( स्वयं ) स्वयं ( वाजिन्) हे बली आत्मन् ! तू ( तन्वं कल्पयस्व ) शरीर को समर्थ बना, ( स्वयं यजस्व ) स्वयं यज्ञ कर, ( स्वयं जुषस्व ) स्वयं फल प्राप्त कर। ( ते महिमा ) तेरी महिमा ( अन्येन न सन्नशे४) दूसरे के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। |
हे मेरे आत्मन् ! क्या तू इस बात की प्रतीक्षा कर रहा है। कि कोई तुझे सोते से जगाने आयेगा, उठाने आयेगा, कर्मतत्पर करने आयेगा, सफलता दिलाने आयेगा। यदि ऐसा है, तो तू भूल में पड़ा है। तू अपनी शक्ति को पहचान। तू तो ‘वाजी’ है, बलवान् और वेगवान् है। ‘वाज’ का अर्थ संग्राम भी होता है। तू संग्रामवान् भी है। रण उपस्थित होने पर तू उसमें वीरता दिखानेवाला है, आन्तरिक और बाह्य दोनों शत्रुओं से जूझनेवाला है। तुझे स्वयं जागना होगा। क्या शेर को कोई जगाने जाता है। जाग, उठ, शत्रु से लोहा ले, विजयी हो। स्वयं तू अपने शरीर को समर्थ बना, परिपुष्ट बना। यदि तू शरीर से निर्बल है, तो दूसरा कोई तेरे शरीर को बलवान् बनाने नहीं आयेगा, तुझमें प्राण फेंकने नहीं आयेगा। स्वयं उत्साह दिखा, स्वयं पुरुषार्थ कर, स्वयं उद्यमी हो, स्वयं शरीर में बल का सञ्चय कर। ‘‘बल से ही पृथिवी टिकी है, बल से ही अन्तरिक्ष टिका है, बले से ही द्युलोक टिका है। बले से ही पर्वत टिके हैं। बल से ही देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, तृण, वनस्पति स्थित हैं। बल के सहारे ही हिंस्र जन्तु स्थित हैं। बड़े से लेकर कीट पतङ्ग-चींटी तक सब बल की दुहाई दे रहे हैं। बल से ही सारा लोक स्थित है।
शरीर को सामर्थ्यवान् बनाकर निकम्मा मत बैठा रह, न ही दूसरों को सताने में या सुधरी बात को बिगाड़ने में सामर्थ्य का उपयोग कर। शरीर को समर्थ बनाकर यज्ञ में जुट जा, लोकहित के कार्यों में रुचि ले, परोपकार को अपना आदर्श बना। देवपूजा का यज्ञ रचा, सङ्गतिकरण का यज्ञ रचा, शुभ कार्य के लिए लोगों को सङ्गठित कर। यह विभिन्न प्रकार का यज्ञ भी तुझे स्वयं ही करना होगा। स्वयं ही प्रारम्भ किये यज्ञ को सफल कर।
याद रख, तू महान् है, महिमावान् है, शक्तिमान् है, सब कुछ कर सकने में समर्थ है। तेरी महिमा को कोई दूसरा प्राप्त नहीं कर सकता।
पादटिप्पणियाँ
१. तनू, द्वितीया एकवचन= तनूम् । तनू-अम्, छान्दस यणादेश ।
२. यज देवपूजा-सङ्गतिकरण-दानेषु ।
३. जुषी प्रीतिसेवनयोः, तुदादिः, लोट् ।
४. सं-नशतिः आप्नोतिकर्मा । तुमुन् के अर्थ में शे=ए प्रत्यय ।
( तौ उभौ ) वे हम दोनों आचार्य और ब्रह्मचारी ( चतुरः पदः ) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पैरों को ( सम्प्रसारयाव) फैलायें। हे आचार्य और ब्रह्मचारी ! तुम दोनों (स्वर्गे लोके ) ब्रह्मचर्याश्रम रूप स्वर्ग लोक में (प्रोर्णवाथां) एक-दूसरे को आच्छादित करो। हे ब्रह्मचारिन् । ( वृषा) विद्या का वर्षक ( वाजी ) विद्या-बल से युक्त ( रेतोधाः ) विद्या एवं ब्रह्मचर्य रूप वीर्य का आधानकर्ता आचार्य (रेतः दधातु ) तुझमें विद्या एवं ब्रह्मचर्यरूप वीर्य का आधान करे।
हे ब्रह्मचारिन् ! तू मुझ आचार्य के आचार्यत्व में गुरुकुल में प्रविष्ट हुआ है। आ, तेरे इस ब्रह्मचर्याश्रम में हम दोनों मिल कर चार पैर फैलायें । वे चार पैर हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। सर्वप्रथम तुझे धर्मशास्त्र पढ़ना है। चारों वर्गों, चारों आश्रमों तथा राजा-प्रजा के कर्तव्यों का सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त करना है। साथ ही अपने ब्रह्मचर्याश्रम के व्रतों का क्रियात्मक रूप से पालन करना है। अभी तुझे यह विदित नहीं है, न ही मुझे इसका ज्ञान है कि तू ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में से किस वर्ण को ग्रहण करेगा। जब तू कुछ वर्ष मेरे पास रह कर व्रतपालन और अध्ययन कर लेगा, तब तू भी अपनी रुचि देखेगा और मैं भी तुझे परख लूंगा कि तुझमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य में से किस वर्ण का बनने की योग्यता है। परख लेने के बाद उसी दिशा में तेरा अध्ययन चलेगा। धर्मशास्त्र के साथ तुझे अर्थशास्त्र भी पढ़ना है, क्योंकि विद्या जब तक अर्थकरी नहीं होती, तब तक जीवन में सफलता नहीं मिलती। तू समावर्तन संस्कार के बाद जिस अर्थकरी विद्या से धन अर्जन करने में प्रवृत्त होगा वह विद्या तुझे यहाँ ब्रह्मचर्याश्रम में ही पढ़ लेनी है। ब्रह्मचर्याश्रम में काम और मोक्ष का भी अपना स्थान है। यद्यपि गृहस्थाश्रमवाला ‘काम’ यहाँ नहीं है, तथापि श्रेष्ठ सङ्कल्पोंवाला ‘काम’ यहाँ भी है। ‘काम’ का महत्त्व वर्णन करते हुए अथर्ववेद (९.२.२०,२४) का कथन है कि ‘विस्तार में जितने बड़े द्यावापृथिवी हैं, जितनी बड़ी जलराशि और अग्नि है, उससे भी ‘काम’ अधिक बड़ा है। न वायु ‘काम’ की महत्ता को प्राप्त करता है, न अग्नि, न सूर्य, न चन्द्रमा। उनसे भी अधिक बड़ा काम है।” ब्रह्मचर्याश्रम में भी दृढ़ सङ्कल्प एवं इच्छाशक्ति का उपयोग करना अभीष्ट है। मोक्ष की भी नींव ब्रह्मचर्याश्रम में ही पड़ जाती है। मोक्ष के सम्बन्ध में सैद्धान्तिक ज्ञान ब्रह्मचारी सब प्राप्त कर लेता है, योगाङ्गों को कुछ क्रियात्मक ज्ञान भी पा लेता है। आगामी आश्रमों में मोक्ष की नींव और अधिक पक्की हो जाती है।
मन्त्र की इसके बाद की भाषा ब्रह्मचारी के माता-पिता तथा गुरुकुल से बाहर के विद्वानों की ओर से कही गयी है। ब्रह्मचर्याश्रम-रूप स्वर्ग में रहते हुए तुम दोनों आचार्य और ब्रह्मचारी स्वयं को आच्छादित-रक्षित करते रहो, जिससे पापरूप राक्षस तम्हें व्यथित न करे। सावधान न रहने पर आचार्य और ब्रह्मचारी दोनों ही ऐसे कर्मों में लिप्त हो सकते हैं, जो उनके लिए अभीष्ट नहीं हैं। उनसे बचने के लिए आच्छादन करना, अर्थात् स्वयं को ढकना आवश्यक है। इसके पश्चात् मन्त्र कहता है कि हे ब्रह्मचारी ! विद्या एवं ब्रह्मचर्यरूप वीर्य का आधानकर्ता आचार्य तुझमें विद्या एवं ब्रह्मचर्य के वीर्य का आधान करे, जिससे तू सच्चे अर्थों में विद्वान्, ब्रह्मचारी और व्रतपालक होकर गुरुकुल से बाहर आये और अपनी विद्वत्ता, ब्रह्मचर्य तथा व्रतनिष्ठा का लाभ जनता को पहुँचा सके।
पाद–टिप्पणी
१. इस मन्त्र का अर्थ उवट एवं महाधर ने अश्वमेध के अश्व एवंमहिषी (राजरानी) परक अत्यन्त भ्रष्ट किया है ।
ऋषिः गोतमः। देवता विश्वेदेवाः । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।
ये वजिने परिपश्यन्ति पक्वं यऽईमाहुः सुरभिर्निर्हरेति । ये चार्वतो मासभिक्षामुपासतऽउतो तेषामभिगूर्हिर्नऽइन्वतु ।।
-यजु० २५.३५
( ये ) जो विद्वान् लोग ( वाजिनं ) बलवान् ब्रह्मचारी को ( पक्वं ) विद्या और सदाचार से परिपक्व ( परिपश्यन्ति ) देखते हैं, और ( ये ) जो ( ईम् ) इसके विषय में (आहुः ) कहते हैं कि यह ( सुरभिः ) पाण्डित्य और सदाचार से सुरभित हो गया है, हे आचार्यवर ! ( निर्हर इति ) अब इसका समावर्तन संस्कार करके समाजसेवा के लिए इसे गुरुकुल से बाहर निकालिये, ( ये च ) और जो ( अर्वतः१) क्रियाशील उस ब्रह्मचारी के (मांसभिक्षाम् उपासते ) मांसल शरीर की भिक्षा माँगते हैं, ( उतो ) अरे ! ( तेषाम् अभिगूर्ति:२) उनका उद्योग ( नः इन्वतु ) हमें भी प्राप्त हो, अर्थात् हम भी वैसा ही करें।
माता-पिता अपने बालक को ज्ञानी और सदाचारी बनाने के लिए गुरुकुल में आचार्य को सौंप देते हैं। वह आचार्य तथा अन्य गुरुजनों के सान्निध्य में रहता हुआ विद्वान् और आचारवान् बन जाता है। जब वह आचार्य के पास आता है, तब कुम्हार के कच्चे घड़े के समान ज्ञान और आचार में कच्ची होता है, गुरुजनों की शिक्षारूप अग्नि से आबे की अग्नि से घड़े के समान परिपक्व हो जाता है। तब उससे पाण्डित्य और सदाचार को सुगन्ध उठने लगती है।
जब ब्रह्मचारी के माता-पिता आदि सम्बन्धी जन तथा समाज के विद्वद्वर्ग यह देखते हैं ब्रह्मचारी गुरुकुल में पढ़कर तथा व्रतपालन करके विद्वान्, व्रतनिष्ठ तथा सदाचारी हो गया है, कच्चे से परिपक्व हो गया है और इसके अन्दर से ज्ञान विज्ञान तथा सत्यनिष्ठा का सौरभ उठ रहा है, तब वे आचार्य से प्रार्थना करते हैं कि अब आप इसका समावर्तन संस्कार करके इसे समाजसेवा के लिए गुरकुल से बाहर भेजिए। वे यह भी देखते हैं कि जो बालक गुरुकुल-प्रवेश के समय गुमसुम और उदासीन लगता था, वह अब चुस्त और क्रियाशील हो गया है, तब उनकी और भी अधिक इच्छा होती है कि इसका मांसल शरीर जनता की सेवा में लगना चाहिए। वे आचार्य से इसके मांसल शरीर की समाज के लिए भिक्षा माँगते हैं।
अन्तिम चरण में कहा गया है कि जो लोग आचार्य से वाजी तथा ज्ञान एवं सद्वृत्त में परिपक्व ब्रह्मचारी को गुरुकुल से बाहर भेजने की प्रार्थना करते हैं, उनका यह उद्यम हमें भी प्राप्त हों, अर्थात् हम भी उद्यमी होकर आचार्य से वैसी प्रार्थना करें। इस प्रकार आचार्य हम सबकी इच्छा का आदर करके ब्रह्मचारी को समाज के अर्पण करेंगे, जिससे सारा समाज कृतार्थ होगा, समाज से कुरीतियों का उन्मूलन होगा, ज्ञानसलिल की धारा बहेगी, सदाचार चिरंजीवी होगा, कदाचार तिरस्कृत होगा। ऐसे अनेक ब्रह्मचारी गुरुकुल से बाहर आयेंगे और विभिन्न प्रदेशों को अपना कार्यक्षेत्र बना कर ज्ञान प्रसार करेंगे, तो राष्ट्र उन्नति के शिखर पर आसीन होकर गौरवान्वित होगा।
( वाजी ) बलवान् धनी परमेश्वर (नः ) हमारे लिए ( सुगव्यं ) श्रेष्ठ गौओं का समूह, (स्वश्व्यं ) श्रेष्ठ घोड़ों का समूह, ( पुंसः पुत्रान्) पुरुषार्थी पुत्र-पुत्रियाँ ( उत ) और (विश्वापुषं रयिम् ) सबका पोषण करनेवाली सम्पत्ति (कृणोतु) करे, देवे। (अनागास्त्वं ) निरपराधता एवं निष्पापता (नः ) हमारे लिए ( अदितिः ) वेदवाणी (कृणोतु ) करे। ( हविष्मान्) प्रजा से कर लेनेवाला (अश्वः ) राष्ट्ररथ को चलानेवाला राजा ( नः ) हमें ( क्षत्रं ) क्षात्रबल और क्षत से त्राण (वनता ) प्रदान करे।
परमेश्वर ‘वाजी’ अर्थात् बहुत बलवान् है। शरीरधारी न होते हुए भी वह शारीरिक बल के और अध्यात्म बल के भी सभी कार्य करता है। लोकलोकान्तरों को उसने बिना डोर के ही आकाश में लटकाया हआ है, जैसे कोई बली परुष अपनी भुजा से पकड़कर भारी से भारी वस्तु को आकाश में स्थिर रखे। अध्यात्म बल के कार्य भी वह करता है, जैसे निर्बुद्धि को परम बुद्धिमान् बना देता है और आत्मा में इतना बल दे देता है कि वह अणु होता हुआ भी बड़े से बड़े कार्य कर सके। ‘वाजी’ का अर्थ धनी भी होती है। परमेश्वर धनवान् भी इतना है कि समस्त सांसारिक और आध्यात्मिक धन उसके पास हैं। हम चाहते हैं कि वह हमें ‘सुगव्य’ अर्थात् श्रेष्ठ गौओं का समूह और ‘स्वश्व्य’ अर्थात् श्रेष्ठ अश्वों का समूह प्रदान करे। पशुरूप गौओं और घोड़ों के समूह की प्रत्येक को यजुर्वेद ज्योति आवश्यकता नहीं होती, व्यापारी को ही हो सकती है। ‘गौ’ किरण या प्रकाश का वाचक भी है। ‘सुगव्य’ का अर्थ है। अध्यात्मप्रकाश की किरणों का समूह और ‘स्वश्व्य’ से श्रेष्ठ प्राणबल का समूह भी अभिप्रेत है, जिसकी प्रत्येक को आवश्यकता और चाह होती है। हम चाहते हैं कि ‘वाजी’ परमेश्वर हमें पुरुषार्थी पुत्र-पुत्रियाँ भी प्रदान करे। पुत्र और पुत्रियों का समास होने पर संस्कृत-व्याकरण में एकशेष के नियम से ‘पुत्र’ ही शेष रहता है। अतः ‘पुंसः पुत्रान्’ में पुत्रों के साथ पौरुषवती पुत्रियाँ भी सम्मिलित हैं। धनी परमेश्वर से हम ‘विश्वापुष रयि’ अर्थात् सबका पोषण करनेवाली सम्पत्ति की भी याचना करते हैं। वह समाज और राष्ट्र में प्रत्येक के निर्वाह के लिए आवश्यक सम्पदा प्रदान करे। संसार में कुछ का ही पोषण न होकर सबका पोषण होना चाहिए, यही वैदिक मर्यादा है।
इसके अतिरिक्त ‘अनागास्त्व’ अर्थात् निष्पापत्व भी हम पाना चाहते हैं। अदिति’ हमें निष्पापता प्रदान करे। अदिति का एक अर्थ वेदवाणी’ भी है। वेद में निष्पाप होने की प्रार्थना प्रचुरता के साथ मिलती है। अथर्ववेद पाप में चेतनत्व का आरोप करके उसे फटकारते हुए दूर भाग जाने का आदेश देता है। पाप धुएँ में घट कर, पानी में गल कर नष्ट हो जाए.५ यह कहा गया है। संसार की वस्तुओं का नाम ले-ले कर कहा गया है कि वे हमें पाप से मुक्त करें। वेद से प्रेरणा लेकर हम मानसिक और क्रियात्मक दोनों प्रकार के पापों से मुक्त रहें, तभी हम उन्नतिपथ पर अग्रसर हो सकते हैं।
प्रजा से ‘हवि’ अर्थात् कर लेनेवाला और राष्ट्ररथ को अश्व के समान चलानेवाला राजा हमें सैनिक शिक्षा देकर क्षात्रबल से युक्त करे। वेद सैनिक शिक्षा को सबके लिए अनिवार्य बताता है।
( महान् ) महान् है ( इन्द्रः ) परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर, ( वज्रहस्तः ) वज्र अर्थात् दण्डशक्ति उसके हाथ में है, ( षोडशी ) सोलहों कलाओंवाला अर्थात् पूर्ण है। वह हमें ( शर्म यच्छतु ) सुख देवे। ( हन्तु) विनष्ट करे ( पाप्मानं ) पाप को, (यःअस्मान्द्वेष्टि) जो पाप हमसे द्वेष करता है। हे मेरे आत्मन् ! (उपयामगृहीतःअसि) तूने यम, नियम आदि व्रत ग्रहण किये हुए हैं, ( महेन्द्राय त्वा ) मैं तुझे महेन्द्र के अर्पित करता हूँ। (एष ते योनिः ) यह महेन्द्र तेरा शरणगृह है। (महेन्द्राय त्वा ) महेन्द्र की स्तुति, प्रार्थना, उपासना के लिए तुझे प्रेरित करता हूँ।
इन्द्र परमेश्वर का नाम है, क्योंकि वह परमैश्वर्यवान् है। वह महान् सम्राट् है, उसकी महिमा महान् है। वह ‘वज्रहस्त’ है, अधार्मिक दुराचारियों को दण्ड देने के लिए उसके हाथ में वज्र रहता है। वज्रपात करता है वह दुष्टों पर, उनकी सब सम्पदा वज्र के आघात से चूर-चूर हो जाती है। थोड़ी देर पहले जो फूल-फल रहे थे, क्षण भर में धूल में लोटने लगते हैं। वह षोडशी है, पूर्णिमा के चाँद के समान सोलहों कलाओं से परिपूर्ण है, उसमें कोई न्यूनता नहीं है। न उसके ज्ञान में कोई कमी है, न कर्म में कोई कमी है, न उसके ईश्वरत्व में कोई कमी है। हम चाहते हैं कि वह हमें सुख प्राप्त कराये, आनन्द-सागर में गोते लगवाये, आनन्द की लहरों में झुलाये, हमारा कल्याण ही कल्याण करे। पाप विचार और पाप कर्म, जो हमसे द्वेष करते हैं और हमें घेरे रहते हैं, उन्हें वह विनष्ट कर दे। चोरी, हिंसा, गुरुद्रोह, कन्याभ्रूणहत्या, आतङ्कवाद, बलात्कार आदि पातक हमारे समाज से लुप्त हो जाएँ।
हे मेरे आत्मन् ! तू ‘उपयामगृहीत’ है, तूने यम-नियमों, उपनियमों के पालन का व्रत ग्रहण किया है, दीक्षा ली है। व्रतपालन की शक्ति प्राप्त करने के लिए मैं तुझे ‘महेन्द्र’ के अर्पित करता हूँ, महामहिम जगदीश के सुपुर्द करता हूँ। वह शक्ति का भण्डार है, तुझे भी शक्ति देगा। वह व्रतपति है, तुझे भी व्रतपति बनायेगा। वह महेन्द्र तेरा शरणगृह है, शरणागतत्राता है। उस महेन्द्र की स्तुति, प्रार्थना, उपासना के लिए तुझे प्रेरित करता हूँ, तत्पर करता हूँ, उस महेन्द्र का प्रेमी तुझे बनाता हूँ, उसके ध्यान में मग्न तुझे करता हूँ। तू महेन्द्र का हो जा, महेन्द्र तेरे पीछे-पीछे दौड़ेगा। |
आओ, वज्रहस्त, षोडशी महान् इन्द्र के गीत गायें। वह हमें सुख-सरोवर में स्नान करायेगा, महापापों से हमारा त्राण करेगा, हमारे समर्पण को स्वीकार करेगा।
पाद–टिप्पणियाँ
१. ‘इदि परमैश्वर्ये’ इस धातु से रन् प्रत्यय करने पर इन्द्र शब्द सिद्धहोता है। य इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति स इन्द्रः परमेश्वर:-स०प्र०, समु० १।।
हनुमान जी जिनको महावीर जी भी कहा जाता है हिन्दू समाज में एक विशेष स्थान रखते हैं। राम के साथ वे रामायण के सर्वप्रमुख पात्र हैं। राम को यदि हनुमान जी का सहयोग प्राप्त न हुआ होता तो राम को सीता का पता लगाना भी सम्भव नहीं था तथा रावण के साथ युद्ध में राम का विजय होना भी संदिग्ध हो जाता। लक्ष्मण शक्ति के बाद संजीवनी बूटी की खोज करना और उसे लाकर उसको पुनर्जीवित करना हनुमान जी के ही उद्योग का फल था अन्यथा राम को लक्ष्मण जी के जीवन की आशा ही नहीं रह गयी थी।
हनुमान जी को अकेले लंका में जाकर वहां सीता जी का पता लगाना, रावण के द्वारा बन्दी बनाये जाने पर सारी लंका में हल-चल मचा देना जिसे कवियों ने अपनी भाषा में आग लगा देना लिखा है जो हनुमान जी की वीरता, धीरता, राजनीतिज्ञता, चतुरता एवं शारीरिक बल का अद्भुत प्रमाण उपस्थित करता है।
भारतीय आर्य जाति में हनुमान जी का अत्याधिक आदर है। उनकी मूर्तियाँ व चित्र सर्वत्र इस देश में प्रतिष्ठा के साथ लगाये व पूजे जाते हैं। उनके महान् ब्रह्मचर्य की गाथायें बालकों को सुनाकर सच्चरित्रवान बनने के उपदेश दिये जाते हैं। सारे संस्कृत साहित्य में उनको महान् आदित्य ब्रह्मचारी के रूप में आदर के साथ स्मरण किया गया है। महर्षि बाल्मीकि ने संस्कृत में तथा अन्य भाषाओं की रामायणें भी राम के साथ-साथ हनुमान जी के शौर्य पर्ण वर्णन की गाथाओं से भरी पड़ी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि महावीर हनुमान आर्य जाति के परममान्य आदरणीय एवं अनुकरणीय चरित्रवान् महान व्यक्ति हुए हैं तथा सम्पूर्ण समाज उनको अपना पूर्वज गौरव के साथ स्वीकार करता है।
महावीर हनुमान जी का कोई जीवन चरित्र पृथक् कभी नहीं लिखा गया है। कुछ एक छोटी जीवनियां उनकी एक दो स्थानों से छपी थीं किन्तु वे अधूरी एवं बिना विशेष खोज के साथ लिखी गयी थी। पौराणिक साहित्य में भी हनुमान जी के विषय में अनेक पुराणकारों अनेक प्रकार के परस्पर विरुद्ध विवरण प्रस्तुत किये गये हैं, जिनमें हनुमान जी के उज्जवल रूप करने के स्थान पर उनको कलंकित करने का प्रयत्न किया गया है। साथ ही वे विवरण इतने बुद्धि विरुद्ध भी हैं कि उनको पढ़कर उनके लेखकों की बुद्धि पर तरस भी आता है। हनुमान जी को तुलसीदास जी ने तो स्पष्टतया “कपि” लिखकर पशु अर्थात् बन्दर ही घोषित कर दिया है जबकि दूसरे रामायण लेखकों ने उनको वैदिक आदर्शों से ओत-प्रोत महामानव प्रतिपादित किया है। हम प्रथम हनुमान जी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न पौराणिक ग्रन्थों के कुछ विवरण उद्दधृत करते हैं।
शिवपुराणमेंहनुमानजीकीउत्पत्ति
शिव पुराण शतरुद्र संहिता अध्याय २० में हनुमान जी की उत्पत्ति निम्न प्रकार से लिखी हुई है।
(शिवपुराण) अर्थ-एक समय गुण युक्त लीला करने वाले प्रभु शिवजी ने विष्णु का मोहिनी रूप देखा ॥३॥ तो कामदेव के बाणों से ताड़ित हुए शिवजी ने अपने आपको काम से व्याकुल किया और रामचन्द्र जी के कार्य के निमित्त अपना वीर्य गिराया ॥४॥ तब आदर से रामचन्द्र जी के कार्य के अर्थ मन से शिवजी के द्वारा प्रेरणा किये हुए उन सप्त ऋषियों ने उस वीर्य को पत्ते पर स्थापित किया ॥५॥ उन महर्षियों ने वह शिवजी का वीर्य गौतम की पुत्री अन्जनी में (उसके कान में घुसेड़ कर ) रामचन्द्र जी के कार्यार्थ प्रवेश किया ॥६॥ उस समय उस वीर्य से महाबली तथा पराक्रम युक्त बानर के शरीर वाले हनुमान नामक शिवजी उत्पन्न हुए ॥७॥
इस कथा में हनुमान जी को शिवजी के वीर्य से उत्पन्न होने के कारण उन्हें शिवजी का अवतार बताया गया है किन्तु जो तरीका ऊपर लिखा है वह सर्वथा मिथ्या है। अंजनी के साथ शिवजी का विषय भोग होकर यदि गर्भाध न दिखाकर हनुमान जी की उत्पत्ति पुराणकार ने दिखाई होती तब तो बात कुछ ठीक-ठीक बन भी जाती, किन्तु शिवजी का मोहनी स्त्री रूपधारी विष्णु को देखकर वीर्यपात हो जाना और सप्तर्षियों का उस वीर्य के झरते ही उसे पत्ते या दौने में जमा कर लेना तथा उसे अंजनी के कान में घुसेड़ कर अंजनी के गर्भाधान हो जाना यह बात बताना व उस गर्भ से हनुमान बालक की पैदायश का लिखना स्पष्ट चन्डूखाने की गल्प है। स्त्री के न तो कान में होकर गर्भाध न हो सकता है और न भागते हुए शिवजी के वीर्यपात होने पर उस वीर्य को जमा करने के लिए लोटा, कटोरा या दौना लिए पहले ही से सप्तर्षियों के वहाँ तैयार रहने की बात ही सच्ची मानी जा सकती है तथा यह भी नहीं हनुमान जी बन्दर नहीं थे माना जा सकता है कि शिवजी को कोई भयंकर प्रमेह का रोग होगा।
भागवत में हनुमान जी की उत्पत्तिइस कथा के मिथ्या होने की पुष्टि भागवत पुराण से ही हो जाती है उसमें तथा एक स्थान पर स्कन्द पुराण अध्याय ८, श्लोक १२ में लिखा है कि एक बार विष्णु के मोहिनी अवतार के सुन्दर रूप को देखकर शिवजी कामातुर होकर मोहिनी को पकड़ने के लिए उसके पीछे भाग पड़े। मोहनी भी भागी, भागते-भागते वह नंगी हो गयी इसी दौड़ में एक बार तो शिवजी ने उसे पीछे से पकड़कर अपनी जांघों पर गिरा लिया किन्तु वह फिर भी छूटकर भाग निकली और शिवजी उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भागते चले गये। शिवजी का उसी कामातुर अवस्था में भागते-भागते वीर्यपात हो गया।
यत्रयत्रपतन्ह्यांरेतस्तस्यमहात्मनः।तानिरूप्यश्चहेम्नश्चक्षेत्रण्यांसन्महीपते ॥ ३३॥
वह वीर्य जहां-जहां भी पृथ्वी पर गिरा वहां-वहां सोने व चाँदी की खानें बन गईं।।
भागवत की यह कथा विस्तार से हमने अपनी पुस्तक हनुमान जी बन्दर नहीं थे “शिवलिंग पजा क्यों*?” में शिव वीर्य से सोने चाँदी की उत्पत्ति नामक शीर्षक से दी है, वहां देखी जा सकेगी। इस कथा में शिवजी के वीर्यपात होने की बात तो लिखी है तथा उसमें सोना चाँदी की उत्पत्ति का विवरण भी दिया है, न कि सप्तर्षियों के द्वारा उसे कटोरा, गिलास या पत्तों पर जमा करके अन्जनी के कान में डालकर हनुमान को पैदा कराने की बेतुकी घटना दी है।
इस प्रकार उपरोक्त हनुमान जी की उत्पत्ति की शिव पुराण की कथा भागवत के विरुद्ध होने से हम गल्प (गपोड़ा) मानते हैं। वह ऐतिहासिक तथ्य नहीं मानी जा सकती है। आकाश में सप्तर्षि मण्डल सात तारों के समूह ‘का नाम है जो उत्तर दिशा में ध्रुव के चारों ओर आकाश में घूमा करता है। वह आदमी नहीं जो किसी का वीर्य या रज इकट्ठा करने को शिवजी के साथ-साथ घूमता फिरता था।
भविष्यपुराणमेंहनुमानजीकीउत्पत्ति
शिवोऽपि च स्वपूर्वार्द्धान्जातो वै सानसोत्तरे।गिरो यत्र स्थितादेवी गौतमस्य तनूद्भवा॥३१॥
अर्थ-एक बार शिवजी मानसोत्तर वर पर्वत पर गये। वहाँ केसरी की पत्नी अन्जना रहती थी। शिवजी का तेज (वीर्य) केसरी के मुंह में चला गया और उससे कामातुर हनुमान जी बन्दर नहीं थे होकर केसरी अन्जना से भोग करने लगा। इसी बीच में वायु ने भी केसरी के शरीर में प्रवेश किया और वह बलपूर्वक उसके प्रभाव से बारह वर्ष तक अन्जना से विषय भोग करता रहा। इस लम्बे मैथुन से अन्जना के गर्भ रह गया और एक वर्ष बाद उसने वानर की सी शक्ल वाले हनुमान जी को जन्म दिया, जोकि अत्यन्त कुरूप था इससे माता ने उसे त्याग दिया। हनुमान बालक ने बलपूर्वक सूर्य को निगल लिया। महादेव जी देवताओं के साथ वहाँ आ गये किन्तु वज्र से ताड़ित होने पर भी उन्होंने सूर्य को नहीं छोड़ा। तब सूर्य ने भयभीत होकर बचाओ बचाओ (त्राहि त्राहि ) की, तब उसके दीन वचनों को सुनकर रावण ने हनुमान जी की पूँछ पकड़कर खींचा। इस पर हनुमान ने सूर्य को तो छोड़ दिया परन्तु क्रोधित होकर रावण से युद्ध करने लगे और एक साल तक मल्ल युद्ध उससे करते रहे। रावण थक गया और डरकर तथा हनुमान जी से पिटकर वहाँ से भाग गया। ___ भविष्य पुराण की इस कथा में शिवजी का वायु (तेज) केसरी के मुंह में घुसने की बात लिखी है तथा वायु ने भी केसरी के शरीर से प्रविष्ट होकर अन्जनी को केसरी के साथ-साथ भोगा था। इस प्रकार भविष्य पुराण, हनुमान जी के तीन बाप बताता है। शिवजी, वायु तथा केसरी जी। पैदा होते ही हनुमान ने जमीन से भी १३ लाख गुना बड़े सूर्य को निगल लिया जो कि ९ करोड़ मील दूर है। वहाँ रावण भी न जाने कहाँ से टपक पड़ा और सूर्य के मुकाबले में पिद्दी-सा रावण एक साल तक बालक हनुमान से मल्ल युद्ध करता रहा, यह सारी की सारी पुराणकार की कोरी गप्प है। इस कथा से हनुमान जी के बारे में एक ही बात सार रूप में मिलती है कि वह केसरी पिता से अन्जनी माता के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। केसरी, अन्जनी तथा हनुमान जी तीनों मनुष्य थे, पशु नहीं थे, यह बात भी इससे इसलिए स्पष्ट है कि रावण मनुष्य था उसका एक वर्ष तक किसी भी पशु के साथ लगातार मल्लयुद्ध सम्भव नहीं था, मल्ल युद्ध मनुष्यों की कला है, बन्दरों की नहीं है। दूसरी बात यह है कि बन्दरियाँ एक दर्प अथवा ९ या ८ माह तक गर्भ धारण नहीं किये रहती है। समस्त बन्दर जाति का गर्भ काल ६ महीने से अधिक नहीं होता है। पुराण के अनुसार अन्जनी ने हनुमान का गर्भ एक वर्ष तक धारण किया था जोकि स्त्रियों के औसत काल ९ या १० माह के समीप है। विशेष अवस्था में स्त्रियों का गर्भकाल ११ या १२ माह तक खिंच जाता है। इस आधार से भी अन्जनी मानव जाति की स्त्री थी।
तीसरी बात यह भी समझने की है कि किसी बन्दर ‘ का नाम केसरी तथा बन्दरिया का नाम अन्जनी नहीं होता है। नाम रखने की परम्परा बोलचाल के लिए सम्बोधन के रूप में केवल मनुष्य जाति में ही होती है पशुओं में न तो वाणी अथवा स्पष्ट उच्चारण की सामर्थ्य होती है और न उसकी एक-दूसरे को पुकारने के लिए सम्बोधन के रूप में नाम रखने की परम्परा होती है। एक-एक बन्दर के साथ कई-कई दर्जन बन्दरियाँ भोगने को उसकी मण्डली में होती हैं जबकि केसरी व अन्जनी पति-पत्नी थे। लगन के साथ कामातुर होकर पत्नी के साथ रमण करने और दीर्घकाल तक रहते रहने की बात मनुष्य जाति में ही सम्भव है। कवि ने उस दीर्घकाल की अवधि को अपनी कल्पना से १२ वर्ष बढ़ाकर लिख दी है यह केसरी की मैथुन शक्ति को बढ़ाकर दिखाने के लिए किया गया है। बन्दर का मैथुन अवधि लिखने की न तो आवश्यकता होती है और न ही इतनी अवधि की सीमा हो सकती है। पशु योनि में शिवजी का जन्म हुआ तो उससे शिवजी की महत्ता नहीं बढ़ेगी। अत्यन्त पाप कर्म करने वाले महापापी मनुष्यों को उनके अशुभ कर्मों का फल भोग कराने तथा कुसंस्कारों का विनाश करने के लिए पशु आदि निकृष्ट योनियों में जन्म धारण परमात्मा कराता है। बन्दरों की योनि में शिवजी ने जन्म लेकर मानव जाति अथवा बन्दरों की कोई सेवा पथ प्रदर्शन किया हो ऐसी भी कोई बात हनुमान जी के जीवन में देखने में नहीं आई है। उनके जीवन की प्रमुख घटना सीता जी का लंका में जाकर पता लगाना और रामचन्द्र जी की ओर से युद्ध करना मात्र रही है।
एक बार लक्ष्मण जी के युद्ध में मूर्च्छित हो जाने पर संजीवनी बूटी नाम की औषधि खोज कर लाने का काम उन्होंने किया था। उनके जीवन की केवल वही घटनायें हैं जो किसी अवतार के लिए शोभाजनक नहीं। सीता जी की खोज करना एक गुप्तचर का कार्य था, लड़ना सैनिक का पेशा होता है, औषधि लाना सेवक का धर्म है, इनमें अवतारपन की कोई बात नहीं थी।
राम ने भी हनुमान जी को वेदादि शास्त्रों तथा व्याकरण एवं संस्कृत विद्या का महान विद्वान् माना था। जब राम लक्ष्मण सीता के हरण पर वियोग से व्यथित सुग्रीव के स्थान की ओर जा रहे थे तो सुग्रीव ने दूर इन अजनबी नवागन्तुकों को देखकर इनकी वास्तविकता का पता लगाने के लिए हनुमान जी को उनके पास भेजा। हनुमान जी ब्रह्मचारी का रूप धारण करके राम जी के पास गये और उनसे वार्तालाप करके उनका परिचय पूछा तो राम ने लक्ष्मण से कहा था
अर्थ-हे लक्ष्मण! यह (हनुमान जी) सुग्रीव के मन्त्री हैं और उनकी इच्छा से यह मेरे पास आये हैं। जिस व्यक्ति ने ऋग्वेद को नहीं पढ़ा है, जिसने यजुर्वेद को धारण नहीं किया है, जो सामवेद का पण्डित नहीं है वह व्यक्ति, जैसी वाणी यह बोल रहे हैं वैसी नहीं बोल सकता है। इन्होंने निश्चय पूर्वक सम्पूर्ण व्याकरण पढ़ा है क्योंकि इन्होंने अपने सम्पूर्ण वार्तालाप में कोई भी अशुद्ध शब्द नहीं बोला है॥२९॥ इससे स्पष्ट है कि हनुमान जी वेदों एवं व्याकरण के प्रकाण्ड पंडित थे।
हनुमान जी शब्दशास्त्र (व्याकरण) के महान पण्डित थे श्रीरामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैनं बटूरूपिणाम। शब्दशास्त्रमशेषेण श्रुतं नूनमनेकधा॥१७॥ अनेकभाषितं कृत्सनं न किञ्चिदपशब्दितम्। ततः प्राह हनूमन्तं राघवो ज्ञान विग्रहः॥१८॥
(अध्यात्म रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग १)
राम ने कहा “हे लक्ष्मण! इस ब्रह्मचारी को देखो। अवश्य ही इसने सम्पूर्ण शब्दशास्त्र (व्याकरण) कई बार भली प्रकार पढ़ा है॥१७॥ देखो! इसने इतनी बातें कहीं किन्तु इसके बोलने में कहीं कोई एक भी अशुद्धि नहीं हुई। विदिता नौ गुणा विद्वान् सुग्रीवस्य महात्मनः॥३७॥
( बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३)
लक्ष्मण जी ने हनुमान जी को कहा कि हे विद्वान्! हमको महात्मा राजा सुग्रीव के गुण ज्ञात हैं।
हनुमानजीसर्वशास्त्रोंकेपण्डितथे
महर्षि अगस्त ने रामजी से कहा पराक्रमोत्साहमति प्रताप, सौशील्यमाधुर्य्य नया नयैश्च। गम्भीर्य चातुर्य सुचीर्य्यधैर्खे:, हनूमंतः कोऽस्ति लोके॥४३॥
सर्वासु विद्यासु तपो विधाने, प्रस्पर्धतेऽयंहि गुरु सुराणाम्॥४६।।
(बाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ३६ )
अर्थ-पराक्रम, उत्साह, बुद्धि, प्रताप, सुशीलता, नम्रता, न्याय, अन्याय का ज्ञान, गम्भीरता, चतुरता, बल और धैर्य में हनुमान जी के समान लोक में कोई भी मनुष्य नहीं है॥४३॥
अध्ययन काल में वे व्याकरण पढ़ते हुए इतने व्यस्त रहते थे कि सूर्य सामने होकर पीछे चला जाता था अर्थात् प्रात:काल से सायंकाल हो जाता था, तब तक वह पढ़ते ही रहते थे। और इतने समय में जितने में सूर्य उदयाचल से अस्ताचल पर्वत तक पहुंचता था वे एक दिन में बड़े-बड़े ग्रन्थ को कण्ठस्थ करने में अनुपम थे।॥४५॥
हनुमान जी ने सूत्र, वृत्ति, वार्तिक भाष्य, साधन और संग्रह सहित सब पढ़ा है। व्याकरण के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों ( वेदांगों ) छन्द आदि में भी वे अद्वितीय विद्वान् हैं। समस्त विद्याओं तथा तपस्या में यह हनुमान जी गुरु बृहस्पति के समान हैं॥४६॥
बाल्मीकि रामायण के उपरोक्त उद्धरण हनुमान जी को बन्दर सिद्ध नहीं करते हैं वरन् वे उनको मनुष्य, ब्रह्मचारी, विद्वान्, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता, महान वैयाकरण व धुरन्धर वेदज्ञ घोषित कर रहे हैं। यह गुण बन्दर में नहीं हो सकते हैं। बन्दर का गला इतना सिकुड़ा हुआ होता है कि वह स्पष्ट शब्दोउच्चारण नहीं कर सकता। इसीलिए आवश्यकता होने पर बन्दर केवल किलकारी मारता है। चीखता है। अत: महान् विद्वान् राजा सुग्रीव के सचिव (मन्त्री) को बन्दर बताना उनका ही नहीं अपितु, आर्य सभ्यता का अपमान करना है तथा अपनी बुद्धि हीनता का परिचय देना है बन्दर राजा लोगों के मन्त्री नहीं हुआ करते हैं। राज्य मन्त्री मनुष्य ही होते हैं।
हनुमान जी के श्वेत वस्त्र ततः शाखान्तरे लीनं दृष्ट्वा चलित मानसा। वेष्टतार्जुन वस्त्र तं विद्युत्सघांत पिंगलम्॥१॥
(बाल्मीकिरामायणसुन्दरकाण्ड३१)
ऊपर वृक्ष की शाखाओं में छिपे हुए हनुमान जी को देखकर जानकी जी घबरा गईं। हनुमान जी उस समय श्वेत वस्त्र पहने हुए गोरे शरीर वाले ऐसे लगते थे जैसे बिजली चमकती है। ___मनुष्य ही वस्त्र पहिनते हैं बन्दर कभी वस्त्र नहीं पहना करते हैं। हनुमान जी का वस्त्र पहिनना उन्हें मनुष्य बताता सुग्रीव मनुष्य था अरयश्च मनुष्येण विज्ञेयाश्छद्म चारिणः॥२२॥
( बाल्मीकिरामायणकिष्किन्धाकाण्डसर्ग२)
अपने बारे में सुग्रीव ने कहा कि कपट वेष में घूमने वाले शत्रुओं का मनुष्यों को अवश्य ही भेद जानना चाहिए।
सुग्रीव का अपने को मनुष्य बताना यह प्रमाणित करता है कि समस्त वानर जाति मनुष्य थी।
अर्थ-राजा सुग्रीव सुन्दर स्वर्ण के सिंहासन पर बैठा हुआ था। और उस पर बहुमूल्य सुन्दर बिछौना बिछा हुआ था।
सोने के घड़े अप: कनक कुम्भेषु निधाय विमला जलः॥३३॥
शुभंषभश्रृनगैश्च कलशश्चैव कांचनेः॥३४॥
अभ्यषिन्चन्त सुग्रीवं प्रसन्नेक सुगन्धिना॥३५॥
सलिलेन सहस्त्राक्ष बसवा वासवं यथा॥३६॥
( बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २६)
स्वर्ण के कलशों में पवित्र जल भर कर सुगन्धित जल से सुग्रीव को बानर लोग इस तरह स्नान कराने लगे जैसे बसुगण इन्द्र को स्नान कराते हैं।
सोने के छत्र और चंवर तस्य पाण्डुरमाजु हृश्छत्रंहेम परिष्कृतम्। शुक्ले च वाल व्यंजने हेम दण्डे यशस्करे॥२३॥
(बाल्मीकिरामायणकिष्किन्धाकाण्डसर्ग२६)
जब सुग्रीव का राज्याभिषेक हुआ तब कुछ बानरों ने उसके ऊपर स्वर्ण से जड़ा हुआ धवल छत्र लगाया और कुछ ने सोने की डण्डी वाला चंवर और पंखा भी ढुलाया। उपरोक्त चन्द प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि बानर लोग बन्दर नहीं थे, वे मनुष्य थे, आभूषण तथा वस्त्र पहिनते थे, राजसिंहासन पर बैठते थे, स्वर्ण का प्रयोग करते थे, जबकि बन्दरों को इन सबकी कोई आवश्यकता नहीं होती है।
बानरों का यज्ञोपवीत धारण करना ततोऽग्नि विधिवद्दत्वसोप सव्यं चकार ह॥५॥
(बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २५) __
अंगद ने बाली के शव को विधिवत् अग्नि देकर अपना वज्ञोपवीत दाहिने कन्धे पर रख लिया। ___ “अपसव्य” का अर्थ होता है यज्ञोपवीत को दाहिने कन्धे पर लेना। यज्ञोपवीत हमेशा बायें कन्धे पर रहता है उसे दायें पर लेने को “अपसव्य” करना कहते हैं। ___बन्दर जाति के पशु यज्ञोपवीत नहीं पहन सकते हैं। यह केवल यज्ञ के अधिकारी मनुष्यों को ही धारण करने का शास्त्रीय अधिकार है। इससे सिद्ध है कि बानर जाति मनुष्यों की क्षत्रीय वंश की दक्षिणीय शाखा थी।
मृतक पुरुषों का ही अन्त्येष्टि संस्कार किया जाता है, बानर जाति के मनुष्यों में यह प्रथा होना भी उनको मनुष्य प्रमाणित करती है।
पति (बाली) को हत्त देखकर तारा अति दुखी होकर मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। कुछ देर बाद चैतन्य होने पर वह बाली को ‘आर्य पुत्र’ कहकर रुदन करने लगी।
इससे स्पष्ट है कि बानर लोग आर्य पुत्र (आर्य जाति के) मनुष्य ही थे, पशु नहीं थे। __ बानर जाति आज भी विद्यमान है। वनों में विचरण करने वाले, वनों में रहने वाले लोग बानर कहे जाते थे।
राजस्थान के बाड़मेर क्षेत्र में आज भी बानर जाति के क्षत्रीय लोग निवास करते हैं, रांची (मध्य प्रदेश) के आसपास उरांव और मुण्डा नाम की दो जातियां निवास करती हैं जिनके गोत्र वानर और भुल्लूक हैं ये उन्हीं रामायण और भुल्लक कालीन उस देश की मानव जातियों के वंशज हैं।
“कपि” शब्द का अर्थ संस्कृत के प्रसिद्ध कोषकार आप्टे ने अपने कोष में ‘कपि’ शब्द का अर्थ -सुगन्धि, हाथी, सूर्य और शिलारस लिखे हैं। सम्भव है सूर्यवंशी क्षत्रिय जाति के वंशज होने से इन वनवासी एवं पर्वतीय जाति के लोगों को बानर या कपि शब्द से सम्बोधित किया जाने लगा हो, जिसे ठीक प्रकार से न समझने के कारण बन्दरों की भाँति पशु जाति का मान लिया गया है।
हनुमान जी अपने समाज के अत्यन्त प्रतिष्ठित, महान विद्वान् महान शूरवीर योद्धा, सेनापति तथा सुग्रीव के राजमन्त्री थे। उनकी अद्भुत योग्यता की सर्वत्र बड़ी धाक थी। सव ओर उन्हीं की पुकार होती थी। प्रत्येक कार्य में उनसे परामर्श लिया जाता था। राजा तथा प्रजा में उनकी अत्यन्त पूछ होने के कुछ लोगों ने यह समझ लिया है कि उनके जानवरों जैसी लम्बी पूंछ (दुम) लगी हुई थी। वास्तविक अर्थ का अनर्थ लोगों ने अपनी नासमझी से कर दिया है। मनुष्य और पशुओं में पूंछ भेदक चिन्ह है पशुओं की पूंछ (दुम) होती है। मनुष्यों के दुम नहीं होती है। कहा जाता है कि विद्वानों की बड़ी भारी पूछ होती है सर्वत्र वे पूछे जाते हैं, उनका महान यश तथा विद्वता उनकी पूछ का कारण होती है। भाषा के शब्दों को समझना चाहिए।
जब हनुमान जी लंका में सीता से मिलने के बाद पकड़ लिए गए तो वे अपनी बुद्धि व शारीरिक बल से सारी लंका में एक प्रबल हलचल (क्रांति) पैदा कर आये थे जिससे सारी लंका जलने लगी थी। यह बात करने का एक प्रकार है। यदि यह कहा जाये कि चीन ने आक्रमण करके सारे भारत में आग लगा दी सर्वत्र क्रोध की लहर दौड़ने लगी थी, तो इसका यही अर्थ होगा कि जनता की विचारधारा में एक तीव्र आक्रोश तथा बदला लेने की भावना पैदा हो गई थी। यह अर्थ नहीं होगा कि चीन ने दियासलाई जलाकर मिट्टी का तेल डालकर सारे भारत में जगह-जगह भौतिक आग लगा कर लपटें पैदा कर दी थीं। जिन लोगों ने हनुमानजी को पशु तथा उनको पूंछवाला लिखा है, उन्होंने उनका अपमान किया है।
ताराकीयोग्यता
यह यहां एक प्रमाण बानरों की स्त्रियों के विषयों में उनकी योग्यता को दिखाने के लिए प्रस्तुत करते हैं, तारा की योग्यता के विषय में लिखा है :
सुषेण दुहिता चेयम अर्थ सूक्ष्म विनिश्चये। औत्यातिके च विविधे सर्वत परिनिष्ठता॥१३॥
हे सुग्रीव! सुषेण की पुत्री तारा तुम्हारे सामने बैठी है। इनकी योग्यता तुमको ज्ञात ही है, यह अत्यन्त सूक्ष्म और पेचीदे राजकीय प्रश्नों का निर्णय करने में तथा अनेक राजनैतिक गुत्थियों को सुलझाकर राज्य को व्यवस्थित बनाने के कार्य में अत्यन्त कुशल है। जिस कार्य में यह अनुमति देवे उसे अवश्य करो उससे कभी असफलता नहीं मिलेगी। ___भारतवर्ष की महान स्त्रियों के अन्दर यह राज्य संचालन मंत्रणा देना पेचीदा बातों का निर्णय देना आदि गुण होते थे: यह गुण पशु जाति की बन्दरियों में कभी भी संभव नहीं थे और न कभी होंगे।
इस प्रकार हमने यह बताया है कि हनुमान जी मनुष्य थे, क्षत्रिय जाति के रत्ल थे, भारतीयों के गौरवमय पूर्वज थे। उनके बारे में जो भी भ्रम देश में पैदा कर दिए गए हैं उनका निवारण हो जाना चाहिए, हनुमान जी के विषय में बाल्मीकि रामायण ही सर्वाधिक प्रमाणिक ग्रन्थ है। उनके समकालीन महर्षि बाल्मीकि की रचना होने से ऐतिहासिक दृष्टि से माननीय है। तुलसी रामायण अकबर के राज्य में अब से लगभग ३०० वर्ष पूर्व की रचना होने से ऐतिहासिक महत्व की पुस्तक न होने से मान्य नहीं है।
महावीर हनुमान जी के पिता का नाम केसरी तथा माता का नाम अन्जनी देवी था। वे बानर क्षत्रीय वंश के आर्य मानव थे, आर्यों के वंशज थे।
हनुमान जी के विषय में सम्भवतः किसी जैन ग्रन्थ में हमने कहीं लिखा देखा है कि वे राजा सुग्रीव के दामाद थे। सुग्रीव की पुत्री पदमप्रभा से उनका विवाह हुआ था। पर इस विषय का कोई प्रमाण हमको संस्कृत साहित्य के अन्दर दृष्टि में नहीं आया है।
आध्यात्मिक रामायण में एक स्थान पर लिखा है कि जब रामचन्द्र जी चौदह वर्ष के वनवास की अवधि पूर्ण करके लंका विजय के पश्चात अयोध्या को वापिस लौटे थे तो उन्होंने भरत जी को अपने आने की सूचना देने के लिए हनुमान जी को आगे भेज दिया था। भरत जी को जब राम के आने का शुभ समाचार हनुमान जी ने दिया तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और हनुमान जी से बोले
अर्थ-भरत जी ने तुरन्त ही प्रियवादी हनुमान जी को हृदय से लगा लिया और आनन्द के कारण उमड़े हुए अश्रु जलों से उस बानर श्रेष्ठ को सींचने लगे।।५९॥
(वे वोले ) भैया! तुम कोई देवता हो या मनुष्य हो जो दया करके यहां आये हो? हे सौम्य! इस प्रिय समाचार के सुनाने के बदले मैं तुम्हें एक लाख गौ, अच्छे-अच्छे सौ गांव और समस्त आभूषणों युक्त परम सुन्दरी सोलह कन्यायें देता हूं।५०-६१॥
यहां भरत जी ने हनुमान जी को मनुष्य या देवता कहा था बन्दर या देवता नहीं माना था। यदि बन्दर माना होता तो इस प्रकार का दान कभी न देते। तभी तो उन्होंने गौए, गांव व कन्यायें उनको पुरस्कार में भेंट स्वरूप दी थी। यदि हनुमान जी बन्दर (पशु) होते तो गौओं के थन चंबा जाते, गांवों को उजाड़ डालते तथा औरतों के लंहगे, ब्लाउज फाड़-फाड़कर उनकी ऐसी दुर्गति बनाते कि देखने वालों को भी भरत जी की त्रुटि पर, ऐसा दान देने पर तरस आता, किन्तु बन्दर को तो औरतों की जगह पर सौ दो सौ बन्दरियां देना ही ठीक रह सकता था। गायें, ग्राम व कन्यायें मनुष्यों के ही प्रयोग की वस्तु हैं अतः भरत जी का हनुमान जी को यह दान देना भी उनको मनुष्य ही घोषित करता है।
इतने प्रमाणों की उपस्थिति में आशा है अब आगे कभी कोई व्यक्ति महानात्मा हनुमान जी को पूंछ वाला बन्दर वंशीय मानने का दुस्साहस नहीं करेगा।
ऋषिः त्रिशोकः । देवता इन्द्रः । छन्दः निवृद् आर्षी गायत्री।
बृहन्निदिध्मएषां भूरिशस्तं पृथुः स्वरुः । येषामिन्द्रो युवा सखा ।
–यजु० ३३.२४ |
(एषां ) इनका ( बृहन् इत् ) विशाल ही ( इध्मः ) ईंधन होता है, ( भूरि ) बहुत ( शस्तं ) यश होता है, और ( पृथुः ) विस्तीर्ण ( स्वरुः ) खड्ग होता है, ( येषां ) जिनका (युवाइन्द्रः ) युवा इन्द्र (सखा ) सखा बन जाता है।
कोई मनुष्य कैसा है इसकी पहचान इससे होती है कि उसके मित्र कैसे हैं, उसका मेल-मिलाप कैसे लोगों के साथ है। एक बार कोई व्यक्ति हत्या के सन्देह में पकड़ा गया। वह प्रतिदिन एक साधु के यहाँ सत्सङ्ग में जाता था। साधु के साथ इसकी मैत्री है, यह हत्यारा नहीं हो सकता, यही सोचकर उसे छोड़ दिया गया। किसी की राजमन्त्री के साथ मैत्री होती है, किसी की समाधि लगानेवाले महात्मा के साथ मैत्री होती है, किसी की चोर-डाकुओं और अतिङ्कवादियों के साथ मैत्री और सहानुभूति होती है। उन्हीं से उसका चरित्र परखा जाता है। |
आओ, हम युवा इन्द्र के साथ मैत्री करें। उससे मैत्री करके हम उसी के सदृश बन जायेंगे। इन्द्र की एक विशेषता यह है कि वह अन्धकार और अत्याचार के प्रेमी वृत्र’ का संहार करता है। यदि हम इन्द्र से मैत्री स्थापित करेंगे तो हमें भी वृत्रे-जैसे आततायी लोगों का संहार करने का उत्साह और बल प्राप्त होगा। इन्द्र की दूसरी विशेषता यह है कि वह ग्रीष्म के ताप से तपती प्यासी भूमि पर शुद्ध मेघ-जल की वर्षा करती है। इन्द्र के मित्र बनकर हम भी प्यासों को पानी पिलायेंगे, सहायता की बाट जोहते लोगों की सहायता में तत्पर होंगे, दु:खियों के दु:ख मिटा कर उन पर सुख की वर्षा करेंगे। वेदों में जो भी बल के कर्म हैं, उन्हें इन्द्र करता है। इन्द्र के मित्र होकर हम भी बल के कर्म करेंगे। इन्द्र ने सूर्य विद्युत् और अग्नि को ज्योति दी है। हम भी अन्धकार में ज्योति उत्पन्न करेंगे। इन्द्र सृष्टि की उत्पत्ति करता है और सृष्टि को धारण करता है। हम भी बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनायेंगे, उन्हें क्रियान्वित करेंगे और उन्हें चिरस्थायी बनाये रखने के लिए उनका धारण भी करेंगे।
मन्त्र में युवा इन्द्र जिसका सखा हो जाता है, उसके लिए तीन बातें कही गयी हैं। प्रथम यह कि उसका ईंधने विशाल होता है। युवा इन्द्र सर्वस्वत्यागी है, उसने अपने लिए कुछ न रख कर ब्रह्माण्ड की समस्त सम्पदा दूसरों के लिए स्वाहा की हुई है। इन्द्र का सखा बनकर मनुष्य भी न केवल अपनी सम्पत्ति गरीबों के लिए स्वाहा करने को उद्यत हो जाता है, अपितु स्वयं को भी अपने राष्ट्र के लिए स्वाहा कर देता है। इन्द्र के सखाओं के लिए दूसरी बात यह कही गयी है कि उनका भूरि-भूरि यश होता है, क्योंकि वे इन्द्र के सदृश स्तुत्य कर्म करते हैं। इन्द्र के सखा मनुष्यों को तीसरी उपलब्धि यह होती है कि उनका खड्ग बहुत विशाल होता है। छोटी-छोटी तलवारें छोटे-छोटे अस्त्र-शस्त्र तो बहुतों के पास होते हैं, परन्तु इन्द्र के वज्र-जैसा वज्र उन्हीं के पास होता है, जो इन्द्र के प्रेमी हैं। इन्द्र का मित्र भी ‘इन्द्र’ बनकर आततायी शत्रुओं पर खड्ग-प्रहार करता है, तोप के गोले बरसाता है, आग्नेयास्त्र से उन्हें भून डालता है। यह विध्वंसलीला वह उनकी करता है, जो शान्ति में बाधक होते हैं, जो अशान्ति और उपद्रव को अपना ध्येय मानते हैं। | आओ, हम भी इन्द्र के सखा बनकर उक्त सब उपलब्धियों को पाने का सौभाग्य प्राप्त करें।