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क्षेपकों का दोष मनु के सिर नहीं: पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय

“हम आर्यसमाज के बाहर देखते हैं कि मनुस्मृति का खुल्लमखुल्ला अपमान किया जाता है। मनु को भेषज समझने के स्थान पर लोग विष समझते हैं। समस्त हिन्दू समाज के दुर्गुणों का कारण मनु को समझा जाता है। मनुस्मृतियाँ कई स्थानों पर सार्वजनिक रूप से जलाई गई हैं, जिससे मनु के लिए जो आदर के भाव लोगों में विद्यमान हैं, उनका सर्वनाश हो जाए। बहुत से लोग इसी बात में अपना गौरव समझते हैं कि मनु के प्रति घृणा उत्पन्न की जाए। इसका मुख्य कारण है कि वह विष जो समय-समय पर मनुस्मृति में क्षेपक के रूप में मिला दिया गया और जिसने मनु के उपदेशों को विषाक्त अन्न के समान बना दिया। स्त्री और शूद्रों के पददलित होने के कारण मनु को ही समझ लिया गया। जात-पाँत की बुराइयों का आधार मनु को समझा गया। इस प्रकार मनु को तिरस्कृत करने के अनेक कारण आ उपस्थित हुए। यद्यपि सच्ची बात यह थी कि जिन अविद्या आदि भ्रममूलक बुराइयों ने हिन्दूजाति पर आक्रमण किया, उन्होंने हिन्दू साहित्य और विशेषकर मनु पर भी आक्रमण किया है।

मनुस्मृति के क्षेपकों का दोष मनु के सिर नहीं है, अपितु इसके कारण वे अवैदिक प्रगतियाँ थीं, जिनका विष मनु में भी प्रविष्ट हो गया है।“ (सार्वदेशिक मासिक: अगस्त 1947 पृ0 259-60)।

जयपुर में स्थापित मनु प्रतिमा विषयक वाद-विवाद

मनुस्मृति विषयक आर्यसमाज तथा डॉ0 अम्बेडकर की भूमिकाओं के इस स्थूल अध्ययन के बाद एक नजर जयपुर उच्च न्यायालय में स्थापित उस मनु प्रतिमा पर भी डाल लेते हैं जिस कारण मनु, मनुस्मृति या मनुवाद विषयक चर्चा समाचार-पत्रों के माध्यम से और अधिक तीव्र स्वर में हुई है। घटना की पृष्ठभूमि निम्न प्रकार है –

2 मई 1987 को जयपुर उच्च न्यायालय के सन्निकट स्थिति चैक में तत्कालीन राष्ट्रपति आर0 वेंकटरमण के कर-कमलों से डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर की प्रतिमा का अनावरण हुआ। कहते हैं, यातायात में असुविधा होने के बहाने बहुत दिनों तक इस प्रतिमा को कोई समुचित स्थान ही नहीं मिल पाया था। तत्पश्चात् लगभग दो साल बाद जयपुर के प्रथम वर्ग के न्यायाधिकारी श्री पद्मकुमार जैन ने उच्च न्यायालय परिसर का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए मनु की प्रतिमा स्थापित करने का लिखित अनुरोध मुख्य न्यायाधीश श्री नरेन्द्र कासलीवालजी से 2 फरवरी 1989 को किया। उनकी सम्मति तथा कांग्रेस के महामन्त्री श्री राजकुमार काला और स्थानीय लाइंस क्लब की सहायता से 4 फुट ऊँची प्रतिमा बनवाई गई और उसे न्यायालय के सामने चबूतरे पर 28 जून, 1989 को स्थापित कर दिया गया।

उक्त समाचार के फैलते ही दलित समाज में प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने विविध संगठनों की सहायता से ’मनु ˗प्रतिमा हटाओ संघर्ष समिति‘ बनाई, जो श्री रामनाथ आर्य के नेतृत्व में क्रियाशील हुई थी। 10 जुलाई से प्रतिमा हटाओ आन्दोलन शुरु हुआ। इसी बीच श्री नरेन्द्र मोहन कासलीवाल सेवानिवृत्त हुए और उनके स्थान पर श्री मिलापचन्द जैन की नियुक्ति हुई। 28 जुलाई को जोधपुर में उच्च न्यायालय के 18 न्यायाधीशों की एक बैठक हुई, जिसमें निर्णय किया गया कि मनु के सन्दर्भ में किसी भी प्रकार का वाद-विवाद निर्माण न हो, अतः मनु की प्रतिमा ही हटा दी जाए। पर शासन द्वारा इस निर्णय के क्रियान्वित करने से पहले ही बजरंग दल के धमेन्द्र महाराज और सोमेन्द्र शर्मा ने न्यायालय में उक्त निर्णय के विरुद्ध स्थगन याचिका प्रस्तुत की, जिसे न्यायाधीश श्री सुरेशचन्द्र अग्रवाल ने दाखिल कर लिया, और कालान्तर में निर्णय देते हुए कहा-’इस समस्या का हल प्रशासनिक तौर पर किया जाना चाहिए। मनु के पीछे व्यापक जन-मानस है और विविध प्रकार की महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ हैं। इस केस में मनु प्रतिमा को यथावत् रखने के पक्ष में एडवोकेट श्री सी0 के0 गर्ग सक्रिय रहे तो ’मनु प्रतिमा हटाओ संघर्ष समिति‘ के वकील श्री भँवर बागड़ी थे। इसी बीच सौ वकीलों ने इस आशय का अर्ज दे दिया कि-मनु की प्रतिमा हटाने से मानवता का अपमान होगा। इस सन्दर्भ में आर्यसमाज नया बाँस, दिल्ली के श्री धर्मपाल आर्य, झज्जर-हरियाणा के प्रा0 डॉ0 श्री सुरेन्द्रकुमार और परोपकारिणी सभा-अजमेर के संयुक्त मंत्री प्रो0 डॉ0 धर्मवीर आदि ने मनु सम्मान को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए संरक्षणात्मक मोर्चे की भूमिका निभायी। मनु प्रतिष्ठा संघर्ष समिति ने आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित, डॉ0 सुरेन्द्रकुमार द्वारा लिखित अनुसंधनात्मक मनुस्मृति को न्यायालय में प्रस्तुत कर प्रतिमा को यथावत् बनाये रखने के लिए स्थगनादेश प्राप्त कर लिया।

उपरोक्त घटना के 11 साल बाद लगा कि यह मसला अब शान्त हो गया है, पर महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकत्र्ता डॉ0 बाबा आढ़ाव ने महाड़ से जयपुर तक ’मनु प्रतिमा हटाओ यात्रा‘ निकाली, जो 26 जनवरी 2000 को महाड़ (महाराष्ट्र) से चली और 25 मार्च को जयपुर पहुँची। जयपुर के डॉ0 अम्बेडकर चैक पर धरना देते हुए इन्होंने नारा दिया-’मनुवाद मिटाओ, मनु प्रतिमा हटाओ, अम्बेडकर प्रतिमा लगाओ‘ इसी बीच श्री शरद पंवार के सहयोग से महाराष्ट्र से चुनकर आये रिपब्लिकन पार्टी के संसद सदस्य श्री रामदास आठवले के नेतृत्व में एक यात्रा दिनांक 8 मार्च 2000 की उक्त माँग को लेकर ही निकाली गई थी, जिसने राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री को मनु प्रतिमा हटाने के पक्ष में ज्ञापन दिया।

प्रतिमाओं को हटाने और बिठाने के पक्ष में कोई भी नेतृत्व जितनी आसानी और उत्साह से भीड़ इकट्ठी कर लेता है। उतनी आसानी और उत्साह से उस भीड़ को वह शास्त्राध्ययन की दिशा में उन्मुख नहीं कर पाता। निष्पक्ष, दलविहीन, स्वार्थी राजनीति से ऊपर उठकर तलस्पर्शी अध्ययन के माध्यम से उस भीड़ को समस्या की गहराई में जाने की प्रेरणा नहीं दी जाती। स्वार्थी राजनीति ने हर मुख्य सवाल को गौण और हर गौण समस्या को मुख्य बना दिया है। हिन्दी साहित्यकार अज्ञेयजी के शब्दों में-‘आत्मा का तेज हमें सहन नहीं होता, अस्थियों के लिए हम मंजुषाएँ बनाते हैं।‘ (गद्य के विविध रंग-पृष्ठ 117: सम्पादक-दूधनाथसिंह)।

डॉ0 मदनमोहन जावलिया के अनुसार-‘धर्मशास्त्रकार, विधि प्रणेता तथा वेदानुमोदित स्मृति प्रदाता महर्षि मनु पर पंक उछालनेवाले लोग राजनीति, आंबेडकरवादी बौद्ध मत और न ही दलितों का कोई भला कर रहे हैं। मनु की मूर्ति हटाने एवं उसके स्थान पर अम्बेडकर की मूर्ति लगाने की माँग हठधर्मिता एवं अलोकतान्त्रिकता की परिचायक है। न्यायालय में मनु ही क्या राम-कृष्ण, शंकराचार्य-बुद्ध, महावीर, अम्बेडकर की भी मूर्तियाँ लगें। पर खेद है कि दलितों के नाम से निर्मित दलों एवं राजनीतिक दलों ने ’दलित वोट बैंक‘ को हथियाने के लोभ में सवर्ण-हिन्दुओं को अपमानित करने का कुचक्र रचा है, जिसमें प्रत्यक्ष-परोक्षरूप से साम्यवादी तथा मुस्लिम संगठन भी शामिल हो गये हैं। हमारी दृष्टि में राजनीतिक व्यूह रचकर भोले-निर्धन हिन्दुओं और तथाकथित दलितों को बहकाने का मार्ग त्यागकर इन तथाकथित दलित नेताओं को शुद्ध हृदय से विशुद्ध मनुस्मृति का अध्ययन करना चाहिए। स्थान-स्थान पर मूर्तियों के अम्बार लगाने की अपेक्षा उस शक्ति को शास्त्राध्ययन की परिपाटी में लगाना ज्यादा जरूरी है। राजनीति के नाम पर अराजकता पूर्ण नीति से पृथक् होना अत्यावश्यक है।‘ (लेख-राजर्षि मनु, मनुस्मृति और मनु की प्रतिमा: आर्यजगत्-साप्ताहिक: 21 मई 2000, पृष्ठ-5)।

महाराष्ट्र के महाड़ से राजस्थान के जयपुर तक की 1600 किलोमीटर अन्तर की ’मनु प्रतिमा हटाओ यात्रा‘ निकालनेवाले डॉ0 बाबा आढ़ाव ने अपने आक्रोश भरे तेवर में यह प्रतिप्रश्न उपस्थित किया है कि-स्त्रियों तथा शूद्रातिशूद्रों से मनुस्मृति पढ़े जाने संबंधी धृष्टतापूर्वक सवाल भला पूछे ही कैसे जाते हैं ?‘ (पुरोगामी सत्यशोधक: त्रैमासिक-अक्टूबर से मार्च 2000 तक की संयुक्त अंक-पृष्ठ 45)। डॉ0 आढ़ाव का उक्त कथन वर्तमान सन्दर्भ में ठीक नहीं लगता। जब महात्मा फुले और स्वामी दयानन्द के प्रयत्नों से अध्ययन-अध्यापन के दरवाजे स्त्री शूद्रों के लिए भी खुल गये हैं, तब पठन-पाठन की परम्परा की संप्रति क्यों न प्रोत्साहित किया जाए? डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर के अनुयायी हों, या आर्यसमाज के अथवा अन्य किसी संगठन के सभी लोगों द्वारा शास्त्राध्ययन की परम्परा को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। तभी वैचारिक मतभेद रखते हुए भी वाद-विवाद के स्थान पर वाद-संवाद की स्थिति बन सकती है। कम-से-कम जिन मुद्दों पर हम सहमत हैं, उन पर  तो कदम-से-कदम मिलाकर प्रगति की दिशा में एक साथ आगे बढ़ सकते हैं। एक और एक दो नहीं, अपितु ग्यारह बनकर समाज-सुधार के रथ और दलितोद्धार के चक्र को और अधिक गति देने में समर्थ हो सकते हैं।

मतभेद होते हुए भी जब हमारे प्रेरणास्रोत महात्मा फुले और स्वामी दयानन्द पुणे में एक-दूसरे को सहयोग करते हुए दिखलाई देते हैं, जब उनमें भाईचारा था, एक-दूसरे को समझने की तैयारी थी तो हम अनुयायियों में भी वह सहयोग भावना क्यों न हो ? स्वामी दयानन्द 16 जुलाई 1875 को महात्मा फुलेजी के जुनागंज पेठ स्थित शूद्रातिशूद्रों के स्कूल में वेदोपदेश दे रहे हैं, तो महात्मा फुले बुधवार पेठ और छावनी में जाकर स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रवचन सुन रहे हैं। 5 सितम्बर 1875 को पुणे में जब स्वामी दयानन्द सरस्वती की विदाई के उपलक्ष्य में शोभा यात्रा निकाली जा रही थी, तो प्रतिगामी शक्तियाँ किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाएँ, इसलिए महात्मा फुले अपने अखाड़े के नौजवान अनुयायियों के साथ सिर हथेली पर लेकर चल रहे हैं। आखिर डॉ0 अम्बेडकर भी आर्यसमाज को उदारमतवाद की घुट्टी पिलानेवाली संस्था मानते थे। पुणे में डॉ0 अम्बेडकर की प्रेरणा से संचालित ’पार्वती मन्दिर प्रवेश सत्याग्रह‘ में आर्यसमाज के स्वामी योगानन्दजी 13 अक्टूबर 1929 को रूढ़िवादियों के प्रहार से क्षति-विक्षत होना पसन्द करते हैं, पर आन्दोलन से विमुख नहीं होते (बहिष्कृत भारत-साप्ताहिक 15 नवम्बर 1929, पृष्ठ 10)।

सुप्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री आर्यसमाजी संस्कारों में पालित-पोषित थे। उनके पिताजी अपने समय में ’नमस्तेजी‘ के नाम से प्रसिद्ध रहे। चतुरसेन शास्त्री ने ’अम्बपालिका‘, ’प्रबुद्ध‘, ’भिक्षुराज‘ जैसी बौद्ध कहानियाँ लिखीं और बुद्धकालीन इतिहास रस प्रस्तुत करने वाला ’वैशाली की नगर वधू‘ जैसा बौद्ध उपन्यास लिखा। काशी के सुप्रसिद्ध लेखक श्री शिवप्रसाद गुप्त ने भगवान बुद्ध की जीवनी और उपदेश में उस समय का वर्णन किया है, जब एक ही घर में ब्राह्मण और बौद्ध रहा करते थे। (पृष्ठ-8)। महात्मा फुलेजी ने भी ’सार्वजनिक सत्य धर्म‘ पुस्तक में ऐसे घर की कल्पना की है, जिसमें एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग साम्प्रदायिक विचारधारा के होते हुए भी सद्भाव-समन्वय और भाईचारे से रह रहे हैं। भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने कभी सोचा था ’आर्यसमाज के निराकार ईश्वर और बुद्ध को साथ-साथ रखूँ (जिनका मैं कृतज्ञ: राहुल सांकृत्यायान-पृष्ठ 164) प्रा0 राजेन्द्रजी जिज्ञासु ने समाज में भाईचारे की प्राथमिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कभी लिखा था, ’उलझन भरी दार्शनिक विषयों को सुलझाने का काम हमें अपने-अपने क्षेत्र के विद्वान् बाबाओं पर छोड़ देना चाहिए।‘ मुख्य उद्देश्य तो हर हाल में आपसी स्नेहभाव, शान्ति और भाईचारे को बनाये रखना ही होना चाहिए। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती लिखते हैं-”जब तक वादी-प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद वा लेखन न किया जाए, तब तक सत्य-असत्य का निश्चय नहीं हो सकता। जब विद्वान् लोगों मं सत्यासत्य का निश्चय नहीं होता, तभी अविद्वानों को महा अन्धकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है, इसलिए सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ, मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति के मुख्य काम हैं, यदि ऐसा न हो तो मनुष्यों की उन्नति कभी न हो।“ (सत्यार्थप्रकाश: सम्पादक-युधिष्ठिर मीमांसक: द्वादश समुल्लास: पृष्ठ 607-8)।

इस प्रकार के संवाद हेतु वातावरण उत्पन्न करने के लिए सामाजिक सौहार्द अत्यावश्यक है, अतः यह आशा की जाती है कि सामाजिक सौहार्द को और अधिक व्यापक बनाने में समाज-सुधार और प्रगतिशीलता में आस्था रखनेवाले स्वामी दयानन्द और डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर के अनुयायी मिल-जुलकर अपना-अपना योगदान देंगे। तभी शब्द, वेद प्रामाण्यवाद, विषमता के विविध रूप, मनुस्मृति, पुनर्जन्म, आरक्षण, आस्तिकता जैसे गहन विषयों पर सुसंवाद और अंतिम निर्णय होना सम्भव है।

मनुस्मृति के सन्दर्भ में डॉ भीमराव अम्बेडकर और आर्यसमाज

माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने मनुस्मृति का कटु विरोध क्यों किया ? इस प्रश्न को गहराई से समझने के लिए उन अपमान जनक घटनाओं पर भी ध्यान देना होगा, जो अस्पृश्य समाज को स्पृश्य समाज की ओर से समय-समय पर सहन करनी पड़ीं। उदाहरण के तौर पर सन् 1927 के अन्त में मनुस्मृति जलाई गई, उसी वर्ष के मार्च महीने में महाराष्ट्र के ’महाड़‘ (जिला-रायगढ़) नामक स्थान पर डॉ0 अम्बेडकरजी के नेतृत्व में एक तालाब पर सामूहिक रूप में पानी पीने का साहसी सत्याग्रह किया गया। परिणामस्वरूप रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज क्षुब्ध हो उठा। ’ज्ञानप्रकाश‘ समाचार पत्र के 27/3/1927 के अंक में दिये गये समाचार के अनुसार 21 मार्च 1927 को वह तालाब तथाकथित वेदोक्त विधि से शुद्ध किया गया। उसी समय सवर्ण समाज द्वारा अस्पृश्य समाज की प्रतिशोधात्मक भावना से मारपीट भी की गई। व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में अनुभूत इस प्रकार की घटनाओं से डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर अतिशय दुःखी थे। उन्हें इस बात का दुःख था कि अस्पृश्य समाज को एक सामान्य मनुष्य के नाते जो जीवन जीने का मौलिक अधिकार मिलना चाहिए, वह भी उसे मिला नहीं है।

 

डॉ0 अम्बेडकरजी की यह धारणा बनी कि समाज में प्रचलित विषमतायुक्त धारणाओं की पृष्ठभूमि में ’मनुस्मृति‘ है, अतः उन्होंने 24 दिसम्बर 1927 को महाड़ सत्याग्रह परिषद के अवसर पर रात 9 बजे प्रतीकात्मक रूप में मनुस्मृति जलवाई थी। मनुस्मृति चातुर्वण्र्य के सिद्धान्त का समर्थन करती है और डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार जन्मना चातुर्वण्र्य का सिद्धान्त विषमता की नींव पर आधारित है, इसलिए उन्होंने ’असमानता‘ का समर्थन करनेवाली मनुस्मृति के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए उसे जलवाना आवश्यक समझा।

तत्पश्चात् आठ वर्ष की कालावधि में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं क डॉ0 अम्बेडकरजी ने विवश होकर धर्मान्तर की घोषणा कर दी। नासिक (महाराष्ट्र) के जिस कालाराम मन्दिर में स्वामी दयानन्द सरस्वती के दिसम्बर 1874 में व्याख्यान हुए थे, उसी कालाराम मन्दिर में प्रवेश पाने के लिए माननीय डॉ0 अम्बेडकर के मार्गदर्शन में 3 मार्च 1930 से अक्टूबर 1934 तक लगभग 6 साल सत्याग्रह किया गया, फिर भी अस्पृश्य समाज को मन्दिर में प्रवेश नहीं मिल पाया। डॉ0 अम्बेडकरजी ने नासिक जिले के ही येवला नगर में जो धर्मान्तर करने की घोषणा की, उसकी पृष्ठभूमि में भी 6 साल तक चली कालाराम मन्दिर की सत्याग्रह की घटना रही है। 13 अक्टूबर 1935 को येवला में दिये अपने भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने घोषणा की कि-’मैं हिन्दू के रूप में जन्मा जरूर हूँ, पर हिन्दू के रूप में मरूँगा नहीं।

सामान्य और भक्त कोटि के अनुयायियों को ध्यान में रखकर तो यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि डॉ0 अम्बेडकर ने मनुस्मृति का विरोध किया, अतः आज उनके अनुयायी भी मनुस्मृति का विरोध कर रहे हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे स्वामी दयानन्द ने वेदानुकूल मनुस्मृति का समर्थन किया तो उनके आर्यसमाजी अनुयायी भी ˗प्रक्षिप्त श्लोक विरहित विशुद्ध मनुस्मृति का समर्थन करते हुए दिखलाई देते हैं। अनुयायियों का मत अनुयायितव पर आधारित होता है। ज्ञान की गहराई में बैठकर अपने मत को नेता के वैचारिक निष्कर्ष तक या उससे और आगे ले जाना सामान्य सामथ्र्यवाले व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है, इसलिए आठ प्रमाणों में से एक प्रमाण आप्त प्रमाण की शरण लेनी पड़ती है। दोनों भी समाज सुधारकों के अनुयायी सैद्धान्तिक तौर पर जन्मना वर्ण व्यवस्था, जातिगत भेद-भाव और अस्पृश्यता के विरोधी हैं। दोनों भी पक्षों को अपने-अपने ढंग से कार्य करते हुए क्या-क्या हानि-लाभ हुआ ? इन सब तथ्यों का विश्लेषण तो एक स्वतन्त्र पुस्तक का विषय होगा। आर्यसमाज के मनुस्मृति विषयक दृष्टिकोण को पौराणिक रूढ़िवादी प्रवृत्ति का आम हिन्दू आज भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

समाज-सुधार के पथ पर चलना वस्तुतः एक तपस्या है। हम अपने नेताओं की जय-जयकार तो करने के लिए तैयार है, पर उनके तपोमय संघर्षशील पथ का अनुसरण करने के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि हम सुख-सुविधा भोगी हैं। जय लगाना तो आसान है, पर सिद्धान्तों को व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में उतार पाना बड़ा कठिन है। सामान्य समाज तो एकदम नहीं, धीरे-धीरे बदलता है। जो द्विज वेदाध्ययन हेतु परिश्रम के लिए तैयार नहीं है, वह शूद्रत्व को प्राप्त होता है। मनु के इस वचन (2.1.43) को स्वामी दयानन्द ने भी उद्धृत किया है। स्वामीजी ने संस्कारविधि के सामान्य प्रकरण में लिखा है –

”सब संस्कारों में मधुर स्वर से वैदिक मन्त्रोच्चारण यजमान ही करे, न शीघ्र, न विलम्ब से उच्चारण करे, किन्तु मध्यभाग जैसा कि जिस वेद का उच्चारण है, करे। यदि यजमान न पढ़ा हो तो इतने (‘ईश्वर स्तुति, प्रार्थना, उपासना’, ’स्वस्तिवाचन‘, ’शांतिकरण‘ और ’हवन‘ के) मन्त्र तो अवश्य पढ़ लेवे। यदि कोई कार्यकत्र्ता, जड़, मंदमति, काला अक्षर भैंस बराबर जानता हो, तो वह शूद्र है, अर्थात् शूद्र मन्त्रोच्चारण में असमर्थ हो तो पुरोहित और ऋत्विज मन्त्रोच्चारण करे और कर्म उसी मूढ़ यजमान के हाथ से करावे।“(-सत्यार्थप्रकाश: सम्पादक-युधिष्ठिर मीमांसक-पृ0 37)

स्वामीजी के उपरोक्त कथन का सार यह है कि ’संस्कारविधि‘ के सामान्य प्रकरण में निर्दिष्ट और संग्रहीत चारों वेदों से चुने हुए मन्त्रों का जो सामान्य पाठ नहीं कर सकता, वह शूद्र है। स्वामीजी की इस कसौटी पर आर्यसमाज के सदस्यों को कसा जाए तो अनेक आर्यसमाजियों की गणना तो शूद्र कोटि में ही करनी होगी। आर्यसमाज में चारों वेदों के सस्वर मन्त्रोच्चारण करनेवाले बड़ी मुश्किल से हाथ की उंगली पर गिने जाने योग्य कुछ विरले ही वेदपाठी होंगे।

आर्यसमाज के संस्थापक के उदात्त सपनों को साकार करने के सम्बन्ध में आर्यसमाज के सदस्यों का कद भी बौना साबित हो रहा है। व्यक्तित्व के बौने होने पर भी प्रगति की दिशा में अग्रसर होने के लिए ध्येय का उदात्त होना बहुत जरूरी है, उसे बौना करने की आवश्यकता नहीं है। जब आर्यसमाजी ही वैदिक सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने में असमर्थ साबित हो रहा है, तो आम हिन्दू या सामान्य व्यक्ति द्वारा आर्यसमाज की मान्यताओं को स्वीकार करने की बात तो अभी कोसों दूर है। हाँ, कुछ सीमा तक आर्यसमाज की बात को हिन्दुओं ने ही नहीं, अपितु समाज के अन्य मत मतान्तर के लोगों ने भी निश्चित रूप से स्वीकार किया है।

लगभग एक दशक से राजनीति में ’मनुवाद‘ शब्द बहुत अधिक ˗प्रचलित हुआ है। राजनीति में जिन्होंने इसका ˗प्रचलन किया है। वे मनुवाद को प्रगतिशीलता के अर्थ में नहीं, अपितु ˗प्रतिगामीपन के पक्ष में प्रचलित करने में जुटे हुए हैं। जो यह मानकर चलते हैं कि मनुस्मृति में प्रक्षिप्त हुआ है, वे प्रक्षिप्त भाग को छोड़कर मनुस्मृति स्वीकार करने योग्य मानते हैं और मनुवाद का अर्थ ˗प्रगतिशीलता के पक्ष में ग्रहण करते हैं। उनके अनुसार मनु महाराज की दृष्टि में वर्ण-व्यवस्था जन्मना नहीं, अपितु गुण कर्म-स्वभाव के अनुसार है। महिलाओं के साथ शूद्रों की भी शिक्षा और मान-सम्मान के मनु पक्षधर हैं। आर्यसमाज के क्षेत्र में मनुवाद का अर्थ प्रगतिशीलता ही है।

मनु समर्थक पक्ष

24 जुलाई, 1875 को महाराष्ट्र की विद्यानगरी पुणे में इतिहास विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कहा था-’अब मनुजी का धर्मशास्त्र कौन-सी स्थिति में है, इसका विचार करना चाहिए। जैसे-ग्वाले लोग दूध में पानी डालकर उस दूध को बढ़ाते हैं और मोल लेनेवाले को फँसाते हैं। उसी प्रकार मानव धर्मशास्त्र की अवस्था हुई है। उसमें बहुत से दुष्ट क्षेपक (˗प्रक्षिप्त) श्लोक हैं, वे वस्तुतः भगवान् मनु के नहीं हैं। मनुस्मृति की पद्धति से मिलाकर देखने से वे श्लोक सर्वथैव अयोग्य दिखते हैं। मनु सदृश श्रेष्ठ पुरुष के ग्रन्थ में अपने स्वार्थ साधन के लिए चाहे जैसे वचनों को डालना बिलकुल नीचता दिखलाना है।˗‘ (उपदेश मंजरी, सम्पादक, राजवीर शास्त्री: पृष्ठ-57)। स्वामीजी के इस वक्तव्य की व्याख्या करते हुए पं0 गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने लिखा है कि ’पानी अगर गंदला है तो उसके छानने का उपाय सोचना चाहिए। गंदलेपन को देखकर पानी से असहयोग करना तो मूर्खता होगी। विद्वानों को चाहिए कि अपने ग्रन्थों को शोधें, क्षेपकों को दूर करें, और जनता को फिर मनुरूपी भेषज (औषधि) से लाभ उठाने का अवसर देवें। (सार्वदेशिक: अगस्त-1948 पृष्ठ 259-60)।

डॉ0 सोमदेव शास्त्री के अनुसार-’श्री मेधातिथि (नौंवी शताब्दी) की टीका से कुल्लूक भट्ट (बारहवीं शताब्दी) की टीमा में 170 श्लोक अधिक हैं। तीन सौ वर्षों के समय में इन श्लोकों की मिलावट हो गई है। श्री मेधातिथि के समय पाँच सौ पाठभेद तथा श्री कुल्लूक भट्ट के समय के 650 पाठभेदों से ज्ञात होता है कि मनुस्मृति में समय-समय पर प्रक्षेप होता रहा है।‘ (स्मृति सन्देश: पृष्ठ-7)। पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय के अनुसार कुछ श्लोक मेधातिथि और कुल्लूक भट्ट आदि के भाष्यों में नहीं हैं, पर वर्तमान मनुस्मृति में हैं। (मनुस्मृति: भूमिका और अनुवाद-पृष्ठ 24)।

मनुस्मृति आदि ग्रन्थों की तुलना में वेदों की प्रामाणिकता स्वामी दयानन्द की दृष्टि में सर्वोपरि थी। मनुस्मृति का प्रक्षिप्त भाग छोड़ने के बाद जो विशुद्ध वेदानुकूल भाग शेष रह जाता है, उसे ही उन्होंने प्रमाण योग्य माना है। स्वलिखित ग्रन्थों में उन्होंने मनुस्मृति के 514 श्लोकों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है। महर्षि दयानन्द का अनुसरण करते हुए आर्य विद्वानों ने भी अपनी-अपनी समालोचनाओं के साथ मनुस्मृति के अनेक संस्करण प्रकाशित किये-पं0 भीमसेन शर्मा, पं0 आर्यमुनि, स्वामी दर्शनानन्द, पं0 हरिश्चन्द्र विद्यालंकार ने क्रमशः ’मानव धर्म शास्त्रम्‘ (1893-99) मानवाय्र्य भाष्य (1914) ’मनुस्मृति‘ (द्वितीय संस्करण-1959) ’मनुस्मृति भाषानुवाद‘ (?) आदि टीकात्मक ग्रन्थों की रचना की। श्री जगन्नाथदास, महात्मा हंसराज, महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), डॉ0 सोमदेव शास्त्री आदि ने छात्रों एवं सामान्य जनता की दृष्टि में ’मानव-धर्म-विचार‘ (1883) ’मानव-धर्म-सार‘ (1890) ’वेदानुकूल संक्षिप्त मनुस्मृति‘ (1911) ’स्मृति सन्देश‘ (1996) आदि मनुस्मृति के संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित किये। पं0 बुद्धदेवजी विद्यालंकार, महात्मा मुंशीरामजी, पं0 जगदेव सिंहजी सिद्धान्ती, पं0 भगवद्दत्त रिसर्च स्कासॉलर तथा डॉ0 सुरेन्द कुमार जी ने मनुस्मृति से सम्बन्धित मनु और मांस (1916) ’मानव धर्म शास्त्र तथा शासन पद्धतियाँ‘ (1917) ’मनु को स्वीकार करना होगा‘ (1951) ’मनुष्य मात्र का परम मित्र स्वायम्भुव मनु‘ (1962) तथा ’मनु का विरोध क्यों‘ (1995) और ’महर्षि मनु तथा डॉ0 अम्बेडकर‘ ( ) नामक रचनाएँ लिखीं।

 

मनुस्मृति में से प्रक्षिप्त श्लोकों को छाँटने का उल्लेखनीय कार्य पं0 तुलसीराम स्वामी, पं0 चन्द्रमणि विद्यालंकार, पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय, पं0 सत्यकाम सिद्धान्त शास्त्री और डॉ0 सुरेन्द्र कुमारजी ने क्रमशः ’मनुस्मृति भाष्य‘ (1908’1922) ’आर्ष मनुस्मृति‘ (1917) ’मनुस्मृतिः भूमिका और भाष्य‘ (1937) वैदिक मनुस्मृति (1948) और ’सम्पूर्ण मनुस्मृति‘ (1981) के माध्यम से किया। डॉ0 सुरेन्द्रकुमार ने ’सम्पूर्ण मनुस्मृति‘ में प्रक्षिप्त श्लोकों को विशेष चिह्न के साथ प्रकाशित किया है और ’विशुद्ध मनुस्मृति‘ (1981) में प्रक्षिप्त समझे गये श्लोकों को प्रकाशित करना ही आवश्यक समझा है। उनके द्वारा सम्पादित ’मनुस्मृति‘ (संस्करण 1995) के अनुसार मनुस्मृति के कुल श्लोकों की संख्या 2685 है, इनमें मौलिक श्लोक 1214 और ˗प्रक्षिप्त श्लोक 1471 हैं। उन्होंने विषय विरोध, प्रसंग विरोध, अन्तर् (परस्पर) विरोध, पुनरुक्तियाँ, शैली विरोध, अवान्तर विरोध, वेद विरोध नामक सात आधारों पर 1471 श्लोकों को स˗प्रमाण प्रक्षिप्त सिद्ध किया है। डॉ0 भवानीलाल भारतीय के अनुसार मनुस्मृति के विस्तृत भाष्य में डॉ0 सुरेन्द्रकुमारजी ने प्रक्षिप्त श्लोकों को पृथक् करने के लिए विशिष्ट तार्किक प्रक्रिया को अपनाया है। डॉ0 सोमदेव शास्त्री के शब्दों में ’मनुस्मृति‘ का तलस्पर्शी अध्ययन करनेवाले डॉ0 सुरेन्द्रकुमार ने अपनी अद्भुत प्रतिभा से उसमें विद्यमान प्रक्षिप्त श्लोकों को पृथक् करके मनुस्मृति का यथार्थ स्वरूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का श्लांघनीय कार्य किया है। पं0 राजवीर शास्त्री की दृष्टि में-’यदि मनुस्मृति में से प्रक्षिप्त निकालने का कार्य महूष के भक्त आर्यों के द्वारा पहले से सम्पन्न हो जाता तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश का संविधान बनानेवाले डॉ0 अम्बेडकर जैसे व्यक्तियों को भी इस ग्रन्थ के प्रति अपनी मिथ्या धारणा को अवश्य ही बदलना पड़ता। इस उपेक्षावृत्ति के लिए हम आर्यबंधु भी कम दोषी नहीं है।‘ (विशुद्ध मनुस्मृति: आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली: 26 दिसम्बर, 1871: पृष्ठ-3-7)।

 

मनु विरोधी पक्ष

माननीय डॉ0 अम्बेडकर ने गौतम बुद्ध, संत कबीर और महात्मा फुले की त्रिमूर्ति का शिष्यत्व स्वीकार कर उन्हें अपना गुरु माना है। फुलेजी ने अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर मनुस्मृति का विरोध किया है। वे अपने ’तृतीय रत्न‘ (लेखनकाल सन् 1855 तथा प्रकाशन काल 1879) नाटक में रूढ़िवादी ब्राह्मणों पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं-’आपके ही पूर्वज मनु के कानून दिखाकर हमें यह कहते रहे कि आप लोगों को पढ़ने का अधिकार नहीं है, फिर क्या वे लोग मनु का कानून तोड़कर अपने बच्चों को स्कूल भेजते ? तब आप लोगों ने उन्हें पढ़ने नहीं दिया, अब उन्हीं के वंशजों में ऐसे लोग उत्पन्न हो रहे हैं, जो मनु के कानून की उपेक्षा करने के लिए कटिबद्ध हो गये हैं। (महात्मा फुले समग्र वाड्.मय-पृ0 28)। महात्मा फुलेजी का दूसरा ग्रन्थ हैं-’गुलामगिरी‘ (1873) इसमें ’ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्‘ मन्त्र पर फुलेजी ने अपनी ग्राम्य शैली में व्यंग्य किया है। वे लिखते हैं कि ब्राह्मण को जन्म देनेवाला ब्रह्मा का मुख ऋतु (आर्तव) काल में चार दिन अलग-थलग बैठता था या भस्म लगाकर घर के काम-काज करता था, इस विषय में मनु ने कुछ लिखा है या नहीं। (तत्रैव-पृ0 142)।‘ ’शेतकर्याचा आसूड‘ (अर्थात्-किसान का चाबुक) (1883) नामक ग्रन्थ में महात्मा फुलेजी ने लिखा है-ब्राह्मणों ने मनु संहिता जैसा मतलबी ग्रन्थ लिखकर शूद्र किसानों के विद्याध्ययन पर प्रतिबन्ध लगाकर उन्हें लूटा है। (तत्रैव-पृष्ठ 265)। इसी प्रकार अपने ’सत्सार‘ (1885) नामक ग्रन्थ में तो उन्होंने यह प्रतिपादित करने की कोशिश की है कि ’मनुस्मृति‘ ने शूद्रातिशूद्रों का किस प्रकार सर्वनाश किया है ? (तत्रैव-354)। अपने अन्तिम ग्रन्थ ’सार्वजनिक सत्य धर्म‘ (1891) में वे लिखते हैं-”यदि शूद्रातिशूद्रों ने भट्ट ब्राह्मणों के साथ मनुसंहिता के समान उसी प्रकार का नीचतापूर्ण व्यवहार करना शुरु कर दिया, जैसा वे आज तक उनके साथ करते  आये हैं, तो उन्हें कैसा प्रतीत होगा ?“ (तत्रैव-451)।

महात्मा फुलेजी की शैली में ही डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी ने अपने ’मनु एण्ड द शूद्राज‘ लेख के अन्त में लिखा है कि ’ब्राह्मण को शूद्र के स्थान पर बिठलाया जाएगा, तभी मनुप्रणीत निर्लज्ज तथा विकृत मानवधर्म का निवारण हो सकता है।‘ (राइटिंग्ज एण्ड स्पीचेस ऑफ डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर-पृ0 719)। ‘रिडलस इन हिन्दूइज्म‘ के तृतीय खण्ड का ’ मॉडल ऑफ द हाउस‘ नामक प्रकरण मनुस्मृति पर आधारित है। उसमें डॉ0 अम्बेडकर लिखते हैं, ’मनु प्रणीत वर्ण व्यवस्था में विद्रोह करने का अधिकार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को है, शूद्र को नहीं, किन्तु समझ लो यदि क्षत्रिय शस्त्रों की सहायता से इस व्यवस्था को मिटाने क लिए विद्रोह करने के वास्ते खड़ा हो जाए तो उन्हें दण्डित करने के लिए मनु ने ब्राह्मण को शस्त्र उठाने की अनुमति दी है। वर्ण-व्यवस्था को अबाधित रखने के लिए मनु ने अपनी मूलभूत नीति में परिवर्तन किया है, अर्थात् ब्राह्मण को शस्त्र ग्रहण करने की अनुमति देने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई है। मनु प्रणीत वर्ण-व्यवस्था से त्रिवर्ण ही लाभान्वित है। उससे शूद्र को कोई लाभ नहीं। त्रिवर्णों में भी ब्राह्मण सर्वाधिक लाभान्वित है। डॉ0 अम्बेडकर की दृष्टि में मनु पक्षपाती हैं, अतः विषमता फैलानेवाली मनुस्मृति का विरोध वे अत्यावश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य भी मानते हैं।‘

दलितोद्धार में दयानन्द के देवदूतों और आर्यसमाज के स्वयंसेवकों की भूमिका

दलितोद्धार में दयानन्द के देवदूतों और आर्यसमाज के स्वयंसेवकों की भूमिका

चाँद (अछूत-विशेषांक में अभिव्यक्त दलितों की व्यथा-कथा के आधार पर

श्री नन्दकिशोर तिवारी के संवादकत्त्व में ’चाँद‘ नामक हिन्दी मासिक का ’अछूत‘-विशेषांक मई 1927 में आज से 81 वर्ष पूर्व इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ था। अंक के प्रधान सम्पादक नन्दकिशोर जी तिवारी और कम्पोजीटर बंशीलाल जी कोरी थे। विशेषांक के मुख पृष्ठ पर एक श्वेत-श्याम चित्र छपा है जिसमें सरयू पारिण ब्राह्मण तिवारी और कोरी चमार एक थाली और एक टेबल पर सहभोज करते हुए दिखलाई दे रहे हैं। विशेषांक की कुल पृष्ठ संख्या 192 है। यह विशेषांक दलितोद्धार व सामाजिक परिवर्तन के लिए समर्पित है। संपादक ने प्राक्कथन में अंक का उद्देश्य सामाजिक अत्याचारों पर प्रकाश डालना और उसके विरूद्ध आन्दोलन करना बतलाया है।

पं0 किशोरीदास वाजपेयी जैसे शास्त्रीय विद्वान् ने वाल्मीकि, रविदास, नाभा, नामदेव, कबीर-कूबा जैसे दलित सन्तों और भक्तों की महत्ता पर प्रकाश डाला है। धर्मान्तरण पर रोशनी डालने वाले हिन्दी कोविद जहूरषरुश ने ’अछूत की आत्मकथा‘ लिखी है। मुन्शी प्रेमचन्द की कालजयी कहानी ’मन्दिर‘ भी इसमें प्रकाशित हुई है। दलितों के शुभचिंतक सी0 एफ0 एण्ड्रयूज और सच्चे दलितोद्धारक अमर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द के पूरे एक-एक पृष्ठों पर चित्र छपे हैं। रेखाचित्रों द्वारा भी तत्कालीन दलित संसार को साकार करने का यशस्वी प्रयत्न किया है।

’सम्पादकीय विचार‘ में महास प्रान्त के एक जिले में पाँच वर्षों में पचास हजार दलितों के ईसाई होने का उल्लेख है। अनेक रेखाचित्रों में एक रेखाचित्र वह भी है जिसमें ख्वाजा हसन निजामी को सपने में दलित कलमा में ईमान लाते दिखलाई दे रहे हैं। दलितों में भी जागृति की लहर उत्पन्न हो रही है। संगठन और आत्म सम्मान का भाव जागृत होकर सुधारवाद की ओर झुकाव बढ़ रहा है। महाड़ (महाराष्ट्र) में डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर के आन्दोलन ने तथा कथित द्विजों की अनुदारता की सीमा को स्पष्ट कर दिया है।

चर्चित ’चाँद‘ विशेषांक के अन्तिम परिच्छेद में दलितों की व्यथा-कथा को अभिव्यक्त करने वाले अनेक समाचार हैं। एकाधेक समाचारों में आर्यसमाज को ’दलितों की छाती लगा भाइयों, वरना ये लाल अन्यों के घर जाएँगे‘ के भाव से चिकित्सकवत् तल्लीन देखा जा सकता है। शूद्रों को यज्ञोपवीत देने, उनके साथ सहभोज करने, विभाजित गाँव के दरो-दीवार को ’एक-गाँव-एक पनघट‘ में बदलने तथा ’सर्वेंट्स ऑफ पुलिस सोसाइटी‘ ’दलितोद्धार कान्फ्रेंस में लाला लाजपतराय जी का सभापतित्त्व‘, आर्य प्रचारक लक्ष्मण रव ओघले जी का भाषण, बडोदरा नरेश सयाजी राव गायकवाड़ द्वारा दलितोद्धार सम्बन्धी कानून बनवाना, ’दलितों का आर्यसमाज में प्रवेश‘ और ’स्वामी श्रद्धानन्द दलितोद्धार पाठशालाओं के शिक्षकों का सम्मेलन‘ आदि घटनाओं और गतिविधियों में आर्यसमाज के स्वयं सेवकों तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती के देवदूतों को सक्रिय देखा जा सकता है।

माननीय डॉ0 अम्बेडकर जी ने दलितों की व्यथा-कथाओं को अभिव्यक्त करते हुए जिन घटनाओं का आश्रय लिया है, उनमें से पचानवें (95) ˗प्रतिशत घटनाएँ उन्होंने ’तेज‘, ’अर्जुन‘, ’मिलाप‘, ’प्रताप‘ आदि आर्यसमाजी पत्रों से उद्धृत की हैं। (द्रष्टव्य-तत्कालीन इतिहास और परिवर्तित होती हुई सामाजिक परिस्थितियों के अध्ययन के लिए ’चाँद‘ (अछूत-विशेषांक) मासिक में बहुमूल्य सामग्री है। सन् 1927 के बाद 1997 में ’राधाकृष्ण प्रकाशन‘ प्राइवेट लिमिटेड, 2/37-नेताजी सुभाषचन्द्र बोस मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली, पिन-110002 से इस दुर्लभ संदर्भ सामग्री को प्राप्त किया जा सकता है। पत्रकारिता साहित्य तो तत्युभीन समाज का सर्वाधिक दर्पण होता है। इस विशेषांक का प्रत्येक पद, प्रत्येक पृष्ठ, प्रत्येक रचना और प्रत्येक रेखाचित्र अपने समय का अभिलेख एवं दस्तावेज है-

अस्पृश्यता-निवारण

भोला (बंगाल) में ’दास‘ जाति के कुछ हिन्दू रहते हैं, जिन्हें वहाँ के लोग दलित और अस्पृश्य समझते थे। प्रसन्नता की बात है अब वहाँ के हिन्दुओं ने अपने पुराने विचार बदल दिए हैं। हाल ही में वहाँ की ’बार लाइब्रेरी‘ में एक सहभोज हुआ था, जिसमें दास जाति के पुरुषों के साथ वहाँ के प्रसिद्ध ब्राह्मण, वैश्य और कायस्थों ने भी भोजन किया था।

अनुदारता की सीमा

बम्बई प्रान्त के महाद नामक गाँव में द्विजों द्वारा दलितों पर अत्याचार करने की खबर समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुई है। कहा जाता है कि म्यूनिसिपैलिटी ने वहाँ के सार्वजनिक तालाबों को सर्व-साधारण के लिए खोल दिया था। इस पर वहाँ के दलित भाई एक तालाब पर स्नान करने के लिए जा रहे थे कि पीछे से कुछ द्विजों ने आक्रमण किया। जिससे बीस आदमी घायल हुए।

अस्पृश्यों से सहभोज

जबलपुर के कालीमाई के मन्दिर में हाल ही में अस्पृश्यों के साथ एक सहभोज हुआ था, जिसमें ब्राह्मण, वैश्य आदि उच्च जाति के कई सज्जन सम्मिलित हुए थे।

मेहतरों में जाग्रति

दिल्ली के मेहतरों में बराबर जाग्रति हो रही है। उन्होंने अपने मुहल्लों में वाल्मीकि सेवा-संघ स्थापित कर लिए हैं, जिनके द्वारा वे अपनी जाति में नवजीवन का संचार तथा अपनी देवियों की रक्षा करने का संगठन कर रहे हैं। क्या हम आशा करें कि अन्य स्थान के मेहतर भाई भी दिल्ली का अनुकरण करेंगे ?

सार्वजनिक जुलूसों में अछूत

अलीगढ़, बनारस आदि कई स्थानों से होली पर सार्वजनिक जुलूसों में अछूतों के सम्मिलित होने के समाचार प्राप्त हुए हैं। इस अवसर पर समस्त हिन्दू-भाइयों ने उन्हें गले लगाया और उन्हें मिठाई बाँटी।

मुसलमानों का अत्याचार

हाल ही का समाचार है कि बनारस में रैदास भाइयों की एक विराट सभा हो रही थी और उसमें जाति-सुधार तथा अधिकार-प्राप्ति के विषय में उपदेश हो रहे थे कि कोई चालीस लट्ठबन्द मुसलमानों ने उन पर आक्रमण किया। पुलिस के तुरन्त ही पहुँच जाने के कारण लड़ाई न हो सकी और गुण्डे भाग गए।

चमारों को अधिकार

भिवानी के हिन्दुओं ने चमारों को सार्वजनिक कुओं से पानी भरने की आज्ञा दे दी है। कई स्थानों पर जब वे पानी भरने पहुँचे, तो उनका हार्दिक स्वागत किया गया।

मन्दिरों में अछूत-प्रवेश

ढण्डा (राँची) के महन्त श्री रामशरणदास जी ने गत शिवरात्रि के अवसर पर अपने शिव-मन्दिर में अछूतों को प्रवेश करने की आज्ञा दे दी थी। अतः प्रातःकाल ही से बहुत से मेहतर और चमार भाई स्वच्छ वस्त्र पहनकर मन्दिर में गए और शिवरात्रि-महोत्सव मनाया।

कानपुर में अछूतोद्धार

कानपुर में हिन्दू-बाल-सभा अछूतोद्धार का कार्य बड़ी तेजी से कर रही है। उसने कई मुहल्लों में अछूतों का संगठन करने के उद्देश्य से अछूत-सभा स्थापित कर दी है। अछूत-पाठशालाएँ भी जगह-जगह स्थापित हो चुकी हैं और बराबर हो रही हैं।

चमार कॉन्फ्रेन्स

गाड़ीवाला (पंजाब) में हाल ही में एक विराट चमार-कॉन्फ्रेन्स हुई थी। उसमें सभी अछूत-जाति के लगभग दस हजार प्रतिनिधि उपस्थित थे। इस कॉन्फ्रेन्स का प्रभाव इतना हुआ कि धीरे-धीरे हिन्दुओं की कट्टरता दूर होने लगी है और वहाँ के ग्यारह सार्वजनिक कुएँ दलित जातियों के लिए खोल दिए गए हैं।

अन्त्यजोद्धार-सम्बन्धी कानून

बड़ोदा राज्य की व्यवस्थापिका सभा में वहाँ के अन्त्यज-प्रतिनिधि श्री मूलदास भूधरदास जी ने एक मसविदा पेश किया है। इस कानून के अनुसार अन्त्यजों को सार्वजनिक एवं सरकारी स्कूलों, बस्तियों, पुस्तकालयों, कचहरियों, तालाबों, कुओं, देवालयों, धर्मशालाओं आदि से लाभ उठाने का उतना ही अधिकार होगा, जितना दूसरी जातियों को है। इसके अनुसार बेगार की प्रथा बिलकुल नष्ट की दी जाएगी। अन्त्यज रोगियों की सेवा-सुश्रूषा सरकारी औषधालयों में उसी प्रकार की जाएगी, जिस ˗प्रकार कि अन्य जातियों की। इतना ही नहीं, वरन् इस कानून के उल्लंघन करने वाले व्यक्ति यदि सरकारी नौकर हों, तो नौकरी से अलग कर दिया जाएगा और यदि कोई गैरसरकारी आदमी इसके विरुद्ध आचरण करेगा, तो 500) रुपये एक अर्थ-दण्ड (जुर्माना) किया जाएगा।

विराट् सभा

हाल ही में कलकत्ता में अखिल भारतवर्षीय रैदास (चमार) सभा हुई थी। उसमें लगभग पाँच हजार रैदास भाई उपस्थित थे और उच्चवर्ण के सज्जनों ने भी उसमें भाग लिया था। सभा में शराब और गो-मांस त्याग करने के सम्बन्ध में कई उपयोगी प्रस्ताव स्वीकृत हुए।

रोहतक में जागृति

हाल ही में रोहतक के दानक लोगों की एक विराट् सभा स्वामी रामानन्द जी के सभापतित्व में हुई थी। इस सभा में राजपूताना, जीन्द, हिसार, करनाल, गुड़गाँव, दिल्ली आदि स्थानों के दानक कई सहस्र की संख्या में उपस्थित थे। सभा में कई एक विद्वानों के सुधार-सम्बन्धी भाषण हुए तथा कई उपयोगी प्रस्ताव स्वीकृत हुए।

बरासत कॉन्फ्रेन्स

हाल ही में बरासत (बंगाल) अछूत कॉन्फ्रेन्स का तीसरा अधिवेशन श्री पीयूषकान्ति घोष (सम्पादक-अमृत बाजार पत्रिका) की अध्यक्षता में हुआ था। इस कॉन्फ्रेन्स में कलकत्ता आदि स्थानों के कई प्रतिष्ठित व्यक्ति सम्मिलित हुए थे। उसमें कई प्रस्तावों के अतिरिक्त अस्पृश्यता-निवारण, शिक्षा-प्रचार और दलितोद्धार सम्बन्धी उपयोगी प्रस्ताव स्वीकृत हुए। इन प्रस्तावों का समर्थन उच्च वर्ण के नेताओं ने भी किया।

अछूतों का मन्दिर-प्रवेश

विक्रमपुर (ढाका) इलाके के ˗प्रसिद्ध ग्राम वज्रयोगिनी में अस्पृश्यों को मन्दिर-प्रवेश का अधिकार दे दिया गया है। हाल ही में अस्पृश्यों ने मन्दिर में जाकर पूजा की और उच्च वर्ण के हिन्दुओं ने उनके साथ बैठकर जल और मिष्ठान्न ग्रहण किया। उसी दिन सन्ध्या को एक विराट् सभा हुई, जिसमें अस्पृश्यता-निवारण पर जोरदार भाषण हुए और दलित भाइयों को समान अधिकार प्रदान करने पर जोर दिया गया।

गुड़गाँव दलितोद्धार कॉन्फ्रेन्स

हाल ही में गुड़गाँव जिला बल्लभगढ़ में दलितोद्धार कॉन्फ्रेन्स बड़े समारोह और उत्साह के साथ हुई। सभापति का आसन डॉक्टर मुंजे ने सुशोभित किया था तथा शाहपुराधीश श्री सरनाहर सिंह, कुँवर रणंजय सिंह, डॉक्टर केशवदेव शास्त्री, स्वामी रामानन्द जी प्रभृति सज्जन भी कॉन्फ्रेन्स में सम्मिलित हुए थे और उसमें योग दिया था। कॉन्फ्रेन्स में अस्पृश्यता-निवारण, बेगार बन्द करने आदि के सम्बन्ध में प्रस्ताव स्वीकृत हुए।

अछूतों को अधिकार

हाल ही में बम्बई प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा में प्रश्न करने पर वहाँ के स्वायत्त शासन-विभाग के मन्त्री महोदय ने सूचना दी है कि सरकार ने अपने कर्मचारियों को ताकीद कर दी है कि वे कौन्सिल के उस प्रस्ताव को अमल में लावें, जिसमें कि अछूत जातियों को सार्वजनिक कुएँ, तालाब और संस्थाएँ प्रयोग में लाने का अधिकार दिया है।

अमरावती में विराट् सभा

हाल ही में अमरावती के गणेश थियेटर में वहाँ की हिन्दू-सभा की ओर से एक सार्वजनिक सभा हुई थी, उसमें सभी विचार के हिन्दू सम्मिलित हुए थे। सभा में महारों की उपस्थिति कई हजार की थी। सभापति का आसन पर एम0 बी0 जोशी भूतपूर्व उप-प्रधान मध्य-प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा ने ग्रहण किया था। श्री पं0 लक्ष्मणराव ओघले शास्त्री, श्री बी0 जी0 खापर्डे आदि माननीय व्यक्तियों ने अस्पृश्यता-निवारण पर जोरदार भाषण दिए। सभा में सब को तिल-गुड़ बाँटे गए, जिन्हें सब लोगों ने खाया।

सर्वेण्ट ऑफ प्युपिल सोसाइटी

सर्वेण्ट ऑफ प्युपिल सोसाइटी ने हाल ही में अपनी सात वर्ष की रिपोर्ट प्रकाशित की है। उससे प्रतीत होता है कि उक्त सोसाइटी ने पंजाब तथा संयुक्त-प्रान्त में अछूतोद्धार का बहुत कार्य किया है। जहाँ उच्च वर्ण के हिन्दू वाल्मीकि (भंगियों) की परछाई तक से बचते थे, वहाँ लाहौर जैसे विशाल नगर में उनके बड़े-बड़े जुलूस निकलते हैं और उच्च वर्ण के हिन्दू उनका हार्दिक स्वागत करते हैं। इसी प्रकार कई स्थानों में उक्त सोसाइटी के प्रचार के फलस्वरूप हिन्दुओं में जागृति हो रही है। हाल ही में सोसाइटी का वार्षिक अधिवेशन बड़े-समारोह से मनाया गया था। जिसके साथ-साथ एक वाल्मीकि कॉन्फ्रेन्स भी हुई। कॉन्फ्रेन्स के सभापति थे सुविख्यात दानवीर सेठ जमनालाल जी बजाज।

दलितोद्धार शिक्षक-सम्मेलन

गत 10 अप्रैल को श्री श्रद्धानन्द दलितोद्धार सभा की पाठशालाओं के शिक्षकों का सम्मेलन बुलन्दशहर में हुआ था। सभापति का आसन प्रोफेसर परमात्माशरण जी एम0 ए0 ने सुशोभित किया था। उसमें दलितों की शिक्षा के विषय में कई उपयोगी प्रस्ताव स्वीकृत हुए।

अछूतों को अधिकार

कुम्भ के अवसर पर महामना पं0 मदनमोहन मालवीय के सभापतित्व में अखिल भारतवर्षीय सनातनधर्म सभा का वार्षिक अधिवेशन हुआ था। उसमें अछूत कहलाने वाली दलित जातियों के देवस्थान में प्रवेश करने और सार्वजनिक कुओं आदि से जल भरने में बाधा न देने के सम्बन्ध में कई प्रस्ताव स्वीकृत हुए।

दलितों का आर्यसमाज-प्रवेश

हाल ही में बिजनौर जिले के गोविन्दपुर तथा सदाफल गाँव के लगभग 80-90 चर्मकारों ने आर्यसमाज में प्रवेश किया। बिजनौर जिले की आर्यसमाज द्वारा उनका संस्कार कराया गया, जिसमें स्त्री-पुरुषों ने हवन किया। तत्पश्चात् सहभोज हुआ।

अखिल भारतीय अछूतोद्धार कॉन्फ्रेन्स

गत 17 अप्रैल को हिन्दू-महासभा के अवसर पर पंजाब-केशरी लाला लाजपतराय जी के सभापतित्व में अखिल भारतवर्षीय अछूतोद्धार कॉन्फ्रेन्स हुई। स्वागताध्यक्ष ने महात्मा गाँधी के नेतृत्व में अस्पृश्यता-निवारण का आन्दोलन जारी करने को कहा और लाला लाजपतराय जी ने अपने भाषण में अछूत के कलंक की घोर निन्दा करते हुए उसे धो डालने की अपील की। उपरान्त अछूतोद्धार सम्बन्धी कई परमोपयोगी प्रस्ताव स्वीकृत हुए। उनमें दलित-श्रेणियों को शिक्षा एवं सरकारी नौकरी के विषय में समान अधिकार दिए जाने और सार्वजनिक कुओं को उनके लिए खोल देने का कहा गया है।

 

बनारस अछूत-सम्मेलन

गत 27 अप्रैल को चौब॓पुर में बनारस जिला अछूत-सम्मेलन श्री नरेन्द्रदेव जी के सभापतित्व में बड़े समारोह के साथ हुआ। इस अवसर पर श्री गणेशशंकर जी विद्यार्थी, श्री बिहारीलाल जी चर्मकार आदि कई प्रतिष्ठित सज्जन उपस्थित थे। सभापति महोदय ने अपने भाषण में कहा कि यदि हम अछूतों को नहीं अपनाएँगे, तो हमारे हिन्दू-धर्म, हिन्दू-जाति एवं हिन्दू-सभ्यता का शीघ्र नाश हो जाएगा। सम्मेलन में अछूतोद्धार सम्बन्धी कई उपयोगी प्रस्ताव स्वीकृत हुए। जिनमें अछूतों को सार्वजनिक अधिकार देने एवं उनमें शिक्षा-प्रचार करने आदि पर जोर दिया गया।

अस्पृश्यता-निवारण का समर्थन

हाल ही में कलकत्ता में अखिल भारतीय अग्रवाल महासभा का वार्षिक अधिवेशन हुआ था। उसके सभापति श्री नेवटिया जी ने अपना भाषण देते हुए अग्रवाल-समाज से अस्पृश्य जाति को सुधारने तथा अस्पृश्यता को दूर करने को अपील की।

 

हिन्दू-महासभा और अछूत

गत ईस्टर की छुट्टियों में डॉक्टर मुंजे के सभा-सतीत्व में हिन्दू महासभा का दसवाँ अधिवेशन पटना में हुआ। सभापति महोदय ने धर्मशास्त्र के कथनों को उद्धृत करते हुए अस्पृश्यता की निःसारता प्रकट की। महासभा में अछूत जाति के सम्बन्ध में कई उपयोगी प्रस्ताव स्वीकृत हुए और उन्हें सार्वजनिक अधिकार देने पर जोर दिया गया।

समता के सेनानी:छत्रपति शाहू, डॉ0 अम्बेडकर और यशवंतराव चौहान

समता के सेनानी:

छत्रपति शाहू, डॉ0 अम्बेडकर और यशवंतराव चौहान

महाराष्ट्र के ज्येष्ठ इतिहास संशोधक व इतिहासकार डॉ0 जयसिंहराव पवार के अनुसार (राजर्षि शाहू) महाराज ने सामाजिक क्रान्ति की मशाल डॉ0 अम्बेडकर जी के हाथों में सौंपी थी। महार समाज का एक युवक अमेरिका से एम0ए0, पी-एच0डी0 की शिक्षा पाकर आया है, यह जानकर वे अपूर्व आनन्द से भाव-विभोर हो मुम्बई परल स्थित बस्ती में उनसे मिलने गये और उन पर अपना हर्ष-स्नेह उड़ेलते हुए बोले, ”अब मेरी चिन्ता दूर हो गई है। दलितों को उनका नेता मिल गया है।“

तत्पश्चात् कुछ समय बाद ही डॉ0 अम्बेडकरजी को कोल्हापुर पधारने का निमन्त्रण देकर और और उनके कोल्हापुर आने पर अपने रथ में बिठाकर शाहू महाराज उन्हें अपने ’सोनवली‘ कैम्प पर ले आये और अपनी पंक्ति में बिठलाकर उनके साथ उन्होंने सहभोजन किया। तदनन्तर उन्होंने अपने राजघराने की ओर से सम्मान और गौरव की रेशमी पगड़ी प्रदान कर उनका अभिनन्दन किया। इस अवसर पर डॉ0 अम्बेडकर ने कहा था-”छत्रपति शाहूजी ने सम्मान की जो रेशमी पगड़ी मेरे सिर पर धारण करवाई है, उसका मैं आदर रखूँगा।“ वस्तुतः डॉ0 अम्बेडकरजी ने दलित-पतितों के उद्धार का कार्य केवल समस्त महाराष्ट्र में ही नहीं, अपितु अखिल भारतवर्ष में प्रसारित कर शाहू महाराज की रेशमी पगड़ी का सम्मान रखा। (राजर्षि शाहू छत्रपतिः एक मागोवा (सिंहावलोकन) पृष्ठ-2-3)।

स्थूल रूप से देखा जाए तो ’महार वर्ग‘ गाँव का ’वतनदार‘ था, परन्तु उसे इसके नाम पर पूरे गाँव की सेवा, नौकरी और बन्धुआ मजदूरी करनी पड़ती थी। महार समाज को पीढ़ी-दर-पीढ़ी से गुलामी की जंजीरों में जकड़नेवाले ’महार वतन‘ को समाप्त करने का निश्चय कर शाहू महाराज ने 18 सितम्बर 1998 को एक विशेष राजाज्ञा निकाली, जिससे उक्त समाज अन्यों की तरह ’स्वतन्त्र प्रजाजन‘ बन गया, और उसकी गुलामगिरी के दुर्दिन समाप्त हो गये। शाहू महाराज द्वारा ‘महार वतन‘ को रदद् करने का सर्वाधिक आनन्द डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर को हुआ था। महारों ने इस गुलामगिरी का स्वयं त्याग करना चाहिए या सरकार ने इस ’महार-वतन‘ की गुलामी को कानून से नष्ट करना चाहिए, यह एक डॉ0 अम्बेडकर की जबरदस्त माँग थी, जिसे 1928 से 1957 तक मुम्बई की अनेक सरकारें पूरी नहीं कर पाईं, उसे 1918 में ही राजर्षि शाहू ने स्वयं स्फूर्ति से पूरा कर दिया था। मुम्बई राज्य में सन्-1958 में अपने-आपको शाहू महाराज और आर्यसमाजी शिक्षा संस्था का छात्र कहनेवाले (राजाराम कॉलेज कोल्हापुर के भूतपूर्व विद्यार्थी) मुख्यमन्त्री यशवंतराव बलवंतराव चौहान के कार्यकाल में महारों की उक्त गुलामगिरी नष्ट हुई (तत्रैवः-पृष्ठ 22-23)।

शुद्धि का योग्य समय:किसी आर्यसमाजी नेता को मुझसे मिलाइए:डॉ अम्बेडकर

देश विभाजन और हैदराबाद मुक्ति संग्राम के विकट काल में डॉ0

अम्बेडकरजी उत्सुकता से आर्यसमाजी नेताओं की प्रतीक्षा में थे ।

शुद्धि का योग्य समय:

किसी आर्यसमाजी नेता को मुझसे मिलाइए

जातिभेद व विषमता की उपेक्षा करके शुद्धि अभियान के पाखण्डी पक्ष पर आक्षेप होते हुए भी अन्य परिस्थितियों में इच्छानुसार शुद्धि अथवा धर्मांतर करने के विषय में बाबासाहब को आपत्ति होने का कोई कारण नहीं था, प्राचीन काल में हिन्दू धर्म यह मिशनरी धर्म था, इन शब्दों में उन्होंने उसकी प्रशंसा ही की थी (5-423)। स्वयं उन्होंने धर्मान्तर का निर्णय घोषित किया था, तब शुद्धि अथवा धर्मांतर के प्रति वे सरसरी तौर पर नफरत की दृष्टि से नहीं देखते, अपितु उसकी गुणवत्ता के आधार पर उसका विचार करते हैं, जब शुद्धि की, अर्थात् धर्मांतरित व्यक्तियों को अपने मूल धर्म में लाने की आवश्यकता प्रतीत हुई, तब उन्होंने उसका समर्थन ही किया था। देश-विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान के अस्पृश्यों को जबर्दस्ती मुस्लिम बनाया जा रहा था। वैसी ही दुर्दशा निजाम के हैदराबाद रियासत में शुरु हो गई थी। दिनांक-18 नवम्बर 1947 को परिपत्र निकालकर बाबासाहब ने इन सबको भारत में या हिन्दू प्रान्त में आने का आह्वान किया था, इन सबकी शुद्धि कर फिर से हिन्दू धर्म में मिलाने की व्यवस्था करने की व पूर्ववत् उनके साथ आचरण करने का आश्वासन भी उन्होंने उन्हें दिया था (9-349)।

सन् 1947 में जब हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़के, हिन्दुओं की मार से बचने के लिए मुसलमान चोटी रखने लगे, माथे पर तिलक लगाने लगे, तो इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए श्री सोहनलाल शास्त्री से बाबासाहब ने कहा था-”किसी एक आर्यसमाजी नेता को मेरे पास ले आइए। मैं उन्हें समझाकर बतलाऊँगा कि, अब ऐसा समय आ गया है कि उन्हें (मुसलमानों को) हिन्दुओं में शामिल कर लेना चाहिए, वे बेचारे बच जाएँगे और हिन्दुओं की संख्या भी बढ़ेगी“ (41-172)।

’जाति विनाशक हिन्दू संगठन‘ को महत्त्व न देकर शुद्धि करनेवाले लोगों पर डॉ0 बाबासाहब टूटकर पड़ते हैं, दिनांक-15 मार्च 1929 के ’बहिष्कृत भारत‘ के अंक में ऐसे लोगों को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं-”संगठन व शुद्धि, अर्थात् संभाव्य लफंगेगिरी है“ (244)।“ स्पष्ट विरोध करनेवाले पुराण-मतवादी सह्म हैं, परन्तु शुद्धि संगठनवाले ढोंगी इनसे अधिक भयंकर हैं“ ऐसा वे उन पर आक्षेप करते हैं। ये ही (ढोंगी लोग) सम्प्रति संगठन में घुस गये हैं। स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्दजी के पवित्र आन्दोलन को इन ढोंगियों ने विकृत कर दिया है-उन्हें लात मारकर बाहर निकालने के सिवाय इस शुद्धि आन्दोलन में वास्तविक जोर नहीं आ पाएगा (244)। 4, नवम्बर, 1927 के ’बहिष्कृत भारत‘ के अंक में ’आर्यसमाज व हिन्दू महासभेची गट्टी‘ (मित्रता) नामक बाबासाहब की टिप्पणी इस सन्दर्भ में पठनीय है। ”आर्यसमाज हिन्दू समाज को एकवर्णी करने के अपने मूल कार्य को भूलकर हिन्दू महासभा की तरह ही शुद्धि अभियान के पीछे लगा है।“ इस प्रकार की जो उसमें उन्होंने आलोचना की है, वह अत्यन्त मुखर और स्पष्ट है (112)। एकवर्णी हिन्दू समाज से उनका तात्पर्य हिन्दू संगठन से है। यह उनका समीकरण-सामंजस्य प्रत्येक पाठक को हरेक स्थान पर दिखलाई देगा।

सन्दर्भः- लेखक-श्री शेषराव मोरे: डॉ0 आम्बेडकरांचे सामाजिक धोरण-एक अभ्यास। प्रकाशक-राजहंस प्रकाशन 1025, सदाशिव पेठ, पुणे-411030, मराठी ग्रन्थ, प्रथमावृत्ति, जून-1998, मूल्य-350।

डॉ अम्बेडकर जी द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी का अभिनन्दन

जो हिन्दू सुधारक अस्पृश्यता निवारण के लिए प्रयत्न कर रहे थे। उनके विषय में बाबासाहब अम्बेडकर (सन् 1920-27) गौरवोद्गार अभिव्यक्त करते हुए नजर आते हैं तथा वे और अधिक कार्य करें, इस दृष्टि से आह्वान करते हुए भी दिखलाई देते हैं। इस सम्बन्ध में आर्यसमाज व उनके नेता स्वामी श्रद्धानन्द का नाम सबसे पहले लिया जाना आवश्यक है।

”स्वामीजी दलितों के सर्वोंत्तम हितकत्र्ता व हितचिन्तक थे“ ये उद्गार डॉ0 अम्बेडकर ने 1945 के ’कांग्रेस और गान्धीजी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया ?‘ नामक ग्रन्थ में अभिव्यक्त किये हैं (पृ0 29-30)। कांग्रेस में रहते हुए स्वामीजी ने जो कार्य किया उसकी उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक प्रशंसा की है। कांग्रेस ने अस्पृश्योद्धार के लिए 1922 में एक समिति स्थापित की थी। उस समिति में स्वामीजी का समावेश था। अस्पृश्योद्धार के लिए उन्होंने कांग्रेस के सामने एक बहुत बड़ी योजना प्रस्तुत की थी और उसके लिए उन्होंने एक बहुत बड़ी निधि की भी माँग की थी, परन्तु उनकी माँग अस्वीकृत कर दी गई। अन्त में उन्होंने समिति से त्यागपत्र दे दिया (पृ0 29)। उक्त ग्रन्थ में स्वामीजी के विषय में वे एक और स्थान पर कहते हैं, ’स्वामी श्रद्धानन्द ये एक एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अस्पृश्यता निवारण व दलितोद्धार के कार्यक्रम में रुचि ली थी, उन्हें काम करने की बहुत इच्छा थी, पर उन्हें त्यागपत्र देने के लिए विवश होना पड़ा‘ (पृ0 223)।

दिनांक-4.11.1928 के ’बहिष्कृत भारत‘ के सम्पादकीय लेख में बाबासाहब लिखते हैं-”आर्यसमाज यह समाज (ब्राह्मण नहीं, अपितु) ब्राह्मण्यत्व मुक्त हिन्दू धर्म का एक सुधारित-संशोधित संस्करण है। आर्यसमाज हिन्दू समाज के (जन्मना) चातुर्वण्र्य को तोड़कर उसे एकवर्णी करने के लिए जन्मा आन्दोलन है, उसका साहस विलक्षण है“ (90-112)। स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या दि0-23.12.1926 को हुई और उसके बाद आर्यसमाज के स्वरूप में परिवर्तन होने की आलोचना बाबासाहब ने की है, उपरोक्त सम्पादकीय में वे आगे लिखते हैं-”आर्यसमाज हिन्दू समाज को एक वर्णी करने के अपने मूल कार्य को भूलकर हिन्दू महासभा की तरह शुद्धि अभियान के पीछे लगा है, अब इन दोनों की इतनी घनिष्ठ मित्रता हो गई है कि हिन्दू महासभा का ध्येय आर्यसमाज का ध्येय बन गया है (पृ0 112)। दिनांक-7.10.1927 को अमरावती में सम्पन्न ’आर्य धर्म परिषद‘ में चातुर्वण्र्य का प्रस्ताव पारित होने की जानकारी बाबासाहब देते हैं, फिर भी उन्हें आर्यसमाज से आशा होने के कारण वे उसे उपदेश करते हुए लिखते हैं कि-”आर्यसमाज ने हिन्दू महासभा की बातों में आने की अपेक्षा हिन्दू महासभा को अपने विचारों के अनुरूप बनाना चाहिए, इसी से आर्यसमाज के उद्देश्य की पूत होगी (पृ0 112)।“

दिनांक 22.4.1927 के ’बहिष्कृत भारत‘ में आर्यसमाज के शुद्धि कार्य की आलोचना करते हुए बाबासाहब कहते हैं-”शुद्धि करके विधर्म में गये लोगों को फिर से स्वीकार करने का एक हाथ से प्रयत्न करना और दूसरे हाथ से स्वधर्म में रहनेवालों के साथ चिढ़ाने जैसा आचरण करना, होश में रहनेवाले मनुष्यों का लक्षण नहीं है। स्वामी श्रद्धानन्दजी के यशस्वी कार्य का यह स्मारक नहीं, अपितु उस महापुरुष द्वारा आरम्भ किये हुए कार्य का विकृत रूप है“ (पृ0 15)। दिनांक-15 मार्च 1929 के ’बहिष्कृत भारत‘ के सम्पादकीय में भी उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्दजी का गौरव तथा आर्यसमाज की आलोचना की है। वे कहते हैं-’स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्दजी के पवित्र आन्दोलन का इन ढोंगी लोगों ने गुड़-गोबर बना दिया है (244)।‘

 

दिनांक 21.12.1928 के ’बहिष्कृत भारत‘ के अंक में स्वामीजी का गौरव प्रस्तुत करनेवाला श्री पी0 आर0 लेलेजी का एक विशाल लेख प्रकाशित हुआ है। उसके अन्त में यह कहा गया है कि-”उन्हें (स्वामीजी को) श्रद्धांजलि देने का अधिकार अपना अर्थात् प्रमुख रूप् से बहिष्कृत व्यक्तियों (दलितों) का ही है। यदि अपनी उन्नति नहीं हुई, तो स्वामीजी को, उनके सच्चे हितैषी की आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी“ (205)। ’महात्मा स्वामी श्रद्धानन्द को‘, ’हिन्दुओं के उद्धार को‘ तो अन्यों को ’ब्राह्मणों के उद्धार की‘, ’अहर्निश चिंता लगी हुई हैं‘-प्रायः यह बाबासाहब कहते रहते थे (पृ0 31)। इसी उपकृत व कृतज्ञ भावना से महाड़ में मार्च-1927 में सम्पन्न ’कुलाया जिला बहिष्कृत परिषद्‘ में स्वामीजी को श्रद्धांजलि देने का प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसमें कहा गया था-”श्रद्धानन्दजी के अमानुष हत्या के प्रति इस सभा को अत्यन्त दुःख हो रहा है और उनके द्वारा निर्दिष्ट कार्यक्रम के अनुसार हिन्दू जाति को अस्पृश्यता निर्मूलन का कार्य करना चाहिए“ (9)। (डॉ0 आंबेडकरांचे सामाजिक धोरणः एक अभ्यास-लेखक-शेषराव मोरे, पृष्ठ 75-76 प्रथमावृत्ति (मराठी ग्रन्थ) जून, सन् 1998)।

कांग्रेस द्वारा अस्पृश्यता निवारण का कार्य न करने के कारण कांग्रेस समिति से त्यागपत्र देनेवाले स्वामी श्रद्धानन्द का जो गौरव उन्होंने किया है, वह आपने देखा ही है, परन्तु 1945 के ’कांग्रेस और गान्धीजी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया ? ग्रन्थ में बाबासाहब ने गान्धीजी की आलोचना करते हुए लिखा है-”स्वामी श्रद्धानन्दजी का पक्ष लेने की अपेक्षा गाँधीजी ने श्रद्धानन्दजी के विरोधी प्रतिगामी लोगों का पक्ष लिया है। (29-226)“ इतना ही नहीं तो कांग्रेस का अस्पृश्यता निवारण का प्रस्ताव अर्थात् ’अस्पृश्यों से सम्बद्ध कपटनाट्य था‘ (22) ’विशुद्ध राजनीति थी‘ (26)। ऐसा डॉ0 अम्बेडकर ने 1945 के उपरोक्त ग्रन्थ में कहा है-तत्रैव-85।

दिनांक 3, जून 1927 के ’बहिष्कृत भारत‘ के सम्पादकीय में बाबासाहब ने हिन्दू महासभा की स्थापना कब और कैसे हुई इस तथ्य की जानकारी दी है। ’कांग्रेस के पुराने सभासदों की जैसी सामाजिक परिषद, वैसी ही नये सभासदों की हिन्दू महासभा‘ ऐसा वे प्रतिपादित करते हैं (10.43)। आरम्भ में हिन्दू समाज के पुनर्गठन का कार्य सफलता के साथ सम्पन्न होगा। ऐसा सभी को प्रतीत होता था, पर समाज सुधार का कोई भी उपक्रम इस संस्था के हाथ से सम्पन्न नहीं हुआ-उसकी कार्यक्षमता शब्दों तक ही सीमित रही-यह आरोप हमारा नहीं, अपितु स्वामी श्रद्धानन्दजी ने किया है। बाबासाहब के अनुसार-इसी कारण से श्रद्धानन्दजी ने महासभा से त्यागपत्र दिया था। (43)-तत्रैव-180।

डॉ. अम्बेडकरजी की लाला लाजपतराय जी को श्रद्धांजली

यह तथ्य अंकित करते हुए हमें बहुत ही दुःख हो रहा है कि देशभक्त लाला लाजपतराय का विगत मास की 17 तारीख को अचानक हृदय क्रिया बन्द हो जाने से देहान्त हो गया। साइमन कमीशन के लाहौर आने पर उसे वापिस जाने के लिए कहनेवालों का जुलूस स्टेशन पर था, उसके अग्रिम भाग पर लाला जी उपस्थित थे। भीड़ को पीछे हटाने का प्रयत्न करते समय एक पुलिस अधिकारी ने लालाजी की छाती पर लाठी का वार किया। डॉक्टरों का यह मत है कि लाठी का वार ही लालाजी की हृदय क्रिया बन्द पड़ने का कारण सिद्ध हुआ। यदि यह सही है तो ऐसे उन्मत्त और राक्षसी वृत्ति के पुलिस अधिकारी की जितनी भी निन्दा की जाए, वह कम ही होगी।

खैर, वह कुछ भी हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि लालाजी की मौत के कारण देश का एक कर्मठ कार्य कुशल नेता नामशेष हो गया। भारतवर्ष में राजनीतिक नेताओं की कभी भी कमी नहीं रही, पर लालाजी जैसे प्रामाणिक वृत्ति के स्वार्थ त्यागी तथा कृतसंकल्प कार्य के लिए तन-मन-धन अर्पित करनेवाले नेता अत्यन्त ही कम थे। नेतागिरी के लिए ललचाए और उसके लिए अपनी सदसद् विवके बुद्धि शैतान या आसुरी प्रवृत्तियों को बेचनेवाले बहुत अधिक थे। इन नेताओं की कथनी-करनी की विसंगति लोगों के ध्यान में आती, तो ये उसे ’मेंटल रिजर्वेशन‘ की बात कहकर उससे छुटकारा पा लेते थे, पर लालाजी के जीवनक्रम में इस प्रकार की स्थिति नजर नहीं आती। श्री नरसिंह चिन्तामणि केलकर जैसे दोहरे व्यक्तित्ववाले तथा श्री आयंगर छाप जैसे नेताओं की अभद्रता से लालाजी कोसों दूर थे। उनकी कार्यक्षमता अप्रतिम और महान् थी। लालाजी के चरित्र की विशेषता इस बात में है कि वे अधिक बड़बड़ और गड़बड़ न करते हुए बहुत ही सोच-विचारपूर्वक धैर्य से स्वीकार किये हुए कार्य को सम्पन्न करते थे।

लालाजी का जन्म सन् 1865 में पंजाब प्रान्त के एक निर्धन वैश्य कुल में हुआ। उनके पिता आर्यसमाजी थे। इसलिए उन्हें प्रारम्भ से ही उदारमतवाद की घुट्टी पिलायी गई थी। आज आर्यसमाज को सनातन धर्म ने निगल लिया है, पर उस समय आर्यसमाज और सनातन धर्म का हमेशा का वैर या जानी दुश्मनी थी, क्योंकि इस युग में आर्यसमाज मुसलमानों के आक्रमणों की अपेक्षा हिन्दू समाज के अन्तर्गत जातिभेदादि दोषों की ओर ही ज्यादा ध्यान देता था। इसलिए वह रूढ़िबद्ध पौराणिक लोगों को स्वाभाविक रूप से ही अप्रिय था।

पुराणमतवाद और आर्यसमाज के इस समर में लालाजी ने आर्यसमाज का पक्ष लिया था और उस समाज के सिद्धान्तों को सुदृढ़ और व्यावहारिक रूप देने के लिए उन्होंने कुछ मित्रों के सहयोग से सन् 1886 में ’दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज (डी0 ए0 वी0)‘ की स्थापना की थी। उनके सार्वजनिक जीवन का प्रारम्भ इसी घटना के साथ शुरु हुआ था। इस संस्था को शक्तिशाली बनाने के लिए उन्होंने अनथक मेहनत की थी और पुष्कल मात्रा में स्वार्थ त्याग भी किया था। आज पंजाब में इस संस्था की गणना एक प्रमुख शिक्षण संस्था के रूप में की जाती है।

इसके बाद वे राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लेने लगे, पर उन्होंने अन्य राजनीतिक आन्दोलनों के नेताओं की तरह राजनीतिक और सामाजिक कार्यों के इतेरतराश्रित आपसी सम्बन्धों का विच्छेद कर अपने अपंगत्व का प्रदर्शन कभी भी नहीं किया। दोनों भी दृष्टियों से वे क्रान्तिकारी थे। यह बात ध्यान में रखने लायक है कि राजनीतिक आन्दोलन में कदम रखने के कारण सरकार ने जब उन्हें अण्डमान की जेल में भेजा, तब बहुत से पुराणमतवादी लोगों को हर्ष हुआ था। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार और पौराणिक इन दोनों के विरोध को सहन करते हुए लालाजी ने अपना सार्वजनिक कार्यक्रम संचालित किया था। पंजाब के कुछ स्पृश्यवर्गीय नेताओं द्वारा चलाये गये अस्पृश्यों के स्पृश्यीकरण (दलितोद्धार) के आन्दोलन में वे अन्तःकरण पूर्वक सहभागी होते थे। स्पृश्यवर्गीय लोगों द्वारा संचालित ’अस्पृश्योद्धार‘ के आन्दोलन से यदि हमें पूर्णतया सन्तोष न भी प्रतीत होता हो, फिर भी हमें इस बात में सन्देह नहीं कि लालाजी की सहानुभूति प्रामाणिकता से ओत-˗प्रोत थी। हमारी दृष्टि से वह परिपूर्ण न भी हों, फिर भी अविश्वसनीय तो बिलकुल भी नहीं थी।

लालाजी उत्तम लेखक भी थे। सामाजिक और राजनीतिक विषयों से सम्बद्ध उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। ’दी पीपल‘ नामक अंग्रेजी पत्र भी वे निकालते थे। दयानन्द एंग्लोवैदिक कॉलेज के अतिरिक्त उनके द्वारा स्थापित दूसरी संस्था का नाम ’सर्वेंटस् ऑफ इण्डिया‘ है। ’सोसाइटी‘ की तरह इस संस्था की नियमावली बनाने के बावजूद इन दोनों में अंतरंग दृष्टि से महत्वपूर्ण अन्तर है। मुम्बई की ’सोसाइटी‘ ’नरम दल‘ के कब्जे में होने के कारण उनके समस्त कार्यक्रम शांत एवं मंदगति से चालू हैं। राजनीतिक विषय में भी मंदगति और सामाजिक विषय में भी मंथर गति। एक कदम आगे बढ़ाने से पहले उस पर दस घण्टे तक विचार-विमर्श। कुछ इसी प्रकार का इस संस्था का कार्यक्रम है। इस संस्था के कतिपय सभासद व्यक्तिगत रूप से ’गरम‘, ’अग्रगामी‘ और ’प्रगतिशील‘ होंगे, पर सामूहिक रूप से उन्हें नरम दल की चैखट में ही घुटन महसूस करते हुए रहना अनिवार्य है। उसके विपरीत लाहौर की सोसाइटी को लालाजी जैसा तड़पदार-तेजस्वी नेतृत्त्व मिलने के कारण उसे सर्वांगीण प्रगतिपरक स्वरूप प्राप्त हुआ है। यह सोसाइटी सामाजिक और राजनीतिक विषय में एक जैसे प्रगतिशील कार्यकत्र्ता निर्माण करने का कार्य उत्साह और साहस के साथ कर रही है। इस संस्था के विकास के लिए उन्होंने काफी कष्ट सहन किये हैं। इस प्रकार लाला लाजपतरायजी का चरित्र विविधांगी है। सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक आदि समस्त क्षेत्रों में वे अपना अनमोल योगदान दे गये हैं और उनके कालवश हो जाने के उपरांत भी उनके बहुमुखी रचनात्मक कार्य उनके सचेतन स्मारक के रूप में चिरस्थायी एवं अमर रहेंगे।

सन्दर्भ: (1) डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर चरित्र, खण्ड-2, पृष्ठ-197 लेखक-चांगदेव भवानाव खैरमोडे-द्वितीय आवृत्ति-14 अक्टूबर 1991, मूल्य-90.00, प्रकाशक-सुगावा प्रकाशन-पुणे-महाराष्ट्र।

(2) बहिष्कृत भारत (मराठी साप्ताहिक): सम्पादक: डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, दिनांक: 7 दिसम्बर 1928।

(3) अनुवाद-कुशलदेव शास्त्री।

गुण श्रेष्ठ है या जाति श्रेष्ठ?

(डॉ अम्बेडकर जी द्वारा डी. ए. वी. कॉलेज-लाहौर के संचालकों का अभिनन्दन)

”एक बार की बात है, नागपुर कॉलेज में पढ़ रहा एक ’महार‘ विद्यार्थी प्रधानाचार्य के पास गया तथा अपने घर की ओर लौट जाने की अनुमति माँगते हुए उसने उनसे कहा कि-’ब्राह्मण से हमारा झगड़ा हो गया है और मैं एकाध ब्राह्मण की हत्या कर सका तो यह समझूँगा कि मेरा जन्म सार्थक हो गया है।‘ यह इस बात का प्रमाण है कि पददलित, पीड़ित, व्यथित, युवा दलित सुशिक्षित हो तो उसके मन में क्या-क्या और कैसे-कैसे भाव उत्पन्न हो जाते हैं, यह उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट और सिद्ध है।

लाहौर स्थित एक चमार जाति के लड़के का भी इसी प्रकार का अपमान हुआ और इसमें कोई भी आश्चर्य नहीं कि उसके भी मन में उक्त ’महार‘ छात्र की तरह ही विचार उत्पन्न हुए हों। पर यह आनन्द की बात है कि उसकी क्रोधाग्नि पर शीघ्र ही साम-दण्ड के जल का सिंचन हो जाने से वह शांत हो गया। यह चमार-विद्यार्थी विगत जून महीने में मॅट्रिक्युलेशन की परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ व अग्रिम अध्ययन के लिए लाहौर स्थित दयानन्द कॉलेज में उसने अपना नाम प्रविष्ट कराया। किसी कारणवश प्रस्तुत कॉलेज से संलग्न छात्रावास में रहना उसके लिए अनिवार्य हो गया। पर ˗प्रस्तुत छात्रावास के (सभी) सौ पाचकों ने शिकायत सी करते हुए कहा कि-’चमार लड़के को न तो हम खाना परोसेंगे और न ही उसके झूठे बर्तन उठाएँगे।‘ कॉलेज के प्रधानाचार्यजी ने इन तिलमिलाए, बदहवास हुए ’ब्राह्मण्यग्रस्त‘ रसोइयों को यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि-’यह कॉलेज आर्यसमाज का है तथा आर्यसमाज जातिभेद जन्य ऊँच-नीच युक्त भेदभाव को बिलकुल भी नहीं मानता है।‘ इत्यादि तथ्यों द्वारा बहुत ही समझाने की कोशिश की, पर विविध ˗प्रकार के उपाय करने के बावजूद भी रसोइयों को प्रधानाचार्य की बात समझ में नहीं आ रही थी। वे सब हड़ताल पर उतर आये और उन्होंने यह धमकी दे डाली कि-’चमार लड़के को निकालो, अन्यथा हम सब अपना काम छोड़कर चले जाएँगे।‘ इस प्रकार संघर्ष पर उतारू हुए रसोइयों की समस्या प्राचार्यजी ने छात्रावासीय समिति के सामने प्रस्तुत की और समिति ने रसोइयों को ही सेवा कार्य से मुक्त करने का निर्णन ले लिया। इस निर्णय के कारण हम दयानन्द कॉलेज लाहौर के तत्त्वनिष्ठ, सिद्धान्त प्रिय संचालकों का अभिनन्दन करना अत्यावश्यक समझते हैं।

हिन्दू धर्म की जो लघु व्यवसाय करनेवाली कुछ शूद्र जातियाँ हैं, उनके अपने आन्तरिक, ’ब्राह्मण्यत्त्व‘ का इतना घमण्ड है कि दलित जाति के व्यक्तियों का पैसा लेकर भी उनका काम करने से वे बिलकुल इंकार कर देती हैं। धोबी कहता है-मैं कपड़े नहीं धोऊंगा, नाई कहता है-मैं हजामत नहीं करूंगा, नगाड़ेवाला कहता है-मैं बाजे नहीं बजाऊंगा। इस सबके पीछे पैसे न मिलने का कारण नहीं है, अपितु यह मिथ्या धारणा है कि दलितों की सेवा करने से हमारी प्रतिष्ठा भंग हो जाएगी।

इन लोगों को किसी न किसी ने, कभी न कभी तो यह सीख देनी ही चाहिए थी कि-’सम्मान केवल गुणों पर आश्रित है, जाति पर नहीं।‘ अच्छा हुआ कि यह शिक्षा दयानन्द कॉलेज लाहौर के व्यवस्थापकों ने दी। कुल के मिथ्याभिमान का आश्रय लेकन गुणवान् को तिरस्कृत करने की कामना रखने वाले गुणहीनों के दिलो-दिमाग को इस प्रकार ठिकाने लगाना तो अत्यन्त ही योग्य है।

हमें यहाँ इतना ही बुरा प्रतीत होता है कि ये बेचारी, नासमझ, नादान, बावली, पागल जातियाँ ’ब्राह्मण्य‘ की उपासक होने की वजह से थोथी, पाखण्डों, साम्प्रदायिक धारणाओं के कारण अपने जीवन की सार्थकता को खो रहीं हैं। जीवन के वास्तविक तात्पर्य से वंचित हो रही हैं। पथभ्रष्ट होकर अपने सही जीवनानन्द को गवाँ रही हैं, पर इन निराधार हुए रसोइयों की किसी को भी किसी प्रकार चिन्ता करने का कोई कारण हमारी दृष्टि में शेष नहीं है। कहते हैं कि स्वार्थ की परवाह न करते हुए (तथाकथित) धर्म की रक्षा करने के कारण उन रसोइयों की पीठ थपथपानेवाले ’भाला‘ पत्र के सम्पादक (श्री भास्कर बलवंत भोपटकर) उनका आजन्म पालन-पोषण करने वाले हैं।“

सन्दर्भ:- (1) पाक्षिक पत्र ’बहिष्कृत भारत‘, दिनांक 15 जुलाई, 1927, वर्ष प्रथम, अंक-81। (2) डॉ0 बाबासाहेब आंबेडकर आणि अस्पृश्चांची चलवल अभ्यासाची साधने। खंडदोन। डॉ0 बाबासाहेब आंबेडकरांचे ’बहिष्कृत भारत‘ (1927-1929) आणि ’मूकनायक‘ (1920)। सम्पादक-वसंत मून। प्रकाशक-एज्युकेशन डिपार्टमेंट, गवर्नमेंट ऑफ महाराष्ट्र। संस्करण-1990। पृष्ठ 62/17, 68/6। अनुवाद-कुशलदेव शास्त्री।

वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में स्वामी दयानन्दजी का दृष्टिकोण

वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में स्वामी दयानन्दजी का दृष्टिकोण

प्रश्न: क्या जिसके माता ब्राह्मणी, पिता ब्राह्मण हों, वह ब्राह्मण होता है ? और जिसके माता-पिता अन्य वर्णस्थ हों, उनका सन्तान कभी ब्राह्मण हो सकता है ?

उत्तर: हाँ बहुत से हो गये, होते हैं और होंगे भी। जैसे छान्दोग्य उपनिषद् में जाबाल ऋषि अज्ञातकुल, महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण और मातंग ऋषि चाण्डाल कुल से ब्राह्मण हो गये थे। अब भी जो उत्तम विद्या स्वभाववाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है और वैसा ही आगे भी होगा।

प्रश्न: हमारी उलटी और तुम्हारी सूधी समझ है, इसमें क्या प्रमाण है ?

उत्तर: यही प्रमाण है कि जो तुम पाँच-सात पीढ़ियों के वर्तमान को सनातन व्यवहार मानते हो और हम वेद तथा सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त की परम्परा मानते हैं। देखो, जिसका पिता श्रेष्ठ उसका पुत्र दुष्ट और जिसका पुत्र श्रेष्ठ उसका पिता दुष्ट तथा कहीं दोनों श्रेष्ठ वा दुष्ट देखने में आते हैं। इसलिए तुम लोग भ्रम में पड़े हो।

…….जो कोई रज-वीर्य के योग से (जन्मना) वर्ण-व्यवस्था मानें और गुण कर्मों के योग से न मानें तो उससे पूछना चाहिए कि-जो कोई अपने वर्ण को छोड़ अन्त्यज अथवा क्रिश्चियन-मुसलमान हो गया हो, उसको भी ब्राह्मण क्यों नहीं मानते ? यहाँ यही कहोगे कि उसने ब्राह्मण के कर्म छोड़ दिये, इसलिए वह ब्राह्मण नहीं है। इससे यह भी सिद्ध होता है, जो ब्राह्मणादि उत्तम कर्म करते हैं, वे ही ब्राह्मणादि और जो नीच भी उत्तम वर्ण के गुण कर्म स्वभाववाला होवे, तो उसको भी उत्तम वर्ण में और जो उत्तम वर्णस्थ होके नीच काम करे तो उसको नीच वर्ण में गिनना अवश्य चाहिए।

– सत्यार्थप्रकाश: चतुर्थ समुल्लास