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वेदों की विद्याओं में लगने वाले कर्मभेद (वाम प्रशस्य कर्म) -छैलबिहारी लाल

वेदों में मूर्तमान संसार को बनाने में जो कर्म लगे उनको कभी सूचीकृत करके दस प्रशस्य नाम भेदों में वर्गीकृत किया गया है। यह कर्म प्रसार (प्रैशर) देने वाले कर्मों के रूप में है। अस्त्रेमा। अनैमा। अनेद्यः। अनेभि-शस्त्यः। उक्थ्य। सुनीथः। पाकः। वामः। वयुनम। यहाँ पर हम वाम नामक प्रसारित करने वाले कर्म का विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।

            इन्दवा वामुशान्ति हि (ऋ. १।२।४) मधुछन्दा ऋषि, इन्द्र वायु देवता, गायत्री छनद, इस कर्म को महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपनी चतुर्वेद विषय सूची में मित्र लक्षण में कार्य करने वाला कर्म बतलाया है और विद्युत एवं वायु की मित्रता द्वारा उशान्ति रूपी कान्ति कर्मों को प्रसारित करने वाला वाम कर्म सिद्धान्त दिया है। हमारे वैदिक ग्रन्थों में इस स्थल का बहुत अधिक तरह-तरह से वर्णन किया गया है। तैत्तरीय संहिता १।४।४।१, शतपथ ब्राह्मण ४।१।३।१९, एतरेय ब्राह्मण २।४।२, ३।१।१, आदि में भी बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में शुक्ल नामक अन्न और अश्वनी उशमसि नामक क्रान्ति कर्म के १०९ भेदों में से एक भेद के साथ इसका प्रयोग दर्शाया गया है।

            ऋ. १।१७।३ में काण्डवो मेधातिथि ऋषि इन्दिरा वरूणो विज्ञान में गायत्री छनद भेद द्वारा विद्युत अग्नि और जल के मित्र लक्षणों में ‘‘ईम’’ नामक ज्वलनशील द्रव्य पदार्थ को वाम नामक प्रशस्य कर्म के द्वारा राये नामक धन को प्राप्त करने सिद्धान्त दिये गये हैं। इसी सूक्त के ७ से ९ वाले तीन मंत्रों में भी तरह-तरह से प्रयोग करने के सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है।

            ऋ. १।२२।३।४ में विमान विद्या के साथ शून्यता वृत्ति नामक ऊषा किरणों के रूप में वाम नामक प्रशस्य कर्मों के द्वारा आकाश में गमन आदि और हिरण्य-पाणिन नामक सुवर्ण आदि रत्न आदि को प्राप्त कराने में प्रयोग दर्शाया गया हैं। ऋ. १।३०।१८ में शुनशेप ऋषि के अश्विनो विज्ञान में समुद्र और अन्तरिक्ष में दस्त्रा अश्विनी द्वारा ऐसे अश्वों को खींचने में वाम कर्म सिद्धान्तों को दिया है जिसमें मनुष्य आदि प्राणी न लगे हों। इस प्रकरण को एतरेय ब्राह्मण ७।३।४ में भी दिया गया है। ऋ. १।३४।१, ५, १२ हिरण्य स्तूप ऋषि आगिरस सिद्धान्त के अश्विनों विज्ञान के युवम भेद द्वारा तीन बार (गेज प्रणाली) मे वाम कर्म का शिल्प क्रियाओं के साथ प्रयोग सिद्धान्त दिया गया है। इस सूक्त में विमान विद्या की शिल्प क्रियाओं के साथ प्रयोग सिद्धान्त दिया गया है। इस सूक्त में विमान विद्या की शिल्प क्रियाओं के लिए १२ मंत्रों में बहुत ही विस्तृत वर्णन किया गया है। इन विमान आदि को बनाने में कौन-कौन सी धातु लगेंगी इन सब के साथ तरह-तरह के ईंधन वलों और उनके साथ प्रयोग होने वाले अन्य वल लक्षणों का वर्णन करते हुए अन्तरिक्ष यानों के द्वारा ११ दिन में भूगोल पृथ्वी के अन्त को पहुंचाने वाले विमानों का भी वर्णन किया गया है। इस प्रकरण को आजकल के अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों के साथ आधुनिक विज्ञान से समन्वय करके आगे का ज्ञान बड़ी अति सहजता पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। ऋ. १।४६।१, ३, ५, ८, में प्रकण्व ऋषि सिद्धान्तों में दिव और उषा नामक प्रकाश और किरणों को मित्र गुणों द्वारा वाम कर्म द्वारा प्रयोग करने का विमान आदि सवारियों में प्रयोग करने के सिद्धान्त दिये गये हैं। इसी प्रकरण से सम्बन्धित ऊषा और प्रकाश को विमान विज्ञान में प्रयोग करने में वाम नामक प्रसारित करने वाले कर्मों के सिद्धान्त ४७ वें सूक्त में भी दिये गये हुए हैं। इन स्थलों को भिन्न-भिन्न वेद भाष्यकारों के भाष्यों से एवं चतुर्वेद व्याकरण पदसूचियों के माध्यम से प्राप्त करके संसार के विमान के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ाया जा सकता है। ऋ. १।९३।२, ३, ४ में रहुगणपुत्रों गौतम ऋषि के अग्नि सोम सिद्धान्तों में भूरिक उष्णिक, विराट, अनुष्टुप और स्वराट पंक्ति छनद भेद द्वारा अग्नि और सोम के मित्र लक्षणों में वाम नामक प्रेशर देने वाले कर्म सिद्धान्तों को वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में भी विमान विद्या आदि में अग्नि के सोम से मित्र लक्षणों को विमान विद्या के साथ दर्शाया गया है। ऋ. १।१०८।१, ५, ६ में भी आगिरसकुत्स ऋषि के इन्द्राग्नि विज्ञान में त्रिष्टुप पंक्ति और विराट त्रिष्टुप छनद भेद द्वारा विमान विद्या में तरह-तरह के सिद्धान्तों का शिला सिद्धान्तों का शिल्प क्रियाओं के साथ वाम प्रशस्य कर्म के सिद्धान्त दिये हुए हैं। १०९ वाले सूक्त में भी इस विद्या का और अधिक विस्तार किया गया है। वहां पर अग्नि और विद्युत् के मित्र लक्षण द्वारा यवत अश्विनियों के साथ सूर्य और पवन का संयोग वाम नामक प्रशस्य कर्म में लगाने का सिद्धान्त दिया गया है।

            ऋ. १।११९।९ में कक्षीवान ऋषि के अश्विनी विज्ञान सिद्धान्त में यम वायु और श्वेत प्रकाश के साथ वाम नामक प्रशस्य कर्म को विमान विज्ञान की शिल्प क्रियाओं के प्रयोग करने का सिद्धान्त दिया गया है। इसी सूक्त में ११ से १३ वाले मंत्रों में नश, नासत्या और पुम भुजा नामक अश्विनी के साथ वाम प्रशस्य कर्म का प्रयोग दर्शाया गया है। २१-२८वें मंत्र में भी इसको विमान विद्या के साथ दर्शाया गया है। इससे अगले सूक्त में छंद भेद से ५, २, ४, ९, १०, १५, १८, २२, २३, २५ (२। ३९।८) में भी वाम नामक प्रशस्य कर्म की विद्याओं का भिन्न-भिन्न प्रयोग सिद्धान्त दर्शाया गया है। ऋ. १।११८।१ (२।५८।३) ४, ५। १०। ११ में कक्षीवान ऋषि के अश्विनौ विज्ञान में (श्येनपत्या) बाज के समान उड़ने वाला, पवन के समान वेगवाला, मन के समान गति वाला रथ या यान ऊपर से नीचे  उतरने का वाम सिद्धान्त दिया है। भिन्न-भिन्न मंत्रों में त्रिष्टुप छन्दों के माध्यम से जलयानों की गति वायुयानों का ऊपर-नीचे आने जाने का सिद्धान्त दिया है। जैसे ऊषा धीरे-धीरे प्रकाशित होती है उसी प्रकार क्रम से गति को बढ़ाया घटाया जाने को दर्शाया है। इन मंत्रों में जवसा गति का सिद्धान्त महत्व रखता है।

            ऋ. १।११९।१; २; ४;५; ७; ९ में दीर्घतमसः कक्षीवान ऋषि के अश्विनौ विज्ञान में जगती तथा त्रिष्टुप छन्दों द्वारा विमान विद्या की भिन्न-भिन्न कार्य प्रणलियों को प्रकाश्ति किया गया है। प्रथम मंत्र में (जीराश्वम्) गति वाले अश्व (इंजन) का वर्णन है। अश्विनौ विद्या में प्रशस्य कर्म से एक ऐसे विशाल यान को दर्शाया गया है जिसमें सैकड़ों भंडारण हों, हजारों पताकाएँ लगी हों। यह जलयान का वर्णन है। (ऊध्र्वाधीतिः) समुद्र लहरों पर ऊपर-नीचे करने का सिद्धान्त है। यहाँ (धर्मं) और (ऊर्जानी) पदों से सौर ऊर्जा सिद्धान्त दिया गया है जिससे प्रकाश के लिए यानों में दूसरा प्रयोग हो सके।

            ऋ. १।१२०।१; ३; ५; में उशिक पुत्रः कक्षीवान ऋषि तथा अश्विनौ देवता हैं। छनद गायत्री व उष्णिक छन्दों द्वारा प्रशस्य कर्म सिद्धान्त दिए हैं। यानादि में प्रकाश की आवश्यकता होती है। यहाँ इन मंत्रों में प्रकाश विद्या का वर्णन है। (जोषे) कान्ति या प्रकाश के लिए विद्या-विज्ञान का विधान करने को कहा है। ऋ. १।१२२।७; ९; १५ मंत्रों के कक्षीवान ऋषि विश्वेदेवा हैं। इन मंत्रों में त्रिष्टुप, पंक्ति छन्दों द्वारा प्रशस्य कर्म का सिद्धान्त दिया है एवं मित्र-वरूण क्रिया (उठाने गिराने की क्रिया) से चलने वाले यन्त्र विशेषों का सिद्धान्त है। चार के स्थान पर तीन व्यवधानों को नष्ट करना चाहिए अर्थात् क्रम से ही यन्त्रों की कमी दूर करनी चाहिए। ऋ. १।१३५।४, ५; ६; मन्त्रों के परूच्छेय ऋषि दृष्टा, वायुदेवता व अष्टि छनद हैं। प्रशस्य कर्म के लिए इन्द्र + वायु के प्रयोग से वाम क्रिया का दिग्दर्शन कराया है। विद्युत् वायु के योग से अनेक शिल्प क्रियाऐं हुआ करती है। अतः विमान विद्या में इनके प्रयोग का सिद्धान्त दिया है।

            ऋ. १।१३७। १-३ मंत्रों के परूच्छेप ऋषि, मित्रावरूणौ देवते, शक्चरी छनद हैं। मित्र + वरूण विज्ञान से वाम् क्रिया द्वारा यन्त्रों की क्रियाशीलता प्रकट हो रही है। (इन्दवः) द्रव का बूंद-बूंद होकर टपकने से यंत्र में गति प्रदान होती है यह गति ही समस्त जगत के कार्यों का सम्पादन करती है। ‘अद्रिभि’ क्रिया से यन्त्रों में स्निग्ध अर्थात् चिकनाई पहुँचाने की विधि या सिद्धान्त दिया गया है। आगे सूक्त १३९ के मंत्र ३, ४, ५ के परूच्छेप ऋषि, अश्विनौ देवता। अष्टी, व जगती छनद हैं। ‘‘स्वर्ण-यान’’ भारत के प्राचीन वैभव को उजागर कर रहे हैं। अश्विनौ विज्ञान-विमान विद्या की अंगभूत इकाई है जो विमानों की गति को नियंत्रण में रखती है। (पवयः) पहियों को घूमने की दिशा व दशा को प्रदान करने की क्रिया विशेष जिससे यान दिशा परिवर्तन व गति परिवर्तन कर सकें। (दिविष्टषु) आकश मार्ग में ही अग्नि आदि पदार्थों को प्रयुक्त करके नीचे न गिरने वाले सिद्धान्त को दर्शाया गया है। अर्थात् ऊपर की ही ओर उड़ान भरने का सिद्धान्त जैसे (राकेट) ऊर्ध्वयान। इन यानों के विषय में पांचवें मंत्र में कहा कि ये यान दिन रात चलते रहें तो भी ये नष्ट नहीं हो सकते। ये रहस्यमयी वेदविज्ञान-विद्याएं मंत्रों में छिपी पड़ी हैं। इन्हें उजागर कर हम आर्यावर्त्त के प्राचीन गौरव को पुनः प्रतिष्ठित करें, भगवान से यही प्रार्थना है।

            ऋ. १।१५१।२; ३; ६-९; मंत्रों के दीर्घतमा ऋषि, मित्रा वरूणौ देवता तथा जगती छनद भेद हैं। शिल्प क्रियाओं में प्रशस्य कर्म भेद से वाम क्रिया द्वारा ऋषि ने विज्ञान के सिद्धान्त निरूपित किए हैं। यहाँ पृथ्वीस्थ कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिए मिस्त्रावरूणौ विज्ञान का समावेश है। ऋ. ६।१५२।३; ७ (३।६२।१६) प्रथम मंडल के सूक्त १५२ में दीर्घतमा ऋषि, मित्रावरूणौ देवते तथा त्रिष्टुप छनद भेद है। इन मंत्रों में वेद-विद्या के विभाग करने को कहा है जिससे विद्याओं को वर्गीकरण होकर उन-उन पर अलग-अलग क्रियाएँ की जा सकेंगे। अगले सूक्त के मंत्र १-४ तक मित्रा वरूणौ विज्ञान है। ऋषि दीर्घतमा, देवता मित्रावरूणौ छनद त्रिष्टुप, पंक्ति छन्द भेद हैं। १।१५४।२ के दीर्घतमा ऋषि, विष्णु देवता निचृत जगती छन्द हैं। मंत्र में इन्द्र विष्णु विद्या दी गई है। विद्युत् किसी कार्य-क्रिया को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाती है। ऋ. १।१५७।६ दीर्घतमा ऋषि, अश्विनौ देवते, विराट् त्रिष्टुप छन्द विमानों में चिकित्सा आदि का प्रबन्ध का होना अनिवार्य हो।

            ऋ. १।१५८। १-४ दीर्घतमा ऋषि अश्विनौ देवता, त्रिष्टुप, पंक्ति छन्द भेद हैं। सूर्य और पवन के योग से जो कार्य सिद्ध होते हैं वह विद्या दर्शाई गई है। अगले सूक्त १।१८०।१; २-५; ७, १० के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवते। त्रिष्टुप, पंक्ति छंद भेद। अश्विनौ विद्या एवं प्रशस्य कर्म से (द्याम् परि इयानम्) आकाश को सब ओर से जाते हुए रथ (विमान) को स्वीकार करें। अगले सूक्त १।१८१।१७-८९ के अगस्त्य ऋषि अश्विनौ देवते, त्रिष्टुप छन्द भेद हैं। पूरा सूक्त वाम् क्रिया से संबंधित है यहाँ पूरे सूक्त में वाम कर्म द्वारा अश्विनौ-विज्ञान को सिद्ध किया है। ऐश्वर्य के लिए मन के समान वेगवाले यानों का होना दिखाया है। १।१८२।८ के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवता हैं, स्वराट् पंक्ति छन्द हैं। अश्विनौ विज्ञान से यंत्रों में बल (शक्ति) को किस प्रकार बढ़ाया जाता है इसके विषय में कहा गया है। ऋ. १।१८३।३, ४ के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवते त्रिष्टुप छन्द भेद हैं। यहाँ सर्वाग सुन्दर रथ (विमान) विद्या को दर्शाया है और ऐसा विमान बनाने का वर्णन है जिसे कोई चोर, ठग अपहरण न कर सके।

अर्थात् अपहरणकत्र्ता का जिसमें प्रवेश ही न होने पाये। ऋ. १।१८४।१; ३; ४; ५; ६; अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवता। पंक्ति और त्रिष्टुप छन्द भेद् द्वारा अश्विनौ विद्या का विधान है। वाम कर्म द्वाराशिल्प क्रियाओं के सिद्धान्त दिये हैं। अन्तरिक्ष में दिशाओं का ज्ञान करके विमान चालन की क्रिया को दर्शाया गया है। ऋ. १।१८५।४ के अगस्त्य ऋषि द्यावा पृथिव्यौदेवते निचृत् त्रिष्टुप छंद हैं। पृथ्वी से सूर्यादि प्रकाशित लोकों तक का विज्ञान प्रशस्य कर्मों द्वारा कैसे सिद्ध किया जा सकता है इसके लिए अगस्त्य ऋषि ने मंत्र में कहा है कि यानों को किस प्रकार संतापरहित करके सुख पूर्वक विचरण कर सकते हैं। और भी वाम् नामक प्रशस्य कर्म के चारों वेदों में अनेक स्थल उपलब्ध हैं।

वेद विद्या अनुसंधान, बारहद्वारी,

पसरट्टा हाथरस (अलीगढ़)-२०४१०१

वेदों का वनस्पति-विभाग -सुश्री सूर्या देवी आचार्या

सृष्टि के पदार्थों का वर्णीकरण या विभाजन इतना सरल, सुकर नहीं है जितना कि हम समझते हैं, क्योंकि पदार्थ निर्माता परमात्मा अनन्त ज्ञान वाला है अतः उसके निर्माण भी अनन्त हैं दुज्र्ञेय हैं। पृथिवी के जिन पदार्थों को हम अहर्निश देखते हैं, उनमें बाहुल्य उन पदार्थों का होता है जिनके हम नाम तक नहीं जानते, गुण, कर्म को जानता तो दूर की बात है, उनमें कुछ एक ही ऐसे पदार्थ होते हैं जिनके रूप, रंग, नाम, गुण आदि से परिचय रखते हैं, पुनरपि हमारे ऋषि मुनियों ने पदार्थों के वर्गीकरण में उनके विभाजन में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है, अपनी ऊहा से तीनों लोकों के पदार्थों का स्वरूप वैदिक ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है।

            पृथिवी के जिन पदार्थों को वृक्ष, पेड़, बेल, तृण, घास, फूस आदि नामों से पहचानते हैं और नित्य रोपते, उखाड़ते, रौंदते, फेंकते हैं उनका विभाजन आयुर्वेद के चरक, सुश्रुत ग्रन्थों में तथा अन्य चिकित्सकीय शास्त्रों में वनस्पति, ओषधि आदि नामों से किया जाता है। वनस्पतियों का यह विभाजन सुगन्धित छिलके वाली, फल-फूल या बीज की समानता रखने वाली गोंद पाली गांठदार जड़ वाली इत्यादि प्रकार के आधारों पर किया है।

            चरक में इन वनस्पतियों का विभाग औद्रिद द्रव्य के नाम से चतुर्धा वर्णित है-

            भौममौषधमुद्दिष्टम् औद्रिदं तु चतुर्विधम्।

            वनस्पतिर्वीरूधश्र्व वानसपत्यस्तथौषधिः।

            फलैर्वनस्पतिः पुष्पैर्वानस्पत्यः फलैरपि।

            ओषध्यः फलपाकान्ताः प्रतानैर्वीरूधः स्मृताः।।

                                                                                                चरक. सू. १। ७०, ७१ ।।

            अर्थात् वनस्पति, वीरूध, वानस्पत्य और ओषधि ये चार प्रकार के औद्रिद द्रव्य हैं। फलवाले पौधे, वनस्पति, जिनमें फल और फूल दोनों प्रकार होते हैं वे वानस्पत्य, फल पकने बाद नष्ट होने वाले औषधि तथा बहुत विस्तार वाले वीरूध कहे जाते हैं।

            इसी प्रकार सुश्रुत में भी-

           तासां स्थावराश्र्वतुर्विधाः- वनस्पतियोवृक्षावीरूधऔषधय इति। तासु अपुष्पाः फलवन्तो वानस्पत्यः। पुष्पफलवन्तो वृक्षाः। प्रतानवत्यः स्तम्बिन्यश्र्व वीरूधः, फलपाकनिष्ठा ओषधय इति।                                            -सुश्रुत.सू. १।३७।।

            अर्थात् स्थावर द्रव्य चार प्रकार के हैं-वनस्पति, वृक्ष, वीरूध और ओषधि। जिन पौधों में पुष्प् न हो फल आते हों वे वनस्पति जिनमें पुष्प, फल दोनों आते हो, वह वृक्ष जो फैलने वाले और गुल्म=झाड़ वाले हैं वे वीरूध तथा जो फलों के पकने तक ही जीवित रहते हैं अर्थात् पकने के बाद स्वयं सूखकर गिर पड़ते हैं उन्हें ओषधि कहा जाता है। चरक और सुश्रुत के वचनों में कुछ थोड़ा सा अन्तर है। चरक जिसे वानस्पत्य कहता है सुश्रुत उसे वृक्ष नाम से अभिहित करता है।

            पाणिनीय सूत्र ‘‘विभाषौषधि वनस्पतिभ्यः’’पा. ८।४।६ के व्याख्यान में काशिकाकार जयादित्य ने भी वनस्पतियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है- फलीवनस्पतिज्र्ञेयो वृक्षाः पुष्पफलोपगाः ।

            ओषध्यः फलपाकान्ताः लतागुल्माश्र्व विरूधः।।  – कशिका, ८।४।६।।

            इस वचन की व्याख्या करते हुये न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि तथा पदमञ्चजरीकार हरदत्त मिश्र ने वनस्पतिः = उदुम्बर, प्लक्ष, अश्र्वत्थ आदि, पुष्पोपगाः = वेतस् बाँस आदि, फलोपगाः = उदुम्बर, प्लक्ष आदि तथा पुष्पफलोपगाः = आम्र इत्यादि वृक्ष होते हैं, अर्थात् जो वपस्पति होता है वह निश्चित वृक्ष होता है, और जो वृक्ष होता है उसका निश्चित रूप से वनस्पति होना आवश्यक नहीं है। औषध्यः = शालि = धान, गेहूं कदली आदि, लता – मालती इत्यादि, गुल्माः = हृस्व शाखाओं वाले होते हैं और वीरूधः = बहुत व पत्तों वाले कहलाते हैं ऐसा व्याख्यान किया है।

            मनु महाराज ने भी वनस्पतियों का विभाग दर्शाया है-

            उद्रिजाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः।

            ओषध्यः फलपाकान्ताः बहुपुष्पफलोपगाः।

            अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः।

            पुष्पिणः फलिनश्रै्वव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः।

            गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः।

            बीजकाण्डरूहाण्येव प्रताना वल्ल्य एव च।।

                                                                                                – मनु. १।४६, ४७, ४८

            बीज तथा शाखा से लगने वाले स्थावन जीव उद्रिज होते हैं। फल के पकने पर जिनके पौधे नष्ट हो जाते हैं और जिनमें बहुत फल, फूल लगते हैं वे ओषधि कहाते हैं, बिना फूल लगे फलने वालों को वनस्पति और फूल लगने के बाद फलने वाले को वृक्ष कहते हैं।

            इस प्रकार लोक में फल, फूल आदि के आधार पर वनस्पति, वीरूध, ओषधि आदि का विभाजन पृथक्-पृथक् किया गया है, यानी इनका जातिगत भेद स्थापित किया गया है, पर वेदों में वनस्पति, वीरूध औषधि आदि शब्द पर्याय रूप में ही आये हुए हैं अतः वनस्पतियों के विभाग का फल, फूल आदि के आधार पर स्पष्ट संकेत नहीं प्राप्त है अपितु वनस्पतियों के रंग, रूप, गुण आदि द्वारा उनका विभाजन स्पष्ट लक्षित होता है।

            वैसे तो चारों वेदों में ही औषधियों का वर्णन है तथापि अथर्ववेद में बहुलता से दृष्टिगोचर होता है, एतदर्थ ही अथर्ववेद भैषज्य वेद भी कहा जाता है।

            वनस्पतियों के वर्गीकरण के लिये अथर्ववेद के ८ वें काण्ड का ७ वाँ सूक्त विशेष रूप से द्रष्टव्य है। सांकेतिक सूक्त में रूप, रंग, आकार द्वारा वनस्पतियों का वर्गीकरण निम्न प्रकार है-

रूपभेद- प्रस्तृणती स्ताम्बिनीरेकशुगाः प्रतन्वतीरोषधीरा वदामि।

अंशुमतीः काण्डिनीर्या विशाखा ह्नयामि ते वीरूधो वैश्र्वदेवी रूग्राः पुरूषजीवनीः।।                                                                                                                        – अर्थव. ८।७।४।।

            प्रस्तृणतीः = (स्तृञ् आच्छादने) बहुत छादन करने वाली अर्थात् मूल से ही विभिन्न शाखाओं में फैलने वाली अनार, मेंहदी आदि, स्तम्बिनीः = (स्था + अम्बच्, इनिः) एक तने रूप खम्भे वाली अशोक, कदम्ब आदि, एकशुगाः = एक अकुर, कोपल वाली, आक आदि, प्रतन्वतीः = बहुत फैली हुई ब्राह्मी, हेलेञ्चा, पुदीना आदि, ओषधीः = ओषधियों को, आ वदामि = (मैं परमात्मा या वैद्य) आदेश देता हूँ, बुलाता हूँ, तथा याः = जो, अंशमतीः = काटों वाली, नागफनी, भटकटैय्या, ऊँटकटारा आदि, काण्डिनीः = बहुत काण्ड = शाखा वाली ईख, सरकण्डा, दूर्वा आदि, विशाखाः = शाखाहीन खजूर, ताड़ आदि (विगताः शाखाः) तथा शाखा सहित आम, अमरूद आदि (विशिष्टाः शाखाः), वैश्र्वदैवीः = सभी धारण कराने वाली, वीरूधः = विशेष रूप से उगती हुई ओषधियाँ (विशेषण रोहन्तीति वीरूधः) ते ह्नयामि = तुम्हारे लिये बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।

            इस मन्त्र में रूप भेद सेऔषधियों का वर्णन है। विभिन्न शाखा, एक तना, काँटा आदि विशेषण औषधियों के रूप को बता रहे हैं। मन्त्र में  ‘ओषधी’ तथा ‘वीरूधः’पद आये हैं जो लोकोक्त अर्थों के वाचक नहीं है। अपितु वनस्पति इस सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हैं।

            रंगभेद- या बभ्रवो याश्र्व शुक्रा रोहिणीरूत पृश्रयः।

            असिक्रीः कृष्णा ओषधीः सर्वा अच्छावदामसि।।                                                                                                -अथर्व. ८।७।१।।

            याः = जो, बभ्रवः = भूरे रंग वाली पोषण, धारण करने वाली, कत्था आदि (डुभृञ् धारणपोषणयोः) याश्र्व = और जो, शुक्राः = श्वेत रंग वाली, वीर्य बढ़ाने वाली, सफेद फूल की कटेरी आदि, रोहिणीः = लाल रंग की अथवा स्वास्थ्य उत्पन्न करने वाली, कुटकी, मजीठ आदि (रूह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च) उत = और, पृश्नयः = चितकबरी (व्याघ्र रूपं वै पृश्निः त्रै. ४।२।२४) , असिक्नीः = श्याम = नील वर्ण वाली, अबद्ध शक्ति वाली, बाकुची आदि, कृष्णाः = आकर्षण करने वाली, काले वर्ण वाली पिपरामूल, पीपल आदि, औषधीः = औषधियाँ हैं, सर्वाः = उन सबको, अच्छ्रावदामसि = अच्छे प्रकार, मैं वैद्य आदेश देता हूँ।

            यह मन्त्र ओषधियों को रंगभेद से वर्णन कर रहा है। औषधीः शब्द सामान्य अर्थ वाली है, फल पाकान्त ओषधि के लिये नहीं।

            टाकर भेद- मधुमन्मूलं मधुमदग्रमासां मधुमन्मध्यं वीरूधां बभूव।

            मधुमत् पर्णं मधुमत् पुष्पमासां मधोः संभक्ता अमृतस्य भक्षो

            घृतमत्रं दुहृतां गोपुरोगवम्।।                                                -अथर्व. ८।७।१२।।

            आसां वीरूधाम् = इन ओषधियों का, मूलं मधुमत् = जड़ माधुर्य वाला, अग्रम् = ऊपरीभाग – सिरा, मधुमत् = माधुर्य युक्त, मध्यमम् = मध्य भाग, मधुमत् = माधुर्य युक्त, पर्णम् = पत्ते, मधुमत् = माधुर्य वाले, पुष्पम् = फूल, मधुमत् = मधुर्य वाले, बभूव = हैं, आसाम् = इन ओषधियों का, अमृतस्य भक्षः = अमृत का भोजन है अर्थात् अमरता देने वाला है मधोः संभक्ताः = मधुरता से परिपूर्ण हैं, गोपुरोगवम् = गौओं का पालन करने वाले या गौओं का प्राधान्य मानने वाले इन ओषधियों से , घृतम् = घी, अन्नम् = अन्न का, दुहृताम् = दोहन करें।

            यहाँ ओषधियों का आकार रूप से वर्णन है तथा गौओं को इन ओषधियों का भक्षण कराके घृतादि पदार्थ ग्रहण करें, यह निर्दिष्ट किया है। मन्त्र का ‘वीरूधाम्’ पद सामान्य रूप से ओषधि अर्थ में प्रयुक्त है। प्रतान विशिष्ट वनस्पतियों के  लिये नहीं।

            यावतीः कितयीश्रे्वमाः पृथिव्यामध्योषधीः।

            ता मा सहसुपण्र्यो मृत्योर्मृञ्चन्त्वहंसः।।                           -अथर्व. ८।७।१३।।

            यावतीः = जितनी, च = और, कियतीः = कितनी भी अर्थात् विभिन्न परिमाण वाली, इमाः = ये, पृथिव्याम् अधि = पृथिवी के ऊपर, ओषधिः = ओषधियाँ है, ताः = वे, सहस्त्रपण्र्यः = सहस्त्र पत्तों वाली, हजार प्रकार से पोषण करने वाली, सफेद दूब आदि (प पालनपूरणयोः) मा = मुझको, मृत्योः = मृत्यु से अहंसः = पाप से, मुञ्चन्तु = छुड़ावें।

            यहाँ पत्तों के आकार रूप से ओषधियों का वर्गीकरण है, और ‘ओषधी’ पद सामान्य अर्थवाला है, फल पाकान्त अर्थ वाला नहीं।

            मुमुचाना ओषधयोऽग्नेर्वैश्वानरादधि।

            भूमिं संतन्वतीरित यासां राजा वनस्पतिः।                        -अथर्व. ८।७।१६।।

            मुमुचानाः = रोगों को छुड़ाने वाली, ओषधयः = ओषधियाँ हैं वे, वैश्वानरात् अग्नेः = सब मनुष्यों को ले जाने वाले, प्रेरक अग्रगणी परमेश्वर से, अधि = अधिकृत होकर, भूमिम् = भूमि पर, सन्तन्वतीः विस्तृत होती हुई दूब, पुनर्नवा आदि लतायें, इतः = गई हुई हैं, यासाम् = जिन ओषधियों का, राजा = राजा, वनस्पतिः = सोम है (सोमो वै वनस्पतिः मै. १।१०।९।।)

            परमेश्वर द्वारा विस्तृत की हुई जो ओषधियाँ हैं, जो रोगों को दूर करती हैं उनका फैलने के आकार रूप से वर्णन है। मन्त्र में आये ‘ओषधयः’ एवं ‘वनस्पतिः’ पद लोक प्रसिद्ध अर्थ वाले नहीं हैं।

            पुष्पवतीः प्रसूमतीः फलिनीरफला उत।

            संमातर इव दुह्नामस्मा अरिष्टतातये।                  -अथर्व. ८।७।२७।।

            पुष्पवतीः = पुष्पों वाली, प्रसूमतीः = सुन्दर, कोमल पलव अकुर वाली, फलिनीः = फलवाली, उत = और, अफलाः = फलरहित ओषधियाँ, संमातर इव = सहयोगी माताओं के समान, अस्मै = इस रूग्ण मनुष्य के लिये, अरिष्टतातये = कल्याण के लिये, स्वास्थ्य के लिये, दुहाम् = दूध देवें।

            यह मन्त्र भी फूलों वाली, पलवों वाली, फलों वाली एवं बिना फलवाली ओषधियों का आकार भेद से वर्णन कर रहा है।

           गुणभेद- जीवलां नघारिषां जीवन्तीमोषधीमहम्।    अरून्धतीमुन्नयन्तीं पुष्पां मधुमतीमिह हुवेऽस्मा अरिष्टतातये।

                                                                                                           -अथर्व. ८।७।६।।

            जीवलाम् = जीवन देने वाली, नघारिषाम् = कभी भी हानि न करने वाली, जीवन्तीम् = प्राण धारण करने वाली, गिलोय आदि, अरून्धतीम् = बाधा न डालने वाली, चोट आदि प्रहारों को भरने वाली, औधा हेली, भंगरैला आदि, उन्नन्तीम् = उन्नत बनाने वाली, पुष्पाम् = फूलों वाली, मधुमतीम् = माधुर्य रस वाली, ओषधीम् = ताप नाशक, अन्नादि ओषधि को (ओषद् (दहत्) धयन्तीति वा ओषति दहति एनाः धयन्तीति वा, दोष धयन्तीति वा। निरू. ९।२६। धेर पाने) इह = यहाँ, अस्मै = इस मनुष्य के लिये, अरिष्टतातये = कल्याण करने के लिये, अहम् = परमात्मा या वैद्य, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।

            इस मन्त्र में जीवन आदि देने वाली ओषधियों के गुणों का वर्णन है। मन्त्र का ‘ओषधीः’ शब्द सामान्य वनस्पति वाचक है।

            इहा यन्तु प्रचेतसो मेदिनीर्वचसो मम।

            यथेमं पारमामसि पुरूषं दुरितादधि।।                      -अथर्व. ८।७।७।।

            प्रचेतसः = चेतनता देने वाली, मेदिनीः = प्रीति करने वाली, (ञमिदा स्नेहने + अच्, इनिः, डीष्) रूक्षता हटाकर स्निग्धता प्रदान करने वाली ओषधियाँ, इह = यहाँ मेरे पास, मम वचसा = मुझ चिकित्सक के वनन के साथ अर्थात् चिकित्सा का विचार करने पर, आयन्तु = आवें, यथा = जिससे, इमं पुरूषम् = इस मनुष्य को दुरितात्, अधि = कष्ट से ऊपर, दूर, पारयामसि = पार लगा दूँ।

            यह मन्त्र भी ओषधियों के गुणों का वर्णन कर रहा है।

            उन्मुञ्चन्तीर्विवरूणा उग्रा या विषदूषणीः।

            अथो बलासनाशनीः कृत्यादूषणीश्र्व यास्ता इहा यन्त्वोषधीः।

                                                                                                             -अथर्व. ८।७।१०।।

            याः = जो, उन्मुञ्चन्तीः = रोग से मुक्त करने वाली, विवरूणाः = विशेष करके स्वीकार करने योग्य, उग्राः = तीक्ष्ण, बल, गन्ध रसादि वाली, विषदूषणीः = विष हरण करने वाली, इलायची आदि, अथ = और, यः = जो, बलासनाशनीः = बल गिराने वाले सन्निपात, कफ आदि को नाश करने वाली ( बल + असु क्षेपणे + अण्, बलम् अस्यति क्षिपतीति = बलासः, तस्य नाशनीः इति बलासनाशनीः), च = और, कृत्यादूषणीः = हिंसा, पीड़ा मिटाने वाली अजवाइन, लाक्षा गुग्गुल आदि (कृञ् हिंसायाम् + क्यप्, टाप), ओषधीः = ओषधियाँ हैं ताः = वे, आयन्तु = आवें, प्राप्त होवें।

            यहाँ पर विष नाशक औषधियों के गुणों का वर्णन है। ‘ओषधिः’ पद का पूर्वतम् सामान्य अर्थ है।

            उत्पत्ति भेद- अवकोल्बा उदकात्मान ओषधयः।

                           व्यृषन्तु दुरितं तीक्ष्णश्रृड्ग्यः।।    -अथर्व. ८।७।९।।

            अवकोल्बाः = पीड़ा को जलाने वाली, नष्ट करने वाली, शैवाल, काई ये युक्त (अव हिंसायाम् +वुन्, टाप्, उल्वम् ऊर्णोतेः वृणोतेर्वा रिरू. ६।३६। ऊर्णुन्ध्या वृञ् + वन्, वस्य बः रेफस्य लत्वम्, वकारस्य उत्वम् इति उल्बाः)  उदकात्मानः = जल जीवन वाली, जलकुम्भी, कमल, सिंघाड़ा आदि, तीक्ष्णशृड्ग्यः = तीक्ष्ण काट करने वाली, तीक्ष्ण अग्रभाग वाली गोखुरू आदि, ओषधयः = ओषधियाँ, दुरितम् = रोग को, वि ऋषन्तु = बाहर रिकालें (ऋषी गतौ)।

            यह मन्त्र जलीय ओषधियों का उत्पत्ति भेद से वर्णन करता है। ‘ओषधीः’ पद सामान्यार्थक है।

            या रोहन्त्यागिरसीः पर्वतेषु समेषु च।

            ता नः पयस्वतीः शिवा ओषधीः सन्तु शं हृदे।                    -अथर्व. ८।७।१७।।

            आगिरसी = अग्नि, विद्युत् आदि गुणों से युक्त या अगों में रस भरने वाली, पर्वततेषु = पर्वतों में, च = और, समेषु = चैरस भू प्रदेशों में, रोहन्ति = उगती हैं, ताः = वें, पयस्वतीः = दुग्ध तथा रस वाली, शिवाः = कल्याण करने वाली,

 ओषधीः = ओषधियाँ, नः = हमारे, हृदे = हृदय के लिये शम् = शान्तिदायक, सन्तु – होवें।

            इस मन्त्र में पर्वत आदि स्थानों में होने वाली ओषधियों का औत्पत्तिक भेद दर्शाया है। ‘ओषधीः’ पद का अर्थ पूर्ववत् है।

  ओषधि प्रधान भेद- अश्र्वत्थो दर्भो वीरूधां सोमो राजामृतं हविः।   वीहिर्यवश्र्व भेषजौ दिवस्पुत्रावमत्र्यौ।।

                                                                                                -अथर्व. ८।७।२०।।

            अश्र्त्थः = ‘‘वृक्षों में’’ पीपल, दर्भः = ‘‘तृणों में’’ दाभ, कांस, वीरूधाम् = ‘‘लताओं में’’ (विशेषेण रून्धन्ति अन्यान् वृक्षान् इति वीरूधः) सोमः = सोमलता, राजा = ओषधि राज है, अमृतम् = ‘‘प्राकृतिक द्रव पदार्थों में’’ जल (अमृतमिति उदक नाम, निघं. १।१२), हविः = ‘‘जगमज वस्तुओं में’’ यज्ञीय घृत और ‘‘अन्नों में’’ व्रीहि = चावल, च = और, यवः = जौ, तथा दिवस्पुत्रौ = ‘‘आकाशीय पदार्थों में’’ द्यौलोक के पुत्र सूर्य और चाँद, अमत्र्यौ भेषजौ = अगर भेषज हैं, भय निवारक पदार्थ हैं (भेषं भयं जयति = भेषजम्)।

            इस मन्त्र में अश्र्वत्थ, दर्भ, सोमलता आदि को महा औषधि के रूप में वर्णित किया है। विरूधाम् पद वनस्पति सामान्यार्थ का द्योतक है।

            ऋतु भेद- अग्नेर्धासो अपां गर्भों या रोहन्ति पुनर्णघ्वाः।

            ध्रुवाः सहस्त्रनाम्नीर्भेषजीः सन्त्वाभृताः ।। – अथर्व. ८।७।८।।

            अग्नेः = अग्नि का (जठराग्नि का). घासः = जो, पुनर्णवाः = बार-बार नवीन औषधियाँ, ऋतु-ऋतु में, रोहन्ति = उगती हैं वे, ध्रवाः = दृढ़ गुणवाली, सहस्त्रनाम्नीः = हजारों नामों वाली, आभृताः = भली भाँति पुष्ट की हुई, भेषजीः = भय निवारक औषधियाँ, सन्तु = प्राप्त होवें।

            मन्त्र में प्रति ऋतु में पुनः पुनः होने वाली औषधियों का संकेत है जो मनुष्य के लिये उपयोगी हैं तथा शरीर बल बढ़ाने वाली हैं।

            उज्जिहीध्वे स्तनयत्यभिक्रन्दत्योषधीः।

            यदा वः पृश्निमातरः पर्जन्यो रेतसावति।                           -अथर्व. ८।७।२१।।

            पृश्निमातरः = पृथिवी को माता मानने वाली अर्थात् पृथिवी से उत्पन्न होने वाली (इयं पृथिवी वै पृश्निः तै. ब्रा. १।४।१।५), ओषधीः = ओषधियों, उज्जिहीध्वे = तुम खड़ी हो जाती हो, उत्पन्न हो जाती हो (ओहाड्. गतौ) यदा = जब, पर्जन्यः = मेघ, स्तनयति = गरजता है, अभ्रिक्रन्दति = कड़कता है और वः = तुमको, रेतसा = जल से (रेतः उदक नामसु, निघ. १।१२) अवति = तृप्त करता है (अव तृप्तौ)।

            इस मन्त्र में वर्षा ऋतु में होने वाली औषधियों का संकेत है। औषधीः समान्यार्थक है।

            उपयोग भेद- वराहो वेद वीरूधं नकुलो वेद भेषजीम्।

                          सर्पा गन्धर्वा या विदुस्ता अस्या अवसे हुवे।।                   -अथर्व. ८।७।२३।।

            वराहः = सूअर, वीरूधम् = औषधी को, वेद = जानता है, नकुलः = नेवला, भेषजीम् = रोग जीतने वाली, भय दूर करने वाली औषधियों को, वेद = जानता है, सर्पाः = साँप् और गन्र्धवाः = गौ-पृथिवी को धारण करने वाले अर्थात् = भूमि में बिल बनाकर रहने वाले चूहे, छछुन्दर, गोह आदि प्राणी (गौः इति पृथिव्याः नामधेयम् निघ. १।१), याः = जिन औषधियों को, विदुः =जानते हैं, ताः = उन को, अस्मै = इस पुरूष के लिये, अवसे = रक्षा हेतु, मैं वैद्य अथवा परमेश्वर, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।

            मन्त्र में जंगली पशुओं, जन्तुओं द्वारा उपयोग में ली जाने वाली औषधियों का उपयोग भेद से वर्णन है। यहाँ बताया गया है कि जिन कन्द आदि औषधियों को सूअर आदि उपयोग में लाते हैं, बलिष्ठ बनते हैं उनसे मनुष्यों को भी अपना उपचार करना चाहिये। मन्त्र में ‘वीरूधम्’, ‘भेषजीम्’ पद पर्यायार्थक हैं।

            याः सुपर्णा आगिरसीर्दिव्या या रघटो विदुः।

            वयांसि हंसा या विदुर्याश्र्व सर्वे पतत्रिणः।।

            मृगा या विदुरोषधीस्ता अस्मा अवसे हुवे।।                        -अथर्व. ८।७।२४।।

            याः = जिन, आगिरसीः = अगों में गति लाने वाली तथा अग्नि, विद्युत् आदि गुणों वाली औषधियों को, रसायन पदार्थों को रघटः = गरूड़, गिद्ध आदि, याः दिव्याः = जिन दिव्य ओषधियों को, रसायन पदार्थों को रघटः = आकाश में उड़ने वाले पक्षी (रघि गतौ + अच्, अट गतौ + क्पि् = रघटः, रघे गन्तवे आकाशे अटन शीलाः = रघटः), विदुः = जानते हैं, याः = जिनको, वयांसि = जिन ओषधियों को मृगाः = सभी पंख वाले जीव, विदुः = जानते हैं, याः ओषधीः = जिन ओषधियों को मृगाः = वन्य पशु, विदुः = जानते हैं, ताः = उन सबको, अस्मै = इस मनुष्य के लिये, अवसे = रक्षणार्थ, मैं परमात्मा या वैद्य, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लेता हूँ।

            यह मन्त्र भी औषधियों के उपयोग भेद का वर्णन कर रहा है। गरूड़ आदि पक्षी जिन औषधियों को व्यवहार में लाते हैं उनसे विष नाश, दूर दृष्टि, स्फूर्ति आदि का लाभ उठाते हैं उनसे मनुष्य को भी लाभ उठाते हैं उनसे मनुष्य को भी लाभ लेना चाहिये यह मन्त्र में स्पष्ट किया गया है। ‘ओषधीः’ पद का पूर्ववत् सामान्य अर्थ है।

            यावतीनामोषधीनां गावः प्राश्नन्त्यध्न्या यावतीनामजावयः।

            तावतीस्तुभ्यमोषधीः शर्म यच्छन्त्वाभृताः।।                                -अथर्वं. ८।७।२५।।

मारने योग्य गौवें और, यावतीनाम् = जितनी औषधियों का, अजावयः = भेड़, बकरियाँ, प्राश्नन्ति = चारा करती हैं, खाती हैं, तावतीः = वे सभी अभृताः = भली भाँति पुष्ट की हुई, ओषधीः औषधियों, तुभ्यम् = तुझ मनुष्य को, शर्म = सुख, यच्छुन्तु – देवें।

            इस मन्त्र में गाँव, नगर में रहने वाले पशुओं द्वारा चारा के रूप में उपयोग में आने वाली औषधियों का वर्णन है। ‘ओषधीः’ औषधीनाम्, पद सामान्य अर्थ वाले हैं।

            यावतीषु मनुष्या भेषजं भिषजो विदुः।

            तावतीर्विश्र्व भेषजीरा भरामि त्वामभि।।                                       -अथर्व, ८।७।२६।।

            यावतीषु = जितनी ओषधियों में, भिषजः मनुष्याः = वैद्य लोग (भिषज् चिकित्सायाम् क्विप्, भिषक्), भेषजम् = चिकित्सा, विदुः = जानते हैं, तावतीः = उतनी, विश्र्वभेषजीः = सब रोगों को जीतने वाली ओषधियों को, त्वाम् अभि = तुम्हारी ओर मैं परमात्मा और वैद्य, आभरामि = लाता हूँ।

            मन्त्र में वैद्य जनों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली क्वाथ, कषाय, चूर्ण, अवलेह, भस्म आदि औषधियों का वर्गीकरण है।

            अथर्ववेद के उपर्युक्त सूक्त में विभिन्न प्रकार की औषधियों का वर्गीकरण अपने ढंग का है। जिन औषधियों को लोक में वनस्पति, वीरूध, औषधि आदि अलग-अलग नामों से विभाजित करके जाना जाता है। उन्हें वेद में रूप, रंग, आकार, गुण, उत्पत्ति, औषधि महौषधि प्राधान्य = ऋतु एवं उपयोग के आधार पर विभाजित किया गया है।

            तात्पर्य यह हुआ वेद में वनस्पति, वीरूध, औषधि आदि शब्द जो उद्धिज पदार्थों का ज्ञान करा रहे हैं वे परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं, जैसा कि मन्त्रों में आये वीरूध, वनस्पति आदि पदों से स्पष्ट है। यानी वनस्पति आदि शब्द फल वाले पौधों के लिये ही प्रयुक्त नहीं है अपितु सामान्यतः पौधे अर्थ में प्रयुक्त हैं अर्थात् वे शब्द यौगिकता, व्यापकता के अर्थ को लिये हुये हैं, यथा- वनस्पति- वनानां पाता वा पालयिता वा। निरू. ८।३।।

            जो वन = जल को, रस को सुरक्षित रखते हैं वे वनस्पति।

            औषधी- औषद् (दहत्) धयन्तीति वा, औषधि एनाः धयन्तीति वा। दोषं धयन्तीति वा। निरू. ९।२६।।

            जलते हुये अर्थात् ताप को जो पीते हैं अथवा ताप में इनको पीते हैं तथा जो दोष को पीते हैं वे औषधि हैं।

            वीरूध- विशेषण रून्धन्ति, रोहन्तीति वा वीरूधः। निरू. ६।३।९।।

            जो विशेष रूप से रोकते हैं या उगते हैं वे वीरूध हैं।

            इन व्युत्पत्तियों के अनुसार इन शब्दों का पर्यायवाचित्व समुचित है, और उपर्युक्त विभाग ही वनस्पतियों का वेदोक्त वर्गीकरण है जिसे वेद से ही जानना चाहिये।

            वैसे रोगानुसार औषधियों के निर्माणनुसार, अन्य कई और विभाग बन सकते हैं जो वस्तुतः औषधियों के गुणादि वर्गीकरण में ही समाहित हो जाते हैं।

पाणिनि कन्या महाविद्यालय, वाराणसी- १० (उ. प्र.)

वेद और भौतिक – विज्ञान -डॉ. महावीर मीमांसक

वेद का विषय बहुत लम्बे समय से विवादास्पद रहा है। वेद के प्राचीन प्रामाणिक विद्वान् ऋषि आचार्य यास्क ने अपने वेदार्थ-पद्धति के पुरोधा ग्रन्थ निरूक्त के वेदार्थ के ज्ञाताओं की तीन पीढ़ियों का उल्लेख किया है। पहली पीढ़ी वेदार्थ ज्ञान की साक्षात् द्रष्टा थी जिसे वेदार्थ ज्ञान में किञ्चित् मात्र भी सन्देह नही था। (साक्षात्कृत धर्माण, सृषमो बभुवः।) दूसरी पीढ़ी उन वैदिक विद्वानों की हुई जिन्हें वेदार्थ ज्ञान साक्षात् नहीं था, उन्होंने अपने से पुरानी ऋषियों की उस पीढ़ी से जो साक्षात्कृत धर्मार्थी, उपदेश के द्वारा वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस दूसरी पीढ़ी को भी वेदार्थ ज्ञान सर्वथा शुद्ध और अपने वास्तविक रूप में ही मिला (ते पुनरवरेभ्योऽसाक्षात्कृत धर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः।) और तीसरी पीढ़ी उन लोगों की आयी जो उपदेश के द्वारा भी वेदार्थ ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ थी। उन्होंने वेद वेदाग आदि ग्रन्थों का सम्मान किया और उन ग्रन्थों की सहायता से वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस तीसरी पीढ़ी को वेदार्थ ज्ञान साक्षात् रूप में नहीं हुआ अपितु परोक्ष रूप में प्राप्त हुआ। अतः इनका ज्ञान परतः प्रामाण्य ग्रन्थों पर आधारित था, वेद का स्वतः प्रामाण्य ज्ञान तो वेदार्थ को साक्षात् वेद की अन्तःसाक्षी के आधार पर समझने वाले लोगों को था। फिर इन तीनों पीढ़ियों में समय का परस्पर अन्तराल बहुत था। और इस तीसरी पीढ़ी के बाद तो उत्तरवर्ती लोगों को वेद-वेदाग आदि ग्रन्थ जो वेदार्थ के लिये परतः प्रामाण्य के ग्रन्थ हैं, और भी अधिक दुरूह और समझ से दूर हो गये। यास्क के समय तक आते-आते यह परिणाम हुआ कि वेदार्थ अधिकतर ओझल हो गया। विद्वान् वेद का मनमाना अर्थ करने लगे। एक-एक मन्त्र का अर्थ करने की परम्परा १०, ११ प्रकार की चल पड़ी, यह स्वयं यास्क ने लिखा है, ‘‘इति याज्ञिकाः, इति पौराणिंका, इत्यैतिहासिकाः, इति वैयाकरणाः, इत्यन्ये, इन्यपरे, इत्येके”, इन शब्दों में यास्क ने अपने ग्रन्थ निरूक्त में एक मन्त्र की व्याख्या अनेक प्रकार से करनेका ब्यौरा दिया है। परिणामस्वरूप वेदार्थ इतना अनिश्चित, विवादास्पद बन गया कि एक सम्प्रदाय वैदिक विद्वानों की इसी कमी का दुरूपयोग और लाभ उठाकर कहने लगा कि वेद जब इतना अस्पष्ट विवादस्पद और अज्ञात है तो वेद के मन्त्र अनर्थक हैं, उसका कोई अर्थ नहीं है (‘‘अनर्थकाः मन्त्रा इति कौत्सः”) यह वेदार्थ के अत्यन्त अन्धकार की स्थिति भी जो यास्क के समय तक थी।

            यास्क ने वेदार्थ उद्धार का बीड़ा उठाया। सर्वप्रथम यास्क आचार्य ने उन वैदिक शब्दों और वैदिक धातुओं का संकलन अपने निघण्टु में किया जो वेदार्थ के लिये उस समय दुरूह तथा अधिक आवश्यक थे। फिर यास्क ने निरूक्त की रचना की। जिसमें पहले वेदार्थ पद्धति का प्रतिष्ठापन किया। वेद को अनर्थक मानने वाले सम्प्रदाय का उन्हीं की युक्तियों से खण्डन किया, उन्हीं का जूता उन्हीं के सिर पर मारा। यास्क ने उद्घोष दिया कि सब नाम आख्यातज हैं और वेदार्थ करने के लियें वे यौगिक होते हुवे भी किसी एक निश्चितार्थ में रूढ़ हैं, उदाहरणार्थ परिव्राजक, भूमिज इत्यादि जिनको पूर्व पक्षी भी यौगिक मानते हुवे भी योगरूढ़ मानता है, जिससे शब्दों की यौगिक व्युत्पत्ति करने के बावजूद भी मनमाना काल्पनिक अर्थ न किया जा सके। यह उन लोगों के लिये करारा जवाब था जो यौगिक पद्धति पर आक्षेप करके कहते थे कि तृण शब्द का अर्थ केवल तिनका न करके वे सब अर्थ तृण शब्द के होने चाहिये जो भी कुरेदने का काम करते हैं। खैर हमारा यहां यह विषय नहीं है, इस पर हम अन्यत्र विस्तार से लिख चुके हैं (द्र. ले. द्वारा वेदभाष्य पद्धति और स्वामी दयानन्द एक सर्वेक्षण।)

            यास्क सर्वप्रथम वैदिक विद्धान् थे जिनका लिखित ग्रन्थ न केवल यह कहता है कि वेद में भैतिक विज्ञान है, अपितु वेद की व्याख्या भी इस आधार पर करता है। यास्क ने अपने निरूक्त के प्रारम्भ में ही देवता शब्द की परिभाषा दी जो देवता वेद के प्रत्येक सूक्त  या अध्याय के प्रारम्भ में दिये हुवे होते हैं। ‘‘यास्क ऋषि र्यस्यां देवतायामार्थपत्यमिच्छत् स्तुतिं प्रगुड्.क्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति” इस यास्कीय परिभाषा के अनुसार देवता उस सूक्त का वर्णनीय विषय होता है जो शीर्षक के रूप् में प्रत्येक सूक्त या अध्याय के प्रारम्भ में वेद में दिया हुआ होता है ताकि पाठक को निश्चय रहे कि अमुक्त मन्त्रों का वर्णनीय विषय अमुक है। यास्क ने समूचे वेदों के अध्याय के आधार पर यह निर्णय दिया कि सभी वैदिक मन्त्रों के देवता अर्थात् वर्णनीय विषय केवल तीन ही हैं, वे या तो पृथ्वी स्थानीय भौतिक विज्ञान अग्नि है, या अन्तरिक्ष स्थानीय भौतिक विज्ञान इन्द्र मेघ या विद्युत आदि हैं, या द्युस्थानीय भौतिक विज्ञान सूर्य है। (र्द्रतिस्त्र एव देवताः इत्यादि) अग्निः पृथ्वीस्थानीय इन्द्रन्तरिक्षास्थानीयः, सूर्यो द्युस्थानीयः। समग्र विश्व मण्डल की सृष्टि (समष्टि) इन्हीं तीन भौतिक भागों में विभक्त है, और वेद इसी समृद्धि के विज्ञान की व्याख्या है जिनमें आत्मा और परमात्मा चेतन तत्व भी समाहित हैं, अतः वेद के मन्त्रों के ये तीन ही विषय या देवता है। निरूक्तकार यास्क ने इस स्थापना के बाद वेद के सभी देवताओं का इन्हीं तीनों भागों में बांट कर इनकी भौतिक वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की। यहां इस दिशा में रिरूक्त के दो उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ।

            वेद में ‘असुर’ शब्द सूर्य के विशेषण के रूप में प्रयक्त किया गया है यथा असुरत्व मे कम जिसका शब्दिक अर्थ हुआ कि एकमात्र सूर्य ही असुर हैं। अब यहां ‘असुर’ शब्द का अर्थ बड़ा ही आपत्तिजनक और अनर्थक है जैसा कि साधारणतः समझा जाता है और आधुनिक भाष्यकारों ने किया भी है, जिससे सूर्य असुर कहते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि सूर्य वेद में असुर इसलिये कहा गया क्योंकि वह संसार में प्राणदायक शक्ति है तो वह केवल मात्र सूर्य है। यह कितना महत्वपूर्ण भौतिक विज्ञान का रहस्य वेद में छुपा हुवा है। आज संसार के वैज्ञानिक कह रहे हैं कि संसार में जीवन (प्राणी) तभी तक है जब तक सूर्य है, यदि सूर्य नष्ट होता है तो विश्व में जीवन प्राणी भी समाप्त हो जायेंगे। यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य वेद में बड़े ही सहज भाव से कह दिया गया है। सूर्य से ही सब प्राणी वनस्पति आदि जीवित हैं।

            दूसरा उदाहरण ‘वैश्र्वानर’ शब्द का है। वैदिक शब्द ‘वैश्र्वानर’ का क्या अर्थ है? यह यास्क के समय बड़ा विवादास्पद बन गया था। अतः यास्क ने निरूक्त में प्रश्न उठाया ‘अथ को वैश्र्वानर?’ इसका समाधान भी यास्क ने इस शब्द की व्युत्पत्ति से किया है। वैश्र्वानरः की व्युत्पत्ति है ‘‘विश्र्वानराज्जायते इति वैश्र्वानरः’’ अर्थात् विश्र्वानर से पैदा होने वाले को वैश्र्वानरः कहते हैं। विश्र्वानरः का अर्थ है सूर्य। सूर्य से साक्षात् क्या वस्तु उत्पन्न होती है इसका परीक्षण यास्क ने वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा किया। यास्क ने कहा कि एक आतिशी शीशे का एक भाग सूर्य की ओर रखो और उसके दूसरी तरफ से सूर्य की किरणों को गुजारने दो। जिधर सूर्य की किरणें गुजर रही हैं उधर किरणों के समक्ष सूखा गोबर (शुष्क गोमय) ऐसे रखो कि सूर्य की किरणें उस गोबर पर पड़े। थोड़ी देर बाद उस गोबर में धुआं क उठेगा और आग पैदा हो जायेंगी। यह अग्नि ही वैश्र्वानर है क्योंकि यह विश्र्वानर अर्थात् सूर्य से पैदा होती है। इस प्रकार यास्क ने यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य स्थिर किया कि समूची पार्थिव अग्नि वैश्र्वानर है क्योंकि यह सूर्य से पैदा होती है। यही आज की सौर ऊर्जा (Solar Energy) है जिसे आज के वैज्ञानिक अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। यही तथ्य यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही कह दिया गया जिसका देवता सविता है ‘‘इषे त्वोज्र्जे त्वा’’ अर्थात् हे सूर्य हम तेरा उपयोग ऊर्जा शक्ति की प्राप्ति के लिये करें।

            यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य ब्राह्मण ग्रन्थ और पूर्व मीमांसा के याज्ञिक दर्शन में भी भरे पड़े हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है ‘‘अग्नीषोमी यमिन्द्रं जगत’’ यह संसार अग्नि और सोम दो भौतिक शक्तियों से निर्मित है। यही अग्नि और सोम आज की ऋणात्मक और धनात्मक, सरकार और नकारात्मक (Positive और Negative) शक्तियाँ हैं। यही वे दो धुरी हैं जिन पर आज का कम्प्यूटर विज्ञान केन्द्रित है जिसका आधार (Binary System) (द्विधुरीय पद्धति) है। पूर्व मीमांसा का समग्र यज्ञ विज्ञान इसी दर्शन पर आधारित है। उदाहरणार्थ वर्षा की आवश्यकता होने पर वर्षा करवाने के लिये वर्षेष्टि याग जो इसी वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित है कि वर्षा करवाने वाली भौतिक शक्तियों को कैसे वृष्टि-अनुकूल वातावरण पैदा करने के लिये यज्ञ द्वारा आवर्जित किया जाये।

            भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण अतिवृष्टि और अनावृष्टि की समस्या जो कृषि को एकदम सीधे विनाशकारी रूप से प्रभावित करती है, का समाधान ढूंढने के लिये बड़ी वैज्ञानिक खोजें प्राचीनकाल में हुई थीं। इन्हीं समस्याओं का समाधान, वृष्टियाग है जो आज भी देश की आर्थिक दशा जिसका आधार कृषि है को सुधारने के लिये अत्यन्त उपयोगी और प्रासगिक है। वेद में इसीलिये एक पूरा सूक्त कृषि सूक्त है। प्राचीनकाल में कृषि विज्ञान पर भारत से बढ़ कर वैज्ञानिक खोज और किसी देश में नहीं हुई। कौटिल्यार्थ शास्त्र इसी के विस्तार से भरा पड़ा है। आज तो इसके साथ पर्यावरण की समस्या भी जुड़ गई है जो कृषि और छोटे वृक्षों को नष्ट करने तथा यज्ञ-याग आदि के अभाव के कारण पैदा हुई हैं।

            इसी प्रकार अन्य याग हैं जो भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिये की गई कामनाओं की पूर्ति के निमित्त किये जाते हैं। इसीलिये पूर्व मीमांसा में महर्षि जैमिनि ने यज्ञ की परिभाषा दी है ‘‘देवतोद्देश्येन द्रव्यत्यणः याग’’।

            वैदिक विज्ञान की यह धारा वैदिक दर्शनों में विशेष विषय के रूप में निष्पन्दित हुई जिसमें न्याय और वैशेषिक दर्शन में भौतिक विज्ञान के (Physics) आधारभूत पांच महाभूत, सांख्य दर्शन में प्राणिक विज्ञान (Biologycal Science) के प्रमुख तत्व बुद्धि, मन, चित्त, अहकार, ज्ञानेन्द्रियाँ तथा तन्मात्रायें आदि और वेदान्त दर्शन में आध्यात्मिक (Metaphysics) चेतना तत्व का विशेष गम्भीर और व्यापक विश्लेषण किया गया। पद्धति और प्रक्रिया का विशद् प्रतिपादन किया गया। इनमें एक-एक दर्शन के प्रत्येक भौतिक वैज्ञानिक तत्व पर गम्भीर और स्वतन्त्र खोज और चिन्तन करने की आवश्यकता है।

            यास्क के बाद मध्यवर्ती काल में यह वैदिक विज्ञान लुप्त हो गया और आधुनिक काल में ऋषि दयानन्द ने इसे फिर से मूल रूप में समझा। उन्होंने घोषणा कि ‘‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है’’ और इसमें समूचा भौतिक विज्ञान मौजूद है। उन्होंने सभी वेदों का भाष्य करने का बीड़ा उठाया और भूमिका के रूप में ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने न केवल यह घोषणा की अपितु स्थान-स्थान पर भौतिक विज्ञान के नमूने वेदमन्त्रों की व्याख्या करके प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक विज्ञान प्रथम कोटि का विज्ञान है और आत्मा और परमात्मा का भी विज्ञान है। भौतिक विज्ञान बिना आध्यात्मिक विज्ञान के अधूरा पगु और अप्रासगिक है। आधुनिक विज्ञान में यह उन्होंने नया अध्याय जोड़ा जो कोरे और नंगे भौतिक विज्ञान की पूर्ति की पराकाष्ठा ही नहीं अपितु विज्ञान जन्य अनेक कमियों और समस्याओं का एकमात्र समाधान भी है। वायुयान विज्ञान, तार विज्ञान, विद्युत् विज्ञान आदि अनेक भौतिक विज्ञानों के नमूने ऋषि दयानन्द ने वेदमऩ्त्रों की व्याख्या करके उस समय प्रस्तुत किये जब इन विज्ञानों का आधुनिक आविष्कार भी नहीं हुआ था। वेदों में भौतिक विज्ञान का उद्घोष ऋषि दयानन्द का आधुनिक युग का अद्वितीय नारा था।

            वेदों में विज्ञान के कुछ नमूने हम पेश करते हैं। ऋग्वेद का सर्वप्रथम प्रारम्भिक मन्त्र है ‘‘अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्’’।। इसी मन्त्र में ईळे क्रियावाची शब्द है। इसका अर्थ अन्य सभी वेद भाष्यकारों ने अशुद्ध किया है। स्वामी दयानन्द ने इसके वास्तविक अर्थ को निरूक्त के आधार पर किया है।

            निघण्टु में वेद के पा्रणाणिक भाष्य पद्धति के व्याख्याता यास्क ने कहा है, ‘‘ईळिरध्येषणा कर्मा”, अर्थात् ईळ धातु अध्येषणार्थक है। अध्येषणा का अर्थ यास्क ने किया है ‘‘अध्येषणा सत्कार पूर्व को व्यापारः”, अर्थात् अध्येषणा का अर्थ है किसी वस्तु के गुणों और क्रियाओं को ठीक-ठीक समझ कर उसके उन गुणों के उपयोगार्थ उस वस्तु को उसी प्रकार के काम में लाना। यही अर्थ स्वामी दयानन्द ने भी किया है। यहां इस मन्त्र का देवता-वर्णनीय विषय-अग्नि है। अतः इसका अर्थ हुआ कि मैं (मनुष्य) अग्नि (भौतिक पदार्थ) को उसके गुण और क्रिया समझ कर उस का उसी प्रकार का उपयोग करूं। यहां अग्नि के कुछ गुण दिये हैं। यहां अग्नि को ‘देवम्’ कहा गया है, देव का अर्थ है प्रकाश और गति। (दिवु धातु द्युति और गति अर्थ वाली) स्पष्ट है कि अग्नि के दो गुण प्रकाश और गति का भौतिक विज्ञान में अत्यधिक महत्व है। अग्नि के लिये एक और शब्द ‘होतारम्’ का यहां प्रयोग है जिसका अर्थ है ध्वनि करने वाला (ह्नेञ् शब्दे) तथा वस्तुओं को खाने या नष्ट करने वाला (हू दानांदनयोः धातु) । अग्नि का विस्फोटक रूप और विध्वंसकारी ध्वनि सर्वविदित ही है। तथा अग्नि अपने में डाली गयी प्रत्येक वस्तु को खा डालती, जला डालती या नष्ट कर डालती है। इसी प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त का पांचवा मन्त्र हैः- अग्निर्होता कविक्रतु सत्यश्र्वित्रश्रवस्तमः। देवो देवे भिरागमत्।। यहां भौतिक अग्नि को दो औरू विशेषणों का प्रयोग है। एक है कविक्रतुः जिसका अर्थ पारदर्शक कर्म वाला (कविः, क्रान्तदर्शी भक्ति यास्क) (क्रतु कर्मपर्याय)। अग्नि पारदर्शक होने से, आधुनिक टेलिविजन, एक्सरे आदि के काम में लाया जाता है। दूसरा गुण है ‘चित्रश्रवस्तमः’, अग्नि अद्भुत तरीके  से ध्वनि का श्रवण करवाता है, यह गुण टेलिफोन आदि के कार्यों को सम्भव और सयोग आविष्कार का कारण बना है। हमने अग्नि आदि अनेक भौतिक पदार्थों के गुणों को भौतिक विज्ञान के सन्दर्भ में अपनी पुस्तक (Glorious Vision Of The Vedas)में वर्णित किया है, जो हौलेण्ड से छपी है, पाठक विस्तार से वहीं से देख सकते हैं।

            वेद में सविता और सूर्य इन दो भिन्न-भिन्न शब्दों से सूर्य का वर्णन मिलता है, यह क्यों? सविता शब्द की व्युत्पत्ति सर्जनार्थक षुञ् धातु से है अतः सविता का अर्थ है सर्जन करने वाला, सविता सूर्य का वह रूप है जो सर्जन करने वाला है अतः सविता के वर्णन में सूर्य के सभी सर्जनात्मक रूपों का वर्णन है। और सूर्य शब्द की व्युत्पत्ति है गत्यर्थक सृ धातु से जिसका अर्थ है गति देने वाला। अतः सूर्य के वर्णन में उन रूपों का समावेश है जो सूर्य के गतिप्रद रूप हैं। इसी प्रकार किरणों के १५ नाम निघण्टु में दिये हैं जो किरणों के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के निदर्शक हैं। आधुनिक विज्ञान को अभी तक सात प्रकार की किरणें ही विदित हैं वेद की शेष किरणों पर शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार यास्क ने वैदिक निघुण्टु में पानी के एक सौ नाम दिये हैं जो पानी के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के वाचक हैं। अभी तक पानी के रूप, पानी, बादल, भाप, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन आदि ही ज्ञात हैं, शेष पानी के कौन से रूप हैं? शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। वैदिक देवता मरूत और वायु आदि में भी मौलिक अन्तर हैं, ये एक ही भौतिक पदार्थ के पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। इस प्रकार वैदिक भौतिक विज्ञान का बहुत व्यापक विश्नल क्षेय है जो खोज चाहता है। हम यहां केवल एक ही और वेद में भौतिक विज्ञान का आधुनिकतम उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देंगे।

           आइन्सटाइन आधुनिक युग के महान्-वैज्ञानिक माने जाते हैं। उन्होंने देश और काल (Time & Space) के विषय में भौतिक विज्ञान के अद्भुत सिद्धान्तों का आविष्कार करके सृष्टि-विज्ञान की नयी व्याख्या प्रस्तुत की। आइन्सटाइन को अभी-अभी मात दी है स्टीफन्स हौकिग ने। स्टीफन हौकिग की आधुनिकतम वैज्ञानिक खोज यह है कि प्रलय काल में भी समय की सत्ता रहती है। यह तथ्य उन्होंने अपने आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर नये फामूर्ले पेश करके सिद्ध किया है। प्रलय-अवस्था के काल की गण्ना करने के फामूर्ले भी उन्होंने दिये हैं। इस अपनी वैज्ञानिक नयी खोज का बड़ा रोचक वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक ‘‘Story of Creation: From Big-Bang to Big Crunch” में बड़े विस्तार से किया है।

            यह वैज्ञानिक तथ्य वेद में पहले से ही वर्णित हैं। यह हमने खोजा है। ऋग्वेद के चार सूक्त अर्थात् मं. १०, सू. १२९, मं. १०, सूक्त १५४, मं. १०, सूक्म १९१, ये चार सूक्त भाववृत्तम् नाम से प्रसिद्ध हैं क्योंकि इन चारों सूक्तों में सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय अवस्था का वर्णन है, अतः ये चारों सूक्त ऋग्वेद के सृष्टि विज्ञान के सूक्त कहे जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि सृष्टि विज्ञान के विषय पर स्टीफन्स हौकिग की पुस्तक (Story of Creation) का नाम भी यही ‘भाववृत्तम्’बनता है। लगता है (Story of Creation) ‘भाववृत्तम्’ का ही अनुवाद हो यह अद्भुत संयोग ही कहा जा सकता है। अस्तु ऋग्वेद के प्रथम भाववृत्तम् सूक्त अर्थात् १०वें मण्डल का १२९वां सूक्त जो नासदीय सूक्त से भी जाना जाता है, इन शब्दों से प्रारम्भ होता हैः- नासदासीत्रो सदासीत्तदानीम्। मन्त्र के इस प्रथम चरण में सृष्टि के पहले प्रलय अवस्था का वर्णन है जिसमें कहा गया है कि प्रलय अवस्था में सत् और असत् देनों ही नहीं थे। यहां यह उल्लेखनीय है कि ‘सत्’ और असत् में दोनों ही वैदिक शब्द बड़े वैज्ञानिक तकनीकी अर्थ में प्रयुक्त हैं जिनकी व्याख्या का यहां अवकाश नहीं है। यहां हम यह बतलाना चाह रहे हैं कि उस प्रयावस्था में जिस अवस्था का वर्णन यहां ऋग्वेद में ‘सत्’ और ‘असत्’ के अभाव के रूप में किया है, एक पदार्थ का भाव स्पष्ट माना है और वह है काल, जिसे ‘तदानीम’ शब्द से विज्ञात घोषित किया है। ‘तदानीम्’ अर्थात् उस समय-जब ‘सत्’ और ‘असत’ भी नहीं थे, किन्तु समय (काल) था। स्टीफन्स हौकिग और आइन्स्टाइन की काल सम्बन्धी प्रमुख खोज को वेद ने एक ही सहज और सरल शब्द ‘तदानीम्’ से धाराशायी कर दिया। वैदिक विद्धानों का अभी तक समूचे भाववृत्त सूक्त की वैज्ञानिक व्याख्या तथा इस मन्त्र की इस व्याख्या पर ध्यान नहीं गया है। प्रलय अवस्था में काल की सत्ता और प्रलय अवस्था के काल की गणना जो एक अत्यन्त कठिन वैज्ञानिक चुनौती है, भारतीय दर्शनों में बड़े विस्तार से दी है। प्रलय अवस्था में सूर्य के अभाव में काल गणना का मापक दण्ड या साधन यन्त्र क्या हो यह बड़ी वैज्ञानिक समस्या है। किन्तु प्राचीन भारतीय ऋषियों ने इस गुत्थी को बड़े वैज्ञानिक कार्ल सागम ने इस तथ्य की पुष्टि को ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में २६ जनवरी १९९७ को छपे अपने साक्षात्कार में बड़े प्रशंसनीय शब्दों में स्वीकारा है। यहां यह सब यहां लिखना सम्भव नहीं है। दो वर्ष पूर्व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हमने इस विषय पर शोधलेख पढ़ा था, जिसकी चर्चा स्थानीय समाचार पत्रों में खूब रही थी।

            इस खोजपूर्ण तथ्य के उद्घाटन के साथ ही हम अपने लेख समाप्त करने से पहले २१वीं सदी और वैदिक विज्ञान की याद दिलाना चाहेंगे। २१वीं सदी पश्चिम के विज्ञान की आंधी और तूफान लेकर विश्व में आयेगी। वैज्ञानिक आविष्कार प्रकृति के रहस्यों को खोल कर रख देंगे। भौतिक विज्ञान की उपलब्धियां मानव को इतना साधन सम्पन्न बना देंगे कि जीवन के तौर तरीके सर्वथा बदल जायेंगे। समाज और राष्ट्र का एक नया भौतिक रूप उभर कर सामने आयेगा। आधुनिक Information Technology, रोबोट, शरीर विज्ञान की नयी खोजें, आने वाले समय का पूर्वाभास करवा रही हैं। ऐसे समय में आर्यसमाज की ही नहीं अपितु समूचे भारत राष्ट्र की परिचायक सत्ता का प्रश्न होगा। वेद और प्राचीन भारतीय भारतीय शास्त्रों का ज्ञान-विज्ञान पश्र्विम की इस आन्धी के साथ टक्कर लेने की पूरी क्षमता रखते हैं, देश की गरिमा को वैदिक ज्ञान-विज्ञान ही सर्वोपरि स्थान पर रख पायेगा, यही देश और समाज की सबसे महत्वपूर्ण धरोहर होगी जिस पर राष्ट्र गर्व करके पश्र्विम के भौतिक अन्धकार में सूर्य के समान विश्व को प्रकाश दिखला सकता है। परोपकारिणी सभा जो स्वामी दयानन्द जी महाराज की एकमात्र उत्तराधिकारिणी सभा है, का विशेष रूप सेयह दायित्व बन जाता है कि ऐसेसमय में वैदिक ज्ञान विज्ञान की खोज करके मानव मात्र का प्रकाश स्तम्भ बने, जिससे दयानन्द और वेद की पताका सर्वोपरि लहराती रहेगी। आधुनिक भौतिक विज्ञान में अपने आप को भूलते हुवे मानव को ज्ञान-विज्ञान की चरम पराकाष्ठा आध्यात्मिक चेतना की याद दिलाती रहे। जो अखण्ड समाप्ति के दश्ज्र्ञन की समूची वैज्ञानिक व्याख्या है।

ए-३।११, पश्चिम विहार देहली-११००६३

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः सोमाहुतिः । देवता अग्निः । छन्दः स्वराडू आर्षी त्रिष्टप्।

पुर्नस्त्वादित्या रुद्रा वसवः सन्धि पुनर्ब्रह्माणो वसुनीथ यज्ञैः। घृतेन त्वं तन्वं वर्धयस्व सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ॥

-यजु० १२।४४

हे ( वसुनीथ) स्वास्थ्य आदि ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले यज्ञाग्नि! ( पुनः त्वा ) पुनः तुझे (यज्ञैः ) यज्ञों से ( आदित्या:१) त्रिवेदी विद्वान्, (रुद्राः२) द्विवेदी विद्वान्, ( वसवः३) एकवेदी विद्वान् ( समिन्धताम् ) प्रज्वलित करें, ( पुनः ) पुनः ( ब्रह्माण:४) चतुर्वेदी विद्वान् [प्रदीप्त करें](घृतेन ) घृत से ( त्वं ) तू ( तन्वं) शरीर को (वर्धयस्व) बढ़ा। (सत्याः सन्तु) सत्य हों (यजमानस्य कामाः ) यजमान की कामनाएँ।

यजमान ने किन्हीं पवित्र महत्त्वाकांक्षाओं को लेकर सकाम यज्ञ आरम्भ किया है। यज्ञवेदि को हल्दी, रोली आदि से सजा कर यज्ञकुण्ड में घृतदीपक से अग्नि प्रज्वलित की है। यह अग्नि प्रकाश, ज्ञानज्योति, प्रगति, स्फूर्ति, अग्रगामिता, विघ्नदाह, राक्षसी वृत्तियों के भस्मीकरण, ऊध्र्वारोहण आदि का प्रतीक है। घृताहुति से यह बल पाता है और इसकी ज्वालाएँ ऊपर उठती हैं। सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिप्रद और रोगहर पदार्थों के प्रज्वलन से यह पर्यावरण को शुद्ध करता है। मानस में मनुष्य से देव बनने की तरङ्गे उठाता है, सङ्कल्प को दृढ़ करता है। और ध्येय में सफल होने की प्रेरणा करता है। यह अग्नि ‘वसुनीथ’ कहलाता है, क्योंकि स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, प्राणशक्ति मनोबल आदि ऐश्वर्यों को प्राप्त कराता है और उनका उन्नयन करता है। जीवन में एक बार ही इसे प्रज्वलित करना पर्याप्त नहीं है, अतः मन्त्र प्रेरणा कर रहा है कि याज्ञिकजन जीवन में पुनः पुन: इसे प्रज्वलित किया करें। इन याज्ञिकों को यहाँ चार श्रेणियों में विभक्त किया गया है, वसु, रुद्र, आदित्य और ब्रह्मा । वसु एकवेदी, रुद्र द्विवेदी, आदित्य त्रिवेदी और ब्रह्मा चतुर्वेदी याज्ञिक हैं। यज्ञ घृत और चतुर्विध हवन-सामग्री से तो लाभ पहुँचाता ही है, इसके अतिरिक्त यजमान और पुरोहितों को जितना अधिक वेदमन्त्रों का अर्थबोध होगा, उतना ही अधिक आन्तरिक लाभ भी ये प्राप्त कर-करा सकेंगे। एक, दो, तीन या चारों वेदों का मन्त्रार्थ समझते हुए जो यज्ञ करता है, वह यज्ञ का केवल भौतिक लाभ ही नहीं प्राप्त करता, अपितु सद्गुण, विवेक, कर्त्तव्यबोध, ज्ञानवृद्धि, ईश्वरभक्ति, अमृतवर्षा, अन्नमय-प्राणमय-मनोमय-विज्ञानमय कोषों की बलवत्ता आदि का लाभ भी प्राप्त करता है। वह मन्त्रार्थ को अपने और समाज के जीवन में क्रियान्वित करने का व्रत भी व्रतपति अग्नि से और व्रतपति परमेश्वर से ग्रहण करता है। हे यज्ञाग्नि! तू घृतादि की आहुतियों से अपनी और यजमान की, दोनों की तनूवृद्धि कर, दोनों का शरीरवर्धन कर! हे यजमान ! यज्ञ में उपस्थित समस्त यज्ञप्रेमियों का, विद्वानों का, पुरोहितों का, वेद का और परमेश्वर का तुझे यह आशीर्वाद है कि यजमान की कामनाएँ सत्य हों, पूर्ण हों, फलित हों-”सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ।”

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१-४.( वसव:) प्रथमे विद्वांसः, (रुद्राः) मध्यस्था:, (आदित्या:)पूर्णविद्याबलयुक्ताः, (ब्रह्माण:) चतुर्वेदाध्ययनेन ब्रह्मा इति संज्ञां प्राप्ताः द० |

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार 

हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार

हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विश्वामित्रः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी पङ्किः ।

इडामग्ने पुरुससनिं गोः शश्वत्त्तमहर्वमानाय साध। स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुतिर्भूत्वस्मे॥

-यजु० १२।५१

( अग्ने ) हे तेजस्वी परमेश्वर ! ( हवमानाय ) मुझ प्रार्थी के लिए ( इडाम् ) भूमि, अन्न और गाय तथा ( पुरुदंसं ) अनेक कर्मों को सिद्ध करनेवाली ( गो:४ सनिं ) वाणी की देन ( शश्वत्तमं ) निरन्तर ( साध ) प्रदान कीजिए। (नः सूनुः ) हमारा पुत्र ( तनयः५) वंश आदि का विस्तार करनेवाला और ( विजावा ) विविध ऐश्वर्यों का जनक ( स्यात् ) हो ( सा ) ऐसी ( ते सुमतिः ) आपकी सुमति ( अस्मे ) हमारे लिए ( भूतु ) होवे।

हे अग्नि! हे अग्रनायक तेजस्वी परमेश्वर ! हम आपसे कुछ याचना कर रहे हैं, करबद्ध होकर प्रार्थना कर रहे हैं, वह हमारी प्रार्थना कृपा करके आप पूर्ण कीजिए। क्या कहते हो? अपने आचार्य के वचन सुनो-”यही प्रार्थना का मुख्य सिद्धान्त है कि जैसी प्रार्थना करे वैसा ही कर्म करे।७।। अतः जो कुछ माँगते हो उसे पाने का स्वयं पुरुषार्थ करो। पुरुषार्थ तो हम करेंगे भगवन्, किन्तु पहले आपका आशीर्वाद तो ले लें । प्रार्थना द्वारा आपसे दृढ़ सङ्कल्प, कर्म के प्रति तत्परता, उत्साह, प्रेरणा, सफलता का आशीर्वाद आदि प्राप्त होते हैं। प्रार्थना करके हम उन्हें ही प्राप्त करना चाहते हैं। फिर कृतकार्य होने के लिए पुरुषार्थ में जुट जायेंगे और आपके आशीर्वाद से प्रार्थित वस्तुओं को प्राप्त करके ही रहेंगे। पहली वस्तु, जो हम माँगते हैं, वह है ‘इडा’। इडा का अर्थ है भूमि, अन्न और  गाय । हमें निवास के लिए, खेती करने के लिए, बाग-बगीचे लगाने के लिए, कल-कारखाने खोलने के लिए और शिक्षणालय, औषधालय आदि चलाने के लिए भूमि दीजिए। अन्न, अर्थात् सकल शुद्ध आरोग्यकारी भोज्य पदार्थ दीजिए और दूध-दही-माखन आदि की पूर्ति के लिए दुधारू गाय दीजिए। दूसरी हमारी प्रार्थित वस्तु है ‘गोः सनिः’। गो शब्द निघण्टु में वाणीवाचक शब्दों में भी पठित है। वाणी की देन भी हमें चाहिए। वाणी पुरुदंसाः’ है, अनेक कार्यों को सिद्ध करनेवाली है। वेदादि शास्त्रों की वाणी, गुरुजनों की वाणी, अनुभवी संन्यासियों की वाणी मूर्ख को भी विद्वान्, अधार्मिक को भी धर्मात्मा, आतङ्कवादी को भी मित्र बना देती है। वाणी की यह देन नैरन्तर्य के साथ हमें प्राप्त होती रहे। हम कभी वाणी से और वाणी के लाभों से वञ्चित न हों। तीसरी वस्तु हम यह माँगते हैं कि हमारा पुत्र ‘तनय’ हो, वंश के यश का विस्तार करनेवाला हो। वह ‘विजावा’ अर्थात् विविध ऐश्वर्यो का जनक भी हो। धन-सम्पदा का ऐश्वर्य, वीरता का ऐश्वर्य, विद्या का ऐश्वर्य, प्रताप का ऐश्वर्य, अहिंसा का ऐश्वर्य, सत्य का ऐश्वर्य, ब्रह्मचर्य का ऐश्वर्य आदि ऐश्वर्यों की उसके पास झड़ी लगी हो।

हे अग्निदेव! हे तेजस्वी परमेश! ऐसी आपकी सुमति हमारे ऊपर रहे कि हम समस्त वांछित वस्तुओं को पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त करते रहें और संसार में सर्वाधिक समुन्नत होकर जीवनयापन करें।

पादटिप्पणियाँ

१. हृञ् स्पर्धायां शब्दे चे, सम्प्रसारण, पूर्वरूप होने पर हृ=हु, शानच् ।

२. इडा=पृथिवी, अन्न, गाय, निघं० १.१, २.७, २.११।।

३. पुरूणि बहूनि दंसांसि (कर्माणि) भवन्ति यस्मात्–द० ।

४. इडा=वाकु, निघं० ३.११ ।।

५. तनोति विस्तारयति वंशं यशश्च यः स तनयः।

६. विजावा विविधैश्वर्यजनकः-द०।।

७. अयमेव प्रार्थनाया मुख्यः सिद्धान्तः, यादृशीं प्रार्थनां कुर्यात् तादृशमेवकर्माचरदिति । य०भा० ३.३५ का भावार्थ।

हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार 

जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार

जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विरूपः । देवता सूर्य: । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

चित्रं देवानामुर्दगदनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।। आणू द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षसूर्य’ऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥

-यजु० १३ । ४६

( देवानाम् ) दीप्तिमान् किरणों का (चित्रम् अनीकम् ) चित्रविचित्र सैन्य ( उदगात् ) उदित हुआ है। यह ( मित्रस्य वरुणस्य अग्नेः ) वायु, जल और अग्नि का अथवा प्राण, उदान और जाठराग्नि का ( चक्षुः ) प्रकाशक एवं प्रदीपक है। हे सूर्य! तूने (आअप्राः२) आपूरित कर दिया है ( द्यावा पृथिवी ) द्युलोक और पृथिवीलोक को तथा ( अन्तरिक्ष ) अन्तरिक्ष को। ( सूर्यः ) सूर्य ( आत्मा ) आत्मा है ( जगतः ) जङ्गम का ( तस्थुषः च ) और स्थावर का।

देखो, रात्रि के अन्धकार को चीरता हुआ प्रभात खिल रहा है। सूर्य-रश्मियों का चित्र-विचित्र सैन्य उदित हुआ है। चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश दिखायी दे रहा है। तरु, वल्लरी, सदन, अट्टालिकाएँ, स्तूप राजप्रासाद सब दीप्ति से जगमगाने लगे हैं। अन्धेरा गिरि-कन्दराओं में जाकर छिप गया है। शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन का स्पर्श शरीर को सुखद लग रहा है। नदियों और सरोवरों के जल पर झिलमिलाती हुई दिवाकर की किरणें दर्पण में झाँकती हुई-सी प्रतीत हो रही हैं। अग्नि की ज्वालाएँ अपनी ज्योति के स्रोत सूर्य को देख कर शरमाती हुई-सी लग रही हैं। यही रश्मिपुञ्ज सूर्य, वायु, जल और अग्नि का तथा शारीरिक प्राण, उदान और जाठराग्नि का भी चक्षु है, प्रकाशक है, प्रदीपक है। हे सूर्य! तूने अपनी किरणों  से द्युलोक, पृथिवीलोक और अन्तरिक्षलोक को आपूरित कर लिया है। सचमुच यह सूर्य जङ्गम और स्थावर का आत्मा है, प्राण है, जीवन है। इसी सूर्य से मानव आदि प्राणी प्राण प्राप्त करते हैं, इसी सूर्य से वृक्ष-वनस्पति जीवन धारण करती हैं। इसी सूर्य से जङ्गम-स्थावर स्थिति पाता है। यही सूर्य हमारी भूमि का आधार है, यही मङ्गल, बुध, बृहस्पति आदि ग्रहों का आधार है, यही सूर्य इन ग्रहों के उपग्रह भूत चन्द्रों का आधार है। यह तो बाह्य जगत् की लीला है।

अन्तर्जगत् की ओर भी दृष्टि डालो। परमात्मसूर्य की प्रकाशमय दिव्य किरणों का जाल आत्मलोक पर छा रहा है। आत्मलोक पर प्रभात उदित हो रहा है। तामसिकता का अन्धकार विनष्ट हो गया है। इस अन्त:प्रकाश ने प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय लोक को भी प्रकाशित कर दिया है। आत्मा, मन और शरीर को इस परमात्मसूर्य ने पूर्णतः आपूरित कर लिया है। यह परमात्मसूर्य जङ्गम मनोवृत्तियों का और ज्ञानेन्द्रियों का तथा कर्मेन्द्रियों एवं अन्नमय शरीर का प्राण है। हे साधको! इस परमात्मसूर्य से दिव्य प्राण, जीवन और जागृति प्राप्त करो, अन्त:करण को प्रकाशित करो।

पाद-टिप्पणियाँ

१. मित्रस्य प्राणस्य, वरुणस्य उदानस्य-२० ।।

२. आप्रा:=ओ अप्राः, प्रा पूरणे, लङ्।

जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार 

मानव को किन कार्यों के लिए नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार

मानव को किन कार्यों के लिए  नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता प्रजापतिः । छन्दः विराड् ब्राह्मी जगती ।

त्रिवृदसि त्रिवृते त्वा प्रवृदसि प्रवृते त्वा विवृदसि विवृते त्वा सवृदसि सवृते त्वाऽऽक्रमोऽस्याकूमार्य त्वा संक्रमोऽसि संक्रमार्य त्वोत्क्रमोऽस्युत्क्रमा त्वोत्क्रान्तिरस्युत्क्रान्त्यै त्वाधिपतिनो र्जार्ज जिन्व।।

-यजु० १५ । ९

हे मनुष्य ! तू (त्रिवृद् असि ) ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों तत्वों के साथ वर्तमान है, अतः ( त्रिवृते त्वा ) इन तीनों की वृत्ति के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( प्रवृत् असि) प्रवृत्तिमार्ग में जाने योग्य है, अतः ( प्रवृते त्वा ) प्रवृत्तिमार्ग पर चलने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( विवृद् असि ) विविध उपायों से उपकार करनेवाला है, अत: (विवृते त्वा ) विविध उपायों से उपकार के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू (सवृद्असि) अन्यों के साथ मिलकर सङ्गठन बना सकनेवाला है, अत: ( सवृते त्वा ) अन्यों के साथ मिलकर सङ्गठन बनाने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू (आक्रमःअसि ) शत्रुओं पर आक्रमण कर सकनेवाला है, अतः ( आक्रमाय त्वा ) शत्रुओं पर आक्रमण करने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( संक्रमः असि ) संक्रमे करनेवाला है, अतः ( संक्रमाय त्वा ) संक्रमण के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू (उत्क्रमः असि ) उत्क्रमण करनेवाला है, अतः ( उत्क्रमाय त्वा ) उत्क्रमण के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( उत्क्रान्तिः असि ) उत्क्रान्ति करनेवाला है, अत: (उत्क्रान्त्यै त्वा ) उत्क्रान्ति के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( अधिपतिना ऊर्जा ) अधिरक्षक बलवान्  द्वारा (ऊर्जी ) बल को (जिन्व) प्राप्त कर।

हे मानव ! क्या तू जानता है कि तू संसार का सर्वोत्कृष्ट प्राणी है। तुझे अपनी सर्वोत्कृष्टता के अनुरूप ही कर्म करने हैं। तू त्रिवृत्’ है, ज्ञान-कर्म-उपासना तीनों की योग्यता रखता है। अतः तुझे उत्कृष्ट ज्ञान, उत्कृष्ट कर्म और उत्कृष्ट उपासना तीनों के सम्यक् सम्पादन के लिए नियुक्त करता हूँ। अकेला ज्ञान या अकेला कर्म कुछ अर्थ नहीं रखता, ज्ञानपूर्वक किया गया कर्म ही श्रेष्ठ फल उत्पन्न करता है। उपासना भी ज्ञानपूर्वक ही होती है, अकेली उपासना छलावा है। अत: तू तीनों का जीवन में यथोचित मेल रख कर ही कार्य कर। दूसरी बात जिसकी ओर मैं तेरा ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ, वह यह है कि संसार में जीवनयापन के दो मार्ग हैं-एक प्रवृत्तिमार्ग और दूसरा निवृत्तिमार्ग। निवृत्तिमार्ग के अनुयायी लोग यह चाहते हैं कि हम सांसारिक कार्यों से उपरत होकर अहं ब्रह्मास्मि’ का ही जप करते रहें। परन्तु यह आत्मप्रवंचना है। सांसारिकता को सर्वथा छोड़ा नहीं जा सकता। प्रवृत्तिमार्ग कहता है कि जिस स्थिति में हमारे जो कर्तव्य हैं, उनका हमें पालन करना चाहिए। कुमारावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था, ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व, ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ, संन्यास सबके अपने-अपने शास्त्रोक्त कर्तव्य है। उन्हें करते हुए कुछ समय हम धारणा-ध्यान-समाधि के लिए भी निकालें । यह प्रवृत्तिमार्ग ही मैं तेरे लिए निर्धारित करता हूँ। इस मार्ग में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का समन्वय है, सामञ्जस्य है।

यह भी ध्यान रखें कि तेरे अन्दर विविध उपायों से उपकार करने का सामर्थ्य है। अत: तू विविध उपायों से जीवन में परोपकार करता रह। कभी तू निर्धन को धन देकर उसका उपकार कर, कभी तू मूक को वाणी देकर, बधिर को श्रवण देकर, पंगु को टाँग देकर, रोगी को स्वास्थ्य देकर उनका उपकार करे। कभी तू अशिक्षित को शिक्षा देकर, मूर्ख को विद्वान् बना कर उसका उपकार कर। कभी तू पीड़ित की।  पीड़ा हर कर, विपद्ग्रस्त की विपत्ति हर कर उसका उपकार कर। हे मानव ! याद रख, अन्यों के साथ मिलकर सङ्गठन बनाने की शक्ति भी तेरे अन्दर है, अत: अन्यों को साथ लेकर सङ्गठन बना, संस्था खड़ी कर, संस्थान खोल और उन सङ्गठनों, संस्थाओं तथा संस्थानों के द्वारा ऐसा कार्य कर दिखा जिस पर संसार तुझे साधुवाद दे। इस भूतल पर तेरे अनेक शत्रु भी हो सकते हैं। तू उनकी दाल मत गलने दे। उन पर आक्रमण कर और उन्हें पराजित करके विजयदुन्दुभि बजा । तेरे अन्दर संक्रमण की शक्ति भी है। संक्रमण का तात्पर्य है, अन्यों के साथ सम्पर्क करके उनके अन्दर अपने गुण समाविष्ट करना । यदि ऐसा तू करेगा, तो नास्तिकों को आस्तिक, हिंसकों को अहिंसक, निर्बलों को बली, लुटेरों को साधु और शत्रुओं को मित्र बना सकेगा। तेरे अन्दर उत्क्रमण का सामर्थ्य है, अत: उत्क्रमण भी कर। उत्क्रमण का अर्थ है, ऊपर उछलना, जिस स्तर पर खड़ा है, उससे ऊपर के स्तर पर पहुँचना और इस प्रकार उपरले उपरले स्तर पर पहुँचते-पहुँचते सर्वोन्नत शिखर पर पहुँच जाना। तू उत्क्रान्ति भी कर सकता है, अतः उत्क्रान्ति भी कर। उत्क्रान्ति से अभिप्रेत है जनसमूह को लेकर उच्च दिशा में क्रान्ति कर दिखाना। जैसे किसी पराधीन देश के वासियों द्वारा मिलकर पराधीनता की जंजीर तोड़कर स्वराज्य पा लेना।

हे मानव! किसी बलवान् और प्राणवान् को अधिपति बना कर, अपना संरक्षक बना कर बल तथा प्राणशक्ति प्राप्त कर और संसार को बदल दे।

मानव को किन कार्यों के लिए  नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार 

जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार

जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः दीर्घतमा: । देवता वरुण: । छन्दः क. आर्षी त्रिष्टुप्,| र. निवृद् अनुष्टुप् ।।

कमापो मौषधीहिंसीर्धाम्नोधाम्नो राजॅस्ततो वरुण नो मुञ्च। यदाहुघ्न्याऽइति वरुणेति शपमहे ततो वरुण नो मुञ्च। ‘सुमित्रिया नऽआपओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु। योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः

-यजु० ६ । २२

हे ( वरुण राजन् ) वरणीय राजन् ! ( मा अपः ) न जलों को, ( मा ओषधीः ) न ओषधियों को ( हिंसीः ) हिंसित या दूषित करो। ( धाम्नः धाम्नः ) प्रत्येक स्थान से (ततः) उसे हिंसा या प्रदूषण से ( नः मुञ्च ) हमें छुड़ा दो। (शपामहे ) हम शपथ लेते हैं कि ( यद् आहुः ) जो यह कहते हैं कि । गौएँ ( अघ्न्याः इति ) अघ्न्या हैं, न मारने-काटने योग्य हैं, । ( ततः ) उससे ( वरुण ) हे श्रेष्ठ राजन् ( नो मुञ्च ) हमें मत छुड़ा। (सुमित्रियाः) सुमित्रों के समान हों ( नः ) हमारे लिए ( आपः ) जल और ( ओषधयः ) ओषधियाँ, ( दुर्मित्रियाः तस्मै सन्तु ) दुर्मित्रों के समान उसके लिए हों (यःअस्मान्द्वेष्टि) जो हमसे द्वेष करता है, ( यं च वयं द्विष्मः ) और जिससे हम द्वेष करते हैं।

हे मानव ! यदि तू शुद्ध सागपात खाना चाहता है और शुद्ध जल पीना चाहता है, तो जल और ओषधियों को न प्रदूषित कर, न समाप्त कर । प्रदूषित जल पीने और प्रदूषित ओषधियों तथा उनके पत्र, पुष्प, अन्न, फल, फली आदि के खाने से यह पवित्र नर-तन मलिनताओं और रोगों का अड्डा बन जाएगा। यदि जल और ओषधियाँ दुर्लभ हो जाएँ, तब तो मनुष्य का जीवन ही विपत्ति में पड़ जाएगा। हे श्रेष्ठ राजन् ! हे प्रजा द्वारा प्रजा में से बहुसम्मति द्वारा चुने हुए राजन् ! धाम धाम में, स्थान-स्थान में इस जल-प्रदूषण और ओषधि प्रदूषण तथा जल-विनाश और ओषधि-विनाश से लोगों को राजनियम द्वारा रोकिये। साथ ही राष्ट्र में गौओं का संरक्षण भी आवश्यक है, अतः जनता से प्रतिज्ञा करवाइये, हस्ताक्षर अभियान प्रारम्भ करवाइये कि कहीं भी गोवध न हो, गौएँ मारी-काटी न जाएँ न ही गोमांस का भक्षण और व्यापार हो। यदि कोई गोमांस खाता है, तो उसे आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाए। जल और ओषधियाँ हमारे साथ मित्र जैसा आचरण करें, अर्थात जैसे मित्र मित्र को लाभ पहुँचाता है। वैसे ही शुद्ध जल और शुद्ध ओषधि-वनस्पतियाँ हमें लाभ पहुँचाएँ, शरीर की भूख-प्यास मिटाएँ, शरीर को स्वस्थ रखें और शरीर को पुष्ट करें। परन्तु समाज में ऐसे लोग भी हैं, जो पर्यावरणशुद्धि की ओर कुछ ध्यान नहीं देते, जान-बूझकर कूपों, सरोवरों तथा नदियों का जल प्रदूषित करते हैं, वनस्पतियों-ओषधियों को दूषित जल से सींचते हैं, दूषित खाद देते हैं वे जल और ओषधियों के भी द्वेषी हैं, हमारे भी द्वेषी हैं। उनके प्रति जल और ओषधियाँ मित्रवत् नहीं, अपितु दुर्मित्र या शत्रु के समान आचरण करें। हम जल और ओषधियों से मित्रवत् व्यवहार करते हैं, अत: हमें सुख दें, जो उनसे अमित्रवत् व्यवहार करते हैं, उनके प्रति वे भी अमित्र हों। तभी उन्हें शिक्षा मिलेगी।

जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार

योगविद्या के प्रचारार्थ विद्वान् योगी का आव्हान -रामनाथ विद्यालंकार

योगविद्या के प्रचारार्थ विद्वान् योगी का आव्हान -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः देवश्रवाः । देवता यज्ञपतिः । छन्दः ब्राह्मी बृहती।

आत्मने मे वर्चादा वर्चसे पवस्वौजसे मे वर्चेदा वर्चसे पवस्वायु मे वर्चीदा वर्चसे पवस्व विश्वभ्यो मे प्रजाभ्यो वर्चादसौं वर्चसे पवेथाम् ॥

-यजु० ७ । २८ |

हे (वर्षोंदा:१) योगविद्या और ब्रह्मविद्या के दाता योगी विद्वन् ! आप ( मे आत्मने) मेरे आत्मा के लिए ( वर्चसे ) योगवर्चस और ब्रह्मवर्चस प्रदानार्थ ( पवस्व ) प्रवृत्त हों। हे (वर्चेदाः ) वर्चस्विता के दाता ! आप ( मे ओजसे ) मेरे आत्मबल के लिए ( वर्चसे ) योगबलप्रदानार्थ ( पवस्व ) प्रवृत्त हों । हे (वर्षोंदा:४) देहबल के दाता ! आप (मेआयुषे ) मेरे दीर्घायुष्य के लिए (वर्चसे ) शारीरिक बल प्रदानार्थ ( पवस्व ) प्रवृत्त हों । हे ( वर्षोंदसौ ) योगदाता हठयोगी और ध्यानयोगी विद्वानो! आप दोनों (मेविश्वाभ्यः प्रजाभ्यः ) मेरी सब प्रजाओं के लिए ( वर्चसे ) ब्रह्मबलप्रदानार्थ (पवेथाम्) प्रवृत्त हों ।।

मैंने सांसारिक विद्याएँ तो बहुत सीख ली हैं और उनका विद्वान् कहलाने का सौभाग्य भी प्राप्त कर लिया है, किन्तु योगविद्या और ब्रह्मविद्या में अभी कोरा ही हूँ। अनुभवी लोग बताते हैं कि शरीर, मन, मस्तिष्क, आत्मा सबके विकास के लिए योग और ब्रह्मविद्या की शिक्षा आवश्यक है। अत: मैं योग गुरु की शरण में आया हूँ। हे योगसाधना और ब्रह्मविद्या में पारङ्गत योगी विद्वन् ! आप मेरे आत्मा के उत्कर्ष के लिए योग की क्रियाएँ सिखाइये, जिससे में ब्रह्मवर्चस प्राप्त कर सकें। आप मुझे यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार,  धारणा, ध्यान, समाधि रूप अष्ट योगाङ्गों में निष्णात कर दीजिए। ध्यानयोग के अभ्यास से मुझे ऐसी सिद्धि प्राप्त कराने की कृपा कीजिए कि मैं जिस विषय में भी जितनी भी देर मन को केन्द्रित करना चाहूँ कर सकें और मन को निर्विषय भी कर सकें तथा सविकल्पक और निर्विकल्पक समाधि का भी आनन्द ले सकें। आप मुझे ब्रह्मविषयक सम्पूर्ण शास्त्रज्ञान और ब्रह्मसाक्षात्कार भी कराने का अनुग्रह कीजिए।

हे वर्चस्विता के दाता योगी गुरुवर! मैंने सुना है कि आत्मा में बहुत बड़ी-बड़ी शक्तियाँ निहित हैं। जिसने आत्मसाधना कर ली है, वह योगी जिसे जो आशीर्वाद दे देता है, वह सत्य सिद्ध हो जाता है। आत्मबल बड़े-बड़े शक्तिशाली विद्युत्-यन्त्रों से भी बड़ा है, आत्मबल धरती को कहीं से कहीं फेंक देनेवाले अणुबम से भी बड़ा है, आत्मबल ग्रह उपग्रहों को अपनी परिक्रमा करानेवाले सूर्य के बल से भी बड़ा है।

हे देहबल के दाता योगी आचार्यवर ! योगविद्या से आप मेरे शरीर में वह शक्ति भर दीजिए कि मैं दीर्घायुष्य प्राप्त करे सकें। वेद ने प्राण, चक्षु आदि के लिए त्र्यायुष अर्थात् तीन सौ वर्ष की आयु प्राप्त करने की बात कही है। मैं उससे भी आगे बढ़कर इच्छामरण की शक्ति प्राप्त कर सकें। हे योग शिक्षाप्रदाता हठयोगी और ध्यानयोगी विद्वानो ! आप कृपा करके केवल मुझे ही नहीं, मेरी सब प्रजाओं को योगबल और ब्रह्मबल प्रदानार्थ प्रवृत्त होने की कृपा करें, जिससे मैं और मेरी सब प्रजाएँ दीर्घायु, आत्मबली और ब्रह्मबली बन सकें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (वर्षोदा:) योगब्रह्मविद्याप्रद–द०।।

२. (ओजसे) आत्मबलाय–द० ।।

३. (वर्चसे) योगबलप्रकाशाय-द० ।

४. (वर्षोदाः) वर्षों बलं ददाति तत्सम्बुद्धौ-द० ।

योगविद्या के प्रचारार्थ विद्वान् योगी का आव्हान -रामनाथ विद्यालंकार 

उससे बढकर कोई पैदा नहीं हुआ -रामनाथ विद्यालंकार

उससे बढकर कोई पैदा नहीं हुआ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विवस्वान्। देवता प्रजापतिः (परमेश्वरः) ।। छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।।

यस्मन्न जातः परोऽअन्योऽअस्ति यऽविवेश भुव॑नानि विश्वा। प्रजापतिः प्रजया सरगुणस्त्रीणि ज्योतीष्ठषि सचते स षोड्शी॥

-यजु० ८ । ३६ |

( यस्मात् परः ) जिससे उत्कृष्ट ( अन्यः न जातः अस्ति) अन्य कोई उत्पन्न नहीं हुआ है, ( यः ) जो (आविवेश ) प्रविष्ट है (विश्वा भुवनानि) सब भुवनों में । वह ( प्रजापतिः) प्रजापालक परमेश्वर (प्रजया) अपनी प्रजा के साथ ( सं रराण:१) सम्यक् क्रीडा करता हुआ ( त्रीणि ज्योतींषि सचते ) अग्नि विद्युत्-सूर्य तथा मन-बुद्धि-आत्मा इन तीनों तीनों ज्योतियों में समवेत है।

क्या तुम पूछते हो कि प्रजापति से बढ़कर कौन है ? परन्तु यदि तुम प्रजापति को सच्चे अर्थों में जान लो, तो अपने प्रश्न का उत्तर तुम्हें स्वयमेव मिल जाएगा। प्रजापति वह है, जिसने विश्व की सब जड़ चेतन प्रजाओं को जन्म दिया है। ब्रह्माण्ड में जो कुछ दृष्टिगोचर होता है भूमि, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, सूर्य, तारावलि सब उसी का पैदा किया हुआ है। ये सब लोक-लोकान्तर बड़े ही विलक्षण हैं। हम मानव इनके विषय में बहुत कम जान पाये हैं। किन्तु जितना भी जान पाये हैं, वही हमें आश्चर्यचकित कर देता है। जिस भूमि पर हम रहते हैं, उसमें दिन-रात्रि के आवागमन की, ऋतुओं के निर्माण की, जल के वाष्पीकरण की, अन्तरिक्ष से जलवृष्टि की, नदयों के बहने की, सागर के लहराने की, वनस्पतियों  के उगने की, प्राणियों के जन्म लेने की, श्वास-प्रश्वास आदि द्वारा जीवनधारण की कैसी सुव्यवस्था उसने की हुई है, यही क्या कम अचरज पैदा करनेवाली बात है ! फिर अन्य लोकलोकान्तरों का तो कहना ही क्या है ! प्रजापति सब प्रजाओं को केवल जन्म ही नहीं देता, किन्तु इन सबका पति अर्थात् अधीश्वर और पालक भी है। इतना पता लग जाने के बाद अपने प्रश्न का उत्तर तुम स्वयं दे सकोगे कि प्रजापति से अधिक बड़ा विश्व-ब्रह्माण्ड में कोई नहीं है।

प्रजापति सब लोकों का न केवल जन्मदाता, व्यवस्थापक और पालक है, अपितु वह सब भुवनों के अन्दर प्रविष्ट भी है, सर्वान्तर्यामी है। अपनी उत्पन्न की हुई प्रत्येक जड़-चेतन प्रजा के साथ वह यथायोग्य क्रीडा कर रहा है। किसी को गति देता है, किसी को स्थिर रखता है, किसी को तपाता है, किसी को शीतलता देता है, किसी को चमकाता है, किसी को निस्तेज रखता है, किसी को आकाश में उड़ाता है, किसी को नीचे पटकता है, किसी को सुन्दरता देता है, किसी पर काला कलूटा रङ्ग फेर देता है। | वह पार्थिव ज्योति अग्नि, अन्तरिक्ष-ज्योति विद्युत् और द्यौ की ज्योति आदित्य तीनों में समवेत है। आन्तर ज्योति मन, बुद्धि और आत्मा में भी विराजमान होकर उन्हें शक्ति दे रहा है। वह प्रजापति ‘षोडशी’ है, सोलहों कलाओं से युक्त चन्द्रमा के समान परिपूर्ण है, उसमें किसी कला की न्यूनता नहीं है। आओ, हम सब उस प्रजापति प्रभु का गुणगान करते हुए उसकी आज्ञा का पालन करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. संरणिः सम्यक् रममाण:-म० । रमु क्रीडायाम्।

२. षच समवाये, भ्वादिः ।।

उससे बढकर कोई पैदा नहीं हुआ -रामनाथ विद्यालंकार