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आदि सृष्टि के मनुष्यो की भाषा क्या थी और भाषा का विस्तार कैसे हुआ ?

भाषा की उत्पत्ति :

मानव जिस समय पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ उस समय बोलने और समझने की शक्ति समपन्न अवस्था थी – यह निर्देश पहले भी किया जा चुका है की आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था के उत्पन्न होते हैं – इसलिए उनमे बोलने की शक्ति थी तो यह भी मानना होगा की वर्ण भी थे जिनके द्वारा वह अपनी वाणी को प्रकट कर सके। यदि कोई यह माने की वर्ण नहीं थे तो उसके साथ यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा की मनुष्य आदिम अवस्था में गूंगा उत्पन्न हुआ। यदि गूंगा उत्पन्न हुआ तो फिर वह किसी भी हालत में बोलने वाला नहीं हो सकता। इसलिए निष्कर्ष यही निकलेगा की उसमे बोलने की शक्ति थी और जब बोलने की शक्ति थी तो ये भी तथ्यात्मक है की जो भाषा वो बोले उनके वर्ण भी होने चाहिए।

जो लोग कहते हैं की सेमिटिक भाषाए, हीब्रू अथवा अरबी आदि आर्य भाषाओ से स्वतंत्र हैं वह गलती पर हैं, कारण की मनुष्य किसी नवीन भाषा को तो कभी बना ही नहीं सकता ?

क्योंकि मैथुनी (सेक्स) सृष्टि के लोगो की भाषा सदैव उनके मातापिता तथा गुरु की भाषा होती है। लेकिन आदि मनुष्यो की भाषा पूर्ण (संस्कृत) भाषा ही थी ऐसा नियम इसलिए मान्य है क्योंकि आदि मनुष्यो का माता पिता और गुरु ईश्वर के अतिरिक्त और कोई थे ही नहीं। तो ऐसी स्थति में और कोई देशीय भाषा विरासत में मिलना असंभव है – तो साफ़ है उनकी केवल वही भाषा होगी जो सृष्टि के पदार्थो में विद्यमान हो – परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर प्रकट किये जाने वाले ज्ञान के पूर्ण माध्यम होने की उस भाषा में क्षमता हो और वह ऐसी भाषा होनी चाहिए जो सदा प्रत्येक कल्प में एक सी रहती हो तथा आगे बोल चाल की समस्त भाषाओ को उत्पन्न करने में सक्षम हो। विशेष बात यह है की वो किसी देश विदेश की भाषा न हो और न उससे पूर्व कोई ज्ञान वा भाषा पृथ्वी पर कहीं मौजूद हो

बस यही बात है जो विशेष वर्णन के योग्य है की परमेश्वर ने मानव के पृथ्वी पर आने के साथ ही साथ वेद ज्ञान की प्रेरणा मनुष्य में दी – और वह वेद की भाषा “संस्कृत” में ईश्वरीय ज्ञान मानव को मिला जो आदि ज्ञान और आदि भाषा – दोनों था।

वाणी भाषाओ का विस्तार –

ऊपर जो कुछ दर्शाया गया है उसका भाव यह है की आदि अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के शरीर तथा शरीर के सब अंग आदि आदर्श रुपी थे, जैसे वो आदि सृष्टि के मनुष्य मैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के लिए साँचे रुपी थे अर्थात मनुष्य समाज के प्रवर्तक थे वैसे ही आदि भाषा भी साँचा रुपी और सभी भाषाओ की प्रवर्तक होनी चाहिए। इसीलिए उस आदि भाषा का नाम संस्कृत है। संस्कृत का अर्थ होगा पूर्ण भाषा यानी जो पूर्ण भाषा हो वो संस्कृत कहलाएगी।

इसी प्रकार अपूर्ण भाषाए जो वेद भाषा से संकोच, अपभ्रंश और मलेच्छित आदि होकर मनुष्य के बोल चाल की भाषाए बनती हैं। क्योंकि संस्कृत भाषा के दो भाग हैं –

1. वैदिक संस्कृत
2. लौकिक संस्कृत

प्राय सभी पश्चिमी विद्वान और अनेक भारतीय अनुसन्धानी भी संस्कृत को ही सभी भाषाओ का मूल मानते हैं – पर ध्यान देने वाली बात है की लौकिक संस्कृत की जन्मदात्री वैदिक संस्कृत है। वैदिक संस्कृत ही आदि भाषा है क्योंकि वैदिक संस्कृत अर्थात वेद की भाषा कभी भी किसी भी देश वा किसी जाती की अपने बोलचाल की भाषा नहीं रही है – क्योंकि वेदो में वाक्, वाणी आदि पदो का प्रयोग देखा जाता है भाषा का नहीं।

अब हम समझते हैं भाषा का विस्तार किस प्रकार हुआ – देखिये वेद में वैदिकी वाणी को नित्य कहा है –

तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया।

(ऋग्वेद 8.75.6)

नित्यया वाचा – अर्थात नित्य वेदरूप वाणी – यानी की वैदिक संस्कृत यह सब वाणियों (भाषाओ) की अग्र और प्रथम है –

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्नं

(ऋग्वेद 10.71.1)

प्रभु से दी गयी वेदवाणी ही इस सृष्टि के प्रारंभिक शब्द थे।

ईश्वर की प्रेरणा से यह वाणी सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकट होती है।

यज्ञेन वाचः पदवीयमायणतामानवविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्।

(ऋग्वेद 10.71.3)

प्रभु अग्नि आदि को वेदज्ञान देते हैं इससे अन्य यज्ञीय वृत्तिवाले ऋषियों को यह प्राप्त होती है – इसी मन्त्र में आगे लिखा है –

इस ही प्रथम, निर्दोष और अग्र वाणी को लेकर लोग बोलने की भाषा का विस्तार करते हैं।

तामाभृत्या व्यदधुः पुरूत्रा तां सप्त रेभा अभी सं नवंते।।

(ऋग्वेद 10.71.3)

इस वाणी को ऋषि मानव समाज में प्रचारित करते हैं। यह वेदवाणी सात छन्दो से युक्त है अर्थात २ कान – २ नाक – २ आँख और एक मुख ये सात स्तोता बनकर इसे प्राप्त करते हैं –

उपरोक्त प्रमाणों और तथ्यों से सिद्ध होता है की मनुष्य की एक ही भाषा थी – और मनुष्यो ने इसी वेद वाणी से अर्थात प्रथम व पूर्ण भाषा संस्कृत से – अपूर्ण भाषाए – अर्थात जितनी भाषाए आज प्रचलित हैं उनका निर्माण किया – लेकिन वैदिक संस्कृत में आज भी कोई फेर बदल नहीं हो सका – क्योंकि वैदिक संस्कृत पूर्ण भाषा है –

कृपया सत्य को जानिये –

वेद की और लौटिए —

वेद, विज्ञानं, और सृष्टि उत्पति के युवा मनुष्य

नमस्ते मित्रो,

अमैथुनी सृष्टि के मनुष्य कैसे और किस अवस्था में उत्पन्न हुए होंगे ?

जैसे की आपने विषय पढ़ा – जो बहुत ही गूढ़ है – फिर भी हम कोशिश करेंगे इस विषय पर ध्यान रखकर – वेदो के विज्ञानं को समझने की – वेदो के अनुसार आदि सृष्टि अमैथुनी होती है – पहले समझते हैं ये अमैथुनी सृष्टि क्या है ?

अमैथुनी सृष्टि से अभिप्राय उस सृष्टि से है जिसमे जीवो के शरीर बिना मैथुन (सेक्स) द्वारा उत्पन्न होते हैं – ऐसे शरीर उत्पन्न होने के बाद ही मैथुनी सृष्टि – अभी जो आप देख रहे इस प्रकार संतति उत्पन्न करने वाली होती है।

अब कुछ लोग सोचेंगे – जब प्रकृति का नियम ही मैथुनी सृष्टि से है तो फिर किसप्रकार और क्यों अमैथुनी सृष्टि होती है ? कुछ सोचेंगे ऐसा कैसे हो सकता है ? कुछ कहेंगे वेद सदा ही ज्ञान विज्ञान और तर्क की कसौटी पर किसी तथ्य को कसता है मगर यहाँ अमैथुनी सृष्टि के लिए कौन सा विज्ञानं और तर्क है ? कुछ भाई बिना कुछ सोचे विचार ही इस पोस्ट को लाइक कर देंगे और कमेंट में अपने विचार भी प्रकट नहीं करेंगे –

खैर पहले हम जांच करते हैं की अमैथुनी सृष्टि किस प्रकार होती है :-

हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते ।यद्यस्य सोऽदधात्सर्गे तत्तस्य स्वयं आविशत् ।।

अर्थ : हिंस्रकर्म-अहिंस्र, मृदु (दयाप्रधान) क्रूर, धर्म घृत्यादि-अधर्म, सत्य असत्य, जिसका जो कुछ (पूर्वकल्प का) स्वयं प्रविष्ट था, वह वह उस उस को सृष्टि के समय उस (ईश्वर) ने धारण कराया। (२९)

यथा र्तुलिङ्गान्यृतवः स्वयं एव र्तुपर्यये ।
स्वानि स्वान्यभिपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनः।।

अर्थ : जैसे वसंत आदि ऋतुएँ अपने अपने समय में निज निज ऋतु चिन्हो को प्राप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्यादि भी अपने अपने कर्मो को पूर्व कल्प के बचे कर्मानुसार प्राप्त हो जाते हैं। (३०)

(मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक २९-३०)

जिस प्रकार प्रलय काल में सभी जीव सुषुप्ति की अवस्था में गहन निद्रा में होते हैं, जैसे ही सृष्टि का समय आता है ईश्वर जीव के पूर्व कल्प के कर्मो अनुसार उचित फल देकर आदि सृष्टि में उत्पन्न उचित देह द्वारा फल भोग करवाते हैं।

अब सवाल उठेगा ये देह कैसे बनेगी ?

तो उसका जवाब है –

महर्षि मनु ने जो ऋतुओं की उपमा देकर आदि अमैथुनी सृष्टि का वर्णन किया है, यह बहुत ही सारगर्भित है, महर्षि का आशय कुछ इस प्रकार है जैसे ऋतुओं के चिन्ह बिना श्रम विशेष स्वाभाविक ही प्रगट होने लगते हैं। वसंत ऋतू में वृक्षों में वह खमीर गर्मी सर्दी के नियत प्रभाव से उत्पन्न होने लगता है और सर्वत्र बाग़ खिले फूलो से भर जाता है। भूमि की गर्मी सर्दी के प्रभाव से ऐसी दशा स्वयमेव ही हो जाती है की स्वयं ही शंखपुष्पी आदि अनेक फूलवाली औषधीय निकल आती हैं।
ठीक ऐसे ही वसंत ऋतू में भूमि को यदि गर्भाशय मान ले तो कोई संशय नहीं होगा क्योंकि ऋतुओं के परिवर्तन का कारण जल गर्मी की कमीबेसी इसी प्रकार आदि सृष्टि के समय पर पृथ्वी अत्यंत गर्म होती है ऐसा ब्राह्मण ग्रन्थ भी कहते हैं और हाल के वैज्ञानिक भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं –

एक अवस्था में पृथ्वी और द्यौ साथ थे :

इमौ लोको सह सन्तौ व्यैताम। जै० ब्रा० १।१४५

इमौ वै लोको सहास्ताम्। एत० ब्रा० ७।१०।१

शतपत ब्रा० (७।१।२२३) आदि अनेक ब्राह्मण ग्रन्थ में श्लोक पाये जाते हैं जिनका
अर्थ है सूर्य और पृथ्वी पहले साथ ही साथ थे। बाद में पृथक हुए

इमौ वै सहास्ताम। ते वायु वर्यवात। तै० शा० ३।४।३

जब पृथ्वी सूर्य से अलग हुई तब बहुत गर्म थी इस हेतु उसमे मनुष्यादि प्रजा का उत्पन्न होना विज्ञानं सम्मत नहीं होता – इसलिए पृथ्वी का उचित तापमान बनाने हेतु वर्षा की गयी और उचित समय पर पृथ्वी और जल के संपर्क से मनुष्य आदि की उत्पत्ति से तीन चतुर्युगी पूर्व वृक्ष औषधियां आदि उत्पन्न हुई –

या औषिधी पूर्वा जाता देमयस्त्रियुग पुरा।
मनै नु बभ्रूणामह शत धामानि सप्तच।।
(ऋग्वेद 10.97.1)

औषधियां मनुष्य से तीन चतुर्युगी पूर्व उत्पन्न होती हैं।

ये सिद्धांतभूत नियम है जो वेदो में इस विज्ञानं के सम्बन्ध में पाये जाते हैं।

सिद्धांतो को लेकर ब्राह्मण आदि ग्रंथो में विस्तार और क्रम आदि दिखलाया गया है।

तस्मादात्मन आकाश सम्भूत। आकाशाद्वायु। वायोरग्नि। अग्नेराप। अदभ्य पृथ्वी। पृथिव्या औषधय। औश्विम्यो न्नम्। अन्नात्पुरुष।
तै० उ० 2.1

अर्थ : परमात्मा की निमित्तता से प्रकृति से आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु। वायु से अग्नि और अग्नि से जल। जल से पृथ्वी और पृथ्वी से औषधीय। इनसे अन्न और अन्न से पुरुष उत्पन्न हुआ।

यह एक वैज्ञानिक क्रम है जो उपनिषद में वर्णित है।

तो पृथ्वी में आदि सृष्टि के मनुष्य आदि प्रजा उत्पन्न करने के लिए वसंत आदि ऋतू में गर्भ आदि का उचित तापमान जब आया तब ईश्वर ने “वीर्य” को गर्भ (पृथ्वी) में धारण करवाया।

यहाँ वीर्य उस सामग्री का नाम है जो गर्भ में भ्रूण बनाने में उपयोगी पदार्थ विद्या है – जैसे वीर्य में अनेक गुण (प्रॉपर्टीज) होती हैं – वैसे ही रज में होते हैं – और गर्भ में उचित तापमान होता है जिससे गर्भ में भ्रूण बनता है।

यदि हमें ४ लोगो का भोजन बनाना हो – तो नमक हल्दी मिर्च आदि मसाला – सामान्य ही उपयोग होगा – परन्तु यदि ज्यादा लोगो का खाना बनाना हो तो अवश्य ही ज्यादा हल्दी मिर्च आदि मसाला प्रयुक्त होगा – ठीक इसी प्रकार जब आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था में उत्पन्न होते हैं – तब उत्तम और उचित वीर्य से उस अवस्था के मनुष्य उत्पन्न होते हैं – यदि विज्ञान रज-वीर्य आदि के गुण (प्रॉपर्टीज) ठीक प्रकार जांच लेवे तो विज्ञानिक स्वयं स्वतंत्र रूप से वीर्य का निर्माण कर सकते हैं मगर ऐसा होना अभी हाल के अनुसन्धानियो द्वारा संभव नहीं मगर विज्ञानं ने इतनी तरक्की तो कर ही ली है की “कृत्रिम गर्भ” को बना सके। आने वाले कुछ वर्षो में शायद ये तकनीक ठीक काम करने लगे –

http://en.wikipedia.org/wiki/Artificial_uterus

ठीक इसी प्रकार यदि रज और वीर्य आदि के गुण धर्म (प्रॉपर्टीज) भी ज्ञात कर लेवे तो स्वतंत्र वीर्य – विज्ञानिक स्वयं निर्माण कर सकते हैं। और उचित समय पर जब गर्भ (पृथ्वी) में मनुष्यादि देह में जीव का संयोग ईश्वर को करना होता है तब विद्युत अग्नि आदि से जीव का शरीर से संयोग होता है और जगत में मनुष्य आदि प्रकट होते हैं।

आपो ह यादवृहतीविशवमायन गर्भदयाना जनयतिरग्निम्। (ऋग्वेद म. १० सूक्त १२१ मन्त्र ७)
कारण भूत जले गर्भ में अग्नि को धारण करती हुई विश्व को प्रकट करती हैं।

अब कुछ लोग सोचेंगे – ये युवा अवस्था में ही क्यों आदि सृष्टि मनुष्य उत्पन्न होते हैं ? तो मित्रो इसका बहुत ही सुन्दर और सरल जवाब ऋषिवर दयानंद ने दिया है –
ऋषि ने सत्यार्थ में इस सवाल का जवाब दिया है –

“आदि सृष्टि में मनुष्य युवावस्था में उत्पन्न होता है क्योंकि जो बालक उत्पन्न होता तो उसके पालन के लिए दूसरे मनुष्य आवश्यक होते और जो वृद्धावस्था में उत्पन्न करता तो मैथुनी सृष्टि न होती। इसलिए युवावस्था में ही आदि सृष्टि मनुष्य उत्पन्न होते हैं।

तनिक विचार किया जाए तो ये बात सिद्ध भी सही होती है और ऊपर के लेख में वैज्ञानिक और तार्किक रूप से यही सत्य सिद्धांत समझाने का प्रयास किया गया है =

किसी भी लेख में भूलचूक होना स्वाभाविक है – कृपया लेख को पढ़कर अपने सुझाव और परामर्श अवश्य देवे – यदि कोई त्रुटि रह गयी हो तो क्षमा करे

लौटो वेदो की और

नमस्ते

वेद का सार्वभौमिक सिद्धांत बाइबिल में – आदम हव्वा का सिद्धांत झूठा है

बाइबिल में भी – अनेक मनुष्यो की उत्पत्ति है
आदम हव्वा का सिद्धांत झूठा है

अब जहाँ तक हम देखते हैं – वेद का विज्ञानं ही पूरी दुनिया में था –
और जितने भी मत निकले हैं – वो सभी वेद से ही कुछ सत्य बात निकालकर –

बाकी अपने मतलब की बाते ठूस कर दुनिया को मुर्ख बनाने हेतु – प्रपंच रचने को बनाये हैं – उसके लिए सबूत देखिये –

1.  ईसाई कहते है –

आदम और हव्वा दो ही मनुष्य उत्पन्न हुए – बाकी सब उनके बाद पैदा हुए – यानी आदम और हव्वा से ही सभी मनुष्य प्रजाति निकली।

लेकिन क्या ये सच है ?

देखिये वैज्ञानिक आधार पर – सभी मनुष्य के जेनेटिक सिस्टम अलग अलग हैं –

डीएनए अलग अलग पाये गए हैं – ऐसा कभी नहीं होता की एक ही माता पिता की संतान अलग अलग डीएनए की हो – ये तो हुआ वैज्ञानिक आधार –

अब थोड़ा – बाइबिल को जांच ले –

बाइबिल में भी – अनेक मनुष्यो की उत्पत्ति है – न की केवल एक आदम और हव्वा की – ये तो मुर्ख बनाने को शिगूफा छोड़ रखा है ईसाइयो ने – ताकि अपनी हवस पूर्ति करते रहे – अपने ही बहनो और बेटियो के साथ व्यभिचार करते रहे –

ये बहुत ही गलत बात है की ईसाई सुनी सुनाई मनगढ़ंत बात को सच मान लेते हैं – देखिये – आदम और हव्वा से अलग – अनेक मनुष्य – ईश्वर ने रचे थे – ये बात बाइबिल खुद स्वीकार करती है – देखिये –

आदम और हव्वा केवल एक स्त्री और एक पुरुष ईश्वर ने रचा –

इनके दो पुत्र हुए – कैन और हाबिल

अब हाबिल को कैन ने मार दिया – और जमीन में गाढ़ दिया – तब यहोवा ने कैन को बड़ा फटकारा – और कैन ने क्षमा याचना करते हुए कहा –

“यदि कोई मनुष्य मुझे पायेगा तो मार डालेगा”
(उत्पत्ति ४:१४)

– तब यहोवा ने कैन को आशीर्वाद दिया – जाओ अगर कोई तुमको मारेगा तो मैं उसे कठोर दंड दूंगा – और कैन के ऊपर यहोवा ने एक चिन्ह बना दिया – ताकि सभी मनुष्य जान ले की कैन को कोई ना मारे –

उपरोक्त बातो से साफ़ है – जब यहोवा ने केवल आदम और हव्वा बनाई और उनके दो ही बच्चे हुए – एक को दूसरे ने मार दिया – तब उसे (कैन) को अनेक मनुष्यो का डर क्यों सताया ?

जाहिर है – आदम और हव्वा अकेले नहीं थे – और भी मनुष्य थे – आइये एक और प्रमाण देखते हैं।

“कैन का परिवार” (उत्पत्ति ४:१६)

देखिये आपको पहले ही बताया की – यहोवा ने केवल आदम और हव्वा बनाई – आदम और हव्वा से – कैन – हाबिल हुए – कैन ने हाबिल को मार दिया – अब केवल कैन बचा – तो फिर कैन का परिवार कहाँ से आया ?

कैन यहोवा को छोड़ नोद देश चला गया। कैन ने अपनी पत्नी के साथ शारीरिक सम्बन्ध किया – और फिर कैन ने एक शहर बसाया –

तो मित्रो – एक बात समझ आई ? कैन यहोवा के पास से जब गया तब उसकी पत्नी नहीं थी – यानी कैन जब नोद देश गया – तो वहां की लड़की से शादी की – यानी की आदम और हव्वा से अलग भी मनुष्य उत्पन्न हुए थे – ये सिद्ध हुआ।

अब फिर भी कुछ अतिज्ञानी मानेंगे नहीं – उनको एक बार फिर प्रमाण दे दू
आदम और हव्वा को एक और पुत्र हुआ (उत्पत्ति ४:२५)

और ये पुत्र अब – कैन के विवाह के बाद हुआ है – ध्यान रहे – इस दौरान आदम और हव्वा को कोई पुत्री नहीं हुई –

तो कैन ने जिस लड़की से विवाह किया वो क्या हवा से टपक गयी ?

मेरे ईसाई मित्रो – इस पाखंड से बाहर आओ –

सत्य को जानो

ईश्वर को जानो – पाखंड को त्यागो

लौटो वेदो की और

वेद और मनुस्मृति का मूल

कुछ पौराणिक महाज्ञानी और अल्पबुद्धि लोग दोनों ही कुछ दिनों से एक विषय पर वार्तालाप करते चले आ रहे हैं, विषय है या सवाल है कुछ भी है वो इस प्रकार है –

मनुस्मृति का मूल वेद में कहाँ है ?

इस सवाल का जवाब देने से पूर्व हम देखते हैं मूल का अर्थ क्या होता है ?

मूल का अर्थ होता है आधार, बुनियाद, जड़, आदि। यानी इस सवाल को इस प्रकार समझा जा सकता है –

मनुस्मृति का आधार वेद में कहाँ है ?

यहाँ दो बाते समझनी चाहिए –

1. वेद अपौरुष्य हैं – अर्थात वेद ईश्वर का नित्य ज्ञान है जो आदि सृष्टि में ही चार ऋषियों के ह्रदय में प्रकाशित किया गया था। इससे सिद्ध है की वेद में इतिहास नहीं हो सकता और जो वेद में इतिहास खोजे वो गधे के सर पर सींग खोजने का व्यर्थ कार्य ही कर रहा है। इसी कारण से वेदो को श्रुति कहा गया है। ये परंपरा सनातन काल से चली आ रही है पर खेद की आज कुछ तथाकथित विद्वान अपने स्वार्थ को पूरा करने के चक्कर में इस सनातन परम्परा का अपमान करने से भी नहीं चूक रहे।

2. मनुस्मृति महाराज मनु द्वारा बनाया गया मानवो के लिए निर्मित आचार, व्यव्हार आदि धर्मशास्त्र है जिसे स्मृति कहा गया है। इस धर्मशास्त्र में मनुष्यो को क्या कर्म करने और क्या नहीं करने आदि विषयो से सम्बंधित है, कहने का तात्पर्य है की धर्म पर चलना और अधर्म से पृथक रहने का मनुस्मृति में विधान किया गया है।

अब दोनों तथ्यों को ध्यान में रखकर ये तो सिद्ध हो जाता है की मनुस्मृति वेदो के बहुत बाद की रचना है और मनुस्मृति में महाराज मनु ने वेदो के मंत्रो को देख पढ़ कर बहुत विचार करने के उपरान्त ये धर्मशास्त्र बनाया था। ताकि समस्त मानव जाति का कल्याण हो।

अब सवाल है की श्रुति और स्मृति में अंतर क्या है ?

सामान्य रूप से वेद को ‘श्रुति कहा जाता है और धर्मशास्त्रा को ‘स्मृति। महाराज मनु ने स्पष्ट रूप से स्मृति को ‘धर्मशास्त्रा कहा है-

श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रां तु वै स्मृति:।

-मनुस्मृति 2/10

भावार्थ : वेद धर्म के मूल हैं। वेद में प्रतिपादित धर्म का ही सरल रूप से धर्मशास्त्रा में वर्णन हुआ है।

तो यहाँ स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया की धर्म का मूल वेद है और वेद में प्रतिपादित धर्म का ही सरल रूप से धर्मशास्त्र यानी मनुस्मृति में वर्णन हुआ है।

इससे ये भी सिद्ध हुआ की मनुस्मृति का मूल वेद ही है। और इस आक्षेप का समाधान भी हो गया की मनुस्मृति का मूल वेद में कहाँ है।

महर्षि दयानंद और पंडित तारचरण के मध्य शास्त्रार्थ हेतु जो संवाद हुआ वो पठनीय है :

महर्षि दयानंद : क्या आप वेदो का प्रमाण मानते हैं वा नहीं ?

पंडित तारचरण : जो वर्णाश्रम में स्थित हैं उन सबको वेदो का प्रमाण ही है।

यहाँ पंडित तारचरण को भी सत्यभाषण ही करना पड़ा क्योंकि जो वेदो को प्रमाण न मानते ऐसा कहते तो बहुत ही निंदा होती – लेकिन ध्यान योग्य बात है की जब वेद को स्वयं ही प्रमाण मान लिया तब अन्य प्रमाण की इन्हे आवश्यकता क्या पड़ी ?

महर्षि दयानंद : कहीं वेदो में पाषाणादि मूर्ति पूजन का प्रमाण है वा नहीं ? यदि है तो दिखाइए और जो न हो तो कहिये नहीं है।

पंडित तारचरण : वेदो में प्रमाण है वा नहीं परन्तु जो एक वेदो का ही प्रमाण मानता है औरो का नहीं उसके प्रति क्या कहना चाहिए ?

यहाँ ध्यान से पढ़ने वाली बात है – ऋषि ने केवल मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में सवाल किया की क्या वेदो में मूर्तिपूजा का प्रमाण है ? इस पर तारचरण जी से कुछ कहते नहीं बना क्योंकि वो जानते थे की वेदो में मूर्तिपूजा का प्रमाण नहीं इसलिए अन्य प्रमाणों की और जोर देकर कहा की अन्य प्रमाण भी साक्षी के तौर पर लेने चाहिए मगर तारचरण जी ये भूल गए की खुद भी ऊपर उन्होंने स्वयं माना की जो भी वर्णाश्रम में स्थित है उसके लिए वेद ही प्रमाण है। तब जब वेद ही को वर्णाश्रम में स्थित के लिए प्रमाण मान तब अन्य प्रमाण की साक्षी क्यों ?

महर्षि दयानंद : औरो का विचार पीछे होगा। वेद का विचार मुख्य है। इस निमित्त इसका विचार पाहिले ही करना चाहिए क्योंकि वेदोक्त ही कर्म मुख्य है और मनुस्मिृत आदि भी वेदमूलक है इससे इनका भी प्रमाण है क्योंकि जो वेद विरुद्ध और वेदो में अप्रसिद्ध है उनका प्रमाण नहीं होता।

यहाँ ध्यान योग्य पढ़ने वाली बात है, क्योंकि इससे पंडित तारचरण का पंडितव और महर्षि दयानंद का अद्भुद ज्ञान दोनों ही समझ आ सकते हैं – देखिये महर्षि ने कहा क्योंकि मनुस्मृति वेद पर आधारित है अर्थात जो वेद सम्मत है उसको महाराज मनु ने भी धर्म कहा और जो वेद विरुद्ध है उसे अधर्म कहा – इससे सिद्ध है की मनुस्मृति वेदमूलक है। मगर पंडित तारचरण की पंडताई देखिये :

पंडित तारचरण : मनुस्मृति का वेदो में कहाँ मूल है ?

अब देखिये धूर्तता और छल, ऋषि ने कहा मनुस्मिृति वेदमूलक है यानी वेद सम्मत बात मनुस्मृति में धर्म कहा है, मगर तारचरण जी अपनी धूर्तता करते हुए मनुस्मृति का वेदो में कहाँ मूल है ये सवाल पूछते हैं, खैर फिर भी महर्षि ने बहुत ही अच्छा जवाब देते हुए कहा :

महर्षि दयानंद : जो जो मनुजी ने कहा है सो सो औषधियों का भी औषध है ऐसा सामवेद के ब्राह्मण में कहा है।

यहाँ ये बात बहुत ही गूढ़ है जो महर्षि ने बताई – पंडित तारचरण समझ गये इसलिए अब इस विषय से हट गए क्योंकि जो इसी विषय पर रहते तो वेदो से प्रमाण देना होता की मूर्तिपूजा वेद सम्मत है – जो की कभी दे नहीं सकते थे – इसलिए फ़ौरन एक दूसरे पंडित विशुद्धांनंद स्वामी ने प्रकरण को बदलते हुए आक्षेप करने शुरू करे।

इतने से ही पाठकगण समझ लेंगे की पौराणिक व्यर्थ ही आक्षेप मढ़ते हैं जवाब उनपर आजतक नहीं मगर फिर भी आक्षेप महर्षि पर लगाने हैं, खैर हम यहाँ ऋषि के समर्थन में और अनेक ऋषियों जैसे महर्षि व्यास और वाल्मीकि जिन्होंने मनु महाराज के श्लोको को अपने ग्रंथो में महत्त्व प्रदान किया पठनीय है :

महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक –

महर्षि वेदव्यास (कृष्णद्वेपायन ) रचित महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा अनेकों स्थानो पर आयी है किन्तु मनु में महाभारत वा व्यास जी का नाम तक नही ।

महाभारत में मनु महाराज की प्रतिष्ठा –
मनुनाSभिहितम् शास्त्रं यच्चापि कुरुनन्दन ! महाभारत अनुशासन पर्व , अ० ४ ७ – श ० ३ ५
तैरेवमुक्तोंभगवान् मनु: स्वयम्भूवोSब्रवीत् । महाभारत शांतिपर्व , अ० ३ ६ – श ० ५
एष दयविधि : पार्थ ! पूर्वमुक्त : स्वयम्भूवा । महाभारत अनुशासन पर्व , अ० ४ ७ – श ० ५ ८
सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् । महाभारत शांतिपर्व , मोक्षधर्म आदि ।
अद्भ्योSग्निब्रार्हत: क्षत्रमश्मनो लोहमुथितं ।
तेषाम सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिशु शाम्यति ।। – मनु अ० ९ – ३ २ १

ठीक यही मनु का श्लोक महाभारत शांतिपर्व अ० ५ ६ – श २ ४
में आया है और महाभारत के इस श्लोक से ठीक पूर्व २ ३ वें श्लोक में आया है –
“मनुना चैव राजेंद्र ! गीतो श्लोकों महात्मना”
अर्थात हे राजेंद्र ! मनु नाम महात्मा ने इन श्लोकों को कहा है !

इसी प्रकार मनु के जो जो श्लोक ज्यों के त्यों महाभारत में है ;
मैं यहाँ अब केवल उनके श्लोक नम्बर ही लिखा रहा हूँ

मनु ० १ १ /७ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ५
मनु ० १ १ /१२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ९
मनु ० १ १ /१८ ० – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ३ ७
मनु ० ६ /४५ – महा० शांति अ ० २४५ – श ० १५
मनु ० २ /१२० – महा०अनु ० अ ०१०४ – श ० ६४

अब वो श्लोक लिखते है जो मनु के है परन्तु कुछ परिवर्तन के साथ आयें है –

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: ।
यश्च विप्रोSनधियान स्त्रयते नाम बिभ्रति । । – मनु २ /१५७

यथा दारुमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: ।
ब्राह्मणश्चानधियानस्त्रयते नाम बिभ्रति । । -महा शांति ३६/४७

अब केवल उनके श्लोक नम्बर ही लिखा रहा हूँ जो कुछ परिवर्तन के साथ आयें है –

मनु ० १ १ /४ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ४
मनु ० १ १ /१२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ७
मनु ० १ १ /३७ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० २ २
मनु ० ८ /३७२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ६३
मनु ० २ /२३१ – महा० शांति अ ० १०८ – श ० ७
मनु ० ९ /३ – महा० अनु अ ० ४६ – श ० १४
मनु ० ३ /५५ – महा० अनु अ ० ४६ – श ० ३

लगभग मनु के ५ ० ऐसे श्लोक है जो ज्यों के त्यों वा कुछ परिवर्तन के साथ महाभारत में आये है ।
वाल्मीकि रामायण में मनुस्मृति के श्लोक –

महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा आयी है किन्तु मनु में वाल्मीकि , राम जी आदि का नाम तक नही ।

वाल्मीकि रामायण में मनु महाराज की प्रतिष्ठा –

किष्किन्धा काण्ड में जब श्री राम अत्याचारी बाली को घायल कर उसके आक्षेपों के उत्तर में अन्यान्य कथनो के साथ साथ यह भी कहते है कि तूने अपने छोटे भाई सुग्रीव कि स्त्री को बलात हरण कर और उसे अपनी स्त्री बना अनुजभार्याभिमर्श का दोषी बन चूका है , जिसके लिए (धर्मशास्त्र ) में दंड कि आज्ञा है ।
इस पृथिवी के महाराज भरत है (अतः तू भी उनकी प्रजा है ) ; मैं उनकी आज्ञापालन करता हुआ विचरता हूँ फिर में तुझे यथोचित दंड कैसे ना देता ? जैसे –

श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चारित्र वत्सलौ ||
गृहीतौ धर्म कुशलैः तथा तत् चरितम् मयाअ || वाल्मीकि ४-१८-३०

राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || वाल्मीकि ४-१८-३१

शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते |
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् || वाल्मीकि ४-१८-३२

उपरोक्त श्लोक ३० में मनु का नाम आया है और श्लोक ३१ , ३२ भी मनु महाराज के ही है !
उपरोक्त श्लोक किंचित पाठभेद (परन्तु जिससे अर्थ में कुछ भी भेद नही आया ) मनु अध्याय ८ के है ! जिनकी संख्या कुल्लूकभट्ट कि टिकावली में ३१८ व् ३१९ है –

राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || वाल्मीकि ४-१८-३१

राजभिः धूर्त दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || मनु ८ / ३१८

शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते |
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् || वाल्मीकि ४-१८-३२

शसनाद्वा अपि मोक्षाद्वा स्तेनः स्तेयाद विमुच्यते |
अशासित्वा तू तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम् ॥ मनु ८/३१६

रामायण में स्पष्टतः मनु के श्लोकों (मनुना गीतौ श्लोकौ) कि प्रशंसा विधमान है ठीक उसी प्रकार जैसे महाभारत में थी “मनुना चैव राजेंद्र ! गीतो श्लोकों महात्मना” – महाभारत शांतिपर्व अ० ५ ६ – श २ ३

ऐतिहासिक ग्रंथो में ही इतिहास का वर्णन हो सकता है, वेद तो ईश्वर का नित्य ज्ञान है उसमे इतिहास नहीं हो सकता, क्योंकि वेद धर्म का मूल है इसलिए मनुस्मृति वेदमूलक है तभी उसका वर्णन और महाराज मनु की प्रतिष्ठा रामायण व महाभारत दोनों ही ग्रंथो में विस्तार से मिलती है, यदि अब भी कोई पौराणिक ना माने हठ करे तो इसे देखे :

इदं शास्त्रां तु कृत्वा-सौ मामेव स्वयमादित:।

विधिवद ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन।।

-मनुस्मृति 1/58

अतएव मनु द्वारा उपदिष्ट होने से ही इसका नाम मनुस्मृति है।

महाराज मनु आदि अनेको ऋषियों ने धर्म का मूल वेदो के अनुसार जो नियम बनाये और उनका पालन करने की प्रेरणा दी वही धर्म कहा गया है। यदि कुछ महानुभाव वेद से उसे ना भी जोड़ते हुए ‘चोदना’ प्रेरणा तक ही सीमित रखे जैसे की व्यर्थ ही कोशिश काशी शास्त्रार्थ के दौरान विशुद्धानन्द जी ने की मगर वो भूल गए की कर्तव्य के मूल में प्रेरणा अवश्यम्भावी है अर्थात जिन लक्षणों, कर्तव्यों या नियमो में लोक को धारण करने की प्रेरणा मूलभूत रहती है वे धर्म हैं और उनका पालन आवश्यक माना जाता है, यही बात महर्षि ने विशुद्धानन्द जी को जवाब देते समय कही थी :

महर्षि दयानंद : धर्म के दस लक्षण मनुस्मृति में बताये हैं, धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध – फिर सवाल घूम फिर कर विशुद्धानन्द जी पर ही आ गिरा क्योंकि उन्होंने धर्म के स्वरुप को पाहिले ‘चोदना’ अर्थात प्रेरणा बता दिया फिर बाद में धर्म का केवल एक ही लक्षण बताया।

इससे काशी में मौजूद सभी पंडितो का पंडितव और आडमबर सबके सम्मुख निकल आया। नतीजा आजतक सभी पंडित महर्षि दयानंद पर व्यर्थ आक्षेप लगा रहे हैं, जवाब खुद के पास मौजूद नहीं और जिस महर्षि ने अपनी विद्वत्ता काशी ही नहीं सम्पूर्ण धरती पर वेदो के माध्यम से दिखाई वो कोई साधारण मनुष्य नहीं कर सकता।

निश्चय ही वो महामानव अर्थात महर्षि थे।

धन्य है तुझ को ए ऋषि तूने हमेँ जगा दिया।
सो सो के लुट रहे थे हम,तूने हमेँ जगा दिया।

अब भी चाहे तो अनेको पौराणिक मिथ्या आक्षेप और विलाप करने हेतु स्वतंत्र है।

लौटो वेदो की और।

नमस्ते

ऋग्वेद का दसवा मंडल क्या बाद में जोड़ा गया – मिथक से सत्यता की ओर

पश्चिम में कोई एक तथाकथित विद्वान हुए थे – नाम था मैकडोनाल्ड – इन महाज्ञानी व्यक्ति ने अपने साहित्य में लिखा था की ऋग्वेद का दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया – अनेको भारतीयों ने भी इस किताब को उस समय पढ़ा था – और बिना जाने सोचे समझे – तथ्य की जांच किये मान लिया की हाँ ऋग्वेद का दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया – भाई दिक्कत ये है की मेकाले की अघोषित भारतीय संताने ही इस देश की जड़ खोदने में लग गयी – क्योंकि मेकाले की शिक्षा पद्धति ही यही थी – और ईसाइयो को विश्वास था की यदि वो आर्यो को उनकी ही धार्मिक पुस्तको से नीचे दिखा दे तो ईसाई आसानी से इस देश का इसाईकरण कर सकते हैं।

मगर भारतीय मानव समाज में आर्यो का “ज्ञान सूर्य” उदय हुआ था – जिसका नाम था ऋषि दयानंद – उसने इन ईसाइयो की ऐसी पोल खोली थी – और वैदिक सिद्धांतो का ऐसा डंका बजाया की आज तक और आने वाले भविष्य में भी वेदो का मंडन होता रहेगा – हर आक्षेप का जवाब ऋषि ने दिया – बस जरुरत है उस पुस्तक को सही से पढ़ने की – पुस्तक का नाम –

“सत्यार्थ प्रकाश”

खैर ये बात हुई ईसाइयो की धूर्तता की जिसका खंडन ऋषि ने किया।

अब हम आते हैं मैकडोनाल्ड के आक्षेप पर – वो कहते हैं – ऋग्वेद का दशम मंडल बाद में जोड़ा गया है – जिसके लिए वो दो तर्क देते हैं :

1. भाषा की साक्षी अनुसार ऋग्वेद में पहले ९ मंडल थे बाद में दसवा जोड़ा गया।

2. पद की साक्षी अनुसार ऋग्वेद में पहले ९ मंडल थे बाद में दसवा जोड़ा गया।

अब इनके आक्षेपों पर एक पुस्तक “वैदिक ऐज” जो एक भारतीय स्वघोषित विद्वान ने ही लिखी थी – इनके तर्कों का बिना खोजबीन किये समर्थन किया –

लेकिन ये भूल गए की ऋषि दयानंद, सत्यार्थ प्रकाश और उसके अनुयायी सभी आक्षेपों का जवाब देने में सक्षम हैं। लिहाजा एक पुस्तक वैद्यनाथ शास्त्री जी ने लिखी थी जो ऐसे अनेक पाश्चात्य लोगो के अनैतिक विचारो को खंड खंड कर देती है – ऐसे मूर्खता पूर्ण विचारो का शास्त्री जी ने बहुत ही उत्तम रीति से जवाब दिया था देखिये :

दशम मंडल और अन्य मंडल में कोई भी ऐसा भाषा – पद नहीं पाया जाता है जो यह सिद्ध करे की दशम मंडल पश्चात में जोड़ा गया। जबकि वैदिकी परंपरा में ऋग्वेद का दूसरा नाम दाश्तयी है। यास्क मुनि ने 12.80 “दाश्तयीषु” शब्द का प्रयोग किया है। यह साक्षात प्रमाण है की ऋग्वेद में १० मंडल सर्वदा ही रहे। अन्यथा दाश्तयी नाम का अन्य कोई कारण नहीं।

त्वाय से अंत होने वाला पद केवल दशम मंडल में ही पाया जाता है यह भी वैदिक एज के कर्ताका कथन मात्र है। ऋग्वेद 8.100.8 में ‘गत्वाय’ पद आया है जो त्वाय से अंत हुआ है। ‘कृणु’ और ‘कृधि’ प्रयोग भी पहले मंडलों में पाये जाते हैं। ‘कुरु’ का प्रयोग पाया जाना यह नहीं सिद्ध करता की यह प्राकृतिक क्रिया भाग हिअ। प्राकृत का यह प्रयोग है – इसका कोई प्रमाण नहीं। कृञ धातु का ही वेद कृणु, कृधि प्रयोग भी है और उसी का कुरु भी प्रयोग है। ‘प्रत्सु’ पद का प्रयोग न होने से कुछ बिगड़ना नहीं। ‘पृतना’ पद को भी व्याकरण के नियमनुसार अष्टाध्यायी 6.1.162 सूत्र पर पढ़े गए वार्तिक के अनुसार ‘पृत’ आदेश हो जाता है। ‘पृत्सु’ भी निघन्टु में संग्राम नाम में है और ‘पृतना’ भी (निघन्टु 2.17) । ‘पृतना’ निघण्टु 2.3 में मनुष्य नाम से भी पठित है। ‘पृतना’ पद ऋग्वेद 10.29.8, 10.104.10 और 10.128.1 में आया है। ‘पृतनासु’ 10.29.8, 10.83.4 और 10.87.19 में पठित है। ऐसी स्थिति में यदि ‘पृत्सु’ पद का प्रयोग न भी आया तो कोई हानि नहीं। निघण्टु 2.3 में में ‘चर्षणय’ मनुष्य नाम में पठित है। ऋग्वेद 10.9.5, 10.93.9, 10.103.1,10.126.6, 10.134.1 और 10.180.3 में ‘चर्षणीनाम’ पद आया है। 10.89.1 में चपणीधृत पद भी आया है। यदि ‘विचपणी, प्रयोग नहीं है तो इससे कोई परिणामांतर निकालने का अवकाश नहीं रह जाता है।

लेखक ने आक्षेप लगाये अनेक पदो पर विस्तृत जानकारी देते हुए सिद्ध किया है की ऋग्वेद का दशम मंडल अथवा अन्य भी कोई मंडल बाद में नहीं जोड़ा गया।

लेखक ने एक जगह पाश्चात्य विद्वानो और भारत में मौजूद मेकाले की बढ़ाई करने वाली अवैध संतानो को ताडन करते हुए स्पष्ट बात लिखी है :

पाश्चात्य विचारको ने पूर्व से ही एक निश्चित अवधारणा बना ली है अतः उस लकीर को बराबर पीटते रहते हैं। यही बात वैदिक ऐज के लेखक ने भी की है। वेद के आंतरिक रहस्य का ज्ञान तो किसी को है नहीं – अपनी तुक मार रहे हैं।

बहुत ही सैद्धांतिक बात करते हुए लेखक ने सभी आक्षेपों का बहुत सुन्दर और तार्किक जवाब दिया है।

महाभारत की १८ अक्षोहिणी सेना और कुरुक्षेत्र का क्षेत्रफल

भारतीय इतिहास और महाभारत युद्ध को झूठा कहने वालो के मुह पर जोरदार तमाचा लगाता ज्ञान वर्धक लेख :

युद्ध के लिए आवश्यक सैनिक, रथादि वाहन, घुड़सवार आदि का वर्गीकरण और सेना की संरचना।

अक्षौहिणी प्राचीन भारत में सेना का माप हुआ करता था। ये संस्कृत का शब्द है। विभिन्न स्रोतों से इसकी संख्या में कुछ कुछ अंतर मिलते हैं। महाभारत के अनुसार इसमें २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, ६५, ६१० घुड़सवार एवं १,०९,३५० पैदल सैनिक होते थे। महाभारत, (आदि पर्व – २. १५-२३)

इसके अनुसार इनका अनुपात १ रथ:१ गज:३ घुड़सवार:५ पैदल सैनिक होता था। इसके प्रत्येक भाग की संख्या के अंकों का कुल जमा १८ आता है। एक घोडे पर एक सवार बैठा होगा, हाथी पर कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है, एक पीलवान और दूसरा लडने वाला योद्धा, इसी प्रकार एक रथ में दो मनुष्य और चार घोडे रहे होंगें, इस प्रकार महाभारत की सेना के मनुष्यों की संख्या कम से कम ४६,८१,९२० और घोडों की संख्या, रथ में जुते हुओं को लगा कर २७,१५,६२० हुई इस संख्या में दोनों ओर के मुख्य योद्धा कुरूक्षेत्र के मैदान में एकत्र ही नहीं हुई वहीं मारी भी गई।

अक्षौहिणी हि सेना सा तदा यौधिष्ठिरं बलम्।
प्रविश्यान्तर्दधे राजन्सागरं कुनदी यथा ॥
(5.49.19.0.6 उद्योगपर्व, एकोनविंशोऽध्यायः (19) श्लोक 6)
महाभारत के युद्घ में अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई थी।

महाभारत के आदिपर्व और सभापर्व अनुसार
अक्षौहिण्या: परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्।
अक्षौहिणी सेना में कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते है? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये, क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है।

यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्व हि विदितं तव॥ सौतिरूवाच
उग्रश्रवाजी ने कहा- एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े-बस, इन्हीं को सेना के मर्मज्ञ विद्वानों ने ‘पत्ति’ कहा है॥

एको रथो गजश्चैको नरा: पञ्च पदातय:।
त्रयश्च तुरगास्तज्झै: पत्तिरित्यभिधीयते॥

इस पत्ति की तिगुनी संख्या को विद्वान पुरुष ‘सेनामुख’ कहते हैं। तीन ‘सेनामुखो’ को एक ‘गुल्म’ कहा जाता है॥

एको रथो गजश्चैको नरा: पञ्च पदातय:।
पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहु: सेनामुखं बुधा:।
त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते॥

तीन गुल्म का एक ‘गण’ होता है, तीन गण की एक ‘वाहिनी’ होती है और तीन वाहिनियों को सेना का रहस्य जानने वाले विद्वानों ने ‘पृतना’ कहा है।

त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रय:।
स्मृतास्तिस्त्रस्तु वाहिन्य: पृतनेति विचक्षणै:॥

तीन पृतना की एक ‘चमू’ तीन चमू की एक ‘अनीकिनी’ और दस अनीकिनी की एक ‘अक्षौहिणी’ होती है। यह विद्वानों का कथन है।

चमूस्तु पृतनास्तिस्त्रस्तिस्त्रश्चम्वस्त्वनीकिनी।
अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधा:॥

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! गणित के तत्त्वज्ञ विद्वानों ने एक अक्षौहिणी सेना में रथों की संख्या इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (21870) बतलायी है। हाथियों की संख्या भी इतनी ही कहनी चाहिये।

अक्षौहिण्या: प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमा:।
संख्या गणिततत्त्वज्ञै: सहस्त्राण्येकविंशति:॥
शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्तति:।
गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत्॥

निष्पाप ब्राह्मणो! एक अक्षौहिणी में पैदल मनुष्यों की संख्या एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास (109350) जाननी चाहिये।

ज्ञेयं शतसहस्त्रं तु सहस्त्राणि नवैव तु।
नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघा:॥

एक अक्षौहिणी सेना में घोड़ों की ठीक-ठीक संख्या पैंसठ हजार छ: सौ दस (65610) कही गयी है।

पञ्चषष्टिसहस्त्राणि तथाश्वानां शतानि च।
दशोत्तराणि षट् प्राहुर्यथावदिह संख्यया॥

तपोधनो! संख्या का तत्त्व जानने वाले विद्वानों ने इसी को अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंने आप लोगों को विस्तारपूर्वक बताया है।

एतामक्षौहिणीं प्राहु: संख्यातत्त्वविदो जना:।
यां व: कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधना:॥

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इसी गणना के अनुसार कौरवों-पाण्डवों दोनों सेनाओं की संख्या अठारह अक्षौहिणी थी।

एतया संख्यया ह्यासन् कुरुपाण्डवसेनयो:।
अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठा: पिण्डिताष्टादशैव तु॥

अद्भुत कर्म करने वाले काल की प्रेरणा से समन्तपञ्चक क्षेत्र में कौरवों को निमित्त बनाकर इतनी सेनाएँ इकट्ठी हुई और वहीं नाश को प्राप्त हो गयीं।
समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गता:।
कौरवान् कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा॥

अल बरूनी के अनुसार –
अल बरूनी ने अक्षौहिणी की परिमाण-संबंधी व्याख्या इस प्रकार की है-

एक अक्षौहिणी में १० अंतकिनियां होती हैं।

एक अंतकिनी में ३ चमू होते हैं।

एक चमू में ३ पृतना होते हैं।

एक पृतना में ३ वाहिनियां होती हैं।

एक वाहिनी में ३ गण होते हैं।

एक गण में ३ गुल्म होते हैं।

एक गुल्म में ३ सेनामुख होते हैं।

एक सेनामुख में ३ पंक्ति होती हैं।

एक पंक्ति में १ रथ होता है।

शतरंज के हाथी को ‘रूख’ कहते हैं जबकि यूनानी इसे ‘युद्ध-रथ’ कहते हैं। इसका आविष्कार एथेंस में ‘मनकालुस'(मिर्तिलोस) ने किया था और एथेंसवासियों का कहना है कि सबसे पहले युद्ध के रथों पर वे ही सवार हुए थे। लेकिन उस समय के पहले उनका आविष्कार एफ्रोडिसियास (एवमेव) हिन्दू कर चुका था, जब महाप्रलय के लगभग ९०० वर्ष बाद मिस्त्र पर उसका राज्य था। उन रथों को दो घोड़े खींचते थे।

रथ में एक हाथी, तीन सवार और पांच प्यादे होते हैं।

युद्ध की तैयारी, तंबू तानने और तंबू उखाड़ने के लिए उपर्युक्त सभी की आवश्यकता होती है।

एक अक्षौहिणी में २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, ६५,६१० सवार और १,०९,३५० पैदल सैनिक होते हैं।

हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथी होता है जो बाणों से सुसज्जित होता है, उसके दो साथियों के पास भाले होते हैं और एक रक्षक होता है जो पीछे से सारथी की रक्षा करता है और एक गाड़ीवान होता है।

हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है; कुर्सी में उसका मालिक धनुष-बाण से सज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं जो भाले फेंकते हैं और उसका विदूषक हो होता है जो युद्ध से इतर अवसरों पर उसके आगे चलता है।
तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं उनकी संख्या २,८४,३२३ होती है (एवमेव के अनुसार)। जो लोग घुड़सवार होते हैं उनकी संख्या ८७,४८० होती है। एक अक्षौहिणी में हाथियों की संख्या २१,८७० होती है, रथों की संख्या भी २१,८७० होती है, घोड़ों की संख्या १,५३,०९० और मनुष्यों की संख्या ४,५९,२८३ होती है।

एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या ६,३४,२४३ होती है। अठारह अक्षौहिणीयों के लिए यही संख्या ११,४१६,३७४ हो जाती है अर्थात ३,९३,६६० हाथी, २७,५५,६२० घोड़े, ८२,६७,०९४ मनुष्य।

इतनी बड़ी सेना का विस्तार और वर्गीकरण – कितना गणितज्ञ और वैज्ञानिक स्तर पर होगा – ये आप लोग आंकलन कर लेवे – धनुर्वेद में जो उपवेद है के आधार पर सेना की संरचना – गठन – सञ्चालन – व्यूह रचना – युद्ध कौशल – रणनीति आदि भली भाँती वर्णित है।

कुछ अति ज्ञानी हिन्दू और वामपंथी विचारधारा के इतिहास को पढ़ने वाले सेक्युलर जमात के लोग कहते हैं – कुरुक्षेत्र तो इतना सा राज्य है – उसमे इतनी सेना का होना और युद्ध होना – सेनिको के मरने पर अन्तेय्ष्टि आदि और भी बहुत से कार्य कैसे संभव होंगे ?

उन अति विशिष्ट ज्ञानी लोगो को केवल हिन्दू समाज और भारतीय इतिहास आदि को झूठा साबित करने का ही कार्य है इसलिए मनगढ़ंत रचना करते हैं – ऐसे लोगो से पूछना चाहिए क्या “कुरुक्षेत्र” जो आज की स्तिथि में दीखता है – उसका क्षेत्रफल महाभारत काल में भी इतना ही था क्या ??? तब कोई जवाब नहीं बन पायेगा –

आइये देखते हैं कुरुक्षेत्र कितना बड़ा था –

कुरु-जनपद

प्राचीन भारत का प्रसिद्ध जनपद जिसकी स्थितिं वर्तमान दिल्ली-मेरठ प्रदेश में थी। महाभारतकाल में हस्तिनापुर कुरु-जनपद की राजधानी थी। महाभारत से ज्ञात होता है कि कुरु की प्राचीन राजधानी खांडवप्रस्थ थी।

महाभारत के अनेक वर्णनों से विदित होता है कि कुरुजांगल, कुरु और कुरुक्षेत्र इस विशाल जनपद के तीन मुख्य भाग थे। कुरुजांगल इस प्रदेश के वन्यभाग का नाम था जिसका विस्तार सरस्वती तट पर स्थित काम्यकवन तक था। खांडव वन भी जिसे पांडवों ने जला कर उसके स्थान पर इन्द्रप्रस्थ नगर बसाया था इसी जंगली भाग में सम्मिलित था और यह वर्तमान नई दिल्ली के पुराने किले और कुतुब के आसपास रहा होगा।

मुख्य कुरु जनपद हस्तिनापुर (ज़िला मेरठ, उ0प्र0) के निकट था। कुरुक्षेत्र की सीमा तैत्तरीय आरण्यक में इस प्रकार है- इसके दक्षिण में खांडव, उत्तर में तूर्ध्न और पश्चिम में परिणाह स्थित था। संभव है ये सब विभिन्न वनों के नाम थे। कुरु जनपद में वर्तमान थानेसर, दिल्ली और उत्तरी गंगा द्वाबा (मेरठ-बिजनौर ज़िलों के भाग) शामिल थे।

महाभारत में भारतीय कुरु-जनपदों को दक्षिण कुरु कहा गया है और उत्तर-कुरुओं के साथ ही उनका उल्लेख भी है।

अंगुत्तर-निकाय में ‘सोलह महाजनपदों की सूची में कुरु का भी नाम है जिससे इस जनपद की महत्ता का काल बुद्ध तथा उसके पूर्ववर्ती समय तक प्रमाणित होता है।

महासुत-सोम-जातक के अनुसार कुरु जनपद का विस्तार तीन सौ कोस था। जातकों में कुरु की राजधानी इन्द्रप्रस्थ में बताई गई है। हत्थिनापुर या हस्तिनापुर का उल्लेख भी जातकों में है। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल के पश्चात और मगध की बढ़ती हुई शक्ति के फलस्वरूप जिसका पूर्ण विकास मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ हुआ, कुरु, जिसकी राजधानी इस्तिनापुर राजा निचक्षु के समय में गंगा में बह गई थी और जिसे छोड़ कर इस राजा ने वत्स जनपद में जाकर अपनी राजधानी कौशांबी में बनाई थी, धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में विलीन हो गया। इस तथ्य का ज्ञान हमें जैन उत्तराध्यायन सूत्र से होता है जिससे बुद्धकाल में कुरुप्रदेश में कई छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व ज्ञात होता है।

अब बताओ विशिष्ट ज्ञानियो – जब कुरुक्षेत्र ही इतना बड़ा था उस समय – तो इतनी बड़ी सेना और युद्ध कैसे नहीं हो सकता ???

अब बुद्धिमान लोग स्वयं विचार लेवे –MBRT