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राष्ट्राध्यक्षों के प्रति आदर -रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्राध्यक्षों के प्रति आदर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः कुत्सः । देवता रुद्र: । छन्दः निवृद् अतिधृतिः ।

नमो हिरण्यवाहवे सेनान्ये दिशां च पतये नमो नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः पशूनां पतये नमो नमः शष्पिञ्जराय त्विषीमते पथीनां पतये नमो नमो हरिकेशायोपवीतिने पुष्टानां पतये नमः ।।

-यजु० १६ । १७

( नमः ) नमस्कार हो ( हिरण्यबाहवे सेनान्ये ) हिरण्यबाहु सेनापति को। (दिशांचपतये नमः ) और दिक्पाल को भी नमस्कार हो। (नमःहरिकेशेभ्यःवृक्षेभ्यः) नमस्कार हो हरे पत्ते रूपी केशोंवाले वृक्षों अर्थात् वृक्षाधिपतियों को । ( पशूनां पतये नमः ) पशुओं के रक्षक को नमस्कार हो। (नमःत्विषीमते शष्पिजराय’ ) नमस्कार हो पशुप्रदर्शनी में नियुक्त, पशुओं के पिंजरे खोलनेवाले दीप्तिमान अध्यक्ष को । ( पथीनां पतये नमः ) मागों के रक्षक को नमस्कार हो। ( नमः ) नमस्कार हो ( हरिकेशाय उपवीतिने ) यज्ञोपवीत की तरह हरे पट्टे को धारण करनेवाले ( पुष्टानां पतये ) पहलवानों के अध्यक्ष को।

किसी भी राष्ट्र के सफल सञ्चालन के लिए मुख्य अधिकारियों के अतिरिक्त प्रत्येक विभाग के अध्यक्ष नियुक्त किये जाते हैं। प्रजाजनों को इन विभागाध्यक्षों के प्रति उचित आदरभाव प्रकट करना चाहिए। उन विभागाध्यक्षों का उनके कर्तव्यपालन के लिए कृतज्ञ भी होना चाहिए। प्रस्तुत मन्त्र में राष्ट्र के कतिपय विभागाध्यक्षों के प्रति ‘नम:’ कहा गया है। ‘नमः’ में नमन, कृतज्ञता, आदरभाव, साधुवाद, धन्यवाद, आशीर्वाद आदि सब आ जाता है। नमो हिरण्यबाहवे  सेनान्ये’—जिसने अपने बाहु पर सुनहरा पट्टा धारण किया हुआ है, उस सेनापति को हमारा नमस्कार है। वह सेनापति ही अपने सैनिकों की सहायता द्वारा शत्रुओं से हमारी रक्षा करता है, हमें अभयदान देता है, क्षत-विक्षत और असहाय होने की हमारी चिन्ताओं से हमें मुक्त करता है। दिशां च पतये नमः’–प्रत्येक दिशा में दिक्पाल के रूप में नियुक्त अध्यक्ष को हमारा नमस्कार है। शत्रु गुप्त रूप से किसी भी दिशा से हम पर आक्रमण कर सकता है। उस दिशा का दिक्पाल यदि सतर्क है, तो तुरन्त वह उसकी सूचना सेनाध्यक्ष को देता है, जिससे वह दल-बल के साथ आकर शत्रु से लोहा लेता है और उसे पराजित कर राष्ट्र की रक्षा करता है। दिक्पाल के साथ कुछ सैनिक भी रहते हैं, वे भी शत्रु का मुकाबला करते हैं। ‘नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः’ हरित पत्र रूप जिनके केश हैं, ऐसे वृक्षों को नमस्कार । यहाँ वृक्षों से लक्षणा द्वारा वृक्षरक्षक अध्यक्ष गृहीत होते हैं। ‘पशूनां पतये नम:’-पशुरक्षक अध्यक्ष को हमारा नमस्कार । जङ्गल के पशु हाथी, शेर, चीता, मृग आदियों का शिकार करना अपराध माना जाता है। उनकी रक्षा के लिए अध्यक्ष नियुक्त होते हैं। सचेत रहने के लिए हम उन्हें धन्यवाद और आदर देते हैं। ‘नमः शष्पिञ्जराय त्विषीमते’ पशुप्रदर्शनी में रखे गये सिंह, व्याघ्र आदि विविध पशुओं के पिंजरे खुलवानेवाले दीप्तिमान् अध्यक्ष को नमस्कार । चिड़ियाघर में विविध पशु-पक्षी प्रदर्शनार्थ रखे जाते हैं। उनमें हिंसक जन्तु पिंजरे में बन्द रहते हैं। जब कभी उन्हें पिंजरे से बाहर निकालना होता है, तब एक अधिकारी की निगरानी में कोई नियुक्त पुरुष पिंजरे को खोलता है। यह कार्य जिसकी अध्यक्षता से होता है, वह बहुत दीप्तिमान् ( त्विषीमान् ) पुरुष होता है। कभी हिंसक पशु बिगड़कर पिंजरा खोलने-खुलवाने वाले की जान भी ले सकते हैं। ऐसे साहसी अध्यक्ष को भी हमारा नमस्कार। ‘पथीनां पतये नम:’ मार्गरक्षक को हमारा नमस्कार। मार्गों में दुर्घटना यजुर्वेद ज्योति आदि रोकने के लिए मार्गरक्षक नियुक्त किये जाते हैं, उनके अध्यक्ष के प्रति भी हम आदर प्रदर्शित करते हैं। ‘पुष्टानां पतये नमः’–फिर हम पुष्टों अर्थात् पहलवानों के अधिपति को भी नमस्कार करते हैं। पहलवान लोग जिसके संयोजकत्व में अखाड़ा खोद कर पहलवानी, व्यायाम, मलखम्भ आदि करते हैं, उसके प्रति भी हम आदर दर्शाते हैं। वह संयोजक ‘हरिकेश उपवीती’ होता है, अर्थात् उसने हरित वर्ण का पट्टा यज्ञोपवीत की तरह धारण किया होता है।

मन्त्रोक्त सब अधिपतियों का तथा इनसे भिन्न अन्य अधिपतियों का भी सम्मान करना उचित है, क्योंकि ये अपने अपने विभागों का पालन करते हैं।

पाद टिप्पणी

१. शष्पिञ्जराय शङ् उत्प्लुतं पिञ्जरं बन्धनं येन तस्मै–द० | शशप्लुतगतौ, भ्वादिः ।

राष्ट्राध्यक्षों के प्रति आदर -रामनाथ विद्यालंकार 

किस वृक्ष से द्यावापृथिवी बने?-रामनाथ विद्यालंकार

किस वृक्ष से द्यावापृथिवी बने?-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः भुवनपुत्रः विश्वकर्मा । देवता विश्वकर्मा ।। छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।।

किस्विद्वनं कऽउस वृक्षऽसियत द्यावापृथिवी निष्टतुक्षुः । मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यध्यतिष्ठद्भुव॑नानि धारयन्॥

-यजु० १७। २०

( किं स्विद् वनं ) कौन सा वन था ( कः उ स वृक्षः आस ) कौन सा वह वृक्ष था, (यतः) जिससे [जगत्स्रष्टाओं ने] ( द्यावापृथिवी ) द्युलोक और भूलोक को (निष्टतक्षुः ) गढ़ा, रचा ? ( मनीषिणः ) हे मनीषिओ ! ( मनसा ) मत लगा। कर ( तत् इत् उ पृच्छत ) इसके विषय में भी पूछो कि ( भुवनानि धारयन्) भुवनों को धारण करनेवाला वह कारीगर ( यत् अधि अतिष्ठत् ) जिसके ऊपर बैठा हुआ था।

जब मैं द्यावापृथिवी पर दृष्टि डालता हूँ, तब आश्चर्यचकित रह जाता हूँ। भूलोक के मिट्टी, घास, वृक्ष-वनस्पति, पर्वतमाला, नदियाँ, समुद्र, जल, वायु, खनिज पदार्थ, वसन्त-ग्रीष्म-वर्षा शरद् आदि ऋतुएँ सबमें किसी की कारीगरी दृष्टिगोचर होती है। भूमि से लगा हुआ ही अन्तरिक्षलोक है, जिसमें पवन, बिजली, बादल, चन्द्रमा आदि की छटा हमें मुग्ध करती है। उससे ऊपर द्युलोक है, जहाँ सूर्य, विविध नक्षत्रपुंज, राशिचक्र, आकाशगङ्गा आदि हमें विस्मित कर देते हैं। |

वेदमन्त्र प्रश्न उठा रहा है कि वह वन कौन-सा था और उसके अन्तर्गत वृक्ष कौन-सा था, जिससे सृष्टि के कारीगर ने द्यावापृथिवी की रचना की ? मन्त्र के उत्तरार्ध में एक प्रश्न और उठाया गया है कि मन की पूर्ण जिज्ञासा के साथ इस यजुर्वेद ज्योति विषय में भी पूछो कि जिस कारीगर ने द्यावापृथिवी आदि भुवनों की रचना की वह जब उन भुवनों को धारण कर रहा था, तब किस स्थान पर स्थित होकर धारण कर रहा था ?

ऋग्वेद में भी यह मन्त्र विश्वकर्मा-सूक्त (ऋक् १०.८१) में आया है। सकल ब्रह्माण्ड का रचयिता और धर्ता विश्वकर्मा परमेश्वर है। उसी के कर्तृत्व से विविध शिल्पकलाओं से परिपूर्ण ये द्यावापृथिवी आदि लोक रचे गये हैं। वह विश्व का निमित्त कारण है। प्रश्न है कि किस उपादान से, किस वन और वक्ष से. उसने लोकों की रचना की है ? इसको उत्तर है। कि ‘प्रकृति’ रूप वन है और उसके महत्, अहंकार, पंचतन्मात्रा आदि वृक्ष हैं, जिससे द्यावापृथिवी आदि भुवनों की रचना हुई है। जीवात्मा दूसरा निमित्त कारण है, जिसके लिए ये सब भुवन रचे गये हैं। दूसरा प्रश्न यह है कि द्यावापृथिवी आदि भुवनों का कारीगर जब उन भुवनों को धारण कर रहा था, तब किस आधार पर स्थित था? यह प्रश्न इस कारण उठा कि हम लोग जब किसी बोझ को अपने कन्धे या सिर पर उठाते हैं, तब आकाश में लटके-लटके नहीं उठाते, अपितु किसी आधार पर स्थित होकर ही उठाते हैं। यही बात विश्व के कारीगर पर भी लागू होनी चाहिए। इसका उत्तर यह है कि आधार पर खड़े होना तो उनके लिए लागू होता है, जो शरीरधारी हैं। विश्व का कारीगर विश्वकर्मी’ जैसे अशरीरी होते हुए विश्व की रचना कर लेता है, ऐसे ही अशरीरी होने के कारण बिना किसी आधार पर स्थित हुए ही विश्व का धारण भी कर लेता है।

पाद टिप्पणी

१. निस्त क्षु तनूकरणे, लिट् ।

किस वृक्ष से द्यावापृथिवी बने?-रामनाथ विद्यालंकार  

दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार

दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विधृतिः। देवता यज्ञः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

देवहूर्यज्ञऽआ वक्षत्सुम्नहूर्यज्ञऽआ चं वक्षत्।। यक्षदग्निर्देवो देवाँ२।।ऽआ च वक्षत्॥

-यजु० १७।६२

( देवहूः ) दिव्य गुणों को बुलानेवाला है ( यज्ञः ) त्यागमय जीवन, (आवक्षत् च ) वह हमें दिव्य गुण भी प्राप्त कराये। ( सुम्नहूः) सुख को बुलानेवाला है ( यज्ञः ) त्यागमय जीवन, ( आवक्षत् च ) वह हमें सुख भी प्राप्त कराये। ( यक्षत्) प्रशंसा करे (अग्निःदेवः) प्रकाशमय परमेश्वर ( देवान्) दिव्य कर्मों की ( आवक्षत् च) और उन्हें प्राप्त भी कराये। |

सुखी जीवन के लिए समस्त सुख-सुविधाओं को जुटाना मानव के लिए अभीष्ट हो सकता है, परन्तु स्वेच्छा से त्यागमय जीवन व्यतीत करना उससे भी अच्छा है। एक धूनी रमाये साधु ने किसी नगर से बाहर एक वृक्ष के नीचे आसन जमाया। नागरिक लोग श्रद्धावश तरह-तरह की भेंटें उसके आगे रख जाते। वह सब सामान गरीबों को बाँट देता था। एक दिन एक सेठ थालों में आभूषण, रेशमी वस्त्र, मिष्टान्न, फल आदि राजसी सामान लेकर आये। वह सामान भी उसने जरूरत मन्दों को बाँट दिया। सेठ ने कुछ उपदेश देने की अभ्यर्थना की तो साधु बोला-जैसे मैं बाँटता हूँ, वैसे ही तुम भी बाँटो। सेठ ने कहा-महाराज, आप तो दूसरों का दिया बाँट रहे हैं, इसलिए आपको बाँटने में कुछ दर्द नहीं है। हमारी तो अपनी कमाई है। साधु बोला-क्यों गर्व करते हो! तुम्हारी धन दौलत भी भगवान् की दी हुई है। जितना बाँटोगे, उतनी ही बढ़ेगी। गरीब से जो प्यार करता है, उससे भगवान् प्यार करते हैं।

त्यागमय जीवन ‘देवहू:’ है, दिव्य गुणों को बुला कर लानेवाला है। त्याग का गुण मनुष्य के अन्दर आते ही अहिंसी, सत्य, अस्तेय, श्रद्धा, न्याय, दया आदि सब गुण स्वयं उसके पास दौड़े चले आते हैं। मनुष्य असत्यभाषण, चोरी आदि करता है किसी स्वार्थ के लिए। जब उसका जीवन ही परार्थ हो जाता है, तब हिंसा आदि दुर्गुण उसके पास भला क्यों फटकेंगे। त्यागमय जीवन ‘सुम्नहू:’ है, सुख को बुला कर लानेवाला है। त्याग में जो सुख अनुभव होता है, उसे त्यागी ही जानता है। कोई धनी-मानी व्यक्ति किसी सत्कार्य के लिए एक लाख का दान करके लौट रहा था। चेहरे पर प्रसन्नता की रौनक थी। किसी ने कहा-तू तो ऐसा खुश दीख रहा है, जैसे करोड़पति हो गया हो। |

दिव्य गुणों के साथ दिव्य कर्म भी आने चाहिएँ। त्यागमय जीवन दिव्य कर्मों की ओर भी मनुष्य को अग्रसर करता है। हम प्रकाशमय अग्निप्रभु से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें दिव्य कर्मों का धनी भी बनाये।

आओ, हम त्यागरूप यज्ञ को अपना कर दिव्यगुणों के राजा, सुख के स्वामी और दिव्य कर्मों के धुरन्धर बने ।

पादटिप्पणियाँ

१. देवान् दिव्यगुणान् आह्वयतीति देवहू: ।

२. आ-वह प्राणणे, लेट् । आवक्षत्=आ वहतु।

३. सुम्न-सुख, निघं० ३.६ । सुम्नानि सुखानि आह्वयतीति सुम्नहू:।।

४. यक्षत्, यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु, लेट् । यजतु पूजयतु प्रशंसतु ।

दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार 

मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार

मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से  सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषयः देवाः । देवता प्रजापतिः । छन्दः भुरिक् अति शक्वरी ।

ऋतं च मेऽमृतं च मेऽयक्ष्मं च मेऽनामयच्च मे जीवाति॑श्च मे दीर्घायुत्वं च मेऽनमित्रं च मेऽभयं च मे सुखं च मे शयनं च मे सूषाश्च मे सुदिनं च मे यज्ञेने कल्पन्ताम्॥

-यजु० १८ । ६ |

हे प्रजापति परमेश्वर ! ( ऋतं च मे ) मेरा सत्य व्यवहार ( अमृतं च मे ) और मेरा अमरत्व, ( अयक्ष्मं च मे ) और मेरा आरोग्य, ( अनामयच्च मे ) और मेरा आरोग्यकारी पथ्य, ( जीवातुश्च मे ) और मेरा भद्र जीवन, ( दीर्घायुत्वं च मे ) और मेरा दीर्घायुष्य, (अनमित्रं च मे ) और मेरा अजात शत्रुत्व, ( अभयं च मे ) और मेरी निर्भयता, ( सुखं च मे ) और मेरा सुख, ( शयनं च मे ) और मेरा शयन, ( सूषाः च मे ) और मेरी शुभ उषा, ( सुदिनं च मे ) और मेरा सुदिन ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञभावना के साथ सम्पन्न हों।

छान्दोग्य उपनिषद् कहती है कि मनुष्य का जीवन एक यज्ञ है। उसके प्रथम २४ वर्ष प्रात:सवन हैं, आगे के ४४ वर्ष माध्यन्दिन सवन हैं और उससे आगे के ४८ वर्ष सायंसवन हैं। इस बीच कोई आधि-व्याधि सताने लगे तो उसे दृढ़ मनोबल के साथ ललकार कर कहे कि मेरे यज्ञ को विघ्नित मत करो। तब वह उससे छूट जाता है और उसका ११६ वर्ष का यज्ञ पूर्ण हो जाता है। यही यज्ञ- भावना है। मनष्य अपने जीवन को पवित्र यज्ञ समझे, तो न कोई दुर्विचार उसे सता सकेगा, न कोई रोग, और शिव सङ्कल्पों का वह स्वागत करेगा। ‘ऋत’ शब्द गत्यर्थक ‘ऋ’ धातु से बनता है। इसका अर्थ है सत्यभाषण और सत्य व्यवहार। मैं अपने जीवन को यज्ञ समझकर सदा सत्यभाषण ही करूँ, दूसरों के साथ सत्य व्यवहार ही करूं, क्योंकि शतपथब्राह्मण कहता है कि जो पुरुष अमृत भाषण करता है, वह अपवित्र होता है। मैं अमृत हूँ, मेरा आत्मा अमर है, यदि मैं असत्य और अभद्र आचरण करूंगा, तो सत्यव्रती जन मुझे धिक्कारेंगे। अमर होता हुआ मैं धिक्कार का भाजन बनता हूँ, तो मेरी अमरता समाप्त होती है, मैं पतितों की श्रेणी में आ जाता हूँ। मुझे ‘अयक्ष्मत्व प्राप्त हो, आरोग्य मिले। रोगी होती हैं, तो मेरा यज्ञ त्रुटित होता है। मैं ऐसा पथ्य करूं, जिससे नीरोग रहूँ, यह नीरोग रहने का उपाय है। केवल पथ्य ही नहीं, नीरोग रहने के जो भी साधन योगासन, प्राणायाम, व्यायाम आदि हैं, वे सब इसमें समाविष्ट हैं। मेरा ‘जीवातु’ मेरा भद्र जीवन, भद्र प्राण प्रशस्त हो। मुझे दीर्घायुष्य प्राप्त हो। कम से कम शत वर्ष तो मुझे जीना ही चाहिए। मुझे ‘अनमित्रत्व प्राप्त हो, मैं अजातशत्रु कहलाऊँ।। मैं किसी से शत्रुता न करूं और न मुझसे कोई शत्रुता करे। सबका मित्र बनकर रहूँ। मैं निर्भय रहूँ। वेद कहता है जैसे सूर्य और पृथिवी किसी से डरते नहीं है, वैसे ही हे मेरे प्राण ! तू किसी से मत डर।” मुझे ‘सुख प्राप्त हो, जीवन में । परमानन्द मिले, क्योंकि दु:खग्रस्त रहने पर मेरा यज्ञ विघ्नित होगा। मुझे मेरा ‘शयनसुख प्राप्त हो, मैं सोने पर विश्रान्ति अनुभव करूँ, दु:स्वप्न मुझे न सतायें । मेरे जीवन में सुनहरी उषा’ खिलती रहे, उदासीनता या निष्क्रियता के अन्धकार से मैं कभी ग्रस्त न होऊँ। मैं सदा यह अनुभव करूँ कि तमस् से ज्योति की ओर आ रहा हूँ। मेरा दिन ‘सुदिन’ हो, प्रत्येक नया दिन उदित होने पर मैं यह अनुभव करूं कि यह दिन मेरे लिए सुदिन होकर आया है, मेरे लिए कुछ उपहार लाया है।

उक्त सब वस्तुएँ सब गुण, सब सौगातें मुझे तभी मिल सकती हैं, जब मैं अपने जीवन को यज्ञ समझकर पवित्रता के । साथ व्यतीत करूं-” यज्ञेन कल्पन्ताम्”।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पुरुषो वाव यज्ञ: । छा० उप० ३.१६ ।

२. अमेध्यो वै पुरुषो यदनृतं वदति। श० १.१.१.१

३. यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः ।एवा में प्राण मा बिभे: ।। अ० २.१५.१

मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से  सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार 

मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार

मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषयः देवाः । देवता यज्ञानुष्ठाता आत्मा। छन्दः क. स्वराड् विकृतिः,र, स्वराड् ब्राह्मी उष्णिक्।।

के आयुर्यज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन कल्पतां चक्षुर्यज्ञेन कल्पताछ श्रोत्रं यज्ञेन कल्पत वाग्यज्ञेन कल्पां मनो यज्ञेर्न कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पता ब्रह्मा यज्ञेने कल्पत ज्योतिर्यज्ञेने कल्पता स्वर्यज्ञेने कल्पतां पृष्ठं ज्ञेने कल्पतां यज्ञो यज्ञेने कल्पताम्। रस्तोमश्च यजुश्चऽऋक् च सार्म च बृहच्छ रथन्तरञ्चे।स्वर्देवाऽअगन्मामृताऽअभूम प्रजापतेः प्रजाऽअभू वेट् स्वाहा।

— यजु० १८।२९ |

( आयुः यज्ञेन कल्पत) आयु यज्ञ से समर्थ हो । ( प्राणः यज्ञेन कल्पता ) प्राण यज्ञ से समर्थ हो। (चक्षुः यज्ञेन कल्पत) चक्षु यज्ञ से समर्थ हो। ( श्रोत्रं यज्ञेन कल्पता ) श्रोत्र यज्ञ से समर्थ हो । ( मनः यज्ञेन कल्पत) मन यज्ञ से समर्थ हो। (आत्मायज्ञेनकल्पतां) आत्मा यज्ञ से समर्थ हो। ( ब्रह्मा यज्ञेन कल्पतां ) ब्रह्मा यज्ञ से समर्थ हो। ( ज्योतिः यज्ञेन कल्पत) अध्यात्म ज्योति यज्ञ से समर्थ हो। (स्वःयज्ञेनकल्पत) मोक्ष यज्ञ से समर्थ हो । ( पृष्ठं यज्ञेन कल्पता ) स्तोत्र यज्ञ से समर्थ हो । ( यज्ञः यज्ञेन कल्पत) यज्ञ यज्ञ से समर्थ हो। ( स्तोमः च ) स्तोम, ( यजुः च ) और यजुः, (ऋक् च) और ऋक्, ( साम च) और साम, ( बृहत् च) और बृहत् नामक सामगान, (रथन्तरं च ) और रथन्तर नामक सामगान [यज्ञ से समर्थ हों]। हम मनुष्यों ने ( देवाः ) देव होकर ( स्वः अगन्म ) जीवन्मुक्ति पा ली है। ( अमृताः अभूम) हम अमर हो गये हैं। ( प्रजापतेः प्रजाः अभूम) प्रजापति की यजुर्वेद- ज्योति प्रजा हो गये हैं। ( वेट्) वषट्, ( स्वाहा ) स्वाहा।

मैं चाहता हूँ कि मेरे सब कार्य यज्ञपूर्वक हों, मेरे सब साधन, मेरे शरीर का प्रत्येक अङ्ग, मेरी प्रत्येक क्रिया यज्ञपूर्वक हो। स्वार्थ की सिद्धि के साथ परार्थ की सिद्धि करना ही यज्ञ है। यदि केवल स्वार्थ की सिद्धि होती है, परार्थ के प्रति उदासीनता है, न परार्थ की हानि होती है, न सिद्धि, तो वह यज्ञ नहीं है। हम अग्निहोत्ररूप यज्ञ करते हैं, उसमें भी स्वार्थ की सिद्धि के साथ परार्थ की सिद्धि होती है, क्योंकि यज्ञ से जो पर्यावरणशोधन होता है, उससे सबको लाभ होता है। मैं अपनी आयु यज्ञपूर्वक व्यतीत करूं, आयु-भर अपनी उन्नति के साथ दूसरों की उन्नति भी करता रहूँ, इसी में मेरी आयु की सफलता है। मैं अपने प्राणों से यज्ञ करता रहूँ, अर्थात् प्राणों से स्वार्थसिद्धि के साथ परार्थसिद्धि भी करता रहूँ। मैं अपने चक्षु, श्रोत्र और वाणी से यज्ञ करता रहूँ। जो कुछ आँख से देखू, श्रोत्र से सुनें, वाणी से बोलूं उससे दूसरों का भी भला करूं। मैं अपने मन को यज्ञ में लगाऊँ। जो कुछ मन से सोचूँ विचारूं, सङ्कल्प करूँ, इन्द्रिय-व्यापार में मन को लगाऊँ, उससे दूसरों का भी कल्याण हो। सब ज्ञानों का कर्ता और सब ज्ञानों का ग्रहीता तो मेरा आत्मा है। वह जो कार्य करे और जो ज्ञान उपार्जित करे, उससे दूसरे लोग भी लाभान्वित हों। मेरे द्रव्ययज्ञ का ब्रह्मा जिस यज्ञ का सञ्चालन करता है, उस यज्ञ की पूर्णाहुति से मुझे तो लाभ होगा ही, किन्तु यज्ञ में सम्मिलित सभी भाई-बहिन उससे तृप्त हों। मेरे अन्दर जो ज्ञान की ज्योति जलती है, प्रभु-प्रेम की ज्योति जलती है, उससे मैं तो अध्यात्म-साधना में समुन्नत होऊँगा ही, वह ज्योति अन्यों को भी ज्योतिष्मान् करे। मेरी जीवन्मुक्ति भी मेरी ही मुक्ति का साधन न बने, अपितु अन्यों की दु:खमुक्ति में भी कारण बने। मेरे स्तोत्र केवल मुझे ही भगवत्स्तुति में विभोर न करें, प्रत्युत अन्य भी उन स्तोत्रों से आह्लादित हों। मेरा ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ, भूतयज्ञ भी मुझे आह्लादित करने के साथ-साथ अन्यों को भी आनन्दित करे। मेरा स्तोम, मेरा यजुर्वेद पाठ, ऋग्वेदपाठ, सामवेदपाठ, बृहत् नामक सामगान, रथन्तरनामक सामगान भी यज्ञपूर्वक हों अर्थात् मेरे साथ वे अन्यों को भी सुखी करें। इस प्रकार यदि मैं यज्ञपूर्वक सब कर्म सम्पन्न करूंगा, तो मैं उन-उन कार्यों में सफल माना जाऊँगा। केवल अपने लिए कुछ उपलब्धि कर लेने में सफलता नहीं है, जब तक अन्यों को भी उससे कुछ उपलब्धि न हो।

देखो, हम मनुष्य देव बन गये हैं। दिव्यता प्राप्त करके हमने ‘स्व:’ को पा लिया है, हम जीवन्मुक्त हो गये हैं, हम अमर हो गये हैं, हम मानव सम्राट् की नहीं, प्रजापति की प्रजा हो गये हैं। हम अग्निहोत्र करते हुए प्रत्येक आहुति के साथ ‘वषट्’ बोलते हैं, ‘स्वाहा’ बोलते हैं। हे मानवो! अपना प्रत्येक कार्य यज्ञपूर्वक करो, उसी में उस कर्म की सफलता है।

मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार 

प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार

प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषयः देवा: । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

पर्यः पृथिव्यां पयऽओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पर्यस्वती: प्रदिशः सन्तु मह्यम् ।

-यजु० १८ । ३६ |

हे अग्रनायक परमेश्वर ! आपने ( पृथिव्यां पयः ) पृथिवी में दूध, ( ओषधीषु पयः ) ओषधियों में दूध, ( दिवि पयः ) द्युलोक में दूध, ( अन्तरिक्षे पयः) अन्तरिक्ष में दूध (धाः ) रखा है। ( प्रदिशः ) प्राची आदि मुख्य दिशाएँ भी ( मह्यं ) मेरे । लिए (पयस्वती) दूध-भरी ( सन्तु) हो जाएँ।

देखो, परमात्मा ने विश्व के अनेक स्थानों में दूध रखा हुआ है। पृथिवी में दूध है। पृथिवी में सलोनी मिट्टी का दूध है, स्रोतों-सरिताओं-सरोवरों का दूध है, सोने-चाँदी का दूध है, हीरे-मोतियों का दूध है, गन्धक का दूध है, गौओं का दूध है, वन-उपवनों का दूध है। ये सब दूध हमारे लिए अमृततुल्य हैं। ओषधियों में भी दूध निहित है। ओषधियों में हरियाली का दूध है, पत्तियों का दूध है, फूलों का दूध है, पके फलों का दूध है। द्युलोक में भी दूध रखा हुआ है। द्युलोक में सूर्यप्रकाश का दूध है, नक्षत्रों की ज्योति का दूध है, आकर्षणशक्ति का दूध है। अन्तरिक्ष में भी परमेश्वर ने दूध रखा हुआ है। अन्तरिक्ष में पवन का दूध है, विद्युद् ज्योति का दूध है, पर्जन्य का दूध है, वृष्टि का दूध है। पृथिवी, ओषधि, द्यौ, अन्तरिक्ष के ये दूध हमारे लिए प्राण बरसाते हैं, हमें शक्ति देते हैं, जीवन देते हैं, वरदान देते हैं, आयुष्य देते हैं, अहोरात्र देते हैं, ऋतुएँ देते हैं, संवत्सर देते हैं, समृद्धि देते हैं, सौभाग्य देते हैं, अन्न देते हैं, धन-सम्पदा देते हैं, जागृति देते हैं। ये दूध हमें न मिलें, तो ब्रह्माण्ड से जीवन ही समाप्त हो जाए, प्रगति बिखर जाए, उत्कर्ष रुक जाए, रोहण और आरोहण मिट जाएँ, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की क्रीडा विरत हो जाए। ये दूध न मिलें, तो ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व, क्षत्रिय का क्षात्रबल, वैश्य का वैभव सब लुप्त हो जाएँ। ये दूध न मिलें, तो ब्रह्मचारियों का ब्रह्मचर्य और अध्ययन, गृहस्थों का गृहस्थ धर्म, वानप्रस्थों की आत्मोन्नति और जनसेवा तथा संन्यासियों का परोपकार शशशृङ्गवत् हो जाएँ। इन दूधों से धनी-गरीब की भूख मिटती है, इन दूधों से हमारी जीवन-यात्रा होती है। ये दूध हमारे लिए संजीवन-रस का काम करते हैं, ये दूध हमारे अन्दर प्राण भरते हैं। |

हे परमेश! हे जगदीश्वर ! आपने पृथिवी में ओषधियों में, द्यौ में, अन्तरक्षि में दूध रखा है, तो प्रदिशाओं को भी दूध से भर दो। पूर्व में दूध हो, पश्चिम में दूध हो, उत्तर में दूध हो, दक्षिण में दूध हो । प्रत्येक दिशा दूध से भरपूर हो जाए। प्रत्येक दिशा के वासी दूध पियें, दूध पिलाएँ, दूध में नहाएँ, दूध में सरसें-विकसे, दूध से समृद्ध हों, दूध की पिचकारियाँ छोड़े, दूध की बाल्टियाँ भरें। दिशाओं में दूध की हवाएँ चलें, दूध की वृष्टि हो, दूध के नदी-नाले बहें । शान्ति का दूध हो, प्रेम का दूध हो, आनन्द का दूध हो, उत्कर्ष का दूध हो, सङ्गठन का दूध हो, सहानुभूति का दूध हो, सत्सङ्ग का दूध हो, मैत्री का दूध हो, ईश्वरोपासना का दूध हो।

प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार 

यज्ञ गन्धर्व है, दक्षिणाएँ अप्सरा हैं-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ गन्धर्व है, दक्षिणाएँ अप्सरा हैं-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषयः देवाः । देवता यज्ञ: । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

भुज्युः सुपर्णो यज्ञो गन्धर्वस्तस्य दक्षिणाऽअप्सरसस्तावा नाम। स नऽइदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट् ताभ्यः स्वाहा।

-यजु० १८ । ४२ ।

( भुज्युः१) पालनकर्ता, सुखभोग करानेवाला, (सुपर्णः ). शुभ पंखोंवाला ( यज्ञः ) यज्ञ: (गन्धर्वः ) पृथिवी को धारण करनेवाला है, ( दक्षिणाः ) दक्षिणाएँ ( तस्य) उस यज्ञ की । ( अप्सरसः ) अप्सराएँ हैं, (स्तावा:४ नाम ) जिनका नाम । स्तावा है । ( सः ) वह यज्ञ ( नः ) हमारे ( इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ) इस ब्रह्मबल और क्षात्रबल की रक्षा करे। (तस्मै  स्वाहा ) उसके लिए स्वाहापूर्वक आहुति देते हैं, ( वाट् ) वह यज्ञ हमारी आहुति का वहन करे। ( ताभ्यः स्वाहा ) उन दक्षिणाओं के लिए स्वाहा करते हैं।

मनुष्य का जीवन यज्ञमय है। दैनिक यज्ञ, पञ्च महायज्ञ, पर्वयज्ञ, नैमित्तिक यज्ञ, काम्य यज्ञ आदि यज्ञों का तांता लगा रहता है। फिर मनुष्य को अपना जीवन भी यज्ञमय बनाना होता है, जिसके प्रथम २४ वर्ष प्रात:सवन होते हैं, अगले ४४ व माध्यन्दिन सवन होते हैं और उससे आगे के ४८ वर्ष सायंसवन होते हैं। इस प्रकार जीवन का यह यज्ञ ११६ वर्ष तक चलता है। यह ११६ वर्ष का यज्ञ महिदास ऐतरेय ने किया था, जिसका छान्दोग्य उपनिषद् में वर्णन है। ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः’ आदि मन्त्र के अनुसार तीन सौ वर्ष का भी जीवनयज्ञ हो सकता है। इसी मन्त्र की एक व्याख्या के अनुसार यह यज्ञ चार सौ वर्ष का भी हो सकता है। यज्ञ त्याग और दान का सन्देश देता है। अपने पास जो कुछ भी ऐश्वर्य है, उससे दूसरों का भी पेट भरना है, दूसरों की भी आवश्यकताएँ पूर्ण करनी हैं। चींटी, कौओं को भी भोजन देना है, अतिथियों का भी सत्कार करना है। यह त्याग की भावना अग्निहोत्रयज्ञ द्वारा आती है। अग्निहोत्र से पर्यावरण शुद्ध होता है। इसलिए मन्त्र में कहा है कि यज्ञ ‘भुज्यु’ है, यज्ञकर्ता का तथा अन्यों का पालन करनेवाला है, उन्हें सुखभोग करानेवाला है। यज्ञ ‘सुपर्ण’ है। अग्निज्वाला और वायु ये यज्ञ के दो पंख हैं, जिनसे वह दूर-दूर तक उड़ता है, दूर-दूर तक यज्ञ की रोगहर पोषक सुगन्ध पहुँचाता है। यज्ञ ‘गन्धर्व’ है, भूमि को धारण करनेवाला है। यज्ञ से ही भूमि टिकी है, अन्यथा यदि सब स्वार्थ को ही देखने लगें, परार्थसिद्धि संसार से मिट जाए, तो भूमि छिन्नविच्छिन्न हो जायेगी। भूमि में राष्ट्र की भावना यज्ञ से ही आती है, जिस राष्ट्र के लिए राष्ट्रवासी बलिदान होने तक के लिए तैयार रहते हैं।

यज्ञ की त्यागभावना को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कहा है कि यज्ञ की ‘अप्सरा’ दक्षिणाएँ हैं। यज्ञ पुरुष-स्त्री दोनों से मिलकर चलता है। यजमान के आसन पर भी पति पत्नी दोनों बैठते हैं। ‘अप्सरस:’ का योगार्थ है जो प्राणों में साथ-साथ चलती हैं। दक्षिणाएँ यज्ञ के प्राणों के साथ-साथ चलती हैं, अन्यथा यज्ञ निष्प्राण हो जाए। यज्ञ-समाप्ति पर पुरोहित को भी दक्षिणा दी जाती है और अन्य उपयोगी संस्थाओं को भी दक्षिणा देने की परम्परा है। पर्यावरणशुदधिरूपी दक्षिणा तो न केवल यज्ञ के प्रारम्भ से यज्ञ-समाप्ति तक, अपितु उसके बाद भी चलती रहती है। इन दक्षिणाओं को मन्त्र में ‘स्तावाः’ कहा गया है, क्योंकि इनसे ही यज्ञ स्तुति पाता है। आओ, यज्ञ के लिए ‘स्वाहा’ करें तथा दक्षिणाओं को अपने जीवन का अङ्ग बना लें । यह मन्त्र ‘राष्ट्रभृत्’ आहुति का है, क्योंकि इससे राष्ट्र का भरण-पोषण होता है। यज्ञ से ब्रह्म-क्षत्र दोनों की रक्षा होगी। विद्वान् ब्राह्मण भी यज्ञ करें,  चक्रवर्ती राजा भी यज्ञ करे। यज्ञ से दोनों अपने-अपने त्यागपूर्ण कर्तव्यपालन की शिक्षा लें और राष्ट्र को उन्नत करें।

पादटिप्पणियाँ

१. यज्ञो वै भुज्युः, यज्ञो हि सवाणि भूतानि भुनक्ति। श० ९.४.१.११ ।।(भुज्युः) भुज्यन्ते सुखानि यस्मात् सः-द० ।।

२. गां पृथिवीं धरतीति गन्धर्वः । ।

३. (अप्सरसः) या अप्सु प्राणेषु सरन्ति प्राप्नुवन्ति ता:-द० ।।

४. दक्षिणा वै स्तावाः, दक्षिणाभिर्हि यज्ञः स्तूयते । यो यो वै कश्चदक्षिणां ददाति स्तूयत एव सः । श० ९.४.१.११

५. छाउपे० ३.१६

६.७. शतवर्षमितानि त्रीणि आयूंषि समाहृतानि त्र्यायुषम्-पा० ५.४.७७के अनुसार। ‘त्र्यायुषमित्यस्य चतुरावृत्त्या त्रिगुणादधिकं चतुर्गुण मप्यायुः ।…विद्याविज्ञानसहितमायुरस्ति तद् वयं प्राप्य त्रिवर्षशतं चतुर्वपशतं वा ऽऽ युः सुखेन भुञ्जीमहीति।” यजु० ३.६२, द०भा०, भावार्थ

यज्ञ गन्धर्व है, दक्षिणाएँ अप्सरा हैं-रामनाथ विद्यालंकार  

जीवित पितरों की श्री मुझे प्राप्त हो -रामनाथ विद्यालंकार

जीवित पितरों की श्री मुझे प्राप्त हो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वैखानसः । देवता श्री: । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

ये समनाः सर्मनसो जीवा जीवेषु मामूकाः। तेषाश्रीर्मयि कल्पतामस्मिँल्लोके शतसमाः ।।

-यजु० १९ । ४६

( ये ) जो ( जीवेषु ) जीवितों में (समाना:१) सप्राण, सचेष्ट, ( समनसः ) मनोबल से युक्त ( मामकाः) मेरे ( जीवाः ) जीवित पितर हैं, ( तेषां श्रीः ) उनकी श्री (मयिकल्पतां) मुझे प्राप्त होती रहे ( अस्मिन् लोके) इस लोक में ( शतं समाः ) शत वर्ष तक।

मैं अपने पितरों पर दृष्टिपात करता हूँ, तो गर्व से मेरा सिर ऊँचा हो जाता है और मैं उनके प्रति नतमस्तक हो जाता हूँ। ये पितर वानप्रस्थ और संन्यासी मेरे पिता, पितामह, प्रपितामह भी हो सकते हैं, गुरुकुलों के आचार्य भी हो सकते हैं और मुझसे जिनका रक्तसम्बन्ध कुछ नहीं है, किन्तु हैं जो मेरे ही, क्योंकि मुझ-जैसे लोगों के उत्थान के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं, ऐसे साधु, सन्त, योगी, महात्मा, नेता जन भी हो सकते हैं। देखो, ये महात्मा जङ्गल में वृक्ष के नीचे शिला पर दो-दो घण्टे समाधिस्थ बैठे रहते हैं और जब कभी समाधि-सुख छोड़ कर नगर में जनता को दर्शन देने आते हैं, तब इनके मौन उपदेश से सहस्रों की जनमण्डली कृतार्थ हो जाती है। दूसरे ये भगवे वस्त्रधारी परिव्राजक हैं, जो वेदमन्त्र द्वारा ईशस्तुति करके जब धाराप्रवाह भाषण करते हैं, तब सब अविद्याएँ और भ्रमजाल कटते जाते हैं और असत्य पर सत्य की विजय होती चलती है। इनके सदुपदेश अन्धकार में ज्योति का कार्य करते हैं। इन योगी सन्त की ओर भी निहारो, जो नगर-नगर में जाकर, योगशिविर लगाते हैं और जनता को हठयोग की क्रियाएँ तथा ध्यानयोग का प्रशिक्षण देते हैं। इन्हें भी देखो, ये मेरे पितामह हैं, जो वानप्रस्थाश्रमी होकर तपस्या का जीवन व्यतीत कर रहे हैं तथा वैदिक ग्रन्थ-लेखन की सारस्वत साधना में संलग्न हैं। ये सभी ज्ञानरसप्रदान द्वारा मेरा और मत्सदृश सहस्रों का पालन करने के कारण पितर हैं। ये मेरे हैं और मैं इनका हूँ। ये ‘समाना:’ हैं, सप्राण और सचेष्ट हैं। इनके जागरूक प्राणवाला होने के कारण ही सहस्रों-लाखों की जनता मन्त्रमुग्ध की तरह इनके पीछे चलने को तैयार हो जाती है। ये समनसः’ हैं, मनोबल के धनी हैं। इनके मन में यह शक्ति है कि कष्ट से कराहनेवालों को आशीर्वाद से ही चङ्गा कर देते हैं। ये सब जीवित हैं, मृत पितर नहीं हैं। मैं चाहता हूँ कि इनमें जो ‘श्री’ है, वह मुझे शत वर्ष तक प्राप्त होती रहे, यावज्जीवन मिलती रहे। इनमें ‘श्री’ है विद्या की, अगाध पाण्डित्य की, कर्मनिष्ठा की, तपस्या की, ईश्वरभक्ति की, परोपकार की, अनृत से सत्य की ओर ले जाने की। इनमें ‘श्री’ है अहिंसा की, मैत्रीभाव की, धार्मिकता की, अशिव को शिव और असुन्दर को सुन्दर बनाने की। इनमें ‘श्री’ है दरिद्रता को दूर करने की, पाप-कालिमा को धोने की, वैरभाव को नष्ट करने की, अशान्ति को शान्ति में बदलने की, सांसारिकता में आध्यात्मिकता लाने की। इनकी यह ‘श्री’, इनकी यह सम्पदा, इनकी यह ज्योति, इनकी यह विभूति मुझे भी प्राप्त हो, यही मेरी कामना है, यही मेरी साधना है।

पाद टिप्पणी

१. समाना:=१. सप्राण, सम्-आना:, अन प्राणन। २. सचेष्ट, समुअनिति गतिकर्मा, निघं० २.१४।।

जीवित पितरों की श्री मुझे प्राप्त हो -रामनाथ विद्यालंकार 

अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार

अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः शङ्खः । देवता पितरः । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

येऽअग्निष्वात्ता येऽअनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते। तेभ्यः स्वराडसुनीतिमेतां यथावृशं तन्वं कल्पयाति ॥

-यजु० १९६० |

( ये ) जो ( अग्निष्वात्ताः ) अग्निविद्या को सम्यक् प्रकार से ग्रहण किये हुए और (अनग्निष्वात्ताः ) अग्नि-भिन्न ज्ञानकाण्ड को सम्यक् प्रकार से ग्रहण किये हुए पितृजन ( दिवः मध्ये ) ज्ञान-प्रकाश के मध्य में ( स्वधया ) स्वकीय धारणविद्या से (मादयन्ते) सबको आनन्दित करते हैं ( तेभ्यः ) उनके लिए ( स्वराड्) स्वराट् परमात्मा ( एताम् असुनीतिं तन्वं ) इस प्राणक्रिया प्राप्त शरीर को ( यथावशं ) इनकी इच्छानुसार ( कल्पयाति ) समर्थ बनाये अर्थात् स्वस्थ और दीर्घायु करे।

उवट और महीधर ने अग्निष्वात्त तथा अनग्निष्वात्त मृत पितर माने हैं, जो स्वर्गलोक में रहते हैं। उनके अनुसार अग्निष्वात्त वे पितर हैं, जिनका अग्नि स्वाद ले चुका है, अर्थात् जिनका अन्त्येष्टि-कर्म हो चुका है और अनग्निष्वात्त पितर वे हैं, जिनका किसी कारण अन्त्येष्टि द्वारा अग्निदाह नहीं हुआ है, जैसे, जो जल में डूब कर मरे हैं या सिंह-व्याघ्र आदि ने जिन्हें खा लिया है, अथवा जो भूकम्प आदि दुर्घटना में दबे कर मर गये हैं। स्वामी दयानन्द इन्हें जीवित पितर ही मानते हैं। उनके मत में अग्निविद्या को जिन्होंने सम्यक्प्रकार गृहीत किया है, वे अग्निष्वात्त हैं । ये अग्नि परमेश्वराग्नि, यज्ञाग्नि, शिल्पाग्नि, विद्युरूप अग्नि, सूर्यरूप अग्नि सभी हो सकते हैं, अर्थात् अग्निष्वात्त पितर अग्निविद्या के पण्डित हैं। इसमें कर्मकाण्ड भी सम्मिलित है। अग्निभिन्न विद्या वा विद्याओं को जिन्होंने ग्रहण किया है, वे अनग्निष्वात्त पितर हैं। ये अग्निभिन्न विद्याएँ योगविद्या, आयुर्वेदविद्या भूगर्भविद्या, खगोलविद्या आदि अनेक हो सकती हैं। ये अग्निष्वात्त और अनग्निष्वात्त पितर हमारे पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, मातामह, प्रमातामह, आचार्य तथा अन्य पूज्य विद्वज्जन होते हैं। ये हमारे पितर द्यौ’ के मध्य में अर्थात् ज्ञानप्रकाश में विचरते हैं। किन्हीं को अग्निविद्या का प्रकाश प्राप्त है, किन्हीं को अग्निभिन्न विद्याओं का प्रकाश उपलब्ध है। जैसे हम सूर्य के प्रकाश में विचरते हैं, ऐसे ये ज्ञान के प्रकाश में विचरते हैं। इनके अन्दर ‘स्वधा’ होती है, स्वयं को धारण करने की शक्ति विद्यमान रहती है। ये विघ्नों, आपदाओं, प्रतिकूलताओं से विचलित न होकर स्थिर और स्थितप्रज्ञ रहते हैं। इस स्वधा-शक्ति से ये स्वयं को तो आनन्दित करते ही हैं, अपने सम्पर्क में आनेवाले अन्य जनों को भी आनन्दलाभ कराते हैं। इन पितरों के लिए स्वराट् परमात्मा से प्रार्थना की गयी है कि वह प्राणव्यापार से युक्त इनके शरीर को इनकी इच्छा के अनुसार समर्थ बनाये, स्वस्थ और दीर्घायु करे, जिससे ये चिरकाल तक अपनी विद्याओं द्वारा मानवों का हित-सम्पादन करते रहें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ये अग्निष्वात्ता: ये पितर: अग्निष्वात्ता अग्निना आस्वादिताः, ये चअनग्निष्वात्ताः श्मशानकर्म अप्राप्ताः-उवटः ।।

२. (अग्निष्वात्ताः) अग्निः परमेश्वरो ऽ भ्युदयाय सुष्टुतया आत्तो गृहीतयैस्ते ऽग्निष्वात्ताः। तथा होमकरणार्थं शिल्पविद्यासिद्धये चभौतिकोऽग्निरोत्तो गृहीतो यैस्ते । ऋ०भा०भू०, पितृयज्ञविषयः ।। ।

३. (ये अग्निष्वात्ताः) ये अग्निविद्यायुक्ताः, (अनग्निष्वात्ता:) वायुजलभूगर्भविद्यादिनिष्ठा:-वही।

अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार 

ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार

ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता गणपतिः । छन्दः शक्वरी।

गुणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिइहवामहे निधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम। आहर्बजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥

-यजु० २३.१९

हे आचार्य ! हम ( गणानां गणपतिं त्वा) विद्यार्थी-गणों के गणपति आपको (हवामहे) पुकारते हैं।(प्रियाणां प्रियपतिं त्वा) प्रिय शिष्यों के प्रियपति आपको (हवामहे ) पुकारते हैं। (निधीनां निधिपतिं त्वा ) विद्यारूप निधियों के निधिपति आपको ( हवामहे ) पुकारते हैं। अब पिता ब्रह्मचारी को कहता है-( मम वसो) हे मेरे धन ब्रह्मचारी ! ( अहं) मैं (गर्भधं ) ब्रह्मचारी को गर्भ में धारण करनेवाले आचार्य के पास ( आ अजानि ) तुझे लाता हूँ। ( त्वं ) तू ( आ अजासि ) आ जा ( गर्भधं) गर्भ में धारण करनेवाले आचार्य के पास।

जब विद्यार्थी गुरुकुल में प्रविष्ट होता है और ब्रह्मचारी होकर आचार्याधीन निवास करता है, तब आचार्य उसे अपने गर्भ में धारण करता है। अनेक विद्यार्थी उसके गर्भ में निवास करते हैं, अतः वह विद्यार्थी-गणों का गणपति होता है। उसके आचार्यत्व में सहस्र विद्यार्थी भी हो सकते हैं। वह अपने प्रिय शिष्यों का प्रियपति होता है। वह शिष्यों के प्रति प्रीति रखता है और शिष्य उसके प्रति प्रीति रखते हैं। प्रिय शैली से ही वह शिष्यों को पढ़ाता तथा सदाचार की शिक्षा देता है, जिससे उन्हें हस्तामलकवत् विषय का बोध हो सके। वह विद्यानिधियों का निधिपति होता है, अनेक विद्याओं के खजाने उसके अन्दर भरे होते हैं। चारों वेदों और उपवेदों की निधियाँ, शिक्षा कल्प-व्याकरण-निरुक्त-छन्द-ज्योतिष रूप षड्वेदाङ्गों की  निधियाँ, दर्शन-शास्त्रों की निधियाँ, भौतिक विज्ञान की निधियाँ, अपरा और परा विद्या की निधियाँ लबालब भरी हुई उसके पास होती हैं। आचार्य के सहायक गुरुजन किन्हीं विशेष विद्या-निधियों के निधिपति होते हैं। कोई अग्नि, विद्युत्, सूर्य और नक्षत्रों के विज्ञान का अधिपति है, कोई राजनीति और युद्धनीति का अधिपति है, कोई कृषि-व्यापार-पशुपालन विद्या का निधिपति है। ब्रह्मचारीगण इन आचार्यों और गुरुजनों को आदर और प्रेम से पुकारते हैं। गुरुकुल में प्रवेश कराते समय विद्यार्थी का पिता उसे कहता है-हे मेरे धन ! हे मेरे पुत्र ! मैं विद्यार्थी को गर्भ में धारण करनेवाले, उसके साथ अत्यन्त निकट सम्पर्क रखनेवाले आचार्य के पास तुझे लाया हूँ। तू इस आचार्य के गर्भ में वास कर। यह तेरे अज्ञान को मार कर तुझे विद्वान् बनायेगा, तुझे नया जन्म देगा, तुझे द्विज बनायेगा और तदनन्तर तेरा समावर्तन संस्कार करके तुझे राष्ट्र की सेवा के लिए गुरुकुल से विदा करेगा। तू इसकी शरण में निवास कर, तू इससे विद्या की निधि ग्रहण कर। तू भी निधिपति बनकर बाहर निकल और अपनी निधियों को बाँट।

पाद टिप्पणियां १. गर्भे दधातीति गर्भधः तम् ।

२. आ-अज गतिक्षेपणयोः, लोट् ।

३. आ-अज गतिक्षेपणयो:, लेट् । ‘लेटोऽडाटौ’ पा० ३.४.९४ से आट्का आगम।।

ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार