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आयशा मुहम्मद साहब को रसूल नहीं मानती थीं : फ़रोग़ काज़मी

अहादीस, रवायत और तारीख़ के मजाज़ी परदों में लिपटी हुई उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा की तहदार और पुरअसरार शख़्सियत आलमें इस्लाम में तअर्रूफ़ की मोहताज नहीं। हर शख़्स जानता है कि आप ख़लीफ़ा ए अव्वल ( हजऱत अबू बक्र) की तलव्वुन मिज़ाज बेटी और पैग़म्बर इस्लाम हज़रत मोहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की ग़ुस्ताख़ और नाफ़रमान बीवी थीं। आपकी निस्वानी सरिश्त में रश्क, हसद, जलन, नफ़रत, अदावत, ख़ुसूमत, शरारत, ग़ीबत, ऐबजुई, चुग़लख़ोरी, हठधर्मी, ख़ुदपरस्ती, कीनापरवरी और फ़ित्ना परदाज़ी का उनसुर बदर्जा ए अतम कारफ़रमा था।

रसूल (स.अ.व.व) की ज़ौजियत और ख़ुल्के अज़ीम की सोहबत से सरफ़राज़ होने के बावजूद आपका दिल इरफ़ाने नबूवत से ख़ाली और ना आशना था आपकी निगाहों में नबी और नबूवत की क़द्रो मन्ज़िलत यह थी कि जब आप पैग़म्बर से किसी बात पर नाराज़ हो जाती और आपका पारा चढ़ जाता तो पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व) को नबी कहना छोड़ देती, बल्कि इब्राहीम का बाप कहकर मुख़ातिब किया करतीं थीं।(1)
जसारतों और ग़ुस्ताख़ियों का यह हाल था कि एक बार आपने झगड़े के दौरान पैग़म्बर (स.अ.व.व) से यह भी कह दिया किः-
आप ये गुमान करते हैं कि मैं अल्लाह का नबी हूं।(2) (मआज़ अल्लाह)

नबी को नबी न समझने वाली या नबी की नबूवत में शक करने वाली शख़्सियत क्या इस्लाम की नज़र में मुसलमान हैं? इसका फ़ैसला मोहतरम कारेईन ख़ुद फ़रमा लें, क्यों कि बात साफ़ और वाज़ेह है।

1. बुख़ारीः- जिल्द 6 पेज न. 158
2. अहयाउल उलूम ग़ेज़ालीः- जिल्द 2 पेज न. 29

حضرت ایشا کی تاریخی حیثیت فروگ کاظمی

भारतीय संस्कृति एवं भाषाओं के रक्षार्थ समर्पित हैदराबाद यात्राः एक अनुभव – ब्र. सत्यव्रत

भारतीय संस्कृति एवं भाषाओं के रक्षार्थ समर्पित हैदराबाद यात्राः
एक अनुभव
– ब्र. सत्यव्रत
ऋग्वेदादि सहित सम्पूर्ण वैदिक आर्ष वाङ्मय ने यह प्रमाणित किया है कि प्राचीन विश्व में आर्य सर्वाधिक प्रतिभाशाली और शौर्यवान् थे। उन्होंने एक महान् संस्कृति को जन्म दिया। जिसकी श्रेष्ठता को प्रायः सभी आधुनिक विद्वान् स्वीकारते हैं। सच्चा ज्ञान सदा एक रस होता है, वह काल के बंधन में नहीं बँधता। अतः वैदिक ज्ञान आज की नवीनता से ही नवीन है। इस ज्ञान की हद में ही सृष्टि की सारी बातें हैं। महाप्राण ‘निराला’ के शब्दों में- ‘‘जो लोग कहते हैँ कि वैदिक अथवा प्राचीन शिक्षा द्वारा मनुष्य उतना उन्नत्तमना नहीं हो सकता, जितना अंग्रेजी शिक्षा द्वारा होता है, महर्षि दयानन्द इसके प्रत्यक्ष खण्डन हैं।’’
संस्कृति के निर्माण में भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। जब किसी देश की भाषा का ह्रास होता है तो वहाँ की संस्कृति भी प्रभावित होती है, मिट तक जाती है। हमारे सांस्कृतिक जीवन में यहाँ की भाषाओं का विशेष योगदान है। भाषा और संस्कृति का अन्योन्याश्रित संबंध होता है। १८३५ ई. में मैकाले ने अंग्रेजी भाषा के माध्यम से हमारे दश में एक भिन्न संस्कृति को प्रविष्ट कराने का प्रयास किया। इसका उद्देश्य बताते हुये स्वयं मैकाले ने लिखा था-
‘‘……अंग्रेजी पठित वर्ग रंग से भले ही भारतीय दिखेगा, परन्तु आचार-विचार, रहन-सहन, बोल-चाल और दिल-दिमाग से पूरा अंग्रेज बन जायेगा।’’ आजादी की भोरवेला में जब हमारा देश किसी नौनिहाल की तरह लड़खड़ाकर चलने की कोशिश कर रहा था तब भी गुलामी की मानसिकता में पले और दीक्षित हुये हमारे ही कुछ कर्णधारों ने देशभक्तों की भावनाओं का अनादर करते हुये भारतीय भाषाओं को पनपने नहीं दिया और अंग्रेजी को स्वतंत्र भारत में भी ‘साम्राज्ञी’ बनाये रखा। आज अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ आई हुई है और ऐसे स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है। सैम पित्रोदा के ‘ज्ञान आयोग’ की सिफारिश ने तो हमारे बच्चों को मातृभाषा से लगभग विमुख ही कर दिया । वे संस्कृत हिन्दी क्षेत्रीय भाषाओं और देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि से ही न सिर्फ वंचित हुये अपितु इन भाषाओं में विद्यमान उदात्त सांस्कृतिक मूल्यों व ज्ञान से भी दूर हो गये। आज अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त युवकों में जो नई संस्कृति जन्म ले रही है, वह स्वच्छन्द भोगवादी, पश्चिम की नकल और अपनी जड़ से कटी हुई है अधकचरी अंग्रेजी की नाव पर सवार हमारे भावी नागरिक न इस घाट के हैं, न उस घाट के। ऐसे में हमारी उदात्त सांस्कृतिक अस्मिता और विशिष्ट भारतीय पहचान का क्या होगा?
निश्चित रूप से भारतीय जाति की संस्कृति व जीवन मूल्यों को जीवित रखने के लिये, देश वासियों में अखण्ड राष्ट्रीय भावना को परिपुष्ट करने हेतु आज संस्कृत, हिन्दी को तथा भारतीय संस्कृति की धारा को प्रवाहहीन होने से बचाना होगा। हमारी संस्कृति में जो भी सर्वश्रेष्ठ व चिरन्तन सत्य है, प्राचीन ऋषियों से हमें जो दाय प्राप्त हुआ है उसका लाभ हमारे सभी देशवासी व सारी मानव जाति उठा सके इसके लिये तकनीकी स्तर पर एक सार्थक प्रयास करने की आवश्यकता है। यदि यह सुविधा बन जाय कि बिना अंग्रेजी या अन्य कोई भाषा जाने उस भाषा में लिखित ज्ञान-विज्ञान को मशीनी अनुवाद द्वारा कोई भी पढ़ सके तथा कोई भी अपनी बात का विचार का सम्प्रेषण संगणक (कम्प्यूटर) द्वारा अन्य भाषाओं में कर सके तो फिर अंग्रेजी भाषा सीखने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। साथ ही संस्कृत भाषा में लिखित वेद व आर्ष-वाङ्मय के ज्ञान-विज्ञान को हम अनेक भाषाओं में सुलभ करा सकते हैं, जिसका लाभ लेकर अंग्रेजी पठित हमारी नई पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ जायेगी और उनका यह भ्रम भी दूर हो जायेगा कि हमारे प्राचीन शास्त्रों में कुछ विशेष नहीं है।
इसी परिप्रेक्ष्य में भारतीय संस्कृति व भाषाओं पर आये इस आसन्न संकट के प्रति जागरुकता लाने, इसके समाधान के लिये योजना प्रस्तुत करने, लोगों को इस कार्यक्रम से जोड़ने तथा भाषाई दूरियाँ दूर करने के प्रयत्न करना आवश्यक है। वैज्ञानिक पहले आधारवाली पाणिनीय व्याकरण का उपयोग लेकर और अपने शास्त्रों के महत्त्व को दर्शाने हेतु विचार-मंथन के लिये अन्तर्राष्ट्रीय सूचना तकनीक संस्थान (ढ्ढ ट्रिपल आई.टी.), हैदराबाद में दिनांक ९ मई २०१६ से एक संगोष्ठी (सेमिनार) का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी में सहभागिता करने के लिये परोपकारिणी सभा द्वारा संचालित आर्ष गुरुकुल ऋषि उद्यान, अजमेर के वरिष्ठ ब्रह्मचारियों का एक दल आचार्य सत्यजित् जी एवं परोपकारिणी सभा के यशस्वी प्रधान डॉ. धर्मवीर जी के मार्गदर्शन में हैदराबाद के लिये रवाना हुआ। ६ मई २०१६ सायंकाल गुरुकुल से प्रारम्भ हुई यह यात्रा २७ मई प्रातःकाल गुरुकुल में प्रवेश के साथ सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई। इस यात्रा का अनुभव अत्यन्त ज्ञानवर्द्धक, हर्ष मिश्रित, रोमांचकारी व स्मरणीय घटनाओं से भरपूर है।
गर्मी के बावजूद लगभग ३१ घंटे की एक ओर की हमारी रेल यात्रा उत्साहपूर्वक पूर्ण हुई। सिकन्दराबाद रेल्वे स्टेशन पर रात्रि में एक बजे पहुँचते ही ट्रिपल आई.टी. के वरिष्ठ प्राध्यापक श्री शत्रुञ्जय जी रावत व उनके सेवाभावी सहयोगी अपनी गाड़ियों में बैठाकर हम सबको संस्थान के बाकुल छात्रावास में लाये जहाँ सुव्यवस्थित कमरों में हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। प्रो. शत्रुञ्जय जी हमारे आचार्य सत्यजित् जी के कनिष्ठ भ्राता हैं, जिनका अत्यन्त प्रेम भरा सहयोग एवं आत्मीयता हमें यात्रा समाप्ति तक मिलता रहा जो हमें सदा स्मरणीय रहेगा।
ट्रिपल आई.टी., हैदराबाद सन् १९९८ में स्थापित, अलाभकारी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल पर आधारित एक ग्रेड-ए स्वायत्तशासी शोध विश्वविद्यालय है-जो दक्षिण एशिया के छह शीर्ष-शोध विश्वविद्यालयों में एक है। इस संस्था का उद्देश्य शोध परक शिक्षा द्वारा समाज व उद्योग में सकारात्मक परिवर्त्तन लाना, नवाचार को प्रोत्साहित करना और मानवीय मूल्यों को पुनर्स्थापित करना है।
शेष भाग अगले अंक में…..

जिज्ञासा: जो मन्त्र ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ है, …..आचार्य सोमदेव

. जो मन्त्र ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ है, इसमें यजमान अलग से कहने की आवश्यकता क्या है? यह तो ठीक है कि यजमान के बिना यज्ञ कैसे होगा और उसका यज्ञ में विशेष महत्त्व भी है, परन्तु जब देव ही यज्ञ करने का अधिकार रखते हैं, मनुष्यों को यज्ञ करने का अधिकार ही नहीं है, फिर विश्वेदेवा में यजमान स्वतः ही आ जाता है। उसके लिए अलग से यजमान भी बैठ जाएँ-कहने का प्रयोजन क्या है? समझ नहीं आता है। हम तो यही सुनते थे कि शूद्रों को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। हम साधारण व्यक्ति तो यही समझे हैं कि उक्त मन्त्र में केवल सभी देव और यजमान के लिए बैठने का ही निर्देश नहीं है, बल्कि जलाई गई अग्नि को और अधिक प्रज्वलित करने के बारे में भी कहा गया होगा और इससे अन्य भी कोई महत्त्वपूर्ण बात है, इसलिए इस मन्त्र का क्रम इसी स्थान पर आता होगा, परन्तु सभी देवों और यजमान को इतने समय बाद बैठने का निर्देश देना समझ नहीं आता। यहाँ ‘‘सीदत’’ का कुछ अन्य भी अर्थ होगा। कृपया, समझाने का कष्ट करें।

(ग) इस तीसरे बिन्दु में भी आपकी वही समस्या है कि मनुष्यों को यज्ञ करने का अधिकार ही नहीं है, आपने यह बात कहाँ से कैसे निकाल डाली, ज्ञात नहीं हो रहा। जिस प्रकरण को लेकर आप यह बात कह रहे हैं, उस प्रकरण वा किसी अन्य स्थल से आप पहले यह प्रमाण दें कि मनुष्य यज्ञ करने का अधिकारी नहीं है। हाँ, इसके विपरीत मनुष्यों द्वारा यज्ञ करने के प्रमाण तो ऋषियों के अनेकत्र मिल जायेंगे। आप फिर उस बात को दोहरा रहे हैं कि देव ही यज्ञ करने के अधिकारी हैं, इस बात की भी सिद्धि नहीं होगी कि केवल देव ही यज्ञ कर सकते हैं।
अर्थात् मनुष्य यज्ञ करने का अधिकारी है, यह बात ऊपर शास्त्र से सिद्ध है। महर्षि दयानन्द लिखते हैं- ‘‘प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति-और छः छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिए।’’ स.प्र. ३। यहाँ महर्षि ने मनुष्य लिखा है और अन्यत्र भी मनुष्यों द्वारा यज्ञ विधान है, इसलिए मन्त्र में ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ दोनों को पढ़ा गया है। यजमान और सब देवों के स्थिर होने का प्रयोजन है। केवल देव अर्थात् विद्वान् अथवा केवल यजमान (मनुष्य) ही नहीं, अपितु ये दोनों उस यज्ञ रूपी श्रेष्ठ कर्म में स्थिर हों। इन दोनों को कहने रूप प्रयोजन से मन्त्र में दोनों को कहा है। अधिक जानने के लिए उपरोक्त महर्षि के अर्थ को देखें।
अन्त में आपसे निवेदन है कि इस प्रकार के प्रश्न प्रकरण को ठीक से समझने पर अपने-आप सुलझ जाते हैं। शतपथ में किस प्रकरण को लेकर कहा है और वेद का क्या प्रसंग है, यदि हम उस प्रकरण, प्रसंग को ठीक से देख लें तो बात उलझेगी नहीं, अपितु सुलझ जायेगी। उलझती तब है, जब हम दो प्रकरणों को मिलाकर देखते हैं। अस्तु। – ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर (राज.)

जिज्ञासा: यज्ञ करते समय ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ …..आचार्य सोमदेव

यज्ञ करते समय ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ वाला मन्त्र अग्न्यानयन मन्त्र, दीप प्रज्वलन मन्त्र और अग्न्याधान मन्त्र के पश्चात् आता है। इससे भी पहले ‘‘ईश्वर स्तुति प्रार्थनोपासना, स्वस्तिवाचनम् व शान्तिकरणम्’’ के मन्त्र आ चुके होते हैं, तो ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ वाला मन्त्र सर्वप्रथम क्यों नहीं आ जाता? इसमें क्या अनियमितता हो जाती है? जब इतना कुछ हो लेता है और अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, तब कहा जाता है कि अब सभी देव और यजमान बैठ जाएँ। तो क्या इससे पहले वाली सभी क्रियाएँ खड़े-खड़े करनी चाहिए? या सीदत का कोई अन्य अर्थ भी हो सकता है, जिसका हमें पता नहीं है। और यह भी हो सकता है कि अब तक पूरे एकाग्रचित्त नहीं हुए थे (वैसे होना तो चाहिए।), इसलिए चेताने के लिए कहा हो कि अब सावधान, सतर्क व सजग होकर बैठें। मामला क्या है? समझाने का कष्ट करें।

(ख) आपके इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले यहाँ जिस मन्त्र को आपने उठाया है, उसका अर्थ महर्षि दयानन्द ने जो किया है, वह दे रहे हैं-
उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्त्ते सं सृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत।।
– य. १५.५४
पदार्थ- हे (अग्ने) अच्छी विद्या से प्रकाशित स्त्री वा पुरुष तू (उद्बुध्यस्व) अच्छे प्रकार ज्ञान को प्राप्त हो, सब के प्रति, (प्रति जागृहि) अविद्यारूप निद्रा को छोड़ के विद्या से चेतन हो (त्वम्) तू स्त्री (च) और (अयम्) यह पुरुष दोनों (अस्मिन्) इस वर्तमान (सधस्थे) एक स्थान में और (उत्तरस्मिन्) आगामी समय में सदा (इष्टापूर्त्ते) इष्ट सुख विद्वानों का सत्कार, ईश्वर का आराधन, अच्छा संग करना और सत्यविद्या आदि का दान देना। यह इष्ट और पूर्णबल ब्रह्मचर्य, विद्या की शोभा, पूर्ण युवा अवस्था, साधन और उपसाधन-यह सब पूर्त्त इन दोनों को (सं, सृजेथाम्) सिद्ध किया करो (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (च) और (यजमानः) यज्ञ करने वाले पुरुष, तू इस एक स्थान में (अधि, सीदत) उन्नतिपूर्वक स्थिर होओ।
इस मन्त्र के अर्थ में महर्षि ने कहा कि विद्वान् लोग और यज्ञ करने वाला पुरुष-ये दोनों इस स्थान अर्थात् यज्ञ कर्म करने के स्थान पर वा परोपकार रूप कर्म में उन्नतिपूर्वक स्थिर हों। महर्षि ने यहाँ स्थिर होने की बात कही है, बैठने आदि का संकेत नहीं किया। स्थिर होने का तात्पर्य अपने को अन्य कार्यों से हटाकर उस परोपकार रूप कार्य में स्थिर करना, उसी में अपने को लगाना है। महर्षि के वचनों से तो यह मामला ऐसे ही सुलझा हुआ है। हम अपने अल्प ज्ञान से सुलझे हुए को भी कभी-कभार उलझा लेते हैं।

१. हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव बनने का प्रयास करना चाहिए? – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा- निम्नलिखित जिज्ञासाओं का समाधान करने का कष्ट करेंः-
१. हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव बनने का प्रयास करना चाहिए?
मनुष्य बनेंगे तो ‘‘शतपथ’’ वाली बात बाधा डालती है, जिन्हें यज्ञ करने तक का अधिकार नहीं है। जब महर्षि दयानन्द द्वारा अनेक स्थलों पर दी गई ‘‘मनुष्य’’ की परिभाषा में सभी श्रेष्ठ गुण आ जाते हैं, तो फिर देव बनने की क्या आवश्यकता रह जाएगी और इस तरह मन्त्र में ‘‘मनुर्भव’’ वाली बात का औचित्य भी सिद्ध हो जाएगा।

समाधान-(क) वेद व ऋषियों के तात्पर्य को समझने के लिये वेद व ऋषियों की शैली को ही अपनाना पड़ता है। इस आर्ष शैली को अपनाकर जब हम वेद और ऋषि वाक्यों को देखते हैं, तब वे वाक्य हमें स्पष्ट समझ में आते चले जाते हैं। महर्षि दयानन्द ने वक्ता अथवा लेखक का भाव, उद्देश्य समझने के लिए सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में चार बातें-आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्य को जानने के लिए कहा है। प्रायः जब हम भाषा-शैली वा भाषा-विज्ञान को नहीं जान रहे होते, तब हम किसी बात के अर्थ को ठीक से नहीं जान पाते।
महर्षि दयानन्द ने मनुष्य की परिभाषा अनेक स्थानों पर दी है। वे परिभाषाएँ अपने-अपने स्थान पर उचित हैं। महर्षि मनुष्य के अन्दर जो मनुष्यता के भाव होने चाहिए उनको लेकर परिभाषित कर रहे हैं, जैसे स्वात्मवत्, सुख-दुःख में वर्तना, विचार पूर्वक कार्य करना आदि। यह मनुष्य बनने की प्रेरणा वेद भी ‘मनुर्भव’ वाक्य से कर रहा है। इसको देखकर आप तो शतपथ के वाक्य को देख रहे हैं और उसमें विरोधाभास दिख रहा है, सो है नहीं। यहाँ जो ‘‘अनृतं मनुष्याः’’ कहा है, वह एक सामान्य कथन है। इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि मनुष्य सदा झूठ ही बोलता है, सत्य बोलता ही नहीं। हाँ, इसका यह तात्पर्य तो अवश्य है कि मनुष्य अपने अज्ञान आदि के कारण झूठ बोल देता है, जबकि यह भाव देवताओं में नहीं होता, क्योंकि विद्वानों, ज्ञानियों को देवता कहा गया है, ‘‘विद्वांसो वै देवाः’’। विद्वान् ज्ञानी लोगों में अज्ञान स्वार्थ आदि के न होने के कारण वे सत्य बोलते हैं, सत्य का आचरण करते हैं। इसका यह भी तात्पर्य नहीं है कि कभी झूठ बोल ही नहीं सकते, नहीं बोलते। हाँ, देव और मनुष्य कोई अलग नहीं हैं। दोनों में एक ही अन्तर है कि देवों से त्रुटियाँ नहीं होती अथवा यूँ कहें कि अत्यल्प होती हैं। जो होती हैं, वे जीव की अल्पज्ञता के कारण होती हैं और इनसे इतर जो हैं, वे मनुष्य हैं। मनुष्यों से त्रुटियाँ अधिक हो सकती हैं, होने की सम्भावना अधिक रहती हैं।
‘‘अनृतं मनुष्याः’’ इस सामान्य कथन को लेकर ‘‘मनुर्भव’’ से विरोध देखना उचित नहीं हैं। ‘‘मनुर्भव’’ मनुष्यता से युक्त मनुष्य बनने की बात कह रहा है और ‘‘अनृतं मनुष्याः’’ कह रहा है कि मनुष्य से अज्ञान के कारण त्रुटि हो सकती है। इन दोनों में कोई विरोध नहीं है, दोनों वाक्य अपने-अपने स्थान पर अपनी बात कह रहे हैं।
हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव? तो हमें श्रेष्ठता की ओर बढ़ना चाहिए। मनुष्य बनना कोई हीन बात नहीं है। वेद ने मनुष्य बनने के लिए कहा है और इससे आगे अपने अन्दर देवत्व पैदा करने की बात कही, अर्थात् मनुष्य से आगे हम देव बनें।
आप शतपथ की इस बात को लेकर कह रहे हैं कि ‘‘इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है।’’
शतपथ के इस पूरे प्रसंग से कहीं भी ऐसी बात प्रतीत नहीं हो रही कि मनुष्य को यज्ञ से दूर रखा जा रहा हो और देवताओं के लिए यज्ञ करने का विघान हो। यहाँ तो केवल सामान्य परिभाषा की जा रही है कि जो असत्य बोल देता है (किन्हीं कारणों से) वह मनुष्य और जो सत्य बोलता है, देवता होता है। यहाँ मनुष्यों के यज्ञ न करने की बात कहाँ से आ गई? अपितु शास्त्र में यह कथन तो मिलता है- ‘‘मनुष्याणां वारम्भसामर्थ्यात्।।’’ का. श्रौ. पू. १.४ अर्थात् यज्ञ-याग आदि कर्म करने का अधिकर मनुष्यों का है, मनुष्य इस कार्य के लिए समर्थ हैं। इस शास्त्र वचन में मनुष्य ही यज्ञ का अधिकारी है और आप इसके विपरीत देख रहे हैं जो कि है ही नहीं।
अभी हमने पीछे कहा कि मनुष्य बनना कोई हीन काम नहीं है,मनुष्य बनना एक श्रेष्ठ स्थिति है। जिस स्थिति को महर्षि दयानन्द परिभाषित करते हैं, वहाँ यहाँ वाली स्थिति नहीं है। महर्षि की मनुष्य वाली परिभाषा में धर्म का बाहुल्य है, विचार का बाहुल्य है। किन्तु देव मनुष्यों से आगे धर्म और विचार का बाहुल्य रखते हुए विवेक विद्या का बाहुल्य भी रखते हैं, वे राग-द्वेष से ऊपर उठे हुए होते हैं। यह सब होते हुए देव बनने की आवश्यकता है, इसलिए वेद ने कहा ‘मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।’ इस आधार पर मनुष्य और देव दोनों बनने का औचित्य है।

श्री ब्रजराज जी आर्य – एक परिचय – ओममुनि वानप्रस्थी

श्री ब्रजराज जी आर्य का जन्म बीसवीं शताब्दी के द्वितीय दशक के मध्य में तह. ब्यावर, जिला, अजमेर राज. में हुआ। आपके पिताजी का नाम श्री गोपीलाल जी व माता जी का नाम दाखा बाई था। आपके पिताजी का खेती व चूने भट्टे का व्यवसाय था। उनका जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। श्री ब्रजराज जी १० वर्ष की आयु में ही आर्य समाज के सम्पर्क में आ गए थे। अल्प आयु में ही वे समाज के प्रति समर्पित हुए। उनके मन में समाज सेवा व देशप्रेम के प्रति लगन थी। उन्होंने आर्य वीर दल के शिविरों में बौद्धिक व शारीरिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। श्री रामदेव जी साम्भर वालों से लाठी व तलवार का ज्ञान प्राप्त किया, जिससे श्री ब्रजराज जी को लाठी व तलवार संचालन का अच्छा ज्ञान प्राप्त हुआ। वे एक अच्छे आर्यवीर होने के साथ अच्छे पहलवान भी थे। होली के अवसर पर श्री बजरंग महाराज अनेक स्वांग रचते हुए मुसलमानों के मौहल्ले से गुजरते थे। इस पर मुसलमानों ने बजरंग महाराज को पीटा, जिससे उनके अनेक चोटें आईं। इस पर ब्रजराज जी ने मुसलमानों के मौहल्ले में जाकर उनको ललकारा और मुसलमानों को खदेड़कर आर्य शक्ति का परिचय दिया। ब्रजराज जी पहलवानों के साथ रहने से मजबूत व निर्भीक हो गए। उनका विवाह श्रीमती भँवरी देवी के साथ सम्पन्न हुआ। श्री प्रभु आश्रित जी के द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया, उससे इनके सन्तानें हुईं। युवा अवस्था में ही इनके दो पुत्रों की मृत्यु हो गई। ‘जन्म व मृत्यु एक अटल सत्य है’ इससे परिचित अपने पुत्रों की मृत्यु को भी सहजता से स्वीकार कर लिया। सन् १९५० में वे व्यायामशाला के माध्यम से आर्य समाज के सेवाभावी कार्यकर्त्ता बन गए। अस्पताल में गरीबों व रोगियों को औषधि, फल वितरण, प्रसव हेतु सामग्री प्रदान करने, गरीबों की बच्चियों का विवाह करवाने हेतु आर्थिक सहयोग प्रदान करते थे। वे एक ईमानदार एवं सत्यवादी व्यक्ति थे। धीरे-धीरे उनकी सत्यवादिता व ईमानदारी समाज में प्रचारित होने लगी।
ब्यावर की जनता ने ऐसे कर्मठ समाजसेवी को नगर पालिका, ब्यावर के चुनाव में खड़े होने के लिये कहा, तो उन्होंने मना कर दिया। इस पर वहाँ के लोगों ने स्वयं ही चुनाव का फार्म भरकर, उनके हस्ताक्षर करवाकर, उनको विजेता बनवाया। चुनाव के प्रचार के लिये ब्रजराज जी ने एक रुपया भी खर्च नहीं किया। लगभग ३५ वर्ष तक उन्होंने समाज सेवा की। प्रत्येक तीन माह में जनता की मीटिंग बुलवाते तथा सभी विकास के कार्यों को बतलाते। उनकी समस्या व समाधान पर चर्चा करते। उक्त मीटिंग का प्रचार मैं स्वयं तांगे में बैठकर किया करता था।
सन् १९५६ में सम्पूर्ण भारत की प्रथम वातानुकूलित बस सेवा का परमिट माँगा। उस बस में ए.सी., पंखें, रेडियो, अखबार, बच्चों के लिये खिलौने, पानी और आरामदायक सीटों की व्यवस्था का दावा किया। उच्च न्यायालय में वकालात कर रहे एवं नगर परिषद् ब्यावर के चेयरमैन रह चुके श्री महेशदत्त भार्गव ने यहाँ तक कहा कि आर्यसमाजी श्री ब्रजराज आर्य कभी झूठ नहीं बोलते। ये जो कहते हैं वह करके दिखाते हैं और यदि ये अपने दावे में कहीं पर भी कमजोर साबित हुए तो स्वयं ही हमें परमिट लौटा देंगे। जब इस तरह की अत्याधुनिक सुविधा सम्पन्न बस के संचालन हेतु परमिट माँगी तो अनुमति प्रदान करने वालों को यह पूर्णतया मिथ्या लगा। और तब ब्रजराज जी आर्य की सत्यनिष्ठा एवं ईमानदारीपूर्ण व्यक्तित्व के साक्षी एक सदस्य श्री महेशदत्त भार्गव के कहने पर परमिट मिली। और तब उस बस का निर्माण किया गया। यह बस ब्यावर से अजमेर के लिए संचालित की गई। उस जमाने में इस प्रकार की सर्वसुविधायुक्त बस का निर्माण एवं संचालन ने जनता व अधिकारियों को अचम्भित कर दिया। उस बस में बैठने वालों में मैं भी सम्मिलित था।
इसी प्रकार एक बार नगर परिषद् ब्यावर ने पानी के मीटर लगाने की तैयारी की, तो श्री ब्रजराज जी ने इसे जनता के विरुद्ध मानते हुए, उन मीटरों को नहीं लगाने के लिए आन्दोलन छेड़ दिया तथा पक्ष व विपक्ष के पार्षदों को आमन्त्रित किया। श्री ब्रजराज जी के पक्ष में पानी के मीटर नहीं लगाने हेतु अधिकांश पार्षदों एवं सम्पूर्ण जनता ने अपना समर्थन दिया।
अगस्त १९७५ में अजमेर में बाढ़ के समय काफी तबाही हुई, जिसमें ब्रजराज जी के नेतृत्व में आर्य समाज ब्यावर ने सेवा की। लगभग तीन-चार दिनों तक पाँच-पाँच हजार लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था करवाई। लगभग ५० कार्यकर्त्ता प्रतिदिन सेवा में आते थे। गायत्री मन्त्र के उपरान्त सबको भोजन करवाया जाता था। वर्तमान कलेक्टर श्री कुमठ जी भी उनकी प्रशंसा करते थे। अजमेर के अतिरिक्त डेगाना, नागौर में भी उन्होंने सेवा प्रदान की।
२६ जनवरी २००१ में आये भूकम्प से तबाह हुए गुजरात राज्य में भी श्री ब्रजराज जी के नेतृत्व में आर्यसमाज ब्यावर ने सेवा प्रदान की।
श्री ब्रजराज जी काफी समय तक आर्य समाज ब्यावर के प्रधान व मन्त्री पद पर रह कर सेवा प्रदान की।
वर्तमान में श्री ब्रजराज जी की आयु १०० वर्ष से ऊपर हो गई है किन्तु वे प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करना नहीं भूलते। यज्ञ की प्रेरणा उनको श्री प्रभु आश्रित जी ने प्रदान की थी।

स्वर्णिम प्रेरक इतिहास को जानो व मानोः राजेन्द्र जिज्ञासु

स्वर्णिम प्रेरक इतिहास को जानो व मानोः- जातियों, राष्ट्रों व संस्थाओं को जगाने व अनुप्राणित करने के लिये इतिहास शास्त्र का भी विशेष महत्त्व है। इतिहास तोता-मैना की किस्सा कहानी मात्र नहीं है। यह भी एक शास्त्र है। महर्षि ने तभी तो पूना में इतिहास शास्त्र पर कई व्याख्यान दिये। आर्यसमाज की इस समय मात्र १४१ वर्ष की आयु है। आर्यसमाज के गौरवपूर्ण इतिहास की सुरक्षा करने वाले चार विचारक व दूरदर्शी नेता हुए हैं- १. महात्मा मुंशीराम जी, २. आचार्य रामदेव जी, ३. स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तथा ४. पं. विष्णुदत्त जी। जब मैं पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी व पं. विष्णुदत्त जी का इस प्रसंग में नाम लेता हूँ तो कुछ अदूरदर्शी मन्दभागी मन ही मन में खीजते व सटपटाते हैं। जिनका उद्देश्य ही आर्यसमाज के इतिहास को रौंदना हो वे इतिहास के विद्यार्थी राजेन्द्र जिज्ञासु के सत्य कथन को भला कैसे सह सकते हैं?
देश में कुछ व्यक्तियों ने घर वापिसी का शोर मचाया। झट से आर्यसमाज के पत्रों में शुद्धि आन्दोलन के अग्रणी आर्यों के नामों की सूची में किसी ऋषिदेव का नाम दे दिया गया। इस नाम का इस क्षेत्र में कोई व्यक्ति हुआ ही नहीं। ऋषि जी के पश्चात् पहली महत्त्वपूर्ण शुद्धि परोपकारिणी सभा द्वारा अब्दुल अज़ीज काज़ी फाज़िल की थी। वह उच्च पद पर आसीन अधिकारी थे। यह इतिहास हटाया गया। छिपाया गया। हमने सप्रमाण खोज दिया।
स्वामी श्रद्धानन्द जी नवम्बर १९२६ को निज बलिदान से मात्र एक मास पूर्व लाहौर बच्छोवाली समाज के उत्सव पर गये। पूज्य स्वामी सर्वानन्द जी सभा में उनके ठीक सामने बैठे सुन रहे थे। स्वामी जी ने सबको अन्तिम नमस्ते कही और यह भी कहा कि अब आपसे मिलन नहीं होगा। यह महाराज की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। इतिहास का, शोध का शोर मचाने वाले क्या जानें। दूसरे समाज ने भी उनका प्रवचन कराया। इस स्वर्णिम इतिहास को छिपाया गया या नहीं? गुरु के बाग के मोर्चा में जज को स्वामी श्रद्धानन्द जी के अभियोग में मनुस्मृति विशेष रूप से पढ़नी पड़ी। इतिहास रौंदने वाले इस घटना को क्यों छिपाते आ रहे हैं? या कहें कि वे इसे जानते ही नहीं। इसका प्रमाण (स्रोत) परोपकारिणी सभा के पास मिलेगा। न्यायाधीश ने दण्ड सुनाया तो भक्तों की भारी भीड़ सत्गुरु स्वामी श्रद्धानन्द जी के चरण स्पर्श करने को टूट पड़ी। कोर्ट से बाहर वृक्षों के नीचे महाराज को भक्तों के बीच आने दिया गया। देशवासियों को मुनि महान् ने क्या कहा-यह हम फिर बतायेंगे। नये नये उछलकूद करने वाले स्कालरों को मेरे इस कथन का प्रतिवाद करने की खुली छूट है।

प्रमाण मिलान की परम्परा अखण्ड रखियेः राजेन्द्र जिज्ञासु

प्रमाण मिलान की परम्परा अखण्ड रखियेः-
अन्य मत पंथों के विद्वानों ने महर्षि दयानन्द जी से लेकर पं. शान्तिप्रकाश जी तक जब कभी आर्यों के दिये किसी प्रमाण को चुनौती दी तो मुँह की खाई। अन्य-अन्य मतावलम्बी भी अपने मत के प्रमाणों का अता- पता हमारे शास्त्रार्थ महारथियों से पूछ कर स्वयं को धन्य-धन्य मानते थे। ऐसा क्यों? यह इसलिये कि प्रमाण कण्ठाग्र होने पर भी श्री पं. लेखराम जी स्वामी वेदानन्द जी आदि पुस्तक सामने रखकर मिलान किये बिना प्रमाण नहीं दिया करते थे। ऐसी अनेक घटनायें लेखक को स्मरण हैं। अब तो आपाधापी मची हुई है। अपनी रिसर्च की दुहाई देने वाले पं. धर्मदेव जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, श्री पं. भगवद्दत्त जी की पुस्तकों को सामने रख कुछ लिख देते हैं। उनका नामोल्लेख भी नहीं करते। प्रमाण मिलान का तो प्रश्न ही नहीं। स्वामी वेदानन्द जी ने प्रमाण कण्ठाग्र होने पर भी एक अलभ्य ग्रन्थ उपलब्ध करवाने की इस सेवक को आज्ञा दी थी। यह रहा अपना इतिहास।
एक ग्रन्थ के मुद्रण दोष दूर करने बैठा। प्रायः सब महत्त्वपूर्ण प्रमाणों के पते फिर से मिलाये। बाइबिल के एक प्रमाण के अता-पता पर मुझे शंका हुई। मिलान किया तो मेरी शंका ठीक निकली। घण्टों लगाकर मैंने प्रमाण का ठीक अता-पता खोज निकाला। बात यह पता चली कि ग्रन्थ के पहले संस्करण का प्रूफ़ पढ़ने वाले अधकचरे व्यक्ति ने अता-पता ठीक न समझकर गड़बड़ कर दी। आर्य विद्वानों व लेखकों को पं. लेखराम जी, स्वामी दर्शनानन्द जी, आचार्य उदयवीर और पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय की लाज रखनी चाहिये। मुद्रण दोष उपाध्याय जी के साहित्य में भी होते रहे। उनकी व्यस्तता इसका एक कारण रही।

सलामतराय कौन थे: राजेन्द्र जिज्ञासु

सलामतराय कौन थे?ः-

परोपकारी में इस सेवक ने महाशय सलामतराय जी की चर्चा की तो माँग आई है कि उन पर कुछ प्रेरक सामग्री दी जाये। श्री ओमप्रकाश वर्मा जी अधिक बता सकते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी की कोठी के सामने जो पहली बार जालंधर में उनके दर्शन किये, वह आज तक नहीं भूल पाया। भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी के व्याख्यान में कादियाँ में यह प्रेरक प्रसंग सुना था कि कन्या महाविद्यालय की स्थापना पर केवल पाँच कन्यायें प्रविष्ट हुई थीं। उनमें एक श्री सलामतराय जी की बेटी भी थी। महात्मा मुंशीराम जी की पुत्री वेदकुमारी तो थी ही। शेष तीन के नाम मैं भूल गया हूँ। इस पर नगर में पोपों ने मुनादी करवाई कि बेटियों को मत पढ़ाओ। पढ़-लिख कर गृहस्थी बनकर पति को पत्र लिखा करेंगी। यह कार्य (पत्र लिखना) लज्जाहीनता है। ऐसी-ऐसी गंदी बातें मुनादी करवाकर कन्या विद्यालय के कर्णधारों के बारे में अश्लील कुवचन कहे जाते थे।
मेहता जी ने यह भी बताया था कि ऋषि भक्त दीवानों द्वारा यह मुनादी करवाई जाती थी कि विद्यालय में प्रवेश पानेवाली प्रत्येक कन्या को चार आने (१/४ रु०) प्रतिमास छात्रवृत्ति तथा एक पोछन (दोपट्टा) मिला करेगा। वे भी क्या दिन थे! कुरीतियों से भिड़ने वालों को पग-पग पर अपमानित होना पड़ता था। महाशय सलामतराय जी अग्नि-परीक्षा देने वाले एक तपे हुये आर्य यौद्धा थे।
जो प्रेरक प्रसंग एक बार सुन लिया, वह प्रायः मेरे हृदय पर अंकित हो जाता है। महात्मा हंसराज के नाती श्री अमृत भूषण बहुत सज्जन प्रेमी थे। महात्माजी पर मेरी पाण्डुलिपि पढ़कर एक घटना के बारे में पूछा, ‘‘यह हमारे घर की बात आपको किसने बता दी?’’ मैंने कहा, क्या सत्य नहीं है? उन्होंने कहा, ‘‘एकदम सच्ची घटना है, परन्तु मेरे कहने पर आप इसे पुस्तक में न देवें।’’ वह अठारह वर्ष तक अपने नाना के घर पर रहे। उन्हें इस बात पर आश्चर्य हुआ करता था कि इस लेखक को पुराने आर्य पुरुषों के मुख से सुने असंख्य प्रसंग ठीक-ठीक याद हैं।

श्री शत्रुघन सिन्हा का ज्ञान घोटालाः- राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री शत्रुघन सिन्हा का ज्ञान घोटालाः- राजनेता संसद में अथवा विधान सभा में पहुँचते ही सर्वज्ञ बन जाते हैं। उन्हें किसी भी विषय पर बोलना व लिखना हो तो स्वयं को उस विषय का अधिकारी विद्वान् मानकर अपनी अनाप-शनाप व्यवस्था देते हैं। वीर भगतसिंह जी के बलिदान पर्व पर विख्यात् अभिनेता शत्रुघन हुतात्मा भगतसिंह जी पर टी. वी. में उनके केश कटवाने पर किसी कल्पित व्यक्ति से उनका संवाद सुना रहे थे। उनकी जानकारी का स्रोत वही जानें। हम तो इसे ज्ञान-घोटाला ही मानते हैं।
वह संसद में जाकर कुछ न मिलने पर भाजपा से तो खीजे-खीजे कुछ न कुछ बोलते ही रहते हैं। इतिहास का गला घोंटते हुए अभिनेता जी ने वीर भगतसिंह के परिवार को कट्टर सिख बताया। अभिनेता ने भगतसिंह जी की भतीजी लिखित ग्रन्थ पढ़ा होता, उनके पितामह तथा पिताजी की वैदिक धर्म पर लिखी पुस्तकें पढ़ी होतीं तो उनको पता होता कि यह परिवार दृढ़ आर्यसमाजी था। श्री धमेन्द्र जिज्ञासु जी ने तथा इस लेखक ने भी वीर भगतसिंह की जीवनी लिखी है।
राजनीति में आकर भगतसिंह जी के विचारों में भले ही कुछ परिवर्तन आया, परन्तु उनका आर्यसमाज से यथापूर्व सम्बन्ध बना रहा। उनको हिन्दू-सिख सबसे प्रेम था, परन्तु उनको कट्टर पंथी सिख बताना तो इतिहास को विकृत करना है। उनके बलिदान पर ‘प्रकाश’ आर्य मुसाफिर आदि पत्रों में महाशय कृष्ण जी, प्रेम जी ने उनके वैदिक रीति से संस्कार न करवाने पर सरकार की नीति का घोर विरोध किया। तब किसी ने यह न कहा और न लिखा कि उनका परिवार सिख है। उस समय के आर्य पत्र मेरे पास हैं। तब किसी ने यह न लिखा कि वह आर्य परिवार से नहीं था। उनके अभियोग में पहला अभियुक्त महाशय कृष्ण का बेटा आर्य नेता वीरेन्द्र था। श्री सुखदेव, प्रेमदत्त व मेहता नन्दकिशोर आदि कई आर्य क्रान्तिकारी तब उनके साथ थे। पं. लोकनाथ स्वतन्त्रता सेनानी आर्य विद्वान् ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाया। महान् आर्य दार्शनिक आचार्य उदयवीर उनके नैशनल कॅालेज के गुरु ने अन्त समय तक भगतसिंह के लिए जान जोखिम में डाली। शत्रुघन जी की आर्यसमाज से व इतिहास से ऐसी क्या शत्रुता हो गई है कि आपने आर्यसमाज को नीचा दिखाने के लिए सारा इतिहास ही तोड़ मरोड़ डाला है?