All posts by RS Mani

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते ससृजेथामयं च।अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ॥

 -यजु० १५ । ५४

हे (अग्ने ) अग्रासन पर स्थित यजमान! तू (उद् बुध्यस्व ) उद्बुद्ध हो, ( प्रति जागृहि ) जाग जा । ( त्वम् अयं च ) तू और यह यज्ञाग्नि मिलकर (इष्टापूर्ते ) इष्ट और पूर्त को (संसृजेथाम् ) करो। ( अस्मिन् उत्तरस्मिन् सधस्थे अधि) इस उत्कृष्ट सहमण्डप में ( देवाः ) हे विद्वानो! तुम ( यजमानः च) और यजमान (सीदत ) बैठो।।

हे विद्वन् ! हे अग्रासन पर स्थित यजमान ! तू यज्ञ करने बैठा है, यज्ञकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित कर रहा है। जैसे अप्रकाशित दीपशलाकाओं की रगड़ से या उत्तरारणि और अधरारणि के संघर्षण से प्रकाशमान अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, वैसे ही तू भी अपने अन्दर विद्याज्योति को जगा। अपने आत्मा से प्रणव-जप का संघर्षण करके दिव्य प्रकाश को उत्पन्न कर । अविद्या की निद्रा को त्याग दे, जाग उठ। तू और यह यज्ञाग्नि मिलकर इष्ट तथा पूर्त का सम्पादन करें। इष्ट’ शब्द इच्छार्थक इषु धातु से बनता है और देवपूजा, सङ्गतिकरण तथा दान अर्थवाली यज धातु से भी निष्पन्न होता है। अतः * इष्ट’ का अर्थ होता है अभीष्ट सुख, विद्वानों का सत्कार, ईश्वर की आराधना, सन्तों का संग, सत्य विद्यादि का दान। अतः इष्ट सम्पादन करने का आशय होता है कि यजमान को उचित है कि वह यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि को प्रदीप्त करके अभीष्ट सुख प्राप्त करने का यत्न करे, अपने से बड़े विद्वानों का यजुर्वेद ज्योति सत्कार करे, ईश्वर की आराधना करे, सत्सङ्गति करे और परोपकार के लिए तन-मन-धन का दान करे। ‘पूर्त’ शब्द पालन-पूरणार्थक पृ धातु का रूप है। इसका अर्थ होता है, पूर्ण विद्याध्ययन, पूर्ण ब्रह्मचर्य, पूर्ण यौवन, पूर्ण साधन उपसाधन आदि। अतः पूर्त सम्पन्न करने का आशय है कि यजमान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे, शक्ति से परिपूर्ण खरा यौवन प्राप्त करे, उन्नति के सब साधन-उपसाधनों को संगीत करके भौतिक तथा आत्मिक उत्थान का प्रयास करे। यज्ञ करने के लिए यजमान अकेला ही यज्ञमण्डप में नहीं बैठता है, उसके साथ उसका परिवार, साथी संग तथा अन्य यज्ञप्रेमी जन भी बैठते हैं। ‘सधस्थ’ का अर्थ है यज्ञमण्डप, जिसमें एक साथ बहुत से लोग सुविधापूर्वक बैठ सकें। सधस्थ का विशेषण मन्त्र में उत्तरस्मिन’ दिया है, जिससे सूचित होता है। कि यज्ञ मण्डप सुसज्जित, सज-धज से युक्त तथा सामूहिक यज्ञ के वातावरण से परिपूर्ण होना चाहिए। उस यज्ञमण्डप में विद्वज्जन, यजमान, यजमान-पत्नी, होता, उद्गाता, अध्वर्यु, ब्रह्मा एवं मन्त्रपाठी आदि सब लोग श्वेत वस्त्र धारण करके पवित्र भावना के साथ बैठे। सबके सुनियन्त्रित रूप में बैठ जाने के पश्चात् यज्ञ प्रारम्भ होता है। मन्त्रोच्चारण तथा सब विधि-विधान सम्पन्न होते हैं, पूर्णाहुति प्रदान की जाती है, यजमानों को आशीर्वाद दिया जाता है, ब्रह्मा का उपदेश होता है और यज्ञशेष रूप में यज्ञ का प्रसाद लेकर यज्ञभावना से भावित और संस्कृत होकर यज्ञप्रेमी जन अपने-अपने घरों को जाते हैं। अन्यत्र जाकर भी वे यज्ञ के वातावरण से चिरकाल तक प्रभावित रहते हैं। आइये, हम भी यज्ञ रचा कर उसका लाभ प्राप्त करें।

पाद-टिप्पणियाँ 

१. (प्रतिजागृहि) अविद्यानिद्रां त्यक्त्वा विद्यया चेत-द० ।

२. (इष्टापूर्ते) इष्टं सुखं विद्वत्सत्करणम् ईश्वराराधनं सत्सङ्गतिकरणं | सत्यविद्यादिदानं पूर्ण बलं ब्रह्मचर्यं विद्यालङ्करणं पूर्ण यौवनं पूर्णसाधनोपसाधनं च-द० ।।

३. सह तिष्ठन्ति जना यत्र स सधस्थ: । सह-स्था, सह को सध आदेश ।

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार 

विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार

विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता विदुषी । छन्दः ब्राह्मी बृहती।

परमेष्ठी त्वा सादयतु दिवस्पृष्ठे ज्योतिष्मतीम्। विश्वस्मै प्राणायापनार्य व्यनाय विश्वं ज्योतिर्यच्छ। सूर्यस्तेधिपतिस्तया देवतयाऽङ्गिस्वद् ध्रुवा सीद॥

-यजु० १५।५८

हे विदुषी ! ( त्वा ) तुझे ( परमेष्ठी ) प्रधानमन्त्री ( सादयतु ) प्रतिष्ठित करे ( दिवस्पृष्ठे ) ज्ञानप्रकाश के पृष्ठ शिक्षामन्त्री पद पर, ( ज्योतिष्मतीम् ) तुझ ज्योतिष्मती को, विद्याज्योति से जगमगानेवाली को, (विश्वस्मै ) सबके लिए ( प्राणाय ) प्राणार्थ, (अपानाय ) अपानार्थ, (व्यानाय ) व्यानार्थ । तू (विश्वं ज्योतिः ) समस्त विद्याज्योति को ( यच्छ) नियन्त्रित कर। ( सूर्यः ते अधिपतिः) सूर्य तेरा आदर्श है। ( तयादेवतया) उस देवता से ( अङ्गिरस्वद् ) प्राणवती होकर तू ( धुवा ) अपने पद पर स्थिर होकर (सीद) बैठ।

चुनाव में जो दल बहुमत से विजयी हुआ है, उसने अपने प्रधानमन्त्री का चयन कर लिया है। प्रधानमन्त्री अब अपने मन्त्रिमण्डल का गठन कर रहे हैं। शिक्षामन्त्री पद के लिए सबकी दृष्टि एक विदुषी देवी पर लगी हुई है। उसने शिक्षा की आराधना की है, ज्ञान की ज्योति अपने अन्दर जलायी है। दूसरों के अन्दर भी वे ज्ञान की ज्योति जलाना जानती हैं। वे वैदिक साहित्य और भारतीय संस्कृति की पुजारिन हैं। उस विद्या की सर्वोच्च उपाधि उनके पास है। वे शिक्षिका और प्राचार्या रह चुकी हैं। उनके महाविद्यालय की छात्राओं का परीक्षा परिणाम शतप्रतिशत सर्वोन्नत रह चुका है। प्रबन्ध में यजुर्वेद ज्योति भी उन्होंने कुशलता अर्जित की है। साहित्य-सर्जन में भी अग्रणी रही हैं। राष्ट्रपति-सम्मान तथा अन्य अनेकों पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। विदेश का भी अनुभव उनके पास है। सबकी इच्छा है कि शिक्षामन्त्री का पद उन्हें मिले । प्रधानमन्त्री के पास उनके चयन के लिए शिष्टमण्डल का प्रस्ताव पहुँच चुका है। जनता का प्रतिनिधि विदुषी को कह रहा है-”हे देवी! हम सबकी अभिलाषा है कि प्रधानमन्त्री आपको शिक्षामन्त्री के पद पर आसीन करें, क्योंकि आप * ज्योतिष्मती’ हैं । ज्ञान की ज्योति, अध्यापनकला की ज्योति, सप्रबन्ध की ज्योति आपके अन्दर जगमगा रही है। आपके द्वारा शिक्षाजगत् को प्राण प्राप्त होगा, राष्ट्र की प्रसुप्त शिक्षा जागरूक और सज्ञान हो उठेगी, देश में प्रत्येक जनपद में छात्रों और छात्राओं के विशिष्ट विद्याओं के विश्वविद्यालय और महाविद्यालय स्थापित होंगे। शिल्पकला, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कृषि, गृहविज्ञान आदि सभी विद्याओं को प्रोत्साहन मिलेगा। शिक्षाजगत् को ‘प्राण’ के साथ ‘अपान’ और ‘व्यान’ की भी आवश्यकता है। शिक्षा में जो दोष आ गये हैं, उनका निर्गमन ‘अपान’ द्वारा होगा। शिक्षा का व्यापक प्रसारे ‘व्यान’ द्वारा होगा। आप शिक्षामन्त्री के पद पर आसीन होकर सकल ज्ञान विज्ञान की शिक्षा को नियन्त्रित करें। प्राचीन भारतीय शिक्षाविदों के अनुभव से लाभ उठायें। विदेशी शिक्षाविदों ने जो शिक्षासूत्र दिये हैं, उन पर भी विचार करें कि वे कहाँ तक अपने देश में लागू हो सकते हैं । द्युलोक से प्रकाश के फब्बारे छोड़ता हुआ सूर्य आपको आदर्श है। जैसे वह विभिन्न लोकों के अन्धकार को मिटा कर प्रकाश का विस्तार करता है, वैसे ही आपको अज्ञान और अविद्या का अंधियारा हटा कर ज्ञान और विभिन्न विद्याओं के प्रकाश को प्रत्येक प्रदेश में फैलाना है । सूर्य से प्राणवती होकर आप शिक्षा का प्रसार करें। आपकी प्रजा में एक भी जन निरक्षर और अशिक्षित ने रहे। आप अपने पद पर स्थिर होकर बैठे और शिक्षा के लिए समर्पित हो  जाएँ।

तभी घोषणा होती है कि प्रधानमन्त्री ने अमुक विदुषी को शिक्षामन्त्री का पद सौंपा है। उस विदुषी के नाम के जयकारे । उठते हैं। न्यायाधीश उससे शिक्षा क्षेत्र में समर्पित रहने की तथा देश के प्रति सजग और सच्ची रहने की प्रतिज्ञा ग्रहण करवाते हैं। पुष्पमालाओं से उसका स्वागत होता है। शिक्षामन्त्री पद उस विदुषी से धन्य हो जाता है। विदुषी तुरन्त शिक्षा में क्रान्ति करने के लिए जुट जाती है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. परमे स्थाने तिष्ठतांति परमेष्ठी प्रधानमन्त्री।

२. प्राणो वै अङ्गिराः, तद्वती यथा स्यात् तथा।

विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार 

चारों वर्णों में दीप्ति और परस्परिक प्रेम-रामनाथ विद्यालंकार

चारों वर्णों  में दीप्ति और परस्परिक प्रेम-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः शुन:शेप। देवता बृहस्पतिः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

रुचे नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचराजसु नस्कृधि। रुचं विश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम् ॥

-यजु० १८।४८ |

हे विशाल ब्रह्माण्ड के अधिपति बृहस्पति परमेश्वर ! आप (नः ब्राह्मणेषु ) हमारे ब्राह्मणों में ( रुचं धेहि ) दीप्ति और प्रेम स्थापित करो। ( रुचं ) दीप्ति और प्रेम (नःराजस ) हमारे क्षत्रियों में ( कृधि ) करो। ( रुचं ) दीप्ति और प्रेम (विश्येषु ) वैश्यों में और (शूद्रेषु ) शूद्रों में [उत्पन्न करो]। ( मयि ) मेरे अन्दर भी (रुचा ) प्रीति के साथ (रुचं ) प्रेम को ( धेहि) स्थापित करो।

हे विशाल ब्रह्माण्ड के अधिपति बृहस्पति परमात्मन् ! हे विशाल वाङ्मय के स्वामी बृहस्पति आचार्य ! हमारा समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्षों में विभक्त है। आप हमारे ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व की दीप्ति और प्रेम उत्पन्न कीजिए। ब्राह्मणत्व कहलाता है। ब्रह्मविद्या, वेदविद्या, अन्य विविध विद्या तथा आस्तिकता में नैपुण्य । इसकी प्रभा, इसकी चमक हमारे ब्राह्मणों में हो। ‘रुच’ धातु के अर्थ दीप्ति और प्रीति होते हैं, अतः ‘रुच’ का दूसरा अर्थ प्रेम भी ग्राह्य है। ब्राह्मणजन परस्पर प्रीतिभाव रखें और दूसरे वर्षों के साथ भी प्रेम का व्यवहार करें। हमारे राजाओं में, क्षत्रियों में क्षात्र धर्म की दीप्ति और प्रेम उत्पन्न कीजिए। क्षात्रवल की छुति उनमें ऐसी हो कि वे प्रजा की रक्षा में तथा शत्रु के उच्छेद में सदा तत्पर रहें। पारस्परिक प्रीति भी रखें और ब्राह्मण, वैश्य तथा  शूद्र के साथ भी प्रेम रखें। हमारे वैश्यों में भी वैश्य धर्म की दीप्ति तथा परस्पर और अन्य वर्गों के साथ प्रेमभाव रहे। वैश्य-धर्म है कृषि, व्यापार और पशुपालन । शूद्रों में भी अपने सेवाधर्म की चमक और पारस्परिक प्रेमभाव उत्पन्न कीजिए। आप मेरे अन्दर भी दीप्ति के साथ प्रेमभाव प्रकट कीजिए। इस प्रकार सम्पूर्ण समाज एक-दूसरे के प्रति प्रेम से आबद्ध और अपने-अपने कर्तव्यपालन के प्रति जागरूक रहे, तो समाज और राष्ट्र समुन्नत और प्रशस्त कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकेंगे।

हे परमेश तथा हे आचार्यवर ! आप चारों वर्गों को दूध पानी की तरह परस्पर मैत्री और प्रीतिभाव से समन्वित करके प्रतिष्ठास्पद कीजिए, यही हमारी प्रार्थना है ।।

पाद-टिप्पणी

१. रुच दीप्तौं अभिप्रीतौ च, भ्वादिः । ‘रुचं प्रेम’-द० ।

चारों वर्णों  में दीप्ति और परस्परिक प्रेम-रामनाथ विद्यालंकार  

जीवनदायक तत्व-रामनाथ विद्यालंकार

जीवनदायक तत्व-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः स्वस्त्यात्रेयः । देवता अग्न्यादयः छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

समिद्धोऽअग्निः समिधा सुसमिद्धो वरेण्यः। गायत्री छन्दऽइन्द्रियं त्र्यविनॊर्वयों दधुः ॥

-यजु० २१.१२ |

( समिधा समिद्धः अग्निः ) ईंधन से संदीप्त अग्नि, ( सुसमिद्धः१ वरेण्यः’) अत्यन्त संदीप्त वरणीय सूर्य, ( गायत्रीछन्दः) गायत्री छन्द, (इन्द्रियं ) अन्तरिन्द्रिय मन, (त्र्यविः। गौः२) शरीर, मन, आत्मा तीनों का रक्षक वेदगायक परमेश्वर, ये सब (वयःदधुः ) जीवन को धारते हैं।

मानव माता के गर्भ से उत्पन्न होने के पश्चात् यथासमय माता-पिता से, गुरुजनों से, मित्रों से, सन्तों से, महात्माओं से शिक्षासूत्र, जीवन, जागृति, सन्देश प्राप्त करता हुआ सुयोग्य बनता है। यदि उसे अकेला छोड़ दिया जाए तो वह भेड़िये से पाले गये मानव-शिशु के समान पशुतुल्य ही रहता है। शिक्षा, जीवन, जागृति देने वाले तत्त्व संसार में बिखरे पड़े हैं। मनुष्य चाहे तो उनसे सन्देश ले सकता है। भूमि से क्षमा की, सागर से गम्भीरता की, फूलों से सुगन्ध फैलाने की, वृक्षों से परोपकार की, सूर्य से तमस् को विच्छिन्न कर प्रकाश प्रदान की शिक्षा ली जा सकती है। प्रस्तुत मन्त्र में भी कुछ जीवनदायक तत्त्व परिगणित किये गये हैं।

प्रथम तत्त्व है ‘अग्नि’। राख से ढके अङ्गारों या कोयलों पर समिधाएँ रख दी जाएँ, तो थोड़ा धुआँ छोड़कर अग्नि प्रज्वलित हो जाती है। अधिक ईंधन रखे जाने पर ऊँची-ऊँची ज्वालाएँ उठने लगती हैं। वे लाल-पीली-नीली ज्वालाएँ मानो  उत्थान का सन्देश देती हैं, ऊध्र्वारोहण का पाठ पढ़ाती हैं। इसके लिए भी सचेत करती हैं कि उत्थान तभी हो सकता है, जब मन-आत्मा में ज्वाला जले। उदासीन व्यक्ति, जिसके अन्दर कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं, कभी शिखर पर नहीं पहुँच सकता। दूसरा तत्त्व है ‘सूर्य’, जो सुसमिद्ध है, अग्नि की अपेक्षा भी अधिक प्रकाशमय और प्रकाशक है। सूर्य न केवल हमारी भूमि को, अपितु मंगल, बुध, बृहस्पति, चन्द्र आदि अन्य ग्रहों तथा उपग्रहों को भी प्रकाशित करता है, उन्हें जीवन-दान देता है, उन पर अपनी रश्मियों से प्राण बरसाता है। पार्थिव अग्नि भी सूर्य से ही जीवन पाती है, ज्वलन-शक्ति के लिए उसी पर निर्भर रहती है। वह सूर्य ‘वरेण्य’ है, सबके द्वारा वरणीय है। उसके प्रकाश की सबको अभीप्सा रहती है, ‘तमस्’ में पड़े रहना कोई नहीं चाहता। सूर्य अध्यात्म की तामसिकता को मिटा कर अन्त:प्रकाश पाने का भी संकेत करता है।

तीसरा जीवनदायक तत्त्व मन्त्र में ‘गायत्री’ कहा गया है। गायत्री छन्द त्रिपाद् है, तीनों चरण आठ-आठ अक्षर के होते हैं। ये तीन चरण पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ की सीढ़ी की सूचना देते हैं। हमें अष्टांग योग करते हुए पृथिवी से ऊपर उठकर अन्तरिक्ष के स्तर पर पहुँचना है, फिर अन्तरिक्ष के स्तर से भी ऊपर उठकर द्युलोक में पहुँचना है। गायत्री छन्द भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के उत्थान के जीवन का सन्देश देता है। चौथा तत्त्व है ‘अन्तः इन्द्रिय’ अर्थात् मन । मन के बिना कोई भी ज्ञानेन्द्रिय ज्ञान का प्याला नहीं पिला सकती। मन सजग न हो, तो मनुष्य आँख से देखते हुए भी वस्तुत: नहीं देखता, कान से सुनते हुए भी नहीं सुनता। मन से ही मनुष्य सङ्कल्प-विकल्प करता है। मन के बिना ज्ञान विज्ञान की प्राप्ति आकाश-कुसुम होती है। पाँचवाँ तत्त्व है। ‘गौ’, पुंलिङ्ग गौ का एक अर्थ निघण्टु कोष में ‘स्तोता’ भी है। अतः यह ‘गौ’ है, वेदगायक परमेश्वर, जो ‘त्र्यवि’ अर्थात्  शरीर, मन और आत्मा तीनों का रक्षक है। उसकी रक्षा की । डोर कट जाने पर तीनों निष्कर्म हो जाते हैं। शरीर को लकवा लग जाता है, मन कुण्ठित हो जाता है, अशिव सङ्कल्प करने लगता है, आत्मा म्लान हो जाता है। यह ‘गौ’ परमेश्वर समस्त उन्नतियों का, समस्त जीवनों का, समस्त जागृतियों का स्रोत है।

आओ, मन्त्रोक्त जीवनदायक सब तत्त्वों से हमें जीवन और जागृति पाकर भौतिक और आध्यात्मिक ऊध्र्वारोहण करते हुए अपने लक्ष्य पर पहुँचें।

पाद-टिप्पणियाँ

१सुसमिद्ध: सुष्ठु प्रकाशितः सूर्यः-द० ।

२. त्र्यविः त्रयाणां शरीरेन्द्रियात्मनाम् अवि: रक्षणं यस्मात् सः गौः स्तोताद० । गौ: =स्तोता, निघं० ३.१६ ।

जीवनदायक तत्व-रामनाथ विद्यालंकार 

यज्ञ सामग्री -रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ सामग्री -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः स्वस्त्यात्रेयः । देवता अग्न्यश्वीन्द्रसरस्वत्याद्या लिङ्गोक्ताः ।। छन्दः निवृद् अष्टिः।

होता यक्षसमिधाग्निमिडस्पदेऽश्विनेन्द्रसरस्वतीमजो धूम्रो न गोधूमैः कुवलैर्भेषजं मधु शर्यैर्न तेजऽइन्द्रियं पयः सोमः परित्रुता घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतंर्यज।।

-यजु० २१.२९

( होता ) हवनकर्ता (इडस्पदे ) यज्ञवेदि में ( समिधा ) समिधा द्वारा (अग्निं ) अग्नि को, (अश्विना ) अश्वियुगल को ( इन्द्रं ) इन्द्र को ( सरस्वतीं ) सरस्वती को ( यक्षत् ) हवन करे। (अजः ) अजशृङ्गी ओषधि, ( धूम्रः न ) और धुमैला गूगल (गोधूमैः ) गेहुओं के साथ और ( कुवलैः ) बेरों के साथ मिलकर ( भेषजं ) औषध होती है। ( शष्पैः न ) अंकुरित धानों के साथ ( मधु) मधुयष्टि, ( तेजः ) तेजपत्र, ( इन्द्रियं ) इन्द्रायण ओषधि, ( पयः ) दूध, (परित्रुता सोमः ) परिसुत रस के साथ सोम ओषधि, (घृतं ) घीवारी, (मधु) शहद, ये सब पदार्थ (व्यन्तु ) मिलें । ( होतः ) हे हवनकर्ता ! तू इनका और (आज्यस्य ) घृत का ( यज ) यज्ञ कर।।

‘होतृ’ शब्द ‘हु’ धातु से निष्पन्न होता है, जिसका प्रचलित अर्थ ‘आहुति देना है। धातुपाठ में यह धातु दान, भक्षण और आदान अर्थों में पठित है। यज्ञनिष्पादक को ‘होता’ इस कारण कहते हैं कि वह अग्नि में हवि का दान करता है, और हविर्दान से उत्पन्न प्राणदायक और रोगनिवारक सुगन्ध का भक्षण और ग्रहण करता है। इडा शब्द पृथिवीवाचक है, अतः इडस्पद का अर्थ होता है, भूमि पर बनी हुई यज्ञवेदि। होमकर्ता यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि का आधान करता है और घृत में डूबी हुई समिधाओं के आधान से अग्निप्रदीपन करता है। समिधाएँ पलाश, शमी, पीपल, बड़, गूलर, आम, बिल्व, चन्दन आदि वृक्षों की ली जाती हैं। होमद्रव्य संस्कारविधि में चार प्रकार के लिखे हैं-प्रथम सुगन्धित कस्तूरी, केसर, अगर, तगर, श्वेत चन्दन, इलायची, जायफल, जावित्री आदि; द्वितीय पुष्टिकारक घृत, दूध, फल, कन्द, अन्न, चावल, गेहूँ, उड़द आदि; तीसरे मिष्ट शक्कर, सहत, छुहारे, दाख आदि; चौथे रोगनाशक गिलोय आदि । मोहनभोग, मीठा भात, मीठी खिचड़ी, मोदक आदि के होम का भी विधान किया है। मोहनभोग बनाने की विधि लिखी है कि सेरभर मिश्री के मोहनभोग में रत्ती भरे कस्तूरी, माशेभर केसर, दो माशे जायफल और जावित्री डाले। प्रस्तुत मन्त्र में कहा गया है कि अजशृङ्गी, धुमैला गूगल, गेहूँ और बेर मिलाकर जो आहुति दी जाती है, वह उत्तम औषध होती है। अजशृङ्गी ओषधि के लिए अथर्ववेद में कथन है कि वह रोगकृमि रूप राक्षसों को अपनी गन्ध से नष्ट करती है। गूगल के विषय में अथर्ववेद में ही यह विशेषता बतायी गयी है कि इसकी धूनी जो लेता है, उसके पास से रोग भाग जाते हैं। उक्त हवियों के अतिरिक्त मन्त्र में अंकुरित धान, मधुयष्टि (मलहठी), तेजपत्र, इन्द्रायण, गोदुग्ध, अन्य ओषधियों के रस के साथ सोमलता, घीवारी और शहद की हवि भी उत्तम बतायी गयी हैं। इन सब हवियों से होता को घृताहुति के साथ यज्ञ करने की प्रेरणा दी गयी है। महीधर ने यहाँ ‘अज’ से बकरे और ‘धूम्र’ से मेष (मेंढा) पशुओं की आहुति का ग्रहण किया है, जो भ्रष्ट लीला है।

मन्त्रपठित जिन देवों का यजन करना है वे हैं अश्वियुगल, इन्द्र और सरस्वती । प्रकृति में अश्वियुगल हैं पृथ्वी-आकाश, इन्द्र है वायु और सरस्वती है जलधारा। यज्ञ द्वारा इन सबको सगन्धित करके पर्यावरण को शुद्ध करना है। सामाजिक दृष्टि से अश्वियुगल हैं गुरु-शिष्य, अध्यापक-उपदेशक, वैद्य शल्यचिकित्सक आदि युगल। इन्द्र राजशक्ति है, सरस्वती मातृशक्ति है। इनके लिए हवि देने का तात्पर्य है, इन्हें परिपुष्ट करना, इनकी स्थिति अच्छी करना।।

पाद-टिप्पमियाँ

१. अजभृङ्गि अज रक्षः सर्वान् गन्धेन नाशय। अ० ४.३७.२

२. न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते ।यं भेषजस्य गुल्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते ।। अ० १९.३८.१

यज्ञ सामग्री -रामनाथ विद्यालंकार 

अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार

अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता अश्वः । छन्दः भुरिग् विकृतिः ।

विभूर्मात्रा प्रभूः पित्राश्वोऽसिहयोऽस्यत्योऽसि मयोऽस्यवसि सशिरसि वयसि वृषसि नृमणऽअसि।ययुर्नामऽसि शिशुर्ना मास्यादित्यानां पत्वान्विहि देवाऽआशापालाऽएतं देवेभ्योऽश्वं मेधाय प्रोक्षितश्रक्षतेह रन्तिरिह रमतामिह धृतिरह स्वधृतिः स्वाहा ॥

-यजु० २२.१९

हे अश्वमेध के घोड़े! तू (विभूः ) व्यापक बलवाला है। ( मात्रा) माता पृथिवी से, (प्रभूः ) सामर्थ्यवान् है ( पित्रा ) पिता सूर्य से। (अश्वः असि ) तू अश्व है, ( हयः असि ) हय है, (अत्यः असि) अत्य है, (मयः असि ) मय है, (अर्वा असि ) अर्वा है, ( सप्तिः असि ) सप्ति है, (वाजी असि) वाजी है, (वृषा असि) वृषा है, (नृमणाः असि) नृमणाः है, (ययुः नाम असि ) ययु नामवाला है, ( शिशुः नाम असि ) शिशु नामवाला है। (आदित्यानां पत्वा ) सूर्यकिरणों के मार्ग से ( अन्विहि ) चल। ( आशापालाः देवाः ) हे दिशापालक विद्वानो ! ( देवेभ्यः मेधाय प्रोक्षितं ) विद्वानों के लिए यज्ञार्थ प्रोक्षण किये हुए (एनम् अश्वं रक्षत ) इस घोड़े की रक्षा करो। इसकी ( इह रन्तिः) यहाँ क्रीड़ा हो, यह (इह रमताम् ) यहाँ रमे। इसकी (इह धृतिः) यहाँ स्थिरता हो, (इहस्वधृतिः) यहाँ स्वेच्छानुरूप रुकना हो। (स्वाहा) यह कैसा सुवचन है। |

जो सम्राट् दिग्विजयी होना चाहता है, वह अश्वमेध करता है। अश्वमेध में घोड़ा छोड़ा जाता है। ऐसा घोड़ा लाया जाता है, जिसका अगला भाग काला और पिछला भाग सफेद हो, ललाट पर शकटाकार तिलक बना हो। वह बहुत मूल्यवान्, अतिवेगवान् ऐसा अद्वितीय होता है जिसकी जोट । का दूसरा मिलना दुष्कर होता है। उसमें बल-पराक्रम शतपथ ब्राह्मण के अनुसार माता पृथिवी और पिता सूर्य से आता है। इसीलिए मन्त्र के आरम्भ में कहा है कि हे अश्वमेध के घोड़े! तुझे अपनी माता से व्यापक शक्ति मिली है और पिता से विपुल सामर्थ्य मिला है। आगे अश्वमेध के अश्व के गुण-कर्म-स्वभाव बताने के लिए उसके पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख किया गया है कि तू ऐसे-ऐसे गुण कर्मोवाला और इन इन नामोंवाला है। तेरा नाम ‘अश्व’ है, क्योंकि तू विशाल मार्ग को तय करता है। तू ‘हय’ है, क्योंकि तू विशिष्ट चाल से चलता है। तू अत्य’ है, क्योंकि तू सतत गति से चलता रहता है, थकता नहीं। तू सुखगामी होने से और सवार को सुख देने के कारण ‘मय’ है। तू सर्वत्र गति और लक्ष्य पर पहुँचाने के कारण ‘अर्वा’ है। तू संग्रामों में समवेत या संलग्न होने के कारण ‘सप्ति’ है। बलवान् और वेगवान् होने से तू ‘वाजी’ कहलाता है। तू वीर्यवान् और वीर्यसेचक होने से ‘वृषा’ तथा नेताओं में मन के समान वेगगामी होने से नृमणाः’ कहलाता है। दुलकी चाल से चलने के कारण तू ‘ययु’ नाम से प्रसिद्ध है। मार्ग की धूलि को अपनी टाप के आघातों से सूक्ष्म करने के कारण तेरा नाम ‘शिशु’ है। जैसे सूर्यकिरणें आकाशमार्ग में चलती हैं, वैसे तू मार्ग पर चल। हे दिक्पालो ! आप लोग अश्वमेध के लिए प्रोक्षित इस अश्व की रक्षा करो। यह स्वतन्त्र रमण करे, इसे कोई पकड़ने का साहस न करे। यह स्वेच्छापूर्वक जहाँ चाहे विहार करे, जहाँ चाहे स्थिर हो। ‘स्वाहा’, हम इस अश्व की रक्षार्थ यज्ञाग्नि में आहुति देते हैं। यह दिग्विजय करके आयेगा, तब हमारे सम्राट् विश्वविजयी चक्रवर्ती राजा के रूप में विख्यात होंगे।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विभूर्मात्रा प्रभूः पित्रेति । इयं वै माताऽसौ पिता, आभ्यामेवैनं परिददाति ।श० १३.१.६.१

२. (अश्व:) योऽश्नुते व्याप्नोति मार्गान् स:-द० । (हयः) हय गतौ, शीघ्रगामी। (अत्यः) यः अतति सततं गच्छति सः-द० | अत सातत्यगमने। (मयः) सुखगामी सुखकारी च । ‘मय:=सुख’ निघं० ३.६। (अर्वा) ऋ गतिप्रापणयोः भ्वादिः । ऋच्छति सवेगं गच्छति लक्ष्य प्रापयति वा सोऽर्वा । (सप्तिः) यः सपति संग्रामैः समवैति सः, सप संबन्धे। (वाजी) वाज: बलं वेगो वा अस्यास्तीति वाजी। (वषा) वष सेचने, यो वर्षति सिञ्चति सः । (नमणाः) नष नेतष पदार्थेषु मन इव सद्योगामी-द० | नृणां मनुष्याणां यत्र मनः सः उवट। (ययुः ) यो याति सः-द० । (शिशुः) यः श्यति तनूकरोति स:-द०, शो तनूकरणे। (पत्वा) पतन्ति गच्छन्ति यत्र स पत्वा मार्गः ।।

अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार 

कार्य में तीव्रता लायें -रामनाथ विद्यालंकार

कार्य में तीव्रता लायें -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता ब्रह्मा । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

सशितो रश्मिना रथः सर्शितो रश्मिना हर्यः ।। सशितो अप्स्वप्सुजा ब्रह्मा सोमपुरोगवः ॥

-यजु० २३.१४

(संशित:१) तीव्र हो जाता है ( रश्मिना ) सूर्यकिरण से ( रथः) सौर रथ । ( संशितः ) तीव्र हो जाता है ( रश्मिना) लगाम से ( हयः) घोड़ा। ( संशितः ) तीव्र हो जाता है। (रश्मिना ) ज्ञानरश्मि से ( अप्सुजाः ) वाक्प्रवाहों में प्रसिद्ध, ( सोम-पुरोगवः२) यज्ञ का पुरोधा ( ब्रह्मा ) ब्रह्मा ( अप्सु) कर्मकाण्डों में।

बड़े सौभाग्य से हमें उत्तम कार्य करने के लिए मानव शरीर मिला है। समय न्यून है, कार्य बहुत है। अतः गति में तीव्रता लाने से ही कार्य पूर्ण हो सकता है। देखो, सौर विद्युत् से चलनेवाला भूयान, जलयान या विमान रूप रथ सूर्यरश्मि के प्रयोग से तीव्र हो जाता है। अश्वयान में जुता हुआ घोड़ा लगाम रूप रश्मि के खींचने और ढीला करने के संकेत से तीव्र गति से चलने लगता है। वेदपाठरूप वाक्प्रवाहों में प्रसिद्ध, यज्ञ का पुरोधा ब्रह्मा ज्ञानरश्मि से कर्मकाण्डों में तीव्र हो जाता है। तुम भी यदि अपने कार्य तीव्र गति से करना चाहते हो, तो रश्मि का प्रयोग करो। रश्मि और ज्योति पर्यायवाची हैं। राजर्षि जनक ने महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछा था कि मनुष्य के पास ज्योति कौन सी है—किंज्योतिरयं पुरुषः ? उनका संवाद इस प्रकार चला था-‘आदित्य ही मनुष्य के लिए ज्योति का काम करता है। आदित्य न हो तब? उस समय चन्द्रमा ज्योति होता है। चन्द्रमा भी न हो तब? तब अग्नि ज्योति होगी, दीपक या मशाल के प्रकाश में मनुष्य अपना कार्य कर सकेगा। अग्नि भी सुलभ न हो तब? तब वाणी ज्योति का काम करेगी। गुरुजनों की वाणी, महात्माओं की वाणी ही राह दिखाती है। वाणी भी सुलभ न हो तब? तब मनुष्य का अपना आत्मा ही ज्योति का काम करता है। आत्मा भी ज्योति देने में विफल रहे, तब परमात्मा ज्योति बनता है। अतः यदि तुम अपने कार्यों में सही दिशा में तीव्रता लाना चाहते हो, तो परमात्म-सूर्य की रश्मि को पकड़ो। उससे जो उजाला या अन्त:प्रकाश प्राप्त होगा, वह ज्योतियों की ज्योति का काम करेगा।” उस रश्मि को पकड़कर तुम राह नहीं भटकोगे, तुम्हारी गति में तीव्रता आयेगी और शीघ्र लक्ष्य पर पहुँच सकोगे।

याद रखो रश्मि से रथ में तीव्रता आती है, रश्मि से अश्व में तीव्रता आती है, रश्मि से ब्रह्मा के कर्मकाण्ड में तीव्रता आती है। तुम भी अपने सत्कायों में तीव्रता लाने के लिए ‘रश्मि’ प्राप्त करो।।

पादटिप्पणियाँ

१. संशितः–सं शो तनूकरणे।

२. सोमस्य यज्ञस्य पुरोगवः पुरोधाः। ‘यज्ञः सोमो राजा’-जै० ब्रा०१.२५९।।

कार्य में तीव्रता लायें -रामनाथ विद्यालंकार 

आत्मा की अमरता और मुक्ति का मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार

आत्मा की अमरता और  मुक्ति का मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः विराड् आर्षी जगती ।

न वाऽऽएतन्प्रिंयसेन रिष्यसि देवाँर ॥ऽइदेषि पृथिभिः सुगेभिः। यत्रासते सुकृतो यत्र ते युस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु ॥

-यजु० २३.१६

हे आत्मन् ! ( न वै उ एतत् ) न ही निश्चय से यह तू ( म्रियसे ) मरता है, (न रिष्यसि ) न तेरी हिंसा होती है। | ( सुगेभिः पथिभिः) सुगम योगमार्गों से (देवान्इत्एषि) दिव्यताओं को ही प्राप्त करता है। ( यत्र आसते ) जहाँ स्थित । हैं ( सुकृतः ) सुकर्मा जन, ( यत्र ते ययुः ) जहाँ वे गये हैं। ( तत्र ) उस मुक्तिलोक में (त्वा) तुझे (देवःसविता) प्रकाशक जगदुत्पादक परमेश्वर ( दधातु ) रखे।

हे मेरे आत्मा ! तू अमर है। न तुझे शस्त्र काट सकते हैं, न तुझे आग जला सकती है, न तुझे जल गला सकते हैं, न तुझे आँधी सुखा सकती है। तेरा शरीर मृत्यु को प्राप्त होता है, तू नहीं। तू कर्मानुसार मनुष्य, पशु, पक्षी आदि की योनि में जन्म ग्रहण करता है। जब पाप बढ़ जाता, पुण्य न्यून होता है, तब मनुष्य का जीव पश्वादि नीच शरीर में जाता है और जब धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून होता है, तब देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता है। और जब पुण्य-पाप बराबर होता है, तब साधारण मनुष्यजन्म होता है। इसमें भी पुण्य-पाप के उत्तम, मध्यम और निकृष्ट होने से मनुष्यादि में भी उत्तम, मध्यम, निकृष्ट शरीरादि होते हैं। नाना प्रकार जन्म मरण में तब तक जीव पड़ा रहता है, जब तक उत्तम कर्मोपासना-ज्ञान को करके मुक्ति को नहीं पाता।।। ।

परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म-अविद्या-कुसङ्ग कुसंस्कार, बुरे व्यक्तियों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय धर्म की वृद्धि करने, परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने-पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, सबसे उत्तम साधनों को करने इत्यादि साधनों से मुक्ति और इनसे विपरीत ईश्वराज्ञा भङ्ग करने आदि काम से बन्ध होता है।”

मुक्ति के विशेष साधन हैं विवेक, वैराग्य, षट्क सम्पत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान) और मुमुक्षत्व। ** जैसे सांसारिक सुख शरीर के आधार से भोगता है, वैसे परमेश्वर के आधार से मुक्ति के आनन्द को जीवात्मा भोगता है। वह मुक्त जीव अनन्त व्यापक ब्रह्म में स्वच्छन्द घूमता, शुद्ध ज्ञान से सब सृष्टि को देखता, मुक्तों के साथ मिलता, सृष्टिविद्या को क्रम से देखता हुआ सब लोकलोकान्तरों में अर्थात् जितने ये लोक दीखते हैं और नहीं दीखते उन सब में घूमता है। जितना ज्ञान अधिक होता है, उसको उतना ही आनन्द अधिक होता है। मुक्ति में जीवात्मा निर्मल होने से पूर्ण ज्ञानी होकर उसको सब सन्निहित पदार्थों का भान यथावत् होता है। यही सुखविशेष ‘स्वर्ग’ और विषय-तृष्णा में फँसकर दु:खविशेष भोग करना ‘नरक’ कहाता है।’५

हे मेरे आत्मन् ! तू सुगम योगमार्गों पर चल, योगाभ्यास से तुझे दिव्य शक्तियाँ प्राप्त होंगी और तू मुक्त होकर उस ब्रह्म में स्थित हो सकेगा, जिसमें पूर्व सुकर्मा मुक्तात्माएँ स्थित हैं। जहाँ पूर्व सुकर्मा जन जा चुके हैं, उस मुक्तिलोक में तुझे प्रकाशमान सविता प्रभु ले जाये। तेरा प्रयास और प्रभुकृपा दोनों मिलकर तुझे अवश्य सफलता प्राप्त करायेंगे।

पाद-टिप्पणियाँ

१. रिष हिंसार्थः, दिवादिः ।

२. (देवः) स्वप्रकाश: (सविता) सकलजगदुत्पादकः परमेश्वर:-२० ।

३-५. स० प्र०, समु० ९

आत्मा की अमरता और  मुक्ति का मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार 

वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार

वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः। देवता परमात्मा आचार्यश्च । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

दधिक्राव्णोऽअकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।। सुरभि नो मुखा करत्प्र णूऽआयूछषि तारिषत् ॥

-यजु० २३.३२

हमने ( दधिक्राव्णः ) धारण करनेवाले तथा आगे बढानेवाले, (जिष्णोः ) विजयशील, ( अश्वस्य ) व्यापक ज्ञानवाले, ( वाजिनः ) बलवान् परमेश्वर तथा आचार्य की (अकारिषम् ) स्तुति की है। वह ( नः मुखा) हमारे मुखों को ( सुरभि ) सुगन्धित (करत् ) करे, और (नः आयूंषि ) हमारी आयुओं को ( प्रतारिषत् ) बढ़ाये ।।

आओ, दधिक्रावा वाजी ‘अश्व’ की स्तुति करें। वह हमारे मुखों को सुरभित करेगा और हमारी आयुओं को बढ़ायेगा। क्या कहा? दधिक्रावन्, वाजिन् और अश्व ये तीनों तो घोड़े के पर्यायवाची नाम है। घोड़ा कैसे हमारे मुख सुरभित करेगा और कैसे हमारी आयु बढ़ायेगा ? रहस्यार्थ कुछ और ही प्रतीत होता है। ये तीनों नाम आचार्य और परमेश्वर के भी हैं। आचार्य दधिक्रावा’ है, क्योंकि वह ब्रह्मचारी को गर्भ में धारण करने के कारण ‘दधि’ और उसे उद्यमी और क्रियाशील बनाने के कारण ‘क्रावा’ है। परमेश्वर जगत् को धारण करने के कारण ‘दधि’ और मनुष्य को सक्रिय करने के कारण ‘क्रावा’ है । आचार्य और परमेश्वर दोनों को ‘वाजी’ इस हेतु से कहते हैं कि दोनों ज्ञान के बल से बली हैं। आचार्य को ‘अश्व’ कहने में यह कारण है कि वह गुरुकुल-रूप रथ का सञ्चालक तथा व्यापक ज्ञानवाला होता है और परमेश्वर सर्वव्यापक होने से ‘अश्व’ कहलाता है। आचार्य और परमेश्वर दोनों के लिए मन्त्र में ‘जिष्णु’ विशेषण भी प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि दोनों विजयशील हैं। आचार्य ब्रह्मचारी के अज्ञान पर विजय पाता है और परमेश्वर सब दुर्गुणी राक्षसों और दुर्गुणों पर विजयी होता है।

स्तोता कह रहा है कि मैं आचार्य और परमेश्वर रूप अश्व की स्तुति करता हूँ, उनके गुणों का कीर्तन करता हूँ तथा उनमें से जो गुण मेरे धारण करने योग्य हैं, उन्हें मैं भी धारण करता हूँ। ब्रह्मचारी का कर्तव्य है कि वह अपने आचार्य का यथायोग्य सम्मान करे, उसके पढ़ाये हुए पाठ को स्मरण करे, उसके उपदेशों का पालन करे । ब्रह्मचारी आचार्य से सीख कर जब वेदमन्त्र, शिक्षाप्रद श्लोक, सूक्तियों आदि का उच्चारण करते हैं और ज्ञान की बातें बोलते हैं, तब उनसे उनके मुख सुरभित होते हैं। आचार्य उनसे यथायोग्य व्यायाम तथा प्राणायाम आदि योगक्रियाएँ करा कर उनके शरीरों को बलवान् बनाता है, जिससे उनकी आयु बढ़ती है। परमेश्वर अपने स्तोताओं को ‘श्रेष्ठ ज्ञान तथा सदाचार’ में प्रवृत्त करता है तथा उन्हें सर्वचन बोलने की प्रेरणा करता है, दूसरों की निन्दा आदि से बचाता है। इस प्रकार वह उनके मुखों को सुगन्धित करता है। वह उन्हें सत्कर्मों में प्रवृत्त कर तथा दुर्व्यसनों से हटा कर उनकी आयु को भी बढ़ाता है। |

आइये, हम भी आचार्य और परमेश्वर रूप · अश्व’ की स्तुति-उपासना करके अपने मुखों को सुरभित करें और दीर्घायुष्य प्राप्त करें।

पादटिप्पणियाँ

१. मुखा=मुखानि । सुरभि=सुरभीणि । ‘शेश्छन्दसि बहुलम्’ पा० ६.१.७० । | करत्-कृ धातु लेट् लकार, करोतु । प्रतारिषत्-प्र पूर्वक तृ धातुवर्धनार्थक होती है, लेट् लकार।

२. निघं० १.१४

३. गर्भे दधातीति दधिः, क्रमर्यात क्रियाशीलं करोतीति क्रावा। दधिश्चासौक्रावा चेति दधिक्रावा ।

४. दधाति जगद् यः स दधिः, क्रमयति सक्रियं करोतीति क्रावा।दधिश्चासौ क़ावा चेति दधिक्रावा ।

वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार 

बकरा घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार

बकरा  घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गोतमः। देवता यज्ञः । छन्दः निवृद् जगती।

एष छार्गः पुरोऽअश्वेन वाजिन पूष्णो भूगो नीयते विश्वदेव्यः। अभिप्रियं यत्पुरोडाशमर्वता त्वष्टेदेनसौश्रवसाय जिन्वति

-यजु० २५.२६

 (एषः ) यह (विश्वदेव्यः१) सब इन्द्रियों का हितकर्ता ( छागः२) विवेचक मन (वाजिनाअश्वेन) बलवान् कर्म फलभोक्ता जीवात्मा के साथ ( पूष्णः भागः ) पोषक परमेश्वर का भक्त बनकर उसके प्रति ( नीयते ) ले जाया जा रहा है। ( अर्वता ) पुरुषार्थी जीवात्मा के साथ ( अभिप्रियं) परमेश्वर को प्रसन्न करनेवाले ( पुरोडाशं ) हविरूप ( यत् ) जिस मन को और ( एनं ) इस जीवात्मा को ( त्वष्टा ) सृष्टिकर्ता परमेश्वर ( इत् ) निश्चय ही ( सौश्रवसाय ) उत्तम यश के लिए (जिन्वति) तृप्त करता है।

आओ, बकरे को घोड़े के सिर में बाँध कर ‘पूषा’ के पास ले चलें। ये बकरा और घोड़ा पशुपति पूषा के पास जाकर उसकी भक्ति करेंगे। किन्तु कहीं आप इन्हें सचमुच का बकरा और घोड़ा पशु मत समझ लेना। बकरे का वाचक शब्द मन्त्र में छाग’ है। छाग शब्द छेदनार्थक ‘छो’ धातु से बनता है। मनुष्य के मन को भी छाग’ कहते हैं, क्योंकि मन किसी गूढ़ सन्दर्भ की काट-छाँट या विवेचना करके विवक्षित भाव को निकालता है। ‘अश्व’ शब्द भोजनार्थक क्रयादिगणी अश धातु से बना है, जिसका अर्थ यहाँ कर्मफलभोक्ता जीवात्मा है। अति बलिष्ठ होने के कारण वह ‘वाजी’ कहलाता है। पूषा’ पोषक परमेश्वर का नाम है। मनुष्य अपने मन और आत्मा को पूषा परमेश्वर के सान्निध्य में ले जाकर उसकी उपासना  करते हैं, तो वे भी पूषा परमेश्वर के पोषण गुण से युक्त हो जाते हैं। वे स्वयं परिपुष्ट और शक्तिशाली होकर अन्यों को भी पोषण प्रदान करते हैं। इस प्रकार पुष्टि का साम्राज्य सर्वत्र छा जाता है। पूषा’ परमेश्वर के साथ-साथ मनुष्य के मन और आत्मा त्वष्टा’ परमेश्वर की भी उपासना करते हैं, जो सृष्टि का रचयिता अद्भुत शिल्पकार है। त्वष्टा की उपासना से मनुष्य के मन और आत्मा भी शिल्पकार और अद्भुत कारीगर हो जाते हैं। मन और आत्मा मिलकर स्वान्त:सुख तथा परसुख के लिए सत्साहित्य की सृष्टि करते हैं, जनहित के लिए तरह तरह के उपयोगी यन्त्र, यान, ओषधि, चिकित्सा के उपकरण, ज्ञानवर्धन तथा मनोरञ्जन के साधन आदि का आविष्कार करते हैं। मन और आत्मा त्वष्टा प्रभु के पुरोडोश (समर्पणीय हवि) बन जाते हैं, त्वष्टा प्रभु को आत्मसमर्पण कर देते हैं। इनके आत्मसमर्पण से सन्तष्ट होकर त्वष्टा’ इन्हें सौश्रवस अर्थात सुकीर्ति से संतृप्त कर देता है। |

आओ, हम भी अपने बकरे और अश्व अर्थात् मन और आत्मा को पूषा और त्वष्टा देव के प्रति ले जायें तथा उन दोनों के गुण-कर्मों से संतृप्त होकर स्वयं को कृतार्थ करें।

पादटिप्पणियाँ

१. विश्वेभ्यो देवेभ्यः इन्द्रियेभ्यो हित: विश्वदेव्यः ।

२. छ्यति छिनत्ति विविनक्ति विषयान् यः स छाग: मनः । छो छेदने,दिवादिः ।।

३. अश्नाति कर्मफलानि भुङ्के यः सोऽश्व: जीवात्मा। (अश्वः कस्मात् ?अश्नुते ऽध्वानं महाशनो भवतीति वा, निरु० २.२८) ।

४. ऋच्छति गच्छति पुरुषार्थी भवतीति अर्वा ।।ऋ गतौ, वनिप् प्रत्यय उ० ४.११४।।

५. पुर: अग्रे दायते दीपते इति पुरोडाशः हविः ।| पुरस्-दाशे दाने।।

६. श्रूयते इति श्रवः यशः, शोभनं श्रवः सुश्रवः, सुश्रवसो भावः सौश्रवसम्।

७. जिवि प्रीणने, भ्वादिः ।

बकरा  घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार