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पं. रघुनाथप्रसाद पाठक और डॉ. अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

आर्यसमाज की अन्तर्राष्ट्रीय संस्था-’सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा‘ के मुखपत्र ’सार्वदेशिक‘ का उसके जन्म काल (1927) से ही सम्पादन कर रहे, पं0 रघुनाथ प्रसाद पाठक (1901-1985) ने श्री डॉ0 अम्बेडकर के धर्म परिवर्तन पर अपनी सम्पादकीय टिप्पणी अंकित करते हुए उन्हें अपने निश्चय पर पुर्नविचार करने का सुझाव दिया था। श्री पाठकजी की टिप्पणी का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है-

’गत अक्टूबर (1956) में श्रीयुत डॉ0 अम्बेडकर ने दो लाख दलितों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म को स्वीकार किया। इस समाचार में हिन्दू जगत् में सनसनी फैल जाना स्वाभाविक था। और सनसनी फैली भी। डॉ0 अम्बेडकर पढ़े-लिखे, समझदार और देश के एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। यदि वे अकेले बौद्धमत से प्रभावित होकर उसमें दीक्षित होते, तो समाज को कोई विशेष चिन्ता न होती, परन्तु उनके साथ वे अधिकांश व्यक्ति दीक्षित हुए हैं, जिन्हें बौद्धमत का थोड़ा भी परिज्ञान नहीं है, इसलिए उनके धर्म परिवर्तन में हृदय की प्रेरणा न होने से वह स्वेच्छया धर्म परिवर्तन नहीं कहा जा सकता।‘

हमें भय है कि कहीं यह धर्म परिवर्तन राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रयुक्त न हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो बौद्ध धर्म बने हुए ये लोग बौद्ध मत के अपयश का कारण बन जाएँगे। एक भय और भी है और वह यह कि उन नव बौद्धों के साथ अब भी मुख्यतया ग्रामों में अस्पृश्यों जैसा ही व्यवहार होगा। उनकी स्थिति में सुधार होना तो एक ओर उल्टे बौद्ध मत को जात-पाँत की एक नई बीमारी लग जाएगी।

अस्पृश्यता के निवारण का उपाय यह है कि सवर्णों के हृदयों में से प्रशिक्षण तथा समय की गति की पहचान के द्वारा अस्पृश्यता की भावना निकल जाए, और अस्पृश्यों के हृदयों में अपने को हेय समझने की मनोवृत्ति नष्ट हो जाए, इसलिए धर्म और विवके से काम लेने की आवश्यकता है। यह कार्य धीरे-धीरे हो रहा है और दोनों की ही मनोवृत्तियों में उत्तम परिवर्तन हो रहा है। आर्यसमाज इस कार्य में मार्ग-दर्शन कर रहा है। कांग्रेस ने अस्पृश्यता को कानूनी अपराध ठहरा दिया है।

इस प्रकार के सामूहिक परिवर्तन से न तो हिन्दुओं की मनोवृत्ति बदल सकती है और न अस्पृश्यों की स्थिति ठीक हो सकती है, अतः इनसे लाभ की अपेक्षा हानि की अधिक आशंका है, अस्पृश्य कहे जाने वाले भाइयों को अपने हित-अहित के प्रति सावधान रहना चाहिए, और अपने को भेड़-बकरी न बनने देना चाहिए। राजनीतिज्ञों की चाल का मुहरा बन जाने से उन्हें पहले ही लाभ की अपेक्षा सामूहिक हानि अधिक हुई है, और यदि वे सावधान न रहें तो और भी भयंकर हानि हो सकती है।

अन्त में हम यह प्रार्थना और आशा कर रहे हैं कि डॉ0 अम्बेडकर अपने निश्चय पर पुनर्विचार करेंगे। वे हिन्दुओं के हृदय परिवर्तन का ही काम हाथ में ले लें, तो बड़ी सफलता प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि उनके व्यक्तित्व और विद्वता के प्रति सवर्ण हिन्दुओं में आदर है। (सार्वदेशिक: मासिक, दिसम्बर 1956: पृष्ठ 511-512)

पं शिवपूजन सिंह और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

महाराष्ट्र प्रान्तीय विदर्भ अंचल के वाशिम जनपद में स्थित कारंजा (लाड़) के ठाकुर रामसिंह जी आर्य के सौजन्य से आर्यसमाज कारंजा का प्राचीन ग्रन्थालय देखने का सौभाग्य 10 जून 2001 को प्राप्त हुआ। ग्रन्थालय में आर्यसमाज की अनेक दुर्लभ प्रतियाँ सँजोकर रखी हुई थीं। इन्हीं अंकों में जुलाई-अगस्त 1951 के सार्वदेशिक मासिक के अंक भी शामिल थे, जिसमें कानपुर के वैदिक गवेषक श्री शिवपूजनसिंह का डॉ0 अम्बेडकरजी के वेदादिविषयक विचारों की समीक्षा में लिखा हुआ ’भ्रान्ति निवारण‘ नामक लेख भी था। यह लेख 54 उद्धरणों से समृद्ध, बौद्धिक और विचारात्मक था, अतः उसे यात्रा में तत्काल न पढ़कर यथावकाश पढ़ने का विचार कर सुरक्षित रख दिया।

हमारी ’आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर‘ विषयक पुस्तिका इससे पूर्व प्रकाशित हो चुकी थी। अब 2008 में जब इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित करने की चर्चा चली तो मुझे श्री शिवपूजन सिंह कुशवाह के उपरोक्त लेख का स्मरण हो आया। कागजों के अम्बार में ’खोई हुई वस्तु की खोज‘ में लगा तो अनथक प्रयास से चर्चित लेख हाथ लग पाया और दिनांक 26 अप्रैल 2008 को उसे प्रथम बार पढ़ने के उपरान्त मन गद्गद् हो गया।

 

अन्तर्मन को प्रसन्न करनेवाला इस लेख का वह स्थल था जहाँ लेखक ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि विद्वद्वर्य पं0 धर्मदेवजी विद्यावाचस्पति सिद्धान्तालंकार सम्पादक सार्वदेशिक से डॉ0 अम्बेडकर महोदय ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वे ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ के अग्रिम अंग्रेजी संस्करण से उस भाग को हटवा देंगे, जो उन्हें आक्षेपार्ह प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ के हिन्दी अनुवादक पं0 सोहनलालजी शास्त्री महोदय को भी डॉ0 अम्बेडकर महोदय ने कहा था कि ’हिन्दी संस्करण से भी वह आक्षेपार्ह अंश निकाल दिया जाए।‘

यहाँ अंग्रेजी-हिन्दी संस्करण से जिस भाग या अंश को हटा देने की बात चल रही है, उसे हमने ’आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर‘ के प्रथम संस्करण की पादटिप्पणियों में 12वें क्रमांक पर उद्धृत किया था। इस अंश की ओर हमारा विशेष ध्यान मनुस्मृति के भाष्यकार प्रा0 डॉ0 सुरेन्द्रकुमारजी (हरियाणा) तथा डॉ0 ब्रह्ममुनिजी वानप्रस्थ (महाराष्ट्र) ने भी दिलाया था। ‘शूद्रों की खोज’ ग्रन्थ की प्रस्तावना में प्रकाशित वह अंश इस प्रकार है-

”यह पुस्तक आर्यसमाज मत के विरुद्ध है। यह विरोध दो आवश्यक बातों में है। 1. आर्यसमाजियों का यह विश्वास है कि आर्यों में चार वर्ण आदि से कायम हैं। लेकिन प्राचीन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि पहले भारतीय आर्यों में सिर्फ तीन ही वर्ण थे। 2. आर्यसमाजियों का विश्वास है कि वेद अनादि और ईश्वरकृत हैं, परन्तु इस पुस्तक में सिद्ध किया गया है कि वेदों का पुरुष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए पीछे से जोड़ा है। ये दोनों बातें आर्यसमाजी सिद्धान्त के विरुद्ध हैं। मुझे आर्यसमाजियों का इसलिए विरोध करने में हिचक नहीं है, क्योंकि उन्होंने हिन्दू समाज में भ्रान्ति का प्रचार किया है। उनका यह प्रचार कि वेद अनादि, अनन्त और अभ्रान्त हैं, अतः वेदों के आधार पर जो सामाजिक संस्थाएँ, वर्णव्यवस्था आदि बनी हैं, वे भी अनादि, अनन्त और अभ्रान्त हैं, ऐसे विश्वास को फैलाना समाज का सबसे बड़ा अनहित है। जब तक यह सिद्धान्त कायम है, हिन्दू समाज कभी सुधार की ओर नहीं जा सकता।“

पं0 शिवपूजनसिंह के अनुसार डॉ0 अम्बेडकरजी के ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ से उपरोक्त अंश को निकालने के निर्देशों का प्रकाशकों ने उल्लंघन कर दिया जो अत्यंत निन्दनीय बात है।

 

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि अपनी बात से टस से मस न होनेवाले, अपने लेख से अल्पविराम को भी कम न करने वाले डॉ0 अम्बेडकर जैसे सुहृद व्यक्ति क्या अपनी बात को कभी पीछे ले सकते हैं ? हम उन्हें यही कहना चाहते हैं कि- डॉ0 अम्बेडकरजी प्रकाण्ड विद्वान् थे और अपने से प्रतिकूल सिद्धान्त से सहमत होने पर वे उसे स्वीकार कर लेते थे। जान-बूझकर खारे जल का पानी पीना उन्हें पसन्द नहीं था। स्वामी वेदानन्द तीर्थ लिखित ’राष्ट्र-रक्षा के वैदिक साधन‘ की प्रस्तावना में डॉ0 अम्बेडकरजी ने यह स्वीकार किया है कि-’मैं यह तो नहीं कह सकता कि यह पुस्तक भारत का धर्मग्रन्थ बन जाएगी, किन्तु यह मैं अवश्य कहता हूँ कि यह पुस्तक पुरातन आर्यों के धर्मग्रन्थों से संकलित उद्धरणों का केवल अद्भुत संग्रह ही नहीं है, प्रत्युत यह चमत्कारिक रीति से उस विचारधारा तथा आचार शक्ति को प्रकट करती है, जो पुरातन आर्यों को अनुप्राणित करती थीं। पुस्तक प्रधानतया यह प्रतिपादित करती है कि पुरातन आर्यों में उस निराशावाद (दुःखवाद) का लवलेश भी नहीं था, जो वर्तमान हिन्दुओं में प्रबलरूप से छाया हुआ है। इस समय हमारे ज्ञान में यह कोई अल्प (नगण्य) वृद्धि नहीं है कि मायावाद (संसार को माया मानना) नवीन कल्पना है। इस दृष्टि से मैं इस पुस्तक का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।‘

डॉ0 अम्बेडकरजी और पं0 धर्मदेवजी सिद्धान्तालंकार में आपस में जो सैद्धान्तिक चर्चा हुई उसे पाठक ’बौद्धमत और वैदिकधर्म का तुलनात्मक अनुशीलन‘ ग्रन्थ में विस्तार से पढ़ सकते हैं। यहाँ मैं केवल उस बात को प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो मुझे महाराष्ट्र के वयोवृद्ध उपदेशक पं0 उत्तममुनिजी वानप्रस्थी ने कही थी। वह यह कि-’एक बार पं0 धर्मदेवजी ने हमसे कहा था कि-’माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने हमारा कथन सम्पन्न होने के उपरान्त यह कहा कि-’एक माँ अपने बच्चे को जैसे समझाती है, उस वात्सल्यभाव से आपने मुझे वैदिकधर्म समझाने का प्रयास किया है, पर मैं क्या करूँ, इन हिन्दुओं की मानसिकता मुझे बदलती हुई प्रतीत नहीं होती। उनका स्वभाव कठमुल्लाओं की तरह प्रतिगामी हो गया है।‘ प्रा0 डॉ0 महेन्द्रदास ठाकुर के अनुसार डॉ0 अम्बेडकर स्वयं आर्यसमाज में दलितों के साथ प्रवेश करने का मन बना चुके थे, लेकिन हिन्दु महासभा तथा आर्यसमाज की निकटता को देख वे बुद्ध दीक्षा की ओर मुड़े। (लेख-वह तूफान साथ लिए चलता था ”वैदिक गर्जना“-पं0 नरेन्द्र स्मृति विशेषांक मार्च-अप्रैल 2008, पृष्ठ 53)। स्मरण रहे सैद्धान्तिक स्तर पर डॉ0 अम्बेडकर वर्ण व्यवस्था को नहीं मानते थे, फिर भी उन्होंने यह स्वीकार किया था कि-’महात्मागाँधी की जन्मना वर्णव्यवस्था की तुलना में स्वामी दयानन्द सरस्वती की कर्मणा वर्णव्यवस्था बुद्धिगम्य और निरुपद्रवी है।‘

माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी पं0 धर्मदेवजी सिद्धान्तालंकार के प्रति अत्यन्त ही सम्मानभाव रखते थे। इस तथ्य का पता इस बात से चलता है कि उन्होंने अपने विधि मन्त्री के काल में भारत सरकार के विधि मन्त्रालय की ओर से ’हिन्दू कोड बिल तथा उसका उद्देश्य‘ नामक 204 पृष्ठों का एक ग्रन्थ प्रकाशित किया था, जिसमें पं0 धर्मदेवजी द्वारा लिखित दस लेखों की एक लेखमाला पृष्ठ 56 से 113 तक उद्धृत करते हुए डॉ0 अम्बेडकरजी ने लिखा था-’वेदों के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं0 धर्मदेव विद्यावाचस्पति उन थोड़े से व्यक्तियों में हैं, जिनके जीवन का अधिकांश समय वेदों एवं आर्यों के अन्यान्य प्राचीन धर्मग्रन्थों के अनुशीलन और अनुसन्धान में बीता है। पिछले दिनों उनकी एक लेखमाला दिल्ली के सुप्रसिद्ध हिन्दी दैनिक ’वीर अर्जुन‘ में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने प्राचीन स्मृतियों, वेदों तथा शास्त्रों के प्रमाण एवं उद्धरण देकर हिन्दू बिल के विविध विधानों का सारगर्भित विवेचन किया है। विचारशील पाठकों के लिए ’वीर अर्जुन‘ की स्वीकृति से यह लेखमाला यहाँ पुनः प्रकाशित की जा रही है। (पृष्ठ 56)

इस प्रदीर्घ प्रस्तावना के साथ प्रस्तुत है, श्री शिवपूजनसिंह लिखित ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख का सार-संक्षेप, जिसमें डॉ0 अम्बेडकरजी के वेदादि-विषयक विचारों की समालोचना की गई है। पूर्वपक्ष के रूप में डॉ0 अम्बेडकरजी का वेदादि-विषयक आक्षेप पक्ष पहले और वैदिक विद्वानों के चिन्तन पर आधारित श्री शिवपूजनसिंह का समाधान पक्ष बाद में साररूप में विवेकशील पाठकों के हितार्थ प्रस्तुत किया जा रहा है।

पं0 शिवपूजनसिंह कुशवाहा गवेषणापूर्ण तथा उद्धरण प्रधान शैली के सुप्रसिद्ध लेखक के रूप में ˗ प्रख्यात थे। आपने अम्बेडकर लिखित ’अछूत कौन और कैसे‘ तथा ’शूद्रों की खोज‘ नामक ग्रन्थों में माननीय डॉ0 महोदय ने वैदिक विचारधारा पर जो आक्षेप किए हैं, उसका ’भ्रान्ति निवारण‘ शीर्षक से ’सार्वदेशिक‘ मासिक (जुलाई-अगस्त 1951) के अंकों में समीक्षा की है। ’अछूत कौन और कैसे‘ ग्रन्थ के आठ मुद्दों और ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ के तीन मुद्दों को आपने समालोचना का विषय बनाया है। स्वाध्यायशील श्री शिवपूजनसिंह ने अपनी एक पुस्तक भी ’अथर्ववेद की प्राचीनता‘ भी पं0 धर्मदेवजी विद्यावाचस्पति के द्वारा डॉ0 अम्बेडकरजी की सेवा में भेजी थी। इस ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख के अन्त में लेखक ने लिखा है-’आशा है आप मेरे प्रमाणों पर पूर्णरूप से विचारकर तदनुकूल अपने ग्रन्थ में संशोधन करेंगे।‘ इस निवेदन के साथ उन्होंने अपने समीक्षात्मक लेख को पूर्णविराम दिया है।

 

’अछूत कौन और कैसे‘ ग्रन्थ में माननीय डॉ0 अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत पूर्वपक्ष या आक्षेपों का श्री शिवपूजनसिंह ने ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख में उत्तर पक्ष या समाधान पक्ष के रूप में जो निराकरण किया है, वह विवेकशील पाठकों के विचारार्थ संवादरूप में प्रस्तुत है-

डॉ0 अम्बेडकर-आर्य लोग निर्विवादरूप से दो हिस्सों और दो संस्कृतियों में विभक्त थे, जिनमें से एक ऋग्वेदीय आर्य तथा दूसरे यजुर्वेदीय आर्य थे, जिनके बीच बहुत बड़ी सांस्कृतिक खाई थी। ऋग्वेदीय आर्य यज्ञों में विश्वास करते थे, अथर्ववेदीय जादू-टोने में।

पं0 शिवपूजनसिंह-दो प्रकार के आर्यों की कल्पना केवल आपके और आप-जैसे कुछ मस्तिष्कों की उपज है। यह केवल कपोल-कल्पना या कल्पना विलास है। इसके पीछे कोई ऐसा ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। कोई ऐतिहासिक विद्वान् भी इसका समर्थन नहीं करता। अथर्ववेद में किसी प्रकार का जादू-टोना नहीं है।

डॉ0 अम्बेडकर-ऋग्वेद में आर्यदेवता इन्द्र का सामना उसके शत्रु अहि-वृत्र (साँप-देवता) से होता है, जो कालान्तर में नागदेवता के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

पं0 शिवपूजनसिंह-वैदिक और लौकिक संस्कृत में आकाश-पाताल का अन्तर है। यहाँ इन्द्र का अर्थ सूर्य और वृत्र का अर्थ मेघ है। यह संघर्ष आर्यदेवता और नागदेवता का न होकर सूर्य और मेघ के बीच में होनेवाला संघर्ष है। वैदिक शब्दों के विषय में नैरुक्तों का ही मत मान्य होता है। वैदिक निरुक्त प्रक्रिया से अनभिज्ञ होने के कारण आपको भ्रम हुआ है।

डॉ0 अम्बेडकर-महामहोपाध्याय डॉ0 काणे का मत है कि-गाय की पवित्रता के कारण ही वाजसनेयी संहिता में गोमांस भक्षण की व्यवस्था दी गई है।

पं0 शिवपूजनसिंह-श्री काणेजी ने वाजसनेयी संहिता का कोई प्रमाण और सन्दर्भ नहीं दिया है और न ही आपने यजुर्वेद पढ़ने का कष्ट उठाया है। आप जब यजुर्वेद का स्वाध्याय करेंगे तब आपको स्पष्ट गोवध निषेध के प्रमाण मिलेंगे।

डॉ0 अम्बेडकर-ऋग्वेद से ही यह स्पष्ट है कि तत्कालीन आर्य गोहत्या करते थे और गोमांस खाते थे।

पं0 शिवपूजनसिंह-कुछ प्राच्य और पाश्चात्य विद्वान् आर्यों पर गोमांस भक्षण का दोषारोपण करते हैं, किन्तु बहुत से प्राच्य विद्वानों ने इस मत का खण्डन किया है। वेद में गोमांस भक्षण का विरोध करने वाले 22 विद्वानों के स-सन्दर्भ मेरे पास प्रमाण हैं। ऋग्वेद से गोहत्या और गोमांस भक्षण का आप जो विधान कह रहे हैं, वह वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के अन्तर से अनभिज्ञ होने के कारण कह रहे हैं। जैसे वेद में ’उक्ष‘ बलवर्धक औषधि का नाम है, जबकि लौकिक संस्कृत में भले ही उसका अर्थ ’बैल‘ क्यों न हो।

डॉ0 अम्बेडकर-बिना मांस के मधुपर्क नहीं हो सकता। मधुपर्क में मांस और विशेषरूप से गोमांस का एक आवश्यक अंश होता है।

पं0 शिवपूजनसिंह-आपका यह विधान वेदों पर नहीं, अपितु गृह्मसूत्रों पर आधारित है। गृह्मसूत्रों के वचन वेदविरुद्ध होने से माननीय नहीं हैं। वेद को स्वतः प्रमाण मानने वाले महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार ‘दही में घी या शहद मिलाना मधुपर्क कहलाता है। उसका परिमाण 12 तोले दही में चार तोले शहद या चार तोले घी का मिलाना है।‘

डॉ0 अम्बेडकर-अतिथि के लिए गोहत्या की बात इतनी सामान्य हो गई थी कि अतिथि का ही नाम ’गोघ्न‘, अर्थात् गौ की हत्या करने वाला पड़ गया था।

पं0 शिवपूजनसिंह-’गोघ्न‘ का अर्थ गौ की हत्या करनेवाला नहीं है। यह शब्द ’गौ‘ और ’हन्‘ के योग से बना है। गौ के अनेक अर्थ हैं-यथा-वाणी, जल, सुखविशेष, नेत्र आदि। धातुपाठ में महर्षि पाणिनि ’हन्‘ का अर्थ ’गति‘ और ’हिंसा‘ बतलाते हैं। गति के अर्थ हैं-ज्ञान, गमन और प्राप्ति। प्रायः सभी सभ्य देशों में जब कभी किसी के घर अतिथि आता है तो उसके स्वागत करने के लिए गृहपति घर से बाहर आते हुए कुछ गति करता है, चलता है, उससे मधुर वाणी में बोलता है, फिर जल से उसका सत्कार करता है और यथासम्भव उसके सुख के लिए अन्यान्य सामग्रियों को प्रस्तुत करता है और यह जानने के लिए कि प्रिय अतिथि इन सत्कारों से प्रसन्न होता है वा नहीं, गृहपति की आँखें भी उसी ओर टकटकी लगाए रहती हैं। ’गोघ्न‘ का अर्थ हुआ- ’गौः प्राप्यते दीयते यस्मै स गोघ्नः‘ त्र जिसके लिए गौदान की जाती है, वह अतिथि ’गोघ्न‘ कहलाता है।

डॉ0 अम्बेडकर-हिन्दू चाहे ब्राह्मण हों या अब्राह्मण, न केवल मांसाहारी थे, किन्तु गोमांसाहारी थे।

पं0 शिवपूजनसिंह-आपका कथन भ्रमपूर्ण है, वेद में गोमांस भक्षण की बात तो जाने दीजिए मांस भक्षण का भी विधान नहीं है।

डॉ0 अम्बेडकर-मनु ने भी गोहत्या के विरोध में कोई कानून नहीं बनाया, उसने तो विशेष अवसरों पर ’गो-मांसाहार‘ अनिवार्य ठहराया है।

पं0 शिवपूजनसिंह-मनुस्मृति में कहीं भी मांस-भक्षण का वर्णन नहीं है, जो है वह प्रक्षिप्त है। आपने भी इस बात का कोई प्रमाण नहीं दिया। मनुजी ने कहाँ पर गो-मांस अनिवार्य ठहराया है। मनु (5/51) के अनुसार तो हत्या की अनुमति देनेवाला, अंगों को काटनेवाला, मारने वाला, क्रय और विक्रय करनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला और खानेवाला इस सबको घातक कहा गया है।

’अछूत कौन और कैसे‘ के अतिरिक्त माननीय डॉ0 अम्बेडकर जी का दूसरा ग्रन्थ है-’शूद्रों की खोज‘। इसमें भी उन्होंने वैदिक विचारधारा पर कुछ आक्षेप किए हैं। यहाँ भी पूर्ववत् संवाद शैली में डॉ0 अम्बेडकरजी का आक्षेप पक्ष और शिवपूजनसिंह का समाधान पक्ष प्रस्तुत है-

डॉ0 अम्बेडकर-पुरुष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रक्षिप्त किया है। कोल बुक का कथन है कि पुरुष सूक्त छन्द तथा शैली में शेष ऋग्वेद से सर्वथा भिन्न हैं। अन्य भी अनेक विद्वानों का मत है कि पुरुष सूक्त बाद का बना हुआ है।

पं0 शिवपूजनसिंह-आपने जो पुरुष सूक्त पर आक्षेप किया है, वह आपकी वेद अनभिज्ञता को प्रकट करता है। आधिभौतिक दृष्टि से चारों वर्णों के पुरुषों का समुदाय-’संगठित समुदाय‘-’एक-पुरुष‘ रूप है। इस समुदाय पुरुष या राष्ट्र-पुरुष के यथार्थ परिचय के लिए पुरुष सूक्त के मुख्य मन्त्र ’ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्….‘ (यजुर्वेद 31/11) पर विचार करना चाहिए।

उक्त मन्त्र में कहा है ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जंघाएँ और शूद्र पैर। केवल मुख, केवल भुजाएँ, केवल जंघाएँ या केवल पैर पुरुष नहीं, अपितु मुख, भुजाएँ, जंघाएँ और पैर, ’इनका समुदाय‘ पुरुष अवश्य है। वह समुदाय भी यदि असंगठित और कर्मरहित अवस्था में है तो उसे हम पुरुष नहीं कहेंगे। उस समुदाय को पुरुष तभी कहेंगे जबकि वह समुदाय एक विशेष प्रकार के क्रम में हो और एक विशेष प्रकार से संगठित हो।

राष्ट्र में मुख के स्थानापन्न ब्राह्मण हैं, भुजाओं के स्थानापन्न क्षत्रिय, जंघाओं के स्थानापन्न वैश्य और पैरों के स्थानापन्न शूद्र हैं। राष्ट्र में ये चारों वर्ण, जब शरीर के मुख आदि अवयवों की तरह सुव्यवस्थित हो जाते हैं, तभी इनकी पुरुष संज्ञा होती है। अव्यवस्थित या छिन्न-भिन्न अवस्था में स्थित मनुष्य समुदाय को वैदिक परिभाषा में पुरुष शब्द से नहीं पुकार सकते। आधिभौतिक दृष्टि से ’यह सुव्यवस्थित तथा एकता के सूत्र में पिरोया हुआ ज्ञान, क्षात्र, व्यापार-व्यवसाय, परिश्रम-मजदूरी इनका निदर्शक जनसमुदाय ही ’एक पुरुष‘ रूप है।

चर्चित मन्त्र का महर्षि दयानन्द इस प्रकार अर्थ करते हैं-”इस पुरुष की आज्ञा के अनुसार विद्या आदि उत्तम गुण तथा सत्यभाषण और सत्योपदेश आदि श्रेष्ठ कर्मों से ब्राह्मण वर्ण उत्पन्न होता है। इन मुख्य गुण और कर्मों के सहित होने से वह मनुष्यों में उत्तम कहलाता है और ईश्वर ने बल पराक्रम आदि पूर्वोक्त गुणों से युक्त क्षत्रिय वर्ण को उत्पन्न किया है। इस पुरुष के उपदेश से खेती, व्यापार और सब देशों की भाषाओं को जानना तथा पशुपालन आदि मध्यम गुणों से वैश्य वर्ण सिद्ध होता है, जैसे पग सबसे नीचे का अंग है, वैसे मूर्खता आदि निम्न गुणों से शूद्र वर्ण सिद्ध होता है।“

आपका लिखना कि पुरुष सूक्त बहुत समय बाद ऋग्वेद में जोड़ दिया गया, सर्वथा भ्रमपूर्ण है। चारों वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं, पुरुष सूक्त बाद का नहीं है। मैंने अपनी पुस्तक ”ऋग्वेद के दशम मण्डल पर पाश्चात्य विद्वानों का कुठाराघात“ में सम्पूर्ण पाश्चात्य और प्राच्य विद्वानों के इस मत का खण्डन किया है कि ऋग्वेद का दशम मण्डल, जिसमें पुरुष सूक्त भी विद्यमान है, बाद का बना हुआ है।

डॉ0 अम्बेडकर-शूद्र क्षत्रियों के वंशज होने से क्षत्रिय है। ऋग्वेद में सुदास, शिन्यु, तुरवाशा, तृप्सु, भरत आदि आदि शूद्रों के नाम आये हैं।

पं0 शिवपूजनसिंह-वेदों के सभी शब्द यौगिक हैं, रूढ़ि नहीं। आपने ऋग्वेद से जिन नामों को प्रदर्शित किया है। वे ऐतिहासिक नाम नहीं हैं। वेद में इतिहास नहीं है, क्योंकि वेद सृष्टि के आदि में दिया ज्ञान है।

डॉ0 अम्बेडकर-छत्रपति शिवाजी शूद्र तथा राजपूत हूणों की सन्तान हैं। (शूद्रों की खोज, दसवाँ अध्याय, पृष्ठ 77 से 96)

पं0 शिवपूजनसिंह-शिवाजी शूद्र नहीं, वरन् क्षत्रिय थे, इसके लिए अनेकों प्रमाण इतिहासों में भरे पड़े हैं। राजस्थान के प्रख्यात इतिहासज्ञ, महामहोपाध्याय डॉ0 गौरीशंकर हीराचन्द ओझा डी0 लिट् लिखते हैं-’मराठा जाति दक्षिणी हिन्दुस्तान की रहनेवाली है। उसके प्रसिद्ध राजा छत्रपति शिवाजी के वंश का मूल-पुरुष मेवाड़ के सीसोदिया राजवंश से ही था।‘ कविराज श्यामलदासजी लिखते हैं-‘शिवाजी महाराणा अजयसिंह के वंश में थे।‘ यही सिद्धान्त डॉ0 बालकृष्ण जी एम0ए0डी0 लिट्, एफ0आर0एस0एस0 का भी है।

इसी प्रकार राजपूत हूणों की सन्तान नहीं, किन्तु शुद्ध क्षत्रिय हैं। श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य एम0 ए0, श्री ई0बी0 कावेल, श्री शेरिंग, श्री व्हीलर, श्री हंटर, श्री क्रूक, पं0 नगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य एम0एम0डी0एल0 आदि विद्वान् राजपूतों को शूद्र क्षत्रिय मानते थे। प्रिवी कौंसिल ने भी निर्णय किया है, अर्थात् जो क्षत्रिय भारत में रहते हैं और राजपूत एक ही श्रेणी के हैं।

            6 दिसम्बर 1956 को माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी का देहावसान हुआ। शिवपूजनसिंह का यह चर्चित ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख ’सार्वदेशिक‘ मासिक में उनके देहावसान से लगभग पाँच साल तीन महीने पूर्व प्रकाशित हुआ था। ’सार्वदेशिक‘ से डॉ0 अम्बेडकरजी सुपरिचित थे तथा चर्चित अंक भी उनकी सेवा में यथासमय भिजवा दिया गया था। भारत रत्न डॉ0 अम्बेडकरजी के ’अछूत कौन और कैसे‘ और ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती लिखित ’ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका‘ एवं रिसर्च स्कासॉलर शिवपूजनसिंह कुशवाह का ’भ्रान्ति निवारण‘ नामक 16 पृष्ठीय आलेख मूलरूप में ही पढ़कर आशा है विचारशील पाठक सत्यासत्य का निर्णय लेंगे। मूलतः ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख संवाद शैली में नहीं है, अपितु शंका-समाधान शैली में है। हमने स्वाध्यायशील पाठकों की सुविधा और सरलता हेतु संवाद शैली में रूपान्तरित किया है।

पं ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी का परामर्श: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

सार्वदेशिक आर्य महासम्मेलन का सातवाँ अधिवेशन 27 अक्टूबर से 10 नवम्बर 1951 तक ऋषि निर्वाण के अवसर पर मेरठ नगर में आयोजित किया गया था। उसका स्वरूप क्या हो इस विषय पर पं0 ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु (1892-1964) ने वेदवाणी मासिक, वर्ष 4, अंक-1 में विस्तृत लेख लिखा था। जिसमें श्री जिज्ञासुजी ने डॉ0 अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत हिन्दू कोड बिल पर अपनी राय आर्यसमाज को प्रस्तुत करने का आग्रह करते हुए लिखा था, ”हिन्दू कोड बिल पर आर्यसमाज ने कोई स्पष्ट घोषणा नहीं की, अब तो यह विचारार्थ उपस्थित भी हो रहा है। मेरे विचार में इस विषय में अवश्य ही निश्चित घोषणा करनी चाहिए। आर्यसमाज को इस कोड बिल की एक-एक धारा को लेकर एक-एक पर अपनी धारणा घोषित करनी चाहिए थी, अब भी करनी चाहिए। जितना अंश ग्राह्म हो, उस पर ग्राह्मता की मोहर लगावें। यदि उसमें कुछ परिवर्तन वा परिवर्धन की आवश्यकता हो, तो भी एक बार इस विषय में निश्चित रूप निर्धारित कर उसकी घोषणा करनी उचित है, घसड़-पसड़ ठीक नहीं“—”हिन्दू कोड बिल पर अपना विचार निःसंकोच स्पष्ट देवें।“ हिन्दू कोड बिल अपने मूल रूप में यथासमय पारित नहीं हो पाया। 1956 में वह बिल संशोधित रूप में आया और दो हिस्सों में बंटकर ”हिन्दू मैरिज एक्ट (हिन्दू विवाह अधिनियम) और हिन्दू सक्सेशन एक्ट (उत्तराधिकार अधिनियम)“ के नाम से पास हो गया।

पं लक्ष्मीदत्त दीक्षित और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में आर्यजगत् के एक शिरोमणि विद्वान् पं0 लक्ष्मीदत्तजी दीक्षित (स्वामी विद्यानन्दजी सरस्वती-1915-2003) डॉ0 अम्बेडकरजी के सम्पर्क में आये थे। उनकी माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी से चार बार मुलाकात हुई थी। श्री लक्ष्मीदत्तजी उस समय दिल्ली के दरियागंज क्षेत्र में रहते थे, तो डॉ0 अम्बेडकरजी की कोठी तिलक मार्ग पर थी। जब पं0 दीक्षितजी की डॉ0 अम्बेडकरजी से सर्वप्रथम भेंट हुई, तब माननीय डॉ0 महोदय ने स्पष्ट किया, ’मेरा इस बात पर कोई आग्रह नहीं है कि हिन्दू समाज की एक आचार संहिता हो।‘

द्वितीय भेंट में माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने पं0 दीक्षितजी से कहा-’सनातनधर्मियों के विरोध की मुझे चिन्ता नहीं, क्योंकि वे तो सदा से हर अच्छी बात का विरोध करते आये हैं और छह महीने से अधिक उनका विरोध चलता नहीं। आर्यसमाज से बात करने के लिए मैं हर समय तैयार हूँ, क्योंकि सब बातों में उससे सहमत न होते हुए भी इतना तो मानता ही हूँ कि उसकी बात बुद्धिपूर्वक होती है।

तीसरी बात जब पं0 लक्ष्मीदत्तजी डॉ0 अम्बेडकरजी से मिलने गए तो वे उन्हें एक बड़े कमरे में ले गये। जहाँ दूर-दूर तक मेजों पर बड़ी-बड़ी पुस्तकें फैली हुई थीं और अनेक विद्वान, जिनमें एक दो सन्यासी भी थे, उनका अध्ययन कर रहे थे। माननीय डॉ0 अम्बेडकर ने बतलाया कि जो लोग हिन्दू कोड बिल को हिन्दू धर्म का विरोधी कहते हैं, उनके सामने मैं इसकी एक-एक धारा के लिए हिन्दू शास्त्रों से दस-दस प्रमाण प्रस्तुत करूँगा, श्री दीक्षितजी के अनुसार ’डॉ0 अम्बेडकर के लिए ऐसा करना कुछ कठिन नहीं था।

पं0 लक्ष्मीदत्तजी ने हिन्दू कोड बिल के सम्बन्ध में देशभर के उच्च कोटि के 500 हिन्दू विद्वानों और धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक नेताओं को एक परिपत्र भेजा था, जो कि जवाबी पोस्टकार्ड के रूप में था, जिसमें उन्होंने लिखा था-हिन्दू कोड बिल के सम्बन्ध में तीन प्रकार के मत हैं-1. उसके एक-एक अक्षर का विरोध किया जाए। 2. उसके एक-एक अक्षर का समर्थन किया जाए। 3. उस पर विचार करके उसमें जो अच्छी बातें हैं, उनका समर्थन और जो अनुचित हो, उनका विरोध किया जाए। साथ में संलग्न जवाबी कार्ड में तीनों मत उद्धृत कर विद्वानों से कहा गया कि जिससे सहमत हैं, उसे छोड़कर शेष दोनों को काट दें और अपने हस्ताक्षर करके लौटा दें।

पाँच सौ में से लगभग तीन सौ व्यक्तियों ने उत्तर भेजे। उनमें से केवल एक केन्द्रीय मन्त्री श्री नरहर विष्णु गाडगिल ने बिल के एक-एक अक्षर का समर्थन किये जाने के पक्ष में अपना मत दिया, तो तत्कालीन हिन्दू महासभा के नेता श्री नारायण भास्कर खरे ने इसके एक-एक अक्षर का विरोध किये जाने के पक्ष में अपनी सम्मति दी। शेष सब ने विचारोपरान्त उचित बातों का समर्थन करने तथा अनुचित का विरोध करने के पक्ष में अपना मत दिया। पं0 लक्ष्मीदत्तजी ने उक्त समस्त विवरण डॉ0 अम्बेडकरजी को भेज दिया।

 

सम्भवतः दिसम्बर 1949 में हिन्दू कोड बिल लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। उस दिन लोकसभा की दर्शक दीर्घा खचाखच भरी हुई थी। श्री दीक्षितजी को उस दिन लोकसभा के उपाध्यक्ष श्री अनन्त शयनम् आयंगर के प्रियजनों के लिए सुरक्षित कक्ष में स्थान मिल गया था। डॉ0 अम्बेडकरजी ने पं0 लक्ष्मीदत्त द्वारा संकलित उक्त विवरण ’हिन्दुस्तान टाइम्स‘ को यथास्थान प्रकाशनार्थ दे दिया। जिस दिन हिन्दू कोड बिल लोकसभा में प्रस्तुत हुआ। ठीक उसी दिन वह विवरण ’हिन्दुस्तान टाइम्स‘ में प्रकाशित हुआ। समाचार पत्र का तीसरा पृष्ठ पं0 लक्ष्मीदत्तजी के वक्तव्य से भरा पड़ा था। इस प्रकार विद्वानों के मत संकलन और उसके प्रकाशन-प्रसारण के सिलसिले में श्री लक्ष्मीदत्तजी की डॉ0 अम्बेडकरजी से चैथी मुलाकात हुई थी।

पं गंगाप्रसाद उपाध्याय और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

श्री पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय (1881-1968) ने डॉ0 अम्बेडकरजी को विद्वान् तर्कशील, उत्तम लेखक तथा वक्ता स्वीकार करते हुए लिखा है- ”श्री अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी।“ आर्यसमाज में दलितों का प्रवेश पचास वर्ष से चला आया था। महादेव गोविन्द रानाडे के सोशल कांफ्रेंस में अधिकतर आर्यसमाजियों का सहयोग रहता था। आर्य नेता तथा सहस्त्रों आर्यसमाजी दलितोद्धार में लगे हुए थे। भेद केवल उद्योग और साफल्य की मात्रा का था। डॉ0 अम्बेडकरजी स्वभाव से हथेली पर सरसों जमानेवाले व्यक्तियों में से हैं। उनको मनचाही चीज तुरन्त मिले, अन्यथा वह दल परिवर्तन कर देते हैं।“इस धारणा के बाद भी आर्य विद्वान् पं0 गंगाप्रसादजी माननीय डॉ0 अम्बेडकर जी द्वारा प्रस्तुत हिन्दू कोड बिल के पक्षधर थे। बात उस समय की है जब गंगा प्रसाद उपाध्याय आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तर प्रदेश के प्रधान (1941-1947) थे। तब काशी के कुछ पण्डितों ने आर्यसमाज इलाहाबाद चैक पधारकर उनसे कहा, ‘विदेशी सरकार हिन्दुओं के धर्म को भ्रष्ट करने के लिए हिन्दू कोड बिल पास करना चाहती है। आर्यसमाज हिन्दू संस्कृति का सदा से रक्षक रहा है। हम चाहते हैं कि इसके विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन चलाया जाए और आर्यसमाज इस सांस्कृतिक युद्ध में हमारा पूरा सहयोग करे।‘

काशी के पण्डितों के उपरोक्त अनुरोध को सुनकर उपाध्यायजी ने कहा-’जब तक मैं ’बिल‘ का पूरा अध्ययन न कर लूँ और अपने मित्रों से बिल के गुण-दोषों पर परामर्श न कर लूँ, मेरे लिए यह कहना कठिन होगा कि आर्यसमाज आपको कहाँ तक सहयोग दे सकेगा ? — शायद आर्यसमाज इस दृष्टिकोण से आपसे सहमत न हो, क्योंकि आर्यसमाज एक सुधारक संस्था है और हिन्दू पण्डितों की सदैव से एक मनोवृत्ति रही है, वह यह कि सुधार के काम में रोड़ा अटकाना। हिन्दू समाज मरणासन्न हो रहा है। आप स्वयं चिकित्सा का उपाय नहीं सोचते और दूसरों को रोगी के समीप तक फटकरने नहीं देते। आर्यसमाज को अपने जन्म से अब तक यही कटु अनुभव हुआ है। बाल-विवाह-निषेध (1929) के कानून में आपने विरोध किया। अनुमति कानून जैसे अत्यावश्यक कानून के पास होते समय भी यही आवाज आई कि विदेशियों और विधर्मियों को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं, आर्यसमाज अपने सुधार में हरेक उचित साधन का प्रयोग करता रहा और एक अंश में आप भी विदेशी सरकार से पीछा नहीं छुड़ा सके, आप अपनी आत्म-रक्षा के लिए विदेशी सरकार की कचहरियों, पुलिस, सेना आदि का प्रयोग करते रहे हैं।

हिन्दू कोड बिल का अध्ययन करने के उपरान्त पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि-हिन्दू कोड बिल का विरोध, बिना सोचे समझे सनातन धर्म के ठेकेदारों की ओर से खड़ा किया गया है।

सार्वदेशिक सभा ने अपने प्रधान पं0 इन्द्र विद्यावाचस्पति (1889-1960) और मन्त्री पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय के हिन्दू कोड बिल के अनुकूल होने के बावजूद केवल बहुमत के आधार पर सामूहिक रूप से हिन्दू कोड बिल का विरोध करने का निर्णय ले लिया था।

सार्वदेशिक सभा के उपरोक्त निर्णय पर अपना तीव्र असन्तोष व्यक्त करते हुए भी उपाध्यायजी ने लिखा था। ’आर्यसमाज ने यह विरोध करके अपना नाम बदनाम कर लिया। अब —(इस सन्दर्भ में)—आर्यसमाज का नाम सुधारक—संस्थाओं की सूची से काट दिया जाएगा—अधिकांश आर्यसमाजियों ने भी सनातनियों का साथ देकर उनके ही सुर में सुर मिलाया, जो मेरे विचार से सर्वथा अनुचित, निरर्थक तथा आर्यसमाज की उन्नति के लिए घातक था।‘

श्री उपाध्यायजी की दृष्टि में हिन्दू कोड बिल ’पौराणिक और वैदिक धर्म‘ के बीच एक ऐसी चीज थी, जो आर्यसमाज के अधिक निकट और पौराणिकता से अधिक दूर है, अर्थात् इसका झुकाव आर्यसमाज की ओर है। आर्यसमाज को इसकी सहायता करनी चाहिए थी, उसने उसका विरोध करके पौराणिक कुप्रथाओं को जीवित रखने में सहायता दी।

   श्री उपाध्याय जी का यह मन्तव्य था कि – ’चाहे फल कुछ भी हो, आर्यसमाज को किसी अवस्था में भी सुधार के विरोधियों का साथ देकर सुधार-विरोधिनी मनोवृत्ति को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए था। मैं हारूँ या जीतूँ, मुझे कहना तो वही चाहिए, जो सत्य है।‘

पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय सार्वदेशिक सभा के मन्त्री (1946-1951) होते हुए भी आर्यसमाजियों को हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में अपने अनुकूल करने में असमर्थ रहे। पुनरपि उन्होंने आर्यसमाज की इस सनातनी प्रवृत्ति की परवाह न करते हुए, माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी के ‘हिन्दू कोड बिल‘ के अनुकूल ही कई स्थानों पर व्याख्यान दिये। श्री उपाध्यायजी के अनुसार यह भ्रामक और राजनीति प्रेरित प्रचार था कि-हिन्दू कोड बिल-1. भाई-बहिन के विवाह (सगोत्र विवाह) को विहित ठहराता है। 2. तलाक चलाना चाहता है और 3. पुत्रियों को जायदाद में हक दिलाकर हिन्दुओं के पारिवारिक जीवन को नष्ट करना चाहता है।

हमें इस बात की जानकारी नहीं है, माननीय डॉ0 अम्बेडकर और पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय की कभी प्रत्यक्ष भेंट हुई या नहीं, श्री उपाध्यायजी द्वारा लिखे 1. अछूतों का प्रश्न, 2. ’हिन्दूजाति का भयंकर भ्रम‘, 3. ’दलित जातियाँ और नया प्रश्न‘, 4. ’हिन्दुओं का हिन्दुओं के साथ अन्याय‘, 5. डॉ0 अम्बेडकर की धमकी आदि सम-सामयिक प्रचारार्थ लिखी गई लघु पुस्तिकाओं से सम्भवतः इन सब बातों पर और अधिक प्रकाश पड़े। हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में श्री उपाध्यायजी ने बड़ी तीव्रता से यह अनुभव किया था कि-’सनातनी मनोवृत्ति आर्यसमाज में प्रविष्ट हो चुकी है।‘ इस मनोवृत्ति को सन् 1928 में ही डॉ0 अम्बेडकरजी ने ताड़ लिया था और अपने एक लेख में लिखा था कि ’आज आर्यसमाज को सनातन धर्म ने निगल लिया है।‘

स्वामी वेदानन्द तीर्थ और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

’स्वाध्याय-सन्दोह‘ के लेखक स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ (1892-1956) ने भी अपनी पुस्तक ’राष्ट्र रक्षा के वैदिक साधन‘ (1950) का प्राक्कथन डॉ0 बी0 आर0 अम्बेडकर से इसी उद्देश्य से लिखवाया था कि इस पुस्तक को पढ़कर डॉ0 अम्बेडकरजी बौद्ध धर्म से विमुख होकर वैदिक धर्म की ओर उन्मुख हो जाएँगे। उक्त पुस्तक के डॉ0 अम्बेडकरजी लिखित प्राक्कथन को पढ़कर लगता है कि उन्हें उक्त चर्चित पुस्तक ने प्रभावित तो किया, पर वे इससे पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हुए। उनके द्वारा बहुत ही सतर्कता के साथ लिखा हुआ प्राक्कथन इस प्रकार है-

”स्वामी वेदानन्द तीर्थ की इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखने के लिए मुझे प्रेरणा की गई। कार्यभार के कारण मैं लेखक की प्रार्थना स्वीकार करने में असमर्थता प्रकट करता रहा, किन्तु मेरे द्वारा कतिपय शब्द लिखने के लिए लेखक का अनुरोध निरन्तर रहा, अतः मुझे लेखक का अनुरोध स्वीकार करना ही पड़ा। लेखक की स्थापना यह है कि स्वतन्त्र भारत वेद प्रोक्त शिक्षा को अपने धर्म के रूप में अंगीकार करे। यह शिक्षा सम्पूर्ण वेदों में विभिन्न स्थलों पर निर्दिष्ट है और इसका लेखक ने इस पुस्तक में संकलन कर दिया है। मैं यह तो नहीं कह सकता कि यह पुस्तक भारत का धर्मग्रन्थ बन जाएगी, किन्तु यह मैं अवश्य कहता हूँ कि यह पुस्तक पुरातन आर्यों के धर्मग्रन्थों से संकलित उद्धरणों का केवल अद्भुत संग्रह ही नहीं है, प्रत्युत यह चमत्कारिक रीति से उस विचारधारा तथा आचार की शक्ति को प्रकट करती है, जो पुरातन आर्यों को अनुप्राणित करती थीं। पुस्तक प्रधानतया यह प्रतिपादित करती है कि पुरातन आर्यों में उस निराशावाद (दुःखवाद) का लवलेश भी नहीं था, जो वर्तमान हिन्दुओं में प्रबल रूप से छाया हुआ है।“ प्राक्कथन के अन्तिम परिच्छेद में वे पुनः लिखते हैं। ’पुस्तक की उपयोगिता और भी अधिक बढ़ जाती यदि लेखक महोदय यह दर्शाने का प्रयत्न करते कि प्राचीन भारत के सत्ववाद तथा आशावाद को उत्तरकाल के निराशावाद ने कैसे पराभूत कर दिया ? मुझे आशा है कि लेख कइस समस्या की किसी अन्य समय पर विवेचना करेंगे। तथापि इस समय हमारे ज्ञान में यह कोई अल्प (नगण्य) वृद्धि नहीं है कि मायावाद (संसार को माया मानना) नवीन कल्पना है। इस दृष्टि से मैं इस पुस्तक का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।‘

डॉ बालकृष्ण और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

सुविख्यात अनुसंधाता विद्वान् एवं इतिहासज्ञ प्राध्यापक श्री, राजेन्द्रजी जिज्ञासु ने ’आर्यसमाज और डॉ0 भीमराव अम्बेडकर‘ नामक अनुसंधान पुस्तक के प्राक्कथन में 16 जुलाई 2000 को जब यह लिखा था कि-’महाराष्ट्र में शिक्षा का प्रसार, अस्पृश्यता निवारण और जन-जागृति के आन्दोलन में आर्य विद्वान् डॉ0 बालकृष्णजी का भी अद्भुत योगदान रहा है और उनके व्यक्तित्व और सेवाओं की छाप भी डॉ0 अम्बेडकरजी पर रही हैं,‘ तब मुझे डॉ0 बालकृष्ण और डॉ0 अम्बेडकर के आपसी सम्बन्धों के विषय में यत्किंचित् भी जानकारी नहीं थी। हाँ, इन सम्बन्धों को जानने की जिज्ञासा प्रा0 जिज्ञासु जी के प्राक्कथन के कारण ही उत्पन्न हुई।

महाराष्ट्र आर्य लेखक संघ के अध्यक्ष व आर्यसमाज रामनगर लातूर के मन्त्री श्री ज्ञानकुमार जी आर्य से जब मैंने डॉ0 बालकृष्णजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के विषय में जानकारी चाही, तो उन्होंने मुझे उनके ग्रन्थालय में उपलब्ध ’डॉ0 बालकृष्ण चरित्र कार्य व आठवणी‘ नामक ग्रन्थ की फोटोस्टेट प्रति 7 जून, 2002 को उपलब्ध करा दी। सबसे पहले इसी ग्रन्थ से प्रा0 जिज्ञासुजी के डॉ0 बालकृष्ण और डॉ0 अम्बेडकर विषयक उपरोक्त कथन को पुष्ट करनेवाली प्रामाणिक और विश्वसनीय जानकारी प्राप्त हुई। डॉ0 बालकृष्णजी के देहावसान के दो वर्ष बाद कोल्हापुर आर्यसमाज और डॉ0 बालकृष्ण स्मारक समिति के तत्त्वावधान में सम्पादक श्री मो0 रा0 वालंबे ने यह 308 पृष्ठ का ग्रन्थ् सम्पादित किया है। जिसमें 22 लेख मराठी में, 15 लेख इंग्लिश में और 2 लेख हिन्दी में हैं। ग्रन्थ के मराठी शीर्षक के अन्त में आये ’आठवाणी‘ शब्द का अर्थ संस्मरण और यादें हैं।

 

कोल्हापुर के श्री विष्णु बलवंत शेंडगे ने ’हम दलितों के पक्षधर‘ (मराठी शीर्षक-आम्हा हरिजनांचे कैवारी) नामक लेख में लिखा है, श्री छत्रपति शाहू महाराज ने अपनी राजधानी कोल्हापुर में सन् 1918 में आर्यसमाज की स्थापना की थी। सन् 1922 से डॉ0 बालकृष्ण ने आर्यसमाज कोल्हापुर के प्रधान के रूप में कार्य करना शुरू किया था। 1922 से लेकर लगभग 1940 तक उन्होंने आर्यसमाज के माध्यम से दलितोद्धार का जो उज्जवल कार्य किया, वह अविस्मरणीय है। डॉ0 बालकृष्ण साहब के अन्तःकरण में दलितों के प्रति अतिशय आत्मीयता और सहानुभूति थी। उनकी सर्वांगीण उन्नति के लिए डॉ0 साहब ने अपनी ओर से बहुत से प्रयास स्वयं किये ही, अन्यों से भी इस क्षेत्र में जितना कार्य वे करवा सकते थे, उतना उन्होंने करवाया। दलितों के महान व विद्वान् नेता डॉ0 अम्बेडकर व डॉ0 बालकृष्ण साहब का आपस में अत्यन्त घनिष्ठ व स्नेहिल सम्बन्ध था। (पृष्ठ 199)। डॉ0 अम्बेडकर (1891-1956) से डॉ0 बालकृष्ण (1882-1940) आयु में नौ वर्ष बड़े थे। दोनों ही अर्थशास्त्र तथा इतिहास के विद्वान्, उत्तम वक्ता और लेखक थे।

            डॉ0 बालकृष्ण और डॉ0 अम्बेडकर के इन घनिष्ठ सम्बन्धों की पुष्टि कालान्तर में श्री चांगदेव भवानराव खैरमोडे लिखित श्री भीमराव अम्बेडकर नामक चरित्र ग्रन्थ से हुई। लेखक ने यह ग्रन्थ डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर के जीवनकाल में ही अनेक खण्डों में लिखा था। लेखक की लगभग पन्द्रह साल तक डॉ0 अम्बेडकरजी के सान्निध्य में रहने का अवसर मिला। वे अपने इस चरित्र के द्वितीय खण्ड में प्रसंगवशात् डॉ0 अम्बेडकर और डॉ0 बालकृष्ण से सम्बन्धित घटना का वर्णन करते हुए लिखते हैं-

सन् 1927 में मुम्बई क्षेत्र में तीन शासकीय रिक्त स्थानों की पूर्ति की जानी थी। इस जगह के लिए संस्कृत विषय लेकर बी0ए0 ऑनर्स की उपाधि प्राप्त करने वाले पहले महाराष्ट्रीय दलित (महार) युवक श्री मा0 का0 जाधव ने भी प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया था। जब वे बी0 ए0 उत्तीर्ण हुए तब डॉ0 अम्बेडकर ने पत्र लिखकर उनका अभिनन्दन तो किया ही था, इसके अतिरिक्त दीक्षान्त समारोह के अवसर पर पहिनने के लिए उन्होंने अपना वकालत का चोगा भी उन्हें प्रदान किया था। स्वयं डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी ने ही राजाराम कॉलेज में श्री जाधव की फॅलो के रूप में नियुक्ति भी करवाई थी। इस स्थान पर कार्य करते समय ही श्री जाधव ने मुम्बई की शासकीय सेवा हेतु अपना प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया था, पर मुम्बई सरकार ने दो रिक्त स्थानों पर मराठा समुदाय के लोगों की नियुक्ति की थी और तीसरे स्थान पर एक मुसलमान व्यक्ति की नियुक्ति कर दी गई थी। डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर ने इस बात पर खेद व्यक्त करते हुए कहा था कि-मुसलमन उम्मीदवार के सामान्य बी0 ए0 होने पर भी मुम्बई सरकार ने उसकी नियुक्ति कर दी और दलित प्रत्याशी के बी0 ए0 ऑनर्स होने पर भी उसकी नियुक्ति नहीं की गई। डॉ0 बाबासाहब ने तत्काल इस सरकार की कार्यवाही पर अपनी टिप्पणी व्यक्त करते हुए इसे दलित प्रत्याशी पर सरासर अन्याय घोषित किया था।

तत्युगीन समाज में जब केवल अशिक्षित दलितों पर ही नहीं, किन्तु शिक्षित दलितों पर भी इस प्रकार के अन्याय हो रहे थे, तब प्राचार्य डॉ0 बालकृष्णजी द्वारा दलित स्नातक को आर्यसमाजी शिक्षण संस्था राजाराम महाविद्यालय कोल्हापुर में संस्कृत फॅलो के रूप में नियुक्ति प्रदान करना, अपने आपमें विशेष महत्त्व रखता है। प्राचार्य डॉ0 बालकृष्णजी का आर्योचित व्यवहार देखकर डॉ0 अम्बेडकरजी का मन सुनिश्चित रूप से गद्गद् हुआ होगा। डॉ0 अम्बेडकरजी ने आर्य विद्वान् और आर्य शिक्षण संस्था की जैसी प्रशंसा सुनी थी, तदनुरूप ही उन्हें व्यावहारिक जीवन में मानवोचित सदाचरण करते हुए पाया। मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्। मनसा-वाचा-कर्मणा आचार्य-महात्माओं का आचरण अभिन्न-एकरूप होता है।

उपरोक्त घटना के समय सन् 1927 में प्राचार्य डॉ0 बालकृष्णजी की आयु 45 वर्ष और बाबासाहब डॉ0 अम्बेडकरजी की आयु 36 वर्ष की थी। कोल्हापुर जाकर समकालीन व्यक्तियों से मिलने पर अथवा समकालीन साहित्य के अध्ययन के उपरान्त कालान्तर में डॉ0 बालकृष्ण और डॉ0 अम्बेडकर के आत्मीय सम्बन्धों की और भी अधिक विस्तार से जानकारी उपलब्ध हो सकती हैं। प्रा0 श्री राजेन्द्रजी जैसे इतिहासज्ञ इस विषय पर और अधिक विस्तार से प्रकाश डाल सकते हैं। ’हम दलितों के पक्षधर‘ के लेखक श्री0 वि0 ब0 शेंडगे के शब्दों में ’अपने जीवन के अंतिम क्षण तक डॉ0 बालकृष्णजी आर्यसमाज की ओर से दलितोद्धार के लिए अविश्रांत और अनथक संघर्ष करते रहे थे।‘ (पृष्ठ 200)

 

डॉ0 बालकृष्ण के कोल्हापुर में सक्रिय आर्यसमाज का होना अत्यावश्यक

कोल्हापुर के राजा छत्रपति शाहूजी महाराज पर आर्यसमाज का प्रभाव पड़ा। उन्होंने कोल्हापुर का राजाराम कॉलेज संयुक्त प्रान्तीय आर्य प्रतिनिधि सभा को सौंप दिया। सभा ने कॉलेज के प्राचार्य पद के लिए विख्यात आर्य विद्वान् डॉ0 बालकृष्णजी को भेजा। वे कोल्हापुर के ही हो गये। उन्होंने वहाँ वैदिक धर्म प्रचार की धूम मचा दी। सहस्रों व्यक्ति शुद्ध होकर आर्य धर्म में दीक्षित हुए। डॉ0 बालकृष्ण, डॉ0 अविनाशचन्द्र बोस, पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय आदि के प्रयत्नों से अस्पृश्यता व जन्म की जात-पाँत की जड़ें उखड़ने लगीं। खेद की बात है जिस कोल्हापुर में बालकृष्ण जैसे यशस्वी शिक्षा शास्त्री, गवेषक लेखक, इतिहासज्ञ और प्रारंभिक काल में महाराष्ट्र केसरी छत्रपति शिवाजी पर अंग्रेजी में प्रामाणिक जीवन चरित्र लिखने वाले चरित्रकार ने जीवन खपाया, वहाँ अब सक्रिय आर्यसमाज नहीं। आर्यसमाज की लाखों के भवन हैं, परन्तु आर्यों के हाथ में कुछ भी नहीं। किसी समय कोल्हापुर से हिन्दी, मराठी तथा अंग्रेजी में आर्यसमाज सम्बन्धी बहुत सारा साहित्य निकला था। (व्यक्ति से व्यक्तित्व-प्रा0 राजेन्द्रजी जिज्ञासु-पृष्ठ 105-107)

पं0 धर्मदेव सिद्धान्तालंकार और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

प्रतीत होता है आर्यसमाज के कतिपय वैदिक विद्वानों ने विचारशील विद्वान् माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी को बौद्धमत से वैदिक धर्म की ओर आकृष्ट करने का समय-समय पर प्रयास किया। इसी उद्देश्य से सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के सहायक मन्त्री पं0 धर्मदेव सिद्धान्तालंकार विद्यावाचस्पतिजी (स्वामी धर्मानन्द विद्यामार्तण्ड-1901-1978) ने सन् 1952 (संवत्-2008) में ”बौद्धमत और वैदिक धर्म: तुलनात्मक अनुशीलन“ नामक 230 पृष्ठों का ग्रन्थ भी लिखा था।

इसके अतिरिक्त इसी उद्देश्य से अनेक बार उन्होंने माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी से वार्तालाप भी किया था। 27 फरवरी 1954 की रात को ’आस्तिकवाद‘ विषय पर माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी से उन्हीं के 1-हार्डिंग्ज ऐवेन्यू, नई दिल्ली के बंगले में पं0 धर्मदेवजी की बात हुई थी। डॉ0 अम्बेडकरजी से हुई बातचीत को उन्होंने ’सार्वदेशिक‘ जुलाई 1951 के अंक में भी प्रकाशित किया था। इससे पूर्व 12 मई 1950 को भी पं0 धर्मदेवजी की माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी से बातचीत हुई थी। डॉ0 अम्बेडकरजी ने कलकत्ता की ’महाबोधि सोसाइटी‘ के अंग्रेजी मासिक पत्र ’महाबोधि‘ के अप्रैल-मई 1950 के अंक में ’बुद्धा एण्ड द फ्यूचर ऑफ हिज रिलीजन‘ नामक एक प्रदीर्घ लेख लिखा था। जिसे पढ़कर, पं0 धर्मदेवजी ने ’बौद्धमत और वैदिक धर्म: तुलनात्मक अनुशीलन‘ नामक ग्रन्थ लिखा था। अब यह दुर्लभ ग्रन्थ घुमक्कड़ धर्मी आचार्य नन्दकिशोरजी, इतिहासवेक्ता प्रा0 राजेन्द्रजी ’जिज्ञासु‘ वानप्रस्थी तथा प्रभाकरदेवजी आर्य के अनथक प्रयासों से सुलभ हो गया है।

डॉ0 डी0 आर0 दास (पं0 उत्तममुनि जी वानप्रस्थी) ने इस लेखक को बतलाया था कि-माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने पं0 धर्मदेव जी से कहा था-एक माँ अपने बच्चे को जैसे समझाती है, उस वात्सल्य भाव से आपने मुझे वैदिक धर्म समझाने का प्रयास किया है, पर मैं क्या करूँ, हिन्दुओं की मानसिकता मुझे बदलती हुई प्रतीत नहीं होती। उनका स्वभाव कठमुल्लाओं की तरह प्रतिगामी हो गया है।

आर्य महापुरुषों के प्रति डॉ0 अम्बेडकरजी का कृतज्ञता भाव:डॉ कुशलदेव शाश्त्री

डॉ0 अम्बेडकरजी भी आर्य महापुरुषों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता भाव रखते थे। उन्होंने अपनी पी0एच0डी0 का प्रकाशित शोध-प्रबन्ध बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ को समर्पित किया है। डॉ0 अम्बेडकरजी के गुरु ज्योतिबा फुलेजी को महाराज सयाजीराव गायकवाड़जी ने ही सन् 1886 में मुम्बई के एक समारोह में ’महात्मा‘ उपाधि प्रदान की थी। 6 मई 1922 को कोल्हापुर नरेश शाहू महाराज का निधन हो गया। 10 मई 1922 को श्री अम्बेडकर ने युवराज राजाराम महाराज को लिखे अपने पत्र में कहा था –

’महाराज के निधन का समाचार पढ़कर मुझे तीव्र आघात पहुँचा। इस दुःखद घटना से मुझे दोहरा दुःख हुआ है। जहाँ मैं अपना एक असाधारण मित्र खो बैठा हूँ वहाँ दलित समाज अपने एक सबसे महान् हितचिन्तक से वंचित हो गया है। मैं स्वयं जब इस शोक में आकुल-व्याकुल हूँ, ऐसे समय में मैं आपके और महारानी के दुःख में अन्तःकरण पूर्वक सहानुभूति व्यक्त करने की त्वरा कर रहा हूँ।‘

 

स्वामी श्रद्धानन्दजी के विषय में डॉ0 अम्बेडकरजी लिखते हैं -’स्वामीजी अति जागरूक एवं प्रबुद्ध आर्यसमाजी थे और सच्चे दिल से अस्पृश्यता को मिटाना चाहते थे।‘ सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय व आर्यसमाजी नेता लाला लाजपतराय की सन् 1915 में ही अमेरिका के एक पुस्तकालय में श्री अम्बेडकरजी से मुलाकात हुई थी। लालाजी ने तब इस भारतीय विद्यार्थी से बड़ी ही आस्थापूर्वक कुशलक्षेम पूछकर राष्ट्रीय विषयों की चर्चा की थी। अम्बेडकरजी दलित समाज से सम्बद्ध हैं, यह जानकारी तो लालाजी को बहुत-सा काल गुजरने के बाद ही मिली। लालाजी के सम्बन्ध में डॉ0 अम्बेडकरजी ने लिखा है-’उनके पिताजी आर्यसमाजी थे, अतः उन्हें प्रारम्भ से ही उदारमतवाद की घुट्टी पिलाई गई थी। राजनीतिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से वे क्रान्तिकारी थे। दलितोद्धार के आन्दोलन में वे विश्वसनीय प्रामाणिकता और सहानुभूति के साथ शामिल थे।‘

            डॉ0 अम्बेडकरजी ने श्री सन्तराम बी0 ए0 और भाई परमानन्दजी के जात-पाँत तोड़क मण्डल से प्रेरणा ग्रहण करके ही ’समाज समता संघ‘ की स्थापना की थी। इस संघ के वे स्वयं अध्यक्ष थे। भारतीय समाज और राष्ट्र को भाई परमानन्द और श्री सन्तराम बी0 ए0 जैसे सार्वजनिक कार्यकत्र्ता आर्यसमाज की ही देन हैं। बाबासाहब अम्बेडकरजी अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में वेदोक्त पद्धति से सम्पन्न विवाह-उपनयन आदि संस्कारों और श्रावणी कार्यक्रमों में शामिल होते हुए नजर आते हैं। घरेलू और सार्वजनिक पत्रों में ’जोहार‘ के स्थान पर ’नमस्ते‘ करते हुए दिखलाई देते हैं। सहभोज और अन्तर्जातीय विवाह आदि समाज-सुधार के उपक्रमों में सक्रिय आस्था बतलाते हैं। निश्चित रूप से उनकी इन सब गतिविधियों की पृष्ठभूमि में महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज आन्दोलन की विस्मरणीय प्रेरणा रही है। इसका श्रेय बड़ोदरा की निर्धन-दलित बस्ती से श्री अम्बेडकरजी को सर्वप्रथम आर्यसमाज की खुली हवा में लानेवाले पं0 आत्मारामजी को विशेष रूप से है। कालान्तर में डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी मुम्बई के ना0 म0 जोशी मार्ग पर स्थित क्रमांक 98 के आर्यसमाज लोअर परल के समारोह में भी ˗प्रमुख अतिथि के रूप में पधारे थे। (आर्यसमाज लोअर परल स्मरणिका 1986-87, पृष्ठ 17)

यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बड़ोदरा नरेश श्री सयाजीराव गायकवाड़, कोल्हापुर नरेश श्री राजर्षि शाहू महाराज और आर्यविद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी के संयुक्त-समन्वित आर्योचित आचरण के माध्यम से सर्वप्रथम बाबासाहब अम्बेडकरजी को आर्यसमाज रूपी माँ की गोद मिली। महर्षि दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज का वात्सल्य मिला। देव दयानन्द और आर्यसमाज की जीवन दृष्टि का उल्लेखनीय प्रभाव डॉ0 अम्बेडकरजी के पूर्वार्द्ध पर स्पष्ट रूप से दिखलाई देता है। उत्तरार्द्ध में तो उन्होंने ’नास्तिको वेदनिन्दकः‘ का रूप धारण कर लिया था। सम्भवतः इसका कारण डॉ0 अम्बेडकरजी की प्राच्य वैदिक दृष्टि से अनभिज्ञता और पाश्चात्य यूरोपीय दृष्टि से प्रभावित होना था।

बाबासाहब के निर्माण में आर्यसमाज की त्रिमूत का अविस्मरणीय सहयोग:डॉ कुशलदेव शाश्त्री

लन्दन से वापस लौटने पर बैरिस्टर अम्बेडकर ने जून 1923 में अपना वकालत का व्यवसाय प्रारम्भ किया। 5 जुलाई 1923 को वे हाईकोर्ट के वकील भी बने, पर दलितों के प्रति समाज में उपेक्षा भाव होने के कारण उनकी आय इतनी नहीं थी कि वे अनुबन्ध के अनुसार बड़ोदरा प्रशासन के ऋण से उऋण हो चुकी थी। बड़ोदरा रियासत की ओर से पैसे वापस करने के लिए तकाजा लगा हुआ था। ऐसी स्थिति में उन्होंने 9 दिसम्बर 1924 को आर्यसमाजी विद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी को याद किया और पत्र लिखकर उन्हें यह स्पष्ट किया कि ’हमारी आर्थिक परिस्थिति अभी ऐसी नहीं हो पाई है कि हम किसी निश्चित कालावधि तक हफ्ते-हफ्ते से अपना कर्ज वापस कर सकें। तत्काल पं0 आत्मारामजी ने बड़ोदरा प्रशासन को डॉ0 अम्बेडकरजी की व्यथा से सुपरिचित कराया और उन्हें इस विषय में सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का अनुरोध किया। फलस्वरूप बड़ोदरा नरेश श्री सयाजीराव गायकवाड़ ने इस कर्ज प्रकरण को ही सदा-सदा के लिए रद्द कर दिया।

बड़ोदरा और कोल्हापुर नरेश ने बाबासाहब अम्बेडकरजी को स्वदेश और विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के लिए काफी आर्थिक सहायता प्रदान की थी। श्री अम्बेडकर जब बी0 ए0 में पढ़ रहे थे, तभी से बड़ोदरा नरेशजी ने उन्हें प्रतिमास पन्द्रह रुपये की छात्रवृत्ति देनी प्रारम्भ की थी। इन दोनों प्रगतिशील आर्यनरेशों के निमन्त्रण पर ही आर्यविद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी ने पददलित और उपेक्षित समाज के लिए अपने जीवन के लगभग मूल्यवान् तीन दशक समर्पित किये थे। श्री सयाजीराव गायकवाड़, राजर्षि शाहू महाराज तथा पं0 आत्मारामजी अमृतसरी से श्री अम्बेडकरजी को क्रमशः सहृदयतापूर्वक आत्मीयता और अविस्मरणीय आर्थिक सहायता प्राप्त हुई थी। ये तीनों भी महापुरुष तहेदिल से आर्यसमाजी थे। महर्षि दयानन्द और उनके द्वारा लिखित सत्यार्थप्रकाश पर इस त्रिमूर्ति की गहरी आस्था थी। मराठी ’सत्यार्थप्रकाश‘ प्रकाशित करने में बड़ोदरा और कोल्हापुर नरेश ने समय-समय पर उल्लेखनीय आर्थिक सहायता प्रदान की थी। पं0 आत्मारामजी ने तो उर्दू के साथ पंजाबी में भी सत्यार्थप्रकाश का अनुवाद किया था।

श्री अम्बेडकरजी से पं0 आत्मारामजी आयु में तीस वर्ष बड़े थे। उन्होंने श्री अम्बेडकर को उस समय अपना पितृतुल्य वात्सल्य प्रदान किया, जब रूढ़िवादी संकीर्ण समाज बड़ोदरा में उनके निवास भोजनादि की भी व्यवस्था करने के लिए तैयार नहीं था। उच्च अधिकारी होने के बावजूद भी उन्हें कार्यालय में रखा पानी तक पीने की अनुमति नहीं थी और उनके मातहत कर्मचारी भी फाइल आदि फेंक-फेंककर दे रहे थे। पं0 नरदेवरावजी वेदतीर्थ ने अपनी आत्मकथा में पं0 आत्मारामजी के विषय में लिखा है, ’अद्भुत वक्तृत्व, अनुपम कार्य कर्तृत्व? अनथक लेखक, अद्वितीय प्रबन्धक आदि गुणों के कारण मास्टर आत्मारामजी का नाम आर्यसमाज के सर्वोच्च नेताओं की पंक्तियों में दर्शनीय था। मास्टरजी बड़े मिलनसार, विनोदी और निरभिमानी पुरुष थे और उनकी दिनचर्या ऐसी थी, जैसे-घड़ी का काँटा। समय को कभी भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। कट्टर, किन्तु विचारशील सामाजिक थे। आपका विद्याविलास और स्वाध्याय प्रबल था। बड़ोदरा में जितनी भी सामाजिक जागृति दिखलाई पड़ती है और जितनी भी संस्थाएँ हैं, उन सबका श्रेय मास्टरजी को है। बड़ोदरा के महाराज आपसे अत्यन्त प्रसन्न थे और आपको उन्होंने राज्यरत्न, राज्यमित्र, रावबहादुर आदि उपाधियों से विभूषित किया था।‘ (आप बीती और जग बीती: प्रकाशक-गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर, हरिद्वार, संस्करण-1957: पृष्ठ 318-19)

 

डॉ0 अम्बेडकरजी ने भी अपने एक सुपुत्र का नाम ’राजरत्न‘ ही रखा था। सम्भव है राजरत्न पं0 आत्मारामजी के उदात्त गुणों की स्मृति में ही श्री अम्बेडकरजी ने उक्त नाम रखा हो। यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़, कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहूजी महाराज तथा आर्य विद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी की त्रिमूर्ति के आर्योचित उदार आचरण को ध्यान में रखकर ही पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने सन् 1954 में प्रकाशित ’जीवन-चक्र‘ नामक आत्मकथा में लिखा था कि ’श्री अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी।‘