वेदों में मूर्तमान संसार को बनाने में जो कर्म लगे उनको कभी सूचीकृत करके दस प्रशस्य नाम भेदों में वर्गीकृत किया गया है। यह कर्म प्रसार (प्रैशर) देने वाले कर्मों के रूप में है। अस्त्रेमा। अनैमा। अनेद्यः। अनेभि-शस्त्यः। उक्थ्य। सुनीथः। पाकः। वामः। वयुनम। यहाँ पर हम वाम नामक प्रसारित करने वाले कर्म का विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।
इन्दवा वामुशान्ति हि (ऋ. १।२।४) मधुछन्दा ऋषि, इन्द्र वायु देवता, गायत्री छनद, इस कर्म को महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपनी चतुर्वेद विषय सूची में मित्र लक्षण में कार्य करने वाला कर्म बतलाया है और विद्युत एवं वायु की मित्रता द्वारा उशान्ति रूपी कान्ति कर्मों को प्रसारित करने वाला वाम कर्म सिद्धान्त दिया है। हमारे वैदिक ग्रन्थों में इस स्थल का बहुत अधिक तरह-तरह से वर्णन किया गया है। तैत्तरीय संहिता १।४।४।१, शतपथ ब्राह्मण ४।१।३।१९, एतरेय ब्राह्मण २।४।२, ३।१।१, आदि में भी बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में शुक्ल नामक अन्न और अश्वनी उशमसि नामक क्रान्ति कर्म के १०९ भेदों में से एक भेद के साथ इसका प्रयोग दर्शाया गया है।
ऋ. १।१७।३ में काण्डवो मेधातिथि ऋषि इन्दिरा वरूणो विज्ञान में गायत्री छनद भेद द्वारा विद्युत अग्नि और जल के मित्र लक्षणों में ‘‘ईम’’ नामक ज्वलनशील द्रव्य पदार्थ को वाम नामक प्रशस्य कर्म के द्वारा राये नामक धन को प्राप्त करने सिद्धान्त दिये गये हैं। इसी सूक्त के ७ से ९ वाले तीन मंत्रों में भी तरह-तरह से प्रयोग करने के सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है।
ऋ. १।२२।३।४ में विमान विद्या के साथ शून्यता वृत्ति नामक ऊषा किरणों के रूप में वाम नामक प्रशस्य कर्मों के द्वारा आकाश में गमन आदि और हिरण्य-पाणिन नामक सुवर्ण आदि रत्न आदि को प्राप्त कराने में प्रयोग दर्शाया गया हैं। ऋ. १।३०।१८ में शुनशेप ऋषि के अश्विनो विज्ञान में समुद्र और अन्तरिक्ष में दस्त्रा अश्विनी द्वारा ऐसे अश्वों को खींचने में वाम कर्म सिद्धान्तों को दिया है जिसमें मनुष्य आदि प्राणी न लगे हों। इस प्रकरण को एतरेय ब्राह्मण ७।३।४ में भी दिया गया है। ऋ. १।३४।१, ५, १२ हिरण्य स्तूप ऋषि आगिरस सिद्धान्त के अश्विनों विज्ञान के युवम भेद द्वारा तीन बार (गेज प्रणाली) मे वाम कर्म का शिल्प क्रियाओं के साथ प्रयोग सिद्धान्त दिया गया है। इस सूक्त में विमान विद्या की शिल्प क्रियाओं के साथ प्रयोग सिद्धान्त दिया गया है। इस सूक्त में विमान विद्या की शिल्प क्रियाओं के लिए १२ मंत्रों में बहुत ही विस्तृत वर्णन किया गया है। इन विमान आदि को बनाने में कौन-कौन सी धातु लगेंगी इन सब के साथ तरह-तरह के ईंधन वलों और उनके साथ प्रयोग होने वाले अन्य वल लक्षणों का वर्णन करते हुए अन्तरिक्ष यानों के द्वारा ११ दिन में भूगोल पृथ्वी के अन्त को पहुंचाने वाले विमानों का भी वर्णन किया गया है। इस प्रकरण को आजकल के अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों के साथ आधुनिक विज्ञान से समन्वय करके आगे का ज्ञान बड़ी अति सहजता पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। ऋ. १।४६।१, ३, ५, ८, में प्रकण्व ऋषि सिद्धान्तों में दिव और उषा नामक प्रकाश और किरणों को मित्र गुणों द्वारा वाम कर्म द्वारा प्रयोग करने का विमान आदि सवारियों में प्रयोग करने के सिद्धान्त दिये गये हैं। इसी प्रकरण से सम्बन्धित ऊषा और प्रकाश को विमान विज्ञान में प्रयोग करने में वाम नामक प्रसारित करने वाले कर्मों के सिद्धान्त ४७ वें सूक्त में भी दिये गये हुए हैं। इन स्थलों को भिन्न-भिन्न वेद भाष्यकारों के भाष्यों से एवं चतुर्वेद व्याकरण पदसूचियों के माध्यम से प्राप्त करके संसार के विमान के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ाया जा सकता है। ऋ. १।९३।२, ३, ४ में रहुगणपुत्रों गौतम ऋषि के अग्नि सोम सिद्धान्तों में भूरिक उष्णिक, विराट, अनुष्टुप और स्वराट पंक्ति छनद भेद द्वारा अग्नि और सोम के मित्र लक्षणों में वाम नामक प्रेशर देने वाले कर्म सिद्धान्तों को वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में भी विमान विद्या आदि में अग्नि के सोम से मित्र लक्षणों को विमान विद्या के साथ दर्शाया गया है। ऋ. १।१०८।१, ५, ६ में भी आगिरसकुत्स ऋषि के इन्द्राग्नि विज्ञान में त्रिष्टुप पंक्ति और विराट त्रिष्टुप छनद भेद द्वारा विमान विद्या में तरह-तरह के सिद्धान्तों का शिला सिद्धान्तों का शिल्प क्रियाओं के साथ वाम प्रशस्य कर्म के सिद्धान्त दिये हुए हैं। १०९ वाले सूक्त में भी इस विद्या का और अधिक विस्तार किया गया है। वहां पर अग्नि और विद्युत् के मित्र लक्षण द्वारा यवत अश्विनियों के साथ सूर्य और पवन का संयोग वाम नामक प्रशस्य कर्म में लगाने का सिद्धान्त दिया गया है।
ऋ. १।११९।९ में कक्षीवान ऋषि के अश्विनी विज्ञान सिद्धान्त में यम वायु और श्वेत प्रकाश के साथ वाम नामक प्रशस्य कर्म को विमान विज्ञान की शिल्प क्रियाओं के प्रयोग करने का सिद्धान्त दिया गया है। इसी सूक्त में ११ से १३ वाले मंत्रों में नश, नासत्या और पुम भुजा नामक अश्विनी के साथ वाम प्रशस्य कर्म का प्रयोग दर्शाया गया है। २१-२८वें मंत्र में भी इसको विमान विद्या के साथ दर्शाया गया है। इससे अगले सूक्त में छंद भेद से ५, २, ४, ९, १०, १५, १८, २२, २३, २५ (२। ३९।८) में भी वाम नामक प्रशस्य कर्म की विद्याओं का भिन्न-भिन्न प्रयोग सिद्धान्त दर्शाया गया है। ऋ. १।११८।१ (२।५८।३) ४, ५। १०। ११ में कक्षीवान ऋषि के अश्विनौ विज्ञान में (श्येनपत्या) बाज के समान उड़ने वाला, पवन के समान वेगवाला, मन के समान गति वाला रथ या यान ऊपर से नीचे उतरने का वाम सिद्धान्त दिया है। भिन्न-भिन्न मंत्रों में त्रिष्टुप छन्दों के माध्यम से जलयानों की गति वायुयानों का ऊपर-नीचे आने जाने का सिद्धान्त दिया है। जैसे ऊषा धीरे-धीरे प्रकाशित होती है उसी प्रकार क्रम से गति को बढ़ाया घटाया जाने को दर्शाया है। इन मंत्रों में जवसा गति का सिद्धान्त महत्व रखता है।
ऋ. १।११९।१; २; ४;५; ७; ९ में दीर्घतमसः कक्षीवान ऋषि के अश्विनौ विज्ञान में जगती तथा त्रिष्टुप छन्दों द्वारा विमान विद्या की भिन्न-भिन्न कार्य प्रणलियों को प्रकाश्ति किया गया है। प्रथम मंत्र में (जीराश्वम्) गति वाले अश्व (इंजन) का वर्णन है। अश्विनौ विद्या में प्रशस्य कर्म से एक ऐसे विशाल यान को दर्शाया गया है जिसमें सैकड़ों भंडारण हों, हजारों पताकाएँ लगी हों। यह जलयान का वर्णन है। (ऊध्र्वाधीतिः) समुद्र लहरों पर ऊपर-नीचे करने का सिद्धान्त है। यहाँ (धर्मं) और (ऊर्जानी) पदों से सौर ऊर्जा सिद्धान्त दिया गया है जिससे प्रकाश के लिए यानों में दूसरा प्रयोग हो सके।
ऋ. १।१२०।१; ३; ५; में उशिक पुत्रः कक्षीवान ऋषि तथा अश्विनौ देवता हैं। छनद गायत्री व उष्णिक छन्दों द्वारा प्रशस्य कर्म सिद्धान्त दिए हैं। यानादि में प्रकाश की आवश्यकता होती है। यहाँ इन मंत्रों में प्रकाश विद्या का वर्णन है। (जोषे) कान्ति या प्रकाश के लिए विद्या-विज्ञान का विधान करने को कहा है। ऋ. १।१२२।७; ९; १५ मंत्रों के कक्षीवान ऋषि विश्वेदेवा हैं। इन मंत्रों में त्रिष्टुप, पंक्ति छन्दों द्वारा प्रशस्य कर्म का सिद्धान्त दिया है एवं मित्र-वरूण क्रिया (उठाने गिराने की क्रिया) से चलने वाले यन्त्र विशेषों का सिद्धान्त है। चार के स्थान पर तीन व्यवधानों को नष्ट करना चाहिए अर्थात् क्रम से ही यन्त्रों की कमी दूर करनी चाहिए। ऋ. १।१३५।४, ५; ६; मन्त्रों के परूच्छेय ऋषि दृष्टा, वायुदेवता व अष्टि छनद हैं। प्रशस्य कर्म के लिए इन्द्र + वायु के प्रयोग से वाम क्रिया का दिग्दर्शन कराया है। विद्युत् वायु के योग से अनेक शिल्प क्रियाऐं हुआ करती है। अतः विमान विद्या में इनके प्रयोग का सिद्धान्त दिया है।
ऋ. १।१३७। १-३ मंत्रों के परूच्छेप ऋषि, मित्रावरूणौ देवते, शक्चरी छनद हैं। मित्र + वरूण विज्ञान से वाम् क्रिया द्वारा यन्त्रों की क्रियाशीलता प्रकट हो रही है। (इन्दवः) द्रव का बूंद-बूंद होकर टपकने से यंत्र में गति प्रदान होती है यह गति ही समस्त जगत के कार्यों का सम्पादन करती है। ‘अद्रिभि’ क्रिया से यन्त्रों में स्निग्ध अर्थात् चिकनाई पहुँचाने की विधि या सिद्धान्त दिया गया है। आगे सूक्त १३९ के मंत्र ३, ४, ५ के परूच्छेप ऋषि, अश्विनौ देवता। अष्टी, व जगती छनद हैं। ‘‘स्वर्ण-यान’’ भारत के प्राचीन वैभव को उजागर कर रहे हैं। अश्विनौ विज्ञान-विमान विद्या की अंगभूत इकाई है जो विमानों की गति को नियंत्रण में रखती है। (पवयः) पहियों को घूमने की दिशा व दशा को प्रदान करने की क्रिया विशेष जिससे यान दिशा परिवर्तन व गति परिवर्तन कर सकें। (दिविष्टषु) आकश मार्ग में ही अग्नि आदि पदार्थों को प्रयुक्त करके नीचे न गिरने वाले सिद्धान्त को दर्शाया गया है। अर्थात् ऊपर की ही ओर उड़ान भरने का सिद्धान्त जैसे (राकेट) ऊर्ध्वयान। इन यानों के विषय में पांचवें मंत्र में कहा कि ये यान दिन रात चलते रहें तो भी ये नष्ट नहीं हो सकते। ये रहस्यमयी वेदविज्ञान-विद्याएं मंत्रों में छिपी पड़ी हैं। इन्हें उजागर कर हम आर्यावर्त्त के प्राचीन गौरव को पुनः प्रतिष्ठित करें, भगवान से यही प्रार्थना है।
ऋ. १।१५१।२; ३; ६-९; मंत्रों के दीर्घतमा ऋषि, मित्रा वरूणौ देवता तथा जगती छनद भेद हैं। शिल्प क्रियाओं में प्रशस्य कर्म भेद से वाम क्रिया द्वारा ऋषि ने विज्ञान के सिद्धान्त निरूपित किए हैं। यहाँ पृथ्वीस्थ कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिए मिस्त्रावरूणौ विज्ञान का समावेश है। ऋ. ६।१५२।३; ७ (३।६२।१६) प्रथम मंडल के सूक्त १५२ में दीर्घतमा ऋषि, मित्रावरूणौ देवते तथा त्रिष्टुप छनद भेद है। इन मंत्रों में वेद-विद्या के विभाग करने को कहा है जिससे विद्याओं को वर्गीकरण होकर उन-उन पर अलग-अलग क्रियाएँ की जा सकेंगे। अगले सूक्त के मंत्र १-४ तक मित्रा वरूणौ विज्ञान है। ऋषि दीर्घतमा, देवता मित्रावरूणौ छनद त्रिष्टुप, पंक्ति छन्द भेद हैं। १।१५४।२ के दीर्घतमा ऋषि, विष्णु देवता निचृत जगती छन्द हैं। मंत्र में इन्द्र विष्णु विद्या दी गई है। विद्युत् किसी कार्य-क्रिया को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाती है। ऋ. १।१५७।६ दीर्घतमा ऋषि, अश्विनौ देवते, विराट् त्रिष्टुप छन्द विमानों में चिकित्सा आदि का प्रबन्ध का होना अनिवार्य हो।
ऋ. १।१५८। १-४ दीर्घतमा ऋषि अश्विनौ देवता, त्रिष्टुप, पंक्ति छन्द भेद हैं। सूर्य और पवन के योग से जो कार्य सिद्ध होते हैं वह विद्या दर्शाई गई है। अगले सूक्त १।१८०।१; २-५; ७, १० के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवते। त्रिष्टुप, पंक्ति छंद भेद। अश्विनौ विद्या एवं प्रशस्य कर्म से (द्याम् परि इयानम्) आकाश को सब ओर से जाते हुए रथ (विमान) को स्वीकार करें। अगले सूक्त १।१८१।१७-८९ के अगस्त्य ऋषि अश्विनौ देवते, त्रिष्टुप छन्द भेद हैं। पूरा सूक्त वाम् क्रिया से संबंधित है यहाँ पूरे सूक्त में वाम कर्म द्वारा अश्विनौ-विज्ञान को सिद्ध किया है। ऐश्वर्य के लिए मन के समान वेगवाले यानों का होना दिखाया है। १।१८२।८ के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवता हैं, स्वराट् पंक्ति छन्द हैं। अश्विनौ विज्ञान से यंत्रों में बल (शक्ति) को किस प्रकार बढ़ाया जाता है इसके विषय में कहा गया है। ऋ. १।१८३।३, ४ के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवते त्रिष्टुप छन्द भेद हैं। यहाँ सर्वाग सुन्दर रथ (विमान) विद्या को दर्शाया है और ऐसा विमान बनाने का वर्णन है जिसे कोई चोर, ठग अपहरण न कर सके।
अर्थात् अपहरणकत्र्ता का जिसमें प्रवेश ही न होने पाये। ऋ. १।१८४।१; ३; ४; ५; ६; अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवता। पंक्ति और त्रिष्टुप छन्द भेद् द्वारा अश्विनौ विद्या का विधान है। वाम कर्म द्वाराशिल्प क्रियाओं के सिद्धान्त दिये हैं। अन्तरिक्ष में दिशाओं का ज्ञान करके विमान चालन की क्रिया को दर्शाया गया है। ऋ. १।१८५।४ के अगस्त्य ऋषि द्यावा पृथिव्यौदेवते निचृत् त्रिष्टुप छंद हैं। पृथ्वी से सूर्यादि प्रकाशित लोकों तक का विज्ञान प्रशस्य कर्मों द्वारा कैसे सिद्ध किया जा सकता है इसके लिए अगस्त्य ऋषि ने मंत्र में कहा है कि यानों को किस प्रकार संतापरहित करके सुख पूर्वक विचरण कर सकते हैं। और भी वाम् नामक प्रशस्य कर्म के चारों वेदों में अनेक स्थल उपलब्ध हैं।
वेद विद्या अनुसंधान, बारहद्वारी,
पसरट्टा हाथरस (अलीगढ़)-२०४१०१