All posts by rajneesh

इतिहास प्रदूषक “फरहाना ताज”

आर्य समाज में प्रक्षिप्त और झूठी बातो का प्रचार असहनीय है
……………………………………………………………………………………………………..

फरहाना ताज जी की बहुत सी पोस्ट देखी – बहुत से मित्र बंधू इन पोस्ट्स को व्हाट्सप्प पर प्रसारित भी करते हैं – कुछ चीज़े वैदिक संपत्ति पुस्तक से उद्धृत हैं और कुछ इनके अपने दिमाग की उपज है –

जो वैदिक संपत्ति से उद्धृत है वो ठीक लगता है मगर जो इनके अपने दिमाग की उपज (व्याख्या) है वो गड़बड़ झाला है – आर्य समाज को बदनाम न करे – आपकी बहुत सी पोस्ट पर कमेंट किया पर आपने आजतक जवाब नहीं दिया – ये बहुत ही खेद का विषय है – कृपया समझे –

1. आपकी पुस्तक “घर वापसी” में आपने अपने पति को आर्य समाजी बताया – मगर वही आर्य समाजी बंधू एक्सीडेंट के बाद पौराणिक बन जाता है ? ऐसा क्यों ?

क्या आप इसे मानती हैं ? यदि हाँ तो आप अंधविश्वास और चमत्कार वाली झूठी बातो का समर्थन करती हैं जो आर्य समाज के सिद्धांत विरुद्ध है। कृपया स्पष्टीकरण देवे।

2. हनुमान जी – एक ऐसा वीर, धर्मात्मा, श्रेष्ठ पुरुष जिसका रामायण में बहुत उत्तम चरित्र है जो रामायण में पूर्ण ब्रह्मचारी पुरुष है। महर्षि दयानंद भी हनुमान जी के ब्रह्मचर्य से पूर्ण सहमत थे। फिर आपने ऐसे महावीर हनुमान को गृहस्थ घोषित कर दिया वो भी बिना कोई प्रमाण ?

केवल दक्षिण के मंदिरो को देखकर ही आपको लग गया की हनुमान जी ब्रह्मचारी नहीं गृहस्थ थे ? ऐसा मंदिर तो दिल्ली के भैरो मंदिर में भी देख लेती वहां भी हनुमान जी के चरित्र को दूषित किया गया है जैसे आप दक्षिण के मंदिरो को प्रमाण मान कर एक पूर्ण ब्रह्मचारी को गृहस्थ घोषित करकर ? यदि वहां के मंदिरो को देखकर ही आपको सिद्ध हो गया की हनुमान जी गृहस्थ ही हैं तो वहां के मंदिरो में तो हनुमान जी बन्दर स्वरुप भी दर्शाया गया होगा तब उन्हें क्यों नहीं मान लेती ?

3. आपने अपनी एक पोस्ट में कहीं लिखा था की ऋषि अंगिरा ही शिव थे – जो कैलाश के राजा हुए – तो मेरी बहन मैं आप से कुछ पूछना चाहता हु –

यदि ऋषि अंगिरा ही शिव थे जो कैलाश के राजा हुए तो इसका मतलब बाकी के बचे तीन ऋषि भी कुछ न कुछ होंगे ? मतलब वो भी कहीं के राजा हुए होंगे ? यानी वो वेद ज्ञान प्राप्त कर राजा हो गये ? फिर उन्होंने वो ज्ञान अन्य मनुष्यो को कैसे सुनाया होगा ? क्योंकि ये वेद श्रुति हैं।

यदि फिर भी मानो तो एक बात बताओ – हमारा इतिहास यही बताता है की इस धरती का पहला राजा “स्वयाय्मभव मनु” महाराज थे – और इसी बात को महर्षि दयानंद भी बता गए। अब मुझे आप बताओ यदि “स्वयाय्मभव मनु” पहले राजा थे तो अंगिरा ऋषि इनसे पहले हुए होंगे क्योंकि उन्हें वेद ज्ञान प्रकाशित हुआ – तो वो आप शिव कल्पना कर कैलाश का राजा बना दिया – तो “स्वयाय्मभव मनु” पहले राजा कैसे हुए ?

कृपया अभी इन ३ के जवाब ही दे देवे – बाकी की आपकी अनेको पोस्ट्स पर जो आपत्ति है उनका भी निराकरण आपसे अवश्य मांगेंगे।

नोट : आपसे निवेदन है कृपया आर्य समाज के सिद्धांतो और नियमो को भली प्रकार समझ कर तब सत्य और असत्य निष्कर्ष निकालकर पोस्ट लिखा करे। हिन्दू समाज वैसे ही बहुत से अंधविश्वासों में डूबा है – अब आर्य समाज को भी अन्धविश्वास की दलदल न बनाये।

नमस्ते।

रामायण में वर्णित लक्ष्मण रेखा का मिथक – सुलक्षण रेखा की सच्चाई

हमारे महान भारत में पहले अनेको ऋषि, महर्षि, ज्ञानी, विद्वतजन होते थे जो धर्म, ग्रन्थ और इतिहास का अतिसूक्ष्म निरिक्षण करकर सत्य असत्य से जनता को सदैव परिचित करवाते रहते थे। कालांतर में ये पद्धति मृतप्राय हो गयी और अनेको मूर्खो, लालची, लोभी, कुसंगियो द्वारा धर्म और इतिहास विषयक सामग्री में मिलावट की जाने लगी। जहाँ मिलावट संभव नहीं हो सकती थी वहां मिलावट के स्थान पर लोकोक्ति के माध्यम से मिथ्या जाल प्रपंच रचा गया।

इस आर्यावर्त में दुर्भाग्य से विद्वानो की कमी होने के कारण सत्य असत्य का निर्धारण करने के ठेका ढोंगी, कपटी, चालाक, तथाकथित स्वयंभू धर्म के ठेकेदारो ने ले लिया। फिर तो मौज बन आई। महापुरषो को बदनाम किया जाने लगा। सत्य इतिहास को बदनाम किया गया। द्रौपदी का चीरहरण, हनुमान जी बन्दर स्वरुप, ब्रह्मा जी के ४ सर आदि अनेको मिथ्या कपोलकल्पित कथाये प्रचारित की जाने लगी। भारतीय जनमानस अपने ही इतिहास से रुष्ट होकर ईसाई, मुसलमान आदि पथभ्रष्ट होना स्वेच्छा से स्वीकार करने लगे। क्योंकि वो अपनी बुद्धि से ऐसे इतिहास को अपनाना नहीं चाहते थे। ऐसे ही एक कथा रामायण में जोड़ी गयी :

लक्ष्मण रेखा

जो महानुभाव लक्ष्मण ने सीता माता की रक्षा हेतु खेंची थी। लेकिन ये पौराणिक मिथ्या ज्ञान बांटने वाले कभी ये नहीं बताते की यदि ये रेखा वाकई लक्ष्मण जी ने खेंची थी तो फिर सीता माता का अपहरण कैसे हो गया ?

आइये एक नजर वाल्मीकि रामायण पर डालते हैं और इस मिथ्या कपोलकल्पित लोकोक्ति का सत्य जानते हैं :

रामायण जैसा महाकाव्य ऋषि वाल्मीकि ने लिखा है। ये महाकाव्य इतना अनूठा है की आने वाले समय के अनेको कवियों ने भी इस महाकाव्य पर अपनी अपनी पुस्तके लिखी। लेकिन हमें ये ध्यान रखना चाहिए की रामायण विषय पर प्रमाणिकता केवल वाल्मीकि ऋषि द्वारा रचित वाल्मीकि रामायण की ही होती है। देखिये ऋषि वाल्मीकि क्या लिखते हैं :

श्री राम जब मृग रूप में मारीच को पकड़ने जाते हैं और मृग (मारीच) श्री लक्ष्मण को श्री राम की आवाज़ में पुकारता है तब माता सीता द्वारा मार्मिक वचन कहे जाने पर श्री लक्ष्मण अपशकुन उपस्थित देखकर माता सीता को सम्बोधित करते हुए कहते हैं –

”रक्षन्तु त्वाम…पुनरागतः ”
[श्लोक-३४,अरण्य काण्ड , पञ्च चत्वाविंशः ]

अर्थात -विशाललोचने ! वन के सम्पूर्ण देवता आपकी रक्षा करें क्योंकि इस समय मेरे सामने बड़े भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं उन्होंने मुझे संशय में डाल दिया है . क्या मैं श्री रामचंद्र जी के साथ लौटकर पुनः आपको कुशल देख सकूंगा ?”

माता सीता लक्ष्मण जी के ऐसे वचन सुनकर व्यथित हो जाती हैं और प्रतिज्ञा करती हैं कि श्रीराम से बिछड़ जाने पर वे नदी में डूबकर ,गले में फांसी लगाकर ,पर्वत-शिखर से कूदकर या तीव्र विष पान कर ,अग्नि में प्रवेश कर प्राणान्त कर लेंगी पर ‘पर-पुरुष’ का स्पर्श नहीं करेंगी .
[श्लोक-३६-३७ ,उपरोक्त]

माता सीता की प्रतिज्ञा सुन व् उन्हें आर्त होकर रोती देख लक्ष्मण जी ने मन ही मन उन्हें सांत्वना दी और झुककर प्रणाम कर बारम्बार उन्हें देखते श्रीरामचंद्र जी के पास चल दिए .[श्लोक-39-40 ] .

स्पष्ट है इस पुरे प्रकरण में कहीं भी लक्ष्मण जी ने कोई रेखा नहीं खींची। यहाँ तर्क दृष्टि से देखा जाये तो भी “लक्ष्मण रेखा” से सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता क्योंकि यदि एक लक्ष्मण रेखा से ही माता सीता की सुरक्षा हो सकती थी तो प्रभु राम लक्ष्मण को साथ क्यों नहीं ले गए ?

या फिर दूसरा तर्क ये है जो श्री राम ने लक्ष्मण जी को निर्देश दिया :

”प्रदक्षिणेनाती ….शङ्कित: ‘
[श्लोक-५१ ,अरण्य काण्ड ,त्रिचत्वा रिनश: ] –

”लक्ष्मण ! बुद्धिमान गृद्धराज जटायु बड़े ही बलवान और सामर्थ्यशाली हैं .उनके साथ ही यहाँ सदा सावधान रहना .मिथिलेशकुमारी को अपने संरक्षण में लेकर प्रतिक्षण सब दिशाओं में रहने वाले राक्षसों की और चैकन्ने रहना .”

यहाँ भी श्रीराम लक्ष्मण जी को यह निर्देश नहीं देते कि यदि किसी परिस्थिति में तुम सीता की रक्षा में अक्षम हो जाओ तो रेखा खींचकर सीता की सुरक्षा सुनिश्चित कर देना.

तीसरा तर्क भी देखे : यदि कोई रेखा खींचकर माता सीता की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती थी तो लक्षमण माता सीता को मार्मिक वचन बोलने हेतु विवश ही क्यों करते .वे श्री राम पर संकट आया देख-सुन रेखा खेंचकर तुरंत श्री राम के समीप चले जाते।

अतः वाल्मीकि रामायण में तो लक्ष्मण रेखा का कोई औचित्य नहीं बनता। आइये अब जो अन्य रामायण के संस्करण मिलते हैं उन्हें देखे :

श्री वेदव्यास जी द्वारा रचित ”अध्यात्म रामायण’ में भी ‘सीता-हरण’ प्रसंग के अंतर्गत लक्ष्मण जी द्वारा किसी रेखा के खींचे जाने का कोई वर्णन नहीं है .माता सीता द्वारा लक्ष्मण जी को जब कठोर वचन कहे जाते हैं तब लक्ष्मण जी दुखी हो जाते हैं –

’इत्युक्त्वा ……….भिक्षुवेषधृक् ”

[श्लोक-३५-३७,पृष्ठ -१२७]

”ऐसा कहकर वे (सीता जी ) अपनी भुजाओं से छाती पीटती हुई रोने लगी .उनके ऐसे कठोर शब्द सुनकर लक्ष्मण अति दुखित हो अपने दोनों कान मूँद लिए और कहा -’हे चंडी ! तुम्हे धिक्कार है ,तुम मुझे ऐसी बातें कह रही हो .इससे तुम नष्ट हो जाओगी .” ऐसा कह लक्ष्मण जी सीता को वनदेवियों को सौपकर दुःख से अत्यंत खिन्न हो धीरे-धीरे राम के पास चले .इसी समय मौका समझकर रावण भिक्षु का वेश बना दंड-कमण्डलु के सहित सीता के पास आया .” यहाँ कहीं भी लक्ष्मण जी न तो रेखा खींचते हैं और न ही माता सीता को उसे न लांघने की चेतावनी देते हैं .

हालांकि ये प्रामाणिक ग्रन्थ मैं नहीं मानता। और नाही लक्षमण जी ऐसे आर्य थे जो ऐसे वचन सीता जी को बोलते न ही सीता जी ने ऐसे लक्षण दिखाए होंगे। फिर भी यहाँ लक्ष्मण रेखा का सिद्धांत नहीं पाया जाता न ही किसी लक्ष्मण रेखा से सीता जी की सुरक्षा संभव थी क्योंकि इस रामायण में लक्ष्मण जी सीता माता को वनदेवियो को सौंपकर चले जाते हैं।

अब अन्य रामायण से जुड़े ग्रंथो पर विचार करते हैं। एक मान्य ग्रन्थ आज हिन्दू समाज में वाल्मीकि रामायण से भी ज्यादा प्रचलित है वो है तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस। लेकिन खेद की इस ग्रन्थ में भी लक्षमण रेखा का विवरण प्राप्त न हो सका।

अरण्य-काण्ड में सीता -हरण के प्रसंग में सीता जी द्वारा लक्ष्मण जी को मर्म-वचन कहे जाने पर लक्ष्मण जी उन्हें वन और दिशाओं आदि को सौपकर वहाँ से चले जाते हैं –

”मरम वचन जब सीता बोला , हरी प्रेरित लछिमन मन डोला !
बन दिसि देव सौपी सब काहू ,चले जहाँ रावण ससि राहु !”

[पृष्ठ-५८७ अरण्य काण्ड ]

लक्ष्मण जी द्वारा कोई रेखा खीचे जाने और उसे न लांघने का कोई निर्देश यहाँ उल्लिखित नहीं है।

अब जब कहीं भी लक्ष्मण रेखा का उल्लेख किसी मान्य ग्रन्थ में नहीं तब क्यों और कैसे ये लक्ष्मण रेखा रामायण से जुड़ कर प्रचलित हुई ?

आइये एक विचार इसपर भी रखते हैं :

लक्ष्मण -रेखा का अर्थ कोई पंचवटी में कुटिया के द्वार पर खींची गयी रेखा नहीं बल्कि प्रत्येक नर-नारी के लिए ऋषियों द्वारा बनाये नियम और निर्धारित आदर्श लक्षणों से प्रतीत होता है। यह नारी-मात्र के लिए ही नहीं वरन सम्पूर्ण मानव जाति के लिए आवश्यक है कि विपत्ति-काल में वह धैर्य बनाये रखे किन्तु माता सीता श्रीराम के प्रति अगाध प्रेम के कारण मारीच द्वारा बनायीं गयी श्रीराम की आवाज से भ्रमित हो गयी। माता सीता ने न केवल श्री राम द्वारा लक्ष्मण जी को दी गयी आज्ञा के उल्लंघन हेतु लक्ष्मण को विवश किया बल्कि पुत्र भाव से माता सीता की रक्षा कर रहे लक्ष्मण जी को मर्म वचन भी बोले। माता सीता ने उस क्षण अपने स्वाभाविक व् शास्त्र सम्मत लक्षणों, धैर्य,विनम्रता के विपरीत सच्चरित्र व् श्री राम आज्ञा का पालन करने में तत्पर देवर श्री लक्ष्मण को जो क्रोध में मार्मिक वचन कहे उसे ही माता सीता द्वारा सुलक्षण की रेखा का उल्लंघन कहा जाये तो उचित होगा। माता सीता स्वयं स्वीकार करती हैं –

”हा लक्ष्मण तुम्हार नहीं दोसा ,सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा !” [पृष्ठ-५८८ ,अरण्य काण्ड ]

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि लक्ष्मण रेखा को सीता-हरण के सन्दर्भ में उल्लिखित कर स्त्री के मर्यादित आचरण-मात्र से न जोड़कर देखा जाये। यह समस्त मानव-जाति के लिए निर्धारित सुलक्षणों की एक सीमा है जिसको पार करने पर मानव-मात्र को दण्डित होना ही पड़ता है।

तुलसीदास जी के शब्दों में –
”मोह मूल मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ”

इस आर्यावर्त में एक ऋषि ने सत्य का ज्ञान सूर्य उदय किया। ऋषि ने सभी झूठे तथ्यों और आधारहीन घटनाओ को सिरे से ख़ारिज किया। आज आर्य समाज इसी ऋषि कार्य के सिद्धांत को आगे बढ़ा रहा है। हमें चाहिए हम सत्य को जानकार असत्य को दूर फेक देवे।

आओ लौटो सत्य की और – लौटो न्याय और ज्ञान की और

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।

वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए

।। ओ३म ।।

अयं त इध्म आत्मा जातवेदः।

“हे अग्ने ! तेरे लिए सबसे पहला ईंधन “अयं आत्मा” – अर्थात यह यजमान – स्वयं है।”

वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए :

क्षयरोग (TB – Tuberculosis) से बचाव और उपचार करता है यज्ञ।

सूर्य का प्रकाश मनुष्य के लिए वैसे भी लाभदायक है। इससे शरीर में विटामिन डी बनता है, जिससे हड्डियां पुष्ट होती हैं। उदय और अस्त होने वाले सूर्य की किरणे तो और भी अधिक गुणकारी होती हैं।

उद्यन्नादित्यः क्रिमिहन्तु निम्रोचन्हन्तु रश्मिभिः।
ये अन्तः क्रिमयो गवि।।

(अथर्ववेद २।३२।१)

“उदय होता हुआ और अस्त होने वाला सूर्य अपनी किरणों से भूमि और शरीर में रहने वाले रोगजनक कीटो का नाश करता है।”

सूर्य का प्रकाश कृमिनाशक है। रोबर्ट काउच ने सन १८९० में अनेको प्रयोगो द्वारा यह सिद्ध किया की क्षयरोग (फेफड़ो के क्षयरोग को छोड़कर) के कीटाणु इस प्रकाश में दस मिनट से अधिक समय तक जीवित जीवित नहीं रह सकते। इसलिए क्षयरोग से ग्रस्त व्यक्ति को धुप सेकनी चाहिए।

संभवतः जनसाधारण में इसको यह कहकर मान्यता प्रदान की जाती है की अँधेरे में क्षयरोग फूलता फलता है तथा प्रकाश में यह दम दबाकर भाग जाता है।

अतः यज्ञ के लिए सूर्योदय के पश्चात तथा सूर्यास्त से पूर्व का समय ही ठीक है।

आधुनिक विज्ञानं के अनुसार सूर्य की धुप क्षयरोग के लिए बचाव और उपचार दोनों है

http://www.dailymail.co.uk/…/Sunshine-vitamin-helps-treat-p…

अब इस समय पर यज्ञ करना लाभदायक ही होगा क्योंकि यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में मुख्य रूप से गौघृत, खांड अथवा शक्कर, मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फल जिनमे शक्कर अधिक होती है, चावल, केसर और कपूर आदि के संतुलित मिश्रण से बनी होती है।

अब इस विषय पर कुछ वैज्ञानिको के विचार :

१. फ्रांस के विज्ञानवेत्ता ट्रिलवर्ट कहते हैं : जलती हुई शक्कर में वायु – शुद्ध करने की बहुत बड़ी शक्ति होती है। इससे क्षय, चेचक, हैजा आदि रोग तुरंत नष्ट हो जाते हैं।

२. डॉक्टर एम टैल्ट्र ने मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फलो को जलाकर देखा है। वे इस निर्णय पर पहुंचे हैं की इनके धुंए में टायफाइड ज्वर के रोगकीट केवल तीस मिनट तथा दूसरी व्याधियों के रोगाणु घंटे – दो घंटे में मर जाते हैं।

३. प्लेग के दिनों में अब भी गंधक जलाई जाती है, क्योंकि इसमें रोगकीट नष्ट होते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में डाकटर करनल किंग, आई एम एस, मद्रास के सेनेटरी कमिश्नर थे। उनके समय में वहां प्लेग फ़ैल गया। तब १५ मार्च १८९८ को मद्रास विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के समक्ष भाषण देते हुए उन्होंने कहा था – “घी और चावल में केसर मिलकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।” इस भाषण का सार श्री हैफकिन ने “ब्यूबॉनिक प्लेग” नामक पुस्तक मे देते हुए लिखा है, “हवन करना लाभदायक और बुद्धिमत्ता की बात है।”

महर्षि दयानंद ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है :

“जब तक इस होम करने का प्रचार रहा ये तब तक ये आर्यवर्त देश रोगो से रहित और सुखो से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाए।”

(स. प्र. तृतीय समुल्लास)

यहाँ ऋषि इसी विज्ञानं को समझाने की कोशिश कर रहे हैं जो आज का आधुनिक विज्ञानं मानता है।

कृपया यज्ञ करे – राष्ट्र और पर्यावण को सुखी बनाये

आओ लौटो वेदो की और।

नमस्ते

नोट : इस पोस्ट की कुछ सामग्री “यज्ञ विमर्श” पुस्तक से उद्धृत है।

कवि और कबीर का भेद – रामपाल के पाखंड का खंडन।

।। ओ३म ।।

अग्निनाग्निः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा।
हव्यवावाड्जुह्वास्यः।।

(ऋग्वेद 1.12.6)

प्रथमाश्रम में अपने में ज्ञान को समिद्ध करते हुए हम द्वितीयाश्रम में उत्तम गृहपति बने। वानप्रस्थ बनकर यज्ञो का वहन करते हुए तुरियाश्रम में ज्ञान का प्रसार करने वाले बने।

नमस्ते मित्रो – आज का विषय

कवि और कबीर का भेद – रामपाल के पाखंड का खंडन।

वेदो में प्रयुक्त कवि शब्द एक अलंकार है – किसी प्राणी का नाम नहीं, क्योंकि विद्याओ के सूक्ष्म तत्वों के दृष्टा, को कवि कहते हैं – इस कारण ये अलंकार ऋषियों के लिए भी प्रयुक्त होता है और समस्त विद्या (वेदो का ज्ञान) देने वाला ईश्वर भी अलंकार रूप से कवि नाम पुकारा जा सकता है।

क्योंकि ये एक अलंकार है इससे किसी व्यक्ति प्राणी का नाम समझना एक भूल है – विसंगति है – मगर बहुत से रामपालिये चेले चपाटे अपनी मूर्खता में ये काम करने से भी बाज़ नहीं आते उन्हें कुछ शास्त्रोक्त प्रमाण दिए जाते हैं –

कवि शब्द की व्युत्पत्ति : कविः शब्द ‘कु-शब्दे’ (अदादि) धातु से ‘अच इ:’ (उणादि 4.139) सूत्र से ‘इ:’ प्रत्यय लगने से बनता है। इसकी निरुक्ति है :

‘क्रांतदर्शनाः क्रांतप्रज्ञा वा विद्वांसः (ऋ० द० ऋ० भू०)

“कविः क्रांतदर्शनो भवति” (निरुक्त 12.13)

इस प्रकार विद्याओ के सूक्ष्म तत्वों का दृष्टा, बहुश्रुत ऋषि व्यक्ति कवि होता है।

इसे “अनुचान” भी इस प्रसंग में कहा है [2.129] ब्राह्मणो में भी कवि के इस अर्थ पर प्रकाश डाला है –

“ये वा अनूचानास्ते कवयः” (ऐ० 2.2)

“एते वै काव्यो यदृश्यः” (श० 1.4.2.8)

“ये विद्वांसस्ते कवयः” (7.2.2.4)

शुश्रुवांसो वै कवयः (तै० 3.2.2.3)

अतः इन प्रमाणों से सिद्ध हुआ की वेदो में प्रयुक्त “कवि” शब्द एक अलंकार है – जहाँ जहाँ भी जिस जिस वेद मन्त्र में कवि शब्द प्रयुक्त हुआ है उसका अर्थ अलंकार से ही लेना उचित होगा, बाकी मूढ़ लोगो को बुद्धि तो खुद “कबीर” भी ना दे पाये देखिये कबीर ने अपने ग्रंथो में क्या लिखा है :

कबीर जी परमात्मा को सर्वव्यापक मानते हैं। कबीर जी के कुछ वचन देखे :

स्वयं संत कबीर दास जी ने भी ईश्वर को सर्वव्यापक माना है। (गुरु ग्रन्थ पृष्ठ 855)

कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥
सरब बिआपी = सर्वव्यापी
कबीर जी कह रहे हैं की हे मेरे परमात्मा तू सर्वव्यापी है।

तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी॥

तुम्हारे सामान कोई दयालु नहीं है, और मेरे सामान कोई पापी नहीं है।

कबीर जी ब्रह्म का अर्थ परमात्मा लेते है काल नहीं
कबीरा मनु सीतलु भइआ पाइआ ब्रहम गिआनु ॥ (गुरु ग्रन्थ पृष्ठ 1373)

ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥

सभी की उत्पत्ति ब्रह्म अर्थात ईश्वर से होती है। (गुरु ग्रन्थ पृष्ठ 324)

अब जब कबीर जी भी ईश्वर अर्थात ब्रह्म से सभी की उत्पत्ति मानते हैं ऐसा लिखते भी हैं तब ये रामपाल और उसके चेले कबीर जैसे संत की वाणी को झूठा क्यों सिद्ध करते फिरते हैं की कबीर परमात्मा हैं ?

क्या ये धूर्तता और ढोंग पाखंड नहीं ?

क्या कबीर जैसे संत की वाणी को दूषित करना और संत कबीर को ईश्वर कहना क्या संत कबीर के शब्दों और दोहो का अपमान नहीं ?

आशा है सभ्य समाज इस लेख के माध्यम से रामपालिये और उसके चेलो के पाखंड का विरोध करेंगे और बुद्धिमान व्यक्ति इस पोस्ट के माध्यम से अपने विचार रखेंगे।

लौटो वेदो की और।

नमस्ते

अनवर जमाल साहब की पुस्तक “दयानंद जी ने क्या खोया क्या पाया” के प्रतिउत्तर में :

।। ओ३म ।।जनाब अनवर जमाल साहब ऋषि के ज्ञान और वेद के विज्ञानं पर शंका उत्पन्न करते हुए लिखते हैं :

यदि दयानन्द जी की अविद्या रूपी गांठ ही नहीं कट पायी थी और वह परमेश्वर के सामीप्य से वंचित ही रहकर चल बसे थे तो वह परमेश्वर की वाणी `वेद´ को भी सही ढंग से न समझ पाये होंगे? उदाहरणार्थ, दयानन्दजी एक वेदमन्त्र का अर्थ समझाते हुए कहते हैं-
`इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्‍ठ 107)
(17) परमेश्वर ने चन्द्रमा को पृथ्वी के पास और नक्षत्रलोकों से बहुत दूर स्थापित किया है, यह बात परमेश्वर भी जानता है और आधुनिक मनुष्‍य भी। फिर परमेश्वर वेद में ऐसी सत्यविरूद्ध बात क्यों कहेगा?
इससे यह सिद्ध होता है कि या तो वेद ईश्वरीय वचन नहीं है या फिर इस वेदमन्त्र का अर्थ कुछ और रहा होगा और स्वामीजी ने अपनी कल्पना के अनुसार इसका यह अर्थ निकाल लिया । इसकी पुष्टि एक दूसरे प्रमाण से भी होती है, जहाँ दयानन्दजी ने यह तक कल्पना कर डाली कि सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रादि सब पर मनुष्‍यदि गुज़र बसर कर रहे हैं और वहाँ भी वेदों का पठन-पाठन और यज्ञ हवन, सब कुछ किया जा रहा है और अपनी कल्पना की पुष्टि में ऋग्वेद (मं0 10, सू0 190) का प्रमाण भी दिया है-
`जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुश्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्‍य होंगे? (सत्यार्थ., अश्टम. पृ. 156)
(18) क्या यह मानना सही है कि ईश्वरोक्त वेद व सब विद्याओं को यथावत जानने वाले ऋषि द्वारा रचित साहित्य के अनुसार सूर्य व चन्द्रमा आदि पर मनुष्‍य आबाद हैं और वो घर-दुकान और खेत खलिहान में अपने-अपने काम धंधे अंजाम दे रहे हैं?

समीक्षा : अब हमारे जनाब अनवर जमाल साहब कुरान के इल्म से बाहर निकले तो कुछ ज्ञान विज्ञानं को समझे पर क्या करे अल्लाह मिया ने क़ुरान में ऐसा ज्ञान नाज़िल किया की जमाल साहब उसे पढ़कर ही खुद आलिम हो गए। देखिये जमाल साहब ऋषि ने क्या कहा और उसका अर्थ क्या निकलता है :

ऋषि ने लिखा :

`इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्‍ठ 107)

अब इसका फलसफा और विज्ञानं देखो – ऋषि को वेदो से जो ज्ञान और विज्ञानं मिला वो इन जमाल साहब को नजर नहीं आएगा –

आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुडे हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है।

ऋषि का अर्थ है क्योंकि चन्द्रमा नक्षत्रो के पथ से जुड़ा है इसलिए अलंकार रूप में वहां लिखा है की नक्षत्रलोको के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया –

अब इसका वैज्ञानिक प्रभाव देखो :

तारे हमारे सौर जगत् के भीतर नहीं है। ये सूर्य से बहुत दूर हैं और सूर्य की परिक्रमा न करने के कारण स्थिर जान पड़ते हैं—अर्थात् एक तारा दूसरे तारे से जिस ओर और जितनी दूर आज देखा जायगा उसी ओर और उतनी ही दूर पर सदा देखा जायगा। इस प्रकार ऐसे दो चार पास-पास रहनेवाले तारों की परस्पर स्थिति का ध्यान एक बार कर लेने से हम उन सबको दूसरी बार देखने से पहचान सकते हैं। पहचान के लिये यदि हम उन सब तारों के मिलने से जो आकार बने उसे निर्दिष्ट करके समूचे तारकपुंज का कोई नाम रख लें तो और भी सुभीता होगा। नक्षत्रों का विभाग इसीलिये और इसी प्रकार किया गया है।

चंद्रमा २७-२८ दिनों में पृथ्वी के चारों ओर घूम आता है। खगोल में यह भ्रमणपथ इन्हीं तारों के बीच से होकर गया हुआ जान पड़ता है। इसी पथ में पड़नेवाले तारों के अलग अलग दल बाँधकर एक एक तारकपुंज का नाम नक्षत्र रखा गया है। इस रीति से सारा पथ इन २७ नक्षत्रों में विभक्त होकर ‘नक्षत्र चक्र’ कहलाता है। नीचे तारों की संख्या और आकृति सहित २७ नक्षत्रों के नाम दिए जाते हैं।

इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर महीनों के नाम रखे गए हैं। महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र पर रहेगा उस महीने का नाम उसी नक्षत्र के अनुसार होगा, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को चंद्रमा कृत्तिका वा रोहिणी नक्षत्र पर रहेगा, अग्रहायण की पूर्णिमा को मृगशिरा वा आर्दा पर; इसी प्रकार और समझिए।

ये ज्ञान और विज्ञानं वेदो में ही दिखता है क़ुरान में नहीं जमाल साहब।

क़ुरान का विज्ञानं हम दिखाते हैं जरा गौर से देखिये :

1. अल्लाह मियां तो क़ुरान में चाँद को टेढ़ी टहनी ही बनाना जानता है :

और रहा चन्द्रमा, तो उसकी नियति हमने मंज़िलों के क्रम में रखी, यहाँ तक कि वह फिर खजूर की पूरानी टेढ़ी टहनी के सदृश हो जाता है
(क़ुरआन सूरह या-सीन ३६ आयत ३९)

क्या चाँद कभी अपने गोलाकार स्वरुप को छोड़ता है ? क्या अल्लाह मियां नहीं जानते की ये केवल परिक्रमा के कारण होता है ?

2. सूरज चाँद के मुकाबले तारे अधिक नजदीक हैं :

और (चाँद सूरज तारे के) तुलूउ व (गुरूब) के मक़ामात का भी मालिक है हम ही ने नीचे वाले आसमान को तारों की आरइश (जगमगाहट) से आरास्ता किया।
(सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत ६)

क्या अल्लाह मिया भूल गए की सूरज से लाखो करोडो प्रकाश वर्ष की दूरी पर तारे स्थित हैं ?

3. क़ुरान के मुताबिक सात ग्रह :

ख़ुदा ही तो है जिसने सात आसमान पैदा किए और उन्हीं के बराबर ज़मीन को भी उनमें ख़ुदा का हुक्म नाज़िल होता रहता है – ताकि तुम लोग जान लो कि ख़ुदा हर चीज़ पर कादिर है और बेशक ख़ुदा अपने इल्म से हर चीज़ पर हावी है।

(सूरह अत तलाक़ ६५ आयत १२)

क्या सात आसमान और उन्ही के बराबर सात ही ग्रह हैं ? क्या खुदा को अस्ट्रोनॉमर जितना ज्ञान भी नहीं की आठ ग्रह और पांच ड्वार्फ प्लेनेट होते हैं।

4. शैतान को मारने के लिए तारो को शूटिंग मिसाइल बनाना भी अल्लाह मिया की ही करामात है।

और हमने नीचे वाले (पहले) आसमान को (तारों के) चिराग़ों से ज़ीनत दी है और हमने उनको शैतानों के मारने का आला बनाया और हमने उनके लिए दहकती हुई आग का अज़ाब तैयार कर रखा है।

(सूरह अल-मुल्क ६७ आयत ५)

मगर जो (शैतान शाज़ व नादिर फरिश्तों की) कोई बात उचक ले भागता है तो आग का दहकता हुआ तीर उसका पीछा करता है

(सूरह सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत १०)

क्या अल्लाह को तारो और उल्का पिंडो में अंतर नहीं पता जो तारो को शूटिंग मिसाइल बना दिया ताकि शैतान मारे जावे ? और उल्का पिंड जो है वो धरती के वायुमंडल में घुसने वाली कोई भी वस्तु को घर्षण से ध्वस्त कर देती है जो जल्दी हुई गिरती है ये सामान्य व्यक्ति भी जानते हैं इसको शैतान को मारने वाले मिसाइल बनाने का विज्ञानं खुद अल्लाह मियां तक ही सीमित रहा गया।

रही बात सूर्यादि ग्रह पर प्रजा की बात तो आज विज्ञानं स्वयं सिद्ध करता है की सूर्य पर भी फायर बेस्ड लाइफ मौजूद है। ज्यादा जानकारी के लिए लिंक देखिये :

http://www.theonion.com/article/scientists-theorize-sun-could-support-fire-based-l-34559

अब किसको ज्ञान ज्यादा रहा जमाल साहब ?

आपके क़ुरान नाज़िल करने वाले अल्लाह मिया को ?

या वेद को पढ़कर पूर्ण ज्ञानी ऋषि की उपाधि प्राप्त करने वाले महर्षि दयानंद को।

लिखने को तो और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर आपकी इस शंका पर इतने से ही पाठकगण समझ जाएंगे इसलिए अपनी लेखनी को विराम देता हु – बाकी और भी जो आक्षेप आपकी पुस्तक में ऋषि और सत्यार्थ प्रकाश पर उठाये हैं यथासंभव जवाब देने की कोशिश रहेगी

खुद पढ़े आगे बढे

लौटो वेदो की और

नमस्ते

 

सोम का वास्तविक अर्थ और सोमरस का पाखंड

अ हं दां गृणते पूर्व्यं वस्वहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम् ।

अ हं भुवं यजमानस्य चोदिताऽयज्वनः साक्षि विश्वस्मिन्भरे ।।

– ऋ० मं० १०। सू० ४९। मं० १।।

हे मनुष्यो! मैं सत्यभाषणरूप स्तुति करनेवाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूं। मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करनेहारा और मुझ को वह वेद यथावत् कहता उस से सब के ज्ञान को मैं बढ़ाता; मैं सत्पुरुष का प्रेरक यज्ञ करनेहारे को फलप्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है उस सब कार्य्य का बनाने और धारण करनेवाला हूं। इसलिये तुम लोग मुझ को छोड़ किसी दूसरे को मेरे स्थान में मत पूजो, मत मानो और मत जानो।

नमस्ते मित्रो,

जैसा की आप सभी जानते हों हमारे देश में अनेको विद्वान और गुरुजन होते चले आये हैं और होते भी रहेंगे क्योंकि ये देश ही विद्वान उत्पन्न करने वाला है, इसीलिए इस देश आर्यावर्त को विश्वगुरु कहा जाता है, मगर ये भी एक कटु सत्य है की इसी देश में अनेको ऐसे भी तथाकथित और स्वघोषित विद्वान होते आये हैं जिनका उद्देश्य ही धर्म अर्थात वेद और वेदज्ञान का उपहास करना रहा है, ऐसे ही एक तथाकथित विद्वान हुए थे जिनका नाम था नारायण भवानराव पावगी इन्होने कुछ पुस्तके लिखी थी जिनमे कुछ हैं

1. आर्यावर्तच आर्यांची जन्मभूमि व उत्तर ध्रुवाकडील त्यांच्या वसाहती (इ.स. १९२०)

2. ॠग्वेदातील सप्तसिंधुंचा प्रांत अथवा आर्यावर्तातील आर्यांची जन्मभूमि आणि उत्तर ध्रुवाकडील त्यांच्या वसाहती (इ.स. १९२१)

3. सोमरस-सुरा नव्हे (इ.स. १९२२)

इन पुस्तको में लेखक ने वेदो, वैदिक ज्ञान और ऋषियों पर अनेक लांछन लगाये जिनमे प्रमुखता से ये सिद्ध करने की कोशिश की गयी की वैदिक काल में ऋषि और सामान्य मानव भी होम के दौरान सोमरस का पान देवताओ को करवाते थे और अपनी इच्छित मनोकामनाओ की पूर्ति हेतु यज्ञ में पशु वध, नरमेध भी करते थे। अब इन आधारहीन तथ्यों के आधार पर अनेको विधर्मी और महामानव आदि अपनी वेबसाइट और लेखो के माध्यम से हिन्दुओ के मन में वेदज्ञान के प्रति जहर भरने का कार्य करते हैं, उनमे मुख्यत जो आरोप लगाया जाता है वो है :

वेदो और वैदिक ज्ञान के अनुसार ऋषि आदि अपनी मनोकामनाए पूरी करने हेतु अनेको देवताओ को सोमरस (शराब) की भेंट करते थे।

सोमरस बनाने की विधि वेद में वर्णित है ऐसा भी इनका खोखला दावा है।

आइये एक एक आक्षेप को देखकर उसका समुचित जवाब देने की कोशिश करते हैं।

आक्षेप 1. वेदों में वर्णित सोमरस का पौधा जिसे सोम कहते हैं अफ़ग़ानिस्तान की पहाड़ियों पर ही पाया जाता है। यह बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है। जिसे यदि उबाल कर इसका पानी पीया जाय तो इससे थोड़ा नशा भी होता है। कहते हैं यह पौरुष वर्धक औषधि के रूप में भी प्रयोग होता है।
सोम वसुवर्ग के देवताओं में हैं ।
मत्स्य पुराण (5-21) में आठ वसुओं में सोम की गणना इस प्रकार है-
आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोज्नल: ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोज्ष्टौ प्रकीर्तिता: ॥

समाधान : सोमलता की उत्पत्ति जो बिना पत्ती का पौधा है ऐसा इनका विचार है जो अफगानिस्तान की पहाड़ियों में पैदा होता है ऐसा इनका दावा है उसके लिए ये ऋग्वेद 10.34.1 का मन्त्र “सोमस्येव मौजवतस्य भक्षः” उद्धृत करते हैं। मौजवत पर्वत को आजके हिन्दुकुश अर्थात अफगानिस्तान से निरर्थक ही जोड़ने का प्रयास करते हैं जबकि सच्चाई इसके विपरीत है।

निरुक्त में “मूजवान पर्वतः” पाठ है मगर वेद का मौजवत और निरुक्त का मूजवान एक ही है, इसमें संदेह होता है, क्योंकि सुश्रुत में “मुञ्जवान” सोम का पर्याय लिखा है अतः मौजवत, मूजवान और मुञ्जवान पृथक पृथक हैं ज्ञात होता है। वेद में एक पदार्थ का वर्णन जो सोम नाम से आता है वह पृथ्वी के वृक्षों की जान है। पृथ्वी की वनस्पति का पोषक है, वनस्पति में सौम्यभाव लाने वाला औषिधिराज है और वनस्पतिमात्र का स्वामी है। वह जिस स्थान में रहता है उसको मौजवत कहते हैं। मेरी पिछली पोस्ट में गौओ के निवास को व्रज कहते हैं ये सिद्ध किया था उसी प्रकार सोम के स्थान को मौजवत कहा गया है। यह स्थान पृथ्वी पर नहीं किन्तु आकाश में है। क्योंकि वनस्पति की जीवनशक्ति चन्द्रमा के आधीन है इसलिए उसका नाम सोम है वह औषधि राज है। अलंकारूप से वह लतारूप है क्योंकि जो भी व्यक्ति शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष को समझते हैं जानते हैं उन्हें पता है की चन्द्रमा पंद्रह दिन तक बढ़ता और पंद्रह दिन तक घटता है, इसे न समझकर व्यर्थ की कोरी कल्पना कर ली गयी की शुक्लपक्ष में इस सोमलता के पत्ते होते हैं और कृष्णपक्ष में गिर जाते हैं।

सोम वसुवर्ग के देवताओ में हैं ये भी मिथ्या कल्पना इनके घर की है क्योंकि जो वसु का अर्थ भली प्रकार जानते तो ऐसे दोष और मिथ्या बाते प्रचारित ही न करते, आठ वसु में सोम भी शामिल है उसके लिए उपर्लिखित पुराण का श्लोक उद्धृत करते हैं

मत्स्य पुराण (5-21) में आठ वसुओं में सोम की गणना इस प्रकार है-
आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोज्नल: ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोज्ष्टौ प्रकीर्तिता: ॥

भागवत पुराण के अनुसार- द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु। महाभारत में आप (अप्) के स्थान में ‘अह:’ और शिवपुराण में ‘अयज’ नाम दिया है।

अब यदि इनसे पूछा जाए की – आठ वसुओं में सोम हैं मत्स्य पुराण के अनुसार जिसका अर्थ है मादक दृव्य यानी शराब – तो भगवत पुराण में आठ वसुओं में सोम क्यों नहीं लिखा ?

देखिये ऋषि दयानंद अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में वसु का अर्थ किस प्रकार करते हैं :

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से आठ वसु। (स. प्र. सप्तम समुल्लास)

ऋषि ने बहुत ही सरल शब्दों में वसु का अर्थ कर दिया। अब अन्य आर्ष ग्रन्थ से आठ वसुओं का प्रमाण देते हैं :

शाकल्य-‘आठ वसु कौन से है?’
याज्ञ.-‘अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्र और नक्षत्र। जगत के सम्पूर्ण पदार्थ इनमें समाये हुए हैं। अत: ये वसुगण हैं।

(बृहदारण्यकोपनिषद, अध्याय तीन)

इन प्रमाणों से सिद्ध है की आठ वसुओं में सोम नामक कोई नाम नहीं। हाँ यदि सोम का अर्थ चन्द्र से करते हो जैसा की इस लेख से सिद्ध भी होता है तो आपकी सोमलता और सोमरस का सिद्धांत ही खंडित हो जाता है।

आक्षेप 2. सोम की उत्पत्ति के दो स्थान है- (1) स्वर्ग और (2) पार्थिव पर्वत । अग्नि की भाँति सोम भी स्वर्ग से पृथ्वी पर आया । ऋग्वेद ऋग्वेद 1.93.6 में कथन है : ‘मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा; गरुत्मान ने दूसरे को मेघशिलाओं से।’ इसी प्रकार ऋग्वेद 9.61.10 में कहा गया है: हे सोम, तुम्हारा जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है । सोम की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवन्त पर्वत (गान्धार-कम्बोज प्रदेश) है’। ऋग्वेद 10.34.1

समाधान : यहाँ भी “आँख के अंधे और गाँठ के पुरे” वाली कहावत चरितार्थ होती है देखिये :

अप्सु में सोमो अब्रवीदंतविर्श्वानी भेषजा।
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः।। (ऋग्वेद 1.23.20)

यहाँ सोम समस्त औषधियों के अंदर व्याप्त बतलाया गया है। इस सोम को ऐतरेयब्राह्मण 7.2.10 में स्पष्ट कह दिया है की “एतद्वै देव सोमं यच्चन्द्रमाः” अर्थात यही देवताओ का सोम है जो चन्द्रमा है। इस सोम को गरुड़ और श्येन स्वर्ग से लाते हैं। गरुड़ और श्येन भी सूर्य की किरणे ही हैं। सोम का सौम्य गुण औषधियों पर पड़ता है, यदि स्वर्ग से गरुड़ और श्येन द्वारा उसका लाना है।

ऐसे वैदिक रीति से किये अर्थो को ना जानकार व्यर्थ ही वेद और सत्य ज्ञान पर आक्षेप लगाना जो सम्पूर्ण विज्ञानं सम्मत है निरर्थक कार्य है, क्योंकि आज विज्ञानं भी प्रमाणित करता है की चन्द्रमा की रौशनी अपनी खुद की नहीं सूर्य की रौशनी ही है यही बात इस मन्त्र में यथार्थ रूप से प्रकट होती है और दूसरा सबसे बड़ा विज्ञानं ये है की चन्द्रमा जो रात को प्रकाश देता है उससे औषधियों का बल बढ़ता है।

आशा है इस लेख के माध्यम से सोमरस, सोमलता आदि जो मिथ्या बाते फैलाई जा रही हैं उनपर ज्ञानीजन विचार करेंगे। ईश्वर कृपा से इसी विषय पर जो और आक्षेप लगाये हैं उनका भी समाधान प्रस्तुत होता रहेगा

लौटो वेदो की और

नमस्ते

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का जन्मकाल – वेटिकन चाटुकार अज्ञानी पाश्चात्य इतिहासकारों का खंडन

नमस्ते मित्रो,

हमारे भारतवर्ष में अनेको अनेक महापुरुष, ज्ञानी, विद्वान, पराकर्मी राजा महाराजा उत्पन्न होते आये हैं, ये मिटटी कभी वीरो से खाली नहीं रही, कालांतर में भी पृथ्वी राज चौहान, महाराणा प्रताप, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद सरीखे वीर योद्धा इसी पावन पवित्र मिटटी की गोद से उत्पन्न हुए हैं।

जहाँ तक समझता हु कालांतर में उत्पन्न हुए ये वीर और इनके माता-पिता ने भी किसी न किसी महापुरुष को आदर्श मानकर – इन वीरो में उस महापुरष के संस्कार भरे होंगे। और इस देश भारत के लिए अनेको महापुरषो के आदर्श उपस्थित रहे हैं, सभी महापुरषो के समय पर विचित्र परिस्थितिया रही जिनको उन्होंने उचित रीति से हल किया। जैसे महाभारत काल में योगेश्वर कृष्ण ने शांति बहाल करने की पूर्ण कोशिश की मगर जब धर्म की हानि होते देखि तो युद्ध में पांडवो को विजय दिलवाई। महाराणा प्रताप ने चित्तोड़ की आन बान शान के लिए पूरी जिंदगी संघर्ष किया। ऋषि दयानंद ने देखा देश की हालत बहुत विकट है, आर्य जाती अधम और पाखंड में फंस चुकी थी, भारत गुलामी से त्रस्त था ऐसे में ऋषि ने “स्वराज्य” का बिगुल बजाया। भगत सिंह, आजाद, बिस्मिल अशफ़ाक़ुल्ला खान सरीखे अनेको वीर इस स्वतंत्रता रुपी यज्ञ में अपनी आहुति देने आये।

आखिर ऐसा क्या था जो इन सभी महापुरषो को एक प्रेरणा देता था ?

वो था हमारे इतिहास में उत्पन्न हुए गौरवशाली आदर्श मानव जिन्होंने हमारे भविष्य के लिए अपना वर्त्तमान दांव पर लगाया। वो आज हमारे आदर्श हैं।

ऐसे ही एक महापुरुष के जन्मकाल के समय पर जो लाखो वर्षो से भारतीय जनमानस ही नहीं अपितु दुनिया के सभी मनुष्यो के लिए एक आदर्श रहा है, एक ऐसा मनुष्य जो पुत्र, पति, भाई, मित्र यहाँ तक की एक शत्रु के लिए भी आदर्श बन गया। आज हम ऐसे आदर्श श्री राम के जन्म काल गणना पर विचार करेंगे।

हमारे मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम। इनके जन्म काल के विषय में अनेक भ्रांतियां हैं।
कुछ अंग्रेजी इतिहासकार हमारे सच्चे इतिहास को अपनी वेटिकन चाटुकारिता हेतु नकारते हैं, झूठे तथ्य और बेबुनियाद आधार पर हमारी आस्था पर चोट करते हैं, वामपंथी भी ऐसी ही विकृत मानसिकता से युक्त हैं, वो भी नहीं चाहते की यहाँ का हिन्दू समाज (आर्य जाती) अपने सच्चे इतिहास को जाने, इसीलिए मनमाने और झूठे कुतर्को से झूठ का प्रचार कर हिन्दुओ के मन में भ्रांतियां उत्पन्न करते हैं, नतीजा हिन्दू समाज अपने सत्य इतिहास से दूर होता जाता है।
आज हम इसी विषय पर कुछ विवेचना करेंगे –

देखिये हमारे पास हमारे इतिहास से जुड़े अनेक तथ्य और ऐतिहासिक ग्रन्थ मौजूद हैं, जो हमारी इतिहास की धरोहर है, कुछ अपवाद जैसे प्रक्षेप हिस्से को छोड़ देवे, तो जो सत्य सिद्धांत हो वो मानने योग्य है चाहे किसी भी पुस्तक में मौजूद हो – जब श्री राम का जन्म काल जानने का प्रयत्न करते हैं तो सबसे पहले हम वाल्मीकि रामायण को प्रमाण मानते हैं आइये देखे वहां क्या लिखा है –

ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतुनां षठ समत्ययुः।
ततश्च द्वादशे मासे चैत्रं नावमिके तिथौ।।
नक्षत्रोऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पंच्चसु।
ग्रहेषु कर्कट लग्ने वाक्पताविन्दुना सह।।
कौशल्याजनमद् रामं दिव्य लक्षणं संयुतम्।
लोहिताक्षं महाबाहु रक्तोष्ठम् दुन्दुभिस्वनम्।।
प्रोद्यमाने जगन्न्ााथं सर्व लोक नमस्कृतम।
(वा. रा. – बालकाण्ड, सर्ग ७, श्लोक १-३)

यज्ञ की समाप्ति के पश्चात् 6 ऋतुएं बीत गईं, तब बारहवें मास चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौशल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त श्रीराम को जन्म दिया। उस समय पांच ग्रह अपने-अपने उच्च स्थानों पर विद्यमान थे।

ऋषि वाल्मीकि ने अपनी रामायण में इस प्रकार की ग्रह स्थिति में श्री राम के जन्म का उल्लेख किया है –

सूर्य, मंगल, शनि, बृहस्पति, शुक्र ग्रह मेष मकर तुला कर्क मीन में थे। चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि श्री राम की जन्मतिथि होने से अब रामनवमी के नाम से प्रसिद्ध है।

महाभारत से प्रमाण :

महाभारत के अनुसार त्रेता और द्वापर के संधिकाल में श्री राम का जन्म हुआ था।

संध्येश समनुप्राप्ते त्रेतायां द्वापरस्य च।
अहं दशरथी रामो भविष्यामि जगत्पतिः।।
(महाभारत शान्तिपव-339/85)

ये श्लोक मिलावटी लगता है लेकिन इतना जरूर है की जो यहाँ त्रेता और द्वापर के संधि काल की बात हो रही है – उसमे सत्यता जरूर प्रतीत होती है क्योंकि इसी संधि का ऐसा ही समय आंकलन वायु महापुराण 98/72) (हरिवंश पुराण 4/41 ब्रह्मांड महापुराण 104/11) में भी दिखाई देता है।

चतुर्विशयुगं चापि विश्वामित्रपुरः सरः।
रामो दशरथस्याथ पुत्रःपदमायतेक्षणः।।

क्योंकि यहाँ 24वि चतुर्युगी की बात हो रही है जो इस वैवस्वत मनु के काल में आती है – वो मुझे युक्तियुक्त नहीं लगता अतः हम इसी 28वि चतुर्युगी के आधार पर काल गणना करते हैं –

देखिये इस समय वैवस्वत मनु की 28वि चतुर्युगी का कलयुग 5116वा साल यानी विक्रम का 2072 संवत है – यदि यहाँ से गणना की जाए तो –

इस कलयुग के – 5116 वर्ष

बीत चुके द्वापर के – 8,64,000 वर्ष

बीत चुके त्रेता के – 12,96,000

श्री राम त्रेता और द्वापर के संधि काल में हुए – तो

8,64,000 + 12,96,000 = 21,60,000 वर्ष

इनका संधि काल =

21,60,000 / 2 = 10,80,000 वर्ष

अब इसमें संध्याओं का योग करते हैं –

86,400 + 1,29,600 = 2,16,000 / 2 = 1,08,000

(ये युग का दश्वा हिसा है जो एक युग से दूसरे युग का संधि काल होता है अतः इसका आधा पूर्व और आधा पश्चात का लेना होगा )

संधि काल + संध्याओ का योग

10,80,000 + 1,08,000 = 11,88,000 वर्ष

अब इसमें कलयुग के 5116 वर्ष और जोड़ते हैं

11,88,000 + 5116 = 11,96,116 (11 लाख, 96 हजार, 116 वर्ष) श्री राम
को उत्पन्न हुए हो गए हैं।

ये काल गणना वैवस्वत मनु की 28वि चतुर्युगी के आधार पर है। अतः इतना तो सिद्ध है, ग्यारह लाख, छियानवे हजार एक सौ सौलह वर्ष तो श्री राम के जन्म हुए कम से कम हो ही चुके हैं।

यदि 24वि चतुर्युगी के आधार पर करे तो – ये गणना करोडो वर्ष पूर्व बैठेगी जो तर्कसंगत नहीं होगा क्योंकि अभी हाल में ही अमेरिका के एक खोजी उपग्रह ने श्री रामेश्वरम से श्री लंका तक श्रीराम द्वारा बनाए गए त्रेतायुग के पुल को 17.5 लाख वर्ष पुराना माना है। जो इस 28वि चतुर्युगी के आधार पर निकाले गए श्री राम की जन्म काल गणना से मेल खाता है।

अतः हमें जानना चाहिए की हमारा इतिहास कोई काल्पनिक नहीं – युगो की गणना यदि और सटीक तरीके तथा अनेक ऐतिहासिक ग्रंथो का यदि और अधिक अनुसन्धान और विश्लेषण किया जाए तो हम प्रभु श्री राम के जन्म गणना का और अधिक विश्लेषण करके – मॉडर्न विज्ञानं के आधार पर मेल करवा सकते हैं।

धन्यवाद

आओ लौट चले वेदो की और

यज्ञ में पशु-वध वैदिक काल में नहीं था

महाभारत काल में भी इसकी पुष्टि मिलती है – क्योंकि महाभारत में वृतांत आता है –

“यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा”

ये वृतांत महाभारत में शांतिपर्व के अंतर्गत अध्याय २७२ में आता है – केवल इतना ही नहीं – यहाँ ये भी बताया गया है की यदि कोई यज्ञ में पशु वध करता है – तो निश्चय ही उसका सब तप नष्ट हो गया।

तस्य तेनानुभावेन मृगहिसात्मनस्तदा।

तपो महत समुच्छिन्नं, तस्माद्धहिंसा न यज्ञिया।।

अहिंसा सकलो धर्मोहिंसा धर्मस्तथाविधः।

सत्यंतेहं प्रवक्ष्यामि, यो धर्मः सत्यवादिनाम्।।

इस प्रकरण में महाराज युधिष्ठर ने भीष्म पितामह से पूछा है की धर्म तथा सुख के लिए यज्ञ कैसा करना चाहिए ? उसके उत्तर में पितामह ने एक तपस्वी ब्राह्मण -ब्राह्मणी दंपत्ति का वृतांत देते हुए बतलाया है की किसप्रकार उस तपस्वी ब्राह्मण का महान तप, यज्ञ में पशुबलि देने के लिए एक वन्य मृग को मारने की इच्छा मात्र से विनष्ट हो गया। इसलिए यज्ञ में कभी हिंसा न करनी चाहिए। अहिंसा सार्वत्रिक और सारकालिक नित्य धर्म है।

इस प्रमाण से ज्ञात होता है की न तो महाभारत काल में यज्ञ में पशु हिंसा का विधान था – न ही उससे पहले के काल में क्योंकि अथर्ववेद 11.7.7 में लिखा है –

राजसूयं वाजपेयमग्निष्टोमस्तदध्वरः।
अकार्श्वमेधावुच्छिष्टे जीव बर्हिममन्दितमः।।

राजसूय, वाजपेय, अग्निष्टोम, अर्कमेध, अश्वमेध आदि सब अध्वर अर्थात हिंसा रहित यज्ञ हैं, जोकि प्राणिमात्र की बुद्धि करने वाला और सुख शांति देने वाला है। एवं इस मन्त्र में राजसूय आदि सभी यज्ञो को “अघ्वर” कहा गया है जिसका
एकमात्र सर्वसम्मत अर्थ “हिंसा रहित यज्ञ है”

जोकि निषेधार्थक नञ पूर्वक ‘ध्वर’ हिंसायां धातु से बनता है। घ्वरो हिंसा तदभावोत्र सोध्वरः।

अतः स्पष्ट है की वेदने किसी भी यज्ञ में पशुवध की आज्ञा नहीं दी, उल्टा पशुवध करने पर उसे यज्ञ ही नहीं माना। इसलिए वेद के नाम पर यज्ञो में पशुवध करना अपने को धोखा देना है, दुसरो को उल्टा रास्ता बतलाना, अथवा अपनी अज्ञानता प्रकट करना है। फिर यह भी देखिये की पशु वध करने पर प्राणिमात्र की क्या वृद्धि हुई और उसे क्या सुख शांति मिली, उल्टा प्राणी की हत्या करते समय उसे घोर यातना दी जाती है और उसका जीवन तक समाप्त कर दिया जाता है, तब वह कर्म “बर्हिममन्दितमः” कैसे रहा ?

उपरोक्त तथ्यों से प्रमाणित है की न तो इतिहास में यज्ञो में पशु बलि का समर्थन मिलता है – ना ही वेद में – ब्रह्माण्ड ग्रंथो में भी ऐसा कुछ पाया नहीं जाता –
लेकिन फिर भी कुछ मूढ़ याज्ञिक (पौराणिक) लोग “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का ढोल पीटते हुए यज्ञ में पशुवध को अहिंसा बताते हुए स्वर्ग का मार्ग तक सिद्ध करने की कोशिश करते हैं –

ऐसा मालूम होता है इन लोगो की बुद्धि कहीं घास चरने चली गयी है, अन्यथा वे ऐसा कभी न कहते क्योंकि देखिये मनु महाराज ने “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है –

या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे।
अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ।।
योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया।
स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।।
(५.४४-४५)

अर्थात, जो विश्व संसार में दुष्टो – अत्याचारियो – क्रूरो – पापियो को जो दंड – दान रूप हिंसा वेदविहित होने से नियत है, उसे अहिंसा ही समझना चाहिए, क्योंकि वेद से ही यथार्थ धर्म का प्रकाश होता है। परन्तु इसके विपरीत जो निहत्थे, निरपराध अहिंसक प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है, वह जीता हुआ और मरा हुआ, दोनों अवस्थाओ में कहीं भी सुख को नहीं पाता।

दुष्टो को दंड देना हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा होने से पुण्य है, अतएव मनु ने (8.351) में लिखा है –

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन।।
नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवती कश्चन।
प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति।।

अर्थात, चाहे गुरु हो, चाहे पुत्र आदि बालक हो, चाहे पिता आदि वृद्ध हो, और चाहे बड़ा भरी शास्त्री ब्राह्मण भी क्यों न हो, परन्तु यदि वह आततायी हो और घात-पात के लिए आता हो, तो उसे बिना विचार तत्क्षण मार डालना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्षरूप में सामने होकर व अप्रत्यक्षरूप में लुक-छिप कर आततायी को मारने में, मारने वाले का कोई दोष नहीं होता क्योंकि क्रोध को क्रोध से मारना मानो क्रोध की क्रोध से लड़ाई है।

उपरोक्त मनु स्मृति के प्रमाण से भी स्पष्ट है की यज्ञ में पशु वध का निषेध है।
वेद प्रमाणों से स्पष्ट है की वेदो में पशु वध निषेध है – जबकि वेदो में पशुओ को पालने का स्पष्ट निर्देश है – यहाँ तक की – गाय, घोड़ा आदि पशुओ की हत्या करने वालो को “प्राणदंड” तक का विधान है –

मनु स्मृति भी इस बात की पुष्टि करती है – ब्राह्मण ग्रन्थ भी यही कहते हैं = महाभारत भी यही कहती है – तो इससे सिद्ध है – न तो वैदिक काल में यज्ञ में पशु वध होता था – ना ही महाभारत काल में – ये सब महाभारत युद्ध के ५००-१००० वर्ष बाद की उपज ही सिद्ध होती है –

अतः सत्य सनातन वैदिक स्वरुप को पहचानिये –

सभी महानुभावो से विनम्र निवेदन है कृपया सत्य को समझे – और माने –

वेदो की और लौटिए –

सत्य और न्याय की और लौटिए।

नमस्ते

नोट : ये मनुस्मृति का श्लोक – श्री राम ने – बाली के वध के समय – बाली को सुनाया भी था – ताकि बाली को पता हो की उसने जो वेदविरुद्ध कृत्य किया था – उसका दंड उसे वेद सम्मत और न्यायकारी प्रक्रिया के अधीन ही दिया जा रहा है।

बाइबिल के यहोवा का भयंकर विज्ञान

जी हाँ इतना विज्ञानं आप सुनकर चौंक जायेंगे –

वैसे तो किसी भी पशु का मांस नहीं खाना चाहिए – क्योंकि ये मनुष्यता नहीं –
फिर भी यहोवा को कुछ अकल आई और उसने कुछ पशुओ को अशुद्ध ठहरा दिया – उन पशुओ में सूअर, शापान आदि के साथ साथ एक जानवर आपने देखा होगा – “खरगोश” – इसके मांस को – यहोवा ने अशुद्ध बताया है –

आइये एक नजर डालिये – की इन पशुओ में क्या ऐसा है जो इनको अशुद्ध बनाता है – और अन्य पशुओ को शुद्ध –

1 फिर यहोवा ने मूसा और हारून से कहा,

2 इस्त्राएलियों से कहो, कि जितने पशु पृथ्वी पर हैं उन सभों में से तुम इन जीवधारियों का मांस खा सकते हो।

3 पशुओं में से जितने चिरे वा फटे खुर के होते हैं और पागुर करते हैं उन्हें खा सकते हो।

4 परन्तु पागुर करने वाले वा फटे खुर वालों में से इन पशुओं को न खाना, अर्थात ऊंट, जो पागुर तो करता है परन्तु चिरे खुर का नहीं होता, इसलिये वह तुम्हारे लिये अशुद्ध ठहरा है।

5 और शापान, जो पागुर तो करता है परन्तु चिरे खुर का नहीं होता, वह भी तुम्हारे लिये अशुद्ध है।

6 और खरहा, जो पागुर तो करता है परन्तु चिरे खुर का नहीं होता, इसलिये वह भी तुम्हारे लिये अशुद्ध है।

7 और सूअर, जो चिरे अर्थात फटे खुर का होता तो है परन्तु पागुर नहीं करता, इसलिये वह तुम्हारे लिये अशुद्ध है।

8 इनके मांस में से कुछ न खाना, और इनकी लोथ को छूना भी नहीं; ये तो तुम्हारे लिये अशुद्ध है॥
(लैव्यव्यवस्था, अध्याय ११)

तो देखा आपने – शुद्ध और अशुद्ध का निराकरण करना – वो भी बाइबिल के यहोवा का तर्कसम्मत विज्ञानं ?

क्या कोई जीव – ईश्वर की नजर में अशुद्ध है ?

फिर बनाया क्यों ?

अब क्या ऐसे को जो अपनी ही बनाई सृष्टि में कुछ पक्षपात करता डोलता है – शुद्ध अशुद्ध का भेद करके – उसे ईश्वर कह सकते हैं –

चलिए इस विषय पर फिर कभी चर्चा करेंगे अभी तो ऊपर की आयत में यहोवा का भयंकर विज्ञानं पढ़िए – हंसी आएगी = की बाइबिल का यहोवा – इतना मुर्ख ?

3 पशुओं में से जितने चिरे वा फटे खुर के होते हैं और पागुर करते हैं उन्हें खा सकते हो।

यानी जो पशु जुगाली करते हो और उनके खुर फटे हो – यानी खुर (hoof) में फटाव हो – अथवा बंटे हो – ये दोनों स्थति होनी चाहिए =

अब देखिये – यहोवा का मंदबुद्धि विज्ञान

6 और खरहा, जो पागुर तो करता है परन्तु चिरे खुर का नहीं होता, इसलिये वह भी तुम्हारे लिये अशुद्ध है।

यहाँ खरगोश को अशुद्ध बताया है – यानी खरगोश जुगाली तो करता है मगर उसके खुर फटे नहीं होते –

किसी भाई ने खरगोश को जुगाली करते देखा ?

खरगोश के खुर फटे होते हैं –

क्या ये नार्मल सी बाते भी बाइबिल के यहोवा को नहीं मालूम ?

हाँ केवल आदम हव्वा से दुनिया के अनेक मनुष्य बनाता है – इतना ही अक्ल है –

वाह जी वाह – क्या विज्ञानं है यहोवा का ?

इतने पर भी मेरे ईसाई मित्र कहते हैं –

बाइबिल में विज्ञानं है –

भाई ऐसे विज्ञानं को आप ही पढ़ो और आप ही बांटो –

हम से न होगा –

हंसो मत भाई – यहोवा को बुरा लग गया – तो क़यामत भेज देगा –

बताओ इतना मंदबुद्धि और कम अक्ल वाला बाइबिल का यहोवा अपने को सर्वज्ञ और ईश्वर कहलवाता है –

मेरे ईसाई मित्रो – इस विज्ञानं पर कुछ बोलना है ?

ज्ञान और विज्ञानं वेद में है – उसे अपनाओ

इस ढोंग को छोडो – धर्म से नाता जोड़ो –

लौटो वेदो की और

नमस्ते

हिन्दुस्तान किस तरह मुसलमान हुआ ?

मौलवी जकाउल्ला प्रोफेसर फरमाते है । यह असली मुसलमान कुल मुसलमानों से जो इस मुल्क में आबाद है आधे होंगे। वाकी आधे ऐसे ही मुसलमान है जो हिन्दुओं से मुसलमान हुए है । सरकारी मर्दुमशुमारी से मालूम होता है कि हिन्दुस्तान में ४ करोड़ १० लाख मुसलमान रहते हैं । उनमें से जियादह मुसलमान जो हिन्दुओं से मुसलमान हुए हैं । गो इस्लाम

ने उनके सिद्धान्तो को बदल दिया मगर उनके रस्म रिवाज को न बदल सका । गोकि वह आपस में मिलकर खाने पीने लगे मगर शादी व्याह में अब तक गोत्र बचाते है जैसे हिन्दू-गरज इस्लाम का असर हिन्दुओं पर ऐसा नहीं हुआ जैसाकि हिन्दुओं का असर इस्लाम पर हुआ ।
(देखो तारीख हिन्द हिस्सा अव्वल फस्ल दौम सफा 6)

अब हम बतलाते हैं कि इतने जो मुसलमान है । ये किस तरह मुसलमान हुए हैं और कब से हुए हैं और सब से पहिला मुसलमान इस मुल्क में कौन हुआ है ।

मुल्क हिन्दुस्तान में सबसे अव्वल मुसलमान वापा राजपूत चित्तोड़ के मालिक ने सन् 812 ई० में खमात्त के हाकिस सलीम की लड़की से शादी कर सी और मुसलमान हुआ मगर मुसलमान हॉकर लज्जित हॉकर खुरासान चला गया … फिर न आया उसका हिन्दू बेट गद्दी पर
बैठा । (देखो आईन तारीख नुमा सफा सन् 1881 ई० ।)

सन् 812 ई॰ से खलीफा मामू रसीद ने बडी फोज के साथ हिन्दुस्तान पर चढाई की । वापा का पोता उस वक्त चितौड़ का हाकिम था … नाम उसका राजा कहमान था । उससे ओर मामूं से जो बीस लडाहयां हुई लेकिन आखिरकार मामूं शिकिस्त खाकर हिन्दूस्तान से भाग गया । (सफा 6 आईना तारीख नुमा सन् 1881 ई० और देखो मिफ्ताहुद तवारीख सफा
(7 सन् 1883 त्तवये सालिस हिस्सा अव्वल)

हिन्दुस्तान का दूसरा मुसलमान राजा सुखपाल नाम महमूद के हाथ राज्य के लालच में मुसलमान हुआ । मगर लिखा है जब महमूद बलख की तरफ़ गया तो उसने फिर हिन्दू बनकर उसकी तावेदारी की । महमूद ने सन् 1006 ई॰ में उसे पकड़कर जन्म भर के लिये कैद कर दिया (सफा 16 आईने त्तारीख नुमा सन् 1881 ई० और मुखताहुद तवारीख सफा 9 सन्
1883 ई० हिस्सा अव्वल)