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राज्याधिकारियों से निवेदन -रामनाथ विद्यालंकार

राज्याधिकारियों से निवेदन -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः तापसः । देवता मन्त्रोक्ता: । छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री ।

प्रनों यच्छत्वर्यमा प्रपूषा प्र बृहस्पतिः। प्र वाग्देवी ददातु नः स्वाहा।।

-यजु० ९ । २९ |

( अर्थ्यमा ) न्यायाधीश ( नः ) हमें (प्रयच्छतु ) अपनी देन दे। ( प्र पूषा) पुष्टि, पशुपालन और यातायात का मन्त्री अपनी देन दे। ( प्र बृहस्पति:३) शिक्षामन्त्री भी अपनी देन दे। ( वाग् देवी ) दिव्य वेदवाणी भी (नः प्र ददातु ) हमें अपनी देन दे।

हम चाहते हैं कि राष्ट्र के सब अधिकारी हमें अपने-अपने अधिकार और सेवा से लाभ पहुँचाएँ।’ अर्यमा’ अपनी देन दे। जो ‘अर्यो’ अर्थात् श्रेष्ठों का मान करता है और अश्रेष्ठों को दण्डित करता है वह न्यायाधीश अर्यमा कहलाता है। उसका कर्तव्य है कि वह प्रत्येक अभियोग के दोनों पक्षों को ध्यान से सुनकर अपना निर्णय दे कि दोषी कौन है और उसे क्या दण्ड दिया जाए। अपराध का दण्ड मिलने पर अपराधी को यह शिक्षा मिलती है कि भविष्य में वह अपराध न करे और अन्य लोग भी सजग हो जाते हैं। इस प्रकार न्यायाधीश की समाज को यह देन है कि वह राष्ट्र में निरपराधता का वातावरण तैयार करता है। पूषा’ वेद में पुष्टि, पशुपालन और मार्गों का नियन्त्रण करता है, अत: वह इस विभाग का मन्त्री है। खेती और बागवानी की सब समस्याओं को वह देखेगी। वेद में ब्रीहि, यव, माष, तिल, मूंग, चने, किनकी चावल (अणु), साँवक चावल (श्यामाक), तृणधान्य (नीवार), गेहूँ, मसूर आदि अन्नों के नाम आते हैं। दूध, घी, रस, मधु का भी वर्णन आता है। पुष्ट और पुष्टि की प्रचुरता होने का भी उल्लेख है। पशुपालन के सूक्त भी हैं। इन सब विषयों की समस्याओं का समाधान करना और अपनी ओर से इन सबकी उन्नति करना पूषा मन्त्री की देन है। वह हमें प्रचुरता से प्राप्त होती रहे। ‘बृहस्पति’ शिक्षामन्त्री है। विश्वविद्यालयों की उन्नति, शिक्षा के विषयों की वृद्धि, उच्च शिक्षा का प्रबन्ध, वैज्ञानिक विषय कृषि, शिल्प आदि तथा अन्य विभिन्न विषयों की शिक्षा को सञ्चालित तथा उन्नत करना शिक्षा मन्त्री का कार्य है। वह इस कार्य को भलीभाँति करके अपनी देन देता रहे। |

‘वाग् देवी’ दिव्य वेदवाणी है, सरस्वती भी उसी का नाम है। वेदवाणी विभिन्न विद्याओं का सरस प्रवाह हमें देकर हमारा उपकार करती है। साथ ही उद्बोधन, आशावाद की उमङ्ग, शिवसङ्कल्प, आत्मा की अमरता, आत्मा की अद्भुत क्षमता, सन्मार्ग में प्रवृत्ति, बाधाओं और विघ्नों का क्षय एवं ऊध्र्वारोहण करा कर हमें समुन्नत करती है।

उक्त सब मन्त्रोक्त विभिन्न विभागों के राज्याधिकारी एवं वेदविद्या हम सबको अपनी बहुमूल्य देन देकर उपकृत करते रहें, यही हमारी कामना है।

पादटिप्पणियाँ

१. (अर्यमा) न्यायाधीश:-२० ।

२. पुष्टं च मे पुष्टिश्च मे । य० १८.१०, पूषा गा अन्वेतु नः पूषा रक्षत्वर्वतः ।।पूषा वाजं सनोतु नः । ऋ० ६.५४.५, पथस्पते ऋ० ६.५३.१

३. बृहत्याः वेदवाच:, बृहतो ज्ञानस्य शिक्षाशास्त्रस्य वा पतिः बृहस्पतिःशिक्षामन्त्री।

४.य० १८.१२ ५.

५.य० १८.९

६.अ० २.३४, ३.९८, ६.३१, ७.१०४ आदि ।

राज्याधिकारियों से निवेदन -रामनाथ विद्यालंकार 

हे प्रभु, यजमान की पुकार सुनो -रामनाथ विद्यालंकार

हे प्रभु, यजमान की पुकार सुनो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः देववातः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

अग्ने सर्हस्व पृतनाऽअभिमतीरपस्य। दुष्टरस्तरन्नरातीर्वचधा यज्ञवहसि ॥

-यजु० ९ । ३७ |

( अग्ने) हे अग्रनायक वर्चस्वी परमात्मन्! आप (पृतना: ) सेनाओं को ( सहस्व ) पराजित करो, ( अभिमाती: ) अभिमानवृत्तियों को ( अपास्य ) दूर करो। ( दुष्टर: ) दुरस्तर आप ( अरातीः३) अदानवृत्तियों को एवं अदानी रिपुओं को ( तरन्) तरते हुए, तिरस्कृत करते हुए ( यज्ञवाहसि) यज्ञवाहक यजमान के अन्दर ( वर्चः धाः५) वर्चस्विता को धारण करो।

हे परमेश्वर ! आप अग्रनायक और जलती आग के समान जाज्वल्यमान, तेजस्वी, वर्चस्वी होने के कारण ‘अग्नि’ कहलाते हो। आप अपनी ज्वाला से मुझे भी प्रज्वलित कर दो। मुझे ऐसा बना दो कि कितनी ही शत्रु-सेनाएँ मुझसे लोहा लेने के लिए आयें, सब मुझसे पराजित हो जाएँ। अध्यात्म में काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष, अनुत्साह, अकर्मण्यता आदि की सेनाएँ मझे दबोचना चाहती हैं और बाहर मुझे तथा मेर राष्ट्र को परास्त करके अपने अधीन करना चाहने वाली शत्रु सेनाएँ नीचा दिखाना चाहती हैं। आप मुझे ऐसी शक्ति दें कि मैं इन पर विजय प्राप्त कर सकें। अनेक अवसरों पर कठिनाइयों का पराजय तो मैं आपकी कृपा से करता हूँ, किन्तु अभिमान मुझे अपनी महत्ता का हो जाता है। इन अभिमातियों को, अभिमानवृत्तियों को भी आप चकनाचूर करके मुझमें विनय का बीजारोपण कीजिए। हे जगदीश्वर ! आप दुस्तर हैं, किसी से हारनेवाले नहीं हैं, अपितु जहाँ कहीं भी अमानवीयता दृष्टिगोचर होती है, उसे आप भस्मसात् करके राक्षस को मानव बना देते हो। अत: मेरे अन्दर भी जो अराति या अदान वृत्तियाँ पनप रही हैं, जिनके कारण मैं परोपकार में संलग्न नहीं होता हैं, उन्हें तिरस्कृत करके मुझे उद्भट दानी बना दीजिए। आप मुझे उदासीन, निस्तेज, बुझा हुआ भी मत रहने दीजिए, प्रत्युत मेरे अन्दर वर्चस्विता, उत्साह, अग्रगामिता, आशावादिता आदि उत्पन्न करके समाज में ऐसा उत्साही और तेजस्वी बना दीजिए कि जहाँ भी मैं अन्याय, अत्याचार आदि देखें, उसे कुचल डालँ।।

हे अन्तर्यामी ! मैं आज यजमान बना हूँ, यज्ञ का व्रती बना हूँ। यज्ञ शब्द देवपूजा, संङ्गतिकरण और दान अर्थवाली यज धातु से निष्पन्न होता है। अतः आप मुझे ऐसा आत्मबल दीजिए कि मैं देवपूजक बनूं, सत्कार्यों के सङ्गठन में भागीदार बनूं और अपने तन, मन, धन का दूसरों की भलाई के लिए दान कर सकें। हे प्रभु, मेरी इन सदिच्छाओं को पूर्ण कीजिए, मुझे सच्चे अर्थों में यज्ञवाहक बनाइये ।।

पाद-टिप्पणियाँ

१. अप-असु क्षेपणे, दिवादिः ।

२. दुष्टर: दुःखेन तर्तुं शक्यः ।

३. अराती:-न रा दाने, क्तिन्, अराति: ।

४. यज्ञवाहस् सप्तमी एकवचन।।

५. धाः अधाः । बहुलं छन्दस्यमायोगेऽपि पा० ५.४.७५ से अडागमका निषेध। लिङर्थ में लुड्।

हे प्रभु, यजमान की पुकार सुनो -रामनाथ विद्यालंकार 

नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वरुणः । देवता क्षत्रपति: । छन्दः आर्षी पङ्किः।

सोमस्य त्वा द्युम्नेनाभिषिञ्चाम्यग्नेजसा सूर्यस्य वर्चसेन्द्र स्येन्द्रियेण क्षत्राणी क्षत्रपतिरेध्यति दिद्यून् पहि ॥

-यजु० १० । १७

हे नवनिर्वाचित राजन् ! ( सोमस्य द्युम्नेन ) सोम के यश से ( त्वी अभिषिञ्चामि ) तुझे अभिषिक्त करता हूँ, ( अग्नेः भ्राजसा ) अग्नि के तेज से, ( सूर्यस्य वर्चसा ) सूर्य के वर्चस् से, (इन्द्रस्य इन्द्रियेण ) इन्द्र के इन्द्रत्व से । तू ( क्षत्राणां क्षत्रपतिः) क्षात्रकुलोत्पन्नों का क्षत्रपति ( एधि) हो। ( दिद्युन् अति ) मारक शास्त्रास्त्रों को विफल करके, तू ( पाहि ) राष्ट्र की रक्षा कर।।

हे क्षत्रियश्रेष्ठ! आप मतदाताओं द्वारा बहुसम्मति से राष्ट्र के राजा निर्वाचित हुए हैं। इस अवसर पर हम राष्ट्रवासियों की ओर से हर्ष प्रकट करते हैं और आपको वधाई देते हैं। यह हम राष्ट्र का सौभाग्य मानते हैं कि आप जैसे सुयोग्य व्यक्ति के पक्ष में जनता ने मतदान किया है। अब विभिन्न स्थानों के जलों से आपका अभिषेक हो रहा है। प्रजा की ओर से आपका अभिषेक करने के लिए नियुक्त मैं पुरोहित आपको ‘सोम’ के यश से अभिषिक्त करता हूँ। सोम चन्द्रमा का और ओषधियों के राजा का नाम है। चन्द्रमा अपनी चाँदनी के यश से यशस्वी बना हुआ है। वह चान्द्र तिथियों, चान्द्र मासों तथा चान्द्र वर्षों का भी निर्माण करता है। आपका यश भी चाँदनी जैसा हो, आप पूनम के चाँद बनकर राष्ट्रगगन में चमकें। ‘सोम’ ओषधियों का राजा एक पौधा भी होता है, जिसका रस स्फूर्ति, उत्साह, मनीषा, वीरता आदि को बढ़ाता है, तथा जो रोगियों को नीरोग, निराशों की आशावादी और मृततुल्यों  को सजीव कर सकता है। उस जैसा यश भी आप प्राप्त करें। ‘अग्नि’ के तेज से आपको अभिषिक्त करता हूँ। यज्ञकुण्ड में अग्नि की ऊर्ध्वगामिनी ज्वालाएँ यजमान को तेजस्वी होकर ऊध्र्वारोहण करने का सन्देश देती हैं। अग्नि का वह यश भी आपको प्राप्त हो। फिर मैं सूर्य के वर्चस् से आपको अभिषिक्त करता हूँ। सूर्य का वर्चस् समस्त सौर मण्डल को प्राण प्रदान करता है, अपने आकर्षण की डोर से सबको अपने साथ बाँध कर अपने चारों ओर अपनी परिक्रमा करवाता है, प्रकाश देता है, अपने ताप से ओषधि-वनस्पतियों को उगाता, बढ़ाता, पुष्पित-फलित तथा परिपक्व करता है। आप अपने राष्ट्र की फुलवारी को सींचिए, सप्राण कीजिए, बढाइए, विकसित कीजिए, फलवती कीजिए। मैं आपको इन्द्र के इन्द्रत्व से अभिषिक्त करता हूँ। वैदिक इन्द्र के कर्म हैं वर्षा करना, वृत्रादि का वध करना तथा जो भी वीरता के कार्य हैं, उन्हें करना। आप भी प्रजा पर सुखसमृद्धि की वर्षा कीजिए, वैरियों का संहार कीजिए और अन्य भी वीरता के सेवाकार्य कीजिए। | हे राजन्! आप सच्चे अर्थों में क्षत्रपति बनिए, क्षात्र तेज को चारों ओर बखेरिए, चोरों से, आघातों से, शत्रु के आक्रमणों से राष्ट्र की रक्षा कीजिए। शत्रुओं की वाणवर्षा, बम-गोलों की वर्षा, तोप-गोलों की वर्षा विफल करके राष्ट्र की रक्षा कीजिए। हम आपका जयकार करते हैं, आपके सहयोगियों का जयकार करते हैं, आपके अभिषेक का जयकार करते हैं और आपसे आशा करते हैं कि आप अपने कार्यकाल में राष्ट्र को ऊँचा उठायेंगे।

पादटिप्पणियाँ

१. द्युम्नं द्योततेः, यशो वा अन्नं वा। निरु० ५.३४

२. दो अवखण्डने। द्यन्ति खण्डयन्ति ये ते दिद्यवो बाणाः। ‘इषवो वै दिद्यवः इषुवधमेवैनमेतदतिनयति’ श० ५.४.२.९ इति श्रुतेः । तानतक्रम्यशत्रुप्रयुक्तान् इष्वादीन् अपसार्य इमं यजमानं हे सोम पाहि पालय–म० |

३. अथास्य कर्म रसानुप्रदानं वृत्रवधः या च का च बलकृति: इन्द्रकमेवतत् । निरु० ७.१०

नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार 

बादलों में ऊपर-नीचे चलनेवाले विमान -रामनाथ विद्यालंकार

बादलों में ऊपर-नीचे चलनेवाले  विमान-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः देववातः । देवता नावः । छन्दः विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् ।

प्र पर्वतस्य वृषभस्य पृष्ठान्नावश्चरन्ति स्वसिचऽइयानाः । ताऽआर्ववृत्रन्नधुरागुक्ताऽअहिं बुध्न्युमनुरीयमाणाः । विष्णोर्विक्रमणमसि विष्णोर्विक्रान्तमसि विष्णोः क्रान्तमसि॥

-यजु० १० । १९

( वृषभस्य) वर्षा करनेवाले ( पर्वतस्य ) मेघ’ के ( पृष्ठात् ) पृष्ठ से ( स्वसिचः) स्वयं को मेघजल से सिक्त करनेवाली ( इयानाः३ ) गतिशील, वेगवती (नावः ) विमान रूपिणी नौकाएँ ( चरन्ति ) चलती हैं । ( ताः ) वे ( बुध्न्यम् अहिम् अनु रीयमाणाः५) अन्तरिक्षवर्ती मेघ में गति करती हुई ( अधराक् उदक्ताः ) नीचे से ऊपर जाती हुई (आववृत्रन्६ ) चक्कर काटती हैं। हे विमानरूप नौका की उड़ान ! तू (विष्णोःविक्रमणम् असि ) सूर्य का विक्रमण है, सूर्य की यात्रा के समान है, (विष्णोःविक्रान्तम् असि ) वायु का चरण-न्यास है, ( विष्णोः क्रान्तम् असि ) शिल्प-यज्ञ की क्रान्ति है। |

पर्वत शब्द निघण्टु कोष में मेघवाची शब्दों में पठित है। वेद में इसके पहाड़ और मेघ दोनों अर्थ होते हैं। प्रस्तुत मन्त्र में मेघों के मध्य चलनेवाली नौकाओं का वर्णन है। मेघ अन्तरिक्ष में होते हैं । अन्तरिक्ष में नौकाएँ नहीं चल सकतीं, नौकाओं की आकृतिवाले विमान ही चल सकते हैं। नौका की आकृतिवाला होने से लक्षणा के प्रयोग से विमानों को नौका कह दिया गया है। अन्तरिक्ष में चलनेवाली नौकाओं की चर्चा वेद में अन्यत्र भी मिलती है। सामान्यतः जो विमान अन्तरिक्ष में उड़ते हैं, वे बादलों से नीचे उड़ते हैं। इस मन्त्र में बादलों में या बादलों से भी ऊपर उड़ान भरनेवाले विमानों का वर्णन है। ये विमान भूमि से अन्तरिक्ष में पहुँच कर मेघों में घुसकर  वर्षा करनेवाले मेघ के एक छोर से दूसरे छोर तक उडान भरते हुए चले जाते हैं। मेघ-जल से ये गीले भी होते रहते हैं, फिर भी इनमें कोई विकार नहीं आता। ये बहुत वेग से चलते हैं। ‘बुध्न्य अहि’ अन्तरिक्षवर्ती मेघ का ही नाम है। उसमें ये गतिशील होते हैं। नीचे से ऊपर की ओर भी उड़ान लेते हैं। बादल को पार करके उससे ऊपर भी पहुँच जाते हैं। बादलों के आर-पार, नीचे-ऊपर चक्कर काटते हैं। अन्त में विमानरूप नौका की उड़ान के विषय में कहा गया है कि तू विष्णु सूर्य के विक्रमण या उसकी यात्रा के समान है। जैसे सूर्य प्राची में उदित होकर उत्क्रमण करता-करता मध्याकाश में पहुँच जाता है, ऐसे ही विमान भी भूमि से ऊपर उठता उठता अन्तरिक्षवर्ती मेघों के बीच में पहुँच कर यात्रा करता है और कभी उससे भी ऊपर उठ जाता है। विष्णु का अर्थ सूर्य के अतिरिक्त वायु भी होता है। विमान की उड़ान वायु के चरण न्यास के समान है, जैसे वायु कभी पूर्व दिशा की ओर, कभी पश्चिम दिशा की ओर, कभी दक्षिण या उत्तर दिशा की ओर तथा कभी नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे की ओर, और कभी चक्रवात के रूप में चलता है, ऐसे ही विमान भी उड़ान भरता है। विष्णु का अर्थ यज्ञ भी होता है । शिल्प भी एक यज्ञ है। विमान का निर्माण और उसकी विविध दिशाओं में उड़ाने भरना शिल्पयज्ञ की एक क्रान्ति है। | आओ, हम भी विमानों में बैठकर मेघमण्डल की यात्रा का आनन्द लें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पर्वतळमेघ । निघं० १.१०

२. स्वं सिञ्चन्तीति स्वसिचः ।

३. इण् गतौ, चानश्=आन प्रत्यय।

४. अहि=मेघ, निघं० १.१०, अहिर्बुध्न्यः योऽहि: स बुध्न्यः , बुध्नम्।अन्तरिक्षं तन्निवासात् । निरु० १०.३०।।

५.रीयते= गच्छति । निघं० २.१४।

६. आ वृतु वर्तने, णिच्, लुङ्, रक् का आगम छान्दस।

७. निरु० २.२२ ।

८. नौभिरात्मन्वतीभिः अन्तरिक्षप्रद्भिः अपोदकाभि: । ऋ० १.११६.३

९. (विष्णो:) व्यापकस्य वायो:। -द० ।

१०.यज्ञो वै विष्णुः । –श० १.१.२.१३ 3 u

बादलों में ऊपर-नीचे चलनेवाले  विमान-रामनाथ विद्यालंकार 

योगी बनकर आनन्दमग्न हों -रामनाथ विद्यालंकार

योगी बनकर आनन्दमग्न हों -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः शंकुमती गायत्री ।

युक्तेन मनसा यं देवस्य सवितुः सवे। स्वग्र्याय शक्त्या।

-यजु० ११।२

( युक्तेन मनसा ) योगयुक्त मन से ( वयम् ) हम योगी लोग ( देवस्य ) देदीप्यमान तथा प्रकाशक ( सवितुः३) प्रेरक सविता प्रभु की ( सवे ) प्रेरणा में रहते हुए (शक्त्या ) शक्ति से ( स्वग्र्याय ) ब्रह्मानन्द के अधिकारी हों ।।

यदि हम योगमार्ग का अवलम्बन करके यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान द्वारा सविकल्प तथा निर्विकल्पक समाधि को प्राप्त कर लेते हैं, तब तो हम योग के राही हैं ही। परन्तु यदि इस मार्ग को सूक्ष्मता से अपनाये बिना भी किसी विषय में मन को चिरकाल तक केन्द्रित किये रखने की क्षमता हमारे अन्दर है, तो भी हम कुछ अंशों में योगी कहला सकते हैं। कोई साहित्यस्रष्टा लेखक है और चार-पाँच-छह घण्टे तक लगातार उसका मन लेखन में केन्द्रित रहता है, तो वह भी योगी है। एक श्रोता किसी विद्वान् के भाषण को निरन्तर घण्टे भर दत्रचित्त होकर सुनता है और बाद में भाषण वैसा का वैसा सुना देता है, तो वह भी योगी है। अपने मन को किसी विषय में निरन्तर केन्द्रित रख सकना योग की सबसे पहली निशानी है। वह विषय सांसारिक भी हो सकता है और पारमार्थिक भी। वह विषय किसी की सेवा में मन लगाना भी हो सकता है और परमेश्वर में मन लगाना भी। परन्तु किसी दुर्व्यसन में मन लगाना योग की श्रेणी में नहीं आता, भले ही छह-सात घण्टे यजुर्वेद- ज्योति उस दुर्व्यसन में मन लगाने की क्षमता हमारे अन्दर हो । दुर्व्यसनी के मन का आराध्य बदलकर उसे योगी बनाया जा सकता है।

आओ, हम योग रचायें, ‘सविता’ प्रभु में अपने मन को केन्द्रित करें। ‘सविता’ प्रभु में अपने मन को जो रमाते हैं, उन्हें वह उत्कृष्ट प्रेरणाएँ ही करता है, उनके मन में शक्ति भरता है। जैसे किसी यन्त्र में बिजली द्वारा असीम कार्य करने की शक्ति भर दी जाती है, वैसे ही प्रभु का संस्पर्श साधक के अन्दर अपार शक्ति भर देता है। प्रभु से प्राप्त यह चुम्बकीय शक्ति साधक में इतनी कार्यक्षमता उत्पन्न कर देती है कि वह शुभ कार्यों को करते कभी थकता नहीं। साथ ही वह शक्ति साधक को आनन्द की दिव्य धारा में स्नान करा देती है, ब्रह्मानन्द की तरङ्गों से तरङ्गित कर देती है। आओ, हम भी योगी बनकर ‘सविता’ प्रभु में अपने मन को केन्द्रित करके अथक शक्ति तथा दिव्य आनन्द के भागी बनें।

पादटिप्पणियाँ

१. (युक्तेन) कृतयोगाभ्यासेन ।

२. (वयम्) योगिनः-२० ।

३. सुवति प्रेरयति शुभकर्मसु यः स सविता । षु प्रेरणे, तुदादिः ।

४. स्व: दिव्यं ज्योतिः गम्यते प्राप्यते यत्र स स्वर्गः। तत्र भवः स्वर्यः दिव्यानन्दः ।

योगी बनकर आनन्दमग्न हों -रामनाथ विद्यालंकार 

योगमार्ग के विघ्नों को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

योगमार्ग के विघ्नों  को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः मयोभूः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

आगत्य वन्यध्वनिश्सर्वा मृध विधूनुते । अग्निसुधस्थे महुति चक्षुषा निर्चिकीषते

-यजु० ११ । १८

(वाजी ) बलवान् जीवात्मा (अध्वानम् आगत्य ) योगमार्ग में आकर ( सर्वाः मृधः ) सब हिंसक विप्नों को ( विधूनुते ) प्रकम्पित कर देता है। फिर वह ( महति सधस्थे ) महान् हृदय-सदन में (अग्निम् ) प्रकाशमय प्रभु को ( चक्षुषा )अन्त:चक्षु से (निचिकीषते ) देख लेता है।

आओ, तुम्हें वाजी की बात सुनायें । किन्तु ‘वाजी’ का तात्पर्य घोड़ा मत समझ लेना। ‘वाज’ का अर्थ होता है बल, अतः ‘बलवान्’ को वाजी कहते हैं । घोड़ा भी बलवान् होने के कारण ही वाजी कहलाता है। हम यहाँ जिस ‘वाजी’ की बात करने लगे हैं, वह है बलवान् जीवात्मा । हमारे अन्दर सबसे अधिक बलवान् जीवात्मा ही है। जब तक वह सोया रहता है, तब तक तो काम, क्रोध आदि चूहे उस पर कूदते रहते हैं। पर ज्यों ही वह जाग कर हंकार भरता है, त्यों ही सब विषयविकारों की सेना भाग खड़ी होती है।

उस ‘वाजी’ अर्थात् बलवान् जीवात्मा के विषय में मन्त्र कहता है कि जब वह योगमार्ग में पदार्पण करता है, तब इस मार्ग में बाधा डालनेवाले सब विघ्नों को प्रकम्पित कर देता है। ये विघ्न हैं व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व रूप चित्तविक्षेप।  इन चित्तविक्षेपों के सहवर्ती होते हैं, दुःख, दौर्मनस्य अङ्गमेजयत्व एवं श्वास प्रश्वास। योगमार्ग में इनकी प्रतिषेध करने के लिए एकतत्त्वाभ्यास करना आवश्यक होता है। सुखी जनों के प्रति मैत्री, दु:खी जनों के प्रति करुणा, पुण्यात्माओं को देख कर मुदित होना, अपुण्यात्माओं के प्रति उपेक्षावृत्ति धारण करना इन चारों वृत्तियों की भावना अपने अन्दर धारण करने से चित्त का प्रसाद प्राप्त होता है। विषयवती प्रवृत्ति भी उत्पन्न होकर मन के स्थितिलाभ का कारण बनती है। अथवा विशोका ज्योतिष्मती प्रज्ञा भी मन को विघ्नों से हटा कर निर्मल कर देती है। |

इस प्रकार योगविघ्नों को पराजित करके ‘वाजी’ जीवात्मा महान् हृदय-सदन में प्रकाशमय ‘ अग्नि’ नामक परम प्रभु का दर्शन कर लेता है। अग्निप्रभु के दर्शन उसे चर्म-चक्षुओं से नहीं, किन्तु अन्तश्चक्षु से होते हैं। आओ, हम भी योगमार्ग के यात्री बनकर योगविघ्नों का अपसारण कर परम प्रभु के दर्शन करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. निचिकीषते पश्यति। यह दर्शनार्थक छान्दस धातु है।

२. योगदर्शन, समाधिपाद, सूत्र ३०-३६ ।।

योगमार्ग के विघ्नों  को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार

हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः सिन्धुद्वीपः । देवता वायुः । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

सं ते वायुर्मातरिश्वा दधातूत्तानाय हृदयं यद्विकस्तम्। यो देवानां चरसि प्राणथेन कस्मै दे वर्षडस्तु तुभ्यम् ॥

-यजु० ११ । ३९ |

हे नारी! ( उत्तानायाः) चित्त लेटनेवाली ( ते ) तेरा ( हृदयं ) हृदयं ( यद् विकस्तम् ) जो बढ़ गया है, या किसी अन्य विकार को प्राप्त हो गया है, उसे ( मातरिश्वा वायुः ) अन्तरिक्ष में चलनेवाला वायु ( सं दधातु ) स्वस्थ कर देवे । ( यः ) जो हे मातरिश्वा वायु ! तू ( देवानां ) विद्वानों के ( प्राणथेन) प्राणरूप में ( चरसि ) चलता है, ( कस्मै ) उस सुखदायक ( तुभ्यं ) तेरे लिए ( वषट् अस्तु) स्वाहा हो, अर्थात् अग्नि में घृत तथा ओषधियों की आहुति हो।

शरीर में रक्तसंस्थान का केन्द्र हृदय है। शरीर का अशुद्ध रक्त शिराओं द्वारा हृदय के दक्षिण प्रदेश में आता है। हृदय शुद्ध होने के लिए उसे फुप्फुस में सूक्ष्म रक्त-केशिकाओं में भेज देता है। जब शुद्ध वायुमण्डल से श्वास द्वारा शुद्ध वायु फुप्फुस में पहुँचता है, तब वह शुद्ध वायु अशुद्ध रक्त से सम्पर्क करके उसकी मलिनता को अपने अन्दर ले लेता है। और शुद्ध प्राणवायु (ऑक्सिजन) रक्त में भेज देता है, जिससे रक्त शुद्ध होकर हृदय के वामप्रकोष्ठ में चला जाता है। वहाँ से बृहद् धमनि द्वारा छोटी धमनियों में होता हुआ सारे शरीर में पहुँच जाता है। पुनः शरीर की मलिनता को ग्रहण करके अशुद्ध होकर शुद्ध होने के लिए हृदय में आता है। इस प्रकार हृदय समस्त रक्त-संस्थान को नियन्त्रण में रखता है। यदि यजुर्वेद ज्योति हृदय किसी कारण घट-बढ़ जाए, उसके कलेवर में शोथ आ जाए, उच्च रक्तचाप या निम्न रक्तचाप हो जाए, या किसी अन्य प्रकार का हृदयरोग हो जाए, तो उसे स्वस्थ करने का उपाय मन्त्र में प्राणायाम बताया गया है। मन्त्र नारी के हृदयरोग के विषय में है। हृदयरोग का कारण अधिक उत्तान या चित लेटना या शयन करना भी हो सकता है, यह मन्त्र से सूचित होता है। आकाशवर्ती स्वच्छ वायु को ‘मातरिश्वा वायु’ कहा गया है। निरुक्तकार कहते हैं कि वायु को मातरिश्वा कहने का कारण यह है कि वह निर्माता आकाश में गति करता है। अथवा निर्माता अन्तरिक्ष में शीघ्र-शीघ्र प्राण देने की क्रिया करता है। हे नारी! उत्तान सोने के कारण जो तेरा हृदय बढ़ गया है, उसमें सूजन आ गयी है, धड़कने की गति कम या अधिक हो गयी है, तो प्राणवायु उचित प्राणायाम के द्वारा उसे स्वस्थ कर सकता है, हृदय के किस रोग में कौन सा प्राणायाम अपेक्षित है, यह योगक्रिया-विशेषज्ञ लोग बतलायेंगे। उनके निर्देश के अनुसार तू प्राणायाम कर।।

मन्त्र के उत्तरार्ध में हृदयरोगनिवारण के लिए किन्हीं विशेष ओषधियों की अग्नि में आहुति डालना अर्थात् यज्ञचिकित्सा करना उपाय बताया गया है। हे मातरिश्वा वायु ! तू प्राणदाता के रूप में प्रसिद्ध है, तेरे लिए हम ‘स्वाहा’ या ‘वषट्’ उच्चारण करते हुए आहुति डालते हैं। ओषधियों की सुगन्ध से सुवासित होकर तू हृदयरोग से ग्रस्त महिला के फुप्फुसों में जाकर रक्त से सम्पर्क करके रक्त का शोधन कर। इस प्रकार रोगिणी को हृदयरोग से मुक्त कर दे। यद्यपि मन्त्र हृदयरोगिणी महिला के विषय में है, तथापि हृदयरोगा पुरुष के लिए भी ये दोनों उपचार करना लाभदायक हो सकता है।

पाद टिप्पणियाँ

१. कस गतौ, भ्वादिः । विकस्तं=विकसितम्।।

२. मातरिश्वा वायुः, मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति, मातरि आशु अनितीतिवा। निरु० ७.३, मातरिश्वस्, अथवा मातरि-शु-अन् (अन प्राणने) ।।

हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वत्सप्री: । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

अग्नेऽअङ्गिरः शतं ते सन्त्ववृतेः सहस्त्रे तऽउपवृतः अध पोषस्य पोषे पुनर्नो नष्टमाकृधि पुनर्नो रयिमाकृधि॥

-यजु० १२।८

हे ( अङ्गिरः अग्ने ) विद्यारसयुक्त अध्यापक! ( शतं ) एक-सौ ( ते सन्तु ) तेरी हों (आवृतः ) आवृत्तियाँ। ( सहस्त्रं ) एक सहस्र हों ( ते ) तेरी ( उपावृतः ) उपावृत्तियाँ। यदि पाठ विस्मृत ही हो गया है, आवृत्ति से काम नहीं चलता, तब (नः ) हमारे ( नष्टं ) नष्ट या विस्मृत पाठ को ( पोषस्य पोषेण ) परिपुष्ट अध्यापक के पोषण से (पुनःआकृधि ) पुनः मन में बैठा दो। ( पुनः ) फिर ( नः ) हमारी ( रयिं ) विद्या-लक्ष्मी को ( आकृधि) उत्पन्न कर दो।।

शिक्षणालयों में विद्या ग्रहण करनेवाले विद्यार्थियों का योग्यता के कई कारण होते हैं, जिनमें अध्यापक की अध्यापन रीति एक प्रमुख कारण है। एक शिक्षाशास्त्री का कथन है कि * आचार्य समाहित होकर छात्रों को ऐसी रीति से विद्या और सुशिक्षा करे कि जिससे उनके आत्मा के भीतर सुनिश्चित अर्थ होकर उत्साह ही बढ़ता जाये। दृष्टान्त, हस्तक्रिया, यन्त्र, कलाकौशल, विचार आदि से विद्यार्थियों के आत्मा में पदार्थ इस प्रकार साक्षात् करावे कि एक के जानने से हजारों पदार्थ यथावत् जानते जायें ।

प्रस्तुत मन्त्र में अध्यापक को ‘अग्नि’ कहा गया है। अग्नि शब्द उणादि कोष में गत्यर्थक ‘अगि’ धातु से ‘नि’ प्रत्यय करके निष्पन्न किया गया है। इससे अध्यापक के क्रियाशीलता, तत्परता, ज्ञानप्रकाशयुक्तता, अध्यापन-कुशलता  आदि गुण सूचित होते हैं। यहाँ अध्यापक को एक विशेषण ‘अङ्गिरस्’ है। उणादि में अङ्ग से असि प्रत्यय तथा इरुङ् का आगम करके यह शब्द निपातित किया गया है, जिससे अध्यापक का विद्याङ्गसमय होना सूचित होता है। तात्पर्य यह है कि अध्यापक को अखिल वेदवेदाङ्गों का तथा ज्ञान-विज्ञान के भण्डार का स्वामी होना चाहिए। मन्त्र में अध्यापक द्वारा शिष्यों को पढ़ाये हुए पाठ की आवृत्तियाँ और उपावृत्तियाँ कराने पर विशेष बल दिया गया है। वह शिष्यों को एक-सौ आवृत्तियाँ तथा एक-सहस्र उपावृत्तियाँ कराये। आवृत्ति से तात्पर्य है, उस पाठ की अक्षरशः पूर्ण आवृत्ति अर्थात् उस पाठ को पूरा दोहराना। उपावृत्ति का अभिप्राय है, उस पाठ पर सामान्य दृष्टि डालना। प्रतिदिन एक आवृत्ति की जाए, तौ एक-सौ आवृत्तियों में तीन मास दस दिन लगेंगे। एक सहस्र उपावृत्तियों में २ वर्ष ९ मास १० दिन। यह अनुभव से देखा गया है कि किन्हीं श्लोकों, मन्त्रों आदियों का प्रतिदिन पाठमात्र कर लेने पर, स्मरण करलेने के लिए मस्तिष्क पर कोई बल न देने पर भी वे तीन-चार मास में स्मरण या कण्ठस्थ हो जाते हैं। उसके बाद अक्षरशः न देख कर सामान्य दृष्टि-निक्षेप से ही काम चल जाता है।

उत्तरार्ध में मन्त्र कहता है कि यदि कोई पाठ पूर्णतः लुप्त (नष्ट) हो जाए, उसके सब ग्रन्थ जलविप्लव या अग्नि आदि से विनष्ट हो जाएँ तो भी सुयोग्य विद्वान् पुनः उस विद्या का अनुसन्धान या आविष्कार कर सकते हैं। इस प्रकार खोई हुई लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करा सकते हैं। यहाँ यदि ‘नष्ट’ का अर्थ पूर्णतः विस्मृत लें, तो कुशल अध्यापक पुनः उसे शिष्य के मस्तिष्क में बैठा सकता है, यह भाव लेना चाहिए।

पादटिप्पणियाँ

१. स्वामी दयानन्द सरस्वती, ऋ० भा० १.४.४, भावार्थ ।।

२. अङ्गेर्नलोपश्च उ० ४.५१, अगि- नि, अङ्ग नि, अग्-नि=अग्नि।

३. अङ्ग- असि प्रत्यय, इरुङ्-इर् का आगम। अङ्गिरा: उ० ४.२३७।

४. अङ्गिराः विद्यारसयुक्तः-द० । अङ्ग-रस=अङ्गिरस्।

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः हिरण्यगर्भः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री ।

अग्ने यत्ते शुक्रं यच्चुन्द्रं यत्पूतं यच्च॑ य॒ज्ञियम्। तद्देवेभ्यों भरामसि

-यजु० १२ । १०४

हे (अग्ने ) अग्रनायक परमेश्वर ! ( यत् ते शुक्रं ) जो तेरा दीप्तिमान् रूप, ( यत् चन्द्रं ) जो आह्लादक रूप, ( यत् पूतं ) जो पवित्र रूप ( यत् च यज्ञियं ) और जो यज्ञसंपादनयोग्य रूप है, ( तत् ) उसे हम ( देवेभ्यः ) विद्वान् प्रजाजनों के लिए (भरामसि )* लाते हैं ।

हे जगदीश्वर ! आप ‘अग्नि’ हो, अग्रनायक हो, जो आपको अपना अग्रणी बनाता है, उसे सत्पथ पर चला कर उसके नियत उद्देश्य तक पहुँचा देनेवाले हो। आप अग्नि के तुल्य तेजस्वी-यशस्वी भी हो। साधक को आपके अनेक रूप दृष्टिगोचर होते हैं। कभी आपका ‘शुक्र’, अर्थात् जाज्वल्यमान रूप उसके सम्मुख प्रकट होता है, जो उसके अन्त:करण को उद्भासित कर देता है। उसका मानस दृढ़ सङ्कल्प की ऊँची ऊँची अर्चियाँ उठाने लगता है। कभी उसके सम्मुख आपका ‘चन्द्र’ रूप, अर्थात् चाँद-जैसा आह्लादक रूप प्रकट होता है, जिस के माधुर्य से उसको हृदय रसमय, मधुर, शीतल हो जाता है। कभी उसके सम्मुख आपका ‘पूत’ अर्थात् पवित्र रूप आविर्भूत होता है, जिससे उसके तन, मन, धन, ज्ञान, कर्म, उपासना सब निर्मल हो जाते हैं। कभी उसके सम्मुख आपका यज्ञिय अर्थात् यज्ञार्ह, पूजार्ह तथा यज्ञसम्पादक रूप प्रकाशित होता है, जिससे वह आपकी वन्दना, अर्चना, पूजा में प्रवृत्  हो जाता है। आपका यज्ञनिष्पादक रूप साधक को भी विद्यायज्ञ, शान्तियज्ञ, शिल्पयज्ञ, योगयज्ञ, उपासनायज्ञ, धर्मप्रवर्तन-यज्ञ आदि के निष्पादन में प्रवृत्त कर देता है।

हे सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी परमात्मन् ! मन्त्रोक्त रूपों से इतर भी आपके अनेक रूप हैं, जिनका ध्यान करने से साधक ‘देव’ बन जाता है। हम चाहते हैं कि न केवल हमारे राष्ट्र को, अपितु समग्र संसार का प्रत्येक निवासी आपके गुणों का मनन, चिन्तन, ध्यान करके, उन्हें अपने अन्दर धारण कर कृतकृत्य हो। हे देवेश! हम भी आपके गुणों को अपने अन्तरात्मा में धारण करते हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. शुक्रं शोचतेचैलतिकर्मणः, निरु० ८.११ । औणादिक रन् प्रत्यय।

२. चन्द्रं, चदि आह्लादे। स्फायितञ्चि० उ० २.१३ से रक् प्रत्यय । चन्दतिआह्लादयति स चन्द्रः ।।

३. यज्ञकर्म अर्हतीति यज्ञियः। तत्कर्माहतीत्युपसंख्यानम्’ वार्तिक पा०१.६.४ से घ प्रत्यय ।

४. भरामसिहरामः । हृञ् हरणे, हग्रहोर्भश्छन्दसि, इदन्तो मसि ।।

अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार

जननायक को उदबोधन -रामनाथ विद्यालंकार

जननायक को उदबोधन -रामनाथ विद्यालंकार   

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

अयमग्निर्वीरर्तमो वयोधाः संस्त्रियों द्योतमप्रंयुच्छन्। विभ्राज॑मानः सरिरस्य मध्य॒ऽउप प्र याहि दिव्यानि धाम ॥

-यजु० १५।५२

( अयम् अग्निः ) यह जननायक (वीरतमः ) सर्वाधिक वीर, ( वयोधाः ) दूसरों के जीवनों को धारण करनेवाला, ( सहस्त्रियः ) अकेला सहस्र के तुल्य (अप्रयुच्छन् ) प्रमाद न करता हुआ ( द्योतताम् ) चमके। हे वीर ! (सरिरस्य मध्ये ) जनसागर के बीच (विभ्राजमानः ) देदीप्यमान होता हुआ तू ( दिव्यानि धाम) दिव्य धामों अर्थात् यशों को ( उप प्र याहि ) प्राप्त कर।

जननायक को वेद में अग्नि कहा गया है, क्योंकि वह जनों का अग्रणी या अग्रनेता होता है और अग्नि के समान जाज्वल्यमान, तेजस्वी तथा ऊर्ध्वगामी होता है। हमारा जननायक ‘वीरतम’ है, सर्वाधिक वीर है। वह शरीर से भी वीर है, मन से भी वीर है, आत्मा से भी वीर है। वह वयोधाः’ है, असहायों के जीवनों को सहारा देनेवाला है। वह ‘सहस्रिय’ है, अकेला सहस्र के बराबर है। जब शत्रु से रण ठनता है। या समाज पर कोई अन्य विपदा आती है, तब वह सहस्र विरोधियों से लोहा ले सकता है। परन्तु इन महान् गुणों से युक्त भी जननायक यदि प्रमादी हो जाए, तो ये सब गुण व्यर्थ हो जाते हैं। अतः हम चाहते हैं कि हमारा जननायक कभी प्रमाद ने करता हुआ, सदा अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ द्युतिमान् बना रहे। प्रमाद कालिमा है, कर्तव्यपालन ज्योति है। प्रमाद की कालिमा से काला होकर मनुष्य अपनी द्युति खो बैठता है। |

हे जननायक! तुम ‘सलिल’ के मध्य खड़े हो । सलिल पानी को कहते हैं। जब अग्निस्तम्भ पानी के बीच में खड़ा होता है तब लहर-लहर में उसकी छवि दिखायी देती है। तुम भी पानी के बीच खड़े के समान हो, क्योंकि यह जने-सागर तुम्हारे चारों ओर हिलोरें ले रहा है। यह जन-सागर तुम्हारी मित्रभूत प्रजाओं का भी हो सकता है और शत्रु-जनों का भी। मित्रों के मध्य ज्योतिस्तम्भ के समान खड़े तुम जन-जन पर अपनी आभा बखेरो, जन-जन को अपनी ज्योति से द्योतित करो। शत्रुओं के मध्य ज्योतिस्तम्भ के समान खड़े हुए तुम उनके तेज की म्लान करो। हे जननायक! तुम अपने नेतृत्व द्वारा प्रजा का सङ्कटों से उद्धार कर दिव्य धामों को, अलौकिक यशों को प्राप्त करो। प्रजा तुम्हें पुकार रही है। आओ, स्वयं सङ्कट मोल लेकर प्रजा को सङ्कट से छुड़ाओ। राष्ट्र एक होकर तुम्हारा जयजयकार करेगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. सहस्रेण संमित: तुल्यः सहस्रियः। ‘सहस्रेण संमितौ घः’ पा०४.४.१३५, सहस्र शब्द से तुल्य अर्थ में घ=इय प्रत्यय।।

२. युछी प्रमादे-शतृ । न प्रयुच्छन्=अप्रयुच्छन्।

३. सरिर=सलिल= जल। निघं० १.१४। सलिल बहु-वाचक भी है,निघं० ३.१।।

४. दिव्यानि धाम-दिव्यानि धामानि । ‘शेश्छन्दसि बहुलम्’ पा० ६.१.७०से शि का लोप। धामानि त्रयाणि भवन्ति, स्थानानि नामानि जन्मानाति–निरु० ९.२२ ।।

जननायक को उदबोधन -रामनाथ विद्यालंकार