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अम्बेडकरजी द्वारा नमस्ते अभिवादन का प्रयोग: कुशलदेव शास्त्री

महर्षि दयानन्द और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने अपने प्रारम्भिक काल से ही अभिवादन के रूप में प्राचीन, शास्त्रीय, सार्वजनीन नमस्ते का उद्धार और प्रचार किया है। अमर शहीद पं0 रामप्रसाद बिस्मिल के अनुसार ”जब आर्यसमाज का यह प्रयत्न कुछ लोगों को ऊँच-नीच का भेदभाव नष्ट करने वाला प्रतीत हुआ, तो उन्हें यह सहन नहीं हुआ कि निम्न वर्ण के लोग उच्चवर्णियों की तरह नमस्ते करें। इसलिए इन संकीर्ण रूढ़िवादियों ने ’गरीब निवाज‘, ’पालागन‘, ’जुहार‘ आदि को बलपूर्वक प्रचलित रखना चाहा।“ डॉ0 अम्बेडकरजी ने भी इस बात पर खेद प्रकट किया है कि ’ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ के काल में ’महाराष्ट्र की निम्न जातियों द्वारा‘ ऊँची जाति के बराबर आने के प्रयत्न उन्नत जातियों द्वारा नष्ट कर दिये गये। सुनारों ने जब उच्च कुलोत्पन्न व्यक्तियों की तरह नमस्कार करना चाहा, तो उन्होंने कम्पनी की ओर से उनके नमस्कार पर पाबंदी के आदेश निकलवा दिये थे। आर्यनरेशों और पं0 आत्मारामजी अमृतसरी जैसे आर्यसमाजियों के सम्पर्क में आकर श्री भीमरावजी अम्बेडकर ने ’जोहार‘ के स्थान पर ’नमस्ते‘ अभिवादन को स्वीकार तो कर लिया था, पर न जाने बाद में ऐसी कौन-सी परिस्थितियाँ पैदा हुईं, जिस कारण उन्होंने फिर से ’नमस्ते‘ के स्थान पर ’जोहार‘ अभिवादन को स्वीकार किया। डॉ0 अम्बेडकरजी के व्यक्तित्व और कृतित्त्व के विद्वान् समीक्षक डॉ0 गंगाधर पानतावणेजी के कथनानुसार तो डॉ0 अम्बेडकरजी ने अपने जीवन के अन्त में आधुनिक बौद्धों में प्रचलित ’जय भीम‘ अभिवादन भी अपना लिया था। जबकि इस अभिवादन का ’भीम‘ शब्द डॉ0 भीमराव अम्बेडकरजी के नाम का ही मूल अंश है। प्रत्येक बौद्ध ’जय भीम‘ कहते वक्त एक प्रकार से डॉ0 अम्बेडकर के विचारों के विजयी होने की मनोभावना को ही व्यक्त करता है।

 

  माननीय अम्बेडकर जी द्वारा ’नमस्ते‘ अभिवादन अपना लेने की पुष्टि उनके ही द्वारा लन्दन से भेजे गये तीन पत्रों से होती है। पहले दो पत्र उन्होंने अपने घनिष्ठ सहयोगी और सचिव श्री सीताराम नामदेव शिवतरकर को भेजे हैं, और तीसरा पत्र श्री अम्बेडकरजी ने अपनी सहधर्मिणी रमाबाई को लिखा है। डॉ0 अम्बेडकरजी की अभिवादन शैली के कुछ नमूने काल क्रमानुसार इस प्रकार हैं –   

 

 

 

 

  1. अक्टूबर, 1920, प्रिय शिवतरकर, नमस्ते, 10 जून 1921-राजमान्य राज्यश्री शिवतरक यांस नमस्ते/25, नवम्बर-1921 प्रिय रामू (श्रीमतीरमाबाई भीमराव अम्बेडकर) नमस्ते/12, जून 1927, रा0 रा0 मुकुंदराव पाटिल यांस अनेक जोहार।

डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी के सहयोगी श्री सीताराम नामदेव शिवतरकर सन् 1933 से 1936 की कालावधि में आर्यसमाज लोअर परल, मुम्बई के प्रधान थे और डॉ0 अम्बेडकरजी भी इस आर्यसमाज में पधारे थे। प्राप्त जानकारी के अनुसार मुम्बई के लोअर परल आर्यसमाज और उनके पदाधिकारियों के साथ माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी के स्नेहिल सम्बन्ध थे। (आर्यसमाज लोअर परल सुवर्ण महोत्सव स्मरणिका ख्मराठी, सन् 1977)।

 

आर्यसमाज की प्रगतिशील दृष्टि: कुशलदेव शास्त्री

बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ (1863-1939) और कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू (1874-1922) का स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज की ओर आकृष्ट होने का महत्त्वपूर्ण कारण है-आर्यसमाज की वेद विषयक प्रगतिशील दृष्टि। इन क्षत्रिय राजाओं को तत्कालीन रूढ़िवादी पण्डित शूद्र समझते थे और इसी कारण इन्हें वेदोक्त संस्कार का अधिकार प्रदान करने के लिए तैयार न थे, जबकि स्वामी दयानन्द की दृष्टि में वेद पढ़ने का अधिकार मानवमात्र को था। महाराष्ट्र केसरी छत्रपति शिवाजी का यज्ञोपवीत संस्कार करने में हिचककिचाहट करने वाले रूढ़िवादी पण्डितों की परम्परागत संकीर्णता 20वीं सदी में भी ज्यों की त्यों बनी हुई थी, जबकि स्वामी दयानन्द ने वेद के आधार पर ही यह सिद्ध किया था कि मानवमात्र के साथ समस्त स्त्री-शूद्रों को भी वेदाध्ययन करने का अधिकार है। रूढ़िवादी पण्डितों की इस संकीर्णता से बेचैन होकर श्री सयाजीराव गायकवाड़ और शाहू महाराज आर्यसमाज की ओर आकृष्ट हुए। इन आर्यनरेशों ने केवलमात्र डॉ0 भीमराव अम्बेडकर को ही नहीं, अपितु अन्य प्रतिभावान् दलितों को भी छात्रवृत्तियाँ प्रदान की थीं।

आर्य नरेश कोल्हापुर का सक्रिय सहयोग

 

आर्यरनेश राजर्षि शाहू महाराज ने पत्रकार डॉ0 अम्बेडकर के प्रथम पत्र ’मूकनायक‘ के संचालन में भी आर्थिक सहायता प्रदान की थी और इतना ही नहीं सन् 1920 में माणगाँव में सम्पन्न प्रथम अस्पृश्यता परिषद में कोल्हापुर के आर्य नरेश शाहू महाराज ने यह भविष्यवाणी भी की थी कि ’डॉ0 अम्बेडकर भारतवर्ष के अखिल भारतीय नेता होंगे।‘ तत्कालीन मुम्बई राज्य के इन दोनों राजाओं के पास जो यह उदारमन और उदारदृष्टि थी, उसकी पृष्ठभूमि में मुझे स्वामी दयानन्द खड़े हुए नजर आते हैं। इन दोनों ही आर्यनरेशों के अन्तःकरण पर निर्विवाद रूप से आर्यसमाजी आन्दोलन की विशिष्ट छाप रही है।

मूकनायक अंक

परल-मुम्बई

16/6/20

 

श्रीमन् महाराज शाहू छत्रपति, करवीर

महोदय की सेवा में

माणगांव और नागपुर की सभा में पारित प्रस्ताव के अनुसार दि0 26 जून के दिन सर्वत्र आपका जन्म दिवस समारोह आयोजित किया गया है। उसी दिन आपके आश्रय से निकल रहे ’मूकनायक‘ का विशेषांक (भी) निकालने का निश्चय हुआ है। उसमें श्रीमन् महाराज की सचित्र क्रियाशील जीवन की उज्जवल समग्र रूपरेखा दी जाएगी। इसलिए आपके कार्यकाल की आज तक की विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए मैंने एक बार आपसे विनति की थी, पर खेद महसूस होता है कि आज तक भी वह जानकारी प्राप्त (नहीं) हुई है। दिन बहुत ही कम बाकी हैं, अतः मैंने स्वयं आकर आवश्यक जानकारी एकत्रित करने का निश्चय किया है। इसी उद्देश्य से मैं आज सांध्यवेला में पहुँचूंगा। (आशा ही नहीं, अपितु पूर्ण विश्वास है कि) श्रीमन् महोदय के दर्शन का लाभ होगा ही।

आपका कृपाभिलाषी

भीमराव आंबेडकर

माननीय अम्बेडकर जी द्वारा हस्तलिखित मराठी भाषा में लिखे ऐतिहासिक पत्र का हिन्दी अनुवाद। यह पत्र कोल्हापुर के छत्रपति शाहू महाराज को लिखा गया है।

 

सन्दर्भः- ’पत्रोच्या अंतरंगातून डॉ0 बाबासाहेब आंबेडकर‘ नामक मराठी ग्रन्थ के मुखपृष्ठ से यह हस्तलिखित मराठी पत्र उद्धत किया गया है। लेखिका सौ0 चंद्रकला रघुनाथ उकरंडे, प्रकाशक-श्री समर्थ प्रकाशन, 473 दत्तवाड़ी, पुलिस चैकी के पीछे, पुणे-411030। मूल्य-100.00। पृष्ठ संख्या-144।

 

बड़ौदा आर्य नरेश द्वारा मेधावी डॉ0 अम्बेडकर की शिक्षा: कुशलदेव शास्त्री

श्री डॉ0 भीमराव अम्बेडकर को इण्टर पास करने के बाद बी0 ए0, एम0 ए0, पी0 एच0 डी0, डी0 एस0 सी0 (लन्दन), एल0 एल0 डी0, बार-एट-लासॉ, जैसी उपाधियों से विभूषित और प्रकाण्ड पण्डित बनाने में आर्यसमाजी आन्दोलन का, प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप में क्यों न हो, अविस्मरणीय योगदान रहा है। इस बात को और कोई जाने या न जाने स्वयं डॉ0 अम्बेडकर जरूर जानते थे। इसलिए भी उनके ग्रन्थों में आर्यसमाजी आन्दोलन के प्रति विशेष सहानुभूति नजर आती है।

जहाँ आर्यनरेश  श्री सयाजीराव गायकवाड़ ने सन् 1912 से 1915 तक डॉ0 भीमरावजी अम्बेडकर को उच्च विद्याविभूषित करने के लिए शिष्यवृत्तियाँ प्रदान कीं और उन्हें अमेरिका भेजा, वहाँ अपने आपको हृदय से आर्यसमाजी कहलानेवाले राजर्षि शाहू महाराज ने भी सन् 1919 से 1922 तक अम्बेडकर की विदेश जाकर अध्ययन करने के लिए आर्थिक दृष्टि से सम्पूर्ण सहयोग दिया था।

आर्य समाज और डॉ0 अम्बेडकर: कुशलदेव शास्त्री

आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वमी का जन्म सन् 1824 में और बलिदान 1883 में हुआ। आर्यसमाज की स्थापना के 16 वर्ष बाद और स्वामी दयानन्द के देहावसान के लगभग 8 वर्ष बाद 14 अप्रैल, 1891 को भारतरत्न डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का महू (मध्यप्रदेश) में जन्म हुआ। यह तो स्पष्ट ही है कि माननीय डॉ0 अम्बेडकर के काल में स्वामी दयानन्द शरीररूप में विद्यमान नहीं थे, पर आर्यसामाजिक आन्दोलन के रूप में उनका यशः शरीर तो जरूर विद्यमान था। डॉ0 भीमराव अम्बेडकरजी की ग्रन्थ सम्पदा इस बात की साक्षी है कि वे स्वामी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज तथा उनके अनुयायियों की गतिविधियों से अच्छी तरह परिचित थे। प्रस्तुत काल में आर्यसमाज का आन्दोलन अपने पूरे यौवन पर था, जिसका प्रभाव डॉ0 अम्बेडकर और उनके युग पर निश्चित रूप से पड़ा है। इस लेखक का उद्देश्य डॉ0 अम्बेडकर और आर्यसमाज के इतरेतराश्रय सम्बन्ध को यथोपलब्ध जानकारी के आधार पर प्रस्तुत करना है।

 

जैसे स्वामी दयानन्द गुजराती होते हुए भी मूलतः औदीच्य तिवारी ब्राह्मण माने जाते थे। वैसे ही डॉ0 अम्बेडकर भी मध्यप्रदेश में जन्म लेने के बावजूद मूलतः तथाकथित शूद्र (महार) कुलोत्पन्न महाराष्ट्रीय के रूप में सुप्रसिद्ध थे। कालान्तर में दोनों भी राष्ट्रीय ही नहीं, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय महापुरुष के रूप में भी सुप्रसिद्ध हुए। जिस समय महाराष्ट्र में (तत्कालीन मुम्बई राज्य में) ’रानाडे-फुले युग‘ का अस्त हो रहा था, उसी समय वहाँ श्री सयाजीराव गायकवाड़, राजर्षि शाहू महाराज तथा डॉ0 अम्बेडकर के युग का उदय हो रहा था। यह दूसरी पीढ़ी भी अपनी पूर्ववर्ती दयानन्द-रानाडे-फुले आदि महापुरुषों की कार्यप्रणाली से प्रभावित और प्रेरित रही है। श्री सयाजीराव गायकवाड़ और राजर्षि शाहू महाराज स्वामी दयानन्द और उनके द्वारा स्थापित ’आर्यसमाज‘ से अधिक प्रभावित थे, तो डॉ0 अम्बेडकर महात्मा फुले और उनके द्वारा स्थापित ’सत्यशोधक समाज‘ से। श्री सयाजीराव गायकवाड़ और राजर्षि शाहू महाराज आर्यसमाजी होते हुए भी सत्यशोधक समाज के भी सहयोगी और प्रशंसक रहे, तथा डॉ0 अम्बेडकर महात्मा फुले के शिष्य होते हुए भी स्वामी दयानन्द और उनके आर्यसमाजी आन्दोलन के प्रशंसक होने के साथ-साथ समालोचक भी हैं, पर उन्हें आर्यनरेश द्वय श्री गायकवाड़ और राजर्षि शाहू की तरह आर्यसमाज आन्दोलन के सहयोगियों में नहीं खड़ा किया जा सकता। हाँ ! आर्यसमाजी आन्दोलन के डॉ0 अम्बेडकर हमेशा से ही हितैषी रहे हैं।

 

 

 

उनके लिए स्वामी दयानन्द की तुलना में महात्मा फुले अधिक आराध्य रहे। डॉ0 अम्बेडकर ने गौतम बुद्ध, सन्त कबीर और महात्मा फुले की महापुरुष त्रयी को अपना गुरु माना है। संस्कृत व राष्ट्रभाषा हिन्दी की तरह प्रान्तीय स्तर पर मराठी में काम-काज न कर पाने के कारण महाराष्ट्र में आर्यसमाज का आन्दोलन उतना प्रभावी ढंग से न चल सका, जितना कि उत्तर भारत में। राजर्षि शाहू महाराज के अनुसार ’ब्राह्मण नौकरशाही‘ के कारण महाराष्ट्र में आर्यसमाज का आन्दोलन प्रभावी नहीं हो सका।

द्वे-वचसि: कुशलदेव शास्त्री

मेरी शिक्षा-दीक्षा आर्यसमाजी शिक्षण संस्था गुरुकुल झज्जर (हरियाणा) और गुरुकुल ज्वालापुर (हरिद्वार) में हुई। गुरुकुलीय विद्यार्थी जीवन में एक-दो जातियों के नाम तो सुने थे, पर जातिगत भेद-भाव और उच्च-नीचता का थोड़ा भी अहसास नहीं हुआ था। स्वयं मुझे मेरी तथा अन्य छात्रों की जातियों के बारे में भी कुछ अता-पता नहीं था, अतः अस्पृश्यता का कोई सवाल ही नहीं उठता था। हम सभी छात्र एक ही परिवार के स्नेहित सदस्यों की तरह अपना-अपना जीवन यापन करते थे। पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने ठीक ही कहा है कि ’गुरुकुल के प्रवेश-पत्रों में जाति-बिरादरी का खाना नहीं था।‘ (भारतीय उत्थान और पतन की कहानी-पृष्ठ 119)

 

गुरुकुल की चारदीवारी से बाहर आने के बाद जातियों का पहले परिचय हुआ, फिर धीरे-धीरे जातिगत भेद-भाव की कटुताओं का परिचय होने लगा। हमारा घर आर्यसमाजी और वह भी क्रियात्मक जीवन में अन्तर्जातीय विवाह का समर्थक होने से सामाजिक सौहार्द का पक्षधर रहा। गाँव में पिताजी ’एक गाँव-एक पनघट‘ तथा ’मन्दिर-प्रवेश‘ जैसे उपक्रमों द्वारा सतत समता-बन्धुता का वातावरण बनाने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहे। इस कारण गुरुकुल और घर दोनों से ही मानवतावादी संस्कार प्राप्त हुए।

गुरुकुल के विषय में अपनी टिप्पणी अंकित करते हुए श्री पं0 उदयवीरजी ’विराज‘ (जन्म-1921) लिखते हैं-”मेरे विचार से गुरुकुल शिक्षा पद्धति आदर्श शिक्षा पद्धति है। जब कहीं दलितोद्धार नहीं था, तब गुरुकुल में दलितोद्धार था, जब कहीं समाजवाद नहीं था, तब गुरुकुल में समाजवाद था। जब कहीं हिन्दी में पढ़ाई नहीं होती थी, तब गुरुकुल में सब विषय हिन्दी में पढ़ाये जाते थे। महात्मा मुन्शीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने युवकों को ब्रह्मचर्य की दीक्षा देकर उन्हें आदर्श नागरिक, आदर्श मनुष्य बनाना चाहा था।“ (निजामशाही पर पहली चोट-पृष्ठ 41) डॉ0 अम्बेडकरजी ने तो स्वामी श्रद्धानन्दजी को ”दलितोद्धार के क्षेत्र का चैम्पियन ही कहा है।“

उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द (1880-1936) माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी के समाज-सुधार विषय रचनात्मक कार्यों से सुपरिचित थे, अतः उन्होंने अपने द्वारा सम्पादित ’हंस‘ मासिक के अगस्त-1933 के मुखपृष्ठ पर डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर का चित्र छापा था। अप्रैल-1936 में लाहौर आर्यसमाज की जुबली के अवसर पर ”आर्य भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष के नाते प्रसंगवशात् प्रेमचन्दजी ने आर्यसमाज पर टिप्पणी करते हुए कहा था -“

     ”मैं तो आर्यसमाज को जितनी धार्मिक संस्था मानता हूँ, उतनी ही तहजीबी (सांस्कृतिक) संस्था भी समझता हूँ। उसके तहजीबी कारनामे उसके धार्मिक कारनामों से ज्यादा प्रसिद्ध और रोशन हैं। दलितों के उद्धार में सबसे पहले आर्यसमाज ने कदम उठाया। लड़कियों की शिक्षा की जरूरत को सबसे पहले उसने समझा। वर्ण-व्यवस्था को जन्मगत न मानकर कर्मगत सिद्ध करने का सेहरा उसके सिर पर है। जातिगत भेदभाव और खान-पान में छूत-छात और चैके-चूल्हे की बाधाओं को मिटाने का गौरव उसी को प्राप्त है। उसके उपदेशकों ने वेदों और वेदांगों के गहन विषय को जन-साधारण की सम्पत्ति बना दिया, जिन पर विद्वानों और आचार्यों के कई-कई लीवरवाले ताले लगे हुए थे। “

निस्सन्देह आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर आदि की प्रेरणा से प्रचलित आन्दोलन मूलतः समाज-सुधार के चक्र को गतिशील बनाने वाले आन्दोलन रहे हैं। आज भी समाज में जहाँ-कहीं भी जातिगत भेदभाव के आधार पर नफरत की काली घटाएँ फैलती हैं, उन्हें छिन्न-भिन्न करने के लिए डॉ0 अम्बेडकर और ऋषि दयानन्द के अनुयायियों को अग्रिम पंक्ति में नजर आना चाहिए और वैसे वे इस दिशा में आगे बढ़ते हुए नजर आते भी हैं। पर यहाँ कार्य करते समय हमारी भाषा और क्रिया ऐसी संयमित हो कि उसमें अनुदारता और उग्रता न झलके। हमें सतर्कता बरतना इसलिए भी जरूरी है कि कहीं बिहार प्रान्त की तरह अन्यत्र भी वर्ण द्वेष, वर्ग द्वेष में परिवर्तित न हो। पूरी सावधानी के साथ हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि सामाजिक विषमता सामाजिक घृणा में बदलने की अपेक्षा समता-बन्धुता में रूपान्तिरत हो जाए। इन्सान और इन्सान के बीच में जातिगत-भेदभाव के कारण जो खाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, उसे पाटना ही हम सबका प्रयोजन होना चाहिए। इस लेख का भी यही मुख्य प्रयोजन है। इस विषय पर सर्वप्रथम आलेख ’आर्य लेखक परिषद‘ के उदयपुर (राजस्थान) अधिवेशन में पढ़ा गया था। यह उसी का सवंर्धित रूप है, जो श्री घूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास के संस्थापक, यशस्वी प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव जी आर्य के पुनीत प्रयास से हिण्डौन सिटी (राजस्थान) की ओर से प्रकाशित हो रहा है। आर्यसमाज के ख्याति प्राप्त शोध लेखक और इतिहासज्ञ प्रा0 राजेन्द्रजी ’जिज्ञासु‘ ने पुस्तक का प्राक्कथन लिखकर पुस्तक का गौरव बढ़ा दिया है, तदर्थ बहुत-बहुत धन्यवाद।

आर्य समाज और डॉ. अम्बेडकर ,प्राक्कथन: राजेन्द्र ’जिज्ञासु

मेरी उत्कट इच्छा थी कि ”आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर“ विषय पर कुछ लिखा जाए। मैं स्वयं तो इस विषय पर कुछ लिखूँगा ही, परन्तु मैं यह चाहता था कि प्रिय भाई कुशलदेवजी इस विषय पर अवश्य एक खोजपूर्ण पुस्तक लिखें। हर्ष का विषय है कि उन्होंने अपने व्यस्त जीवन से कुछ क्षण निकालकर यह पठनीय व संग्रह करने योग्य पुस्तक लिख दी है। आर्यसमाज के एक कर्मठ व प्रबुद्ध विद्वान् डॉ0 रामकृष्ण आर्य इसे आर्य परिवार प्रकाशन समिति, कोटा के माध्यम से प्रकाशित-प्रसारित करने का यश लूट चुके हैं, और संप्रति श्री प्रभाकरदेव जी आर्य इस कीर्ति को लूट रहे हैं।

राष्ट्रीय एकता की कड़ियों को सुदृढ़ करने के लिए इस कृति का प्रकाशन अत्यन्त प्रशंसनीय है। इससे घृणा-द्वेष की दीवारें टूटेंगी और भ्रम भंजन भी होगा। इसकी एक-एक पंक्ति देश-जाति के सेवकों को पढ़नी चाहिए। डॉ0 कुशलदेवजी ने जो कुछ भी लिखा है, देश व समाज के हित के लिए लिखा है। एक पीड़ा लेकर लिखा है। आर्यसमाज गुण-कर्म-स्वभावानुसार समाज के निर्माण व जन्म की जाति-पाँति के दुर्ग को ध्वस्त करने में 75 प्रतिशत विफल रहा है, यह डॉ0 कुशलदेवजी की अन्तःवेदना को ही प्रकट करता है। मैं इस पीड़ा में उनका भागीदार हूँ। मैंने भी जीवन के मूल्यवान् 50 वर्ष इस जातीय राजरोग के निवारण में लगाये हैं।

मैंने डॉ0 कुशलदेवजी की एक-एक पंक्ति पढ़ी है। जात-पात तोड़क मण्डल के संस्थापक जीवन के अन्तिम श्वास तक आर्यसमाजी रहे। श्री सन्तरामजी आर्यसमाज के सर्वश्रेष्ठ मासिक ’आर्य मुसाफिर‘ के यशस्वी सम्पादक रहे। डॉ0 अम्बेडकर को जात-पात तोड़क सम्मेलन का अध्यक्ष बनाने में असर्मथता का कारण ’वेद निन्दा‘ के प्रचार में भागीदारी से बचना था। अन्यथा विरोध करने वाले तीनों व्यक्ति जाति-पाति के विरोधी थे। देवता स्वरूप भाई परमानन्दजी ने तो अपनी सन्तानों के विवाह जात-पाँत तोड़कर ही किये।

यह भी निवेदन कर दूँ कि डॉ0 गोकुलचन्द नारंग, भाईजी के भक्त, शिष्य, मित्र व सहयोगी थे।

पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय कोल्हापुर के राजाराम स्कूल के प्रधानाध्यापक रहे। तब उस स्वल्प काल में आपने निकट से डॉ0 अम्बेडकर व उनकी गतिविधियों को देखा।

महाराष्ट्र में जन-जागृति, शिक्षा-प्रसार व अस्पृश्यता निवारण के आन्दोलन में प्रि0 श्री डॉ0 बालकृष्णजी का भी अद्भुत योगदान रहा। उस आर्य मनीषी को श्री शाहू महाराज ने ही कोल्हापुर बुलाया था। डॉ0 बालकृष्णजी के व्यक्तित्व व सेवाओं की डॉ0 अम्बेडकर पर छाप पड़ी, इसको भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

पंजाब में तो बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ही दलित वर्ग में अनेक संस्कार वैदिक रीति से हुए। महाराष्ट्र में यह युग बाद में आया।

देश प्रेमियों का कत्र्तव्य है कि इस पुस्तक का अधिक-से-अधिक प्रचार प्रसार करें। अन्त में एक बात कहना चाहूँगा कि डॉ0 अम्बेडकर ने वेद व वैदिक मान्यताओं के विरूद्ध जो कुछ भी कहा था, लिखा है, वह रूढ़िवादियों के घृणित व्यवहार की प्रतिक्रिया मात्र था, अन्यथा उनका वेद से कोई विरोध नहीं था। ’धम्मपद‘ में भी तो कोई एक भी शब्द वेद की निन्दा में नहीं मिलता।

 

इतिहास से ऐसी चिढ़ः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

न जाने आर्यसमाज के इतिहास तथा उपलधियों से शासन को तथा आर्यसमाज के पत्रों में लेख लिखने वालों को अकारण चिढ़ है अथवा इन्हें सत्य इतिहास का ज्ञान नहीं अथवा ये लोग जान बूझकर जो मन में आता है लिखते रहते हैं। एक ने यह लिखा है कि महात्मा हंसराज 15 अप्रैल को जन्मे। ऋषि के उपदेश भी उन्हें सुना दिये। दूसरे ने सान्ताक्रुज़ समाज के मासिक में यह नई खोज परोस दी है कि हरिद्वार के कुभ मेले में एक माता के पुत्र को शस्त्रधारी गोरों ने गंगा में फैंक दिया। माता बच्चे को बचाने के लिये नदी में कूद पड़ी। पिता कूदने लगे तो गोरों ने शस्त्र——महर्षि यह देखकर ——-। किसी प्रश्नकर्ता ने इस विषय में प्रकाश डालने को कहा। मैंने तो कभी यह लबी कहानी न सुनी और न पढ़ी। इस पर क्या लिखूँ? श्री धर्मेन्द्र जी जिज्ञासु ने भी कहा कि मैं यह चटपटी कहानी नहीं जानता। यह कौन से कुभ मेले की है। यह सपादक जी जानते होंगे। लेखक व सपादक जी दोनों ही धन्य हैं। देहलवी जी का हैदराबाद में मुसलमानों से कोई शास्त्रार्थ हुआ, यह नई कहानी गढ़ ली गई है।

स्वराज्य संग्राम में 80% आर्यसमाजी जेलों में गये। यह डॉ. पट्टाभिसीतारमैया के नाम से बार-2 लबे-2 लेखों में लिखा जा रहा है। डॉ. कुशलदेव जी आदि को तो यह प्रमाण मिला नहीं। वह मुझसे पूछते रहे। कोई सुनता नहीं। स्वतन्त्रता दिवस पर सरकारी भाषण व टी. वी. तो आर्यसमाज की उपेक्षा कर ही रहे थे। आर्यसमाजी पत्रों ने भी अनर्थ ही किया। दक्षिण में किसी समाजी ने श्री पं. नरेन्द्र, भाई श्याम जी, श्री नारायण पवार सरीखे परम पराक्रमी क्रान्तिवीरों का, जीवित जलाये गये आर्यवीरों व वीराङ्गनाओं का नाम तक न लिया।

मनु स्मृति के प्रथम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा :पण्डित भीमसेन शर्मा

अब प्रथमाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा वा विचार किया जाता है। मैं इस अध्याय वा दूसरे आदि अध्यायों में जिन-जिन श्लोकों को प्रक्षिप्त कहूं वा जताऊंगा वहां सर्वत्र अपनी अनुमति का प्रकाश करना ही प्रयोजन है। किन्तु वहां कुछ आग्रहपूर्वक कहना उचित नहीं। यदि उसमें किसी विद्वान् वा समुदाय को विरोध जान पड़े तो उसको मित्रता पूर्वक कहना चाहिये कि इसको इस प्रकार करना योग्य है। यदि सत्य से विपरीत हो गया दीख वा जान पड़ेगा, तो शीघ्र वैसा अविरुद्ध सुधार दिया जायेगा।

जहां-जहां यह पीछे मिलाया गया वा यह प्रक्षिप्त है ऐसा कहेंगे वहां-वहां मुख्य कर निम्नलिखित कारण जानने चाहियें। जो वाक्य किसी प्रकार वेद के आशय वा वेद के सिद्धान्त से तथा अन्य ब्राह्मण, उपनिषद्, न्याय और मीमांसादि अनेक ग्रन्थों से विरुद्ध हो वह प्रक्षिप्त है अर्थात् किसी विद्वान्, ऋषि, महर्षि का बनाया नहीं है। क्योंकि वेदानुयायी, शुद्ध, आप्त, तपस्वी, बहुदृष्ट, बहुश्रुत, जिन्होंने जानने योग्य को जान लिया और यथार्थ सत्य को प्राप्त कर लिया, ऐसे ऋषियों का कथन कदापि वेद से विरुद्ध नहीं हो सकता। तथा जो असम्बद्ध प्रलाप के तुल्य अयोग्य स्थान में प्रयुक्त, प्रकरण से विरुद्ध दूर से दीखता है। क्योंकि विद्वान् लोग प्रकरणविरुद्ध कथन कहीं नहीं करते। इससे प्रकरणविरुद्ध प्रक्षिप्त है। तीसरे पुनरुक्त श्लोक भी प्रक्षिप्त हैं, जैसे प्रथमाध्याय में जो कहा वही तीसरे अथवा चौथे में वैसे ही वा उसके पर्यायवाचक वा उस प्रकार के आशय वाले पदों से फिर-फिर कहा जावे, वह पुनरुक्त होने से प्रक्षिप्त समझा जाता है। तथा जो परस्पर विरुद्ध हो कि पूर्व जो कहा उससे विरुद्ध आगे कहा जावे। उन दोनों में एक ही ठीक वा सत्य ठहर सकता है। परन्तु सम्मतिभेद को छोड़कर, अर्थात् जहां कहीं सम्मतिभेद दिखाया गया वहां तो दूसरे की विरुद्ध सम्मति जताने के लिये ही ग्रन्थकर्त्ता ने दो प्रकार के वचन कहे हैं, किन्तु वहां विरोध नहीं है, जिस कारण प्रक्षिप्त हो। इत्यादि कारण प्रक्षिप्त जताने के लिये होते हैं, जिनका यहां उदाहरण मात्र दिखाया है।

प्रथमाध्याय में सृष्टि प्रक्रिया का सामान्य कर वर्णन है। उसके पश्चात् सब ग्रन्थ भर के विषयों का सूचीपत्र श्लोकों से ही कहा है। वहां जगत् की उत्पत्ति विषय के पश्चात् गर्भाधानादि संस्कार द्वितीयाध्याय में कहे हैं। इन उक्त दोनों विषयों के बीच ही सत् युगादि की व्यवस्था, पाप-पुण्य का न्यूनाधिक उपयोग, ब्राह्मणादि वर्णों के कर्म और ब्राह्मण वर्ण की विशेष प्रशंसा इत्यादि कथन प्रकरण विरुद्ध हैं। और सूचीपत्र में लिखे विषयों से बाह्य वा पृथक् हैं, इससे प्रक्षिप्त हैं ऐसा अनुमान होता है। इस समय वर्तमान पुस्तकों में ११९ (एक सौ उन्नीस) श्लोक छपे हुए मिलते हैं। और पाठान्तर रूप श्लोक इनसे भिन्न हैं। और वे किन्हीं-किन्हीं पुस्तकों में मिलते हैं, इससे ही उनका नाम पाठान्तर रखा गया। तिससे अनुमान होता है कि वे पाठान्तर रूप श्लोक वा वाक्य शीघ्र थोड़े काल से मिलाये गये हैं। और जो बहुत काल से मिलाये गये वे सब पुस्तकों में मिल जाने से सर्वत्र प्राप्त होते हैं अर्थात् जो वस्तु किसी में मिलाया जाता है, वह काल पाकर उसके सर्वांश से सम्बद्ध हो जाता है।

इस प्रथमाध्याय के प्रारम्भ में १३ श्लोक तो निर्विघ्न हैं। अर्थात् बत्तीसवें श्लोक को तेरहवें के आगे चौदहवां रखना चाहिये, ऐसा विचार ठीक जान पड़ता है। इस श्लोक पर मेधातिथि आदि सब भाष्यकारों ने जो अर्थ किया है वह वेदादि शास्त्रविपरीत और तुच्छ है। यह स्पष्ट जान पड़ता है [यह बात मेरे कहने मात्र से नहीं किन्तु जो कोई उस अर्थ को सुनेगा वही ऊटपटांग कहेगा कि ब्रह्मा ने अपने शरीर को बीच से चीर के दो टुकड़े किये उनमें एक से पुरुष और दूसरे से स्त्री हुई। भला किसी पुरुष के शरीर को बीच से चीर देने से स्त्री-पुरुष दो हो जावें यह सम्भव है ? यदि ऐसा हो सकता हो तो जो पुरुष स्त्रियों के बिना दुःखी हैं, जिनको स्त्री नहीं मिलती, वे अपने शरीर को चीर डालें तो उसी शरीर से स्त्री भी निकल आवे। विचार कर देखिये तो चीरने से वह पुरुष भी मर जावेगा। दो होना तो पृथक् रहा वहां एक भी रहना असम्भव है] वेदादि शास्त्रों में सर्वत्र ही एक परमेश्वर से सब सृष्टि उत्पन्न हुई, ऐसा लिखा है। जिससे पुरुष हुए उसी से सब स्त्रियां भी उत्पन्न हुईं, किन्तु स्त्री-पुरुष रूप दो भेद बनाने के लिये किसी देह- धारी मनुष्य के दो खण्ड करना उचित नहीं। कदाचित् पुरुष के दो खण्ड होने से स्त्री-पुरुष का भेद सिद्ध हो जावे। (यद्यपि यह असम्भव है तो भी अभ्युपगम सिद्धान्त से मान लो कि यह ऐसा हो) तो भी पशु-पक्षी आदि में स्त्री भेद कैसे होगा ? क्या वहां भी किसी पशु आदि के दो खण्ड कर स्त्री-पुरुष भेद मानना चाहिये ? देखो ! अथर्ववेद में१ लिखा है कि “देव- विद्वान् पुरुष कर्म- प्रधान, पितर- दीर्घदर्शी, बहुश्रुत, साधारण मनुष्य तथा गानविद्या में प्रवीण पुरुष और स्त्री ये सब उसी नित्य निराकार परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं।” यहां स्पष्ट अप्सरस् शब्दवाच्य स्त्रियों की उत्पत्ति परमेश्वर से हुई लिखी है। किन्तु यहां किसी पुरुषविशेष के दो टुकड़ों से उत्पत्ति नहीं है। इस प्रकार वेदों में सैकड़ों प्रमाण प्राप्त होंगे, जिनके द्वारा साक्षात् परमात्मा से ही भोग्य-भोक्तारूप स्त्री-पुरुष दोनों की निरन्तर उत्पत्ति सिद्ध हो जायेगी। अर्थात् पुरुष के टुकड़ों से वेदों में कहीं भी स्त्री-पुरुष के भेद की उत्पत्ति नहीं है। तथा यह अर्थ असम्भव भी है कि जो एक पुरुषशरीर के दो खण्ड करने से स्त्री-पुरुष हो जावें। क्या सिर की ओर से लम्बाई में दो खण्ड किये वा चौड़ाई में ? यदि लम्बा-लम्बा बीच से शरीर चीर दिया तो एक आंख, एक कान, एक बांह और एक गोड़े वाला पुरुष वा स्त्री होने चाहिये! यदि बीच नाभि वा कटिभाग से दो टुकड़े किये गये हों तो नीचे वा ऊपर के ही अवयवों वाला एक होता सो तो दीखता नहीं, इत्यादि कारणों से उपहासयोग्य होने से यह अर्थ अग्राह्य है। और सत्य अर्थ यह है- किसी प्रकार विकारी हुए तन्मात्र और विषयरूप से वृद्धि को प्राप्त, सब स्थूल वस्तुओं का पूर्वरूप कार्यकारण के मध्य में अवस्थित प्रकृति के कार्यरूप अपने देह को परमेश्वर ने दो भाग करके आधे से पुरुष और आधे से स्त्री को बनाया और स्त्री में इस सब ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया अर्थात् जड़ चेतन प्रत्येक पदार्थ में स्त्री-पुरुषरूप दो प्रकार का भेद किया। पुरुष में वीर्य छोड़ने की शक्ति तथा कठिनता दृढ़ और प्रबल शक्ति रखी गयी तथा स्त्री में गर्भधारणशक्ति, कोमलता और निर्बलता रखी गयी। इसीलिये स्त्री को अबला भी कहते हैं। यह अर्थ सम्भव वेदानुकूल और गम्भीरता युक्त भी है। ऐसा अर्थ होने पर वह श्लोक स्थान भ्रष्ट अर्थात् जहां रखना चाहिये वहां नहीं है। क्योंकि सब वस्तु की विशेष रचना से पूर्व ही ऐसा श्लोक होना चाहिये, पीछे ब्राह्मणादि चेतन वा जड़ की सृष्टि कहने में ब्राह्मणी आदि उस-उसकी         सम्बन्धिनी स्त्री की रचना भी आ जायेगी। यह बात प्रश्नोपनिषद् में रयि-प्राण और चन्द्र-सूर्य शब्दों से स्पष्ट दिखायी है। यहां भी ऐसा मानने पर ही उसके अनुकूल होगा। और ठीक भी ऐसा ही है, जो विशेष रचना से पूर्व ही स्त्री-पुरुषरूप भोग्यभोक्तृशक्तियों की वस्तुमात्र के सब कारण में ही भेद कल्पना करनी चाहिये ऐसा ही प्रश्नोपनिषद् में भी कहा है।

इस प्रकार यहां सब भाष्यकारों का भ्रम ही प्रतीत होता है। इस गूढ़ और गम्भीर शास्त्र के अर्थ में राघवानन्द भाष्यकार की पूर्णतः नहीं किन्तु कुछ थोड़ी बुद्धि चली है। इस सब कथन से सिद्ध हुआ कि सृष्टिप्रक्रिया में १३ (तेरहवें) श्लोक के आगे इस बत्तीसवें (द्विधा कृत्वा०) श्लोक को रखा जावे तो अनुचित नहीं जान पड़ेगा किन्तु ठीक सग्त जान पड़ेगा यह मेरी सम्मति है।

(द्विधा कृत्वा०) इस बत्तीसवें श्लोक के पश्चात् अर्थात् “तपस्तप्त्वा०” यहां से लेकर “जग्मम्॰” यहां तक पढ़े गए नौ श्लोक (३३-४१) प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। जैसे एक देश में बहुत राजा नहीं हो सकते वैसे सृष्टिकर्त्ता भी अनेक नहीं हो सकते। अर्थात् इन नव श्लोकों में कई सृष्टिकर्त्ता दिखाये हैं सो ठीक नहीं। वेदों में देवादि रचना भी साक्षात् परमात्मा से ही दिखायी गयी है, किन्तु अनेक मनुओं से नहीं, इसमें विशेष विचार वहां ही लिखा जायेगा, जहां वे पद्य पढ़े हैं।

आगे इक्यासीवें श्लोक से लेकर “दानमेकं कलौ युगे०” इस श्लोक पर्यन्त छह श्लोक प्रक्षिप्त हैं। क्योंकि सृष्टि प्रकरण में सत् युगादि में होने वाले धर्म की न्यूनाधिक व्यवस्था करना प्रकरणानुकूल नहीं हो सकती। इससे एक तो प्रकरण विरुद्ध है। द्वितीय किसी समयविशेष में सर्वथा धर्म वा अधर्म ही नहीं ठहर सकता, क्योंकि वे दोनों प्रकाश और अन्धकार के तुल्य सापेक्ष हैं। यदि प्रकाश कोई वस्तु न हो तो किसको अन्धकार कहें। जैसे शीत के अभाव में उष्ण का और उष्ण के अभाव में शीत का कोई वस्तु ठहरना असम्भव है। इसी प्रकार कृतयुग में भी   अधर्म की स्थिति अवश्य माननी चाहिये। तथा तीसरे वेदों में भी “सौ वर्ष देखें। सौ वर्ष आयु वाला पुरुष होता है” इत्यादि प्रमाण हैं। वे सब कलियुग के लिये ही हों यह नहीं हो सकता। ऐसा हो तो अन्य युगों के आयु की भी वेद में व्यवस्था होनी चाहिये। और यह कलियुग के लिये आयु है ऐसा नहीं लिखा, इससे सामान्य कर यह सब युगों के लिये है, यही सत्य जानो। इस कारण वेद से विरुद्ध होने से भी उक्त श्लोक प्रक्षिप्त हैं, यह मेरा विचार है।

आगे सत्तासीवें श्लोक से लेकर एकानवें (८७-९१) श्लोक पर्यन्त पांच श्लोकों में दशमाध्याय के “ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था०” इत्यादि श्लोकों के साथ किसी प्रकार पुनरुक्ति प्रतीत होती है, परन्तु वह समाधान करने योग्य है। क्योंकि यहां प्रथमाध्याय में ब्राह्मणादि के कर्मों का विभाग है अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में अपने-अपने कर्म में सब वर्णों को युक्त करना ही प्रयोजन है। इस ब्राह्मणादि के कर्मविभाग का सृष्टिप्रक्रिया के साथ सम्बन्ध है, ऐसा मानकर प्रथमाध्याय में वर्णन है। तथा ब्राह्मणादि वर्णों को आपत्काल में कैसे जीविका करनी चाहिये, यह आशय दिखाने के लिये कर्मों का अनुवाद करके दसवें अध्याय में वर्णन है। इस प्रकार पुनरुक्ति दोष नहीं जान पड़ता।

आगे चौरानवें-पिच्यानवें (९४-९५) दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि इन दोनों की इकत्तीसवें और तिरानवें श्लोक के साथ पुनरुक्ति भी आती है, और चौरानवें का यह “सर्वस्यास्य च गुप्तये” अंश भी सत्तासीवें (८७) श्लोक के साथ पुनरुक्त होने से प्रक्षिप्त है। तथा ब्राह्मण के मुख से देवता और पितृलोग हव्य-कव्य खाते हैं यह भी ठीक नहीं, क्योंकि अन्य के मुख से अन्य नहीं खा सकता। होमने योग्य पदार्थ जो सूर्यादि देवों को प्राप्त होते हैं, वे ब्राह्मण के मुख द्वारा नहीं, किन्तु अग्नि मुख से प्राप्त होते हैं। अर्थात् अग्नि में होमा गया द्रव्य प्रकारान्तर से प्रदेशान्तर को प्राप्त होता है, यह न्याय से सिद्ध है। क्योंकि ब्राह्मण के द्वारा किया गया भोजन किसी प्रकार से मेघमण्डल में जाता हो, यह नहीं कह सकते। इसलिये अनुमान से जान पड़ता है कि अन्य के भोजन की प्रतिक्षण तृष्णा रखने वाले भोजनभट्ट उदरम्भर नाममात्र के ब्राह्मणों ने ही ऐसे श्लोक बनाकर मिलाये हैं। केवल तिरानवें (९३) श्लोक में यथोचित प्रशंसा ब्राह्मण की की गई है।

तथा अठानवें से लेकर एक सौ एक (९८-१०१) पर्यन्त प्रक्षिप्त हैं। उन श्लोकों का एकदेशी होना तो प्रसिद्ध ही है। इन श्लोकों में अनुचित, पुनरुक्त, असम्बद्ध, पक्षपात वा स्वार्थपरक ब्राह्मण वर्ण की प्रशंसा है, जिससे ये भी चारों श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। इन पर विशेष विचार वहीं भाष्य में होगा। तथा एक सौ दो श्लोक से लेकर एक सौ सात (१०२-१०७) श्लोक पर्यन्त निष्प्रयोजन वा अल्पप्रयोजन परक श्लोक हैं। तथा किसी प्रकार असम्बद्ध, पक्षपातयुक्त और वेद से विरुद्ध तथा आत्मश्लाघा दोष वा अत्यन्त प्रशंसारूप दोष से युक्त हैं, इस कारण तुच्छ होने से पीछे किन्हीं स्वार्थियों ने मिलाये हैं, ऐसा अनुमान होता है।

आगे एक सौ सात से लेकर एक सौ दश (१०७-११०) पर्यन्त चार श्लोक चतुर्थाध्याय के १५५,१५६ श्लोकों के साथ पुनरुक्त जान पड़ते हैं। तो भी चतुर्थाध्याय के उक्त दो श्लोकों पर सबसे पहले भाष्यकर्त्ता मेधातिथि का भाष्य नहीं मिलता, तिससे अनुमान होता है कि मेधातिथि के भाष्य करने के समय में वे दोनों श्लोक चतुर्थाध्याय में नहीं थे। यदि भाष्य किया होता तो क्यों नहीं मिलता। इससे प्रथमाध्याय के आचारप्रतिपादक चारों श्लोक प्रक्षिप्त नहीं, ऐसा जान पड़ता है। आगे एक सौ ग्यारह श्लोक से लेकर सब ग्रन्थ का सूचीपत्र कहा गया है, उसमें कुछ विरोध नहीं है। इस प्रकार इन दोनों प्रकार के मिलाकर एक सौ उन्नीस श्लोक इस प्रथमाध्याय में मिलते हैं। उनमें उक्त प्रकार से मेरी सम्मति से प्रक्षिप्त समझे गये यदि छब्बीस (२६) श्लोक प्रक्षिप्त ठहरें तो शेष तिरानवें श्लोक शुद्ध ऋषिकृत मानने चाहियें।

आर्यसमाज की सैद्धान्तिक विजयः राजेन्द्र जिज्ञासु

यह ठीक है कि इस समय देश में अंधविश्वासों की अंधी आंधी चल रही है। नित्य नये-नये भगवानों व मुर्दों की पूजा की बाढ़ सी आई हुई है। तान्त्रिकों की संया अंग्रेजों के शासन काल से कहीं अधिक है। राजनेता, अभिनेता व टी. वी. जड़ पूजा तथा अंधविश्वासों को खाद-पानी दे रहे हैं।

आर्यसमाज के दीवाने विद्वानों, संन्यासियों तथा निडर भजनोपदेशकों ने अतीत में अंधेरों को चीरकर वेद का उजाला किया। उसी लगन व उत्साह से आज भी आर्यसमाज अंधविश्वासों के अंधकार का संहार कर सकता है।

स्वर्ग-नर्क, जन्नत-जहन्नुम की कहानियों का सब मत-पंथों में बहुत प्रचार रहा। ऋषियों ने घोष किया कि सुख विशेष का नाम स्वर्ग है और दुःख विशेष का नाम नर्क है। महान् विचारक डा. राधाकृष्णन् जी ने ऋषि के स्वर में स्वर मिला कर लिखा हैः-

Heaven and hell are not physical areas. A soul tormented with remorse for it deeds is in hell, a soul with satisfaction of a life well lived is in heaven. The reward for virtuous living is the good life. Virtue it is said, is its own reward.

(The Present Crisis of Faith. Page19 )

अर्थात् बहिश्त व दोज़ख कोईाूगोलीय क्षेत्र नहीं हैं। अपने दुष्कर्मों के कारण अनुतप्त आत्मा नर्क में है व अपने द्वारा किये गये सत्कर्मों से तृप्त, सन्तुष्ट आत्मा स्वर्गस्थ है। सदाचरणमय जीवन का पुरस्कार अथवा प्रतिफल श्रेष्ठ जीवन ही तो है। कहा जाता है कि पुण्य-भलाई अपना पुरस्कार आप ही है।

डॉ. राधाकृष्णन् ने अपने सुन्दर मार्मिक शदों में महर्षि दयानन्द के स्वर्ग-नर्क विषयक वेदोक्त दृष्टिकोण की पुष्टि तो की ही है, साथ ही पाठकों को स्मरण करवा दें कि देश के विााजन से पूर्व जब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने एक आर्य-बाला कल्याणी देवी को धर्म विज्ञान की एम. ए. कक्षा में प्रवेश देकर काशी के तिलकधारी पौराणिक पण्डितों के दबाव में वेद पढ़ाने से इनकार कर दिया, तब डॉ. राधाकृष्णन् जी ही उपकुलपति थे। मालवीय जी भी पौराणिक ब्राह्मणों की धांधली का विरोध न कर सके और डॉ. राधाकृष्णन् जी भी सब कुछ जानते हुए चुप रहे।

आर्यसमाज ने डटकर अपना आन्दोलन छेड़ा। आर्यों के सर सेनापति स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी स्वयं काशी में मालवीय जी से जाकर मिले। मालवीय जी स्वामी जी के पुराने प्रेमी, साथी व प्रशंसक थे। आपने आर्यसमाज का पक्ष उनके सामने रखा। डॉ. राधाकृष्णन् जी ने तो स्पष्ट ही लिखा कि विश्वविद्यालय आर्यसमाज का दृष्टिकोण जानता है। मैंने इस आन्दोलन का सारा इतिहास स्वामी जी के श्रीमुख तथा पं. धर्मदेव जी से सुना था। विजय आर्यों की ही हुई।

कुछ समय पश्चात् डॉ. राधाकृष्णन् जी ने अपनी पुस्तक Religion and Society में स्त्रियों के वेदाध्ययन के अधिकार के बारे में खुलकर सप्रमाण लिखा। डॉ. राधाकृष्णन् जी का कर्मफल-सिद्धान्त पर भी वही दृष्टिकोण है जो ऋषि का है। आर्यसमाज को चेतनाशून्य हिन्दू समाज को अपने आचार्य की सैद्धान्तिक दिग्विजय का यदा-कदा बोध करवाते रहना चाहिये। इससे हमारी नई पीढ़ी भी तो अनुप्राणित व उत्साहित होगी।