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स्वामी श्रद्धानन्द संन्यास-दीक्षा शताब्दी:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

यह वर्ष महाप्रतापी संन्यासी, शूरता की शान स्वामी श्रद्धानन्द जी का संन्यास दीक्षा शताब्दी वर्ष है। वर्ष भर हम परोपकारी में स्वामी जी महाराज के जीवन व देन पर कुछ न कुछ लिखते रहेंगे। वर्ष भर परोपकारिणी सभा कई कार्यक्रम आयोजित करेगी और करवायेगी। इस लेखक द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज पर अब तक का सबसे बड़ा ग्रन्थ ‘शूरता की शान-स्वामी श्रद्धानन्द’ चार-पाँच मास तक छप जायेगा। इसमें पर्याप्त ऐसी सामग्री दी जा रही है जो अब तक किसी ग्रन्थ में नहीं दी गई। दस्तावेजों को स्कैन करके भी ग्रन्थ में दिया जायेगा।

आज-भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ- स्वामी श्रद्धानन्द जी की शूरता की एक अनूठी घटना यहाँ संक्षेप में दी जाती है। सन् १९०५ के मार्च मास में पंजाब के एक देशभक्त ला. दीनानाथ जी ने अपने पत्र में एक गोरे द्वारा एक भारतीय को मारे जाने की दु:खद घटना का समाचार प्रकाशित कर दिया। तब ऐसा करना बड़े साहस का कार्य था। ऐसा ही एक समाचार प्रकाशित करने के कारण श्री लाला लाजपतराय जी पर सरकार ने अभियोग चला दिया था। ला. दीनानाथ पर भी विपत्तियों के पर्वत टूट सकते थे।

श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी ने उनकी पुष्टि में ‘गोराशाही की करतूत’ शीर्षक से ‘सद्धर्मप्रचारक’ में एक लम्बा लेख देने का जोखिम उठाया। यह दुर्लभ अंक हमारे पास है। उस समय महात्मा मुंशीराम के रूप में पूज्यपाद स्वामी जी शिमला से अम्बाला छावनी पहुँचे। उन्हें वहाँ से मुम्बई मेल से आगे की यात्रा करनी थी। ट्रेन के आने में बहुत देर थी। प्लेटफार्म पर चार गोरे सैनिकों ने शराब के नशे में उत्पात मचा रखा था। जो भी भारतीय यात्री उनको दिखाई देता उस पर वे टूट पड़ते। ठुडे (बूट पहने ठोकरें लगाते) मारते हुये, यात्रियों की पिटाई-धुनाई कर देते।

भयभीत यात्री जान बचाते भाग खड़े हुये। रेलवे के अधिकारी असहाय मूक दर्शक बने बैठे थे। गोरों ने प्लेटफार्म पर लम्बे-चौड़े, निर्भीक मुनि महात्मा मुंशीराम जी को भी देखा, परन्तु निर्भीक, वीर, आर्य तपस्वी पर हाथ उठाने की उनकी हिम्मत न हुई। न ही शूरता की शान हमारे महात्मा जी डरकर वहाँ से भागे। यह घटना तीन जून सन् १९०५ को घटी। महात्मा जी ने छ: जून १९०५ के ‘सद्धर्म प्रचारक’ के लेख में उक्त घटना प्रकाशित कर दी। गोरे सैनिक महात्मा जी के निकट आये और कहा, ‘‘टुम शीख है?’’ अर्थात् क्या तुम सिख हो? महात्माजी ने कहा, नहीं मैं सिख तो नहीं हँू। उनके सिर के बाल व दाढ़ी देखकर गोरों ने ऐसा कहा।

फिर कहा, हमें सिखों से डर लगता है। वे हमें नदी में डुबोते हैं। महात्मा जी ने कहा, यदि वे तुम्हें शराब, व्हिस्की की नदी में डुबो दें तो कैसा लगे? उन्होंने कहा, यह तो बहुत आनन्ददायक होगा। ऐसी कुछ चर्चा नशे में डूबे उन क्रूर सैनिकों ने स्वामी जी से की। किसी राष्ट्रीय ख्याति के नेता के साथ शराब के नशे में धुत गोरे सैनिकों की यह इकलौती घटना हमारे स्वराज्य-संग्राम का स्वर्णिम पृष्ठ है।

जब सब असहाय भारतीय यात्री पिटाई के डर से प्लेटफार्म से भाग निकले तो अकेले महात्मा मुंशीराम वहीं डटकर विचरते रहे। इतने पर ही बस नहीं, श्री महात्मा जी ने घटना घटित होने के चौथे ही दिन अपने लोकप्रिय पत्र ‘सद्धर्म प्रचारक’ में इसे प्रकाशित करके अपनी निर्भीकता का परिचय देकर सबको चकित कर दिया। गोराशाही की उस युग में ऐसी धज्जियाँ उड़ाने वाला ऐसा शूरवीर नेता और कौन था? इस देश के इतिहास में महर्षि दयानन्द के पश्चात् ऐसे कड़े शब्दों में गोरों के अन्याय व उत्पात की कड़े शब्दों में निन्दा करने वाला पहला साधु महात्मा यही शूरता की शान श्रद्धानन्द ही था। कोई और नहीं।

श्री कृष्ण पर घृणित प्रहार की यह परम्परा:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

श्री कृष्ण पर घृणित प्रहार की यह परम्परा:- जयपुर राज्य से एक भक्त ने महर्षि दयानन्द को एक पत्र लिखकर यह सूचना दी कि यहाँ जयपुर (हिन्दू राजा के राज्य में) के गली-बाजारों में ईसाई पादरी अपने मत का प्रचार करते हुये श्री राम तथा श्री कृष्ण महाराज की बहुत निन्दा करते हैं। उस भक्त की भावना तो स्पष्ट ही थी। वह ईसाई पादरियों के दुष्प्रचार को रोकने के लिये ऋषि जी को जयपुर आने के लिये गुहार लगा रहा था। उस सज्जन के पत्र में यह समाचार पाकर प्यारे ऋषि का मन बहुत आहत हुआ। ऋषि जी ने ऐसे ही किसी प्रसंग में एक बार यहाँ तक कहा था कि सब कुछ सहा जा सकता है, परन्तु श्री राम-कृष्ण आदि महापुरुषों का अपमान नहीं सहा जा सकता।

अभी भारत के एक जाने-माने वकील श्री प्रशान्त भूषण महोदय ने श्री कृष्ण महाराज पर लड़कियों की छेड़छाड़ का दोष लगा दिया। सत्य इतिहास क्या है यह वकील जी भी भली प्रकार से जानते हैं, परन्तु कुछ लोगों को दूसरों का मन दुखाने में ही आनन्द आता है।

श्री लाला लाजपतराय जी ने महर्षि दयानन्द के एक वाक्य से प्रेरणा पाकर इस देश में श्री कृष्ण के निष्कलङ्क जीवन पर सबसे पहले एक पठनीय पुस्तक में यह लिखा था कि संसार के अन्य महापुरुषों का अपमान तो उनके विरोधियों ने किया, परन्तु श्री कृष्ण का अपमान तो उनके भक्तों ने किया। महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि महाभारत में तो श्री कृष्ण जी के जीवन पर आक्षेप करने वाली कोई अभद्र घटना या पाप-कर्म का उल्लेख नहीं, परन्तु पुराणों में वर्णित रासलीला व गोपियों से छेड़छाड़ की मिथ्या कहानियों का भक्तों ने ही अधिक प्रचार किया। इसका लाभ विरोधियों व विधर्मियों ने जी भरकर उठाया।

ऋषि दयानन्द ने तो यहाँ तक लिखा है कि श्री कृष्ण ने जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त कोई पाप नहीं किया। महाभारत में वर्णित घटनाओं से भी यही प्रमाणित होता है। पुराणों में वर्णित कहानियाँ अस्वाभाविक, मनगढ़न्त, एक-दूसरे से भिन्न और परस्पर विरोधी भी हंै। लंदन से प्रकाशित तथा कलकत्ता से प्रचारित ईसाइयों की एक बहुत पुरानी पुस्तक हमारे पास है जो इस समय मिल नहीं रही। उसमें श्री कृष्ण के चरित्र पर भी कई गम्भीर दोष लगाये गये हैं। उस पुस्तक  में वर्णित बातें उद्धृत करने से भी हमारा मन दुखता है।

वही लेखक आगे चलकर सत्यार्थप्रकाश तथा महर्षि दयानन्द जी की चर्चा न करते हुये ऋषि के वाक्य दोहराता है कि महाभारत के श्री कृष्ण नीतिमान्, विद्वान्, दार्शनिक तथा गुणी महापुरुष हैं। उस लेखक के उसी ग्रन्थ की अन्त:साक्षी से सिद्ध है कि उसने ऋषि का अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश पढ़ रखा है।

यह हो नहीं सकता कि रासलीला रचाने वाले पौराणिकों ने तथा श्री प्रशान्त भूषण सरीखे उलटी-पुलटी बातें करके विवाद खड़ा करने वालों ने यह न पढ़ा हो कि गीता में कहा गया है कि जिसने इन्द्रियों का वशीकरण किया हो उसी की संज्ञा प्रतिष्ठित है अर्थात् वही……..(बड़ा व्यक्ति है)। दुर्भाग्य की बात है कि किसी भी हिन्दू लीडर ने गीता के इस प्रमाण से श्रीमान् प्रशान्त भूषण के आपत्तिजनक कथन का विरोध नहीं किया।

कभी संघ में एक गीत बड़े जोश से गाया जाता था:-

निज गौरव को निज वैभव को

क्यों हिन्दू बहादुर भूल गये?

इसी सुन्दर गीत में यह मार्मिक पंक्तियाँ गाई जाती थीं-

क्यों रास रचाना याद रहा?

क्यों चक्र चलाना भूल गये?

दु:ख का विषय है कि ऐसे ओजस्वी गीत यह देश भूल गया। किसी भी हिन्दू विद्वान् ने प्रशान्त भूषण जी को झकझोरा नहीं। पहले जेठमलानी जी के श्री राम पर प्रहार का मान्य धर्मवीर जी ने सप्रमाण प्रतिवाद किया, अब हम प्रशान्त भूषण जी के घातक कथन का प्रतिवाद करते हैं। यह स्मरण रखिये कि जब तक रासलीलायें हैं तब तक श्रीकृष्ण की निन्दा करने का दु:साहस कोई न कोई करेगा। आर्यसमाज ऋषि दयानन्द, लाला लाजपतराय, पं. चमूपति आदि अपने पूर्वजों का अनुकरण करता है, अनर्थ अनाचार से टक्कर लेने से पीछे नहीं हटेगा।

संध्योपासना क्यों?: – डॉ. धर्मवीर

यह लेख आचार्य धर्मवीर जी द्वारा बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में दिये गये प्रवचन का संकलन है। ये प्रवचन एक निश्चित विषय पर दिये गये हैं, इसलिये अति उपयोगी हैं। इन प्रवचनों को आचार्य प्रवर की ज्येष्ठ पुत्री सुयशा आर्य द्वारा लेखबद्ध किया गया है। – सम्पादक

आदरणीय प्रधान जी, मन्त्री जी, उपस्थित माताओ, बहनो, बन्धुओ! बनिए तो बहुत देखे, पर सुधीर जैसा नहीं मिला, आना था एक कार्यक्रम में पर वो कहने लगे कि एक दिन पहले आ रहे हो तो कार्यक्रम रख लेते हैं। मैंने कहा, खाली नहीं रहना चाहिए कोई आदमी। मैं तो इससे डरता हँू कि मैं १० साल से आपको बता रहा हँू, नया क्या बताऊँगा। लेकिन चलिए,  दोहराने में भी कोई बुराई नहीं है। आपने प्रश्र रखा है, संध्योपासना क्यों और कैसे? कोई भी काम जब हम करते हैं तो पहले यह प्रश्र आता ही आता है कि हम यह क्यों करें? हम किसी से भी कहते हैं-संध्योपासना करो, तो वो कहता है-क्यों करें? बच्चों को भी कहते हैं तो पूछते हैं, क्यों करें? किसी दुकानदार को कहते हैं तो वह कहता है, अरे क्या संध्योपासना, दुकान पर बैठेंगे तो दो ग्राहकों का काम होगा। अत: किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व उस कार्य की आवश्यकता अनुभव होनी चाहिए। यदि आवश्यकता अनुभव नहीं होती तो न उसे आप कर सकते, न करवा सकते और यदि किसी की आवश्यकता अनुभव होने लगे तो आप उसे मना भी करेंगे और रोकेंगे तो भी वो नहीं मानेगा, उसे करेगा ही। तो पहली चीज यह देखते हैं कि क्या संध्या करने की हमें कभी आवश्यकता अनुभव होती है?

सबसे पहले देखिए कि संध्या शब्द क्या कहता है-सम् कहते हैं ‘भली प्रकार’ और ‘ध्य’ का अर्थ होता है चिन्तन करना, विचार करना, भली प्रकार से ध्यान करना और दूसरा इसका नाम इसलिए भी संध्या है कि ये सन्धिकाल में किया जाने वाला कार्य है। अब सन्धिकाल तो हर क्षण है। एक क्षण से दूसरे क्षण के बीच का जो समय है, वो उन दोनों का सन्धिकाल है। घंटे से घंटे के बीच का समय है, वो सन्धिकाल है। परन्तु जो मुख्य सन्धिकाल है, अर्थात् काल के दो बड़े विभाग हैं-एक दिन और एक रात। उन दोनों के सन्धिकाल को संध्या का काल कहा जाता है।

दोनों की सन्धि होती है इसीलिए वो संध्या है, संध्या समय है। जैसे हम कहते हैं यह काम संध्या समय करने का है, तो  सायंकाल करने का है। संध्या समय तो दोनों समय हो सकता है। प्रात:काल दिन के प्रारम्भ की और रात के अन्त की सन्धि है। ये दोनों संधिकाल हमारे लिए संध्या करने के लिए चुने गए हैं। ये इसलिए चुने गए हैं कि हमारा कार्य से और समय से एक ताल-मेल है। काम का भी विभाजन है और समय का भी विभाजन है। अर्थात् जब रात शुरू होती है तो रात के काम अलग और दिन जब प्रारम्भ होता है तो दिन के काम अलग। एक व्यक्ति रात भर विश्राम करता है, घर में रहता है, दिनचर्या करता है, लेकिन सवेरे जब उठता है तो जागने के काम शुरू हो जाते हैं। वो समाज के, घर के, व्यक्ति के, व्यवसाय के कामों को करता है। दो अलग-अलग काम उसके जीवन से बन्धे हुए हैं। एक का प्रारम्भ और एक की समाप्ति उन दोनों की सन्धि है। काल की दृष्टि से ‘सन्धि’ और ध्यान की दृष्टि से सम्यक् ध्यान के कारण ‘संध्या’ और जो दो सन्धियों का काल है इसके कारण भी संध्या। हमारे ऋषियों ने दो समयों को चुना है कि दो समय हमको संध्या करनी चाहिए। सम्यक् ध्यान करना चाहिए। पहले तो इसको यूँ समझ लीजिए कि जब एक काम पूरा हो जाए, तो उस पर विचार कर लेना चाहिए कि इसमें कोई भूल, कोई त्रुटि तो नहीं हुई। दूसरा यह होना चाहिए कि जब कोई कार्य प्रारम्भ किया जाए तो उस पर भी विचार हो जाना चाहिए कि इसको कैसे किया जाए। ताकि इसमें कोई त्रुटि न हो। यदि ये दो बातें हो जायें तो वो काम कम से कम त्रुटि वाले होंगे। एक नियम है कि आप जिस काम को करना चाहते हैं, उस पर आपने यदि चिन्तन किया हुआ है, उसकी विधि पर विचार किया हुआ है तो आपको कोई असुविधा नहीं होगी। अकस्मात् करना पड़े तो कई समस्यायें पैदा हो सकती हैं। कुछ भूल सकता है, कुछ अतिरिक्त आ सकता है। इसी तरह जब कोई काम हो जाता है तो उसके बारे में यदि व्यक्ति चिंतन करता है, उसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि उसमें यदि कोई त्रुटि हो जाती है तो भविष्य में वो त्रुटि नहीं होती है।

चिंतन का एक नियम है, जैसे आप किसी चर्चा को सुन रहे हैं, आप चर्चा सुन तो रहे हैं, लेकिन यह चर्चा आप वास्तव में ग्रहण कर रहे हैं या नहीं, इसका बोध तब होता है, जब आपके सामने कहा हुआ विचार आपके मस्तिष्क में दोबारा आ जाए। आपका ध्यान उस पर दोबारा चला जाए तो वो चीज फिर भूलती नहीं है। हम भाषण में बहुत बातें सुनते हैं, लगता है कि हम सुन रहे हैं, वास्तव में हम सुनने की परिस्थिति में होते ही नहीं, क्योंकि सुनता शरीर नहीं है, सुनता तो मन है। मतलब मन हमारी बातों में लगा है तो हम सुनते हैं और यदि मन हमारी बातों में नहीं लगा है तो उस समय हम बैठे होने पर भी सुनते नहीं हैं। जब कभी मुझे विद्यार्थियों से चर्चा करने का अवसर होता है, तो मैं उनसे एक बात कहता हँू, अध्यापक को यह कैसे पता लगता है कि आप सुन रहे हैं या नहीं सुन रहे हैं? कान में तो यह विशेषता नहीं है कि वो उधर जाए जिधर बात हो रही हो, लेकिन आँख में एक विशेषता है, वो उधर जाती है, जिधर आप देख रहे हैं। उसी तरह से एक नियम है कि जिधर आँख होगी, आपके कान भी अपने आप उधर ही होंगे। यदि कोई व्यक्ति वक्ता की ओर दृष्टि डाले हुए है, तो एक स्वाभाविक-सी बात है कि वो सुन रहा है। इसलिए मैं छात्रों से कहता हँू कि छात्र यदि अध्यापक को देख रहा है तो अध्यापक को सुन रहा है और यदि अध्यापक को नहीं देख रहा है तो नहीं सुनता। वो बैठा जरूर है, लेकिन सुनने से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। उसी तरह से जब हम किसी बात को वक्ता के बोलते-बोलते सोच लेते हैं तो हमारा उस पर ध्यान चला जाता है और वह हमें याद रह जाता है। इसलिए जो चीज आप याद करना चाहते हैं उसका आपक ो चिन्तन करना होगा, विचार करना होगा, ध्यान करना होगा।

आपने प्रश्र उठाया है कि संध्या क्यों करनी चाहिए। कोई कारण होना चाहिए, कोई उपयोग होना चाहिए, कोई उससे मतलब निकलना चाहिए तब ही तो हम कोई काम करेंगे। इसको आप ऐसे समझ सकते हो, आप किसी भी व्यक्ति को देखिये कि वो कहीं जाता है पूजा करने, उपासना करने, किसी की आराधना करने, मुसलमान मस्जिद की ओर जा रहा है, ईसाई चर्च की ओर जा रहा है, सिख गुरुद्वारे की ओर जा रहा है, कोई मन्दिर की ओर जा रहा है, तो आपको लगता है कि सब अलग-अलग जा रहे हैं, इसका मतलब ये एक नहीं हंै। आप विचार करके देखेंगे तो वो इस अंश में एक हैं कि वो क्यों जा रहे हैं। जो मस्जिद की ओर जा रहा है, उसके जाने का भी कारण है और जो चर्च में जा रहा है, उसके जाने का भी कारण है, जो मन्दिर में जा रहा है, उसके जाने का भी कारण है। इन सबका जो कारण है, वो समान मिलेगा। जिन इच्छाओं को लेकर वो अलग-अलग व्यक्ति जा रहे हैं, वो इच्छाएँ सबकी समान हैं। चाहे वो मुसलमान है, चाहे वो हिन्दू है, चाहे ईसाई है या कोई और है।  इसका अभिप्राय यह है कि हमारी एक आवश्यकता जो मनुष्यों की है वो समान है। उसके लिए हमने उपाय अलग-अलग किए हैं। उपाय ठीक हैं या नहीं हैं। ये अलग चीज है।

हम क्यों करें उपासना, उसका उत्तर यदि हम ढूँढ़ना चाहते हैं, खोजना चाहते हैं तो आप ये याद करें कि कोई व्यक्ति कब मन्दिर की ओर जाता है? उसे मन्दिर की याद कब आती है? इसको दूसरे शब्दों में कहें कि हम सब ईश्वर को कब याद करते हैं? जब प्रसन्न होते हैं तब तो नहीं करते, जब हम अपने कामों में व्यस्त रहते हैं, हमें कोई बाधा नहीं होती है, तब भी हम नहीं करते हैं। हम ईश्वर को याद तब करते हैं जब आपको कहीं से किसी की सहायता की आवश्यकता लगे। जब ऐसा लगे कि यह बात पूरी नहीं हो रही है या अपने पास आस-पास के साधनों से किसी काम को करने में असमर्थ हो जाते हैं। कोई व्यक्ति बीमार है, रोगी है, सामान्य रोग होता है, तो दवा ले लेता है। विशेष रोग होता है तो डॉक्टर के पास चला जाता है। लेकिन डॉक्टर से भी कुछ ऐसा लगता है कि ठीक होना कठिन है। तब उसको लगता है कि अब हमारा सामथ्र्य समाप्त है।

शेष भाग अगले अंक में…..

ज्वलन्त प्रश्न – तीन तलाक: – दिनेश

भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 में नीति निर्देशक तत्वों का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि भारत के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक कानून बनाने का दायित्व राज्य का होगा। यह एक सलाह के रूप में उल्लिखित है। यह संविधान 1950 में लागू किया गया और तब से आज तक विभिन्न प्रकार की समितियाँ, आयोग इत्यादि गठित किए गए लेकिन समर्थन और प्रतिरोध दोनों के बीच में भारत के सभी नागरिकों के लिए समान व्यवस्था का कोई भी सर्वसम्मत निर्णय नहीं लिया जा सका है।

आज का ज्वलन्त प्रश्न मुस्लिम महिलाओं के लिए तीन तलाक है। उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में काशीपुर निवासी 42 वर्षीया सायरा बानो ने सबसे पहले सर्वोच्च न्यायालय में तीन तलाक, निकाह-हलाला तथा बहु-विवाह के प्रावधानों को चुनौती दी। यही वह याचिका थी जिससे केवल मुस्लिम समाज में ही नहीं अपितु तथाकथित धर्म-निरपेक्षता का दावा करने वाली राजनीतिक पार्टियाँ और उनके पोषक बुद्धिजीवियों में हाहाकार मच गया। मुस्लिम समाज के प्रमुख मौलवी, उलेमा इस बात का दावा करते हैं कि ये परम्पराएँ शरीयत के अन्तर्गत हैं और इनमें परिवर्तन से उसके मूलभूत अधिकारों का अतिक्रमण होगा। ध्यातव्य है कि शरीयत में संशोधन आजादी से पूर्व कितनी ही बार हो चुका है। सन् 1772 में वारेन हेस्टिंग्स के समय में मुस्लिम कोड बिल तैयार किया गया तो काजी के स्थान पर अंगेे्रज जजों ने उस अधिकार को लिया। सन् 1843 में शरीयत में उल्लिखित गुलाम-प्रथा को समाप्त किया गया। सन् 1860 में इस्लामी अपराध कानून के स्थान पर भारतीय दण्ड संहिता (इंडियन पेनल कोड) को लागू किया गया। सन् 1861 में जाब्ता फौजदारी कानून (क्रिमिनल प्रोसिजर कोड) तथा 1872 ई. में साक्षी अधिनियम (एविडेंस एक्ट) लागू किया गया। यही नहीं मुस्लिम महिलाओं की गवाही पुरुषों की गवाही के बराबर मानने का प्रावधान भी किया गया। पहले दो महिलाओं की समान गवाही को एक पुरुष की गवाही के बराबर माना जाता था। 1882 ई. में जाब्ता दीवानी (सिविल प्रोसिजर कोड) तथा सम्पत्ति हस्तान्तरण अधिनियम (ट्रान्सफर प्रॉपर्टी एक्ट) सभी के लिए बनाया गया। ध्यान देने योग्य बात यह है कि विश्व के कितने ही मुस्लिम देश शरीयत को विदाई दे चुके हैं। इण्डोनेशिया में एक प्रान्त को छोडक़र शेष भाग में हॉलैण्ड के डच बोर्ड के आधार पर सिविल लॉ बनाया गया। तुर्की में स्विस कोर्ट के आधार पर कानून बनाया गया। जबकि मिस्र के कानून फ्रांस के आधार पर बने हैं। ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान एवं पश्चिम अफ्रीका के कई मुस्लिम देशों में शरीयत लागू नहीं होती। ईरान, पाकिस्तान, सीरिया, लेबनान और ट्यूनीशिया में भी व्यापक स्तर पर परिवर्तन किए गए हैं और भारत के गोवा प्रान्त में तो एक समान नागरिक कानून मुसलमानों सहित सभी जनता पर लागू है….. रूस, चीन, जापान, कोरिया, श्रीलंका, म्यांमार, यूरोपीय देशों और अमेरिका को मिलाकर 150 से अधिक देशों में सब पंथों, धर्मों के लोग समान कानून के अंतर्गत रहते हैं, फिर भारत में क्यों नहीं रह सकते।

यह देखा गया है कि इस्लाम में तलाक को निन्दनीय और अवांछनीय माना गया है। जिसमें तलाक के उपरान्त तलाकशुदा स्त्री के भरण-पोषण और बच्चों के विकास के लिए उचित प्रबन्ध होना चाहिए। लेकिन वर्तमान में मोबाइल, स्पीड पोस्ट से, पत्र द्वारा या दूरभाष पर ही तलाक-तलाक-तलाक कहकर शरीयत कानून के तहत तलाक की इतिश्री समझ ली जाती है। आज मुस्लिम महिलाओं के हक-हकूकों के साथ गहराई और व्यापकता के साथ विचार-विमर्श किया जा रहा है और यह तब और प्रासंगिक हो गया है जबकि केन्द्र और उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है जिसमें उन्होंने चुनाव प्रचार के मध्य तीन तलाक पर विचार किए जाने का उल्लेख किया था। मानवीय दृष्टिकोण से विचार किया जाये तो पुरुष और नारी के मध्य बराबरी का हक है इसलिए केवल तलाक-तलाक-तलाक मात्र कह देने से जीवनसाथी को पृथक् किया जाना वर्तमान परिप्रेक्ष्य में न्यायसंगत नहीं होगा। अत: बुद्धिजीवियों, न्यायविदों, धर्म-सुधारकों और सोशल एक्टिविस्टों को इस विषय में जागरूक होकर इसका न्यायसंगत समाधान निकालना ही होगा। विधि आयोग के अध्यक्ष एवं पूर्व न्यायमूर्ति बलवीर सिंह चौहान द्वारा वर्तमान समय में इसे प्रासंगिक मानते हुए संविधान के अनुच्छेद 21 पर बहस किये जाने का सुझाव दिया गया है। क्योंकि इसके अंतर्गत नागरिकों के जीवन के संरक्षण और उनकी निजता की स्वतंत्रता सुनिश्चित की जाती है।

संविधान में जब धर्म, पंथ, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव न किए जाने का प्रावधान किया गया है तब सायरा बानो की याचिका पर अक्टूबर 2015 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संज्ञान लिया गया। यह आज के ज्वलंत प्रश्न की प्रासंगिकता को स्वयं रेखांकित कर देता है। यह भी आश्चर्य का विषय है कि केन्द्र सरकार के अतिरिक्त अन्य दलों ने इस विषय में लिखित में अपना मत न तो विधि आयोग को प्रस्तुत किया और न ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय को ही प्रेषित किया है। यह स्पष्टत: उनकी इस विषय पर अवधारणा को स्पष्ट करता है, जो वर्तमान परिप्रक्ष्य में समीचीन नहीं कही जा सकती।

उपर्युक्त विवरण के आधार पर यदि भारत में समान आचार संहिता पर सर्वसम्मति से विचार किया जाता है तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। सायरा बानो ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करके  मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लिकेशन एक्ट 1937 के अनुच्छेद 2 की संवैधानिक स्थिति पर सवाल खड़ा किया है। यही वह एक्ट है जिसके जरिए शरीयत एक से ज्यादा शादियों, तीन तलाक और निकाह हलाला जैसी रवायतों को जायज ठहराती है। याचिका में मुस्लिम विवाह एक्ट 1939 के बेमानी होने की बात भी कही गई है।

यह वास्तव में चिन्तनीय प्रश्न है कि मुस्लिम महिलाओं की प्रस्थिति अन्य भारत की महिलाओं के समान क्यों नहीं होनी चाहिए, यह मानवाधिकार के अन्तर्गत आता है। भारतीय संस्कृति प्राचीन काल से महिला और पुरुषों को समान अधिकार के रूप में स्वीकार करती रही है। यहां तक कि विवाह-विच्छेद (तलाक) का स्पष्ट शब्द वहाँ उल्लिखित नहीं है। हाँ, विशेष शर्तों के साथ एक विवाह के बाद दूसरा विवाह करने की परम्परा मौर्य काल में प्रचलन में थी।  सुप्रीम कोर्ट द्वारा केन्द्र सरकार से इस बाबत मांगी गई टिप्पणी में केन्द्र सरकार ने स्पष्ट सूचित किया कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं की गरिमा (डिग्निटी) सामाजिक स्तर (सोशल स्टेटस) पर प्रभाव डालता है जिससे संविधान में मिले उनके मूलभूत अधिकारों की अनदेखी होती है। भारत की कुल आबादी में मुस्लिम महिलाओं की हिस्सेदारी 8 प्रतिशत है। केन्द्र सरकार ने यह भी कहा कि लैंगिक असमानता का बाकी समुदायों पर दूरगामी असर होता है। यह बराबर की साझेदारी को रोकती है और संविधान में दिए गए हक से भी रोकती है। मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक और ज्यादा शादियों के भय से डर और खतरे में जीती हैं। केन्द्र सरकार ने तीन तलाक निकाह, हलाला और कई शादियों जैसी प्रथाओं का विरोध किया है। इस विषय में इस्लामिक देशों में अपनाये जा रहे कानून का भी केन्द्र सरकार ने उल्लेख किया है।

इस सम्बन्ध में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने उक्त प्रावधानों से शरीयत का बचाव किया है। उसने तर्क दिया है कि महिला की हत्या होने की अपेक्षा उसे तलाक दिया जाये, यही ठीक है और धर्म में मिले हुए हकों पर कानून की अदालत में सवाल नहीं उठाये जा सकते। स्पष्टत: मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तथा अन्य संस्थाएं तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह की परम्परा को शरीयत के अनुसार ठीक मानती हैं।

यह भी जानने के योग्य है कि शिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने केन्द्र सरकार द्वारा दी गई राय का समर्थन किया है। उन्होंंने कहा है कि शिया पर्सनल लॉ बोर्ड महिलाओं की गरिमा और उनकी सामाजिक स्थिति को बराबरी की दृष्टि से मानता है।

महर्षि दयानन्द ने संस्कारविधि में 16 संस्कारों के अंतर्गत 13वें संस्कार में विवाह संस्कार का विस्तार से विवरण दिया है। जिसमें उन्होंने तलाक जैसी किसी प्रथा को स्वीकार न करते हुए एक पत्नीव्रत की परम्परा को मानते हुए नारी के सम्मान और उसकी गरिमा को अक्षुण्ण रखने का संदेश दिया है। आर्य समाज अपनी मान्यताओं में भी केवल हिन्दू महिलाओं की ही नहीं अपितु सभी नारियों के प्रति आदर और सम्मान का भाव रखते हुए उनकी गरिमा को किसी भी प्रकार क्षति पहुंचाने को स्वीकार नहीं करता। आज इसी विचार की आवश्यकता है कि हम मुस्लिम समाज के अधिकृत मौलानाओं, उलेमाओं और मुफ्तियों को वैचारिक दृष्टि से संतुष्ट करने का प्रयास करें कि वे आगे आएँ और आज 21वीं सदी में बहन-बेटियों पर होने वाले एतद्विषयक अत्याचारों एवं कष्टों से उन्हें बचायें तथा स्वेच्छा से उसमें संशोधन करें ताकि मुस्लिम महिलाएँ गरिमा और सामाजिक सम्मान की दृष्टि से अपने जीवन को समान रूप से व्यतीत कर सकें। यद्यपि 11 मई से सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ में यह सुनवाई होगी ताकि इन प्रथाओं की संवैधानिक वैधता पर विचार किया जा सके।

विधि आयोग ने भी इस बाबत सभी नागरिकों, मुस्लिम संगठनों आदि से 16 सवाल किए हैं-

  1. क्या आप जानते हैं कि अनुच्छेद-44 में प्रावधान है कि सरकार समान नागरिक आचार संहिता लागू करने का प्रयास करेगी?
  2. क्या समान नागरिक आचार संहिता में तमाम धर्मों के निजी कानूनों प्रथागत या उसके कुछ भाग शामिल हो सकते हैं, जैसे शादी, तलाक, गोद लेने की प्रक्रिया, भरण-पोषण, उत्तराधिकार और विरासत से सम्बन्धित प्रावधान?
  3. क्या समान अधिकार आचार संहिता में निजी कानूनों और प्रथाओं को शामिल करने से लाभ होगा?
  4. क्या समान नागरिक आचार संहिता से लैंगिक समानता सुनिश्चित होगी?
  5. क्या समान नागरिक आचार संहिता को वैकल्पिक किया जा सकता है?
  6. क्या बहुविवाह प्रथा, बहुपति प्रथा, मैत्री करार आदि को खत्म किया जाए या फिर नियंत्रित किया जाए?
  7. क्या तीन तलाक की प्रथा को खत्म किया जाए या रीति-रिवाजों में रहने दिया जाए या फिर संशोधन के साथ रहने दिया जाए?
  8. क्या यह तय करने का उपाय हो कि हिन्दू स्त्री अपने सम्पत्ति के अधिकार का प्रयोग बेहतर तरीके से करे, जैसा पुरुष करते हैं? क्या इस अधिकार के लिए हिन्दू महिला को जागरूक किया जाए और तय हो कि उसके सगे-सम्बन्धी इस बात के लिए दबाव न डालें कि वह सम्पत्ति का अधिकार त्याग दे।
  9. ईसाई धर्म में तलाक के लिए दो साल की प्रतीक्षा अवधि सम्बन्धित महिला के अधिकार का उल्लंघन तो नहीं है?
  10. क्या तमाम निजी कानूनों में उम्र का पैमाना एक हो?
  11. क्या तलाक के लिए तमाम धर्मों के लिए एक समान आधार तय होना चाहिए?
  12. क्या समान नागरिक आधार संहिता के तहत तलाक का प्रावधान होने से भरण-पोषण की समस्या हल होगी?
  13. शादी के पंजीकरण को बेहतर तरीके से कैसे लागू किया जा सकता है?
  14. अंतरजातीय विवाह या फिर अंतर्धर्म विवाह करने वाले युगलों की रक्षा के लिए क्या उपाय हो सकते हैं?
  15. क्या समान नागरिक आचार संहिता धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करती है?
  16. समान नागरिक आचार संहिता या फिर निजी कानून के लिए समाज को संवेदनशील बनाने के लिए क्या उपाय हो सकते हैं?

ये सभी बिन्दु भी विचार-विमर्श की अपेक्षा रखते हैं।

मुस्लिम मत के विद्वानों को भी यह स्वीकार करना चाहिए कि वे यद्यपि कुरान शरीफ को ईश्वरीय ग्रन्थ मानकर उसे अपरिवर्तनीय मानते हैं, परन्तु उससे इतर मुख्यत: हदीसों के आधार पर निर्मित शरीयत कानूनों पर उन्हें हठ और दुराग्रह त्याग देना चाहिए। ऐसी स्थिति में तो और भी कि जब विश्व के अनेक इस्लामी देश और शिक्षा सम्प्रदाय इसे उचित नहीं मानता। ध्यान रहे कि प्रकृति स्वयं अन्याय सहन नहीं करती और समयानुसार स्वत: न्याय कर देती है। बहुत पहले अकबर इलाहाबादी ने कहा था-

बिठाई जाएँगी पर्दों में बीवियाँ कब तक।

बने रहोगे तुम घर में ‘मियाँ’ कब तक।।

स्त्री-पुरुष समानता का उपदेश प्राकृतिक एवं शाश्वत है। अत: शास्त्रों का यह उपदेश अत्यन्त समीचीन है-

अर्धं भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतम: सखा

एवम्

यस्यां भूतं समभवद् यस्यां विश्वमिदं जगत्।

तामद्य गाथां गास्यामि या स्त्रीणामुत्तमं यश:।।

– (महाभारत)

एक ही समाज में साथ-साथ रहने वाले नागरिकों (स्त्रियों) में एक को विशेष अधिकार प्राप्त हों और दूसरे को पैर की जूती समझा जाए, तो लोकतन्त्र में विद्रोह के स्वर मुखर होने और क्रान्ति होने की संभावना को कोई रोक नहीं सकता। मुस्लिम महिलाएँ हिन्दू महिलाओं और अन्य मतों की महिलाओं को गृहस्वामिनी और ‘साम्राज्ञी’ के पद पर आसीन देखेंगी और स्वयं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक अपने घर में, अपने मज़हब के अनुसार पाएँगी, तो स्वाभाविकत: विद्रोह की भावना प्रबल होगी। धर्म और मज़हब यदि मनुष्य को उन्नति और समानता का पाठ नहीं पढ़ाते तो वे अप्रासंगिक हैं।

आर्यसमाज यद्यपि वेदज्ञान को शाश्वत मानता है, जिसमें सभी के यथायोग्य कत्र्तव्यों एवं अधिकारों का समुचित वर्णन है, पुनरपि आधुनिक भारत के संविधान के अंतर्गत उल्लिखित नियमों-विनियमों की बाध्यता भी स्वीकार करता है, क्योंकि यह संविधान लोककल्याणकारी और हमारे द्वारा अंगीकृत है। लेकिन यदि संविधान की कुछ धाराएँ अस्पष्ट और विभेदकारी हैं और सरकार उसमें जनकल्याण की दृष्टि से कुछ संशोधन करना/कराना चाहती है, तो हमें उसे स्वीकार करना चाहिए। इसमें असमानता के आधार पर आधी जनसंख्या को प्रताडि़त करने जैसा कुछ नहीं होना चाहिए।

कुरान का प्रारम्भ ही मिथ्या से : चमूपति जी

प्रारम्भ ही मिथ्या से

वर्तमान कुरान का प्रारम्भ बिस्मिल्ला से होता है। सूरते तौबा के अतिरिक्त और सभी सूरतों के प्रारम्भ में यह मंगलाचरण के रूप में पाया जाता है। यही नहीं इस पवित्र वाक्य का पाठ मुसलमानों के अन्य कार्यों के प्रारम्भ में करना अनिवार्य माना गया है।

ऋषि दयानन्द को इस कल्मे (वाक्य) पर दो आपत्तियाँ हैं। प्रथम यह कि कुरान के प्रारम्भ में यह कल्मा परमात्मा की ओर से प्रेषित (इल्हाम) नहीं हुआ है। दूसरा यह कि मुसलमान लोग कुछ ऐसे कार्यों में भी इसका पाठ करते हैं जो इस पवित्र वाक्य के गौरव के अधिकार क्षेत्र में नहीं।

पहली शंका कुरान की वर्णनशैली और ईश्वरी सन्देश के उतरने से सम्बन्ध रखती है। हदीसों (इस्लाम के प्रमाणिक श्रुति ग्रन्थ) में वर्णन है कि सर्वप्रथम सूरत ‘अलक’ की प्रथम पाँच आयतें परमात्मा की ओर से उतरीं। हज़रत जिबरील (ईश्वरीय दूत) ने हज़रत मुहम्मद से कहा—

‘इकरअ बिइस्मे रब्बिका अल्लज़ी ख़लका’

पढ़! अपने परमात्मा के नाम सहित जिसने उत्पन्न किया। इन आयतों के पश्चात् सूरते मुज़मिल के उतरने की साक्षी है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ—

या अय्युहल मुज़म्मिलो

ऐ वस्त्रों में लिपटे हुए!

ये दोनों आयतें हज़रत मुहम्मद को सम्बोधित की गई हैं। मुसलमान ऐसे सम्बोधन को या हज़रत मुहम्मद के लिए विशेष या उनके भक्तों के लिए सामान्यतया नियत करते हैं। जब किसी आयत का मुसलमानों से पाठ (किरअत) कराना हो तो वहाँ ‘इकरअ’ (पढ़) या कुन (कह) भूमिका इस आयत के प्रारम्भ में ईश्वरीय सन्देश के एक भाग के रूप में वर्णन किया जाता है। यह है इल्हाम, ईश्वरीय सन्देश कुरान की वर्णनशैली जिस से इल्हाम प्रारम्भ हुआ था।

अब यदि अल्लाह को कुरान के इल्हाम का आरम्भ बिस्मिल्लाह से करना होता तो सूरते अलक के प्रारम्भ में हज़रत जिबरील ने बिस्मिल्ला पढ़ी होती या इकरअ के पश्चात् बिइस्मेरब्बिका के स्थान पर बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम कहा होता।

मुज़िहुल कुरान में सूरत फ़ातिहा की टिप्पणी पर जो वर्तमान कुरान की पहली सूरत है, लिखा है—

यह सूरत अल्लाह साहब ने भक्तों की वाणी से कहलवाई है कि इस प्रकार कहा करें।

यदि यह सूरत होती तो इसके पूर्व कुल (कह) या इकरअ (पढ़) जरूर पढ़ा जाता।

कुरान की कई सूरतों का प्रारम्भ स्वयं कुरान की विशेषता से हुआ है। अतएव सूरते बकर के प्रारम्भ में, जो कुरान की दूसरी सूरत है प्रारम्भ में ही कहा—

‘ज़ालिकल किताबोला रैबाफ़ीहे, हुदन लिलमुत्तकीन’

यह पुस्तक है इसमें कुछ सन्देह (की सम्भावना) नहीं। आदेश करती है परहेज़गारों (बुराइयों से बचने वालों) को। तफ़सीरे इत्तिकान (कुरान भाष्य) में वर्णन है कि इब्ने मसूद अपने कुरान में सूरते फ़ातिहा को सम्मिलित नहीं करते थे। उनकी कुरान की प्रति का प्रारम्भ सूरते बकर से होता था। वे हज़रत मुहम्मद के विश्वस्त मित्रों (सहाबा) में से थे। कुरान की भूमिका के रूप में यह आयत जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है, समुचित है। ऋषि दयानन्द ने कुरान के प्रारम्भ के लिए यदि इसे इल्हामी (ईश्वरीय रचना) माना जाए यह वाक्य प्रस्तावित किये हैं। यह प्रस्ताव कुरान की अपनी वर्णनशैली के सर्वथा अनुकूल है और इब्ने मसूद इस शैली को स्वीकार करते थे। मौलाना मुहम्मद अली अपने अंग्रेज़ी कुरान अनुवाद में पृष्ठ 82 पर लिखते हैं—

कुछ लोगों का विचार था कि बिस्मिल्ला जिससे कुरान की प्रत्येक सूरत प्रारम्भ हुई है, प्रारम्भिक वाक्य (कल्मा) के रूप में   बढ़ाया गया है यह इस सूरत का भाग नहीं।

एक और बात जो बिस्मिल्ला के कुरान शरीफ़ में बाहर से बढ़ाने का समर्थन करती है वह है, प्रारम्भिक वाक्य (कल्मा) के रूप में बढ़ाया गया है यह इस सूरत का भाग नहीं।

एक और बात जो बिस्मिल्ला के कुरान शरीफ़ में बाहर से बढ़ाने का समर्थन करती है वह है सूरते तौबा के प्रारम्भ में कल्माए तस्मिआ (बिस्मिल्ला) का वर्णन न करना। वहाँ लिखने वालों की भूल है या कोई और कारण है जिससे बिस्मिल्ला लिखने से छूट गया है। यह न लिखा जाना पढ़ने वालों (कारियों) में इस विवाद का भी विषय बना है कि सूरते इन्फ़ाल और सूरते तौबा जिनके मध्य बिस्मिल्ला निरस्त है दो पृथक् सूरते हैं या एक ही सूरत के दो भाग-अनुमान यह होता है कि बिस्मिल्ला कुरान का भाग नहीं है। लेखकों की ओर से पुण्य के रूप (शुभ वचन) भूमिका के रूप में जोड़ दिया गया है और बाद में उसे भी ईश्वरीय सन्देश (इल्हाम) का ही भाग समझ लिया गया है।

यही दशा सूरते फ़ातिहा की है, यह है तो मुसलमानों के पाठ के लिए, परन्तु इसके प्रारम्भ में कुन (कह) या इकरअ (पढ़) अंकित नहीं है। और इसे भी इब्ने मसूद ने अपनी पाण्डुलिपि में निरस्त कर दिया था।

स्वामी दयानन्द की शंका एक ऐतिहासिक शंका है यदि बिस्मिल्ला और सूरते फ़ातिहा पीछे से जोड़े गए हैं तो शेष पुस्तक की शुद्धता का क्या विश्वास? यदि बिस्मिल्ला ही अशुद्ध तो इन्शा व इम्ला (अन्य लिखने-पढ़ने) का तो फिर विश्वास ही कैसे किया जाए?

कुछ उत्तर देने वालों ने इस शंका का इल्ज़ामी (प्रतिपक्षी) उत्तर वेद की शैली से दिया है कि वहाँ भी मन्त्रों के मन्त्र और सूक्तों के सूक्त परमात्मा की स्तुति में आए हैं और उनके प्रारम्भ में कोई भूमिका रूप में ईश्वरीय सन्देश नहीं आया।

वेद ज्ञान मौखिक नहीं—वेद का ईश्वरीय सन्देश आध्यात्मिक, मानसिक है, मौखिक नहीं। ऋषियों के हृदय की दशा उस ईश्वरीय ज्ञान के समय प्रार्थी की दशा थी। उन्हें कुल (कह) कहने की क्या आवश्यकता थी। वेद में तो सर्वत्र यही शैली बरती गई है। बाद के वेदपाठी वर्णनशैली से भूमिकागत भाव ग्रहण करते हैं। यही नहीं, इस शैली के परिपालन में संस्कृत साहित्य में अब तक यह नियम बरता जाता है कि बोलने वाले व सुनने वाले का नाम लिखते नहीं। पाठक भाषा के अर्थों से अनुमान लगाता है। कुरान में भूमिका रूप में ऐसे शब्द स्पष्टतया लिखे गए हैं, क्योंकि कुरान का ईश्वरीय सन्देश मौखिक है जिबरईल पाठ कराते हैं और हज़रत मुहम्मद करते हैं। इसमें ‘कह’ कहना होता है। सम्भव है कोई मौलाना (इस्लामी विद्वान्) इस बाह्य प्रवेश को उदाहरण निश्चय करके यह कहें कि अन्य स्थानों पर इस उदाहरण की भाँति ऐसी ही भूमिका स्वयं कल्पित करनी चाहिए। निवेदन यह है कि उदाहरण पुस्तक के प्रारम्भ में देना चाहिए था न कि आगे चलकर, उदाहरण और वह बाद में लिखा जाये यह पुस्तक लेखन के नियमों के विपरीत है।

ऋषि दयानन्द की दूसरी शंका बिस्मिल्ला के सामान्य प्रयोग पर है। ऋषि ने ऐसे तीन कामों का नाम लिया है जो प्रत्येक जाति व प्रत्येक मत में निन्दनीय हैं। कुरान में मांसादि का विधान है और बलि का आदेश है। इस पर हम अपनी सम्मति न देकर शेख ख़ुदा बख्श साहब एम॰ ए॰ प्रोफ़ेसर कलकत्ता विश्वविद्यालय के एक लेख से जो उन्होंने ईदुज़्ज़हा के अवसर पर कलकत्ता के स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित कराई थी, निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत किए देते हैं—

ख़ुदा बख्श जी का मत—“सचमुच-सचमुच बड़ा ख़ुदा जो दयालु व दया करने वाला है वह ख़ुदा आज ख़ून की नदियों का चीख़ते हुए जानवरों की असह्य व अवर्णनीय पीड़ा का इच्छुक नहीं प्रायश्चित? ……  वास्तविक प्रायश्चित वह है जो मनुष्य के अपने हृदय में होता है। सभी प्राणियों की ओर अपनी भावना परिवर्तित कर दी जाए। भविष्य के काल का धर्म प्रायश्चित के इस कठोर व निर्दयी प्रकार को त्याग देगा। ताकि वह इन दीनों पर भी दयापूर्ण घृणा से दृष्टिपात करे। जब बलि का अर्थ अपने मन के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु या अन्य सत्ता का बलिदान है। ”

—‘माडर्न रिव्यु से अनुवादित’

दयालु व दया करने वाले परमात्मा का नाम लेने का स्वाभाविक परिणाम यह होना चाहिए था कि हम वाणी हीन जीवों पर दया का व्यवहार करते, परन्तु किया हमने इसके सर्वथा विरोधी कार्य………..। यह बात प्रत्येक सद्बुद्धि वाले मनुष्य को खटकती है।

मुज़िहुल कुरान में लिखा है—

जब किसी जानवर का वध करें उस पर बिस्मिल्ला व अल्लाहो अकबर पढ़ लिया करें। कुरान में जहाँ कहीं हलाल (वैध) व हराम (अवैध) का वर्णन आया है वहाँ हलाल (वैध) उस वध को निश्चित किया है जिस पर अल्लाह का नाम पढ़ा गया हो। कल्मा पवित्र है दयापूर्ण है, परन्तु उसका प्रयोग उसके आशय के सर्वथा विपरीत है।

(2) इस्लाम में बहु विवाह की आज्ञा तो है ही पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों की भी परम्परा है। लिखा है—

वल्लज़ीन लिफ़रूजिहिम हाफ़िज़ून इल्ला अललअज़वाजुहुम औ मामलकत ईमानु हुम। सूरतुल मौमिनीन आयत ऐन

और जो रक्षा करते हैं अपने गुप्त अंगों की, परन्तु नहीं अपनी पत्नियों व रखैलों से। तफ़सीरे जलालैन सूरते बकर आयत 223 निसाउकुम हर सुल्लकुम फ़आतू हरसकुम अन्ना शिअतुम  तुम्हारी पत्नियाँ तुम्हारी खेतियाँ हैं जाओ अपनी खेती की ओर जिस प्रकार चाहो। तफ़सीरे जलालैन में इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है—

बिस्मिल्ला कहकर—सम्भोग करो जिस प्रकार चाहो, उठकर, बैठकर, लेटकर, उल्टे-सीधे जिस प्रकार चाहो ……….. सम्भोग के समय बिस्मिल्ला कह लिया करो।

बिस्मिल्ला का सम्बन्ध बहु विवाह से हो रखैलों की वैधता से हो। इस प्रकार के सम्भोग से हो यह स्वामी दयानन्द को बुरा लगता है।

(3) सूरते आल इमरान आयत 27

ला यत्तख़िज़ु मौमिनूनलकाफ़िरीना औलियाया मिनदूनिल मौमिनीना………इल्ला अन तत्तकू मिनहुम तुकतुन

न बनायें मुसलमान काफ़िरों को अपना मित्र केवल मुसलमानों को ही अपना मित्र बनावें।

इसकी व्याख्या में लिखा है—

यदि किसी भय के कारण सहूलियत के रूप में (काफ़िरों के साथ) वाणी से मित्रता का वचन कर लिया जाए और हृदय में उनसे ईर्ष्या व वैर भाव रहे तो इसमें कोई हानि नहीं…….जिस स्थान पर इस्लाम पूरा शक्तिशाली नहीं बना है वहाँ अब भी यही आदेश प्रचलित है।

स्वामी दयानन्द इस मिथ्यावाद की आज्ञा भी ईश्वरीय पुस्तक में नहीं दे सकते। ऐसे आदेश या कामों का प्रारम्भ दयालु व दयाकर्त्ता, पवित्र और सच्चे परमात्मा के नाम से हो यह स्वामी दयानन्द को स्वीकार नहीं 1 ।

[1. इस्लामी साहित्य व कुर्आन के मर्मज्ञ विद्वान् श्री अनवरशेख़ को भी करनीकथनी के इस दोहरे व्यवहार पर घोर आपत्ति है।             —‘जिज्ञासु’]

इन्हें आर्यसमाज से क्या लेना-देना:- राजेन्द्र जिज्ञासु

प्रतिवर्ष आर्यसमाज की शिक्षण संस्थाओं आर्य स्कूलों, कॉलेजों, डी.ए.वी. विद्यालयों से बीसियों शिक्षक प्रिंसिपल रिटायर होते हैं। सर्विस में रहते हुए समाजों व सभाओं के पदों से चिपक जाते हैं। रिटायर होने पर कभी साप्ताहिक सत्संग में इनको नहीं देखा जाता। ऐसा क्यों? यह चर्चा कहीं एक सम्मेलन में कुछ भाई कर रहे थे। मुझे देखकर पूछा- ‘ऐसा क्यों होता है?’ मैंने कहा- ऐसे लोग अपने पेट के लिए, प्रतिष्ठा के लिये समाज में घुसते हैं। उनमें मिशन की अग्नि होती ही नहीं। अम्बाला में एक रामचन्द्र नाम के डी.ए.वी. के हैडमास्टर थे। मथुरा जन्म शताब्दी पर ‘आर्य गज़ट’ के विशेषाङ्क में महात्मा हंसराज, पं. भगवद्दत आदि के साथ उनका भी लेख छपा था। रिटायर होते ही मृतक-श्राद्ध पर लेख देकर सनातन धर्म के नेता बन गये। प्रिं. बहल प्रादेशिक सभा के प्रधान रहे। रिटायर होकर किसी ने चण्डीगढ़ में उनको आर्यसमाज मन्दिर के पास फटकते नहीं देखा। अब आर्यजगत् में और कुछ हो न हो, महात्मा आनन्द स्वामी जी पर तो सामग्री होती ही है। अध्यापक लोग महात्मा जी पर वही अपनी घिसी-पिटी सामग्री देते रहते हैं। प्रयोजन धर्म प्रचार नहीं, कुछ और है।

वैदिक धर्म पर विधर्मी वार करते रहते हैं। पुस्तक मेले पर ऐसा साहित्य खूब बंटा व बिका। इन मैडमों व प्रिंसिपलों ने कभी उत्तर दिया? श्रद्धाराम पर सरकार ने पुस्तक छापी। उसमें ऋषि पर जमकर प्रहार किया। परोपकारिणी सभा ने झट से उत्तर छपवा दिया। इन्होंने प्रसार में क्या सहयोग किया। ये तो दर्शनी हुण्डियाँ हैं। महात्मा आनन्द स्वामी जी पर इन्हीं के कहने से मैंने ‘आनन्द रसधारा’ पुस्तक समय से पहले लिखकर दे दी। श्री अजय जी ने छाप दी। महात्मा आनन्द स्वामी जी के इन दर्शनी भक्तों के लेखों में उस पुस्तक के हृदयस्पर्शी प्रसंग यथा ‘चरण स्पर्श प्रतियोगिता’ आदि कभी किसी ने पढ़ा क्या?

ईश्वर कहाँ रहता है ? : आचार्य सोमदेव जी

शंका:- क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है?

समाधान- ईश्वर इस संसार के स्थान विशेष वा काल विशेष में नहीं रहता। परमेश्वर संसार के प्रत्येक स्थान में विद्यमान है। जो परमात्मा को एक स्थान विशेष पर मानते हैं, वे बाल बुद्धि के लोग हैं। वेद ने परमेश्वर को सर्वव्यापक कहा है। वेदानुकूल सभी शास्त्रों में भी परमात्मा को सर्वव्यापक कहा गया है। एक स्थान विशेष पर परमेश्वर को कोई सिद्ध नहीं कर सकता , न ही शब्द प्रमाण से और न ही युक्ति तर्क से। हाँ, ईश्वर शब्द प्रमाण और युक्ति तर्क से विभु= सर्वत्र व्यापक तो सिद्ध हो रहा है, हो सकता है। वेद में कहा-

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुष:।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।

– य. ३१.३

इस पुरुष की इतनी महिमा है कि यह सारा ब्रह्माण्ड परमेश्वर के एक अंश में है, अर्थात् वह ईश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड में समाया हुआ अनन्त है। यह समस्त जगत् परमात्मा के एक भाग में है, अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप में प्रकाशित हैं अर्थात् परमात्मा अनन्त है, सर्वत्र विद्यमान है, उसको किसी एक स्थान पर नहीं कह सकते।

नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वत:।

जेष: स्वर्वतीरप: सं गा अस्मश्यं धूनुहि।।

– ऋ. १.१०.८

इस मन्त्र के भावार्थ में महर्षि लिखते हैं – ‘‘जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है तो उत्तर यह है कि जिसको सब आकाश आदि बड़े-बड़े पदार्थ भी घेरे में नहीं ला सकते, क्योंकि वह अनन्त है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि उसी परमात्मा को सेवन, उत्तम-उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति के लिए उसी से प्रार्थना करते रहें। जब जिसके गुण और कर्मों की गणना कोई नहीं कर सकता, तो कोई अंत पाने को समर्थ कैसे हो सकता है? और भी -’’

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापाविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:।।

– य. ४०.८

इस मन्त्र में परमेश्वर को सब में व्याप्त कहा है। इस व्याप्ति से ज्ञात हो रहा है कि परमात्मा किसी एक स्थान विशेष पर नहीं अपितु सर्वत्र है। इस प्रकार परमेश्वर के सर्वत्र व्यापक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए शास्त्र के हजारों प्रमाण दिये जा सकते हैं। कोई भी प्रमाण ऐसा उपलब्ध नहीं होता जो परमात्मा को एकदेशीय सिद्ध करता हो।

युक्ति से भी कोई परमात्मा को किसी स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकता। आज विज्ञान का युग है, वैज्ञानिकों ने समस्त पृथिवी, समुद्र, आकाश आदि को देख डाला है। जिन किन्हीं का भगवान् समुद्र, पहाड़ आकाश आदि में होता तो अब तक वह भगवान् वैज्ञानिकों के हाथ में होता। जो लोग ईश्वर को ऊपर सातवें वा चौथे आसमान अथवा इससे कहीं और ऊपर मानते हैं, वे यह सिद्ध नहीं कर सकते कि कौन-सा आसमान ऊपर है, कौन-सा आसमान नीचे, क्योंकि प्रमाण सिद्ध यह पृथिवी गोल है। इस गोल पृथिवी पर लगभग चारों और मानव आदि प्राणी रहते हैें।

जो मनुष्य भारत में रहते हैं, अर्थात् पृथिवी के  ऊपरी भाग पर रहते हैं, उनका आसमान उनके सिर के ऊपर और जो मनुष्य अमेरिका आदि देशों में है, अर्थात् पृथिवी के निचले भाग में रहते हैं, उनका आकाश (आसमान) भारत आदि देश में रहने वालों की अपेक्षा विपरीत होगा अर्थात् भारत वालों के पैरों में आकाश होगा। ऐसा ही पृथिवी के अन्य स्थानों पर रहने वाले मनुष्यों का आकाश जाने । पृथिवी के चारों ओर आकाश है, आसमान है, पृथिवी पर रहने वाले मनुष्यों के सिर जिस ओर होंगे, उनका आसमान उसी ओर होगा।

ऐसा विचार करने पर जो परमात्मा को आसमान में मानते हैं, वे भी एक स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकते। इस विचार से भी परमात्मा सर्वत्र ही सिद्ध होगा, इसलिए परमात्मा सब स्थानों पर विद्यमान है, न कि किसी एक स्थान विशेष पर।

स्थान विशेष की कल्पना ब्रह्माकुमारी मत वालों की भी है। उनका कहना है कि यदि ईश्वर को सर्वव्यापक मानते हैं तो ईश्वर गन्दगी में शौच आदि में भी होगा, यदि ऐसा होगा तो ईश्वर भी गन्दा हो जायेगा। इन ब्रह्माकुमारी वालों ने ईश्वर को कितना कमजोर बना दिया? इन ब्रह्माकुमारी वालों को यह नहीं पता कि यह गंदगी भौतिक है और ईश्वर अभौतिक।

परमेश्वर के अभौतिक और सदा पवित्र होने से परमेश्वर के ऊपर इस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हमारे ऊपर भी जो प्रभाव पड़ता है, वह इसलिये क्योंकि हमारे पास भौतिक शरीर इन्द्रियाँ आदि हैं, इनसे रहित होने पर हम जीवात्माओं पर भी उस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ईश्वर तो सर्वथा इनसे रहित है तो ईश्वर पर इस गंदगी का प्रभाव कैसे पड़ेगा? इसलिए मलिनता से बचाने के लिए ईश्वर को एक स्थान विशेष पर मानना अज्ञानता ही है।

इसी प्रकार ईश्वर किसी काल विशेष में होता हो ऐसा नहीं है, परमेश्वर तो सदा सभी कालों में वर्तमान रहता है। काल विशेष में होने की कल्पना अवतारवादी कर सकते हैं, जो कि उनकी यह मान्यता सर्वथा असंगत है। वर्तमान, भूत एवं भविष्यकाल की आवश्यकता हम जीवों की अपेक्षा से है। परमेश्वर के लिए तो सदा वर्तमान रहता है, भूत-भविष्य परमात्मा के लिए नहीं है। परमात्मा सदा एक रस रहता है।

परमात्मा किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष की रक्षा वा दुष्टों के नाश के लिए भेजता हो- ऐसा भी नहीं है। यह कल्पना भी अवतारवादियों की है। परमात्मा तो जीवों के कर्मानुसार उनको जन्म देता है। जो जीव विशेष संस्कार युक्त होते हैं, वे जगत् के कल्याण और दुष्टों के नाश में प्रवृत्त होते हैं। ऐसा करने पर परमात्मा उनको आनन्द-उत्साह आदि प्रदान करता है, किन्तु ऐसा कदापि नहीं है कि परमात्मा ने किसी जीव विशेष को इस कार्य में लगााया हो। यदि ऐसा मानेंगे तो जीव की स्वतन्त्रता न रहेगी। ऐसा मानने पर सिद्धान्त की हानि होगी। कर्म फल व्यवस्था की सिद्धि ठीक से न हो पायेगी।

यदि कोई आत्मा किसी समुदाय की रक्षा करे तो दोष की भागी हो जायेगी, क्योंकि ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि पूरे समुदाय में सभी लोग एक जैसे धर्मात्मा हो, उस समुदाय में उलटे लोग भी हो सकते हैं। समुदाय में होने से उनकी भी रक्षा करनी पड़ेगी जो कि न्याय न हो सकेगा। परमेश्वर न्यायकारी है, उसके द्वारा भेजी गई आत्मा को भी न्याय करना चाहिए जो कि वह कर न सकेगी।

अधिकतर लोगों की मान्यता है कि परमेश्वर किसी आत्मा को न भेजकर स्वयं अवतार लेते हैं । ऐसा करके परमात्मा सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का नाश करते हैं। इस प्रकार की मान्यता भी ईश्वर स्वरूप से विपरीत, वेद-शास्त्र के प्रतिकूल है, क्योंकि ईश्वर विभु है, अनन्त है, वह अनन्त प्रभु एक छोटे से सान्त शरीर में कैसे आ सकता है? परमेश्वर जन्म मरण से परे है, फिर शरीर में आकर जन्म-मृत्यु को कैसे प्राप्त कर सकता है? परमेश्वर का अवतार मानने पर इस प्रकार की अनेक दोषयुक्त बातों को मानना पड़ेगा।

अवतारवादियों का अवतार मानने का मुख्य आधार ये दो श्लोक हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

इन श्लोकों में अवतार लेने का कारण बतायाकि जब-जब धर्म की हानि होगी, तब-तब धर्म के उत्थान और अधर्म के नाश के लिए तथा श्रेष्ठों के परित्राण =रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए ईश्वर अवतार लेता है। अब यहाँ विचारणीय यह है कि जिस परमात्मा ने बिना शरीर के इस सब ब्रह्माण्ड को रच डाला, हम सब प्राणियों के शरीरों की रचना की है, उस परमात्मा को कुछ क्षुद्र, दुष्ट व्यक्तियों को मारने के लिए शरीर धारण करना पड़े, यह बात बुद्धिग्राह्य नहीं है। इससे तो ईश्वर का ईश्वरत्व न रहकर ईश्वर का बहुत लघुत्व सिद्ध हो रहा है। यदि परमात्मा को यही करना है तो वह इस प्रकार के कार्य बिना शरीर के भी कर सकता है, क्योंकि वह पूर्ण समर्थ है।

गीता के उपरोक्त श्लोकों में अवतार का कारण हमने देखा, अब देवी भागवत पुराण में अवतार लेने का कारण देखिये। वहाँ लिखा है-

शपामि त्वां दुराचारं किमन्यत् प्रकरोमिते।

विधुरोहं कृत: पाप त्वयाऽहं शापकारणात्।।

अवतारा मृत्युलोके सन्तु मच्छापसंभवा:।

प्रापो गर्भभवं दु:ख भुक्ष्व पापाज्जनार्दन।।

देवी भागवत के इन श्लोकों में अवतार का कारण धर्म की रक्षा वा अधर्म के नाश करने के लिए नहीं कहा, अपितु भृगु का शाप कहा है। अर्थात् महर्षि भृगु ने विष्णु को दुराचार कर्म के कारण शाप दिया, उनके शाप के प्रभाव  से विष्णु का मृत्य ुलोक में अवतार हुआ। गीता के और देवी भागवत पुराण में अवतार के कारणों में परस्पर विरोध है। और देखिये-

बौद्धरूपस्त्वयं जात: कलौ प्राप्ते भयानके।

&&&

वेदधर्मपरायन् विप्रान् मोहयामास वीर्यवान्।

निर्वेदा कर्मरहितास्त्रवर्णा तामासान्तरे।।

यहाँ गीता से सर्वथा विपरीत अवतार का कारण कहा है। गीता धर्म की रक्षा को कारण कहती है और यहाँ तो धर्म के नाश के लिए अवतार ले लिया, अर्थात् भागवत पुराण कहता है- भगवान ने बुद्ध का अवतार लेकर, सबको विरुद्ध उपदेश देकर नास्तिक बनाया तथा वेद मार्ग का नाश किया। यहाँ ये अवतारवादियों के ग्रन्थ परस्पर विरुद्ध कथन कर रहे हैं।

यथार्थ में तो ईश्वर के किसी भी रूप में जन्म धारण करने की कल्पना ही युक्ति व शास्त्र विरुद्ध है, क्योंकि ईश्वर को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं, चाहे वह सहारा किसी शरीर का हो अथवा किसी अन्य प्राणी का। परमेश्वर अपने सब कार्य करने में समर्थ है, उसको कोई अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है।

वेद में ईश्वर को ‘‘अकायमव्रणमस्नाविरम्’’ कहा है। वह परमात्मा सूक्ष्म और स्थूल शरीर के बन्धन से रहित है, अर्थात् इन बन्धनों में नहीं पड़ता। श्वेताश्वतर उपनिषद् मेंऋषि ने कहा-

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात्।

जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम्।।

– ४.२१

अर्थात् वह परमात्मा अजर है, पुरातन (सनातन) है, सर्वान्तर्यामी है, विभु और नित्य है। ब्रह्मवादी सदा उसका बखान करते हैं। वह कभी जन्म नहीं लेता।

उपरोक्त सभी प्रमाणों से सिद्ध हो रहा है कि परमात्मा जीव के कर्मानुसार उसके भोग के लिए शरीर स्थान, समुदाय आदि देता है न कि अपनी इच्छा से किसी का नाश वा रक्षा के लिए उसको भेजता है और ऐसे ही स्वयं भी अवतार लेकर कुछ नहीं करता, अर्थात् स्वयं शरीर धारण करके किसी की रक्षा वा नाश नहीं करता।

इस्लाम का चमत्कार (अंधविश्वास) : पं॰ श्री चमूपतिजी एम॰ ए॰

चमत्कार

ईमान के दो साधन हैं—एक बुद्धि, दूसरा सीधा विश्वास, प्रकृति की पुस्तक दोनों के लिए खुली है।

प्रातःकाल सूर्योदय, सायंकाल सूर्यास्त, दिन व रात्रि का क्रम ऊषा की रंगीनी, बादलों का उड़ना, किसी बदली में से किरणों का छनना, इन्द्रधनुष बन जाना, पर्वतों की गगन चुम्बी चोटियाँ, सागर की असीम गहराई, वहाँ बर्फ के तोदे व दुर्ग, उछलती कूदती लहरों का शोर, बुद्धि देख-देखकर आश्चर्यचकित है। भूमि पर तो चेतन प्राणी हैं ही, वायु व जल में भी एक और ही विराट् संसार बसा हुआ है।

विज्ञान के पण्डित नित नए अनुसंधान करके नित नए नियमों का पता लगा रहे हैं और इन नियमों के कारण प्रकृति के ऊपर अधिकार प्राप्त करते जाते हैं। जो घटनाएँ पहले अत्यन्त आश्चर्यजनक लगतीं थीं। वह इन नियमों के प्रकाश में साधारण-सी घटनाएँ बनकर रह जाती हैं। मनुष्य यह देखकर दंग है कि पानी आकाश से कैसे बरसता है? वैज्ञानिक एक हण्डिया में पानी डालकर उसे आँच देता है। पानी सूखता है, उड़ता है। वैज्ञानिक उस उड़ते पानी को ठण्डी नली में से गुज़ारता है और उड़ती हुई भाप को फिर पानी बना देता है। यह पानी कण-कण होकर फिर गिर पड़ता है। वैज्ञानिक कहता है यही वर्षा होने का रहस्य है। हमने चमत्कार समझा था, परमात्मा की कुदरत का विशेष रहस्य माना था। वैज्ञानिक ने वही चमत्कार छोटे स्तर पर स्वयं करके दिखा दिया। हमारा आश्चर्य समाप्त हो गया। हम इन्द्रधनुष पर लट्टू थे। वैज्ञानिक ने त्रिकोण के एक शीशे में ही एक छोटा-सा इन्द्रधनुष उत्पन्न कर दिया। हम इसे साधारण बात समझ बैठे। वैज्ञानिक बुद्धिमान् था हमारी सरलता पर हँसा और कहा मेरी शक्ति प्रथम तो सीमा में छोटी है। साधारण है। भला इस इन्द्रधनुष की उस आकाश में फैले हुए इन्द्रधनुष से तुलना ही क्या? जो आकाश के एक भाग में छा जाता है? मेरे कण भर जल से कोई खेत हरियाले हो सकते हैं या झीलें भर सकती हैं? वे भण्डार प्रभु के ही

हैं जिनका संसार प्रार्थी है, याचक है। फिर मेरी खोजें और आविष्कार

तो परमात्मा की रचनाओं की नकल मात्र हैं, वह उसी भण्डार

की एक बानगी है जो वस्तु वर्तमान संसार में पहले से ही विद्यमान

है। मैं उसे देखता हूँ उसकी दशा का चित्र अपनी बुद्धि में उतारता हूँ

और अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस भण्डार से एक छोटी-सी बानगी

प्राप्त करता हूँ और उस पर परमात्मा के ही नियमों का प्रयोग करके

कहीं इन्द्रधनुष का खिलौना कहीं पानी व भाप की गुड़िया बना लेता

हूँ। यह प्रकृति के नियमों का छोटा-सा भाग जो मेरी छोटी-सी

बुद्धि में आता है परमात्मा को सर्वशक्तिमान् व पूर्ण ज्ञान का

स्वामी सिद्ध करता है। यदि उसके सामर्थ्य का प्रकटीकरण बिना

किसी नियम के होता तो मनुष्य को अपने प्रयास की सफलता का

विश्वास करना कठिन हो जाता। उस खेती में जिससे हम सबका पेट

पालन होता है, क्या कुछ कम चमत्कार है। एक दाने के लाखों व

करोड़ों दाने हो जाते हैं। परमात्मा ही तो इन्हें बढ़ाता है। हम

उससे लाभ उठा लेते हैं। इसमें यदि नियम व व्यवस्था न हो तो

कोई किस भरोसे पर बीज बोए। उसे पानी दे और फ़सल काटे?

यह है बुद्धि के द्वारा ईश्वर पर विश्वास, अज्ञानी व्यक्ति बुद्धि से कोरा

है उसे प्रतिदिन की खेती में परमात्मा का हाथ दिखाई देना कठिन है।

सूरज व चाँद के तमाशे उसकी दृष्टि में परमात्मा की शक्ति के खेल

नहीं? परमात्मा और उसके साथ उसके प्यारों की शक्ति का

प्रदर्शन किसी प्रकृति नियम के विपरीत चमत्कार के द्वारा होना चाहिए।

1[1. मुस्लिम विचारक डॉ॰ गुलाम जैलानी बर्क ने प्रचलित इस्लाम से हटकर यह लिखा है, “अल्लाह का सबसे बड़ा चमत्कार यह सृष्टि—यह रचना है।” देखिये ‘दो कुरान’ पृष्ठ 622। पं॰ गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने लिखा है, “The occurence of an unnatural phenomenon is a contradiction of terms. If it occurs, it is natural, if it is natural it must occur. Then is it anti natural? No who can defy nature successfully.” Superstition अर्थात् चमत्कार यदि स्वाभाविक है तो चमत्कार नहीं यदि सृष्टि नियम विरुद्ध हैं तो हो नहीं सकते।  —‘जिज्ञासु’]

इस लड़कपन के विचार ने अज्ञानी लोगों के दिलों में चमत्कारों की सृष्टि की है। वह उन्हीं लोगों को प्रभु तक पहुँचा हुआ     मानते हैं जिनसे कोई करामात चमत्कार या प्रकृति के नियम विरुद्ध काम सम्बन्धित हो। कुछ सम्प्रदायों की आधारशिला ही इन्हीं चमत्कारी कहानियों पर है। स्वयं चमत्कार करना कठिन है, क्योंकि उसके मार्ग में प्रकृति के नियम बाधक हैं इसलिए इन मतों की पुस्तकों में चमत्कारों की असम्भवता को कुछ स्वीकार किया गया है, जैसे कि इञ्जील में वर्णन है—

“उस ईसा ने ठण्डा सांस लिया और कहा यह पीढ़ी चमत्कार चाहती है? मैं तुम्हें सच कहता हूँ इस पीढ़ी को चमत्कार नहीं दिखाया जाएगा”1। —(मरकस आयत 8-12)

[1. डॉ॰ जेलानी ने भी अपनी पुस्तकों में चमत्कारों की चर्चा करते हुए यही प्रमाण दिये हैं।   —‘जिज्ञासु’]

और कुरान में भी आया है—

व कालू लौला उन्ज़िला इलैहे आयातुन मिन रब्बिही कुल 1 इन्नमल आपातो इन्दल्लाहे व इन्नमा इन्ना नजीरुन मुबीन॰ लो लमयक फिहिम अन्ना अंजलना अलैकल किताबो, तुतला अलैहिम इन्ना फ़ीजालिका लरहमता व ज़िकरालि कौमिय्योमिनून।

—(सूरते अनकबूत आयत 50-51)

और कहते हैं क्यों नहीं उतरीं उस पर उसके रब की ओर से निशानियाँ। पास अल्लाह के हैं और निश्चत ही मैं डराने वाला हूँ, प्रकट और क्या उनके लिये यह पर्याप्त नहीं कि हमने तुम पर पुस्तक उतारी है जो पढ़ी जाती है उन पर और उसमें कृपा है और वर्णन है मौमिनों के लिए।

परन्तु पूर्ववर्तियों के सम्बन्ध में चमत्कारों की कहानियाँ सुनाने में कोई कानून बाधक नहीं। इसलिए ऐसी पुस्तकों के अपने काल के चमत्कारों का लाख इन्कार हो, पूर्वकालीन कालों के पैग़म्बरों के साथ चमत्कार जोड़ दिए गए हैं। काल बीतने पर श्रद्धालुओं ने वैसे ही और उनसे बढ़-चढ़कर विचित्र चमत्कारों के सम्बन्ध अपने पथ-प्रदर्शकों के साथ जोड़ दिए हैं। चमत्कार वास्तव में प्रभु की सत्ता की स्वीकृति नहीं इन्कार हैं।

परमात्मा नित्य है, अनादि है तो उसकी शक्ति का प्रदर्शन भी नित्य है, शाश्वत है, क्षण-क्षण में होता है। परमात्मा का ज्ञान पूर्ण है। उसका ज्ञान जैसे प्रकृति के नियम हैं। जहाँ यह नियम टूटे समझो परमात्मा का ज्ञान भंग हुआ। परमात्मा के नियम व कार्य में परिवर्तन होना असम्भव है। उसके ज्ञान व कार्य का प्रदर्शन नित्य प्रति के कार्यों में हो रहा है। उनका साँचा पलटने की सद्बुद्धि को आवश्यकता नहीं। हाँ जिन लोगों की मान्यता ही यह है कि वह कानून से भी ऊपर हों जिस पर तर्क ननुनच न कर सके, वह परमात्मा को भी एक बड़ा, सारे संसार को घेरे हुए, मनमौजी राजा कल्पना कर सकते हैं। जिसकी इच्छा का भरोसा नहीं।

अपनी या अपने प्यारों के लिए किसी समय कुछ कर गुज़रे। किसी पर दिल आ गया उसे रिझाने के लिए कुछ भी कर देना उससे दूर नहीं। आजकल राजाओं का युग नहीं रहा। सो परमात्मा की भी कल्पना परिवर्तित हो रही है।

वेद की दृष्टि में परमात्मा के नियम परमात्मा की पवित्र आज्ञाएँ हैं। उनका उल्लंघन (नऊज़ो बिल्लाह—परमात्मा की शरणागति) करके परमात्मा अपना निषेध उल्लंघन करेगा यह असम्भव है। परमात्मा के प्यारे वे हैं जिनका जीवन विज्ञान के नियमों व आध्यात्मिकता के साँचे में ढल जाता है।

1[ 1. नियम नियन्ता के होने का एक बहुत बड़ा प्रमाण होता है। अनियमितता कहीं भी हो यही सिद्ध करती है कि यहाँ कोई नियन्ता नहीं। यह सृष्टि नियमों में बंधी है जो अटल Eternal हैं। ऋत व सत्य को वेद भूमि का आधार मानता है। इन नियमों के टूटने का कोई प्रश्न ही नहीं है। —‘जिज्ञासु’]

जिनका सदाचार ही उनकी महानता है। वे नियमों का उल्लंघन नहीं करते उसके ज्ञान का प्रचार करते हैं। उनकी भक्ति बुद्धि के साथ वाणी का रूप धारण करके उसका प्रकाश करती है जिसका पवित्र नाम वेद है।

इसके विपरीत कुरान शरीफ़ में स्थान-स्थान पर चमत्कारों का वर्णन आया है। हम नीचे कुछ पैग़म्बरों के सम्बन्ध में कुरान शरीफ़ की साक्षी प्रस्तुत करेंगे जिससे प्रकट हो कि उनकी महानता की आधारशिला कुरान की दृष्टि में उनके चरित्र पर नहीं चमत्कारों पर है। कुरान शरीफ़ के कुछ पैग़म्बरों के चरित्र पर एक संक्षिप्त आलोचना पिछले अध्याय में हो चुकी है।

आचार व आध्यात्मिकता की परिपूर्णता विद्यमान होने की दशा में किसी व्यक्ति का जीवन  चमत्कारों की अपेक्षा नहीं रखता। मनुष्यों के लिए लाभदायक व सृष्टि के नियमों के या ऐसा कहो कि परमात्मा की इच्छा के रंग में रंगी हुई कार्य प्रणाली सर्वश्रेष्ठ चमत्कार है। जो ऋषि दयानन्द व उनके पूर्ववर्ती वेद के ऋषियों के भाग में आया है। अन्य महापुरुष भी इस श्रेष्ठता से रिक्त नहीं होंगे, परन्तु हमें यहाँ उन महापुरुषों के वर्णन से तात्पर्य है कि जो उनके अनुयायियों के कथानकों के द्वारा हम तक पहुँचे हैं।

इस अध्याय में हमें देखना यह होगा कि इन महापुरुषों के चमत्कार कल्पना के कितने निकट हैं? यदि कल्पना करो कि उनकी सत्यता को क्षणभर के लिए स्वीकार भी कर लिया जाए तो इससे वर्तमान काल का मानव समाज क्या लाभ उठा सकता है? माननीय पैग़म्बरों के आचार के परिपालन का द्वार इस्लाम के भाग्य लेखों के नियमों के हाथों बन्द है। क्योंकि हम वैसे ही कर्म करने पर विवश हैं जैसे प्रारम्भ से हमारे भाग्य लेखक ने लिख दिए हैं फिर आश्चर्यप्रद चमत्कार तो—

र्इं सआदत बज़ोरे बाज़ू नेस्त,

ता न बख्शद ख़ुदाए बिख्शन्दा 1 ।

[1. अर्थात् यह पुण्य अथवा सामर्थ्य भुजा बल से प्राप्त नहीं होता। जब तक विधाता की कृपा न हो—इसकी प्राप्ति असम्भव है।   —‘जिज्ञासु’]

यह चमत्कार हमारे किस काम के? अभी तो हमें इन करामातों, चमत्कारों के तथाकथित वर्णनों पर दृष्टिपात करना चाहिए। सम्भव है, इसमें हमारे सदुपयोग की भी कोई बात निकल आवे—

हम दृष्टान्त के रूप में इन पैग़म्बरों के कुछ चमत्कारों की संक्षिप्त जाँच पड़ताल किए लेते हैं—

(1) हज़रत मूसा, (2) हज़रत ईसा, (3) हज़रत इब्राहिम, (4) हज़रत सालिह, (5) हज़रत नूह, (6) हज़रत मुहम्मद।

हज़रत मूसा

हज़रत मूसा की कहानी कुरान शरीफ़ में बार-बार दोहराई गई है। हम कुछ ऐसे प्रमाणों पर सन्तोष करेंगे जिनसे इन हज़रत के किए हुए कार्यों या उनकी कहानी में वर्णित प्रकृति नियम विरुद्ध कारनामों पर प्रकाश पड़ सके।

मनुष्य बन्दर बन गए

सूरते बकर में फ़रमाया है— वलकद अनिमतुमल्लज़ीना अइतिदू मिनकुम फ़िस्सबते फ़कुलनालहुम कूनू किरदतन ख़ासिईन। फ़जअलनाहा नकालन लिमा बेनायर्देहा वमा ख़लफ़हा।

—(सूरते बकर आयत 65-66)

इसकी व्याख्या तफ़सीरे जलालैन में इस प्रकार की गई है—

सचमुच सौगन्ध है कि तुम जानते हो उनको जिन्होंने (प्रतिबन्ध लगाने पर भी) शनिवार के दिन (मछली का शिकार करके) सीमा का उल्लंघन किया (वह लोग ईला के रहने वाले थे) सो हमने उनसे कहा कि तुम बन्दर बन जाओ रहमत (प्रभु कृपा) से दूर (सो वह) हो गए और तीन दिन बाद मर गए। फिर हमने (इस दण्ड को) उनके काल के पश्चात् और बाद में आने वाले लोगों के लिए मार्गदर्शन का साधन कर दिया। —जलालैन

शरीरों का अविलम्ब परिवर्तन प्रकृति के किस नियम के अनुसार हुआ? हज़रत डारविन को कठिनाई थी कि बन्दर की पूँछ मनुष्य शरीर में आकर लुप्त कैसे हो गई? पाठक वृन्द! कुरान की कठिनाई यह है कि दुम (पूँछ) कैसे उत्पन्न हो गई? मज़हब में तर्क का प्रवेश नहीं।

मृत शरीर बोल उठा

व इज़ा कतलतुम नफ़सन फ़द्दर अतुम फ़ोहा बल्लाहो मुख़- रिजुन मा कुन्तुम तकतिमूना, फ़कुलना अज़रिबहो विबाज़िहा। कज़ालिका यहयल्लाहो अलमूता व युरीकुम आयतिही लअल्लकुम तअकिलून। —(सूरते बकर आयत 73)

जबकि तुमने एक आदमी को मारा फिर उसमें झगड़ा किया और अल्लाह प्रकट करने वाला है। इस बात को जिसको तुम छुपाते थे। फिर हमने कहा कि इस (वध किए गए) से इस (गाय) की (शाब्दिक अर्थ हैं इस गाय) का एक टुकड़ा जीभ या दुम की हड्डी मारो उन्होंने मारा और वह जीवित हो गया और अपने चाचा के बेटों के बारे में कहा कि उन्होंने मुझे मारा है यह कहकर मर गया।  अल्लाह ताला इसी प्रकार मृत शरीरों को जीवित करेगा वह तुमको अपनी शक्ति की निशानियाँ दिखाता है कि तुम विचार कर समझो। —जलालैन

गाय का एक टुकड़ा लगने से मुर्दा जी उठा न जाने मरा क्या लगने से? पर मरते तो लोग नित्यप्रति हैं। चमत्कार जीने में था। बंकिमचन्द्र बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार मजिस्ट्रेट थे। एक मुकदमें में वास्तविक परिस्थिति का पता नहीं लग रहा था। आपने मुर्दे का स्वांग भरा। लाश बनकर पड़े रहे और उस पर कपड़ा डाल दिया गया। अपराधी भी वहीं थे। बातों-बातों में निःसंकोच सारी घटना सच-सच कह गए। मुर्दा जलाने से पूर्व ही जी उठा और न्यायालय में घटना की साक्षी दे गया। कुछ ऐसी ही दशा इन आयतों में लिखी हुई तो नहीं? यह अन्तर अवश्य है कि बंकिम फिर जीवित ही रहे तीन दिन पश्चात् मरे नहीं।

डण्डे का चमत्कार

व इजस्तस्का मूसालिकौमिही, फकूलनाजरिव बिअसाक- लहजरा फन्फजरत मिनहा इसनता अशरा ऐनन।

—(सूरते बकर आयत 73)

जब कि (उस जंगल में) मूसा ने अपनी जाति के लिए पानी माँगा सो हमने कहा कि अपनी लाठी पत्थर पर मार (यह वही पत्थर था जो मूसा के कपड़े ले भागा था) नरम (चौकोन जैसा आदमी का सिर) सो उसने मारा बस 12 जल के स्रोत (चश्मे) (जितने वह गिरोह थे) उसमें से निकलकर बहने लगे। —जलालैन

डण्डा अजगर बन गया

फ़लका असाहो, फ़इज़ाहिया सअबानुन मुवीनुन, वनज़ आयदुहू फ़इज़ाहिया बैज़ा अनलिन्नाज़िरीन।

—(सूरत ऐरा फ आयत 107)

बस मूसा ने अपनी लाठी डाली सो अचानक वह बड़ा अजगर साँप बन गई और (मूसा ने) अपना हाथ (कपड़ों में से) निकाला और वह चमकता हुआ प्रकाशमान प्रकट हुआ देखने वालों की दृष्टि में (यद्यपि उस हाथ की यह रंगत न थी। गेहुआ रंग था)।

—जलालैन

पतला साँप

व अलके असाका फ़लम्मा राअहा तहतज़्जुन कअन्नहा जानुन ववलामु दब्बिरन वलम यअकिब या मूसा ला तख़िफ़।

—(सूरते नहल आयत 10)

और अपनी लाठी डाल (सो मूसा ने) अपनी लाठी डाली (उसने) जब उस लाठी को देखा कि दौड़ती है जैसे पतला साँप। मूसा पीठ फेरकर भागा और पीछे को न लौटा (अल्ला ताला ने फ़रमाया) ए मूसा तू इससे भयभीत न हो।

—जलालैन

वेदान्त में भ्रमवश रस्सी को साँप समझने का वर्णन तो प्रायः होता है, यहाँ न जाने भ्रम था या वास्तविक दशा थी?

टिड्डियों जुंओं व मैढकों का मेंह

लोग हज़रत मूसा के भक्त न बने बस फिर क्या था?

नहनोलका बिमोमिनीना फ़अरसलना अलैहुम त्तूफ़ानावल जरादा वलकमला वज़्ज़फ़ादिए वद्दम्मा आयतिन मुफ़स्सिलातिन।

—(सूरते आराफ 132-133)

हम कभी तेरा विश्वास न करेंगे और ईमान न लाएँगे (सो मूसा ने उनको शाप दिया) फिर हमने उन पर पानी का तूफ़ान भेजा (कि सात दिन तक पानी उनके घर में पानी भरा रहा। जो बैठे हुए आदमी के हलक तक पहुँचता था) और भेजा टिड्डियों को (सात दिन की उनकी खेती व फल खा गए और (भेजा) जुओं को (या वह कीड़ा जो अनाज में पैदा हो जाता है) या चिचड़ी को जो उसने टिड्डियों का बचा हुआ खाया और कुछ शेष न छोड़ा और भेजा उन पर मैंढक (कि वह उनके घरों व खानों में भर गए) और रक्त को (उनके पानी में) और यह निशानियाँ प्रकट (भेजी)।

किसी की समझ में यह चमत्कार न आए तो इसका इलाज वही है जो इस आयत के अनुसार ईमान न लाने वालों का हुआ। अर्थात् पानी का तूफ़ान, टिड्डियों, जूएँ, रक्त व मैंढक, इस भय के होते कौन हैं जो ईमान न लाए?

नदी दो टुकड़े

आगे फ़रमाया है—

फ़ग़रकनाहुम फ़िलयम्मा बिइन्नहुम कज़्ज़बू बूआया तिनाव  कानू अनहा ग़ाफ़िलीन।

—(सूरते आराफ आयत 136)

फिर डुबा दिया (उनको शोर नदी में) इस कारण से कि वह निश्चय ही हमारे आदेश को झुठलाते थे और (हमारी निशानियों से) अज्ञान रखते थे कुछ सोच विचार नहीं करते थे। —जलालैन

व जावज़ना विनब्यिय इसराईल लवहरा।

—(सूरते आराफ आयत 138)

और हमने बनी इसराईल को नदी से पार कर दिया।

इस घटना का विवरण इससे पूर्व निम्न आयत में वर्णन हो चुका है।

व इज़ा फ़रकना बिकुलमुल बहरा फ़अन्जयतकुम व अग़रकना आले फ़िरओन व अन्तुम तंज़रुना।

—(बकर आयत 50)

जबकि हमने तुम्हारे (बनी इसराईल के) कारण दरिया को चीरा (ताकि तुम शत्रुता से भागकर इसमें दाखिल हो जाओ) सो हमने तुमको डूबने न दिया और फिरऔन की जाति को डुबो दिया (फ़िरऔन सहित) और तुम देखते थे (उनके ऊपर दरिया के मिल जाने पर)।

—जलालैन

आजकल की पनडुब्बी नौकायें इससे भी कहीं अधिक चमत्कार1 दिखा रही हैं। [1. डॉ॰ ग़ुलाम जैलानी बर्क ने अपनी पुस्तक दो कुरान पृष्ठ 322 पर नील नदी का फटना, लाठी का सर्प बनना आदि चमत्कारों को झुठला दिया है। —‘जिज्ञासु’]

  1. हज़रत मसीह

हज़रत ईसा मसीह को मुसलमान वह महत्ता नहीं देते जो ईसाई लोग देते हैं, परन्तु हज़रत मसीह से भी कुछ चमत्कार कुरान में ही जोडे़ गये हैं। जैसा कि सूरते बकर आयत 87 में वर्णन है।

व आतैना ईसा इब्ने मरयमल बय्यनाते व अय्यदनाही बिरुहिलकुदस।

और मरियम के पुत्र ईसा को कई चमत्कार दिए (जीवित करना मृतकों का और अन्धें व जन्मजात कोढी को निरोग करना) और उनको सामर्थ्य दी जिबरईल से (जहाँ ईसा चलते, जिबरईल उनके साथ होते थे)।

—जलालैन

बिना पिता के सन्तानोत्पत्ति

व इज़ा कालतिलमलाइकतो या मरयमो इन्नल्लाहा इस्तफ़ाका व तहरका वस्तफ़ाका अलानिसाइल आलमीन।

—(आले इमरान 39)

जब फ़रिश्ते बोले ए मरियम! अल्लाह ने तुझे पसन्द किया व शुद्ध बनाया (टिप्पणी में है—पुरुष के निकट होने से पवित्र किया) और पसन्द किया तुझको सब संसार की स्त्रियों से।

—जलालैन

व जकरा फ़िल कितावे मरियमा इज़म्बतजतामिन अहलिहा मकानन शरकिय्यन। फ़त्तरवजत मिन दूनिहिम हिजाबन फ़अर सलना इलैहा रुहना फ़तमस्सला लहवशरन सविय्यन। कालत इन्नो अऊजो बिर्रहमाने मिन्काइन कुन्ता नकिय्य्न। काला इन्नमा अनारसूलो रब्बिकालिअहल लका ग़ुलामन ज़किय्यन॰ कालत अन्नी यकूनोली ग़ुलामुन वलम यमसइनि बशरुन वलम अकोवगिय्यन काला कज़ालिका काला रब्बुका हुवा अलय्या हय्यनुन व लि नजअहु आयतुन लिन्नासे………फ़हमलतहू फ़न्तब्जत बिहीमकानन कसिय्यन।

—(मरयम 16-20)

याद करो कुरान में कथा मरियम की जबकि वह पृथक् हुई अपने घर वालों से एक मकान के कोने में जो पूर्व दिशा में था (वहाँ जाकर) घर के लोगों के सामने परदा छोड़ दिया (ताकि कोई न देखे यह परदा इसलिए छोड़ा था कि अपने सिर या कपड़ों से जूं निकालती थी या मासिक धर्म के पश्चात् स्नान करती थी पवित्र होकर) सो भेजा हमने उनकी ओर अपनी रूह (आत्मा, जिबरईल) को। सो वह हो गया आदमी पूरे हाथ पैर वाला सुन्दर (जबकि मरियम अपने कपड़े पहन चुकी थी) मरियम बोली, निःसन्देह मैं तुझसे ख़ुदा की शरण माँगती हूँ यदि तू कोई पवित्र हृदय पुरुष है (तू मेरे शरण माँगने से पृथक् रह) जिबरईल ने कहा—बात यह है कि मैं तेरे परमात्मा का भेजा हुआ हूँ कि तुमको एक पवित्र बेटा प्रदान करूँ (जो पैग़म्बर होगा) मरियम ने कहा—मेरे पुत्र कैसे होगा।

यद्यपि किसी पुरुष ने विवाह करके हाथ नहीं लगाया और न मैं व्यभिचारिणी हूँ…….. जिबरईल ने कहा—(यह बात अवश्य होने वाली है, अर्थात् बिना पिता के पुत्र अवश्य उत्पन्न होगा) तेरा परमात्मा कहता है कि यह काम मेरे लिए सरल है (इस प्रकार कि जिबरईल मेरे आदेश से तेरे अन्दर फूँक मारे तू उससे गर्भवती हो जाए)……..और हम उसको अवश्य पैदा करेंगे ताकि बनाएँ उसको अपने सामर्थ की निशानी…..फिर मरियम गर्भवती हुई और चली गई (गर्भवती होने के कारण अपने घर वालों से) दूर।

—जलालैन

फ़रिश्ते आजकल बात भी नहीं करते। प्राचीनकाल में करते थे। परमात्मा के सन्देश लाते और उसके आदेशों का पालन करने में भाँति-भाँति के पुरस्कार प्रदान कर जाते थे। हज़रत मरियम को बिना पति के सन्तान दी। हज़रत यहया को बिना शक्ति के पुत्र दिया। इस विज्ञान के युग में अल्लाह मियाँ व उसके फ़रिश्ते सब वैज्ञानिक हो गए हैं। मजाल है कोई बात प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कर जावें।

वल्लती अहसनत फ़रजहा फ़नफ़रवना फ़ीहा मिनरुहिनावजअलनांहां व अबनाहा आयतुन लिल आलमीन।

—(सूरते अम्बिया 88)

और स्मरण करो मरियम को जिसने अपनी योनि को (बुरे काम से) सुरक्षित रखा सो हमने अपनी रूह (आत्मा) फूँकी (अर्थात् जिबरईल ने उसके कुर्ते के गिरेबान में फूँक मारी जिससे उसको ईसा का गर्भ रह गया) और हमने मरियम को और उसके पुत्र को मनुष्यों, जिन्नों (भूतों) व फ़रिश्तों (देवताओं) के लिए एक निशानी बनाया। (क्योंकि मरियम ने ईसा को बिना पति के जन्म दिया)। —जलालैन

हज़रत इब्राहिम

कटे पशु जीवित किए

हज़रत इब्राहीम एक पुराने ईश्वरीय दूत हैं। हज़रत मुहम्मद का दावा है कि इस्लाम हज़रत इब्राहिम का ही धर्म है। उनके प्रकृति के नियमों के विरुद्ध चमत्कारों का वर्णन सूरते बकर में इस प्रकार है—

व इज़ा काला इब्राहीमो रब्बे अरनी कैफ़ा यहयुलमौता काला अवलय तौमिनो। काला बला वलाकिन लियमय्यिनाकलबी। काला फ़ख़ुज़ अरबअतन मिनत्तैरे फ़सर हुन्ना इलैका, सुम्मा अजअल अलाकुल्ले जबलिन मिनहुन्ना जुजअन सुम्मा अदउहुन्ना यातीन का सइयन व अलमी इन्नाल्लाहो अज़ीज़न हकीम। —(सूरते बकर आयत 260)

इब्राहिम ने कहा—ए मेरे प्रभु मुझको दिखला कि तू मुर्दों को कैसे जीवित कर देगा (अल्लाह ने उनसे फ़रमाया) क्या तुझको इस पर विश्वास नहीं? (कि मेरे अन्दर सामर्थ है कि मुर्दों को जीवित कर दूँ)……..(इब्राहीम ने) कहा कि मैंने निसन्देह विश्वास किया तेरी शक्ति पर……..यह मैंने तुझसे इसलिए पूछा कि आँख से देखकर पूरे हृदय को सन्तोष प्राप्त कर लूँ और विरोधियों से तर्क कर सकूँ (अल्लाह ने) फ़रमाया, अब तू चार पंछी पकड़…….और उनको अपने पास इकट्ठा कर और उनको काटकर उनके पंख गोश्त मिलाकर फिर अपनी ज़मीन के पहाड़ों में से प्रत्येक पहाड़ पर एक-एक टुकड़ा उनका रख दे फिर उनको अपनी ओर बुला वे दौड़कर आएँगे और जान ले कि अल्लाह शासक है (किसी बात से कमज़ोर नहीं उसका काम सुदृढ़ व पक्का है) सो इब्राहिम ने मोर, करगस, कौवा और मुर्ग पकड़ा और उनका मांस व पर काटकर मिला दिए और उनके सिर अपने पास रख लिए और उनको बुलाया सो तमाम टुकड़े उड़कर जिसका जो टुकड़ा था उसमें जा मिला। यहाँ तक कि पूरे होकर अपने-अपने सिरों से मिल गए।

—जलालैन

हज़रत सालिह

अल्लाह मियाँ की ऊँटनी

कौम समूद के पैग़म्बर सालिह के सम्बन्ध में सूरते हूद में आया है कि उन्होंने फ़रमाया—

वया कौमे हाजिही नाक तुल्लाहे लकुम आयतुन फजरुहा ताकुल फिलअरजे ल्लाहेवला तमस्सूहा बिसूइन फयारवुजकुम अजाबुन करीबुन फअकरुहा, फकाला तमत्तऊफी दारिकुम सलासता अय्यामिन जालिका व अदुन गैरो मकजूबिन।

—(सूरते हूद आयत 63)

और ए मेरी कौम यह अल्लाह की ऊँटनी है तुम्हारे लिए निशानी अतः इसे छोड़ दो फिर से अल्लाह की भूमि पर और इसके साथ किसी प्रकार का बुरा व्यवहार मत करो नहीं तो तुम पर बहुत बड़ा दण्ड आएगा। सो उन्होंने उसके पैर काटे (अर्थात् एक कज़ाज़ नामक व्यक्ति ने उस कौम के कहने पर ऊँटनी के पैर काट डाले)  (सालिह ने) फ़रमाया ज़िन्दा रहो तुम अपने घरों में तीन दिन फिर तुम वध कर दिए जाओगे।

—जलालैन

सूरते बनी इसराईल में कहा है—

व आतैना समूदुन्नाकतामब्सिरतुन फ़ज़लमू बिहा।

—(बनी इसराईल 58)

हमने समूद की ओर ऊँटनी को भेजा वह प्रकट निशानी थी सो उन्होंने उसका इन्कार किया। (अतः वे नष्ट हो गए)

तफ़सीरे हुसैनी में इस आयत की व्याख्या में कहा है—

समूद अज़ सालिह मोजिज़ा तलब करदन्द व ख़ुदाए बराए एशां अज़ संग नाका बेरूं आवुरद।

समूद ने सालिह से चमत्कार माँगा और ख़ुदा ने उनके लिए पत्थर से ऊँटनी उत्पन्न कर दी।

सूरते शुअरा में फ़रमाया है—

काला हाज़िही नाकतुन लहा शिरबुन वलकुम शिरबो योमिन मालूम।

—(सूरते शुअरा)

कहा यह ऊँटनी है उसके लिए पानी का एक भाग निश्चित है और तुम्हारे लिए एक निश्चित दिन का भाग।

—जलालैन

मूज़िहुल कुरान में इसी स्थान पर फ़रमाया है—

वह छूटी फिरती….जिस सरोवर पर पानी को जाती सब पशु वहाँ से भागते तब यह निश्चित कर दिया गया कि एक दिन पानी पर वह जाए एक दिन औरों के पशु जाएँ।

सूरते शमस में यह वार्ता इस प्रकार वर्णन की गई है—

फ़कालालहुम रसूलुल्लाहे नाकतुल्लाहे व सकयाहा फ़कज़िबूहा फ़अकरुहा फ़दमदमा अलै हुम रब्बुहुम बिज़नबिहिम फसब्वाहा।

—(सूरते शमस आयत 13-14)

फिर कहा उनको अल्लाह के रसूल ने सावधान हो अल्लाह की ऊँटनी से और उसके पानी पीने की बारी से फिर उसको उन्होंने झुठला दिया फिर वह काट मारी और फिर उल्टा मारा, उन पर उनके रब ने उनके पाप से फिर बराबर कर दिया।

—जलालैन

भला यह ऊँटनी क्या हुई! पत्थर से निकली और उसका अधिकार यह कि जिस दिन वह पानी पीए और पशु न पीवें आखिर अल्ला मियाँ की जो हुई। यह भी अच्छा हुआ कि पत्थर से कोई मनुष्य नहीं निकला नहीं तो मनुष्यों के लिये पानी का अकाल हो जाता। कोई पूछे कि इस चमत्कार से मनुष्य का क्या बना? और दयालु परमात्मा का क्या?

हज़रत नूह

लगभग हज़ार बरस जिए

सूरते अनकबूत में हज़रत नूह का वर्णन हुआ है। फ़रमाया है—

वलकद अरसलना नूह न इला कौमिहि फ़लबिसा फ़ीहिम अलफ़ा सनतिन इल्ला ख़मसीना आमन।

—(अनकबूत आयत 14)

और हमने भेजा नूह को उनकी कौम के पास। फिर रहे वे उनमें 50 कम 1 हज़ार बरस तक।

तफ़सीरे हुसैनी में इस आयत पर कहा है—

नूह चहल साल मबऊसशुद व नह सदपंजाह साल ख़लक रा बख़ुदा दावत करद। बाद अज़ तूफ़ान शस्त साल ज़ीस्त दर अहकाफ़ अज़ दहब नकल कुनन्द कि उम्रे नूह हज़ार व चहार सद साल बूद, साहब ऐनुलमआनी फ़रमूद कि सी सद व हफ़्ताद साल मबऊस शुद व नो सद व पंजाह साल दावत करद, बाद अज़ तूफ़ान सी सद व पंजाह साल ज़ीस्त।

नूह अलैहस्सलाम चालीस साल की आयु में पैग़म्बर हुए और नौ सौ पचास वर्ष तक लोगों को ख़ुदा का सन्देश देते रहे। तूफ़ान के पश्चात् साठ वर्ष जीवित रहे। अहकाफ़ में वह बसे रिवायत (वर्णनवार्ता) है कि नूह अलैहस्सलाम की आयु एक हज़ार चार सौ वर्ष थी। लेखक ऐनुलमआनी फ़रमाते हैं कि तीन सौ सत्तर साल की आयु में पैग़म्बर हुए नौ सौ पचास साल प्रचार किया और तूफ़ान के पश्चात् 3 सौ पचास साल जीवित रहे।

हज़रत नूह की आयु कुछ भी हो उनकी प्रचार की अवधि का प्रारम्भ पचास वर्ष स्वयं कुरान में वर्णित है। इस प्रचार का प्रभाव यह कि थोड़े गिने-चुने लोगों के उनके साथियों के अतिरिक्त कोई भी सन्मार्ग पर नहीं आया और सब को तूफ़ान की बलि होना पड़ा।   सारी सृष्टि अल्लाह की बनाई और बनाई भी वैसी जैसी अल्लाह को स्वीकार था। अल्लाह ने कुछ को जन्नत के लिए कुछ को दोज़ख़ के लिए पहले से ही चुन लिया था फिर हज़रत नूह को कष्ट देने की क्या आवश्यकता थी? यदि दिया ही था तो कुछ परिणाम निकलना चाहिए था।

हज़रत मुहम्मद

चाँद तोड़ दिया

हज़रत मुहम्मद ने चमत्कार दिखाने से इन्कार तो किया था, परन्तु अनुयायियों के आग्रह से विवश हो गए हैं। सूरते कमर में आया है—

बक्तरबत स्साअता वन्शक्कलकमरो।

निकट आ गया प्रलय दिन और फट गया चाँद (चाँद के दो टुकड़े होना)। हज़रत का चमत्कार हुआ जिसकी माँग काफ़िरों के द्वारा की गई थी। आपने उसकी ओर संकेत किया। और वह दो टुकड़े हो गया।

चाँद अरब का था क्या?—कोई प्रश्न कर सकता है कि वह चाँद अरब का था या इस चमत्कार को देखने वालों का कोई विशेष चाँद था? या यही चाँद था जो संसार की सभी जातियों के लिए सामान्य है? यदि सामान्य था तो क्या कारण है कि अरब के बाहर के लोग इस चमत्कार के साक्षी न हुए। वास्तव में यह चमत्कार ज्योतिष विद्या के इतिहास में कुछ कम महत्त्व का नहीं था कि हज़रत मुहम्मद की घटना उनके लेखकों के अतिरिक्त किसी और का ध्यान न खींचती। अपना-अपना भाग्य है इस गौरव से और लाभान्वित न हुए!

सूरते बनी इसराईल में कहा है—

सुबहानल्लज़ी असराबि अब्दिही लैलन मिनल मस्जिदल अकसा अल्लजी बरकना हौलहू लिनरीहू मिन आतेना।

—(सूरते बनी इसराईल आयत 71)

पवित्र है वह सत्ता कि अपने बन्दे को (मुहम्मद साहब को) रात में मस्जिदे हराम (अर्थात् मक्का) से मस्जिदे आकसा (बैतुल मुकद्दस-पवित्र घर) की ओर ले गया……जिसकी हर ओर से हमने बरकत दी……..कि उसको विचित्रताएँ व चिह्न दिखलाए…. आपकी भेंटें पैग़म्बरों से हुई व आपको आसमानों की ओर चढ़ाया………वास्तव में हज़रत सलअम ने फ़रमाया कि मेरे पास बुराक लाया गया कि वह एक सफ़ेद जानवर है गधे से बड़ा व खच्चर से छोटा उसके पैर वहाँ तक पड़ते हैं जहाँ तक उसकी दृष्टि पड़े सो मैं उस पर सवार हुआ। वह मुझको ले गया। यहाँ तक कि मैं बैतुल मुकद्दस पहुँचा। वहाँ मैंने अपनी सवारी को उस हलके (घर) में बाँधा जिसमें और पैग़म्बर अपनी सवारियाँ बाँधते थे।

—जलालैन

इसके पश्चात् आसमानों पर जाने का वर्णन है, द्वार खटखटाया जाता है, प्रश्न होता है कौन? हज़रत जिबरईल फरमाते हैं हज़रत मुहम्मद? पूछा जाता है। क्या वह पैग़म्बर हो गए? स्वीकारात्मक उत्तर मिलने पर द्वार खोल दिया जाता है। इस प्रकार विभिन्न आसमानों पर विभिन्न सम्मानीय पैग़म्बरों की भेंट के पश्चात्—

फिर मैं पहुँचा सदर तुलमुन्तहा (सर्वोच्च गन्तव्य स्थल) तक। उसके पत्ते ऐसे जैसे हाथी के कान और उसके फल ऐसे जैसे मटका। जब उस बेरी के वृक्ष को घेर लिया, अल्लाह के आदेश से उस वस्तु ने जिसने घेर लिया वह आश्चर्यचकित हो गया।…..आपने फ़रमाया मेरी ओर जो ईश्वरीय सन्देश मिला है वह प्रकट करने योग्य नहीं…….।

—जलालैन

हज़रत की उम्मत (समुदाय) पर पचास नमाजें  फर्ज़ हुर्इं। हज़रत वापिस लौटे, परन्तु सम्मानीय पैग़म्बरों ने समझाया1[1. नोट—यहाँ मूसा का वर्णन ।] बोझ तुम्हारे अनुयाइयों से सहन न हो सकेगा। हज़रत बार-बार ख़ुदा की सेवा में गए और वहाँ से लौटे अन्त में नमाज़ों की संख्या पाँच करा ली। हज़रत मूसा ने इसमें भी कमी कराने का परामर्श दिया तो फ़रमाया—

“मैं अनेक बार अपने रब के पास जा चुका हूँ अब मुझको लज्जा आती है। इस हदीस को बुख़ारी व मुस्लिम ने उद्धृत किया है और यह शब्द मुस्लिम के हैं।”

—जलालैन

इसमें सन्देह नहीं कि इस चमत्कारी यात्रा के विवरण कुरान के भाष्यों में लिखे हुए हैं। स्वयं कुरान में मस्जिद हराम से मस्जिदे अकसा तक एक रात में जाना वर्णन किया है। वह उस समय   कि यह  चमत्कार था, परन्तु आज गुब्बारों व विमानों का युग है। इस समय इसे कौन चमत्कार मान सकता है?

चमत्कार और भी बहुत से हैं, परन्तु यहाँ जैसे बहुतों में से कुछ नमूने के रूप में दिए हैं केवल कुछ चुने गए हैं। पाठक के लिए विचारणीय बात यह है कि क्या इन चमत्कारों से परमात्मा की किसी विशेष शक्ति का आभास होता है जो सृष्टि की कल को सामान्यतया चलाने से अधिक कठिन है? क्या इन चमत्कारों से परमात्मा के प्यारों की किसी विशेष महानता का आभास होता है जिससे उनकी पदवी बुद्धिमानों की दृष्टि में ऊँची हो? कहीं इन प्रकृति नियम के विरुद्ध कर्मों से यह तो प्रकट नहीं होता कि प्रकृति का नियम बेदाद नगरी अन्यायी नगरी का सा कानून है जो तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है।

यहाँ कर्मों की इतनी परवाह नहीं जितनी अपने प्यारों की प्रतिष्ठ व अपमान की है। लोगों ने एक मार्गदर्शक का कहना नहीं माना। बिना यह विचारे कि वह उपदेशक कैसे चरित्र का है। लोगों के लिए खून की वर्षा, नूह का तूफ़ान और न जाने क्या-क्या तैयार है। लोगों को अपना श्रद्धालु बनाने के लिए उपाय क्या-क्या प्रयोग किए जा सकते हैं। जादूगरी, डण्डे को साँप बना दिया। क्या इसी को धर्म व सत्य का प्रचार कहते हैं? इन खेलों से कहीं महान् गौरवशाली सच्चे कार्य सृष्टि-रचना में दिन-रात हो रहे हैं।

क्या बिना बाप के सन्तान उत्पन्न होने में परमात्मा की महानता का अनुमान होता है और माता- पिता दोनों के होते सन्तानोत्पत्ति होने में परमात्मा का कोई हाथ नहीं? बूढ़े के बच्चा हो जाना परमात्मा का चमत्कार है और युवक के पुत्र होना परमात्मा की कारीगरी का खण्डन है? ऊँटनी ने हज़रत सालिह के व्यक्तित्व में किस बड़प्पन की वृद्धि की? सच्चाई यह है कि परमात्मा पर विश्वास की निर्भरता यदि नित्य प्रति के साधारण कार्यों व घटनाओं पर रखो तो आज भी स्थिर रहेगा कल भी और जो किसी बीते काल के चमत्कारी कथानकों पर निर्भरता ठहरी तो जिस समय के लोग कहानियों से ऊपर उठकर वर्तमान परिस्थितियों के अभिलाषी हुए जैसे आज कल हैं उस काल में नास्तिकता ही नास्तिकता का सिक्का बैठ जाएगा। मनुष्य चरित्र से पूजा जा सकता है तथा परमात्मा अपने नियमों की सुदृढ़ता व अटलता से। जिसे न उसके (मत के अनुयायी) अपने तोड़ सकें न पराये ही।

सच्चे-राम को ईश्वर बताने की झूठी-बैसाखी क्यों?:- – पं. आर्य प्रहलाद गिरि

सीधे-सच्चे हिंदुओं को ईसाई बनाने के लिये कमर कसकर भारत में आये फादर कामिल बुल्के भी अप्रक्षिप्त वाल्मीकि रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम राजा रामचंद्र, सती सीता, महावीर हनुमान, भाई भरतादि के त्यागपूर्ण जीवन-चरित्रों को पढ़ते हैं, तो वेदकालीन प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति का ऐसा उत्कृष्ट सुंदरतम -स्वर्णिम सुखद दृश्य देखतेे ही चिल्ला उठते हैं।

जिस तरह सैकड़ों शेक्सपियर भी रामचरितमानस-सा विश्व का सुंदरतम महाकाव्य नहीं रच सकते, उसी तरह राम-सा दिव्य महामानव (देवात्मा, देवदूत, बोधिसत्व-तथागत, तीर्थंकर, पैगंबर, प्रभुपुत्र, फरिश्ता) भी कोई हमें इतिहास के किसी पन्ने पर नहीं दिखला सकता। ऐसा इसलिये भी कि-

राम, तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है।

कोई कवि बन जाये, सहज संभाव्य है।।

-राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

समुद्र को भी बांध देने वाले युगपुरुष हमारे राम मानव-धर्म के उच्चादर्शों पर इसलिये भी चलते रहे कि इनके ही पूर्वज राजर्षि मनु दुनिया वालों के सामने सगर्व घोषणा कर चुके थे-

एतत् देश प्रसूतस्य सकाशात् अग्र जन्मन:।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवा:।।

– (२.२०)

-धरती माता के सारे द्वीप-द्वीपान्तरों पर बसने वाले हर तरह के लोग इसी आर्यावर्त देश के अगुओं (नेताओं, प्रतिनिधियों) से अपने-अपने अनुकूल उन्नत चारित्रिक सभ्यता-संस्कृति को सीखते रहें।

किन्तु आज दुनिया को छोड़ें, हिन्दू कहलाने वाले हम आर्यवंशी लोग भी अपने पूर्वज राम को ईश्वर (अन अनुकरणीय, सिर्फ चर्चा करने योग्य) कहकर इनके विचारों-व्यवहारों से कुछ भी नहीं सीखते। राम का नाम ले-लेकर बेधडक़ रावण-पथ पर बढ़ते जा रहे हैं। गले में ही नहीं, मंदिरों में भी राम के चित्र सजाकर रावण की ही चरित्रोपासना में जुटे हुए हैं। अत: राम-विमुखों की जो दशा होनी चाहिये, वही दुर्दशा महाभारत युद्ध के बाद से आज तक हमारी होती जा रही है।

हल्दीघाटी में घास की रोटी खाकर भी जब मुगलों के प्रहारों को तपस्वी महाराणा प्रताप अपने तलवार से माँ भारत-भारती की रक्षा कर रहे थे, उसी समय उसी काम को सारी मुसीबतों को सहते हुए बड़ी बहादुरी, बुद्धिमानी और कुशलता से संत कवि गोस्वामी तुलसीदास भी अपनी सफल लेखनी से, काशी से भागकर अयोध्या में कर रहे थे। काल्पनिक ही सही, यदि श्रीमद्भागवत गीता को मौर्य गुप्तकाल में न लिखा जाता, तो सारे हिन्दू बौद्ध बन गये होते, और बामियान की विशााल बुद्ध-मूर्ति की तरह सारे बौद्धों को मिटा देना अरबी आक्रांताओं के लिये अत्यन्त सरल था। इसी तरह स्वराष्ट्र-धर्मरक्षक महात्मा तुलसीदास भी सरल और रोचक भाषा-शैली में शैव-वैष्णव का कलह मिटाते हुए रामचरितमानस को लिखकर अयोध्या के ही राजा राम को पूर्ण ब्रह्म परमात्मा बताने और सिर्फ हरिभजन को ही असली यज्ञ-पूजा बताने में यदि सफल न हो पाते, तो उस समय हमें मुहम्मदी, नमाजी और कुरानी बन जाना ही पड़ता।

जिस तरह हम राष्ट्र-धर्म-रक्षक चाणक्य, शंकराचार्य, गुरु गोविंद सिंह, शिवाजी, दयानन्द, सुभाष, सावरकर, पटेलादि के उपकारों को नही भूलते, त्यों ही गीताकार और मानसकार को भी भारतीय वैदिक संस्कृति रक्षा हेतु ‘भारत-रत्न’ पुरस्कार जैसा कुछ न कुछ अविस्मरणीय-सम्मान तो मिलना ही चाहिये। भले ही इनके बनाये ये साहित्यिक-हथियार आज कुछ मोर्चों पर अनुपयुक्त, अप्रासंगिक हो गये हों, तथापि सेवानिवृत्तों (रिटायर्ड्स) की भाँति ये सादर पेंशन पाने के अधिकारी तो हैं ही।

अभी के लिये ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ अत्यन्त अमोघ-औषधि व बुद्धिवर्धक टॉनिक है। जो वाल्मीकि रामायण और महाभारत की तरह ही श्री राम और श्रीकृष्ण को एक आदर्श महात्मा ही साबित करता है, परमात्मा नहीं।

पचास साल पहले तक अक्सर लोग कृतज्ञ-भावुकतावश डॉक्टरों को दूसरा भगवान् कह बैठते थे। आज भी हम त्यागियों-परोपकारियों-सहायकों को देवदूत-फरिश्ता-भगवान् कह देते हैं। इसी तरह हम अग्रि, आदित्य, वायु, अंगिरा, इंद्र, ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, मनु, भगीरथ, परशुराम, राम, कृष्ण, व्यास, गौतम, कणाद, कपिल, पतंजलि आदि वैज्ञानिकों-ऋषियों को (देव-देवी) तो कह सकते हैं, किन्तु परमात्मा कदापि नहीं, क्योंकि वेदानुसार परमात्मा न तो जन्मता-मरता है और न किसी आकार में कभी बंधता है। तथा उसी निराकार एक अखंड अनंत ब्रह्म-ओ३म् से प्रकाश पा-पाकर अनेकों ब्रह्मा, विष्णु, लक्ष्मी, शंकरादि जन्मते-मिटते रहते हैं (मानस-१.१४१.३) यही ज्ञान-प्रकाश पूर्ण सच्चिदानन्द ईश्वर, ध्यान-योग, प्रार्थना, प्राणायाम, हवन, परोपकार, सच्चाई, ज्ञान, ईमानदारी, सदाचार आदि द्वारा ही सभी मनुष्यों का परमोपास्य है। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा, मूसा, मुहम्मद, नानक, कबीर, दयानन्दादि भी इसी ईश्वर के उपासक रहे हैं। इन महान् ऐतिहासिक ईश्वर-भक्तों को ही ईश्वर मान लेना और इनकी मूर्ति को सजीव समझकर लड्डू-पेड़ादि खिलाने-पिलाने, सुलाने-जगाने का अभिनय करना-करवाना भारी मूर्खता या धूर्तता है। यह सिर्फ नास्तिकता ही नहीं, महापुरुषों का अपमान भी है।

राम और कृष्ण का मन्दिर बनाकर उनको खिलाने-पहनाने हेतु भीख-चंदा माँगना, इन्हीं की मूर्तियों के सामने यजमानों से झूठ बोलना, तंग करना साबित करता है कि ये निरक्षर पंडे लोग भी इन मूर्तियों को चेतन नहीं समझते। राम के प्राणप्रिय, वीर, वेदज्ञ, ब्रह्मचारी,शाकाहारी हनुमान जी को बंदरमुखी बना देने से भी इन पंडों को संतोष न हुआ तो अब ये बाघ, गीदड़, गधा, सूअर केे मुख लगाकर पंचमुखी हनुमान को पुजवाने के दुस्साहस में लग गये हैं।

हमारे धार्मिक महापुरुषों के पुश्तैनी दलाल बन चुकेे पंडे लोग भली भांति जानते हैं कि जो भगवान् मीर कासिम से लेकर महमूद गजनी, मुहम्मद गौरी, सिंकदर लोदी, तैमूरलंग, औरंगजेब, कालापहाड़ का कुछ भी बिगाड़ न सका, वो मुझे क्या दंड देगा। सचमुच मंदिरों के सारे भगवान् इन पंडे-पुजारियों के सारे तमाशों के मौन समर्थक ही बने रहते हैं।

हमारे प्रबुद्ध पाठको! यदि आप विश्व मानवता के प्रेरणा-पुरुष श्रीराम को कृतज्ञतावश प्रणाम करने भर की रस्म निभाना चाहें, तब तो ये मंदिर स्मारक ठीक हैं।

किन्तु यदि आप सफल सामाजिक जिंदगी जीने हेतु श्रीराम का सही संपूर्ण दर्शन करना चाहते हों, तो आप को ध्यान से वाल्मीकि रामायण ही पढऩी होगी। इस रामायण में कहीं नहीं लिखा है कि राम ईश्वर हैं, बल्कि राम जी भी ‘ओ३म्’ और गायत्री मन्त्र (ओं विश्वानि देव सवितर् दुरितानि परासुव, यद् भद्रं तन्न आसुव) की जपोपासना, ध्यान-योग, प्राणायाम करने वाले सत्यवादी आर्यपुत्र ही थे। उनका देवी कौशल्या के गर्भ से जन्म और एक सौ ग्यारह वर्ष बाद सरयू में डूबने (जल-समाधि) से मृत्यु हुई थी। चूँकि आर्यों में किसी व्यक्ति की कृति-कीर्ति ही याद रखी जाती थी। उसकी चित्र-मूर्ति या मृत्यु-तिथि (पुण्यतिथि) नहीं मनायी जाती थी, इसीलिये राम की भी न कोई चित्रमूर्ति रही, न पुण्यतिथि का उल्लेख, सीता-हरण से काफी दु:खी होकर राम खुद ही लक्ष्मण से कहते हैं-‘भाई, पूर्वजन्म में जरूर मुझसे कोई भारी अपकर्म हुआ होगा, जो इस जन्म में पिता की मृत्यु, भाई भरत का बिछोह और सीताहरण जैसी मार्मिक-पीड़ाएँ झेलनी पड़ रही हैं।’ – (३.३६.४)

वस्तुत: एक चक्रवर्ती राजपुत्र होकर भी सीता-राम का आर्योत्तम जीवन आदि से अंत तक आदर्शों का रिकॉर्ड बनाने के ही दु:खों में बीतता चला गया।

धर्म पे चल के दिखलाने में ही अपना सुख माना।

निज का सुख तजने के सिवा जो और स्वाद क्या जाना।।

बुद्ध और मुगलकालीन धर्म-संकटों से जन-सामान्य को स्वधर्म में बांधे रखने हेतु ही राम की ईश्वरीय-चमत्कारिक कथाएँ गढ़ी गयीं थीं, ताकि बुद्ध और मुहम्मद से राम और कृष्ण ही सर्वाधिक श्रेष्ठ-प्रभावी सबको लगें। किन्तु आज के कम्प्यूटर-युग में उन सब तर्कहीन बातों से अन्य धर्म के पैगम्बरों का क्या-क्या उपहास हो रहा है, ये मुझे नहीं देखना है। मुझे तो अपने राम के उज्ज्वल चरित्र पर झूठ का गंदा चोगा पहनाये रखने वाले अपने धूर्त धर्माचार्यों-पुरोहितों पर क्रोध तथा अपने धर्मांध-अंधभक्त यजमानों की मूर्खता पर ग्लानि हो रही है। गंगा की तरह गंदे हो गये रामायण के चरित्रों की भी सफाई अब कब होगी? श्री राम की चारित्रिक मूर्ति निर्मल होते ही रामजन्म-भूमि पर ही नहीं, बाबर की भी जन्मभूमि पर भव्य रामालय बन जायेगा।

ईश्वर भक्त-राम को ईश्वर मान लेना-राष्ट्रसपूत गाँधी को राष्ट्रपिता कहने जैसा ही पाप है।

अब न कहेगा जग कि कर्ण को ईश्वरीय भी बल था।

जीता इसीलिये कि उसके पास कवच-कुंडल था।।

– (रश्मिरथी-दिनकर)

इंद्र को अपना चमत्कारी-कवच-कुंडल दे देने के बाद जब कर्ण गर्व से ऐसा बोल सकता है, तब हमारे श्रेष्ठतम राम क्यों नहीं कह सकते-

ईश्वर कह-कह के रे पंडों। मुझे मंदिर में न बंद करो।

ले-ले मेरा नाम वंशजों। रावण-सा ना काम करो।।

युगों-युगों तक प्रेरणा देते रहने हेतु ही जीने वाला यदि मैं सचमुच सच्चा राम रहा हँू तो मुझे ईश्वर कहलाने की झूठी बैसाखी लेकर पूजित होने की जरुरत नहीं है। मैं सदा मनुष्य ही रहा, मुझे नहीं चाहिये पापी-पाखंडियों-सा ईश्वर होने का अवैध-मुखौटा।

 

 

सम्भूत्या अमृतम् अश्नुते: – आचार्य उदयवीर शास्त्री

विद्या-अविद्या और सम्भूति-असम्भूति पदों के माध्यम से यजुर्वेद के ४०वें अध्याय एवं तदनुरूप ईशावास्य उपनिषद् में आध्यात्मिकता का विशद विवेचन हुआ है। १२, १३ मन्त्रों में सम्भूति-असम्भूति अथवा सम्भव-असम्भव पदों का प्रयोग हुआ है, परन्तु १४ मन्त्र में ‘असम्भूति’ पद का प्रयोग न कर, उसके स्थान पर ‘विनाश’ पद का प्रयोग हुआ है। ‘सम्भूति’ का अर्थ है, उत्पन्न हुआ पदार्थ। इसके विपरीत ‘असम्भूति’ का अर्थ है- न उत्पन्न हुआ पदार्थ। अर्थात् समस्त भौतिक-अभौतिक जगत् का मूल उपादान कारण तत्त्व, जो कभी उत्पन्न नहीं होता, न उसका सर्वथा विनाश होता है। पर वह महत्-अहंकार आदि रूप से यथाक्रम परिणत होता रहता है। इस प्रकार उसका यह परिणाम-प्रवाह अनादि अनन्त है।

उसी ‘असम्भूति’ शब्द को मन्त्र १४ में ‘विनाश’ पद से कहा। विनाश पद का अर्थ है-

वि-विविधानिवस्तूनि अनेकानेक जगदू्रपाणि,

नश्यन्ति-अदर्शनतां यान्ति यस्मिन् स विनाश: प्रधानमित्यर्थ:।

मूल उपादान तत्त्व के लिये अधिक व्यवहृत दो पद हैं- प्रकृति और प्रधान। सर्ग अर्थात् रचना की भावना को अभिव्यक्त करने की दिशा में विशेष रूप से ‘प्रकृति’ पद का प्रयोग होता है। रचना से भिन्न प्रलय भावना अभिव्यक्त करने में ‘प्रधान’ पद का। प्रस्तुत मन्त्र में इसी भावना से प्रधान पर्याय ‘विनाश’ पद का प्रयोग हुआ है।

प्रकृति से परिणत-महत् से लगाकर समस्त प्राकृतिक जगत् सम्भूति है। इसकी चरम परिणति ‘मानवदेह’ है। मानव-देह का यह विशेष उत्तर है, इसे शेष समग्र सम्भूति समुदाय में से छांट कर अलग कर लिया गया है।

जब हम यह कहते हैं कि वे घोर अन्धकार में पड़ते हैं, जो प्रकृति की उपासना करते हैं तथा वे और भी अधिक घोर अन्धकार में पड़ते हैं, जो ‘सम्भूति’ में रमण करते हैं। यहाँ ‘सम्भूति’ पद अपनी विशेषता को लेकर मुख्य रूप में ‘मानवदेह’ के लिये प्रयुक्त हुआ है। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि असम्भूति के साथ ‘उपासते’ क्रियापद दिया है। यहाँ मानव-देह के अतिरिक्त शेष समग्र सम्भूति भी उपास्य रूप में असम्भूति के अन्तर्गत है। इनकी उपासना से मृत्यु अर्थात् संसार में होने वाले शीत-ताप, भूख-प्यास, आघात-विघात, यातायात आदि दु:खों से पार पाया जा सकता है। यह भी भूलना नहीं चाहिये कि असम्भूति की उपासना भी मानव-देह के माध्यम से ही सम्भव है। इसलिये जो सम्भूति में रमण करते हैं, अर्थात् मानव-देह के साज-शृंगार मात्र में लगे रहते हैं, ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्’ के उसूलों पर ही अमल करते हैं, मानव-देह का सदुपयोग नहीं करते, वे और अधिक घोर अन्धकार में पड़ेंगे ही, क्योंकि न वे मानव-देह से असम्भूति की उपासना करते हैं, न मानव-देह माध्यम से अध्यात्ममार्गीय अनुष्ठानों का आचरण करते हैं। इसलिये अधिभूत एवं अध्यात्म दोनों प्रकार के लाभों से वञ्चित रह जाते हैं। यही स्थिति उनके घोरतर-घोरतम अन्धकार में पड़े रहने की है। फलत: प्रस्तुत प्रसंग में- प्रकृति परिणत पदार्थों के सम्भूति पद से ग्राह्य होने पर भी प्रकृति की चरम-परिणति ‘मानव-देह’ ही सम्भूति-पद वाच्य समझना चाहिये। इसी तथ्य को लक्ष्य कर कहा है- सम्भूत्या अमृतमश्नुते। सम्भूति से अर्थात् मानवदेह रूप माध्यम से अध्यात्म ज्ञान प्राप्त कर योगाङ्गानुष्ठान द्वारा आत्म-साक्षात्कार से अमृत-मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्रस्तुत प्रसंग में विद्या-अविद्या आदि यह पारिभाषिक जैसे हैं। व्याख्याकारों ने विद्या का अर्थ ज्ञान-काण्ड और अविद्या का अर्थ यज्ञ-याग आदि कर्मकाण्ड किया है। वस्तुत: विद्या पद अध्यात्म विषयक जानकारी को कहता है। तात्पर्य है- आत्म-तत्त्व का साक्षात्कार, यही अमृत प्राप्ति का एकमात्र साधन है और वह मानवदेह (सम्भूति) रूप साधन द्वारा ही प्राप्त होता है, उससे अतिरिक्त अन्य कोई माध्यम या साधन उसका सम्भव नहीं। इस प्रकार विद्या या सम्भूति इनको मिलाकर ही अर्थ करने से उक्त मन्त्रों का प्रतिपाद्य पूरा होता है।

अविद्या का अर्थ है, विद्या से विपरीत। विद्या यदि अध्यात्म ज्ञान है, जो अधिभूत ज्ञान अविद्या है। प्रकृति और प्रकृति से परिणत पदार्थों का अन्तिम स्तर तक प्राप्त ज्ञान, जिसे आधिभौतिक विज्ञान कहा जाता है और जो आज प्राय: अपने चरम उत्कर्ष पर है, सब अविद्या की कोटि में आता है।

मन्त्रों में बताया ‘अविद्यया मृत्युं तीत्त्र्वा’ ‘विनाशेन मृत्युं तीत्त्र्वा’ अविद्या से मृत्यु को पार करके तथा विनाश से मृत्यु को पार करके। तात्पर्य हुआ- अविद्या अथवा विनाश से मृत्यु को पार किया जा सकता है अर्थात् मृत्यु से पार पाने का साधन अविद्या अथवा विनाश है। गत पंक्तियों में स्पष्ट किया गया है कि प्रस्तुत प्रसंग में विनाश पद का प्रयोग समस्त जगत् में मूल उपादान कारण त्रिगुणात्मक प्रधान के लिये है। प्रकृति और प्रकृति से परिणत पदार्थों की यथावत् जानकारी और उसके अनुसार उनका यथावत् उपयोग करना ही भौतिक विज्ञान है। इसी को यहाँ ‘अविद्या’ पद से कहा है। अविद्या या विनाश से मृत्यु को पार कैसे किया जा सकता है? इसे समझने के लिये यह जान लेना आवश्यक होगा कि प्रस्तुत प्रसंग में ‘मृत्यु’ पद का तात्पर्य क्या है? इसका लोक प्रसिद्ध अर्थ है- आत्मा का देह से वियोग हो जाना। उस अवस्था में आत्मा कोई कार्य कर नहीं पाता। उसे किसी भी प्रकार का कार्य करने के लिये देह धारण करना आवश्यक है। परन्तु मानव जीवन देह धारण किये हुए भी कभी ऐसी स्थितियाँ उसके सामने आ जाती हैं कि उनसे बाधित होनकर मानव का जीवन जीवन नहीं रह जाता, वह मरण प्राय: हो जाता है, कुछ भी करने के लिये अपने आपको असमर्थ पाता है, वे स्थितियाँ कौन-सी हैं? संसार का अनुभव बताता है, वे स्थितियाँ हैं-ताप त्रय। ताप त्रय से त्रस्त मानव जीवन के रस को खो बैठता है। सभी दार्शनिक आचार्यों ने ताप त्रय को विस्तार से स्पष्ट करने और उनसे बचने के उपायों को जानने के लिये मानव को प्रेरित किया है। वे ताप त्रय क्या हैं? संक्षेप में पढिय़े-

‘ताप’ का अर्थ- दु:ख, तपाने वाले या दु:खाने वाले जितने प्रसंग संसार में आते है, आचार्यों ने उन सबका समावेश तीन वर्गों में कर दिया है १. आध्यात्मिक, २. आधिभौतिक, ३. आधिदैविक।

१. आध्यात्मिक ताप- दो प्रकार का है- १. दैहिक, २. मानस

पहला है देह में वात, पित्त, कफ आदि के विकार तथा अन्य विविध कारणों से देह में रोग व्याधियों का उत्पन्न होना। दूसरा है- काम, क्रोध, राग, द्वेष, मोह आदि मानसिक विकारों से जनित दु:ख। इनको दूर करने के उपाय हैं- आयुर्वेदादि पद्धति से चिकित्सा, संयत जीवन, नियमित एवं व्यवस्थित आहार-विहार, व्यवस्थित दिनचर्या, ऋतु अनुसार अपेक्षित व्यायाम आदि। उन सब उपायों की जानकारी अविद्या क्षेत्र के अन्तर्गत आती है। अविद्या का अर्थ अज्ञान नहीं है।

२. आधिभौतिक ताप- वे हैं, जो अन्य प्राणियों द्वारा प्राप्त होते हैं। सांप, बिच्छू, ततैया, मक्खी, मच्छर आदि से होने वाले दु:ख इसी के अन्तर्गत हैं। बैल ने सींग मार दिया, गाय ने लात मार दी, घोड़े के खुर से पैर दब गया, आदि दु:ख भी इसी में आते हैं। किसी ने थप्पड़ मारा, गाली दी, लाठी मारी, छुरा घोंपा, गोली चलाई आदि से होने वाले ताप भी इसी बीच हैं। छोटे-बड़े राष्ट्रों में युद्ध होते हैं, जिनसे अनेक प्रकार के दु:ख राष्ट्र के सामने आते हैं, उन सबका समावेश इसी वर्ग में है। इन सभी मार्गों से प्राप्त दु:खों के निराकरण व प्रतिरोध करने के उपाय आधिभौतिक विषयक जानकारी प्रस्तुत करती है, इस प्रकार के किसी भी स्तर का कोई ऐसा दु:ख नहीं है, जिसको दूर करने का उपाय भौतिक जानकारी ने न सुझाया हो।

३. आधिदैविक ताप- वे हैं, जो आकस्मिक या नियमित दैवीय घटनाओं से प्राप्त होते हैं। सब जानते हैं, जेठ की दु:खभरी गर्मी बढ़ जाने तथा पूस-माह में ठण्ड बढ़ जाने से वे दिन दु:खद होते हैं। अचानक नदी में बाढ़ आ जाने, भूकम्प होने, सार्वत्रिक रोग आदि फैल जाने से तथा तटवर्ती समुद्रों में तूफान आ जाने एवं विद्युत्पात आदि से जो दु:ख होते हैं, वे सब इसी वर्ग के अन्तर्गत हैं।

दैवीं घटनाओं पर मानव बहुत सीमित नियन्त्रण कर पाया है, फिर भी यथामति यथाशक्ति उपाय किये जाते हैं। नदियों पर बड़े-बड़े बांधों का बनाया जाना उसी का एक अंग है। इससे वर्षा का अतिरिक्त जल एक जगह दृढ़ता के साथ संगृहीत कर लिया जाता है, इससे बाढ़ आने का अन्देशा कम हो जाता है तथा उस एकत्रित जल का विद्युत्-उत्पादन, कृषि-भूमि सिंचन आदि अनेक रूपों में सदुपयोग किया जाता है।

भूकम्प, तू$फान आदि के विषय में अग्रिम सूचना प्राप्त कर लेना भी उनसे आंशिक बचाव का उपाय है। यह सब भौतिक विज्ञान का फल है। इस विवरण से हमने यह समझा कि मन्त्रों में ‘मृत्यु’ पद का प्रयोग उन सांसारिक दु:खों के लिये हुआ है, जो शास्त्रीय परिभाषा में ‘ताप त्रय’ के नाम से जाने जाते हैं। इनसे पार पाने का साधन प्राकृत तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान और उसका सदुपयोग है, जो आज भौतिक-विज्ञान के नाम से सर्वविदित है। मन्त्रों में इसी को विनाश एवं अविद्या पदों से कहा है। इस प्रकार मानवदेह रूप अनिवार्य माध्यम के द्वारा सांसारिक दु:खों को पार करता हुआ व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार कर अमृत को प्राप्त कर लेता है। मानव देह की अनिवार्यता के कारण ही सबसे अन्त में ‘सम्भूत्या अमृतमश्नुते’ कहा गया है।

अमृत-प्राप्ति की यह प्रक्रिया या पद्धति बताई गई। अब प्रलयकाल का अवसान होने को है, सर्ग सद्य प्रारम्भ होने को है, उस अवसर पर आत्मा मानवदेह प्राप्ति की भावना को लक्ष्य कर चेतन प्रकाश स्वरूप प्रभु से प्रार्थना करता है-

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।

तत् त्वं पूषन्नपावृणु, सत्यधर्माय दृष्टये।।

हिरण्मय-ज्योतिर्मय-तेजोमय पात्र से सत्य का, प्रवाहरूप में सदा रहने वाले सद्रूप जगत् का मुख प्रारम्भ अपिहितम्- आच्छादित है, ढका हुआ है। तात्पर्य है, समस्त विश्व चाहे यह कारण रूप है अथवा कार्य रूप में, वह सदा सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापक परमात्मा का जहाँ तक अस्तित्व है, उसी में सीमित रहता है। परमात्मा से छूटा कोई स्थान नहीं है, इसलिये उसके बाहर……. विश्व के या विश्व के किसी अंश के होने का प्रश्न ही नहीं उठता। वेद में अन्यत्र (पुरुषसूक्त) कहा, यदि परमात्मा के सर्वव्यापकत्व को चार भागों में विभक्त करने की कल्पना की जाय, तो समस्त विश्व अनन्तानन्त लोक-लोकान्तर उसके एक भाग में ही सीमित रह जाते हैं। इस प्रकार चेतन परमात्मा द्वारा सम्पूर्ण जगत् ढका हुआ है, अपने अन्दर समेटा हुआ है। इस पर भी विश्व अपने रूप में सदा सत्य है।

इसी भाव को प्रस्तुत उपनिषद् के प्रारम्भ में लिखे सन्दर्भ ‘पूर्णमद: पूर्णमिदं’ द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। अदस्- वह परोक्ष परमात्म-चेतन पूर्ण है। इदम्- यह प्रत्यक्ष दृश्यमान् जगत् पूर्ण है। अपने-अपने अस्तित्व में दोनों पूर्ण है। जिसका जो कार्य है, उसके लिये किसी को एक-दूसरे से उधार नहीं लेना पड़ता, न अदस् कभी इदम् होता है और न आंशिक मात्र भी इदम् कभी अदस्। ये दोनों अपनी जगह अपने अस्तित्व में पूर्ण हैं, क्योंकि इदम् सर्वव्यापक अदस् में सीमित होते हुए भी पृथक् है, इसलिये अदस् पूर्ण में से इदम् पूर्ण का उदञ्चन कर लिया जाता है- ‘पूर्णात् पूर्णमुदच्यते’ इदम् पूर्ण परिणत कर लिया जाता है, अदस् अपरिणत रह जाता है। सन्दर्भ के उत्तराद्र्ध से इसी भाव को अभिव्यक्त किया- ‘पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।’

फलत: जगत् का मूल उपादान तत्त्व त्रिगुणात्मक प्रधान प्रलय काल में परमात्मा की गोद में सोता रहा। अब प्रलय का अवसान है। अब प्रभु की प्रेरणा से प्रकृति का मुख खुल जाता है। त्रिगुण सन्दर्भों में क्षोभ होगा, अन्योन्य मिथुन होकर सर्ग प्रारम्भ हो जायेगा। प्राणि सर्ग में मानवदेह प्राप्त कर आत्मा अपने अपरिहार्य उपादेय की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हो उठेगा। इस भावना से प्रभु के प्रति प्रार्थना करता है-

तत् त्वं पूषन्नपावृणु, सत्यधर्माय दृष्टये।

जिस व्यवहार्य सत्य जगत् को तुमने अभी तक ढका हुआ है, हे पूषन्! सबका पोषण करने वाले प्रभु! अब उसे ‘अपावृणु’- खोल दो। प्रश्न होता है, क्यों खोल दिया जाय? उसे खुलवा कर क्या करोगे? उत्तर आया- ‘सत्य धर्माय दृष्टये’ सत्य धर्म की जानकारी के लिये, क्योंकि सर्ग रचना के अनन्तर मानव देह प्राप्त होने पर ही सत्यधर्म-अध्यात्म-अधिभूत धर्मों की जानकारी सम्भव है, उसी के आधार पर परम पद प्राप्त हो सकता है।

सर्ग के अनन्तर आत्मा को मानव देह प्राप्त हो गया। शास्त्रीय पद्धति के अनुसार योगाङ्गों के अनुष्ठान एवं औपनिषद् उपासनाओं द्वारा आत्मा ने अपने चैतन्य रूप का साक्षात्कार कर लिया है। उसके फलस्वरूप वह प्रभु के कल्याणतम् आनन्दस्वरूप का अनुभव कर रहा है। तब प्रभु से प्रार्थना करता है-

पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह।

पूषन्! सबका पोषण करने वाले जगदुत्पादक परमात्मन्!

एकर्षे! एक मात्र सर्वज्ञ वेदोत्पादक प्रभो!

यम! समस्त विश्व का नियन्त्रण करने वाले, अखिल लोक-लोकान्तरों के नियामक, व्यवस्थापक! सर्वान्तर्यामिन्! सर्वशक्तिमान् प्रभो!

सूर्य- सर्वत्र प्रसृत! सर्वव्यापक! अपरिणामिन्! परमात्मन्! इस पद का यहाँ वही अर्थ अपेक्षित है, जो प्रस्तुत उपनिषद् की चौथी कण्डिका (अनेजदेक) में विवृत किया गया है।

प्राजापत्य! सब प्रजाओं-जड़ चेतन के पालक एवं स्वामिन्! अब

व्यूह- मूल स्रोत से जो अनेकानेक विविध धाराओं में संसार प्रवाहित किया था, उसे सीमित कर लो,

रश्मीन् समूह- जैसे सूर्य दिन का कार्य सम्पन्न हो जाने पर रश्मियों को समेट लेता है, ऐसे ही हे प्रभो! मूल स्रोत से प्रवाहित इन सब सहस्र-सहस्र विविध जगती धाराओं को मेरी ओर से समेट लो, अब इन धाराओं की मुझे अपेक्षा नहीं है। मेरे लिये जो प्राप्तव्य था, वह प्राप्त कर लिया है।

प्रश्न उभरा, अभी दुहाई दे रहा था, इस हिरण्मय पात्र से ढके सत्य के मुँह को खोलो, जब वह सत्य व्यवहार्य जगत् प्रसृत कर दिया,  तब इसे समेटने के लिये हल्ला मचा रहा है, जो प्राप्तव्य था, वह तूने इसमें क्या पा लिया? उत्तर आया- यत्ते कल्याणतमं रूपं तत्ते पश्यामि

जो तुम्हारा सर्वोच्च कल्याणमय रूप है, उस तुम्हारे कल्याणमय रूप को साक्षात् देख रहा हूँ। यही तो मानव जीवन का प्राप्तव्य अन्तिम लक्ष्य है। उसे प्राप्त कर लिया है। तब उस अवस्था का अबाधित अनुभव बताया-

योऽसावसौ पुरुष: सोऽहमस्मि

जो वह दूर-अति दूर प्रकृति सम्पर्क से अभिभूत मेरे लिये सर्वथा अन्तर्हित पुरुष था, यह अब साक्षात् दीख रहा है। उसके आनन्द स्वरूप का अनुभव कर रहा हूँ, तब वैसा ही तो मैं हूँ। जीवात्मा-परमात्मा के चैतन्यरूप में कोई अन्तर नहीं होता। अन्तर चैतन्य का नहीं है, वह इस प्रकार का है- परमात्मा सर्वत्र है, जीवात्मा अल्पज्ञ है ‘ज्ञ’ दोनों हैं, अथवा ‘ज्ञता’ दोनों में समान है, केवल विषयस्तर वा ग्राह्य स्तर का भेद है। अभी तक प्राकृत धाराओं में प्रवाहित आत्मा इन्द्रिय-ग्राह्य विषयों में आप्लावित रहा। अब उपयुक्त उपायों के अनुष्ठान से अपने शुद्ध चैतन्यरूप का साक्षात्कार कर लिया है, प्रकृति का गहरा परदा बीच से हट गया है। इसी दशा में प्रभु का- आनन्दरूप प्रभु का- साक्षात् दर्शन हो रहा है। तब आत्मद्रष्टा जीवन्मुक्त अपना अनुभव बताता है, वह मैं हूँ, अर्थात् जो वह है, वैसा ही मैं हूँ। अत्यन्त सादृश्य तादात्म्य का प्रयोग सर्वशास्त्र सम्मत है। इससे जीवात्मा-परमात्मा की एकता या अभिन्नता करना पूर्णत: अशास्त्रीय होगा।

इस प्रकार जहाँ कहीं जीवात्मा-परमात्मा की एकता या अभिन्नता का उल्लेख आपातत: दृष्टिगोचर होता है, वहाँ सर्वत्र उसे औपचारिक ही समझना चाहिये। ऐसे प्रयोग- मुख को चन्द्र कहने के समान- सर्वत्र भेदमूलक ही सम्भव हैं। अन्यथा-

निरीक्ष्य विद्युन्नयनै: पयोदो मुखं निशायामभिसारिकाया:।

धारानिपातै: सह किन्नु वान्तश्चन्द्रोऽयमित्यात्र्ततरं ररास:।।

क्या यहाँ अद्वैतवादी सचमुच चन्द्र को मेघ की जलधाराओं के साथ भूमि पर गिरा समझेगा? वस्तुत: यहाँ मुख और चन्द्र के अति सादृश्य का ही द्योतन् है। जलधाराओं के साथ चन्द्र कभी भूमि पर नहीं आ सकता। दोनों का भेद स्पष्ट है। चन्द्र अपनी जगह है, मुख अपनी जगह। इसी प्रकार जीवात्मा परमात्मा का परस्पर स्पष्ट भेद होने पर भी ‘योऽसावसौ पुरुष: सोऽहमस्मि’ सन्दर्भ द्वारा मोक्षदशा में दोनों के तादात्म्य का अतिदेश उनके अति सादृश्य को ही अभिव्यक्त करता है। फलत: जीवात्मा परमात्मा के अभेद वर्णनों में सर्वत्र यही व्यवस्था समझनी चाहिये। विषय का उपसंहार करता है-

‘वायुरनिलममृतम्-अथेदं भस्मान्तं शरीरम्।’

प्राण वायु से उपलक्षित, ‘अनिलम्’ निर्दोष, निर्विकार, अपरिणामी, आत्मतत्त्व ‘अमृतम्’ अमृत है, अमरणधर्मा है और यह शरीर भस्म हो जाने तक है। तात्पर्य है, इस नश्वर शरीर में चेतनतत्त्व अपरिणामी है, जब तक शरीर में वह तत्त्व बैठा है, शरीर संचालित रहता है। आत्मा का वियोग हो जाने पर शरीर भस्म कर दिया जाता है। आत्मा अपने कर्मों के अनुसार अगली योनियों को प्राप्त होता है। इसी को मन्त्र के अन्तिम भाग से कहा-

क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर।

मानव देह को प्राप्त कर आत्मा प्रकृति सम्पर्क में डूबा हुआ इस यथार्थ को बार-बार भूल जाता है कि इस देह को सावधानतापूर्वक सदुपयोग करना अभीष्ट है। मन्त्र एकाधिक बार कहकर इसी तथ्य को समझा रहा है, हे क्रतो! कत्र्तव्यनिष्ठ आत्मन्! ‘कृतं स्मर’ अपने किये का स्मरण कर। कर्मों के अनुष्ठान में तूने मानव देह का सदुपयोग किया? यही देह अमृत प्राप्ति का माध्यम है। जिसने इसे समझा, उसने पाया, जिसने न समझा, उसने खोया।