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सब हष्टपुष्ट नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार

सब हष्टपुष्ट  नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः अथवा देवाः । देवता रुद्रः ।।छन्दः आर्षी जगती ।

इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्र भरामहे मृतीः। यथा शमसद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामेऽअस्मिन्ननातुरम् ॥

-यजु० १६ । ४८

( तवसे ) बल और वृद्धि देनेवाले, (कपर्दिने ) वायुरोग को दूर करनेवाले, (क्षयद्वीराय) वीरों को निवास देनेवाले (रुद्राय ) रोगनाशक वैद्य के लिए (इमाःमतीः) इन प्रशस्तियों तथा प्रज्ञाओं को (प्रभरामहे ) हम प्रकृष्टरूप से लाते हैं, ( यथा) जिससे ( द्विपदे चतुष्पदे) द्विपाद् मनुष्यों और चतुष्पात् पशुओं के लिए (शम् असत् ) सुख होवे। ( अस्मिन् ग्रामे ) इस ग्राम में ( विश्वं ) सब कोई ( पुष्टं) हृष्टपुष्ट और (अनातुरं) नीरोग ( असत् ) होवे।। |

वेद में रुद्र कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है-परमेश्वर, प्राण, सेनापति, आचार्य आदि। इसका एक अर्थ वैद्यराज भी है। वेद में रुद्र को ‘भिषजों में भिषक्तम’ कहा गया है। पीड़ादायक रोगों को दूर करने के कारण वैद्य को रुद्र कहते हैं। मन्त्र में रुद्र के तीन विशेषण दिये गये हैं। प्रथम ‘तवसे’ विशेषण गतिवृद्धिहिंसार्थक णिजन्त ‘तु’ धातु से असुन् प्रत्यय करने पर चतुर्थी विभक्ति प्रथम पुरुष का रूप है। वैद्य रोगशय्या पर पड़े। रोगी को चलने-फिरने योग्य करता है, उसकी वृद्धि-पुष्टि करता है, उसके रोग-कीटाणुओं को नष्ट करता है। निघण्टु में ‘तवस्’ शब्द बलवाचक है। वैद्य चिकित्सा-शक्ति से सम्पन्न होता है, निर्बल रोगी को बल देता है। दूसरा विशेषण ‘कपर्दी’ है। अधिकतर रोग वायुविकार से होते हैं। वायुरोग को निस्सारण करने के कारण वैद्य को ‘कपर्दी’ कहते हैं । कपर्द जटाजूट को भी कहते हैं, जटाजूट को धारण करने के कारण वैद्य ‘कपर्दी’ कहलाता है। जटाजूट धारण करने से उसके मस्तिष्क में विशेष शक्ति आती है, जिसका उपयोग वह मानसिक रोगों के उपचार में कर सकता है । कपर्द समुद्र से निकलनेवाले ‘कौड़ों को भी कहते हैं, उनका उपयोग भी चिकित्सा में होता है। तीसरा विशेषण ‘ क्षयद्वीर’ है, जिसका अर्थ है, वीरों को निवास देनेवाला । वीरों में प्रजा के वीर पुरुष और वीराङ्गनाएँ भी आ जाती हैं और सेना के वीर योद्धा भी। वैद्य प्रजा के वीर-वीराङ्गनाओं की तथा युद्ध में आहत योद्धाओं की चिकित्सा करके उन्हें जीवन प्रदान करता है। इन विशेषणों से युक्त वैद्यराज के प्रति हम प्रज्ञाओं (मतियों) को लाते हैं, अर्थात् उसे यथोचित प्रशिक्षण देते हैं, जिससे वह गम्भीर से गम्भीर रोगी की सफल चिकित्सा कर सके। वह द्विपाद् मनुष्य की भी चिकित्सा करे और गाय आदि पशुओं की भी, जिससे हमारे ग्राम या नगर में सभी हृष्टपुष्ट और नीरोग रहें। मति का अर्थ प्रशस्ति भी होता है, हम उक्त गुणों से युक्त वैद्यराज की प्रशस्तियाँ भी करते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. भिषक्तमं त्वा भिषजां शृणोमि । ऋ० २.३३.४

२. रुतः रोगान् द्रावयतीति रुद्रो भिषक् ।

३. निघं० २.९

४. पर्द कुत्सिते शब्दे, भ्वादिः। कं सुखं यथा स्यात् तथा पर्दयतिवायुदोष नि:सारयतीति कपर्दी ।।

५. कपर्दो जटाजूटो ऽस्यास्तीति कपर्दी।

६. कपर्दः ‘कौड़ा’ इति ख्यातः समुद्रजकोटाङ्गविशेषः । तद्वान् कपर्दी,चिकित्सायां तदुपयोगकर्ता इत्यर्थः ।।

७. क्षयन्तो निवसन्तो वीरा येन स क्षयद्वीरः, क्षि निवासगत्योः

सब हष्टपुष्ट  नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार 

पारिवारिक यज्ञ सत्सङ्ग -रामनाथ विद्यालंकार

पारिवारिक यज्ञ सत्सङ्ग -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः अप्रतिरथः । देवता अग्निः । छन्द निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

यस्य कुर्मो गृहे हुविस्तमग्ने वर्द्धय त्वम्। तस्मै देवाऽअधि ब्रुवन्न्यं च ब्रह्मणस्पतिः

-यजु० १७।५२

( यस्य गृहे) जिसके घर में ( हविः कुर्मः ) हम अग्निहोत्र की हवि देते हैं, ( तम् ) उसे (अग्ने) हे जगदीश्वर व यज्ञाग्नि! ( त्वं वर्धय ) आप बढ़ाओ, उन्नत करो। ( तस्मै ) उसके लिए ( देवाः अधिब्रुवन्) विद्वान् लोग उपदेश और आशीर्वाद दें, (अयंचब्रह्मणस्पतिः२ ) और यह वेदज्ञ संन्यासी भी [उसे उपदेश व आशीर्वाद दे] ।

हमने पारिवारिक यज्ञ-सत्सङ्ग की योजना बना कर उसे क्रियात्मक रूप दे दिया है। हमारे समाज के एक-सौ सदस्य हैं। प्रत्येक सदस्य के घर पर बारी-बारी से प्रतिदिन पारिवारिक सत्सङ्ग लगता है। सन्ध्या, अग्निहोत्र एवं ईश्वर- भक्ति के मधुर भजनों के उपरान्त किन्हीं विद्वान् का सारगर्भित उपदेश होता है। जिस परिवार में सत्सङ्ग का कार्यक्रम होता है, उसके गृहपति एवं घर के अन्य सदस्यों को अन्य परिवारों का अपने घर पर स्वागत करते हुए अपार हर्ष का अनुभव होता है, वे स्वयं को धन्य मानते हैं। बड़ा ही मधुर वातावरण होता है । पुरुष, माताएँ, बहनें, युवतियाँ जब भावविभोर होकर गाते हैं, ‘यज्ञरूप प्रभो हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए’ तब अपूर्व समा बंध जाता है।

हे अग्नि! हे अग्रणी प्रभु ! हे तेजोमय जगदीश्वर ! हे यज्ञाग्नि! जिस गृहपति के घर में, जिसके परिवार में हम  सत्सङ्ग लगाते हैं, गोघृत एवं सुगन्धित हवन-सामग्री की यज्ञकुण्ड में हवि देते हैं, उसे तुम बढ़ाओ, स्वास्थ्य से बढ़ाओ, सुगन्ध से बढ़ाओ, दीर्घायुष्य से बढ़ाओ, तेजस्विती से बढ़ाओ, बल-वीर्य से बढ़ाओ, इन्द्रिय-सामर्थ्य से बढ़ाओ, मनोबल और आत्मबल से बढ़ाओ, विद्या से बढ़ाओ, सदाचार से बढ़ाओ, आनन्द से बढ़ाओ। केवल गृहपति को ही नहीं, उसके सारे परिवार को बढ़ाओ। प्रत्येक ‘स्वाहा’ की ध्वनि एवं आहुति के साथ ऊँचा उठाओ।

जिसके घर में हम पारिवारिक सत्सङ्ग लगाते हैं, उसे विद्वज्जन उपदेश दें, आशीर्वाद और आशीष दें। अपने आशीषों से उसके जीवन को सत्य, शिव, सुन्दर बना दें। उसके जीवन को अग्नि के समान पवित्र, ऊर्ध्वगामी एवं तेजोमय बना दें। उसके जीवन को अनुकरणीय एवं यशस्वी बना दें। आओ सब मिलकर आशीर्वाद दें ‘‘सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः”, “ओ३म् स्वस्ति, ओ३म् स्वस्ति, ओ३म् स्वस्ति।” सब यज्ञशेष का प्रसाद लेकर विदा हों, प्रभु का प्रसाद लेकर विदा हों, सत्सङ्गी परिवार पर अपना प्रेम बरसा कर विदा हों। ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

पादटिप्पणियाँ

१. वर्द्धया=वर्द्धय। छान्दस दीर्घ ।

२. ब्रह्मणः वेदस्य पति: रक्षक: विद्वान् संन्यासी।

उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार

उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विधृतिः। देवता इन्द्रः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

वाजस्य मा प्रसवऽउद्ग्राभेणोदंग्रभीत् अधा सपत्नानिन्द्रों में निग्राभेणार्ध२ ॥ऽअकः

-यजु० १७।६३

( वाजस्य प्रसवः ) बल, विज्ञान आदि के उद्भव ने ( भा) मुझे (उद्ग्राभेण ) उद्ग्राभ द्वारा, उत्साहवर्धन द्वारा (उदग्रभीत् ) ऊँचा उठा दिया है। (अध) और ( इन्द्रः ) इन्द्र ने ( मे सपत्नान्) मेरे आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को (निग्राभेण ) निरुत्साह एवं धिक्कार के द्वारा ( अधरान् अकः ) नीचा कर दिया है। |

हमारे आत्मा के पास दो हथियार हैं, एक उद्गाभ और दूसरा निग्राभ। उत् तथा नि पूर्वक ग्रहणार्थक ग्रह धातु से क्रमशः उद्गाह तथा निग्राह शब्द बनते हैं। वेद में ग्रह धातु के ह को भरे होकर उग्राभ और निग्राभ हो जाते हैं। उद्ग्राभ का अर्थ है उत्साहवर्धन, निग्राभ उससे उल्टा है अर्थात् निरुत्साहीकरण। उद्ग्राभ में विजयार्थ प्रेरित करना, बढ़ावा देना, साधुवाद देना, उद्बोधन देना, उत्साहित करना, नीचे गिरते को सहारा देकर ऊपर उठाना, आगे बढ़ाना आदि अर्थ समाविष्ट हैं। इसके विपरीत निग्राह में हतोत्साहित करना, धिक्कार देना, अपमानित करना, पराजित करना, नीचे धकेलना, नीचे पटकी देना, धक्का देकर निकालना आदि अर्थ आते हैं।

आज बड़े हर्ष का विषय है कि मेरा आत्मा सजग और कर्मठ होकर अपनी उद्ग्राभ और निग्राभ नामक दोनों शक्तियों का उपयोग करने लगा है। आत्मबल के उद्भव ने अपनी उद्ग्राभ नामक शक्ति से मेरी सात्त्विक वृत्तियों को जगा दिया है, मेरी महत्त्वाकांक्षा को मुखरित कर दिया है, मेरे अहिंसा सत्य अस्तेय-ब्रह्मचर्य अपरिग्रह आदि गुणों को चोटी पर चढ़ा दिया है, मेरी अभय, सत्त्वसंशुद्धि, आर्जव आदि विशेषताओं को बढ़ा दिया है, मेरे धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष नामक पुरुषार्थ चतुष्टय को बल दे दिया है, मुझ गिरते को सहारा देकर ऊपर उठा दिया है। साथ ही मेरे आत्मा ने अपनी निग्राह नामक दूसरी शक्ति का प्रयोग करके काम, क्रोध, लोभ आदि रिपुओं को गलहत्था दे दिया है, अविद्या, अधर्म, अनाचार, वैर, विरोध, कुसंगति, पशुता, अकर्मण्यता आदि को धिक्कृत कर दिया है, मेरी दुर्बलताओं को निहत कर दिया है, मेरी पापवृत्तियों को पराजित कर दिया है।

आज मैं विजयी बनकर, सिर ऊँचा करके खड़ा हुआ हूँ। मैं धरातल से ऊँचा उठकर अन्तरिक्ष में पहुँच गया हूँ, मेरी गणना शिखरारुढ़ लोगों में होने लगी है। सद्गुणों का सागर मेरे अन्दर उमड़ने लगा है। उच्च आकांक्षाएँ हिलोरें लेने लगी हैं। पाशविकता, दुर्मति, अहंकार, दैन्य आदि वृत्तियां पलायन कर गयी हैं। आन्तरिक और बाह्य शत्रु निष्कासित हो गये हैं। हे मेरे आत्मन्! मुझे ऐसा ही बनाये रखो, मुझे सबका शिरोमणि बना दो।

पादटिप्पणियाँ

१. अधा=अध। छान्दस दीर्घ ।

२. ग्रहोर्भश्छन्दसि । पा० ३.१.८४ पर वार्तिक

उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार 

आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार

आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विधृतिः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

प्राचीमनु प्रदिशं प्रेहि विद्वानुग्नेरग्ने पुरोऽअग्निर्भवेह। विश्वाऽआशा दीद्यान विभाह्यूर्जी नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥

-यजु० १७।६६

(अग्ने ) हे अग्रगामी मानव ! (विद्वान्) विद्वान् तू (प्राची प्रदिशम् अनु ) आगे बढ़ने की दिशा में (प्रेहि ) बढ़ता चल। (इह ) इस संसार में (अग्नेः पुरः अग्निः भव ) नायकों केभी आगे जानेवाला नायक बन। ( विश्वाः आशाः ) सब दिशाओं को ( दीद्यानः१ ) प्रकाशित करता हुआ (वि भाहि) विशेषरूप से चमक, यशस्वी हो। (नःद्विपदेचतुष्पदे ) हमारे द्विपाद् और चतुष्पाद् के लिए ( ऊ धेहि ) अन्न और बल प्रदान कर।।

हे मानव! क्या तू जहाँ खड़ा है, वहीं खड़ा रहेगा? देख, जो तुझसे पीछे थे, वे बहुत आगे जा चुके हैं। जो तेरे साथ खड़े थे, उन्होंने मंजिल पार कर ली है। जो भूमि पर खड़े थे, वे अन्तरिक्ष में पहुंच गये हैं। तुझे क्या आगे बढ़ने की और ऊपर उठने की साध नहीं हैं ? क्या दूसरों को आगे दौड़ लगाते देख कर तेरा हृदय उत्साहित नहीं होता? क्या दूसरों को ऊपर उठते देख कर तेरा हृदय तरंगित नहीं होता?

हे नर ! तू विद्वान् बन, शास्त्रों का वैदुष्य प्राप्त कर, अनुभवी लोगों के साथ मिल-जुल कर अनुभव प्राप्त कर। फिर वैदुष्य तथा अपने और दूसरों के अनुभव के आधार पर जो दिशा तुझे सही प्रतीत हो, उस दिशा में कदम बढ़ाता चल, खाई-खन्दकों को लांघता चल, आकाश में उड़ता चल, यजुर्वेद ज्योति आलसियों को पीछे छोड़ता चल, या उन्हें भी उत्साहित करके अपने साथ लेता चल। देख, मार्ग बहुत लम्बा है, मंजिल बहुत दूर है। थकने का नाम मत ले, विश्राम की बात मत कर। चलता चल, उछलता चल, उड़ता चल, लक्ष्य पर पहुँचकर ही दम ले।।

हे वीर! तू नायक बन, नायकों का भी नायक बन। जब तू आगे बढ़ जाएगा, उन्नत हो जाएगा, तब जन-साधारण तुझे स्वयं अपना नायक बनाने में गौरव अनुभव करेंगे। नायक लोग भी तुझे अपना नेता बनायेंगे। नेताओं का नेता बनकर तू अपने राष्ट्र की पताका विश्व के गगन में फहरा। हे जननायक! तू सब दिशाओं का अंधेरा दूर कर, सब दिशाओं को विद्या और धर्म के प्रकाश से प्रकाशित कर। सब दिशाओं के वासियों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की जगमगाहट से जगमग कर। हमारे द्विपात्, चतुष्पात् सबको अन्न दे, जीवन दे, बल दे, प्राण दे। तब तू स्वयं भी प्रकाशित होगा, तेरे यश की दीप्ति सर्वत्र प्रसृत होगी । तेरा अभिनन्दन होगा, तेरा जयगान होगा, तेरी आरती उतरेगी।

पादटिप्पणी

१. दीदयत=ज्वलति । निर्घ० १.१६

आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार 

यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः वामदेवः । देवता यज्ञपुरुषः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

एताऽअर्षन्ति हृद्यात्समुद्राच्छतव्रजा रिपुणा नाचक्षे घृतस्य धाराऽअभिचाकशीमि हिरण्ययों वेतसो मध्यऽआसाम्॥

-यजु० १७।९३

(एताः ) ये वेद की ऋचाएँ ( अर्षन्ति ) निकल रही हैं। ( हृद्यात् समुद्रात् ) हृदयाकाश से (शतव्रजाः ) सैंकड़ों की संख्या में, जो (रिपुणा ) यज्ञ के शत्रु द्वारा ( न अवचक्षे ) रोकने योग्य नहीं हैं। इसके अतिरिक्त (घृतस्थे धाराः) घी को धाराओं को (अभिचाकशीमि) देख रहा हूँ। ( आसां मध्ये ) इनके मध्य में ( हिरण्ययः वेतसः ) अग्निरूप सुनहरा वेतस है।

मैं वेद की ऋचाओं के पाठपूर्वक यज्ञ कर रहा हूँ। वेद की ऋचाएँ सैंकड़ों की संख्या में मेरे हृदयाकाश से निकल रही हैं। मैं इनका पाठ करता हुआ भावविभोर हो रहा हूँ, आनन्दमग्न हो रहा हूँ। ये ऋचाएँ किसी के रोके रुक नहीं सकती हैं। न आन्तरिक शत्रु यज्ञविरोधी तर्क इन्हें रोक सकते हैं, न बाह्य शत्रु यज्ञविरोधी लोग इन्हें रोक सकते हैं। जैसे अन्य अच्छे कार्यों का विरोध कुछ लोगों की ओर से होता है, ऐसे ही समाज में कुछ यज्ञविरोधी लोग भी होते हैं। वे कहते हैं कि जितने घी तथा अन्य पदार्थ अग्नि में भस्म करके नष्ट किये जा रहे हैं, उतने घी तथा अन्य गोला, मिश्री, छुहारे, बादाम, मुनक्का, किशमिश आदि गरीबों में बाँट दिये जाते, तो कितना कल्याण होता। वे यज्ञ के शत्रु पर्यावरणशुद्धि को कोई महत्त्व नहीं देते। यज्ञ से जल-वायु की शुद्धि होकर और  वृष्टि होकर जो मानवकल्याण होता है, जितना द्रव्य हम अग्नि में जलाते हैं, उससे अधिक जनहित हो जाता है, उसकी ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। लोग कितना ही यज्ञ का विरोध करं, मेरी ऋचाओं का पाठ, यज्ञवेदि में अग्नि का प्रज्वलन और हविर्द्रव्यों की आहुतियाँ रुकेंगी नहीं। यज्ञ का जितना विरोध होगा, उतना ही अधिक उसका प्रचलन होगा। ऋचाओं के पाठ के साथ-साथ घृत की धारें भी अग्नि में पड़ रही हैं। प्रत्येक ‘स्वाहा’ के साथ घृताहुतियाँ पड़ती हैं, अन्य हविर्द्रव्य आहुत होते हैं, और प्रत्येक आहुति के साथ मध्य में अग्नि की ज्वालाएँ ऊपर उठती हैं। यह दृश्य कितना मनोमुग्धकारी है। यह हिरण्यय वेतस की प्रभा, यह सुनहरी अग्निज्वाला हमें भी निमन्त्रण दे रही है कि तुम भी अग्नि बनकर ऊध्र्वारोहण करो, बाह्य अग्निज्वाला के साथ अपने अन्दर की अग्निज्वाला भी जलाओ और ऊध्र्वारोहण करते हुए पृथिवी से अन्तरिक्ष में, अन्तरिक्ष से द्युलोक में और द्युलोक से स्वर्लोक में पहुँच जाओ। ये लोक उन्नति के स्तरों के सूचक हैं। भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम् ये सात लोक उन्नति के सात सोपान हैं। एक से दूसरे स्तर में, दूसरे से तीसरे स्तर में, इसी प्रकार उपरले-उपरले स्तर में जाते हुए हम भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति करते रहें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. अर्षन्ति, ऋषी गतौ। (अर्षन्ति) गच्छन्ति निस्सरन्ति-द० ।

२. समुद्र=अन्तरिक्ष, निघं० १.३

३. अव-चक्ष-एश् प्रत्यय। ‘अवचक्षे च’ पा० ३.४.१५

४. भिचाकशीमि=पश्यामि ।

यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार  

यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार 

षयः देवा: । देवता धान्यदः आत्मा। छन्दः भुरिग् अतिशक्चरी।

व्रीहर्यश्च मे यवाश्च मे माषाश्च मे तिलाश्च मे मुद्गाश्च मे खल्वाश्च मे प्रियङ्गवश्च मेऽणवश्च मे श्यामाकाश्च मे नीवाराश्च मे गोधूमश्च मे सूराश्च मे युज्ञेन कल्पन्ताम्॥

-यजु० १८ । १२ |

( व्रीहयः च मे ) मेरे धान, ( यवः च मे ) और मेरे जो, ( माषाः च मे ) और मेरे उड़द, (तिलाः च मे ) और मेरे तिल, ( मुगाः च मे ) और मेरे मुँग, ( खल्वाः च मे ) और मेरे चने, ( प्रियङ्गवः च मे ) और मेरे अँगुनी चावल, ( अणवः च मे ) और मेरे किनकी चावल, ( श्यामाकाः च मे ) और मेरे साँवक चावल, (नीवाराः च मे ) और मेरे पसाई के चावल, जो बिना बोये उत्पन्न होते हैं, ( गोधूमाः च मे ) और मेरे गेहूँ (मसूराः च मे ) और मेरे मसूर ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञ से प्रचुर तथा पुष्ट होवें।

मैं चाहता हूँ कि मेरे देश में धान, जौ, उड़द, तिल, मूंग, चने, कँगुनी चावल, किनकी चावल, सांवक चावल, जङ्गली धान, गेहूँ और मसूर इन धान्यों की खेती प्रचुरता के साथ हो। इन धान्यों में कुल मिलाकर खाद्योपयोगी सब तत्त्व आ जाते हैं। इनके लिए हमें दूसरे देशों पर निर्भर न रहना पड़े। ये सब अन्न यज्ञ द्वारा बहुत मात्रा में और पोषक गुणवाले होकर उपजें । यज्ञ से यहाँ एक तो कृषियज्ञ अभिप्रेत है और दूसरा अग्निहोत्र । कृषियज्ञ में उपजाऊ भूमि, अच्छी जुताई, अच्छा । खाद, अच्छा बीज, उसे उपयुक्त समय पर बोना, समय पर सिंचाई, समय पर फसल काटना, भूसी अलग करना, खलिहानों में भरना, बिक्री करना आदि सब बातें अभिप्रेत हैं। किसी भी बात में लापरवाही होने पर उपज पर प्रभाव पड़ सकता है। खाद रासायनिक खादों की अपेक्षा गोमूत्र और गाय के गोबर का अच्छा रहता है। ये कृषियज्ञसम्बन्धी सावधानियाँ हैं। अग्निहोत्र का प्रयोग इस रूप में किया जा सकता है कि गोघृत तथा धान, जौ, तिल और गूगल की सामग्री से एवं आम और पीपल दोनों की समिधाओं से यज्ञ करके उसकी राख खेतों में बखेरी जाए।

‘यज्ञेन कल्पन्ताम्’ का एक अर्थ यह भी है कि ये सब अन्न भोग-यज्ञ द्वारा आरोग्य प्रदान करने में समर्थ हों। यज्ञ शब्द देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान अर्थवाली यज धातु से बनता है। जिस क्रिया में ये तीनों तत्त्व सन्तुलनपूर्वक विद्यमान हैं, वह ‘यज्ञ’ है। अन्न के भोग में प्रथम तो दाता परमेश्वर की पूजा है, फिर अपने उदर के साथ अन्न का सङ्गतिकरण है, फिर अन्न का भक्षण अकेले नहीं, दानपूर्वक होता है, क्योंकि स्वयं खाने के अतिरिक्त अतिथियज्ञ और बलिवैश्वदेवयज्ञ भी करना होता है। भोजन में अन्नों के चयन में सन्तुलन भी होना चाहिए कि उसमें स्टार्च, प्रोटीन, वसा, चीनी, तन्तु आदि सब ठीक अनुपात में रहें। इस प्रकार भोग करेंगे तो उससे हमारा मन, मस्तिष्क और शरीर स्वस्थ होंगे और परोपकार भी होगा।

आओ, यज्ञ द्वारा ही हम इन तथा अन्य उपयोगी अन्नों को प्रचुर मात्रा में उत्पन्न करें और यज्ञ द्वारा ही इनका भोग करें।

पादटिप्पणी

१. कल्पन्ताम्-क्लुपु सामर्थ्य, लोट् लकार।

यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार 

स्वर्ग जहाँ मधु और घृत की धारा बहती हैं-रामनाथ विद्यालंकार

स्वर्ग जहाँ मधु और घृत की धारा बहती हैं-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः विश्वकर्मा। देवता यज्ञः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

यत्र धाराऽअनपेता मधोघृतस्य च याः। तदग्निर्वैश्वकर्मणः स्वर्देवेषु नो दधत् ॥

 -यजु० १८ । ६५

( यत्र) जहाँ ( मधोः ) मधु की (घृतस्य च ) और घृत की (धाराः) धाराएँ ( अनपेताः ) उपस्थित रहती हैं ( तत् स्वः ) वह स्वर्ग अर्थात् सुखी जीवन ( वैश्वकर्मणः१ अग्निः ) विश्वकर्मा परमेश्वर द्वारा रचित यज्ञाग्नि ( देवेषु ) विद्वानों केमध्य में (नः दधत् ) हमें प्राप्त कराये।

क्या तुम पूछते हो कि यज्ञाग्नि प्रज्वलित करके उसमें घृत, हवन-सामग्री, पक्वान्न, मेवा आदि की आहुति डालने से क्या फल सिद्ध होता है ? श्रुति कहती है कि इस अग्निहोत्र से स्वर्ग प्राप्त होता है। वह स्वर्ग कहीं आकाश में नहीं है, यहाँ पृथिवी पर ही है। हम यज्ञकुण्ड में मन्त्रोच्चारणपूर्वक अग्न्याधान और अग्निप्रदीपन करते हैं, समिदाधान, पञ्च घृताहुतियाँ, जलसेचन, आघार आज्याहुतियाँ, आज्याभागाहुतियाँ, प्रधान होम की आहुतियाँ देकर पूर्णाहुति करते हैं। यह तो दैनिक अग्निहोत्र का विधि-विधान है। अन्य कोई यज्ञ करते हैं, तो उसके लिए निर्धारित विधियाँ करनी होती हैं। सभी यज्ञों में यज्ञ-समिधा पलाश, शमी, पीपल, बड़, गूलर, आम, विल्व आदि की ही प्रयोग में लाते हैं। घृत के अतिरिक्त हवन-सामग्री में चार प्रकार के होम-द्रव्यों का मिश्रण होता है-”प्रथम सुगन्धृित कस्तूरी, केशर, अगर, तगर, श्वेत चन्दन,  इलायची, जायफल, जावित्री आदि। द्वितीय पुष्टिकारक घृत, दूध, फल, कन्द, अन्न, चावल, गेहूँ, उड़द आदि। तीसरे मिष्ट शक्कर, सहत, छुवारे, दाख आदि। चौथे रोगनाशक सोमलता अर्थात् गिलोय आदि ओषधियाँ।”

इन यज्ञों से पर्यावरण शुद्ध होता है, वायु जल आदि सुगन्धित होते हैं, रोग नष्ट होते हैं, शुद्ध जल की वृष्टि होती है। ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना होती है। सबके मिलकर बैठने से सङ्गठन सुदृढ़ होता है। दान की भावना जागृत होती है। प्रस्तुत मन्त्र में कहा गया है कि विश्वकर्मा परमेश्वर द्वारा रचित यज्ञाग्नि में होम करने से हमें वह स्वर्ग प्राप्त होता है, जिसमें मधु और घृत की धाराएँ बहती हैं। सुखी जीवन ही स्वर्ग है। यज्ञ करने से इस जन्म में भी ‘स्वर्ग’ अर्थात् सुखी जीवन प्राप्त होता है और इहलोकप्रयाण के बाद भी मनुष्य जन्म मिलता है और उसमें मधु, घृत आदि की सम्पदा से युक्त सुखी जीवन होता है।

आओ, हम भी यज्ञ करके मधु और घृत की धाराओंवाला स्वर्ग प्राप्त करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विश्वकर्मणः परमेश्वराज्जातः वैश्वकर्मणः ।

२. डुधाञ् धारणपोषणयोः, लेट् लकार ।

स्वर्ग जहाँ मधु और घृत की धारा बहती हैं-रामनाथ विद्यालंकार  

सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार

सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः प्रजापतिः । देवता सोमः । छन्दः निवृत् शक्वरी ।

स्वाद्वीं त्वा स्वादुना तीव्रां तीव्रणामृतममृतेन मधुमतीं मधुमता सृजामि सश्सोमेन सोमोऽस्यश्विभ्यो पच्यस्व सरस्वत्यै पच्यूस्वेन्द्रय सुत्राणे पच्यस्व ॥

-यजु० १९ । १

हे सुरा! ( स्वाद्वीं) स्वादु, ( तीव्रां ) तीव्र, ( अमृतां ) अमृततुल्य ( मधुमतीं) मधुर ( त्वा ) तुझे ( स्वादुना ) स्वादु, | ( तीव्रण ) तीव्र (अमृतेन ) अमृततुल्य ( मधुमता) मधुर (सोमेन) सोम के साथ ( संसृजामि) संयुक्त करता हूँ, मिलाता हूँ। सोम के साथ मिलकर हे सुरा! ( सोमः असि ) तू सोम हो गयी है। (अश्विभ्यां पच्यस्व) प्राण और अपान के लिए तू परिपक्व हो। ( सरस्वत्यै पच्यस्व) विद्या के लिए परिपक्व हो, (सुत्राणे इन्द्राय पच्यस्व) सुत्राणकर्ता विश्वसम्राट् तथा राष्ट्रसम्राट् के लिए परिपक्व हो । |

आओ, सुरा को सोम के साथ मिलायें। किन्तु सुरा को मदिरा समझने की भूल मत कर बैठना। स्वादी, तीव्रा, अमृता, मधुमती सुरा को स्वादु, तीव्र, अमृत, मधुपान् सोम के साथ मिलायें। ‘सुरा’ है वाक् और ‘सोम’ है मन। शब्दार्थक ‘स्वृ’ धातु से ‘स्वरा’ और व् को उ करके वाणीवाची ‘सुरा’ शब्द बना है। सोम का अर्थ मन प्रसिद्ध ही है, क्योंकि ईश्वरीय मन से ही सोम (चन्द्रमा) की उत्पत्ति हुई है। वाणी स्वादु भी हो सकती है और बेस्वाद भी, तीव्र भी हो सकती है और हल्की भी, अमृतरूप भी हो सकती है और मृत भी, मधुर भी हो सकती है और कटु भी। इसी प्रकार मन भी स्वादु, तीव्र, अमृत और मधुमय भी हो सकता है और बेस्वाद, हल्का, मृत और कटु भी। वाणी को मन में मिलाने का तात्पर्य है मौन हो जाना। जब मनुष्य बोलता है, तब मन वाणी में समाहित हो जाता है और जब मौन होता है, तब वाणी मन में समाविष्ट हो जाती है। मन पहले ही स्वादु, तीव्र, अमृत और मधुर है, वाणी का स्वादुत्व, तीव्रत्व अमृतत्व और मधुरत्व भी उसमें मिलकर मन को और भी अधिक स्वादु, तीव्र, अमृत और मधुर बना देता है। वाणी भी सोम में मिलकर सोम हो जाती है, अर्थात मन में मिलकर मन हो जाती है। मन स्वादता के साथ विचार करता है, तीव्रता के साथ करता है, अमृत अर्थात् सजीवता के साथ करता है, मधुरता के साथ करता है। परन्तु मनुष्य रहता मौन ही है। जितना ही मन किसी विषय में विचार करेगा, उतने ही उस विषय में उसके विचार परिपक्व होंगे। प्राणापान अर्थात् योगाभ्यास के विषय में विचार परिपक्व होते हैं, सरस्वती अर्थात् विद्या के विषय में विचार परिपक्व होते हैं, सुत्रामा इन्द्र अर्थात् सुत्राणकर्ता विश्वसम्राट् तथा राष्ट्रसम्राट् के विषय में विचार परिपक्व होते हैं। इस प्रकार योगाभ्यास, विभिन्न विद्याओं तथा ईश्वरविज्ञान एवं राजनीति विज्ञान के विषय में मन पूर्ण चिन्तन कर लेता है। तब मन में समाविष्ट वाणी मन से बाहर आ जाती है और मन द्वारा चिन्तित ज्ञान-विज्ञान का प्रचार करती है। यह है सुरा को सोम में मिलाने का रहस्य ।।

आओ, हम भी सुरा को सोम में मिलायें, वाणी को मन में संनिहित करके, मौन होकर गम्भीर चिन्तन करें और परिपक्व विचार बनाकर मौन तोड़े तथा वाणी को पुनः प्रवृत्त करके परिपक्व विचारों का प्रचार करें।

पादटिप्पणी

१. चन्द्रमा मनसो जातः । य० ३१.१२

सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार  

सम्राट कैसा और किस लिए नियुक्त -रामनाथ विद्यालंकार

सम्राट कैसा और किस लिए नियुक्त -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः आभूतिः । देवता सोमः । छन्दः निवृद् आर्षी पङ्गिः।

उपयामगृहीतोऽस्याश्विनं तेजः सारस्वतं वीर्यमैन्द्रं बलम्।। एष ते योनिर्मोदय त्वानन्दाय त्वा महसे त्वा ॥

 -यजु० १९५८

हे सम्राट् ! तू ( उपयामगृहीतः असि) यम-नियमों से गृहीत है, जकड़ा हुआ है। तेरे अन्दर ( आश्विनं तेजः ) प्राण अपान एवं सूर्य-चन्द्र का तेज है, ( सारस्वतं वीर्यम् ) सारस्वत वीर्य है, (ऐन्द्रं बलम् ) विद्युत् का बल है। (एष ते योनिः ) यह राष्ट्र तेरा घर है, आश्रम है, कार्य-स्थल है। ( मोदाय त्वा) मैं तुझे प्रजा के मोद के लिए नियुक्त करता हूँ, (आनन्दाय त्वा ) आनन्द के लिए नियुक्त करता हूँ, (महसे त्वा ) महत्त्व के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ।

हे सम्राट् ! क्या आपको मालूम है कि हमने आपके अन्दर किन गुणों को देखा है और किसलिए आपको इस पद पर प्रतिष्ठित किया है? आप उपयामों’ से बंधे-जकड़े हुए हैं। अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह ये पाँच यम और शौच-सन्तोष-तप-स्वाध्याय-ईश्वरप्रणिधान ये पाँच नियम आपको ऊँचा उठाये हुए हैं। इनके पालन करने के कारण सब प्रजाजन प्रसन्नता और विश्वास के साथ आपको अपना नेता स्वीकार करने में गौरव अनुभव करते हैं। आपके अन्दर ‘अश्वियुगल’ का तेज विद्यमान है। ‘अश्विनौ’ के अनेक अर्थों में निरुक्तकार ने सूर्य-चन्द्रमा अर्थ भी बताये हैं। आपके अन्दर सूर्य और चन्द्र दोनों का तेज विद्यमान है। जीवन में  दोनों तेजों की आवश्यकता है। सब प्राणी और वनस्पति सूर्य और चन्द्रमा दोनों के तेजों से प्राण ग्रहण करते हैं। सूर्य का तेज उष्ण प्राण और चन्द्रमा का तेज सौम्य प्राण प्रदान करता है। यदि केवल उष्ण प्राण ही प्राप्त हो, तो यह जड़-चेतन जगत् भस्म हो जाए। इसी प्रकार यदि केवल सौम्य प्राण ही प्राप्त हो, तो यह जड़-जङ्गम जगत् सर्दी से ठिठुर कर गल जाए। दोनों तेजों से सप्राण मनुष्य सच्चे अर्थों में तेज से जगमगाता है और अपने सम्पर्क में आनेवालों को तेज से सप्राण करता है। आश्विन तेज’ से भासमान होने के कारण। ही आप सबका नेतृत्व करने में समर्थ हैं। आपके अन्दर ‘सारस्वत वीर्य’ भी है। सरस्वती का वरदान आपको प्राप्त है, वेदवाणी की शिक्षाएँ आपके आत्मा में ओतप्रोत हैं, विद्या का भण्डार आपके पास विद्यमान है, ज्ञान-विज्ञान की बहुमुखी धाराओं में आप निष्णात हैं। इस कारण भी हम आपको अपना नेता बनाना चाहते हैं। फिर आपके अन्दर ‘इन्द्र का बल’ भी है, विद्युत्-जैसी चामत्कारिक शक्ति हैं, जो असंख्यों को अपने पीछे चला सकती है। इस कारण भी हम नेतृत्व का वागडोर आपके हाथों में सौंपने के लिए उत्सुक हो रहे हैं। |

राष्ट्र का यह राजमहल आपके लिए है। आवश्यकता पड़ने पर राजमहल छोड़कर आपको सड़कों पर भी आना पड़ सकता है। आपको हम राजमुकुट पहना रहे हैं। किस लिए? प्रजा को मोद प्रदान करने के लिए, कष्टों से उबार कर उन्नति के शिखर पर चढ़ा कर प्रफुल्ल करने के लिए, प्रजा को पूजास्पद बनाने के लिए, महिमान्वित करने के लिए, तेजस्विता प्रदान करने के लिए। आप आइये और अपना पदभार ग्रहण कीजिए।

सम्राट कैसा और किस लिए नियुक्त -रामनाथ विद्यालंकार 

दीक्षा का फल-रामनाथ विद्यालंकार

दीक्षा का फल-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषि: हैमवर्चिः । देवता यज्ञ: । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया त्यमप्यते ॥

-यजु० १९ । ३०

( व्रतेन ) सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थाश्रमप्रवेश आदि का व्रत लेकर (दीक्षाम्आप्नोति ) दीक्षा प्राप्त करता है। ( दीक्षया ) दीक्षा लेकर ( आप्नोति ) प्राप्त करता है। ( दक्षिणाम् ) दक्षिणा को अर्थात् दीक्षा के फल को। ( दक्षिणा ) दक्षिणा से अर्थात् दीक्षा के फल से ( श्रद्धाम्आप्नोति ) श्रद्धा को प्राप्त करता है, अर्थात् उसे दीक्षा आदि सत्कर्मों में श्रद्धा हो जाती है। ( श्रद्धया) श्रद्धा से ( सत्यम् ) सत्य (आप्यते) प्राप्त होता है।

मनुष्य जब कोई व्रत लेता है, तब पुरोहित या गुरु से उसकी दीक्षा लेता है । दीक्षा-यज्ञ में वह सत्पुरुषों तथा माताओं को भी निमन्त्रित करता है, जिससे वे भी जानें कि उसने यह व्रत लिया है और यदि वह व्रत से डिगने लगे, तो उसे सचेत कर दें। बहुतों के सामने व्रत की दीक्षा लेने में उसे व्रतपालन में सहायता मिलती है। दीक्षा लेने से दीक्षा ग्रहण करनेवाले को दक्षिणा प्राप्त होती है, अर्थात् व्रतग्रहण का फल या लाभ मिलने लगता है। जैसे किसी ने ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण किया, ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली, तो कुछ समय ब्रह्मचर्य के पालन से उसे उसका लाभ प्राप्त होने लगा। उसके चेहरे पर कान्ति आ गयी, शरीर में बल आ गया, मन शिवसङ्कल्पयुक्त हो गया, आत्मबल भी प्राप्त हुआ। यह उसे दीक्षा की दक्षिणा मिली, अर्थात् दीक्षा का फल प्राप्त हुआ। दक्षिणा से श्रद्धा प्राप्त होती है, अर्थात् यह विश्वास जम जाता है कि यह कार्य बहुत अच्छा है। यथा ब्रह्मचर्यपालन से दक्षिणी (लाभ-प्राप्ति) मिली, तो ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्धा जमी कि यह कार्य करना चाहिए। श्रद्धा से वह सत्य हृदयङ्गम हो जाता है। यथा ब्रह्मचर्य में श्रद्धा हुई, तो ब्रह्मचर्यरूप सत्य हृदय में घर कर गया। अब व्रतग्रहणकर्ता कभी ब्रह्मचर्य से विचलित नहीं होगा।

मन्त्रोक्त क्रम प्रत्येक व्रतग्रहण पर घटित हो सकता है। कोई प्रतिदिन प्राणायाम और योगासन करने का व्रत लेता है, इस व्रत की दीक्षा लेता है। प्रतिदिन व्रत पालन करने से उसे दक्षिणी प्राप्त होती है, अर्थात् इसका लाभ प्रतीत होने लगता है। लाभ प्रतीत होने से प्राणायाम और योगासन में श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा से प्राणायाम और योगासन रूप सत्य आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है। तब वह अन्यों को भी इसका लाभ बताने लगता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि में यह मन्त्र वानप्रस्थ आश्रम की दीक्षा के प्रमाणरूप में दिया है। उनके अनुसार जब मनष्य ब्रह्मचर्यादि तथा सत्यभाषणादि व्रत अर्थात् नियम धारण करता है, तब उस व्रत से दीक्षा को प्राप्त होता है। दीक्षा से दक्षिणा को अर्थात् सत्कारपूर्वक धनादि को प्राप्त होता है। उस सत्कार से श्रद्धा को अर्थात् सत्यधारण में प्रीति को प्राप्त होता है और श्रद्धा से सत्य विज्ञान या सत्य पदार्थ मनुष्य को प्राप्त होता है। इसलिए श्रद्धापूर्वक ब्रह्मचर्य और गृहाश्रम का अनुष्ठान करके वानप्रस्थ आश्रम अवश्य करना चाहिए।” वैसे प्रत्येक व्रतग्रहण या दीक्षा के लिए यह मन्त्र लागू होता है।

पाद-टिप्पणी

१. दक्षिणा=दक्षिणया। दक्षिणा–आ, पूर्वसवर्णदीर्घ ।

दीक्षा का फल-रामनाथ विद्यालंकार