनने वाले जर्रो की संख्या भी भिन्न भिन्न होती है |
जर्रो की संख्या के साथ ,बादल बनाने के लिए जर्रो का गुण अत्यंत आवश्यक है | बादल बनाने में ,द्र्वावस्था या ठोसावस्था के वे ही जर्रे काम आते है जो आद्रता चूसने वाले हो दुसरे नही | साधारण हवा में भी नत्रजन ,ओषजन तथा पानी पर सूर्य के प्रकाश के प्रभाव से आयोनाइजेशन होने के साथ साथ अमोनिया,उद्रजन ,परौषजिद और नाओ आदि बन जाते है | कोयला आदि से उत्पन्न गओ २ से गओ३ बन जाता है ,जो आद्रता को चूसने वाला है | इसी प्रकार ऋणविद्युताविष्ट आयन्स धनविद्युताविष्ट आयन्स की अपेक्षा नमी को जल्दी खींचते है ,परन्तु ६ डिग्री सुपरसेच्युरेशन पर धनविद्युताविष्टआयन्स ही अधिक काम करते है |
जर्रो के गुण के साथ उनका आकार भी ध्यान देने योग्य है | उन्नतपृष्ठ जर्रो कि अपेक्षा नतपृष्ठ जर्रो पर अधिक वाष्व जमते है | ०.६३ म्यु से छोटे जर्रे विद्युताविष्ट होने पर ही नमी को खीचते है | परन्तु ध्यान रखने योग्य बात यह है कि जर्रो पर एक बार आद्रता का परत बन जाने पर फिर नमी जमती ही जाती है ,क्यूंकि नमी नमी को खीचती चली जाती है |
यदि स्थान विशेष के जर्रो की संख्या स्थिर हो तो जितनी नमी कम होगी बिंदु उतने ही छोटे बनेंगे और वह जितनी अधिक होंगे बिंदु उतने ही बड़े बनेंगे | इसी बात को इस रूप में भी कहा जा सकता कि अधिक नमी वाली हवा जल्दी ठंडी होकर नीचे ही बादल बना लेगी और अधिक शुष्क हवा को पर्याप्त ऊचाई पर जाना पड़ेगा |
बादल बरसने की विधि –
वर्षा के विषय में मौजूद वैज्ञानिक सिद्धानात यह है कि वह उस समय होती है जब वायु की उर्ध्वगति हो | इससे हवा के साथ बादल उपर उठाता है और बहुत उपर जाने के कारण हवा की फ़ालतू नमी के बड़े बड़े बिंदु बन जाते है ,जो व्ही पर ठहर जाते है ज्यादा उपर नही जा सकते है | छोटे ,हल्के किन्तु संख्या में कम बिंदु उर्ध्वगति वाली वायु के साथ और उपर उठते है | उपर हवा अत्यधिक सम्प्रक्त होती है ,अत: उन थोड़े बिन्दुओ पर ही नमी जमनी प्रारम्भ होती है और वे पहले से बने बिन्दुओ से भी बड़े बन जाते है | अब ये बिंदु भारी होने के कारण नीचे गिरना प्रारम्भ करते है और नीचे ठहरे बिन्दुओ हुए बिन्दुओ में से गुजरते समय भिन्न विद्युत से आविष्ट या भिन्न घनता वाले होने के कारण उनसे नमी लेकर ०.४ से १ मि.मी व्यास वाले हो जाते है और फिर नीचे आने पर बरसे बिना नही रहते है | इससे स्पष्ट है कि वर्षा करने के लिए बादल में न्यूकिल्क्स का कम होना और उससे अधिक बादल का उपर चढना आवश्यक है | अन्यथा उपर के भाग में न्युकिल्यस की संख्या अधिक होने के कारण वर्षा रुक सकती है ,क्यूंकि उस अवस्था में बहुत छोटे छोटे बिंदु बनने के कारण बादल उपर ही ठहरे रहते है | बादलो की उपस्थति में अधिक आग लगने पर वर्षा हो जाने का कारण आग से उत्पन्न वायु की उर्ध्वगति ही है |
हवन गैस से वर्षा –
हवन गैस से वर्षा होने में कारण ज़हा एक सीमा तक हवन से उत्पन्न वेजले कार्बन के जर्रे है ,वहा उनसे भी अधिक घी के आद्रता चुसक जर्रे है | घी की परत वाले छोटे छोटे जर्रे नमी खीच सकते है | और एक बार नमी जमने से उन पर नमी जमती ही चली जाती है | कोयले के कई जर्रे जो घी की परत से ढक जाते है ऋणबिद्युतविष्ट देखे गये है ,जो स्वभावतय पानी को खीचते है | इस तरह साधारणतय छोटे हवन बादल बनाने और ऋतू के अनुसार वर्षा में साहयक होते है | किसी विशेष समय वर्षा लाने के लिए हवन को बड़ी मात्रा पर और विशेष विशेष पदार्थो ( जिनसे आद्रता चूसने वाले गैस या जर्रे बने ) करना आवश्यक है | बहुत बड़े हवन ही उर्ध्व गति के वायु को पैदा करके वर्षा लाने का काम कर सकते है | हवन में तेल घी जैसे आद्रता चूसने वाले पदार्थ होने के कारण बादल न होने पर भी नमी को खीच कर ,बादल बना कर वर्षा कर सकते है | जिनसे वर्षा रुक सके या बादल हट सके | इनमे ऐसे पदार्थ डाले जा सकते है जिनसे वर्षा रुक सके या बादल हट सके | इनमे ऐसे पदार्थ डाले जा सकते है जिससे बहुत मात्रा में ठोस कण बने और आद्रता को खीचने के स्थान पर उससे वाष्प बनाने का काम करे |
आशा है श्री गोयल के उक्त वैज्ञानिक विवेचन से पाठको को यह समझने में कुछ साहयता मिलेगी कि यज्ञ से वर्षा होने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या है ?

हीगल एवं कार्ल्स मार्क्स मूल तत्व से दूर थे |

कहा जाता है कि कार्ल मार्क्स ने अपने दर्शन की प्रेरणा हीगल से ली। हीगल जडवादी न था,परन्तु उसकी युक्ति सरणी वही थी जिसको कार्ल मार्क्स ने अपनाया।कार्ल मार्क्स का दावा है कि उसने हीगल के त्रुटिपूर्ण सिद्धांत को युक्ति संगत कर दिया। हीगल सृष्टि मे तीन वस्तुओं को देखता है -वृत्ति,वृत्ति निग्रह वृत्ति समन्वय। अपनी laider s social economics moments infra p.123 मे लिखता है कि – ” hegal s dialectic method conceived that change took place through the struggle of antagonistic elements, and the resolution of these contradictory elements into synthesis, the first two elements forming  new concept by virtue of their union…
the thing on being against which the contradiction operated be called the positive ,the antaginisite or thesis was the negation. to hegal the contradiction ,antithesis or nagation was the ‘source of all movent and life ,only in so far as it contains a contradiction can anything have movement ,power and effect ,” A continued operation of the negation led to the negation of negation or synthesis.. ” इस सृष्टि मे एक घटना होती है।फिर उस घटना का विरोध होता है। इससे प्रगति ओर जीवन बनता है।उस विरोध का फिर विरोध होता है।इस प्रकार जीवन समन्वित होता है। अर्थात् सृष्टि के मूल तत्वों को हीगल ने गति,विरोध,ओर समन्वय से परिणत करके विरोध ओर समन्वय से परिणित कर विरोध को मुख्य ठहराया। इसी सिद्धांत को मार्क्स ने सीधा खडा कर दिया। मार्क्स का कहना था कि हीगल के सिद्धांत मे जो वक्रता थी उसे उसने ऋजु कर दिया।परन्तु वास्तविक बात यह है कि न हीगल ने मूल तत्वों की खोज की न मार्क्स ने।ऊपरी घटना पर दृष्टि पाात करने पर मूल तत्व का पता नही चलता है।जिसको तुम ‘विरोधिनी प्रवृत्तियाँ ‘कहतेहो वे पूरक है विरोधी नही।इसका निश्चय तो प्रयोजन पर दृष्टि रखने से हो सकता है।वैज्ञानिक लोग मानते हैं किबीज सडकर ही वृक्ष का निर्माण कर सकता है,इसलिए सडना मूलतत्त्व है।यह है मूल ।”जिस को तुम सडना कहते हो या विनाश कहते हो वह वस्तुत विनाश नही अपितु मूल अंकुर के ऊपर के खोल उतरना है जिससे अंकुरमे स्वतंत्रता से कार्य करने का अवसर मिल जाय। यदि बीज को बोने से बीज का विनाश ही अभिप्रेत होता तो बीज को भुन डालने से भी वृक्ष की उत्पत्ति हो सकती।
जिसको आप सृष्टिक्रम का विरोध कहते है वह वस्तुत विरोधाभास है | विरोध के इस सिद्धांत में कोमुनिस्ट को विरोधप्रिय बना दिया | यह विरोधप्रियता कम्यूनिस्टो के हर काम में पायी जाती है | वह जितना बिगाड़ते है उतना बनाते नही है | क्रान्ति या विरोध उनके समस्त आन्दोलन का मूल है | यह वेद के सर्वथा विरुद्ध है | वेद का अनुयायी सृष्टि पर दृष्टि डालकर ओर हर वस्तु में प्रयोजन बतलाकर ओर समता देख ईश्वर से प्रार्थना करता है –
सा मा शान्तिरेधि -यजु ३६/१७ 
है ईश्वर ,वही शान्ति मुझे प्रदान कर |
-गंगा प्रसाद उपाध्याय (गंगा ज्ञान धारा से)

क्या रंतिदेव के रसोई में गौ वध होता था ?

हमारे ब्लॉग पर ही एक अति जोशीले विपसना साधक लेकिन कम्युनिस्ट छाप पुस्तको को पढ़ अपने को अति ज्ञानी समझने वाले एक बन्धु ने राजा रन्तिदेव के र्स्सोई में गौ वध का उलेख किया | चुकि जिस पुस्तक से इन्होने चेपा है उसके खंडन में पहले ही ” अ रिव्यू ऑफ़ बीफ इन अकिएन्त इंडिया ” लिखी जा चुकी है जिसका उत्त्तर कम्यूनिस्टो पर नही है | इसके आलावा एक पुस्तक इन्ही के क्मुय्निष्ट छाप के द्वारा लिखी गयी जिसका उत्तर आर्य समाज की तरफ से रिप्लाई ऑफ़ dn झा के नाम से लिखी गयी है | अब हम उन्ही का पुन खंडन करते है |
इनके द्वारा दिया गया आरोप –
महाभारत में रंतिदेव नामक एक राजा का वर्णन मिलता है जो गोमांस परोसने के कारण यशस्वी बना. महाभारत, वन पर्व (अ. 208 अथवा अ.199) में आता है

राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्‍य वै द्विज
द्वे सहस्रे तु वध्‍येते पशूनामन्‍वहं तदा
अहन्‍यहनि वध्‍येते द्वे सहस्रे गवां तथा
समांसं ददतो ह्रान्नं रन्तिदेवस्‍य नित्‍यशः
अतुला कीर्तिरभवन्‍नृप्‍स्‍य द्विजसत्तम
-महाभारत, वनपर्व 208 199/8-10

अर्थात राजा रंतिदेव की रसोई के लिए दो हजार पशु काटे जाते थे. प्रतिदिन दो हजार गौएं काटी जाती थीं मांस सहित अन्‍न का दान करने के कारण राजा रंतिदेव की अतुलनीय कीर्ति हुई. इस वर्णन को पढ कर कोई भी व्‍यक्ति समझ सकता है कि गोमांस दान करने से यदि राजा रंतिदेव की कीर्ति फैली तो इस का अर्थ है कि तब गोवध सराहनीय कार्य था, न कि आज की तरह निंदनीय

यहा पर इन्होने वध्यते शब्द देख गौ हत्या अर्थ लिया जबकि व्याकरण का प्रमाणिक ग्रन्थ से ही इस बात का खंडन होता है अष्टाध्यायी के अनुसार – ‘वध’ धातु स्वतन्त्र है ही नहीं जिसका अर्थ ‘मारना’ हो सके ,मरने के अर्थ में तो ‘हन्’ धातु का प्रयोग होता है |पाणिनि का सूत्र है “हनी वध लिङ् लिङु च “ इस सूत्र में  कर्तः हन् धातु को वध का आदेश होता है अर्थात वध स्वतन्त्र रूप से प्रयोग नही हो सकता है |अतः व्याकरण के आधार पर स्पस्ट है की की ये ‘वध्येते ‘ हिंसा वाले वध के रूप में नहीं हो सकते हैं | तब हंमे यह ढूढ़ना पड़ेगा की इस शब्द का क्या अर्थ है और निश्चय ही ये हत्या वाले ‘हिंसा’ नहीं अपितु बंधन वाले ‘ बध बन्धने’ धातु है |

अपितु यह दान के अर्थ में होगी |पाणिनि ने गौहन सम्प्रदाय के कहने से भी इसी बात की पुष्टि की है एक व्याकरण का समान्य बालक भी जनता है की सम्प्रदाय चतुर्थ विभक्ति दान के अर्थ में या के लिए में आती है | जबकि हिंसा आदि के लिए अपादान भी बोल सकते थे |

आगे इसी में समास शब्द आया है मांस से यहा प्राणी जनित मॉस नही बल्कि अन्न है ये आगे के प्रमाण में भी स्पष्ट करेंगे शतपथ ब्राह्मण ११/७/१/३ में आया है परम अन्न मॉस ” अब परम अन्न क्या है इस बारे में अमर कोष कहता है – परमान्ना तु पायसम अर्थात चावल की खीर परम अन्न है | तो यहा भी कोई मॉस नही है क्यूंकि व्यास ने काफी जटिल श्लोको में महाभारत की रचना की थी जिसके बारे में खुद कृष्ण इस तरह से कहते है –
“इसमें ८८८०  श्लोक हैं जिनका अर्थ मैं जनता हूँ , सूत जी जानते हैं और संजय जानते हैं या नहीं ये मैं नहीं जनता ..”| अब आप स्वयं ही सोचये की जिनके अर्थ को संजय जानते हाँ या नहीं इसमें संशय है वो क्या इतने सीधे होंगे की उनकी गूढता और प्रसंग का विचार किये बिना केवल शाब्दिक अर्थ (वो भी व्याकरण को छोड़कर) ले लिया जाय ?

इस तरह देखा महाभारत काफी गूढ़ ग्रन्थ है | अंब महाभारत की ही अन्तीय साक्षियों से राजा रन्तिदेव पर लगे आरोपों का खंडन करते है –
द्रौण पर्व के अनुसार नारद जी जब संजय के पुत्र के मर जाने पर शौक में बेठे संजय को समझाते है तो संजय को राजा रन्तिदेव के बारे में कहते है –
इसे गीताप्रेस से प्रकाशित महाभारत का पेज यहा लगा कर बताते है –dron parv 67

ये द्रौण पर्व ६७ से है यहा स्पष्ट लिखा है कि २ लाख रसोइये भोजन बनाते थे तथा रन्तिदेव ऋषियों आदि को स्वर्ण ओर गौओ का दान करते थे | श्लोक में ही अन्न शब्द है जिससे वहा मॉस का तो कोई काम ही नही नजर आता है | इस में एक आलम्भ शब्द से आप लोग मारना अर्थ करते है लेकिन आल्म्भ शब्द स्पर्श के लिए भी प्रयोग होता है | पारसार गृहसूत्र में २/२/१६ में उपनयन संस्कार में शिष्य को गुरु के ह्रदय को छूने पर ह्रदय आल्म्भं शब्द आया है वहा स्पर्श ही किया जाता है न की ह्रदय को काटा जाता है | मनु २/१७९ में पत्नी का आल्मभं शब्द से छूना आया है | इसी तरह गौतम धर्मसूत्र में अकारण इन्द्रियों का स्पर्श का निषेध आलम्भ शब्द से किया है -२/२२ || प्राप्ति अर्थ में भी आलम्भ का प्रयोग निरुक्त १/१४ में हुआ है | मह्रिषी काशकृत्सन ने अपने धातु पाठ में लभि धारणे (१/३६२) से धारण अर्थ में ही किया है | अत: यहा वध अर्थ क्यूँ लिया ये आप जाने | न ही प्रकरण ओर महाभारत के सिद्धांत अनुसार यहा वध शब्द लेना सही है |  क्यूंकि इसी महाभारत में गौ वध करने वालो को पापी कहा है जिसका प्रमाण भी गीताप्रेस की महाभारत से देते है | शान्ति पर्व २९ में आया है –shanti 29

यहा गौ वध करने वाले गौ ही नही बैल के वध करने वाले को पापी कहा है फिर राजा रन्तिदेव को गौ हथिया करने पर महान बताना विरोधी कथन है | ऐसे में आप स्वयम फस जाते हो की किस श्लोक को सत्य माने जबकि दोनों श्लोक सत्य है क्यूंकि रन्तिदेव हत्या नही दान करते थे जो द्रौण पर्व से हम सिद्ध कर चुके है | इसलिए उन्हें महान राजा कहा है | महाभारत में अंहिसा ही परम धर्म बताया है ये जगह जगह आया है | ओर दान को धर्म माना है जिनमे गौ दान ही बताया है | vanparav cheptar 200

उपरोक्त महाभारत का वनपर्व २०० का अध्याय गौ दान पर ही जोर डाल रहा है इससे स्पष्ट है कि महाभारत दान को ही मान्यता देता है हत्या को नही |
फिर आप कहते है
रंतिदेव का उल्‍लेख महाभारत में अन्‍यत्र भी आता है.

शांति पर्व, अध्‍याय 29, श्‍लोक 123 में आता है कि राजा रंतिदेव ने गौओं की जा खालें उतारीं, उन से रक्‍त चूचू कर एक महानदी बह निकली थी. वह नदी चर्मण्‍वती (चंचल) कहलाई.

महानदी चर्मराशेरूत्‍क्‍लेदात् संसृजे यतः
ततश्‍चर्मण्‍वतीत्‍येवं विख्‍याता सा महानदी

कुछ लो इस सीधे सादे श्‍लोक का अर्थ बदलने से भी बाज नहीं आते. वे इस का अर्थ यह कहते हैं कि चर्मण्‍वती नदी जीवित गौओं के चमडे पर दान के समय छिड़के गए पानी की बूंदों से बह निकली.

इस कपोलकप्ति अर्थ को शाद कोई स्‍वीकार कर ही लेता यदि कालिदास का ‘मेघदूत’ नामक प्रसिद्ध खंडकाव्‍य पास न होता. ‘मेघदूत’ में कालिदास ने एक जग लिखा है

व्‍यालंबेथाः सुरभितनयालम्‍भजां मानयिष्‍यन्
स्रोतोमूर्त्‍या भुवि परिणतां रंतिदेवस्‍य कीर्तिम

वास्तव में श्लोक तो आपने तोड़ मरोड़ के अर्थ किया है जबकि आपकी बुद्धि का क्या कहना महाभारत की बात पर कालिदास का काल्पनिक महाकाव्य भी ले आये लेकिन वो भी आपकी कल्पना मात्र है उसमे भी आप सफल नही है |
यहा गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित महाभारत से पेज दर्शाते है – shanti parv 29

 

यहा कही भी पुरे प्रकरण में गौ को मारना ओर श्लोक में रक्त ओर बूंद बूंद टपकना शब्द नही है मतलब आपने अपनी कल्पना से यह शब्द गढ़ लिए | ओर ध्यान देने वाली बात है की यदि रन्तिदेव २००० गाय प्रतिदिन मारता तो साल में होती ७२०००० गाय ओर इस तरह लगभग कुछ सालो में गायो का अस्तित्व ही मिट जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नही हुआ इसलिए गौ हत्या बताना कल्पना ही है |   इस पेज में आगे पढिये की रन्तिदेव के यज्ञ में पशु अपने आप आ जाते है | अब आप विपसना साधक सोच सकते है कि कोई पशु को मारता है तो क्या पशु उसके पास अपने आप जाते है या जो पशुओ से प्रेम करता है उसके पास अपने पास जाते है | शायद आपने गाय को देखा होगा यदि ग्रामीण जीवन का अनुभव किया होगा तो गाय को जो व्यक्ति रोटी देता है उसके पास अपने आप चली जाती है जबकि मारने वाले को या तो सींग दिखाती है या दूर भागती है क्यूंकि उससे भय होता है जबकि रन्तिदेव के पास अपने आप पशुओ का आना सिद्ध करता है कि रन्तिदेव से पशुओ में भय नही था बल्कि प्रेम था | क्यूंकि अवश्य ही यज्ञ से उन्हें भी अन्न आदि मिल जाता होगा | इसी पेज के लाइन किये हुए एक श्लोक में तो स्पष्ट लिखा है कि रन्तिदेव ब्राह्मणों से दाल भात कहने को कह रहे है मॉस नही | जिससे हमारे उपरी कथन को ही बल मिलता है कि रन्तिदेव की रसोइय में अन्न ही बनता था ओर अतिथि भी अन्न ही खाते थे मॉस नही |
चलिए अब आपके कालिदास वाले की समीक्षा करते है उस श्लोक में भी खून ,टपकना .बूंद बूंद शब्द नही है बल्कि जल से नहलाना ही है आपने पूरा श्लोक रखा ही नही –
आराध्य एनम शरवणभवत देवं उल्नग्धिताश्ना
सिद्ध द्वन्दे: जलकणभयात बीणिभि: मुक्तमार्ग: |
व्यालम्बेधा: सुरभिलनया आलाम्भजात आनयिष्यन
स्रोतोंमुर्त्या मूवि परिणाताम् रन्तिदेवस्य कीर्तिम || – पूर्व मेघ ४५
 यहा कालिदास ने भी जल से ही नदी मानी है जल कण आदि शब्द इसके वाचक है वेसे इस शलोक का भाष्य करते हुए माधव शास्त्री अपने ग्रन्थ ” काव्यसरा संग्रह “में लिखते है – ” सुरभि तनया – गाव: तान्सा आलम्भन प्रोक्ष्ण ततो जाता प्रसूता मूवि ,च स्रोतोंमृर्या प्रवाहरूपेण ,परिणता रूपान्तर गताम |- पेज न १८ “
अर्थात गायो को जल से नहलाने ओर धोलाने से जो पानी जमीन पर गिरता वो प्रवाह रूप में गतिमान हो गया |
इससे स्पष्ट है कि वादी ने ही अर्थ तोड़ मरोड़ कर किया है जबकि कालिदास ,ओर उसके टीकाकार भी जल से ही नदी मानते है | कोई मुर्ख ही होगा जो खून से नदी बनना मान ले | ओर ये कथन नदी बनना भी अलंकारित प्रयोग है क्यूंकि नदी तो नहलाने से भी नही बनती हाँ इतना जल अवश्य इक्ठटा हो जाता होगा कि उसे नदी से सम्बोधित करना पड़ता होगा |
रन्तिदेव का प्रकरण यज्ञ सम्बन्धित है ओर यज्ञ में पशु हत्या को धूर्तो की मिलावट बताया गया है महाभारत ही इसे धूर्तो की मिलावट बताती है तो रन्तिदेव के यज्ञ में पशु बद्ध मानना महाभारत के विरुद्ध है जिसकी संगीति नही बैठती | वादी के आक्षेप का सारा खंडन यह श्लोक ही कर देता है – शान्ति पर्व २६५ / ९ ” यज्ञ में जीव हत्या आदि धूर्तो के कार्य .मिलावट है वेद में तो अंहिसा विहित यज्ञ कर्म ही है |”
यज्ञ में पशु को छुआ जाता था मारा नही पशु मारने का निषेध पुराण जेसे ग्रन्थ भी करते है –
” पशुआलम्भं  न हिंसा ”  (भागवत ११.५.१३ ) अर्थात यज्ञ में पशु का स्पर्श होता है हिंसा नही |
यहा तक वादी के रन्तिदेव पर लगाये आरोपों का खंडन हमने कर दिया है ओर निष्कर्ष निकलता है की राजा रन्तिदेव दान करते थे हत्या नही |
महाभारत गौ को अवध्य मानती है ओर हत्यारे को पापी इसके अतिरिक्त अन्य श्लोक इसके विपरीत दीखते है वो क्षेपक ही है महाभारत में क्षेपक पर हम कभी किसी दिन प्रमाणित पोस्ट करेंगे |
महाभारत के शब्दों में धर्म क्या है लिख लेख की समाप्ति करते है – ” न भूतानाहिंसाया ज्यायान धर्मोsस्ति “(शान्ति पर्व २५२ /३० ) ” किसी की हिंसा न करना ही सबसे उत्तम धर्म है |
संधर्भित ग्रन्थ अथवा पुस्तके – 
(१) review of beef in acient india – unkonwn 
(2) महाभारत (गीताप्रेस )- अनुवादक पंडित राम नारायणदत्त शास्त्री 
(३) काव्यसरा संग्रह – माधव शास्त्री 

 

 

 

क्या ध्यान बोद्धो की देन है वैदिक धर्म की

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नव्बोद्ध अक्सर ये प्रचार करते है कि ध्यान नामक पद्धति बोद्धो ने वैदिक धर्मियों को दी थी | ओर बोद्धो से ध्यान सनातन मत में गया |
लेकिन ये लोग यह बात भूल जाते है कि सिद्धार्थ गौतम की ही जीवनी में उन्होने सनातनी गुरुओ से ही ओर सन्यासियों से वन में योग विद्या सीखी थी ओर जंगल में जा कर सिद्धार्थ ने ध्यान किया यह बात सभी मानते है यदि वो स्वयम ही आविष्कारक होता तो उसे पूर्व निश्चय केसे हुआ की जंगल में ध्यान करने जाऊँगा ? इससे स्पष्ट है कि ध्यान सिद्धार्थ से पूर्व था इसलिए उसने पहले ही ध्यान करने का निश्चय ही किया था | अब आते है पतंजली ने क्या बोद्धो से योग विद्या सीखी ?
इस भ्रम का कारण है कि ये लोग योग सूत्रकार पतंजली ओर महाभाष्यकार पतंजली को एक ही समझ बेठे है जबकि महाभाष्यकार पतंजली शंकु कालीन थे ओर योगसूत्र कार महाभारत के समय के या इसके पूर्व के है | यदि महाभाष्यकार ओर योग सूत्रकार को एक मानने पर निम्न समस्या आती है जिसका समाधान कोई भी नवबोद्ध नही कर सकते है वो यह की पतंजली योगसूत्र पर बादरायण व्यास का भाष्य है | ओर बादरायण व्यास महाभारत वाले व्यास कृष्णद्वेपायान है | यदि पतंजली को शंकु वंश वाला पतंजली माना जाए तो यह कैसे सम्भव है कि महाभारत काल का व्यक्ति शंकु काल में भाष्य लिख जाए | इससे स्पष्ट है कि पतंजली व्यास से भी पूर्व के है | ओर व्यास बुद्ध से पूर्व इस प्रमाण से सिद्ध है की सनातन धर्म में ध्यान –योग बोद्ध मत से भी पूर्व था |
ये बात योग दर्शन की हुई लेकिन वेद , उपनिषद , ओर सांख्य ,न्याय दर्शन बोद्ध दर्शन ओर बुद्ध से पूर्व के है ओर न्याय दर्शन सांख्य दर्शन बुद्ध से पुराना है इसे कई बोद्ध विद्वान ओर डाक्टर अम्बेडकर भी मानते है उनकी पुस्तक बुद्धा एंड हिज धम्म के बुद्ध ओर उनके पूर्वज नामक अध्याय में देख सकते है |
अब कुछ प्रमाण उपरोक्त ग्रंथो से जिनसे सिद्ध होगा की ध्यान आदि बोद्धो से पूर्व हमारे दर्शनों में था –
देखे न्याय दर्शन –
“ तदर्थ यमनियमाभ्यामात्मसंस्कारों योगाच्चाध्यात्मविध्युपाये: ||४६||”
उस मोक्ष प्राप्ति के लिए यम नियम योग (ध्यान आदि ) तथा अध्यात्मशास्त्र के उपायों से आत्मा का संस्कार करना चाहिय|- न्याय दर्शन ४/२/४६
देखे सांख्य दर्शन से –
“भावनोपचयाच्छुध्दस्य सर्व प्रक्रतिवत्” ||२९ ||
शुद्धांत करण योगी समाधि भावना की अत्युकृष्ट योगज शक्ति के कारण वह सब कुछ कर सकता है जो प्रक्रति नियम अनुकूल हो |
“ रागोंपहतिर्ध्यानम “||३०||
संसार में आसक्ति इन्द्रिय भोगो में प्रवृति का नाम राग है | इस राग की निवति ध्यान है ,मन का स्थिर होना है |
धारणासनस्वकर्मणा तत्सिद्धि: ||३१||”
वृतियो के निरोध से ध्यान की सिद्धि होती है |
सांख्य के इतने प्रमाण ही देना ठीक है अन्यथा ३/२३-३६ तक सूत्र ध्यान पर ही प्रकाश डालते है |
अब उपनिषद से देखिये –
“ श्वेताश्वतर उपनिषद में योग के लाभ बताते हुए लिखा है –
पहले शारीरिक उपलब्धी लिखी है –
“ लघुत्वमारोग्य …………………………………… प्रथमा वदन्ति || २/१३ ||”
योग में प्रवृति का पहला फल यह है कि योगी का शरीर हल्का हो जाता है | निरोगी हो जाता है | विषयों की लालसा मिट जाती है ,कान्ति बढ़ जाती है ,स्वर मधुर हो जाता है | शरीर से सुगंध निकलता है ,मल मूत्र अल्प हो जाता है अर्थात भोजन ठीक से पचता है |
फिर आत्मिक उपलब्धि बताते है –
“ यथैव बिम्ब ……………………….वीतशोक: ||२/१४ ||”
जैसे मिटटी से लत पत स्वर्ण पिंड खूब धोने पर तेजोमय होकर चमकने लगता है , इसी प्रकार देह योगी भीतर प्रकाशमान आत्म तत्व को देख लेता है ओर इस संसार में कृतार्थ ओरन वीत शोक हो जाता है |
इस उपनिषद में योग प्राणायाम की विधि है जिसे इसी २ अध्याय में पढ़ा जा सकता है अन्य उपनिषद जेसे छान्दोग्य आदि में उपासना आदि विषयों में प्रणव का ध्यान है |
अब वेदों में योग विद्या के मन्त्र भी लिखते है –
उपहरे गिरीणा संगथे च नदीनाम |
धिया विप्रो अजायत ||- ऋग्वेद ८/६/२८ ||
पहाडो की गुफाओं में ओर नदियों के संगम पर ध्यान करने से विप्र बनते है |
योगे योगे तवस्तर वाजे हवामहे |
सखाय इंद्रमूतये || यजु ११/१४ ||
बार बार योगाभ्यास करते ओर मानसिक शारीरिक बल बढाते समय हम सब परस्पर मित्रभाव से युक्त होकर अपनी रक्षा के लिए अनन्त बलवान ऐश्वर्यशाली ईश्वर का ध्यान करते है |
ध्यान की परम्परा या इनका आधिप्रवर्तक सनातन धर्म में मह्रिषी ब्रह्मा ओर मह्रिषी हिरण्यगर्भ माने जाते है इन्होने वेदों से योग का प्रचार किया था महाभारत में आता है –
सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमऋषि स उच्यते |
हिरण्यगर्भो योगस्य वेत्ता नान्य: पुरातन: ||- मा. भा. शा. २४९/६५
इसी तरह हिरण्यगर्भ ऋषि का नाम योगी याज्ञवल्क्य स्मृति में भी है –
हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्य: पुरातन:| – यो. याज्ञ. १२/५
इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि बुद्ध से पूर्व सनातन धर्म में था | बोद्धो से सनातन में योग नही गया था बल्कि असल में बुद्ध ने जेसे आज के नये नये पोंगे पोप ,विभिन्न सम्प्रदायों के पाखंडी अपने अनुसार वैदिक ध्यान पद्धति से हट कर विभिन्न तरह की ध्यान पद्धति बना लेते है वेसे ही बुद्ध ने बनाई | हालकी गौतम बुद्ध ने भी ये विपसना (आन अपानस्याति) स्वयम की नही बताया बल्कि अपने पूर्ववर्ती बौद्ध भगवान दीपांकर की बताया है | सम्भवतय इस पद्धति का आविष्कार केसे हुआ यह खोज का विषय है लेकिन ये ध्यान की सही पद्धति नही है न ही ये योग है योग में प्राणयाम नामक एक अंग प्राणयाम का भी अल्प भाग है या उसके समान है | जिसमे बस श्वासों पर ही नियन्त्रण किया जाता है | जहा तक मेरा विचार है बुद्ध ने योग को केवल श्वासों का नियन्त्रण ही समझा होगा ओर ये पद्धति दी क्यूंकि जब कोई ईश्वर के ध्यान में मग्न होता है तब स्वत: ही उसकी श्वास ऐसी हो जाती है कि मानो वह श्वास न ले रहा है न छोड़ रहा है | जिसे व्यान भी कहते है यह स्थति ध्यान के वक्त बन जाती है जेसा छान्दोग्योपनिषद् में कहा है – “ अतो …………….हेतोवर्यानमेंवोद्गीथमुपासते || १/३/५ ||
इसमें उद्गीत उपासना में श्वास – प्रश्वास का नियन्त्रण हो कर व्यान अवस्था का उलेख है | व्यान की स्थति में ओमकार का ध्यान (उपासना ) का वर्णन है |
ध्यान की इस स्थति को देख बुद्ध ने मात्र श्वास प्रश्वास के नियन्त्रण के लिए श्वासों पर ध्यान रख ऐसी स्थति लाने की विधि बताई जहा श्वास ओर विचारों से आदमी शून्य हो जाये |क्यूंकि बुद्ध की नजर में ध्यान शून्य होना ही है | एक तरह से व्यक्ति को जड जेसा बनाना है जबकि इसके विपरीत योगदर्शन में व्यक्ति को ज्ञान ,मोक्ष कराना वैदिक ध्यान पद्धति का उद्देश्य है | विपसना पद्धति की असफलता के बारे में जान्ने के लिए हमारी पिछली पोस्ट विपसना पद्धति पर आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक के प्रश्न अवश्य देखे |
यहा हम कह सकते है कि योग ध्यान भारतीय ऋषियों में बुद्ध से पूर्व प्रचलित था बुद्ध ने तो बस एक विपसना पद्धति की ही खोज की थी | योग को बोद्धो से वैदिक धर्म में प्रवेश बताना मात्र नवबोद्धो(वामसेफ ) की जलन ओर सनातन धर्म के प्रति कुंठित मानसिकता का कारण है |
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तके –
(१) योगदर्शन – व्याख्याकार उदयवीर शास्त्री जी 
(२)योगदर्शन व्यास भाष्य सहित – व्याख्याकार सत्यपति जी 
(३) एकादशोपनिषद – सत्यव्रत सिद्धन्तलन्कार 
(४) वेद रहस्य – नारायण स्वामी 
(५) षडदर्शन – स्वामी जगदीश्वरानंद 

बोद्ध ग्रंथो में मासाहार (झूटी अंहिसावाद )


बोद्ध ओर नवबोद्ध अपने आप को कितना भी संयमी ,सात्विक आहारी बताये लेकिन बोद्ध देशो को देखने पर पता चलता है कि वहा के बोद्धो में काफी हिंसक भावनाए है ,, वे लोग अपने जीभ के स्वाद के लिए किसी भी प्राणी यहाँ तक कि मानव भ्रूण को तक खाने लगे है | क्यूंकि जेसा आहार होता है वेसे ही विचार ओर व्यवहार होता है |
मह्रिषी मनु मॉस भक्षण को हिंसक ओर पाप मानते हुए कहते है –
” स्मुत्पत्ति च मॉसस्य बवबन्धो च देहिनाम |
प्रसमीक्षय निवर्तेत सर्वमॉसस्य भक्षणात || मनु . ५/४९ ||
अर्थात मॉस की उत्पति जेसे होती है उसको ,प्राणियों की हत्या ओर बंधन के कष्टों को देख सब प्रकार के मॉस भक्षण से दूर रहे |
ओर कहते है –
” अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी |
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकेश्चेति घातका ||मनु .५/५१ ||”
मारने की आज्ञा देने वाले ,मॉस को काटने वाले पशु को मारने वाले क्रय विक्रय करने वाले ,पकाने वाले परोसने वाले खाने वाले ये सब हत्यारे ओर पापी है |
इस तरह मनु ने मॉस भक्षण को पाप बताया है ,,साथ ही मॉस व्यापार को क्यूंकि मॉस खाने की आदत ही जीवो की हिंसा को प्रेरित करती है |
हिन्दू धर्म के काशी खंड में निम्न श्लोक मिलता है – जातु मॉस न भोक्तव्यम प्राणै कंठगतैरपि (काशी खंड ,३५३ -५५ ) चाहे प्राण कंठ तक  आ जाए तो भी मॉस नही खाना चाहिए |
अर्थववेद ८/६/९३ में कहा है जो अंडे मॉस खाते है उनका मै नाश करता हु |
इस तरह मॉस भक्षण को सनातन शास्त्रों में निन्दित बताया है |
अब हम बोद्ध दर्शन में मॉस भक्षण सम्बन्धित बातें देखते है –
बोद्ध ने यज्ञ में पशु वध का विरोध किया लेकिन बोद्ध मॉस भक्षण से अपने आप को दूर नही रख सके इसके बारे में सकलिक सुत्त में देवदत्त विद्रोह नामक अध्याय में आता है ,इस अध्याय में एक कथा अनुसार देवदत बोद्ध से निम्न बातो की शर्त रखता है वो इस तरह है | देवदत्त बुद्ध से कहता है ,कि संघ में निम्न नियम बनाये जाए -(१) भिक्षु वन में रहे नगर में रहे तो दोष हो |
(२) जिन्दगी भर भिक्षा मांग कर खाने वाला हो |
(३) जिंदगी भर फेंके हुए चीथड़े पहने ,जो चीवर का उपभोग करे उस पर दोष हो |
(४) जिन्दगी भर वृक्ष के नीचे रहे |
(५ ) जिन्दगी भर मॉस मच्छली न खाए जो खाए उस पर दोष हो |
इसमें से बुद्ध एक भी शर्त नही मानते है ,,हम यहाँ बाकि ४ पर बुद्ध के उत्तर न लिख ५ वे पर लिखते है कि मॉस भक्षण पर बुद्ध ने क्या कहा –
बुद्ध कहते है – है देवदत्त ! जो अदृष्ट (जिसे मरते हुए मेने न देखा हो ) अश्रुत (जिसे मरते हुए न सुना हो ) अ परिशंकित (जो संदेह में न हो ) इस तरह का मॉस खाने की मेने आज्ञा दी है |
बुद्ध ने देवदत्त के मॉस भक्षण के निषेध वाली शर्त को ठुकरा दिया ओर इससे देवदत्त बोद्ध के संघ से अलग हो गया |
इसी तरह की बात जीवक नामक भिक्षु से बोद्ध ने जीवक सुत्तन्त (२/९/५ ) में कही है जीवक से बुद्ध कहते है –
जिस जीव का अपने लिए न मारा जाना हो | जिसे मारे हुए न देखा हो , न सुना हो न शंका हो | ऐसे मॉस को खाने का मेने आज्ञा दी है |
बोद्ध के उपरोक्त कथन को देखा जाए तो किसी दूकान से मॉस खाया जा सकता है ,,क्यूंकि दूर किसी होटल आदि पर पकाए हुए मॉस की किसी दूर से आये खाने वाले को कोई जानकारी नही होती |
एक स्थान से दुसरे स्थान की यात्रा में अगर कोई मासाहार भोजनालय है तो वहा मॉस खा सकते है क्यूंकि खाने वाले ने न प्राणी को कटते देखा है ,न ही वो उसके लिए काटा है न ही वो उसने काटते हुए सुना है |
इस तरह बुद्ध ने हिंसा का एक दूसरा रास्ता खोल दिया | ओर असयम को जो कि स्वाद से है को बढ़ावा दिया |
इस तरह एक जातक कथा में भी मॉस भक्षण का उलेख मिलता है – जिसके अनुसार एक भिक्षु के पास एक चील द्वरा छुटा हुआ कोई मॉस गिरता है भिक्षु बुद्ध से कहता है कि इसका क्या करू बुद्ध उसे वह मॉस खाने को कहते है |
इस तरह बोद्ध ग्रंथो में जगह जगह एक अलग प्रकार की हिंसा का उलेख मिलता है जो उनके अहिंसक ओर संयमी होने के दावे पर प्रश्न चिन्ह लगाता है |
शायद बुद्ध को इस बात पर ध्यान देना चाहिय था कि जेसा आहार वेसा ही विचार ओर व्यवहार हो जाता है | मॉस भक्षण किसी भी प्रकार का जीव हत्या को बढ़ावा देता है |
संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ – (१) मनुस्मृति – सुरेन्द्रकुमार जी 
   (२) मझिम निकाय – राहुल सांस्क्रतायन 
 (३ ) बुद्धचर्या – राहुल सांस्क्रतायन 
 (४) दीर्घ निकाय – राहुल सांस्कृतायन  

हिंदूइस्म धर्म या कलंक का प्रत्युतर

हिन्दू धर्म पर कटाक्ष करती ओर अंट शंट झूटे आरोपों से युक्त एक अम्बेडकरवादी ऐ आर बाली ने हिन्दू धर्म पर पुराणों के अलावा वेदों के सन्धर्भ से आरोप लगाया कि वेदों में पिता पुत्री ,माता पुत्र , भाई बहन आदि के बीच योन सम्बन्धो की छुट थी | वेसे आपको बता दे हम पुराणों को प्रमाण नही मानते क्यूंकि पुराण काफी बाद के है ओर उनमे सत्य इतिहास भी होना सम्भव नही लेकिन फिर भी आपके कुछ तथ्य पुराणों से जांचते है ..
एक बात ओर ध्यान रखिये यदि किसी एतिहासिक घटना में कोई बुद्धि विरोध या अश्लील प्रसंग आता है तो उसका ये मतलब नही कि वो उसके धर्म का या संस्कृति का अंग है ..जेसे जापान में पिता पुत्री .माँ बेटे के बीच सम्बन्ध बनाने को कानूनी मान्यता मिली है जिसे गूगल पर लीगल इन्सेक्ट लिख कर देख सकते है तो क्या हम ये माने कि बोद्ध धम्म इन सबकी आज्ञा देता है | अब आपके आरोप को देखते है –

आपका कहना है कि पिता पुत्री के सम्बन्ध वैदिक काल में उचित थे महाशय जी जरा वेदों के बारे में भी देखिये वेद इस बारे में क्या कहते है -स लक्ष्मा यद विषुरूपा भवाति -अर्थव ८/१/२ अर्थात सगे सम्बन्धियों की कन्या से सम्बन्ध रखना बड़ा ही विषम है | आप तो वैदिक काल में कुछ ओर बता रहे थे जबकि वेदों में तो मौसी की लडकी , मामी की लडकी बुआ की लडकी आदि सगे सम्बन्धियों की कन्या से सम्बन्ध का निषेध है | ओर देखिये – ” पापामाहुर य: स्वसार निग्च्छात ” अर्थव १८/१/१४ अर्थत वो पापी है जो बहन से सम्बन्ध या विवाह करता है | देखा आपने वेदों में ऐसे सम्बन्धो का निषेध है | लेकिन क्या आप जानते है कि आपके ही भगवान बुद्ध ने अपने बुआ की लडकी यशोधरा से विवाह किया था अर्थात बुद्धो में इन सबकी छुट है आर्यों में नही |
आप मनुस्मृति का निम्न श्लोक भी देखिये –
” असपिंडा च या मातुरसगोत्र च या पितु:| 
सा प्रशस्ता द्विजातीना दारकर्माणि मैथुन || मनु ३:५ || ” अर्थत जो स्त्री माता की छ पीढ़ी ओर पिता के गोत्र की न हो विवाह करने के लिए उत्तम है | 
देखो आर्यों में तो सगोत्र विवाह या सम्बन्ध तक का निषेध है फिर आप ये कहा से ले आये |
अब आपके दिए उदाहरण देखते है – आपने लिखा वशिष्ठ का विवाह शतरूपा से हुआ | वाह क्या कहना आपका ये सब जानते है कि स्वयभू मनु की पत्नि का नाम शतरूपा था | देखिये ब्रह्माण पुराण २/१/५७ में शतरूपा को मनु की पत्नि बताया है ओर धरती के पहले स्त्री पुरुष | फिर आपने लिखा इला का विवाह मनु से ,,,ये भी आपकी मुर्खता कहे या कुंठा समझ नही आता लेकिन ये भी पौराणिक बन्धु जानता है कि मनु की पुत्री इला थी ओर उसका विवाह चन्द्रमा (सोम ) के पुत्र बुद्ध से हुआ जिनका एक पुत्र पुरुरवा था जिससे पुरु वंश चला |
आपने ये भी लिखा है कि दोहित्र ने अपनी पुत्री का विवाह पिता चन्द्र से किया लेकिन उपर देखिये चन्द्र की पत्नि तारा थी जो ब्रहस्पति की पुत्री बताई है | उसी से बुध उत्पन्न हुआ था | मत्स्य पुराण में ऋषि अत्रि ओर अनसूया का पुत्र चन्द्र या सोम बताया है | आपने सूर्य की पुत्री उषा बताई लेकिन पुराणों में सूर्य के पुत्री में यमुना का उलेख है जो कि यम की बहन है | आपने अपने दिमाग के आधार पर सारा इतिहास गढ़ लिया | वेसे आप लोगो के विरोधाभास का क्या कहना एक तरफ तो हिन्दू ग्रंथो को काल्पनिक तो दूसरी तरफ अपना उल्लू सीधा करने के लिए उन्ही का साहरा लेते हो | एक बात पर रुकिए काल्पनिक है तो सब काल्पनिक ही मानिए |
आपने एक प्रथा यज्ञ में अपने मन से गढ़ ली जिसका उलेख न वेदों में है ,न श्रोतसूत्रों में ओर न ही ब्राह्मण ग्रंथो में है वामदेव विर्कत | इसी पुष्टि में आपने सत्यवती ओर पाराशर का उदाहरण भी दिया | लेकिन आपकी कुंठा का क्या कहना महाभारत में जो स्थल नौका का था क्यूंकि सत्यवती एक मछुआरिन थी ,उसे आपने यज्ञ स्थल अपनी गोबरबुद्धि से कर दिया | वो महाभारत का प्रसंग है ओर महाभारत में उतरोतर श्लोक बढ़ते गये है जिनमे हो सकता है ये पूरा प्रसंग प्रक्षेप हो फिर भी जेसा आपने यज्ञ स्थल की बात की है तो बताइए सत्यवती के पिता ने कौनसा यज्ञ का अनुष्ठान किया | ओर यदि महाभारत ,रामायण में पाराशर ओर सत्यवती आदि के जेसे कोई अनुचित सम्बन्ध मिलते है तो इसका ये अर्थ नही कि वो उस संस्कृति या धर्म का सिद्धांत हो गया जेसा मेने उपर ही बता दिया है वो एक घटना मात्र है | आपने योनि शब्द की भी कल्पना कर ली ओर अयोनि की भी पता नही कहा से आपने संस्कृत ,हिंदी का ज्ञान लिया ये तो आप ही जाने लेकिन योनि या योनिज उन्हें बोलते है जो मैथुन आदि से उत्त्पन्न हो जेसे स्तनधारी प्राणी ,सर्प आदि ओर अयोनिज उसे बोलते है जो अमेथुनी अर्थात बिना मैथुन से उत्पन्न होए जेसे क्लोन , पसीने से उत्पन्न कीट , वर्षा ऋतु में उत्त्पन्न मच्छर , मछलिय आदि | इसके लिए वैशेषिक दर्शन भी देख सकते है | अपने पक्ष की पुष्टि के लिए आपने द्रोपती ओर सीता का उदाहरण दिया | आपने बताया कि द्रोपती की उत्त्पति घर के बाहर हुई जबकि महाभारत में ही लिखा है कि एक यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा द्रोपती की उत्त्पति राजा द्रुपद के समक्ष हुई | आपने बाहर का काल्पनिक प्रसंग कहा से गढ़ लिया | आपने सीता का उदाहरण दिया | वेसे आपको बता देंवे महाभारत की तरह रामायण में भी प्रक्षेप है इसका उदाहरण है – चतुविशतिसहस्त्रानि श्लोकानाक्त्वान ऋषि:| तत: सर्गशतान पंच षटकाण्डानि तथोत्तरम ||बालकाण्ड ४/२ अर्थात रामायण का निर्माण २४००० श्लोको पांच सौ सर्ग ओर छह कांडो में कहा गया | जबकि आज प्राप्त रामायण में २५००० श्लोक ओर ७ काण्ड है इससे पता चलता है रामायण में प्रक्षेप है |
सीता जनक की ही पुत्री थी इसका प्रमाण रामायण के निम्न स्न्धर्भो से ज्ञात होता है -रामायण में अनेक जगह सीता को जनक की आत्मजा कहा है | अमरकोश २/६/२७ में आत्मज का अर्थ है जो शरीर से पैदा हो | इस तरह जनक की आत्मजा मतलब जनक से उत्त्पन्न उनकी पुत्री | रामयाण बालकाण्ड ६६/१५ में आया है वर्धमान ममातमजात ये वाक्य सीता का परिचय देते हुए जनक कहते है कि ये मेरी आत्मजा है | रघुवंश १३/७८ में सीता को जनक की आत्मजा बताया है जनकात्मजा (रघुवंश १३/७८ ) |
रामयाण में सीता की भूमि से उत्त्पति वाली काल्पनिक कथा है जिसके बारे में पौराणिक आचार्य करपात्री जी अपनी रामायण मीमासा पेज न ८९ पर लिखते है – ” पुराणकार किसी व्यक्ति का नाम समझाने के लिए कथा गढ़ लेते है | जनक की पुत्री सीता का नाम स्पष्ट करने के लिए उसका सम्बन्ध वैदिक सीता ( हलकृष्ट भूमि ) से सम्बन्ध जोड़कर उसका जन्म भूमि से बता दिया | ” इन सब उपरोक्त प्रमाणों से आपके दिए काल्पनिक उदाहरणों का खंडन हो जाता है | अब आगे देखते है ये महाशय क्या लिखते है –
आप पता नही कौनसा शब्दकोष पढ़ते है जिसमे आपको कन्या का ये अर्थ मिला | कन्या को निरुक्त में दुहिता कहा है जिसका अर्थ स्पष्ट करते हुए यास्क लिखते है – ” दुहिता दुर्हिता दुरे हिता भवतीत ” अर्थात जिसका दूर (गोत्र या देश ) में विवाह होना हितकारी हो | जब आर्यों के मतानुसार उनकी कन्या का विवाह दूर होना हितकारी है फिर किसी भी पुरुष से सम्बन्ध कर ले वो कन्या ये कल्पना क्या आपको बुद्ध ने बताई थी | आपने मत्स्यगंधा का उदाहरण दिया असल में मत्स्यगन्ध सत्यवती का ही दूसरा नाम था जेसा मेने उपर बताया कि वो एक मछुआरिन थी ओर उसमे मच्छलियो जेसी गंध आना स्वभाविक है इसलिए उसका नाम मत्स्यगंधा हुआ अर्थात मछलियों जेसी गंध वाली | आपने कुंती के विवाह से पूर्व कई पुत्र बता दिए ये आपने कहा से पढ़ा महाभारत में भी ऐसा नही है | उसमे कर्ण का वर्णन है ओर यदि ये विवाह पूर्व देवता से सन्तान होना सही माना जाता तो कुंती को उसे नदी में फेकने ओर सबसे छुपाने की आवश्यकता ही न होती आपकी गोबर बुधि का ध्यान इस ओर क्यूँ नही गया क्यूंकि तार्किक नही कुंठित मानसिकता से ग्रसित थे | उस घटना से तो यही सिद्ध होता हहै कि विवाह पूर्व सन्तान उस समय अनुचित ही मानी जाती थी ओर विवाह पूर्व सम्बन्ध भी | वेदों में व्यभिचार की निंदा या विवाह पूर्व सम्बन्ध बनाने की निंदा की हुई है ऋग्वेद २/२९/१ में आये रहसूरिव की व्याख्या करते हुए सायण लिखते है – जो स्त्री अन्यो के द्वारा किये हुए गर्भ के कारण एकांत में सन्तान उत्त्पन्न करती है ,वह व्यभिचारिणी ओर पापी मानी गयी है |  ऐसे सम्बन्धो को आज का समाज लिव एंड ओपन रिलेशन नाम देता है लेकिन वेद ऐसे सम्बन्ध को व्यभिचार ओर पाप ही कहता है | अब आपके आगे के आरोप देखते है –
  आपने अश्वमेध का उदाहरण देकर अश्व ओर स्त्री के बीच सम्बन्ध को लिखा ऐसा किसी वेद संहिता में विधान नही है | ये महीधर के भाष्य में है ओर महीधर ने मन्त्रो का विनियोग कल्प सूत्रों से किया अर्थात ऐसा विधान कल्पसूतरो में है महीधर कात्यायन श्रोत सूत्र अ. २० कंडिका ६ ओर सूत्र १६ से अश्वमेध में लिंग ग्रहण करने की प्रथा का उलेख करते हुए लिखते है – ” अश्वशिश्रमुपस्ये कुरुते वृषावाजिति ” अर्थात वृषाबाजी इत्यादी मन्त्र पढ़ते हुए रानी स्वयम घोड़े का लिंग अपनी उपस्थ इन्द्रिय में धारण करे | ये विधान कल्पसूत्र से है जिसमे वाममार्गियो द्वरा काफी गडबड की हुई है | इनको वेदों के समान प्रमाणिक नही बल्कि अप्रमाणिक काफी समय से माना जाता रहा है | क्यूंकि ये सभी क्रिया कलाप उस समय भी शिष्टजनों में घ्रणित ही समझे जाते थे | जेसा की जैमिनी ने मीमासा दर्शन में स्पष्ट कहा है कि कल्पसूत्रों में वेदों के विरुद्ध कई बातें है अत: उपरोक्त बात भी वेद विरुद्ध ही थी ओर मनु के अनुसार धर्म का मूल वेद ही था | देखिये मीमासा का सन्धर्भ – पूर्व पक्ष से कोई जैमिनी से प्रश्न करता है – ” प्रयोगशास्त्रमिति चेत “(मीमासा १/३/११ ) अर्थात वेद विहित धर्मो का यथाविधि अनुष्ठान बताने वाले कल्पसूत्र भी वेद के समान स्वत: प्रमाण है यदि ऐसा कहो तो –
उत्तर में जैमिनी कहते है – ” नाsसन्नीयमात “(१/३/१२ ) अर्थात यह बात ठीक नही | कल्पसूत्र वेद के समान प्रमाणिक नही हो सकते ,क्यूंकि उसमे आवेदिक विधानों का भी निरूपण पाया जाता है | इसी कथन के पता चलता है कि कल्प सूत्रों के आवेदिक विधान उस समय ऋषि गणों में स्वीकार नही थे |
अब आपके अगले आरोप की समीक्षा करते है –
आपकी गोबरबुधि ओर कुंठित मानसकिता ने आपके दिमाग का कूड़ा कर दिया जो ऋषि दयानद जी के भाष्य को भी आपने नही छोड़ा यदि कोई आपसे कहे की मधुर रसीले आमो का भोग करो ,,मखमली गद्दों का भोग करो तो आप तो आमो से योन सम्बन्ध बनाने ओर गद्दों से मैथुन क्रिया करना शुरू कर देंगे क्यूकि आपके अनुसार भोग का अर्थ सम्भोग ही होता है जबकि संस्कृत में भोग मतलब उपयोग में लेना होता है ऋषि दयानद जी ने भी यही स्पष्ट किया है ,ऋषि ने ऋषभेन उक्षेन भूञ्जीरन लिखा है अर्थात बैल रूपी साधन से खेती व कुए आदि चला कर सुख भोगे | इसी भाष्य में म्ह्रिशी ने लिखा है कि मनुष्य छेरी आदि पशुओ के दूध आदि से प्राणपान की रक्षा के लिए चिकने ओर पके हुए पदार्थो का भोजन कर उत्तम रसो को पीकर वृद्धि को पाते है वे अच्छे सुख को प्राप्त होते है | यहा पशुओ से सम्बन्ध नही बल्कि उनका दूध पीना ,खेती आदि कार्यो में उपयोग लेने का उपदेश है वही अर्थ स्वामी जी ने भी किया है | अब आपके किये अगले मन्त्रो का अर्थ देखते है –  न सेशे ……………..उत्तर: (ऋगवेद १०.८६.१६)  ओर न सेशे………..उत्तर­. (ऋग्वेद १०-८६-१७) इन दोनों मन्त्रो का आपने बहुत अश्लील अर्थ लिखा जबकि इस मन्त्र में लिंग वाची शब्द है ही नही ये मन्त्र संवादत्मक शेली में है जिसमे तीन पात्र इंद्र उसकी पत्नि इन्द्राणी ओर मित्र वृषाकपि है | ऐसा ऐतिहासिक परख अर्थ में है ओर नेरुक्त पक्ष में इंद्र विद्युत इन्द्राणी मध्यम वाक् ओर वृषाकपि आधित्य है | (निरुक्त ११.३८ व ११.३९ ) यहा हम इनका ऐतिहासिक अर्थ लिखते है – इन्द्राणी इंद्र से कहती है – न सेशे ….. विश्वस्मादिन्द्र उत्तर: अर्थात तुम तो सबके सामने नम्र होकर सर झुका कर रहते हो ,नम्रता या सर झुकाने से कार्य निर्वाह नही होता बल्कि अपने प्रभाव को विस्तार करने से होता है | इस मन्त्र में सर झुकने की बात है उसके लिए कृपन शब्द भी आया है लेकिन आपने लिंग अर्थ ले लिया | अब इसका प्रत्युतर इंद्र देता है – न सेशे ….उत्त्तर (ऋग्वेद १० -८६ -१७ ) है इन्द्राणी तुमने जो कहा वह ठीक है | तो यह भी नियम सब पर लागू नही होता | कभी कभी ऐसा होता है की वह समर्थ नही होता जो डट कर खड़ा हो जाता है ओर सर ताने रखता है प्रतुतय वह समर्थ होता है जिसका सर दुसरो के पैरो में झुकता है या नम्र होता है | इस सम्पूर्ण काल्पनिक आख्यान में इंद्र का सखा वृषाकपि उनका सोम ले लेटा है जिसे इन्द्राणी को बहुत बुरा लगता है ओर वो अपने पति इंद्र को उससे लड़ने ,झगड़ने के लिए प्रेरित करती है लेकिन इंद्र उसे नम्रता ओर विनम्रता से वस्तु लेने का उपदेश देता है ,,इस मन्त्र द्वरा या इस आख्यान द्वरा यही उपदेश दिया है कि मित्रो ,बंधुओ से अपना कार्य करवाने के लिए झगड़ा आदि करने की जगह नम्रता से कार्य निकलवाना चाहिए क्यूंकि झगड़ा आदि से कार्य बिगड़ने की गुंजाइश ज्यादा रहती है |
अब अगले मन्त्र ऋग्वेद १०/८६/६ का भी आपने एक अश्लील अर्थ लिखा है जबकि उसका अर्थ होगा – वो भी इसी सूक्त का है उसमे वृषाकपि से क्रोधित ओर जोश में आती इन्द्राणी कहती है – “
 न मत्स्त्री………..­………………उत­्तर:(ऋग्वेद १०-८६-६) अर्थात मुझसे अधिक अन्य कोई स्त्री सुभग्या सुन्दरी नही है , न सुखनि या सुपुत्रवती है , न मुझसे बढ़ कर शत्रुओ को नाश करने वाली है न ही उद्यम करने वाली है | इस मन्त्र में वृषाकपि से क्रोधित इन्द्राणी की बात है तो इसमें वीरता आदि का ही उपदेश होगा न कि मैथुन आदि का इन्द्राणी ओर इंद्र के रूप में वीर स्त्री ओर सदाचारी पुरुष का रूपक अलंकार है | अब आपका अगला मन्त्र देखते है जिसका देवता इंद्र है | यास्क के निघंट में इंद्र को त्वष्टा कहा है ,जिसका अर्थ होता है सूर्य | मन्त्र है ताम……………..­……..शेमम. (ऋग्वेद १०-८५-३७) जिसका उचित अर्थ होगा औषधियों का पोषण करने वाले सूर्य ! जिस भूमि में मनुष्य लोग बीज बोते है जो भूमि हम पुरुषो की कामना को पूरी करती है | जिसके तल में हम आश्रय लेते है अर्थात घर बना कर रहते है | जिसके गर्भ में हल को प्रवेश कराते है ,उस अतिक्ल्याणकारी भूमि को तु वर्षा आदि करा कर प्रेरित कर | इस मन्त्र में भूमि की विशेषता ओर सूर्य द्वरा उचित वर्षा करवा कर उत्तम फसल की उत्त्पति को प्राप्त करने का उपदेश है |
उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वैदिक काल में जार कर्म अच्छा नही समझा जाता था अपितु इसे व्यभिचार ओर पाप समझा जाता था | हिंदूइस्म धर्म ओर कलंक के लेखक ने यह अध्याय किसी तार्किक भावना से नही अपितु अपनी कुंठित ओर हिन्दुओ ,आर्यों को नीचा दिखने की मानसिकता से लिखी थी | जिसके कारण उनके दिमाग में ऋषि के अच्छे उत्तम भाष्य का अश्लील अर्थ आया ओर अन्य मन्त्रो का अश्लील अर्थ ही किया जबकि मन्त्रो का अध्यात्मिक ,आधिभौतिक (वैज्ञानिक ) अर्थ भी होता है |
सधर्भित ग्रन्थ या पुस्तके – (१) वेदों की वर्णन शेलिया -रामनाथ जी वेदालंकार 
                                        (२) ऋग्वेद भाष्य – जयदेव शर्मा 
                                       (३) मीरपुरी सर्वस्व – बुद्धदेव मीरपुरी 
                                        (४) निरुक्त -यास्क (भाषानुवाद -भगवतदत्त जी ) 
                                        (५) मनुस्मृति -स्वाम्भुमनु (भाषानुवाद – सुरेन्द्र कुमार )
                                        (६) ऋग्वेद में आचार सामग्री  

महात्मा बुद्ध के प्राचीन ब्राह्मणों ,ऋषियों पर विचार


आज कल के अम्बेडकरवादी बुद्ध के भक्त तो बनते है लेकिन बुद्ध का एक भी कथन नही मानते है ऋषियों का अपमानइनका बुद्ध वचन के विरुद्ध कृत है ,,यहा हम ब्राह्मण धम्मिय सूक्त के कुछ सूक्त रखेंगे –
बुद्ध के समय के एक ब्राह्मण महाशाळा ने बुद्ध से कहा –
है गौतम ! इस समय ब्राह्मण ओर पुराने समय ब्राह्मणों के ब्राह्मण धर्म पर आरूढ़ दिखाई पड़ते है न ?
बुद्ध – ब्राह्मणों | इस समय के ब्राह्मण धर्म पर आरूढ़ नही है |
म्हाशालो – अच्छा गौतम अब आप हमे पुराने ब्राह्मणों के उनके धर्म पर कथन करे | यदि गौतम आपको कष्ट न होतो
बुद्ध – तो ब्राह्मणों ! सुनो अच्छी तरह मन में करो ,कहता हु |”
– पुराने ऋषि संयमी ओर तपस्वी होते थे | पांच काम भोगो को छोड़ अपना ज्ञान ओर ध्यान लगाते थे ||१||

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अम्बेडकर वादी ऋषियों को अश्लील ओर कामी कहते नही थकते लेकिन बुद्ध स्वयम ,संयमी ,ध्यानी कहते है |
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ऋषियों को पशु न थे , न अनाज | वह स्वध्याय रूपी धन धान्य वाले ओर ब्रह्म निधि का पालन करने वाले थे ||2||
ब्राह्मण अबध्य अ जेय धर्म से रक्षित थे |
कुलो द्वारो पर उन्हें कोई कभी भी नही रोक सकता था ||५||
वह अडतालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते थे |
पूर्वकाल में ब्राह्मण विद्या व् आचरण की खोज करते थे ||६||
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एक पोस्ट में मेने पारस्कर ग्रहसूत्र से ४८ वर्ष ब्रह्मचर्य के कथन की पुष्टि की थी प्राचीन लोग उत्तम ब्रह्मचर्य ४८ का पालन करते थे ..ये स्वामी दयानद जी का भी मत है इस पर कुछ पौराणिक प्रश्न भी करते है लेकिन ग्र्ह्सुत्र .स्मृति ओर बुद्ध वचन में यह तथ्य है |
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ब्रह्मचर्य तप शील अ कुटिलता मृदुता सुरती अंहिसा ओर क्षमा की प्रशंसा करते थे ||9||
जो उनमे सर्वोतम दृढ पराक्रमी ऋषि ब्रह्मा था |
उसने स्वप्न में भी मैथुन धर्म का सेवन नही किया था ||१० ||
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बुद्ध का ये कथन पौरानिको , मुस्लिमो ,इसाइयो ओर अम्बेडकरवादीयो पर गहरा तमाचा है जो झूटी पौराणिक कथा उठा कर ब्रह्मा पर अश्लील आरोप लगाते है ..अम्बेडकरवादी अगर सच्चे बुद्ध है तो उन्हें बुद्ध वचन को प्रमाण मानना चाहिए अपेक्षा पुराणों के …. क्यूंकि बुद्ध ने कहा है की ब्रह्मा ने मैथुन का कभी स्वप्न में भी विचार नही किया था |

ये ऋषियों के बारे में बुद्ध के वचन थे इसके विपरीत अम्बेडकरवादी ऋषियों के विरुद्ध विष वमन करते है अम्बेडकर ने ऋषियों को मासाहारी शराबी तक लिखा है जो कि उनके वेद ओर ब्राह्मण आदि ग्रंथो के विरुद्ध कथन है ओर साथ ही बुद्ध वचन के विरुद्ध भी है |

क्या शंकराचार्य जी ने बोद्ध धम्म को भारत से नष्ट करा था ?

अक्सर हम सुनते है बोद्धो ओर सनातनियो से की शंकराचार्य जी ने भारत से बोद्ध धम्म को खत्म किया | कुछ लोग इसे शास्त्रार्थ द्वारा बताते है ,लेकिन माधव शंकर दिग्विजय में राजा सुधन्वा आदि की सेना द्वारा उनका संहार करने का वर्णन है .. क्या शंकराचार्य जी की वजह से बोद्ध धम्म का नाश हुआ ..क्या शंकराचार्य जी ने हत्याये करवाई इस विषय में हम अपने विचार न रखते हुए एक महान बोद्ध पंडित राहुल सांस्कृत्यन जी की पुस्तक बुद्ध चर्या के प्रथम संस्करण १९३० की जिसका प्रकाशन गौतम बुक सेंटर दिल्ली से हुआ के अध्याय भारत में बोद्ध धम्म का उथान और पतन ,पेज न १०-११ से उधृत करते है –
इसमें बोद्धो के पतन का कारण तुर्की आक्रमण कारी ओर उनका तंत्रवाद को प्रबल प्रमाणों द्वारा सिद्ध करते हुए शंकराचार्य विषय में निम्न पक्ष रखते है –

” एक ओर कहा जाता है ,शंकर ने बोद्धो को भारत से मार कर भगाया और दूसरी ओर हम उनके बाद गौड़ देश में पालवंशीय बोद्ध नरेशो का प्रचंड प्रताप फैला देखते है ,तथा उसी समय उदन्तपूरी और विक्रमशीला जेसे बोद्ध विश्वविद्यालयों को स्थापित देखते है | इसी समय बोद्धो को हम तिब्बत पर धर्म विजय करते भी देखते है | ११ वि सदी में जब कि ,उक्त दंत कथा अनुसार भारत में कोई भी बोद्ध न रहना चाहिए , तब तिब्बत से कितने ही बोद्ध भारत आते ओर वे सभी जगह बोद्ध ओर भिक्षुओ को पाते है | पाल काल के बुद्ध ,बोधिसत्व ओर तांत्रिक देवी देवताओं की गृहस्थो हजारो खंडित मुर्तिया उतरी भारत के गाँव तक में पायी जाती है | मगध ,विशेष कर गया जिले में शायद ही कोई गाँव होगा ,जिसमे इस काल की मुर्तिया न हो (गया -जिले के जहानाबाद सब डिविजन के गाँव में इन मूर्तियों की भरमार है ,केस्पा .घेजन आदि गाँव में अनेक बुद्ध ,तारा ,अवलोकितेश्वर आदि की मुर्तिया उस समय के कुटिलाक्षर में ये धर्मा हेतुप्रभवा …..श्लोक से अंकित मिलती है ) वह बतला रही है कि उस समय किसी शंकर ने बोद्ध धम्म को नस्तनाबुत नही किया था | यही बात सारे उत्तर भारत से प्राप्त ताम्र लेखो ओर शिलालेख से मालुम होती है | गौडनपति तो मुसलमानों के बिहार बंगाल विजय तक बोद्ध धर्म और कला के महान संरक्षक थे ,अंतिम काल तक उनके ताम्र पत्र बुद्ध भगवान के प्रथम धर्मोपदेश स्थान मृगदाव (सारनाथ ) के लांछन दो मृगो के बीच रखे चक्र से अलंकृत होते थे | गौड़ देश के पश्चिम में कन्याकुब्ज राज था ,जो कि यमुना से गण्डक तक फैला था | वहा के प्रजा जन और नृपति गण में भी बोद्ध धम्म का खूब सम्मान था | यह बात जयचंद के दादा गोविंदचद्र के जेतवन बिहार को दिए पांच गाँवों के दानपात्र तथा उनकी रानी कुमारदेवी के बनवाये सारनाथ के महान बौद्ध मन्दिर से मालुम होती है | गोविंद चन्द्र के बेटे जयचन्द्र की एक प्रमुख रानी बौद्धधर्मावलम्बिनी थी ,जिसके लिए लिखी गयी प्रज्ञापारमिता की पुस्तक अब भी नेपाल दरबार पुस्तकालय में मौजूद है | कन्नौज में गहडवारो के समय की कितनी ही बोद्धमुर्तिया निलती है ,जो आज किसी देवी देवता के रूप में पूजी जाती है |
कालिंजर के राजाओ के समय की बनी महोबा आदि से प्राप्त सिंहनाद अवलोकितेश्वर आदि की सुंदर मुर्तिया बतला रही है कि .तुर्कों के आने के समय तक बुन्देलखंड में बोद्धो की संख्य काफी थी | दक्षिण भारत में देवगिरी के पास एलोरा के भव्य गुहा प्रसादों में भी कितनी ही बोद्ध गुहये ओर मुर्तिया .मालिक काफूर से कुछ पहले तक की बनी हुई है | यही बात नासिक के पांडववेलिनी की गुहाओ के विषय में है | क्या इससे सिद्ध नही होता कि .शंकर द्वारा बोद्ध का निर्वसन एक कल्पना मात्र है | खुद शंकर की जन्मभूमि केरल से बोद्धो का प्रसिद्ध तन्त्र मन्त्र ग्रन्थ ” मंजूष मूलकल्प संस्कृत में मिला है ,जिसे वही त्रिवेन्द्रम से स्व महामहोपाध्याय गणपतिशास्त्री जी ने प्रकाशित कराया था | क्या इस ग्रन्थ की प्राप्ति यह नही बतलाती कि ,सारे भारत से बोद्धो का निकलना तो अलग केरल से भी वह बहुत पीछे लुप्त हुए है | ऐसी बहुत सी घटनाओं ओर प्रमाण पेश किये जा सकते है जिससे इस बात का खंडन हो जाता है |
राहुल जी की इस बात से न्व्बोद्धो ओर कुछ सनातनियो की इस बात का खंडन हो जाता है कि शंकराचार्य जी ने भारत से बोद्ध धम्म को नष्ट किया ..माधव दिग्विजय एक दंत कथा मात्र है | बोद्ध धम्म भारत से बोद्धो के अंधविश्वास ओर तुर्क आक्रमण कारियों के कारण नष्ट हुआ ,,,