All posts by Rishwa Arya

अवतारवाद पर उपाध्यायजी का मौलिक तर्कः

अवतारवाद पर उपाध्यायजी का मौलिक तर्कः

परोपकारी में मान्य सत्यजित् जी तथा श्रीमान् सोमदेव जी समय-समय पर शंका समाधान करते हुए बहुत पठनीय प्रमाण व ठोस युक्तियाँ देते रहे हैं। मान्य श्री सोमदेव जी तथा अन्य वैदिक विद्वानों से निवेदन किया था कि भविष्य में अपने पुराने पूजनीय विचारकों, दार्शनिकों का नाम ले लेकर उनके मौलिक चिन्तन व अनूठे तर्कों का आर्य जनता को लाभ पहुँचायें। इससे अपने पूर्वजों से नई पीढ़ियों को प्रबल प्रेरणा प्राप्त होगी। आज अवतारवाद विषयक पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय का एक सरल परन्तु अनूठा तर्क दिया जाता है।

किसी वस्तु में जब परिवर्तन होता है, तो वह पहले से या तो उन्नत होती है, बढ़िया बन जाती है और या फिर उसमें ह्रास होता है। वह पहले से घटिया हो जाती है। इसके नित्य प्रति हमें नये-नये उदाहरण मिलते हैं। शिशु से बालक, बालक से जवान और जवानी से बुढ़ापा-सब इस नियम के उदाहरण हैं। घर का सामान टूटता-फूटता है, मरमत होती है, तो दोनों प्रकार के उदाहरण मिल जाते हैं।

परमात्मा जब अवतार लेता है, तो अवतार धारण करके वह प्रभु पहले से बढ़िया बन जाता है, अथवा कुछ बिगड़ जाता है। दोनों स्थितियाँ तो हो नहीं सकतीं। पहले की स्थिति रह नहीं सकती। कुछ भी हो, प्रत्येक स्थिति में वह प्रभु पूर्ण परमानन्द तो नहीं कहा जा सकता। प्रभु अखण्ड एक रस तो न रहा। यह तर्क इस लेखक ने आज से 61 वर्ष पूर्व पढ़ा था। कभी कोई अवतारवादी इसके सामने नहीं टिक पाया।

कोई 45 वर्ष पूर्व केरल के कोचीन नगर में इस सेवक को व्यायान देना था। केरल के स्वामी दर्शनानन्द जी तब युवा अवस्था में थे। वह श्रोता के रूप में व्यायान सुन रहे थे। अवतारवाद को लेकर तब एक तर्क यह दिया कि राम, कृष्ण आदि सभी अवतार भारत में ही आये हैं। जर्मनी, इरान, जापान, मिस्र, सीरिया व अरब आदि देशों में आज तक कोई अवतार नहीं आया। जब-जब धर्म की हानि होती है और पाप बढ़ता है, भगवान् अवतार लेते हैं। अवतारवाद के इतिहास से तो यह प्रमाणित होता है कि भारत ऋषि भूमि-पुण्य भूमि न होकर पाप भूमि है। क्या यह कोई गौरव की बात है? जापान पर दो परमाणु बम गिराये गये। लाखों जन क्षण भर में मर गये। भगवान् ने वहाँ अवतार लिया क्या? भारत का विभाजन हुआ। लाखों जन मारे गये। कोई अवतार प्रकट हुआ? यह तर्क  सुनकर पीछे बैठे स्वामी श्री दर्शनानन्द जी फड़क उठे। वह दृश्य आज भी आँखों के सामने आ जाता है।

चाँदापुर के शास्त्रार्थ विषयक प्रश्नः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

चाँदापुर के शास्त्रार्थ विषयक प्रश्नः

उ.प्र. के दो तीन आर्य युवकों ने गत दिनों चलभाष पर चाँदापुर शास्त्रार्थ विषय में कुछ अच्छे प्रश्न पूछे। वे ऋषि मेले पर न पहुँच सके। आ जाते तो उनको नई-नई ठोस जानकारी दी जाती। राहुल जी  ने भारत सरकार के रिकार्ड से एक अभिलेख खोज कर दिया है। इसमें चाँदापुर शास्त्रार्थ में महर्षि के विशेष योगदान की चर्चा है। वहाँ गोरे, काले पादरी व कई मौलवी पहुँचे। इस्लाम का पक्ष देवबन्द के प्रमुख मौलाना मुहमद कासिम ने रखा। पादरी टी.जे. स्काट भी बोले। राजकीय रिकार्ड में केवल ऋषि जी के नाम का उल्लेख है। यह अपने आपमें एक घटना है। आर्य समाज स्थापित हुए अभी दो वर्ष भी नहीं हुए थे कि ऋषि के व्यक्तित्व का लोहा गोराशाही ने माना।

चाँदापुर शास्त्रार्थ के सबन्ध में हमने तत्कालीन नये-नये स्रोत खोज कर इस पर नया प्रकाश डाला है। राधा स्वामी मत के तीसरे गुरु हुजूरजी महाराज की पुस्तक में इस विषय में बहुत महत्त्वपूर्ण नये व ठोस तथ्य हमें मिले हैं। वह उस युग के जाने माने लेखक थे। ‘आर्य दर्पण’ का वह अंक भी हमारे पास है, जिसमें यह शास्त्रार्थ छपा था।

शास्त्रार्थ हुआ ही क्यों?

चाँदापुर में मेला पहले भी हुआ करता था। सन् 1877 का मेला कोई पहली बार नहीं हुआ था। पादरी व मौलवी मेले पर आकर अपने-अपने मत का प्रचार किया करते थे। गये वर्ष के मेले में यह प्रसिद्ध हो गया कि मौलवी जीत गये और कबीर पंथी हार गये। मुंशी इन्द्रमणि जी व ऋषि जी को मुंशी मुक्ताप्रसाद व मुंशी प्यारेलाल ने बचाव के लिए ही तो बुलवाया था। यह बात स्पष्ट रूप से राधास्वामी गुरुजी ने लिखी है। एक लेखक ने लिखा है कि इन दो बन्धुओं का झुकाव कबीरपंथ की ओर था। यह कोरी कल्पना है। वे तो कुल परपरा से ही कबीर पंथी थे अतः यह हदीस गढ़न्त है। हरबिलास जी आदि का यह कथन सत्य है कि मुक्ताप्रसाद जी का झुकाव ऋषि की शिक्षा की ओर था। मेले के बाद दोनों बन्धु आर्य समाज से जुड़ते गये। इसके पुष्ट प्रमाण परोपकारिणी सभा तथा श्री अनिल आर्य जी,महेन्द्रगढ़ को सौंप दिये हैं।

सब बड़े-बड़े लेखकों ने (लक्ष्मणजी के ग्रन्थ में भी) यह लिखा है कि मौलवी व पादरी चाँदापुर पहुँचे। फिर कुछ लोगों ने ऋषि जी से कहा कि हिन्दू मुसलमान मिलकर ईसाइयों से शास्त्रार्थ करके इन्हें पराजित करें। प्रश्न यह भी पूछा गया है कि ये कुछ लोग कौन थे? हमारा स्पष्ट उत्तर है कि ऐसा मुसलमानों ने कहीं कहा था। पूछा गया है कि इसका प्रमाण क्या है? हमारा उत्तर है- बस तथ्य सुस्पष्ट हैं और प्रमाण क्या चाहिये? ईसाइयों को तो पराजित करने के लिए मिलकर शास्त्रार्थ करने को कहा गया था सो ये लोग ईसाई हो नहीं सकते थे। हिन्दुओं को विशेष रूप से कबीर पंथियों को मुसलमान बनाने के लिए मौलवी जोर मार रहे थे। चिढ़ा भी रहे थे। मुसलमानों से रक्षा के लिए हिन्दुओं ने ऋषि जी को बुलवाया था, सो हिन्दू अब मुसलमानों से मिलकर ईसाइयों को क्यों पछाड़ने की बात कहेंगे। बड़ा खतरा तो मुसलमान थे।

श्री शिवव्रतलाल (हजूरजी महाराज) के वृत्तान्त से और प्रसंग से पहले मौलवियों व पादरियों के आगमन की सबने चर्चा की है। इससे स्पष्ट है कि ‘‘ये कुछ लोग’’ मुसलमान ही थे। बिना प्रमाण के हमने कुछ नहीं लिखा है। दुर्भाग्य से भ्रमित करने वालों की हजूरजी महाराज की पुस्तक तक पहुँच नहीं है। हजूरजी मूलतः कबीरपंथी ही तो थे, सो वह सब कुछ जानते थे। थे भी उ.प्र. के। पूजनीय स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी आदि के उपदेश, आदेश सुनकर सप्रमाण लिखना मेरा स्वभाव बन चुका है। पक्षपात के रोग से ग्रस्त होकर बड़े जोर से मेरे लेख पर आपत्ति की गई कि मौलवियों या मुसलमानों ने ऋषि जी से कहाँ कहा था कि हिन्दू मुसलमान मिलकर ईसाइयों से शास्त्रार्थ करें? इस सोच के व्यक्ति क्या जानें कि श्री पंडित लेखराम जी ने अपने एक प्रसिद्ध ग्रन्थ में यही बात लिखी है। किसी की पहुँच हो तो पढ़ ले।

 

माई भगवती जीः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

माई भगवती जीः ऋषि के पत्र-व्यवहार में माई भगवती जी का भी उल्लेख है। ऋषि मिशन के प्रति उनकी सेवाओं व उनके जीवन के बारे में अब पंजाब में ही कोई कुछ नहीं जानता, शेष देश का क्या कहें? पूज्य मीमांसक जी की पादटिप्पणी की चर्चा तक ही हम सीमित रह गये हैं। पंजाब में विवाह के अवसर पर वर को कन्या पक्ष की कन्यायें स्वागत के समय सिठनियाँ (गन्दी-गन्दी गालियाँ) दिया करती थीं। वर भी आगे तुकबन्दी में वैसा ही उत्तर दिया करता था। आर्य समाज ने यह कुरीति दूर कर दी। इसका श्रेय माता भगवती जी की रचनाओं को भी प्राप्त है। मैंने माताजी के ऐसे गीतों का दुर्लभ संग्रह श्री प्रभाकर जी को सुरक्षित करने के लिये भेंट किया था।

मैं नये सिरे से महर्षि से भेंट की घटना से लेकर माताजी के निधन तक के अंकों को देखकर फिर विस्तार से लिखूँगा। जिन्होंने माई जी को ‘लड़की’ समझ रखा है, वे मीमांसक जी की एक टिप्पणी पढ़कर मेरे लेख पर कुछ लिखने से बचें तो ठीक है। कुछ जानते हैं तो प्रश्न पूछ लें। पहली बात यह जानिये कि माई भगवती लड़की नहीं थी। ‘प्रकाश’ में प्रकाशित उनके साक्षात्कार की दूसरी पंक्ति में साक्षात्कार लेने वालों ने उन्हें ‘माता’ लिखा है। आवश्यकता पड़ी तो नई सामग्री के साथ साक्षात्कार फिर से स्कैन करवाकर दे दूँगा। श्रीमती व माता शदों के प्रयोग से सिद्ध है कि उनका कभी विवाह अवश्य हुआ था।

महात्मा मुंशीराम जी ने उनके नाम के साथ ‘श्रीमती’ शद का प्रयोग किया है। इस समय मेरे सामने माई जी विषयक एक लोकप्रिय पत्र के दस अंकों में छपे समाचार हैं। इनमें किसी में उन्हें ‘लड़की’ नहीं लिखा। क्या जानकारी मिली है- यह क्रमशः बतायेंगे। ऋषि के बलिदान पर लाहौर की ऐतिहासिक सभा में (जिसमें ला. हंसराज ने डी.ए.वी.स्कूल के लिए सेवायें अर्पित कीं) माई जी का भी भाषण हुआ था। बाद में माई जी लाहौर, अमृतसर की समाजों से उदास निराश हो गईं। उनका रोष यह था कि डी.ए.वी. के लिए दान माँगने की लहर चली तो इन नगरों के आर्यों ने स्त्री शिक्षा से हाथाींच लिया। माता भगवती 15 विधवा देवियों को पढ़ा लिखाकर उपदेशिका बनाना चाहती थी, परन्तु पूरा सहयोग न मिलने से कुछ न हो सका।

माई जी ने जालंधर, लाहौर, गुजराँवाला, गुजरात, रावलपिण्डी से लेकर पेशावर तक अपने प्रचार की धूम मचा दी थी। आर्य जन उनको श्रद्धा से सुनते थे। उनके भाई श्री राय चूनीलाल का उन्हें सदा सहयोग रहा। ‘राय चूनीलाल’ लिखने पर किसी को चौंकना नहीं चाहिये। जो कुछ लिखा गया है, सब प्रामाणिक है। माई जी संन्यासिन नहीं थीं। उनके चित्र को देखकर यहा्रम दूर हो सकता है। वह हरियाना ग्राम की थीं, न कि होशियारपुर की। पंजाबी हिन्दी में उनके गीत तब सारे पंजाब में गाये जाते थे। सामाजिक कुरीतियों के निवारण में माई जी के गीतों का बड़ा योगदान माना जायेगा। मैंने ऋषि पर पत्थर मारने वाले पं. हीरानन्द जी के  मुख से भी माई जी के गीत सुने थे। उनके जन्म ग्राम, उनकी माता, उनके भाई की चर्चा पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती है, परन्तु पति व पतिकुल के बारे में कुछ नहीं मिलता। हमने उन्हीं के क्षेत्र के स्त्री शिक्षा के एक जनक दीवान बद्रीदास जी, महाशय चिरञ्जीलाल जी आदि से यही सुना था कि वे बाल विधवा थीं।

श्री रंगपा मंगीशः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री रंगपा मंगीशः

ऋषि के प्रति आकर्षित होकर वेद के लिए समर्पित होने वाले उनके सच्चे पक्के भक्तों में रंगपा मंगीश की आर्य समाज में कभी भी कहीं भी चर्चा नहीं सुनी गई। वे दक्षिण भारत के प्रथम आर्य समाजी थे। यह भ्रामक विचार है कि धारूर महाराष्ट्र का आर्य समाज दक्षिण भारत का पहला आर्य समाज है। कर्नाटक आर्य समाज का इतिहास लिखते समय और फिर लक्ष्मण जी के ग्र्रन्थ पर कार्य करते हुए तत्कालीन कई पुष्ट प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा चुका है कि मंजेश्वर ग्राम मंगलूर कर्नाटक के श्री रंगपा मंगीश दक्षिण भारत के पहले आर्य समाजी युवक थे। उनका दान परोपकारिणी सभा तक भी पहुँचता रहा। ऋषि दर्शन करके, उनके व्यायान सुनकर और संवाद करके वह युवक दृढ़ वैदिक धर्मी बना था। भारत सुदशा प्रवर्त्तक में उनकी मृत्यु का विस्तृत समाचार सन् 1892 के एक अंक में हमने पढ़ा है। अभी कुछ दिन पूर्व ऋषि के पत्रों पर कार्य करते समय भी उनकी चर्चा पढ़ी, पर वह नोट न की गई। वेद भाष्य के अंकों में ग्राहकों में भी इनका नाम मिलेगा। आर्य समाज के इतिहास लेखकों ने तो कहीं मंगलूर के इस समाज की कतई चर्चा नहीं की।

What is Jihad: Abhula La Maududi

Muslims now a days find out various meaning of Jihad. Some says is a spiritual struggle within oneself against sin. Some describes as Jihad is not a violent concept. Jihad is not a declaration of war against other religions etc etc.

Let’s have a view of Abhuda Ala Maududi on this point . He (25 September 1903 – 22 September 1979), was an Indian-Pakistani scholarphilosopherjuristjournalistislamist and imam.

He strove not only to revive Islam as a renewer of the religion, but to propagate “true Islam”.

He believed that politics was essential for Islam and that it was necessary to institute sharia and preserve Islamic culture from what he saw as the evils of secularismnationalism, and women’s emancipation.

He was the founder of the Jamaat-e-Islami, the largest Islamic organisation in Asia. He and his party are thought to have been the pioneer in politicizing islam and generating support for an Islamic state in Pakistan. They are thought to have helped inspire General Muhammad Zia-ul-Haq to introduce “Sharization” to Pakistan.

 

The word ‘Jihād’ is commonly translated into English as ‘the Holy War’ and for a long while now the word has been interpreted so that it has become synonymous with a ‘mania of religion’.

 

The word ‘Jihād’ conjures up the vision of a marching band of religious fanatics with savage beards and fiery eyes brandishing drawn swords and attacking the infidels wherever they meet them and

.pressing them under the edge of the sword for the recital of Kalima

 

What Jihad Really is?:  Forcing views on others…

 

In reality Islam is a revolutionary ideology and programme which seeks to alter the social order of the whole world and rebuild it in conformity with its own tenets and ideals. ‘Muslim’ is the title of that International Revolutionary Party organized by Islam to carry into effect its revolutionary programme.

And ‘Jihād’ refers to that revolutionary struggle and utmost exertion which the Islamic Party brings into play to achieve this objective.

Objective to destroy all states:

Islam wishes to destroy all states and governments anywhere on the face of the earth which are opposed to the ideology and programme of Islam regardless of the country or the Nation which rules it.

The purpose of Islam is to set up a state on the basis of its own ideology and programme, regardless of which nation assumes the role of the standard-bearer of Islam or the rule of which nation is undermined in the process of the establishment of an ideological Islamic State.

Want to rule whole world:

Islam requires the earth—not just a portion, but the whole planet—not because the sovereignty over the earth should be wrested from one nation or several nations and vested in one particular nation. Islam wishes to press into service all forces which can bring about a revolution and a composite term for the use of all these forces is ‘Jihad’.

The Need and Objective of Jihad: Destroy un-Islamic civilizations

Those who affirm faith in Islamic ideology become members of the party of Islam.

In this manner, an International Revolutionary Party is born to which Qur’an gives the title of ‘Hizb Allah’ and which alternatively is known as Islamic Party or the Ummah of Islam’.

As soon as this party is formed, it launches the struggle to obtain the purpose for which it exists. The rationale for its existence is that it should Endeavour to destroy the hegemony of an un-Islamic system and establish in its place the rule of that social and cultural order which regulates life with balanced and humane laws, referred to by the Qur’an with the comprehensive term ‘the

word of God’.

Objectives of Jihadis as explained by Quran:

The Holy Qur’an enunciates only one purpose of the genesis of this party and that is:

“You are the best people, raised for mankind, exhorting good and warding off evil and believing in Allah.” (3: 110)

It is their objective to shatter the myth of the divinity of demi-gods and false deities and reinstate good in place of evil.

(1) “And fight them until there is no persecution and religion is professed for Allah.” (2: 193).)

(2) “If you do not do (that you are enjoined) there will be mischief in the earth and tremendous disorder”. ( 8: 73)

(3) “He is Who sent His Messenger with guidance and the religion of truth, he may make it dominant over all religions, even if the polytheists resent it”. ( 9: 33)

No system other than Islamic is allowed to be in existence :

Hence this party is left with no other choice except to capture State Authority. No party

which believes in the validity and righteousness of its own ideology can live according to its precepts under the rule of a system different from its own.

Extirpate rule of Opposing Ideology

it is impossible for a Muslim to succeed in his intention of observing the Islamic pattern of life under the authority of a non-Islamic system of government. All rules which he considers wrong; all taxes that he deems unlawful; all matters which he believes to be evil; the civilization and way of life which, in his view, are wicked; the education system which seems to him as fatal—all these will be so inexorably imposed on him, his home and his children that evasion will become impossible.

Hence a person or a group of persons are compelled by the innate demand of their faith to

strive for the extirpation of the rule of an opposing ideology and setting up a government which follows the programme and policies of their own faith, for under the authority of a government professing inimical doctrines, that person or group of persons cannot act upon their own belief. If these people evade their duty of actively striving for this end, it clearly implies that they are hypocrites and liars in their faith.

“May Allah forgive you (O Muhammad) Why didst you permitted them (to remain behind) till had become manifest to you those who were truthful and who were liars. Those who believe in Allah and the Last Day, will not seek permission (for exemption) from striving with their riches

and their lives. And Allah knows the righteous Only those will seek permission from you (to be exempted) who do not believe in Allah and the Last Day and whose hearts are full of doubts and in their doubts they waver.” (9: 43-45)

 

In these words, the Qur’an has given a clear and definite decree that the acid test of the true devotion of a party to its convictions is whether or not it expends all its resources of wealth and life in the struggle for installing its faith as the ruling power in the State.

 

Eliminate rule of un-Islamic system

It must be evident to you from this discussion that the objective of the Islamic ‘ Jihād’ is to eliminate the rule of an un-Islamic system and establish in its stead an Islamic system of state rule. Islam does not intend to confine this revolution to a single state or a few countries; the aim of Islam is to bring about a universal revolution. Although in the initial stages it is incumbent upon members of the party of Islam to carry out a revolution in the State system of the countries to which they belong, but their ultimate objective is no other than to effect a world revolution.

The same conception has been enunciated by the Holy Qur’an in the following words:

“What has happened to you? Why don’t you fight in the way of God in support of men, women and children, whom finding helpless, they have repressed; and who pray, “O God! liberate us

from this habitation which is ruled by tyrants”. (4: 75).

Hence it is imperative for the Muslim Party for reasons of both general welfare of humanity and self-defence that it should not rest content with establishing the Islamic System of Government in one territory alone, but to extend the sway of Islamic System all around as far as its resources can carry it.

Forceful conversation of un Islamic establishments:

The Muslim Party will inevitably extend invitation to the citizens of other countries to embrace the faith which holds promise of true salvation and genuine welfare for them. Even otherwise also if the Muslim Party commands adequate resources it will eliminate un-Islamic Governments and establish the power of Islamic Government in their stead. It is the same policy which was executed by the Holy Prophet (peace of Allah be upon him) and his successor illustrious caliphs (may Allah be pleased with them). Arabia, where the Muslim Party was founded, was the first country which was subjugated and brought under the rule of Islam. Later the Holy Prophet (peace of Allah be upon him) sent invitations to other surrounding states to accept the faith and ideology of Islam.

 

Historical Evidence of such wars initiated by Mohemmad and Khalifas

 When the ruling classes of those countries declined to accept this invitation to adopt the true faith, the Prophet (peace of Allah be upon him) resolved to take military action against them.

The war of Tubuk was the first in the series of military actions. When Hadrat Abu Bakr  assumed leadership ofthe Muslim Party after the Prophet have had left for his heavenly homes he launched an invasion of Rome and Iran, which were under the dominance of un-Islamic Governments. Later, Hadrat ‘Umar  carried the war to a victorious end.

The citizens of Egypt, Syria, Rome and Iran initially took these military actions as evidence of the imperialist policy of the Arab nation.

This is treason: Dr. Dharmveer

This is treason 

“ Pakistan Zindabad, India will bleed with a thousand cuts, How many Afzal’s will you sentence to death when each house will given birth to an Afzal, Kasmir will win its freedom, This fight will continue till India is destroyed”. These slogans even if heard in Pakistan would have been enough to make us agitated. We would have cursed Pakistan, made some announcements condemning the episode may be even announced action, but these slogans were heard on the 9th February in India’s capital at the Jawaharlal Nehru University. These slogans were raised by the students of the university. These slogans were repeated and the sentencing of the terrorist Afzal Guru was claimed to be the murder of justice. The Supreme court of India and her constitution were cursed repeatedly. Can a country expect its very own citizens to raise such slogans in the heart of its capital city and in a university! This is the tolerance of India! and it seems that these people are very miserable living in India.

JNU Delhi, has always been notorious for its anti national activities. From treason to nudity of Hindu goddesses, everything is seen to be a sign of being progressive, liberal and freedom of expression. The very foundation of this University is anti India. When the university was established it had all the departments except Sanskrit. When the then HRD Minister Murli Manohar Joshi decided to open Sanskrit department in the university, the students organized strikes, demonstrations and protests. However the central government went ahead and opened the Sanskrit department here.

The University also organized a beef festival on its campus which could not materialize due to protests by the ABVP and other hindu organizations. All the anti national and anti social activities are in the name of progress and freedom of expression.  These activities had so far not been brought to light and therefore no action had been taken. The past governments were also with them.  The University management and officials were also guardians of the same anti national brigade. The statement of the university professors and the officials in light of this incident is the result of the same tradition that has so far continued at this university.

Sandip Patra recently said on a news channel that the students and faculty who had earlier protested against the anti social and anti national activities at the university were punished, insulted and ultimately thrown out of the university.

When Zee news first broadcast the recent incident at JNU, the whole nation was enraged. Which citizen would hate his own country and detest his own fellow countrymen and claim his behavior to be his right. Those who study with the money paid for by the country declare their treason as their freedom of expression. There cannot be a greater misfortune for a country than this.  If this incident had transpired in China, Tiananmen square episode would have been repeated by now. The more disgraceful part of this episode is the way the media, political parties like Congress, AAP and the marxists are supporting these anti national students. Some want to dismiss this episode as just another incident by some outsiders and not the students. Others are trying to defend the incident as the freedom of expression.

This episode is nothing but treason and all those who are defending it are India’s traitors. Anyone who supports a traitor is also definitely a traitor himself. This episode could come to light because it was all captured over camera. When the president of the student union was brought before the judge he declined having shouted anti India slogans and blamed it on the outsiders. When he was shown the video evidence of him shouting the slogans, he blamed it on the students of ABVP of having spoilt the JNU environment. Basically he is saying that to stop a thief from stealing is spoiling the environment.  Some shameless politicians have also adopted this line and saying that it is not confirmed who was shouting the anti national slogans. They are also saying that the police should not enter the university campus to arrest these anti national students. It is interesting to note that the Pakistan supports can stay there, pakistani spies can live there, but the police protecting Indian citizens cannot enter the university.

 

We should also note here that this is not the first incident of this kind. There has been a chronology of such events. A similar episode had happened in Hyderabad. However a camera recording was not available for that incident. There it was associated with the atrocities on the Dalits. In the Hyderabad University more than 300 students had gathered to protest against the death sentence given to Yakub Menon. Students prayed for his soul and shouted that Yakub Menon will be born in each house. One of the member of the students’ council protested against this episode and wrote a scathing piece on his Facebook page. More than 30 Yakub Menon supporters dragged him out of his room in the middle of the night, beat him up and forced him to write an apology letter and got his Facebook post removed. Is this tolerance? Is it freedom of expression or social justice? Even if you do wrong it is your freedom of expression and if someone protests you will kill him? The mother of the student approached the court after this episode. The students of the University went on a strike and amidst all this the student” Rohit” committed suicide. The politicians and the anti national forces used this episode as the atrocities of the Modi Government on the Dalits and oppressed class. Rahul Gandhi and Kejriwal went to Hyderabad University to express their solidarity with the students. No one wants to pay attention to the real cause of this incident. No one went their to dissuade the students and no one criticized their actions.

 

The JNU episode is the second in the series. The student Rohit from Hyderabad had written to the central government to intervene and put an episode to such incidents. The central government’s response was in the interest of the society and the country. But India is a nation of Jaichands. Today the Congress and the whole opposition is occupied with just one thing – to make every action and every episode as an act against the Modi Government.  While the students of JNU were shouting anti India slogans, another episode was taking place simultaneously. Pamphlets with photos of Afzal Guru and Yakub Menon were distributed. They were criticizing the death sentence awarded to these terrorists. This was organized in another liberal bastion, the press club of India. Needless to stay that the faculty members of JNU were also a part of this group.

 

Is it possible in any other country of the world to use the government institutions for anti national activities?  It can happen only in India because the enemies of the State are a part of the system and the government machinery. From Nehru to Sonia gandhi, the objective of all governments was the same – destruction of India’s culture and it traditions. It is a result of their policies that Indians do not take pride in their own country, culture and traditions. Newer generations consider our beliefs to be backward and obsolete. The Western traditions were glorified and considered ideal at the same time destroying our own values. JNU is an example of this policy. These policies have nurtured anti national elements in the country. To grab the power appeasement has been followed to such an extent that all anti national activities were ignored.

 

The protests against the JNU episode are the result of awareness in the general public. The fact that some members of the student council opposed it and that a couple of news channels like Zee news stood firm and brought this episode to light have made a judicial investigation and action possible. These traitors are weak and cowardly and most of them ran at the first sign of trouble. Some of them are still at large. If those arrested are dealt with strictly then most of the supporters and comrades would be seen absconding.

 

Anyone in public who supports Afzal guru, shouts Long live Pakistan, eulogizes terrorists is a traitor. Anyone who shouts slogans of “ Long live Khalistan, praises Bhindarwale and distributes pamphlets in support of his actions is a traitor. Those who support them are also guilty of treason. Treason is an unpardonable offense and if dealt with strictly and firmly it might restraint these anti national activities. The students, zee news and times now and the public who raised their voice against the anti national activities at JNU deserve to be lauded.

Our scriptures say that the traitors should be punished severely –

In a nation where leadership is strong and justice and punishments is severe, it does not let its subjects deviate from the righteous path.

स्तुता मया वरदा वेदमाता: आचार्य धर्मवीर जी

स्तुता मया वरदा वेदमाता-25

अहं तद्विद्वला पतिमयसाक्षि विषासहिः।

एक महिला को अपने अनुकूल जीवन साथी चुनने का अधिकार है। निर्णय महिला का है। ऐसा करने के लिये उचित आधार है- पति को अनुकूल बनाने की क्षमता, पति को सहन करने का सामर्थ्य। परिवार की धुरी महिला होती है। जैसे धुरी में भार सहने और भार को खींचने की क्षमता होती है, उसी प्रकार महिला में परिवार के सब लोगों को साथ रखने का सामर्थ्य होना चाहिए। इसके लिये प्रथम योग्यता सहनशील होना है। घर में जितने भी सदस्य हैं, सबकी अपनी-अपनी इच्छायें होती हैं। सभी चाहते हैं, उनकी बात मानी जाये, उनके अनुकूल कार्य हो, परन्तु ऐसा सदा सभव नहीं है।

परिवार की विशेषता होती है, इसमें वृद्ध भी होते हैं, युवा भी, बालक-बालिकायें, स्त्री-पुरुष। इन सब विविधताओं में सामञ्जस्य बैठाने के लिये बुद्धिमत्ता, सद्भाव, सहनशीलता की आवश्यकता है। मनुष्य की जब इच्छा पूरी नहीं होती, तो उसे क्रोध आता है, उस समय यदि सामने वाला भी क्रोध कर बैठेगा, तो असहमति लड़ाई में बदल जायेगी। यदि कोई अपने क्रोध पर नियन्त्रण नहीं कर सकता, तो दूसरे को अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण करना चाहिए। एक बार सोनीपत में आर्य समाज बड़ा बाजार का कार्यक्रम था। प्रसंग से एक परिवार में जाने का अवसर मिला, स्वाभाविक रूप से परिवार के समायोजन की चर्चा चली, तो गृहिणी ने समस्या के समाधान का सरल उपयोगी उपाय सुझाया। वह कहने लगी- यदि मेरे पति को किसी कारण से क्रोध आता है और वे ऊँची आवाज में बोलने लगते हैं, तो मैं दूरदर्शन की आवाज को ऊँचा कर देती हूँ। मेरे पति कुछ भी बोलते रहते हैं, मुझे सुनाई नहीं देता। कुछ देर बाद वे शान्त हो जाते हैं और सब सामान्य हो जाता है। जब कभी मुझे क्रोध आता है, तो मेरे पति छड़ी लेकर बाहर घूमने निकल जाते हैं, जब वे लौटते हैं तो सब शान्त हो चुका होता है। इसलिये वेद कहता है- पतिमयसाक्षि। मैं पति को सहन कर सकती हूँ।

एक और बात मन्त्र में कही, यह सहनशक्ति सामान्य नहीं, विशेष सहनशक्ति है। हमारे समाज में महिला को सहनशील बनने की बात की जाती है, परन्तु अत्याचार और प्रताड़ना को सहन करने की शक्ति सहनशीलता नहीं है। अन्याय का प्रतिकार करने में जो बाधा और कष्ट आते हैं, उन्हें सहन करने की शक्ति होनी चाहिए। परिवार में अलग विचारों के बीच तालमेल बैठाना, यह कार्य सहनशीलता के बिना सभव नहीं। हमारी इच्छा रहती है कि हम जो सोचते हैं- उसी को सबको स्वीकार करना चाहिए। यह धारणा सभी की हो तो पूर्ण होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। ऐसी स्थिति में परिवार में विवाद की स्थिति बनी रहती है।

हमें मनुष्य स्वभाव का भी स्मरण रखना चाहिए कि परिवार में सब प्रेम से रहें, लड़ाई-झगड़ा न करें, यह उपदेश तो ठीक है, परन्तु ऐसा होना कठिन ही नहीं, असभव भी है। हम चाहते हैं कि दूसरा मेरे अनुसार चले, उसे अपने को बदलना चाहिए। यह उपाय कभी सफल नहीं होता। इसका उपाय है, जो सदस्य जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया जाय। उसको स्वीकार कर लिया जाय तो उपाय हमको करना पड़ता है। हम मार्ग से जा रहे हैं, मार्ग टूटा हुआ आता है, तब हम मार्ग सुधारने में नहीं लगते और न ही यात्रा स्थगित करते हैं। हम उस मार्ग से बचकर निकलने का उपाय करते हैं। उसी प्रकार परिवार में विवाद होने की दशा में बचने का उपाय सहनशीलता है। आवेश के समय को बीत जाने देते हैं, तो परिवार का वातावरण सहज होने में समय नहीं लगता। विवाद हो जाये, यह स्वाभाविक हैं, परन्तु इस विवाद को समाप्त करने के लिये संवाद का मार्ग सदा खुला रखना होता है। परिवार के सन्दर्भ में रुष्ट सदस्य को संवाद के द्वारा मनाया जा सकता है, सामान्य किया जा सकता है। मत-भिन्नता की दशा में समझाने के प्रयास निष्फल होने पर सहना ही एक उपाय शेष रहता है। इसी कारण इस मन्त्र में एक शद आया है- विषासहिः। इसका अर्थ है विशेष रूप से सहन करने की शक्ति। इसी उपाय से जो वस्तु प्राप्त है, उसे बचाया जा सकता है।

यहाँ सहन करने की बात स्त्री के सन्दर्भ में क्यों कही गई है, क्योंकि परिस्थितियों के चुनाव का अधिकार स्त्री को दिया गया है। उसकी घोषणा है- अपने सौभाग्य की निर्मात्री मैं स्वयं हूँ। मैंने श्रेष्ठ सिद्ध करने की घोषणा की, मैं सूर्य के समान तेजस्विनी हूँ। जब पति को मैंने प्राप्त किया है, मेरी इच्छा से मेरे चुनाव से मैंने पाया है, तो पति को और परिवार को अपनी सहनशीलता से जोड़कर रखने का उत्तरदायित्व भी मेरा ही है। यही घोषणा इस मन्त्र में की गई है।

VED

जागरण की बात कर लें। – रामनिवास गुणग्राहक

 

आ तनिक उठ बैठ अब कुछ जागरण की बात कर लें।

अथक रहकर लक्ष्य पा ले, उस चरण की बात कर लें।।

जगत् में जीने की चाहत, मृत्यु से डरती रही है।

जिन्दगी की बेल यूँ, पल-पल यहाँ मरती रही है।।

प्राण पाता जगत् जिससे, उस मरण की बात करे लें-

अथक रह कर लक्ष्य पा ले.-

सत्य से भटका मनुज, पथा्रष्ट होकर रह गया है।

उद्दण्डता का आक्रमण, मन मौन होकर सह गया है।।

उद्दण्डता के सामने सत्याचरण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा ले.-

परिश्रम से जी चुराना साहसी को कब सुहाता?

उच्च आदर्शों से युत्र्, जीवन जगत् में क्या न पाता??

साहसी बन आदर्शों के, अनुकरण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा ले.-

दोष, दुर्गुण, दुर्ष्यसन का, फल सदा दुःख दुर्गति है।

सुख सुफल है सद्गुणों का, सज्जनों की समति है।।

संसार के सब सद्गुणों के संवरण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा ले. –

हैं करोड़ों पेट भूखे, ठण्ड से ठिठुरे बदन हैं।

और कुछ के नियंत्रण में, अपरिमित भूषण-वसन हैं।।

भूख से व्याकुल उदरगण के भरण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा ले.-

अन्न जल से त्रस्त मानव का हृदय जब क्रुद्ध होगा।

सूाी आंतो का शोषण से, तब भयानक युद्ध होगा।।

निरन्तर नजदीक आते, न्याय-रण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा लें

आर्यसमाज शक्तिनगर

Bhajan

. क्या वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अलावा दूसरे धर्म शास्त्रों को मानने वाले को मुक्ति मिलेगी? : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा:- . क्या वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अलावा दूसरे धर्म शास्त्रों को मानने वाले को मुक्ति मिलेगी?

समाधान

हमने लिखा-मुक्ति ज्ञान से होती है और शुद्ध ज्ञान का भण्डार वेद व वेदानुकूल शास्त्र हैं। इनके अतिरिक्त जितने भी मतवादियों ने अपने-अपने ग्रन्थ बना रखे हैं, उनमें पूर्ण सत्य नहीं है और जो सत्य है भी, वह वेदादि का ही है। अन्य मतवादियों के ग्रन्थों में सृष्टि विरुद्ध बातें प्रचुर मात्रा में हैं, पाखण्ड और अन्धविश्वास से पूर्ण बातें उनके ग्रन्थों में हैं। इस प्रकार की बातों से युक्त ग्रन्थों को मानने वाली मुक्ति कैसे हो सकती है, यह आप भी विचार कर देखें।

इसलिए वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अतिरिक्त अन्य मतवादियों के ग्रन्थों को मानने वालों की मुक्ति सभव नहीं है। महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के पठन-पाठन विषय में स्पष्ट लिखा कि-

यो मनुष्यो वेदार्थान्न वेत्ति स नैव तं बृहन्तं

परमेश्वरं धर्मं विद्यासमूहं वा वेत्तुमर्हति।

कुतः सर्वासां विद्यानां वेद एवाधिकरणमस्त्यतः।

न हि तमविज्ञाय कस्यचित् सत्य विद्या प्राप्तिभवितुर्महति।।

यहाँ महर्षि का कहने का भाव है कि जो मनुष्य वेदार्थ को नहीं जानता, वह कभी उस महान् परमेश्वर, धर्म और विद्या समूह को जानने में समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि सभी सत्य विद्याओं का वेद ही आधार है, इसलिए उस वेद को जाने बिना  किसी को सत्यविद्या प्राप्त नहीं हो सकती।

Moksh

क्या यम-नियम का पालन करने वाले व धार्मिक सेवा कार्य में लगे हुए व्यक्ति को मुक्ति मिलेगी?: आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा- 

क्या यम-नियम का पालन करने वाले व धार्मिक सेवा कार्य में लगे हुए व्यक्ति को मुक्ति मिलेगी?

समाधान:-

मुक्ति के लिए मनुष्य यम-नियम का पालन करते हुए धार्मिक कार्य करे, इससे उसके अच्छे संस्कार बनेंगे। मुक्ति के लिए रास्ता तो खुलेगा, किन्तु केवल इतने मात्र से मुक्ति नहीं होगी। मुक्ति के लिए महर्षि ने कहा है, ‘‘पवित्र कर्म, पवित्रोपासना और पवित्र ज्ञान ही से मुक्ति…….’’। स.प्र. 9

यहाँ प्रमाण देने का तात्पर्य यह है कि केवल यम-नियम अनुष्ठान और धार्मिक सेवाकार्य से मुक्ति नहीं होगी। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि धार्मिक सेवा कार्य आदि मुक्ति में बाधक हैं।

यम-नियम के अनुष्ठान और धार्मिक सेवा कार्य से व्यक्ति के अन्तःकरण में श्रेष्ठ संस्कार पड़ते हैं, जिससे व्यक्ति का उपासना में मन लगता है और उससे ज्ञान ग्रहण करने की योग्यता बढ़ती है। जैसा जिसका जितना शुद्ध ज्ञान होगा, वह वैसा  उतना अपने अविद्या के संस्कारों को नष्ट करेगा। जब पूर्ण रूप से अविद्या के संस्कार नष्ट हो जाते हैं, तब मुक्ति की अवस्था आती है। मुक्ति न तो कर्म से होती और न ही उपासना से, मुक्ति तो ज्ञान से ही सभव है। महर्षि कपिल ने अपने शास्त्र में लिखा- ‘‘ज्ञानात् मुक्तिः।।’’ जीवात्मा की मुक्ति ज्ञान से होती है। ‘‘बन्धो विपर्ययात्।।’’ अज्ञान से बन्धन होता है। ‘‘नियतकारणत्वान्न समुच्चयविकल्पौ ’’ मुक्ति प्राप्ति में ज्ञान की नियतकारणता है, अनिवार्य कारणता है, अर्र्थात् मुक्ति प्राप्ति में ज्ञान ही निश्चित कारण है। इसलिए न तो ज्ञानके साथ अन्य साधन मिलकर मुक्ति देते हैं और न ही ऐसा है कि ज्ञान से भी मुक्ति हो सकती है अथवा शुद्ध कर्म व उपासना से भी। मुक्ति के लिए तो केवल ज्ञान ही साधन बनता है, अन्य नहीं।

इसका कोई यह अर्थ न निकाले कि कर्म और उपासना की कोई महत्ता ही नहीं है, क्योंकि मुक्ति के लिए तो ज्ञान की ही आवश्यकता है। कर्म और उपासना का अपना महत्त्व है। शुद्ध कर्म और शुद्ध उपासना के करने से व्यक्ति के अन्दर सात्विक भाव उत्पन्न होते हैं। इस सात्विक स्थिति में ही व्यक्ति शुद्ध ज्ञान को ग्रहण करता चला जाता है। शुद्ध ज्ञान के होने पर अविद्या के संस्कार ढीले होने लगते हैं। धीरे-धीरे शुद्ध ज्ञान से साधक अपने अविद्यादि क्लेशों को पूर्ण रूप से नष्ट कर देता है। जब अविद्यादि क्लेश पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं, तब साधककी मुक्ति सभव हो जाती है।

इसलिए केवल यम-नियम का पालन करने अथवा धार्मिक सेवा कार्य करने से मुक्ति मिल जायेगी-ऐसा नहीं है। यम-नियम का पालन और धार्मिक सेवा कार्य का अपना एक फल है और वह अच्छा ही फल होगा, किन्तु इनका फल मुक्ति नहीं है। ये सब करते हुए योगायास करें और ज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो जायें।

(