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तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों – रामनाथ विद्यालंकार

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी उष्णिक्।

भुद्राऽउते प्रशस्तयो भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासर्हः ।

-यजु० १५ । ३९

हे वीर! तू ( वृत्रतूर्ये ) पापी के वध में ( मनः) मन को ( भद्रं कृणुष्व ) भद्र रख, ( येन ) जिस मन से तू ( समत्सु ) युद्धों में ( सासहः ) अतिशय पराजयकर्ता [होता है] ।।

हे वीर! तू पापी का वध करने के लिए क्यों प्रवृत्त हुआ है? तेरा उद्देश्य तो पाप का वध करना है। यदि पापी का वध किये बिना पाप का वध हो सके, तो क्या यह मार्ग तुझे स्वीकार नहीं है? प्रेम से या साम, दान, भेद रूप उपायों से भी तो पापी के हृदय को शुद्ध और निष्पाप किया जा सकता है। हाँ यदि इस प्रकार के सभी उपाय निष्फल हो जाएँ तब पापी से संघर्ष करना, युद्ध करना, उसे पराजित करना, दण्डित करना या उसका समूल नाश कर देना भी अनिवार्य हो सकता है। याद रख, वृत्रतूर्य में भी, पापी के साथ संग्राम में भी अपने मन को भद्र ही रखना है, मन को क्रोध, विद्वेष आदि से अभद्र या मलिन करके उससे युद्ध नहीं करना है। युद्ध में यही भावना रखनी है कि यदि शत्रु पाप करना छोड़कर धर्ममार्ग पर आ जाता है, हम-जैसा भद्र बन जाता है, तो युद्ध बन्द करके उससे सन्धि करनी अधिक उचित है।

संग्राम में विजयी होने के अनन्तर जो तेरा स्वागत हो, कविजन तेरे लिए प्रशस्तिगीतियाँ रचें, वे भी भद्र ही होनी चाहिएँ। उनमें तेरी शूरता का, अग्रगामिता का, शत्रुदल के  छक्के छुड़ा देने का, शत्रुसेना को आगे बढ़ने देने से रोक कर पीछे खदेड़ देने आदि को ही वर्णन होना चाहिए। उसमें तेरी इस यद्धनीति की चर्चा होनी चाहिए कि शत्र ने जब अपनी हार मानकर शस्त्र नीचे रख दिये, तब तूने भी युद्ध बन्द करके उनके साथ भद्रता का व्यवहार किया। ऐसा प्रशस्तिगान नहीं होना चाहिए कि कुछ ही शत्रुओं को कैद करके या मारकर भी युद्ध जीता जा सकता था, फिर भी तूने समस्त शत्रुओं का उच्छेद कर डाला। यदि तेरी ऐसी प्रशस्ति होती है कि एक भी शत्रु का वध किये बिना तूने युद्ध जीत लिया, तो हमें तुझ पर गर्व होगा। यदि शत्रु भी तेरी जय बोलते हुए तेरे स्वागत में हमारे साथ सम्मिलित होंगे, तो हम तुझे राजनीतिविशारद कहकर तेरा अभिनन्दन करेंगे। |

तेरा मन जहाँ उत्साही, शत्रुविजय के प्रति आशावादी होगा, वहाँ शत्रु के प्रति यदि भद्र और उदार भी होगा, तो तू शत्रुओं को भी अपना मित्र बना सकेगा। जा, युद्ध में अग्रसर हो, सफल संग्रामकर्ता के रूप में प्रशस्ति प्राप्त कर।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वृत्रतूर्य-संग्राम। निचं० २.१७

२. कृणुष्व, कृवि हिंसाकरणयोः, भ्वादिः ।

३. समत्=संग्राम। निघं० २.१७ ४. सासह: अतिशयेन सोढा-द० । षह अभिभवे, छान्दस।

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों – रामनाथ विद्यालंकार

पुनर्जन्म – रामनाथ विद्यालंकार

पुनर्जन्म – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः विरूपः । देवता अग्निः । छन्दः निद् अनुष्टुप् ।

पुर्नरासद्य सर्दनमुपश्चं पृथिवीमग्ने। शेषे मातुर्यथोपस्थेऽन्तर्रस्याशिवतमः ॥

-यजु० १२ । ३९

( अग्ने ) हे जीवात्मन् ! तू एक शरीर छोड़ने के पश्चात् ( पुनः ) फिर ( सदनम् ) मातृगर्भरूप सदन को ( अपः च पृथिवीम्) और जल, पृथिवी आदि पञ्च तत्त्वों को (आसद्य ) प्राप्त करके ( शिवतमः ) अत्यन्त शिव होकर ( अस्याम् अन्तः ) इस पाञ्चभौतिक तनू के अन्दर ( शेषे ) शयन करता रहता है, ( यथा) जैसे कोई बालक (मातुः उपस्थे ) माता की गोद में शयन करता है।

क्या तुम समझते हो कि आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है, जो अमर हो, शरीर की मृत्यु हो जाने पर भी मरती न हो ? क्या तुम चारवाक सम्प्रदाय की नीति पर चलते हुए कहते हो कि जब तक जियो सुख से जियो, अपने पास न हो तो कर्ज लेकर घी पियो, जब शरीर भस्म हो गया, तब संसार में पुन: आगमन कैसा? यदि तुम ऐसा विचार रखते हो तो भूल में हो। वेद कहता है कि हे जीवात्मन् ! तुम्हें पुनः मातृगर्भरूप सदन में आना पड़ेगा, अच्छे-बुरे जैसे तुम्हारे पूर्वजन्म के कर्म होंगे वैसी योनि तुम्हें मिलेगी। सत्कर्म प्रबल होंगे तो मनुष्य जन्म प्राप्त होगा, निकृष्ट कर्म प्रबल होंगे तो पशु-पक्षी, कीट, पतङ्ग, सर्प, वृश्चिक आदि के शरीर में जन्म मिलेगा।

परन्तु यह जीवात्मा पुनर्जन्म प्राप्त करता कैसे है? रज वीर्य में पृथिवी, अप्, तेज, वायु, आकाश इन पञ्च तत्त्वों के यजुर्वेद ज्योति योग से पाञ्चभौतिक शरीर बनता है। जीवात्मा सूक्ष्मशरीरसहित रज-वीर्य के साथ संयुक्त होकर शरीर के विकास में कारण बनता है।” जीव वायु, अन्न, जल अथवा शरीर के छिद्र द्वारा दूसरे के शरीर में ईश्वर की प्रेरणा से प्रविष्ट होता है, जो प्रविष्ट होकर क्रमशः वीर्य में जा, गर्भ में स्थित हो, शरीर धारण कर बाहर आता है। जो स्त्री के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो स्त्री और पुरुष के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो पुरुष के शरीर में प्रवेश करता है।”२ मन्त्र में पञ्चतत्त्वों के स्थान पर दो ही तत्त्वों का नाम आया है-पृथिवी और अप् । इन दोनों को शेष तीन तत्त्वों का भी उपलक्षण जानना चाहिए। इस प्रकार उपलक्षणन्याय से यहाँ पृथिवी, अप, तेज, वायु, आकाश इन पाँचों तत्त्वों का ग्रहण हो जाता है। कभी कभी जीवात्मा माता के गर्भ में प्रविष्ठ होकर भी फिर बाहर निकल जाता है, तब मृत शिशु का जन्म होता है । जीवित शिशु के माता के गर्भ से बाहर आते समय भी जीव निकल सकता है और उससे पूर्व भी। दोनों अवस्थाओं में मृत शिशु गर्भ से बाहर आता है।

जब जीवात्मा मातृगर्भरूप शिशु के अन्दर विद्यमान रहता हुआ उसका पोषण करता है, तब वह उसके लिए शिवतम होता है। तब जीवात्मा शिशु के शरीर में ऐसे ही शयन करता है, जैसे किसी माता की गोद में उसका शिशु शयन करता है।’ | आओ, हम पुनर्जन्म पर विश्वास लाकर सत्कर्म ही करें, जिससे हमें पुनः मनुष्य-योनि प्राप्त हो, या मुक्ति पाने योग्य कर्म करें, जिससे हम जीवन-मरण के बन्धन से छुटकारा पाकर मुक्ति प्राप्त कर सकें।

पादटिप्पणियाँ

१. यावज्जावत् सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिवेत् ।भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः

२. स० प्र०, समु० ९, स्वामी दयानन्द ।

 पुनर्जन्म – रामनाथ विद्यालंकार

हे मानव! तू ऐसा बन-रामनाथ विद्यालंकार

हे मानव! तू ऐसा बन-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषयः सप्त ऋषयः । देवता मरुतः । छन्दः आर्षी उष्णिक।

शुक्रज्योतिश्च चित्रज्योतिश्च सत्यज्योतिश्च ज्योतिष्माँश्च।। शुक्रश्चंऽऋतुपाश्चात्यहाः

-यजु० १७।८० |

हे मनुष्य! तू (शुक्रज्योतिः च ) दीप्त ज्योतिवाला हो, (चित्रज्योतिः च ) चित्र-विचित्र ज्योतिवाला हो, ( सत्यज्योतिः च ) सत्य ज्योतिवाला हो, (ज्योतिष्मान् च ) प्रशस्त ज्योतिवाला हो, ( शुक्रः च ) शुद्ध-पवित्र हो, ( ऋतपाः च ) ऋत का पालक हो, (अत्यंहाः ) पाप या अपराध को अतिक्रान्त करनेवाला हो।

हे मानव! क्या तू जानता है कि इस संसार में तू किसलिए आया है? तुझे अपना कुछ लक्ष्य निर्धारित करना है और उसे पूर्ण करने के लिए प्राणपण से जुट जाना है। किन्तु लक्ष्य तक पहुँचने का सामर्थ्य प्रत्येक में नहीं होता है। वे ही प्रशस्त जन लक्ष्य तक पहुँच पाते हैं, जो स्वयं को गुणी और समर्थ बना लेते हैं। अत: तू भी स्वयं को गुणवान् बनाने में तत्पर हो जा। तू ‘शुक्रज्योति’ बन, प्रज्वलित ज्योतिवाला हो । तेरी ज्योति राख से ढकी नहीं होनी चाहिए। ऐसा न हो कि तेरे अन्दर ज्योति तो रहे, किन्तु तू उसके प्रति उदासीन रहता हो, उससे सिद्ध होनेवाले महान् कार्य करने की उमङ्ग तेरे अन्दर न उठती हो। यदि ऐसा है, तो उस ज्योति को सजग कर ले। तेरी ज्योति प्रदीप्त होकर हिमालय से भी ऊँची हो जानी चाहिए। यह मैं आलङ्कारिक भाषा बोल रहा हूँ, क्योंकि वह ज्योति भौतिक नहीं, प्रत्युत मानसिक है। वह उत्साह की ज्योति है, महत्त्वाकांक्षा की ज्योति है, अग्रगामिता की ज्योति है।

तू ‘चित्रज्योति’ भी बन । तेरी ज्योति चित्र-विचित्र कई  प्रकार की होनी चाहिए। अग्नि की ज्वालाएँ जैसे काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधूम्रवर्णा, विस्फुलिङ्गिनी, विश्वरुची ये सात प्रकार की होती हैं, वैसे ही तेरी ज्वालाएँ भी पाँच ज्ञानेन्द्रिय, मन और बुद्धि इन सात ऋषियों से संबद्ध सात प्रकार की होनी चाहिएँ।

चक्षु, श्रोत्र आदि प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय से ज्वालाएँ उठाकर ज्ञान का विकास तुझे करना चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि तुझे सत्यज्योति’ भी बनना चाहिए। सत्य को ही ज्योति मान कर चलेगा, तो भ्रान्ति के जाल में न उलझकर सत्य पथ पर आगे ही आगे बढ़ता चला जाएगा। फिर तुझे ज्योतिष्मान्’ भी होना चाहिए। यहाँ मतुप् प्रत्यय प्रशस्त अर्थ में है। तात्पर्य यह है कि तू प्रशस्त ज्योतिवाला बन। छोटे-छोटे लक्ष्य न बना कर महान् लक्ष्य निर्धारित कर।।

तुझे ‘शुक्र’ भी बनना है। यहाँ पवित्रार्थक ‘शुचिर्’ पूतीभावे धातु से रन् प्रत्यय करने पर शुक्र शब्द बना है। तुझे पूर्णत: मन, वचन, कर्म से पवित्र होना चाहिए। साथ ही तुझे ‘ऋतपाः’ अर्थात् सत्याचरण का पालक भी बनना चाहिए। सत्य है सत्य ज्ञान और ऋत है सत्याचरण । अकेला सत्य ज्ञान पर्याप्त नहीं है, जब तक वह आचरण में न लाया जाए। अन्त में एक गुण और समझ ले, तू अत्यंहाः’ भी बन। ‘अंहस्’ कहते हैं पाप को, उसे जिसने अतिक्रान्त कर दिया है, ऐसा निष्पाप तू बन। पाप विचार को न मन में ला, न क्रिया में परिणत कर।।

हे मरुतो ! हे मानवो! इन सब गुणों से युक्त यदि तुम हो जाओगे, तो सफलता की डोर सदा तुम्हारे हाथ में रहेगी।

पाद-टिप्पणियाँ

१. शुक्रं प्रज्वलितं ज्योतिर्यस्य स शुक्रज्योतिः । शुच धातु ज्वलनार्थक,निघं० १.१६

२. काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा । विस्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वा: । मु०उप० १.२.४!

३. भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगे ऽ तिशायने। संसर्गे ऽ स्ति विवक्षायांभवन्ति मतुबादयः ।। पा० ५.२.९४ पर काशिका।

हे मानव! तू ऐसा बन-रामनाथ विद्यालंकार  v

द्यावापृथिवी का धरण -रामनाथ विद्यालंकार

द्यावापृथिवी का धरण -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः वसिष्ठः । देवता विष्णु: । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

इरावती धेनुमती हि भूतसूर्यवसिनी मनवे दशस्या व्यस्कभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधत्थं पृथिवीमभितो मयूखैः स्वाहा ॥

-यजु० ५ । १६ |

हे द्यावापृथिवी ! तुम ( इरावती ) अन्न आदि खाद्य सामग्रीवाले, ( धेनुमती ) गौओंवाले, ( सूर्यवसिनी ) उत्तम घास चारे आदि से युक्त, तथा ( मनवे ) मनुष्य के लिए ( दशस्या ) आवश्यक वस्तुओं का दान करनेवाले ( हि ) निश्चय से ( भूतम्) हो गये हो। ( व्यस्कभ्ना:३) थामा हुआ है (विष्णो ) हे विष्णु ! तूने (एते रोदसी ) इन द्यावापृथिवी को ( दाधर्थ ) धारण किया हुआ है ( पृथिवीं ) पृथिवी को, ( अभितः ) चारों ओर से ( मयूखैः ) किरणों द्वारा। ( स्वाहा ) उस विष्णु की हम स्तुति, प्रार्थना, उपासना करते हैं।

‘रोदसी’ द्यावापृथिवी को कहते हैं। समाज में द्यावापृथिवी का अर्थ पिता-माता होता है। मन्त्र कह रहा है कि हे पिता माता! तुम ‘इरावती’ अन्न-जलवाले, ‘धेनुमती’ गौओंवाले और ‘सूयवसिनी’ उत्तम घास-चारे से युक्त हो गये हो। ये परिगणित पदार्थ उपलक्षण हैं। तात्पर्य यह है कि तुम्हारे पास जीवनोपयोगी सब सामग्री विद्यमान है। अन्न, जल, वायु, सूर्यप्रकाश आदि हैं, गौएँ हैं, उन्हें खिलाने के लिए घास दाना-चारा है। गौओं से दूध-घी- तक्र आदि मिलती है। तुम सत्पात्र मनुष्यों को दान भी करते हो। मनुष्यों की सेवा के लिए अतिथि-यज्ञ करते हो, पशु-पक्षियों, चींटियों आदि के लिए वलिवैश्वदेव यज्ञ करते हो और उपयोगी संस्थाओं को आर्थिक सहायता भी देते हो।

जैसे समाज में द्यावापृथिवी पिता-माता हैं, ऐसे ही अधिदैवत में द्यावापृथिवी द्युलोक और पृथिवीलोक हैं। समाज के द्यावापृथिवी को थामने, सहारा देने और रक्षित करनेवाला विष्णु राष्ट्र का राजा होता है। ऐसे ही अधिदैवत में द्युलोक और पृथिवीलोक को थामने और रक्षित करनेवाला विष्णु सर्वव्यापक परमेश्वर है। सूर्य, नक्षत्र, ग्रह, उपग्रह सब परमेश्वर की व्यवस्था से बिना आधार के आकाश में परस्पर आकर्षणशक्ति से टिके हुए हैं, स्थिर हैं। उसी ने सूर्य की आकर्षण शक्ति से पृथिवी को धारा हुआ है और सूर्य की किरणों से प्रकाश तथा ऊर्जा देकर वह पृथिवी पर प्राणियों के जीवन को सुरक्षित किये हुए है। उसी की व्यवस्था से सूर्य के ताप से जलवाष्प उठकर अन्तरिक्ष में बादल बनते हैं और उसी की व्यवस्था से ठण्डी वायुओं के सम्पर्क से जलवाष्प पानी बनकर भूमि पर बरस जाते हैं। उसी के नियमों के अनुसार भूमि पर ऋतुएँ आती-जाती हैं, कृषकों द्वारा बोई हुई खेती अङ्करित होती है, वर्षा और सिंचाई से सिक्त होकर लहलहाती है और परिपक्व होती है। उसी के बनाये हुए नियमों से भूमि पर पेड़-पौधे उगते हैं, पुष्पित होते हैं और मधुर फल प्रदान करते हैं। उसी के संरक्षण में वर्षा होती है, पहाड़ों पर बर्फ पड़ती है, बर्फ पिघलकर नदियाँ बहती हैं, स्रोत फूटते हैं, नदी-नालों और वृष्टि द्वारा समुद्र में पानी जाती है, पुनः बादल बनने और बरसने का क्रम चलता है।

परमात्मा भी विष्णु है, राजा भी विष्णु है, सूर्य भी विष्णु है। ओओ, इन विष्णुओं के महत्त्व को हम समझें और इनकी देने प्राप्त करके सुखी हों।

पादटिप्पणियाँ

१. इरावती, धेनुमती, सूयवसिनी, रोदसी=इरावत्यौ, धेनुमत्यौ, सूयवसिन्यौ,रोदस्यौ । प्रथमा और द्वितीया के द्विवचन में पूर्वसवर्णदीर्घ । इरा=अन्न, निघं० २.७

२. दशस्या, दाभृ दाने, असुन् प्रत्यय, धातु के आ को ह्रस्व, दशस्+द्विवचन | का औ। औ को या आदेश।

३. वि+स्कम्भु, सौत्र धातु पा० ३.१.८२, लङ् लकार।

४. रोदसी=द्यावापृथिवी, निघं० ३.३० ।।

५. द्यौष्पितः पृथिवि मातः । ऋ० ६.५१.५

द्यावापृथिवी का धरण -रामनाथ विद्यालंकार

तू ध्रुवा है, यजमान भी ध्रुव हो-रामनाथ विद्यालंकार

तू ध्रुवा है, यजमान भी ध्रुव हो

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता यज्ञः । छन्दः आर्षी जगती ।

ध्रुवासि ध्रुवोऽयं यजमानोऽस्मिन्नायतने प्रजया पशुभिर्भूयात्। घृतेन द्यावापृथिवी पूर्येथामिन्द्रस्य छुदिरसि विश्वज़नस्य छाया॥

-यजु० ५। २८

हे यजमानपत्नी! तू ( धुवा असि ) ध्रुव है, स्थिर है, ( अयं यजमानः ) यह यजमान भी (अस्मिन् आयतने ) इस घर में, ( प्रजया पशुभिः ) प्रजा और पशुओं के साथ (धुवःभूयात् ) ध्रुव होवे। (घृतेन ) घृत से ( द्यावापृथिवी ) हे। आकाश-भूमि ( पूर्येथां ) तुम भर जाओ। हे यजमानपत्नी ! तू (इन्द्रस्य छदिः असि ) इन्द्र की छत है, (विश्वजनस्य छाया) विश्वजनों की छाया है। |

हे यजमानपत्नी ! तू पतिगृह में स्थिर गृहपत्नी बनकर आयी है। तेरे पतिगृहनिवास में स्थिरता है, स्वभाव में स्थिरता है, कर्तव्यपालन में स्थिरता है, अधिकार में स्थिरता है, सेवा में स्थिरता है, यज्ञ में स्थिरता है। तू जिस कार्य में संलग्न हो जाता है, उसे समाप्त करके ही छोड़ती है। तूने यज्ञ आरम्भ किया है, उसमें भी तुझे स्थिर रहना है। तेरा पति यजमान भी इस घर में, इस यज्ञ में, प्रजा और पशुओं के साथ स्थिर रहे। उसने प्रजा जनी है, तेरे साथ मिलकर उसके लालन-पालन और शिक्षण में स्थिरतापर्वक लगा रहे। उसने दध, खेती और यज्ञ के लिए गाय, बैल आदि पशु पाले हैं, तो उनके पालन-संवर्धन में स्थिरतापूर्वक संलग्न रहे। उसने ब्राह्मण का कार्य, क्षत्रिय का कार्य या वैश्य का कार्य प्रारम्भ किया है, तो उसे स्थिरमति से करता रहे। तेरी सन्तान भी स्वयं को योग्य बनाने में और घर के तथा बाहर के पूज्य जनों की सेवा में तत्पर रहे।

तुमने जो यज्ञ प्रारम्भ किया है, उसमें तुम यजमान और यजमानपत्नी हो। यज्ञ के लिए तुमने गौएँ पाली हैं। उनका घृत  लो कि घृत से द्यावापृथिवी भर जाएँ। प्रत्येक स्वाहा’ के साथ तुम्हें न्यूनतम ६ माशे घृत की आहुति देनी है। यदि तुमने लक्ष आहुतियों का यज्ञ रचाया है, तो यज्ञ के लिए ही पर्याप्त घृत की आवश्यकता पड़ सकती है। यज्ञ के पश्चात् अतिथियों के सत्कार के लिए और गृहसदस्यों के द्वारा घृतसेवन किये जाने के लिए भी प्रचुर घृत अपेक्षित है। फिर घृत प्रतीक है ऐश्वर्य का, अत: इतना ऐश्वर्य कमाओ कि उसे रखने के लिए धरती-आकाश भी छोटे पड़ जाएँ। ऐश्वर्य के विषय में ‘वयं स्याम पतयो रयीणाम् ‘ यह वैदिक आदर्श है।

हे यजमानपत्नी ! तू इन्द्र की छत है। छत का कार्य घर और गृहसामग्री की रक्षा करना होता है। छत रक्षा का प्रतीक है। तात्पर्य यह है कि तेरे अन्दर रक्षा का सामर्थ्य इन्द्र-जैसा है। अतः जब तक यज्ञ प्रवृत्त रहे, तब तक जो भी तेरे आश्रम में आयें उन्हें आश्रय दे, उन्हें अपनी रक्षा में ले और यज्ञ– समाप्ति पर उन्हें दक्षिणा देकर विदा कर। तू विश्वजनों की छाया है। जैसे वृक्ष की छाया थके हुए को विश्राम देती है, ग्रीष्म-तप्त को शीतलता देती है, ऐसे ही जो भी दीन-दु:खी तेरी शरण में आ जाए, उसे तेरी सुखद छाया मिलनी चाहिए। तू नगर की छायी बन जा, राष्ट्र की छाया बन जा, विश्व की छाया बन जा। तेरी यह ख्याति हो जानी चाहिए कि तेरे पास से कोई खाली हाथ नहीं लौटेगा।

हे यजमान और यजमानपत्नी ! तुम्हारा यज्ञ सफल हो, तुम्हारा यज्ञ पूर्ण हो, तुम्हें भगवान् का आशीर्वाद प्राप्त हो, तुम्हारे यज्ञ का प्रसाद अन्यों को भी यज्ञ का प्रेमी बनाये। | इस मन्त्र के दयानन्दभाष्य का भावार्थ यह है-“मनुष्यों को चाहिए कि जिन यज्ञानुष्ठाता यजमान और यजमानपत्नी के द्वारा और जिस यज्ञ से निश्चल विद्या तथा सुख प्राप्त हों और दु:ख नष्ट हों, उनका सदा सत्कार करें और उस यज्ञ का सदा अनुष्ठान करें ।।

पाद-टिप्पणी

१. हे यज्ञानुष्ठात्र यजमानपत्न! यथा त्वमस्मिन्नायतने जगति स्वस्थाने यज्ञे वा प्रजया पशुभिः सह ध्रुवासि तथाऽयं यजमानो ऽपि ध्रुवोऽस्ति-दे० ।।

तू ध्रुवा है, यजमान भी ध्रुव हो

बांके वीर को प्रोत्साहन -रामनाथ विद्यालंकार

बांके वीर को प्रोत्साहन

ऋषिः अगस्त्यः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

अयं नोऽअग्निर्वरिवस्कृणोत्वूयं मृधः पुरऽएतु प्रभिन्दन्यं वाजाञ्जयतु वाजसाताव्यशत्रूञ्जयतु जर्हषाणः स्वाहा।।

-यजु० ५। ३७

( अयं ) यह ( नः ) हमारा ( अग्निः ) बांका वीर ( वरिवः१) राष्ट्र का रक्षण (कृणोतु ) करे। ( अयं ) यह ( मृधः ) हिंसक आततायियों को ( प्रभिन्दन् ) छिन्न-भिन्न करता हुआ ( पुरः एतु ) आगे बढ़े। ( अयं ) यह ( वाजसातौ ) बलप्रदर्शन में ( वाजान्’ ) शत्रु-बलों को (जयतु ) जीत ले। ( अयं ) यह ( जर्हषाणः४) अतिशय हृष्ट, उत्साहित होता हुआ ( शत्रून् जयतु ) शत्रुओं को जीते। ( स्वाहा ) इसके प्रति हमारे सुवचन हैं।

मरे देश का बांका वीर साक्षात् ‘अग्नि’ है। वह अग्नि के समान तेजस्वी है, शत्रु को अपनी ज्वालाओं से लपेटनेवाला है, दग्ध करनेवाला है। उसके शस्त्रास्त्र आग के गोले बरसाते हैं, शत्रुपुरी में गिरकर जनसंहार मचा देते हैं, पुरी को भस्मसात् कर देते हैं। वह संग्रामाग्रणी वीर राष्ट्र की शत्रु से रक्षा करने में अद्वितीय है। उसके सेनापतित्व में सैंकड़ों सेनाएँ शत्रु से लोहा लेने के लिए रणाङ्गण में निकल पड़ती हैं। वह हिंसकों को, आतङ्कवादियों को छिन्न-भिन्न करता हुआ, कुचलता हुआ, धूल में मिलाता हुआ संग्राम में आगे बढ़े। संग्राम का बिगुल बजने पर वह हर्षित, उत्साहित, उल्लसित हो कि आज अवसर मिला है रण में अपना युद्धकौशल दिखाने का, युद्ध के उभयपक्षसंमत नियमों का पालन करते हुए शत्रु को हताहत, व्याकुल, उद्वेजित और धराशायी करने का, न केवल स्वपक्ष से, अपितु शत्रुपक्ष से भी प्रशंसा पाने का । हमारा रणबांकुरा वीर दिखा देना चाहता है कि संहार हमारा उद्देश्य नहीं है, हमारा उद्देश्य है शान्ति । शान्ति लाने के लिए भीषण संहार भी करना पड़ता है, तो हम चूकते नहीं हैं। बलप्रदर्शन में हम शत्रु के बल को मात दे सकते हैं। हँसते-हँसते, हृष्ट-उल्लसित उत्साहित होते हुए हम शत्रुओं को जीत सकते हैं। आत्मसम्मान बनाये रखते हुए हम सन्धि भी कर सकते हैं, शत्रु को अपना भी बना सकते हैं, पारस्परिक द्वन्द्व को समाप्त भी कर सकते हैं। परन्तु शत्रु को यह अनुभव हो जाना चाहिए कि हम किस सीमा के वीर हैं, किसे धन के धनी हैं। वीरता हमारा मन्त्र है, मौत के मुँह में पहुँचानेवाला हमारा अस्त्र है, बाँके वीरों को झुका देनेवाला हमारा उत्साह है, ‘कट जाय सिर न झुकना हमारा नारा है। किन्तु अवसर आने पर हम झुकना भी जानते हैं, झुकते हैं तो ऐसे झुकते हैं कि झुकने पर भी हमारे सिर ऊँचे रहते हैं।

हे अग्निज्वाल के समान दमकनेवाले राष्ट्रवीर! समय आ गया है, संनद्ध कर ले अपनी सेना, सज्जित कर ले अपने संहारक शस्त्रास्त्र, कूच कर दे अधर्म पर धर्म की विजय के लिए। विजयी होकर आ । राष्ट्र तेरा अभिनन्दन करेगा, तेरे विजयगीत गायेगा, तेरे प्रति सुवचन कहेगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वरिवः भृशं रक्षणम्-द० ।

२. कृणोतु, कुवि हिंसाकरणयोः, स्वादिः ।।

३. वाज:=बल, निघं० २.९, अधिक पाठ।

४. हृष तुष्टौ, अत्यर्थं हृष्यन्

बांके वीर को प्रोत्साहन

चतुर्थाश्रमी संन्यासी -रामनाथ विद्यालंकार

चतुर्थाश्रमी संन्यासी

ऋषिः आङ्गिरसः । देवता आदित्यः । छन्दः निवृद् आर्षी पङ्किः।।

कुदा चुन प्रयुच्छस्युभे निपासि जन्मनी तुरीयादित्य सर्वनं तऽइन्द्रियमार्तस्थामृते दिव्यादित्येभ्यस्त्वा॥

-यजु० ८।३ |

क्या आप (कदा चन) कभी ( प्रयुच्छसि ) प्रमाद करते हो ? अर्थात् कभी नहीं करते। ( उभे जन्मनी ) माता-पिता से दिया जन्म और विद्याजन्य जन्म दोनों की (निपासि ) आप रक्षा करते हो, लाज रखते हो। ( तुरीय आदित्य ) हे चतुर्थाश्रमी संन्यासी ! (तेइन्द्रियम् ) आपका प्रत्येक इन्द्रिय-व्यापार ( सवनम् ) यज्ञ होता है। आपका (अमृतम्) अमृतमय उपदेश ( दिवि ) श्रोताओं के आत्मा में (आ तस्थौ ) स्थित हो जाता है, घर कर जाता है।

हे संन्यासी-प्रवर! आप तुरीय आदित्य’ हैं। आदित्य का अर्थ है विद्वान्, क्योंकि वह वेदादि शास्त्रों का रस ग्रहण किये होता है। ‘तुरीय’ का अर्थ है चतुर्थ। इस प्रकार तुरीय आदित्य’ चतुर्थाश्रमी विद्वान् अर्थात् संन्यासी का वाचक होता है। हे परिव्राट् ! आपने पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा तीनों एषणाओं का त्याग करके लोकोपकार का ही व्रत ग्रहण किया हुआ है। इस समय आप हम छात्रों के आचार्य भी हैं। गुरुकुल को आदर्श शैली से चलाने और ब्रह्मचारियों को विद्यादान करने के साथ-साथ जनता में वेदप्रचार का व्रत भी आपने धारण किया हुआ है, अतः समय निकालकर आप वेदोपदेश हेतु बाहर भी जाते हैं। आप कभी अपने कर्तव्य के पालन में प्रमाद नहीं करते। आपने अपने दोनों जन्म सफल किये हुए हैं। प्रथम जन्म माता-पिता से होता है, जब बालक माता के गर्भ से बाहर निकलता है। द्वितीय जन्म आचार्य से होता है, जब पर्याप्त समय आचार्य के गर्भ में रहकर ब्रह्मचा  अपना समावर्तन संस्कार करा कर स्नातक बनता है। आपने इन दोनों जन्मों को फलवान् किया है। माता-पिता से प्राथमिक शिक्षा पाकर, गुरुकुल में प्रविष्ट होकर गुरुजनों से उच्च शिक्षा ग्रहण कर आप उच्चकोटि के विद्वान् बने हैं और अब अपनी विद्वत्ता का लाभ अन्यों को पहुँचा रहे हैं। अब आप स्वयं आचार्य बनकर हम ब्रह्मचारियों को द्वितीय जन्म दिलाने के अनवरत प्रयास में लगे हुए हैं, जिससे हमारे दोनों जन्म सफल हो सकें। इस प्रकार आप अपने और ब्रह्मचारियों के दोनों के दोनों जन्मों को सफल करते हैं।

हे भगवन् ! आपके सभी इन्द्रियों के व्यापारों ने यज्ञ का रूप धारण किया हुआ है। आपका देखना, सुनना, विचार करना, निश्चय करना आदि सभी व्यापार अन्यों को लाभ पहुँचाने के लिए होते हैं। चाहे निन्दा, चाहे प्रशंसा, चाहे मान, चाहे अपमान, चाहे जीना, चाहे मृत्यु, चाहे हानि, चाहे लाभ हो, चाहे कोई प्रीति करे, चाहे वैर बाँधे, चाहे अन्न-पान, वस्त्र, उत्तम स्थान न मिले वा मिले, चाहे शीत-उष्ण कितना ही क्यों न हो संन्यासी सबका सहन करे और अधर्म की खण्डन तथा धर्म को मण्डन सदा करता रहे। जिस-जिस कर्म से गृहस्थों की उन्नति हो वा माता, पिता, पुत्र, स्त्री, पति, बन्धु, बहिन, मित्र, पड़ोसी, नौकर, बड़े और छोटों में विरोध छूट कर प्रेम बढ़े उस-उसका उपदेश करे।”२ आप संन्यासी के इन तथा अन्य शास्त्रोक्त कर्तव्यों का सदा निर्वाह करते हो, कभी उसमें प्रमाद नहीं करते। आपका अमृतोपदेश श्रोताओं के दिव्यगुणी आत्मा में स्थिर हो जाता है, घर कर जाता है। मन्त्र का अन्तिम वाक्य पिता अपने पुत्री से कह रहा है-हे पुत्र तूने प्राथमिक शिक्षा हमारे पास रहकर तथा स्थानीय पाठशाला में पढ़कर प्राप्त कर ली है, अब हम तुझे संन्यासी गुरुजन रूप आदित्यों को सौंप रहे हैं, जिससे तू विद्वान् बन सके।

पाद-टिप्पणियाँ

१. “पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता । मत्तः सर्वेभ्योऽभयमस्तु स्वाहा” इस वाक्य को बोल के सबके सामने जल को भूमि में छोड़ देवे। -संस्कारविधि, संन्यास-प्रकरण।

२. संस्कारविधि, संन्यास-प्रकरण ‘यमानु सेवेत सततं’ श्लोक से आगे की भाषा ।

चतुर्थाश्रमी संन्यासी

गृहाश्रम -रामनाथ विद्यालंकार

गृहाश्रम

ऋषिः ब्रह्मा। देवता गृहपतयः छन्दः क. प्राजापत्या अनुष्टुप्,र, निवृद् आर्षी जगती।।

के विवस्वन्नादित्यैष ते सोमपीथस्तस्मिन् मत्स्व। श्रर्दस्मै नरो वर्चसे दधात यदाशीर्दा दम्पती वमर्मश्नुतः । पुमान् पुत्रो जायते विन्दते वस्वधा विश्वाहारपएधते गृहे।

-यजु० ८ । ५

हे ( विवस्वन्’ ) अविद्यान्धकार को दूर किये हुए ( आदित्य ) आदित्य के समान प्रकाश से युक्त ब्रह्मचारिन् ! ( एषः ) यह गृहाश्रम ( ते ) तेरे लिए ( सोमपीथ:२) सोम आदि पौष्टिक ओषधियों के पान का आश्रम है। ( तस्मिन्) उसमें (मत्स्व ) आनन्दलाभ कर । ( नरः ) हे मनुष्यो ! (अस्मै वचसे ) इस वचन के लिए ( श्रद्दधातन) श्रद्धा रखो ( यत् ) कि ( आशीर्दा ) दूध का दान करनेवाले (दम्पती ) पति पली (वाममु ) प्रशस्त फल ( अश्रतः ) प्राप्त करते हैं। उनके यहाँ (पमान पत्र: ) पुरुषार्थी पत्र ( जायते ) पैदा होता है, जो ( वसु विन्दते ) धन प्राप्त करता है, ( अध) और (विश्वाहा ) सब दिनों में ( अरपः७) निष्पाप होकर ( गृहे ) में ( एधते ) बढ़ता है। |

हे ब्रह्मचारी ! गुरुकुल में आचार्याधीन निवास करके तू ‘विवस्वान्’ हो गया है, तू अपने अज्ञानान्धकार को दूर करके सूर्य-सदृश हो गया है। सावित्री रूप अदिति का पुत्र होने से तू आदित्य है। अब तेरा समावर्तन संस्कार हो चुका है और तु गहाश्रम में प्रवेश के लिए उद्यत है। यह गहाश्रम ‘सोमपीथ’ है, अर्थात् इसमें बल-वृद्धि के लिए सोम आदि पौष्टिक और सात्त्विक ओषधियों के रस का पान किया जाता है। सोमपीथ’ का अर्थ वीर्यरक्षा भी होता है, अतः यह वीर्यरक्षा का भी आश्रम है। इसमें वीर्यक्षय केवल राष्ट्र को उत्तम सन्तान प्रदान  करने के लिए होता है। इस आश्रम में तेरा स्वागत है। इस आश्रम में तू पत्नी और सन्तान के साथ आनन्दपूर्वक रह। यह आश्रम सम्पत्ति-अर्जन का आश्रम भी है, किन्तु इसमें केवल सम्पत्ति को अर्जन ही नहीं करना है, प्रत्युत दान भी करना है। दान अनेक वस्तुओं का हो सकता है, उनमें गाय का दान या दध का दाने सर्वश्रेष्ठ माना गया है। मन्त्र कह रहा है कि हे मनुष्यो ! इस वचन पर विश्वास रखो कि दूध के दानी पति पत्नी सुन्दर और प्रशस्त फल पाते हैं। दान से धन घटता नहीं, प्रत्युत बढ़ता ही है। उनके घर में पुरुषार्थी पुत्र जन्म लेता है, और वह भौतिक तथा आध्यात्मिक सब प्रकार की सम्पत्ति अर्जित करता है। अपार भौतिक धन का स्वामी होकर भी वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता। सांसारिक सुख-सम्पदा को हेय माननेवाले कतिपय मनीषियों का कथन है कि लक्ष्मी पाकर मनुष्य पाप के गर्त में गिर जाता है। परन्तु वेद समन्वयवादी है। वह कहता है कि दोनों हाथों से भर-भर कर कमाओ, किन्तु पाप की लक्ष्मी नहीं, पुण्य की लक्ष्मी कमाओ। सम्पत्ति पाकर भी पुण्य के कार्य करो। सम्पत्ति कमाओ भी, उसका दान भी करो। दानी लोगों के घर में जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह सब दिन निष्पाप रहता हुआ निरन्तर वृद्धि और उन्नति प्राप्त करता है।

हे विवस्वन् आदित्य! गृहाश्रम में प्रवेश करता हुआ तू वेद के इन वचनों और आशीर्वादों को सदा स्मरण रख। हम तेरा अभिनन्दन करते हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विवासयति अपगमयति अविद्यातमांसि यः स विवस्वान् ।

२. सोमः पीयते यस्मिन् स:-द० ।।

३. मत्स्व, मदी हर्षे, दिवादि । वेद में अदादि भी होने से शप् का लुक् ।

४. आशिरं दुग्धं दत्तः यौ तौ आशीद, ‘सुपा सुलुक्०’ पा० ७.१.३९से औ का आ । ‘आशी: आश्रयणाद् वा आश्रपणाद् वा, इन्द्राय गावआशिरम् ऋ० ८.६९.६’ इत्यपि निगमो भवति’ निरु० ६.३५ ।

५.वाम=प्रशस्य, निघं० ३.८।।

६. विद्लु लाभे, तुदादिः ।।

७.न विद्यन्ते रपांसि पापानि यस्य सः । ‘रपो रिप्रमिति पापनामनी भवत:’ निरु० ४.४८।।

गृहाश्रम

पापों और अपराधों से छुटकारा-रामनाथ विद्यालंकार

पापों और अपराधों से  छुटकारा

 ऋषिः भरद्वाजः । देवता परमेश्वरो विद्वांश्च । छन्दः १. निवृत् साम्नी उष्णिक, २. साम्नी उष्णिक्, ३, ४, ५. प्राजापत्या उष्णिक्,। ६. निवृद् आर्षी उष्णिक्।।

१देवकृतस्यैनसोऽवयजनमसिमनुष्यकृत॑स्यैनसोऽवयजनमसिपितृतस्यैसोऽव्यज॑नमस्यात्मकृतस्यैसक्यज॑नम्स्येन्सऽएनसेल वयजनमसि। ६ यच्चाहमेनों विद्वाँश्चकार यच्चाविद्वाँस्तस्य सर्वस्यैनसोऽवयजनमसि॥

 -यजु० ८।१३

हे परमात्मन् और योगी विद्वन् ! आप ( देवकृतस्य) विद्वानों के द्वारा किये गये तथा विद्वानों के प्रति किये गये (एनसः) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( मनुष्यकृतस्य) मनुष्यों के द्वारा किये गये तथा मनुष्यों के प्रति किये गये (एनसः ) पाप या अपराध के (अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। (पितृकृतस्य ) पिताओं, पितामहों, प्रपितामहों के द्वारा किये गये तथा इनके प्रति किये गये (एनसः ) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो, (आत्मकृतस्य ) आत्मा के द्वारा तथा आत्मा के प्रति किये गये ( एनसः ) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( एनसः एनसः ) प्रत्येक पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( यत् च अहम् एनः ) जो कोई मैंने पाप या अपराध (विद्वान्) जानकर (चकार ) किया है, ( यत् च ) और जो (अविद्वान्) अनजाने में किया है ( तस्य सर्वस्व एनसः ) उस सब पाप या अपराध के आप ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो।

हमने मनुष्यजन्म सत्कर्म करने के लिए पाया है, पाप या  अपराध में प्रवृत्त होने के लिए नहीं। ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है। ज्यों ही हम पाप या अपराध करते हैं, त्यों ही वह उसे देख लेता है और उसका फल हमें कभी न कभी मिलकर ही रहता है। यह सब जानते हुए भी मनुष्य प्रलोभनवश पाप करता ही है। कम या अधिक प्रायः सभी लोग कभी न कभी पाप-पङ्क में फँस ही जाते हैं। देवजन अर्थात् विद्वान् । लोग भी यह जानते हुए भी कि पाप करना बुरा है, पाप के वश हो जाते हैं। ये ‘देवकृत’ पाप कहलाते हैं। परन्तु न्यायाधीश परमात्मा का जब उन्हें स्मरण होता है, तब वे शिक्षा ले लेते हैं कि आगे हम पाप नहीं करेंगे। विद्वानों के प्रति दूसरों के द्वारा किये गये पाप या अपराध भी ‘देवकृत एनस्’ में आते हैं। विद्वानों के प्रति जैसा सम्मानजनक व्यवहार करना चाहिए वैसा न करके हम उनका निरादर करते हैं या उन्हे कष्ट पहुँचाते हैं, यह विद्वानों के प्रति किया गया पाप या अपराध है। ईश्वर का स्मरण हमें इन पापों से भी बचा सकता है। परमेश्वर स्वयं भी अपनी कृपा की कोर से हमें पापमय जीवन से मुक्त रहने की प्रेरणा कर सकते हैं।

दूसरे पाप ‘मनुष्यकृत’ हैं, अर्थात् जनसामान्य द्वारा किये जानेवाले पाप और जनसामान्य के प्रति किये गये पाप । एक राहभटका राही हमसे कहीं का मार्ग पूछता है। हम उसे सही मार्ग ने बतला कर गलत मार्ग बतला देते हैं और सोचते हैं। कि जब यह गलत स्थान पर पहुँचेगा तब इसकी कैसी दुर्गति होगी। हम इसी में मजा लेते हैं। हम किसी दीन-दु:खी को सताते हैं, उसके कटे पर नमक छिड़कते हैं, और उसमें आनन्द मनाते हैं। हम किसी निरीह की हत्या कर देते हैं। प्रभु की दिव्यता का स्मरण हमें ऐसे सब पापों और अपराधों से बचा सकता है और हमें दिव्य बना सकता है।

तीसरे पाप ‘पितृकृत’ होते हैं, अर्थात् पिता, पितामह और प्रपितामह जो पाप करते हैं या इनके प्रति दूसरे लोग जो पाप करते हैं। बुजुर्ग लोगों से ही छोटे लोग शिक्षा लेते हैं। ये ही पाप करने लग जायेंगे, तो इनकी देखा-देखी छोटे लोग भी पाप करने से नहीं डरेंगे। इसी प्रकार छोटे लोगों द्वारा इनका अपमान किया जाना, इन्हें दु:खी करना आदि पाप भी इसी श्रेणी में आते हैं। परमेश्वर की मनभावनी कृपा और उसकी न्याय की तराजू का ध्यान हमें इन पापों से भी बचा सकता है।

चौथे पाप ‘आत्मकृत’ होते हैं, अर्थात् अपने द्वारा अपने प्रति या अपने द्वारा दूसरों के प्रति किये गये पाप । आत्मा का अपने प्रति पाप यह है कि आत्मा में जो असीम शक्ति छिपी है, उसे न पहचान कर उसे अल्पशक्ति, दीन-हीन समझना। ये परिगणित पाप ही नहीं, सभी प्रकार के पाप या अपराध परमेश्वर की छत्रछाया में जाने से दूर हो सकते हैं। पाप और अपराध मनुष्य जान-बूझकर भी करता है, और अनजाने में भी। इनमें से किसी भी प्रकार के पाप हों, न्यायकारी, दण्डदाता, सत्प्रेरणा के स्रोत परम प्रभु की कृपा से दूर हो सकते हैं। योगी विद्वान् जन भी अपने उपदेशों, योगप्रयोगों, जीवन ज्योतियों तथा सत्परामर्शो से पापियों को देवता बना सकते हैं, अपराधियों को पुण्यात्मा बना सकते हैं। आओ, हम भी परम प्रभु और योगी विद्वानों से जागृति प्राप्त करें।

पापों और अपराधों से  छुटकारा

विद्वान् की क्षमता-रामनाथ विद्यालंकार

विद्वान् की क्षमता-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता विद्वान् । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

स्वराडेसि सपत्नहा संत्ररार्डस्यभिमातिहा राडसि रक्षोहा सर्वरार्डस्यमित्रहा

-यजु० ५। २४

हे विद्वन् ! आप ( स्वराङ् असि ) स्वकीय पाण्डित्य से जगमगानेवाले हो, ( सपत्नहा ) जो एक साथ मिलकर आपसे शास्त्रार्थ करने आते हैं, उन्हें पराजित कर देनेवाले हो। आप ( सत्रराड् असि ) यज्ञ में ज्योति से ज्योतिष्मान् होनेवाले हो, ( अभिमातिहा ) अभिमानियों को परास्त कर देनेवाले हो। आप ( जनराड् असि ) धार्मिक विद्वज्जनों में चमकनेवाले हो ( रक्षोहा ) राक्षसों का, दुष्टों का हनन या पराजय कर देनेवाले हो। आप (सर्वराड् असि ) सबके बीच अपनी विद्या से प्रकाशमान होनेवाले हो, आप (अमित्रहा ) शत्रुओं को हनन कर देनेवाले हो।

हे विद्वन्! हम आपके वैदुष्य पर गर्व करते हैं। आपने चारों वेद संहिताएँ शाखाओं सहित आत्मसात् की हुई हैं। ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषदें, शिक्षा-कल्प-व्याकरण निरुक्त-छन्द-ज्योतिष नामक षड् वेदाङ्ग, प्राच्य और पाश्चात्त्य दर्शनशास्त्र, भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, शिल्पविज्ञान आदि सकल विज्ञान भी आपको हस्तामलकवत् उपस्थित है। आप सृष्टिविज्ञान में भी पारङ्गत हैं। समस्त सैद्धान्तिक और क्रियात्मक ज्ञान के आप महारथी हैं। आप अपने स्वकीय पाण्डित्य से सूर्य के समान जगमगा रहे हो। जो अधकचरे पाण्डित्यवाले अज्ञानी लोग इकट्टे होकर आपसे किन्हीं विषयों पर शास्त्रार्थ या ज्ञानचर्चा करने आते हैं, उनके गर्व का आप हनन कर देते हो, उन्हें पराजित कर देते हो। हे विद्वद्वर! आप यज्ञ के भी अपूर्व ज्ञाता हो, अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेधपर्यन्त यज्ञों के सैद्धान्तिक और क्रियात्मक ज्ञान में आप पारंगत हो। अतः यज्ञों के विषय में कोई शङ्काएँ या अपसिद्धान्त लेकर आपसे वितण्डा करने कोई अपण्डित आते हैं, तो आप उनके अभिमान को चूर कर देते हो, जैसे शतपथब्राह्मण एवं बृहदारण्यक उपनिषद् में अनेक अभिमानी प्रश्नकर्ता विद्वान् और विदुषियों का याज्ञवल्क्य महर्षि ने उनके प्रश्नों के सही उत्तर देकर अभिमान खण्डित कर दिया था।

हे विद्वच्छिरोमणि! आप ‘जनराट्’ भी हो, धार्मिक विद्वज्जनों में अपनी ज्ञानज्योति से चमकनेवाले हो। यदि कोई ज्ञान का दम्भ करनेवाले अज्ञानी दुष्ट राक्षस लोग आपसे वाक्छल करने के लिए आते हैं और आपको भरी सभा में हरा कर लज्जित करना चाहते हैं, उनका आप मुंहतोड़ उत्तर देकर हनन कर देते हो।

हे विद्वज्जनों के भी विद्वान् गुरुवर! आप ‘सर्वराट्’ हो, सभी विद्वन्मण्डली में सूर्य के समान चमकते हो। जैसे सूर्य अन्धकाररूप शत्रु की दुर्गति कर देता है, ऐसे ही जो आपके अमित्र होकर, अस्नेही शत्रु बनकर आपको पराजित करने के मनसूवे बाँधकर आपसे शास्त्रचर्चा करने आते हैं, उनकी आप अपकीर्तिरूप हत्या कर देते हो। शास्त्रार्थ में वे आपके सम्मुख टिकने नहीं पाते हैं और उनकी वही दशा होती है जो धक्का खाकर पहाड़ के ऊँचे शिखर से नीचे गिरनेवाले की होती है।

हे विद्वानों के अधिराज ! हम भी आपसे शिक्षा लेकर आप सदृश विद्वान् बनें और अपण्डितों के कुतर्को को खण्डित करके संसार में सद्धर्म की स्थापना करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ये सह पतन्ति शास्त्रार्थाय सह आगच्छन्ति ते सपत्नाः, तान् हन्तिपराजयते यः स सपत्नहा।

२. अभिमिमते इत्यभिमातयः तान् हन्ति स:-द० |

३. यो जनेषु धार्मिकेषु विद्वत्सु राजते स:-द० ।।

विद्वान् की क्षमता-रामनाथ विद्यालंकार