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कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः मेधातिथिः । देवता बृहस्पतिः । छन्दः आर्षी गायत्री ।

यो रेवान् योऽअमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्द्धनः। स नः सिषक्तु यस्तुरः॥

-यजु० ३। २९

(यः) जो बृहस्पति जगदीश्वर (रेवान्) विद्या आदि धनों से युक्त है, (यः) जो (अमीवहार) आत्मिक एव शारीरिक रोगों को नष्ट करने वाला, (वसुवित्) ऐश्वर्य प्राप्त कराने वाला, और (पुष्टिवर्धनः) पुष्टि बढ़ानेवाला है, तथा (यः तुर:) जो शीघ्रकारी है (सः) वह (नः सिषक्तु) हमें प्राप्त हो।

क्या तुम गर्व करते हो अपनी विशाल बहुमंजिली कोठियों पर, गगनचुम्बी रत्नजटित महलों पर, विस्तृत भूमिक्षेत्र पर, अपार धन-दौलत पर, हरे-भरे रसीले फलों वाले बाग बगीचों पर ? यह तुम्हारा गर्व क्षण- भर में चूर हो जायेगा, जब तुम बृहस्पति परमेश्वर के समस्त ब्रह्माण्ड में फैले हुए अपार ऐश्वर्य पर दृष्टि डालोगे। सूर्य, नक्षत्र और इनके असंख्य ग्रह। उपग्रहों को थोड़ी देर के लिए आँख से ओझल करके भी अपनी छोटी-सी भूमि के ऐश्वर्य को ही देख लो, तो भी तम्हारा ऐश्वर्यशाली होने का गर्व समाप्त हो जायेगा।

पृथिवी पर फैली हुई प्रभु की सम्पदा सोना, चाँदी, रत्न, हीरे, मोती, पन्ने, विविध बहुमूल्य पदार्थों की खाने, नदियाँ, पर्वत, समुद्र, स्रोत, झरने, वनस्पतियाँ, रङ्ग-विरङ्गे पुष्प, रसभरे फल, अमृत पेय से अपनी छोटी-सी सम्पत्ति की तुलना तो करो। फिर यह भी सोचो कि जिस सम्पदा को तुम अपनी कह रहे हो वह भी तो तुम्हारी नहीं, प्रभु की ही बनायी और दी हुई है। तब शीष झुक जाएगा तुम्हारा उस ‘रेवान्’, अर्थात् रयिमान् यो धनवान् प्रभु के सम्मुख। फिर केवल भौतिक धनों का ही नहीं, अपितु विद्या, न्याय आदि धनों को भी वह स्वामी है। अन्य अनेक गुण भी उसके अन्दर हैं। वह ‘अमीवहा’ है, हमारे आत्मिक, मानसिक और शारीरिक रोगों को हर कर हमें स्वस्थ बनानेवाला है। प्रभुकृपा की रोगह अद्भुत बूटी के बिना ब्रह्माण्ड में फैली हुई असंख्यों बूटियाँ और उनके प्रयोक्ता सहस्रों चिकित्सकों की अनवरत चिकित्सा विफल हो जाती है। फिर इस बात को भी मत भूलो कि पृथिवी पर फैली हुई असंख्य ओषधियाँ भी तो प्रभु की ही उत्पन्न की हुई हैं।

प्रभु ‘वसुविद्’ भी है, आध्यात्मिक और भौतिक धन मनुष्य को प्राप्त करानेवाला तथा धन-कुबेर बनानेवाला भी वही है। बृहस्पति प्रभु ‘पुष्टिवर्धन’ भी है, हमारी आत्मिक और शारीरिक पष्टि की पूँजी को बढ़ानेवाला भी है। वह प्रभ ‘तुरः’ है, त्वराशील है, हर क्षेत्र में त्वरा करनेवाला है। उसकी त्वरा या शीघ्रकारिता के बिना ब्रह्माण्ड के कार्य अलस गति से चलते हुए कभी पूर्ण ही न हों। सूर्योदय, चन्द्रोदय, ऋतुचक्र प्रवर्तन, ब्रह्माण्डलीलाप्रचालन सबको वह त्वराशील प्रभु ही करा रहा है। परन्तु परमेश्वर के इन गुणवर्णनों से कोई कार्य सिद्ध होनेवाला नहीं है, जब तक स्वयं अपने अन्दर इन गुणों को धारण न करें।

इसीलिए भाष्यकार महर्षि दयानन्द स्वामी इस मन्त्र के भावार्थ में लिखते हैं-”मनुष्य जैसी प्रार्थना ईश्वर से करते हैं, वैसा उन्हें पुरुषार्थ भी करना चाहिए। ईश्वर ‘रेवान्’ अर्थात् विद्या आदि धनवाला है, ऐसा विशेषण कह सुन कर कोई कृतकृत्य नहीं हो सकता, अपितु उसे स्वयं भी परम पुरुषार्थ द्वारा विद्या आदि धन की वृद्धि और रक्षा निरन्तर करनी चाहिए। जैसे परमेश्वर अविद्या आदि रोगों को दूर करनेवाला है, वैसे मनुष्यों को भी उचित है कि स्वयं भी अविद्या आदि रोगों को निरन्तर दूर करें । जैसे वह सबकी पुष्टि को बढ़ाता है, वैसे मनुष्य भी सबके पुष्टि आदि गुणों को निरन्तर बढ़ावें । जैसे वह शीघ्रकारी है, वैसे ही मनुष्य भी अभीष्ट कार्य त्वरा से करें ।”

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

पादटिप्पणियाँ

१. (रेवान्) विद्याधनवान्–द०।।

२. (अमीवहा) योऽमीवान् अविद्यादिरोगान् हन्ति सः-द० ।

३. वसुवित्-यो वसूनि धनानि वेदयति प्रापयति सः, विदुल लाभे।

४. (पुष्टिवर्धनः) पुष्टिं शरीरात्मबलं धातुसाभ्यं च वर्द्धयतीति-द० ।

५. तुर:-तुर त्वरणे, जुहोत्यादिः, शीघ्रकारी।

६. सिषक्तुषच समवाये, छान्दस रूप ।

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

अग्न्याधान

अग्न्याधान

ऋषिः प्रजापतिः।   देवताः अग्नि-वायु-सूर्याः।   छन्दः क. दैवीबृहती, र. निवृद् आर्षी बृहती।

भूर्भुवः स्वर्’ द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमुन्नाद्ययोदधे।

-यजु०३।५

( भूःभुवःस्वः ) सत्-चित्-आनन्द, पृथिवी-अन्तरिक्षद्यौ, अग्नि-वायु-आदित्य, ब्रह्म-क्षत्र-विट् का ध्यान करता हूँ।

मैं ( भूम्ना) बाहुल्य से ( द्यौःइव) द्युलोक के समान हो जाऊँ, ( वरिम्णा) विस्तार से ( पृथिवी इव) भूमि के समान हो जाऊँ। ( देवयजनिपृथिवि ) हे देव यज्ञ की स्थली भूमि! ( तस्याःतेपृष्ठे ) उस तुझे भूमि के पृष्ठ पर ( अन्नादम्अग्निम्) हव्यान्न का भक्षण करने वाली अग्नि को ( अन्नाद्याय) अदनीय अन्नादि का भक्षण करने के लिए ( आदधे ) आधान करता हूँ/करती हूँ।

अग्न्याधान से पूर्व व्याहृतियों द्वारा सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर का स्मरण करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में भूः, भुवः, स्व: पूर्वक आहवनीय अग्नि के आधान का विधान करते हुए इन का सम्बन्ध क्रमशः पृथिवी-अन्तरिक्ष-द्यौ, ब्रह्म-क्षत्र-विट् तथा आत्मा-प्रजा-पशुओं से बताया गया है। इन सब में अपने-अपने प्रकार की अग्नि का वास है। तैत्तिरीय आरण्यक एवं तैत्तिरीय उपनिषद्में इन व्याहृतियों को क्रमशः भूलोक अन्तरिक्ष लोक-द्युलोक, अग्नि-वायु-आदित्य, ऋक्-साम-यजुः और प्राण-अपान-उदान का वाचक कहा है। वहाँ इनके द्वारा विधि करने का फल यह बताया गया है कि भू: के द्वारा अग्नि में, भुवः के द्वारा वायु में और स्वः के द्वारा आदित्य में प्रतिष्ठित हो जाता है, अर्थात् इन-इन के ऐश्वर्य का अधिकारी हो जाता है। इनका ध्यान करने वाला आत्मराज्य को और मन सस्पति को प्राप्त कर लेता है। वह वाक्पति, चक्षुष्पति, श्रोत्रपति हो जाता है, क्योंकि अध्यात्म में भूः, भुवः, स्व: का सम्बन्ध वाक्, चक्षु और श्रोत्र से भी है।

आगे यजमान कहता है कि बाहुल्य (भूमा) में मैं द्युलोक के समान हो जाऊँ, अर्थात जैसे द्यलोक में बहत-से नक्षत्र हैं। और इनकी रश्मियाँ हैं, वैसे ही मेरे अन्दर भी बहुत से सद्गुण रूप नक्षत्र एवं दिव्य अन्त: प्रकाश की किरणें उत्पन्न हों। फिर कहता है कि विस्तार में मैं पृथिवी के समान हो जाऊँ, अर्थात् मेरे आत्मा में अपनत्व का विकास इतना हो जाए कि सारी वसुधा को ही अपना कुटुम्ब मानने लगूं। फिर वह पृथिवी को सम्बोधन कर कहता है कि तुम ‘देवयजनी’ हो, अर्थात् तुम्हारे पृष्ठ पर सदा ही देवयज्ञ या अग्निहोत्र होते रहे हैं। अतः मैं भी तुम्हारे पृष्ठ पर अन्नाद (हव्यान्नभक्षी) अग्नि का आधान करता हूँ, जिससे वह अग्नि अदनीय (भक्षणीय) अन्नादि हव्य का भक्षण करके उसकी सुगन्ध को चारों ओर फैलाकर वातावरण को शुद्ध एवं रोग-परमाणुओं से रहित कर सके। शतपथ ब्राह्मण कहता है कि जैसे नवजात बच्चे को उस के भक्षण योग्य मातृ स्तन का दूध दिया जाता है, ऐसे ही नवजात अग्नि को उसके अदन के योग्य ही हव्यान्न दिया जाना चाहिए, अतःअन्नाद्य ( अद्य-अन्न) शब्द रखा गया है। * अन्नाद्याय’ का दूसरा भाव यह भी हो सकता है कि ‘भक्षणीयअन्न’ की प्राप्ति के लिए मैं अग्नि का आधान करता हूँ। अग्नि में डाली हुई आहुति आकाश में मेघमण्डल उत्पन्न करके वृष्टि द्वारा अन्नोत्पत्ति में कारण बनेगी और मुझे भक्षणीय अन्न प्राप्त होगा।*

अग्न्याधान

पादटिप्पणियाँ

१.श०२.१.४.१०-१४॥

२. तै०आ०७.५.१-३, तै०उ०शिक्षावल्ली५.१-४।।

३. भूरित्यग्नौप्रतितिष्ठति।भुवइतिवायौ।सुवरियादित्ये।

| मह इतिब्रह्मणि।आप्नोति स्वाराज्यम्।आप्नोतिमनसस्पतिम्।।

वाक्पतिश्चक्षुष्पतिः।श्रोत्रपतिर्विज्ञानपतिःएतत्ततोभवति।

-तै० आ०७.६.१.२, तै०उ०शिक्षावल्ली६.१,२।

४. यथासौद्यौर्बह्नी नक्षत्रैरैवंबहुर्भूयासम्इत्येवैतदाहयदाहद्यौरिवभूम्नेति।

| –शे०२.१.४.८५.पृथिवीव वरिण्णेति । यथेयं पृथिवी उर्वी एवम् उरुर्भूयासम् इत्येवैतदाह।

—श० २.१.४.२८अन्नाद्याय। अन्नं च तद् अद्यं चेति अन्नाद्यम् । ‘अद्यान्नाय’ इति प्राप्त

आहिताग्न्यादित्वात्परनिपातः, पा० २.२.३६ ।।७. श० २.१.५.१।

अग्न्याधान