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हम आयु, तेज, समृद्धि आदि प्राप्त करें -रामनाथ विद्यालंकार

हम आयु, तेज, समृद्धि आदि  प्राप्त करें -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वत्सप्री: । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

अग्नेऽभ्यावर्तिन्नूभि निवर्तस्वायुषा वर्चसा प्रजय धनेन। सुन्या मेधयां रय्या पोषेण

-यजु० १२ । ७ |

हे ( अभ्यावर्तिन् अग्ने ) शरीर में अनुकूलता के साथ रहनेवाली प्राणाग्नि ! (अभिमानिवर्तस्व) मेरे शरीर में निरन्तर विद्यमान रह ( आयुषा ) स्वस्थ आयु के साथ, ( वर्चसा ) वर्चस्विता के साथ, (प्रजया) उत्कृष्ट प्रजननशक्ति एवं प्रजा के साथ, ( धनेन ) धन के साथ ( सन्या) इष्ट प्राप्ति के साथ, ( मेधया ) धारणावती बुद्धि के साथ, ( रय्या) विद्या-श्री के साथ ( पोषेण ) पुष्टि के साथ।

शरीर में जब तक प्राणाग्नि प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान आदि द्वारा सुचारुतया कार्य करती रहती है, तब तक शरीर जीवित रहता है। अतः मैं चाहता हूँ कि शरीर में आकर अनुकूलता के साथ रहनेवाली प्राणाग्नि मेरे अन्दर निरन्तर विद्यमान रहे। परन्तु केवल प्राणाग्नि शरीर में विद्यमान रहे, अन्य आवश्यक साज न हो, तो भी शरीर में होने के बराबर है। इसलिए मन्त्र में प्राणाग्नि के साथ अन्य समस्त साज की भी याचना की गयी है, ‘स्वस्थ एवं दीर्घ आयु, वर्चस्विता, उत्कृष्ट प्रजननशक्ति एवं प्रजा, धन, इष्ट लाभ, बुद्धि, विद्या श्री और पुष्टि । प्रत्येक मनुष्य की अभिलाषा होती है कि उसे स्वस्थ दीर्घायुष्य प्राप्त हो, रुग्ण दीर्घायुष्य कोई नहीं चाहता। रुग्ण दीर्घायुष्य की अपेक्षा स्वस्थ अल्पायुष्य अधिक अच्छा  है। साथ ही मनुष्य के आत्मा में वर्चस्विता भी होनी चाहिए। विज्ञान, स्मृतिशक्ति, सदाचार आदि आत्मा के गुणों का नाम वर्चस् है। वर्चस् में ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज दोनों आ जाते हैं। फिर मनुष्य को प्रजननशक्ति और प्रजा भी प्राप्त होनी चाहिए। अपने और अपने परिवार के पालन के लिए धन भी आवश्यक वस्तु है। धन में रुपया-पैसा, बँगले-कोठी, खाद्य सामग्री, मनोरञ्जन की वस्तुएँ आदि सभी पदार्थ आ जाते हैं। धन के अतिरिक्त अन्य बहुत-सी अभीष्ट प्राप्तियों की भी आवश्यकता पड़ती है-यथा, सुख की प्राप्ति, यश की प्राप्ति, सद्गुणों की प्राप्ति, ईश्वर-भक्ति की प्राप्ति, कर्मण्यता की प्राप्ति । ये समस्त प्राप्तियाँ ‘सनि’ के अन्तर्गत आ जाती हैं। इनके अतिरिक्त ‘मेधा’ या धारणावती बुद्धि भी जीवन का अनिवार्य अङ्ग है। बुद्धि से ही मनुष्य अनेकविध सफलताओं को पाने में समर्थ होता है। बुद्धि के साथ विद्या-श्री भी चाहिए, क्योंकि विद्याविहीन जन पशुतुल्य माना जाता है। ऊपर जिन पदार्थों की चर्चा की गयी है, वे प्राप्त भी हो जाएँ, पर क्षीण होते चलें तो भी मनुष्य कृतकार्य नहीं हो सकते। अतः समस्त प्राप्त ऐश्वर्यों की पुष्टि भी होती रहनी चाहिए।

हे प्राणाग्नि! तुम उक्त सब ऐश्वर्यों के साथ हमारे अन्दर निवास करो तथा हमें सर्वोन्नत जनों की श्रेणी में ला बैठाओ।

पादटिप्पणियाँ

१. (अभ्यावर्तिन्) आभिमुख्येन वर्तितु शीलं यस्य-द० ।

२. सन्या=इष्टलाभेन–म० | षण सम्भक्तौ, भ्वादिः ।३०.४.१४१ इ प्रत्यय। सन्यते संभज्यते इति सनिः ।।

३. रयि शब्द धनवाची है। धन मन्त्र में पृथक् आ चुका है, अतः यहाँविद्याधन अभिप्रेत है। रय्या=विद्याश्रिया-द० ।

हम आयु, तेज, समृद्धि आदि  प्राप्त करें -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित राजा को प्रजा के प्रतिनिधि की प्रेरणा -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित-राजा-कोनवनिर्वाचित राजा को प्रजा के  प्रतिनिधि की प्रेरणा -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः त्रितः । देवताः अग्निः । छन्दः विराट् आर्षी त्रिष्टुप् ।

सीद त्वं मातुरस्याऽउपस्थे विश्वान्यग्ने वयुननि विद्वान्। मैनां तपस मार्चिषाऽभिशोचीरन्तरस्याऽशुक्रज्योतिर्विभाहि॥

-यजु० १२ । १५ |

( अग्ने ) हे नवनिर्वाचित राजन् ! ( विश्वानि ) सब ( वयुनानि ) प्रशस्य कर्मों, प्रज्ञाओं और कान्तियों के ( विद्वान्) ज्ञाता ( त्वं ) आप ( अस्याः मातुः ) इस मातृभूमि की (उपस्थे ) गोद में, राजगद्दी पर ( सीद ) बैठो। ( एनां ) इस मातृभूमि को (मा)(तपसा ) सन्ताप से, ( मा )(अर्चिषा ) दु:ख, विद्रोह, आतङ्क आदि की लपट से (अभिशोचीः ) शोकाकुल करो। ( अस्याम् अन्तः ) इसके अन्दर ( शुक्रज्योतिः ) प्रदीप्त तथा पवित्र ज्योतिवाले होकर (विभाहि ) भासमान होवो ।

kingआग के समान तेजस्वी, प्रख्यात, प्रकाशमान, प्रकाशदाता तथा ऊर्ध्वगामी होने के कारण भी आप ‘अग्नि’ कहलाते हैं। आप समस्त वयुनों’ के विद्वान् हैं। ‘वयुन’ शब्द निघण्टु में प्रशस्य-वाचक शब्दों में पठित है और निरुक्त में इसके कान्ति तथा प्रज्ञा अर्थ किये गये हैं। क्या प्रशस्य है और क्या अप्रशस्य है, इसे आप भलीभाँति जानते हैं। अतः प्रजा में प्रशस्य कर्म लाने में तथा प्रजा से अप्रशस्य कर्म छुड़ाने में आप समर्थ हैं। प्रज्ञा के आप धनी हैं, अतः निखिल ज्ञान विज्ञान को राष्ट्र के बुद्धिजीवियों में आप प्रचारित कर सकते हैं। ‘कान्ति’ आपको सुहाती है, अत: राष्ट्रवासियों में आप सूर्य-जैसी कान्ति और आभा ला सकते हैं। आप पदभार ग्रहण करते हुए मातृभूमि की गोद में राजगद्दी पर आसीन हों। अपने कार्यकाल में इस बात का सदा ध्यान रखें कि यह मातृभूमि कभी सन्ताप , दु:ख, विद्रोह, आतङ्कवाद आदि की ज्वालाओं से शोकाकुल न हो। भले ही विद्रोही लोग आपके उज्ज्वल कार्यों के प्रति विद्रोह प्रकट करें, सेना लेकर आपके राष्ट्र पर आक्रमण करें, आपकी प्रजा को भी विद्रोह में संमिलित करने का प्रयत्न करें, किन्तु आप अपनी उज्वलता पर सुदृढ़ रहें, अपने राष्ट्र की उन्नति के प्रयत्नों पर स्थिर रहें। भले ही आतङ्कवादी लोग मार-काट, अग्निकाण्ड, आत्मघाती विनाश के प्रपञ्च आदि से आपको डराना चाहें, किन्तु आप निर्भयतापूर्वक अपने सत्प्रयासों में प्रवत्त और अडिग रहें। आप प्रदीप्त और पवित्र ज्योति के साथ राष्ट्र में सदा सूर्य के समान चमकते रहें। सूर्य बनकर तामसिकता और अज्ञान के अन्धकार को विच्छिन्न करते रहें। अपने यशस्वी कार्यों से निरन्तर कीर्ति पाते रहें। तब हमारे द्वारा आपको राजगद्दी पर आसीन करना, राष्ट्र का उन्नायक बनाना सफल होगा। प्रभु करे आप अपने राष्ट्र को उन्नत राष्ट्रों की पङ्कि में सबसे आगे खड़ा करने का श्रेय प्राप्त करने में समर्थ हों। हम आपकी जय बोलते हैं, आपके मन्त्रिमण्डल और रक्षक सेनाध्यक्षों की जय बोलते हैं, राष्ट्र की जय बोलते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. वयुन=प्रशस्य, निघं० ३.८।।

२. वयुनं वेतेः कान्तिर्वा प्रज्ञा वा। निरु० ५.४८।

नवनिर्वाचित राजा को प्रजा के  प्रतिनिधि की प्रेरणा -रामनाथ विद्यालंकार

रोगी, वैद्य और ओषधि तीनों दीर्घायु हों -रामनाथ विद्यालंकार

रोगी, वैद्य और ओषधि तीनों दीर्घायु हों -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वरुणः । देवता वैद्याः । छन्दः विराड् आर्षी बृहती।

दीर्घायुस्तऽओषधे खनिता यस्मै त्वा खनाम्यहम्। अथ त्वं दीर्घायुर्भूत्वा शुतवल्शा विरिहतात्॥

-यजु० १२ । १००

( ओषधे ) हे ओषधि! ( ते खनिता ) तुझे खोदनेवाला ( दीर्घायुः ) दीर्घायु हो, (यस्मैच) और जिस रोगी के लिए ( अहं त्वा खनामि ) मैं वैद्य तुझे खोदता हूँ [वह भी दीर्घायु हो]। ( अथो) और हे ओषधि ! ( त्वं दीर्घायुः भूत्वा ) तू भी दीर्घायु होकर ( शतवल्शा) शत अंकुरोंवाली के रूप में ( वि रोहतात् ) बढ़।

कई रोग अन्य मनुष्य को तथा प्राणियों को जन्मजात मिलते हैं और अन्य बहुत-से रोगों को वे अपने शरीर में नये उत्पन्न कर लेते हैं। खान-पान तथा रहन-सहन की अनियमितता इसमें प्रधान कारण होती है। जैसे-जैसे रोग बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे चिकित्सक भी बढ़ते जा रहे हैं। ओषधियों में से कुछ का ह्रास या विनाश हो रहा है और कुछ नवीन उत्पन्न होती जा रही है। प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद, ऐलोपैथी, होम्योपैथी आदि चिकित्सापद्धतियाँ भी बढ़ रही हैं। चिकित्सक और चिकित्सापद्धतियाँ बढ़ने पर भी रोग और रोगी कम न होकर बढ़ते ही जा रहे हैं तथा उनकी भयङ्करता भी बढ़ती जा रही है। फिर भी कुछ रोग जो पहले असाध्य समझे जाते थे, वे साध्यकोटि में आ गये हैं। चिकित्सा-जगत् को कई नवीन देने भी मिली हैं। प्रस्तुत मन्त्र ओषधि-विज्ञान के विषय में तीन बातों पर प्रकाश डाल रहा है, जो तीनों ही महत्त्वपूर्ण हैं।

पहली बात यह है कि जो लोग जङ्गल यो पहाड़ से ओषधियाँ खोद कर लाते हैं, उन्हें अनाड़ी नहीं, अपितु उन यजुर्वेद ज्योति ओषधियों के गुण-धर्मों का अच्छा ज्ञाता होना चाहिए, जिससे रोगी होने पर स्वयं उनका प्रयोग करके स्वास्थ्यलाभ कर सकें तथा अन्यों को भी उन ओषधियों का परिचय देकर उनके रोगनिवारण में सहायक हो सकें। यह देखा गया है कि ओषधियाँ खोद कर लानेवाले कई सेवक वैद्यों से भी अधिक आयुर्वेदज्ञ होते हैं। दूसरी बात मन्त्र मैं वैद्य की ओर से कही गयी है। वे कहते हैं कि जिस रोगी के लिए मैं स्वयं ओषधि को खोद कर लाता हूँ, या ओषधि-विक्रय-विभाग से खरीद कर लाता हूँ, वह रोगी भी दीर्घायु हो। रोगी दीर्घायु तब हो सकता है, जब वैद्य का चिकित्साशास्त्रीय ज्ञान अधूरा न होकर पूर्ण हो। अच्छा आयुर्वेदज्ञ वैद्य ही ओषधि से रोगी को लाभ पहुँचा सकता है, अन्यथा उसके पास ओषधि विद्यमान हो तो भी उसकी चिकित्सा से रोगी स्वस्थ हो ही जायेगा यह आवश्यक नहीं है। तीसरी मन्त्रोक्त बात यह है कि ओषधि को इस प्रकार काटना चाहिए कि काटने के बाद उसके अनेक अंकुर फूटें और वह पहले से भी अधिक बड़ी हो जाये, नहीं तो यदि ओषधि को गलत तरह से काटा या उखाड़ा जायेगा, तो उसके नष्ट हो जाने का भय है। पहले एक सोमलता होती थी, जिसका रस शक्तिवर्धक तथा बुद्धिवर्धक था। यज्ञों में उसका प्रयोग बहुत होता था, उसे इस बुरी तरह काटा उखाड़ा गया और मैदानों में उसकी खेती की नहीं जा सकी कि वह समाप्त ही हो गयी। यही हालत अन्य ओषधियों की भी हो सकती है, यदि इस तरह उन्हें काटेंगे कि उनके शत। शत कल्ले न फूटते रहें । अतः ओषधियो को प्रयोग के लिए इस तरह काटें कि वे भी दीर्घायु हों।

आइये, यदि हम चिकित्सक हैं तो मन्त्रोक्त बातों का ध्यान रखें। ओषधि खोदकर लानेवाला भी दीर्घायु हो, रोगी भी दीर्घायु हों और ओषधियाँ भी दीर्घायु हों।।

पादटिप्पमियाँ

१. शतवल्शी शताङ्करा।

२. विरोहतात् वर्धस्व ।।

रोगी, वैद्य और ओषधि तीनों दीर्घायु हों -रामनाथ विद्यालंकार 

हे चाँद! बहकर परिपूर्ण हो जा -रामनाथ विद्यालंकार

हे चाँद! बहकर परिपूर्ण हो जा -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गोतमः । देवता सोमः । छन्दः निवृद् आर्षी गायत्री

आप्यायस्व समेतु ते विश्वतः सोम वृष्ण्यम्। भवा वाजस्य सङ्गथे॥

-यजु० १२ । ११२

( सोम ) हे चाँद ! ( आ प्यायस्व) बढ़, परिपूर्ण हो जा। ( विश्वतः ) सब ओर से ( ते ) तेरा (वृष्ण्यम् ) सेचक अमृत ( समेतु ) आये। ( भव ) हो जा ( वाजस्य ) बल के (संगथे) संगमार्थ ।

हे चाँद! किसी दिन तू परिपूर्ण आभा के साथ गगन में चमक रहा था, पूर्णिमा का चाँद था। किन्तु तू आपदा से ग्रस्त होकर घटना आरम्भ हो गया और घटते-घटते आज अमावस के दिन आकाश से लुप्त ही हो गया है। तू पुनः बढ़ना आरम्भ कर, बढ़ते-बढ़ते फिर पूर्णिमा का चाँद हो जा। तेरा अमृत फिर तुझ में लौट आये और तू अमृत से लबालब भर जा। हमारे अन्दर पुनः शीतल ज्योति के बल का सङ्गम करने में तत्पर हो जा।।

यह एक वैदिक अन्योक्ति है, जिसे अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार भी कहते हैं। चाँद के बहाने से उस मनुष्य को या उस राष्ट्र को कहा जा रहा है, जो पहले कभी बहुत उन्नति कर चुका है, किन्तु अब अवनति के गर्त में गिर गया है। हे मानव ! हे राष्ट्र ! तू एक दिन अपनी उन्नति पर गर्व करता था, अन्य सब भी तेरे गौरव का सिक्का मानते थे । तू जगत् के गगन में पूर्णिमा के चाँद के समान चमकता था। परन्तु सबके दिन सदा एक से नहीं रहते। ‘चक्र सी है घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा’ । आज तू अमावस का चाँद बन गया है, किन्तु चिन्तित मत हो, यजुर्वेद ज्योति निराशा-निरुत्साह मन में मत ला। फिर एक-एक कला से बढ़ना आरम्भ कर । तू पूनम का चाँद हो जायेगा। तेरे ‘वृष्ण्य’ की, तेरे बल की, तेरे वीर्य और पराक्रम की धाक फिर जम जायेगी। फिर तू सबको अमृत, शीतलता और शान्ति प्रदान करने लगेगा। फिर तू संग्राम में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने लगेगा। तेरे सम्मुख एक दिन फिर सब सिर झुकायेंगे। तुझे फिर शान्ति का दूत स्वीकार करेंगे। हे अमावस के चाँद! तू पूनम का चाँद हो जा।

हे चाँद! बहकर परिपूर्ण हो जा -रामनाथ विद्यालंकार 

जगदीश से प्रार्थना -रामनाथ विद्यालंकार

जगदीश से प्रार्थना -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विश्वेदेवाः । देवता वायुः । छन्दः भुरिग् अतिजगती।

प्राणम्मे पाह्यपानम्मे पाहि व्यनम्मे पाहि चक्षुर्मऽउर्ध्या विभाहि श्रोत्रम्मे श्लोकय। अपः पिन्वौषधीर्जिन्व द्विपार्दव चतुष्पा त्पाहि दिवो वृष्टिमेरय॥

-यजु० १४/८

हे वायो ! हे जगदीश्वर ! ( मे प्राणं पाहि ) मेरे प्राण की रक्षा कीजिए, ( मे अपानंपाहि) मेरे अपान की रक्षा कीजिए ( मे चक्षुः ) मेरी आँख को ( उर्ध्या ) व्यापकरूप से (विभाहि ) दृष्टिशक्ति से चमकाइये, ( मे श्रोत्रं ) मेरे कान को ( श्लोकय ) श्रवणशक्ति से युक्त कीजिए। ( अप: जिन्व ) पानी सींचिए, ( ओषधीः जिन्व ) ओषधियों को बढ़ाइये, ( द्विपाद् अव ) दो पैरवाले मनुष्य से प्रीति कीजिए, ( चतुष्पात् पाहि) चार पैरवाले गाय आदि पशुओं का पालन कीजिए।

हे जगदीश्वर ! अनेक नामों में से आपका एक नाम ‘वायु भी है, क्योंकि आप चराचर जगत् का धारण, जीवन और प्रलय करते हो तथा बलवानों में बलिष्ठ हो । वायु के समान प्राणदायक होने से भी आप ‘वायु’ कहलाते हो। आप मधुर, मन्द, शीतल पवन के समान शान्तिदायक भी हो और झंझावात के समान काम, क्रोधादि रूप बाधक झंखाड़ों को तोड़ गिरानेवाले भी हो। आप हमारे प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान नामक प्राणों की रक्षा कीजिए। चक्षु, श्रोत्र, मुख, नासिका में ‘प्राण’ स्वतः स्थित होता है, अर्थात् शरीर में दर्शन, श्रवण, शब्दोच्चारण एवं श्वास-संस्थान का कार्य प्राण’ से होता है। मलसंस्थान और मूत्रसंस्थान में ‘अपान’ स्थित होता है। इन संस्थानों को स्वस्थ रखना तथा मलमूत्रादि का भलीभाँति निस्सारण करना  इसका कार्य है। शरीर के मध्यभाग में ‘समान’ निवास करता है, जिसका कार्य है, जाठराग्नि में होमे हुए अन्न को समावस्था में लाना, अर्थात पचा कर एकरस करना। हृदय की समस्त नाड़ियों में ‘व्यान’ विचरता हुआ रक्तसंस्थान को सञ्चालित करता है। पृष्ठवंश में ‘उदान’ स्थित होता है, जो मनुष्य के उन्नत होकर बैठना, ऊपर उछलना आदि कार्यों में सहायक होता है। इन प्राणों के अरक्षित या विकृत हो जाने से शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा सबका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। अतः इनकी रक्षा आवश्यक है।

हे भगवन् ! आप मेरी चक्षु की समीप-दृष्टि और दूर-दृष्टि दोनों को न केवल अक्षुण्ण रखिये, अपितु अधिकाधिक बढ़ाइये, चमकाइये। आप मेरे कानों को भरपूर श्रवण-शक्ति से युक्त कीजिए। इसी प्रकार शरीर के जो अन्य अङ्गोपाङ्ग हैं या सामर्थ्य हैं, उन सबकी भी आप रक्षा कीजिए। प्रकृति में जो आपके द्वारा विविध क्रियाएँ की जा रही हैं, उनकी भी आप सम्यक्तया रक्षा कीजिए, क्योंकि उनका भी प्रभाव हमारे शरीर, मन आदि पर पड़ता है। आप वायु में जल-कणों को भरकर उनके द्वारा हमें सींचते रहिए, क्योंकि सर्वथा शुष्क वायु हमारे शरीराङ्गों को भी शुष्क कर देती है। आप ओषधि-वनस्पतियों को बढ़ाइए, जिससे वे वायुमण्डल को शुद्ध करती रहें, हमें छाया प्रदान करती रहें, वर्षा में सहायक होती रहें और प्रचुर मात्रा में अपने मूल, छाल, पत्र, पुष्प और फल इन पञ्चाङ्गों से हमें लाभ पहुँचाती रहें। हे रक्षक प्रभुवर! आप द्विपाद् मनुष्य से प्रीति कीजिए, उसे ऊँचा उठाइये, उसके अन्दर शक्ति भरिये, क्योंकि एकमात्र वही संसार में ज्ञान-विज्ञान आदि की उन्नति कर सकता है। आप गाय, घोड़े आदि चतुष्पादों की रक्षा कीजिए, क्योंकि वे पर्याप्त अंशों में अपनी रक्षा स्वयं करने में पूर्णतः समर्थ नहीं है। आप हमारी भूमि पर वृष्टि कीजिए, क्योंकि वृष्टि पर ही नदी, सरोवर, कूप, समुद्र आदि की जल-व्यवस्था तथा कृषि-क्षेत्रों की सस्यश्यामलता  निर्भर होती है।

हे जगदीश ! आप ही चराचर जगत् के सर्जक, पालक तथा रक्षक हो, अत: हम आपसे ही सबकी सुरक्षा की प्रार्थना करते हैं। हम स्वयं भी यथाशक्ति इनकी रक्षा में प्रवृत्त रहेंगे, हमें आप रक्षा की शक्ति प्रदान करते रहिए।

पादटिप्पणियाँ

१. ‘वा गतिगन्धनयोः । गन्धनं हिंसनम् । यो वाति चराचरं जगद् धरतिबलिनां बलिष्ठः स वायुः । जो चराचर जगत् का धारण, जीवन और प्रलय करे और सब बलवानों से बलवान् है, इससे ईश्वर का नामवायु है’-स०प्र०, समु० १ ।

२. प्रश्न उप० ३.४-६ ।

जगदीश से प्रार्थना -रामनाथ विद्यालंकार 

आओ, दैवी नौका पर चढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

आओ, दैवी नौका पर चढ़े -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गयप्लातः । देवता अदितिः ( दैवी नौः )।। छन्दः भुरिक् आर्षी त्रिष्टुप् ।

सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसंसुशर्मण्मदितिसुप्रणीतम्। दैवीं नार्वस्वरित्रामनागमस्त्रेवन्तीमारुहेमा स्वस्तये॥

 -यजु० २१.६

आओ, (सुत्रामाणं) उत्कृष्ट त्राण करनेवाली, ( पृथिवीं) विस्तीर्ण, ( द्यां ) प्रकाशपूर्ण, (अनेहसं ) पापरहित, ( सुशर्माणं) उत्तम सुख दनेवाली (अदितिं ) खण्डित न होनेवाली, ( सु-प्रणीतिं ) शुभ उत्कृष्ट नीतिवाली, (सु-अरित्रां) उत्कृष्ट चप्पुओंवाली, (अनागसं ) अपराध-रहित, निर्दोष, । ( अस्रवन्तीं) न चूनेवाली, छिद्ररहित (दैवींनावं) दैवी नाव । पर ( आ रुहेम) आ चढ़े ( स्वस्तये ) कल्याण के लिए।

सांसारिक यातनाओं का विकराल समुद्र धाड़े मार रहा है। ज्वार बढ़ता ही जा रहा है। लगता है यह सारी धरती को ही निगल लेगा। ईष्र्या-राग-द्वेष की भयङ्कर लहरों का आघात प्रतिघात हो रहा है। हिंसा-उपद्रवों के मगरमच्छ मुँह फाड़ रहे हैं। दम्भ छल-प्रपञ्च की दीर्घकाय ह्वेल मछलियाँ निगलने को तैयार हैं। काम-क्रोध, आधि-व्याधि की नोकीली चट्टानें छलनी करने को खड़ी हैं। लोभ-मोह के विषैले जलजन्तु ग्रसने की ताक लगाये हैं। कौन कह सकता है क्या होनेवाला है? लगता है सर्वनाश उपस्थित है। यदि अपने को सुरक्षित करना चाहते हो तो नौका पर सवार हो जाओ। पर यह लकड़ी के तख्तों की या लोहे की चादर की नौका क्या लहरों के थपेड़ों को सह सकेगी? और यह छोटी-सी नौका भला  कितनों को अपने अन्दर बैठा पायेगी! इन सांसारिक नौकाओं और जलपोतों से काम नहीं चलेगा। दैवी नौका तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। यह है प्रभुदेव की शरण-रूप नौका। यह नाव बहुत विस्तीर्ण है, धरती के सब लोग इसमें समा सकते हैं। आओ, इस अभयदायिनी नाव पर सवार हो जाएँ। आओ, समय रहते इस नौका को पकड़ लो, फिर पछताने के सिवा कुछ हाथ न लगेगा। |

यह प्रभु शरण की नाव ‘सुत्रामा’ है, सब विपदाओं से बचा सकनेवाली है। यह ‘पृथिवी’ है, सुविशाल है। यह ‘द्यौ’ है, करोड़ों विद्युत्-प्रदीपों-जैसे दिव्य प्रकाशवाली है। यह दुनियाबी पाप-वासनाओं से शून्य है। इसमें सुख ही सुख है, दुःख का लव-लेश तक नहीं है। यह मत सोचो कि यह टूट जाएगी, तब हमारा क्या होगा? यह ‘अदिति’ है, अखण्डनीय है। यह ‘सु-प्रणीति’ है, सुन्दर उत्तम राह पर चलनेवाली है। यह ‘सु-अरित्रा’ है, इसमें सत्य, अहिंसा, त्याग, तपस्या, शान्ति, धृति, क्षमा, निर्भयता आदि के सुन्दर चप्पू लगे हुए हैं, जिनसे यह बीच में ही न डुबा कर निश्चित रूप से पार पहुँचानेवाली है। यह ‘अनागाः’ हैं, इसमें आकर जो बैठ जाते हैं, उनकी अपराधवृत्ति समाप्त हो जाती है। यह ‘अस्रवन्ती’ है, छेदोंवाली नहीं है, जिससे यह आशङ्का हो कि इसमें विपदाओं का पानी भर जाने पर कहीं यह डूब न जाए। इस दैवी नाव पर चढ़ जाने में स्वस्ति ही स्वस्ति है, कल्याण ही कल्याण है। आओ, इस दैवी नौका पर चढ़कर अपनी हितसाधना कर लें।

आओ, दैवी नौका पर चढ़े -रामनाथ विद्यालंकार 

प्रभु ने हमें क्या-क्या दिया है? -रामनाथ विद्यालंकार

प्रभु ने हमें क्या-क्या दिया है? -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः हिरण्यागर्भः। देवता अग्निः । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

इषमूर्जमहमितऽआदमृतस्य योनि महिषस्य धाराम् मा गोषु विशुत्वा तनूषु जहामि सेदिमनिराममीवाम्॥

-यजु० १२ । १०५

( इषम्) अन्न को, ( ऊर्जी ) रस को, ( ऋतस्य योनिम्) जल के भण्डार को, (महिषस्यधाराम् ) महान् सूर्य की प्रकाशधारा को ( अहं ) मैंने ( इतः ) इस अग्नि नामक परमात्मा से ( आदम् ) पाया है। यह सब (मा) मुझमें, ( गोषु ) गौओं में, (तनूषु) सब शरीरधारियों में (आ विशतु ) प्रवेश करे। ( जहामि ) छोड़ देता हूँ (सेदिम्) विनाश को, (अनिराम्) अन्नाभाव को और (अमीवाम् ) रोग को।।

क्या तुम जानना चाहते हो कि ‘अग्नि’ नामक प्रभु से हमने क्या-क्या पाया है? बहुत-सी वस्तुएँ गिनायी जा सकती हैं, जो प्रभु ने हमें दी हैं। मन्त्र में संकेतमात्र किया गया है, विस्तार हम स्वयं कर सकते हैं। पहली वस्तु, जो प्रभु से हमने पायी है, वह ‘इष्’ अर्थात् अन्न या भोज्य पदार्थ है। तुम कहोगे कि अन्न तो हमें किसान देता है। नहीं, तुम भूल करते हो। किसान तो केवल अन्न के दाने धरती में डाल देता है। जिन दानों को वह बोता है, वे कहाँ से आते हैं। तुम कहोगे, उन्हें भी किसान ही पैदा करता है। किन्तु सर्वप्रथम अन्न का दाना किसान के पास कहाँ से आया? किसी किसान के बिना बोये ही परमेश्वर ने धरती में उगा दिया। उसके बाद किसान एक दाने से अनेक दाने उत्पन्न करने लगा। एक दाने से अनेक दाने पैदा करने में भी सम्पूर्ण श्रेय किसान को नहीं है। अन्न  के उत्पन्न होने में जो प्राकृतिक प्रक्रिया होती है, वह प्रभु द्वारा ही सम्पन्न की जाती है। मिट्टी, पानी, ताप आदि के संयोग से अन्न का दाना अंकुरित होता है, पौधा बनता है, बढ़ता है, दाने देता है।

दूसरी वस्तु जिसके लिए हम जगदीश्वर के ऋणी हैं, वह ‘ऊर्ज’ अर्थात् रस है। रस में गोरस, इक्षुरस, फूलों-फलों के रस, बादाम-तिल आदि स्नेह-द्रव्यों के रस सब आ जाते हैं। इन अन्नों तथा रसों से हमारे शरीर का पोषण होता है। तीसरी वस्तु जो प्रभु से हमें प्राप्त हुई है वह है, ‘ऋत की योनि’ अर्थात् जल का भण्डार। स्रोतों, नदियों, समुद्रों, बालों, पर्वतों में प्रभु ने ही जल का भण्डार भरा है, जो बिना मूल्य के हमें निरन्तर प्राप्त होता रहता है। प्रभु से मिली चौथी वस्तु है, महान् सूर्य की प्रकाश-धारा, जो हमारे लिए जीवन का स्रोत है। प्रभु-प्रदत्त ये सब वस्तुएँ हमें प्राप्त होती रहें, गाय आदि पशुओं को प्राप्त होती रहें, सब देहधारियों को प्राप्त होती रहें । इनके प्राप्त होते रहने से हम विनाश, दुर्भिक्ष और व्याधियों से बचे रहें।

पादटिप्पणियाँ

१. ऋत=जल, निघं० १.१२

२. महिष=महान्, निघं० ३.३

३. आदम्=आदाम्। आ-दा, लुङ्। आ को ह्रस्व छान्दस।

४. सेदिं=हिंसाम्। षद्लु विशरणगत्यवसादनेषु, भ्वादिः, कि प्रत्यय ।

५. इरा=अन्न, निघं० २.७। अनिरा=अन्नाभाव।

प्रभु ने हमें क्या-क्या दिया है? -रामनाथ विद्यालंकार

हमारा सुव्यवस्थित शासन – रामनाथ विद्यालंकार

हमारा सुव्यवस्थित शासन – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  भारद्वाजः ।   देवता  मन्त्रोक्ताः ।   छन्दः  विराड् आर्षी जगती ।

ब्राह्मणासुः पितरः सोम्यासः शिवे न द्यावापृथिवीऽअनेहसा। पूषा नः पातु दुरितादृतावृधो रक्षा माकिर्नोऽअघशसऽईशत॥

-यजु० २९ । ४७

( सोम्यास:१) शान्ति के उपासक ( ब्राह्मणास:२) ब्राह्मण जन और (पितरः) रक्षक क्षत्रियजने ( नः शिवाः ) हमारे लिए सुखदायक हों। ( अनेहसा ) निर्दोष निष्पाप (द्यावापृथिवी ) पिता-माता (नः शिवे ) हमारे लिए सुखदायक हों। ( ऋतावृधः पूषा ) सत्य को बढ़ानेवाला पोषक राजा व न्यायाधीश (दुरितात् ) अपराध एवं पाप से (नःपातु ) हमारी रक्षा करे। हे परमात्मन् ! ( रक्ष) हमारी रक्षा कर। (अघशंसःनःमाकिः ईशत ) पापप्रशंसक दुष्टजन हम पर शासन न करे।

हम चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र पूर्णतः सुव्यवस्थित हो। गुण-कर्मानुसार वर्णव्यवस्था और आश्रमव्यवस्था राजकीय आदेश से प्रचलित हो, जिससे सब अपने-अपने कर्तव्य के पालन में तत्पर रहें। सौम्य, वेदज्ञ, शास्त्रमर्यादा के वेत्ता ब्रह्मवर्चस्वी ब्राह्मण ज्ञान और सदाचार का प्रजा में प्रचार प्रसार करते रहें, राज्य के शिक्षा-स्तर को उन्नत करते रहें, प्रजा के दुरितों का ध्वंस करते रहें। रक्षक क्षत्रियवर्ग चोरों, लुटेरों, आतंकवादियों, आततायियों तथा शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करते रहें। इस प्रकार राष्ट्र का ब्रह्मबल और क्षात्रबल मिल कर सबको समुन्नत करता रहे। वेद में सामाजिक दृष्टि से द्यावापृथिवी का अर्थ पिता-माता होता है, द्यौ पिता है, पृथिवी माता है। देश के पिता माताओं का कर्तव्य है कि वे स्वयं निष्पाप हों तथा प्रजा को भी निष्पाप होने की प्रेरणा करते रहें। इस प्रकार प्रजा के लिए शिव और मंगलकारी हों।

पूषा, अर्थात् प्रजापोषक राजा को भी चाहिए कि वह राज्य में न्यायालयों के विकास द्वारा पापों और अपराधों से प्रजा को बचाये। ऐसी व्यवस्था हो कि पापियों और अपराधियों को न्यायालय द्वारा समुचित दण्ड मिले तथा सत्कर्मियों को सम्मानित करके प्रोत्साहित किया जाए। ऐसा न हो कि राजा और न्यायाधीश ही पाप और अपराध के प्रशंसक होकर प्रजा में पापों तथा अपराधों को प्रोत्साहन देने लगें तथा शासन में रिश्वतखोरी आदि कदाचार व्याप्त होकर शासन कु-शासन होजाए। पूषा को मन्त्र में ‘ऋतावृध’ कहा गया है, इससे सूचित होता है कि राजा और न्यायाधीश का कर्तव्य है कि वे सत्य को बढ़ावा दें और असत्य की निन्दा करें।

प्रजा को भी सावधान रहना चाहिए कि जब राजा और राजमन्त्रियों का निर्वाचन होने लगे, तब ऐसे व्यक्तियों को ही मत प्रदान करे, जो न स्वयं किसी पाप या अपराधवृत्ति में फंसे हुए हों और न ही पाप और अपराध के प्रशंसक हों। सदाचारी, सत्यव्रती, पापविद्रोही ‘पूषा’ के द्वारा ही राष्ट्र में सत्कर्मों की वृद्धि और दुराचारों की विनष्ट हो सकती है। ऐसे ही पूषा के द्वारा राष्ट्र में सत्य, बृहत्त्व, ऋत, उग्रत्व, दीक्षा, तप, यज्ञ आदि पृथिवीधारक तत्त्वों का विकास और अपराधी तत्त्वों का विनाश हो सकता है।

पादटिप्पणियाँ

१-२सोम्यास:=सोम्या: । ब्राह्मणास:=ब्राह्मणाः । ‘आजसेरसुक्’ पा० ७.१.२०

से जस् को असुक् का आगम।

३. अनेहसा=अनेहसौ । सुपां सुलुक्–पा० ७.१.३९ से औ को आ।

४. ऋतं वर्धयतीति ऋतावृधः । ऋत के अ को छान्दसे दीर्घ ।

हमारा सुव्यवस्थित शासन – रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ को प्रेरित करो, यज्ञपति को प्रेरित करो-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ को प्रेरित करो, यज्ञपति को प्रेरित करो-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  नारायण: । देवता  सविता । छन्दः  आर्षी त्रिष्टुप् ।

देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय दिव्यो गन्धर्वः कैपूः केते नः पुनातु वाचस्पतिर्वार्चनः स्वदतु ॥

-यजु० ३०.१ |

( देव सवितः ) हे प्रकाशक प्रेरक जगदीश्वर! आप ( प्रसुव यज्ञं ) प्रेरणा दीजिए जीवन-यज्ञ को, (प्रसुव यज्ञपतिम् ) प्रेरणा दीजिए यज्ञपति आत्मा को ( भगाय) भग की प्राप्ति के लिए। (दिव्यः) दिव्य, ( गन्धर्व:१) लोकों तथा इन्द्रियों को धारण करनेवाला, ( केतपू:२) प्रज्ञा एवं विचारों को पवित्र करनेवाला वह सविता देव (केतंनःपुनातु ) हमारी प्रज्ञा तथा विचारों को पवित्र करे। ( वाचस्पतिः ) वाणी का स्वामी एवं पालनकर्ता वह परमेश्वर ( नः वाचंः ) हमारी वाणी को ( स्वदतु ) मीठा बनाये।।

हे मेरे परम प्रभु ! तुम दानी, द्युतिमान्, प्रकाशक, मोदमय, आनन्ददाता होने से ‘देव’ कहलाते हो। हृदयों में शुभ प्रेरणा करने के कारण तुम्हारा नाम ‘सविता’ है। हे सविता देव! मैं * भग’ प्राप्त करना चाहता हूँ। धर्म, धन, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य आदि जो भी भजनीय ऐश्वर्य है, वह भग कहलाता है। तुम इस ‘भग’ की प्राप्ति के लिए मेरे जीवन-यज्ञ को प्रेरित करते रहो। जीवन-यज्ञ को चलानेवाला जो यज्ञपति मेरा आत्मा है, उसे भी तुम उक्त ऐश्वर्यों की प्राप्ति के लिए सदा उत्प्रेरित करते रहो।

हे मेरे सविता प्रभु ! तुम दिव्य हो, अलौकिक हो, तुम्हारी  झाँकी तुम्हारे भक्त को भी दिव्य बना देनेवाली है। हे देव ! तुम ‘गन्धर्व’ हो। जैसे तुम विश्ववर्ती गौओं को अर्थात् लोक लोकान्तरों को धारण करनेवाले हो, वैसे ही देहवर्ती गौओं के अर्थात् इन्द्रियादि अङ्गोपाङ्गों के भी धारणकर्ता हो । केनोपनिषद् में शिष्य ने आचार्य से प्रश्न किया है कि यह मन किससे प्रेरित होकर गति करता है, यह वाणी किससे प्रेरित होकर पदार्थों के वर्णन में प्रवृत्त होती है, चक्षु-श्रोत्र आदि इन्द्रियों को कौन देव विषयों के ग्रहण में प्रवृत्त करता है? आचार्य ने उत्तर दिया है कि वह मन का भी मन है, प्राण का भी प्राण है, वाणी की भी वाणी है, चक्षु का भी चक्षु है, श्रोत्र का भी श्रोत्र है, उसी परम प्रभु से प्रेरित होकर ये सब धृत हैं तथा अपने-अपने ग्राह्य विषयों में प्रवत्त हो रहे हैं। इसीलिए उस प्रभु को ‘गन्धर्व’ कहते हैं। वह सविता प्रभु केतपू:’ भी है, मनुष्य के विचारों को, प्रज्ञाओं को, सङ्कल्पों को पवित्र करनेवाला है। वह मेरे भी विचारों को, प्रज्ञाओं को, सङ्कल्पों को पवित्र कर देवे। वही ‘वाचस्पति’ भी है, हमारी वाणी का स्वामी भी है। अतः वह हमारी वाणी को स्वादिष्ठ बनाये, मिठास से भर दे ।।

इस प्रकार सविता जगदीश्वर से संवल पाकर हमारा यज्ञपति आत्मा मानस एवं सामाजिक यज्ञ रचाये और आध्यात्मिक एवं भौतिक सर्वविध ऐश्वर्यों से धनी होकर लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो।

पाद-टिप्पमियाँ

१. गन्धर्वः–यो गाः पृथिवी: इन्द्रियाणि वा धरतीति गन्धर्वः । गोशब्दस्य| गंभावः ।।

२. केतं विज्ञानं पुनातीति केतपूः । कित ज्ञाने, जुहोत्यादिः ।

३. ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।।ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।

यज्ञ को प्रेरित करो, यज्ञपति को प्रेरित करो-रामनाथ विद्यालंकार

किस कार्य के लिए कौन योग्य है?-रामनाथ विद्यालंकार

 किस कार्य के लिए कौन योग्य है?-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः नारायणः । देवता राजा । छन्दः स्वराड् अतिशक्वरी ।

ब्रह्मणे ब्राह्मणं क्षत्राय राज़न्यं मरुद्भ्यो वैश्यं तपसे शूद्रं तमसे तस्करं नाकार्य वीरहण पाप्मने क्लीबमाक्रयायऽ अयोगू कामय पूँश्चलूमतिक्रुष्टाय माग्धम् ॥

-यजु० ३०.५

है राजन् ! आप ( ब्रह्मणे ) वेद, ईश्वर और विज्ञान के प्रचार के लिए ( ब्राह्मणं ) वेदेश्वरविज्ञानविद् ब्राह्मण को, ( क्षत्राय ) राज्यसञ्चालन के लिए तथा आपत्ति से रक्षा के लिए ( राजन्यं) क्षत्रिय को, ( मरुद्भ्यः२) वृष्टिजन्य कृषिकर्मऔर पशुपालन के लिए ( वैश्यं ) वैश्य को, ( तपसे ) सेवारूप तप के लिए (शूद्रं ) शूद्र को, ( तमसे ) अन्धकार में काम करने के लिए ( तस्करं ) चोर को, (नारकाय ) नरक के कष्ट के लिए (वीरहणं ) वीरों के हत्यारे को, ( पाप्मने ) पाप के लिए ( क्लीबं) नपुंसक को, (आक्रयायै ) आक्रमण क्रिया के लिये ( अयोगू)  लोहे के शस्त्रास्त्र चलानेवाले को, (कामाय ) कामजन्य विषयभोग के लिए (पुंश्चलू ) व्यभिचारिणी वेश्या को और (अतिक्रुष्टाय ) अति निन्दा या प्रशंसा के लिए (मागधं) भाट को [उपयुक्त जानिए तथा इनकी यथायोग्य कार्यों में नियुक्ति कीजिए या इनसे यथायोग्य व्यवहार कीजिए।]

सफलता प्राप्त करने की यह नीति है कि जिस कार्य के लिए जो योग्यतम मनुष्य हो उसे उस कार्य में नियुक्त किया जाना चाहिए। यदि हम वेद, ब्रह्मविद्या, ज्ञान-विज्ञान, योगविद्या आदि का प्रचार-प्रसार कराना चाहते हैं, तो उसके लिए योग्य व्यक्ति वह है जो गुणकर्मानुसार ब्राह्मण हो। मनु ने ब्राह्मण के  कर्म अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन और दान देना-लेना लिखे हैं। भगवद्गीता में शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और अस्तिक्य ब्राह्मण के कर्तव्य बताते गये हैं। स्वामी दयानन्द लिखते हैं कि ये १५ कर्म और गुण ब्राह्मणवर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहिएँ। इन कर्मों को करने-कराने के लिए ब्राह्मण ही उपयुक्त है। क्षात्रधर्म के लिए क्षत्रिय की नियुक्ति करनी चाहिए। क्षत्रिय का मुख्य कर्तव्य है प्रजा की रक्षा करना, युद्ध उपस्थित होने पर पलायन न करना। अत: सैनिक, सेनापति, राजपुरुष सम्राट् आदि पदों पर क्षत्रिय को रखना उचित है। मरुतों के लिए वैश्य को जानो। मरुतों के अनेक अर्थ होते हैं, जिनमें पशु तथा अन्न अर्थ भी हैं। अतः यहाँ मरुतों से पशुपालन, व्यापार तथा कृषि ग्राह्य है। इन कर्मों के लिए वैश्य को नियुक्त करना चाहिए। सेवारूप तप के लिए शूद्र योग्य है। अन्धेरे में किये जानेवाले चोरी आदि कार्य के लिए चोर उत्तरदायी होता है। अतः चोरी होने पर चोर की धर-पकड़ की जानी चाहिए। यह आशय भी लिया जा सकता है कि कहीं अन्धेरे में कार्य करवाने की आवश्यकता हो, तो चोर को चोरी के कर्म से हटा कर प्रशिक्षित करके उससे अन्धेरे में किये जानेवाले कार्य करवाये जाने चाहिएँ। नारकीय कष्ट के लिए वीरों का हत्यारा उपयुक्त है, अतः उसे नारकीय यातनाएँ देने के लिए कारागार में डाला जाना चाहिए। नङ्गे होकर नाचना आदि नपुंसक लोग सभ्य समाज में करते हैं, अतः उसके लिए उन्हें दण्डित किया जाना चाहिए अथवा सुधार कर ऐसे कार्य करने से रोकना चाहिए। आक्रमण-क्रिया के लिए वे लोग योग्य हैं, जो लोहे के बने शस्त्रास्त्र लेकर चलते हैं, अतः उस कार्य के लिए उन्हें नियुक्त करना चाहिए। कामजन्य विषयभोग व्यभिचारिणी वेश्याएँ करती हैं, अतः उन्हें आजीविका के लिए प्रशासन की ओर से अन्य कार्य दिया जाना चाहिए, फिर भी लुकाछिपी इस कार्य को करती रहें तो उन्हें तथा जो उनके पास जाते हों, उन्हें दण्डित किया जाना चाहिए। किसी की अत्यन्त निन्दा या अत्यन्त प्रशंसा भाट लोग करते हैं, अतः उनके साथ यथोचित व्यवहार करके उन्हें इस कार्य से विरत करना चाहिए।

सम्राट् का कर्तव्य है कि कौन किस प्रशस्त कार्य के योग्य है, यह जानकर उसे उस कार्य में प्रवृत्त करे और कौन किस दुराचार के लिए उत्तरदायी है, यह जानकर उसका सुधार करे या उसे दण्डित करे।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (ब्रह्मणे) वेदेश्वरविज्ञानप्रचाराय (ब्राह्मणम्) वेदेश्वरविदम्-द० ।।

२. (मरुद्भ्यः ) पश्वादिभ्यः प्रजाभ्यः-द० । पशवो वै मरुतः मै०

३.३.१०, काठ० २१.१०, अन्नं वै मरुतः तै०सं० २.१.६.२ ३. (नारकाय) नरके दुःखबन्धने भवाय कारागाराय-द० ।

४. ( अयोगू) अयसा शस्त्रविशेषेण सह गन्तारम्-द० । अयांसिअयोमयानि शस्त्रास्त्राणि गमयति चालयति यस्तम्।

 किस कार्य के लिए कौन योग्य है?-रामनाथ विद्यालंकार