नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः वत्सः । देवता नारी । छन्दः निवृद् ब्राह्मी पङ्किः।
चिदसि मुनासि धीरसि दक्षिणासि क्षत्रियासि युज्ञियास्यदितिरस्युभयतः शीष्र्णी ।सा नः सुप्राची सुप्रतीच्येधि मित्रस्त्वा पुदि बैनीतां पूषाऽध्वनस्पत्चिन्द्रायाध्यक्षाय ।।
-यजु० ४ । १९
हे नारी! तू (चिद् असि) चेतनावाली है, ज्ञानवती है। (मना असि) मननशीला है, मनस्विनी है (धीः असि) बुद्धिमती है, ध्यान करनेवाली है। (दक्षिणा असि) बलवती है, त्यागमयी है। (क्षत्रिया असि) क्षत्रिया है। (यज्ञिया असि) यज्ञार्ह है, यज्ञ की अधिकारिणी है। (अदितिः असि) अदीना है, अखण्डिता है। (उभयतः शीष्ण) ज्ञान और कर्म दोनों ओर मस्तिष्क लगानेवाली है। (सा) वह तू (न ) हमारे लिए (सुप्राची) सुन्दरता से आगे बढ़नेवाली और (सुप्रतीची) सुन्दरता से पीछे हटनेवाली (एधि) हो। (मित्रः) तेरा वैवाहिक सप्तपदी विधि का सखा (त्वा पदि बच्चीताम्) तेरे साथ पैर से पैर मिलाये रखे। (पूषा) प्रकाशपोषक सूर्य (अध्वनः पातु) मार्ग से तेरी रक्षा करता रहे। (इन्द्राय अध्यक्षाय) सर्वाध्यक्ष जगदीश्वर के प्रति तू समर्पित रह। |
इस मन्त्र में वैदिक नारी का उज्ज्वल यशोगान किया गया है। नर और नारी गृह-यज्ञ एवं समाज-यज्ञ रूप रथ के दो आवश्यक पहिये हैं, जिनके सशक्त और सर्वगुणसम्पन्न होने से ही वह रथ अविच्छिन्न गति से चल सकता है। नारी को जड़ वस्तु की तरह निष्क्रिय एवं उदासीन नहीं, प्रत्युत चेतनामया, जागृतिसम्पन्न एवं ज्ञानवती होना चाहिए। वह मननशीला, मनस्विनी तथा शिवसङ्कल्पमयी हो। वह बुद्धि-वैभववाली तथा योग-ध्यान में मन लगानेवाली हो, वह शारीरिक एवं आत्मिक बल से अनुप्राणित तथा त्यागमयी हो, अपरिग्रह का जीवन व्यतीत करनेवाली हो, दुःखी-दरिद्रों को अपनी सम्पत्ति का दान करनेवाली हो। वह गुण-कर्म-स्वभाव से क्षत्रिया है। तो क्षात्रबल के कार्य करे, दुर्जन शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करे। यदि क्षत्रिया नहीं है, ब्राह्मण या वैश्य वर्ण की है, तो भी आत्मरक्षा तथा पररक्षा के लिए क्षात्रबल उसके अन्दर होना ही चाहिए। नारी धर्मशास्त्रों के अनुसार यज्ञार्ह है, यज्ञ करने कराने की अधिकारिणी है।
मध्यकाल में उससे वेदाध्ययन और यज्ञ का अधिकार छीन लिया गया, यह उसके प्रति अत्याचार ही था। आज उस अत्याचार का प्रतीकार हो रहा है। वह अदिति है, अदीना माता है, वह अखण्डनीया है, उसके अधिकारों का खण्डन नहीं, मण्डन होना चाहिए। वह ‘उभयतः शीष्र्णी’ है, उसका सिर या मस्तिष्क ज्ञान और कर्म दोनों में लगता है। वह सुप्राची और सुप्रतीची है, उसका आगे बढ़ना भी सुन्दर होता है और पीछे हटना भी। उसका पीछे हटना भी आगे बढ़ने का ही एक पैतरा होता है। विवाह में सप्तपदी विधि में वर के पग के साथ पग मिला कर सात पग रख कर उससे सख्य स्थापित करती है। वह जब तक पति के साथ रहती है पग से पग मिला कर ही चलती रहती है। प्रकाशमय सूर्य और आत्म-सूर्य कण्टकाकीर्ण मार्ग में कण्टकों से उसकी रक्षा करता है। वह मार्ग की विघ्न-बाधाओं को पार करती हुई लक्ष्य पर पहुँच कर ही रहती है।.सर्वाध्यक्ष जगदीश्वर को वह आत्म-सर्पण करके उसकी प्रेरणा के अनसार ही जीवन व्यतीत करती है। हे नारी ! हम तेरे सद्गुणों को स्मरण करते हए तुझे सम्मान देते हैं, तेरी पूजा करते हैं।
नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार
पाद-टिप्पणियाँ
१. चित्, चिती संज्ञाने। चेततीति चित् ।।
२. धी: बुद्धिमती, मतुप्-लुकू । अथवा ध्यै चित्तायाम् ध्यायतीति धीः ।
३. अदिति: अदीना देवमाता । निरु० ४.४९। दो अवखण्डने, न दितिः अदितिः अखण्डिता।
४. सुषु प्रकर्षेण अञ्चति अग्रे गच्छतीति सुप्राची।
५. सुष्टु प्रकर्षेण प्रत्यञ्चति प्रतिगच्छतीति सुप्रतीची ।
नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार