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मानवधर्म शास्त्र का सार: पण्डित भीमसेन

विद्या यस्य सनातनी सुविमला, दुःखौघविध्वंसिनी।

वेदाख्या प्रथितार्थधर्मसुगमा, कामस्य विज्ञापिका।

मुक्तानामुपकारिणी सुगतिदा, निर्बाधमानन्ददा।

तस्यैवानुदिनं वयं सुखमयं भर्गः परं धीमहि।।1।।

यस्माज्जातमिदं विश्वं यस्मिंश्च प्रतिलीयते।

यत्रेदं चेष्टते नित्यं   तमानन्दमुपास्महे।।2।।

यदेव वेदाः पदमामनन्ति तपांसि यस्यानुगतास्तपन्ति।

शास्त्रं यदाप्तुं मुनयः पठन्ति, तस्यैव तेजः सुधियानुचिन्त्यम्।।3।।

दिक्कालाकाशभेदेषु परिच्छेदो न विद्यते।

यस्य चिन्मात्ररूपस्य नमस्तस्मै महात्मने।।4।।

सर्वासां सत्यविद्यानां मूलं वेदो निरुच्यते।

तस्यापि कारणं ब्रह्म तेन सृष्टौ प्रचारितः।।5।।

तस्य वेदस्य तत्त्वं हि मनुना परमर्षिणा।

तपः परं समास्थाय योगाभ्यासगतात्मना।।6।।

सारांशमखिलं बुद्ध्वा लोकानां हितकाम्यया।

धर्मः सनातनः स्मृत आपद्धधर्मश्च कालिकः।।7।।

प्रचाराधिक्यमापन्नः पुरा धर्मः सनातनः।

आसीदास्थाय सत्यां तां गुरुशिष्यपरम्पराम्।।8।।

या पश्चाज्छललोभाभ्यां मोहेन कलहेन वा।

अविद्योपासनेनापि   ब्रह्मचर्यादिवर्जनात्।।9।।

स्वार्थसाधनरागेण धर्मस्य परिवर्जनात्।

अधर्मसेवनेनापि नष्टा सत्या परम्परा।।10।।

तदा नानामतान्यासन् मनुष्याणामितरेतरम्।

श्रौतस्मार्त्तस्य धर्मस्य नाशस्तेनाभवत्पुनः।।11।।

स्वस्य स्वस्य मतस्यैव प्रचाराय पुनस्तदा।

विरुद्धपक्षसंसक्तैर्ग्रन्थानां निर्मितिः कृता।।12।।

ये च वेदानुगा ग्रन्थाः शुद्धा दृष्टा मतानुगैः।

तत्रापि सज्जितं वाक्यं स्वमतस्यैव पोषकम्।।13।।

तस्माच्च शुद्धग्रन्थानामार्षाणां श्रौतधर्मिणाम्।

धृतवर्णाश्रमतत्त्वानामद्य प्राप्तिः सुदुर्लभा।।14।।

यादृशाश्चोपलभ्यन्ते ग्रन्थाः परमर्षिनामतः।

तत्रापि निर्मितं भाष्यं तैरेव स्वमतानुगम्।।15।।

धर्मस्य वर्णनं तत्र सम्यङ् नैवोपलभ्यते।

मतवादं पुरस्कृत्य पक्षपातश्च वर्णितः।।16।।

तर्केणानुसन्धानं   मनूक्तं   नोपलभ्यते।

श्रौतस्मार्त्तस्य धर्मस्य तेषु भाष्येषु पश्यतः।।17।।

अतोऽहं बहुभिराज्ञप्तः सज्जनैर्धर्मवेदिभिः।

स्वयं चाप्यनुसन्धाय दृष्ट्वा च धर्मविप्लवम्।।18।।

मानवस्यास्य शास्त्रस्य वेदानामनुगामिनः।

भाष्यारम्भं करोम्यद्य लोकानां हितमाचरन्।।19।।

भियःषुग्वे1त्यपादाने2 निष्पन्ना षुगभावतः।

तादृशी यस्य सेनास्ति तन्नाम्नेदं वितायते।।20।।

यद्यप्येतादृशी शक्तिर्मयि मन्दे न विद्यते।

तथापि तर्त्तुमिच्छामि सत्यप्लवेन सागरम्।।21।।

सत्यो हि जगदाधारस्तस्य चैवानुचिन्तनात्।

सत्यधर्मप्रचाराय बुद्धिं मे प्रेरयिष्यति।।22।।

नराणामल्पशक्तित्वात्सर्वज्ञो नास्ति कश्चन।

विद्याब्धिवेदमूलेन विना चिन्मात्रमूर्त्तिना।।23।।

तस्मात्क्वापि विरुद्धं चेत्प्रमादादिसुदूषितम्।

गुणानुरागिभिस्त्याज्यं ज्ञात्वा नीचैरुपासितम्।।24।।

अब प्रस्तावना लिखने के पश्चात् मानव धर्मशास्त्र की मुख्य भूमिका का प्रारम्भ किया जाता है। इसलिये शिष्ट लोगों की परिपाटी अर्थात् ऋषि-महर्षि लोगों की आज्ञानुसार कि सब शुभ कार्यों के प्रारम्भ में सबके स्वामी परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना वा ध्यान करना चाहिये कि जिससे उसकी कृपा होकर बुद्धि निर्मल वा शुद्ध हो सकती है। इसी कारण उस कार्य का अच्छा बन जाना सम्भव है। इसलिये हमको भी प्रथम परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना करनी चाहिये, इस कारण पहले मग्लाचरण किया है।

सब दुःखों के समुदाय का ध्वंस- नाश करने वाली, जिसके होने से धनादि पदार्थ और सुगम रीति से धर्म प्राप्त हो सकता है, जिसमें धर्मानुकूल स्त्री सम्बन्ध रूप काम की आज्ञा है। जो ठीक-ठीक तत्त्वज्ञान होने से मुक्तों का उपकार करने वाली उसके अनुकूल चलने वाले संसारी जनों को जन्मान्तर में अच्छी गति देने वाली और सब बाधाओं से रहित आनन्द की दाता निर्मल शुद्ध सनातन वेद नामक जिसकी विद्या संसार में प्रकट हुई है, उसके सुखस्वरूप सर्वोत्तम ज्ञानमय तेज का हम लोग प्रतिदिन ध्यान वा धारणा करें।।१।। जिस सर्वनियन्ता परमेश्वर से यह प्रत्यक्ष चित्र-विचित्र अनेक प्रकार की शिल्पविद्या का दिखाने वाला जगत् उत्पन्न हुआ, जिसमें नियमपूर्वक स्थित होकर चेष्टा करता और जिसमें सब लय हो जाता है, उस आनन्द स्वरूप ब्रह्म की हम लोग उपासना करें।।२।। जिसके अधिकार या महत्त्व का सब वेद वर्णन करते अर्थात् कहीं साक्षात् और कहीं परम्परा से सब वेदों में जिसका वर्णन है, और जिसको प्राप्त होने की इच्छा से जिज्ञासु लोग तप करते तथा जिसको प्राप्त होने के लिए ऋषि-मुनि जन वेदाादि शास्त्रों को पढ़ते हैं, विचारशील पुरुषों को उसी के तेज का चिन्तन करना चाहिये।।३।। दिशा, काल और आकाश के भेदों में जिसका परिच्छेद नहीं अर्थात् किसी निज पूर्वादि दिशा, किसी निज क्षणादि काल और किसी निज अवकाश में जो नहीं रहता, किन्तु सब दिशा, काल और अवकाशों में विद्यमान है, उस चेतनमात्र स्वरूप सर्वव्याप्त परमेश्वर को हमारा नमस्कार प्राप्त हो।।४।। सब सत्य विद्याओं का मूल वेद माना जाता है, उस वेद का भी मूल कारण ब्रह्म है क्योंकि उसी परमेश्वर ने संसार में वेदों का प्रचार कराया।।५।। योगाभ्यास में तत्पर महर्षि मनु महाराज ने प्रबल उत्कृष्ट तप का आशय लेकर और उस वेद का मुख्य सारांश अभिप्राय जानकर संसार के उपकार की कामना से सनातन धर्म का तथा समयानुकूल आपत्काल में सेवने योग्य आपद्धर्म का स्मरण अर्थात् वेद से विचारकर प्रकट किया है।।६,७।। वह सनातन धर्म पूर्वकाल में गुरु-शिष्य की उस सत्य परम्परा के आश्रय से   अधिक कर प्रचरित था। अर्थात् पूर्वकाल में सृष्टि के आरम्भ से पुस्तकों के बिना ही वेदादिस्थ विद्या और धर्म के उपदेश में सृष्टि की निरन्तर चलने वाली प्रणाली से चलते थे।।८।। जो परम्परा पीछे छल, कपट, लोभ, मोह, कलह, अविद्या के सेवन, ब्रह्मचर्यादि के छोड़ने, स्वार्थ साधन में तत्पर होने, धर्म के छोड़ देने और अधर्म का सेवन करने से वह सत्य परम्परा नष्ट हो गई।।९,१०।। उस समय परस्पर मनुष्यों में नाना प्रकार के मत चले उससे वैदिक और स्मार्त्त धर्म का और भी नाश हुआ।।११।। उस समय परस्पर विरुद्ध मतों में आसक्त लोगों ने अपने-अपने मत का प्रचार करने के लिए अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार ग्रन्थों का निर्माण किया।।१२।। और मतवादी लोगों ने जो वेदानुकूल शुद्ध ग्रन्थ देखे, उनमें भी अपने-अपने मत के पोषक वाक्य मिला दिये।।१३।। इसी कारण से जिनमें वर्णाश्रम धर्म का स्पष्ट आशय धरा गया था, ऐसे वैदिक धर्म के ऋषिप्रणीत शुद्ध ग्रन्थों का मिलना अब दुर्लभ हो गया।।१४।। शुद्ध ग्रन्थों में मतवादियों ने इसलिए अपने-अपने मत के पोषक वचन मिलाये कि जिससे हमारा मत निर्मूल न समझा जावे, किन्तु प्रतिष्ठित वेदमूलक ग्रन्थों में मिल जाने से सनातन माना जावे और हमको कोई न पकड़ सके। अब जैसे कुछ ग्रन्थ ऋषियों के नाम से मिलते हैं, उन पर भी उन्हीं लोगों ने अपने-अपने मत की पुष्टिपरक व्याख्या बनाई। यद्यपि व्याख्या करने वालों का भीतरी अभिप्राय यह नहीं था कि हम इस शास्त्र में अपना मत घुसेड़ें, तो भी उन-उन का अन्तःकरण उस-उस मत के रंग से रंगा होने के कारण वैसे ही भाष्य भी बनाये गये।।१५।। उन भाष्यों में ठीक-ठीक धर्म का वर्णन जैसा होना चाहिये, प्राप्त नहीं होता। और कहीं-कहीं अपने-अपने मत के आश्रय से पक्षपात भी वर्णन किया गया है।।१६।। इस मानवधर्मशास्त्र में तर्कपूर्वक धर्म का निर्णय करने के लिए “यस्तर्केणानुसन्धत्ते0”1 इत्यादि वचनों में स्पष्ट आज्ञा लिखी है, उसके अनुसार वेद सम्बन्धी और धर्मशास्त्र सम्बन्धी धर्म का वर्णन उन भाष्यों में देखने वाले को प्राप्त नहीं होता, जिससे आजकल के धर्म का निर्णय चाहने वाले मनुष्यों को सन्तोष हो।।१७।। इसी से अनेक धर्मज्ञ और सज्जन लोगों ने मुझको आज्ञा वा सम्मति दी तथा मैंने भी विचार किया कि वास्तव में ऐसी दशा होने से मुझको इस पर यथाशक्ति विचार करना चाहिये और मैंने यह भी विचारा कि ऐसा न करने से अब दिन-दिन धर्म की हानि होती जाती है। धर्मशास्त्र में आज्ञा है कि- ‘धर्म की हानि होती हो तो ब्राह्मण भी शस्त्र को ग्रहण करें।’२ और ‘विद्वानों का शस्त्र वाणी वा विद्या ही है कि जिससे अधर्म का ध्वंस हो सकता है।’३

इत्यादि प्रकार के विचार से लोक का उपकार होना मानकर मैं अब वेदों के अनुयायी इस मानव धर्मशास्त्र के भाष्य का प्रारम्भ करता हूं।।१८,१९।। बीसवें श्लोक में मेरा नाम (भीमसेन शर्मा) व्याकरण के अनुसार दिखाया गया है।।२०।। यद्यपि मुझ मन्दबुद्धि में ऐसी शक्ति नहीं है जो वेदानुकूल धर्म का ठीक-ठीक निर्णय कर सकूं, तो भी सत्यरूप नौका के आश्रय से इस मानव धर्मशास्त्र रूप समुद्र के पार होना चाहता हूं।।२१।। और वही सब जगत् का आधार सर्वान्तर्यामी परमेश्वर ही मुख्य कर सत्य है, उसका स्मरण, ध्यान, स्तुति, प्रार्थनादि करने से सत्य धर्म का प्रचार होने के लिए वह परमेश्वर मेरी बुद्धि को अवश्य प्ररेणा करेगा।।२२।। सब विद्याओं का सागर जो वेद उसके कर्त्ता चेतनमात्र स्वरूप एक परमेश्वर को छोड़कर अन्य कोई भी सर्वज्ञ नहीं है, किन्तु सभी मनुष्य अल्पज्ञ हैं। इस कारण मेरे भाष्य में प्रमादादि से कहीं विरुद्ध वा दूषित लेख किन्हीं महाशयों वा विद्वानों को जान पड़े तो गुणानुरागी लोगों को वह दोष छोड़ देना चाहिये, क्योंकि अच्छे लोगों का स्वाभाविक धर्म यही है कि वे दूसरे के गुणों को अच्छा समझ के उसके सहकारी बनते हैं। और कोई दोष जान पड़ता है तो छोड़ देते हैं, क्योंकि दोषों का ग्रहण करना नीच पुरुषों का काम है। और यह भी हो सकता है कि जैसे प्रमादाादि से मेरा लेख कहीं दूषित हो जाये, वैसे प्रमादादि के होने से मेरे निर्दोष लेख को भी कोई विरुद्ध मान सकता है, इसलिये विचारशीलों को उचित है कि यदि कहीं विरुद्ध जान पड़े तो प्रथम मुझसे ही पूछ देखें, यदि भूल होगी तो मैं स्वयं मान लूंगा। और वह ठीक हो जायगा।।२३,२४।।

दंगल की दयनीय सोच… -शिवदेव आर्य

दंगल की दयनीय सोच…

-शिवदेव आर्य

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

मो.—8810005096

वर्तमान के दृश्य को दृष्टि में अवतरित कर दूसरों को दृश्याकाररूप देना वर्तमान में बहुत कठिन हो गया है। आज युवाओं की पहली पसंद सिनेमाजगत् है। सच्चे गुरु व मार्गदर्शक तो सिनेमा घर ही बनते जा रहे हैं। इसकी छाप छोटे से लेकर अबालवृध्दों पर   दिखायी देती है। यत्र-कुत्र सर्वत्र ही सिनेमा की चर्चायें विस्तृत हो रही हैं। सिनेमा का मुख्य उद्देश्य सूचना का सम्प्रेषण तथा मनोरंजन है किन्तु इसका उद्देश्य किसी दूसरी ही  दिशा को दिग्दर्शित कर रहा है। आज के सिनेमा ने समाज-सच को सकारात्मक पक्ष में प्रस्तुत न कर उसके विकृत पक्ष को उजागर किया है। सामाजिक सरोकारों और समस्याओं के उपचारों से उसका दूर-दूर तक लेना-देना दिखायी नहीं देता। उनमें समस्याओं का जो समाधान दिखाया जाता है, उसने दर्शकों के मन में समाधान की स्थिति को भ्रमित करके उसे उलझाया है। फिल्मों का समाधान जिस ‘सुपरमैन’ में निहित है, उसका अस्तित्व ही संदिग्ध है। इस प्रकार समस्या सच होती है और उसका समाधान मिथ्या। फलस्वरूप फिल्में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाने की बजाय नकारात्मक भूमिका निभाने लगती है।

सिनेमा के माध्यम से अपना प्रचार-प्रसार तथा अपनी इच्छानुसार युवाओं तथा जनमानस को दिशा व दशा देकर दिग्भ्रमित करने का कार्य बहुत ही तीव्रता के साथ किया जा रहा है। प्रत्येक घर-परिवार में ऐसी स्थिति बनती चली जा रही है कि हर कोई कहने लगा है कि ये सिनेमाजगत्, मोबाईल आदि ने तो हमारे बच्चों को हमसे दूर कर ही दिया है और साथ-साथ हमारे आदर्शों को सदा के लिए ही भुला दिया है। वर्तमान में आने वाले चलचित्र (फिल्में) इसी कार्य को तीव्रता देने का असहनीय  कृत्य कर रही हैं।

अभी २३ दिसम्बर २॰१६ को आमिर खान की नई फिल्म दंगल आयी, जिसकी देश में बहुत जोरों से प्रशंसा व सराहना हो रही है, किन्तु हम कैसे भूल जाये वो दिन जब इन्हीं महानुभाव को इस देश में सांस लेने में असहजता महसूस हो रही थी, देश को असहिष्णु बता रहे थे। शायद मुझे ऐसा लगता है कि अभिनय में कुछ कलाकार अपना सब कुछ भूलकर कलाकृति में ही डूब जाते हैं, जो वर्तमान दशा के स्वर्णिम कदमों को देखना ही भूल जाते हैं, उन्हें वर्तमान तथा बीते पलों में कोई अन्तर नहीं दिखायी देता। ये तो बस देश को भ्रमित करने का ही कार्य करते रहते हैं।

फिल्म में बहुत-सी अच्छी बातों के पीछे बहुत ही निम्न स्तर की गंदी सोच छिपी हुयी है। फिल्म में बहुत ही प्रमाणिक रूप से बार-बार बताने  का यत्न किया गया है कि शाकाहार से मनुष्य को पोषक तत्व नहीं मिलते, यदि पूर्णपोषक तत्व चाहिए तो मांसाहार का सेवन करना चाहिए। हरयाणा के एक सभ्य परिवार में शाकाहार की परम्परा को तोड़कर मांसाहार की स्थापना की जाती है, और हर उत्साह के समय पर दिखाया जाता है कि मांसाहार के सेवन से ही एक कमजोर बच्ची ने अपने शरीर को सुदृढ़ कर सभी को परास्त कर स्वयं की विजयश्री को प्राप्त किया। वैसे भी हमारे युवा मांसाहार के प्रति अपनी लगन को बढ़ाये हुए थे किन्तु आज इस आदर्शकारिणी फिल्म के कारण बच्चे अपने माता-पिता को मांसाहार के लिए प्रेरित करेंगे और कहेंगे कि यदि हम मांसाहार का सेवन करेंगे तभी  जाकर हम सुदृढ़ता को प्राप्त कर पायेंगे। जो शरीर से दुर्बल हैं, पतले हैं उनका भी निश्चय होगा कि हम भी मांसाहार का सेवन कर अपनी दुर्बलता को समाप्त करें।

किन्तु जो फिल्म के माध्यम से लोगों को भ्रमित करने का कार्य किया गया है वह सर्वथा गलत है। अभी कुछ समय पहले की ही घटना है कि स्वाइन फ्लू समग्र विश्व में महामारी के रूप में आया था, ये रोग मुर्गियों और सूअरों के माध्यम से मनुष्य को संक्रमित करते हैं। पक्षी और जानवरों का मांसाहार इसका प्रमुख कारण है। शाकाहारी जीवन शैली से इन रोगों का सम्पूर्ण निराकरण किया जा सकता है। मछलियों, मास और अण्डों को सुरक्षित रखने के लिए व्यवहृत विभिन्न किस्म के रसायन मनुष्य शरीर के लिए हानिकारक हैं। एक परीक्षण से हाल में ही सिध्द हुआ है कि यदि अण्डे को आठ डिग्री सेंटिग्रेड से अधिक तापमान में बारह घंटे से अधिक समय के लिए रखा जाता है तो अन्दर से अण्डे की सड़न प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भारत जैसे ग्रीष्म मण्डलीय जलवायु में अण्डे को निरन्तर वातानुकूलित व्यवस्था में रखा जाना सम्भव नहीं हो पाता है। ये वाइरस खाद्य सामग्री को विषैला बना देते हैं।

संसार में मनुष्य से भिन्न दुनिया का अन्य कोई भी प्राणी अपनी शारीरिक संरचना एवं स्वभाव के विपरीत आचरण नहीं करता। जैसे गाय भूख के कारण कभी भी मांसाहार का सेवन नहीं करती, इसका कारण है कि ऐसा उसके स्वभाव के प्रतिकूल है जबकि मनुष्य जैसा विवेकशील प्राणी इस प्रतिकूल स्वभाव को अपना स्वभाव बना लेता है। मांसाहारी खाद्य की तुलना में शाकाहारी खाद्यों में स्वास्थ्यवर्धक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है। यह व्यक्ति को स्वस्थ, दीर्घायु, निरोग और हृष्टपुष्ट बनाता है। शाकाहारी व्यक्ति हमेशा ठण्डे दिमागवाले, सहनशील, सशक्त, बहादुर, परिश्रमी, शान्तिप्रिय, आनन्दप्रिय और प्रत्युत्पन्नमति होते हैं। वे अधकि समय बिना भोजन के रहने की क्षमता रखते हैं। इसलिए उनके पास दीर्घ समय तक उपवास करने की क्षमता है। ऐसी फिल्में जो संसार को जीवन में कठिनताओं से लड़ना सिखाती हैं, वो कहीं न कहीं गलत दिशा देने का प्रयास करती है। पाठकगण बुध्दिमान् तो स्वयं होते ही हैं, दिशाभ्रमित न हो जाये, इस निमित्त किंचित् प्रयासमात्र किया गया है। सार्थक पहल आपकी ओर से अपेक्षित है।

इस फिल्म में दूसरी जो गलत दिशा देने की कोशिश की गयी है, वह है – अपने गुरु (फिल्म के अधार पर कोच) के बताये मार्ग को सदा गलत दिखाया गया है। जो गुरुओं पर अपार दुःख का भान करायेगा। गुरु का दर्जा बहुत ही सोच समझ कर दिया जाता है। और गुरु जब अपने परिश्रम से जो सिखाये उसको बिना किसी कारण के ही अस्वीकार कर देना गुरुपरम्परा का अपमान है। यदि फिल्म का उद्देश्य गुरु की निन्दा ही करना है तो समाज में गुरुजन अपने शिष्यों के लिए जो कुछ करते हैं,उसको तुरन्त ही बन्द कर देना चाहिए। यदि गुरु के सिखाने में कोई त्रुटि है तो उसे सहज भाव से समझाया भी जा सकता था, किन्तु फिल्म में इसके आसार ही कुछ और हैं। ऐसी फिल्म युवाओं के दिलो-दिमाग से गुरुजनों के प्रति आदर भाव को समाप्त करने में सहायक होंगी।

इस फिल्म की यदि तीसरी गलती देखी जाये तो हम समझ पायेंगे कि भारत में प्रचार व प्रसारित होने वाली फिल्मों में जब कभी मादकद्रव्यों का सेवन दिखाया जाता है तब एक छोटी-सी पट्टी चलती है, जिसमें लिखा होता है कि ‘धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’, जबकि इस फिल्म में ऐसा एक बार भी नहीं होता। इससे स्पष्ट होता है कि फिल्म में धूम्रपान को बढ़ावा दिया जा रहा है। आज की पीढ़ी जब इस फिल्म को देखेगी तब कहेगी कि पहले तो धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक था किन्तु अब धूम्रपान करने से कोई भी हानि नहीं है। इसीलिए स्वेच्छा से धूम्रपान करो। ऐसी गलत सोच को आप पाठकगण अपनी  सकारात्मक प्रतिक्रिया से ही ध्वस्त करने का यत्न करेंगे।

प्रबुध्दपाठकगणों!

सिनेमाजगत् के माध्यम से देश की दिशा बदलने का यह दयनीय व्यवहार हो रहा है, यह सर्वथा असहनीय है। जनमानस प्रबुध्द है, सोचने-समझने की क्षमता तीव्र है, सही-गलत के निर्णयकर्ता आप स्वयं ही है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने कहा था कि ‘चित्र की नहीं चरित्र की पूजा करो’। हे युवाओं! फिल्मों को देखकर अपने महापुरुषों के बताये मार्ग से पथप्रष्ट न हो जाना। सावधान रहें, सतर्क रहें, इसी से आपकी तथा देश की आन-बान-शान है।

परोपकारिणी सभा का शोध व प्रकाशन: राजेन्द्र जिज्ञासु

राजेन्द्र जिज्ञासु
परोपकारिणी सभा का शोध व प्रकाशन :- परोपकारिणी सभा अपने कर्त्तव्य पालन में निरन्तर आगे बढ़ रही है। जितनी आशायें मिशन का भविष्य लगाये हुए है, उसमें न्यूनता का रह जाना स्वाभाविक ही है। यह तथ्य तो इस घड़ी सबके सामने है कि जितने ऊँचे, कर्मठ व लोकप्रिय विद्वान् व सहयोगी युवक ब्रह्मचारी महात्मा इस सभा के पास हैं, इतने इस समय किसी भी संस्था के पास नहीं है। बारह मास और पूरा वर्ष प्रचार के लिए देश भर से माँग बनी रहती है।
वैदिक धर्म पर कहीं भी वार हो झट से आर्य जनता सभा प्रधान डॉ. धर्मवीर जी को पुकारने लगती है। विधर्मी जब वार-प्रहार करते हैं, तब हर मोर्चे पर परोपकारी ने विरोधियों से टक्कर ली। भारत सरकार ने पं. श्रद्धाराम पर पुस्तक छपवा कर ऋषि पर निराधार घृणित वार किये। पं. रामचन्द्र जी आर्य के झकझोरने पर भी कोई शोध प्रेमी और संस्था उत्तर देने को आगे न निकली। परोपकारिणी सभा ने ‘इतिहास की साक्षी’ पुस्तक छपवाकर नकद उत्तर दे दिया।
श्री लक्ष्मीचन्द्र जी आर्य मेरठ जैसे अनुभवी वृद्ध ने पूछा, ‘‘पं. श्रद्धाराम का ऋषि के नाम लिखा पत्र कहाँ है? मिला कहाँ से और कैसे मिला?’’
उन्हें बताया गया कि अजमेर आकर मूल देख लें। उसका फोटो छपवा दिया है। श्रीमान् विरजानन्द जी व डॉ. धर्मवीर जी के पुरुषार्थ से यह पत्र मिला है। इतिहास की साक्षी के अकाट्य प्रमाणों का कोई प्रतिवाद नहीं कर सका।
अब उ.प्र. की राजधानी से सभा को सूचना मिली है कि मिर्जाई अपने चैनल से पं. लेखराम व आर्यसमाज के विरुद्ध विष वमन कर रहे हैं। सभा उनकी भी बोलती बन्द करे। इस सेवक से भी सपर्क किया गया है। आर्य समाज क्या करता है? यह भी देखें। कौन आगे आता है? कोई नहीं बोलेगा, तो सभा अवश्य युक्ति, तर्क व प्रमाणों से उत्तर देगी। वैसे एक ग्रन्थ इसी विषय में छपने को तैयार है। प्रतीक्षा करें।

लक्ष्मीनारायण जी बैरिस्टर : – राजेन्द्र जिज्ञासु

लक्ष्मीनारायण जी बैरिस्टर :- ऋषि के पत्र-व्यवहार में एक ऋषिभक्त युवक लक्ष्मीनारायण का भी पत्र है। आप कौन थे? आपका परिवार मूलतः उ.प्र. से था। लाहौर पढ़ते थे। इनके पिता श्री आँगनलाल जी साँपला जिला रोहतक में तहसीलदार थे। आपके चाचा श्रीरामनारायण भी विद्वान् उत्साही आर्य युवक थे। लन्दन के आर्य समाज के संस्थापक मन्त्री श्री लक्ष्मीनारायण जी ही थे। इंग्लैण्ड में शवदाह की अनुमति नहीं थी। वहाँ चबा के राजा का एक नौकर (चन्दसिंह नाम था) मर गया। राजा तब फ्राँस में मौज मस्ती करने गया था। सरकार ने शव को लावारिस घोषित करके दबाने का निर्णय ले लिया।
श्री लक्ष्मीनारायण जी ने दावा ठोक दिया कि आर्यसमाज इस भारतीय का वारिस है। हम अपनी धर्म मर्यादाके अनुसार शव का दाह-कर्म करेंगे। वह शव लेने में सफल हुए। मुट्ठी भर आर्यों ने शव की शोभा यात्रा निकाली। अरथी पर ‘भारतीय नौकर की शव दाह यात्रा’ लिखा गया। सड़कों पर सहस्रों लोग यह दृश्य देखने निकले। प्रेस में आर्य समाज की धूममच गई। महर्षि के बलिदान के थोड़ा समय बाद की ही यह घटना है।
आर्यसमाज के सात खण्डी इतिहास के प्रत्येक खण्ड में इन्हें मुबई के श्री प्रकाशचन्द्र जी मूना का चाचा बताया गया है। यह एक निराधार कथन है। इसे विशुद्ध इतिहास प्रदूषण ही कहा जायेगा।
लक्ष्मीनारायण ऋषि के वेद भाष्य के अंकों के ग्राहक बने। आप पं. लेखराम जी के दीवाने थे। उनके लिखे ऋषि-जीवन के भी अग्रिम सदस्य बने थे। आप एक सच्चे, पक्के, स्वदेशी वस्तु प्रेमी देशभक्त थे। इंग्लैण्ड में आपके कार्यकाल में आर्य समाज की गतिविधियों के समाचार आर्य पत्रों में बड़े चाव से पढ़े जाते थे। ये सब समाचार मेरे पास सुरक्षित हैं। आपने मैक्समूलर को भी समाज में निमन्त्रण दिया, परन्तु वह आ न सका। और पठनीय सामग्री फिर दी जायेगी।

मिशनरियों के प्रहार व प्रश्नः- राजेन्द्र जिज्ञासु

मिशनरियों के प्रहार व प्रश्नः- पश्चिम से दो खण्डों में श्री राबर्ट ई. स्पीर नाम के एक ईसाई विद्वान् का एक ग्रन्थ छपा था। इसने महर्षि की भाषा को तीखा बताते हुए यह लिखा है कि आर्य विद्वानों की भाषा में तीखेपन का दोष लगाया है। ऋषि के तर्कों की मौलिकता व सूक्ष्मता को भी लेखक स्वीकार करता है। लेखक के पक्षपात को देखिये, उसने अन्य मत-पंथों के लेखकों व वक्ताओं के लेखों व पुस्तकों में आर्य जाति व आर्य पूर्वजों के प्रति अन्य मत-पंथों की अभद्र भाषा का संकेत तक कहीं नहीं दिया। ऋषि ने और आर्य विद्वानों ने कभी असंसदीय भाषा का प्रयोग नहीं किया। कठोर भाषा का प्रयोग किया तो क्यों?
विधर्मियों की भाषा के कितने दिल दुखाने वाले उदाहरण दिये जायें?
‘सीता का छनाला’ पुस्तक इस पादरी को भूल गई। मिर्जा गुलाम अहमद के ग्रन्थों में वर्णमाला के क्रम से कई लेखकों ने गालियों की सूचियाँ बनाई है। एक सिख विद्वान् ने उसकी एक पुस्तक को ‘गालियों का शदकोश’ लिखा है। पढ़िये मिर्जा की पंक्तियाँः-
लेखू मरा था कटकर जिसकी दुआ से आखिर
घर-घर पड़ा था मातम वाहे मीर्जा यही है
हमारे शहीद शिरोमणि को ‘लेखू’ लिखकर जिस घटिया भाषा का प्रयोग किया है, वह सबके सामने हैं। एक पादरी के बारे लिखा हैः-
इक सगे दीवाना लुधियाना में है
आजकल वह खर शुतर खाना में है
अर्थात् लुधियाना में एक पागल कुत्ता है। वह आजकल गधों व ऊँटों के बाड़े में है। कहिये कैसी सुन्दर भाषा है। ‘वल्द-उलजना’ यह अश्लील गाली उसने किस को नहीं दी। आश्चर्य है कि पादरी जी को ये सब बातें भूल गई। ऋषि पर दोष तो लगा दिया, उदाहरण एक भी नहीं दिया। ईसाई पादरियों ने क्या कमी छोड़ी? इनके ऐसे साहित्य की सूची भी बड़ी लबी है। कभी फिर चर्चा करेंगे।
दुर्भाग्य से आर्यसमाज में नये-नये शोध प्रेमी तो बढ़-चढ़ कर बातें बनाने वाले दिखाई देते हैं, परन्तु मिर्जाइयों के चैनल का नोटिस लेने से यह शोध प्रेमी क्यों डरते हैं? यह पता नहीं। कोई बात नहीं। हमारी हुँकार सुन लीजियेः-
रंगा लहू से लेखराम के रस्ता वही हमारा है।
परमेश्वर का ज्ञान अनादि वैदिक धर्म हमारा है।।
इनको जान प्यारी है। ये लोग नीतिमान हैं।

ऋषि-जीवन पर विचारः- राजेन्द्र जिज्ञासु

ऋषि-जीवन पर विचारः-
परोपकारी में तो समय-समय पर ऋषि-जीवन की विशेष महत्त्वपूर्ण शिक्षाप्रद घटनाओं को हम मुखरित करते ही रहते हैं, सभा द्वारा ऐसी कई पुस्तकें भी प्रकाशित प्रचारित हो रही हैं। ऋषि-जीवन का पाठ करिये। चिन्तन करिये। ‘‘इसे पुस्तक मानकर मत पढ़ा करें। यह यति योगी, ऋषि, महर्षि का जीवन है।’’ यह पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का उपदेश है। क्या कभी जन-जन को सुनाया बतायाः-
1. ऋषि के सबसे पहले और सबसे बड़े भक्त, जो अन्त तक सेवा करते रहे, वे छलेसर के ठाकुर मुकन्दसिंह, ठा. मुन्नासिंह व ठाकुर भोपालसिंह जी थे।
2. अन्तिम वेला में सबसे अधिक सेवा ठाकुर भोपालसिंह जी ने की। ला. दीवानचन्द जी ने लिखा है कि जोधपुर में जसवन्तसिंह, प्रतापसिंह और तेजसिंह एक बार भी पता करने नहीं पहुँचे थे।
3. ऋषि जीवन चरित्र में जिस परिवार के सर्वाधिक सदस्यों की बार-बार चर्चा आती है, वह छलेसर का यही कुल था। स्वदेशी का बिगुल ऋषि ने छलेसर से ही फूँका था। आर्यो! जानते हो कि ऊधा ठाकुर भोपाल सिंह जी का पुत्र था।
4. ऋषि के पत्र-व्यवहार में इसी परिवार की-इसी त्रिमूर्ति की बार-बार चर्चा है, दूसरा ऐसा परिवार मुंशी केवलकृष्ण जी का हो सकता है, परन्तु उनके नाम हैं, प्रसंग थोड़े हैं।
5. आर्यो! जानते हो दिल्ली दरबार में ऋषि के डेरे की व्यवस्था छलेसर वालों ने ही की थी। ठा. मुकन्दसिंह आदि सब दिल्ली में महाराज के साथ आये थे।
6. हमारे मन्त्री ओम्मुनि जी की उत्कट इच्छा थी। हम यत्नशील थे। लो देखो! कूप ही प्यासे के पास आ गया। ठाकुर मुन्नासिंह जी की वंशज डॉ. अर्चना जी इस समय ऋषि उद्यान में पधारी हैं। आप गुरुकुल में दर्शन पढ़ रही हैं। सपूर्ण आर्यजगत् के लिए डॉ. अर्चना की यह ऋषि भक्ति व धर्म भाव गौरव का विषय है।

पादरियों की शंका या आपत्ति- राजेन्द्र जिज्ञासु

पादरियों की शंका या आपत्ति :-

तीनों पदार्थों को अनादि माना जावे तो फिर ईश्वर का जीवन व प्रकृति पर नियन्त्रण कैसे हो सकता है? इस आपत्ति का कई बार उत्तर दिया जा चुका है। आयु के बड़ा-छोटा होने से नियन्त्रण नहीं होता। अध्यापक का शिष्यों पर, बड़े अधिकारी का अपने अधीनस्थ कर्मचारियों पर नियन्त्रण अपने गुणों व सामर्थ्य से होता है। प्रधानमन्त्री युवक हो तो क्या आयु में बड़े नागरिकों से बड़ा नहीं माना जाता? उसका आदेश सबके लिये मान्य होता है, अतः यह कथन या आपत्ति निरथर्क है।

इसी प्रकार जीव की कर्म करने की स्वतन्त्रता के आक्षेप को समझना चाहिये। विकासवाद की दुहाई देने वालों का यह आक्षेप भी व्यर्थ है। जब जड़ प्रकृति में प्राकृतिक निर्वाचन का नियम कार्य करता है, तो निर्वाचन की स्वतन्त्रता तो आपने मान ली। निर्वाचन वही करेगा, जो स्वतन्त्र है। मनोविज्ञान का सिद्धान्त कहता है घोड़े को आप जल के पास तो ले जा सकते हैं, परन्तु जल पीने के लिए वह बाधित नहीं किया जा सकता। इसमें वह स्वतंत्र है। जीव की स्वतन्त्रता तो व्यवहार में पूरा विश्व मान रहा है। वे दिन गये जब सब अल्लाह की इच्छा चलती थी या शैतान दुष्कर्म करवाता था, फिर तो कोई मनुष्य न पापी माना जा सकता है और न ही महात्मा।

यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पाँव – धर्मवीर

यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पाँव
– धर्मवीर
प्रस्तुत सपादकीय प्रो. धर्मवीर जी ने आकस्मिक निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।
-सम्पादक गत दिनों एक संस्था की यज्ञशाला देखने का अवसर मिला। यज्ञशाला भव्य और सुन्दर बनी हुई देखकर अच्छा लगा। प्रतिदिन यज्ञ होता है, यह जानकर प्रसन्नता होनी स्वाभाविक है।
यज्ञशाला देखने पर दो बातों की यज्ञ से संगति बैठती नहीं दिखी। संस्था प्रमुख उस समय संस्था में थे नहीं, अतः मन में उठे प्रश्न अनुत्तरित ही रहे। पहली बात यज्ञशाला के बाहर और सब बातों के साथ-साथ एक सूचना पर भी दृष्टि गई, उसमें लिखा था- ‘आप यज्ञ नहीं कर सकते, न करें, आप यज्ञ के निमित्त राशि उक्त संस्था को भेज दें। आपको यज्ञ का फल मिल जायेगा।’
दूसरी बात ने और अधिक चौंकाने का काम किया, वह बात थी कि वहाँ जो रिकॉर्ड बज रहा था, उस पर वेद मन्त्रों की ध्वनि आ रही थी, प्रत्येक मन्त्र के अन्त में स्वाहा बोला जा रहा था। एक व्यक्ति यज्ञ-कुण्ड के पास आसन पर बैठकर घृत की आहुतियाँ दे रहा था। इस क्रम को देखकर विचार आया कि मन्त्र-पाठ का विकल्प तो मिल गया, मन्त्रों को रिकॉर्ड करके बजा लिया पर अभी आहुति डालने वाले का विकल्प काम में नहीं लिया। यदि वह भी ले लिया जाय तो यज्ञ का लाभ भी मिल जायेगा और उस कार्य में लगने वाले समय को अन्यत्र इच्छित कार्य में लगाने का अवसर भी मिल जायेगा। मेरे साथ संयोग से सार्वदेशिक सभा के मन्त्री प्रकाश आर्य भी थे। मैंने उनसे इस विषय पर प्रश्न किया और उनकी समति जाननी चाही, तो वे केवल मुस्कुरा दिये और कहने लगे- मैं क्या बताऊँ।
इसके बाद इस बात की चर्चा तो बहुत हुई, परन्तु अधिकारी व संस्था-प्रमुख व्यक्ति से संवाद नहीं हो सका। संयोग से कुछ दिन पहले उस संस्था के प्रमुख से साक्षात्कार हुआ, सार्वजनिक मञ्च से मुझे उनसे अपनी शंकाओं का समाधान करने का अवसर मिल गया। जब मैंने दोनों बातें उनके सामने रखकर इसका अभिप्राय जानना चाहा तो उन्होंने अपने चालीस मिनट में इसका उत्तर इस प्रकार दिया। उन्होंने कहा- हमने कभी यह नहीं कहा और न ही कभी हमारा मन्तव्य ऐसा रहा कि हमारा यज्ञ किसी के व्यक्तिगत यज्ञ का विकल्प है। हमारे यज्ञ में सहयोग करने वाले व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से यज्ञ करने का लाभ तो नहीं मिलेगा। परन्तु उसके धन की सहायता से जिस घृत और सामग्री से हमारे यहाँ यज्ञ किया जा रहा है, उस सद्कर्म के पुण्य का लाभ उस व्यक्ति को भी मिलेगा। इसमें आपत्तिजनक कोई भी बात नहीं।
पहली बात व्यक्तिगत रूप से घर पर किया गया यज्ञ करने वाले के घर की परिस्थिति और वातावरण की शुद्धि का कारण होता है, वह दूर देश में जाकर करने पर घर की पवित्रता का कारण नहीं बन सकता। दूसरी बात यज्ञ केवल पर्यावरण शुद्धि का स्थूल कार्य मात्र नहीं है, यह मनुष्य के लिये उपासना का भी आधार है। इससे वेद-मन्त्रों के पाठ, विद्वानों के सत्संग और यज्ञ में किये जाने वाले स्वाध्याय से परमात्मा की उपासना भी होती है। यज्ञ का यह लाभ दूसरे के द्वारा तथा दूर देश में किये जाने पर केवल धन देने वाले यज्ञकर्त्ता या यजमान को प्राप्त नहीं हो सकता। किसी भी शुभ कार्य के लिये किसी के द्वारा दिये सहयोग, दान का पुण्य दाता को अवश्य प्राप्त होगा, क्योंकि वह उस दान का वह कर्त्ता है।
जहाँ तक दूसरे प्रश्न की बात है कि मन्त्र को रिकॉर्ड पर बजाकर आहुति देने से यज्ञ सपन्न होता है। उनका यह कहना ठीक है कि इतने विद्वान् या वेदपाठी कहाँ से लायें, जो पूरे दिन मन्त्र-पाठ कर सकें? रिकॉर्ड पर मन्त्र चलाकर अपने को तो समझा सकते हैं, परन्तु यह अध्यापक या विद्वान् का विकल्प नहीं हो सकता। संसार की सारी वस्तुयें साधन बन सकती हैं, परन्तु कर्त्ता का मूल कार्य तो मनुष्य को ही करना पड़ता है। सभवतः आचार्य के उत्तर से सन्तुष्ट हुआ जा सकता था, परन्तु संस्था की ओर से जो लिखित स्पष्टीकरण प्राप्त हुआ, वह मौािक स्पष्टीकरण से नितान्त विपरीत है।
स्पष्टीकरण में शास्त्रों की पंक्तियाँ उद्धृत करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि यज्ञ के लिये दान देने वाले को यज्ञ का फल मिलता है, प्रमाण के रूप में मनुस्मृति के ‘‘अनुमन्ता…….’’, योग-दर्शन के ‘‘वितर्का हिंसादय……’’ आदि कई प्रमाण दिये गये हैं। वे शायद ये भूल जाते हैं कि संसार की किन्हीं भी दो अलग-अलग क्रियाओं का फल एक जैसा नहीं हो सकता। दान करने वाले व्यक्ति को दान का फल मिलेगा,ये भी हो सकता है कि अन्य कार्यों के लिये दान करने की अपेक्षा यज्ञ हेतु दान करने का फल अधिक अच्छा हो पर फल तो दान का ही होगा। दरअसल जब हम यज्ञ का फल केवल वातावरण की शुद्धि-मात्र ही समझ लेते हैं, तब इस तरह के तर्क मन में उभरने लगते हैं, और जब कहीं के भी वातावरण की शुद्धि को यज्ञ का फल मान बैठें तो तर्क और अधिक प्रबल दिखाई देने लगते हैं।
ऋषि दयानन्द ने जिस दृष्टि से यज्ञ का विधान किया है, वह अन्यों सेािन्न है। उन्होंने यज्ञ का विधान भौतिक शुद्धि के साथ-साथ अध्यात्म और वेद-मन्त्रों की रक्षा के लिये भी किया है, साथ ही केवल एक ही जगह और कुछ एक व्यक्तियों के द्वारा ही यज्ञ किये जाने से यज्ञ का भौतिक फल एक ही स्थान पर होगा। यदि इन्हीं सब सीमित परिणामों को यज्ञ का फल मान रहे हैं तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।
एक और तर्क ये दिया गया है कि संस्कार विधि में ऋषि दयानन्द ने पति-पत्नी के एक साथ उपस्थित न होने पर किसी एक के द्वारा ही दोनों की ओर से आहुति देने का विधान किया है, इससे सिद्ध होता है कि एक दूसरे के लिये यज्ञ किया जा सकता है। ऋषि दयानन्द ने ये विधान केवल इसलिये किया है, जिससे कि यज्ञ की परपरा बनी रहे, न कि कर्मफल की व्यवस्था को परिवर्तित करने के लिये। एक और तर्क ये कि यदि कोई व्यक्ति भण्डारा, ऋषि लंगर आदि की व्यवस्था करता है, तो उसका फल दानी व्यक्ति को ही मिलना है, पकाने या परोसने वाले को नहीं। यहां पर ये महानुााव अपने ही तर्क ‘‘अनुमन्ता विशसिता………’’ का खण्डन कर गये, जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंसा का अपराध माँस बेचने, खरीदने, सलाह देने वाले आदि सभी व्यक्ति द्वारा होता है। एक और तर्क सुनिये- राजा समयाभाव के कारण अपने माता-पिता की सेवा भृत्यों से कराता है। ऋषि दयानन्द व मनु के अनुसार राजा स्वयं राजकार्य में रहकर अग्निहोत्र व पक्षेष्टि आदि के लिये पुरोहित व ऋत्विज् को नियुक्त करे।
ऐसे कई उदाहरण दिये गये हैं, और अन्य भी दिये जा सकते हैं, पर इन सभी उदाहरणों में एक सामान्य सी बात ये है कि सभी जगह अति-आपात् की स्थिति या अन्य बड़ा दायित्व होने की स्थिति में अन्यों से यज्ञादि कराने का विकल्प है, वह भी तब, जबकि व्यक्ति मन में ईश्वर के प्रति आस्था, अध्यात्म, वेद की रक्षा के प्रति पूर्ण निष्ठा रखता हो और किसी अति-अनिवार्यता के कारण से यज्ञादि कार्य में असमर्थ हो। इस परिस्थिति में जिनको नियुक्त किया जाता है वे वेतन, पारिश्रमिक आदि लेकर कार्य करते हैं। यदि दान लेकर दाता के नाम से यज्ञ कराने वाले भी यज्ञ करने का पारिश्रमिक लेते हैं, और दानदाता वास्तव में यज्ञ, वेद, ईश्वर, अध्यात्म के प्रति पूर्ण निष्ठावान् रहते हुये भी यज्ञ करने में पूर्ण अक्षम है तो शायद बात कुछ मानी जा सके, लेकिन उतने पर भी वायु तो वहाँ की ही शुद्ध होगी, जहाँ यज्ञ हो रहा है, वेद-मन्त्र तो उसे ही स्मरण होंगे जो कि मन्त्र बोल रहा है। ईश्वर व अध्यात्म में अधिक गति तो उसकी होगी जो आहुति दे रहा है।
इतने पर भी आप यदि अपनी बात को सैद्धान्तिक और सत्य मानना चाहें तो मानें, परन्तु यह अवश्य स्मरण रखना होगा कि ऋषि दयानन्द ने जिन अन्धविश्वासों का खण्डन किया था, वह सब मिथ्या और व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा। एक बार सोनीपत आर्यसमाज के उत्सव पर वहाँ के कर्मठ कार्यकर्त्ता सत्यपाल आर्य जी ने अपने जीवन की घटना सुनाई, उन्होंने बताया कि लोकनाथ तर्क-वाचस्पति उन्हीं के गाँव के थे, वे स्वतन्त्रता संग्राम में आन्दोलन करके जेल गये। उस धरपकड़ में उनके गाँव का पौराणिक पण्डित भी धर लिया गया। जेल में तो वह रहा, परन्तु छूटते समय लोकनाथ जी से बोला, इतने दिनों में तुमने कुछ कमाई की या नहीं? लोकनाथ जी बोले- जेल में कैसी कमाई करेंगे? तो पण्डित ने कहा- मैंने तो इन दिनों अपने सेठों के नाम पर इतना जप किया है, जाते ही पैसे ले लूंगा। तब आप क्या करेंगे?
सारे पौराणिक पण्डित यही तो करते हैं। इनको जो लोग दान देंगे, तो क्या पण्डित जी के कार्य का पुण्य फल उन भक्तों को नहीं मिलेगा? फिर ईसाई लोग स्वर्ग की हुण्डी लेते थे, तो क्या बुरा करते थे, दान का पुण्य तो स्वर्ग में मिलेगा ही। फिर श्राद्ध का भोजन, गोदान, वैतरणी पार होना, यज्ञ में पशुबलि आदि सब कुछ उचित हो जायेगा।
धार्मिक कार्य स्वयं करने, दूसरों से कराने और कराने की प्रेरणा देने से निश्चित रूप से पुण्य मिलेगा, परन्तु स्वयं करने का विकल्प-करने की प्रेरणा देना और दूसरों को सहायता देकर कराना नहीं हो सकता। मेरा भोजन करना आवश्यक है, मुझे दूसरों को भी भोजन कराना आवश्यक है। मेरे भोजन करने का विकल्प दूसरे को प्रेरणा देना और सहायता देकर कराना नहीं होता। मेरे घर कोई आता है तो उसे भोजन कराना ही है। मेरे घर कोई नहीं आया, तो मेरे संस्कार बने रहें, इसलिये मैं कहीं किसी को भोजन कराने की सहायता देता हूँ, वह स्वयं कराये गये भोजन का विकल्प नहीं है। एक के अभाव में अन्य के भोजन की बात है।
यज्ञ, संस्कार आदि का प्रयोजन ऋषि ने शरीरात्म विशुद्धये कहा है। दूर किये गये यज्ञ से या दूसरे के यज्ञ से मेरे शरीर-आत्मा की शुद्धि नहीं होती। किसी की तो होती है, उससे दूसरे का भला करने का लाभ होगा, पर आत्मलाभ की बात इससे पूर्ण नहीं होती। प्राचीन सन्दर्भ से देखें तो ऋषि का यज्ञ-विधान परपरा से हटकर है। पुराने समय के यज्ञ चाहे राजा के हों या ऋषि के, सभी व्यक्तिगत रूप से किये जाने वाले रूप में मिलते हैं। ऋषि की उहा ने यज्ञ को एक सामूहिक रूप दिया है, जिसमें यजमान के आसन पर बैठा व्यक्ति पूरे समूह का प्रतिनिधि है, यह यज्ञ सामाजिक संगठन का निर्माण करने वाला होता है।
यज्ञ में वेद-मन्त्र पढ़ने का लाभ बताते हुए ऋषि लिखते हैं-
जैसे हाथ से होम करते, आँख से देखते और त्वचा से स्पर्श करते हैं, वैसे ही वाणी से वेद-मन्त्रों को भी पढ़ते हैं, क्योंकि उनके पढ़ने से वेदों की रक्षा, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना होती है तथा होम से जो फल होते हैं, उनका स्मरण भी होता है। वेद मन्त्रों का बार-बार पाठ करने से वे कण्ठस्थ भी रहते हैं और ईश्वर का होना भी विदित होता है कि कोई नास्तिक न हो जाये, क्योंकि ईश्वर की प्रार्थनापूर्वक ही सब कर्मों का आरभ करना होता है।
वेद-मन्त्रों के उच्चारण से यज्ञ में तो उसकी प्रार्थना सर्वत्र होती है। इसलिये सब उत्तम कर्म वेद-मन्त्रों से ही करना उचित है। – ऋग्वेद भूमिका पृ. 721
यह बात इस कारण लिखनी आवश्यक हुई, जिससे जनसामान्य यथार्थ से परिचित हों। किसी के दान से किसी को क्यों द्वेष हो तथा किसी की प्रसिद्धि से ईर्ष्या का क्या लेना? इस अवसर पर संस्कृत की एक उक्ति सटीक लगती है, इसलिये लेख दिया-
का नो हानिः परकीयां खलुचरति रासभोद्राक्षम्।
तथापि असमञ्जसमिति ज्ञात्वा खिद्यते चेतः।।
– धर्मवीर

पण्डित लेखराम ने कहाँ लिखा है? :राजेन्द्र जिज्ञासु

पण्डित लेखराम ने कहाँ लिखा है?

एक बन्धु ने पूछा है- क्या पुस्तक मेले में आपसे किसी ने चाँदापुर शास्त्रार्थ विषय में पण्डित लेखराम का प्रमाण माँगा? मैंने निवेदन किया कि बौद्धिक व्यायाम करके प्रसिद्धि पाना और बात है, सामने आकर शंका निवारण करवाना, गभीरता से सत्य को जानना दूसरी बात है। कोई पूछता तो मैं बता देता कि पं. लेखराम जी की ‘तकजीबे बुराहीन अहमदिया’ के आरभिक पृष्ठों पर ही मेरे कथन की पुष्टि में स्पष्ट शदों में लिखा पैरा मिलेगा। माता भगवती जब ऋषि जी से मुबई में मिली थी, तब वह 38 वर्ष की थी। यह कृपालु तो उसे ‘लड़की’ बनाये बैठे हैं। इन्होंने सनातनी विद्वान् पं. गंगाप्रसाद का ऋषि महिमा में लिखा अवतरण, हजूर जी महाराज लिाित ऋषि-जीवन, निन्दक जीयालाल लिखित ऋषि का गुणगान और मिर्जा कादियानी द्वारा महर्षि की हत्या या बलिदान के प्रमाण तो न जाने और न उनका लाभ उठाया। उनको एक काम मिला है, करने दीजिये।

हिन्दू संस्कृति-हिन्दू धर्म व हिन्दू जाति :राजेन्द्र जिज्ञासु

हिन्दू संस्कृति-हिन्दू धर्म व हिन्दू जातिः-

देशभर में जातिवादी घातक आन्दोलन चल रहे हैं। घर वापसी की बात करके हिन्दू जाति के वाकशूर रक्षक घरों में जा बैठे हैं। जाति बन्धन तोड़ने व शुद्धि के लिये क्या किया? आर्यसमाज से कुछ सीखते तो कुछ जाति हित होता। आर्यसमाज में भी इनके भाषण सुनकर एक ने शुद्धि आन्दोलन के कर्णधारों के कुछ नाम उगलते हुए किसी ‘ऋषिदेव’ का नाम लिखा बताते हैं। आर्यसमाज में ऋषि देव नाम का कोई व्यक्ति शुद्धि का प्रचारक नहीं रहा। कल्पित इतिहास का क्या लाभ। मेहता जैमिनि, पं. भोजदत्त, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, पं. शान्तिप्रकाश, पं. चमूपति, पं. नरेन्द्र जी हैदराबाद तो इन अति उत्साही लेखकों को भूल गये या पता नहीं।

टी.वी. के भगवानों की आरतियाँ व महिमा सुन-सुनकर रोना आता है। देश में बेकारी फैली है। भगवानों के मुकट व सिंहासनों के समाचार पढ़िये। भगवान बढ़ रहे हैं और उनकी सपदा बढ़ रही है। जातीय रोग बढ़ रहे हैं। आर्यसमाज राजनेताओं को महिमा मण्डित करने के लिए समेलन सजाता रहता है। कुछ वक्ता सरकारी भार बनकर मन्त्रियों का गुणगान करके आर्यसमाज का अवमूल्यन कर रहे हैं।