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राष्ट्रिय—एकता एक चिंतन – शिवदेव आर्य

राष्ट्रिय—एकता एक चिंतन
 (लेख)
– शिवदेव आर्य,
गुरुकुल पौन्धा, देहरादून
मो—8810005096
किसी भी राष्ट्र के लिये राष्ट्रिय एक ता का होना अत्यन्त आवश्यक है। राष्ट्रिय एकता राष्ट्र को सशक्त व संगठित बनाये रखने की अनन्य साधिका है। राष्ट्रिय एकता विभिन्नताओं में एकता स्थापित करने की व्यवस्थापिका है।
    प्रायः कहा जाता है कि वर्तमान में भारत की राष्ट्रिय एकता सर्वमत समभाव पर आश्रित है। सर्वमत समभाव से तात्पर्य है कि सभी मतों के प्रति समान आदर-भाव। मुसलमानों के धार्मिक कृत्यों में हिन्दुओं की और हिन्दुओं के धार्मिक कृत्यों में मुसलमानों का एकत्रित हो जाना आदि राष्ट्रिय एकता का स्वरूप बताया जा रहा है।
जबकि मेरी दृष्टि में यह राष्ट्रिय-एकता को विखण्डित करने का षड्यन्त्र है।
यही वह विकृत अवधारणा है, जिसने भारतवर्ष का विभाजन किया, भारत में असहिष्णुता का पाठ पढ़ाया, वन्दे मातरम् को बोलना साम्प्रदायिक बताया और भारत में आतंकवाद, नकस्लबाद जैसी महाबिमारी को जन्म देकर हॅंसते हुए भारतवर्ष को करुणक्रन्दन से युक्त होने पर मजबूर कर दिया।
    भारतवर्ष के प्रायः सभी प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ-मन्दिरों, गुरुकुलों की व्यवस्था और आय पर सरकार का अधिाकार है, परन्तु भारत की किसी भी मस्जिद, गिरिजाघर या मदरसों की व्यवस्था पर सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करती। हिन्दुओं के बड़े-बड़े विद्वानों, सन्तों व विदुषियों को येन-केन प्रकारेण फ़ंसाकर जेल भिजवाया जाता है किन्तु मस्जिद तथा मदरसों के इमामों के दोष युक्त होने पर कुछ नहीं किया जाता। जामा मस्जिद दिल्ली के पूर्व प्रमुख इमाम अब्दुल्ला बुखारी को तीन-तीन बार न्यायालयों के समन के बावजूद हाथ तक नहीं लगाया गया। ‘हिन्दू लॉ’ को ‘गरीब की बहू सबकी भाभी’ मानकर छेड़खानी की जाती है किन्तु ‘मुस्लिम लॉ’ पर कोई हस्तक्षेप नहीं होता। भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी ‘मुस्लिम लॉ’ की दलिलें प्रस्तुत करता है। मुस्लिम हज-यात्रियों पर सरकार करोड़ों रुपया खर्च करती है किन्तु कुम्भ मेले पर टैक्स लगाती है। फि़र ये व्यवस्थायें राष्ट्रिय एकता को कैसे सिद्ध कर सकती हैं? ये कैसा न्याय है और कैसी व्यवस्था है? क्या यह न्याय व व्यवस्था  प्रत्येक भारतीय के लिए एक समान है? और यदि नहीं है तो राष्ट्रिय एकता कैसे स्थापित हो पायेगी?
    हमारा भारतीय संविधान विभिन्न धार्मों, जातियों, प्रान्तों में विभेद खड़ा करने में राष्ट्रिय-एकता का स्वरूप निर्धारित करता है। अहिन्दू एक से अधिक विवाह कर सकता है, किन्तु हिन्दू एक पत्नी रहते हुए दूसरा विवाह रचाएं तो संविधान का उल्लंघन है। संविधान शिक्षा, नौकरी, पदोन्नति में जातीयता के आधार पर प्रोत्साहन देता है। चिकित्सा, इंजीनियरिंग के क्षेत्र में 80 प्रतिशत अंक पाने वाले वंचित रह जाते हैं और 25 प्रतिशत अंक पाने वाले सर्वथा अयोग्य भी जातिगत आरक्षण के नाम पर प्रविष्ट हो जाते हैं। ये कैसी विस्मता है? क्या ये पक्षपात नहीं है?
    भारत में भाषायी स्तर पर राष्ट्रिय एकता की माला में अंग्रेजी को पिरोया गया है। भारत की प्रान्तीय भाषायें राष्ट्रिय-एकता में सक्षम नहीं और संस्कृत पुत्री हिन्दी जो राष्ट्रिय-एकता की पथप्रदर्शिका बन सकती थी, उसमें नेताओं को साम्प्रदायिकता और दक्षिण भारत का अपमान दृष्टिगोचर होता है। इसलिए भारत में राष्ट्रिय एकता के निर्धारण में विदेशी भाषा अंग्रेजी एक सूत्र बनी हुई है। देखो! भला जिस भाषा को भारत के सभी लोग जानते तक न हों तो उस भाषा से एकता कैसे स्थापित हो सकती है? अंग्रेजी भाषा राष्ट्रिय एकता की जब सूत्र बनी तो अंग्रेजी सोच ने सभी के मन-मस्तिष्क को गहरा पहार किया कि हम आज भी काले अंग्रेज बनकर जी रहे हैं। अपनी सभ्यता व संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन तक विदेशी वस्तुओं का प्रयोग तथा विदेशी सभ्यता का अन्धानुकरण हमारी राष्ट्रियता की पहचान बनती जा रही है।
    देश में व्याप्त साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद आदि सभी राष्ट्रिय एकता के अवरोधक तत्त्व हैं। ये सभी अवरोधाक तत्त्व राष्ट्रिय-एकता की दीवार को कमजोर बनाते हैं। इन अवरोधाक तत्त्वों के प्रभाव से ग्रसित होकर लोगों की मानसिकता क्षुद्र होतीं जा रही है, जो निज स्वार्थ  के चलते स्वयं को राष्ट्र की प्रमुख धारा से अलग रखते हैं। इन विघटनकारी तत्त्वों की संख्या जब और अधिाक होने लगती है तब ये सभी परस्पर राष्ट्रिय एकता को कमजोर बनाते हैं। इस प्रकार ये विभिन्नताएं जो हमारी संस्कृति की अमिट पहचान है, जिनपर हम गौरवान्वित होते हैं वे ही जब उग्र रूप धारण करती हैं तब यह हमारी एकता और अखण्डता की बाधाक बन जाती हैं। देश की एकता के लिए आन्तरिक अवरोधक तत्त्वों के अतिरिक्त बाह्य शक्तियॉं भी बाधाक बनती हैं। जो देश हमारी स्वतन्त्रता व प्रगति से ईर्ष्या रखते हैं, वे इसे खण्डित करने हेतु सदैव प्रयासरत् रहते हैं। कश्मीर की समस्या हमारी इन्हीं प्रयासों की उपज है, जिससे हमारे देश के कई नवयुवक दिग्भ्रमित होकर राष्ट्र की प्रमुख धारा से अलग हो चुके हैं।
    आज हमारे भारतवर्ष के लोगों में ऐसी क्षुद्र मासिकता विकसित हो गई है, जो अत्यन्त दयनीय है। यह देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि उच्चबुद्धिजीविवर्ग अपना भारतीय अस्तित्व ही खो देता है। अभी हाल में ही एक ऐसी घटना भीमा कोरे गॉंव हिंसा से सम्बन्धिात हम सबके सामने आयी, जिसने सभी को स्तब्धा कर दिया। इसमें जो आरोपित पकड़े गये हैं वे बहुत की योग्य शिक्षाविद् हैं परन्तु उनकी मानसिकस्थिति को देख आश्चर्य लगता है। देश के माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी सहित अनेक शीर्षस्थ नेताओं को समाप्त करने के लिए एक योजनाबद्ध तरीके से कार्य हो रहा था, किन्तु हमारी की सुरक्षा ऐजन्सियों ने मिलकर अलग-अलग स्थानों से योजनाकर्ताओं को पकड़ा लिया। इन आरोपियों में मानवाधिाकार कार्यकत्री सुधा भारद्वाज, मानवाधिाकार एवं पत्रकार गौतम नवलखा, एक्टिविष्ट वर्नान गॉन्जारन्वेस, एक्टिविष्ट एवं वामपन्थी वरबरा रॉव एवं वकील अरुण फ़रेरा जैसे उच्चशिक्षाविद् शामिल हैं। इससे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि इन लोगों के समर्थन में देश के बड़े-बड़े राजनेता व सामाजिक-कार्यकर्ता खड़े हैं। ऐसे राजनेताओं व सामाजिक-कार्यकर्ताओं को देखकर शर्म आती है? इनको देखकर हम कैसे कह सकते हैं कि हमारा देश राष्ट्रिय एकता में सम्बद्ध है? क्या ऐसे लोगों से देश की एकता व अखण्डता स्थिर रह सकती है?
    प्रत्येक राष्ट्र के लिए राष्ट्रिय एकता का होना अत्यावश्यक है। भारत जैसे एक असीम असमानताओं से भरे देश में एकता लोगों को जोड़ने वाले कारक के रूप में काम करता है। पिछले कुछ वर्षों से पाकिस्तान हिन्दू-मुस्लिम मतभेद बढ़ाते हुए एवं कश्मीर में भारत विरोधी भावनाओं एवं उग्रवाद को उकसाते हुए राष्ट्रिय एकता को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है। इन्हीं विभाजनकारी नीतियों द्वारा अंग्रेजों ने सैकड़ों वर्षों तक भारत पर शासन किया। लेकिन जब भारत के लोगों ने इन मतभेदों से ऊपर उठकर ‘राष्ट्रवाद’ का प्रदर्शन किया तो अंग्रेज स्वयं ही भारत से जाने को उद्यत हो गये।
    लोकतन्त्रता की स्थिरता, स्वतन्त्रता की रक्षा एवं राष्ट्र के समग्र विकास के लिए राष्ट्रिय एकता और एकता निश्चित रूप से आवश्यक है। जब तक पूरा राष्ट्र एकता की भावना को अपनाने का प्रयास नहीं करता तब तक देश में कोई विकास या आर्थिक प्रगति नहीं हो पायेगी। इसलिए देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वे राष्ट्रिय एकता को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रिय एकता को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं।
    राष्ट्रिय एकता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए हम अपनी क्षुद्र मानसिकता से स्वयं को दूर रखें तथा इसमें बाधाक समस्त तत्त्वों का बहिष्कार करें। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम जिस क्षेत्र, प्रान्त, जाति या समुदाय से हैं परन्तु उससे पूर्व हम भारतीय नागरिक हैं। भारतीयता ही हमारी पहचान है। इसलिए हम कभी भी ऐसे कृत्य न करें जो हमारे देश के गौरव व उसकी प्रगति में बाधक बनें…….

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है: आचार्य धर्मवीर

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है

वर्तमान समय में योग एक बहुत प्रचलित शब्द है, परन्तु अपने अर्थ से बहुत दूर चला गया है। योग के सहयोगी शब्दों के रूप में समय-समय पर कुछ शब्दों का प्रयोग होता रहता है- योगासन, योग-क्रिया, योग-मुद्रा आदि। इसी प्रकार कुछ अलग-अलग क्रियाएँ, जिनसे प्रयोजन की सिद्धि हो सकती है, उनका भी योग नाम दिया गया है- राजयोग, मन्त्रयोग, हठयोग आदि। इनसे परमात्मा की प्राप्ति होना अलग-अलग ग्रन्थों में बताया गया है। मूलत: योग शब्द का अर्थ जोडऩा है। जोडऩा गणित में भी होता है, अत: संख्याओं के जोडऩे को योग कहते हैं। जिस कार्य से प्रयोजन की सिद्धि न हो, उसे वह नाम देना निरर्थक है। योग में किसी से जुडऩे का भाव अवश्य है। हम समझते हैं, योग प्रात:काल-सायंकाल करने की चीज है। योग चाहे आसन के रूप में किये जायें, चाहे साधना के रूप में। आसन के रूप में योगासन स्वास्थ्य के लिए किये जाते हैं, किन्तु पूरे दिन स्वास्थ्य-विरोधी आचरण करते हुए योगासन करके कोई स्वस्थ नहीं हो सकता, क्योंकि प्रात:काल-सायंकाल योगासन करके शरीर को सक्रिय तो कर लिया, परन्तु भोजन और विश्राम के द्वारा ऊर्जा का संग्रह किया जाता है। भोजन, विश्राम यदि ठीक नहीं तो आसन व्यर्थ हो जाते हैं। व्यायाम, आसन, प्राणायाम आदि से तो तन्त्र को दृढ़ता और सक्रियता प्रदान की जाती है। उसी प्रकार योग-साधना का प्रयोजन परमेश्वर से मिलना है, उससे जुडऩा या उस तक पहुँचना है। यदि योग परमेश्वर तक पहुँचने के उपाय का नाम है, तो विचार करने की बात यह है कि उस परमेश्वर की प्राप्ति का यत्न तो प्रात:काल सायंकाल घण्टा-दो-घण्टा किया जाये, उससे दूर होने के काम सारे दिन किये जायें तो कल्पना कर सकते हैं कि हम कब तक परमेश्वर को मिल सकेंगे? यह तो ऐसा हुआ जैसे प्रात:काल-सायंकाल अपने गन्तव्य की ओर दौड़ लगाना और दिनभर उसके विपरीत दिशा में दौडऩा। ऐसा व्यक्ति जन्म-जन्मान्तर तक भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार पूरे जीवन प्रात:-सायं सन्ध्या, योग करते रहने वाला कभी भी परमेश्वर तक नहीं पहुँच सकता, क्योंकि वह उद्देश्य की ओर थोड़े समय चलता है, उद्देश्य के विपरीत अधिक समय चलता है। ऐसा व्यक्ति लक्ष्य से दूर तो हो सकता है, परन्तु लक्ष्य तक कभी भी नहीं पहुँच सकता।

योग परमेश्वर तक पहुँचने का उपाय है, तो यह कार्य कुछ समय का नहीं हो सकता। जैसे कोई व्यक्ति यात्रा पर निकलता है, तो सभी कार्य करते हुए भी उसकी यात्रा, उसी दिशा में निरन्तर आगे-आगे बढ़ती रहती है। मार्ग में वह सोता है, खाता है, बात करता है, किन्तु उसकी न तो यात्रा की दिशा बदलती है, न यात्रा पर विराम लगता है और वह देरी से या जल्दी गन्तव्य तक पहुँच ही जाता है। इसी कारण वेदान्त दर्शन में साधना कब तक करनी चाहिए- इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है- आ प्रायणात्तत्रापि दृष्टम्। लक्ष्य की प्राप्ति तक साधना करने का विधान किया गया है, अत: योग केवल प्रात:काल-सायंकाल की जाने वाली क्रिया नहीं है। यह जीवनरूपी यात्रा है, जिसका प्रयोजन परमेश्वर तक पहुँचना या उसे प्राप्त करना है। यह यात्रा तब तक समाप्त या पूर्ण नहीं हो सकती, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये। यह जीवन-यात्रा कैसे सम्भव है? इसको बताने वाले अनेक शास्त्र हैं, परन्तु योगदर्शन इसका सबसे अधिक व्यवस्थित, उपयोगी एवं सरल शास्त्र है। इस सारे योगदर्शन को संक्षिप्त किया जाये, तो तीन सूत्रों में बाँधा जा सकता है, शेष शास्त्र तो इन सूत्रों का व्याख्यान है।

प्रथम योग कैसे होता है, यह सूत्र में कहा गया है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। चित्त की वृत्तियों के निरोध-अवरोध करने का नाम योग है। जब चित्त की वृत्तियाँ अर्थात् उनका बाह्य व्यापार रुक जाता है, तो प्रयोजन की प्राप्ति हो जाती है। अगले सूत्र में बतलाया गया है, वह प्रयोजन क्या है, जो चित्त के बाह्य व्यापार को रोकने से सिद्ध होता है? तो पतञ्जलि मुनि कहते हैं- तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानम्। चित्त का कार्य ही आत्मा को संसार से जोडऩा है, जब उसे संसार से जोडऩे के काम से रोक दिया जाता है तो वह बाहर के व्यापार को छोड़ कर भीतर के व्यापार में लग जाता है। उसके भीतर का व्यापार आत्मदर्शन कहलाता है, जब वह स्वयं में स्थित होता है तो अपने में स्थित परमात्मा का भी उसे सहज साक्षात्कार होता है, अत: योग परमात्मा के साक्षात्कार करने का नाम है। जब हमारा चित्त हमारी आत्मा में नहीं होता तो निश्चित रूप से विपरीत दिशा में लगा होता है। क्योंकि मन एक क्षण के लिए भी निष्क्रिय नहीं रहता, अत: मनुष्य के सोते, जागते, वह कार्य में लगा रहता है, तब यदि वह अन्तर्मुखी नहीं होगा तो निश्चित रूप से बहिर्मुखी होगा। उसी को बताने के लिये पतञ्जलि मुनि ने सूत्र बनाया है- वृत्तिसारूप्यमितरत्र चित्त की वृत्तियों का निरोध न करने की दशा में चित्त सांसारिक व्यापार में ही लगा रहता है। यह स्वाभाविक और अनिवार्य है।

योग एक यात्रा है, जो जीवन के प्रयोजन को प्राप्त करने के लिए की जाती है। इस योग को समझने के लिए एक और विधि हो सकती है। संक्षेप में योग क्या है- जैसे एक शब्द में योग को समझाना हो तो कैसे समझा जाये? एक शब्द में योग को जानना हो तो वह शब्द है- ईश्वरप्रणिधान। प्रणिधान शब्द का अर्थ है- समर्पण। जब कोई साधक सिद्ध बन जाता है, अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, तब वह ईश्वर के प्रति अपना समर्पण कर देता है। जब व्यक्ति में समर्पण आता है, तब उसे अपना कुछ भी पृथक् रखने की इच्छा नहीं रहती, सब कुछ उसे उसका ही लगता है, जिसके प्रति वह समर्पित होता है। इसकी व्याख्या करते हुए व्यास जी कहते हैं- ऐसे साधक के कर्मों में- ईश्वरार्पणं तत्फलसंन्यासो वा, जैसे वह या तो स्वामी से पूछ कर कार्य करता है, उसके आदेश का पालन करता है और स्वयं कोई कार्य करता है तो उसे स्वामी के अर्पण कर देता है अर्थात् किये हुए कार्य के फल की इच्छा नहीं करता। ईश्वर और उसके मध्य स्वामी-सेवक का सम्बन्ध होता है, जैसे- श्रेष्ठ सेवक सदैव स्वामी को प्रसन्न करना चाहता है, सदा स्वामी के हित साधन में तत्पर रहता है, उसी प्रकार उपासक अपने उपास्य को प्रसन्न करने में तत्पर रहता है। स्वामी के आदेश की प्रतीक्षा करता है, आज्ञा पालन कर प्रसन्न होता है, अपने को धन्य समझता है, कृत-कृत्य मानता है।

ईश्वरप्रणिधान का महत्त्व समझने के लिये योगदर्शन के सूत्रों पर चिन्तन करना अच्छा रहता है। सूत्रों पर विचार करने से पता लगता है कि योग के अंगों में सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द ईश्वरप्रणिधान है। योग दर्शन में साधना, समाधि की सिद्धि के बहुत सारे उपायों में पहला मुख्य उपाय बताया है, ईश्वरप्रणिधान। पतञ्जलि ने सूत्र लिखा है- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्- ईश्वरप्रणिधान से समाधि सिद्ध हो जाती है। व्यास कहते हैं- ईश्वरप्रणिधान से परमेश्वर प्रसन्न होकर तत्काल उसे अपना लेता है।

कुछ विस्तार से योग समझाते हुए योगदर्शन के दूसरे पाद में, जिसे साधन पाद कहा गया है, उसमें क्रिया योग और अष्टांग योग का व्याख्यान किया है। इन दोनों स्थानों पर ईश्वरप्रणिधान का उल्लेख किया गया है। क्रिया योग का पहला सूत्र है- तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:। तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान क्रिया योग के तीन अङ्ग हैं। इसी प्रकार अष्टांग योग में सर्वप्रथम यम-नियमों की चर्चा की गई है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि। इन आठ अंगों में प्रथम दो हैं- यम और नियम। यम हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। नियम हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान। इस प्रकार नियमों में अन्तिम है- ईश्वरप्रणिधान। विस्तार से जब योग का कथन किया जाता है तो उसे अष्टांग योग कहते हैं। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है। कुछ कम विस्तार से योग के अंग बतलाये गये हैं- तप: स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोग:। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है तथा समाधि पाद में एक शब्द में जब योग की बात की गई है तो भी कहा गया- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्। अर्थात् एक शब्द में योग ईश्वरप्रणिधान है। यही उपासना है।

उपासना का अर्थ समझने के लिए उपनिषद् में एक सुन्दर दृष्टान्त आया है। वहाँ कहा गया है- जैसे भूखे बच्चे माँ की उपासना करते हैं, उसी प्रकार देवता अग्निहोत्र की उपासना करते हैं। उपासना ऐच्छिक नहीं है, जब इच्छा हुई की, जब इच्छा हुई नहीं की। समय मिला तो कर ली, नहीं समय मिला तो नहीं की। उपासना एक आन्तरिक भूख है, एक आवश्यकता है, जिसे पूरा किये बिना रहा नहीं जा सकता। एक भूख से पीडि़त बालक को माँ की जितनी आवश्यकता लगती है, उतनी ही तीव्र उत्कण्ठा एक उपासक के मन में उपास्य के प्रति होती है। तब उपासना सार्थक होती है। मनुष्य जिससे प्रेम करता है, जिसे चाहता है उसके निकट रहना चाहता है, उसी प्रकार परमेश्वर को उपासक अपने निकट देखना चाहता है। सदा अपने प्रिय की निकटता की इच्छा करना ही उपासना है।

जनसामान्य के मन में उपासना करने को लेकर बहुत संशय रहता है। उपासना कैसे प्रारम्भ की जाये, चित्त की वृत्तियों को कैसे रोका जाये, मन परमेश्वर में कैसे लगे आदि-आदि। जो लोग उपासना के अभ्यासी हैं, उनके अनुभव नवीन साधक के लिये उपयोगी हो सकते हैं। जहाँ तक मन को एकाग्र करने का प्रश्न है, मन कभी खाली नहीं रहता, उसकी रचना प्रकृति से हुई है, अत: वह स्वाभाविक रूप से सांसारिक विषयों की ओर दौड़ता है। उसे हम रोकना चाहते हैं, वह रुकने का नाम नहीं लेता। ऐसी परिस्थिति में मन को नियन्त्रित करने का सरल उपाय है- अपने पूर्व कार्यों का चिन्तन करना। इसमें प्रतिदिन प्रात:-सायं अपने दिनभर, रातभर के कार्यों पर विचार करने का विधान तो है ही, यदि दिन में जब भी खाली समय मिले, अपने पिछले कार्यों के विचार में मन को लगाया जाये, तो मन सरलता से अपने कार्यों पर विचार करने में व्यस्त हो जाता है। आज के, कल के, सप्ताह के या मास के कार्यों पर चिन्तन करते-करते मन अनायास ही उपासक के नियन्त्रण में हो जाता है। मन अपेक्षा करने लगता है कि उसे किसी कार्य में लगाया जाये, उसी समय मन को वाञ्छित कार्य में लगाया जा सकता है। उपासना की सफलता और उपासना में गति लाने के कई सरल नियम हैं, उनमें उपासना के लिए स्थान और समय का निश्चित करना भी आता है। निश्चित स्थान और निश्चित समय उपासक को उपासना के  लिये प्रेरित करते हैं। उपासना में बैठने के बाद आसन को सहज भाव से बिना बदले उपासक कितने समय बैठ सकता है, यह महत्त्वपूर्ण है। वस्तुत: आसन में इन्द्रियों को एकाग्र करने में सबसे सहयोगी क्रिया यही है कि उपासक कितनी देर तक आँखें बन्द करके बैठ सकता है? इन सामान्य बातों से उपासना में रुचि और गति दोनों बढ़ती हैं।

अब हमारी समझ में आ सकता है कि योग केवल प्रात:काल और सायंकाल किया जाने वाला व्यायाम नहीं, अपितु चौबीस घण्टे आनन्द में रमण करने का नाम है। जब हम जागते हुये, प्रात:काल के समय ब्रह्ममुहूर्त में सन्ध्या करते हैं, तब आँख बन्द करके योग करते हैं। सूर्योदय के समय सबके साथ बैठकर घी, सामग्री, समिधा से अग्निहोत्र करते हैं, यह भी उपासना है। अग्निहोत्र के लाभ बतलाते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं- यज्ञ में मन्त्रों के पढऩे से परमेश्वर की उपासना भी होती है। हम कह सकते हैं- यह आँख खोलकर अग्निहोत्र करना उपासना ही है। इसी प्रकार चौबीस घण्टे के व्यवहार में भी उपासना होनी चाहिए, तब उपासना क्या होगी? तब उपासना यम-नियम का पालन करना, दुकान करना, खेती करना, मजदूरी करना, नौकरी करना, सब कुछ उपासना होगी। उस समय यम-नियमों का पालन हो रहा होगा। इस प्रकार अकेले उपासना करना सन्ध्या है, परिवार के साथ उपासना करना अग्निहोत्र है और पूरे दिन सबके साथ, सभी प्रकार का व्यवहार यम-नियम पूर्वक करना सार्वजनिक उपासना है। यही योग है।

सामान्यजन की धारणा रहती है कि मुक्ति तो परमेश्वर की वस्तु है, वह उसकी कृपा व उसकी उपासना से मिलती है। यह बात सब लोग मानते और समझते हैं परन्तु संसार के विषय में ऐसा समझते हैं कि यह ईश्वर की वस्तु नहीं है या उससे विपरीत वस्तु है, इसीलिए संसार की वस्तुओं को पाने के लिए हम ईश्वर के विपरीत चलना आवश्यक मानते हैं। जबकि सच तो यह है कि संसार भी उसी ईश्वर का है जिसकी मुक्ति है, फिर जिस योग की साधना से ईश्वर मुक्ति देता है, वही ईश्वर योग की साधना करने से संसार के सामान्य सुख से वञ्चित क्यों रखेगा? योग संसार से होकर मुक्ति तक जाने का मार्ग है, इसलिए संसार का सुख भी बिना योग के मिलने की कल्पना नहीं की जा सकती। इस प्रकार संसार योग का विरोधी नहीं, योग की प्रयोगशाला है।

योग जीवन की यात्रा है, इसमें कभी गति तीव्र होती है, कभी मध्यम और कभी मन्द। इतना ही सब उपासना काल के बीच अन्तर है। इसी भाव को कृष्ण जी ने गीता के निम्न श्लोकों में कहा है-

नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।।

प्रलपन्विसृजन्गृöन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।

नारी उत्थान में महर्षि का योगदान : डॉ दिनेश

वर्तमान युग कहने को तो बहुत प्रगतिशील, तर्कवादी और वैज्ञानिक सोच का युग है, परन्तु जब इस युग में प्रभावी समस्याओं पर दृष्टिपात करते हैं, तो बहुत निराशा होती है। राजनीतिक, सामाजिक, वैयक्तिक समस्याओं से व्यक्ति हर स्तर पर जूझ रहा है। इन समस्याओं का समाधान क्या है? इस पर बहुत-से चिंतन और विचार सामने आते हैं, परन्तु कोई भी प्रभावी नहीं हो पाता। इतिहास का सूचना-भंडार हमारे सामने मौजूद हैं, परन्तु इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में समझने का बोध उत्तरदायी या समर्थजनों में शायद नहीं है।

वैदिक दृष्टिकोण से हम आर्यजन प्रत्येक समस्या पर विचार करने के अभ्यस्त हैं। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि हमारा मानना है कि इसी दृष्टिकोण से विचार करने पर हम प्रत्येक समस्या का समुचित निदान पा सकते हैं। वेदों पर आधारित अन्य वैदिक साहित्य और महापुरुषों ने हमें पदे-पदे मार्गदर्शन दिया ही है। अत: हमें उनकी अवहेलना न करते हुए समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए।

आज एक विकराल समस्या महिलाओं के उत्पीडऩ की है। वैज्ञानिक युग में, उदारवादी सोच और विपुल कानूनी प्रावधानों के बावजूद आज भी स्त्री प्रताडि़त और शोषित है, अकल्पनीय अत्याचारों की शिकार है। आखिर दोष कहाँ है? हमारे विचार में दोष सोच में है। विभिन्न संचार-माध्यमों ने नारी के प्रति एक संकुचित और विकृत सोच को जन्म दिया है, जो उसे स्वेच्छाचारिणी और भोग्या के रूप में देखने का संस्कार या विकार शिक्षा एवं समाज में प्रारम्भिक स्तर से उत्पन्न करता है। इस विकृत सोच या मानसिकता को स्त्री-स्वातन्त्र्य का बाना पहनाकर प्रस्तुत किया गया है, ताकि स्त्री इस आकर्षण में आबद्ध रहकर लम्पटों का शिकार बनती रहे।

ऐसे में किसी भी पुरातन या शास्त्रीय विचार को पिछड़ा या प्रतिगामी कहकर तुरन्त खारिज किया जा सकता है या फिर ऐसा विचार देने वालों की बौद्धिक कुटाई-पिटाई की जा सकती है। परन्तु जब तथ्यों और तर्क की कसौटी पर हम शास्त्रीय, विशेषत: वैदिक विचारों को परखते हैं, तो हमें स्पष्ट प्रतीत होता है कि वैदिक मार्ग के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग स्त्री के उद्गार का और उसे न्याय दिलाने का है ही नहीं। विचारिए कि वैदिक साहित्य में नारी ब्रह्मवादिनी है, देवी है, साम्राज्ञी है, शिक्षिका है, विदुषी है, नेत्री है, उपदेशिका है, पूज्या है और प्रकाशिका है। पति की सर्वोत्तम मित्र और सचिव भी वही है। यदि इन गुणों की धारणकत्र्री को आदर्श जानकर चला जाए, तो कौन उसे सम्मान नहीं देना चाहेगा? दुर्भाग्य से मध्यकाल में विपरीत विचारों वाले विदेशी आततायियों का देश में शासन होने पर स्त्रियों की दुर्दशा प्रारम्भ हुई। उनको सहेजकर रखने वाली ‘वस्तुÓ के रूप में रखा गया। उनको बंधन में रखने के लिए स्मृतियों और विधानों की रचना की गई। परन्तु, भारतवर्ष में उन्नीसवीं शताब्दी में उनके एक उद्घाटक का आविर्भाव हुआ, जो मानवमात्र के परम हितैषी सिद्ध हुए। वे ‘ऋषिÓ की पदवी के योग्य महामानव थे।

दयानन्द का ऋषित्व यह था कि वेदार्थ को समझने के अधिकारी होने की योग्यता तो उनमें थी ही, परमात्मा के सत्यस्वरूप और न्यायकारी होने का गुण भी उनमें मानवीय सामथ्र्य की सीमा तक विद्यमान था। वे प्राणिमात्र के प्रति सहानुभूति की भावना को सत्य का ही अंश समझते थे। स्त्री-पुरुष में असमानता का बर्ताव उन्हें असह्य था। महर्षि ने वेदों के प्रमाणों और तर्क के आधार पर पुरुष और नारी की समानता का उद्घोष किया। उनका कथन था ”ईश्वर के समीप स्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं। कारण, ईश्वर न्यायकारी है। अत: उसमें पक्षपात का लेश भी संभव नहीं है।ÓÓ पुराकाल में जो स्त्री परिवार की धुरी की भाँति थी, संतति की निर्मात्री थी, जिसके बिना समाज में विद्या और शिक्षा का प्रचार और प्रसार संभव नहीं था। उसे ही विद्या-विहीन और सामाजिक कार्यों से विरत कर घर की सीमा में पशु की भाँति बाँध दिया गया था। महर्षि की विचारधारा ने स्त्री-जगत् को यह साहस दिया कि वह अपनी पीड़ा और अपनी दुरवस्था के विचारों को प्रकट कर सके।

महर्षि दयानन्द ने अपने उद्बोधन, पत्रों तथा अन्यान्य लेखन में सर्वत्र महिला-उत्पीडऩ के विरुद्ध कार्य करने के निर्देश दिए हैं। यद्यपि महाभारत युद्ध के बाद समाज में अनेक दुर्गुणों का समावेश हो गया था और जहाँ राजधर्म विखण्डित हुआ वहीं समाज में विभिन्न प्रकार की दुर्नीतियाँ प्रचलित हो गईं। 8वीं शताब्दी के बाद इस्लामी आक्रमण के प्रारम्भ होने से भारतीय समाज में नारी की दशा और भी दयनीय होती गई। पुरुषों का वर्चस्व और नारी को हेय मानने की प्रवृत्ति बढ़ती ही गई। जबकि प्राचीन भारतीय सत्शास्त्रों में नारी की गौरवमयी स्थिति विद्यमान थी, जिसके अनुसार नारियाँ सभा और समिति में भाग लेती थीं, युद्धों में और खेलों में उनकी भागीदारी थी, विदुषी और ब्रह्मवादिनी महिलाओं के नाम भारतीय इतिहास में बिखरे पड़े हैं। इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सामान्यतया महिलाओं के अधिकार सुरक्षित थे, भले ही वैदिक शास्त्रों से इतर ग्रन्थों में यत्र-तत्र उनके अधिकारों का अतिक्रमण किया गया हो, लेकिन वे वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध होने के कारण स्वीकार नहीं किए जा सकते।

महर्षि ने नारी की दशा को देश में भ्रमण करते हुए अनुभव किया था। इसीलिए उन्होंने स्त्री-शिक्षा, स्त्री के विवाह की उम्र, स्त्री की समाज में सक्रियता, उनकी शिक्षा इत्यादि के संबन्ध में लिखा और अपने भाषणों में भी इस विषय पर पर्याप्त प्रवचन किया। उन्हीं के उपदेशों का अनुसरण कर बाद के आर्य नेताओं ने कन्या-गुरुकुल, कन्या डीएवी कॉलेज, स्त्री आर्यसमाज इत्यादि संगठनों का निर्माण किया और महिलाओं के बीच जागृति उत्पन्न करके उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोडऩे का महनीय कार्य किया।

उदाहरण रूप में हम चर्चा करें, तो एक साहसी महिला थी हरदेवी। इस अप्रसिद्ध-सी विधवा महिला ने 1881 में स्त्री-विलाप नामक एक कविता लिखी थी जिसके द्वारा तत्कालीन महिलाओं की स्थिति को बखूबी समझा जा सकता है। महिला सुधार हेतु उपर्युक्त हरदेवी का योगदान महत्त्वपूर्ण है। ये प्रसिद्ध रायबहादुर कन्हैयालाल की पुत्री थीं। कन्हैयालाल जी लाहौर के आधुनिक भवन-निर्माताओं में से थे। हरदेवी पहली ऐसी महिला थी जिसका महर्षि दयानन्द के उपदेशों के बाद विधवा-विवाह आर्यसमाज के प्रसिद्ध विद्वान् और एडवाकेट रोशनलाल, बैरिस्टर एट लॉ के साथ बहुत विरोधों के बावजूद हुआ। बाद में रोशनलाल आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के मंत्री चुने गए जिन्होंने इंग्लैण्ड से वकालत की डिग्री प्राप्त की थी। वे गौरक्षक और प्रसिद्ध समाजसुधारक थे। इन्हीं आर्यसमाजी रोशनलाल ने जब समाज के विरोध के बावजूद इस विधवा महिला से विवाह किया तो उसका कारण इस महिला के द्वारा महिला कल्याण के लिए किए जा रहे कार्यों से प्रभावित होना ही था। तत्कालीन एक अन्य प्रसिद्ध महिला जानकी देवी ने हरदेवी के विषय में लिखा था कि ”हरदेवी लाहौर के बैरिस्टर रोशनलाल की पत्नी, समाजसेविका, हिन्दी पत्रिका ‘भारत-भगिनीÓ की सम्पादिका थीं जो क्रांतिकारियों के मुकदमों में धन इक_ा करके सहायता देती रहीं।ÓÓ आर्यसमाज के इतिहास में सत्यकेतु विद्यालंकार ने पटियाला षड्यंत्र केस में हरदेवी द्वारा प्रकाशित समाचारपत्र ‘भारत-भगिनीÓ को राजद्रोहात्मक साहित्य मानकर उसे जब्त करने का उल्लेख किया है तथा रोशनलाल के योगदान को रेखांकित किया। स्पष्टत: हरदेवी ने आर्यसमाज और महर्षि दयानन्द के साथ-साथ पण्डिता रमाबाई से भी महिला कल्याण की प्रेरणा ली थी।

हरदेवी को पढ़ाई के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया और यह माना जाता है कि वे पहली ऐसी हिन्दीभाषी महिला थीं जिन्होंने लंदन में जाकर बालिकाओं के लिए किण्डर गार्डन पद्धति से शिक्षा का अध्ययन किया। हरदेवी ने भाग्यवती, सासपतोहु वामाशिक्षक, लंदन यात्रा, हुकुमदेवी-हिन्दू धर्म की उच्चता में एक सच्ची कहानी, सीमन्तनी उपदेश, स्त्रियों पर सामाजिक अन्याय, पुनर्विवाह से रोकना, भारत-भगिनी, स्त्री-विलाप इत्यादि अन्यान्य पुस्तकों और पत्रकों की रचना की।

उपर्युक्त विदुषी महिला श्रीमती हरदेवी का उदाहरण इस कारण प्रस्तुत किया गया है कि तत्कालीन स्त्रीशिक्षा-विरोधी वातावरण में भी महर्षि दयानन्द और उनके अनुयायियों ने किस प्रकार स्त्रीशिक्षा और उनकी अन्य समस्याओं के निराकरण हेतु जो कार्य किया; इसके महत्त्व को आज के शोधार्थी समझें और वर्तमान संदर्भों में वैदिक शिक्षा के दृष्टिकोण को अपनाएँ। स्त्रियों की महत्ता और स्वस्थ समाज के निर्माण में उनकी महती और शाश्वत भूमिका को केवल वैदिक दृष्टि से ही समझा जा सकता है, क्योंकि संस्कारों के सुदीर्घकालीन अभ्यास से ही वैचारिक शुद्धता संभव है, और ऐसी स्थिति का निर्माण होने पर ही स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना का उदय होगा और जिससे उनके प्रति अन्याय समाप्त हो सकेगा। स्त्रियों की शास्त्रोक्त महत्ता को समझना आवश्यक है, जहाँ कहा गया है-

यस्यां भूतं समभवद् यस्यां विश्वमिदं जगत्।

तामद्य गाथां गास्यामि या स्त्रीणामुत्तमं यश:।।

– दिनेश

ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन? –डॉ. धर्मवीर जी

साभार :- परोपकारी पत्रिका 1994

ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन?

 

कुछ दिन पहले परली बैजनाथ में था, वहाँ यमुनानगर से श्री इन्द्रजित देव का दूरभाष आया, जिसमें सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में अग्निवेश द्वारा दिये गये वक्तव्य की चर्चा थी। कल उनके द्वारा भेजी गई समाचार पत्रों की कतरने भी मिलीं, जिनमें अग्निवेश का वक्तव्य तथा पंजाब में उस पर हुई प्रतिक्रिया छपी है। अग्निवेश का यह वक्तव्य भड़काऊ और शान्तिभंग करने वाला है। यह बात उस पर हई प्रतिक्रिया से भली प्रकार जानी जा सकती है।

११ जून के पंजाबी दैनिक स्पोक्समेन चण्डीगढ़ के पृष्ठ १ पर छपे अग्निवेश के वक्तव्य में कहा गया है कि वह आर्यसमाज का मुखिया हैं। और उन्होंने जोर देकर कहा- मुखिया होने के नाते वह वायदा करता है कि सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ दोबारा छापा जायेगा, इस ग्रन्थ को दोबारा छापने से पूर्व शिरोमणि कमेटी से वांछनीय सझाव मांगे जायेंगे। उसका यह भी कहना है कि सब धर्म महान् और सब ग्रन्थ पवित्र हैं।

इस वक्तव्य को पढ़कर ऐसा लगता है कि कल अग्निवेश पाकिस्तान में मुशर्रफ से मिलने जाये और तोहफे में दिल्ली भेट कर आये तो आप उसे क्या कहेंगे? यह तो उसकी मर्जी है, वह दिल्ली भेंट दे सकता है, परन्तु क्या अग्निवेश के कहने से दिल्ली मुशर्रफ की भेंट हो जायेगी?

सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में दिया गया वक्तव्य इसी कोटि का है।

पहले तो जो व्यक्ति अपने को आर्यसमाज का मुखिया बता रहा है, वह मुखिया है भी? इस व्यक्ति ने अपने जीवन में जो किया, चोर दरवाजे से, उलटे रास्ते किया। दूसरों के द्वारा बुलाये गये सम्मेलनों में जाकर उनका कार्यक्रम बिगाड़ना इस व्यक्ति फितरत रही है।

सभी संस्थाओं में धाँधली करना. चोर दरवाजे से घुसने की कोशिश करना जीवन भर का कार्यक्रम रहा उसी के चलते सार्वदेशिक सभा के भवन में उसने कब्जा कर लिया, ऐसा करके यदि कोई अपने को मुखिया कहे तो इसमें गलत कुछ भी नहीं। आज समाज और राजनीति में दादा लोग स्वयं ही मुखिया बन जाते हैं, उन्हें कोई मुखिया बनाता नही है।

इससे भी महत्त्वपूर्ण बात है कि इस मुखिया को पता नहीं है कि आर्यसमाज के संगठन की वैधानिक स्थिति क्या है, ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में तीन संगठन बनाये और तीन ही संविधान बनाये।

गोकरुणानिधि लिखी तो गोकृष्यादिरक्षणी सभा बनाई, उसके नियम और विधान बनाये, जीवन के अन्तिम दिनों में ऋषि ने परोपकारिणी सभा बनाई और उसका विधान और नियम बनाये।

इस अन्तिम सभा को महाराणा उदयपुर के यहाँ पर पंजीकृत कराया और सभा को अपनी समस्त चल, अचल सम्पत्ति सौंपी तथा अपने ग्रन्थ, यंत्रालय, वस्त्र, रुपये के साथ अपना उत्तराधिकार सौंपा।

इतनी ही नहीं, ऋषि ने अधिकांश ग्रन्थों की रजिस्ट्री भी कराई, जिससे कोई अग्निवेश उनके ग्रन्थों में उलट फेर न कर सके। चूंकि रजिस्ट्री कानूनन पचास साल तक चलता है, अत: अन्य लोग ऋषि ग्रन्थ पचास साल बाद ही छाप सके। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में अग्निवेश को किसी तरह का वक्तव्य देने का अधिकार ही नहीं है, परन्तु अग्निवेश को नियम औचित्य की परवाह ही कब है? यह फुंस के ढेर में आग लगाकर तमाशा देखने का आदी है।

यह वक्तव्य गलत है, एक अनधिकृत व्यक्ति के द्वारा दिया गया है, परन्तु लोगों को क्या पता कौन अधिकृत है। और कौन नहीं है? समाज गुटों में बँटा है, मुकदमों में फँसा है, जो चाहे अपने को मुखिया कह सकता है, इसलिए इस गलत वक्तव्य का भी समाज पर गंभीर प्रभाव होना ही था, हो रहा है।

पंजाबी दैनिक स्पोक्समेन चण्डीगढ़ १२ जून के पृष्ठ ३ पर खबर जो बरनाला शहर के हवाले से छपी है, उसमें कहा गया है,

“आर्यसमाज के मुखिया अग्निवेश की ओर से अमृतसर में श्री गुरु अर्जुनदेव की चौथी बलिदान शताब्दी को समर्पित शिरोमणि कमेटी की ओर से कराये गये आर्यसमाज के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को दोबारा शोध कर प्रकाशित करने की घोषणा का हार्दिक स्वागत करते हुए गुरु गोविन्द सिंह स्टडी सर्किल युनिट बरनाला के प्रधान प्रि. कर्मसिंह भण्डारी ने कहा कि इस ग्रन्थ का शोधन करते समय केवल गुरु नानक देव जी के बारे में लिखे अपशब्द ही नहीं हटाये जायें अपितु श्री गुरु अर्जुनदेव जी के महावाक्य ‘ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर’ के अर्थ का बिगाड़ रूप, श्री गोविन्दसिंह जी की ओर सज्जित व खालसा पन्थ के वरदान रूप में दिये ५ ककारों का उड़ाया गया मखौल तथा श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के सत्कार प्रति लिखे अपशब्दों के अतिरिक्त भक्त शिरोमणि कबीर जी, दाददयाल, महात्मा बद्ध तथा जैन धर्म की की गई निन्दा के शब्द भी हटाये जायें।”

समाचारों की इन पंक्तियों को पढने के बाद यह समझना इतना कठिन नहीं है कि अग्निवेश ने अपने वक्तव्य से ऋषि दयानन्द को गलत साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अगले ही दिन १२ जून के पंजाबी अखबार दैनिक स्पोक्समेन पृष्ठ ३ पर जालन्धर के हवाले से छपी पंक्तियां गौर करने लायक हैं-

“अमृतसर में अग्निवेश की ओर से सत्यार्थ प्रकाश में संशोधन करने सम्बन्धी बयान पर प्रतिक्रिया प्रकट करते हुए महान् चिन्तक श्री सी.एल. चुम्बर ने इस पुस्तक पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने की माँग की। उन्होंने  कहा कि इस पुस्तक में श्री गुरुनानक देव साहिब के अतिरिक्त भक्त कबीर जी, ईसाइयों, बौद्धों, जैनियों तथा मुसलमानों विरुद्ध काफी कुछ आपत्तिजनक शब्द लिखे गये हैं…। सत्यार्थ प्रकाश सम्बन्धी और विवरण देते हुए श्री चुम्बर ने बताया कि इसमें समाज को जातियों-पॉतियों में बाँटने वाली मनुस्मति के १५० से अधिक सन्दर्भ दर्ज हैं।” |

२६ जून २००६ को आउटलुक पत्रिका ने लिखा- चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता और प्रगतिशील संत कहे जाने वाले स्वामी अग्निवेश ने एक नया शिगूफा छोड़ दिया है। पंजाब में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा पंचम गुरु अर्जुन देव जी के ४०० वे शहीदो वर्ष को समर्पित एक सेमीनार को संबोधित करते हुए स्वामी अग्निवेश ने यह दावा कर दिया कि आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में सिखों के प्रथम गुरु गुरुनानक देव जी  के बारे में की गई टिप्पणियों को संशोधित किया जाएगा।

वर्ल्ड कौंसिल ऑफ आर्यसमाज के अध्यक्ष होने के नाते स्वामी अग्निवेश ने पंजाब के राज्यपाल जनरल (सेवा.) एस. एफ. रोड्रिग्स, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, एसजीपीसी के मुखिया अवतार सिंह मक्कड बोबी जागीर कौर की मौजूदगी में यह दावा किया कि सत्यार्थ प्रकाश का आगामी संस्करण संशोधित होगा और जिन बातों पर सिख बुद्धिजीवियों को आपत्ति है, उन अंशों को हटा दिया जाएगा।

उसके इस दावे से पंजाब में एक नई बहस उठ खड़ी हुई है, जिसने नई पीढ़ी के सिख युवकों में जिज्ञासा पैदा कर दी है कि स्वामी दयानन्द जी ने प्रथम गुरु श्री गुरुनानक देव जी के बार में ऐसी कौन-सी आपत्तिजनक बातें लिखी थी जिन्हें इस वक्त हटाने की जरूरत पड़ गई है? दूसरी तरफ पुरानी पीढ़ी के सिखों को शिरोमणि अकाली दल व आर्यसमाज के बीच पुराने विवादों का वह दौर याद आ गया है, जब अकालियों व आर्यसमाजियों के बीच तनातनी के रिश्ते थे |

 

 अग्निवेश को आर्यसमाज के सिद्धान्तों में कोई आस्था नहीं रही। ऋषि में कोई निष्ठा नहीं, उसकी आर्यसमाज को समाप्त करने के लिए विधर्मी और राष्ट्र विरोधी लोगों की ताकत बढ़ाने वाले कार्यकर्ता की छवि है। जो व्यक्ति सब धर्मों को पवित्र और सब धर्म ग्रन्थों को महान् बता रहा है, वही व्यक्ति ऋषि दयानन्द को और सत्यार्थ प्रकाश को गलत साबित कर रहा है। उसकी नजर में वैदिक धर्म महान् नहीं है, सत्यार्थ प्रकाश उसके लिए पवित्र नहीं है।

अग्निवेश का यह कोई आर्यसमाज और दयानन्द को गलत साबित करने का पहला प्रयास नहीं है, व्यक्तिगत रूप से और मंच से ऐसी बातें पहले भी अनेक बार कही गई हैं। परली बैजनाथ में कार्यकर्ताओं से विचार-विमर्श के दौरान दिल्ली सभा के प्रधान श्री राजसिंह ने बताया था कि हवाई जहाज में यात्रा करते हुए सत्यार्थ प्रकाश से १३वें व १४वें समुल्लास को निकालने की चर्चा अग्निवेश ने की थी। आर्यसमाज को सन्ध्या एण्ड हवन कम्पनी कहना इन्हीं लोगों ने शुरू किया था।

पिछले दिनों स्वामी सम्पूर्णानन्द करनाल वालों ने एक प्रसंग सुनाया। जब उड़ीसा में एक पादरी को जिन्दा जलाया गया था, अग्निवेश ने एक यात्रा निकालने की तैयारी की थी। इस व्यक्ति ने स्वामी सम्पूर्णानन्द को यात्रा के लिये निमन्त्रित किया।

उन्होंने कहा- उससे अधिक हिन्दू कश्मीर में मारे गये हैं, उनके लिए यात्रा निकालना पहले आवश्यक है।

अग्निवेश ने कहा ईसाई अल्पसंख्यक हैं, अत: उनका समर्थन जरूरी है।

स्वामी सम्पूर्णानन्द ने कहा- कश्मीर में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, इसलिए उनका ध्यान रखना अधिक जरूरी है।

इसका उत्तर अग्निवेश के पास नहीं था, क्योंकि समर्थन कमजोर का नहीं ईसाई का करना था। यहाँ स्मरण दिलाना उचित होगा कि अग्निवेश की सिफारिश पर चर्च ने धर्मबन्धु को २२ लाख रुपये का सहयोग किया था।

इससे अग्निवेश और चर्च के रिश्तों का अनुमान लगाया जा सकता है। अमेरिका वैदिक धर्म का प्रचार करने वालों को राय बहादुर नहीं बनाता, राय बहादुर बनने के लिए उनकी सेवा उनकी शर्तों पर करनी पड़ती है।

इस व्यक्ति की न संगठन में आस्था है, न सिद्धान्त में। इस व्यक्ति ने अपने जीवन में संगठन और सिद्धान्त को जितना तहसनहस किया जा सकता था, उसे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, फिर इस व्यक्ति को जो मिला, उसके पीछे समाज में और संगठन में सिद्धान्तहीन, स्वार्थी, कमजोर लोगों का होना ही मुख्य कारण रहा है। जिस समय इस व्यक्ति ने सार्वदेशिक सभा भवन पर कब्जा किया, उस समय आर्यजनता को दु:ख हुआ, परन्तु जो गये उनको समाज के लोग स्वार्थी और कमजोर मानते थे। समाज के लोग सिद्धान्तहीन होते जाते हैं, तभी दुष्ट लोग नेतृत्व पर काबिज होते हैं।

सार्वदेशिक भवन में बैठकर तथा उससे पहले भी संगठन को विकृत करने के लिए अग्निवेश ने मुसलमान, ईसाइयों को आर्यसमाज का सदस्य बनाने की वकालत की थी। ऐसा करने वालों के बारे में हमें स्पष्ट होना चाहिए जो कि स्वार्थी दष्ट प्रकृति का होता है उसे संस्था, समाज या देश के नुकसान की चिन्ता नहीं होती। यह कहना कि ईसाई मुसलमान रहते हुए वह आर्यसमाजी हो सकता है तो उससे भी आसान है सनातनी रहते हुए आर्यसमाजी रहना। अग्निवेश की नजर में सनातनी, मूर्तिपूजक, पुराणपन्थी का आर्यसमाजी होना रुचिकर नहीं होगा, जबकि वेद विरोधी सिद्धांत

 

विरोधी ईसाई और मुसलमानों का आर्यसमाजी होना उसे सही लगता है। वास्तविकता यह है कि ईसाई, की उपासना करने वाले व्यक्ति को आर्यसमाजी कहना बौद्धिक व्यभिचार व सैद्धान्तिक वेश्यावृत्ति है। या वेश्या, स्त्री के नाते तो एक है, परन्तु अन्तर इतना ही हैं कि एक की एक के साथ निष्ठा है, दूसरा निष्ठा नहीं, उसकी निष्ठा पैसों के साथ है।

ऐसे ही अग्निवेश की निष्ठा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ लक्ष्य की पूर्ती में है अतः उसका यह कथन कि कोई मुसलमान, ईसाई, जड़ पूजक, साकार उपासना वाला व्यक्ति हो सकता है, यह केवल बौद्धिक वेश्यावृत्ति है और कुछ नहीं।

इस बात की पुष्टि में एक और प्रसंग उद्धृत करना उचित रहेगा। दिसम्बर मास में नागपुर में राष्ट्रीय संगोष्ठी का प्रसंग। गोष्ठी की समाप्ति के दिन सायंकाल भोजन के पश्चात् डॉ. रामप्रकाश और अग्निवेश चर्चा कर रहे थे। अग्निवेश को डॉ. साहब से शिकायत थी।

अग्निवेश ने आचार्य बलदेव जी और आचार्य विजयपाल जी को हवालात पहुचाने का षड्यंत्र रच रखा था, जिसे डॉ. राम प्रकाश जी ने अनुचित मानकर असफल करा दिया। उनका कहना था- उनके जानते-बुझते आर्यसमाज की साधु गलत आरोप में हवालात भेजा जाय, यह कभी संभव नहीं। अग्निवेश से कहा गया- आचार्य बलदेव साधु हैं, उनके विरुद्ध ऐसा मिथ्या आरोप उचित नहीं, तो अग्निवेश का उत्तर था- कोई भी गेरवे कपड़े से क्या साधु हो जाता है? अब कोई बताये कौन साधु है या नहीं- यह प्रमाण-पत्र भी ढोंगी साधु से लेना पड़ेगा?

इससे इस व्यक्ति की मानसिकता का पता चलता है।

पाठको को याद होगा, अग्निवेश डॉट काम पर वर्षों तक वैदिक धर्म और ऋषि विरोधी बातों का प्रचार-प्रसार होता रहा। जब आपत्ति हुई तो मासूम कहता है, ये तो हमारे नाम से किसी ने बना दी है। हर बार अपराध करना और लोगों ने मुझे गलत समझा है- कहकर पीछा छुड़ाना, क्या यह लोगों को बेवकूफ बनाने वाली बात नहीं है? अग्निवेश का सिद्धान्तों और स्वामी दयानन्द से कितना प्रेम है.

इसके उदाहरण रूप में जनसत्ता दिनांक ६ अक्टूबर १९८९ का निम्न सन्दर्भ पढ़ने लायक है- “मुकदमें में स्वामी अग्निवेश ने मनु को देशद्रोही करार देते हुए उसे समाज का प्रबल शत्रु बताया। उन्होने कहा कि न्यायालय में जात-पाँत और छुआछुत के जन्मदाता मनु की प्रतिमा की स्थापना अन्यायपूर्ण है।” क्या ऐसा व्यक्ति ऋषि दयानन्द के सम्मान की रक्षा कर सकता है? अग्निवेश के बारे में सत्यार्थ प्रकाश की एक पंक्ति बड़ी सटीक लगती है

“अन्तः शाक्ता बहिश्शैवा: सभा मध्ये त वैष्णवाः’।

जहाँ तक दूसरे लोगों द्वारा सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप करने का प्रश्न है, उन लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ऋषि दयानन्द का स्थान किसी समाज सुधारक की तुलना में कम आँकने से ऋषि दयानन्द का कुछ बिगड़ने वाला है, परन्तु यह काम आकलन कर्ता के बुद्धि के दिवालियेपन का द्योतक अवश्य है।

ऋषि दयानन्द ने जो लिखा और जो कहा, छिप कर नहीं कहा, समाज में उन वर्गों में जाकर कहा। उनका उद्देश्य देश और समाज के हित में वास्तविकता का बोध कराना मात्र था, किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं। उन्होंने किसी बात को अच्छी लगने पर उसकी प्रशंसा में कोई कमी नहीं छोड़ी।।

सत्यार्थ प्रकाश पिछले डेढ़ सौ वर्षों से पढ़ा-पढ़ाया जा रहा है, क्या पहले लोगों की समझ नहीं थी? मालूम होना चाहिए कि पटियाला नरेश के सामने शास्त्रार्थ के समय यही प्रश्न उठा था। उस समय भी यही उचित समझा गया था कि गुरु भी बड़े हैं स्वामी जी भी बड़े। किसी ने किसी को कुछ कहा-सुना तो उसके लिए अनुयायियों को लड़ना उचित नहीं है।

आज तो नेता बनने के चक्कर में लोग ऐसी बात ढूँढने की कोशिश में रहते हैं, जिससे समाज में विघटन और संघर्ष पैदा हो और उनको नेतागिरी करने का मौका मिले। हमें स्मरण रखना चाहिए कि सिक्खों में बहुत लोग आर्यसमाजी थे, क्या वे गुरुओं का महत्त्व नहीं मानते थे या शहीद भगतसिंह के पिता, चाचा को सत्यार्थ प्रकाश समझ में नहीं आता था? जब तब आपत्ति नहीं हुई तो आज क्यों होनी चाहिए?

जो व्यक्ति सत्यार्थ प्रकाश से आपत्तिजनक वक्तव्य हटाने की बात कर सकता है, क्या वह कुरान की उन आयतों को जिसे न्यायालय ने भी आपत्तिजनक माना है, उन्हें हटाना तो दूर हटाने की सिफारिश भी कर सकता है या नहीं, क्योंकि उसकी नजर में इस्लाम महान् धर्म है और कुरान पवित्र धर्म पुस्तक है। यहाँ वह उनका वकील है। ईसाइयों द्वारा देश में किये जा रहे षड्यन्त्रों की वह वकालत करता है, क्योंकि राजनीति में स्थान चाहिए।

क्या गुरु गोविन्दसिंह के शब्दों को वह पुस्तक से निकलवा सकता है, जिनमें तुर्क को गो-ब्राह्मण घातक कहकर उनके नाश की प्रतिज्ञा की है

जगे धर्म हिन्दू सकल धुन्ध भाजे

 

सफलता के सहयोगी: -प्रकाश चौधरी

व्यक्ति के मन में प्रतिपल कामनाओं की तरंगें उठती रहती हैं, वह विकास चाहता है, उन्नति के पथ पर अग्रसर होना चाहता है, परन्तु अभाव के झोंके, प्रतिकूलताएँ, बाधाएँ राह को रोकती हैं। केवल जो संकल्पवादी है, वह सारी प्रतिकूलताओं से निकलता हुआ अपने उद्देश्य या मंजिल को पा लेता है। क्षेत्र कोई भी हो-लौकिक अथवा आध्यात्मिक, पथिक अपने रास्ते में बाधाओं का निराकरण करता हुआ प्रगति-पथ पर बढ़ता रहता है। शास्त्रों के अनुसार कुछ ऐसे सहयोगी हैं जो उसके मार्गदर्शन करने में सहायक हैं। व्यक्ति को उनका सहयोग लेना चाहिए-

(१) वैचारिक शुद्धि:- किसी भी शास्त्र एवं उत्तम पुस्तक का अध्ययन करते समय विचारों का महत्त्व सर्वोपरि माना गया है। विचार व्यक्ति की उन्नति एवं अवनति का मुख्य कारण है। सोच ही है जो मनुष्य का मनोबल बढ़ाती है या घटाती है। अच्छे विचारों का संग्रह प्रगतिशील बनाता है और बुरे विचार अर्थात् नकारात्मक सोच पतन की ओर ले जाती है। प्रगति के लिए वाणी, व्यवहार, धर्म-अधर्म, सुख-दु:ख जैसे विषय गंम्भीरता से विचारने के विषय हैं। इनका शुद्ध होना अति आवश्यक है।

उत्तम गुणों का संग्रह बड़ा सौभाग्यशाली व्यक्ति ही कर पाता है लेकिन कुछ गुण ऐसे हैं, जिन्हें हर व्यक्ति प्रयत्न करने पर प्राप्त कर लेता है, उनसे युक्त रह सकता है। जैसे ‘‘उचित वाणी का प्रयोग और अनुचित वाणी का निरोध’’ नियन्त्रित एवं मधुर वाणी पराये को भी अपना बना लेती है। वाणी की मधुरता तो पशु-पक्षी भी समझते हैं और अपने सहायक और हितैषी बन जाते हैं। संसार वश में हो सकता है वाणी के बल पर। किसी जंगल को कुठाराघात से या जला देने से वह पुन: हरा हो जाता है, परन्तु चित्तरूपी वन वाणी के गलत प्रहार से, कठोर वचनों से आहत पुन: शान्त नहीं होता।

वाणी के चार गुण हैं और चार ही दोष हैं, मुख्य गुण-सत्य बोलना, हितकारी बोलना, प्रिय बोलना, स्वाध्याय करना आदि। झूठ बोलना, कठोर बोलना, निंदा करना, व्यर्थ बोलना दोष हैं।

व्यवहार को लें- उत्तम व्यवहार ही मनुष्य को यशस्वी बनाता है। ईमानदारी, पक्षपातरहित लेन-देन में कुशलता, संयमशील रहना, वाक्पटुता, शालीनता आदि बहुत सारे गुण व्यक्ति को व्यावहारिक बनाते हैं और प्रगति पर ले जाते हैं। इसी प्रकार धर्म-अधर्म को जानना, अत्याचारी न होना, पाप-मुक्त होना धर्म है। सत्य-असत्य का भान व्यक्ति को प्रगति-पथ पर ले जाता है। सुख-दु:ख में सम रहना, द्वन्द्व में न होना यानी इन चारों की शुद्धि-वैचारिक शुद्धि है।

सांसारिक विषयों से व्यक्ति की आसक्ति होती है, आकर्षण होता है। यदि उनकी प्राप्ति में बाधा आ जाये तो क्रोध आता है। क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति नष्ट होती है। स्मृति नष्ट हो गयी तो बुद्धि कार्य नहीं करती, निर्णय नहीं ले सकती और यहीं से व्यक्ति का पतन आरम्भ होता है, इसलिए विचारों की शुद्धि अर्थात् अच्छी सोच रखना आवश्यक है।

व्यक्ति सोचता है हम दुनिया से अच्छे हैं। रहन-सहन अच्छा है, शान से परिपूर्ण हंै, आचार-विचार, पठन-पाठन सब अच्छा है लेकिन उसे सतर्क रहना चाहिए कि जब तक यह कारण हैं, तब तक ही प्रगति सम्भव है। क्योंकि भविष्य में यदि यह विचार, अच्छा आचरण, अच्छा खान-पान बदल गया तो पतन भी हो सकता है। आज सदाचारी है, कल दुराचारी हो सकता है। ईश्वर को भूल सकता है स्थिति व गुण बदलते रहते हैं इसलिए अपने विचारों के प्रति सजग और सावधान रहना चाहिए। इन्द्रियों पर नियन्त्रण आवश्यक है। संसार के विषयों को तो नष्ट नहीं किया जा सकता। वे सदैव थे और सदैव रहेंगे। व्यक्ति को अपने विचारों पर नियन्त्रण करना होगा, हर व्यक्ति ये कभी न सोचे कि-

१.     मैं परिपक्व हँू

२.     मैं सर्वथा समर्थ हँू

३.     अन्दर-बाहर मेरा कोई शत्रु नहीं है

बल्कि ऐसा विचारे-

१.     मैं निर्बल हँू

२.     शत्रु अन्दर भी है और बाहर भी

३.     आगे बढऩे हेतु बहुत समाधान करने हैं- अच्छे संस्कारों एवं विचारों का संग्रह करना है।  इन्द्रियों पर विजय पानी है आदि।

(2) अविद्यानिरास- उन्नति के पथ पर बढऩे के लिए विद्या और अविद्या का अन्तर समझना होगा। अविद्या के लक्षण जानकर उन्हें दूर करना प्रत्येक व्यक्ति का कत्र्तव्य है। अधर्म, अन्याय, पाप, पीड़ा आदि अविद्या के लक्षण हैं। एक बार पढक़र या सुनकर समझना कठिन होता है। इसे दूर करने के लिए तीव्र इच्छा, साधन, पूर्ण पुरुषार्थ एवं तप की आवश्यकता होगी। खाते-पीते, सोते-जागते अपने अन्दर की अविद्या को दूर करना होगा। तभी कोई व्यक्ति अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है। भ्रम, मिथ्या सोच अविद्या है। हमारे कल्पित विचार जो तर्क एवं प्रमाणों से रहित हैं, विशेषकर प्रत्यक्ष, अनुमान और वेद रूपी शब्द प्रमाण से रहित हैं, वे अज्ञान तथा भ्रम हैं। यही अविद्या है।

(३) सुदृढ़ आधार:- जैसे निर्बल नींव पर बना भवन लंबे समय तक नहीं रह सकता, उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति मज़बूत, पूर्ण पुरुषार्थ एवं कार्य के सिद्धान्तों को जाने बिना अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता, चाहे वह लौकिक क्षेत्र हो या आध्यात्मिक।

१. अपनी स्थिति एवं सामथ्र्य का ज्ञान होना आवश्यक है। यदि नहीं है तो कार्य आरम्भ करने से पूर्व अपने सामथ्र्य का संग्रह आवश्यक है।

२. राह में आने वाली संभावित प्रतिकूलताओं का ज्ञान तथा उनके उन्मूलन के उपाय आदि का ज्ञान आवश्यक है। विपरीत घटनाएँ न भी हों फिर भी स्वयं को विचारशील बनाना चाहिए, इस प्रकार वह क्रूरता, विश्वासघात, आरोप जैसी स्थिति में स्वयं को बचा सकता है।

३. सुदृढ़ आधार है तो व्यक्ति न आन्तरिक न बाहरी कारणों से पतन को प्राप्त करता है। जीवन का निर्माण है अविद्या को दूर करना । वेदों में सब ज्ञान दिया ईश्वर ने, ऋषियों ने उनके अनुसार सिद्धान्त बनाए। अब व्यक्ति या योगी को देखना है कि वह किस प्रकार उनका उपयोग कर प्रगति करता है। ज्ञान पाने के लिए तो पुरुषार्थ ही करना पड़ेगा। प्रगति के लिए किये गए संकल्प को पूरा करने का प्रयत्न होना चाहिए।

कुछ पूर्व जन्म के शुभ संस्कारों की अग्रि को जलाये रखना, ईश्वर प्राप्ति के लिए आवश्यक है। ब्रह्मचर्यपूर्वक किसी अच्छे गुरु के निर्देशन में दृढ़तापूर्वक आगे बढऩा चाहिए। संसार में कोई एक व्यक्ति ही आपके विचारों से सहमत होता है। यदि सुदढ़ आधार है तो ही आप निश्चय-पूर्वक प्रगति-पथ पर बढ़ सकते हैं।

(४) शुद्ध आचरण:- अध्यात्म मार्ग पर वही चल सकता है जो जीते जी मरे समान रह सकता हो। समस्त प्रतिकूलताओं का समाधान कर सकता हो। संघर्षशील हो, अपने अनुभवों से, अपने ज्ञान-बल तथा अनुभवों में वृ़द्धि कर रहा हो। पढ़े तथा सुने हुए ज्ञान को अपने आचरण में ला रहा हो। इस कठिन कार्य के लिए सतत संघर्षशील हो, आदर्शवादी हो। किसी द्वन्द्व अर्थात् यश, कीर्ति, सुख-दु:ख आदि में समभाव हो, कर्मठ हो। अवरोध में परित्याग नहीं करने वाला हो। गिरकर उठ जाना, आगे बढऩा जिसका ध्येय हो। ऐसा व्यक्ति ही सफल होता है जो ज्ञान और कर्म का समन्वय कर अपने आचरण को सुदृढ़ बनाता है।

(५) आवास:- आज वह समय नहीं रहा जब कोई आध्यात्मिक व्यक्ति मानसिक प्रगति हेतु दूर पर्वतों या गुफाओं में शान्त वातावरण प्राप्त करता था। आज न तो पर्वत, न गुरुकुल, न आश्रम रहे-जहाँ अनुकूलता मिले। राग-द्वेष, विवाद, अनियमितता, यम-नियम का हनन आदि बाधाएँ सब ओर हैं। व्यक्ति कहीं भी भागना चाहे-सब ओर एक ही प्रकार का अशान्त वातावरण है। अगर उत्तम दिनचर्या है, विशेषकर उपासना, यज्ञ, स्वाध्याय, व्यायाम-नियमितता है, तो वही स्थान प्रगति के लिए उत्तम है। अच्छा संगतिकरण हो। सेवाभावी, राग-द्वेष से रहित स्वभाव वाले, यम-नियम का पालन करने वाले, अच्छे विषयों पर चर्चा करने वाले, कत्र्तव्य के प्रति सजग, चिंतनशील सहयोगी हों तो मानसिक प्रगति के साथ-साथ शारीरिक-बौद्धिक प्रगति होगी। लौकिक प्रगति होगी। विचारशील व्यक्ति की सदैव ईश्वर में श्रद्धा रहेगी। ऐसे वातावरण में यदि कोई व्यक्ति न भी पढ़े, न चर्चा करे, तो भी जीवन अच्छा बीतेगा और सफलता भी मिलेगी।

(६) सत्य ईश्वर की भक्ति:- ‘‘अनादिकाल से मनुष्य अपने जीवन में यही सुनता आ रहा है कि ईश्वर नाम की कोई शक्ति है जो इस जगत् की रचना, पालना, संहारना आदि करती है। वह कर्मफल प्रदाता है-आनन्द का स्रोत है और वही जानने व मानने योग्य है।’’

इन विचारों के संग्रह से उसे जानने केे लिए, उसका साक्षात्कार करने की जिज्ञासा मन में उठती है। शान्ति व सुख पाने हेतु मनुष्य अपने अपने ढंग से पूजा-पाठ उपासना-प्रार्थना आदि करता है। प्राय: देखने में आता है कि पूजा-पाठ करने वाला उतनी सुख-शान्ति प्राप्त नहीं कर पा रहा होता, जितनी कि एक नास्तिक। जबकि ऐसे व्यक्ति अच्छे आचरण रहित पापी व प्रमादी होते हैं। क्या ईश्वर ही ये दुर्गुण उन्हें देता है? क्या पूजा-पाठ उपासना आदि केवल क्रिया-कलाप हैं, ऐसा विचार स्वाभाविक है। ऋषि इसका केवल एक उत्तर देते हैं, जो व्यक्ति वेद-शास्त्रों के प्रतिकूल आचरण करता है, चाहे वह कितना भी पूजा-पाठ करता हो, सुख शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि वह सच्चे ईश्वर को जानता ही नहीं उसकी आसक्ति, धार्मिकता, आराधना सब मिथ्या है। दिव्य गुणों का अभाव होता है उसमें। यह संभव नहीं कि सत्य पर आधारित भक्ति हो और ईश्वर का आशीर्वाद न मिले।

ईश्वरभक्ति का अर्थ जानना आवश्यक है, ‘‘ईश्वरभक्ति अर्थात् ईश्वर की आज्ञा का पालन।’’

वेद कहता है-आचरण शुद्ध है, सत्य पर, ज्ञान पर आधारित है तो उसे मालाएँ फेरने अथवा तीर्थों पर जाने की भी आवश्यकता नहीं। व्यक्ति की दिनचर्या, भोजन, यम-नियम, स्वाध्याय सत्संग-शुद्ध रूप में हैं, वेदानुसार आचरण है तो यही भक्ति है। ईश्वर की आज्ञानुसार जीवन हो। ‘‘क्रोध मत करो।’’ यह ईश्वर की आज्ञा है। यदि व्यक्ति क्रोध करता है- तो वह उसका साक्षात्कार नहीं कर सकता ‘‘दान दो’’ यह ईश्वर की आज्ञा है। ‘‘सत्य को ग्रहण करना और असत्य को छोडऩा’’ यह ईश्वर की आज्ञा है। जो इन आज्ञाओं को छोड़ मिथ्या-वचन, छल, कपट का आचरण करता है-वह कितनी भी उपासना, पूजा-पाठ करे उसका ईश्वर से सम्बन्ध नहीं हो सकता, जैसे विश्राम अथवा सही निद्रा के लिए शुद्ध एवं शान्त वातावरण की आवश्यकता होती है-वैसे ही ईश्वर प्राप्ति हेतु उचित भोजन, शुद्ध आचरण तथा उत्तम दिनचर्या की आवश्यकता होती है। उपरोक्त अपेक्षाएँ तो स्थूल हैं। यहाँ तो ईश्वर प्रणिधान जैसी कष्टमय सूक्ष्म अपेक्षाएँ भी साधनी पड़ती हैं।

आज तो अपनी सरलता के लिए ईश्वर के सच्चे स्वरूप को न जानकर उसे मूर्तिमान्, सुन्दर वस्त्रों से, आभूषणों सहित पत्नी-पुत्र सहित, कारोबारी युक्त बना दिया गया है, ऐसे लोगों को भला ईश्वर-प्राप्ति कैसे होगी। इसलिए कहा -भक्ति से पूर्व ज्ञान आवश्यक है, कि जिस ईश्वर को हम भज रहे हैं, वह ठीक भी है या नहीं। उसका वास्तविक स्वरूप क्या है। कोई व्यक्ति उसे माने या न माने, निष्ठा करे या न करे, प्रमाणित है कि वह अनादिकाल से प्राणिमात्र का हित करता आ रहा है।

चिन्तन-मनन से सच्चे ईश्वर का निर्णय करना आवश्यक है। वह अपने ज्ञान, बल, समर्थ से ही यह सारा जगत् , प्राणिमात्र, वनस्पति, सूर्य, पृथ्वी आदि को सत्ता में लाता है। भोजनादि सुख सामग्री उसी की देन है। उसी के द्वारा दी गयी बुद्धि से सारी वैज्ञानिक उन्नति संभव हो पायी है। ईश्वर समस्त रोगों का चिकित्सक है। कुछ रोग ऐसे हैं जो किसी व्यक्ति विशेष को नहीं, बल्कि सभी जाति, लिंग, भाषा, देशवासी सभी को समान रूप से होते हैं। बल, धन, रूप से कोई भेदभाव नहीं होता। ये मानसिक रोग हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वेष, अहंकार जैसे रोगों की दवा केवल और केवल ईश्वर के पास है। किसी वैद्य के पास नहीं।

सच्चे ईश्वर की भक्ति करने वाला कभी चिंतित, हताश, निराश, निस्तेज, दु:खी, असमर्थ नहीं होता। ऐसा व्यक्ति किसी का अनर्थ नहीं करता। अपने व्यवहार से किसी को आहत नहीं करता। शिखा, यज्ञोपवीत, माला, जटाजूट धारण से कोई सच्चा उपासक नहीं हो जाता। ये तो बाह्य लक्षण हैं। दया, धर्म, ज्ञान, तपस्या, पुरुषार्थ, सेवा, निर्भीकता, एक सच्चे उपासक के लक्षण हैं। वही ईश्वर का सच्चा स्वरूप जानता है।

ईश्वर का जो आज रूप बना दिया गया है वे सब भ्रान्तियाँ हैं। दक्षिण वाले उत्तर में उसे ढूँढने जाते हैं और उत्तर दिशा वाले दक्षिण में। पूर्व वाले पश्चिम में और पश्चिम वाले पूर्व में। पर्वतों से नीचे नदी-समुद्र पर और कोई पर्वतों पर उसे ढूंढने जाते हैं। ईश्वर तो एक है, सर्वत्र है। उसका दर्शन बाहर नहीं अपने हृदय में होता है। जो ऐसा जान लेता है और विचार शुद्ध रखता है वही प्रगति-पथ पर बढ़ता है।

वह महामानव कौन था जिसने भगत सिंह को शहीदे आज़म भगत सिंह बना दिया: -कन्हैयालाल आर्य

पंजाब के जि़ला लायलपुर की धरती सचमुच वन्दनीय है, जिसने न जाने कितने ऐसे वीर पुत्रों को जन्म दिया, जिन्होंने हंसते-हंसते माँ भारती की स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी। इसी लायलपुर के एक गाँव बंगा में एक सिख परिवार रहता था, जिसने आगे चलकर अपनी क्रांतिकारी परम्पराओं से भारतीय इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा। इसी परिवार में सरदार अर्जुन सिंह पैदा हुए थे। सरदार अर्जुन सिंह अपने ही ढंग के क्रांतिकारी थे। वे जाट सिख थे, परन्तु स्वामी दयानन्द जी से जब उनकी भेंट हुई तो वे आर्य समाज की ओर झुक गए। यह कहा जाता है कि स्वामी दयानन्द जी ने उन्हें स्वयं दीक्षा दी और अपने हाथ से उनका यज्ञोपवीत संस्कार किया था।

यह सरदार अर्जुन सिंह जी ही थे, जिन्होंने अपने पोते भगत सिंह को क्रांतिकारी विचारों के संस्कार दिये। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के कुछ ही दिनों के उपदेशों के प्रभाव से वे स्वाधीनता संग्राम और समाज-सुधार की क्रांति के अग्रदूत बन गए थे। उन्होंने अपने वंश को देश की आज़ादी के लिए बलिदान कर दिया।

सरदार अर्जुन सिंह और शिवाजी समारोह-१२ जून १८९७ को शिवाजी समारोह पर अध्यक्ष पद से बोलते हुए लोकमान्य तिलक ने जो भाषण दिया था वह भी सरदार अर्जुन सिंह के लिए प्रेरणा का स्रोत बना। वह भाषण इस प्रकार था-

‘‘क्या शिवाजी ने अफज़ल $खान को मारकर कोई पाप किया था?’’

‘‘इस प्रश्र का उत्तर महाभारत में मिल सकता है। गीता में श्री कृष्ण जी ने अपने गुरुओं तथा बान्धवों तक को (यदि वे दुष्टों का सहयोग करते हैं) मारने का उपदेश दिया है। उनके अनुसार कोई व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करता है तो वह किसी भी तरह पाप का भागी नहीं बनता। श्री शिवाजी ने अपनी उदरपूर्ति के लिए कुछ नहीं किया था। बहुत ही नेक इरादे के साथ, दूसरों की भलाई के लिए उन्होंने अ$फजल $खान का वध किया था। यदि घर में चोर घुस आये और हमारे अन्दर उसको बाहर निकालने की शक्ति न हो तो हमें बेहिचक उस चोर को दरवाजा बन्द करके जि़न्दा जला देना चाहिए। ईश्वर ने भारत के राज्य का पट्टा ताम्रपत्र पर लिखकर विदेशियों को तो नहीं दिया है। शिवाजी महाराज ने उनको अपनी जन्मभूमि से बाहर खदेडऩे का प्रयास किया। ऐसा करके उन्होंने दूसरों की वस्तु हड़पने का पाप नहीं किया। कुएँ के मेंढक की तरह अपनी दृष्टि को संकुचित मत करो, ताज़ीराते हिन्द की कैद से बाहर निकलो, श्रीमद्भगवद् गीता के अत्यन्त उच्च वातावरण में पहुँचो और महान् व्यक्तियों के कार्यों पर विचार करो।’’

सरदार अर्जुन सिंह सिख परिवार के होते हुए भी संस्कारों से दृढ़ आर्य समाजी बन गए थे। वे जहाँ भी जाते, अपने साथ एक पोटली रखते थे, जिसमें यज्ञकुण्ड और यज्ञ सम्बन्धी सामान रहता था। वे प्रतिदिन यज्ञ करते थे। वे पूरी निष्ठा और गम्भीरता से महर्षि दयानन्द जी द्वारा रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का स्वाध्याय किया करते थे।

सरदार अर्जुन सिंह उन थोड़े लोगों में से थे जो जिस काम को हाथ में लेते थे, उसे पूरा करके दिखाते थे। साधारण व्यक्ति का जीवन एक ही लीक पर परवान चढ़ता है। जिस परिवार और परिस्थितियों में व्यक्ति उत्पन्न होता है वह आजीवन उन्हीं से चिपटा रहता है। यदि वह स्वतन्त्र चिन्तन करने का प्रयास करता है तो भी वह सीमित चारदीवारी के बीच में कैद रह कर ही रह जाता है। यदि वह चिन्तन के क्षेत्र में थोड़ा बहुत स्वतन्त्र चिन्तन प्रदर्शित करता भी है तब भी वह उसे व्यवहार में परिणत नहीं कर सकता, परन्तु सरदार अर्जुन सिंह तो स्वतन्त्र पथ के ऐसे पथिक थे जो न तो एक ही लीक पर चलने वाले थे और न ही एक चारदीवारी में कैद रहने वाले। वह ऐसे महामानव थे जिन्होंने अपने स्वतन्त्र चिन्तन को अपने जीवन के व्यवहार में उतारने में ही आनन्द का अनुभव किया था।

‘सत्यार्थ प्रकाश’ (आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के प्रमुख ग्रन्थ) के प्रति उनकी अपार श्रद्धा थी। उस ग्रन्थ से उन्होंने स्वराज्य प्रेम की प्रेरणा ली थी। यही स्वराज्य भावना उनके तीनों पुत्रों श्री किशन सिंह, श्री अजीत सिंह और श्री स्वर्ण सिंह में कूट-कूट कर भरी गयी थी। स्वराज्य के लिए तीनों पुत्रों ने कारावास भोगा, जेल की यातनाएं सहीं। जैसे ही भगतसिंह के पिता श्री किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह तथा स्वर्ण सिंह जी के जेल से रिहा होने की खबर पहुँची, उसी दिन भगत सिंह का जन्म (२८ सितम्बर १९०७) हुआ था। उनकी दादी अर्थात् अर्जुन सिंह की पत्नी ने प्रसन्न होकर उन्हें (भागों वाला) भगत सिंह नाम दिया। बचपन से ही उनका पालन-पोषण दादा जी की छत्र-छाया में हुआ। भगत सिंह की दादी भी एक धार्मिक महिला थीं। यही संस्कार एवं परम्पराएँ भगत सिंह में भी आयीं। तीन वर्ष की अवस्था में भगत सिंह ने गायत्री मन्त्र स्मरण कर लिया था। भगत सिंह व उनके बड़े भाई जगत सिंह का यज्ञोपवीत संस्कार पं. लोकनाथ तर्कविद्यावाचस्पति जी ने कराया। इस अवसर पर भगत सिंह के दादा श्री अर्जुन सिंह जी ने अपने दोनों पोतों को बाहों में भरकर संकल्प किया, ‘‘मैं अपने दोनों वंशधरों को इस यज्ञवेदी पर खड़ा होकर देश के लिए दान करता हूँ।’’

सिख मत के अनुयायी होते हुए भी आर्य समाज के प्रबल समर्थक थे-गुरुद्वारा आन्दोलन में भाग लेने से पूर्व भगत सिंह न तो सिर पर केश रखते थे और न ही पगड़ी बाँधते थे। इसका कारण संभवत: उनके दादा सरदार अर्जुन सिंह का सिख होते हुए भी बहुत कुछ आर्य समाजी होना था। वे नियमित रूप से यज्ञ क रते थे और सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय भी करते थे। इस सम्बन्ध में श्री यशपाल जी ने ‘सिंहावलोकन’ में एक रोचक प्रसंग का उल्लेख किया है जिसका शब्दश: यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। इससे सरदार अर्जुन सिंह जी की आर्यसमाज के प्रति आस्था अच्छी तरह स्पष्ट हो जायेगी।

‘‘सन् १९२५ के जाड़ों की बात है। सरदार किशन सिंह एक इंश्योरेंस कम्पनी की एजेन्टी कर रहा था। एजेंसी का यह दफ्तर हमारे लिए आराम का डेरा बना हुआ था। मैं उन दिनों लाहौर के नेशनल स्कूल में पढ़ रहा था। नेशनल कॉलेज समाप्त होकर नेशनल हाई स्कूल ही रह गया था। भगतसिंह अनिच्छा से थोड़ा बहुत समय करोबार में लगाता। शेष समय पढ़ता और संगठन के लिए भूमि को तैयार करने में लगा रहता। सुखदेव कभी लायलपुर अपने घर पर चला जाता। वहाँ उसके परिवार ने आटे की चक्की लगवा दी थी। लाहौर आता तो भगत सिंह के साथ ही बना रहता। हमारे सहपाठी झंडासिंह और जयदेव गुप्ता भी वहीं थे।

एक दिन स्कूल में छुट्टी थी। दूसरे लोग मकान पर मौजूद नहीं थे। मैं अपनी सनक में मेज़ पर बैठा कोई लेख या कहानी लिख रहा था। मेज़ के नीचे टीन की क्या चीज पड़ी है, वह ख्याल न कर उस पर जूते जमाकर रख दिये थे। संभव है अचेतन रूप से यह धारणा रही हो कि रद्दी की टोकरी के तौर पर कोई डिब्बा है। लिखते समय विचारों को ठेलने के लिए मेज़ के नीचे उस टीन की चीज़ को जूते से एड़ किए जा रहा था।

जीने पर भारी कदमों से धम-धम करते हुए एक सिख सज्जन अपने ग्रामीण वेश में ऊपर द$फतर में आ गए। मैंने एक द$फा नजर उठाकर उनकी तर$फ देखा और लिखने में तन्मय रहा। सरदार जी के ऐसे अनेक सम्बन्धी गाँवों से आते-जाते रहते थे। इस सज्जन की दाढ़ी खूब प्रशस्त, बर्फ की तरह श्वेत और चेहरा खूब तेजोमय गुलाबी रंग का था। मैंने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया, आगन्तुक भी मुझसे आदर की प्रतीक्षा न कर एक कुर्सी खींचकर चुपचाप दीवार के पास बैठ गए। मैं मालिक बना बैठा लिखता रहा और मेज़ के नीचे टीन की चीज़ पर जूते की ठोकरें भी जमाता रहा।

अचानक वज़नी गालियों से भरी एक करारी डाँट सुनकर आँख उठाकर देखा कि वयोवृद्ध भव्यमूर्ति की आँखें लाल और चेहरा क्रोध से तमतमा उठा है और वे हाथ में थमी मोटी लाठी को फर्श पर ठोक रहे हैं।

‘‘गधा, उल्लू, नास्तिक, बदमाश, सिर तोड़ दूँगा।’’ उनके हाथ में लाठी मेरे सर पर पडऩा ही चाहती थी। वृद्ध ने अपने आवेश को कठिनता से वश में कर मेज़ के नीचे संकेत करते हुए फटकारा-‘‘उल्लू, यही तेरी तमीज़ है।’’

मेज के नीचे झाँककर देखा तो अपने जूतों के बीच पाया एक औंधा पड़ा हवनकुण्ड। सब कुछ समझ में आ गया। उपेक्षा के कारण पहचानने में भूल हुई थी। भगतसिंह से सुन रखा था कि दादा जी नित्य हवन करते हैं। जहाँ जाते हैं, पोटली में हवन कुण्ड और हवन सामग्री साथ बाँध ले जाते हैं।’’

इस घटना से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि सरदार अर्जुनसिंह सिख धर्म के अनुयायी होते हुए भी आर्य समाज के प्रबल समर्थक थे।

सन् १९२३ में भगत सिंह नेशनल कॉलेज लाहौर के विद्यार्थी बने थे। जन-जागरण के लिए वे ड्रामा क्लब में भी भाग लेते थे। क्रांतिकारी अध्यापकों और साथियों से नाता जुड़ गया था। भारत को आज़ादी कैसे मिले, इस बारे में लम्बा-चौड़ा अध्ययन और बहसें जारी थीं। घर में दादा श्री अर्जुनसिंह जी ने पोते (भगतसिंह) के विवाह की बात चलाई। उनके सामने अपना तर्क न चलते देख पिताजी के नाम यह पत्र लिखा और घर छोड़ दिया। पिताजी के नाम लिखा गया भगतसिंह का यह पत्र घर छोडऩे संबन्धी उनके विचारों को सामने लाता है-

पूज्य पिताजी, नमस्ते।

मेरी जि़न्दगी मकसदे आला (उच्च उद्देश्य) यानि आज़ादी-ए-हिन्द के असूल (सिद्धान्त) के लिए वक्$फ हो चुकी है। इसलिए मेरी जि़न्दगी में आराम और दुनियाबी ख्वाहिशात (सांसारिक इच्छाएँ) वायसे कोशिश (आकर्षण) नहीं है।

आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था तो बापू जी (दादा श्री अर्जुन सिंह जी) ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन (देश-सेवा) के लिए वक्$फ (दान) कर दिया गया है। लिहाज़ा (अत:) मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हँू। उम्मीद है मुझे मा$फ करेंगे।

आपका ताबेदार (सेवक)

भगतसिंह

यह उपर्युक्त पत्र दर्शाता है कि भगतसिंह के दादा श्री अर्जुन सिंह जी ने अपनी संतानों में देश-प्रेम को कितना गहरे तक उतार दिया था।

सरदार अर्जुन सिंह जी के समय में आर्य समाज का जो रूप था, उसमें विद्रोह के तत्त्व अधिक थे। उस समय आर्य समाज का अर्थ था स्वदेशाभिमान। सम्भवत: इसी कारणवश लाला लाजपत राय, सूफी अम्बाप्रसाद और अर्जुनसिंह जी आदि सभी आर्य समाज से प्रभावित थे। अर्जुन सिंह सिख से आर्य समाजी बने, इससे पता चलता है कि वे किस सीमा तक स्वतन्त्र चिन्तक थे। वे आर्य समाज के इतने भक्त बन गये कि जहाँ से जितना भी आर्य समाज का साहित्य उन्हें मिला, वह सारा का सारा पढ़ डाला। उन्होंने आर्य समाज के मंच से भाषण देना भी प्रारम्भ कर दिया था।

सरदार अर्जुन सिंह के व्यक्तित्व में अद्भुत अन्तद्र्वन्द्व का समावेश हो गया था। वे परम्परा से बिल्कुल कटना नहीं चाहते थे, परन्तु आवश्यकता पडऩे पर परम्पराओं की धज्जियाँ उड़ाने में भी पीछे नहीं हटते थे। जो बात उनकी तर्क की तुला पर खरी नहीं उतरती थी, उसको त्यागने एवं नई राह खोजने और फिर उस पर चलने का साहस उनमें था। वह आर्य समाज के उस नियम ‘‘सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने में सर्वदा उद्यत’’ रहते थे। यही बुनियादी तत्त्व उनको क्रान्तिकारी बना रहा था।

अर्जुन सिंह जी केवल विचारों से ही परिवर्तनवादी थे, ऐसी बात नहीं थी। जीवन में मुख्य निर्णय लेने में उन्होंने कभी विलम्ब नहीं किया। एक बार सरकार ने वनक्षेत्र को बसाने का निर्णय लिया कि जो लोग वहाँ बसना चाहेंगे, उन्हें सरकार २५ एकड़ भूमि प्रति-परिवार देगी। इस निमन्त्रण से आकृष्ट होकर वे बंगा गांव में आ बसे, जहाँ भगत सिंह का जन्म हुआ।

सरदार अर्जुन सिंह के दो भाई और थे- सरदार बहादुर सिंह और सरदार दिलबाग सिंह। दोनों ने ब्रिटिश सरकार की खूब चापलूसी की और बहुत अधिक धन कमाया। वे दोनों अर्जुन सिंह को मूर्ख समझते थे और कहा करते थे कि अर्जुन सिंह ने यदि दूरदर्शिता से काम नहीं लिया तो उन्हें एक दिन भीख माँगनी पड़ेगी, परन्तु सरदार अर्जुन सिंह पर ऋषि दयानन्द की छाप पड़ चुकी थी। वे ब्रिटिश सरकार की चापलूसी की बात तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे। उन्होंने आत्म सम्मान, निर्भीकता, स्पष्टवादिता और देशभक्ति के जिस मार्ग को चुना, आजीवन उसी मार्ग के पथिक बने रहे।

सरदार अर्जुन सिंह के यहाँ तीन पुत्र-सरदार किशन सिंह, सरदार अजीत सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह उत्पन्न हुए। तीनों पिता की तरह वीर, निर्भीक, देशभक्त और स्पष्टवादी थे। तीनों पुत्र साक्षात् उन्हीं के प्रतिरूप थे। इनके परिवार पर अंग्रेजों का कहर टूटता ही रहता था। श्री अजीत सिंह स्वतन्त्रता के युद्ध को आगे बढ़ाने के लिए विदेश चले गए। वहाँ (ब्राजील) से वे सन् १९४७ ई. में ही लौट सके, परन्तु स्वतन्त्रता की पहली ही प्रात: (१५ अगस्त १९४७ ई.) को ४ बजे उन्होंने देश के विभाजन से दु:खी होकर किसी योगी की भाँति स्वेच्छा से शरीर त्याग दिया। भगत सिंह के दूसरे चाचा सरदार स्वर्ण सिंह भी अंग्रेज सरकार के अन्यायों से मात्र २३ वर्ष की आयु में चल बसे। सरदार किशन सिंह जी का क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस व करतार सिंह सराभा से निरन्तर सम्पर्क रहता था। इन तीनों भाइयों ने सूफी अम्बा प्रसाद, लाला हरदयाल, महाशय घसीटा राम, केदारनाथ सहगल आदि क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर भारत माता सोसाइटी की स्थापना की। इनके उग्र भाषणों व कार्यों के कारण अंग्रेजी सरकार ने तीनों भाइयों को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया।

सरदार अर्जुन सिंह जी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के विरुद्ध कुछ न सुन सकते थे- सरदार अर्जुन सिंह जब ऋषि दयानन्द जी के सम्पर्क में आये, तो वे सर्वात्मना आर्य समाज के रंग में रंग गये। ऋषि दयानन्द जी द्वारा रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ उनके लिए एक प्रकाश स्तम्भ बन गया। उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का पूरा अध्ययन कर लिया था। यदि कोई भी व्यक्ति सत्यार्थ प्रकाश की आलोचना करता था, तो वह उनसे सहन न होती थी। ऐसी ही घटना उनके जीवन में आई। एक बार सरदार अर्जुन सिंह जी अपने गाँव से ६० मील दूर किसी विवाह में सम्मिलित होने के लिए गये। विवाह के अवसर पर सिख पुरोहित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के उदाहरण दे-देकर उसकी कटु आलोचना कर रहा था। अर्जुन सिंह जी ने देखा कि वह व्यक्ति झूठे उदाहरण सुना-सुना कर लोगों को भडक़ा रहा था। अर्जुन सिंह जी ने उसे टोकते हुए कहा कि आप लोगों को मिथ्या और कल्पित उदाहरण देकर सत्यार्थ प्रकाश के नाम पर सुना रहे हैं, ये बातें सत्यार्थ प्रकाश में नहीं हंै। आप सत्यार्थ प्रकाश को व्यर्थ बदनाम न करें। उसने कहा कि सत्यार्थ प्रकाश लाओ, मैं सारे उद्धरण दिखा दूँगा। उस समय कहीं-कहीं कोई-कोई पुस्तक मिलती थी। पुरोहित ने सोचा कि तेरी बात ऊपर रह जायेगी। यहाँ किसके पास सत्यार्थ प्रकाश मिलेगा? सत्यार्थप्रकाश के प्रति श्रद्धा रखने वाले श्री अर्जुन सिंह रात को ही ६० मील पैदल चलकर घर आये और सत्यार्थ प्रकाश लेकर सवेरे तक पैदल ही वापस विवाह स्थल पर पहुँच गये। जब पुरोहित को सत्यार्थ प्रकाश हाथ में थमाकर उद्धरण दिखाने के लिए कहा तो वह पुरोहित बगलें झाँकने लगा। अन्तत: पुरोहित ने अपनी भूल के लिए क्षमा माँग कर ही पीछा छुड़ाया।

जन्म से ही विद्रोही स्वभाव (वज्रादपि कठोराणि)- डॉ. सुभाष रस्तोगी जी ने अपनी पुस्तक ‘क्रान्तिकारी भगत सिंह’ में भी अर्जुन सिंह जी के विद्रोही स्वभाव की एक दृष्टान्त के द्वारा प्रस्तुति की है-

‘‘यह उनके क्रान्तिकारी व्यक्तित्व का एक ज्वलन्त उदाहरण है कि उन्होंने सरकार से मिली भूमि में तम्बाकू की खेती करने का निर्णय लिया, क्योंकि यह भूमि तम्बाकू की खेती के लिए सर्वोत्तम थी। आसपास के गाँवों में जहाँ सिख नहीं थे, वहाँ के लोग तम्बाकू की खेती से खूब धन अर्जन कर रहे थे। इसलिए उन्होंने भी तम्बाकू की खेती करने का निर्णय ले लिया, परन्तु क्योंकि सिख मत में तम्बाकू सेवन निषेध है, अत: पूरे गाँव में इनका न केवल विरोध हुआ बल्कि उनको बिरादरी से निकालने की बात के साथ-साथ उनका बिरादरी से आना-जाना और पानी बन्द हो गया, परन्तु सरदार जी चट्टान की तरह अपने निर्णय पर अटल रहे। तम्बाकू ऊँचे दामों में बिका और काफी धन घर में आ गया। अब सरदार अर्जुनसिंह जी ने दबंग स्वर में घोषणा की,‘‘गुरु जी ने उस युग की परिस्थितियों के अनुकूल तम्बाकू को शिष्यों में प्रचलन का निषेध करार दिया होगा, परन्तु यदि यह पाप है तो मैं अपना अपराध स्वीकार करता हँू। अब वह घृणित वस्तु मैंने अपने घर से निकाल दी है। आप जिस तरह कहें मैं उसी तरह अपने मकान को शुद्ध करने के लिए तैयार हँू।’’ इस घटना को किसी भी अर्थ में लिया जा सकता है, परन्तु इससे यह तथ्य तो उजागर होता है कि अर्जुन सिंह जी जन्म से ही विद्रोही स्वभाव के थे। भवभूति के शब्दों में उन्हें ‘‘वज्रादपि कठोराणि’’ की संज्ञा दी जा सकती है।’’

मृदूनि कुसुमादपि-३ मार्च १९३१ का दिन वह अन्तिम दिन था जिस दिन भगत सिंह अपने परिवार के सदस्यों से अन्तिम बार मिले। उस दिन भगत सिंह के पिता श्री किशन सिंह, माता श्रीमती विद्यावती, भाई कुलबीर, चाची और दादा श्री अर्जुन सिंह जी आये थे, जिन्होंने इस परिवार में ऋषि दयानन्द जी की प्रेरणा से क्रान्ति का बीज बोया था।

सरदार अर्जुन सिंह भगतसिंह के पास जैसे-तैसे साहस बटोरकर आये और भगतसिंह के सिर पर उसी प्रकार हाथ फेरने लगे जैसे बचपन में स्नहेवश फेरा करते थे। उन्होंने उस समय बोलने का पूरा प्रयास किया, परन्तु कण्ठ अवरुद्ध हो गया और मुख से एक भी शब्द न निकला। वे सोच रहे थे कि सम्भवत: इसके पश्चात् इस प्रिय भगतसिंह का मुख देखने का अवसर नहीं मिलेगा। वे परिवार से दूर जाकर खड़े हो गये। भगतसिंह ने देखा कि दादा जी जितना भी आंसुओं को छिपाने का प्रयास कर रहे थे, उतने ही वेग से वे निकल जाना चाहते थे। भगतसिंह ने स्वयं को संयत करते हुए कहा था-दादाजी! आपने तो मुझे बहुत समय पूर्व मेरे यज्ञोपवीत के समय राष्ट्र को दान कर दिया था, फिर आज उस दान दी हुई सम्पत्ति को अलग करने में यह मोह कैसा? आप जैसा व्यक्ति, जो वज्र की तरह कठोर है, वह आज मुरझाये हुए फूलों की तरह अच्छा नहीं लगता। मुझे लगता है कि अब आप बूढ़े हो गये हैं। क्योंकि आपके आँसु इस बुढ़ापे को दर्शा रहे हैं, परन्तु मुझे विश्वास है कि आप ऋषि दयानन्द के शिष्य हो। ऋषि दयानन्द जी ने मृत्यु से कुछ क्षण पूर्व कहा था, ‘‘हे ईश्वर! तेरी इच्छा पूर्ण हो, तूने अच्छी लीला की।’’ उनके शिष्य कभी घबराया नहीं करते। इस प्रकार परिवार का यह अन्तिम मिलन था उसके पश्चात् २३ मार्च १९३१ को इस शहीदे आजम भगतसिंह को फाँसी दे दी गई और अंग्रेज़ सरकार ने अपने नाम एक काला अध्याय और जोड़ दिया।

भगतसिंह अपनी प्रत्येक बात अपने दादा श्री अर्जुनसिंह से किया करते थे। १४ नवम्बर १९२१ को केवल १४ वर्ष की आयु का भगतसिंह अपने दादा श्री अर्जुनसिंह को एक पत्र लिखता है-परिवार का हाल-चाल जानने के पश्चात् वह अपनी सक्रियता को दादा जी के साथ किस प्रकार बाँटता है, उसका उदाहरण पत्र की ये पंक्तियाँ हैं-

मेरे पूज्य दादा साहब जी, नमस्ते।

‘‘आजकल रेलवे वाले हड़ताल की तैयारी कर रहे हैं। उम्मीद है कि अगले सप्ताह के बाद जल्दी शुरु हो जाएगी।’’

आपका ताबेदार (सेवक)

भगतसिंह

दादाजी को लिखे इस पत्र से पता चलता है कि उस समय चल रहे चर्चित असहयोग आन्दोलन का प्रभाव किस तरह जनता में जोर मार रहा था, जिसका प्रभाव भगतसिंह पर भी हुआ। वे उससे अनजान न रह सके। साथ ही दादा जी को भी यह बताए बिना न रह सके कि जल्दी आरम्भ होने वाली रेल-हड़ताल की भी उन्हें सूचना है। वे अपनी पूरी गतिविधि के बारे में अपने दादा श्री अर्जुन सिंह जी को अवगत कराते रहते थे। इससे सिद्ध होता है कि भगतसिंह के विचारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन का कितना श्रेय सरदार अर्जुन सिंह जी को है। ये श्री अर्जुन सिंह जी ही हंै, जिन्होंने भगतसिंह को शहीदे आज़म भगत सिंह बना दिया था।

वेदों का काल क्या है ?

वेद
जिज्ञासा १ – कुछ विद्वान् वेदों का काल पाश्चात्य विद्वानों के आधार पर २००० या ३००० ईसा पूर्व ही मानते हैं, क्या यह ठीक है? और मैक्समूलर ऋग्वेद को दुनिया के पुस्तकालयों की सबसे पुरानी पुस्तक मानता है, क्या मैक्समूलर की यह मान्यता ठीक है? क्या हम आर्यों को भी इसी के अनुसार मानना चाहिए? कृपया, मार्गदर्शन करें।
– अनिरुद्ध आर्य, दिल्ली
समाधान- वेदों का काल जबसे मानवोत्पत्ति हुई है, तभी से है। आज इस काल को महर्षि दयानन्द के अनुसार १ अरब ९६ करोड़ ८ लाख ५३ हजार ११५वाँ वर्ष (२०१४ के अनुसार ) चल रहा है। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा की गई वेदों की काल गणना ठीक नहीं है, क्योंकि इनके द्वारा की गई काल गणना निराधार, पक्षपात पूर्ण और कपोलकल्पना मात्र है। इस गणना के लिए इन विद्वानों के पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है। जब हमारा लाखों वर्ष पुराना इतिहास सप्रमाण हमें प्राप्त हो रहा है, तब हम इनकी कुछ हजार वर्ष पूर्व की बात कैसे स्वीकार कर लें?  हाँ, इनकी बात को वह स्वीकार कर सकता है जो अपने ऋषियों, महापुरुषों से प्रभावित न होकर, पाश्चात्य संस्कृति व विद्वानों से प्रभावित रहा हो।
कुछ लोगों की निराधार व अल्पज्ञान भरी बात है कि ऋग्वेद की रचना सबसे पहले हुई और इसके बाद अन्य वेदों की। ऐसी मान्यता वाले लोग अथर्ववेद को तो ऋग्वेद से बहुत बाद का मानते हैं। इस बात का भी उनके पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है।
हमारे ऋषियों के अनुसार चारों वेदों का काल एक ही है, एक ही साथ एक ही समय परमेश्वर ने ४ ऋषियों के हृदयों में चारों वेदों का अलग-अलग ज्ञान दिया, अर्थात् अग्नि ऋषि को ऋग्वेद का, वायु ऋषि को यजुर्वेद का, आदित्य ऋषि को सामवेद का और अङ्गिरा ऋषि को अथर्ववेद का ज्ञान दिया। ऋषियों ने ऐसा कहीं नहीं लिखा कि चारों वेदों की उत्पत्ति अलग-अलग समय में हुई। हमें वेद व ऋषियों के अनेक प्रमाण प्राप्त हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि चारों वेद एक ही समय में उत्पन्न हुए।

जैसे-
यस्मिन् वेदा निहिता विश्वरूपा:। -अथर्व. ४.३५.६
ब्रह्म प्रजापतिर्धाता लोका वेदा: सप्त ऋषयोग्नय:।
-अथर्व. १९.९.१२
इन दोनों मन्त्रों में वेद शब्द का बहुवचनान्त वेदा: शब्द प्रयुक्त हुआ है। यह वेदा: शब्द चारों वेदों का संकेतक है।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: ऋच: सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।।
-ऋ. १०.९०.९, यजु. ३१.७
यस्मिन्नृच: साम यजुœंषि यस्मिन्
प्रतिष्ठिता रथानाभाविवारा:।           -यजु. ३४.५
यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम्-
स्कम्भं तं ब्रूहि कतम: स्विदेव स:।।
-अथर्व. १०.७.२०
स्तोमश्च यजुश्चऽऋक् च साम च बृहच्च रथन्तरञ्च।
-यजु. १८.२९
ऋचो नामास्मि यजुंœषि
नामास्मि सामानि नामास्मि।        -यजु. १०.६७
स उत्तमां दिशमनुव्यचलत्।।
तमृचश्च सामानि च यजंूषि च ब्रह्म चानुव्यचलन्।।
-अथर्व. १५.६.७-८
एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमेतद्
यदृग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस:।।
श.ब्र. १४.५.४.१० व बृहद्.उप. ३४.१०
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्ववेद:।
– मु. ५.१.१.५
इत्यादि अनेक वेद व ऋषियों के प्रमाण सिद्ध करते हैं कि चारों वेदों का काल एक ही है।
आप मैक्समूलर की मान्यता के विषय में भी जानना चाहते हैं कि उनकी मान्यता ठीक है या नहीं। मैक्समूलर ने तथाकथित भाषाशास्त्र के आधार पर वेदों के रचना काल की सम्भावना सर्वप्रथम १८५९ ई.  में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ एशियट संस्कृत लिटरेचर’ में की थी। उनकी यह कालावधि किसी तथ्य पर आश्रित न होकर विशुद्ध कल्पना पर अवलम्बित थी, किन्तु यह मान्यता इतनी बार दुहरायी गयी कि परवर्ती समय में आधुनिक इतिहासकारों में बिना सोचे-समझे स्थापित-सी मानी जाने लगी, लेकिन स्वयं मैक्समूलर ने १८८९ में ‘जिफोर्ड व्याख्यानमाला’ के अन्तर्गत अपने इस मत पर सन्देह प्रकट किया था और ह्विटनी जैसे पाश्चात्य व प्रो. कुञ्जन राजा प्रभृति भारतीय इतिहासकारों ने भी मैक्समूलर के भाषाशास्त्र के आधार पर वेदों के काल सम्बन्धी मत का जोरदार खण्डन किया था। दूसरा जो मैक्समूलर ऋग्वेद को दुनिया की सबसे पुरानी पुस्तक कहता है, उसकी यह बात वेदों की रचना के सम्बन्ध में भ्रम पैदा करने के उद्देश्य से कही गई प्रतीत होती है। ऋषियों-महर्षियों के आधार पर आर्यसमाज की दृढ़ मान्यता के विपरीत ये वेदों का क्रमिक विकास सिद्ध करते हैं, जिससे वेद ईश्वरीय रचना न होकर मानवीय रचना सिद्ध हो सके।
इस सारे प्रसंग को मैक्समूलर की इन मान्यताओं के सन्दर्भ में भी देखा जाना चाहिए कि वह वेदों को बाइबिल से निचली श्रेणी का मानता है। कैथोलिक कॉमनवैल्थ के दिये गये एक साक्षात्कार में यह पूछे जाने पर कि विश्व में कौन-सा धर्मग्रन्थ सर्वोत्तम है, तो मैक्समूलर ने कहा-

“There is no doubt, however, that ethical teachings are far more prominent in the old and New Testament than in any other sacred book.” He also said “It may sound prejudiced, but talking all in all, I say the New Testament. After that, I should place the Quran which in its moral teachings is hardly more than a later edition of the New Testament. Then would follow…. according to my opinion, the Old Testament, The southern Buddhist Tripitika….. The Veda and the Avesta.” (LLMM, Vol. II, PP. 322-323)
अर्थात् ‘‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि यद्यपि किसी भी अन्य ‘पवित्र पुस्तक’ की अपेक्षा (ईसाइयों के धर्म ग्रन्थ) ओल्ड और न्यू टेस्टामेंट में नैतिक शिक्षायें प्रमुखता से विद्यमान् हैं। उसने यह भी कहा- यह भले ही पक्षपातपूर्ण लगे, लेकिन सभी दृष्टियों से मैं कहता हूँ कि न्यू टेस्टामेंट सर्वोत्तम है। इसके बाद मैं कुरान को कहूँगा जो कि अपनी नैतिक शिक्षाओं में न्यू टेस्टामेंट के नवीन संस्करण के लगभग समीप है। उसके बाद….. मेरे विचार से ओल्ड टेस्टामेंट (यहूदियों का धर्मग्रन्थ), दी सदर्न बुद्धिस्ट त्रिपिटिका, (बौद्धों का धर्मग्रन्थ) फिर वेद और अवेस्ता (पारसियों का ग्रन्थ) है।’’
अत: आर्यों को वेद के सन्दर्भ में मैक्समूलर जैसे लोगों के मत को उद्धृत करने से बचना चाहिए। इसके स्थान पर ऋषियों-महर्षियों के मत को रखना चाहिए। लेकिन अगर कोई आर्य वेदों की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए मैक्समूलर को इस रूप में उद्धृत करता है कि ‘मैक्समूलर भी वेदों की प्राचीनता के प्रसंग में एक सत्य को अस्वीकार न कर सका, उसे भी ऋग्वेद को प्राचीनतम पुस्तक स्वीकार करना पड़ा’ इस रूप में बात रखी जा सकती है।

आर्यसमाज और हरिजन-समस्या: – स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

सन् १९८० में १९ मार्च से ३० अप्रैल तक पाँच सप्ताह की अनुज्ञा पर मैं उत्तरी बर्मा गया था। रंगून के भव्य आर्यसमाज मन्दिर में एक वाक्य अंकित था- ‘अस्पृश्यता हिन्दू-जाति का सबसे बड़ा कलङ्क है’ – महात्मा गांधी। अछूतपन की कहानी देश में बड़ी पुरानी है। एक भारतीय इतिहासज्ञ की यह बात मुझे जँची थी, नितान्त सत्यता इस बात में कितनी है, यह कहना कठिन है। उस इतिहास का यह संकेत था कि देश के गरीब तबके पर ब्राह्मणों ने अत्याचार किये। यह तबका शूद्रों में से था। जब शूद्रों पर अत्याचार हुए, तो ये बौद्ध हो गये। शंकराचार्य के बाद बौद्धों का ह्रास और ब्राह्मण वर्ग का प्रभुत्व बढ़ा। इन ब्राह्मणों ने बौद्धों को नगरों से निकालकर बाहर की सीमा पर खदेड़ा और उनसे नीच से नीच काम लेने लगे, यह वर्ग ही हमारा चमार, भंगी, पासी, चाण्डाल अछूत वर्ग है। मनुस्मृति में शुनां च पतितानां च श्वपचां ऐसे शब्द हैं, जिनका अर्थ पापी, चाण्डाल ऋषि दयानन्द ने किया है (मनु ३/९२)। असम, बंगाल और उड़ीसा में मुसलमानों के आते ही यह वर्ग मुसलमान हो गया, वहाँ जितने बौद्धों के प्रबल केन्द्र थे, वे सब मुस्लिम-प्रभुत्व के प्रदेश बन गये। इसीलिए असम, बंगाल, उड़ीसा में मुसलमानों की संख्या आज भी अधिक है।

अत: देश के वर्तमान अछूत वे पददलित तिरस्कृत वर्ग हैं, जो बौद्ध थे और जिन पर ब्राह्मण वर्ग (द्विज) ने अत्याचार किये थे।

मेहतर या भंगी का जन्मना पेशा करने वाला वर्ग भारत में ही पैदा हुआ, अन्य देशों में नहीं। प्राचीन भारत में शौचालय किस प्रकार के होते थे और उन्हें साफ करने वाले व्यक्ति का समाज में क्या स्थान था, यह कहना कठिन है। ऐसा लगता है, छोटी-छोटी बस्तियाँ होती थीं और नर-नारी समीप के खेतों और जंगलों में शौच करने जाते थे। अछूत या अस्पृश्य कोई व्यक्ति न था। मृत पशुओं के चर्म से अनेक उपयोगी सामान बनाये जाते थे और ये चर्मकार समाज के सामान्य व्यापारी अंग थे (वैश्य)- इनका परस्पर के सम्पर्क में कोई सामाजिक तिरस्कार न था।

सामान्यतया वर्ग चार ही थे और सभी द्विजेतरों की गिनती शूद्र वर्ग में थी। शूद्र अस्पृश्य नहीं था। वह तीनों वर्गों की सेवा करता था और यजमान के परिवार में ही उसका पोषण होता था। उसमें निम्न गुण होते थे, तभी वह परिवार का अंग बन जाता था-

१. परिवार के सदस्यों में वह सबसे अधिक बलिष्ठ, निरोग और स्वस्थ था। वह परम-साहसी था- जोखम के घटनास्थलों पर वह सबसे पहले पहुँचता था।

२. रंग उसका कैसा ही हो, उसमें स्वस्थ सौन्दर्य था, अत: उसे परिवार के बच्चे नि:संकोच सौंपे जा सकते थे।

३. वह अत्यन्त विश्वसनीय और सदाचारी था, अत: परिवार में उसका निर्वाह हो सकता था और उसके विश्वास पर घर की सारी सम्पत्ति छोड़ी जा सकती थी।

४. वह अत्यन्त विनम्र और विनयशील था, अत: शूद्रसेवक अतिथियों का स्वागत शिष्टता से करता था।

द्विजों की अपेक्षा मानवीय गुण शूद्रों में अधिक थे। कमी यही थी कि वह शिक्षित-दीक्षित और मंत्र-पाठी न था।

शूद्र शब्द ऋग्वेद में एक ही बार प्रयुक्त हुआ है (१०/९०/१२) और वह भी वही प्रसिद्ध मन्त्र, जो पुरुष-सूक्त से अन्य वेदों में आया- ‘ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्’ वाला मन्त्र। शूद्र विराट् पुरुष का पाद स्थानीय है- ‘का ऊरू पादा उच्येते’ के उत्तर में।

मेरे एक विद्वान् मित्र ने शुच्-शोकार्थक (भ्वादि.) धातु से शुचेर्दश्च (उणादि. २/१९) सूत्र से रक् प्रत्यय, उकार को दीर्घ, च को द होकर शूद्र शब्द बनाने का दुरूह प्रयास किया है-

शूद्र: शोचनीय: शोच्यां स्थितिमापन्नो वा,

सेवायां साधूरविद्यादि गुणसहितो मनुष्यो वा।

अर्थात् शूद्र वह व्यक्ति है, जो अपने अज्ञान के कारण किसी प्रकार की उन्नत स्थिति को नहीं प्राप्त कर पाया और जिसे अपनी निम्न स्थिति होने की तथा उसे उन्नत करने की सदैव चिन्ता बनी रहती है। अथवा स्वामी के द्वारा जिसके भरण-पोषण की चिन्ता की जाती है, ऐसा सेवक मनुष्य। निम्न बातों से शूद्र की निम्नतर पदवी भी उन्नत हो जाती है-

विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्।

शुश्रुषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैऽश्रेयस: पर:।।

शुचिरुत्कृष्ट शुश्रूषूर्मृदुवागनहंकृत:।

ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते।।

– (मनु. ९/३३४-३३५)

अच्छे कुलीन परिवारों की सेवा करके शूद्र भी प्रतिष्ठा का स्थान पाते हैं।

वर्तमान युग की सामाजिक व्यवस्था में अब चातुर्वण्र्य का प्रश्न केवल शास्त्रीय प्रश्न रह गया है। शनै: शनै: सभी परिवार साक्षर हो रहे हैं और देश के शासन में सभी को मताधिकार देने का समान अधिकार है। हरिजन, अस्पृश्य या अछूत शब्द सब संक्रान्ति काल के लिए हैं। भविष्य में न वर्णभेद जन्मना रह जायेगा, न गुण-कर्म-विभागाश्रित। इसे आप वर्ण-संकरता कहें या वर्ण-समन्वय या वर्ण-निरपेक्ष कहें, सब कुछ कह सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में हरिजन शब्द भी अब कोई अर्थ नहीं रखता है।

आर्यसमाज ने निम्नवर्ग के समाज में जागृति लाने का कार्य प्रारम्भ से किया। दलित वर्ग के लोगों का यज्ञोपवीत कराया और उन्हें समस्त धार्मिक कृत्यों में स्थान दिया। वोट के अधिकार से यह अधिकार अधिक सम्मानपूर्ण था। आर्यसमाज ने अपनी संस्था के द्वार सबके लिए खोल दिए, यज्ञ करने-कराने का अधिकार देकर अन्त्यजों में से याज्ञिक तैयार कर डाले। मंै तो दिल्ली में देखता हूँ कि हमारे याज्ञिकों से विवाह आदि संस्कार कराने में किसी पौराणिक प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी संकोच नहीं होता। हमारे पुरोहितों से कोई नहीं पूछता कि वे जन्मना किस वर्ग के हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद् सभी संस्थाएँ दलित वर्ग के व्यक्तियों को मन्दिरों में प्रवेश नहीं करा सकतीं। वे दलितों को पण्डित बन जाने पर भी बिड़ला जी के लक्ष्मीनारायण मन्दिर में पुजारी नहीं बना सकतीं और न वे उन्हें शंकराचार्य की गद्दी पर बिठा सकती हैं। हिन्दू मन्दिर में आप हरिजनों का एक बार बलात् प्रवेश करा भी दें, तो वे मन्दिर के प्राङ्गण को गंगाजल या गो-दुग्ध से धोकर पवित्र कर लेंगे। मैंने सुना था कि काशी के एक मन्दिर में जगजीवनराम जी के चले जाने पर ऐसा ही किया गया था।

पुरी के शंकराचार्यों ने अभी हाल में हरिजनों के सम्बन्ध में अनर्गल बातें कहीं थीं।

भाई अग्निवेश जी का मुझे २ जुलाई १९८८ का पत्र मिला है। वे चाहते हैंं कि मैं उनके साथ १० जुलाई के बाद नाथद्वारा में हरिजनों के साथ प्रवेश करने के लिए उदयपुर चलूं। मैंने जो उत्तर दिया है, उसकी प्रतिलिपि परोपकारी में प्रकाशनार्थ इस लेख के साथ भेज रहा हूँ।

‘‘भाई अग्निवेश आपका २ जुलाई का पत्र मिला। आप अपने आन्दोलनों से इन मूर्ख शंकराचार्यों को प्रोत्साहित न करें। मैं हरिजनों को मन्दिरों में ले जाकर मूर्तिपूजक नहीं बनाना चाहता। आप प्रोत्साहित करें कि आर्यसमाज मन्दिरों में ये अधिक से अधिक संख्या में आयें। आर्यसमाज में प्रतिबन्ध न होने पर भी ये अधिक संख्या में क्यों नहीं आते- हम तो इन्हें अपने संगठनों में ऊँचे-से-ऊँचा स्थान भी देते हैं- ये पुरोहित, ब्रह्मा, ऋत्विक् आदि के कर्म भी करते हैं। मूर्ख हिन्दुओं को अतिमूर्ख शंकराचार्यों से निपटने दीजिए।’’

हिन्दू मन्दिरों में जाकर ये हरिजन पायेंगे भी क्या? क्या उनमें से कोई शंकराचार्य बनने का अधिकारी भी हो सकेगा?

राष्ट्रीय पौराणिकों में यदि साहस हो तो वे घोषित करें कि जिन मन्दिरों में हरिजनों का प्रवेश करने का अधिकार न होगा, उनमें वे भी कभी नहीं जावेंगे, उनका वे बायकॉट करेंगे।

दलित वर्ग की समस्या सुलझाने के कतिपय उपाय निम्न हैं-

१. हरिजन शब्द का परित्याग तत्काल परम आवश्यक है।

२. राजनीतिक संरक्षण की अवधि समाप्त होनी चाहिए। जिसके परिवार को एक बार संरक्षण मिला गया, दोबारा नहीं मिलना चाहिए।

३. नगर के बाहर की बस्तियों से इन्हें निकालकर अन्य नागरिकों के बीच में ही प्रतिष्ठापूर्वक बसाना चाहिए।

४. नगर की सडक़ों और शौचालयों को सा$फ करने का काम द्विज नागरिकों को भी साधना चाहिए (कूड़ा गाड़ी, मैला गाड़ी का परिवहन शुद्धतापूर्वक सभी वर्ग के शिक्षित व्यक्ति करें।)

५. आर्यसमाज के अधिवेशनों में सम्मानपूर्वक लाना चाहिए और निर्वाचनों में इन्हें उच्चतम पद उनकी योग्यतानुसार मिलने चाहिएँ।

६. फैक्ट्रियों में अन्य श्रमिकों के साथ इनकी भी भरती होनी चाहिए।

७. इनको यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए और इनके घरों में, संस्थाओं में सभी प्यार से सम्मिलित हों।

८. यज्ञों में इन्हें सब लोग अपने घरों में ऋत्विक् बनावें।

अन्त भला सो भला:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

पूज्यपाद स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज एक उपदेश देते हुए एक अत्यन्त प्रेरक दृष्टान्त सुनाया करते थे। जिसका शीर्षक या सार था- ‘‘अन्त भला सो भला।’’ श्री पं. ओमप्रकाश जी वर्मा तथा इन पंक्तियों का लेखक प्राय: यह दृष्टान्त सुनाते रहे हैं। आज यहाँ इस दृष्टान्त को तो हम नहीं देंगे। उसके सार पर कुछ निवेदन करेंगे। हमने कई लडक़ों को, युवकों को व बोगस लीडरों को बड़ी-बड़ी डींगें मारते देखा । जिनको ‘आर्य राष्ट्र’ की डुगडुगी बजाते देखा वे भिन्न-भिन्न पार्टियों की परिक्रमा करने वाले दलबदलू निकले। हरियाणा के ओर-छोर लाल-लाल पगडिय़ाँ पहने, दाढ़ीधारी दर्जनों जीवनदानी देखे। ऋ षि दयानन्द के नाम की, उसके मिशन की रट लगाने वाले वे सब जीवनदानी कहाँ गये? आर्यसमाज पर वार-प्रहार हो तो हमने उस समय के और उस परम्परा के किसी जीवनदानी को कभी भी उत्तर देते नहीं देखा। हरियाणा में ही रामपाल ने महर्षि दयानन्द के विरुद्ध विषवमन करते हुये उत्पात मचाया। आचार्य बलदेव मैदान में उतरे। कई एक ने बलिदान दिया। वे जीवनदानी मौन रहे या दिखाई ही नहीं दिये।

डॉ. सुरेन्द्र जी, मान्य डॉ. धर्मवीर जी ने तथा इस लेखक ने लेखनी चलाकर उस उत्पाती को चुनौती दी। रामपाल की करतूतों पर एक विशेषाङ्क हरियाणा से छपा था। उसमें कई सज्जनों के लेख थे। हम तीनों के दो-दो लेख उस विशेषाङ्क में छापे गये। रामपाल को आर्यसमाज हिसार के नेता श्री हरिसिंह जी की प्रेरणा से परोपकारी में शास्त्रार्थ की हमने खुली चुनौती दी। कहाँ थे तब ये जीवनदानी?

सत्यार्थप्रकाश पर दिल्ली में विधर्मियों ने अभियोग चलाया। हमने कोर्ट में किसी जीवनदानी के दर्शन तब नहीं किये। अन्त भला सो भला। घुसपैठ करके यहाँ-वहाँ राजनीतिक उल्लू सीधा करने वाले घुसपैठिये बहुत देखे। मिशन की आग लेकर पं. शान्तिप्रकाश जैसे प्राणवीर क्यों दिखाई नहीं देते।

कोरबा से एक आर्य भाई ने हमारे एक पुराने लेख का सन्दर्भ देकर नरेन्द्रभूषण के बारे में कुछ पूछा। हमने उन्हें लिखा, भाई! क्या बतायें अन्त भला सो भला। हमारी कोमल भावनाओं का, हमारी दुर्बलता का शोषण करके वह वाणी व लेखनी का जादूगर हमें ठगता रहा। सत्यार्थप्रकाश के प्रकाशन के लिये उसे हमारे प्रधान डॉ. ओमप्रकाश जी ने धन भेजा। हमने उसे लिखा कि उनके पिता जी के नाम पर इसे छापा जावे। उसने पाँच-सात प्रतियों पर उनका फोटो व नाम देकर ग्रन्थ छापा। बिक्री का धन कहाँ गया? ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, श्रीकृष्ण, ऋषि जीवन, ऋषि के लघु ग्रन्थों के लिये धन दिया। चारों वेद संहिताओं के लिये धन दिया। गुरुकुल की स्थापना केरल में की। वहीं बैंक में स्थिर निधि रख दी। हमारे यहाँ के दो व्यक्तियों के आप ही हस्ताक्षर करके (हमें पता ही न दिया) सारा धन उसके पुत्र व पत्नी ने बैंक से निकलवाकर हड़प लिया।

हमारा महर्षि दयानन्द भवन (प्रान्तीय कार्यालय) उसके जीतेजी उसके पुत्र व पत्नी ने हड़प लिया। कई बार कई एक को चैक दिये जो बैंक से……….ऐसी धोखाधड़ी! इन दुष्कर्मों का फल उसने भोगा, उसका पुत्र व पत्नी भी भोग रहे हैं, भोगेंगे। एक बार त्रिशूर में कर्नाटक की सभा ने एक कार्यक्रम का आयोजन किया। श्री डॉ. हरिशचन्द्र जी भी वहाँ गये थे। हमें तो बाद में पता चला कि ये बाप-बेटे भी वहाँ गये। इन्होंने वहाँ भी करतूत कर के रंग में भंग डाला। सज्जनो! अन्त भला सो भला। परमात्मा जीवन के अन्तिम श्वास तक हमें पाप कर्मों से बचायें। हमारा पतन ऐसा न हो जो नरेन्द्र भूषण के परिवार का हुआ।

एक और शताब्दी:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

यह वर्ष देशवासियों के लिये एक और दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। आधुनिक युग में विमान का सर्वप्रथम आविष्कार करके उसकी उड़ान भरने वाले शिवकर बापू तलपदे एक देशभक्त भारतीय वैज्ञानिक की पुण्य तिथि की शताब्दी भी हम इस वर्ष मनायेंगे। मूलत: वह गुजराती थे, परन्तु मुम्बई में निवास करते थे। वह ऋषि के सच्चे, पक्के अनुयायी-विश्व के प्रथम आर्यसमाज के सदस्य थे। यदि उस समय देश स्वतन्त्र होता और कोई उत्साही प्रधानमन्त्री मोदी जैसा नेता होता तो आज शिवकर बापू तलपदे जी को विमान के आविष्कारक वैज्ञानिक के रूप में जाना जाता। एक देशभक्त वैदिक विद्वान् श्री विजय उपाध्याय द्वारा लिखित व सम्पादित एक खोजपूर्ण ग्रन्थ का परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशन किया जा रहा है। इसमें तलपदे जी का दुर्लभ साहित्य भी होगा। वर्षों की सतत् साधना के फलस्वरूप श्रीमान् उपाध्याय जी यह अनूठा ग्रन्थ आर्य जाति को भेंंट कर रहे हैं।

क्या हम आशा करें कि गुजरात, महाराष्ट्र की देशप्रेमी जनता महर्षि दयानन्द, छत्रपति शिवाजी महाराज, शूर शिरोमणि श्याम जी भाई और सरदार पटेल से ऊर्जा प्राप्त कर इस शताब्दी को धूमधाम से मनायेगी। श्री शिवकर बापू तलपदे की जीवनी व उनके साहित्य के प्रसार में कौन सभा को आर्थिक सहयोग देने को आगे बढ़ता है-यह तो भविष्य बतायेगा।