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धन कमायें, दान करें -रामनाथ विद्यालंकार

धन कमायें, दान करें -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः महीयवः । देवता ईश्वरः । छन्दः विराड् आर्षी गायत्री।

एना विश्वान्युर्यऽआ द्युम्ननि मानुषाणाम्। सिषासन्तो वनामहे

-यजु० २६.१८

( अर्यः) ईश्वर ने ( मानुषाणां ) मनुष्यों के ( एना विश्वानि द्युम्नानि ) इन सब धनों को ( आ ) प्राप्त कराया है। हम उन्हें  (सिषासन्तः१)  दान करना चाहते हुए (वनामहे ) सेवन करें।

‘अर्य’ शब्द के दो अर्थ होते हैं, ईश्वर (स्वामी) और वैश्य । ईश्वर अर्थ में यह अन्तोदात्त होता है और वैश्य अर्थ में आद्युदात्त ।’ यहाँ अन्तोदात्त होने से ईश्वर अर्थ है। ‘द्युम्न’ शब्द निघण्टु में धनवाचक शब्दों में पठित है। दीप्त्यर्थक द्युत धातु से इसकी निष्पत्ति होती है। जगत् में धन भरे पड़े हैं। सोना, चाँदी, हीरे, गन्धक, कोयले, नमक आदि की खाने हैं, मिट्टी के तेल के कूप हैं, समुद्र में मोती बिखरे हुए हैं। धरती अन्न उपजाती है। बाग-बगीचे फल देते हैं। रेशम के कीट रेशम देते हैं, जिनसे रेशमी वस्त्र बनते हैं। कपास के पौधे कपास देते हैं, जिनकी रुई से वस्त्र बनते हैं। जङ्गल में जङ्गली फल-फूल-कन्द नि:शुल्क मिल जाते हैं। ईश्वर द्वारा बिना मूल्य के दिये हुए इन सब धनों पर मनुष्य ने अधिकार कर लिया है। अधिकारी मनुष्य इन्हें मोल बेचते हैं। किन्तु हैं वे सब धन परमात्मप्रदत्त ही। कुछ मूल्य चुकानी पड़ जाता है, तो भी मनुष्य को ये सब धन स्वयं बनाने नहीं पड़ते हैं। हैं। ईश्वर के बनाये हुए ही। ईश्वर द्वारा दिये हुए इन धनों का हम उपभोग करते हैं, सेवन करते हैं। मन्त्र हमारा ध्यान इस यजुर्वेद– ज्योति ओर आकृष्ट कर रहा है कि हम इनका सेवन तो करें, किन्तु जिनके पास ये धन नहीं हैं, उन्हें हम इनका दान भी करें। हम पूंजीवादी प्रवृत्ति के होकर इनका अपने ही पास संग्रह न करते चलें, हम अपरिग्रही बनें। अपने पास उतना ही रखें, जितने की हमें आवश्यकता है, उससे अधिक धन, जो हमारे पास है, उसे हम उन्हें दान कर दें, जिन्हें उसकी आवश्यकता है। समाज में कुछ लोग अत्यधिक धनी हों और कुछ अत्यधिक निर्धन हों, यह वैदिक विभाजन नहीं है। वैदिक विभाजन यह है कि सबके पास धन पहुँचना चाहिए। सबको खाने-पीने पहनने का अधिकार है। उस अधिकार को जहाँ छीना जाता है, वहाँ सीमा से अधिक वैषम्य होता है। कुछ लोगों के कोठे भरे रहते हैं और कुछ लोग अन्न के दाने और वस्त्र के टुकड़े के लिए तरसते हैं, तड़पते हैं। दान की भावना इस वैषम्य का सुन्दर इलाज है। ईश्वर का दिया हुआ धन सब भाई-बहिनों में बाँटकर भोगें, यही वैदिक मन्देश है।

पादटिप्पणियाँ

१. सिषासन्तः, षषु दाने, सनितुं दातुमिच्छन्तः । सन्, शतृ ।

२. वनामहे संभुज्महे, वन संभक्तिशब्दयोः भ्वादिः ।।

३. अर्यः स्वामिवैश्ययो: पा० ३.१.१०३। ऋ गतौ अस्माद् ण्यति प्राप्तेस्वामिवैश्ययो: अभिधेययोः यत् प्रत्ययो निपात्यते । अर्य: स्वामी, अर्यो वैश्यः। ‘यतो 5 नाव:’ पा० ६.१.२१३ इत्याद्युदात्तत्वे प्राप्ते ‘स्वामिन्यन्तोदात्तं च वक्तव्यम् ।’ स्वामिवैश्ययोरिति किम् ? आर्यो

ब्राह्मण:-काशिकावृत्ति।

४. निघं० २.१०।

५. द्युम्नं द्योतते:, निरु० ५.३३

धन कमायें, दान करें -रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञाग्नि यजमान को प्रबुद्ध करें -रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञाग्नि यजमान को प्रबुद्ध करें -रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः अग्निः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

सं चेध्यस्वग्नेि प्र चे बोधयैनमुच्च तिष्ठ महुते सौभगाय। मा च रिषदुपसत्ता तेअग्ने ब्रह्माणस्ते यशसः सन्तु माऽन्ये॥

 -यजु० २७.२

( अग्ने ) हे यज्ञाग्नि ! (सम् इध्यस्व च ) तू समिद्ध भी हो ( प्रबोधय च एनम् ) और इस यजमान को प्रबुद्ध भी कर। ( उत् तिष्ठ च ) ऊँचा स्थित हो ( महते सौभगाय ) हमारे महान् सौभाग्य के लिए। (अग्ने ) हे यज्ञाग्नि! ( मा च रिषत् ) हिंसा न करे ( ते उपसत्ता) तेरे समीप बैठनेवाला यजमान। ( ते ब्रह्माणः ) तेरे ब्राह्मण पुरोहित, यजमान आदि (यशसः सन्तु ) यशस्वी हों, ( मा अन्ये ) अन्य अयाज्ञिक जन यशस्वी न हों।

वायुमण्डल को सुगन्धित और रोगकीटाणुरहित करने के लिए सुगन्धित, मीठे, पुष्टिप्रद और रोगहर द्रव्यों एवं ओषधियों का अग्नि में होम करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। ये द्रव्य अग्नि में जल कर सूक्ष्म होकर वायु में मिलकर पंचभूतों को शुद्ध करते हैं। हे यज्ञाग्नि! तू यज्ञकुण्ड में समिद्ध हो, प्रदीप्त हो, ऊँची-ऊँची ज्वालाओं से प्रकाशित हो और यजमान को प्रबोध भी प्रदान कर। यजमान तुझसे ऊर्ध्वगामिता का सन्देश ग्रहण करे, तेरे समान स्वयं को ज्योतिष्मान् करे, स्वयं प्रबुद्ध और अन्यों को ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित करे। तुझमें जो आहुति दी जाती है, उसे तू अपने पास न रख कर जनकल्याण के लिए वायुमण्डल में प्रसारित कर देता है, वैसे ही यजमान जो सम्पदा प्राप्त करे उसमें से पर्याप्त अंश वह सर्वोपयोगी बनाने के लिए दान द्वारा अन्यत्र प्रसारित कर दे। इस प्रकार के बोध यदि यजमान तुझसे ग्रहण करती है, तो यज्ञ से दोहरा लाभ उसे प्राप्त हो जाता है, वायु-जल आदि की शुद्धि और आत्मप्रबोध। हे यज्ञाग्नि! तू हम यजमानों के महान् सौभाग्य के लिए आकाश में ऊँचा होकर स्थित हो। तेरी उच्चता से हम भी उच्च होने का व्रत ग्रहण करेंगे। हे यज्ञाग्नि ! तेरे सामीप्य को प्राप्त करनेवाले यजमान यज्ञ में कोई पशुबलि आदि की हिंसा न करें। यज्ञ का नाम ही ‘अध्वर’ है, अतः उसमें किसी प्रकार की हिंसा न होनी चाहिए। जैसे हमें अपना जीवन प्यारा है, वैसे ही पशु भी अपने जीवन से प्यार करते हैं। यदि हम यज्ञ में पशुहिंसा करते हैं, तो किसी दिन यज्ञ में मनुष्य की भी बलि दी जाने लगेगी। हे यज्ञाग्नि! तुझसे सम्बन्ध स्थापित करनेवाले पुरोहित, यजमान, वेदपाठी, दर्शक आदि सब ब्राह्मण यशस्वी हों। जो भी परोपकार का कार्य करता है, उसे उपकृत लोगों का आशीर्वाद प्राप्त होता है और वह यशस्वी होता है। यज्ञ भी परोपकार का कार्य है, यज्ञकर्ता ब्रह्मज्ञ लोग भी निश्चय ही यशस्वी होते हैं। अन्त में मन्त्र कहता है-‘ मा अन्ये’ अर्थात् जो यज्ञकर्ता नहीं हैं, वे यशस्वी न हों। यदि यज्ञ न करनेवाले लोग भी यशस्वी होने लगेंगे, तो फिर यज्ञ कोई क्यों करेगा? यज्ञ करने से देव परमेश्वर की पूजा होती है, सबके मिल-बैठकर मन्त्रोच्चारण आदि करने से सङ्गतिकरण या सङ्गठन होता है और आहुति-दान, दक्षिणा दान, उपदेश-प्रदान, प्रसाद वितरण आदि का दान भी होता है। इस श्रेष्ठतम कर्म को सभी करें और यशस्वी हों। जो न करेंगे वे अभागे लोग यशस्वी नहीं होंगे, तो वे भी यशस्वी होने के लिए यज्ञ करने लगेंगे और यज्ञ करके वे भी यशस्वी हो सकेंगे। अत: आओ, सब यज्ञ करें और सब यशस्वी हों।

पाद टिप्पणियाँ

१. रिषत्, रिष हिंस्तर्थः, लेट् ।

२. उपसत्ता, उप-षद्लू विशरणगत्यवसादनेषु, तृच् ।

यज्ञाग्नि यजमान को प्रबुद्ध करें -रामनाथ विद्यालंकार  

सम्राट् को उद्बोधन -रामनाथ विद्यालंकार

सम्राट् को उद्बोधन -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः अग्निः । देवता अग्नि: । छन्दः स्वराड् आर्षी पङ्किः।

क्षत्रेणाग्नेि स्वायुः सरभस्व मित्रेणग्ने मित्रधेये यतस्व। सुजातान मध्यमस्थाऽएधि राज्ञामग्ने विहुव्यो दीदिहीह॥

-यजु० २७.५

( अग्ने ) हे तेजस्वी सम्राट् ! ( क्षत्रेण ) क्षात्रबल से ( स्वायुः ) अपनी राजकीय आयु (संरभस्व ) प्रारम्भ कर । ( अग्ने ) हे अग्रनायक! (मित्रेण ) मैत्रीसचिव की सहायता से ( मित्रधेये ) अन्य राजाओं को मित्र बनाने में ( यतस्व) यत्न कर। ( सजातानां राज्ञां) सहजात राजाओं में ( मध्यमस्थाः ) केन्द्रस्थ ( एधि ) हो। ( अग्ने ) हे प्रगतिशील ! (विहव्यः ) विशेष प्रशंसनीय होकर ( इह ) यहाँ राजसंघ में ( दीदिहि ) देदीप्यमान हो।

हे अग्नितुल्य नवनिर्वाचित तेजस्वी सम्राट् ! आज से आप सम्राट का कार्यभार संभाल रहे हो। क्षात्रबल के प्रदर्शन से अपनी राजकीय आयु प्रारम्भ करो। शस्त्रास्त्रों का प्रदर्शन करो, सैनिक व्यूहरचना का प्रदर्शन करो, सैनिक अभियान का प्रदर्शन करो, स्थल-सेना, जल-सेना और अन्तरिक्ष-सेना के साहसों का प्रदर्शन करो। अपना क्षात्रबल बढ़ाओ, सेना का क्षात्रबल बढ़ाओ, प्रजा का क्षात्रबल बढ़ाओ। राष्ट्र में सैनिक शिक्षा अनिवार्य करो। क्षात्रबल के प्रदर्शन से आप अजातशत्रु हो सकोगे और यदि कोई राष्ट्र शत्रुता का दम भरेगा भी, तो उससे आत्मरक्षा भी कर सकोगे और उसे पराजित करने को सामर्थ्य भी जुटा सकोगे। आप अपने मन्त्रिमण्डल में ‘मित्र’ नामक मैत्री-सचिव भी रखोगे। उसकी सहायता से राष्ट्रों को अपने मित्र बनाना, मैत्री की सन्धि करना। अपने शत्रु उत्पन्न करना स्वस्थ राजनीति नहीं है। शत्रु यदि कोई राष्ट्र हो भी, तो उससे मैत्री कर लेना ही उचित है। आपके समान कोटि के जो सम्राट् हैं, उनमें शीर्षस्थ या केन्द्रस्थ बनने का यत्न करना। प्रगतिशील बनना, उदासीन नहीं। तब आप अन्य सम्राटों में प्रशंसनीय कहलाओगे। तब राष्ट्रसंघ की सदस्यता ग्रहण करने पर आपको अध्यक्ष का पद प्राप्त होगा, आप देदीप्यमान होंगे। आप अन्य सम्राटों का मार्गदर्शन कर सकोगे और शान्तिस्थापना में आपका विशेष योगदान माना जायेगा।

पदटिप्पणी

१. दीदयति= ज्वलति । निघं० १.१६

सम्राट् को उद्बोधन -रामनाथ विद्यालंकार 

विजेता सेनाध्यक्ष का अभिनन्दन -रामनाथ विद्यालंकार

विजेता सेनाध्यक्ष का अभिनन्दन -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः बृहदुक्थो वामदेवः । देवता इन्द्रः । छन्दः निवृद् आर्षी जगती ।

होता यक्ष्त्तनूनपतिमूतिभिर्जेतारमपराजितम्। इन्द्र देवस्वर्विदै पृथिभिर्मधुमत्तमैर्नराशसेन तेजसा वेत्साज्यस्य होतर्यज॥

-यजु० २८.२

( होता ) अभिनन्दन-यज्ञ का निष्पादक (यक्षत् ) पूजन अभिनन्दन करे। किसका? (ऊतिभिः ) रक्षण-शक्तियों द्वारा ( तनू-नपातम् ) शरीर को न गिरने देनेवाले, (जेतारम् ) विजेता, ( अपराजितम् ) अपराजित ( देवं ) दीप्तिमान् (मधुमत्तमैःपथिभिः ) अधिकाधिक मधुर मार्गों से तथा (नराशंसने तेजसा ) वीर नरों द्वारा प्रशंसनीय तेज से ( स्वर्विदं ) सुख पहुँचाने वाले ( इन्द्रं ) सेनाध्यक्ष का। वह सेनाध्यक्ष अपने अभिनन्दन में ( आज्यस्य वेतु ) घृत का भक्षण करे। ( होतः ) हे अभिनन्दन-यज्ञ के होता! तू ( यज ) अभिनन्दन-यज्ञ कर।

हमारे राष्ट्र ने शत्रु-राष्ट्र पर विजय प्राप्त की है। उसका श्रेय है हमारे वीर सेनानायक को और बहादुर सैनिकों के क्षात्रबल को। विजयी राष्ट्र विजयोत्सव मना रहा है, अपने सेनानायक का अभिनन्दन कर रहा है, सैनिकों को वधाई दे रहा है, सम्मानित कर रहा है। हे होता ! हे अभिनन्दन-यज्ञ के निष्पादक! आरती उतारो अपने वीर सेनाध्यक्ष की, तिलक करो सब वीरों के मस्तकों पर। हमारा सेनाध्यक्ष ‘तनू-नपात्’ है, इसने अपने शरीर को युद्ध में गिरने नहीं दिया है, धराशायी नहीं होने दिया है, हताहत नहीं होने दिया है। इसके विपरीत इसने शत्रुओं के सिरों को धूल चटाई है, शत्रु योद्धाओं को संत्रस्त किया  है, शत्रु वीरों की चौकड़ी भुलायी है, शत्रु-दलों के युद्धोन्माद को लज्जित किया है। हमारा नायक विजेता है, अपराजित है, इसका मुखमण्डल तेज से दमक रहा है। यह अधिकाधिक मधुर मार्गों से और वीर नरों के प्रशंसनीय तेज से विजयी होकर राष्ट्र को सुख पहुँचानेवाला है। इसे घृत और मोदक खिलाकर घृतास्वादनविधि से इसका सत्कार करो। नगाड़े बजाओ, ‘वन्दे मातरम्’ का गीत गाओ, जयकारे लगाओ, राष्ट्रध्वज फहराओ, विजयपदक देकर विजेता वीरों का उत्साह बढ़ाओ।

हे होता! तुम विजय-यज्ञ करो, यज्ञाग्नि में विजय की आहुतियाँ दो, यज्ञ की सुगन्ध से दिशाओं को सुवासित करो, ** आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायताम्” की राष्ट्रिय प्रार्थना का स्वर गुंजाओ। पूर्णाहुतियाँ दो-” ओ३म् सर्वं वै पूर्ण स्वाहा, ओ३म् सर्वं वै पूर्ण स्वाहा, ओ३म् सर्वं वै पूर्ण स्वाहा।”

पादटिप्पणियाँ

१. यक्ष-यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु, लेट् लकार, ‘सिब्बहुलं लेटि’सिप् का आगम, ‘लेटोऽडाटौ’ अडागम।

२. स्वः सुखं वेदयति लम्भयति यः स स्वर्वित् तम् ।

३. वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु, लोट् लकार।

विजेता सेनाध्यक्ष का अभिनन्दन -रामनाथ विद्यालंकार 

जीवात्मा का वैभव -रामनाथ विद्यालंकार

जीवात्मा का वैभव -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः भार्गवो जामदग्निः । देवता अर्वा (आत्मा) ।छन्दः विराट् त्रिष्टुप् ।

तव शरीरं पतयिष्णर्वन्तर्व चित्तं वार्ताऽइव ध्रजीमान्। तव शृङ्गाणि विष्ठिता पुरुवारण्येषुजर्भुराणा चरन्ति।

-यजु० २९.२२

( तव शरीरं ) तेरा शरीर ( पतयिष्णु ) विनाशशील है। ( अर्वन् ) हे ज्ञानी जीवात्मन् ! (तव चित्तं ) तेरा चित्त (वातः इव) वायु के समान ( ध्रजीमान् ) वेगवान् है। (तवशृङ्गाणि ) तेरे रक्षाबल रूप सींग ( पुरुत्रा ) चारों ओर ( विष्ठिता) विविध रूप में स्थित हैं, जो ( अरण्येषु ) जङ्गलों में भी (जर्भुराणा) देदीप्यमान होते हुए ( चरन्ति ) तेरे साथ विचरते हैं।

जीवात्मा को वेदों में घोड़े-वाची अश्व, अर्वन्, वाजिन् आदि शब्दों से भी उद्बोधन दिया गया है। घोड़े की गति विशिष्ट होती है। चलना आरम्भ करता है, तो लक्ष्य पर पहुँच कर ही दम लेता है। मनुष्य का जीवात्मा भी एक यात्री है। उसे ऊर्ध्वप्रयाण की यात्रा करके मोक्ष के सर्वोन्नत पद पर पहुँचना है। प्रस्तुत मन्त्र में जीवात्मा को अश्ववाचक ‘अर्वन्’ नाम से स्मरण किया गया है।’ अर्वन्’ शब्द ‘ऋ गतिप्रापणयोः’ धातु से औणादिक वनिप् प्रत्यय करके निष्पन्न होता है।

हे अर्वन् ! हे जीवात्मन् ! जो शरीररूप साधन तुझे कार्य करने के लिए मिला है, वह ‘पतयिष्णु’ है, पतनशील है, गिर जानेवाला है, मरणधर्मा है। इसलिए उससे जल्दी से जल्दी जितना कार्य ले सके ले ले, उसके बल पर जितना उत्थान कर सके कर ले । न जाने यह कब तुझसे छिन जाए। तेरा चित्त वायु के समान गतिमान् है। वह अद्भुत ज्ञान-साधन है। चित्त और शरीर की सहायता से तू जितना भी ज्ञान और कर्म का सम्पादन कर सके कर लें।

हे जीवात्मन् ! तेरे पास सींग भी हैं।’ शृङ्गाणि’ में बहुवचन का प्रयोग यह बता रहा है कि तुझे दो से अधिक सींग मिले। हुए हैं। पशुओं के सींग रक्षा के साधन होते हैं। अत: तेरे अन्दर जो आत्मरक्षा और पररक्षा की शक्तियाँ हैं वे ही तेरे सींग हैं। निघण्टु में ‘ शृङ्गाणि’ को ज्वलद्वाची शब्दों में पठित किया गया है। अत: तेरे अन्दर रक्षा करनेवाली जो तेजस्विताएँ हैं, वे ही तेरे सींग हैं। ये सींग सर्वत्र तेरे साथ रहते हैं। सर्वत्र इनसे तू अपनी तथा अन्यों की रक्षा कर सकता है। इनके द्वारा तू काम, क्रोध आदि आन्तरिक शत्रुओं से भी तथा अन्यायी, अत्याचारी, धूर्त, कपटी, दुर्व्यसनी, पापी मनुष्यों से भी आत्मरक्षा तथा पररक्षा कर सकता है। यहाँ तक कि ये तेरे सींग निर्जन जङ्गलों में भी देदीप्यमान और तीक्ष्ण रहते हैं। जहाँ कोई अन्य रक्षक दृष्टिगोचर नहीं होता, उन बीहड़ वनों में भी तेरे ये सींग रक्षा का बीड़ा उठाते हैं।

हे अर्वन् ! हे घोड़े के समान वेग से आगे बढ़नेवाले जीवात्मन् ! तू अपनी शक्ति को पहचान, अपनी स्थिति को पहचान, अपने साधनों को पहचान और उनका उपयोग करके शीघ्रता से लक्ष्य पर पहुँच जा। तुझे साधुवाद मिलेंगे, तेरा अभिनन्दन होगा, तेरा जयजयकार होगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पतयिष्णु पतनशाले, ताच्छाल्ये इष्णुच्।

२. ध्रजीमान् गतिमत् । ध्रज गतौ, भ्वादिः ।

३. पुरुत्रा, पुरु= बहु, सप्तभ्यर्थ में त्रा प्रत्यय ।

४. विष्ठिता=विष्ठितानि। शि का लोप।

५. जर्भुराणा=जुर्भराणानि, शि-लोप । ‘जर्भुराणा देदीप्यमानानि-उवट’

जीवात्मा का वैभव -रामनाथ विद्यालंकार 

पहन लो कवच, विजय पाओ -रामनाथ विद्यालंकार

पहन लो कवच, विजय पाओ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः भारद्वाजः । देवता वर्मी । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

जीमूतस्येव भवति प्रतीकं यद्वर्मी याति सुमदामुपस्थे । अनाविद्धया तन्वा जय त्वत्स त्वा वर्मणो महिमा पिपत्तुं ॥

-यजु० २९.३८

( जीमूतस्य इव ) बादल के समान ( भवति ) हो जाता है ( प्रतीकं ) रूप, ( यद् ) जब ( वर्मी ) कवचधारी योद्धा ( याति ) जाता है (समदाम् उपस्थे ) युद्धों के मध्य । हे कवचधारी योद्धा! ( अनाविद्धया तन्वा ) न बिंधे हुए शरीर के साथ ( जय) विजय प्राप्त कर ( त्वम् ) तू । ( सः वर्मणः महिमा ) वह कवच की महिमा ( त्वा पिपर्तु) तेरा रक्षण करती रहे।

क्या तुमने किसी योद्धा को लोहे की काली चादर का कवच पहन कर समराङ्गण में जाते देखा है? उस समय उसका रूप ऐसा लगता है, जैसे बरसात का काला बादल हो। कवचधारी योद्धा काले बादल की तरह वर्षा भी करते हैं, किन्तु उनकी वर्षा पानी की नहीं, अपितु संहारक अस्त्रों की होती है। कवच पहनकर योद्धा का शरीर सुरक्षित हो जाता है। शत्रु द्वारा छोड़े हुए तीर या अन्य अस्त्र उसे घायल नहीं कर पाते। कवच लोहे की चादर के स्थान पर चमड़े का भी पहना जाता है। कवच धारण करके योद्धा निर्भय होकर संग्राम में शत्रु के छक्के छुड़ाने की यात्रा पर निकल पड़ता है। उसकी शरीर कवच से आच्छादित होने के कारण अनाविद्ध तथा अक्षत रहता है। वेद उसे उद्बोधन दे रहा है कि अनाविद्ध शरीर से त विजय प्राप्त कर। कवच की महिमा तेरा रक्षण  पालन करती रहे।

युद्ध केवल बाह्य ही नहीं होते, आन्तरिक भी होते हैं। आन्तरिक संग्रामों में प्रतिपक्षी होते हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष, उदासीनता, अनुत्साह आदि। उनके तीर भौतिक शास्त्रास्त्रों से भी पैने होते हैं। उनके आघात से बचने के लिए भी कवच पहनना पड़ता है, किन्तु वह लोहे, चमड़े आदि का नहीं, अपितु ‘ब्रह्म’३ का कवच होता है। ब्रह्म शब्द से ईश्वर-विश्वास, ज्ञान, कर्म, उपासना, उत्साह, योग-समाधि आदि गृहीत होते हैं। ‘ब्रह्म’ का कवच पहन लेने पर आध्यात्मिक योद्धा सुरक्षित हो जाता है, उसका आत्मा अनाविद्ध हो जाता है और आन्तरिक संग्राम में निश्चित रूप से उसकी विजय होती है। ब्रह्म-कवच से ढके रहने के कारण वह चिरकाल तक सुरक्षित बना रहता है।

हम भी बाह्य और आन्तरिक शत्रु योद्धाओं से घिरे हुए हैं। उनके विषबुझे चमचमाते नोकीले बाण हमें घायल करने के लिए व्याकुल हो रहे हैं, हमें पापों के पङ्क में लिप्त करने के लिए संनद्ध हो रहे हैं। आओ, यदि बचना चाहते हो, बाह्य तथा आन्तरिक अस्त्रों की मार से अनाविद्ध रहना चाहते हो, तो बाह्य और आन्तरिक कवच पहन कर समराङ्गण में कूद पड़ो। विजयश्री निश्चितरूप से तुम्हें प्राप्त होगी। कवच-धारण की महिमा ऐसी ही निराली है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. जीमूत=मेघ। अमर० १.३.७

२. समत्-युद्ध। निघं० २.१७ ।

३. ब्रह्म वर्म ममान्तरम् । अथर्व० १.१९.४

पहन लो कवच, विजय पाओ -रामनाथ विद्यालंकार 

राष्ट्र के वीर सेनानायक कैसे हो? -रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्र के वीर सेनानायक कैसे हो? -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः भारद्वाजः । देवता वीराः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

स्वदुषसर्दः पितरों वयोधाः कृच्छ्रश्रितः शक्तीवन्तो गभीराः। चित्रसेनाऽइषुबलाऽअमृध्राः सूतोवीराऽउरवों व्रातसाहाः ॥

-यजु० २९.४६

हमारे राष्ट्र के वीर सेनानायक ( स्वादुषंसदः ) उठने बैठने में स्वादु व्यवहार वाले हों, (पितरः ) देश के रक्षक हों, ( वयोधाः ) उत्कष्ट और दीर्घ आयु को धारण करने-करानेवाले हों, ( कृच्छ्रेश्रितः ) आपत्काल में आश्रय बननेवाले हों, ( शक्तीवन्तः) शक्तिशाली हों, ( गभीराः ) गम्भीर हों, (चित्रसेनाः ) चित्र-विचित्र सेनावाले हों, (इषुबलाः ) शस्त्रास्त्रों का बल उनके पास हो, ( अमृधाः) शत्रु द्वारा अहिंस्य हों, (सतोवीराः ) उनके साथ अनेक वीर योद्धा हों, ( उरवः ) विशाल डील-डौलवाले हों, (व्रातसाहाः ) शत्रुसमूह को परास्त करनेवाले हों।

आओ, मित्रो ! वीर-पूजा करें। राष्ट्र की रक्षा का उत्तरदायित्व जिनके ऊपर है, उन वीरों को सम्मान दें। ये सेनानायक युद्ध में अपने योद्धाओं का नेतृत्व करते हुए प्राणों की भी आहुति देने को तैयार रहते हैं। कैसे हैं ये सेनानायक? यह वेद के शब्दों में सुनिये । एक ओर जहाँ वीरता की छवि इनके रोम रोम में व्याप्त रहती है, वहाँ दूसरी ओर उठने-बैठने, वार्तालाप करने आदि सामान्य व्यवहार में भी ये बड़े मधुर होते हैं । इनके शिष्टाचार को देख कर कोई यह सोच भी नहीं सकता कि ये शत्रु की जान जोखिम में डालनेवाले बहादुर सेनापति हैं। ये ‘पितर:’ हैं, देशरक्षक है, राष्ट्र की रक्षा में ऐसे संनद्ध रहते हैं कि इनका नाम सुनकर भी शत्रुसेना की हवाइयाँ उड़ने लगती हैं। ये ‘वयोधाः’ हैं, अपनी तथा राष्ट्रवासियों की आयु  को सुरक्षित रखनेवाले हैं। इनके होते हुए किसी को यह भय नहीं रहता कि कहीं शत्रु हमारा प्राणघात करके हमारी आयु का अपहरण न कर ले। ये स्वयं भी अपने प्राणों को सुरक्षित रख कर उत्कृष्ट और दीर्घ आयु व्यतीत करनेवाले हैं। ये ‘कृच्छेश्रित:’ हैं, कष्ट या आपत्तिकाल में दूसरों का आश्रय बननेवाले हैं। वे बड़ी से बड़ी कठिन या विपत्ति की परिस्थिति में भी अपनी सेना को खाई में कुदा कर और स्वयं कूद कर असहाय को सहायता देनेवाले हैं। ये शक्तिशाली ऐसे हैं कि सदा युद्ध का स्वागत करने के लिए उद्यत रहते हैं, जहाँ प्राणों का सङ्कट हो वहाँ जाने में इन्हें आनन्द आता है, इनके दिल में शत्रुसंहार के अरमान भरे होते हैं। अन्दर से इनकी बाहें फड़क रही होती हैं, किन्तु ऊपर से उदासीन दिखायी देते हैं। ये ‘चित्रसेन’ हैं। इनकी सेनाओं में अद्भुत वीरता है, राष्ट्ररक्षा की अद्भुत उमङ्ग है, अद्भुत रणचातुरी है, शत्रु को धराशायी करने की अद्भुत कला है। ये ‘इषुबल’ हैं, संहारक बाणों का, बड़े से बड़े मारक अस्त्र-शस्त्रों का बल इनके पास है। ये * अमृध्र’ हैं, शत्रु से अहिंसनीय हैं, क्योंकि रणनीति के ज्ञाता है। शत्रु इन्हें किसी दिशा में विद्यमान समझ रहा होता है, किन्तु ये होते दूसरी दिशा में हैं। इनके साथ अनेक वीर योद्धा हैं। इनमें से कोई पाँच सौ वीरों का, कोई सहस्र वीरों का नेतृत्व कर रहा होता है। ये विशाल डील-डौलवाले हैं, विस्तीर्ण वक्षस्थलवाले, शाल वृक्ष के समान ऊँचे और महाबाहु हैं। ये व्रातसाह’ हैं, रिपुदल को क्षणभर में परास्त कर देनेवाले हैं। इनकी रणकुशलता के आगे अपनी सेना पर कोई आँच नहीं आती और शत्रुसेना भयभीत होकर उलटे पैर भाग खड़ी होती है। उसमें घबराहट व्याप जाती है, वह घुटने टेक कर अपनी पराजय स्वीकार कर लेती है।

आओ, हम ऐसे राष्ट्ररक्षक सेनानायकों का जयजयकार करें, इनके प्रशस्तिगीत गायें, इनका अभिनन्दन करें।

पाद-टिप्पणी

१. मृध:=संग्राम, निर्घ० २.१७, मृधु मर्दने, का० कृ० ।।

राष्ट्र के वीर सेनानायक कैसे हो? -रामनाथ विद्यालंकार 

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वरुण: । देवता मन्त्रोक्ताः । छन्दः स्वराड् धृतिः ।

सोमस्य विषिरसि तवेव मे विषिर्भूयात् । अग्नये स्वाहा सोमाय स्वाहा सवित्रे स्वाहा सरस्वत्यै स्वाहां पूष्णे स्वाहा बृहस्पतये स्वाहेन्द्राय स्वाहा घोषाय स्वाहा श्लोकाय स्वाहा शाय स्वाहा भगाय स्वाहार्यम्णे स्वाहा॥

-यजु० १०/२३

तू ( सोमस्य ) चन्द्रमा की ( त्विषिः असि) दीप्ति है, ( तव इव ) तेरी दीप्ति के समान (मे त्विषिः भूयात् ) मेरी दीप्ति हो। ( अग्नये स्वाहा ) अग्नि के लिए स्वाहा, (सोमायस्वाहा ) सोम के लिए स्वाहा, ( सवित्रे स्वाहा ) सविता के लिए स्वाहा, (सरस्वत्यै स्वाहा ) सरस्वती के लिए स्वाहा, ( पूष्णे स्वाहा ) पूषा के लिए स्वाहा, (बृहस्पतये स्वाहा ) बृहस्पति के लिए स्वाहा, ( इन्द्राय स्वाहा ) इन्द्र के लिए स्वाहा, (घोषाय स्वाहा ) घोष के लिए स्वाहा, ( श्लोकाय स्वाहा ) श्लोक के लिए स्वाहा, (अंशाय स्वाहा ) अंश के लिए स्वाहा. ( भगाय स्वाहा ) भग के लिए स्वाहा. (अर्यमणेस्वाहा ) अर्यमा के लिए स्वाहा।

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार 

नवनिर्वाचित राजा सोम ( चन्द्रमा) को देख कर या उसका ध्यान करके कह रहा है–’तू चन्द्रमा की दीप्ति है, तेरी तरह मेरी भी दीप्ति हो। पूर्णिमा की रात्रि में चन्द्र-ज्योत्स्ना अपने धवल शान्तिदायक, मधुर प्रकाश से जैसे सबको आच्छादित करती है, ऐसे ही राजा कामना कर रहा है कि मैं भी सबको अपनी सात्त्विकता, स्वच्छता, निष्कलङ्कता, पवित्रता के प्रभाव में लेकर निष्कलङ्क और पवित्र बना सकें। तत्पश्चात् वह विभिन्न देवों के लिए आहुतियाँ देता है। ‘अग्नये स्वाहा’ तात्पर्य यह है कि मैं स्वयं अग्नि जैसा तेजस्वी, ऊर्ध्वगामी और राष्ट्र में परिपक्वता लानेवाला बनूंगा। ‘सोमाय स्वाहा’ सोम जैसे ओषधियों का राजा है, वैसे ही मैं प्रजा का राजा हूँ। सोम ओषधि के समान मैं भी पीड़ित, आतुर, रोगार्त लोगों को स्वास्थ्य और सजीवता प्रदान करूंगा। राष्ट्र में विभिन्न चिकित्सा-पद्धतियों को और शल्यक्रिया-विभाग को समुन्नत करूंगा। औषध-निर्माण की ओर भी ध्यान देंगा। ‘सवित्रे स्वाहा’-सूर्य जैसे अन्धकार को विच्छित्र कर प्रकाश फैलाता है, वैसे ही मैं भी अपने राज्य में अनैतिकता के अन्धकार को और तामसिकता को दूर कर नैतिकता का प्रकाश फैलाऊँगा और प्रजा में सात्त्विक वृत्ति उत्पन्न करूंगा। ‘सरस्वत्यै स्वाहा’ सरस्वती विद्या, वेदवाणी, शिक्षणकला आदि को सूचित करती है। मैं राष्ट्र में शिक्षा का स्तर उन्नत करूंगा, विभिन्न विद्याओं को प्रसारित करूंगा, राष्ट्र को सारस्वत साधना का केन्द्र बनाऊँगा।’पूष्णे स्वाहा’-पूषा पुष्टि के गुण को सूचित करता है। वेद में यह मार्गरक्षक तथा पशुरक्षक के रूप में भी वर्णित हुआ है। मैं राष्ट्र में अन्नादि की पुष्टि की प्रचुरता लाऊँगा तथा मार्गरक्षक नियुक्त करूंगा, जिससे यातायात में यात्रियों को कष्ट न हो और गाय आदि पशुओं की सुरक्षा का भी प्रबन्ध करूंगा। ‘बृहस्पतये स्वाहा’–बृहस्पति से विशाल वाङ्मय का स्वामी विद्वान् गृहीत होता है। राष्ट्र में विद्वानों का यथोचित सम्मान हो, उन्हें साहित्यसर्जन, ग्रन्थलेखन, प्रकाशन आदि की सुविधाएँ प्राप्त हों, उनकी जीविका का भी प्रबन्ध हो, इसका ध्यान रखेंगा। ‘इन्द्राय स्वाहा’–इन्द्र वीरता का देव है, यह सैनिक शक्ति, युद्ध, राक्षस-विध्वंस आदि को सूचित करता है। राष्ट्र की स्थलसेना, जलसेना, अन्तरिक्षसेना, शस्त्रास्त्रशक्ति आदि को विकसित करूंगा तथा यदि किसी राष्ट्र से युद्ध अनिवार्यतः करना पड़े, तो हमारी विजय ही हो इसका प्रबन्ध करूंगा। ‘घोषाय स्वाहा’-सब प्रकार के ध्वनियन्त्र ग्रामोफोन, फोनोग्राम, दूरभाष, चलभाष, दुन्दुभिवाद्य, युद्ध-वाद्य आदि के आविष्कार तथा निर्माण की व्यवस्था करूंगा। ‘श्लोकाय स्वाहा’–सङ्गीत, गायन, सस्वर वेदमन्त्रपाठ, श्लोकरचना आदि को प्रोत्साहन दूंगा।’अंशाय स्वाहा’—जिसका जो अंश या भाग है, वह उसे मिले, कोई उससे वञ्चित न हो, इसका उपाय करूंगा। पिता या सम्पत्ति के स्वामी की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति का कितना अंश किसे मिले, इसके नियम निर्धारित होंगे । आयकर सम्बन्धी नियमों के निर्धारण और प्रजा द्वारा उनके पालन की ओर भी ध्यान देंगा। राजकर के रूप में प्राप्त धन प्रजाहित में ही व्यय हो, इसका भी ध्यान रखा जाएगा। ‘भगाय स्वाहा’–भग धन का प्रतिनिधित्व करता है। मेरा राष्ट्र अच्छा धनी हो, सब राष्ट्रवासियों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो, बेकारी, भुखमरी आदि का कोई शिकार न हो, इसकी भी व्यवस्था करूंगा। ‘अर्यम्णे स्वाहा’-अर्यमा का अर्थ दयानन्दभाष्य में प्रायः न्यायाधीश किया गया है। राष्ट्र में न्यायव्यवस्था को सही रूप में चलाऊँगा। सबको समुचित न्याय प्राप्त होगा। अपराधियों के लिए कारागार और दण्डव्यवस्था भी होगी।

आज आप सबके सम्मुख यज्ञाग्नि में आहुतियाँ देते हुए मैंने जो प्रण लिये हैं, उन्हें पूर्ण कर सकने के आशीर्वाद की प्रभु से और जनता से याचना करता हूँ।

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ – रामनाथ विद्यालंकार 

माता-पिता का पुत्र को उपदेश -रामनाथ विद्यालंकार

माता-पिता का पुत्र को उपदेश -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः त्रितः । देवता अग्निः । छन्दः विराड् अनुष्टुप् ।

स्थिरो भव वीड्वङ्गऽआशुभंव वायुर्वन् । पृथुर्भव सुषदस्त्वमुग्नेः पुरीवाहणः ।।

-यजु० ११।४४

( अर्वन् ) हे जीवनमार्ग के राही पुत्र! तू (स्थिरः) अडिग, स्थिर वृत्तिवाला और (वीड्वङ्गः ) दृढाङ्ग ( भव ) हो, (आशुः ) शीघ्रकारी तथा ( वाजी ) शरीरबल, नीतिबल तथा आत्मबल से युक्त (भव ) हो। ( त्वं ) तू ( पृथुः ) विस्तारप्रिय तथा ( सुषदः ) उत्कृष्ट स्थितिवाला ( भव) हो। ( अग्नेः पुरीषवाहनः३) अग्नि के पालन, रथचालन आदि कार्यों को करनेवाला तथा अग्निहोत्र की सुगन्ध फैलानेवाला हो।

उवट एवं महीधर ने इस मन्त्र की व्याख्या में कर्मकाण्डपरक विनियोग के अनुसार ‘रासभ’ की सम्बोधन माना है। परन्तु महर्षि दयानन्द इस मन्त्र का विनियोग इस रूप में करते हैं। कि माता-पिता अपने पुत्र को शिक्षा दे रहे हैं। अर्वन्’ शब्द गत्यर्थक ऋ धातु से वनिप् प्रत्यय करके निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ होता है ‘गन्ता’ या जीवन की राह पर चलनेवाला। हे जीवन मार्ग के राही पुत्र! तू स्थिर अर्थात् अडिग रहे । अनेक काम, क्रोध आदि रिपुगण तथा मानवी शत्रु तुझे धर्ममार्ग से विचलित करना चाहेंगे, परन्तु उनके कुचक्र में न पड़कर तू सदा अविचल एवं स्थिर बना रह। तू स्थिर वृत्तिवाला भी हो, जो कुछ तर्क तथा धर्म की कसौटी पर कस कर निश्चय कर ले उस पर स्थिर रह । तू ‘वीड्वङ्ग’ अर्थात् सुदढ़ अङ्गोंवाला  बन । एतदर्थ तू व्यायाम, योगासन, दौड़-कूद आदि करता रह। तू ‘आशु’ बन, शीघ्रकारी, चुस्त एवं फुर्तीला बन । तू ‘वाजी’ अर्थात् शरीर, मन, वाणी आत्मा, नीति आदि से बलवान् बन, अन्यथा तुझे दुर्बल देख कर आततायी लोग अपने वश में करना चाहेंगे तथा तेरी हिंसा करने पर भी उतारू हो सकते हैं। तू ‘पृथु’ बन, विस्तारप्रिय हो, संकुचित मनवाला मत बन। अपने तक ही सीमित न रहकर यदि तू समाज, राष्ट्र एवं विश्व को भी देखेगा, तो सारी धरती ही तुझे कुटुम्ब के समान जान पड़ेगी। तब तू केवल अपना और अपने सम्बन्धियों को ही नहीं, प्रत्युत सारी वसुधा का कल्याण चाहेगा। तू ‘सुषद’ अर्थात् उत्कृष्ट स्थितिवाला बन । याद रख, तेरी गणना क्षुद्र लोगों में नहीं, किन्तु उच्च महापुरुषों में होनी चाहिए। जब गुणियों की सूची बने, तब तेरा नाम उसमें सर्वोपरि होना चाहिए।

हे पुत्र! तू ‘अग्नि का पुरीषवाहन’ हो । अग्नि के पालन, विमानादिरथचालन प्रभृति कर्मों को करनेवाला हो, साथ ही अग्निहोत्र करके यज्ञाग्नि एवं हवि की सुगन्ध चारों ओर फैलानेवाला भी बन। हे पुत्री ! तुम्हें भी हमारा यही उपदेश है। तुम भी स्थिरचित्ता, दृढाङ्गी, बलवती, उदारा, उत्कृष्ट स्थितिवाली, अग्नि से कलापूर्ण कार्य करनेवाली तथा अग्निहोत्र की सुगन्ध चारों ओर फैलानेवाली बनना । ऐसे पुत्र-पुत्रियाँ ही अपने माता पिता के तथा अपने यश का विस्तार करते हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वीडूनि दृढानि बलिष्ठानि अङ्गानि यस्य सः-२० ।।

२. वाजी प्राप्तनीति:-द० । वाजः शरीरबलम् आत्मबलं नातिबलं चयस्यास्ति स वाजी ।।

३. पुरीषवाहण: यः पुरीषाणि पालनादानि कर्माणि वाहयति प्रापयतिसः-द० । पुरीषम् अग्निहोत्रहविषां पूर्ण सुगन्धं वहति यः सः ।

माता-पिता का पुत्र को उपदेश -रामनाथ विद्यालंकार 

सेनानायक पुरोहित की गर्वोक्ति-रामनाथ विद्यालंकार

सेनानायक पुरोहित की गर्वोक्ति-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः नाभा नेदिष्ठः । देवता पुरोहितो यजमानश्च।छन्दः आर्षी भुरिक् उष्णिक्।

सशितं में ब्रह्म सर्शितं वीर्य बलम्सशितं क्षत्रं जिष्णु यस्याहमस्मि पुरोहितः

-यजु० ११ । ८१

( मे ) मेरा ( ब्रह्म ) ज्ञान ( संक्षितं ) तीक्ष्ण है। ( संशितं ) तीक्ष्ण है (वीर्यम्) वीर्य और (बलम्) बल। ( संशितं ) तीक्ष्ण और (जिष्णु) विजयशील हो ( क्षत्रं ) क्षात्रबल ( यस्य ) जिस सम्राट् का ( अहम् अस्मि) मैं हूँ ( पुरोहितः ) पुरोहित, अग्रगन्ता, मुख्य सेनानायक के पद पर स्थित ।।

मैं राष्ट्र का मुख्य सेनानायक हूँ। राष्ट्र मेरा है, मैं राष्ट्र का हूँ। राष्ट्र की स्थलसेना, जलसेना और अन्तरिक्षसेना मेरे अधीन है। जब कभी राष्ट्र पर शत्रु का संकट होता है, तब मैं बांकुरे वीरों को राष्ट्ररक्षा के लिए संनद्ध कर देता हूँ। वे भी अपने प्राणों की चिन्ता न करके शत्रु पर जा टूटते हैं और शत्रु को पराजित करके ही छोड़ते हैं। मैं राष्ट्र का पुरोहित कहलाता हूँ। दो कारणों से मुझे पुरोहित कहा जाता है। प्रथम तो यह कि अग्निहोत्र या यज्ञ में जो काम पुरोहित का होता है, वही युद्ध में मेरा है। पुरोहित यज्ञ का सञ्चालन करता है। सैन्यसङ्गठन या संग्राम भी एक यज्ञ ही है। मैं उसका सञ्चालन करता हूँ। दूसरा यह है कि सेना में मुझे ‘पुर:-हित किया जाता है, अध्यक्ष पद पर बैठाया जाता है। मेरे अन्दर क्या विशेषता है। और जिस राष्ट्रपति का मैं पुरोहित हूँ उसे मुझसे क्या उपलब्धि होती है, यह मैं बता देना चाहता हूँ। जैसे यज्ञ में यजमान द्वारा पुरोहित का वरण किया जाता है, वैसे ही जब मैंने अपने पद  की शपथ ली थी तब मैं भी राष्ट्रपति द्वारा मुख्य सेनानायक के पद पर वरण किया गया था। मेरा ब्रह्म, मेरा राजनीति और रणनीति का ज्ञान बहुत तीक्ष्ण है। कब शत्रु पर आक्रमण करना है और कब शत्रु को केवल भयभीत करते रहना है, यह मैं जानता हूँ। शत्रु को यह चकमा देना भी जानता हूँ कि शत्रु यह समझे कि मैं पूर्व दिशा से आक्रमण करूंगी, किन्तु मैं किसी दूसरी दिशा से ही आक्रमण करके उसे पराजित कर देता हूँ। तीव्र रणनीति के ज्ञान के बिना युद्ध जीतना सम्भव नहीं होता और वह रणनीति का ज्ञान मुझमें है। साथ ही मेरा वीर्य और बल भी तीव्र है। मेरी व्यूह-रचना का बल तीव्र है, मेरी अन्तरिक्ष की उड़ान तीव्र है, शत्रुओं द्वारा खड़ी की गयी बाधाओं को तोड़ते-फोड़ते-कुचलते हुए मेरे ट्रैक्टरों की आगे बढ़ने की शक्ति तीव्र है, मेरे युद्धस्तर के जलपोतों की और मेरी पनडुब्बियों की शक्ति, तीव्र है। वीर्य शब्द ‘वीर विक्रान्त धातु से बनता है, वि उपसर्ग पूर्वक गति तथा कम्पन अर्थवाली ‘ईर’ धातु से भी निष्पन्न होता है। वीर्य का अर्थ है पराक्रम, शत्रु को पाने के लिए गति अर्थात् आक्रमण करना। वीर्य से अभिप्रेत है बल को क्रिया रूप में परिणत करना। मेरा बल भी तीव्र है और उस बल का प्रयोग भी तीव्र है। जब मैं तीव्रता के साथ अपने तीव्र बल का प्रयोग करता हूँ, तब शत्रु के छक्के छुड़ा देता हूँ। सब शत्रुओं का वध ही कर दिया जाए, यह अभीष्ट नहीं होता, उन्हें हरा कर अपने वशवती कर लेना ही प्रायः अभीष्ट होता है। इस प्रकार मेरा रणनीति का ज्ञान, मेरा बल और वीर्य तीक्ष्ण है। इसका परिणाम यह है कि जिस राष्ट्रपति का मैं पुरोहित हूँ, मुख्य सेनाध्यक्ष हूँ, उसका क्षात्रबल भी तीक्ष्ण और विजयशील है। जब मेरी सेना शत्रु को पराजित करती है, तब विजय मेरी होती है और वस्तुत: मेरी भी नहीं, विजय राष्ट्रपति की या राष्ट्र की होती है। सर्वोपरि है राष्ट्र । जय बोलो मेरे तीक्ष्ण वीरों की, जय बोलो मेरे राष्ट्रपति की, जय बोलो मेरे राष्ट्र की।

पाद टिप्पणी

१. संशितं, शो तनूकरणे+क्त प्रत्यय ।

सेनानायक पुरोहित की गर्वोक्ति-रामनाथ विद्यालंकार