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पृथिवी का आधार: पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

अब यह तो विस्पष्ट हो गया कि जब भूमि घूम रही है तब इसके आधार की आवश्यकता नहीं । धर्माभास पुस्तकों में यह एक अति तुच्छ प्रश्न और समाधान है। मुझे आश्चर्य होता है कि इन ग्रन्थकर्त्ताओं ने एकाग्र हो कभी इस विषय को न विचारा और न सूर्य-चन्द्र-नक्षत्रों की ओर ध्यान ही दिया । उन्हें यह तो बड़ी चिन्ता लगी कि यदि पृथिवी का कोई आधार न हो तो यह कैसे ठहर सकती, किन्तु इन्हें यह नहीं सूझा कि यह महान् सूर्य निराधार आकाश में कैसे घूम रहा है, हमारे ऊपर क्यों नहीं गिर पड़ता। इन लाखों कोटियों ताराओं को कौन असुर पकड़े हुए है। हमारे शिर पर गिर कर क्यों नहीं चूर्ण- चूर्ण कर देता । हाँ, इसका भी उपाय वा समाधान इन सम्प्रदायियों ने अच्छा गढ़ा। जब निर्बुद्धि शिष्यों ने पूछा कि यह सूर्य-चन्द्र-नक्षत्र आदि क्यों नहीं गिरते तो इसका उत्तर दिया कि सूर्य साक्षात् भगवान् हैं, ये चेतन देव हैं । रथ पर चढ़कर पृथिवी की परिक्रमा कर रहे हैं । यहाँ से पुण्यवान पुरुष मरकर सूर्यलोक में निवास करते हैं । इसी प्रकार चन्द्रमा आदि भी चेतन देव हैं। पितृगण यहाँ अमृतपान करते हुए आनन्द भोग रहे हैं इत्यादि गप्प कहकर शिष्यों को समझा दिया, किन्तु पुनः अन्ध शिष्यों ने यह नहीं पूछा कि वे रथ किस-किस आधार वा मार्ग पर चल रहे हैं। प्रश्न किए भी गये हों तो ऐसे सम्प्रदायियों को समाधान गढ़ने में कितनी देर लगती है। झट से कह दिये होंगे कि अरे ! ये सब देव हैं । वे स्वयं उड़ा करते हैं जो चाहे सो कर लें, इनको क्या पूछते हो ये बड़े सामर्थी हैं । विचारी रह गई पृथिवी । यह देवी नहीं और चेतन भी नहीं । यदि पृथिवी चेतन देवी सूर्यादिवत् मानी जाती तो इसके आधार की भी चिन्तारूप नदियों में वे गोते न खाते। जिसकी आज्ञा से सूर्य-चन्द्र आदि नियत मार्ग पर चल रहे हैं, नियत समय पर उदित और अस्त होते, इसी की आज्ञा से यह पृथिवी ठहरी हुई है, यदि इतना भी वे विचार कर लेते तो इतने धोखे न खाते । ” अतिपरिचया- दवज्ञा” अति परिचय से निरादर होता है। भूमि पर सम्प्रदायी निवास करते हैं, प्रतिदिन देखते हैं, इसको देव वा देवी कहकर शिष्यों को बहला नहीं सकते थे । अतः अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार इसके अनेक आधार गढ़ लिए। किसी ने कहा साँप के शिर के ऊपर है, किसी ने कहा कि कछुए की पीठ पर स्थापित है, किसी ने कहा कि नौका के समान जल के ऊपर तैर रही है । इस प्रकार अनेक कल्पनाएँ कर अपने-अपने शिष्यों को सम्बोधित करते गए। किन्तु किसी सम्प्रदायी को इसका सत्यभेद मालूम ही नहीं था । वे कैसे बतलाते । वेद ही सत्य भेद दिखलाते हैं । शिष्यों ने यह नहीं पूछा कि यदि साँप पर पृथिवी है तो वह साँप किस पर है । नात्र कार्या विचारणा, नात्र कार्या विचारणा ” ऐसी बातें कह मन को संतोष देते रहे । भास्कराचार्य ने उन सब गप्पों का अच्छा खण्डन किया है, परन्तु ये आचार्य पौराणिक समय में हुए हैं। पृथिवी घूमती है, यह बात इनके समय में नहीं मानी जाती थी, अतः पृथिवी को ये महात्मा भी अचल ही मानते थे और इसके चारों तरफ सूर्य ही घूम रहा है ऐसा ही समझते थे, किन्तु वेद से यह विरुद्ध बात है । पृथिवी ही सूर्य के चारों तरफ घूमती है । पृथिवी से १३००००० तेरह लक्ष गुणा सूर्य बड़ा है। सूर्य के सामने पृथिवी एक अति तुच्छ चींटी के बराबर है । तब कब सम्भव है कि एक अति तुच्छ चींटी की परिक्रमा पर्वत करे । अब आधार के विषय में भास्करीय खण्डन परक श्लोक सुनिए ।

मूर्तो धर्त्ता चेद्धरित्र्यास्तदन्य स्तस्याप्यन्योऽप्येव मत्रानवस्था । अन्त्ये कल्प्या चेत् स्वशक्तिः किमाद्ये किन्नो भूमिः साष्टमूर्तेश्च मूर्तिः ॥

अर्थ – यदि पृथिवी के पकड़नेहारा कोई शरीर धारी है तो उसका भी कोई अन्य पकड़नेहारा होना चाहिए। यदि कहो उसका भी पकड़नेहारा है तो पुनः उसका भी कोई पकड़नेहारा होना उचित है । इस प्रकार अनवस्था दोष होगा। इस दोष से ग्रस्त होकर आपको किसी अन्तिम धर्ता के विषय में कहना पड़ेगा कि वह अपनी शक्ति पर स्थित है । तो मैं पूछता हूँ कि आदि में पृथिवी को ही अपनी शक्ति पर ठहरी हुई क्यों नहीं मान लेते, क्योंकि यह भूमि भी महादेव की अष्ट मूर्तियों में से एक मूर्ति है तो वह अपनी शक्ति पर क्यों नहीं ठहर सकती ?

अभी हमने आपसे कहा है कि सूर्यादिवत् इसको भी यदि चेतन और स्वशक्तिसम्पन्न मान लेते तो इतनी चिंता न करनी पड़ती, किन्तु समीप रहने के कारण पृथिवी को वैसी न मनवा सके । भास्कराचार्य वही बात कहते हैं कि यह भूमि भी महादेव की एक मूर्ति है तब वह क्या अपनी शक्ति पर ठहर नहीं सकती ? इसको पुनः विस्फुट कर देते हैं-

यथोष्णतार्कानलयोश्च शीतता विधौ द्रुतिः के कठिनत्व मश्मनि । मरुच्चलो भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रा: खलु वस्तुशक्तयः ॥

जैसे स्वभाव से ही सूर्य और अग्नि में उष्णता, चन्द्रमा में शीतलता, जल में द्रति (वहनशीलता), शिला में कठोरता है और जैसे वायु चलता है वैसे ही स्वभावतः पृथिवी अचला है, क्योंकि वस्तुशक्तियाँ नाना प्रकार की हैं। अतः यह पृथिवी स्वशक्ति के ऊपर स्थित होकर अचला है, यह कौन सी आश्चर्य की बात है । भास्कराचार्य ऐसे ज्योतिविद् होने पर भी पृथिवी को अचला मानकर कैसी गलती फैला गये हैं। इतना ही नहीं, ये कहते हैं कि रवि, सोम, मंगल, बुध,

बृहस्पति, शुक्र, शनि आदि ग्रह और ये नक्षत्र मण्डल सब ही इसी पृथिवी के परितः स्थित हैं और यह भूमिमंडल अपनी शक्ति से स्थित है; यथा-

भूमेः पिण्डः शशांकज्ञकविरविकुजेज्यार्कि नक्षत्रकक्षा वृत्तैर्वृत्तो वृतः सन् मृदनिलसलिल व्योमतेजोमयोऽयम् ॥ नान्या- धार: स्वशक्त्या वियति च नियतं तिष्ठतीहास्य पृष्ठे निष्ठं विश्वञ्च शश्वत् सदनुजमनुजादित्यदैत्यं समन्तात् ॥

इसका कारण यह है कि वे वैदिक विज्ञान की ओर नहीं गये अथवा इस ओर इनका ध्यान नहीं गया । यह कितनी अल्पज्ञता है कि सूर्य-चन्द्र आदि को चल और पृथिवी को अचला मानें। सूर्य-चन्द्र को उदित और अस्त होते देख मान लिया कि यह सब चल रहे हैं । पृथिवी की गति इन्हें मालूम नहीं हुई । रेल की गति जैसे एक अति क्षुद्र चींटी को मालूम नहीं होती होगी, अतः पृथिवी को अचला कहने लगे। जब हम इस बात की समालोचना करते हैं तो यही कहना पड़ता है कि हमारे पूर्वज आचार्य सूक्ष्मता की ओर दूर तक न पहुँच सके और न वेदों का पूरा मनन ही किया । एवमस्तु-

पृथिवी का ऊपर और नीचे का भाग :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

यद्यपि छोटे से छोटे पदार्थ का भी ऊपर और नीचे भाग माना जा सकता है। सेब और कदम्ब फल का भी कोई भाग नीचे का माना ही जाता है । वैसा ही पृथिवी का भी हिसाब हो सकता है किन्तु आश्चर्य यह है कि पृथिवी के सामने मनुष्य जाति इतनी छोटी है कि इसकी आकृति नहीं के बराबर है। इसी हेतु पृथिवी के अर्धगोलक पर रहने वाला अन्य अर्धगोलक पर रहने वाले को अपने से नीचे समझता है, किन्तु वे दोनों एक ही सीध में हैं, नीचे-ऊपर नहीं । जैसे अमेरिका देश पृथिवी के अर्धगोलक में है और द्वितीय अर्धगोलक में यूरोप, एशिया देश हैं। ये दोनों एक सीध में होने पर भी एक-दूसरे के ऊपर- नीचे प्रतीत होते हैं। भास्कराचार्य इस पर कहते हैं-

योयत्र तिष्ठत्यवनीतलस्थमात्मानमस्या उपरिस्थितञ्च । स मन्यतेऽतः कुचतुर्थसंस्था मिथश्च ते तिर्य्यगिवामनन्ति ॥ पृथिवी के किसी भाग में जो जहाँ है वह अपने को वहाँ ऊपर ही मानता है और दूसरे भागस्थ पुरुष को नीचे समझता है

पृथिवी गोल है: पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

यद्यपि देखने से प्रतीत होता है कि दर्पण के समान पृथिवी सम अर्थात् चिपटी है तथापि अनेक प्रमाणों से पृथिवी की आकृति गेंद या कदम्ब फल के समान गोल है, यह सिद्ध होता है। अपने संस्कृतशास्त्रों में इसी कारण इसका नाम ही भूगोल रखा है। यदि कोई आदमी ५० कोश का ऊँचा हो तो झट से उसको इसकी गोलाई मालूम होने लगे । इस पृथिवी के ऊपर हिमालय पर्वत भी गृह के ऊपर चींटी के समान है, अतः इसकी गोलाई हम मनुष्यों को प्रतीत नहीं होती ।

१ – इसके समझने के लिए समुद्र स्थान लीजिए । समुद्र सैकड़ों कोश तक चौड़ा होता है । जल की सतह बराबर हुआ करती है । यदि दर्पणाकार पृथिवी होती तो समुद्र में अति दूर आता हुआ भी जहाज दीखना चाहिए और जहाज के नीचे से ऊपर तक सब भाग एक बार भी दीख पड़े, किन्तु ऐसा होता नहीं । अति दूरस्थ जहाज तो दीखता ही नहीं । ज्यों-ज्यों समीप आता जाता है त्यों-त्यों प्रथम जहाज का ऊपर का शिर दीखता है, फिर मध्य भाग तब नीचे का भाग । अब आप विचार कर सकते हैं कि जल की बराबर सतह पर ऐसी विषमता क्यों ? इसका एकमात्र कारण पृथिवी की गोलाई है । पृथिवी की गोलाई के कारण जहाज के नीचे का भाग छिपा रहता है ।

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२ – पुनः यदि किसी स्थान से आप किसी एक तरफ प्रस्थान करें और सीधे चलते ही जाएँ तो पुनः उसी स्थान पर पहुँच जाएँगे जहाँ से आपने प्रस्थान किया था । इसका भी कारण गोलाई है ।

३ – चन्द्र के ऊपर पृथिवी की छाया पड़ने से चन्द्र ग्रहण होता है । वह छाया गोल दीखती है, इससे सिद्ध है कि पृथिवी गोल है, इस सम्बन्ध में अपने शास्त्र का सिद्धान्त देखिये । मैंने प्रारम्भ में ही कहा है कि ज्योतिष शास्त्र वेद का एक अंग है। मुहर्त्तचिन्तामणि, वृहज्जातक, लघुजातक आदि नहीं किन्तु गणितशास्त्र ही ज्योतिष है । जिसमें पृथिवी से लेकर ज्योति: स्वरूप सूर्य तक का पूरा-पूरा हिसाब सब प्रकार से हो, वह ज्योतिष शास्त्र है । जैसे व्याकरण शास्त्र बहुत दिनों से चले आते थे पश्चात् पाणिनी ने एक सर्वांग सुन्दरव्याकरण बनाया तत्पश्चात् वैसा व्याकरण अभी तक नहीं बना है। वैसे ही ज्योतिष शास्त्र अति प्राचीन है । सबसे पिछले आचार्य भास्कराचार्य ने लीलावती, बीजगणित सिद्धान्त शिरोमणि आदि अनेक ग्रन्थ ज्योतिष शास्त्र के रचे । वे ही आजकल अधिक पठन-पाठन में विद्यमान हैं। शब्द कल्पद्रुम नाम के कोश में भूगोल शब्द के ऊपर एक अच्छा लेख दिया हुआ है । भास्कराचार्यकृत सिद्धांतशिरोमणि के भी अनेक श्लोक यहाँ लिखे हुए हैं। मैं इस समय इसी कोश से कतिपय श्लोक उद्धृत करता हूँ । मैं इस समय भ्रमण कर रहा हूँ । अतः मूल ग्रन्थ मेरे पास नहीं है । आप लोग मूल ग्रन्थ में प्रमाण देख लेवें । भारतवर्ष में सिद्धांतशिरोमणि इतना

प्रसिद्ध है कि इसके बिना कोई ज्योतिषी नहीं बन सकता। इसका अनुवाद अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में हुआ है। शंका समाधान करके भास्कराचार्य सिद्ध करते हैं कि पृथिवी गोल है ।

यदि समा मुकुरोदरसंनिभा भगवती धरणी तरणिः क्षितेः उपरि दूरगतोऽपि परिभ्रमन् किमु नरै रमरै रिव नेक्ष्यते ॥ १ ॥ यदि निशाजनकः कनकाचलः किमु तदन्तरगः स न दृश्यते ॥ उदगयन्ननुमेरु रथांशुमान् कथमुदेति स दक्षिण भागतः ॥

अर्थ – यदि भगवती पृथिवी दर्पण के समान समा अर्थात् समसतह वाली है तो पृथिवी के ऊपर बहुत दूर भ्रमण करते हुए सूर्य को जैसे अमरगण सदा देखा करते हैं वैसे ही मनुष्य भी सदा सूर्य को क्यों नहीं दीखते अर्थात् पृथिवी पर किस प्रकार प्रातः, मध्याह्न, सायं और रात्रि होती है। इससे प्रतीत होता है कि पृथिवी सम नहीं है। जैसे ऊँचे पर्वत के पूर्व भाग की सीध में वा उसी पर रहने वाले पदार्थ पश्चिमभागस्थ पुरुष को नहीं दीखते तद्वत् पृथिवी के एक भाग में रहने वाला पुरुष पृथिवी के रुकावट के कारण सूर्य को नहीं दीखता । घूमती हुई पृथिवी का जितना – जितना भाग सूर्य के सामने पड़ता जाता है उतना उतना भाग सूर्य की किरणें पड़ने से दिन कहाता है, इसी प्रकार इसके विरुद्ध रात्रि । यदि यह कहो कि वह सूर्य सुमेरु पर्वत के पीछे चला जाता है इस कारण नहीं दीखता तो यह ठीक नहीं, क्योंकि इस अवस्था में वह सुमेरु ही दीख पड़े किन्तु वह दीखता नहीं, अतः यह कथन असत्य है और इसमें द्वितीय हेतु यह है कि तब उत्तरायण और दक्षिणायण भेद भी कभी नहीं होने चाहिएँ, क्योंकि सूर्य समानरूप से सुमेरु की परिक्रमा सब दिन करता है, यह आपका सिद्धान्त है तब ये दो अयन क्यों होते ? अतः सुमेरु पर्वत निशा का कारण नहीं, पुनः वही शंका बनी रही कि मनुष्य को सर्वदा समान रूप से सूर्य क्यों नहीं दीखता ? इससे सिद्ध है कि पृथिवी गोल है ।

यदि पृथिवी गोल है तो हमें वैसी क्यों नहीं दीख पड़ती । उसका समाधान पूर्व में लिख आया हूँ । भास्कराचार्य भी वैसा ही कहते हैं यथा-

समोयतः स्यात् परिधेः शतांशः पृथिवी च पृथिवी नितरां तनीयान् ॥ नरश्च तत्पृष्ठगतस्य कृत्स्ना समेव तस्य प्रतिभात्यतः सा ॥

जिस कारण पृथिवी बहुत ही विस्तीर्ण है, अतः उसके शतांश भाग सम हैं। मनुष्य बहुत ही छोटा है। इस कारण इसको सम्पूर्ण पृथिवी सम ही प्रतीत होती है।

पृथिवी का भ्रमण:पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

अहस्ता यदपदी वर्धत क्षा शचीभिर्वेद्यानाम् । शुष्ण परि प्रदक्षिणिद् विश्वायवे निशिश्नथः ॥

। – ऋ०१० । २२ । १४

क्षा – पृथिवी । पृथिवी के गौ, ग्मा, ज्मा आदि २१ नाम निघण्टु । १ में उक्त हैं। इनमें एक नाम क्षा है । शची-कर्म, क्रिया, गति । निघण्टु में अपः, अन: आदि २६ नाम कर्म के हैं, इनमें शची का भी पाठ है। शुष्ण यह नाम आदित्य अर्थात् सूर्य का भी है, यथा- “शुष्णस्यादित्यस्यशोषयितुः ” निरुक्त ५ । १६ पृथिवी पर के रस को सूर्य शोषण किया करता है, अतः सूर्य का नाम शुष्ण है। प्रदक्षिणित्- घूमती हुई । विश्वायवे – विश्वास के लिए । अथमन्त्रार्थ – (क्षा) यह पृथिवी (यद्) यद्यपि ( अहस्ता) हस्तरहिता और ( अपदी) पैर से ही शून्य है तथापि (वर्धत) बढ़ रही है अर्थात् हाथ-पैर न होने पर भी यह चल रही है । (वेद्यानाम्+ शचीभिः ) वेद्य-जानने योग्य, जो परमाणु उनकी क्रियाओं से प्रेरित होकर चल रही है अथवा स्वपृष्ठस्थ विविध पर्वत आदि पदार्थों और मेघादिकों की क्रियाओं के साथ-साथ घूम रही है । किसकी चारों तरफ प्रदक्षिणा कर रही है । इस पर कहते (शुष्णम्+ परि) सूर्य के परितः चारों तरफ (प्रदक्षिणित्) प्रदक्षिणा करती हुई घूम रही है। आगे परमात्मा से प्रार्थना है कि ( विश्वायवे + निशिश्नथ: ) हे परमात्मन् ! हम मनुष्यों के विश्वास के लिए आपने ऐसा प्रबन्ध रचा है । भाष्यकार सायण के समय में पृथिवी का भ्रमण- विज्ञान सर्वथा विलुप्त हो गया था, अतः ऐसे-ऐसे मन्त्र के अर्थ करने में इनकी बुद्धि चकरा जाती है । सायण कहते हैं-

यद्वा शुष्णस्याच्छादनार्थं हस्तपादवर्जिता काचित्पृथिवी वेदितव्यानामसुराणां मायारूपैः कर्मभिः शुष्णमसुरं वेष्टित्वा प्रदक्षिणं यथा भवति तथाऽवस्थिताऽवर्धत तदानी तां मायोत्पा- दितां पृथिवीं विश्वायवे सर्वव्यापकस्य मरुद्गणस्य प्रवेशनार्थं

निशिश्नथः ॥

भाव इसका यह कि असुरों ने अपनी माया से एक पृथिवी बनाई और बनाकर कहा कि शुष्ण एवं इन्द्र का युद्ध हो रहा है, इस हेतु तू शुष्ण की चारों तरफ वेष्टित हो प्रदक्षिण करती रहो जिससे इन्द्र यहाँ न पहुँच सके । इन्द्र को यह खबर मालूम हुई । मरुद्गणों को पहले वहाँ भेजा। वे वहाँ नहीं पहुँच सके। तब इन्द्र ने आकर उस पृथ्वी को ताड़ना दी, वह भाग गई। मरुद्गण वहाँ बैठ शुष्ण को छिन्न-भिन्न करने लगे। अब आप समझ सकते हैं कि सीधा-साधा अर्थ छोड़ ये भाष्यकार कैसा अज्ञातार्थ लिखते हैं । अब द्वितीय ऋचा पर ध्यान दीजिये, जिससे विस्पष्ट हो जाता है कि केवल पृथिवी ही नहीं किन्तु पृथिवी जैसे सकल ग्रह नक्षत्र आदि भी स्थिर नहीं हैं ।

कतरा पूर्वा कतरा परायोः कथा जाते कवयः को विवेद | विश्वंमना विभ्रतोयद्धनाम विवर्त्तेते अहनी चक्रियेव ॥

ऋ० १।१८५ ११

इस ऋचा के द्वारा अगस्त्य ऋषि पूछते हैं कि ( अयो: ) इस पृथिवी और द्युलोक में से ( कतरा + पूर्वा) कौन सा आगे है और ( कतरा + परा) कौन सा पीछे है या कौन सा ऊपर और कौन सा नीचे है । (कथा + जाते) कैसे ये दोनों उत्पन्न हुए ( कवयः +क: वि + वेद) हे कविगण ? इसको कौन जानता है । इसका स्वयं उत्तर देते हैं । (यद्+ ह+ नाम) जो कुछ पदार्थ जात इन दोनों से सम्बन्ध रखता है । उस (विश्वम्) सबको ये दोनों (बिभ्रतः ) धारण कर रहे हैं अर्थात् सब पदार्थ को अपने साथ लेकर (वि + वर्त्तेते) घूम रहे हैं, ( अहनी + चक्रिया + इव) जैसे दिन के पश्चात् रात्रि और रात्रि के पश्चात् दिन आता ही रहता है तथा जैसे रथ का चक्र ऊपर-नीचे होता रहता है तद्वत् ये दोनों द्यावा – पृथिवी एक-दूसरे के ऊपर-नीचे हो रहे हैं । अतः आगे-पीछे का इसमें विचार नहीं हो सकता । जब पृथिवी और सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, दूर-दूर भ्रमण कर रहे हैं तब यह नहीं कहा जा सकता है कि इन दोनों में ऊपर-नीचे कौन हैं ? यह ऋचा चक्र के दृष्टान्त से विस्पष्ट कर देती है कि पृथिवी अवश्य घूम रही है । अब तृतीय ऋचा लिखता हूँ जो और भी विस्फुट उदाहरण पृथिवी के भ्रमण का है ।

सविता यन्त्रैः पृथिवीमरम्णादस्कम्भने सविता द्यामहत् । अश्वमिवाधुक्षद्ध निमन्तरिक्षमतूर्ते बद्ध सविता समुद्रम् ॥

– ऋ० १०।१४९ । १

( सविता ) सूर्य ( यन्त्रैः ) रज्जु के समान अपने आकर्षण से (पृथिवीम् ) पृथिवी को ( अरम्णात्) बाँधता है और (अस्कम्भने) अनारम्भ, निराधार आकाश में ( द्याम् + अहत्) अपने परितः स्थित द्युलोकस्थ अन्यान्य ग्रहों को भी दृढ़ किये हुए हैं। आगे एक लौकिक उदाहरण देकर समझाते हैं, (अतूर्ते) टूटने के योग्य नहीं जो आकर्षणरूप रज्जु है उसमें (बद्धम् ) बंधे हुये (धुनिम्) नाद करते हुए (समुद्रम्) बड़े जोर से भागने हारे, पृथिवी, शनि, शुक्र, मंगल, बुध आदि ग्रह रूप जो लोक है उसको (अन्तरिक्षम् ) निराधार आकाश में (अश्वम्+ इव + अधुक्षत्) घोड़े के समान घुमा रहा है अर्थात् जैसे नूतन घोड़े को शिक्षित करने के लिए लगाम पकड़ सवार खड़ा हो जाता और उस घोड़े को अपनी चारों तरफ घुमाया करता है । वैसा ही यह सूर्यरूप सवार अश्व सदृश पृथिव्यादि लोक को अपनी चारों तरफ घुमा रहा है । इससे बढ़कर विस्फुट उदाहरण क्या हो सकता है, अतः उपरिष्ठ मन्त्रों से दो बातें सिद्ध हैं कि-

१ – पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है और

२- सूर्य के आकर्षण से यह इधर-उधर नहीं हो सकती, अपने मार्ग को छोड़ अणुमात्र भी खिसक नहीं सकती । अन्तरिक्षम् सप्तमम्यर्थ में प्रथमा है, समुद्र – समुद्रवति – जो बहुत जोर से दौड़ता है ।

सूर्य की परिक्रमा कितने दिनों में कर लेता है इस पर कहते हैं । द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत । तस्मिन् त्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलाश ॥

– ऋ०१ । १६४ । ४८

चक्रम्) यहाँ वर्ष ही चक्र है, क्योंकि यह रथ के पहिया के समान क्रमण अर्थात् पुनः पुनः घूमता रहता है। उस चक्र में (द्वादश+ प्रधयः ) जैसे चक्र में १२ छोटी-छोटी अरे प्रधि-कीलें हैं। वैसे सम्वत्सर में बारह मास अर्थात् मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन होते हैं । (त्रीणि+नभ्यानि ) इसके

नभ्य अर्थात् नाभि स्थान में रहने हारे दारु विशेष समान ग्रीष्म, वर्षा, हेमन्त तीन ऋतु हैं । (कः +उ+तत्+चिकेत) इस तत्त्व को कौन जानता है । ( तस्मिन् + साकम् + शंकवः) उस वर्ष में कीलों सी (त्रिशता + षष्ठिः ) ३०० और ६० दिन ( अर्पिता: ) स्थापित हैं । ( न + चलाचलाश:) वे २६० दिन रूप कीलें कभी विचलित होने वाली नहीं हैं । इससे यह सिद्ध हुआ कि एक वर्ष में (३६०) तीन सौ साठ दिन होते हैं । पृथिवी के भ्रमण से ही वे दिन बनते हैं, अतः ३६० दिन में पृथिवी सूर्य की परिक्रमा कर लेती है । पुनः इसी विषय को दूसरे तरह से कहते हैं ।

द्वादशारं न हि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य । आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानि विंसतिश्चातस्थुः ॥

– ऋ० १ । १६४ । ११

(ऋतस्य) सत्य स्वरूप काल का (चक्रम्) सम्वत्सर रूप चक्र ( द्याम्+ परि) आकाश में चारों तरफ (वर्वर्ति) घूम रहा है ( द्वादशारम्) जिसमें मास रूप १२ अर हैं । ( नहि + तत् + जराय) वह चक्र कभी जीर्ण नहीं होता । (अग्ने) हे परमात्मन् ! आपने कैसा अद्भुत प्रबन्ध रचा है । (अत्र) इस चक्र में (पुत्राः) पुत्र के समान ( सप्त + शतानि + विशंतिः+च आतस्थुः ) ७०० और २० स्थिर हैं। वर्ष में ३६० दिन और ३६० रात्रि मिलाकर ७२० अहोरात्र होते हैं । इतने अहोरात्र में पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है । यद्यपि ३६५ दिनों के लगभग में यह पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है । तथापि यह चन्द्र मास के हिसाब से ३६० दिन कहे गये हैं । चन्द्रमास में एक अधिक मास मानकर हिसाब पूरा किया जाता है । इस अधिक मास का भी वर्णन वेद में पाया जाता है ।

वेदों में पदार्थ – विज्ञान :-ज्ञानचन्द्र

           पद का अर्थ है स्थिति अर्थात् स्टेटस एवं अर्थ का प्रयोजन है तात्पर्य एवं मूल। पृथ्वी क्योंकि सभी प्राणियों की स्थिति का कारण है तथा पृथ्वी ही सबका मूल है अतः पृथ्वी के द्रव्य का नाम हुआ पदार्थ। साथ ही पृथ्वी पंच सृजनकारी तत्वों का अन्तिम परिवर्तन है तथा आकाश, वायु, अग्नि व जल का सघन तत्व है अतः उसका नाम हुआ पदार्थ अर्थात् स्थिति और मूल। इसी नाते पदार्थ भौतिक तत्वों भी कहते हैं।

            पदार्थ के विज्ञान से यदि आधुनिक दृष्टि सम्मत मूल तत्व को जड़ पदार्थ मानकर और उनसे विकसित साधनों का, उसकी व्यवस्था से होने वाले किकासों और जीवनोपयोगी विधानों से है, तो उसका उतना महत्व नहीं है। क्योंकि भारत ने अन्न अर्थात् पदार्थ को भी ब्रह्म माना है। भारतीय मनीषा की यह घोषणा है कि अस्तित्व मात्र ब्रह्म ही सत् है, सत्य है और अस्तित्व है। प्रकृति जड़ है तथा ब्रह्म से विशेष है- पर यह सत्य नहीं प्रतिभास है। ‘‘परब्रह्म के अतिरिक्त कुछ तत्व सत्ता में हो नहीं सकता’’ क्योंकि ‘‘है’’ का अर्थ ही ब्रह्म है। ब्रह्म जो ‘‘है’’ और सतत प्रवर्धमान है, उद्घाटनशील है। पर ब्रह्म की प्रवर्धमानता व उद्घाटनशीलता मौलिक नहीं है मात्र अभिव्यक्ति में है। क्योंकि ब्रह्म सदा सम्पूर्ण है अतः उसमें मौलिक नूतन कुछ नहीं हो सकता परन्तु अभिव्यक्ति में नूतन सदा ही हो सकता है।

            स्थिति या पद मात्र ब्रह्म है तथा अर्थ या तात्पर्य भी एकमात्र ब्रह्म है। जगत् की अभिव्यक्ति ब्रह्म के ही दो आयामों का परस्पर संबंध और और अभिव्यंजना है।

            जड़ पदार्थ ब्रह्म का आत्मलीन योग निद्रात्मक स्वरूप है। चेतन ब्रह्म परंतत्व का आत्मज्ञानात्मक, अनिद्रात्मक सबोध स्वरूप है। ‘जीव’ के विकास मुक्ति लाभार्थ ब्रह्म और प्रकृति का सृजन विलास होता है।

            चेतना के द्वारा जड़ ब्रह्म के अनेकों उपयोग व विधान बनाए जा सकते हैं।

चेतना में संश्लेषण, स्तर, आयाम, संघटन व सम्मिश्रण बदल कर चमत्कारिक साधनों का निर्माण किया जा सकता है।

            जड़ पदार्थ के बने शरों और नाराचों के भीतन विशिष्ट चेतना प्रवाहित करके राम-रावण युद्ध एवं महाभारत युद्ध में अत्यन्त आश्चर्यपूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया गया था। उन पाशुपतास्त्र, नारायणास्त्र, ऐन्द्रास्त्र व सर्वविनाशक ब्रह्मास्त्र को विशिष्ट ध्यान व एकाग्रता की विधियों से स्मृतिगत करके प्रयुक्त किया जाता था।

            ब्रह्मास्त्र के विषय में महाभारत में एक विशिष्ट उल्लेख है जिससे उसकी सचेतन विधि प्रक्रिया का ज्ञान होता है। अश्वत्थामा ने पांडवों के समूल विनाश के लिए जब ब्रह्मास्त्र छोड़ा, तो शास्त्र व विज्ञान के महान् पंडित कृष्ण ने सबसे शस्त्र छोड़ कर रथों से नीचे उतरने को कहा। सबने तत्काल कृष्ण वचन का पालन किया परन्तु आग्रह और मूढ़ता से भीम रथ पर ही डटा रहा तथा अपनी गदा घुमाता रहा। श्रीकृष्ण ने बलपूर्वक उसे नीचे खींचा और उसकी गदा हाथ से छीनी। तत्काल ब्रह्मस्त्र पीछे हटा और आकाश में विलीन हो गया। यह घटना उस काल के अस्त्रों के सचेतन क्रियाकारी स्वरूप को बताती है।

            उसी प्रकार पुष्पक विमान भी वैदिक पदार्थ विज्ञान का परिपुष्ट प्रमाण था। वह मंत्रचर था। उसकी बनावट व प्रक्रिया इस प्रकार की थी कि वह मंत्रोच्चारण से परिचालित हो कर गतिमान होता था तथा इच्छित ऊंचाई तक आकाश में उठ कर अत्यन्त तीव्र गति से आगे बढ़ता था। वाल्मीकीय रामायण के सुन्दर काण्ड में पुष्पक विमान का अत्यन्त सजीव वर्णन है। एक जर्मन विज्ञान एरिक वान डैनिकन ने पुष्पक विमान का वर्णन व प्रक्रिया पढ़ कर आश्चर्य से यह लिखा कि ‘‘बिना विमान को देखे और उसकी प्रक्रिया को बिना जाने ऐसा सजीव वर्णन व ऐसी सटीक अभिव्यक्ति प्रस्तुत नहीं की जा सकती। ‘‘भारतीय पदार्थ विज्ञान के विषय में एरिक वान डैनिकन की ‘‘चैरियट आफ द गाड्स’’ एक अत्यन्त उपयोगी व पठनीय पुस्तक है।

            मोहन जोदड़ों हड़प्पा तथा गुजरात में लोथल आदि नगरों के उत्खनन में निकले नगरावशेष भारत के उच्च वास्तु विज्ञान के प्रमाण हैं।

            आयुर्वेद भी स्वयं में एक पदार्थ विज्ञान है जो भौतिक देह के स्वास्थ्य और उपचार का श्रेष्ठ विज्ञान विधान है।

            यातायात, व्यापार व अर्थ विधान, भांति-भांति के यंत्र भारतीय ग्रंन्थों में संदर्भित हैं। इस पार्थिव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को सुविधा और व्यवस्था से परिपूर्ण करने के लिए उस काल की श्रेष्ठतम वैज्ञानिक प्रगति आज भी लोगों को चकित कर देती है।

            परन्तु सबसे मुख्य बात तो वैदिक सभ्यता में ध्यान देने की है वह यह की पाश्चात्य प्रभावित मनोवृत्ति से उस पुरातन मनोवृत्ति का कोई मेल नहीं है। अतः पदार्थ विज्ञान की पुरातन व्यवस्था भी आज के काल के गणित से नहीं देखनी चाहिए। भारतीय उच्चादर्श को जो पूर्ण विश्व में अपूर्व व अद्वितीय है जीवन के चार पुरूषार्थों की दृष्टि से जांचना पड़ेगा। धर्म का अध्ययन-अभ्यास अर्थ, काम व मोक्ष की दृष्टि से। काम का परिसेवन धर्म, अर्थ व मोक्ष के आधार पर, अर्थ का उपार्जन व व्यय धर्म, काम व मोक्ष के लक्ष्य से तथा धर्म, अर्थ, काम इन तीनों का अभ्यास मोक्ष की चरम दृष्टि के साथ करना अभीष्ट था। इस चतुर्मुखी दृष्टि से पदार्थ और पदार्थ विज्ञान के ध्येय व प्राप्तव्य बदल जाने से यहां पदार्थ विज्ञान का विकास पाश्चात्य विस्तार के समान नहीं किया गया। असुर लोग क्योंकि भोगवादी थे अतः उन्होंने अत्यन्त श्रेष्ठ यंत्रों, साधनों और भौतिक व्यवस्थाओं का निर्माण किया। यही श्रेष्ठ भौतिक पदार्थ उन्हें तृप्तवादी, भोगोन्मुख अतः अनैतिक बना देते थे अतः बाद में वे नष्ट कर दिए जाते थे। रावण जैसा असुर कला कौशल व ज्ञान-विज्ञान में दशरथ और राम आदि से श्रेष्ठ व ऊंचा था। पुष्पक विमान के अतिरिक्त भी उसके पास और आकाशचारी यान थे। शस्त्र-अस्त्र भी उसके पास श्रीरामचन्द्र से श्रेष्ठ थे। परन्तु उसकी अनैतिकता व स्वैर उसे ले डूबे। वह एक अलग विषय है व्याख्या व विस्तार के लिए।

            वेदों का पदार्थ विज्ञान आज के योरोपीय विज्ञान से श्रेष्ठतर होते हुए भी जनसाधारण तक नहीं पहुंच सका था। उस काल के यन्त्र और यान आदि अत्यन्त सीमित रूप में राजाओं आदि के पास ही होते थे। वे भी दुःसाध्य, दुष्प्राप्य एवं अत्यधिक मूल्य पर ही प्राप्य थे।

            वैदिक पदार्थ की भाषा आज समझाने के प्रयास बहुत कठिन व दुरूह हो जाते हैं। पूरी भाषा, व्यंजना अभिव्यक्ति के साथ मान्यताएं व वरीयताएं भिन्न होने से भिन्न मनोवृत्ति चाहिए उन्हें समझने के लिए अतः हमने संक्षेप में भूमिका मात्र प्रस्तुत की है।

श्री अरविन्द चेतना समाज,

६५६/९, चमेलियान रोड़, दिल्ली-११०००६

पञ्चमहाभूत्

गोविन्द घनश्याम मैंदरकर

(वैदिक, अवैदिक एवम् पाश्चात्य विचारधाराओं का तुलनात्मक अध्ययन)

संदर्भः-  १.  भारतीय-दर्शन-संग्रह (मराठी) ले.पं.द.वा. जोग

            प्रथमावृत्ति १९५८ चित्रशाला प्रकाशन, पुणे-२

२.        उपनिषद्-तैत्तिरीय, केन, प्रश्न, मुण्डक, श्वेताश्वतर

३.        सत्यार्थ प्रकाश-महर्षि दयानन्द सरस्वती

४.        अद्वैतमत-खण्डन-स्वामी विद्यानंद सरस्वती

५.        मराठी विश्वकोश-खण्ड ९

६.        भारतीय संस्कृति कोशः पञ्चमखण्ड

पं. महादेव शास्त्री जोशी

पंचमहाभूतों की उत्पत्तिः- सृष्टि के आंरम्भ से ही मनुष्य तत्वदर्शी रहा है।

ओं केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।

केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।।

                                                                                                – केनोपनिषद् प्रथम खण्ड-मंत्र १

            जड़रूप अंतः कारण, प्राण, वाणी आदि कर्मेन्द्रियों और चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों को अपना-अपना कार्य करने की योग्यता प्रदान करने वाला और उन्हें अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त करने वाला जो कोई एक सर्वशक्तिमान् चेतन है, वह कौन है? और कैसा है?

            भगवन् कुतो ह वा इमाः प्रजाः प्रजायन्त इति।।

                                                                                                -प्रश्नोपनिषद्, प्रथम प्रश्न, मंत्र ३

            किस प्रसिद्ध और सुनिश्चित कारण विशेष से, यह सम्पूर्ण प्रजा नाना रूपों में उत्पन्न होती है? वह कौन है?

            भगतन्कत्येव देवाः प्रजां विधारयन्ते कतर

            एतत्प्रकाशयन्ते कः पुनरेषां वरिष्ठ इति।।

                                                                                    – प्रश्नोपनिषद् द्वितीय प्रश्न, मं. १

भगवन्। प्राणियों के शरीर को धारण करने वाले कुल कितने देवता हैं?

उनमें कौन-कौन इसको प्रकाशित करने वाले हैं? इन सबमें अत्यंत श्रेष्ठ कौन है ?

            वह म नही मन स्वयं को उपरिनिर्दिष्ट प्रश्नों जैसे अनेक प्रश्न पूछते रहता है। उत्तर तथा समाधान खोजने के प्रयास करते रहता है। इन्हीं प्रयासों के फल हैं दर्शन एवं उपनिषद्। भावात्मक तथा अभावात्मक, सभी प्रकार के अस्तित्वों के ज्ञान के ये ही मूल स्त्रोत हैं। खोज की यात्रा आगे बढ़ती है, तभी से आरंभ होता है मत-मतान्तरों का। इन विभिन्न विचारधाराओं का अध्ययन पंचमहाभूतों के संदर्भ में इसीलिये करना आवश्यक है।

            स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुज्र्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोञन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्म लोका लोकेषु च नाम च।।                          -प्रश्नोपनिषद्, षष्ठ प्रश्न, मंत्र ४

            (सबसे पहले) उसने प्राण की रचना की, प्राण के बाद श्रद्धा को (उत्पन्न किया) उसके बाद क्रमशः आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी (ये पांच महाभूत प्रकट हुए, फिर) मन (अन्तः करण) और इन्द्रिय समुदाय (की उत्पत्ति हुई) अन्न हुआ, अन्न से वीर्य (की रचना हुई, फिर) तप, नाना प्रकार के मन्त्र, नाना प्रकार के कर्म उनके फलस्वरूप भिन्न-भिन्न लोकों (का निर्माण हुआ) और उन लोकों में नाम (की रचना हुई)।

            इन पांच महाभूतों का कार्य ही यह संपूर्ण दृश्यमान ब्रह्मांड है।

            अब संक्षेप में जगत् की उत्पत्ति का क्रम बनाते हैं-

            तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते।

            अन्नात्प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसुचामृतम्।।

                                                                                                -मुण्डकोपनिषद्, खण्ड १, मंत्र ८

            परब्रह्म में विविध रूपोंवाली सृष्टि के निर्माण का संकल्प उठता है। उससे अन्न उत्पन्न होता है, अन्न से (क्रमशः) प्राण, मन सत्य (पांच महाभूत), समस्त लोक (और कर्म) तथा कर्मों से अवश्यम्भावी सुख-दुःखरूप फल उत्पन्न होता है।

            तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः।

            आकाशा द्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः।

            ओषधिभ्योऽन्नम्। अन्नात्पुरूषः। स वा एष पुरूषोऽन्नरसमयः।

                                                            -तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मनन्दवली, प्रथम अनुवाक।

            निश्चय ही उस परमात्मा ने (पहले-पहल) आकाश तत्व उत्पन्न किया। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल तत्व से पृथ्वी तत्व उत्पन्न हुआ। पृथ्वी से समस्त औषधियाँ उत्पन्न हुईं, ओषधियों से अन्न उत्पन्न हुआ। अन्न से ही (यह) मनुष्य शरीर उत्पन्न हुआ। वह यह मनुष्य शरीर निश्चय ही अन्न रसमय है।

            इस प्रकार उपनिषद् पंचमहाभूतों की उत्पत्ति बताते हैं।

           (१) पुरूष  (२) (प्रकृति) (३) महत (४) अहंकार (५) मनस् (६ता १०) ज्ञानेन्द्रियाँ  (११ ता १५)  कर्मेन्द्रियाँ (१६ ता २०) पंचतन्मात्रा

           सांख्य पच्चीस तत्व अथवा मुख्य पदार्थ हैं ऐसा मानते हैं, वे निम्र वृक्ष से बताए जाते हैं- (२१ ता २५) पंचमहाभूत भारतीय दर्शन संग्रह प्रथमावृत्ति, पृष्ठांक २७७

            इस वृक्ष में पंचमहाभूतों की उत्पत्ति तथा उनका अन्य तत्वों से या पदार्थों से संबंध बताया गया है। इन तत्वों के कार्यकारण भाव के अनुसार चार भाग होते हैं, उन्हें ही चार (अर्थ) कहा जाता है। वे चार अर्थ इस प्रकार हैं-

            (१) मूल प्रकृति (प्रधान) (२) प्रकृति विकृति (३) केवल विकृति (४) अनुभय- अर्थात् प्रकृति भी नहीं और विकृति भी नहीं। जो विशेष प्रकार से सृष्टि करती है वह प्रकृति कहलाती है। सत्व, रज व तम ये इसके माध्यम हैं। पंचमहाभूत और ग्यारह इंद्रिया मिलकर साहल विकार है।

            सत्वरजस्तमसां साम्यावस्थ प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहड्.कारोऽहड्.कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरूष इति पञ्चविंशतिर्गणः।। -सांख्य. सू. अ. १ सूक्त ६१                                                                    -स. प्र., अष्टम् समु.

            सत्व, रज, तम तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात होता है, उसका नाम ‘‘प्रकृति’’ है। उससे ‘‘महत्-तत्व’’ बुद्धि, उससे ‘‘अहंकार’’, उससे ‘‘पांच तन्मात्रा’’ सूक्ष्मभूत और दश इंद्रियां तथा ग्यारहवां ‘‘मन’’ , पांच तन्मात्राओं से  ‘‘पृथिव्यादि पांच भूत’’ ये चैबीस और पच्चीसवां पुरूष अर्थात् जीव-परमेश्वर है।

                                                                                                            (स. प्र., अष्टम समु.)

            इस प्रकार पंचमहाभूतों की उत्पत्ति का ज्ञान सांख्य देता है। इसे ही सृष्टि की या विश्व की उत्पत्ति का साधन बताता है।

            त्रैतमतवाद के उद्गाता, महान् दार्शनिक, महर्षि दयानन्द सरस्वती अपने सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुलास में श्वेताश्वतरोपनिषद् का (अ. ४ मं. ५) मं. उद्धृत करके कहते हैं-

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां

बहवीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः।

अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते

हात्येनां भुक्तभोगामजोन्यः।।

-श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय ४ मं. ५

            प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों ‘अज’अर्थात् जिनका जन्म कभी नहीं होता और न कभी ये जन्म लेते, अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं, इनका कारण कोई नहीं। यहां प्रकृति अज, अनादि है। पंचमहाभूत इसके अंग हैं इसलिये वे भी अज-अनादि हैं।

            द्वैतमत के समर्थक प्रकृति को पुरूष के समान ही महत्व देते हैं। प्रकृति को पुरूष की अभिव्यक्ति का साधन या माध्यम मानते हैं। वे पृकृति को मिथ्या नहीं मानते। सब उपनिषदों में शीर्ष स्थान पर बैठा एक संदर्भ मिलता है जो इस प्रकार है-

            ओं पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

            पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

            (यह मंत्र बृहदारण्यकोपनिषद् के पांचवे अध्याय के प्रथम ब्राह्मण की प्रथम कंडिका पूर्वार्धरूप है।)

            ‘‘अदस्’’ और ‘‘इदम्’’ दो पद महत्व रखते हैं। ‘‘अदस्’’ चेतन है, ‘‘इदम्’’ अचेतम है, जड़ है। ‘‘अदस्’’ परोक्ष चेतन परब्रह्म, परमात्मा है, ‘‘इदम्’’ प्रत्यक्ष अचेतन (जड़) है। अपने-अपने रूप में अवस्थित दोनों पूर्ण हैं, किसी में कोई न्यूवता नहीं। इसलिए ‘‘आदस्’’ पूर्ण के अंतर्गत भी ‘‘इदम्’’ पूर्ण रूपेण उससे पृथक् है। दोनों के पूर्ण और स्वतंत्र होने से दोनों सत्य हैं, मिथ्या कोई नहीं।

            अर्थात् प्रकृति के सत्य होने से पंचमहाभूत भी सत्य हैं।

            अद्वैतमत के उद्गाता आचार्य शंकर प्रकृति को ‘‘मिथ्या’’ मानते हैं। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।। वे ब्रह्ममात्र का महत्व देते हैं, तथा प्रकृति को गौणत्व। प्रकृति के गौणत्व का पर्यायी अर्थ होता है पंचमहाभूत गौण हैं, मिथ्या हैं।

            सारांश रूप में यह स्पष्ट होता है कि सभी वैदिक दार्शनिक मुण्डकोपनिषद् के दिये हुए सृष्टि के उत्पत्ति के क्रम से सहमत हैं जिसमें कहा गया है-

            परब्रह्म सब प्राणियों की उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाला अन्न उत्पन्न करते हैं। फिर अन्न से क्रमशः प्राण, मन, कार्यरूप आकाशादि पंचमहाभूत, समस्त प्राणि आदि उत्पन्न होते हैं।

            अब अवैदिक दर्शनों की प्रकृति तथा पंचमहाभूतों के बारे में क्या विचारधाराएं हैं यह देखते हैं।

            अवैदिक दर्शनों में चार्वाक के विचार संदर्भ में उपलब्ध नहीं है। जहां ईश्वर का अस्तित्व ही उन्हें मान्य नहीं, जहां प्रलय पर भी विचार नहीं किया गया, वहां इस सृष्टि का विचार उनकी दृष्टि में गौणसा लगता होगा। इस विषय पर उपलब्ध बृहस्पति के विचार कुछ इस प्रकार है-

            न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

            नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्व फलदायिकाः।।

                                                            -भारतीय-दर्शन-संग्रह (मराठी) प्रथमावृत्ति पृष्ठांक ९५

            स्वर्ग नहीं, मोक्ष नहीं, परलोक में जाकर कर्मानुसार सुख या दुःख भोगनेवाला आत्मा अलग नहीं।……………

            चार्वाक की मान्यता के अनुसार मात्र चार ही मूलभूत तत्व हैं- पृथिवी, आप्त, तेज और वायु। चार्वाक आकाश को भूत मानते ही नहीं, क्योंकि वे  प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानते हैं जबकि आकाश, प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय हो नहीं सकता। क्योंकि उसका अस्तित्व अभावात्मक होता है, अवस्तु होता है।

-भारतीय-दर्शन-संग्रह प्रथमावृत्ति पृष्ठांक ११०

            बौद्धमत के अनुसार पृथिवी, जल, तेज और वायु ये चार भावभूत भूत और यही भूत कोटि है। इसमें पृथिवी के परमाणु खरस्वभाव अर्थात् कठिन, कठोर, परमाणु स्नेहस्वभाव, तेज के परमाणु उष्णस्वभाव तथा वायु के परमाणु ईरण अर्थात् चलस्वभाव के होते हैं। (यहां तेज के परमाणु का अस्तित्व माना गया है, यह विशेष)। इन सबका कर्त्ता -अधिष्ठाता कोई प्रतीत नहीं होता। जब पृथिव्यादि ये धातु (भूत) समर्थ तथा क्रियाशील होते हैं, तब सबके समवाय ये कर्मोत्पत्ति होती है।

            जैन मत भी प्रकारान्तर से इसी प्रकार की पृष्टि करता दिखाई देता है।

            आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक, विशेषतः रसायनशास्त्रीयों की मान्यता इससे कुछ अलग ही है। विश्व के निर्माण में वे मूलतः ९२ मूलतत्वों (Elements) का अस्तित्व मानते हैं। उनमें से कुछ किरणोत्सर्जक (Radeoactive) होने से कुछ नये मूलतत्व (Elements) का निर्माण होता है। इसलिए मूलतत्वों की संख्या ९२ से बढ़कर १०५ के लगभग होती है। जहां पौर्वात्य दार्शनिक पृथ्वी, आप और वायु भिन्न-भिन्न मूलतत्व मानते हैं, वहां पाश्चात्य वैज्ञानिक इन्हें पदार्थों की अवस्था (States of matter) मानते हैं, यथा-पानी एक पदार्थ-बर्फ उसकी एक अवस्था (Stage) जो (Solid) स्थायु, ठोस, घन शब्द से जानी जाती है। भाप (Steem) उसकी वायु अवस्था (Gas Stage) से जानी जाती है। इन तीनों अवस्थाओं में पदार्थ की रचना, अणु, परमाणु में कोई परिवर्तन नहीं होता। सभी तीनों अवस्थाओं में रचना अणु-परमाणु से ही होती है। अतः पृथ्वी, भाप और वायु में ‘‘भूत” नहीं है, अपितु अवस्थाएं हैं ऐसा पाश्चात्य रसायन शास्त्रीयों का मानना है। वे तेज को पदार्थ नहीं मानते किंतु ऊर्जा (Energy) मानते हैं। तेज की रचना में अणु-परमाणु का विचार नहीं होता, क्योंकि वह पदार्थ नहीं हैं डॉ. अल्बर्ट आइन्सटाइन ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह स्थापित किया की ऊर्जा तथा पदार्थ परस्पर में परिवर्तनीय होते हैं। उसका सूत्र E=M c२ है, जहां E= ऊर्जा, M=Mass वस्तुमान, पदार्थ का भार, तथा C= प्रकाश की गति, ३ लाख किमी./सेकंण्ड है। यहां आश्चर्य इस बात का है कि वैदिक दार्शनिकों ने प्रयोग के साधनों के अभाव होते हुये भी वही निष्कर्ष निकाला है जो आइन्स्टाइन ने निकाला है। वे ऊर्जा = तेज को भी भूत = पदार्थ की श्रेणी मे रखते हैं, एवं ऊर्जा को अचेतन = जड़ मानते हैं। यह केवल चिंतन, तथा तर्क के आधार पर ही इस निष्कर्ष तक पहंचे यह आश्चर्य है।

            वैदिक दार्शनिक आकाश को एक भूत मानते हैं। चार्वाक, बौद्ध आकाश तत्व मानते नहीं। पर, शास्त्रार्थ में परास्त होने पर चार्वाकानुयायी आकाश को भी ‘‘तत्व’’ मानने पर विवश हुए।

            वस्तुतः आकाश का स्वरूप अभावात्मक है। न्याय वैशेषिक दर्शन यों बताता है-

            अभावश्वतुर्विधः। प्रागभाव, प्रध्वंसाभावोऽत्यवत्तभावोऽन्योनाभावश्वेति।।

            आकाश अज्ञेय परंतु अभिधेय अर्थात् शब्द का विषय तथा प्रमेय अर्थात् प्रमाण का विषय होने वाला है। अभावात्मक होते हुए भी वह नापा जा सकता है। दिशा, काल आदि भी अभावात्मक होते हुए भी अभिधेय तथा प्रमेय होते हैं।

            यहां वैदिक विद्वान् तथा आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक, दोनों भी काल एवं आकाश (Time & Space) इनके विषय में समान विचार रखते हैं। डॉ. आइन्सटाइन ने समय (काल) को चतुर्थमिति (Fourth dimention) बताया है। इससे अभिप्राय यह कि हर जड़ अस्तित्व भौमितीय सिद्धान्त से भिमित होता ही है, पर उसके अस्तित्व के काल का निर्धारण भी आवश्यक होता है।

पंचमहाभूतों के लक्षण

(मुख्य संदर्भ -भारतीय-दर्शन-संग्रह, प्रथमावृत्ति लक्षण पृष्ठांक २२७ से २३७)

            अब इन पंचमहाभूतों के लक्षणों का विस्तार करते हैं। न्यायशास्त्र लक्षण ग्रंथ पंचमहाभूतों के संबंध में अपने विवेचन निम्न प्रकार करते हैं। न्याय वैशेषिक दर्शन में नित्य हैं और कार्यरूप से अनित्य। इन पांचों तत्वों का परस्पर संसर्ग होने से उनमें कार्यकारण भाव नहीं है। पर वेदांत शास्त्रों ने इनमें कार्यकारण भाव माना है। संसार की सृष्टि साक्षात् इन भूतों के परस्पर  संसर्ग से ही होती है। इस मिश्रण को पंचीकरण कहते हैं। प्रत्येक महाभूत में स्वतः १/२ तथ्य, अन्य चारों में प्रत्येक का १/८ भाग होता है। कुछ उपनिषद् मात्र तीन तत्व मानते हैं, इसीलिए उनके संसर्ग को ‘त्रिवृत्तकरण’ कहा जाता है। हर महाभूत में सब तन्मात्र के गुण होते हैं।

            पंचीकरण दर्शाने हेतु निम्न तालिका दी गयी है-

क्रम      तत्व (महाभूत)            आकाश            वायु                 तेज (अग्नि)       आप                 पृथिवी

१.        आकाश                        १/२                १/८                १/८                १/८                १/८

२.        वायु                             १/८                १/२०             १/८                १/८                १/८

३.        तेज (अग्नि)                   १/८                १/८                १/२                १/८                १/८

४.        आप                             १/८                १/८                १/८                १/२                १/८

५.        पृथिवी                 १/८                १/८                १/८                १/८                १/२

            ये महाभूत संसार की सृष्टि के कारण होते हैं। उनसे बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा (Energy) का निर्माण होने के कारण कभी-कभी वह ऊर्जा संहार-प्रलय का भी कारण होती है। इन महाभूतों को अपने वश में लाकर उनकी ऊर्जा का प्रयोग मानव-कल्याण में करने के प्रयास करना यह आधुनिक विज्ञान का लक्ष्य होता है। इन्हें संतुष्ट कर, और उससे मानवमात्र का कल्याण करने हेतु प्राचीन काल में इनकी स्तुति में अनेक मानवमात्र का कल्याण करने हेतु प्राचीन काल में इनकी स्तुति में अनेक प्रार्थनाएं रची गयी हैं।

            अब एक-एक ‘‘भूत” पर विचार करते हैं-

            तत्र गन्धवती पृथ्वी। सा द्विविधा। नित्यानित्या च। नित्या परमाणुरूपा।

            अनित्य कार्यरूपा। पुनस्त्रिविधा। शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। शरीरमस्मदादीनाम्।

            इन्द्रियं गन्धग्राहकं घ्राणं नासाप्रवृत्ति। विषयों मृत्पाषाणादिः।।९

                                                                        -भारतीय-दर्शन-संग्रहः प्रथमावृत्ति पृष्ठांक २२७

            पृथ्वीद्रव्य का लक्षण गंधत्व है। इसका अभिप्राय यह है कि गंध का नित्य संबंध पृथिवी से रहना। यहां गंध आधेय व पृथ्वी आधार है। इससे आधेयता का धर्म गंधनिष्ठ है और आधारता या अधिकरणता पृथ्विनिष्ठ है। फलस्वरूप ‘‘गन्धनिष्ठाधेयतानिरूपिताधिकरणताश्रयत्वं पृथिव्याः लक्षणं’’, अर्थात् गंधनिष्ठ जो आधेयता, उस आधेयता से निरूपित, अर्थात् ज्ञान अथवा सूचित होने वाली जो अधिक लाता है उसका आश्रयत्व ही पृथ्वी का लक्षण है। आधेय शब्द के उच्चारण के साथ ही अधिकरण की कल्पना आती है। इसलिए अधिकरण आधेयनिरूपित होता है, ऐसा माना जाता है। गंध आधेय है यह समझ में आते ही उसका अधिकरण क्या है, यह सवाल उठता है, जिसका उत्तर है अधिकरणत्व का आश्रय पृथिवी है। यहां पृथ्वी लक्ष्य तथा गंध लक्षण है। लक्ष्यत्व का धर्म पृथ्वी में है, जिससे पृथ्वित्व लक्ष्यतावच्छेद है। पृथ्वी लक्ष्यतानच्छेदकावच्छिन्न है और पृथ्वी में गंधत्वलक्षण का समन्वय होता है।

            यह पृथिवी दो प्रकार की होती है-नित्य और अनित्य। नित्य पृथ्वी परमाणुरूप है तो अनित्य पृथ्वी कार्यरूप होती है। अनित्य पृथ्वी पुनः तीन प्रकार की होती है। शरीर, इंद्रियां व विषय यही वे तीन प्रकार हैं। मनुष्यादि प्राणियों के शरीर स्वतः सिद्ध हैं। गंध का ग्रहण करने वाला घ्राण पार्थिव इंद्रिय नासिका के अग्रभाग में स्थित होता है। आत्मा मन से संयुक्त होता है, मन इन्द्रियों से संयुक्त होता है, इन्द्रियां विषय से संयुक्त होती हैं, तभी प्रत्यक्ष ज्ञान का उद्भव होता है।

            गंधयुक्त शरीर को पार्थिव शरीर कहते हैं। इसमें पृथिवी तत्व जलादि अन्य तत्वों से अधिक मात्रा में होता है, इसलिए इसे पार्थिव कहते हैं। वास्तव में पार्थिव शरीर भी पंचभौतिक होता है। पर पार्थिव इंद्रिय का नाम घ्राण होता है जो पृथ्वी के गंध गुण का ग्रहण करता है। गंध के अभाव का ज्ञान भी उसी से होता है।

            शीतस्पर्शवत्य आपः। ता द्विविधाः। नित्या अनित्याश्व। नित्याः परमाणुरूपाः।

अनित्याः कार्यरूपाः। पुनस्त्रिविधाः। शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। शरीरं वरूण लोके।

इन्द्रियं रसग्राहकं रसनं जिव्हाप्रवृत्ति। विषयः सरित्समुद्रादिः।।

                                                -भारतीय-दर्शन-संग्रह, प्रथम संस्करण पृष्ठांक २३१

            आप शीतस्पर्शयुक्त होता है। उसके भी नित्य तथा अनित्य ऐसे दो प्रकार हैं। नित्य आप परमाणुरूप होता है और अनित्य आप कार्यरूप होता है। अनित्य आपों के शरीर, इंद्रियां व विशय ऐसे और तीन भेद होते हैं। आप्य शरीर वरूणालोक में होता है। इंद्रिय अपनी जिव्हा के (जिह्वा) अग्र पर रहता है। वह रसों का ग्रहण करता है, इसलिए उसे ‘‘रसन” कहा जाता है।

            परमाणुरूप जल नित्य और व्घेणुकादि सर्व कार्यरूपजल अनित्य होता है। जिस प्रकार पार्थिव शरीर पृथिवी पर दिखने की संभावना होती है वैसे जलीय शरीर पृथिवी पर दिखने की संभावना नहीं होती। वह वरूण के जलप्रधान लोक में ही दिखने की संभावना होती है। हाँ! जलीय इंद्रिय मानवी शरीर में जिह्वा में अग्र पर स्थित होता है। वह गंधादि पांच विषयों में से केवल रस का ही ग्रहण कर सकता है।

            उष्णस्पर्शवत्तेजः। तद्द्विविधं। नित्यमनित्यं च। नित्यं परमाणुरूपम्। अनित्यं कार्यरूपम्। पुनस्त्रिविधम्। शरीरेंद्रियविषयभेदात्। शरीरमादित्यलोके। इन्द्रियं रूपग्राहकं चक्षुः कृष्णताराग्रवृत्ति। विषयश्वतुर्विधः। भौमदिव्यौदर्याकरजभेदात्। भौमं वन्हयादिकं। अबिन्धनं दिव्यं, विधुदादि। भुक्तस्य परिणामहेतुरौदर्यम्। आकरजं सुवर्णादि।।

                                                                        -भारतीय-दर्शन-संग्रहः, प्रथमावृत्ति पृष्ठांक २३२

            तेज उष्णस्पर्शवत् है। उष्णस्पर्श यह तेज का असाधारण धर्म अर्थात् लक्षण है। वह तेज नित्य और अनित्य, ऐसे दो प्रकार का होता है। नित्य तेज परमाणुरूप तथा अनित्य तेज कार्यरूप होता है। इसके भी और तीन प्रकार होते हैं। तेजस् शरीर आदित्य लोक में होता है। चक्षु नाम का रूप का ग्रहण करने वाला तैजस् इंद्रिय आंखों की कनीनिका के अग्र भाग में होता है।

            तैजस विषय चार प्रकार का है। १. भौम, २. दिव्य, ३. औदर्य व ४. आकरज। इनका विस्तार यहां करना लेख की मर्यादा से बाहर है।

            रूपरहितस्पर्शवान् वायुः। सद्विविधं। नित्योऽनित्य्श्व। नित्यः परमाणुरूपः।

            अनित्यः कार्यरूपः। पुनास्त्रिविधः। शरीरेन्द्रिय विषय भेदात्। शरीरं वायुलोके।

            इन्द्रियं स्पर्शग्राहकं त्वक् सर्वशरीर वृत्ति। विषयोवृक्षादिकम्पन हेतुः। शरीरान्तः

            संचारी वायुः प्राणः। स चैकोप्युपाधिभेदात् प्राणापानादिसंज्ञा लभते।।

                                                            -भारतीय-दर्शन-संग्रहः, प्रथमावृत्ति पृष्ठांक २३४

            वायु रूपरहित स्पर्शवान् होता है। वह भी नित्य और अनित्य इन दो प्रकार का होता है। नित्यवायु परमाणुरूप और अनित्यवायु कार्यरूप होता है। अनित्य वायु के शरीर, इंद्रिय और विषय ऐसे तीन प्रकार होते हैं। इनमें शरीर वायुलोक में होता है। त्वक् नामक वायवीय इंद्रिय सारे शरीर में व्याप्त होता है। वह स्पर्श गुण का ग्राहक होता है। शरीर में संचार करने वाला वायु ही प्राण है। वस्तुतः वह यदि एक ही है, फिर भी भिन्न-भिन्न उपाधियों के कारण प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन नामों से जाना जाता है।

            शब्दगुणकमाकाशं। तच्चैकं विभु नित्यं च।।

                                                            -भारतीय-दर्शन-संग्रहः, प्रथमावृत्ति पृष्ठांक २३९

            शब्द जिसका गुण है, वह आकाश है। वह एक विभु व नित्य है। मीमांसक आकाश, शब्दवान् होता है, ऐसा आकाश का लक्षण बताते हैं, परन्तु वह उचित नहीं। शब्द आकाश का गुण है ऐसा बताने के लिए नैयायिक ‘शब्द गुणकं’ ऐसा लक्षण करते हैं। पृथिव्यादि की भांति आकाश के अनेक प्रकार का अनुभव नहीं होता, इसलिए वह एक ही है। आकाश का शब्द यह गुण सर्वत्र उपलब्ध होता है। इसीलिए उसे विभु मानना अपरिहार्य होता है। तथा विभु होने से ही वह नित्य है। ‘‘आत्मन आकाशः सम्भतः’’ (तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मनंदवली प्रथम अनुवाक्)

            परमात्मा ने पहले आकाश उत्पन्न किया। यदि आकाश ‘‘जन्य’’ है तो वह नित्य हो नहीं सकता, ऐसी शंका होती है। उसका समाधान यह कि श्रुति के ‘‘सम्भतः’’ शब्द का अर्थ ब्रह्मांडरूप उपाधि के कारण अभिव्यक्त हुआ, ऐसा होता है, क्योंकि ऐसा न होने  पर परमाणु भी अनित्य मानना पडे़गा। किंतु आत्मा जनक व आकाश (उससे) जन्य-उत्पन्न होने वाला यह अनुमान नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसकी उत्पत्ति के लिए आवश्यक कारण सामग्री का अभाव है, इसलिए उपरिनिर्दिष्ट वेदवाक्य अर्थवादरूप है ऐसा मानना पडे़गा। आकाश के परमाणु नहीं हैं, इसलिए उसका अनित्य कार्य असंभव, अर्थात् उसका शरीर, इंद्रिय व विषय ये तीन भेद नहीं हैं। श्रोत यह इंद्रिय मात्र आकाश का होता है, जो शब्द का ग्रहण करता है।

            पृथ्वी, आप, तेज, वायु व आकाश, जो प्रकृति के मुख्य अंग हैं, उनके संबंध में वैदिक एवम, अवैदिक विचार, आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों के विचारों से मेल नहीं खाते, यह आरम्भ में देखा गया है। पुनरूक्तिदोष टालने हेतु उन्हें यहीं विराम देते हैं। हां! आकाश को विशेष गुण, जिसे आकाश का लक्षण मानते हैं, वह है शब्द। इस विषय में भी पाश्चात्य भौतिक शास्त्री वैदिक विद्वानों से सहमत नहीं हैं। उनकी दृष्टि से शब्द-अर्थात् ध्वनि के वहन का माध्यम आकाश नहीं है। या आकाश का लक्षण ध्वनि नहीं है। एक प्रयोग (Experiment) से इसे समझ लेंगे। एक निर्वात पंप (Vacum Pump) होता है। किसी बर्तन को उसकी सहायता से निर्वात किया जा सकता है। उस पर कांच की एक हंडी रखते हैं, जिसमें एक विद्युत घंटी (Electeic Bell) लगी रहती है। घंटी बजाना आरंभ करते हैं। वह घंटी बजती हुई सुनाई भी देती है और दिखाई भी। अब निर्वात पंप की सहायता से वह हंडी शनै-वैसे घंटी की ध्वनि क्षीण होती जाएगी। जब हंडी निर्वात होगी, तब घंटी बजती हुई दिखाई तो देती है पर सुनाई नहीं देती। निष्कर्ष यह कि ध्वनि (शब्द) के वहन के लिए वायु या अन्य माध्यम आवश्यक होता है-

आकाश या निर्वातता नहीं। अर्थात् आकाश का लक्षण ‘शब्द’ यहां खरा नहीं उतरा, ऐसा भौतिक शास्त्री मानते हैं।

            परंतु, आकाश केवल अभावात्मक नहीं, अपितु उसमें पूर्ण रूप से ईथर नामक काल्पनिक पदार्थ का अस्तित्व भौतिक शास्त्री मानते हैं। यही ईथर प्रकाशादि विद्युत्-चंुबकीय लहरों के वहन का माध्यम वे मानते हैं।

            यदि काल्पनिक ईथर का अस्तित्व न माना जाय तो विद्युत्- चुंबकीय लहरों का वहन विशद् करना असंभव हो जाता है।

            इस दृष्टि से भी आकाश का जो लक्षण ‘‘शब्द” वैदिक शास्त्रीयों ने माना है वह ठीक ही लगता है।

            इस प्रकार हमने आकाशादि पंचमहाभूत जो सृष्टि के कारण होते हैं, उनके निर्माण, स्थिति तथा लक्षणों के संदर्भ में वैदिक, अवैदिक एवम् आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों की विचारधाराओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है।

            पंचमहाभूत इस प्रदीर्घ विषय पर उतने ही विस्तार से एवम् गंभीरता से चिंतन करने वाले उन महान दार्शनिक ऋषियों की दिव्य स्मृति को शतशः अभिवादन।

नेहरू चैक, धाराशीव (उस्मानाबाद)-४१३५०१ दूरभाष – (०२४७२) २२२१९, २४५७१

ऋग्वेद में वायु का स्वरूप :- श्रीमती माला प्यासी

            वेद वस्तुतः एक ही हैं, स्वरूप भेद के कारण त्रयी नाम से जाना जाता है; ऋक्, यजु और साम। जिन मन्त्रों में अर्थवशात् पादों की व्यवस्था है उन छन्दोबद्ध मन्त्रों को ऋचा या ऋक् कहते हैं। जैसा कि जैमिनी सूत्र में कहा गया है- ‘‘तेषामृगयत्रार्थवशेन पादव्यवस्था” और ऋचाओं के समूहों को संहिता कहा जाता है।

            ऋक् संहिता या ऋग्वेद का गौरव या उसका महत्व सर्वाधिक माना जाता है। पाश्चात्य विद्वानों ने भाषा एवं भाव की दृष्टि से ऋग्वेद को अन्य वेदों की तुलना में प्राचीन माना है। अतएव उनकी दृष्टि से ऋग्वेद विशेष उपयोगी हैं। भारतीय विद्वान् भी ऋग्वेद को प्राचीन मानते है। तैत्तरीय संहिता के अनुसार साम तथा यजु के द्वारा जो विधान किया जाता है वह शिथिल होता है परन्तु ऋक् के द्वारा विहित अनुष्ठान ही दृढ़ होता है। यह प्रमाण ऋग्वेद की प्राचीनता को स्पष्ट कर रहा है। पुरूष सूक्त में भी सहस्त्रशीर्षा यज्ञरूपी परमेश्वर से ऋचाओं का आविर्भाव सर्वप्रथम बताया गया है।

            ऋग्वेद स्तोत्रों की एक विशाल राशि है; जो यज्ञीय अनुष्ठानों पर आहूत देवों की प्रार्थनाओं और उपदेशों से भरा हुआ है, सराबोर है। नाना देवताओं की भिन्न-भिन्न ऋषियों ने बड़े ही सुंदर तथा भावाभिव्यंजक शब्दों में स्तुतियाँ की हैं साथ ही अपने अभीष्ट सिद्धि के निमित्त से प्रार्थनायें की हैं। उन प्रार्थनाओं में देवों की शक्ति और स्थिति, उनके कार्य और विशेषताओं को भिन्न-भिन्न विशेषणों से आभूषित किया है, व्यक्त किया है। ये विशेषण ही देवों की स्वरूप भिन्नता को व्यक्त करते हैं।

            प्रस्तुत आलेख में प्रयास किया गया है ‘‘ऋग्वेद में वायु के स्वरूप पर’’ दृष्टि डालने का। स्वरूप तीन दृष्टिकोणों पर आधारित हैं- आधिदैविक, अधिभौतिक और आध्यात्मिक।

            आधिदैविक शब्द अधि उपसर्ग पूर्वक दिव् धातु से निष्पन्न हैं। दिव् का अर्थ है प्रकाशित करना या चमकना। अधि उपसर्ग अधिकृत का बोधक है। अतः स्वीर्गीय, आकाशीय, अलौकिक दिव्यगुण को प्रकाशित करने की क्षमता जिनमें हो, वे देव हैं। उपरोक्त गुणों को अभिव्यक्त करने का अधिकार जिनके पास हो या जो अधिकृत हों वह उनका आधिदैविक स्वरूप है।

            ऋग्वेद में वायु शब्द देवता का बोधक है। भौतिक वात से भिन्न वायु की देव के रूप में भी स्थिति है। वायु को ‘‘आदेवासोवाताय’’ देवयुक्त अर्थात् दिव्य गुणों से युक्त कहा गया है। ऐसे दैवीय गुण सम्पन्न वायु देव का यज्ञों में बारम्बार आह्नान किया गया है कि- हे वायु देव तुम सोम पान के लिये आयो। यहाँ तक कि अनेक स्थानों पर अन्य देवों की तुलना में सोमपान का प्रथम अधिकार वायु को ही दिया गया है। ‘‘देवदधिषेपूर्वपेयम्’’ हे वायु सोमपान के तुम प्रथम अधिकारी हो। इतना ही नहीं वायु देव उस सोम के रक्षक भी हैं। अपने इष्ट को सोम की रक्षा का दायित्व देकर उसको सर्वप्रथम सोम का पान करवाकर यजमान तो आनन्दित होता है, वायु देव भी उस शुद्ध और मधुर सोम का पान कर आनन्दित होते हैं।

            आहूत वायु देव की व्यक्तिगत विशेषतायें अनिश्चित हैं। इन विशेषताओं में ही वायु में पाये जाने वाले दैवीगुण स्पष्ट दिखाई देते हैं। वायु देव को त्वष्टा का जामाता कहा गया है। वायु ने ही मरूत् को जन्म दिया है। वह मरूत् जो गणों में रहते हैं, जिनकी अन्तरिक्ष में द्युतिमान, अयोदंष्ट्रान के रूप में स्थिति है, जो अद्भुत शक्ति संपन्न हैं, जिनमें वर्षा, विद्युत्, मेघ एवं संसार के नियमन जैसे गुण विद्यमान हैं। प्रकाश देना तथा मरना और मारना ये मरूत् के कार्य हैं। ऐसे मरूतों के रथ पर वायु देव अश्व रूप में जुड़े सम्राट हैं। ऐसे इन्द्र के वायु देव सारथि भी बने हुए हैं।

            वायु देव समस्त देवों के जीवन रूप हैं, आत्मरूप प्राण हैं, और भुवनों की संतान हैं। वायु समस्त देवताओं में मुख्य देव हैं ‘‘वायोमन्दानो अग्रिमः।’’ इतना ही नहीं एकेश्वरवाद की स्थापना करते हुए वायु को ही ईश्वर मान लिया गया है। ‘‘ईशानाय प्रहुर्तियस्त।’’ वायु मुख्य देव हैं संभवतः इसीलिये उनका रूप भी अतीव सुन्दर है। सम्पूर्ण अग विशिष्ट महिमा मण्डित हैं।

            वायु देव सम्राज्य करने वाले राजा भी हैं तभ कहा गया है कि वायु ने उचश्य और वपु नाम के राजाओं से अधिक राज्य किया है। वायु शत्रुओं को कँपाने वाले राजा के समान हैं। ये युद्ध कार्य में भी निपुण हैं। विशुद्ध सोम का पान करके वायु देव युद्ध के लिये उपस्थित रहते हैं। शत्रुओं के विनाश में भी समर्थ हैं अतः शत्रु हन्ता भी हैं । समाज के विपत्तिग्रस्त मनुष्यों के उद्धारक भी हैं। प्रार्थना के साथ-साथ ऋषि वायु देव को उपदेश भी दे रहा है, उससे अपेक्षा भी कर रहा है कि हे वायु देव तुम विपत्तियों से हमारा उद्धार भी करते हो अतः हमारे रक्षक हो इसलिये कभी तुम हिंसा नहीं करना। पाप विमोचक वायु समस्त पापों से मुक्ति दिलाने वाले हैं ‘‘विमुमुक्तमस्मे।’’

            द्यावा पृथिवी ने धन के लिये वायु को उत्तम किया है, श्रेष्ठ किया है। अतः ऐसे उत्तम धन एवं अन्न, गौ, पुत्र समस्त कार्यों को सम्पन्न करने के लिये वायु देव स्वर्णमय रथ का उपयोग करते हैं। वह रथ बड़ा उज्जवल है, आकाश का स्पर्श करने वाला है। रथ में जोते जाने वाले अश्वों की संख्या अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न है। कहीं यह संख्या नवतिनव है ‘‘युक्तासो नवतिनव”, कहीं शत और कहीं सहस्त्र है। ‘‘शतीनिभिरह वरं सहस्त्रिणीभिः’’ कहीं-कहीं यह संख्या दो भी कही गई है। रथसहा (रथसहौ) वायु के ये जो अश्व हैं वे बड़े बलशाली हैं, शीघ्रगामी हैं। उनकी गति को रोकना उतना ही कठिन है जितना सूर्य की किरणों को रोकना।

            असीम शक्तियों के अधिपति होने के साथ-साथ वायु अमृत तुल्य भी हैं अतः वायु से प्रार्थना की गई है कि तुम्हारी जो अमरण की शक्ति है वह हमारे जीवन के लिये दो क्योंकि, तुम हमारे पिता, भ्राता और बन्धु हो। इस अमरण शक्ति के कारण ही हे वायु देव तुम लोक कल्याण कारी कर्म में नियुक्त किये गये हो।

            इस प्रकार हम देखते हैं कि समस्त देवों के प्राण रूप, सर्वशक्तिमान ईश्वर, अमृत शक्तिसंपन्न, लोक का कल्याण करने वाले, पापों से मुक्ति दिलाने वाले समृद्धि दाता वायु दैवी गुण सम्पन्न देव हैं; जो सैंकडों हजारों घोड़ों से जुते स्वर्णमय रथ पर सवारी करते हैं।

            देव रहित भौतिक जगत की पृथक सत्ता संभव ही नहीं है। भौतिक सृष्टि के लिये वही दिव्य गुण नाना भाव में परिवर्तित होता है। देवों की स्तुति में ही उनका भौतिक रूप स्पष्ट हो जाता है। कई विशेषणों के द्वारा इन देवताओं का वैज्ञानिक रूप भी संकेतित है। आधिभौतिक शब्द अधि और भौतिक तथ्यों को बताने वाला भूत जगत, जहाँ स्वभाविक घटनायें घटित होती हों ऐसा भूत जगत ही भौतिक है। भौतिक घटनाओं और तथ्यों को व्यक्त करने में जो अधिकृत है वह आधिभौतिक है।

            ऋग्वेद में वायु को वात भी कहा गया है। संभवतः यह भौतिक वायु का बोधक है। कहीं-कहीं एक ही मन्त्र में दोनों नाम आते हैं। वायु स्वशक्ति से, अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं से इस भौतिक जगत् में तो विद्यमान है ही साथ ही में इन्द्र, मरूत् पर्जन्य के साथ मिलकर भी अनेक प्राकृतिक घटनाओं को, कार्यों को सिद्ध करते हैं।

            ळमारी पृथिवी के चारों ओर जो गैस युक्त वायु मंडल व्याप्त है वह चाक्षुज नहीं है अपितु अनुभूत है केवल स्पर्श द्वारा। वेदों में भी यही कहा गया है कि वायु का रूप दिखाई नहीं देता पर वह गतिशील है। वायु में जा गतिशीलता है उसका कारण सूर्य है। सूर्य किरणों की प्रेरणा से ही वायु में क्रिया होती है। वायु स्थान घेरती है और उस स्थान में वह निरन्तर चलायमान है, गतिशील है। गति इतनी तीव्र है कि पर्वत तक काँप जाते हैं, पृथिवी की धूल बिखर जाती है यहाँ तक कि प्रकृति का सारा रूप विकृत हो जाता है वात की क्रियाओं का उल्लेख मुख्यतः स्तनयित्नु तूफान के संबंध में आता है। झंझा के झोंके विद्युत की दमक के साथ अपृथक रूप से संबद्ध हैं और वे सूर्य के पुनरावर्तन के पूर्व ही आ जाते हैं। फलतः कहा गया है कि वात, लोहित रंग की विद्युत् को प्रकट करते हैं और उषाओं को प्रतिभासित करते हैं।

            वायु मंडल का विस्तार धरातल से सैंकड़ों किलोमीटर की ऊँचाई तक है जिसे अन्तरिक्ष कहते हैं। अन्तरिक्ष अर्थात् मध्यम स्थान। वैदिक ऋषि वात को अन्तरिक्ष का देवता मानता है। अतः वह प्रार्थना करता है कि वात अन्तरिक्ष से हमारी रक्षा करे। मध्यम स्थान में होने वाले जितनी बाधायें हैं जो जनजीवन को अस्तव्यस्त कर सकती हैं उनसे वात हमारी रक्षा करे। अतः प्रकृति का वह तत्व जो मध्यम स्थान का रक्षक है वह हमारे लिये पूजनीय है-

            सूर्यः नः पातु दिवः वातः अन्तरिक्षात्।

            अग्निः नः पार्थिवेभ्यः।।

            वायुमण्डल में नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, ऑर्गन, कार्बनडाइऑक्साइड, नीऑन, हीलियम, क्रिप्अन, जीनन अनेक गैसें भिन्न-भिन्न मात्रा में विद्यमान हैं पर मुख्य रूप से नाइट्रोजन एवं ऑक्सीजन हैं। ऋग्वेद में नाइट्रोजन का वर्णन नियुत शब्द के द्वारा किया गया है। वायु के लिये ‘‘नियुत्वन्ता’’ ‘‘नियुत्वान’’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऋषि नियुत गणों से युक्त वायु को ही आमन्त्रित करता है। ‘‘नि’’ अर्थात् निंश्चित रूप से युत जो वायु के साथ रहता है वह नियुत है। यहाँ नियुत शब्द नाइट्रोजन का ही बोधक है क्योंकि वायु में नाइट्रोजन ही मुख्य रूप से है, अधिक मात्रा में है। इसी लिये नियुत शक्ति को सैकड़ों हजारों शक्तियों से युक्त कहा गया है।

            वायु के गुणों का वर्णन करते हुये कहा गया है कि उसमें प्राण शक्ति है अर्थात् ऑक्सीजन है। वायु में अमृत का खजाना है अर्थात् उसमें भेषज शक्ति है इसीलिये वह औषधि का काम करता है। रक्त को शुद्ध कर हृदय रोगों को दूर करता है। आयु का विस्तार कर दीर्घ आयुष प्रदान करता है। वह प्राण शक्ति का हेतु है इसी कारण वह हमारा पिता, भ्राता और बन्धु है। वह जीवन शक्ति प्रदाता है। इन गुणों से निस्संदेह वायु की शोधक शक्ति ही अभिप्रेत हो सकती है।

            वायु इस जगत् का रक्षक भी है इसीलिये उत्तम रक्षा के निमित्त से ही वायु को आमन्त्रित कर रक्षा की प्रार्थना की गई है। वायु मंडल में स्थित ओजोन वायु रक्षक वायु है जो पूरे वायुमंडल को सुरक्षित करती है। वेदों में वायु की उत्पत्ति पर प्रश्न चिन्ह लगा है। वायु कहां जन्मा कहां से आया कोई नहीं जानता। ऑक्सीजन एवं ओजोन की उत्पत्ति का पता आज भी वैज्ञानिक नहीं लगा पाये हैं।

            वर्षा देने वाले मेघ पर्जन्य हैं। पर्जन्य और वायु दोनोंसे एक साथ प्रार्थना की गई है कि ये दोनों हमारे अन्न को बढ़ायें। वृष्टि के द्वारा वायु अन्न का कारण होता है। सब प्राणियों को बल भी वायु से मिलता है। वायु जब मरूतों के साथ जाते हैं जब मेघ जल देते हैं। जल ही जीवन है जल से ही वनस्पतियों में प्रस्फुटन और वर्धन होता है। उस जीवन रूपी जल को वहन कर लाने का कार्य वायु का होता है। प्रकारान्तर से यह कह सकते हैं कि वायु में ऐसे तत्व हैं जो एक निश्चित प्रक्रिया एवं तापमान से जल में परिवर्तित हो जाते हैं इसीलिये वायु को जल का बन्धु कहा गया है। अन्तरिक्ष से नीला दिखाई देने के कारण पृथ्वी को अक्सर नील ग्रह कहते हैं। धरातल का प्रमुख नीला रंग तथा वायुमंडल के सफेद बादल दोनों ही जल हैं। वायु मंडल में जल गैसीय अवस्था में अर्थात् जल वाष्प के रूप में पाया जाता है। जल अपना रूप बदल सकता है। यह द्रव से ठोस या गैस में बदल जाता है। जल में निहित गैस के कारण वायु मंडल में कई मौसमी घटनायें घटित होती हैं जैसे बादल बनना, वर्षा होना, हितपात होना, कुहरा छाना आदि। इसीलिये कहा है कि मरूत जब हवा के साथ भागते हैं तब कुहरा बिछा देते हैं।

            इस प्रकार हम देखते हैं कि वायु में जलीय शक्ति है, शोधक शक्ति है भैषज शक्ति है तभी वायु से प्रार्थना की गई है कि अपनी इन समस्त शक्तियों के साथ द्युलोक में कल्याण ले जाओ।

            वायु में ध्वनि की भी शक्ति है। तभी कहा गया है कि वायु का शब्द (ध्वनि) वज्र के समान है और वह शब्द अनेक प्रकार से सुनाई देता है। वायु जब जाते हैं तब गर्जन होता है।

            वायु के कुछ गुण मरूतों में होने के कारण मरूत को ही वायु समझ लेना भ्रान्ति है। अनेक उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिनसे वायु और मरूत् का उपमानोपमेय भाव लक्षित होता है। जैसे मरूत वायु के समान वेगशाली हैं, मरूतों का घोष वायु के समान है, मरूत् वायु के समान शत्रुओं को कँपाने वाले और गतिशील, हैं अतः इस भौतिक जगत के दोनों पदार्थ भिन्न-भिन्न तत्व हैं। मरूतों को अरेणवः मरूतः भी कहा गया है। अर्थात् मरूत गणों में रेणु या धूलि के कण नहीं हैं। आधुनिक विज्ञान का कथन है कि सूर्य के चारों ओर धूल के कण नहीं हैं क्योंकि सूर्य अपनी ऊष्मा के द्वारा सभी ठोस कणों को वाष्प के रूप में परिणात कर देता है। मरूत् अन्तरिक्ष स्थानीय है जबकि वायु का स्थान पृथिवी के चारों ओर का वातावरण है, अन्तरिक्ष और द्युलोक के बीच का मध्य स्थान है। वायु में धूल के कण भी व्याप्त रहते हैं अतः मरूत् और वायु दोनों भिन्न तत्व हैं।

            जो देव, जो शक्ति आत्म कहे जाने के लिये, प्राण माने जाने के लिये अधिकृत हो वह उसका आध्यात्मिक रूप है। वायु का एक स्वरूप आध्यात्मिक भी है। ऋग्वेद में वायु की उत्पत्ति विराट् पुरूष के प्राणों से कही गई है-

            चन्द्रमा ममनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।

            मुखादिन्दुश्वाग्निश्वा प्राणाद्वायुरजायत।

            अर्थात् उस विश्व पुरूष वा विराट पुरूष का जो प्राण है वह वायु है। अतः वायु का आध्यात्मिक रूप प्राणात्मक है। यह प्रणों के रूप में प्रत्येक शरीरधारी में रहता हुआ उनकी आयु का निर्धारण करता है। अतः उपनिषदों में कहा गया है कि प्राणो ही भूतानामायुः। सर्वमेव ते आयुर्यन्ति ये प्राणं ब्रह्मोपासते।

            छान्दोग्य उपनिषद् में भी वायु को प्राण के रूप में ब्रह्म का चतुर्थ पाद कहा गया है।

            ‘‘प्राण एव ब्रह्मणश्वतुर्थः पादः स वायुना ज्योतिषाभाति च तपति च।”

            अतः उस प्राणरूपी सत की ही एकमात्र सत्ता है। उसकी शक्तियों की प्रवृत्तियाँ भिन्न-भिन्न हैं। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।

            इस प्रकार हम देखते हैं कि त्रिविध स्वरूपा वायु शरीर धारियों की आत्मा के रूप में स्थित होकर, भौतिक जगत् का विस्तार करते हुये सर्वशक्तिमान ईश्वर के रूप में विद्यमान है।

                                                                                    इति

                                                                                                            सहात्र प्राध्यापक संस्कृत

                                                                                                शास. महाकोशल कला एवं वाणि.,

                                                                                                म्हाविद्यालय, जबलपुर (म. प्र.)

।। पादटिप्पण्यिां।।

            १. जै. सू. २-१-३५                                         २.  तैन्त. सं. ६-५-१०-३

            ३. ऋ. १०-९०-९                                           ४. ऋग् ७-९२-४

            ५. ऋग् ७-९२-१                                            ६. ऋग् १०-८५-५

            ७. ऋग् ७-९०-१                                            ८. ऋग् ८-२६-२१, २२

            ९. ऋग् १-१३४-४                                         १०. ऋग् ५-५८-७

            ११. ऋग् ४-४६-२, ४-४८-२                                    १२. ऋग् १०-१०८-४

            १३. ऋग् ८-२६-२५                                      १४. ऋग् ७-९०-२

            १५. ऋग् ८-२६-२४                                      १६. ऋग् ८-४६-२८

            १७. ऋग् ४-४८-१                                         १८. ऋग् ७-९२-४१

            १९. ऋग् ७-९१-१                                         २०. ऋग् ७-९१-२

            २१. ऋग् ७-९१-५                                         २२. ऋग् ७-९०-३

            २३. ऋग् ७-९२-३                                         २४. ऋग् ४-४६-, ४-४८-२

            २५. ऋग् ४-४८-४                                         २६. ऋग् ७-९२-५

            २७. ऋग् ८-२६-२०                                      २८. ऋग् १-१३५-९

            २९. ऋग् १०-१८६-३                                               ३०. ऋग् १०-१८६-२

            ३१. ऋग् ४-४६-२                                         ३२. ऋग् १०-१६८-१

            ३३. ऋग् ६-५०-१२                                      ३४. ऋग् १-१६४-४४

            ३५. ऋग् १०-१६८-४                                               ३६. ऋग् १-१६८-२

            ३७. ऋग् ४-१७-१२                                      ३८. ऋग् ५-८३-४, १-९७-५२, १०,१८६-३

            ३९. ऋग् १०-१५८-१                                               ४०. ऋग् ४-४७-३

            ४१. ऋग् १-१३५-१ से ८ तक                                   ४२. ऋग् २-४१-१

            ४३. ऋग् १-१३५-१ से आठ                          ४४. ऋग् १०-१८६-१ से ३ तक

            ४५. ऋग् ७-९०-७                                         ४६. ऋग् १०-१६८-३

            ४७. ऋग् ६-५०-१२                                      ४८. ऋग् ८-७-४

            ४९. ऋग् ८-७-४                                            ५०. ऋग् ८-२६-२३

            ५१. ऋग् १-१६८-१                                      ५२. ऋग् १०-१६८-४

            ५३. ऋग् ७-५६-३                                         ५४. ऋग् ९-५७-५२

            ५५. ऋग् ७-५६-३                                         ५६. ऋग् ७-५६-३

            ५७. ऋग् १-१६८-४                                      ५८. ऋग् १०-९०-१३

            ५९. तै. उप. २/३                                           ६०. छान्दो उप. ३/१८/४

व्रुपासि वास्त्रा वैदिक वाड्.मय में पृथिवी – प्रो.-छाया ठाकुर

            लैटिन भाष के शब्द साइंटिया (Scientia) जिसका अर्थ ज्ञान है से व्युत्पन्न साइंस अर्थात् विज्ञान (विशिष्ट ज्ञानं विज्ञानमिति) प्रयोग और परीक्षण द्वारा सत्यापित ज्ञान है। विज्ञान की दो शाखायें हैं (१) प्राकृतिक विज्ञान (Natural Science) (२) सामाजिक विज्ञान (Human Science)। प्राकृतिक विज्ञान ही वह आधारभूत विज्ञान है जिसमें प्रकृति और पदार्थ का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। प्राकृतिक विज्ञान की एक शाखा भौतिक विज्ञान के अन्तर्गत हम ब्रह्माण्ड में स्थित वस्तुओं, क्रियाओं और उन्हें प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन करते हैं। पदार्थ का अध्ययन करनेवाले समस्त विज्ञानों को भौतिक विज्ञान (Matarial Science) कहते हैं। पदार्थ-विज्ञान के अन्तर्गत ही हम ब्रह्माण्ड में स्थित विभिन्न तत्वों जैसे सूर्य, वायु, मेघ, पृथिवी, प्रकाश आदि का अध्ययन करते हैं।

            वैदिक साहित्य ही ज्ञान विज्ञान की परम्परा का वह उत्स है जो उत्तरोत्तर विकसित और समृद्ध होता गया। धातु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, औषधि विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, गणित, ज्यामितीय, परमाणु विज्ञान और ज्योतिष आदि समस्त विज्ञानों का मूल वैदिक संहिताओं में ही खोजा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान के मूलभूत तत्व हमें वैदिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं। आवश्यकता है, उन्हें ढूँढने की, उस गुह्य-ज्ञान को अनावृत करने की। इस संगोष्ठी पदार्थ-विज्ञान के अन्तर्गत आनेवाले विभिन्न ब्रह्माण्डकीय प्राकृतिक तत्वों के वैदिक स्वरूपों के अध्ययन पर केन्द्रित है। इस संगोष्ठी के लिये निर्धारित विषयों में से मैंने ‘‘वेदों में पृथिवी का स्वरूप’’ इस विषय पर अपना आलेख लिखने का प्रयास किया है।

            प्रस्तुत आलेख में पृथिवी के स्वरूप का अध्ययन तीन दृष्टियों से किया गया है-

            (१) आधुनिक विज्ञान में पृथिवी का स्वरूप

            (२) ऋग्वेद में पृथिवी का स्वरूप

            (३) अथर्ववेद में पृथिवी का स्वरूप

१         आधुनिक विज्ञान में पृथिवी का स्वरूपः

            ब्रह्माण्ड तीन भागों में विभाजित है- (१) पृथ्वी (२) अन्तरिक्ष (३) द्यौः। द्यौः और पृथ्वी के बीच का भाग अन्तरिक्ष कहलाता है। इस ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा हिस्सा है। हमारे सौरमण्डल का केन्द्र सूर्य है। इस सौर परिवार में पृथिवी सहित नौ ग्रह, उपग्रह ग्रहिकायें और पुच्छल तारे हैं। ये सभी सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य के निकटतम बुध (Mercury) है, उसके बाद क्रमशः शुक्र, पृथिवी मंगल, बृहस्पति, शनि, अरूण, वरूण और यम हैं। पृथिवी को अन्य ग्रहों से पृथक् करनेवाली विशेषता यह है कि पृथ्वी पर जीवन है, अन्य ग्रहों में नहीं।

            सौरमंण्डल में सर्वाधिक प्रसिद्ध और मानव तथा जैव जगत् के लिये सर्वाधिक उपादेय ग्रह पृथ्वी ही है। यह बुध, शुक्र, मंगल और कुबेर (यम) से बड़ा और अन्य ग्रहों से छोटा ग्रह है। इसका व्यास १२७६० कि. मी. है। यह सूर्य से १४ करोड़ ८८ लाख कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यह अपनी धुरा पर चैबीस घंटों में एक बार घूम जाती है। सूर्य की परिक्रमा करने में इसे ३६५ दिन ६ घंटे लगते हैं। यह अपनी धुरा पर २३ १/२ झुकी हुई है और इस झुकाव के कारण पृथिवी पर सौर ताप की प्राप्ति, वर्षा तथा ऋतुओं पर विशेष प्रभाव पड़ता है।

पृथिवी की उत्पत्तिः

            पृथ्वी की उत्पत्ति के सिद्धान्त पर आधुनिक वैज्ञानिकों में मतवैभिन्य है। कुछ वैज्ञानिकों को कथन है कि केवल सूर्य से ही पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है। कुछ कहते हैं कि एक तारा सूर्य से टकराया और इससे होनेवाले बिखराव से पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई। आधुनिक काल में सर्वप्रथम १७४५ में बफन ने, १७५५ में काण्ट और १७९६ में लाप्लास ने पृथ्वी और सौरमण्डल की उत्पत्ति के बारे में विज्ञान सम्मत सिद्धान्त किये। पृथ्वी की उत्पत्ति के सिद्धान्त को तीन वर्गों में रखा जा सकता है-

            (१) एक तारक या अद्वैतवादी सिद्धान्त- यह सिद्धान्त बफन, काण्ट लाप्लास, हर्शल एवं रोशे (फ्रांसीसी) ने प्रस्तुत किया।

            (२) द्वैतारक या द्वैतवादी सिद्धान्त- यह सिद्धान्त गोल्टन और चेम्बरलीन (अमेरिकी) जीन्स, जैफ्रे और रसैल नामक विद्वानों ने प्रस्तुत किया।

            (३) आधुनिक सिद्धान्त- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अत्याधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों और ब्रह्माण्ड के संबंध में एकत्रित की गई जानकारी पर ये सिद्धान्त आधारित हैं। इनमें मुख्यतः डॉ. ऑफवन, प्रो. होयल, एवं लिटिलटन (ब्रिटिश) का नोवा तारा सिद्धान्त, राजसन का आवर्तन एवं ज्वारीय सिद्धान्त तथा डॉ. बैनर्जी का सीफिड सिद्धान्त उल्लेखनीय है।

पृथिवी की उत्पत्ति की वैदिक अवधारणाः

            ऋग्वेद में परमेश्वर से ही सृष्टि का विकास माना गया है। स्वयंभू परमेश्वर (पुरूष) ने पहले महान अर्णव में गर्भ धारण किया जिससे प्रजापति उत्पन्न हुआ। ये महदण्ड संख्यातीत थे। इन्हीं अण्डों से अतिदूरस्थं सृष्टियाँ (Galaxy) उत्पन्न हुई। मानवधर्मशास्त्र के अनुसार हिरण्याण्ड के दो शकलों से दिव के और भूमि की उत्पत्ति हुई। तदनुसार पहले भूमि बनी और बाद में दिव के सूर्य आदि अस्तित्व में आये। यही बात शतपथ बाह्मण में भी कही गई है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि प्रजापति ने भू शब्द उच्चारा और उसने भूति उत्पन्न की। प्रजापति अथवा ईश्वर के इस उच्चारण से भूमि आदि सृष्टियाँ बनीं, इस बात की प्रतिध्वनि बाईबिल में भी देखी जा सकती है। त्वष्टा जो जो बोला वही हुआ। बाईबिल का ईश्वर और ब्राह्मण ग्रंथों का त्वष्टा ही प्रजापति है-

१. And God said, Let there be light; ans there was light.

६.  And God said, Let there be a Hrmament (Heaven)

९. And God said, Let the dry land appear

१४. And God said, Let there be lights (Sun, Moon) in the firmament-Ch. १.३ (Old Testament)

यही भाव ऋग्वेद, कठोपनिषद् और गीता में भी व्यक्त हुआ है। यही बात पुराणों में भी दुहरायी गई है-भूरिति व्याहृते पूर्वं भूलोकश्व ततो भवत्।

            उपर्युक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहंचते हैं कि हिरण्यगर्भ से ही भौतिक पदार्थों और सृष्टि (Galaxy) का विकास हुआ। वर्तमान सृष्टि का विकास आज से लगभग १९७.३ करोड़ वर्ष पूर्व आरंभ हुआ, ऐसी प्राचीन ग्रंथों की मान्यता है। पृथ्वी और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की आयु तो इससे भी अधिक है। वर्तमान वैज्ञानिक भी विभिन्न प्रमाणों के आधार पर पृथ्वी की उत्पत्ति को २०० करोड़ वर्ष पूर्व की मानते हैं।

पृथ्वी के स्वरूप की वैदिक धारणाः

बौद्ध दर्शन की मान्यता है कि जिस तरह अन्य ग्रह आधारशून्य होकर भ्रमणशील हैं उसी तरह पृथ्वी भी है और उसमें गुरूत्व भी है जिससे वह निरन्तर नीचे की ओर गतिमान है। उपनिषदों को प्रामाणिक मानकर वेदान्त दर्शन में कहा गया है। कि जल से पृथिवी की उत्पत्ति हुई है। अथर्ववेद में कहा गया है कि जल का आधार पृथिवी है। प्रसिद्ध खगोलशास्त्री आर्यभट्ट  (४७६ ई.) की धारणा है कि पृथ्वी आकाश में निराधार अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है जिससे रात-दिन होते हैं। तत्पश्चात् दूसरे खगोलवैज्ञानिक वराहमिहिर  (५०५ ई.) ने कहा कि पञ्चमहाभूतमयी यह पृथिवी चुम्बक से घिरी होकर आकाश में टिकी है। ११५० ई. में वैज्ञानिक भास्कराचार्य ने भी कहा कि पृथ्वी का कोई आधार नहीं है। यह अपनी शक्ति से ही स्वभाववश आकाश में स्थित है। और सभी प्राणियों का आधार है।

पञ्चमहाभूतमयी पृथिवी में पांच विशिष्ट गुण पाये जाते हैं-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। गन्ध पृथिवी का अतिविशिष्ट गुण है जो अन्य किसी द्रव में नहीं पाया जाता।

२. ऋग्वेद में द्यावापृथिवी का स्वरूपः

ऋग्वेद के अध्ययन से द्यावा-पृथिवी के संबंध में निम्नलिखित वैज्ञानिक तथ्य सामने आते हैं-

(१) द्यावा-पृथिवी की उत्पत्तिः

१.        परमात्मा से ही द्यावापृथिवी की उत्पत्ति हुई है और वह इन दोनों में व्याप्त है।

२.        सूर्य को द्यावापृथिवी का जन्मदाता कहा गया है।

३.        इसके विपरीत एक स्थान पर सूर्य को द्यावापृथिवी का पुत्र कहा गया है।

(२) सूर्य से ही पृथिवी प्रकाशित होती हैः- द्यावापृथिवी के बीच से सूर्य प्रकाश आदि धारण करने के धर्म से गतिशील है।

(३) पृथिवी अत्यधिक विस्तृत हैः- इसके लिये महिनी, अरूव्यचसा (१.१६०.२), उर्वी (विस्तीर्ण) पृथ्वी (फैली हुई) (६.७०.६) ज्येष्ठे मही रूचा द्यावापृथिवी (४.५६.१) कहा गया है।

(४) पृथिवी अपनी धुरी पर घुमती हैः

            ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा है कि पृथिवी अनेक तरह से विचरण करने वाली है (विचारिणी ५.७०.२) ऋतावरी (४.५६.२), घृतवती (६.७०.१) है। वह जल से युक्त, जल की शोभा से युक्त (घृतश्रिया) जल से संबंध रखनेवाली (घृतपृचा), जल का संवर्धन करने वाली है।

३. अथर्ववेद में पृथिवी का स्वरूपः

            वेदों में पृथिवी का कोई मूर्त रूप नहीं है। आधुनिक भूगोल विज्ञान, भूविज्ञान आदि में जो स्वरूप पृथिवी का है, मुख्यतया वही भौतिक स्वरूप हम अथर्ववेद में भी पाते हैं, यद्यपि कुछ वैज्ञानिक तथ्यों को भी उसमें खोजा जा सकता है।?

            अथर्ववेद के १२ वें काण्ड का प्रथम सूक्त, जिसमें ६३ मंत्र हैं, पृथिवी को समर्पित है। यह पृथिवी सूक्त केनाम से विख्यात है। इसे भूमि सूक्त भी कहा जाता है। सभी प्राणी इस पृथिवी की सन्तान है अतः इसे मातृभूमि सूक्त भी कहते हैं। इसमें न केवल पृथिवी के स्वरूप का तथा पृथिवी द्वारा धनधान्य, बल और यश प्रदान करने का उल्लेख है अपितु इसमें मातृभूमि के प्रति कर्त्तव्यपालन करनेवालें के लिये सत्यनिष्ठा, यथार्थबोध, दक्षता, क्षात्रतेज, ब्रह्मज्ञान और त्यागादि गुणों, प्रवृत्तियों और मर्यादाओं का भी उल्लेख है। राष्ट्रीय अवधारणा तथा वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को विकसित और पुष्ट करने के लिये आवश्यक महनीय गुणों का भी समावेश, इसकी उपयोगिता को बढ़ाता है।

            अथर्ववेद में वर्णित पृथिवी सूक्त में पृथिवी के स्वरूप-इसके आधार से अध्ययन किया जा सकता है- (१) पृथ्वी का वैज्ञानिक स्वरूप-इसके आधार पर हम पृथ्वी और सौरमण्डल संबंधी अनेक वैज्ञानिक तथ्यों का अध्ययन कर सकते हैं। (२) पृथ्वी का भौतिक स्वरूप-इसके आधार पर हम भूगोल विज्ञान से संबंधित तथ्यों की पुष्टि कर सकते हैं।

            (१) पृथ्वी का वैज्ञानिक स्वरूप- इसके आधार पर अनेक वैज्ञानिक तथ्य उभरकर सामने आते हैं-

            (क) पृथिवी की उत्पत्ति-‘‘अथर्वा” विश्व के प्रथम वैज्ञानिक हैं जिन्होंने अनेक वैज्ञानिक तथ्यों का उल्लेख अथर्ववेद में किया है। पृथिवी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है, इस तथ्य का उल्लेख १८वें अध्याय के तीसरे सूक्त में किया गया है। इस सूक्त के ग्यारह मन्त्रों में यह कहा गया है कि पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य के हाथों से हुई है। प्रत्येक मन्त्र में इसे बाहुच्युता कहा गया है। ऋग्वेद में एक स्थल पर यह कहा गया है कि वरूण ने सूर्य द्वारा पृथिवी को बनाया या नापा।

            (ख) पृथिवी का केन्द्र बिन्दु सूर्य- हमारे सौरमण्डल का केन्द्र सूर्य ही है और सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं, यह एक वैज्ञानिक तथ्य है जिसे अथर्वा ऋषि ने हजारों वर्ष पूर्व ही कह दिया था कि पृथिवी का केन्द्रबिन्दु (हृदय) आकाश में है- यस्य हृदयं परमे व्योमन्। आकाश में सूर्य के रूप में अग्नि है और अन्तरिक्ष उसी से प्र्रकाशित होता है- अग्निर्दिव आ तपत्यग्नेर्देवस्योर्वऽन्तरिक्षम्।

            (ग) पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है- पृथिवी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने का वैज्ञानिक सिद्धान्त अथर्ववेद के इस मंत्र में भी दृष्टिगत होता है-

पृथिवी सूकराय वि जिहीते मृगाय।

            अथर्ववेद में कहा गया है कि पृथिवी काँपते हुए चलती है। काँपते हुए चलने से तात्पर्य लट्टू की तरह अपने ही चारों ओर घूमते हुए चलने से है। पृथिवी की इस दैनिक गति से दिन और रात होते हैं यह बात भूगोलवत्ता भी जानते हैं। यही तथ्य हजारों वर्ष पूर्व अथर्ववेद में उद्घाटित किया गया है- याऽप् सर्पं विजयमाना विमृग्वरी। रात और दिन का उल्लेख ऋषि ने अहोरात्रे कहकर किया है।

(घ) पृथिवी पञ्चतन्मात्राओं से यूक्त है- पंचमहाभूतमय पदार्थों में पृथिवी ही ऐसा द्रव्य है जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध पाये जाते हैं। पृथिवी का प्रधान गुण गंध है जो अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता अतः उसे गन्धवती पृथिवी कहा गया है-

            यस्ते गंधः पृथिवी सम्बभूव यं बिभ्रत्योषधयो यमाषः

            यं गन्धर्वा अप्सरश्व भेजिरे तेन मा सुरभिं कृणु।।

            पृथिवी सूक्त के १२.१.२४ और २५वें मंत्र में भी पृथिवी के गंधयुक्त होने की बात कही गई है।

(ड.) गुरूत्वाकर्षण शक्ति- महान वैज्ञानिक न्यूटन ने पृथिवी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति के सिद्धान्त को फल के पृथ्वी पर गिरने के प्रयेाग से सिद्ध किया। इस गुरूत्वाकर्षण शक्ति के सिद्धान्त का अथर्वा ऋषि ने हजारों वर्ष पूर्व उद्घाटित किया है- मल्बं बिभ्रती गुरूभृत् कहकर। अर्थात् पृथ्वी में गुरू पदार्थ को अपनी ओर खींचने और धारण करने की शक्ति है।

            पृथिवी की आकर्षण शक्ति का वर्णन पातजंलि (१५०ई. पू.) भास्कराचार्य द्वितीय (१११४ ई.) वराहमिहिर (४७० ई.) और श्रीपति (१०३९ ई.) ने भी किया है, प्रत्येक परमाणु में आकर्षण शक्ति है और इसी शक्ति के कारण पृथिवी सूर्य और चन्द्रमा तीनों एक दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। सभी ग्रह एक-दूसरे के आकर्षण से बंधे हैं, यही कारण है कि वे आकाश में निराधार टिके हैं और नीचे नहीं गिरते।

            (च) पृथिवी का स्वरूप एवं आकार- पृथ्वी सूक्त में पृथिवी के स्वरूप एवं आकार का वर्णन अनेक मंत्रों में मिलता है। पृथिवी लंबी, चौड़ी, विस्तीर्ण, गोल ओर स्थिर है।

            (छ) पृथिवी पहले जलमग्न थी- आधुनिक वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी पहले जलमग्न थी। प्राचीनकाल में पूरा यूरोप और एशिया जलमग्न था। धीरे-धीरे समुद्र हटता गया और कालान्तर में पृथिवी ऊपर आ गई। यही बात अथर्ववेद में भी कही गई है कि पृथिवी पहले समुद्र में मग्न थी और धीरे-धीरे ऊपर आई-यार्णवेऽधि सलिलमग्र आसीत्।

            पृथ्वी संबंधी उपर्युक्त तथ्यों के अतिरिक्त कुछ सामान्य वैज्ञानिक अवधारणाओं की पुष्टि भी पृथिवी सूक्त करता है-

            (१) ब्रह्माण्ड तीन लोकों में विभाजित है- सभी धर्मशास्त्र और वैज्ञानिकों (खगोल विज्ञान, भूविज्ञान, ज्योतिष्, भूगोल आदि) ने माना है कि यह ब्रह्माण्ड द्यौ, अन्तरिक्ष और पृथ्वी इन तीन लोकों में विभाजित है। अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में हजारों वर्ष पूर्व यही बात कही गई है- द्यौश्व म इदं पृथिवी चान्तरिक्षं च मे व्यचः।

            (२) तीन प्रकार की अग्नि- अथर्वा ऋषि ने तीन प्रकार से अग्नि की उत्पत्ति का वर्णन किया है- १. वृक्ष से अग्नि २. जल के मन्थन से अग्नि ३. भूगर्भीय अग्नि उपर्युक्त तीनों प्रकार की अग्नियों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं- अग्निर्भूम्यामोषधीष्वग्निमापो बिभ्रत्यग्निरश्मसु। अर्थात् अग्नि भूमि में, विद्युत् रूप में मेघ अर्थात् जल में, ओषधियों में तथा पत्थरों में विद्यमान है।

            पृथ्वी अग्निमयी है- अग्निवासाः पृथिवीः अथर्ववेद में ही अन्यत्र अगिन के आविष्कार के तीन चरणों का उल्लेख है, वहां कहा गया है कि अग्नि पत्थर के घर्षण लकड़ी के घर्षण से और जल के घर्षण से उत्पन्न होती है। एक स्थान पर कहा गया है- यत् ते मध्यं पृथिवी यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवः। यहाँ पृथ्वी के गर्भ में स्थित ऊर्जा से तात्पर्य अग्नि से है जो आज की पृथिवी के गर्भ में लावे के रूप में स्थित है। इसके अतिरिक्त प्राणियों में स्थित जठराग्नि का भी उल्लेख किया गया है-अग्निरन्तुः पुरूषेषु गोष्वश्वेष्वग्नयः।

            (३) खनिज संपदा-  यह पृथिवी खनिज सम्पदा से परिपूर्ण है। इसमें सोना, चाँदी, हीरा आदि बहुमूल्य पदार्थ पाये जाते हैं, जिनका उल्लेख भूमिसूक्त में मिलता है- विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षाः। इस मन्त्र में वसुधानी का तात्पर्य खनिजों की खान और हिरण्यवक्षा का तात्पर्य सुवर्ण, चांदी आदि बहुमूल्य धातुओं से है। अन्यत्र भी वे सुवर्णमयी पृथ्वी को नमस्कार करते हैं- तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः। एक स्थल पर कहा गया है कि बहुत तरह की खानों में (बहुधा गुहा) ए (वसु) ए रत्न पन्नां, हीरादि (मणि), सोना, चाँदी आदि (हिरण्यं) की खान (निधिं) को धारण करने वाली पृथिवी हमें धन दे निधिं बिभ्रती बहुधा गुहा वसु मणिं हिरण्यं पृथिवी ददातु में वसूनि नो वसुदा रासमाना देवी दधातु सुमनस्यमाना।

            (४) भूकंप- भूगोल विज्ञान में वर्णित भूकंप का विवरण भी पृथिवी सूक्त में मिलता है- महान् वेग एजथु र्वेपथुष्ते। अर्थात् हे पृथिवी आपका हिलना डुलना अत्यन्त वेगवान होता है। यहाँ पृथ्वी के कंपन से भूकंप का संकेत मिलता है। इसका अन्य अर्थ यह भी है कि पृथ्वी जिस गति से आकाश में कंपित होकर जाती है, वह वेग अत्यन्त तीव्र है अर्थात् वह अपनी धुरा पर तेजी से घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है।

            (५) विभिन्न दिशाओें का विवरण- भूमिसूक्त के इस मंत्र में दसों दिशाओं का विवरण मिलता है-

            ‘‘यास्ते प्राचीः प्रदिशो या उदीचीर्यास्ते भूमे अधरात्” याश्व पश्चात्। आगे वे कहते हैं- हे भूमि पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण चारों दिशाओं में प्रहरी बनकर हमारा संरक्षण करें- ‘‘मा नः पश्चान्या पुरस्तान्नुदिष्ठा मोत्तरादधरादुत।

            (६) जलप्रवाहों का संकेत- एक स्थल पर कहा गया है कि पृथिवी अनेक जलधाराओं से युक्त है- भूरिधारे पयस्वती।

            आधुनिक भूगोल में जिन शीत और उष्णजलधाराओं का वर्णन है, संभवतः उन्हीं जलधाराओं की ओर ऋषि का संकेत है। ये जलधारायें पृथिवी की गति, वायु के दबाव और वेग, भूसंरचना आदि के कारण उत्पन्न होती हैं जो तब भी थीं।

            अभी तक हमने पृथिवी सूक्त में पाये जाने वाले वैज्ञानिक तथ्यों का उल्लेख किया है। अब हम पृथ्वी के भौतिक स्वरूप पर दृष्टिपात करेंगे।

            ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य वैदिक वाड्.मय में यत्र तत्र पृथिवी सम्बन्धी कुछ वैज्ञानिक तथ्य हमारे सम्मुख आते हैं जो नियमानुसार हैं-

            (१) आद्र्रा शिथिला पृथिवी- आधुनिक वैज्ञानिकों की भी यह धारणा है कि पृथिवी पहले जलमग्न थी। प्राचीन काल में पूरा यूरोप और एशिया जलमग्न था। शनैः शनै समुद्र हटता गया और कालान्तर में पृथिवी ऊपर आ गई। यह तथ्य अथर्ववेद में वर्णित है- ‘‘यार्णवेऽधिसलिलमग्र आसीत्।’’ काठक तथा मैत्रायणी संहिता में भी पृथिवी को जलप्रधान, आद्र्रा और शिथिला कहा गया है। वात कभी उसे ऊपर और कभी नीचे ले जाती थी। उत्तर की ओर देवताओं का निवास था और दक्षिण में असुरों का। उत्तर की ओर ले जाने पर देवताओं ने इसे दृढ़ किया। यही कारण है कि पृथिवी का अधिकांश भाग उत्तर दिशा में है और दक्षिण में जलाधिक्य है।

            शतपथ ब्राह्मण (६.१.१) में आगे कहा गया है कि इस आधि पृथिवी पर प्रजापति ने क्रमशः १ फेन २ मृद् ३ शुष्काप ४ ऊष ५ सिकता ६ शर्करा ७ अश्मा ८ अयः और हिरण्य तथा ९ ओषधि और वनस्पति को उत्पन्न किया और वनस्पति से पृथ्वी को आच्छादित कर दिया।

            यह पृथिवी के क्रमशः ठोस व शीतल होने तथा उसमें जीवन के संचार का वैज्ञानिक क्रम है। शीतल होने की प्रक्रिया में अग्नि और जल के मेल से फेन उत्पन्न हुआ, जो न सूखा था न गीला।

            अग्नि और मरूत के संयोग से यह फेन सघन हुआ और पृथिवी का निर्माण हुआ। यही सघन फेन मृत में परिवर्तित होकर पृथिवी के रूप में परिणित हो गया।

            तृतीय अवस्था में सूर्य की भयंकर ऊष्मा से पृथ्वी पर स्थित जल सूखने लगा और वह शुष्कय हो गई। जल के शुष्क हो जाने के फलस्वरूप वह ऊसर अर्थात् ऊष, इस चतुर्थ अवस्था को प्राप्त हुई। तत्पश्चात् पृथिवी में सिकता की उत्पत्ति हुई। सिकता ही अंग्रेजी में सिलिका कहलाती है जिसमें सिलिकोन और ऑक्सीजन होता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी पृथ्वी की भीतरी परतों में सिलिका एल्यूमीनियम तथा ऑक्सीजन होने की पुष्टि की है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (भाग २०,पृ. ५५) में भी ग्रहों के विभिन्न भागों में सिलिका के पाये जानेका उल्लेख है। सिकता से शर्करा की उत्पत्ति हुई। शर्करा का अर्थ है कंकर। शर्करा से पृथ्वी का आन्तरिक भाग भी दृढ़ हो गया। शर्करा के पश्चात् अश्मा (पाषाण) की उत्पत्ति हुई। शर्करा के छोटे-बड़े कण एकत्र हुए और संपीडन द्वारा संहत होकर अश्मा बने। अश्मा के पश्चात् अयः की उत्पत्ति हुई। ‘‘अश्मनो लोहमुत्थितम्” ऐसा उल्लेख महाभारत के उद्योगपर्व में मिलता है। लोहे के पश्चात् रांगा, सीसा सुवर्ण आदि की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् इस ऊसर पृथ्वी पर देवों ने वनस्पति, ओषधियों को उत्पन्न किया। यह पृथिवी वनस्पति व ओषधियों से आवृत्त हो गई।

            (२) अल्पा पृथिवी- तै. संहिता में ऐसा उल्लेख मिलता है कि आरंभ में पृथिवी अल्पा थी और बाद में धीरे-धीरे विस्तृत हुई। आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही मत है कि प्रारंभ में ग्रह छोटे थे और आज भी अपनी आकर्षण शक्ति से अन्तरिक्ष के धूलिकणों को अपनी ओर खींच रहे हैं जिससे अनमें विस्तार हुआ होगा।

            (३) अग्निगर्भा पृथिवी- आधुनिक वैज्ञानिकों का कथन है कि यह पृथिवी प्रारंभ में पिघली चट्टानों का एक गोला था। धीरे-धीरे पृथिवी की ऊपरी सतह ठंडी होकर ठोस हो गई। यह सतह दूध में मलाई की तरह अत्यन्त पतली है। पृथिवी का भीतरी भाग तो अभी भी गर्म पिघली दशा में है। पृथिवी के गर्भ में अभी भी गर्म लावा, उष्ण गैसें और वाष्प हैं। तापमान भी बहुत अधिक है। जितनी गहराई में जाओ उतना अधिक तापमान बढ़ता जाता है।

            संस्कृत वाड्.मय में भी पृथिवी को आग्नेयी कहा गया है। पृथिवी का ९७ प्रतिशत अंश पिघली दशा में है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि प्रवेश हुआ। अध्ययन से ही आग्नेयी थी अथवा उत्तर काल में उसमें अग्नि का प्रवेश हुआ। अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रारंभ में पृथिवी आग्नेयी नहीं थी। यदि आग्नेयी होती तो आद्र्रा न होती। प्रजापति ने इस पर अग्नि का चयन किया और उसे अग्निदाह से बचाने के लिये वनस्पतियाँ व ओषधियाँ उत्पन्न कीं। अश्वस्थ, शमी, वंश आदि वनस्पतियों ने पृथ्वी की अग्नि को अपने में धारण किया। औषधि पद का अर्थ ही है- ‘‘ओषं धय’’ अर्थात् दाहशक्ति को धारण कर। अर्थात् औषधियाँ पृथ्वीगत आग्नेय परमाणुओं को ग्रहण करती रहती हैं। बाद में यह अग्नि पृथिवी में प्रविष्ट हुई।

            तैत्तरीय ब्राह्मण में लिखा है- अग्नि देवेभ्यो निलायन (छिपा) आखरूपं कृत्वा। स पृथिवीं प्राविशत्। यहाँ आखू का तात्पर्य पृथ्वी पर रहनेवाले चूहे से नहीं अपितु अन्तरिक्ष स्थानीय पशु से है जिसका सूक्ष्म अर्थ अग्नि और अपः की अवस्था विशेष है। यह आखु रूद्र का पशु कहा गया है। रूद्र स्वयं अन्तरिक्ष स्थित अग्नि का स्वरूप है। इस प्रकार यह आखु अन्तरिक्षस्थ आग्नेय पशु अथवा विशेष प्रकार के अग्नि के परमाणु हैं जो जंगली चूहे की भाँति पृथ्वी के अन्दर-अन्दर धंसते जाते हैं।

            यह विवेचन अत्यन्त स्पष्ट तो नहीं है किन्तु इससेइतना स्पष्ट है कि आधुनिक विज्ञान की तुलना में यह अतिसूक्ष्म विज्ञान सहस्त्रों गुना गंभीर है।

            (४) परिमण्डला पृथिवी- पृथिवी गोलाकृति है, इसका विवरण भी वैदिक वाड्.मय में उपलब्ध होता है। जैमिनीय ब्राह्मण में लिखा है- ‘‘स एष प्रजापतिः अग्निष्टोमः परिमण्डलो भूत्वा अनन्तो भूत्वा शये। तदनुकृतीदम् अपि अन्या देवताः परिमण्डलाः। परिमण्डल आदित्यः परिमण्डलः चन्द्रमाः, परिमण्डल आदित्यः, परिमण्डलः चन्द्रमाः, परिमण्डला द्यौः, परिमण्डलमन्तरिक्षम् परिमण्डला इयं पृथिवी।”

            परिमण्डल का अर्थ है जिसके सब ओर मण्डल अथवा घेरा (Atmosphare) है। दूसरा अर्थ यह है- जो गोल घेरे में अथवा गोल आवृत्त हो।

            आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों से भी यह सिद्ध है कि पृथिवी गोल है और चारों ओर से वायुमण्डल से आवृत्त है।

            (५) अयस्मयी पृथिवी- यह पृथिवी लोह धातु से परिपूर्ण है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है-ते (असुरा) वा अयस्मयीं एवेमां (पृथिवीं) अकुर्वन्। कौषितकि ब्राह्मण में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। इस विवरण से आधुनिक विज्ञान में वर्णित पृथ्वी के चुम्बकीय शक्ति संपन्न होने का संकेत मिलता है। लोहे के अतिरिक्त अन्य खनिज संपदा (सोना, चांदी आदि) का उल्लेख भी अथर्ववेद में मिलता है।

            (६) धरित्री पृथिवी- प्राणियों को धारण करनेवाली के रूप में विख्यात यह धरित्री, धरा, धरिणी, पूरे सौरमण्डल में एक ही ऐसा ग्रह है जहाँ असंख्य विविध प्राणियों का निवास है। इसके अनेक कारण हैं-

            (क) बुध और चन्द्रमा में सूर्य के सामनेवाल भागों में जहाँ तापमान ८०० सेन्टी. और २०० सेन्टी. तक पहुँच जाता है तो रात्रि में इन ग्रहों में तापमान शून्य से भी १५० सेन्टी. नीचे चला जाता है। इन दोनों ही अवस्थाओं में वहाँ जीवन असंभव है।

            (ख) शुक्र में भूमि पर स्थित वायु की अपेक्षा कई गुना घनी जहरीली गैसें हैं, वनस्पतियों का नितान्त अभाव है और ४७० सेन्टी. की भयंकर ऊष्मा है। अतः ऐसी परिस्थितियों में वहाँ भी जीवन असंभव है।

            (ग) बृहस्पति में पृथ्वी की तुलना में तीन गुनी अधिक गुरूत्वाकर्षण शक्ति है जिससे वहां सीधे खडे़ रहना भी असंभव है। फिर वनज आदि उठाना तो दूर की बात है।

            (घ) प्लूटो और नेपच्यून सूर्य से दूर होने के कारण अत्यन्त शीत हैं। वहाँ मिथेन और अमोनिया जैसी प्राणघातक गैसें हैं। अतः वहाँ भी जीवन असंभव है।

            ठसके विपरीत पृथिवी पर जीवन धारण के लिये आवश्यक ऊष्मा, गुरूत्वाकर्षण प्रभूत जल, वनस्पतियों तथा प्राणवायु है। अतः इस धरा पर ही जीवन संभव है, अन्य ग्रहों में नहीं।

            (७) भूरेखा का उल्लेख- विष्णु पुराण में भूरेखा और उसके चलने का उल्लेख है।

            यदा विजृम्भतेऽनन्तो युदा घुर्णित लोचनः।

            त्दा चलति भूरेखा साद्रिद्वीपब्धिकानना। संभवतः यहाँ भूरेखा से, भूमध्यरेखा कर्क और मकररेखा से तात्पर्य है। इससे अधिक खोज और विश्लेषण की आवश्यकता है।

            निष्कर्ष- उपर्युक्त अध्ययन से, ऋग्वेद के द्यावापृथिवी के छह सूक्तों तथा अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त से, आधुनिक विज्ञान सम्मत जो तथ्य सामने आते हैं,

            वे इस प्रकार हैं-

(१) पृथ्वी सौरमण्डल के नवग्रहों में से एक हैं।

(२) पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है और वह सूर्य से ही प्रकाश पाती है। पृथिवी का केन्द्रबिन्दु सूर्य है और वह गुरूत्वाकर्षण से खिंचकर ब्रह्माण्ड में स्थित है।

(३) पृथ्वी स्थिर नहीं है। वह पश्चिम से पूर्व की ओर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है। वह अपनी धुरा पर घूमती है जिससे दिन और रात होते है।

(४) पृथ्वी में गुरूत्वाकर्षण शक्ति है।

(५) पृथ्वी गोल है।

(६) वह पहले जलमग्न थी।

(७) वह प्रारंभ में अल्पा थी, बाद में विस्तृत हुई।

(८) पृथ्वी आग्नेयी है। उसमें ९८ प्रतिशत लोहा व अन्य भारी पदार्थ है।

(९) वह अपार खनिज संपदा की स्वामिनी है।

(१०) एकमात्रा पृथिवी पर ही जीवन है।

(११) पृथिवी में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध है। गन्ध उसका विशिष्ट गुण है।

(१२) पृथिवी का भौतिक स्वरूप ही प्रधान है, दैवी रूप नहीं।

   इसके अतिरिक्त पृथिवी विश्व का कल्याण करने वाली अन्न, कीर्त्ति, धन और बलप्रदायिनी है। इस प्रकार यह पावन धरा अपने भूमि, क्ष्मा, मही, पृथिवी, उर्वी, उत्ताना, अपारा, धरित्री, विश्वंभरा, वसुधानी, हिरण्यवक्षा, धरिणी, धरती, वसुन्धरा, माता, सुक्षिति और सुक्षेमा सभी नामों को सार्थक करती हुई जगत् का कल्याण करती है अतः संक्षेप में हम सकते हैं-

‘‘विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी’’

संदर्भ- ग्रन्थ

(१) अथर्ववेद संहिता; भाग २, संपा, वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं भगवती देवी शर्मा

(२) अथर्ववेद का सुबोध भाष्य, श्रीपाद दामोदर सातवलेकर

(३) अथर्ववेद संहिता-संपा. रामस्वरूप शर्मा गौड़

(४) ऋग्वेद का सुबोध भाष्य, भाग १, २, ३, ४ श्रीपाद दामोदर सातवलेकर

(५) ऋक्-सूक्त-संग्रह, व्याख्याकार डॉ. हरिदत्त शास्त्री, डॉ. कृष्णकुमार।

(६) न्यू वैदिक सिलेक्शन, भाग १, डॉ. ब्रजबिहारी चैबे।

(७) भारत और विज्ञान, संपा. डॉ. एस.पी.कोष्ठा।

(८) भारतीय दर्शन तथा आधुनिक विज्ञान, डॉ. सुद्युम्न आचार्य

(९) यूनीफाइड भूगोल, डॉ. चतुर्भुज मामोरिया, डॉ. एस.एम. जैन

(१०) वैदिक माइथोलॉजी, डॉ. ए.ए. मैक्डॉनल, अनु. रामकुमार राय

(११) वेद-विद्या-निदर्शन, भगवद्दत्त

(१२) वेदों में विज्ञान, डॉ. कपिलदेव  द्विवेदी

शब्द संकेत-

यजु. – यजुर्वेद

तै. ब्रा. -तैत्तरीय ब्राह्मण

ऋ. – ऋग्वेद

तै. उप. – तैत्तरीय उपनिषद्

अथ. वे. – अथर्ववेद

पाद-टिप्पणी

१.        यूनीफाइड भूगोल, डॉ. चतुर्भु ज मामोरिया, एस.एम.जैन, पृष्ठ ८

२.        सुभुः स्वयंभूः प्रथमोऽन्तर्महत्यर्णवे

            दधे गर्भभृत्वियं यतो जातः प्रजापतिः- यजु. २३/६३

३.        अण्डानां तु सहस्त्राणां सहस्त्राण्य युतानि च

            ईदृशानां तथा तत्र कोटि-कोटि शतानि च द्वितीयांश-विष्णु पुराण अध्याय ७

            अण्डानां ईदृशानां तु कोट्यो ज्ञेया सहस्त्रशः

            तिर्यगूर्ध्वमधस्ताच्च कारणाव्ययात्मनः।। वायु पुराण ४९/१५१

४.        भूतस्य प्रथमजा – यजु. ३७.४

            इयं वै पृथिवी भूतस्य प्रथमजा – मा.शत.ब्रा. १४.१.२.१०

५.        स भूरिति व्याहरत। स भूमिमसृजत्- तै. ब्रा. २.२.।४.२

६.        पदभ्यां भूमिः – ऋ. १०.९०.१४

            भूर्जज्ञ उत्तानंपादो भुव आशा अजायन्त – ऋ. १०.७२.४

            ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थ सनातनः – कठो. २.३.१

            ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुख्ययम् – गीता १४.१

७.        वायु पुराण १०१.१८

८.        यूनीफाइड भूगोल, डॉ. चतुर्भुज मामोरिया, एस.एम. जैन, पृ. १८

८.        भपञ्जरस्य भ्रमणावलोकादाधारशून्य कुरिति प्रतीतिः

            स्वस्थं न दृष्टं गुरू च क्षमातः खेऽधः प्रयातिति बौद्धः।

            (सिद्धान्तशिरोमणि, भुवनकोश नामक दूसरा अध्याय श्लोक ७)

९.        अग्नेरापः अद्भ्यः पृथिवी-तैत्त. उप. २.१.१

१०.     यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामंत्र कृष्टयः संबभूबुः। अथर्व. १२.१.३

११.     वृत्तभपञ्जरमध्ये कक्ष्यापरिवेष्टित खमध्यगतः

            मृज्जलशिखिवायुमयो भूगोलः सर्वतो वृत्तः।

            (आर्यभट्टीय, गोलपाद श्लोक ६)

१२.     पञ्चभूतमयस्य तारागणपञ्जरे महीगोलः

            खेऽयस्कान्तान्तस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः।

            (पञ्सिद्धान्तिका, त्रैलोक्य संस्थान नामक १३ अ. श्लोक १)

१३.     नान्याधारः स्वशक्त्या वियति च नियतं तिष्ठतीहास्य पृष्ठे

            निष्ठं विश्वञ्च शाश्वत् सदनुजमनुजादित्यदैत्यं समन्तात्।

            (सिद्धान्तशिरोमणि, भुवनकोश नामक दूसारा अ. श्लोक २)

१४.     ऋग्वेद ४.५६,३

१५.     यो जजान रोदसी विश्वशंभुवा – ऋग्वेद १.१६०.४

१६.     स वह्मिः पुत्रः पुत्र्योः – ऋग्वेद १.१६०.३

१७.     धिषणे अन्तरीयते देवो देवी धर्मणाः सूर्यः शुचिः – ऋग्वेद १.१६०.१

१८.     उत मन्ये पितुरदु्रहोमनो मातुर्महिस्वत स्तद्धवीमहि – ऋग्वेद १.२२.१५९.२

१९.     घृतेन द्यावापृथिवी अभीवृत्ते, पृतश्रियां, धृतपृचा घृतवृधा – ऋग्वेद ६.७०.४-५

२०.     बाहुच्युता पृथिवी द्यामिव उपरि – अथर्व. १८.३.२५-३५

२१.     वि यो ममे पृथिवी सूर्येण- ऋग्वेद ५.८५.५

२२.     अथर्ववेद १२.१.८

२३.     -वही- १२.१.२०

२४.     -वही- १२.१.४८

२५.     -वही- १२.१.३७

२६.     -वही- १२.१.३६ अहोरात्रे पृथिवी नो दुहाताम्

            १२.१.५२ अहोरात्रे विहिते भूम्यामधि

२७.     अथर्ववेद १२.१.२३, २४, २५

            तुलना कीजिये – तत्र गंधवती पृथिवी – तर्क संग्रह, द्रव्य लक्षण प्रकरण पृथिवी इतरेभ्यो भिद्यते गन्धवत्वात् – तर्कसंग्रह अनुमान खण्ड

२८.     अथर्ववेद १२.१.४८

२९.     वेदों में विज्ञान, डॉ. कपिलदेव शास्त्री, पृष्ठ २७

३०.     ध्रुवां भूमिं – अथर्व. १२.१.१७, महती बभूविथ १२.१.१८

३१.     अथर्ववेद – १२.१.८

३२.     -वही- १२.१.५३

३३.     -वही- १२.१.१९

३४.     अथर्ववेद १२.१.२१

३५.     यो अश्मनोरन्तरग्निं जजान अथर्व. २०.३४.३

३६.     अरणी यभ्यां निर्मश्यते वसु – अथर्व. १०.८.२०

३७.     अग्ने पित्तमपामसि – अथर्व. १०.८.२०

३८.     अथर्ववेद १२.१.१२

३९.     -वही- १२.१.१९

४०.     -वही- १२.१.६

४१.     -वही- १२.१.२६

४२.     -वही- १२.१.४४

४३.     अथर्ववेद १२.१.१८

४४.     -वही- १२.१.३१ प्रदिशः का अर्थ आग्नेय, नैर्ऋत्य, वायव्य और ईशान है।

४५.     -वही- १२.१.३२

४६.     ऋग्वेद ६.७०.२

४७.     अथर्ववेद १२.१.८

४८.     इयं तर्हि शिथिरासीत् – काठक संहिता ३६.७, मै.सं. १.१०.१३

            शिथिरा वा इयमग्र आसीत् – मैत्रा.सं. १.६.३

४९.     सा हेयं पृथिवी अलेयद् यथा पर्णमेव। तां ह स्म वातः संवहति – शत. ब्राह्मण

            तां दिशोऽनुवातः समवहत् – तै. ब्रा. १.१.३

            अलेलेद वा इयं पृथिवी – काठक संहिता ८.२

५०.     ताः (आपः) अतप्यन्त। ताः फेनमसृजन्त। तस्माद् अपां तप्तानां फेनो जायते-

            शत. ब्राह्मण ६.१.३.२

५१.     न वा एष शुष्को नाद्र्रो व्युष्टासीत् – तै. ब्रा. १.७.१.६-७

            शत. ब्रा. १०.७.३.२

५२.     स (फेनः) यदोपहन्यते मृदेव भवति – शत. ब्रा. ६.१.३.३

            यन्मृद् इयं तत् (पृथिवी) शत. ब्रा. १४.१.२.९

५३.     एता वै शुष्का आपः – मै. सं. ३.६.३

५४.     स (मृद्) अतप्यत सा सिकता असृज्यत- शत. ब्रा. ६.१.३.४

५५.     सिकताभ्यः शर्करा – शत. ब्रा. ६.१.३, ५

५६.     शिथिरा वा इयमग्र आसीत्। तां प्रजापतिः शर्कराभिरहहंत्। मैत्रा. सं. १.६.३

५७.     शर्कराया अश्मानम् (असृजत) तस्मात् शर्कराश्मैव अन्ततो भवति- शत. ब्रा. ६.१.३.३

५८.     ऋक ह वा इयमग्र आसीत्। तस्यां देवा रोहिण्यां वीरूधोऽरोहयत् – मै. सं. १.६.७.२

            इयं वा अलोमिकोवाग्र आसीत् – ऐ. ब्रा. २४.२२। ओषधिवनस्पतयो वै लोमानि।

            जै. ब्रा.२.५४

५९.     वै तर्हि अल्पा पृथिव्यासीद् अजाता ओषधयः – तै. सं. २.१.२

६०.     आग्नेयी पृथिवी – ता. ब्रा. १५.४.८ अग्निवासाः पृथिवी – अथ. १२.१.२१

            आग्नेयो अयं लोकः जै. उप. १.३७.२, अग्निगर्भा पृथिवी – शत. ब्रा. १४.९कृ४.२१

६१.     शत. ब्राह्मण – २.२.४.५

६२.     तै. ब्रा. १.१.३.३

६३.     आखुस्ते रूद्रस्य पशुः – तै. ब्रा. १.६.१०.२

६४.     जैमिनीय ब्राह्मण १.१५७

६५.     परिमण्डल उ वा अयं (पृथिवी) लोकः – शत. ब्रा. ७.१.१.३७

६६.     ऐतरेय ब्राह्मण – १.२३

६७.     (असुराः) अयस्मयीं (पुरीम्) अस्मिन् (अकुर्वत) कौ.ब्रा. ८.८

६८.     २/५/२३ अद्भुद्सागर, पृ. ३८३

६९.     अथर्ववेद १९.३८.१

वेदोक्त सूर्य का स्वरूप और कार्य -वेदपाल वर्मा

            वेद कहता है कि पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थ विद्या का ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य का परम कर्त्तव्य है। पदार्थ विज्ञान के ज्ञाता इधर-उधर नहीं घूमते। पदार्थ विज्ञान से विद्या की वृद्धि-शुभकर्मों में प्रवृत्ति तथा निरन्तर सुख एंव ऐश्वर्यानन्द की प्राप्ति होती है १ ४/३ ऋक्।। 

मनुष्यों को चाहिये वे भू-जल-सूर्य-पवन -विद्युत् आदि पदार्थों के विशेष ज्ञान से शिल्प विद्या द्वारा उत्तम-उत्तम क्रियाएं प्रकाश में लाएं और उनका प्रयोग करें १ १/२ ऋक्।। 

इसीलिए विद्वानों को पदार्थ विद्या की खोज करनी चाहिए ५ २२/३ ऋक्।।

वेद यह भी कहता है कि सूर्यरूप पदार्थ विद्या के ज्ञाता सदा श्रीमान् व सुखी होते हैं ५ ४५/२ ऋक्।।  सूर्यो भूतस्यैकं चक्षुः- सूर्य जगत् का एकमात्र चक्षु है १३ १/४५ अथर्व. ।। सूर्यो वै सर्वेषां देवानात्मा- सूर्य सब देवों की आत्मा है शत. १४-३-२-९।। युवा कविः तिग्मेन ज्योतिषा विभाति- यह सदा तरूण रहता है- इसका तेज प्रखर है १३ १/११ अथर्व. ।।  ‘‘इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरूत्तम विश्वजित्- सूर्य संसार की श्रेष्ठतम-पवित्र-विश्व-विजेता -सभी दिव्य तेजों की ज्योति है- उषः काल में यज्ञ कराने वाली दीप्ति है १० १७०/३ ऋक्।।’’ अतन्द्रः यास्यन् हिरतः यदा आस्थात्-यह आलस्य न करने वाला दीर्घव्रत का पालन करने वाला है १३ २/२२ अथर्व.।।

सूर्यः आत्मा जगतस्तरथुषश्व- सूर्य स्थावर और जंगम पदार्थों का जीवन है १३ २/३४ अथर्व.।।  उत्तम किरणों वाला-निर्भय-उग्र एवं अलौकिक तेज का भण्डार-द्युलोक वासी है १९ ६५/१ अथर्व.।।  अदृशत्रस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा- सूर्य की किरणें दहकते हुए अंगारों के समान दिखाई देती हैं साम. ६३४।। सूर्य राष्ट्र का भरण-पोषण करने वाला है १३ १/३४ अथर्व.।।  इसमें बढ़ाने की शक्ति है १३ १/२२ अथर्व.।।  इससे ही जगत् को सुन्दर रूप मिला है तथा राष्ट्र को घी-दूध से भरपूर करता है १३ १/८ अथर्व.।।  सूर्य को कोई लांघ नहीं सकता है १० ६२/९ ऋक्।।  शरीर में प्राण-अपान को जोड़ने वाला भी सूर्य ही है १० २७/२० ऋक्।।

पृथिवी पर द्युलोक का प्राण सूर्य किरणों द्वारा ही आता है। अन्तरिक्ष का प्राण वृष्टि द्वारा पृथिवी पर पहुंचता है वृष्टि का कारण सूर्य ही है ११-४ अथर्व.।। सूर्य ही दृढ़ता व आर्यत्व का प्रतीक है सविता इव आर्यः च ध्रुवः तिष्ठसि १९ ४६/४ अथर्व।। इसी हेतु प्रलयावस्था में परमात्मा ने ईक्षण (तप) किया तो सर्वप्रथम सूर्यलोक को ही बनाया। सः इमालोकानसृजत। अम्भोमरीचीमरमापो। अर्थात् ईश्वार ने अम्भस्-मरीची-मर और आप-इन (४) लोकों को रचा-ऐतरेयोपनिषद् प्रथमखण्ड।। सूर्य अपनी किरणों से जलों को खींचता है इसलिए वही अम्भस् है। मरीचि=किरणों को कहते हैं उनका आना जाना आकाश द्वारा ही होता है इसलिए मरीचि से अन्तरिक्ष अभिप्रेत है। मर-मरणधर्मा प्राणियों के रहने से ‘‘मर” नाम पृथिवी का है। आपः-नीचे की ओर बहने की प्रवृत्ति होने से जल को पृथिवी के नीचे होने की बात कही गई है। पृथिवी और सूर्य के मध्य में अन्तरिक्ष का होना स्वाभाविक है।

            तैत्तिरीयोपनिषद् की ब्रह्मानन्द वली प्रथमाध्याय के छठे अनुवाक में सूर्य को अनिलयन (निराश्रित) तथान्यग्रहों को निलयन (आश्रित) कहा है। सूर्य को किसी अन्य ग्रह के आधार की अपेक्षा नहीं है क्योंकि वह अनिलयन है। चन्द्रादिक-पृथिवी आदि दूसरे ग्रह सूर्य के आधार व आकर्षण से ही अन्तरिक्ष में ठहरे हुए हैं इसलिए वे निलयन कहे गये हैं।

            ईश्वर ने ही अपनी व्याप्ति और सत्ता से सूर्यादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं- इनमें सूर्य मुख्य है क्योंकि इसके धारण आकर्षण और प्रकाश के योग से सब पदार्थ सुशोभित होते हैं १ ६/७ ऋक्।। ततो विराडजायत विराजोऽधिपूरूषः साम. ६२२ वें मंत्र में भी सौरमण्डल के जन्म वर्णन में पृथिवी-सूर्य-मंगल-बुध-बृहस्पति आदि की उत्पत्ति प्रभु के अधिष्ठातृत्व में ही सम्पन्न हुई। अयं विश्वानि तिष्ठति पुनानो भुवनोपरि। सोमो देवो न सूर्यः-निर्दोष किरणों वाला सूर्य सौरमण्डल का अधिष्ठाता है साम. ७५७।। यह सब लोकों से बड़ा है ३ २/१४ ऋक्।। आज के वैज्ञानिक सूर्य का व्यास १,३९,९६० कि.मी. बताते हैं। यह प्रकाशमान सूर्य ब्रह्माण्ड के मध्य में विराजित है, इसके चारों ओर बहुत भूगोल सम्बन्धयुक्त हैं। पृथ्वी और चन्द्रमा एक साथ चारों ओर घूमते हैं ४ ४५/१ ऋक्।। यह अपने चक्र को छोड़कर इधर-उधर नहीं जाता है, अपनी कक्षा में स्थिर रहता है इसी के आधार से पृथिवी आदि लोक सूर्य के चारों तरफ लगाते हैं २ २७/११ ऋक्।। यह अपनी परिधि में स्थिर व दिखाने वाला न हो तो तुल्य आकर्षण तथा किसी को कुछ भी देखना न बने २ ४१/१० ऋक्।। बण्महाँ असि सूर्यः बडादित्य महाँ असि। महस्ते सतो महिमा पनिष्टम मन्हा देव महाँ असि-सूर्यमहान् है, परिणाम में महान् है क्योंकि उसकी परिधि ८ कोस की लम्बाई से अधिक है। कर्म में भी महान् है क्योंकि सब ग्रहों-उपग्रहों का प्रकाशक और जीवनाधार है। गुरूत्वाकर्षण में भी महान् है क्योंकि सब आकाशीय पिण्डों को अपने आकर्षण से धारण किये हुए है। ज्योति में महान् है क्योंकि ज्योति का पुंज है साम,  १७८८, १७८९+अथर्व १३ २/२९।। सूर्यलोक प्रकाशलोक है, पृथिवी प्रकाशरहित लोक है, तीसरा परमाणु आदि अदृश्य जगत्, इन्हें आकाश में स्थापित किया है ५-१५ यजु.।।

            सूर्यलोक समुद्र में भी प्रकाशता है १३२/३० अथर्व।। इसकी सुषुम्णा नामक रश्मियाँ चन्द्रमा में प्रकाश धारण कराने वाली हैं साम १४७+यजु. १८-४०।। सूर्य ईश्वर की भी आंख है इसी के द्वारा वह ब्रह्माण्ड को देखता रहता है १० ७/३३ अथर्व।। द्युलोक में अग्नि से उत्पन्न होने वाली ‘नवग्व और दशग्व’ नामक अग्नि की लहरें समस्त किरणों के साथ रहकर उन्हें शक्ति प्रदान करती हैं। ये अग्नि की शक्तियां अथवा आग्नेय आगार द्युलोक में सूर्य सृष्टि नियमानुसार स्थापित करते हैं। सब भूतों की माता पृथिवी को फैलाते हैं। ये यज्ञीय हवि को भी ग्रहण करते है १० ६२/३६ ऋक्।। इसलिए आग्नेय पदार्थों का मुख्य केन्द्र सूर्य को माना है। अपनी पृथिवी पर जो भौतिक अग्नि है वह सूर्य का पोता है। विद्युत्सूर्य का पुत्र है क्योंकि सूर्य की उष्णता से मेघमण्डल में विद्युत् बनती है, यह विद्युत् सूखे घास पर या वृक्ष पर गिरकर अग्नि उत्पन्न करती है। अतः यह अग्नि का ही अंश है। अग्नि तत्व में जो उष्णता है, वह सूर्य के ही सम्बन्ध से है। वृक्षादि में उष्णता सूर्य किरणों से ही तो प्राप्त है इसलिए सब आग्नेय पदार्थ सूर्य के ही विभिन्न रूप हैं। सूर्य के अतिरिक्त कोई भिन्न पदार्थ नहीं है जो उष्णता दे सके।  सूर्य ही रूपान्तरित होकर अग्नि और विद्युत है। एक ही सूर्य ३ रूपों में दिखाई देता है-सः एव सविता.। सोऽअग्निः। सः इन्द्रः ४ २/५ अथर्व।। अग्नि-विद्युत्-आदि विभिन्न देव सूर्य के ही एक रूप होकर रहते हैं सर्वे देवा अस्मिन् एकवृत्तो भवन्ति १३ ५/२१ अथर्व।।

            सूर्य कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता है उसी के साथ चन्द्रमा-ग्रह-नक्षत्र-दिनरात-ऋतु-संवत्सर सभी मर्यादा पर चल रहे हैं। इन सबको मर्यादित करने वाला सूर्य ही है १३ २/४-५ अथर्व।। इसका मुख सर्वत्र है, वैसे ही इसके हाथ-पांव और भुजाएं सर्वत्र हैं। सबका पोषक यही एक देव पृथिवी से द्युलोक तक के सब पदार्थमात्र का उत्पत्तिकर्ता है १३ २/२६ अथर्व।। यह दुःखी मनुष्य का मार्गदर्शक है- सामथ्र्यशाली है। सुख का मार्ग बताता है। पृथिवीपालक है १३ ३/४४ अथर्व।। सूर्य लोक के समान कोई दूसरा श्रेष्ठ लोक नहीं है क्योंकि सूर्य की ही कृपा से चोर-डाकू अपनी क्रियाओं से निवृत्त हो जाते हैं। इसे पाकर प्राणिजगत निशक-निडर होकर सुख का अनुभव करते हैं तथा प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने व्यापार में लग जाते हैं ४-३५, ३६ यजु.।।

            सूर्य अपनी आकर्षण शक्ति से पृथिवी आदि लोक लोकान्तरों को धारण किये है १२-२१ यजु.।। सः वरूणः सायं अग्निः भवति, सः इन्द्रः भूत्वा मध्यतः दिवं तपति। वह वरूण है सायंकाल में अग्नि, प्रातः उदय होने के समय सबका मित्र, सविता बनकर अन्तरिक्ष में भी संचार करता हुआ-इन्द्र होकर द्युलोक के मध्य में तपता है १३ ३/१३ अथर्व, सूर्य के रूद्र-इन्द्र-चन्द्र-महेन्द्र-सविता-आदित्य-धाता-विधाता-पतग-अर्यमा-वरूण-यम-महायम-देव-महादेव-एक-एकवृत्त-रोहित-सुपर्ण-अरूण-केशी-हरिकेश-सप्ताश्रव्-सप्तरश्मि आदि नाम गिनाये है अथर्व काण्ड १३।। श्रीमद्भागवत में भी प्रातः काल के सूर्य का नाम ब्रह्मा, मध्याह्न के सूर्य का नाम विष्णु और रात्री के समय का नाम शिव कहकर त्रिमूर्ति को सूर्य में ही बताया है। सूर्य की महान् शक्ति का वर्णन ‘‘अन्तश्रव्रति रोचनास्यं प्राणदयानती व्यख्यन्महिषो दिवम्’’ अर्थात् सूर्य की रोचमान दीप्ति से शरीरों में प्राणवायु के ऊपर-नीचे-आने-जाने आदि का व्यवहार होता है १० १८९/२ ऋक्।। सूर्य में तप-हर-अर्चि-शोचि एवं तेज जो क्रमशः प्रतापशक्ति-नाशशक्ति-दीपनशक्ति-शोधनशक्ति व तेजनशक्ति के नाम से पुकारी जाती है काण्ड-२ अथर्व।। सूर्य ही काल है समय है क्योंकि दिन-रात उसी से होते हैं १३ १/२२ अथर्व।। सूर्य जिस समय जिस भूभाग के सम्मुख होता है वहाँ दिन होता है दूसरे भूभाग में रात्रि होती है १३ ३/४३ अथर्व।।

            योगीजन मरण से ऊपर उठकर सूर्य की तेजोमय रश्मियों पर आरूढ़ होकर जाते हैं और अमृतमय मोक्षधाम को प्राप्त हो जाते हैं साम. ९२।। मुण्डकोपनिषद् में भी ‘सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति’- अर्थात् सूर्य की किरणें उन्हें अमर-अविनाशी पुरूष के पास ले जाती हैं १-२-११।।

            इसी सूर्य की एक प्रकार की किरणें ‘‘आपः” नामकी हैं जिनमें जलीय तत्वों का समूह वेग से चमकता है १० ४३/४ ऋक्-जल रस को पीकर मेघ के अंकरूप जल बिन्दुओं को बरसा कर सब औषधि आदि पदार्थों को भिन्न-भिन्न करके बहुत छोटे-छोटे कर देती हैं, इसी से वे पदार्थ पवन के साथ ऊपर को चढ़ जाते हैं क्योंकि सूर्य क्षण-क्षण में जल को ऊपर खींचकर संसार में बरसाता है इसी से यह वर्षा का कारण है १ ६/१० ऋक्।। यह अपनी कक्षा में स्थिर रहता हुआ, अपने समीप के लोकों को चुम्बक-पत्थर और लोहे के समान खींचने को समर्थ रहता है २ ७/६८ ऋक्।। इसी से समय के विभाग उत्तरायण-दक्षिणायन तथा ऋतु-मास-पक्ष-दिन-घड़ी और पल आदि हो जाते हैं १ ११/५ ऋक्।। रात्रि में ग्रह-नक्षत्र-चन्द्रादि लोक इनमें अपना प्रकाश नहीं है-ये सूर्य के प्रकाश से प्रकाशमान होते हैं। न ये कहीं जाते हैं किन्तु ढके हुए दीखते नहीं हैं। रात्रि में सूर्य की किरणों से प्रकाशमान होकर दीखते हैं १ २४/१० ऋक्।।

सूर्य की ऊपरी अथवा बीच की किरणों मेघ की निमित्त हैं उनमें जो जल के परमाणु रहते हैं वे अति सूक्ष्मता के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते हैं १ २४/७ ऋक्।। यह अग्निमय सूर्य लोक अपने स्वाभाविक गुणों से वर्षा की उत्पत्ति के निमित्त काम दिनरात करता है। और जगत् को जीवन देता है सूर्य निर्मित मेघ के जल से नदियां वहती हैं जिनके जल प्रवाहों में औषध भरा पड़ा है। यह सूर्य मेघ को पिता है। मेघ की उत्पत्ति को सूर्य से भिन्न कोई निमित्त नहीं है। मेघ के बिजली और गर्जना आदि गुणों से भय होता है, उस भय को भी दूर करने वाला भी सूर्य है। पृथिवी और अन्तरिक्ष सूर्य की दो स्त्री के समान हैं। वह पदार्थों से जल को वायु के द्वारा खींचकर जब अन्तरिक्ष में फेंकता है, तब वह पुत्र रूप मेघ प्रमत्त के सदृश बढ़कर उठता है और सूर्य के प्रकाश को ढक लेता है, तब सूर्य उसको मारकर भूमि में जल के रूप में गिरा देता है। जल की रूकावट को तोड़कर उसे अच्छी प्रकार बरसाता है। इसी से यह सूर्य समुद्रों के रचने को भी हेतु होता है तथा इस चराचर शान्त-अशान्त संसार में प्रकाशमान होकर, सब लोकों को अपनी-अपनी कक्षा में चलाता है।

सूर्य के बिना अति निकट मूर्तिमान लोक की धारणा-आकर्षक-प्रकाश और मेघ की वर्षा आदि कार्य किसी से नहीं हो सकते हैं १-३२ वां सूक्त ऋक्।। यह पृथिवी सूर्य के ऊपर-नीचे और उत्तर-दक्षिण को जाती है इसीलिये इसके परले आधे भाग में सदा अन्धकार और उरले आधे भाग में प्रकाश वर्तमान रहता है १ १६४/२ ऋक्।। उषा का निमित्त भी सूर्य है ४ ४०/१ ऋक्।। पृथिवी सूर्य के भय से ही चलती है ५ ५९/२ ऋक्।। सूर्य पृथिवी और द्युलोक से रस लेता है ६ ५७/२ ऋक्। सूर्य पदार्थों से ८ मास रस ग्रहण करके-मेघमण्डल में स्थापित करके, वर्षा ऋतु में बरसा के प्रजा को सुखी करता है। पृथिवी और पृथिवीस्थ पदार्थों को नष्ट नहीं करता-रक्षा करता है ६ ३०/२३ ऋक्।। सूर्यताप से अन्तरिक्ष स्थित वायु उत्तप्त होती है और वह ताप दूर भूमि तक पहुंचकर जहाँ-तहाँ की आर्द्रता को वाष्प को बदलकर मेघ रूप में एकत्र करता है और फिर वही बादल छिन्न-भिन्न हो वर्षा में परिणित होकर अन्न उत्पादन का कारण बनता है इसीलिए अन्तरिक्षस्थ अग्नि ‘वयोधा’ अन्न प्रदाता है ८ ७२/४ ऋक्।। सूर्य हमें विद्युत् प्रदान करता है जो अन्न-जल देने वाली एवं सब रोगों को दूर करने वाली है, जलवृष्टि में भी सहयोगी है। उस वृष्टि से शान्ति-सुख एवं कल्याण प्राप्त होते हैं क्योंकि वर्षा से ही अन्नादि उपजते हैं। यज्ञों में ऐसी समिधाएं समर्पित करनी चाहिए जो जल को ग्रहण करें। मेघविद्या मेंपारगत यज्ञों आदि के द्वारा भूमि पर बरसाने में सहायक होते हैं।

यज्ञकर्म मेघ को विद्युत् रूपी वाणी देता है। देव विज्ञान का ज्ञाता वृष्टिज्ञानी पुरूष जब यज्ञ करे-तो सर्वदिव्य गुणों से समपुष्ट होकर अग्नि तथा सूर्य जलप्रद मेघ को पुकारता है १०-९८ वां सूक्त ऋक्।। अनावृष्टि काल में बादल सूर्य के प्रकाश और जल को नीचे से रोककर भूमि पर अन्धकार और अवर्षण उत्पन्न कर देता है, तब इस मेघरूप वृत्र को मारकर यह सूर्य अपने प्रकाश तथा वर्षा जल को निर्बाध गति से भूमि के प्रति प्रवाहित करता है ११९ साम.।। सूर्य की स्थानान्तर गति नहीं है वह अपनी धुरी पर ही घूमता है। पृथिवी की २ प्रकार की गति है- पहली वह अपनी धुरी पर, जिससे अहोरात्र बनते हैं, दूसरी अपनी नियत कक्षा में सूर्य के चारों ओर, जिससे संवत्सर चक्र चलता है ६२० साम.।।

            यह पृथिवी अण्डाकृति मार्ग से सूर्य की परिक्रमा करती है और चन्द्रमा पृथिवी की परिक्रमा करता हुआ, पृथिवी के साथ-साथ सूर्य की भी परिक्रमा करता है। सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथिवी के आ जाने से प्रतिदिन चन्द्रमा के सम्पूर्ण गोलार्ध पर सूर्य का प्रकाश नहीं पड़ता। चन्द्रमा का जितना अंश पृथिवी की ओट में आ जाता है उतने अंश में सूर्य का प्रकाश न पड़ने से वह अंश अन्धकार से आच्छन्न ही रहता है। चन्द्रमा की ह्नास-वृद्धि का यही रहस्य है। अमावस्या को सम्पूर्ण चन्द्र के पृथिवी से ढ़क जाने के कारण पूरा ही चन्द्रमा अन्धकार से आवृत्त रहता है और पूर्णिमा को सम्पूर्ण चन्द्रमा के पृथिवी से छूटे रहने के कारण पूरा ही चन्द्रमा प्रकाशित रहता है साम. ९१५।।

            सूर्य जलों को आदान करता है अतः वह आदित्य कहलाता है। वह आंख से प्रत्यक्ष दिखाई देता है अतः वह विश्वदृष्ट कहलाता है। वह अदृष्ट दोषों का नाश करता है। जगत् में जो रोग बीज, हारिकारक रोगमूल हैं सूर्य किरण उन्हें नष्ट करती हैं अतः वह अदृष्टा कहलाता है। नंगा शरीर सूर्य प्रकाश में रखने से शरीर के रोग क्रीमी दूर होंगी-अतः वह विश्वभेषजी कहलाता है। सूर्य किरणों में भ्रमण करने वाली गौ का दूध पीने से लाभ होता है। सूर्य किरणें जिन वनस्पतियों पर गिरती हैं उनके खाने से भी आरोग्य लाभ होता है ६ ५२/३ अथर्व।। अथर्ववेद के २२वें काण्ड के मंत्र ३ के अनुसार ‘‘रोहिणीगाव’’ गौवें श्वेत-काले-लाल-भूरे-बादामी तथा विविध रंग के धब्बेवाली होती हैं। सूर्य किरणें उनकी पीठ पर पड़ती है। किरणों के रंगभेद के अनुसार दूध पर भी भिन्न-भिन्न परिणाम होता है। श्वेत गौ के दूध का गुणधर्म भिन्न होगा, काले रंग वाली गाय के दूध का गुणधर्म भिन्न तथा लाल रंग वाली गाय के दूध का गुणधर्म भिन्न होगा। लाल गौवों के दूध का तथान्य गोरसों का उपयोग हृदयरोग और ह्नमिला पीलिया रोग की चिकित्सा का विधान है। ते ह्नदद्योतः च हरिमा सूर्यमनु उदयताम् १-२२-१ अथर्व।।

            सूर्य की लाल किरण दीर्घायु-सौन्दर्य और बल को भी देने वाली होती है। मनुष्य का पीलियारोग और ह्नदयरोग बड़ा कष्टदायक होता है। पेट के अपचन-मद्यपान आदि से ह्नदय के दोष पैदा होते हैं। जवानी में वीर्य के दोष के कारण भी ह्नदय में विकार पैदा होते हैं। जिनसे मनुष्य कृश-निस्तेज-फीका-दुर्बल और दीन होता है। सूर्य किरणों द्वारा चिकित्सा करने से ये दोष दूर होते हैं। उत्तम स्वास्थ्य मिलता है। सूर्य किरणों में शुक्ल-नील-पीत-रक्त-हरित-कपिश-चित्र ७ रंग होते हैं। सूर्य किरण चिकित्सा में परिधारण विधि का बड़ा महत्व है रोहितैः वर्णैः त्वा दीर्घायुत्वाय परिदध्मसि १-२२-२ अथर्व।। अथर्ववेद के २२ वें सूक्त में परिदध्मसि शब्द ४ बार तथा निदध्मसि शब्द १ बार, दध्मसि शब्द एक बार आया है, जिसका अर्थ है चारों ओर से धारण करना। सूर्य की रक्तवर्ण की किरणों का स्नान शरीर का सौन्दर्य-शरीर का रंग तथा शरीर की सुकुमारता का दायक है। किरण स्नान रोगी के रंग-रोगी की आयु-रोगी का पेशा तथा शरीर के बल के अनुसार होना चाहिए।

            सूर्य-किरणों में पित्त बढ़ाने की शक्ति है। सूर्य किरणों द्वारा यह पित्त वनस्पतियों में संचित होता है। ये वनस्पतियां रूप रंग का सुधार करने में सहायक हैं १-२४-१ अथर्व।। ये वनस्पतियां कुष्ठ रोग के लिये उत्तम औषध हैं। इससे शरीर की त्वचा समान रूपरंगवाली बनती हैं। श्यामा वनस्पति शरीर की चमड़ी शरीर का रंग ठीक करने वाली है १ २२/४ अथर्व।।

            सूर्य में नाना प्रकार के वीर्य हैं। ये वीर्य किरणों द्वारा वनस्पतियों में जाते हैं। वनस्पतियों से वीर्य प्राप्त होते हैं। सूर्य भेदन व्यायाम तथा सूर्यभेदी प्राणायाम द्वारा पेट के स्थान में रहने वाली आदित्य शक्ति जागृत हो जाती है। सूर्य किरणों से तपी हुई वायु प्राणायाम से अन्दर लेने के अभ्यास से क्षयरोग में भी बड़ा भारी लाभ पहुंचता है १-३०-१ अथर्व।। सूर्य की किरणों से सिरदर्द-अंगों के रोग-कर्णरोग आदि रोग दूर होते हैं ९ ८/२२ अथर्व।।

            मेघाच्छादित आकाश के पश्चात् जब सूर्य दर्शन होता है, हवा साफ हो जाती है तब मनुष्यों को अत्यन्त आनन्द होता है। वह सूर्य अपनी सीधी गति से रोगों को दूर करता हुआ शरीर का आरोग्य बढ़ाता है। सूर्य का १ तेज तीन प्रकार से कार्य करता है। मस्तिष्क में मज्जारूप में, ह्नदय में पाचन शक्ति के रूप में तथा सब शरीर में उष्णता के रूप में सूर्य का तेज प्रकाशता है १ १२/१ अथर्व।।

            अंगे-अंगे शिश्रियमाणं शोचिषा- शरीर के प्रत्येक अंग में तेज के अंश से सूर्य रहता है १ १२/२ अथर्व।। सूर्य के इस तेज से अपना तेज बढ़ाना चाहिये। चर्मरोग-दमा-खांसी तथा क्षयरोग उन्हीं को होते हैं जो नंगे शरीर पर सूर्य किरण नहीं लेते तथा तंग मकानों में जो लोग वस्त्रों से वेष्टित रहते हैं। पर्वतों पर औषधियों का सेवन निरोग रहकर दीर्घायु जीवन का कारण है १ १२/४ अथर्व।।

कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति ६-२२-१ अथर्व। सूर्य की किरणें पृथिवी से जल लेकर आकाश में हरण करती हैं इसी से इनका नाम ‘‘हरिः” ‘‘हरयः” मिला है। ये किरणें सब स्थानों को पूर्ण करती हैं इसलिए इन्हें ‘‘सुपर्णाः” ‘‘सुपूर्णाः” कहते हैं। जल के स्थान अन्तरिक्ष में रहकर, वहाँ मेघ रूप में परिणित होकर उन मेघों से पृथिवी पर फिर वही जल आता है। यह कार्य सूर्य किरणों का सदा होता रहता है। वे समुद्र से पानी ऊपर खींचते हैं, मेघ बनाते हैं और वृष्टि होती है। इस प्रकार जल की शुद्धि होती है। पृथिवी पर का जल फिर अन्तरिक्ष में वाष्परूप से खींचा जाता है। वह वहाँ से शुद्ध बनकर फिर वृष्टिरूप में पृथिवी पर गिरता है-मानो मीठे शहद की वर्षा होती है। इस वृष्टि से औषधियाँ बनती हैं। जो रोगों को धोती हैं और दोषः धीः कहलाती हैं। वृष्टि के बिना पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती है और अकाल होता है। सूर्य ही इस अकाल व भुखमरी को दूर करता है व भोग्य पदार्थों का स्वामी है १० ४३/३ ऋक्।।

पर्जन्य का स्वातिजल मध्य नक्षत्रों से प्राप्त किया जा सकता है जो बड़ा आरोग्यप्रद है। वृष्टिजल से शरीर के शुष्क खुजली आदि का निवारण होता है। अन्तरिक्ष में शुद्ध प्राणवायु विराजमान है वह वृष्टि जल के साथ भूमि पर आता है ११-४ अथर्व सूक्त।। वृष्टि जल का स्नान आरोग्यवर्धक है इस जल के पान करने से मूत्र द्वारा शरीर के दोष बाहर हो जाते हैं १ ३/१५ अथर्व।। जो मनुष्य दीर्घायु प्राप्त करना चाहता है वह सूर्य के प्रकाश में रहे क्योंकि वहाँ अमृत रहता है- इहायमस्तु पुरूषः सहासुना सूर्यस्य भागे अमृतस्य लोके ८ १/१ अथर्व।। सूर्य तेरे कल्याण के लिये तपता है इसके प्रकाश को न छोड़ो-सूर्यस्ते शं तपाति ८ १/५ अथर्व।।

            सूर्य की ‘‘वृष्टिवनि’’ नामक किरणों से वर्षा होती है १० ४३/५ ऋक्।। इसकी ‘‘अरूण’’ नामक किरण दिन की उत्पत्ति करता है। इसका तेज द्युलोक में भरा पड़ा है। इस किरण से वास्तोष्पति नामक अग्नि की उत्पत्ति होती है। यह वास्तोपति अग्नि यज्ञहवि को देवों की तरफ फेंकता है। पदार्थों के संयोग-वियोग का कारण यही अग्नि है १० ६१/६ ऋक्।।

            सूर्य के बिना भूमण्डलों में अनेक व्याधियां पैदा हो जाती हैं। सारा भूमण्डल शुष्क एवं वृक्ष-औषधि-लता आदि से विहीन हो जाता साम. ९१३।। ये सूर्य की किरणें समुद्र व भूगर्भ में पहुंचकर अपने तेजस्वी ताप से स्वर्णादिधातु हीरे-रत्न उत्पन्न कर देती हैं ये अद्भुत शक्ति की राशि होती हैं सा. १०१४+ अथर्व १९ २६/१ + १३ २/१४।। सूर्य अपने वृष्टिजल से फलों में मिठास प्राप्त कराता है २१ २/१८ अथर्व-लिखकर निरन्तर सूर्य दर्शन होने की प्रार्थना की है।

            वैदिक भाषा व साहित्य के मर्मज्ञ महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश के प्रथम सूर्य की महत्ता और जीवन दर्शन का रूप स्वीकारते हुए कहा है ‘‘सहस्त्र गुणमुत्सृष्टु मादत्ते हि रसं रविः” – सूर्य हजारों गुणा अधिक बरसाने के लिये पृथिवी से जल ग्रहण करता है।

            इसीलिए सूर्यादि पदार्थ विद्याओं के यथार्थज्ञाता शिल्पविद्या के ज्ञाता होकर विमानादि शीघ्रगामी पदार्थों की रचना कर विश्व विजयी होते हैं ५ १०/६ + ५ ३२/५ ऋक्।। सूर्य की श्रेष्ठता के कारण ही और इसीलिए दिव्य पदार्थों की माता द्योतमान प्रकृति भी इस प्राणदाता सूर्य को पृथक् उत्पन्न करती है = असावन्यो असुर सूयत द्यौः १० १३२/४ ऋक्।।

                                                                                  शाहपुर, मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश

यज्ञ में मन्त्रों से आहुति क्यों? – शिवदेव आर्य

‘यज्ञ’ शब्द यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु धातु से नङ्प्रत्यय करने से निष्पन्न हुआ है। जिस कर्म में परमेश्वर का पूजन, विद्वानों का सत्कार, संगतिकरण अर्थात् मेल और हवि आदि का दान किया जाता है, उसे यज्ञ कहते हैं। यज्ञ शब्द के कहने से नानाविध अर्थों का ग्रहण किया जाता है किन्तु यहाँ पर यज्ञ से अग्निहोत्र का तात्पर्य है।  अग्नेः होत्रम् अग्निहोत्रम्, अग्नि और होत्र इन दोनों शब्दों के योग से अग्निहोत्र शब्द निष्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ होगा कि जिस कर्म में अत्यन्त श्रद्धापूर्वक निर्धारित विधिविधान के अनुसार मन्त्रपाठसहित अग्नि में जो ओषधयुक्त हव्य आहुत करने की क्रिया की जाये, उसे अग्निहोत्र कहते हैं।

                महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में अग्निहोत्र के लाभ बताते हुए कहा है कि – ‘सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख़ और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, तृतीयसमुल्लास) आगे भी कहा है – ‘देखो! जहां होम होता है वहां से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो के फैल के वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, तृतीयसमुल्लास)

                इसी प्रकरण में प्रश्न उठाते हुए महर्षि स्वामी दयानन्द जी कहते हैं कि ‘जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और इतर आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा।’ इसके उत्तर में लिखते हैं कि – ‘उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु को प्रवेश करा सके क्योंकि उस में भेदक शक्ति नहीं है और अग्नि ही का सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकाल कर पवित्र वायु को प्रवेश करा देता है।’(सत्यार्थप्रकाश,तृतीयसमुल्लास)

                अग्निहोत्र की प्रक्रिया में मन्त्रोच्चारण की क्या आवश्यकता है? यदि अग्निहोत्र में बिना मन्त्रों से आहुति दे दी जाये तो क्या हानि? क्या मन्त्रों के स्थान पर अर्थों को पढ़कर आहुति दी जा सकती है? अंग्रेजी, ऊर्दू आदि के शब्दों को बोलकर क्या आहुति दी जा सकती है? इन समस्त जिज्ञासाओं का समाधान लोग अपने-अपने निज-आग्रह के आधार पर करते हैं किन्तु इन शंकाओं का समाधान हमारे वैदिक वाङ्मय में पहले से ही उपलब्ध है। अतः शास्त्रमर्यादाविहीन निज-आग्रह को छोड़ सत्यान्वेषी होना आवश्यक है।

                यज्ञ के प्रबल पोषक महर्षि देव दयानन्द सरस्वती जी ने शास्त्रानुशीलन कर ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदविषयविचार में कहा है कि – वेदमन्‍त्रोच्चारणं विहायान्यस्य कस्यचित्पाठस्तत्र क्रियते तदा किं दूषणमस्तीति? अत्रोच्यते – नान्यस्य पाठे कृते सत्येतत्प्रयोजनं सिध्यति। कुतः? ईश्वरोक्ताभावान्निरतिशयसत्यविरहाच्च….। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषयविचारः)

                अर्थात् यज्ञ में वेदमन्त्रों को छोड़ के दूसरे का पाठ करें तो क्या दोष है? अन्य के पाठ में यह प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। ईश्वर के वचन से जो सत्य प्रयोजन सिद्ध होता है, आप्त पुरुषों के ग्रन्थों का बोध और उनकी शिक्षा से वेदों को यथावत् जानके कहता है, उसका भी वचन सत्य ही होता है। और जो केवल अपनी बुद्धि से कहता है वह ठीक-ठीक नहीं हो सकता। इससे यह निश्चय है कि जहाँ-जहाँ सत्य दीखता और सुनने में आता है, वहाँ वेदों में से ही फैला है, और जो जो मिथ्या है सो सो वेद से नहीं, किन्तु वह जीवों ही की कल्पना से प्रसिद्ध हुआ है। क्योंकि ईश्वरोक्त ग्रन्थ से सत्य प्रयोजन सिद्ध होता है, सो दूसरे से कभी नहीं हो सकता।

                महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने मन्त्रों से ही यज्ञों का विधान किया है, इसका प्रमाण ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में पुनः प्राप्त होता है – अग्निहोत्रकरणार्थं ताम्रस्य मृत्तिकाया वैकां वेदिं सम्पाद्य, काष्ठस्य रजतसुवर्णयोर्वा चमसमाज्यस्थलीं च संगृह्य, तत्र वेद्यां पलाशाम्रादिसमिधः संस्थाप्याग्निं प्रज्वाल्य, तत्र पूर्वोक्तद्रव्यस्य प्रातः सायंकालयोः प्रातरेव वोक्तमन्त्रैर्नित्यं होमं कुय्‍र्यात्। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पंचमहायज्ञविषयः) इसमें स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मन्त्रैर्नित्यं होमं कुय्‍र्यात् अर्थात् मन्त्रों से नित्य होम को करें। अतः स्पष्ट सिद्ध है कि यज्ञ वेद मन्त्रों से ही होना अनिवार्य है।

                 लब्धप्रतिष्ठित वैदिक विद्वान् आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी ने सामवेद भाष्य में – उपप्रयन्तो अध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये। आरे अस्मे च शृण्वते।। (सामवेद-1379) इस मन्त्र का व्याख्यान करते हुए लिखा है कि ब्रह्मयज्ञ वा देवयज्ञ करते हुए मनुष्य मन्त्रोच्चारणपूर्वक परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभावों का ध्यान किया करें और उससे शिक्षा-ग्रहण किया करे।

                आर्य संन्यासी स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती जी श्रीमद्भगवद्गीता का भाष्य करते हुए कहते हैं कि-

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।

           श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।। (गीता-17/13)

                अर्थात् जो शास्त्र-विधि से हीन हो, जिसमें लोक-कल्याणार्थ अन्न तक न दिया गया हो, जो मन्त्रोच्चारणरहित हो, जिसमें कार्यकर्त्ताओं को दक्षिणा न दी गई हो, जो श्रद्धारहित मन से किया गया हो, उस यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं। इससे स्पष्ट है कि मन्त्रहीन यज्ञ तामससंज्ञक है, पुनः तामस यज्ञ विश्वकल्याण के लिए क्यों कर हो सकता है?

                महर्षि दयानन्द सरस्वती जी यजुर्वेद भाष्य में कहते हैं –

उपप्रयन्तोSअध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये।

आरेSअस्मे च  शृण्वते।। (यजुर्वेद-3/11)

                अर्थात् मनुष्यों को वेदमन्त्रों के साथ ईश्वर की स्तुति वा यज्ञ के अनुष्ठान को करके जो ईश्वर भीतर-बाहर सब जगह व्याप्त होकर सब व्यवहारों को सुनता वा जानता हुआ वर्त्तमान है, इस कारण उससे भय मानकर अधर्म करने की इच्छा भी न करनी चाहिये। जब मनुष्य परमात्मा को जानता है, तब समीपस्थ और जब नहीं जानता तब दूरस्थ है, ऐसा निश्चय जानना चाहिए।

                वैदिक विद्वान् हरिशरण सिद्धान्तालंकार जी ने यजुर्वेद के भाष्य करते हुए –

यज्ञ यज्ञं गच्छ यज्ञपतिं गच्छ स्वां योनिं गच्छ स्वाहा।

                                एष ते यज्ञो यज्ञपते सहसूक्तवाकः सर्ववीरस्तं जुषस्व स्वाहा।। (यजुर्वेद – 08/22)

                प्रस्तुत मन्त्र एष ते यज्ञो यज्ञपते सहसूक्तवाकः का अर्थ कहते हुए स्पष्ट संकेत किया है कि ‘यह यज्ञ आपका ही है। इसके करने वाले आप ही हैं, हम लोग तो निमित्तमात्र हैं। यह यज्ञ ऋग्, यजुः आदि के सूक्तों से उच्चारण युक्त है।’

                पद्मभूषण डॉ.  श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी ने यजुर्वेद के सुबोध भाष्य में –

समुद्रे ते हृदयमप्स्वन्तः सं त्वा विशन्त्वोषधीरुतापः।

                                                यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत् स्वाहा।।

                                                                                                                                                                (यजुर्वेद – 08/25)

                प्रस्तुत मन्त्र यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत् स्वाहा का अर्थ – ‘हे यज्ञ के पालक! जिसमें वेद के सूक्त कहे जायें, ऐसे उत्तम यज्ञ कार्य में और वैदिक वचनों के उच्चारण में जो हवन योग्य पदार्थ हैं, वह तुझे हम अर्पण करें’ किया है।

                शतपथब्राह्मण में यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत् स्वाहा की व्याख्या – ‘यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत्स्वाहेति तद्यदेव यज्ञस्य साधु तदेवास्मिन्नेतद्दधाति।’ (शतपथ ब्राह्मण – 4/4/5/20) की है।

                मन्त्रों के बिना यज्ञ के स्वरूप की तथा उसकी पूर्णता की कल्पना नहीं जा सकती है, क्योंकि त्रयी विद्या रूप मन्त्र, यज्ञ से अभिन्न हैं – सैषा त्रयी विद्या ऋक्यजूंषिनामानि। (शतपथ ब्राह्मण – 1/1/4/3)

                शतपथ ब्राह्मण में आगे कहा गया है –

‘वागेवSर्चश्च सामानि च मन एव यजूंषि’ (शतपथ ब्राह्मण – 1/1/4/3)

                अर्थात् वाचा, मनसा, कर्मणा यज्ञानुष्ठान के लिए मन्त्रों का विनियोग आवश्यक है।

                छान्दोग्य ब्राह्मण ग्रन्थ में वेदमन्त्रों से यज्ञादि कर्म का प्रतिपादन किया गया है –

यो ह वा अविदिताSर्षेयच्छन्दो दैवताविनियोगेन ब्राह्मणेन मन्त्रेण याजयति वाSध्यापयति वा स स्थाणुं वर्च्छति गर्त्तं वा पद्यते, प्रमीयते वा पापीयान् भवति यातयामान्यस्यच्छन्दांसि भवन्ति।

(छान्दोग्य ब्राह्मण-3/7/5)

                इसका भाव यह है कि जो याजक वैदिक छन्द को बिना जाने ही केवल देवता सम्बन्धी विनियोगपूर्वक ब्राह्मण ग्रन्थीय मन्त्र से यजन कराता है, अध्यापन करता है, वह मन्त्र प्रयोक्ता याजक या अध्यापक वृक्ष, लता आदि जड़ योनि को प्राप्त होता है अथवा दुःखालयाSत्मक नरक को प्राप्त करता है। इसप्रकार  यदि कोई करता है तो उसे छान्दोग्य ब्राह्मण में पापियों में अतिनिकृष्ट कहा है।

                इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हुए सर्वाSनुक्रम सूत्र में महर्षि कात्यायन जी कहते हैं कि –

‘छन्दांसि गायत्र्‍यादीनि एतान्यविदित्वा योSधीतेSनुब्रूते जपति, जुहोति, यजते याजयते तस्य ब्रह्म निर्वीर्यं यातयामं भवति। अथाSन्तरा श्वगर्तं वा पद्यते स्थाणुं वर्च्छति प्रमीयते वा पापीयान् भवति।’

(सर्वाSनुक्रम सूत्र)

                अर्थात् जो व्यक्ति गायत्री आदि छन्दों के ज्ञान से रहित होकर वेदाध्ययन करता है, वेदमन्त्रों का अभ्यास करता है, यज्ञकर्म में वेदमन्‍त्रों को उच्चारित करता है, यागक्रिया करता व कराता है तो वह व्यक्ति पाप का भागी होता है। अतः महर्षि कात्यायन के अनुसार सिद्ध है कि यज्ञ मन्त्र के सम्यक् उच्चारण व विधिविधान से होना चाहिए।

                महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में यज्ञ में मन्त्रों के उच्चारण का उद्देश्य दर्शाते हुए कहा है कि इससे मन्त्रों की रक्षा भी होती हैं। इसी तथ्य को महर्षि पतंजलि ने व्याकरणमहाभाष्य के प्रथम पस्पशाह्निक में उल्लेख किया है कि – ‘रक्षार्थं वेदानामध्येयं व्याकरणम्’  अर्थात् वेदों की रक्षा के लिए व्याकरण का अध्ययन करें। वेदाध्यय के द्वितीय प्रयोजन में महर्षि पतंजलि ने व्याकरणमहाभाष्य में लिखा है कि – ‘ऊहः खल्वपि – न सर्वैर्लिङ्गैर्न च सर्वाभिर्विभक्तिभिर्वेदे मन्त्र निगदिताः। ते चावश्यं यज्ञगतेन यथायथं विपरिणमयितव्याः। तान्नावैयाकरणः शक्नोति यथायथं विपरिणमयितुम्।’ (व्याकरणमहाभाष्य, प्रथम पस्पशाह्निक) उक्त प्रयोजन में भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि वेदमन्त्रों से यज्ञकर्म होना चाहिए।

                आगे एक प्रयोजन को महर्षि पतंजलि उद्धृत करते हुए कहते हैं कि –

     विभक्तिं कुर्वन्ति – याज्ञिकाः पठन्ति – प्रयाजाः सविभक्तिकाः कार्या इति। न चान्तरेण व्याकरणं प्रयाजाः सविभक्तिकाः शक्याः कर्तुम्। विभक्तिं कुर्वन्ति। (व्याकरणमहाभाष्य, प्रथम पस्पशाह्निक) यहॉँ पर प्रयाजाः शब्द से वेदमन्त्र का ग्रहण किया गया है। अतः स्पष्ट है कि वेद मन्त्रों से यज्ञ होना आवश्यक है।

                प्रयाजा शब्दात्मक ऋग्वेद में दो मन्त्र प्राप्त होते हैं –

प्रयाजान्मे अनुयाजाँश्च केवलानूर्जस्वन्तं हविषो दत्त भागम्।

घृतं चापां पुरुषं चौषधीनामग्नेश्च दीर्घमायुरस्तु देवाः।।

तव प्रयाजा अनुयाजाश्च केवल ऊर्जस्वन्तो हविषः सन्तु भागाः।

           तवाग्ने यज्ञो यमस्तु सर्वस्तुभ्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्रः।। (ऋग्वेद- 10/51/8-9)

                पाणिनीय व्याकरण के ओमभ्यादाने (अष्टाध्यायी-8/2/87)  इस सूत्र में कहा है कि मन्त्रों के उच्चारण से पूर्व जो ओ३म् है, उसको प्लुत हो जाता है। प्रणवष्टेः (अष्टाध्यायी-8/2/89)  इस सूत्र के अनुसार यज्ञकर्म में वेदमन्त्रों के टि भाग को ‘ओ३म्’ आदेश का विधान कर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है – अपां रेतांसि जिवन्तो३म्। इससे स्पष्ट होता है कि पाणिनीय काल में वेदमन्त्रों से यज्ञ करने का विधान था।

                ‘पुरुषविद्यानित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रे वेदे’ (निरुक्त) आचार्य यास्क के अनुसार पुरुष की विद्या अनित्य है और मन्त्र परमात्मा की वाणी होने से नित्यज्ञान है। अतः अग्निहोत्रादि कर्म नित्यज्ञान से युक्त युक्त वेदमंत्रें से करने चाहिए। उपरोक्त वैदिक प्रमाणों से यह ज्ञात होता है कि महर्षि देव दयानन्द सरस्वती जी ने आर्षशास्त्र मर्यादा का अनुशीलन कर शास्त्रपरम्परा को अक्षुण्य बनाने का मार्ग प्रशस्त किया है, हमें इसी शास्त्रपरम्परा के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

– गुरुकुल पौन्धा,

देहरादून (उत्तराखण्ड)

वर्तमान परमाणु (एटम) की उत्पत्ति और वेद -ब्रह्यचारी अग्निव्रत नैष्ठिक

जिस समय डाल्टन का परमाणुवाद संसार के सम्मुख प्रस्तुत हुआ उस समया एटम (परमाणु) को किसी भी पदार्थ का मूल कण माना जाने लगा परन्तु इलेक्ट्रोन आदि की खोज से डाल्टन का परमाणुवाद इतिहास की बात होकर रह गया। एटम को विखण्डित करते-करते आज मूल कण कहे जाने वाले कणों की संख्या दौ सौ के लगभग ही हो चुकी है। इन कणों को भी वैज्ञानिक उत्पन्न कर रहा है, दूसरों में परिवर्तित कर रहा है उदासीन पाई मैसोन की त्रिज्या १० से, मानी जा रही है तब इन्हें कैसे मूलकण माना जाये ?

            आज एटम का स्टेण्डर्ड मॉडल प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रारूप में छः क्वार्क (u, d, c, b, t) तथा छः लैप्टोन (इलेक्ट्रॉन, म्यूऑन, टाऊन, इलेक्ट्रॉन-न्यूट्रिनो, म्यूऑन-न्यूट्रिनो तथा टाऊन-न्यूट्रिनो) ये मूल कण कहे जा रहे है। अन्य मूल कणों को इन्हीं से निर्मित माना जा रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है-

All evidences point to the fact that the leptons have no internal structure and are point particles. They are considered more elementary than handrons which have internal structure ¼quark-structure½ Leptons and quarks seem to be at the same level of elementriness.

            ¼Atomic & Nuclear Physics – Vol. II S.N. Ghoshal-New Delhi, P.९०५½

            अर्थात् लप्टोन तथा क्वार्क कणों की आन्तरिक संरचना नहीं होती इस कारण ये कण प्रोटीन, न्यूट्रोन आदि कणों की अपेक्षा अधि कमूल कण हैं। इसके आगे यही ग्रन्थकार लिखता है-

            Each type of Lepton is associated with a neutrino. The elementriness

            अर्थात् प्रत्येक लेप्टान के साथ लगभग शून्य द्रव्यमान का कण न्यूट्रिनों संयुक्त होता है। इस कण के बारे में ब्रिटिश वैज्ञानिक लिखते हैं-

            Every particles is accompanies by another particles called neutrino which mass in rest is zero. It is high energy particles. Its speed is equal to light speed.

            ¼Atomic energy-macmillon & Co.Ltd.-London-१९६२½

            अर्थात् विरामावस्था में शून्य द्रव्यमान वाला न्यूट्रिनो कण प्रत्येक कण के साथ संयुक्त होता है जिसमें उच्च ऊर्जा होती है तथा प्रकाश वेग गति करता है।

            प्रश्न यह है कि क्या न्यूट्रिनो तथा उसके संयोगी कणों का संयोग अनादि है? ऐसा हो ही नहीं सकता तब ये कण भी विशेषकर वे जिसके साथ न्यूट्रिनों का संयोग अनिवार्य है, मूलकण नहीं हो सकता तब सिद्ध है कि लेप्टोनों का निर्माण कभी न कभी हुआ है। इसी प्रकार क्वार्क कणों के साथ ग्लूऑन कणों की कल्पना की जाती है। जिस आधार पर लेप्टोनों का अनादित्व असिद्ध हुआ उसी प्रकार क्वार्कों का भी अनादित्व असिद्ध होगा। तब जो कण अनादि नहीं हो सकते वे मूल कण भी कैसे कहे जा सकते हैं? फिर वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रत्येक कण गतिशील ही होता है। वेद भी ऐसा स्पष्ट रूपेण कहता है। विज्ञान और वेद दोनों ही यह भी मानते हैं कि कणीय गति से ही कणों की सत्ता है।

            वायवायाहि दर्शते मे सोभा अरंकृताः तेषां पाहि-ऋग्वेद १/२/१

            मंत्र बतला रहा है कि गति गुण ने ही संसार भर के मूर्तिमान पदार्थों को सजा रखा है और वही इनकी रक्षा भी कर रहा है।

            विज्ञान के शब्दों में-

Only Few are stable, such as the proton, electron, neutrino, positron, photon, and poton, the rest are all unstable.

            ¼ Atomic & Nuclear Physics-S.N.GHOSHAL, P.९०१½

            निश्चित ही गति की सत्ता अनादि नहीं है तब वर्तमान में मूलकण कहे जाने वाले कणों में से कोई भी कण आद्य अवस्था में विद्यमान नहीं था। जब इनका अस्तित्व गति के अभाव में समाप्त हो जाता है तब ये कण किसमें परिवर्तित हो जाते हैं उस सत्ता को मूलावस्था क्यों न माना जाय? प्रश्न यह भी है कि बिना गति इन कणों की सत्ता रहती नहीं और वैज्ञानिक इन कणों का द्रव्यमान विराम अवस्था में ही मापते और बतलाते हैं तब क्यों कर इन्हें विराम में प्राप्त कर पाते हैं? फिर वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि गतिशील कण का द्रव्यमान अपेक्षाकृत वर्धमान होता जाता है। इससे सिद्ध है कि ऊर्जा में कुछ न कुछ द्रव्यमान अवश्य होता है।

            अब वैज्ञानिक सृष्टि की आदिम अवस्था में इन कणों का निर्माण स्वीकार करते हैं, वे मानते हैं कि प्रारम्भ में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कल्पनातीत ताप था।

            Thus at the time + १०-४५ after zero time the temperature was about १०-३२ K. Between + १०-३५ s only rwo of the fundamental interactions were operative. These were the unfield strong weak force and the gravitati onal force. A type of very heavy particles are called the X-Bosons exited during the period, which  helped change the quarks into leptons and vikce weasa———-As we approached the time + १०-१०s there is defreezing of the strong plus electron weak interaction is and the two interactions now appear as Distinct. So there are now the there fundamental interaction – gravitational strong nuclear and electro weak in operation. W+ and Zo Bos appear at + १०-१० s The electron weak interaction begin to defreeze electro-megnetic and weak forces become seperated now we have all the four distinct interactions operative. Between १०-६s -१०-४s there is another transition. The neutrons and the protons being to take shape due to the combination of the quark. So that the fundamental particles are produed familiar to us in the present day universe begin to appear.

            At about + १०-३s the temp has fallen to ८*१० १० K. Hundrads of different elementry particles are produced by collisions at the available energy.

            At the time zero plus there minutes the temp is about to ७० times, that found in the core of the sun. This is when the protons and neutrons begin to combine to from the complet nueclai.

            The formation of the atoms came much later at the time zero plus ५००००० years. The universe cooled down sufficiently so that electrons and the nuclei could join together to from the atoms.

            { Atomic and Nuclear Physics – Page ९५१-५२}

            उपर्युक्त उदाहरण पर विचारने से निम्न तथ्य सामने आते हैं-

१.        आदिम अवस्था का ताप सूर्य के केन्द्रीय ताप का १ करोड़ अरब गुना था, जो वर्तमान में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहीं सम्भव नहीं होगा।

२.        उस ताप में अत्यन्त तेजी से गिरावट आती है।

३.        उस समय किसी भी प्रकार के कण नहीं होते हैं। कहा गया है कि सर्वप्रथम उत्पन्न बोसोन कण लेप्टोन को क्वार्क तथा क्वार्कों को लेप्टोनों में परिवर्तित करते हैं।

४.        लगभग ५ लाख वर्ष में एटम का निर्माण हो पाता है।

५.        पूर्व में दो ही बल थे जो बाद में चार बलों में विभक्त हो गये। उपर्युक्त बिन्दुओं की समीक्षा से निम्न प्रश्न उपस्थित होते हैं-

१.  वह उच्चतम ताप कैसे, किसमें तथा किसके द्वारा उत्पन्न हुआ? यदि ईश्वरीय सत्ता को भी यह प्रश्न शेष रहेगा कि ताप किस प्रकार तथा किस उपादान पदार्थ से उत्पन्न किया गया। यह ताप वाली स्थिति अनादि तो हो नहीं सकती तब उपर्युक्त प्रश्न अनुत्तरित रहेगे ही।

२.  उस ताप में इतनी तेजी से गिरावट आना भी कैसे हुआ? केवल ३ मिनट में ताप १० ३२ K से लगभग ३-४ अरब K तक पहुंच जाना अप्रत्याशित सा प्रतीत होता है। केवल तीन मिनट में नाभिकों का निर्माण हो जाना जबकि एटम के निर्माण में ५ लाख वर्ष, लगे, यह बात उचित प्रतीत नहीं होती।

३.  बोसोनों की उत्पत्ति के पश्चात् क्वार्क से लेप्टान तथ लेप्टान से क्वार्क बनने के सिद्धान्त में अन्योन्य आश्रय का दोष आयेगा। इन दोनों में कौन प्रथम, इसका उत्तर कैसे दिया जायेगा? फिर जो प्रथम बना तो किससे और यदि दोनों एक साथ कैसे बने और जिससे भी बने उसी से फिर क्यों नहीं बने ?

            जैसा कि हम विचार कर चुके हैं कि अब तक मूलकण कहे जाने वाले कणों में से मूलकण कोई प्रतीत नहीं होता, हाँ ग्लूऑन, न्यूट्रिनों, फोटोन जैसे कुछ कण अवश्य ही ज्ञान कणों में प्राथमिक प्रतीत होते हैं।

                        -: अब हम वैदिक विचारधारा को प्रस्तुत करें:-

            सर्वप्रथम यह विचारणीय है कि सृष्टि सृजन के पूर्व अर्थात् आदिम अवस्था क्या थी?

            गीर्णिभुवनं तमसापगूढ़म……………ऋग्वेद १०१/८८/२

            अर्थात् उस समय सब कुछ निगला हुआ सा और अंधकार से आवृत था।

            तम आसीत्तमसागूढ़मग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्। ऋग्वेद १०/१२९/३

            अर्थात् सबको लीन किये हुये चिन्ह रहित तथा अंधकार से आवृत और सब ओर व्याप्त यह प्रकृति थी।

            नासदासीनों सदासीत्तदानीं नासीद्वजः ऋग्वेद-१०/१२९/१

            अर्थात् उस समय शून्य रूप असत् आकाश भी नहीं था क्योंकि उसका व्यवहार नहीं था और न ही सत् अर्थात् सत्व, रज, तम से बना प्रधान ही था अथवा उस समय अभाव रूप असत् तथा भावरूप व्यक्त जगत् दोनों ही नहीं थे। और न रजस् अर्थात् परमाणु ही थे। इसी को  भगवान मनु ने इस प्रकार कहा-

            आसीदिदं तमोभूतम प्रज्ञातम लक्षणम्।

            अग्रतक्र्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः।। मनु १/५

            अर्थात् उस समय की अवस्था पूर्णतः अन्धकारमय, न जानने योग्य, लक्षणविहीन, तर्क न करने योग्य प्रसुप्त जैसी थी। कोई ध्वनि, प्रकाश, गति आदि कुछ भी नहीं था।

            इसके साथ

            ऽस्वधया तदेकम्…………………..ऋ. १०/१२९/२

            अर्थात् वह परमात्मा स्वधा (प्रकृति ) के साथ रहता है क्योंकि

            योऽस्याधयक्षः………………………..ऋ. १०/१२९/७

            अर्थात् वह परमात्मा ही इस सृष्टि का अध्यक्ष है, वही इसकी रचना, पालन तथा धारण आदि करता है। वेद यह भी स्पष्ट करता है कि उपर्युक्त अवस्था न केवल स्थान विशेष में बल्कि…………..

            तिरश्र्वीनोक्तितो रश्मिरेषामधः रिवदासीदुपरि स्विदासीत्……………. -ऋ. १०/१२९/५

            उपर्युक्त बिन्दुओं पर विचार करने पर निम्नलिखित तथ्य प्राप्त होते हैं-

१.        वह अवस्था पूर्णतः अंधकार व प्रसुप्त होने से अव्यक्त एवं अज्ञेय ही होती है। जिस प्रकार हम किसी वस्तु को निगल लेते हैं तब निगली हुई वस्तु का अभाव तो नहीं होता परन्तु वह छिप जाती है। इसी प्रकार उस समय सब कुछ अंधकार द्वारा निगला हुआ होता है। अंधकार, शांत, निष्क्रियता की सीमा इतनी कि उससे अधिक ब्रह्माण्ड में कहीं एवं कभी सम्भव नहीं हो सकती।

वैज्ञानिक प्रारम्भिक अवस्था को अत्यन्त तप्त, तेजस्वी बतलाते हैं जहां प्रकाश एवं ऊष्मा की चरम सीमा है जो कहीं तथा कभी उसके पश्चात् कल्पित भी नहीं की जा सकती जबकि वैदिक विचारधारा इसके ठीक विपरीत है अर्थात् उस समय इतना शैत्य जितना कभी और कहीं भी इस ब्रह्माण्ड में इस अवस्था के पश्चात् सम्भव नहीं है।

२.        उस समय एटम आदि नहीं होते हैं। यहां ‘परमाणु’ शब्द का अर्थ एटम या अणु (मॉलीक्यूल) आदि ही है न कि सबसे सूक्ष्म कण भगवान यास्क के शब्दों में-

अर्थात् प्रकाश एवंज ल का सूक्ष्मतम कण वा लोक को रजस् कहते हैं। प्रकाश का सूक्ष्म कण फोटोन जल का एक अणु अर्थात् किसी भी साधन से दृष्टि में आने योग्य कण वा लोक लोकान्तर। ये सभी उस समय अविद्यमान थे।

३.        उस समय जो भी मूलकण होते हैं, वे सलिल अवस्था जैसे होते हैं। ‘‘सलति गच्छति निम्नं देशं सलिलम्’’ अर्थात् जो नीचे की ओर सरकता है, फिसलता है ‘सलिल’ कहलाता है। इस का तात्पर्य यह नहीं कि उस समय ऐसी अवस्था वास्तव में होती है बल्कि यहां आशय मात्र यह है कि कण परस्पर किसी भी प्रकार के चिपचिपेपन से रहित अर्थात् एक दूसरे पर पूर्णतः फिसलने योग्य होते हैं। पूर्णतः पारस्परिक बन्धन (आकर्षण या प्रतिकर्षण) रहित। और यह सलिल भी कैसा था।-

आपं वा इयमग्रे सलिल…………………….मासीत् तै. १/१/३/५

अर्थात् प्रारम्भ में यह ‘आपस्’ ही सलिल था। और आपस् क्या है-

अिर्वाइदं सर्वमाप्तम्……………….शतपथ १/१/१/१४

अर्थात् ऐसा पदार्थ सर्वत्रव्याप्तथा और भी-

अगृता ह्यापः……………………..-शत. ३/९/४।१६

            अर्थात् वह आपस् अमृत था अर्थात् अनादि था ऊपर, नीचे, दांये, बांये सर्वत्र वह सलिल रूपी मूलपदार्थ भरा रहता है। इसी कारण आकाश अर्थात् अवकाश का अभाव बताया गया है।

४.        इस अवस्था को वेद ‘स्वधा’ नाम से सम्बोधित करता है।

स्वधा शब्द का अर्थ है- ‘‘स्वं दधातीति स्वधा’’ अर्थात् जो स्व को धारण करती है। अब स्व क्या है-

स्वरित्यसौ (द्यु) लोकः-शत. ८/७/४/५

अन्तो वै स्वः – ऐत. ५/२०

अर्थात् द्यु को धारण करने वाली। यहां ‘द्यु’ शब्द का अर्थ विद्युत् से है अर्थात् जो विद्युत को धारण करने वाली है।-

यजुर्वेद ३३/२२ के शब्दों में- ‘‘अमृतानि तस्थौ’’ अर्थात् विद्युत रूपी ‘स्वधा’ कहा।

            इस स्वधा को शतपथकार ने और भी स्पष्ट किया-

            स्वधाकांर पितरः (उपजीवन्ति) – शत. १४/८/१

            मत्र्याः पितरः – शत. २/१/३/४

            अर्थात् जो उत्पन्न होते हैं और नाश को प्राप्त होते हैं, वे पदार्थ वा कण पितर कहलाते हैं तथा वे पितर स्वधा के कारण ही जीवित रहते हैं अर्थात् वह पदार्थ जिसके आश्रय पर विनाशी कण निर्भर हैं, स्वधा कहलाता है और इसी का अपर नाम प्रकृति है।

५.        इस अव्यक्त स्वधा प्रकृति के साथ परमात्मा चेतन तत्व सदैव रहता है जो सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माता, नियन्त्रक व संचालक है। उसके बिना उस निष्क्रिय, शान्त, अन्धकारावृत मूलपदार्थ प्रकृति में क्रिया का होना सर्वथा असम्भव है।

अब प्रकृति की इस स्थिति के गुणों पर विचार करते हैं। वर्तमान विज्ञान इस स्थिति तक विचार नहीं पाया है। वेद उस अव्यक्त प्रकृति को ‘‘त्रितस्य धारया” -ऋ. ९/१०२/३ तथा ‘त्रिधातु’ – ऋ. १/१५४/४ कहकर तीन सत्व, रजस् तथा तमस् का बोध करा रहा है। वेद में अनेकत्र प्रकृति के त्रैत का उल्लेख है।

            इस त्रैत को भी ‘सलक्ष्मा’ ऋ. १०/१२/६ कहकर साम्यावस्था वाली सिव् कर रहा है प्रकृति के त्रैत और उसकी साम्यावस्था विषय में भगवत्कपिलर्षि ने लिखा-

            सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः – सांख्य दर्शन १/२६

            अर्थात् सत्व, रजस् तथा तमस् की साम्यावस्था का नाम, प्रकृति है। अब यह विचारणीय है कि सत्व, रजस् तथा तमस् क्या है? इनकी साम्यावस्था क्या है? कुछ आर्य विद्धान् प्रोटोन, इलेक्ट्रोन तथा न्यूट्रोन को क्रमशः सत्व, रजस् तथा तमस् मानते रहे हैं परन्तु अब इलेक्ट्रोन को छोड़कर अन्य कणों की मौलिकता विज्ञान ने असिद्ध कर दी है। हमारीदृष्टि में इलेक्ट्रोन भी मूल कण नहीं है।

            अब क्रमशः सत्व, रजस् तथा तमस् पर विचार करते हैं-

            ‘‘प्रीत्यप्रीति विषादाद्यैर्गुणाना मन्योन्य वैधम्र्यम्” – सां. द. १/९२

            ‘‘प्रकाशशीलं सत्वं क्रियाशीलं रजः स्थितिशीलं तमः” – यो. द. २/१८

            प्र व्यासर्षि भाष्य अर्थात् सत्व प्रीति आकर्षण एवं प्रकाश युक्त, रजस् अप्रीति (प्रतिकर्षण) तथा क्रियाशीलता युक्त तमस् विषाद् (उदासीनता) युक्त तथा स्थितिशील है। सांख्य सिद्धान्त में ख्यातिर्लब्ध आर्य विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इनके अतिरिक्त अन्य गुणों का भी वर्णन किया है। यथा-सत्व = लघु, रजस् = चल तथा प्रवर्तन, तमस् = उदासीन एवं अकर्मण्य।

            अर्थात् ऐसा कण जो प्रकाश तथा आकर्षण का अधिष्ठान होते हुये लघु हो, सत्व, ऐसा कण जो क्रियाशीलता गति तथा प्रतिकर्षण का अधिष्ठान हो, रजस् तथा ऐसा कण जो गुरूता तथा निष्क्रियता का अधिष्ठान हो तमस्, साथ में ये सभी आदि मूलकण होवें। वर्तमान में कहे जाने वाले मूलकणों में से न्यूट्रिनों, फोटोन तथा ग्लूऑन की स्थिति कुछ मूल प्रतीत होती है। फोटोन जैसा सत्व, न्यूट्रोन जैसा रजस् तथा ग्लूऑन जैसा तमस् हो सके परन्तु फोटोन में आकर्षण न्यूट्रोन में प्रतिकर्षण जब तक सिद्ध न हो तथा ग्लूऑन का स्वरूप पूर्ण स्पष्ट न हो तब तक ऐसी तुलना उचित नहीं कही जा सकती। विज्ञान जो भी सिद्ध वा प्राप्त करे, हमारी मान्यता है कि मूल प्रकृति उन मूलकणों का समूदाय है संयोग नहीं जो परस्पर पूर्णबन्धन सहित, शान्त एवं उपर्युक्त गुणों से युक्त होते हैं। इस पूर्ण शिथिल, शान्त अंधकार में-

            ‘‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति” (तै. उप.)

            ‘‘कामस्तदग्रे समवर्तताधि’’ -ऋ. १०/१२९/४

            अर्थात् परमात्मा सर्वप्रथम सृष्टि रचना करने की कामना करता है। किसी भी कार्य के लिये सर्वप्रथम इच्छा का होना अनिवार्य है परन्तु परमात्मा की इच्छा, ज्ञान व क्रिया सब स्वभाविक होते हैं।

            ‘‘स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च” – श्रे्व. उप.

            ळम जिस प्रकार की इच्छा करते हैं, उस प्रकार की इच्छा नहीं बल्कि जीवों के पालनार्थ ( भोग एवं मोक्ष हेतु) इच्छा करता है। भगवान मनु ने कहा-

            ‘‘व्यंजयत्रिदम्……………………….प्रादुरासीतमोनुदः।’’ -मनु. १/६

            अर्थात् उस अंधकारमयी प्रकृति का प्रेरक इस जगत् को प्रकटावस्था में लाता हुआ परमात्मा प्रकट हुआ। सर्वप्रथम उसने क्या किया-

            ‘‘यानि, त्रीणि बृहन्ति येषां चतुर्थं विनियुक्त वाचम्।’ – अथ. ८/९/३

            अर्थात् जो तीन (सत्व, रजस् तथा तमस्) हैं उनमें चैथा ब्रह्म वाक् नियुक्त कर देता है। यहां यह वाक् का अर्थ सामान्य नहीं होकर गूढ़ अर्थ है।

            ‘‘बाग्वै भर्गः।’’ -शतपथ १०/३/४/१०

            अर्थात् भर्ग (तेज) ही वाक् है, तब अर्थ हुआ कि वह परमात्मा तेजहीन इन तीनों को तेज युक्त कर देता है जगा देता है।

            ‘‘तस्मिन् प्रजापतौ सर्वाणि यानि त्रीणि’’ – अथर्व- १०/७/४०

            कहकर सत्व, रजस् तथा तमस् को परमात्मा की ज्योति रूप जड़ शक्तियां कहा है। इस तेज को ही ऋग्वेद में अग्नि नाम दिया है।

            ‘‘यस्मिन् देवा विदथे मादयन्ते’’ -ऋ. १०/१२/७

            ‘‘यस्मिन् देवा मन्मनि संचरन्ति’’ -ऋ. १०/१२/८

            अर्थात् विद्युद्रूपाग्नि के शक्तिशाली एवं सक्रिय होने पर ही सभी दिव्य शक्तियां गति और क्रिया का संचार करती हैं। इस विद्युद्रूपाग्नि को मानव कभी जान भी सके परन्तु उस ईश्वरीय तेज को कभी परीखित वा निरीक्षित नहीं किया जा सकेगा। यजुर्वेद में……………….

            ‘‘द्यौरासीत्पूर्वचिति’’……………२३/५४ का भाष्य करते हुये भगवान् दयानन्द कहते हैं कि विद्युत पहिला संचय है। ऋ. ४/१/११ में कहा- स जायत प्रथमः अर्थात् वह विद्युद्रूपाग्नि सर्वप्रथम उत्पन्न होता है ऐसा प्रतीत होता है कि कारणावस्था में परमात्मा द्वारा तेज प्रदान करने से मूल उपादान में क्षोभ उत्पन्न होता है जिससे तीन तीनों गुणों का अन्तर्निहित भाव उत्पन्न होता है आकर्षण, प्रतिकर्णण, प्रकाशशीलता, क्रियाशीलता, गुरूता, लघुता आदि सभी गुण अस्तित्व में आ जाते हैं अथवा जो अन्तर्मुखी थे वे बहिर्मुखी हो जाते हैं। यहां विद्युत् की उत्पत्ति संकेत है परन्तु वास्तव में विद्युत् की उत्पत्ति नहीं होती। वेद विद्युत को ‘प्रत्ना’ (ऋ. ६/६२/५) अर्थात् पुरातन मानता है। यजुर्वेद ३/१६ में भी महर्षि के भाष्य में इसे प्राचीन और अनादि कहा है। त बवह प्रथम अवस्था अव्यक्त होना मात्र है।

            प्रश्न यह हो सकता है कि सभी गुण अव्यत्त वा साम्य कैसे रहते हैं? यह अत्यन्त रहस्यमय तथ्य है कि जिसका उद्घाटन सम्भव प्रतीत मुझे तो नहीं होता। हां इतना भी कहूंगा कि वर्तमान विज्ञान भी व्यक्त ऊर्जा के भी स्वरूप को स्पष्ट नहीं कर सका है तब अव्यक्त को स्पष्ट कर देना क्यों कर सम्भव है? कोई बताये कि स्थितिज ऊर्जा के लिये कोई पिण्ड जब नीचे गिरने लगता है और उसकी स्थितिज ऊर्जा का गतिज ऊर्जा में परिवर्तन होता है। मान लें उस पिण्ड ने नीचे गिरकर किसी वस्तु को तोड़ दिया तब वह ऊर्जा कहां गयी? प्रोटोन तथा न्यूट्रोन की अधिकता वा न्रूवता से कोई वस्तु आवेशित हो जाती है। कोई बताये कि इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि में आवेश क्यों होता है आवेश का स्परूप क्या होता है, सर्वप्रथम इसे कौन उत्पन्न करता है, ये प्रश्न हैं जिनका समाधान नहीं हो सका है तब अव्यक्त को व्यक्त करवाना कैसे सम्भव है? आज तक इलेक्ट्रोन के स्वरूप को भी पूर्णतः जान नहीं पाये जबकि इसके प्रयोग से संसार में विराट् क्रान्ति खड़ी हो गयी तब मूलावस्था में गुणों की साम्यता का स्वरूप दर्शाना क्योंकर हो सकता है?

            कुछ विद्वानों की मान्यता है कि प्रकृति का प्रत्येक कण तीनों गुणों (सत्व, रजस् तथा तमस्) का युग्म है जिनके संयोग विशेष से धन ऋण वा उदासीन कण अस्तित्व में आते हैं। मेरे विचार से इस मान्यता का यह दोष होगा कि आवेश का युग्म अनादि नहीं हो सकता तब प्रकृति का अनादित्व असिद्ध होगा, जो अनेक प्रश्नों को जन्म देगा। इस कारण प्रत्येक कण को स्वतंन्त्र ही मानना होगा और उन्हीं कणों को सत्यार्थ प्रकाश में परमाणु कहा है। कोई यह कहे कि विद्युत् का प्रथम प्राकट्य कैसे होता है? तो इसका उत्तर यह है कि चेतन कत्र्ता के रहते तो यह होना सम्भव है परन्तु इसके बिना अवश्य ही असम्भव रहेगा। मैं तो यह पूछना चाहता हूँ कि प्रारम्भ में अत्युच्च ताप के अस्तित्व को कैसे सम्भव मानते हैं? यह अवस्था तो नियन्त्रक एवं नियामक सत्ता परमात्मा के सहाय से भी सम्भव नहीं। हां कुछ कालोपरान्त अवश्य सम्भव है। मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे विज्ञान उन्नत होगा वैदिक प्रक्रिया को अवश्य स्वीकार करेगा। अब इसके पश्चात्

            ‘‘प्रकृतेर्महान्……………………………’’-सां.द. १/२६

१.        शब्द तन्मात्रा:- इस तन्मात्रा से आकाश की उत्पत्ति मानी गयी है। शब्द तन्मात्रा शब्द ऊर्जा का सूक्ष्मतम रूप है जिसके स्वरूप का निर्धारण करना अति दुष्कर कार्य है। आकाश कोई पदार्थ विशेष न होकर शून्य वा अवकाश का ही नाम है। ऋषि दयानन्द जी का कहना है- ‘‘वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि बिना आकाश के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सकें’’ (सत्यार्थ प्रकाश-अष्टम समुल्लास)

भगवान कणादर्षि ने शब्द को आकाश का गुण बतलाया है। इस आधार पर अनेक विद्वान् आकाश को शून्य न मानकर पदार्थ विशेष मानते हुए कहते हैं कि गुण शून्य नहीं तो गुणी शून्य क्योंकर हो सकता है? मेरे विचार से वे कणाद ऋषि का आशय नहीं समझते । आचार्य ने शब्द को आकाश का गुण उस प्रकार सहज भाव से नहीं माना है जिस प्रकार अन्य गुण-गुणियों के सम्बन्ध दर्शाये हैं बल्कि अन्य किसी भी भूत का गुण सम्भव न मानकर आकाश के ही शेष रह जाने पर -‘‘परिशेषालिंगमा-काशास्य’’ वै. द. २/१/२७

            इसके आगे आचार्य ने आकाश का समवाय वा असमवाय कोई कारण नहीं माना और न ही आकाश के वायु आदि के समान परमाणु ही स्वीकार किये हैं।

            भगवत्कणाद ने काल, दिशा के समान आकाश को भी निष्क्रिय माना है। मेरे विचार से इन तीनों का व्यवहारार्थ ही उपयोग है। यह न किसी का उपादान है और न उसका कोई उपादान है। इसका मुख्य लिंग आचार्य लिखते हैं-

            ‘‘निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिंगम्।’’ – वै. द. २/१/२०

            अर्थात् निकलना, प्रवेश करना, इस प्रकार की क्रिया का सम्भव होना, आकाश का लिंग है। ऐसे ही गुण कुछ सर आलीवर लाज ने ईथर रूपी आकाश के बताये हैं परन्तु वे इसे पदार्थ विशेष मानते हैं साथ ही ईथर को सर्वव्यापक, प्रसार संकुचन से पूर्णतः रहित मानते हैं, जो उचित नहीं।

२.        स्पर्श तन्मात्रा:- स्मर्तव्य है कि आकाश शून्य है परन्तु शब्द तन्मात्रा शून्य नहीं है। ऐसा अनुमान होता है कि सर्वप्रथम उस तामस् प्रधान अहंकार में शब्द (नाद) उत्पन्न होता है। वैसे महत् अवस्था से ही गति का प्रादुर्भाव मानना होगा अन्यथा अहंकार की उत्पत्ति भी सम्भव न हो परन्तु वह गति क्षेत्रीय सम्पीडन, अक्षीयचक्रण वा कम्पन के रूप में ही हो सकती है।

वायु की भांति उन कणों का स्वेच्छया गति करना, उस समय (प्रारम्भ में) सम्भव नहीं इसी कारण ‘‘आकाशाद्वायुः’’ – तै. उप.

            अर्थात् आकाश से वायु उत्पन्न होता है अर्थात् नाद से हलचल उत्पन्न होना ही वायु का उत्पन्न होना है। कणों की हलचल के समय ही अवकाश उत्पन्न हो जाता है, वहीं आकाश कहलाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार की स्थिति में ही वायव्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है, और उसी स्थिति में विभिन्न कणों का निर्माण होता है। तथा हाईड्रोजन आयनों के निर्माण तक की प्रक्रिया तक की प्रक्रिया स्पर्श तन्मात्रा निर्माण के अन्तर्गत माना जा सकता है। ये सभी कण विशाल गैसीय मेघ के रूप में परिवर्तित हुये। तदुपरान्त-

३.        रूप तन्मात्रा:- सम्भवतः दृश्य प्रकाश के सूक्ष्मतम फोटोन को रूप तन्मात्रा कहते हैं। अब तक जो ऊर्जा थी, उसे अदृश्य तरंगो के रूप ही माना जा सकता है। स्थान-स्थान पर हाईड्रोजन आयनों के संलयन से नेब्यूलाओं को निर्माण होने लगा इसे ही ‘‘वायोरग्निः’’ – तै. उप. कहा। और भी

‘‘अग्निना अग्निः समिध्यते’’ – ऋ. १/१२/६

            अर्थात् विद्युद्रूपाग्नि से अग्नि प्रकट होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऊर्जा की उत्पत्ति का यह एक नया मार्ग खुल जाता है। जो अब तक जारी है। तब तक ऊर्जा का निरन्तर पतन हो रहा था अब इससे स्थायित्व वा वृद्धि का एक नया स्त्रोत खुल जाता है।

अर्थात् प्रकृति से महत् तत्व का निर्माण होता है इसी को भगवान मनु ने ‘मन’ कहा है। यह महत् तत्व सम्भवतः फोटोन, न्यूट्रिनों एवं ग्लूऑन से पूर्व की स्थिति हो क्योंकि साम्यावस्था भंग होने मात्र से ही महत् तत्व का निर्माण होता है इस कारण ये फोटोन आदि की पूर्वावस्था जिनमें उपर्युक्त सत्वादि गुण हों, होगी। इन तीनों को सात्विक, रजस् तथा तामस् महत् कह सकते हैं। तदुपरान्त- ‘‘महतोऽहंकारः’’ -सां. द. १/२६

            अर्थात् उस महत् तत्व तीन प्रकार का होता है विचारपूर्वक यह प्रतीत होता है कि फोटोन, न्यूट्रिनों तथा ग्लूऑन की स्थिति यहां बन जाती है सम्भव है एक्स वा गामा जैसी किरणों का निर्माण प्रथम होता है और इन्हीं के फोटोन प्रथम निर्मित होते हों। मेहता रिसर्च इन्सटीट्यूट प्रयाग में अन्तराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक डॉ. अशोक सेन का स्ट्रिंग सिद्धान्त यहां प्रारम्भ होता हो परन्तु यहां तक प्रकाश ऊष्मा तो है परन्तु दृश्य प्रकाश की उत्पत्ति अभी वैदिक विचारधारा से तो नहीं मानी जा सकती क्योंकि दृश्य प्रकाश-रूप तन्मात्रा का ही अपर नाम हो सकता है तथा इन से ही लेप्टानों विशेषकर इलेक्ट्रोन, पाजिट्रॉन को भी अहंकार के अन्तर्गत मान सकते हैं, की उत्पत्ति होती है। सात्विक अहंकार गौण तथा तामस की प्रधानता से क्वार्क आदि कणों का भी निर्माण होता है। पुनरपि क्वार्क आदि कणों को अहंकार के अन्तर्गत ही समाहित किया जायेगा। ‘ अहंकार शब्द का अर्थ है जो व्यक्त किया जा सके। अब से पूर्व यद्यपि अव्यक्त अवस्था कब की ही भंग हो गयी परन्तु ऐसी अवस्था जिसे विज्ञान वा बुद्धि द्वारा व्यक्त किया जा सके, वह अहंकार ही है।

            ऐसा प्रतीत होता है कि यहां तक उत्पन्न कण अपने प्रतिकणों से मिलकर अपार ऊर्जा पैदा करते हैं अथवा यह भी सम्भव है कि फोटोन आदि की अधिकता ही उस ऊर्जा का कारण हो जो भी हो मन का वह स्वरूप दृश्य नहीं होगा। इन्हीं प्रक्रियाओं के चलते तन्मात्राओं की उत्पत्ति भी होती जाती है-

            ‘‘अहंकारात् पंचतन्मात्राणि’’ – १/२६ सां. द.

            अर्थात् अहंकार से पांच तन्मात्रायें उत्पन्न होती हैं जिनमें से शब्द तन्मात्रा की उत्पत्ति अहंकार के प्रथम चरण में ही हो जाती प्रतीत होती है।

            प्रश्न यह है कि सूक्ष्म तन्मात्रा क्या होती है अथर्ववेद १/३३/१, ३ में सूक्ष्म तन्मात्राओं के गुण निम्न प्रकार दर्शाये हैं।

            (हिरण्यवर्णाः) अर्थात् व्यापनशील और कमनीय गुणों वाली (यासु सविता यासु अग्निः जातः) जिनमें सूर्य और पार्थिव अग्नि उत्पन्न हुई (याः) जिन (आपः अग्नि द्धिरे) तन्मात्राओं ने विद्युद्रूपाग्नि को गर्भ के सामन धारण किया है (यासां देवाः दिवि भक्षम्) जिन तन्मात्राओं का सब प्रकाशमय पदार्थ आकाश में भोजन करते हैं।

            इससे निम्न तथ्य उद्घाटित होते हैं-

१.  तन्मात्रायें सम्पूर्ण अवकाश रूपी आकाश में फैली रहती हैं।

२.  तन्मात्रायें कमनीय स्वरूप वाली अर्थात् आकर्षण-प्रतिकर्षण आदि बलों से युक्त होती हैं। फोटोन से लेकर नाभिक वा एटम वा आयन इन सबको तन्मात्रायें कह सकते हैं।

३.  सूर्य और पार्थिव अग्नि उनमें होती हैं अर्थात् इनके अन्दर ही नाभिकीय संलयन आदि क्रियाओं के होने से प्रकाशमय पदार्थों द्वारा तन्मात्राओं का भोजन करना लिखा है।

            ‘तन्मात्रा’ शब्द का अर्थ है- उतना सा, सूक्ष्म सा अर्थात् जिसका अपना कोई वैशिष्ट्य हो उसके और सूक्ष्म होने से समाप्त हो जाये। प्रतीत होता है कि भगवत्कणाद का परमाणु है।

            तन्मात्राओं के भेदः

            पंच तन्मात्राओं की उत्पत्ति क्रमशः होती है।

            तन्मात्राओं को प्रकाश में भक्षण करने की बात यही कि हाईड्रोजन का भक्षण हीलियम तथा ऊर्जा की उत्पत्ति होती है इसके उपरान्त ब्रह्माण्ड में अनेकत्र नेब्यूलाओं का निर्माण हो जाता है-

            ‘‘यद्देवा यतयो यथा भुवनान्यपिन्वत।

            अत्रा समुद्र आ गुढ़हमः सूर्यमाजभर्तन।’’ – ऋ. १०/७२/७

            अर्थात् जब दैवी शक्तियां मेघों की तरह लोकों को अपने परमाणुओं से पूरित करती हैं, तब आकाश में निगूढ़ सूर्य को चमका देते हैं। अन्यच-

            ‘‘प्रसीमादित्यो असृजद्विधंर्ता ऋतं सिन्धवो वरूणस्य यन्ति’’        -ऋ. २/२८/४

            अर्थात् सभी ओर विविध लोकों का धारक सूर्य (हिरण्यगर्भ) उदक, नदी और मेघों को प्राप्त होते हैं। यहां उदक, नदी तथा मेघ जल के नहीं बल्कि वह सूर्य ही आग का विशाल समुद्र होता है

 जिसमें अनेक आग्नेय धारायें होती है। अन्दर होने वाली प्रक्रिया के विषय में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय खगोलज्ञ डॉ. जयन्त विष्णु नार्लीकर का मानना है- हाईड्रोजन का संलयन होकर हीलियम के नाभिक पुनः कार्बन पुनः तारे के संकुचन से तारे के ताप में वृद्धि होकर कार्बन तथा हीलियम मिलकर ऑक्सीजन तथा अन्य तत्व नियॉन, सल्फर, नाईट्रोजन से लेकर लोहा आदि सभी तत्व बनते हैं-………………(विज्ञान, मानव और ब्रह्माण्ड, १९९९) इसी प्रक्रिया का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है-

            ‘‘तमिद्गर्भ प्रथमदध्र आपो यत्र देवा समगच्छन्त।।’’ – १०/८२/६

            अर्थात् उस विराट् में स्थित हिरण्यगर्भ को प्रकृति परमाणु पहिले धारण करते हैं जिसमें समस्त पदार्थ संगत होते हैं।

            इस प्रकार वर्तमान में कहे जाने वाले सभी तत्वों के परमाणुओं को निर्माण नेब्यूलाओं में होता रहता है। अब तक सम्पन्न प्रक्रिया में लाखों वर्ष लगते हैं।

            हम इस पर गम्भीरता से विचार करें तो प्रतीत होता है कि वर्तमान विज्ञान तथा वैदिक विचारधारा इस विषय में बहुत भिन्न नहीं है। हां वैदिक विचारधारा वर्तमान प्रचलित विज्ञान की विचारधारा से कुछ आगे है। जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति करेगा, उसे अपनी अवधारणायें परिवर्तित वा स्पष्ट करके वैदिक विचारधारा के अनुकूल आने को विवश होना होगा। अन्त में विषय के अधिकारी विद्वानों की सेवा विनम्र निवेदन है कि लेखक सिद्ध नहीं बल्कि साधक है। न्यूनतायें सम्भव हैं। विद्धान उनको दूर करने का ही यत्न करेंगे ऐसी आशा है।

                                                            प्रधान, आर्य समाज भीनमाल

                                                                                    जनपद-जालौर (राजस्थान) ३४३०२९