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अग्नि नामक जगदीश्वर की महिमा -रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि नामक जगदीश्वर की  महिमा -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः पुरोधा: । देवता अग्निः। छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

अन्व॒ग्निरुषसमग्रमख्युदन्वहानि प्रथमो जातवेदाः

-यजु० ११ । १७ |

( अग्निः ) तेजस्वी अग्रनायक जगदीश्वर ( उषसाम् अग्रम् ) उषाओं के अग्रभाग को (अनु अख्यत् ) अनुक्रम से प्रकाशित करता है। (प्रथमः जातवेदाः ) वही श्रेष्ठ, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वप्रकाशक जगदीश्वर ( अहानि ) दिनों को ( अनु-अख्यात् ) अनुक्रम से प्रकाशित करता है। वही ( सूर्यस्य) सूर्य की ( पुरुत्रा) बहुत-सी ( रश्मीन्) रश्मियों को ( अनु अख्यत्) अनुक्रम से प्रकाशित करता है। हे प्रभु तूने ही ( द्यावापृथिवी ) द्यु-लोक और पृथिवी-लोक को ( अनु आततन्थ) विस्तीर्ण किया है।

रात्रि का निविड़ अन्धकार दूर हुआ है। उषा का अग्रभाग प्राची में झाँक रहा है। गगन में लाली छा गयी है। तमस्तोम को चीर कर आकाश में लाली लानेवाला कौन है ? ‘अग्नि’ नामक तेजस्वी प्रभु की ही यह करामात है, उसी ने उषा के अग्रभाग को प्रकाश से चमकाया है। निशा काली होती है, दिन प्रकाश से प्रकाशमान हैं । दिनों को प्रकाश से भरनेवाला, ज्योति से जगमगायेवाला कौन है ? ‘जातवेदाः अग्नि’, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, प्रकाशमान प्रभु की ही यह लीला है। इधर भी दृष्टि डालो। उषा आयी, प्रभात खिला, सूर्य की रश्मियाँ चारों ओर फैल गयी हैं, दिशाएँ सूर्यकिरणों से झिलमिला रही हैं। यजुर्वेद ज्योति क्रमश: आकाश-प्राङ्गण में प्रभाकर की प्रभावान् रश्मियों के जाल को फैलानेवाला कौन है? उस ज्योतिष्मान् ‘अग्नि’ नामक जगदीश्वरे की ही यह क्रीडा है। उसी खिलाड़ी का यह खेल है, उसी की यह मनोहर महिमा है। द्यावापृथिवी की ओर भी निहारो। इस पृथिवी को नाना ऐश्वर्यों से किसने भरा है, किसने भूगर्भ में सोना, चाँदी, ताँवे, लोहे, गन्धक की खाने भरी हैं ? किसने पृथिवीतल पर वृक्ष-वल्लरियाँ रोपी हैं ? किसने उन पर रंग-बिरंगे पुष्प और परिपक्व फल लगाये हैं? किसने भूमि पर हिमधवल पर्वत खड़े किये हैं? कौन हिम पिघला कर नदियाँ बहाता है ? किसकी करनी से झरनों से पानी झरता है? कौन पृथिवी पर अथाह समुद्र को भरता है? कौन उसकी सीपियों में मोती रखता है? द्युलोक पर भी दृष्टिपात करो। दिग्दिगन्त को प्रकाश से भरनेवाला ज्योति का पुञ्ज सूर्य, असंख्य नक्षत्र, आकाशगङ्गा, आकाश के सप्त ऋषि, ध्रुवतारा, यह सब किसकी कारीगरी है? फिर अन्तरिक्ष में बादल बनना, विद्युत् की आँखमिचौनी और वृष्टि होना किस जादूगर का जादू है? यह सब द्यावापृथिवी का खेल ‘अग्नि’ प्रभु का ही रचाया हुआ है, उसी ने द्यावापृथिवी को विस्तीर्ण किया है।

आओ, उस प्रभु की महिमा का गान करें, उसके अद्भुत शिल्प पर तान छेड़े, उसकी अचरजभरी रचना पर गीत रचे, उसकी मनभावनी सृष्टि पर सरगम का आलाप करें।

पाद टिप्पणियाँ

१. ख्या प्रकथने, अदादिः, प्रकाशन अर्थ में भी प्रयुक्त होता है।

२. जातं वेत्ति, जाते जाते विद्यते, जातं वेदयते ।

३. तनु विस्तारे, लिट्, आतेनिथ । आततन्थ छान्दस रूप। वभूथाततन्थजगृभ्मबबर्थेति निगमे, पा० ७.२.६४ ।

अग्नि नामक जगदीश्वर की  महिमा -रामनाथ विद्यालंकार

उदबोधन – रामनाथ विद्यालंकार

उदबोधन – रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः दीवतमाः । देवता अग्निः । छन्दः क. प्राजापत्या अनुष्टुप्,। र, आर्ची पङ्गिः, उ. दैवी पङ्किः।

कसं ते मनो मनसा सं प्राणः प्राणेन गच्छताम् । ग्रेडस्यग्निष्ट्रवा श्रीणत्वापस्त्व समरिन्वार्तस्यत्व भ्राज्यै पूष्णो रह्योऽष्मणो व्यथिषयुतं द्वेषः ।

-यजु० ६।१८ |

हे मानव ! ( ते मनः) तेरा मन ( मनसा ) मनन से, और। ( प्राणः ) प्राण (प्राणेन ) महाप्राण से ( सं गच्छताम् ) मिले। तू ( रेड् असि ) शत्रु-हिंसक है। ( अग्निः ) अग्नि (त्वा ) तुझे ( श्रीणातु) परिपक्व करे। (आपः ) नदियाँ ( त्वा ) तुझे ( समरिण) संघर्षरत करें। (त्वा ) तुझे ( वातस्य ) वायु की ( धान्यै) गति के लिए, और ( पूष्णः ) सूर्य के (रंछै) वेग के लिए [प्रेरित करता हूँ] । प्रत्येक मनुष्य ( ऊष्मणः ) ऊष्मा से ( व्यथिष ) व्यथित हो। उससे ( द्वेषः ) द्वेष (प्रयुतं ) पृथक् रहे।

हे मानव ! तू स्वयं को अल्प शक्तिवाला मत समझ। तू विराट् शक्ति का पुंज है। आवश्यकता इस बात की है कि तू अपनी शक्ति को पहचाने। तू प्रकृति से सन्देश ले और आगे बढ़। देख, तू अपने मन से मनन कर, दृढ़ सङ्कल्प कर, शिव सङ्कल्प कर और उसे पूरा करने की ठान ले। कोई बाधा तुझे सङ्कल्प पूरा करने से रोक नहीं सकेगी। अपने प्राण को महाप्राण से संयुक्त कर। तू संसार का सर्वोच्च प्राणी है, तेरे प्राण में वह शक्ति है, जो सागर को सुखा दे, पर्वत को मैदान बना दे, बड़े से बड़े सम्राट् को भिक्षुक बना दे और भिक्षुक के सिर पर राजमुकुट रख दे। तेरी हुङ्कार से महाबली शत्रु का भी दर्प चूर हो सकता है, तेरा मनोवल यमराज को भी पराजित कर सकता है। तेरी साँस मृत को भी जीवन प्रदान  कर सकती है। तू ‘रेडू’ है, शत्रु-हिंसक है, विघ्न बाधाओं को निरस्त करनेवाला है, आततायी को विध्वंस्त कर सकनेवाला है, वैरी को निहत्था और पंगु कर सकता है, संहारक का संहार कर सकता है। तेरे अन्दर अग्नि जलनी चाहिए, ज्वाला धधकनी चाहिए, उससे तू परिपक्व होगा, तेरी न्यूनताएँ दूर होंगी, तेरा कच्चापन निरस्त होगा, तू आग बनकर धधकेगा। तू नदियों से संघर्ष करना सीख। नदियाँ अपने अदम्य प्रवाह से पहाड़ों को तोड़ती हुई, वृक्षों को गिराती हुई, चट्टानों को लाँघती हुई आगे ही आगे बढ़ती जाती हैं। तू भी मार्ग की रुकावटों से सङ्घर्ष कर, रुकावटें खड़ी करनेवालों से सङ्घर्ष कर, आगे ही आगे बढ़ता चल। तू वायु की गति से चल, चंझावात बनकर उमड़। तू सूर्य का वेग धारण कर। सूर्य स्वयं तीव्रता से घूम रहा है और ग्रह-उपग्रहों को अपने चारों ओर घुमा रहा है। तू भी सूर्य के समान केन्द्र में रहकर अन्य राष्ट्रों को अपने चारों ओर घुमा, उनकी गतिविधि का निर्णायक बन्। ध्यान रख, उत्कर्ष पाकर तू ऊष्मा से व्यथा मान, अहङ्कार की गर्मी से प्रताड़ित न हो। उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच कर भी तू विनम्र हो, विनयी हो, परमात्मा के सम्मुख झुक, महात्माओं के चरणों में मत्था टेक, संन्यासियों का आदर कर। शत्रु के दर्प का दलन कर, किन्तु मन में द्वेष किसी के प्रति मत रख। संहार और विजय कर्तव्यबुद्धि से कर, मन में द्वेष रख कर नहीं। पराजित शत्रुओं से भी सन्धि करके उन्हें अपना मित्र बना । तब शत्रु भी तेरा जयकार करेंगे।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (रेड्) शत्रुहिंसकः। अत्र रिषतेहिँसार्थात् कर्तरि विच्-द० ।।

२. श्रीणातु परिपचतु । श्रीज् पाके, क्रयादिः ।।

३. सम् अरिण प्राप्नुवन्तु। रिणाति इति गतिकर्मसु पठितम्, निघं०

२.१४-द० ।।

४. (भ्राज्यै) गत्यै। अत्र गत्यर्थाद् ध्रज धातोः ‘इजादिभ्यः’ पा०

३.३.१०८ वार्तिक इति इञ् प्रत्ययः । |

५.(रं©) गत्यै-द०। रहि गतौ, भ्वादिः ।

६. व्यथ भयसंचलनयोः, लेट् लकार।

७. प्र-यु मिश्रणामिश्रणयोः । प्रयुतं पृथक

उदबोधन – रामनाथ विद्यालंकार

पर्यावरण शुद्ध रखें -रामनाथ विद्यालंकार

पर्यावरण शुद्ध रखें

ऋषिः अगस्त्यः । देवता यज्ञः । छन्दः ब्राह्मी त्रिष्टुप् ।

द्यां मा लेखीरन्तरिक्षं मा हिंसीः पृथिव्या सम्भव ।। अयहि त्वा स्वर्धितिस्तेतिजानः प्रणिनाय महते सौभगाय । अतस्त्वं देव वनस्पते शतवल्शो विरोह सहस्त्रेवल्शा वि वयश्रुहेम।।

-यजु० ५।४३ |

हे मनुष्य! तू ( द्यां ) द्युलोक को ( मा लेखी:१) मत खुरच, मत विकृत कर, (अन्तरिक्षं) अन्तरिक्ष को (मा लेखीः ) मत विकृत कर। (पृथिव्या संभव ) पृथिवी के साथ अच्छे पर्यावरण में रह । ( अयं हि तेतिजानः स्वधितिः) यह तीक्ष्ण कुल्हाड़ा (महते सौभगाय ) महान् सौभाग्य के लिए। ( त्वा प्रणिनाय) तुझे प्रेरित कर रहा है। (अतः ) इसलिए ।। ( देव वनस्पते ) हे हरीभरी वनस्पति ! ( त्वं ) तू ( शतवल्शः४) सैकड़ों अंकुरों से युक्त होकर (विरोह) बढ़। (वयं ) हम ( सहस्रवल्शा: ) सहस्र अंकरोंवाले होकर ( विरुहेम ) बढे । |

वेदों का आदेश है कि मानव शुद्ध वायु में श्वास ले, शुद्ध जल का पान करे, शुद्ध अन्न खाये, शुद्ध मिट्टी में खेले-कूदे, शुद्ध भूमि में खेती करे। ऐसा होने पर ही उसे वेदप्रतिपादित सौ वर्ष या सौ से भी अधिक वर्ष की आयु प्राप्त हो सकती है। परन्तु आज न केवल हमारे देश में, अपितु विदेशों में भी प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि मनुष्य को न शुद्ध वायु सुलभ है, न शुद्ध मिट्टी और शुद्ध भूमि सुलभ है। कल-कारखानों से निकले अपद्रव्य धुआँ, गैस, कूड़ा-कचरा, वन-विनाश आदि इस प्रदूषण के कारण हैं। प्रदूषण इस स्थिति तक पहुँच गया है कि कई स्थानों पर तेजाबी वर्षा हो रही है। प्रस्तुत मन्त्र प्रेरित कर रहा है कि हे मनुष्य ! द्युलोक को विकृत मत कर, अन्तरिक्ष को विकृत मत कर। कारखानों की गैसें, धुआँ, बाहर नालियों में बहनेवाले तेजाबी द्रव्यों की गन्ध वायुमण्डल  में मिलकर आकाश में जहाँ तक पहुँच सकते हैं, वहाँ तक उनसे आकाश विकृत हो चुका है। शत्रु द्वारा छोड़े गये अणु बम आदि शास्त्रास्त्र भी आकाश को मलिन कर रहे हैं। यदि वेद के सन्देश की ओर लोगों का ध्यान न गया, तो एक दिन विनाश निश्चित है। आकाश से जो हवाएँ आयेंगी, जो वर्षा होगी, जो ओले गिरेंगे, जो बिजलियाँ लहरायेंगी, जो चक्रवात उठेंगे, जो उल्कापात होंगे, जो सूर्यकिरणें नीचे आयेंगी, सब ऐसे विषैले होंगे जिनमें मनुष्य का श्वास लेना भी मृत्यु को निमन्त्रण देनेवाला होगा। अत: चेत रे मानव! चेत जा, आकाश को ऐसा शुद्ध कर ले कि वहाँ से अमृत की वर्षा हो, जीवनदायी हवाएँ चलें, सूर्य की प्राणदायक रश्मियाँ प्राप्त हों। पृथिवी पर शुद्ध पर्यावरण में निवास कर। अशुद्ध पर्यावरण रोगों को निमन्त्रण देगा, कराहटों को जन्म देगा, शिशुओं की और युवक-युवतियों की मौतें लायेगा।

हे मानव! एक बात और याद रखना । वातावरण को शुद्ध करने में वृक्ष-वनस्पतियों का बहुत बड़ा हाथ है। प्राणी जो अशुद्ध कार्बन डायक्साइड गैस छोड़ते हैं, वह वृक्ष-वनस्पतियों का प्राण है। वे उसे ग्रहण करके पनपती हैं, और बदले में ऑक्सीजन गैस छोड़ती है, जो जीवधारियों को प्राण है। वृक्ष वर्षा लाने में भी कारण बनते हैं। इन्हें काटना बर्बादी को बुलाना है। अतः वृक्षों को नष्ट मत कर, अपितु नये-नये वृक्ष उगा। यह जो कुल्हाड़ा तेरे हाथ में है, इसका सदुपयोग कर। यह वृक्षों को सजाने-सँवारने के लिए है, काट कर समाप्त कर देने के लिए नहीं। इस कुल्हाड़े के द्वारा वृक्षों को इस तरह कतरन कर कि उनकी नवीन-नवीन सैंकड़ों शाखाएँ फूटें और वृक्ष बढ़कर दुगने-चौगुने विशाल हो जाएँ। साथ ही नये पौधे भी अङ्कुरित हों और बढ़कर नये विशाल वृक्ष बने । हे मानव ! तू वृक्षों को भी बढ़ा और स्वयं भी बढ़। सन्तति से बढ़, सम्पदा से बढ़, वीरता से बढ़, विजय से बढ़। तू पर्यावरण की जय बोल, पर्यावरण तेरी जय बोलेगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. लिख अक्षरविन्यासे। इह तु हिंसार्थ:-म० ।।

२. तिज निशाने (तीक्ष्णीकरणे), यङन्तात् शानच् ।

३. प्र णी प्रापणे, यहाँ प्रेरणार्थक।

४. शतवल्श:=बह्वङ्करः ।।

पर्यावरण शुद्ध रखें

ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू-रामनाथ विद्यालंकार

ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू

ऋषिः अङ्गमः । देवता ब्राह्मण: । छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।

ब्राह्मणमद्य विदेयं पितृमन्तं पैतृमत्यमृषिमायसुधातुदक्षिणम्।। अस्मद्राता देवत्रा गच्छत प्रदातारमाविशत

-यजु० ७ | ४६

  • मैं ( अद्य) आज ( ब्राह्मणं) ब्राह्मण गुरु को ( विदेयम् ) प्राप्त करूँ, (पितृमन्तं ) जो प्रशस्त पिता की सन्तान हो, (पैतृमत्यम् ) जो पितृजनों के अनुभवपूर्ण मतों से परिचित हो, ( ऋषिम् ) जो ऋषि हो, ( आर्षेयम् ) आर्ष पाठविधि पढ़ाने में कुशल हो, ( सुधातु-दक्षिणम्) उत्तम धर्मप्रचार की दक्षिणा लेनेवाला हो। आगे गुरु शिष्यों को कहता है (अस्मद्राताः५) हमसे विद्या दिये हुए आप लोग ( देवत्रा ) प्रजाजनों में (गच्छत ) जाओ, (प्रदातारम् ) जो समाज तुम्हें उपदेश देने का निमन्त्रण दे अथवा जो समाज या सङ्गठन तुम्हें कार्य दे उसके मध्य ( आ विशत) प्रविष्ट हो जाओ।

मैं चाहता हूँ कि मैं ब्राह्मण गरु का शिष्य बनँ। ब्राह्मण वह होता है, जो ब्रह्मज्ञानी होने के साथ वेदादि शास्त्रों को और सैद्धान्तिक तथा क्रियात्मक विज्ञान को भी जानता हो और जिसके गुण-कर्म-स्वभाव ब्राह्मण के हों। वह विविध विद्याओं का अथवा जिस विद्या को शिष्य पढ़ना चाहता है, उसको हस्तामलकत्र ज्ञान शिष्य को करा सकता हो और अध्यात्म या योग का ज्ञान भी दे सकता हो । मन्त्र में ब्राह्मण के कुछ अन्य विशेषण भी दिये गये हैं। वह ‘पितृमान्’ होना चाहिए। यहाँ मतुप् प्रत्यय प्रशस्त अर्थ में हैं, अर्थात् वह प्रशस्त पिता का पुत्र होना चाहिए, क्योंकि पिता के गुण पुत्र में भी आते हैं। दूसरा विशेषण है ‘पैतृमत्य’ अर्थात् पिता, पितामह, प्रपितामह तथा अन्य अनुभवी पितरों के अनुभवपूर्ण मतों की जानकारी उसे होनी चाहिए। तीसरा विशेषण है ऋषि’, अर्थात् जिन  विद्याओं का वह अध्यापक है, उन विद्याओं का उसे साक्षाद् द्रष्टा होना चाहिए, अधकचरा ज्ञान होने पर वह उन विद्याओं में शिष्य को पारङ्गत नहीं करा सकता। चौथा विशेषण है। ‘आर्षेय’ अर्थात् उसे आर्ष पाठविधि पढ़ाने में रुचि और दक्षता होनी चाहिए। अनार्ष ग्रन्थों की कपोलकल्पित, चारित्रिक दृष्टि से हानिकर तथा सन्देहास्पद बातें शिष्य को पढ़ाना घातक हो सकता है। पाँचवाँ विशेषण है ‘सुधातु-दक्षिणम्’, अर्थात् शिष्यों को स्नातक बनाते समय उसे उनसे सद्धर्मप्रचार की दक्षिणा मांगनी चाहिए।’धर्म’ में धारणार्थक ‘धृ’ धातु है और ‘ धातु में धारणार्थक ‘धा’ धातु, अतः धर्म और धातु शब्द समानार्थक हैं। ऐसा श्रेष्ठ ब्राह्मण मेरा गुरु होगा, तो मैं भी उसका योग्य शिष्य बन सकूँगा।

मन्त्र का उत्तरार्ध गुरुओं की ओर से शिष्यों को कहा गया है। हे शिष्यो! हमसे ज्ञान दिये हुए तुम दिव्य प्रजाओं या विद्वान् जनों के बीच में जाओ। वे तुम्हारी योग्यता का मूल्याङ्कन करेंगे। वे तुम्हें भाषण, उपदेश या वेदकथा करने का नियन्त्रण दें, तो उसे स्वीकार करके उनकी इच्छा पूर्ण करो और उन्हें ज्ञान की बातें बताओ। वे तुम्हें किसी वैतनिक सेवा में लेना चाहें, तो उसे भी स्वीकार करो और पूरी योग्यता, तत्परता तथा सचाई के साथ सेवा करो तथा हम गुरुजनों का नाम भी उज्ज्वल करो। दक्षिणा का तुम्हारा आदर्श भी हमारे आदर्श से मिलता-जुलता होना चाहिए, अर्थात् अच्छी जीविका के लिए जितना द्रव्य आवश्यक है, उसमें सन्तोष करना चाहिए।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (पितृमन्तं) प्रशस्ताः पितरो रक्षका: सत्यासत्योपदेशका विद्यन्ते यस्य  तम्-द० ।

२. पैतृमत्यम्-पितृणानिदं पैतृ, पैतृणि अनुभवपूर्णानि यानि मतानि तेषु साधुम् ।

३. (आर्षेयम्) आर्षपाठविधिम् अधीते वेद अध्यापयति वेदयति वा स आर्षेयः तम् ।

४. सुधातुः सद्धर्मो दक्षिणी यस्य तम् ! नात्र सुधातुः स्वर्णरजतादिः ।

५. अस्माभिः राता: दत्तविद्याः, रा दाने ।

६.देवत्रा=देवेषु । सप्तमी के अर्थ में त्रा प्रत्यय ।

ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू

हे जननायक! विक्रम दिखा -रामनाथ विद्यालंकार

हे जननायक! विक्रम दिखा

ऋषिः अगस्त्यः । देवता विष्णुः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

उरु विष्णो विक्रमस्वरु क्षयाय नस्कृधि। घृतं घृतयोने पिब प्रम॑ य॒ज्ञपतिं तिर स्वाहा।

-यजु० ५। ३८

( विष्णो) हे व्यापक प्रभाववाले जननायक! तू ( उरु ) बहुत अधिक (विक्रमस्व) विक्रम दिखा, ( उरु) बहुत अधिक ( क्षयाय ) निवास के लिए ( नः कृधि ) हमें कर, पात्र बना। (घृतयोने ) हे घृत के भण्डार ! ( घृतं पिब ) घृत पी, पिला। ( यज्ञपतिं ) यज्ञपति को ( प्र प्र तिर) प्रकृष्टरूप से बढ़ा। (स्वाहा ) एतदर्थ हम देय कर की आहुति देते हैं। |

हे विष्णु ! हे व्यापक प्रभाववाले जननायक! तुम विक्रम दिखाओ। जब तक विक्रम नहीं दिखाओगे, तब तक रिपुदल तुम्हें अकर्मण्य, निष्प्रभाव, गौरवरहित, बाल भी बांका न कर सकनेवाला समझता रहेगा। शत्रुदल पर आक्रमण कर दो, उसके छक्के छुड़ा दो, उसे हमारे राष्ट्र के प्रति दुर्भावना रखने का स्वाद चखा दो, उसे विनाश के कगार पर पहुँचा दो। यदि तुम नीति के रूप में शत्रु को विनष्ट नहीं भी करना चाहते हो, तो कम से कम आतङ्कित तो कर ही दो। ऐसा तो कर दो कि वह तुम्हारा लोहा मानने लगे। फिर तो वह स्वयं ही सन्धिका प्रस्ताव लेकर तुम्हारे पास आयेगा। |

हे नेतृत्वकुशल, जनरंजक वीर ! जहाँ तुम शत्रुपराजय या रिपुदलभञ्जन का कार्य करोगे, वहाँ प्रजाओं के महान् निवासक भी बनो। सर्वजनोपकारी रचनात्मक कार्यों द्वारा हमारे लिए सुखकारी बनो। हमारा धर्म में निवास कराओ, धैर्य में निवा कराओ, ऐश्वर्य में निवास कराओ, वीरता में निवास कराओ, उच्चता में निवास कराओ, दिव्यता में निवास कराओ।

हे जननायक! तुम राष्ट्र में घृत की योनि हो, घृत के घर हो, भण्डार हो। घृत सब प्रकार की समृद्धि का प्रतीक है। जो भी राष्ट्र में दुग्ध, घृत, मधु, धनधान्य आदि की विपुल समृद्धि दृष्टिगोचर होती है, उसके कारण तुम ही हो। उस समद्धि का तम स्वयं भी उपभोग करो तथा प्रजाजनों को भी कराओ।

अन्त में एक बात पर हम तुम्हारा ध्यान और आकृष्ट करते हैं। राष्ट्र में दो प्रकार के व्यक्ति तुम्हें मिलेंगे। कुछ यज्ञपति हैं और कुछ कृपण हैं। जो यज्ञपति हैं, वे यज्ञभावना को अपने अन्दर धारण करते हुए सदा दूसरों का उपकार करते रहते हैं। दूसरे जो कृपण हैं, वे सारे धन-धान्य को अपने पास समेटने का यत्न करते रहते हैं, अन्य लोग जीते हैं या मरते हैं, इसकी उन्हें कुछ चिन्ता नहीं होती। हे जननायक! हमारा तुमसे निवेदन है कि तुम यज्ञपतियों को ही उत्साहित करो, बढ़ाओ, सरसाओ, इसके विपरीत जो स्वार्थी लोग हैं, उन्हें किसी प्रकार का बढ़ावा न देकर हतोत्साह करो।। |

हमारी उक्त सब प्रार्थनाएँ तुम पूर्ण कर सको, एतदर्थ हम ‘स्वाहा’ करते हैं, कर रूप में नियत अपना भाग स्वाहा की भावना से प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें अर्पित करते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. विष्लू व्याप्तौ । वेवेष्टि व्याप्नोति स्वप्रभावेण सर्वत्र यः सः ।।

२. क्षि निवासगत्योः । क्षयो निवासे पा० ६.१.२०१, आद्युदात्त क्षय शब्द | निवासवाचक होता है, विनाशवाचक अन्तोदात्त होता है।

३. घृतं योनौ गृहे यस्य स घृतयोनिः । योनि-गृह, निघं० ३.४।

४. प्रतिरतिवर्द्धयति ।

हे जननायक! विक्रम दिखा

अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है-रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है।- रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः गोतमः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप्

अग्नाग्निश्चरति प्रविष्टुऽऋषीणां पुत्रोऽअभिशस्तिपावा। नः स्योनः सुयजा यजेह देवेभ्यो हुव्यसमप्रयुच्छन्त्स्वाहा ।।

-यजु० ५।४

(अग्नौ ) यज्ञाग्नि में (अग्निः ) परमात्माग्नि ( प्रविष्टः ) प्रविष्ट हुआ (चरति ) विचरता है। यज्ञाग्नि ( ऋषीणां पुत्रः ) ऋषियों का पुत्र है, ( अभिशस्तिपावा) निन्दाओं और शत्रुओं से बचानेवाला है। हे यजमान ! (न: स्योनः ) हमारे लिए सुखकारी (सः ) वह प्रसिद्ध तू ( सुयजा ) सुयज्ञ से (इह) यहाँ (सदं ) सदा ( देवेभ्यः ) वायु, जल आदि दिव्य पदार्थों को सुगन्धित करने के लिए अथवा विद्वानों के हितार्थ (अप्रयुच्छन्) बिना प्रमाद किये ( स्वाहा ) स्वाहापूर्वक अग्नि में (हव्यं यज) हव्य का दान किया कर।।

हे यजमान ! क्या यज्ञकुण्ड में ज्वालाओं से ऊर्ध्वगामिनी होती हुई यज्ञाग्नि के अन्दर एक और अग्नि मुस्कराता हुआ नहीं दीखता ? ध्यान से देख, इस भौतिक अग्नि के अन्दर एक अभौतिक दिव्य अग्नि तेजस्वी परमेश्वर बैठा हुआ है, वही इसे आभा, ज्योति और प्रकाश दे रहा है। यज्ञाग्नि की ज्वालाओं में उस दिव्य अग्नि के दर्शन कर लेगा, तो यज्ञ का दुहरा लाभ तुझे प्राप्त हो सकेगा। एक तो पर्यावरणशुद्धि का, दूसरा परमेश के दर्शन का। यज्ञकुण्ड में प्रदीप्त यज्ञाग्नि का परिचय भी जान ले। यह ऋषियों का पुत्र है,, महाव्रती ऋषि-मुनि प्रतिदिन सायं-प्रात: अरणिमन्थन द्वारा इसे यज्ञकुण्ड में उत्पन्न करते रहे हैं। यह निन्दाओं से और काम, क्रोध, रोग आदि शत्रुओं से बचानेवाला है। घृत एवं अन्य शुद्ध सुगन्धप्रद रोगहर हव्यों की आहुति से बढ़ती हुई निष्कलङ्क ज्योति को देख कर यजमान के मन में भी यह . भाव आता है कि मैं अपने जीवन को उज्वल और ज्योतिष्मान् करूँ, निन्दनीय कर्मों को छोड़कर सत्कर्म करूं, काम-क्रोध-अविद्या आदि आन्तरिक तथा दुर्गन्ध रोग आदि बाह्य शत्रुओं को नष्ट करूं, जिससे मेरी निन्दा न होकर सर्वत्र प्रशंसा हो। यज्ञ द्वारा यजमान जो जल, वायु, वृक्ष-वनस्पति आदि की शुद्धि करता है, उससे भी वह प्रशंसाभाजन बनता है।

मन्त्र प्रेरणा कर रहा है कि हे यजमान! तू शुभ यज्ञ द्वारा सदा बिना प्रमाद के सायं-प्रात: सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिप्रद, रोगहर हव्यों की स्वाहापूर्वक आहुति देकर वातावरण को शुद्ध करता रह। यह ‘स्वाहा’ शब्द हविर्द्रव्यों की अग्नि में आहुति के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों की सत्पात्रों में दान करने की भावना को भी जगाता है। ‘सु-आ-हा’ का अर्थ है सुन्दरता के साथ चारों ओर त्याग करना।

आओ, हम भी अग्नि आदि प्राकृतिक पदार्थों के अन्दर प्रभुसत्ता की झाँकी लें, हम भी अग्निहोत्र के व्रती बनकर प्रशंसाभाजन हों।

अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है।- रामनाथ विद्यालंकार

अग्नियज्ञ, शिक्षायज्ञ और गृहयज्ञ – रामनाथ विद्यालंकार

अग्नियज्ञ, शिक्षायज्ञ और गृहयज्ञ – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः गोतमः । देवता यज्ञः । छन्दः आर्षी पङ्किः ।

भर्वतं नः सर्मनस सचेतसावरपस

मा यज्ञहिसिष्टुं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः ॥

 -यजु० ५। ३

हे यजमान-पुरोहित, गुरु-शिष्य तथा गृहस्थ पति-पत्नी ! तुम ( नः ) हमारे लिए (समनसौ ) मन से युक्त अर्थात् सावधान, ( सचेतसौ ) सज्ञान और ( अरेपसौ ) निर्दोष ( भवतं ) होवो। ( मा यज्ञं हिंसिष्टम् ) न यज्ञ की हिंसा करो ( मा यज्ञपतिं ) न यज्ञपति की। हे ( जातवेदसौ ) युगल वेदज्ञो! आप ( अद्य) आज (नः ) हमारे लिए (शिवौ भवतं ) शिव होवो।

| यजमान एवं पुरोहित, गुरु एवं शिष्य तथा पति एवं पत्नी अग्निहोत्र-यज्ञ, शिक्षा-यज्ञ और गृहस्थ-यज्ञ को चलाते हैं। प्रथम हम अग्निहोत्र-यज्ञ को लेते हैं। यज्ञकर्ता लोग यजमान और पुरोहित को सम्बोधन करके कह रहे हैं। तुम दोनों समनस् अर्थात् मन से सावधान रहो। यदि यजमान और पुरोहित का ध्यान यज्ञ में नहीं लग रहा है, तो यज्ञ से होनेवाले लाभों से वे प्रायः वञ्चित ही रहते हैं, क्योंकि यज्ञ के विधि विधानों के साथ जो भावनाएँ निहित हैं, न उन्हें वे मन में लाते हैं, न मन्त्रार्थ का विचार करते हैं, न परमेश्वर का चिन्तन करते हैं, न अग्नि के तेजस्विता, ऊर्ध्वगमन आदि गुणों को ग्रहण करने का प्रयास, करते हैं। फिर उन्हें सचेतस्’ अर्थात् सज्ञान, जातवेदस्’ अर्थात् वेदज्ञ और ‘अरेपस्’ अर्थात् निर्दोष और निष्पाप होने की भी प्रेरणा की गयी है। यदि वे सज्ञान एवं वेदज्ञ नहीं हैं तो मन्त्रार्थ, यज्ञ के लाभ आदि से अपरिचित होने के कारण यज्ञ को सफल नहीं बना सकते। यदि निर्दोष नहीं हैं, तो यज्ञ में भयङ्कर भूलें करते हुए वे यज्ञ को पूर्णता की ओर नहीं ले जा सकते। इसके विपरीत यदि यजमान और पुरोहित सावधान, सज्ञान, वेदवेत्ता और निर्दोष हैं तो न उनका यज्ञ हिंसित होगा, न यज्ञपति आत्मा हिंसित होगा, अपितु वे यज्ञ में उपस्थित सभी जनों के लिए मङ्गलकारी सिद्ध होंगे।

अब लीजिए शिक्षा-यज्ञ को। शिक्षा- यज्ञ पूर्ण होता है गुरु एवं शिष्यों से। इन्हें भी यज्ञ की पूर्णता के लिए सावधान, सज्ञान, वेदवित् और निर्दोष होना आवश्यक है। यदि वे इन गुणों से युक्त रहते हैं, तो न यज्ञ हिंसित या विघ्नत होगा, न यज्ञपति अर्थात् शिक्षा-यज्ञ के सञ्चालन कुलपति का अपयश होगा, प्रत्युत समस्त गुरुकुलवासी शिक्षायज्ञ के सफल होने से सुप्रसन्न तथा मङ्गलभाजन होंगे।

अब आते हैं तीसरे गृहस्थ-यज्ञ पर। गृहस्थ-यज्ञ के सम्पादक हैं पति-पत्नी। वे भी गृहस्थ-यज्ञ का निर्वाह करते हुए यदि सावधान, सज्ञान, वेदोक्त गृहशास्त्र के ज्ञाता तथा निर्दोष नहीं हैं, तो इस यज्ञ को सम्यक् प्रकार वे सिद्ध नहीं कर सकते। यदि वे इन गुणों से समन्वित रहते हैं, तो यज्ञ को भी सफल करते हैं तथा घर में सबसे बड़ा जो गृहपति है, उसे भी प्रसन्न रखते हैं और सब गृहवासियों के लिए भी सुखद होते हैं।

आओ, हम भी यदि इन तीनों यज्ञों के कर्ता हैं, तो इन्हें सुरुचिपूर्वक करते हुए यश के भागी बनें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. चेतसा विज्ञानेन सहितौ सचेतसौ।

२. न विद्यते रेपः पापं दोषो वा ययोस्ती ।।

३. जातं वेदः वेदज्ञानं ययोस्तौ।

अग्नियज्ञ, शिक्षायज्ञ और गृहयज्ञ – रामनाथ विद्यालंकार

देखो, वरुण प्रभु का चमत्कार – रामनाथ विद्यालंकार

देखो, वरुण प्रभु का चमत्कार – रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः  वत्सः । देवता  वरुणः । छन्दः  विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

वनेषु व्यन्तरिक्षं ततान वाजमर्वत्सु पयेऽउस्रियासु।

हृत्सु क्रतुं वरुणो विक्ष्वग्निं दिवि सूर्यमदधात् सोममद्रौ ॥

—यजु० ४।३१

( वरुणः ) वरुण प्रभु ने ( वनेषु ) वन-वृक्षों के ऊपर (अन्तरिक्षम् ) अन्तरिक्ष को, (अर्वत्स्) घोड़ों में ( वाजं ) बल और वेग को, और ( अस्रियासु ) गायों में (पयः ) दूध को (वि ततान ) विस्तीर्ण किया है। उसी ने ( हृत्सु ) हृदयों में ( क्रतुं ) कर्म को, (विक्षु ) प्रजाओं में (अग्निं ) अग्नि को, (दिवि ) द्युलोक में ( सूर्यं ) सूर्य को, और (अद्रौ ) पर्वत पर ( सोमं ) सोमादि ओषधियों को ( अदधात् ) धरा है।

वरुण प्रभु की कारीगरी के चमत्कार जड़ जगत् और चेतन जगत् सर्वत्र आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले हैं। दूर से जङ्गलों की ओर निहारो, तो ऐसा लगता है कि हरे पत्तों, रङ्ग-बिरङ्गे पुष्पों और फलों से सजाये हुए वृक्षरूप खम्भों पर हल्के नीले गगन का शामियाना तना हुआ है। यह शामियाना किसने ताना है ? वरुण प्रभु की ही यह लीला है। और देखो, आग के जलते हुए गोले रूप सूर्य को बिना डोर के द्युलोक में किसने लटकाया है ? यही सूर्य है, जो हमारी पृथिवी को और मंगल, बुध आदि अन्य ग्रहों तथा उपग्रहों को प्रकाश, ताप एवं प्राण प्रदान कर रहा है तथा सबको अपनी-अपनी कक्षा में स्थित रख कर अपनी परिक्रमा करवा रहा है, मानो पिता अङ्गलि पकड़ कर बच्चों को अपने चारों ओर घुमा रहा हो। और भी देखो, पर्वतों पर अनेक प्रकार की सोम आदि ओषधियों को उत्पन्न करनेवाला कौन है ? ये ओषधियाँ अनेक गुण-धर्मों को अपने अन्दर रखनेवाली हैं तथा सोम इन ओषधियों का राजा है। इस सोम ओषधि का आकाशीय सोम चन्द्रमा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा इसकी घटती-बढ़ती चन्द्रकलाओं की घटती-बढ़ती के अनुसार होती है। इस सोम ओषधि के अनेक भेद होते हैं, जिनके रस में अद्वितीय वीरता, मेधा आदि पैदा करने की अपूर्व क्षमता होती है। यह चमत्कार भी वरुणदेव का ही किया हुआ है।

यह सब तो जड़ जगत् में दीखनेवाली हस्तकला का नमूना है। अब चेतन जगत् की ओर भी दृष्टि डालो। पशुओं में घोड़े बल और वेग के प्रतीक माने जाते हैं तथा किसी यन्त्र की बल की इकाइयाँ मापने के लिए यह कहा जाता है कि इसमें इतने घोड़ों के बल के बराबर शक्ति है। सरपट, दुलकी आदि विभिन्न चालों से चलते हुए, बोझे से भरे शकट को खींचते हुए तथा युद्ध में अनुपम वीरता दिखाते हुए घोड़े किसके मन को मुग्ध नहीं कर लेते ? घोड़ों में यह अद्भुत बल और वेग किसने भरा है ? वरुण प्रभु की ही यह करामात है। और, तरह-तरह की जातिवाली, माता कही जानेवाली गायों के पयोधरों में अमृतोपम दूध कौन भरता है? यह भी वरुणदेव की ही कारीगरी है। प्राणियों के हृदयों की ओर भी दृष्टिपात करो। ये हृदय शरीर के सारे अशुद्ध रक्त को शिराओं द्वारा खींच कर उसे शुद्ध करने के लिए फेफड़ों में भेजते हैं। तथा उस शुद्ध हुए रक्त को संगृहीत करके फिर धमनियों द्वारा सारे शरीर में पहुँचाते हैं। शरीर में हृदय के इस अद्भुत कर्म को करनेवाला कौन है ? यह भी वरुण प्रभु की ही देन है। विभिन्न राष्ट्रों की प्रजाओं को भी देखो। इनके अन्दर धधकती हुई राष्ट्रप्रेम, दृढ़ प्रतिज्ञा, वीरता, बलिदान-भावना आदि की अग्नि को कौन जगाता है ? वरुणदेव ही प्रजाओं में इन विभिन्न अग्नियों को प्रज्वलित करते हैं। वरुण’ राजाधिराज परमेश्वर का ही एक नाम है। आओ, वरुण के इन चमत्कारपूर्ण उपकारों के प्रति हम अपनी कृतज्ञता दर्शाते हुए उसके प्रति नतमस्तक हों।

पादटिप्पणियाँ

१. अस्त्रिया=गौ । निघं. २.११

२. तनु विस्तारे, स्वादिः । लिट् लकार।

३. वृञ् वरणे, वर ईप्सायाम् इन धातुओं से उणादि उनन् प्रत्यय होने से वरुण शब्द सिद्ध होता है। “यः सर्वान् शिष्टान् मुमुक्षुन् धर्मात्मनो वृणोति, अथवा य: शिष्टैर्मुमुक्षुभिर्धर्मात्मभिर्वियते वय॑ते वा स वरुणः परमेश्वरः ।’ स०प्र०, समु० १

देखो, वरुण प्रभु का चमत्कार – रामनाथ विद्यालंकार 

कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार

कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  वत्सः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

प्रति पन्थामपद्महि स्वस्तिगामनेहसंम् ।। येन विश्वाः परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु ॥

-यजु० ४। २९

हे अग्नि! हे अग्रनायक जगदीश्वर ! हम (स्वस्तिगाम्) कल्याण प्राप्त करानेवाले, (अनेहसम्) निष्पाप (पन्थां प्रति) मार्ग पर (अपद्महि) चलें, (येन) जिससे, मनुष्य (विश्वाः द्विषः) सब द्वेषों या द्वेषियों को (परिवृणक्ति) दूर कर देता है और (विन्दते) पा लेता है (वसु) ऐश्वर्य। |

हम जीवन में न जाने कैसे-कैसे मार्गों पर चलते रहते हैं। कभी हम ऐसे बीहड़ मार्ग पर चल पड़ते हैं, जो एक तो बहुत ही कण्टकाकीर्ण होता है, दूसरे जिसके विषय में यही नहीं पता चलता कि यह हमें ले कहाँ जायेगा। कभी हम ऐसा मार्ग चुन लेते हैं, जो होता तो बहुत आकर्षक है, पर जिसका अन्त होता है खाई-खड्डे में। आओ, हमें किस मार्ग से चलना चाहिए यह हम ‘अग्नि’ नामवाले उस प्रभु से ही क्यों न पूछे, जो सदा हमारा अग्रनायक बनता है। प्रभु हमें सन्देश दे रहे हैं कि हम ऐसे मार्ग पर चलें, जो ‘स्वस्तिगा:’ हो तथा जो ‘अनेहा:’ भी हो। ‘स्वस्तिगा:’ का अर्थ है कल्याण की ओर ले जानेवाला या निर्धारित मञ्जिल पर पहुँचानेवाला।

एक बार हम छोटे विद्यार्थी पैदल पहाड़ी यात्रा पर थे। हममें से कुछ सीधे सड़क पर चलते जा रहे थे। यह नहीं मालूम था कि पाँच मील आगे यह सड़क बीच में टूटी हुई है, जिससे आगे नहीं जाया जा सकता। हमें एक पहाड़ी ने बताया कि इस सड़क को छोड़कर मेरे पीछे-पीछे चढ़ाई पर चढ़ते आओ। हम उसके पीछे-पीछे हो लिये । चढाई के बाद उतराई थी और उसके समीप ही डाक-बङ्गला था, जहाँ रुक कर हमें रात्रि व्यतीत करनी थी। सड़क से जानेवाले विद्यार्थी बहुत आगे पहुँच चुके थे। वे पाँच मील जाकर फिर वापिस पाँच मील लौट कर आये और फिर उन्होंने वही रास्ता पकड़ा, जिससे हम गये थे। दस मील का उन्हें व्यर्थ ही चक्कर पड़ गया। सड़कवाला रास्ता उनके लिए ‘स्वस्तिगा:’ सिद्ध नहीं हुआ। यह तो भौतिक मार्ग का दृष्टान्त है। परन्तु जीवन में धर्ममार्ग ही स्वस्ति प्राप्त करानेवाला मार्ग होता है। मार्ग ‘अनेहाः’ अर्थात् निष्पाप भी होना चाहिए। कभी-कभी ऐसा लगता है। कि हमने पाप-मार्ग से चलकर भी स्वस्ति या कल्याण को पा लिया है, परन्तु वस्तुतः वह कल्याण नहीं होता, उसके पीछे विनाश छिपा होता है। जब मनुष्य निष्पाप मार्ग से चलता है, तब उसका किसी के प्रति द्वेष नहीं रहता। परिणामतः उसके कोई द्वेषी भी नहीं होते, प्रत्युत उसके सहायक या मित्र ही अधिक होते हैं। उनकी सहायता से वह जीवन में ‘वसु या ऐश्वर्य पा लेता है। इस प्रकार भौतिक एवं आध्यात्मिक ऐश्वर्यों को प्राप्त करने का उपाय है सन्मार्ग से अर्थात् निष्पाप धर्ममार्ग से चलना। अतः आओ, हम सभी मिलकर कल्याणप्रापक निष्पाप धर्ममार्ग पर चलते हुए, द्वेषों का परित्याग कर, सबके प्रति प्रेमभाव रख कर आगे बढ़े और सांसारिक ऐश्वर्यों के साथ अहिंसा, सत्य, न्याय, भूतदया आदि नैतिक ऐश्वर्यों को भी प्राप्त करें।

कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. स्वस्ति सुखं गच्छति येन तम्-द० ।।

२. अविद्यामानानि एहांसि हननानि यस्मिंस्तम्-द० ।

३. पद गतौ, दिवादिः । श्यन् के स्थान पर शप् तथा उसका लोप होने पर लङ् लकार का रूप ।

४. वृजी वर्जने, रुधादिः ।।

५. विद्लु लाभे, तुदादिः ।

कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार

न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार

न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  वत्सः ।  देवता  दम्पती ।  छन्दः  आस्तारपङ्किः।

समख्ये देव्या धिया से दक्षिणयोरुचक्षसा मा मुऽआयुः प्रमोषीर्मोऽअहं तवं वीरं विदेय तवे देवि सन्दृशिं॥

-यजु० ४।२३ |

हे पत्नी ! मैं (देव्या धिया) देदीप्यमान बुद्धि के साथ (समख्ये) कह रहा हूँ, (उरुचक्षसा) विशाल दृष्टिवाली (दक्षिणया) बलवती इच्छा के साथ (सम् अख्ये) कह रहा हूँ कि (मा मे आयुः प्रमोषी:४) न तू मेरी आयु की हिंसा कर (मो अहं तवे) न मैं तेरी आयु की हिंसा करूँ। (देवि) हे देवी! (तवे संदृशि) तेरे संदर्शन में, मार्गदर्शन में मैं (वीरं विदेय) वीर सन्तान को प्राप्त करूं।

वेदादि शास्त्रों ने और सन्त-महात्माओं ने ब्रह्मचर्य की बहुत महिमा वर्णित की है। अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त में कहा है कि ‘ब्रह्मचर्य के ही तप से राजा राष्ट्र की रक्षा करता है। आचार्य स्वयं ब्रह्मचर्य का ही पालन करके शिक्षा देने के लिए ब्रह्मचारी को चाहता है। ब्रह्मचर्य का पालन करने के पश्चात् ही कन्या युवा पति को प्राप्त करती है। ब्रह्मचर्य के ही तप से विद्वान् लोग मृत्यु को दूर भगाते हैं।’ चार आश्रमों में से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास इन तीन आश्रमों में पूर्णत: ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। केवल गृहस्थ आश्रम में कुछ मर्यादाओं के साथ ब्रह्मचर्यव्रत-भङ्ग की छूट है। इसका मुख्य उद्देश्य राष्ट्र को उत्कृष्ट सन्तान प्रदान करना है। राष्ट्र के उत्कृष्ट ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ब्रह्मचारिणी रही हुई अपनी पत्नियों से जो पुत्र-पुत्रियाँ उत्पन्न करते हैं, वे राष्ट्र की अमूल्य सम्पदा होती हैं। कोई भी राष्ट्र अपने अपरा और परा विद्याओं के धार्मिक विद्वानों, रक्षक क्षत्रियों और धनी वैश्यों पर गर्व कर सकता है।

कोई दम्पती अध्यात्मवेत्ता हैं, कोई दार्शनिक हैं, कोई भूगर्भशास्त्री हैं, कोई खगोलवित् हैं, कोई वैज्ञानिक हैं, कोई रणचातुरी में दक्ष हैं, कोई व्यापारकला में निष्णात हैं, कोई कृषिकर्म के भूषण हैं, कोई पशुपालन में सिद्धि प्राप्त हैं, सबकी राष्ट्र को आवश्यकता होती है। और इनसे प्राप्त होनेवाली प्रत्येक क्षेत्र की गुणवती सन्तति की भी प्रत्येक देश को उत्कट चाह होती है। इस चाह को पूरा करता है गृहस्थाश्रम । परन्तु अति विषयासक्ति, अति भोगविलास नर और नारी दोनों की ही बर्बादी, हिंसा और विनाश का कारण बनता है। जीवन भर वे रोग और अशक्ति के शिकार रहते हैं। अब्रह्मचर्य के ही कारण वे जीवित होते हुए भी मृततुल्य होते हैं। इसीलिए मन्त्र में पुरुष पत्नी को कह रहा है कि गृहाश्रम में रहते हुए न तू मेरी आयु की हिंसा कर, न मैं तेरी आयु की हिंसा करूं। हम अति भोगविलास में पड़कर अपनी आयु को ही क्षीण न कर बैठे। पति पत्नी का मार्गदर्शन प्राप्त करे और पत्नी पति का मार्गदर्शन प्राप्त करे। दोनों मिलकर संयम से रहते हुए, गृहस्थाश्रम के नियमों का पालन करते हुए, प्रेम-भरे मधुर व्यवहार से एक-दूसरे की आयु बढ़ाते हुए वीर पुत्र और वीरङ्गना पुत्री को जन्म दें, जिनसे उनका घर भी महके और राष्ट्र भी सौरभ-सम्पन्न हो।

न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार

पादटिप्पणियाँ

१. (देव्या) देदीप्यमानया (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा-द० ।

२. ( सम्) सम्यगर्थे (अख्ये) प्रकथयानि। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं लडर्थे | लुङ् च-द०। ख्या प्रकथने, अदादिः ।।

३. उरु विशालं दीर्घ चक्षः दृष्टि: यस्यां तया दक्षिणया बलवत्या इच्छाशक्त्या।

४. प्र-मुष स्तेये। स्तेय से यहाँ खण्डन, हिंसा अभिप्रेत है।

५. विदेय=विन्देय । विदलु लाभे। ‘अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुमभावः-२० ।’

न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार