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मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल: डॉ. सुरेन्द कुमार

मनुस्मृति के प्रवक्ता और उसके काल-निर्धारण सबन्धी प्रश्न का यह समाधान आज के लेखकों को सर्वाधिक चौंकाने वाला है। कारण यह है कि वे पाश्चात्य लेखकों द्वारा कपोलकल्पित कालनिर्धारण के रंग में इतने रंग चुके हैं कि उन्हें परपरागत सत्य, असत्य प्रतीत होता है; और कपोलकल्पित असत्य, सत्य प्रतीत होता है। आंकड़ों के अनुसार, परपरागत और पाश्चात्यों द्वारा निर्धारित मनुस्मृति के काल-निश्चय में दिन-रात या पूर्व-पश्चिम का मतान्तर है। यह तथ्य है कि भारतीय मत की पुष्टि एक सपूर्ण परपरा करती है। परपरागत सपूर्ण वैदिक एवं लौकिक भारतीय साहित्य ‘मनुस्मृति’ या ‘मानवधर्मशास्त्र’ को मूलतः मनु स्वायभुव द्वारा रचित मानता है और मनु का काल वर्तमान मानवसृष्टि का आदिकाल मानता है। इस प्रकार आदिकालीन स्वायभुव मनु की रचना होने से मनुस्मृति का काल भी वेदों के बाद वर्तमान मानवसृष्टि का आदिकाल है।

कुछ पाश्चात्य लेखक और उनकी शिक्षा-दीक्षा से अनुप्राणित उनके अनुयायी आधुनिक भारतीय लेखक मनुस्मृति का रचनाकाल 185-100 ई0 पूर्व ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्ग के जीवनकाल में मानते हैं। यह मत प्रो0 यूलर द्वारा निर्धारित है और तत्कालीन पाश्चात्य लेखकों द्वारा मान्य है। इस मतान्तर पर अपना निर्णय देने से पूर्व मैं यहा पाश्चात्यों द्वारा स्थापित मान्यताओं एवं कालनिर्धारण के मूल में उनकी मानसिकता, लक्ष्य एवं उसकी अप्रामाणिकता पर कुछ चर्चा विस्तार से करना अत्यावश्यक समझता हूं।

यह स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने अपने राजनीतिक और धार्मिक निहित लक्ष्य की पूर्ति हेतु, हजारों वर्ष पुराने भारतीय इतिहास और साहित्य की घोर उपेक्षा करके, केवल 150 वर्ष पूर्व, कपोलकल्पना द्वारा कुछ नयी मान्यताएं गढ़ीं और नये सिर से एक काल्पनिक कालनिर्धारण प्रस्तुत किया। भारतीय इतिहास को अपने स्वार्थ के अनुरूप परिवर्तित, विकृत और अस्त-व्यस्त किया। भारतीय इतिहास, संस्कृति, सयता, ऐतिहासिक व्यक्ति आदि प्राचीन सिद्ध न हों, इस कारण उन्हें ‘माइथोलॉजी’ ‘मिथक’ कहकर अप्रामाणिक बनाने का प्रयास किया। मैक्समूलर ने स्वयं स्वीकार किया है कि वैदिक साहित्य और वेद आदि का काल आनुमानिक है। आगे चलकर तो उन्होंने इनके कालनिर्धारण में असमर्थता भी प्रकट कर दी थी। फिर भी आज हम उनके कालनिर्धारण को प्रमाणिक मान रहे हैं और परपरागत भारतीय कालनिर्धारण को अप्रामाणिक कह रहे हैं, जबकि तटस्थ अंग्रेज और यूरोपियन लेखकों ने उनको प्रमाणिक नहीं माना है। वर्तमान में प्रचलित मनु और मनुस्मृति का कालनिर्धारण (185-100 वर्ष ई0 पू0) उपनिवेशवादी अंग्रेजों की ही कपोल-कल्पित देन है।

वास्तविकता यह है कि ज्यों-ज्यों पुरातत्व-विज्ञान, भाषाविज्ञान, भूगोल, ज्योतिष-संबंधी नवीन खोजें हुई हैं, त्यों-त्यों उन अंग्रेज लेखकों द्वारा स्थापित मान्यताएं एक-एक करके ढही हैं और भारतीय स्थापनाओं में बहुत की समग्रतः या अधिकांशतः पुष्टि हुई है। अंग्रेजों और उनके अनुयायियों ने बाइबल तथा डार्विन के विकासवाद के आधार पर मनुष्य की उत्पत्ति कभी दस हजार वर्ष पूर्व बताई थी और भारतीय साहित्य में वर्णित लाखों वर्ष पूर्व मानव के अस्तित्व विषयक संदर्भों को गप्प कहा था। आज के वैज्ञानिक दस हजार से हटकर दो लाख वर्ष पूर्व तक की मान्यता पर पहुंच गये हैं। पचास से पैंतीस हजार वर्ष पूर्व की तो अस्थियां भी पायी गई हैं। उन्होंने एक अरब छियानवे करोड़ के भारतीय सृष्टिसंवत् को सुनकर उसे महागप्प कहकर मखौल उड़ाया था। मैडम क्यूरी की रेडियम की खोज ने उसकी पुष्टि कर दी। अमेरिका की उपग्रह-संस्था ‘नासा’ ने पिछले दिनों उपग्रह के द्वारा भारत-श्रीलंका के बीच समुद्र में डूबे पुल को खोजा और उसका काल लाखों वर्ष पूर्व निर्धारित किया। एक गणना के अनुसार, यह रामायण के काल से मिलता है। महाभारत को काल्पनिक मानने वाले लोगों को, पाश्चात्य ज्योतिषी बेली ने ग्रहयुति के ज्योतिषीय आधार पर बताया कि महाभारत युद्ध 3102 ईसा पूर्व हुआ था।

महाभारत में वर्णित श्रीकृष्ण की ‘द्वारका’ नगरी को पुरातत्वविद् डॉ0 एस.आर. राव ने खोज निकाला। अमेरिका के मैक्सिको में मिले ‘मय-सयता’ के अद्भुत अवशेषों ने वैदिक काल के मय वंश को प्रमाणित कर दिया। ‘इंडिया इन ग्रीस’ में मिस्र के प्राचीन इतिहास के आधार पर बताया गया है कि वहां के निवासी हेमेटिक लोग ‘मनु वोवस्वत्’ (वैवस्वत) के वंशज हैं और उनके पिरामिडों में मिलने वाला सूर्यचिन्ह उस आदि पुरुष के सूर्यवंश का प्रतीक है। तुर्की और भारत में खुदाई में मिले वैदिक सयता के सूचक विभिन्न पुरावशेषों का काल पन्द्रह हजार वर्ष ईस्वी पूर्व तक आंका गया है।

कहने का अभिप्राय यह है कि नवीन खोजों के सन्दर्भ में, कुछ अंग्रेजों द्वारा प्रस्तुत कालनिर्धारण अर्थहीन और मूल्यहीन हो चुका है। आज वे कल्पित स्थापनाएं धराशायी हो चुकी हैं। ऐसे में उनको स्वीकार करने का औचित्य ही नहीं बनता। हां, यह कटु सत्य है कि कुछ लोग और वर्ग अपने नकारात्मक पूर्वाग्रहों, निहित स्वार्थों और निहित सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए उपनिवेशवादी अंग्रेजों द्वारा कल्पित मान्यताओं एवं काल-सीमाओं को बनाए रखना चाहते हैं।

अधिकांश विचारक इस मत से सहमत हैं कि मनुस्मृति का मूल प्रवक्ता मनु है और वह भी आदिकालीन ब्रह्मा का पुत्र स्वायभुव मनु ही है। इस मत को वर्णित करने वाली एक सपूर्ण साहित्यिक परपरा मिलती है। मैं भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं। इस सबन्ध में प्राप्त सामग्री के आधार पर दो प्रकार से विचार किया जा सकता है-

आदिकालीन विश्व में मनु, मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था के प्रमाण-डॉ. सुरेन्द कुमार

आगे हम सप्रमाण यह पढ़ेंगे कि आदि मानवसृष्टि-कालीन ऋषि ब्रह्मा का पुत्र मनु स्वायंभुव इस सृष्टि का आदिराजा बना। वह चक्रवर्ती सम्राट् था। ब्रह्मर्षि ब्रह्मा ने वेदों से ज्ञान प्राप्त करके जो वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रतिपादन किया था, उसको मनु ने अपने शासन में क्रियात्मक रूप दिया और आवश्यकतानुसार उसमें नयी व्यवस्थाओं का समन्वय किया। इस कारण वर्णाश्रमव्यवस्थाधारित समाज-व्यवस्था के सर्वप्रथम संस्थापक मनु स्वायंभुव कहलाये। आदि सृष्टि का प्रमुख पुरुष होने के कारण और ‘मानव’ वंश का प्रतिष्ठापक होने के कारण उसे ‘आदि-पुरुष’ भी माना गया है। धर्मविशेषज्ञ और धर्मप्रवक्ता होने के कारण उसे धर्मप्रदाता और आदिविधिप्रदाता का सम्मान प्राप्त है। मनु को यह श्रेय भारत ही नहीं अपितु अपने समय के सम्पूर्ण आवासित विश्व में प्राप्त था, इस तथ्य का ज्ञान हमें संस्कृत के प्राचीन इतिहासों और विश्व के इतिहासों से मिलता है।

मनु ‘आदि-राजा’ अथवा ‘आदि-राजर्षि’ थे। प्राचीन इतिहास में प्राप्त विवरण के अनुसार, मनु के दो पुत्र हुए – प्रियव्रत और उ    ाानपाद; दो पुत्रियां हुईं-आकृति और प्रसूति। मनु सप्तद्वीपा पृथ्वी के शासक थे। अपने बाद उन्होंने राज्य को दोनों पुत्रों में बांट दिया। प्रियव्रत को राज्य का मुख्य क्षेत्र मिला। प्रियव्रत के कुल दस पुत्र हुए। उनमें से तीन ब्राह्मण बन गये। सातपुत्रों को निम्न प्रकार सात देशों/द्वीपों का राज्य प्रदान किया। प्रियव्रत के इतिहास में पहली बार सात देशों का भौगोलिक विवरण मिलता है। इतिहासकारों द्वारा अनुमानित उन देशों की आधुनिक पहचान के साथ उनका विवरण इस प्रकार है –

देश/द्वीप (आदिकालीन)            आधुनिक क्षेत्र    प्रियव्रत के पुत्र

                                 से साम्य     जो उस देश के

                                                राजा बने

.  जम्बू द्वीप (जम्बू नदी व     एशिया महाद्वीप      अग्नीघ्र

जम्बू वन के कारण नामकरण)   (दक्षिण पूर्वी)      (ज्येष्ठ पुत्र)

.  प्लक्ष द्वीप (प्लक्ष वृक्षों के     यूरोपीय भूभाग     इध्मजिह्व

वन के कारण)

.  शाल्मलि द्वीप (शाल्मलि   वर्तमान अटलांटिक क्षेत्र   यज्ञबाहु

वृक्ष के वन के कारण)      जहां अब समुद्र ही है

.  कुशद्वीप                    अफ्रीकी भूभाग     हिरण्यरेतस्

(कुश घास के वन के कारण)

.  क्रौंच द्वीप                       उ         ारी अमेरिका     घृतपृष्ठ

(क्रौंच नामक पर्वत के कारण)

.  शाक द्वीप                  दक्षिण अमेरिका      मेधातिथि

(शाक=सागौन वन के कारण)

.  पुष्कर द्वीप                दक्षिणी ध्रुव खण्ड     वीतिहोत्र

(जल-बहुल प्रदेश होने      (तब वहां बर्फ नहीं थी)

के कारण नाम पड़ा)

ये आदिकालीन ज्ञात आवासित देश थे। इनमें से जम्बूद्वीप, शाकद्वीप और कुशद्वीप की भौगोलिक, ऐतिहासिक और प्रामाणिक खोज आधुनिक इतिहासकारों ने कर ली है। शेष द्वीपों की खोज अभी अपेक्षित है। इन द्वीपदेशों की खोज से यह प्रमाण मिल गया है कि अन्य द्वीपदेश भी भौगोलिक एवं ऐतिहासिक अस्तित्व रखते थे। खोजे गये तीन-द्वीप देशों का संक्षिप्त ऐतिहासिक एवं भौगोलिक विवरण प्रामाणिकता की दृष्टि से दिया जा रहा है, जिससे पाठक उनकी सत्यता को जान सकें और वहां की अन्य सांस्कृतिक वस्तुस्थितियों को स्वीकार करें।

(क) जम्बू द्वीप की पहचान

    प्रियव्रत का ज्येष्ठ पुत्र अग्नीध्र था जिसे जम्बूद्वीप (एशिया खण्ड) का राज्य मिला था। पृथ्वी का व्यापक क्षेत्र होने के कारण तत्कालीन भारतीय इतिहासकारों के लिए अन्य द्वीपों का विवरण जुटाना संभव नहीं हो सका, अतः भारत में इसी द्वीप से सम्बन्धित इतिहास प्रमुखता से प्राप्त होता है। अग्नीध्र के नौ पुत्र हुए। सभी राज्य के इच्छुक थे, अतः सबमें जम्बुद्वीप का राज्य निम्न प्रकार बांट दिया गया। उन्हीं पुत्रों के नाम पर उन देशों का नामकरण भी हुआ-

१.   नाभि (ज्येष्ठ पुत्र)   को     हिमालयपर्वत सहित नाभिवर्ष या आर्यावर्त मिला जिसका बाद में भारतवर्ष नाम पड़ा।

२.   किम्पुरुष           को     किम्पुरुषवर्ष, हेमकूट (कैलास पर्वत) युक्त।

३.   हरिवर्ष             को     हरिवर्ष, निषधपर्वतयुक्त।

४.   इलावृत            को     इलावृतवर्ष, मेरुपर्वतयुक्त।

५.   रम्यक            को     रम्यवर्ष, नीलपर्वतयुक्त।

६.   हिरण्य            को     हिरण्यकवर्ष, श्वेपर्वतयुक्त।

७.   कुरु               को     उ    ारकुरुवर्ष, शृंगवान्पर्वतयुक्त।

८.   भद्राश्व            को     भद्राश्ववर्ष, मेरु के पूर्वी भाग में माल्यवान् पर्वत से आगे।

९.   केतुमाल           को     केतुमालवर्ष, गन्धमादन पर्वतयुक्त। मेरु से पश्चिम का प्रदेश

    (उ) प्राचीन द्वीपों और वर्षों (देशों) की पहचान

    इनमें से जम्बूद्वीप का वर्णन भारतीय इतिहास में विस्तार से मिलता है क्योंकि भारतवर्ष इसी भूभाग से सम्बद्ध है। जम्बूद्वीप के आगे आठ वर्ष (देश) वर्णित हैं। उनकी पहचान इस प्रकार की गयी है –

१.   भारतवर्ष      (दक्षिण समुद्र से हिमालय तक, ईरान से बर्मा तक विस्तृत प्राचीन बृहत् भारत)।

२.   किम्पुरुष      (हिमालय से हेमकूट अर्थात् कैलास पर्वत तक विस्तृत किन्नौर, कश्मीर आदि का भाग)।

३.   हरिवर्ष        (कैलास से मेरुपर्वत=पामीर तक का प्रदेश ति  बत आदि। मतान्तर से सुग्द=बोखारा प्रदेश)

४.   इलावृत वर्ष    (मेरु=पामीर पर्वत के चारों ओर आसपास का क्षेत्र, रूस की बालखश झील जहां इलि नदी झील में गिरती है)।

५.   भद्राश्व वर्ष    (मेरु पर्वत से पूर्व में स्थित चीन देश। वहां का जातीय चिह्न आज तक भद्राश्व = सफेद ड्रैगन अर्थात् कल्याणकारी अश्वमुख-मकर या सर्प है)।

६.   केतुमाल वर्ष   (मेरु के पश्चिम का वह प्रदेश जहां चक्षु= वक्षु=आक्सस नदी बहकर अराल सागर में गिरती है। रूस, ईरान, अफगानिस्तान के सीमाक्षेत्र का प्रदेश)।

७.   रम्यक वर्ष    (अनुमानतः रमि या रम्नि टापुओं का पूर्ववर्ती प्रदेश, मेरुदेश से नीलपर्वत तक का क्षेत्र)।

८.   हिरण्मय      (नील पर्वत से शृंगवान् पर्वत तक का प्रदेश। (पहचान अनिश्चित)।

९.   उ   ारकुरु   (तोलोमी द्वारा वर्णित ओ   ाोरी कोराई, चीनी, तुर्किस्तान की तारिम घाटी। मतान्तर से रूस का साइबेरिया प्रदेश)।

इस प्रकार जम्बूद्वीप अर्थात् एशिया खण्ड का भूगोल प्रायः ज्ञात है। जम्बू नदी और उसके आसपास फैले विशाल जम्बू वन के कारण इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा था, जैसे पश्चिमी देशों में सिन्धु नदी के आधार पर अरबी-फारसी में स का ह होकर भारत का हिन्दुस्तान और यूनान में ‘ह’ का ‘इ’ होकर सिन्ध का इण्डस् और देश का नाम इंडिया पड़ा।

(ख) शाक द्वीप की पहचान-जम्बू द्वीप के साथ शाकद्वीप का वर्णन है और इसे क्षीरसागर से आवृत बताया है। कभी यह क्षीर सागर पश्चिम के वर्तमान कृष्णसागर से आरम्भ होकर साइबेरिया के उ       ारी भाग में फैले हुए आर्कटिक समुद्र तक एक महासागर के रूप में फैला था। इसने शाकद्वीप को घेर रखा था। अब उसके कृष्णसागर, कैस्पियन सागर, बाल्कश झील अवशेष बचे हैं। बाल्कश झील अब भी मीठे पानी की झील है। इस कारण कैस्पियन को तथा इसे ‘क्षीर सागर’ कहते थे। संस्कृत का क्षीर = (दूध) विकृत होकर फारसी में शीर हुआ है। ईरानी इसे शीरवान् कहते हैं। यूनानी यात्री मार्कोपोलो ने भी इसे शीर सागर लिखा है। इसमें प्रवाहित होने वाली नदियों का भी अर्थ इसके नाम से सम्बन्धित है। ईरान की एक नदी का नाम शीरी है और रूस की नदी का नाम मालोकोन्या (मा-लो-को) है जो अंग्रेजी श   द मिल्क=दूध से अर्थ व ध्वनिसाम्य रखती है। पुराने समय में ईरानी में शकस्थान को ‘शकान्बेइजा’=शकानां बीजः=शकों का मूलस्थान कहा गया है। यह स्थान यूरेशिया में दुनाई (डेन्यूब) नदी से त्यान्शान् अल्ताईपर्वत श्रेणी तक था। बाद में कभी ये लोग ईरान के पूर्वी भाग में आकर बस गये तो उस स्थान को शकस्थान=सीस्तान या सीथिया कहा जाने लगा। धीरे-धीरे बढ़ते हुए ये भारत में आ गये और कुषाण साम्राज्य के रूप में इनका शासन प्रसिद्ध हुआ।

श्री नन्दलाल दे ने अपनी पुस्तक ‘रसातल ओर दि अंडर वर्ल्ड’ में शोधपूर्वक बताया है कि वहां भारतीय ऐतिहासिक ग्रन्थों में वर्णित जातियों के नाम भी यथावत् मिलते हैं। वहां मग ब्राह्मण, मगग और मशक क्षत्रिय, गानग वैश्य और मन्दग नाम के शूद्र हैं। शक भाषा में शक का सग, मग का मगुस् या मगि, मगग का मगोग या गोग, गानक का गनक, मन्दग का माद अपभ्रंश प्रचलित है। ग्रीक इतिहासकार हैरोडोटस् ने भी वहां की इन चार जातियों का उल्लेख किया है। भविष्यपुराण में मगों को ‘‘आर्यदेश समुद्भवाः’’ (ब्राह्म० १३६.५९) कहा है। बहुत से इतिहासकार शकों को वैवस्वत मनुपुत्र इक्ष्वाकु के पुत्र नरिष्यन्त के वंशज मानते हैं। शकों की भाषा पूर्वकाल में संस्कृत रही है, अतः उनकी भाषा में संस्कृत के अपभ्रंश श       द मिलते हैं। शकस्थान के पर्वतों व जनपदों का संस्कृत भाषा के नामों से साम्य इस प्रकार है –

शकद्वीप = सीदिया = सीथिया         कुमुद =कोमेदेई (पर्वत)

कुमार = कोमारोई (पर्वत)              जलधार = सलतेरोई (पर्वत)

इक्षु=आक्सस (नदी)                  सीता = सीर दरिया

मूग = मरगियाना (वर्तमान मर्व प्रदेश)   मशक = मस्सगेताइ (प्रदेश)

श्यामगिरि=मुस्तामूग अर्थात् कालापर्वत

(ग) कुशद्वीप की पहचान

इसी प्रकार कुश द्वीप का भी शिलालेखों में उल्लेख मिला है। डॉ. डी. सी. सरकार ने अपनी पुस्तक ‘जियाग्राफी आफ एन्सिएंट एण्ड मैडिवल इंडिया’ पृ० १६४ पर दारयबहु (अंग्रेजी में डैरियस, ५२२ से ४८६ ईस्वी पूर्व) नामक फारस राजा के हमदान से प्राप्त शिलालेख का विवरण देते हुए बताया है कि उसकी राज्य-सीमा कुश देश तक है। उसने विवरण देते हुए लिखा है कि उसके राज्य की सीमा सोग्दियाना (शीर दरिया और आमू दरिया के पार स्थित) शक स्थान से कुरु देश तक, सिन्धु देश से स्वर्दा (एशिया माइनर में सारडिस नामक स्थान) तक है। इस प्रकार कुश द्वीप की स्थिति इथोपिया, अफ्रीका के पूर्वो      ार भाग के आसपास अनुमानित होती है। शेष द्वीपों की खोज अपेक्षित है।

(इ) सात द्वीपों में वर्णव्यवस्था के प्रमाण

संस्कृत के प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों में यह उल्लेख आता है कि पूर्वोक्त उन देशों में मनु की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था प्रचलित थी और उन देशों के समाजों में चार वर्णों से समाजिक व्यवहार सम्पन्न किये जाते थे-

(क) पुष्करद्वीप की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था-विष्णुपुराण के अनुसार सात द्वीपों में से एक पुष्कर द्वीप ऐसा था जहां वर्णाश्रम-व्यवस्था के अन्तर्गत निम्न वर्णस्थों की जनसंख्या नहीं थी। उसका कारण यह था कि वहां अधिकतः देवस्वरूप ब्राह्मण-आचरणधारी जन ही रहते थे-

    ‘‘सप्तैतानि तु वर्षाणि चातुर्वर्ण्ययुतानिच।’’ (२.४.१२)

अर्थ-ये सभी सात देश चातुर्वर्ण्यव्यवस्था से युक्त हैं।

भागवत्पुराण कहता है –‘‘तद्वर्षपुरुषा भगवन्तं ब्रह्मरूपिणं सकर्मकेण कर्मणाऽराधयन्ति’’ (५.२०.३२)=पुष्कर देशवासी ब्रह्मस्वरूप परमात्मा को अपने श्रेष्ठ आचरण से प्रसन्न रखते हैं।

    (ख) कुश द्वीप की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का विवरण-

वर्णास्तत्रापि चत्वारो निजानुष्ठानतत्पराः।

दमिनः शुष्मिणः स्नेहाः मन्देहाश्च महामुनेः।

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्रश्चानुक्रमोदिताः॥

                (विष्णुपुराण २.४.३८, ३९, ४.३८, ३९)

अर्थात्-कुशद्वीप में भी चार वर्ण हैं जो अपने-अपने वर्णकर्   ाव्यों के पालन में प्रयत्नशील रहते हैं। वहां ब्राह्मणों को दमिन् (=दमनशील इन्द्रियों वाले), क्षत्रियों को शुष्मिन् (=बलशाली), वैश्यों को स्नेह (=विनम्रशील) और शूद्रों को मन्देह (=निम्न बौद्धिक स्तर या व्यवसाय वाले) कहा जाता है।

भागवतपुराण में चार वर्णों का पर्यायनाम क्रमशः कुशल=बुद्धिमान्, कोविद=धनुर्धारी, अभियुक्त=परिश्रमी या चतुर और कुलक= श्रमिक या शिल्पी दिया है। (५.२०.१६)

    (ग) शाक द्वीप की चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का विवरण-

तत्र पुण्याः जनपदाः, चातुर्वर्ण्यसमन्विताः।

मगाः ब्राह्मणभूयिष्ठाः, मागघाः क्षत्रियास्तु ते।

वैश्यास्तु मानसाः ज्ञेयाः शूद्रास्तेषां तु मन्दगाः॥

(विष्णुपुराण २-४-२३-२५, ६४, ७० के श्लोकांश)

अर्थात्-शाकद्वीप में अनेक पुण्यशाली जनपद हैं जहां चातुर्वर्ण्य व्यवस्था प्रचलित है। वहां ब्राह्मणों का मग (=विद्याध्ययन में रत), क्षत्रियों को मगध या मगग (=गतिशील योद्धा), वैश्यों को मानस या गानक (=बहुत बुद्धिवाला, चतुर), और शूद्र को मन्दग (=मन्द बुद्धि या निम्न व्यवसाय वाला) कहा जाता है।

भागवत पुराण में चार वर्णों का पर्याय नाम क्रमशः ऋतव्रत =वेदाक्त आचरण वाले, सत्यव्रत = सत्य प्रतिज्ञा वाले, दानव्रत = दान देने की प्रतिज्ञा करने वाले, और अनुव्रत= आज्ञाकारी या आदेशपालक दिया है (५.२०.२७)।

(घ) प्लक्षद्वीप की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का विवरण-

धर्माः पञ्चस्वथैतेषु वर्णाश्रमविभागजाः।

वर्णास्तत्रापि चत्वारस्तान् निबोध गदामि ते॥

आर्यकाः कुरवश्चैव विवाशाः भाविनश्च ते।

विप्र-क्षत्रिय-वैश्यास्ते शूद्राश्च मुनिस    ामः॥

(विष्णुपुराण २.४.८, १५, १९)

अर्थात्-प्लक्ष द्वीप में वर्णाश्रम धर्मों का पालन करने वाले चार वर्ण हैं। उन्हें वहां क्रमशः आर्यक=उ     ाम आचरण वाले, कुरु=युद्ध में गर्जना करने वाले, विवाश=धनादि की कामना वाले और शूद्रों को भाविन्= निर्देशपालक व्यक्ति, कहा जाता है।

भागवतपुराण में चार वर्णों का पर्यायवाची नाम क्रमशः हंस = विवेकी, पतङ्ग=आक्रामक, ऊर्ध्वायन=उन्नतिशील, सत्याङ्ग = निष्ठावान् दिया है। कहा है कि ये चारों वर्ण तीन वेदों के मन्त्रों द्वारा परमात्मा का यजन करते हैं (५.२०.४)।

(ङ) क्रौंच द्वीप की वर्णव्यवस्था का विवरण –

पुष्कराः पुष्कलाः धन्याः तिष्याख्याश्च महामुने।

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः॥

(विष्णुपुराण २.४.५३, ५६)

अर्थ-क्रौंच द्वीप में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को क्रमशः पुष्कर=बौद्धिक पुष्टि करने वाले, पुष्कल=प्रजा का पालन-पोषण करने वाले, धन्य=धनी और तिष्य=सेवा से प्रसन्न करने वाले नाम से पुकारा जाता है।

भागवतपुराण में चार वर्णों का नाम पर्यायवाची रूप में क्रमशः पुरुष=आत्म-परमात्मचिन्तक उ   ाम पुरुष, ऋषभ=बल में श्रेष्ठ, द्रविण=धनवान् और देवक=सेवक, दिया है (५.२०.२२)।

(च) जम्बू द्वीप की वर्णव्यवस्था का विवरण-

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः मध्ये शूद्राश्च भागशः।

इज्यायुधवाणिज्याद्यैः वर्तयन्तो व्यवस्थिताः॥

(विष्णुपुराण २.३.९, २९)

अर्थ-जम्बू द्वीप (भारत सहित एशिया द्वीप में) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य निवास करते हैं। उनके साथ स्थान-स्थान पर शूद्र बसे हैं। वे वर्ण क्रमशः यज्ञ, शस्त्र, वाणिज्य आदि से अपनी आजीविका करते हुए चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में व्यवस्थित हैं।

(छ) शाल्मलि द्वीप की वर्णव्यवस्था का वर्णन –

सप्तैतानि तु वर्षाणि चातुर्वर्ण्ययुतानि च।

शाल्मले ये तु वर्णाश्च वसन्ति ते महामुने।

कपिलाश्चारुणाः पीताः कृष्णाश्चैव पृथक् पृथक्।

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चैव यजन्ति ते॥

(विष्णुपुराण २.४.१२-१३)

अर्थ-‘ऊपर वर्णित सभी सात देश चातुर्वर्ण्य व्यवस्था से युक्त हैं। शाल्मलि द्वीप में जो वर्ण हैं वे इन नामों से प्रसिद्ध हैं। ब्राह्मणों को कपिल, क्षत्रियों को अरुण, वैश्यों को पीत और शूद्रों को कृष्ण कहा जाता है।’ ये वर्णों के रंगवाची प्रतीक नाम हैं। (इनका प्रतीकार्थ विवरण अ० ३.१ में ‘ऊ’ शीर्षक में द्रष्टव्य है।)

भागवतपुराण में चार वर्णों का पर्याय नाम क्रमशः श्रुतधर=वेदों को धारण करने वाले, वीर्यधर=बलधारक, वसुन्धर=धनधारक और इषुन्धर=बाण आदि बनाने वाले, दिया है। (५.२०.११)।

यह स्वायम्भुव मनु के पौत्रों के समय का इतिहास सौभाग्य से प्राप्त है जो हमें यह जानकारी दे रहा है कि आदि मानवसृष्टि काल में केवल वर्णाश्रम व्यवस्था ही समाज की व्यवस्था थी, जो विश्वव्यापी थी। इस प्रकार यह विश्व की सर्वप्रथम समाज-व्यवस्था थी और इसके सर्वप्रथम व्यवस्थापक स्वायम्भुव मनु थे।

 

मनुस्मृति पर विदेशी विद्वानों का शोधकार्य और भाष्य: डॉ. सुरेन्द कुमार

विश्वभर में मनुस्मृति के प्रभाव और भारत एवं आसपास के देशों में उसकी मह     ाा को देखकर अनेक विदेशी विद्वान् मनुस्मृति की ओर आकृष्ट हुए। उनके द्वारा मनुस्मृति-विषयक अनेक ग्रन्थ रचे गये। उनमें से प्रमुख का विवरण इस प्रकार है, जिनमें मनुस्मृति की प्रतिष्ठा को स्वीकार किया है-

सन् १७८६ में मनु-आधारित हिन्दू कानूनों के फारसी अनुवाद का अंग्रेजी रूपान्तरण प्रकाशित हुआ। १७९४ में मनुस्मृति का सर विलियम जोन्स कृत अंग्रेजी अनुवाद छपा। विलियम जोन्स न्यायाधीश के रूप में भारत आये थे। यहां के समाज में मनुस्मृति के मह  व को देखकर उन्होंने उसको विद्यार्थी बनकर पढ़ा। १८२५ में जी०सी० हॉगटन रचित अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ। फ्रैंच भाषा में १८३३ में पार०ए० लॉअसलयूर डैसलांगचैम्पस का ग्रन्थ ‘LOIS DE MANOU’ ग्रन्थ छपा, जो मनुस्मृति का भाष्य तथा विवेचन था। १८८४ में हापकिन्ज का ‘The Ordinances of Manu’छपा। १८८६ में ऑक्सफोर्ड से The sacred books of the east

series’ के अन्तर्गत २५ वें खण्ड में मैक्समूलर और      यूहलर के भाष्य एवं समीक्षायुक्त मनुस्मृति का अनुवाद प्रकाशित हुआ। १८८७ में जे.जौली द्वारा कृत जर्मन भाषा का अनुवाद छपा। इन प्रकाशनों से विदेशों में मनु और मनुस्मृति खूब प्रचार-प्रसार हुआ।

उपर्युक्त विवरणों से हमें जानकारी मिलती है कि मनुस्मृति का विश्व में प्रसार था। उस पर विदेशी विद्वानों को भी गर्व है। भारत के लिए तो यह महान् गौरव का विषय है ही। स्पष्ट है कि मनुस्मृति आज अन्तरराष्ट्रीय स्तर के अध्ययन का विषय बन चुका है। भारत की धरोहर विश्व की धरोहर बन चुकी है। मनु और मनुस्मृति पर कोई भी टिप्पणी करने से पूर्व हमें यह विचारना पड़ेगा कि उसका विश्वस्तर पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

मनु और मनुस्मृति की विश्व में प्रतिष्ठा : डॉ. सुरेन्द कुमार

मनु और मनुस्मृति का विषय केवल भारत का ही नहीं है, यह अधिकांश विश्व से सम्बन्ध रखता है। इनका प्रभाव केवल भारत ही नहीं अपितु विश्व के अधिकांश सभ्य देशों में रहा है। प्राचीनकाल में ही मनुस्मृति का प्रसार दूर-दूर तक हो चुका था। अनेक देशों की संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, इतिहास आदि को मनुस्मृति ने प्रभावित किया है। इस प्रकार मनु और मनुस्मृति का अन्तर-राष्ट्रीय या विश्वस्तरीय मह     व है। मनु और मनुस्मृति सम्बन्धी मान्यताएं विश्व के विद्वानों में मान्यताप्राप्त (Recognised) और स्थापित (Established) हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी आदि से प्रकाशित ‘इन्सा-इक्लोपीडिया’ में, ‘द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ और श्री केबल मोटवानी द्वारा लिखित ‘मनु धर्मशास्त्र : ए सोशियोलोजिकल एण्ड हिस्टोरिकल स्टडी’ नामक पुस्तक में विस्तार से उक्त तथ्यों का वर्णन है। इन लेखकों ने दिखाया है कि मनु और मनुस्मृति का प्रभाव कि सी-न-किसी रूप में इन देशों में पाया जाता है- चीन, जापान, बर्मा, फिलीपीन, मलाया, स्याम (थाईलैंड), वियतनाम, कम्बोडिया, जावा, चम्पा (दक्षिणी वियतनाम), इंडोनेशिया, मलेशिया, बाली, श्रीलंका, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, रूस, साइबेरिया, तुर्कीस्तान, स्केडीनेविया, स्लेवनिक, गौलिक, टयूटानिक, रोम, यूनान, बेबिलोनिया, असीरिया, तुर्की, ईरान, मिश्र, क्रीट, सुमेरिया, अमेरिका तथा अमरीकी द्वीप के देश।

दक्षिणी-पूर्वी एशिया के देशों के संविधान तो मनुस्मृति पर आधारित थे और उनके लेखकों को ‘मनु’ की उपाधि प्रदान कर गौरवान्वित किया जाता था। यहां मनु और मनुस्मृति की प्रशंसा और प्रभाव विषयक कुछ विदेशी उल्लेख प्रस्तुत किये जाते हैं-

(क) चीन में प्राप्त पुरातात्विक प्रमाण-विदेशी प्रमाणों में मनुस्मृति की काल-सम्बन्धी जानकारी उपल    ध कराने वाला एक मह  वपूर्ण पुरातात्विक प्रमाण हमें चीनी भाषा के हस्तलेखों में मिलता है। सन् १९३२ में जापान ने बम विस्फोट द्वारा जब चीन की ‘ऐतिहासिक दीवार’ को तोड़ा तो उसमें लोहे का एक ट्रंक मिला, जिसमें चीनी पुस्तकों की प्राचीन पांडुलिपियां भरी थीं। वे हस्तलेख सर अॅागुत्स फ्रित्स (Auguts fritz Geogre) को मिल गये। वह उन्हें लंदन ले आया और उनको ब्रिटिश म्यूजियम में रख दिया। उन हस्तलेखों को प्रो० एन्थनी ग्रेमे (Prop.Anthony Graeme)) ने चीनी भाषा के विद्वानों से पढ़वाया। उनमें यह जानकारी मिली कि चीन के राजा चिन-इज-वांग (Chin-ize-wang) ने अपने शासनकाल में यह आज्ञा दे दी थी कि सभी प्राचीन पुस्तकों को नष्ट कर दिया जाये जिससे चीनी सभ्यता के सभी प्राचीन प्रमाण नष्ट हो जायें। तब उनको किसी विद्याप्रेमी ने ट्रंक में छिपा लिया और दीवार बनते समय उस ट्रंक को दीवार में चिनवा दिया। संयोग से वह ट्रंक बम विस्फोट में निकल आया। उन हस्तलेखों में से एक में यह लिखा है-‘मनु का धर्मशास्त्र भारत में सर्वाधिक मान्य है जो वैदिक संस्कृत में लिखा है और दस हजार वर्ष से अधिक पुराना है।’ यह विवरण केवल मोटवानी की पुस्तक ‘मनु धर्मशास्त्र : ए सोशियोलोजिकल एण्ड हिस्टोरिकल स्टडी’ (पृ० २३२, २३३) में दिया है।

यह चीनी प्रमाण मनुस्मृति के वास्तविक काल विवरण को तो प्रस्तुत नहीं करता किन्तु यह संकेत देता है कि मनु का धर्मशास्त्र बहुत प्राचीन है। फिर भी, पाश्चात्य लेखकों द्वारा कल्पित काल निर्णय को यह प्रमाण झुठला है।

(ख) ‘द कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया’ में अंग्रेज इतिहासकारों ने लिखा है कि अंग्रेज जब भारत में आये तो भारत और समस्त दक्षिणी तथा दक्षिणपूर्वी एशिया के बर्मा, कम्बोडिया, थाइलैंड, जावा, बालिद्वीप, श्रीलंका, वियतनाम, फिलीपन, मलेशिया, इंडोनेशिया, चीन और रूस के कुछ क्षेत्रों में संविधान के रूप में मनुस्मृति को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त थी। इन देशों के संविधान मनुस्मृति पर आधारित थे। वहां के राजा और संविधान-प्रणेता गौरव के साथ ‘मनु’ उपाधि धारण किया करते थे। वहां के प्राचीन शिलालेखों में मनुस्मृति के श्लोक उद्धृत मिलते हैं। बर्मा के संविधान का नाम ही ‘धम्मथट्’ और ‘मानवसार’ तथा कम्बोडिया के संविधान का ‘मानवनीतिसार’ या ‘मनुसार’ नाम था। कम्बोडिया के प्राचीन इतिहास में आता है कि कम्बोडियावासी मनु के वंशज हैं। इसी प्रकार ईरान, इराक के प्राचीन इतिहास स्वयं को आर्य और आर्यवंशी घोषित करते रहे हैं। मिस्र के वासी स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं। उनके पिरामिडों में सूर्य का चित्र अंकित मिलता है। जो सूर्यवंशी होने का प्रतीक है।

(ग) संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासकार पाश्चात्य लेखक ए.बी. कीथ ने स्वरचित ‘ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर’ में मनुस्मृति के प्रभाव और प्रशंसा का उल्लेख इस प्रकार किया है-

‘‘The influence of the text is attested by its acceptance in Burma, siam (Thailand) and Java as authoritative and production of works based on it.’’ (P.445)

अर्थात्-बर्मा, थाईलैंड, जावा आदि देशों में मनुस्मृति का प्रभाव और स्वीकार्यता एक प्रामाणिक, अधिकारिक और वहां के संविधान के स्रोतग्रन्थ के रूप में है। वहां के संविधान मनुस्मृति को आधार बनाकर लिखे गये हैं।

The smriti of manu not to guide the life of any single community, but to be a general guide for all

the classes of the state.’’ (P. 404)

 

अर्थात्-मनुरचित स्मृति (मनुस्मृति) किसी एक समुदाय के लिए ही जीवनपथ प्रदर्शक नहीं है, अपितु वह विश्व के सभी समुदायों के लिए समान रूप से जीवन का पथ प्रदर्शन करने वाली है।

(घ) जर्मन के विख्यात दार्शनिक फ्रीडरिच नीत्से ने ‘वियोंड निहिलिज्म नीत्शे, विदाउट मार्क्स’ में मनुस्मृति और बाइबल की तुलना करके मनुस्मृति को बाइबल से उतम शास्त्र माना तथा बाइबल को छोड़कर मनुस्मृति को पढ़ने का नारा दिया। नीत्से ने कहा-

‘‘How wretched is the new testamant compared to manu. How faul it smalls!’’ (P.41)‘‘Close the bible and open the cod of manu.’’ (The will to power’, Vol. I, Book II, P.126)

अर्थात्-मनुस्मृति बाइबल से बहुत उत्तम ग्रन्थ है। बाइबल से तो अश्लीलता और बुराइयों की बदबू आती है। बाइबल को बंद करके रख दो और मनुस्मृति को पढो।

(ङ) भारतरत्न श्री पी.वी. काणे, जो धर्मशास्त्रों के प्रामाणिक इतिहासकार व शोधकर्ता हैं, ने भी अपने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ नामक बृहद्ग्रन्थ में ऐसी ही जानकारी दी है। वे लिखते हैं-

‘मनुस्मृति का प्रभाव भारत के बाहर भी गया। चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) के एक अभिलेख में बहुत-से श्लोक मनु से मिलते हैं। बर्मा में जो ‘धम्मथट्’ है, वह मनु पर आधारित है। बालिद्वीप का कानून मनुस्मृति पर आधारित था।’ (भाग १, पृ० ४७.)

(च) एशिया के इतिहास पर पेरिस यूनिवर्सिटी से डी.लिट् उपाधिप्राप्त और अनेक पुरस्कारों से सम्मानित इतिहासज्ञ डॉ० सत्यकेतु विद्यालंकार ने ‘दक्षिण-पूर्वी और दक्षिणी एशिया में भारतीय संस्कृति’ पुस्तक में प्रस्तुत विषय से सम्बन्धित अनेक जानकारियां दी हैं। जो इस प्रकार हैं-

१. ‘‘फिलीप्पीन के निवासी यह मानते हैं कि उनकी आचार-संहिता मनु और लाओत्से की स्मृतियों पर आधारित है। इसलिये वहां की विधानसभा के द्वार पर इन दोनों की मूर्तियां भी स्थापित की गई हैं।’’ (पृ० ४७)

२. ‘‘चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) के अभिलेखों, राजकीय शिलालेखों से सूचित होता है कि वहां के कानून प्रधानतया मनु, नारद तथा भार्गव की स्मृतियों तथा धर्मशास्त्रों पर आधारित थे। एक अभिलेख के अनुसार राजा जयइन्द्रवर्मदेव मनुमार्ग (मनु द्वारा प्रतिपादित मार्ग) का अनुसरण करने वाला था।’’ (पृ० २५४)

३. ‘‘चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) का जीवन वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था।……..राजा वर्णाश्रम-व्यवस्था की स्थापना के आदर्श को सदा अपने सम्मुख रखते थे। १७९९ ईस्वी के राजा इन्द्रवर्मा प्रथम के अभिलेख में उसकी राजधानी के सम्बन्ध में यह लिखा गया है…….वहां वर्ण तथा आश्रम भली-भांति सुव्यवस्थित थे।’’

(=निरुपद्रववर्णाश्रम-व्यवस्थिति)’’ (पृ० २५७)

४. ‘‘धम्मथट् या धम्मसथ नाम के ग्रन्थ वर्मा देश की आचार-संहिताएं और संविधान हैं। ये मनु आदि की स्मृति पर आधारित हैं। ‘सोलहवीं’ सदी में बुद्धघोष ने उसे ‘मनुसार’ नाम से पालि भाषा में अनूदित किया। इस धम्मथट् का ‘मनुसार’ नाम होना ही यह सूचित करता है कि ‘मनुस्मृति’ या ‘मानव संहिता’ के आधार पर इसकी रचना की गई थी। धम्मसथ वर्ग के जो अनेक ग्रन्थ सतरहवीं और अठाहरवीं सदियों में बरमा में लिखे गये, उनके साथ भी मनु का नाम जुड़ा है।’’ (पृ० २९७)

५. ‘‘कम्बोडिया के लोग मनुस्मृति से भली-भांति परिचित थे। राजा उदयवीर वर्मा के ‘सदोक काकथेम’ से प्राप्त अभिलेख में ‘मानव नीतिसार’ का उल्लेख है, जो मानव सम्प्रदाय का नीतिविषयक ग्रन्थ था। यशोवर्मा के ‘प्रसत कोमनप’ से प्राप्त अभिलेख में मनुसंहिता का एक श्लोक भी दिया गया है। जो आज मनुस्मृति अ.२, श्लोक १३६ पर प्राप्त है।’’ इसमें सम्मान-व्यवस्था का विधान है। (पृ० १९८)

६. ‘‘६६८ ईस्वी में जयवर्मा पंचम कम्बुज (कम्बोडिया) का राजा बना……..एक अभिलेख में इस राजा के विषय में लिखा है कि उसने ‘वर्णों और आश्रमों को दृढ़ आधार पर स्थापित कर भगवान् को प्रसन्न किया।’’ (पृ० १४९)

७. ‘‘राजा जयवर्मा प्रथम के अभिलेख में दो मन्त्रियों का उल्लेख है, जो धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे। ‘मनुसंहिता’ सदृश ग्रन्थों को धर्मशास्त्र कहा जाता था…। जो धर्मशास्त्र कम्बुज (कम्बोडिया) देश में विशेष रूप से प्रचलित थे, उनमें मनुसंहिता का विशिष्ट स्थान था।’’ (पृ० १९८)

८. बालि द्वीप (इंडोनेशिया) के समाज में आज भी वर्णव्यवस्था का प्रचलन है। वहां अब भी वैदिक वर्णव्यवस्था के प्रभाव से उच्चजातियों को ‘द्विजाति’ तथा शूद्र का नाम ‘एकजाति’ प्रचलित है जो कि मनु ने १०.४ श्लोक में दिया है। वहां शूद्रों के साथ कोई भेदभाव तथा ऊंच-नीच, छुआछूत आदि का व्यवहार नहीं है। यही मनु की वर्णव्यवस्था का वास्तविक रूप था। (दक्षिणपूर्वी और दक्षिणी एशिया में भारतीय संस्कृति : डा० सत्यकेतु विद्यालंकार, पृ० १९, ११४)

(छ) यूरोप के प्रसिद्ध लेखक पी. थामस अपनी पुस्तक च्‘Hindu

religion, customs and mannors’में मनुस्मृति का मह    व वेदों के उपरान्त सबसे अधिक बतलाते हैं-

‘‘The code of manu is of great autiquity, only less

ancient then the three vedas.’’ (P.102)

अर्थात्-मनु का संविधान (मनुस्मृति) सर्वोच्च स्थान रखती है। वेदों के बाद उसी का सर्वोच्च मह व है।

(ज) अमेरिका से प्रकाशित ‘दि मैकमिलन फैमिली इन्साइक्लो-पीडिया’ में भी मनु को मानवजाति का आदिपुरुष और आदि-समाज-व्यवस्थापक बताया है-

‘‘Manu is the progenitor of the human race. He is thus the lord and guardian of the living.’’ (P. 131)

अर्थात्-‘मनु मानवजाति का आदिपुरुष है। वह आदिसमाज का व्यवस्थापक या आदि सभ्यता का पथप्रदर्शक राजा है।’

(झ) रूस के विचारक पी.डी. औसमेंस्की ने कहा है कि मनुस्मृति की सर्वश्रेष्ठ समाजव्यवस्था के अनुसार मनुष्य समाज की पुनः संरचना होनी चाहिये (ए न्यू मॉडल आफ यूनिवर्स)।

(ञ) इंगलैंड के प्रसिद्ध लेखक डॉ. जी.एच.मीज ने वर्णव्यवस्था के पहले तीन वर्णों में समाज को बांटते हुए कहा है कि इस व्यवस्था के होने पर धरती स्वर्ग में बदल जायेगी (वर्क, वैल्थ एण्ड हैप्पिनैस आफ मैनकाइंड)।

(ट) विश्व में इस व्यवस्था के प्रसार के सम्बन्ध में डॉ० अम्बेडकर का कथन है-

‘‘चातुर्वर्ण्य पद्धति………यह संपूर्ण विश्व में व्याप्त थी। वह मिस्र के निवासियों में थी और प्राचीन फारस के लोगों में भी थी। प्लेटो इसकी उत्कृष्टता से इतना अभिभूत था कि उसने इसे सामाजिक संगठन का आदर्श रूप कहा था।’’ (डॉ. अम्बेडकर वाङ्मय खंड, ७, पृ० २१०)

(ठ) मैडम एनी बीसेन्ट (जर्मनी) ने मनुस्मृति की प्रशंसा करते हुए कहा है कि ‘‘यह ग्रन्थ भारतीय और अंग्रेज सभी के लिए समान रूप से उपयोगी है, क्योंकि आज के समस्यापूर्ण दैनिक प्रश्नों के समाधानात्मक उ   ारों से यह परिपूर्ण है। ’’(द साइंस एण्ड सोशल आर्गनाइजेशन,भूमिका,पृ० 331द्बद्ब ,भगवानदास)

(ड) बैलजियम के विद्वान् लेखक मनुस्मृति को अध्यात्म ज्ञान एवं वैधानिक प्रमाण में सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ मानते हैं। उनका कहना है कि यह जीवन के सत्यों को प्रतिपादित करता है। (द ग्रेट सीक्रेट, पृ० ९५)

(ढ) मैडम एच० पी०     लेवैट्स्की ने अपनी कृति “Isis UnVeiled” में मनुस्मृति को आदित्म ज्ञानस्रोत प्रतिपादित किया है। पुरातत्ववे    ाा वी० गार्डन चाईल्ड ने इस मत का समर्थन किया है। (केवल मोटवानी रचित, पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० १९७-२०१)

डॉ० अम्बेडकर के मतानुसार मनुस्मृति और मनु की प्रतिष्ठा एवं प्रामाणिकता: डॉ. सुरेन्द कुमार

.   मनुस्मृति धर्मग्रन्थ एवं विधिग्रन्थ है

भारतीय साहित्य और डॉ. अम्बेडकर इस बात पर एकमत हैं कि ‘मनु मानव-समाज के आदरणीय आदि-पुरुष हैं।’ अब यह विचारणीय रहता है कि उस मनु ने कैसी समाज-व्यवस्था प्रदान की है। मनुस्मृति का अध्ययन करने के उपरान्त डॉ० अम्बेडकर ने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है-

(क) ‘‘स्मृतियां अनेक हैं, तो भी वे मूलतः एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं।………इनका स्रोत एक ही है। यह स्रोत है ‘मनुस्मृति’ जो ‘मानव धर्मशास्त्र’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। अन्य स्मृतियां मनुस्मृति की सटीक पुनरावृ     िा हैं। इसलिए हिन्दुओं के आचार-विचार और धार्मिक संकल्पनाओं के विषय में पर्याप्त अवधारणा के लिए मनुस्मृति का अध्ययन ही यथेष्ट है।’’ (डॉ० अम्बेडकर वाङ्मय, खंड ७, पृ० २२३)

(ख) ‘‘अब हम साहित्य की उस श्रेणी पर आते हैं जो स्मृति कहलाता है। जिसमें से सबसे मह   वपूर्ण मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति हैं।’’ (वही, खंड ८, पृ० ६५)

(ग) ‘‘मैं निश्चित हूं कि कोई भी रूढिवादी हिन्दू ऐसा कहने का साहस नहीं कर सकता कि मनुस्मृति हिन्दू धर्म का धर्मग्रन्थ नहीं है।’’ (वही, खंड ६, पृ० १०३)

(घ) ‘‘मनुस्मृति को धर्मग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।’’ (वही, खंड ७, पृ० २२८)

(ङ) ‘‘मनुस्मृति कानून का ग्रन्थ है, जिसमें धर्म और सदाचार को एक में मिला दिया गया है। चूंकि इसमें मनुष्य के कर्    ाव्य की विवेचना है, इसलिए यह आचार शास्त्र का ग्रन्थ है। चूंकि इसमें जाति (वर्ण) का विवेचन है, जो हिन्दू धर्म की आत्मा है, इसलिए यह धर्मग्रन्थ है। चूंकि इसमें कर्      ाव्य न करने पर दंड की व्यवस्था दी गयी है, इसलिए यह कानून है।’’ (वही खंड ७, पृ. २२६)

इस प्रकार मनुस्मृति एक संविधान है, धर्मशास्त्र है, आचार शास्त्र है। यही प्राचीन भारतीय साहित्य मानता है। सम्पूर्ण साहित्य में मनुस्मृति को सबसे प्राचीन और सर्वोच्च स्मृति घोषित किया है। डॉ० अम्बेडकर की उपर्युक्त यही मान्यता स्थापित होती है।

.   मनुस्मृति का रचयिता मनु आदरणीय है

डॉ० अम्बेडकर उक्त मनुस्मृति के रचयिता को आदर के साथ स्मरण करते हैं-

(क) ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में मनु आदरसूचक संज्ञा थी।’’ (वही, खंड ७, पृ० १५१)

(ख) ‘‘याज्ञवल्क्य नामक विद्वान् जो मनु जितना महान् है।’’ (वही, खंड ७, पृ० १७९)

जहां डॉ० अम्बेडकर का साहित्य-समीक्षक का रूप होता है वहां वे मनु और मनुस्मृति को सम्मान के साथ स्मरण करते हैं। इस स्थिति में प्रश्न उठता है कि मान्यताओं की एकरूपता होने पर भी मनु का विरोध क्यों?

भारतीय साहित्य में मनु की प्रतिष्ठा एवं प्रामाणिकता: डॉ. सुरेन्द कुमार

पाश्चात्य तथा आधुनिक लेखकों के मतानुसार वेदों के बाद संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थों का रचनाकाल आता है। ये वैदिक साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इन वैदिक ग्रन्थों से लेकर अंग्रेजी शासनकाल तक भारत में मनु और मनुस्मृति की सर्वोच्च प्रतिष्ठा, प्रामाणिकता तथा वैधानिक मह   ाा रही है। देश-विदेश के लेखकों के अनुसार, महर्षि मनु ही पहले वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने संसार को एक व्यवस्थित, नियमबद्ध, नैतिक एवं आदर्श मानवीय जीवन जीने की पद्धति सिखायी है। वे मानवों के आदिपुरुष हैं, वे आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि विधिदाता (लॉ गिवर), आदि समाज व्यवस्थापक और राजनीति-निर्धारक, आदि राजर्षि हैं। मनु ही वह प्रथम धर्मगुरु हैं, जिन्होंने यज्ञपरम्परा का जनता में प्रवर्तन किया। उनके द्वारा रचित धर्मशास्त्र, जिसको कि आज ‘मनुस्मृति’के नाम से जाना जाता है, सबसे प्राचीन स्मृतिग्रन्थ है। अपने साहित्य और इतिहास को उठाकर देख लीजिए, वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक एक सुदीर्घ परम्परा उन शास्त्रकारों, साहित्यकारों, लेखकों, कवियों और राजाओं की मिलती है, जिन्होंने मुक्तकण्ठ से मनु की प्रशंसा की है।

(क) प्राचीनतम वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणग्रन्थों में मनु के वचनों को ‘‘औषध के समान हितकारी और गुणकारी’’ कहा है-

‘‘मनुर्वै यत्किञ्चावदत् तद् भैषजम्’’

(तै  िारीय संहिता २.२.१०.२; ताण्डय ब्राह्मण २३.१६.७)

अर्थात्-मनु ने जो कुछ कहा है, वह मानवों के लिए भेषज=औषध के समान कल्याणकारी एवं गुणकारी है।

संहिता-ग्रन्थों का यह वचन यह सिद्ध करता है कि उस समय मनु के धर्मशास्त्र को सर्वोच्च प्रामाणिक माना जाता था। धर्मनिश्चय में उसका सर्वाधिक मह      व था। एक ही रूप में कई ग्रन्थों में पाया जानेवाला यह वाक्य इस बात की ओर भी इंगित करता है कि मनु का धर्मशास्त्र उस समय इतना लोकप्रिय हो चुका था कि वह औषध के तुल्य हितकारी और कल्याणकारी-गुणकारी के रूप में स्वीकृत था। इसी कारण उसके विषय में उपर्युक्त उक्ति भी प्रसिद्ध हो चुकी थी।

(ख) निरुक्त में, महर्षि यास्क ने दायभाग में पुत्र-पुत्री के समान-अधिकार के विषय में किसी प्राचीन ग्रन्थ का श्लोक उद्धृत करके मनु के मत का प्रमाण रूप में उल्लेख किया है। वह श्लोक है-

   अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।  

   मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्॥ (३.४)

    अर्थ-‘कानून के अनुसार, दायभाग के विभाजन में, पुत्र-पुत्री में कोई भेद नहीं होता अर्थात् उन्हें समान दायभाग मिलता है।’ यह विधान, मानवसृष्टि के आरम्भिक काल में मनु स्वायम्भुव ने किया था।

मनु का यह समानाधिकार सम्बन्धी मत प्रचलित मनुस्मृति के ९। १३०, १९२, २१२ श्लोकों में वर्णित है। यथा-

यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।

         तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत्॥ (९। १३०)

जैसी अपनी आत्मा है, वैसा ही पुत्र होता है और पुत्र के समान ही पुत्री होती है, उस आत्मारूप पुत्री के रहते हुए कोई दूसरा धन को कैसे ले सकता है, अर्थात् पुत्र के साथ पुत्री भी धन की समान अधिकारिणी होती है।

(ग) वाल्मीकि-रामायण में, बालि और सुग्रीव के परस्पर युद्ध के अवसर पर, राम द्वारा बालि पर प्रहार किये जाने पर घायल बालि राम के उस कृत्य को अनुचित एवं अधर्मानुकूल ठहराता है। तब राम अपने उस कृत्य का औचित्य सिद्ध करने के लिए मनुस्मृति के वचनों को प्रमाणरूप में प्रस्तुत करते हैं और दो श्लोक उद्धृत करके अपने कार्य को धर्मानुकूल सिद्ध करते हैं। वे दोनों श्लोक प्रचलित मनुस्मृति में किञ्चित् पाठान्तर से ८। ३१६, ३१८ में पाये जाते हैं। उन वचनों से भी ज्ञात होता है कि राम के समय मनुस्मृति को धर्मनिश्चय में अत्यधिक प्रामाणिकता, प्रसिद्धि, मान्यता और मह     ाा प्राप्त की थी। (श्लोक आगे पृ० ५८ पर उद्धृत)

(घ) महाभारत में अनेक स्थलों पर मनु को विशिष्ट प्रामाणिक स्मृतिकार के रूप में वर्णित किया है। महाभारत के निम्न श्लोक से ज्ञात होता है कि उस समय मनु के वचनों को कुतर्क आदि के द्वारा अखण्डनीय माना जाता था-

पुराणं मानवो धर्मः वेदाः सांगाश्चिकित्सकम्।

आज्ञासिद्धानि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः॥

(महा० अनु० अ० ९२)

अर्थ-‘पुराण अर्थात् ब्राह्मणग्रन्थ, मनु द्वारा प्रतिपादित धर्म, सांगोपांग वेद और आयुर्वेद, इनका आदेश सिद्ध है। इन चारों का हेतुशास्त्र का आश्रय लेकर कुतर्क आदि के द्वारा खण्डन नहीं करना चाहिए।’

(ङ) आचार्य बृहस्पति ने तो अपनी स्मृति में स्पष्ट श दों में मनुस्मृति को सर्वोच्च मान्य स्मृति घोषित किया है। उसकी प्रामाणिकता और मह    ाा की उद्घोषणा करते हुए और उसकी प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं-

वेदार्थोपनिबद्धत्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम्।

मन्वर्थविपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते॥

तावच्छास्त्राणि शोभन्ते तर्कव्याकरणानि च।

धर्मार्थमोक्षोपदेष्टा   मनुर्यावत्र   दृश्यते॥

(बृह० स्मृति संस्कारखण्ड १३-१४)

अर्थात्-वेदार्थों के अनुसार रचित होने के कारण सब स्मृतियों में मनुस्मृति ही सबसे प्रधान एवं प्रशंसनीय है। जो स्मृति मनु के मत से विपरीत है, वह प्रशंसा के योग्य अथवा ग्राह्य नहीं है। तर्कशास्त्र, व्याकरण आदि शास्त्रों की शोभा तभी तक है, जब तक धर्म, अर्थ, मोक्ष का उपदेश देने वाला मनु-धर्मशास्त्र उपस्थित नहीं होता अर्थात् मनु के उपदेशों के समक्ष सभी शास्त्र मह    वहीन और प्रभावहीन प्रतीत होते हैं।

(च) महात्मा बुद्ध अपने उपदेशों में मनुस्मृति के श्लोकार्थ उद्धृत कर मनु को सम्मान देते थे। धम्मपद बौद्धों का धर्मग्रन्थ है। उसमें महात्मा बुद्ध के उपदेश संकलित हैं। महात्मा बुद्ध का काल लगभग २५०० वर्ष पूर्व है। मनु के श्लोकों का पालि भाषा में रूपान्तरण धम्मपद में मिलता है। इसका भाव यह है कि मनुस्मृति बौद्धों में भी मान्य रही है। दो उदाहरण देखिए-

मनु–     अभिवादनशीलस्य   नित्यं   वृद्धोपसेविनः।

         चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम्॥ (२.१२१)

धम्मपद में

‘‘अभिवादनसीलस्स निच्चं बुढ्ढापचायिनो।  

ाारो धम्मा वड्ढन्ति आयु विद्दो यसो बलम्॥’’ (८.१०)

मनु– न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः। (२.१५६)

धम्मपद में– ‘‘न तेन थेरोसि होति येनस्स पलितं सिरो।’’ (१९.५)

(छ) बौद्ध महाकवि अश्वघोष ने, जो राजा कनिष्क का समकालीन था, जिसका कि समय प्रथम शता    दी माना जाता है, अपनी ‘वज्रकोपनिषद्’ कृति में अपने पक्ष के समर्थन में मनु के श्लोकों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है।

(ज) विश्वरूप ने अपने यजुर्वेदभाष्य और याज्ञवल्क्य स्मृति भाष्य में मनु के अनेक श्लोकों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया हैं।

(झ) शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्रभाष्य में मनुस्मृति के पर्याप्त प्रमाण दिये हैं।

(ञ) ५०० ई० में जैमिनि-सूत्रों के भाष्यकार शबरस्वामी ने अपने भाष्य में मनु के अनेक वचनों का उल्लेख किया है।

(ट)याज्ञवल्क्य स्मृति के एक अन्य भाष्यकार विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य-स्मृति के श्लोकों की पुष्टि के लिए मनु के श्लोकों को पर्याप्त संख्या में उद्धृत किया है।

(ठ) गौतम, वशिष्ठ, आपस्तम्ब, आश्वलायन, जैमिनि, बौधायन आदि सूत्रग्रन्थों में भी मनु का आदर के साथ उल्लेख है।

(ड) आचार्य कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में बहुत से स्थलों पर मनुस्मृति को आधार बनाया है और कई स्थलों पर मनु के मतों का उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त भी बहुत सारे ऐसे ग्रन्थ हैं, जिन्होंने अपनी प्रामाणिकता और गौरव बढ़ाने के लिए अथवा मनु के मत को मान्य मानकर उद्धृत किया है।

(ढ) वलभी के राजा धारसेन के ५७१ ईस्वी के शिलालेख में मनुधर्म को प्रामाणिक घोषित किया है।

(ण) बादशाह शाहजहां के लेखकपुत्र दाराशिकोह ने मनु को वह प्रथम मानव कहा है, जिसे यहूदी, ईसाई, मुसलमान ‘आदम’ कहकर पुकारते हैं।

(त) गुरु गोविन्दसिंह ने ‘दशम ग्रन्थ’ में मनु का मुक्तकण्ठ से गुणगान किया है। उन्होंने ‘दशम ग्रन्थ’ में एक पूरा काव्य संदर्भ मनु के विषय में वर्णित किया है।

(थ) आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने वेदों के बाद मनुस्मृति को ही धर्म में सर्वाधिक प्रमाण माना है।

(द) श्री अरविन्द ने मनु को अर्धदेव के रूप में सम्मान दिया है।

(ध) श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर, भारत के राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन्, भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू आदि राष्ट्रनेताओं ने मनु को ‘आदि लॉ गिवर’ के रूप में उल्लिखित किया है।

(न) अनेक कानूनविदों- जस्टिस डी.एन.मुल्ला, एन.राघवाचार्य आदि ने स्वरचित हिन्दू लॉ-सम्बन्धी ग्रन्थों में मनु के विधानों को ‘अथॉरिटी’ घोषित किया है।

(प) मनु की इन्हीं विशेषताओं के आधार पर, लोकसभा में भारत का संविधान प्रस्तुत करते समय जनता और पं० नेहरू ने, तथा जयपुर में डॉ० अम्बेडकर की प्रतिमा का अनावरण करते समय तत्कालीन राष्ट्रपति आर.वेंकटरमन ने डॉ. अम्बेडकर को ‘आधुनिक मनु’ की संज्ञा से गौरवान्वित किया था।

(फ) सभी स्मृति-ग्रन्थों एवं धर्मशास्त्रों में, प्राचीनकाल से लेकर अब तक सर्वाधिक टीकाएं एवं भाष्य, मनुस्मृति पर ही लिखे गये हैं और अब भी लिखे जा रहे हैं। यह भी मनुस्मृति की सर्वोच्चता एवं सर्वाधिक प्रभावशीलता का द्योतक है।

आजकल भी पठन-पाठन, अध्ययन-मनन में मनुस्मृति का ही सर्वाधिक प्रचलन है। हिन्दू कोड बिल एवं हिन्दू विधान का प्रमुख आधार मनुस्मृति को माना जाता है। अनेक संदर्भों में, आजकल भी न्यायालयों में न्याय दिलाने में मनुस्मृति का मह  वपूर्ण योगदान रहता है। सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं के प्रसंग में मनुस्मृति का उल्लेख अनिवार्य रूप से होता है और इससे मार्गदर्शन भी प्राप्त किया जाता है।

मनुवाद का सही अर्थ: डॉ. सुरेन्द कुमार

‘मनुवाद’ का शाब्दिक अर्थ है-‘महर्षि मनु की विचारधारा।’ मनुस्मृति में वर्णित मौलिक सिद्धान्तों के अनुसार मनु की विचारधारा है- ‘गुण, कर्म, योग्यता के श्रेष्ठ मूल्यों पर आधारित वर्णाश्रम-व्यवस्था। मनु की वर्णव्यवस्था ऐसी समाजव्यवस्था थी जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचि, गुण, कर्म एवं योग्यता के आधार पर किसी भी वर्ण का चयन करने की स्वतन्त्रता थी और वह स्वतन्त्रता जीवनभर रहती थी। उस वर्णव्यवस्था में जन्म का मह    व उपेक्षित था, ऊंच-नीच, छूत-अछूत का कोई भेदभाव नहीं था, व्यक्ति-व्यक्ति में असमानता नहीं थी, पक्षपातपूर्ण और अमानवीय व्यवहार सर्वथा निन्दनीय था। एक ही श द में कहें तो ‘मनुवाद’ मानववाद का ही दूसरा नाम था।

इसके विपरीत, गुण, कर्म, योग्यता के मानदण्डों की उपेक्षा करके जन्म, असमानता, पक्षपात और अमानवीयता पर आधारित विचारधारा ‘गैर मनुवाद’ कहलायेगी।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘मनुवाद’ श    द का प्रयोग आज जान-बूझ कर गलत अर्थ में किया जा रहा है और इसे सोची-समझी रणनीति के अन्तर्गत किया जा रहा है, ताकि एक बहुत बड़े जनसमुदाय को भारत के अतीत और अन्य समुदायों से काटकर अलग-अलग किया जा सके। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि स्वयं को कोई कितना ही विद्वान्, लेखक, समीक्षक, विचारक या इतिहासवे   ाा कहे, ‘मनुवाद’ को जातिव्यवस्था के संदर्भ में प्रयुक्त करने वाला व्यक्ति मनुस्मृति का मौलिक, गम्भीर, विश्लेषणात्मक और यथार्थ अध्येता नहीं माना जा सकता। उसने जो कुछ पढ़ा है वह छिछले तौर पर, और दूसरों के दृष्टिकोण से पढ़ा है; क्योंकि, मौलिक रूप से ‘मनुस्मृति’ उस ब्रह्मापुत्र स्वायंभुव मनु की रचना है जो भारतीय इतिहास का क्षत्रियवर्णधारी आदिराजा था। ऐतिहासिक दृष्टि से उस समय जाति-व्यवस्था का उद्भव ही नहीं हुआ था। जब जाति-व्यवस्था का उद्भव ही नहीं हुआ था, तो ‘मनुवाद’ का जाति-व्यवस्थापरक अर्थ करना ऐतिहासिक अज्ञानता, मनुस्मृति-ज्ञान की शून्यता और दुराग्रह मात्र ही है? मेरी इस आपत्ति का उत्तर वे लेखक दें जो ‘मनुवाद’ का जातिव्यवस्थापरक अर्थ करते हैं। मैं उन लेखकों के समक्ष यह चुनौती उपस्थित करता हूं। क्या वे इसका प्रामाणिक ऐतिहासिक   उत्तर  देना स्वीकार करेंगे?

मनुस्मृति और मनुवाद : भ्रांतियों का जन्म : डॉ. सुरेन्द्र कुमार

विगत सहस्त्राब्दी के लगभग आठ सौ वर्षों तक भारत विदेशी शासकों के अधीन रहा। इस अवधि में उन विदेशी शासकों के साहित्य, संस्कृति, आचार-व्यवहार और सम्प्रदायों का भारतीय जनमानस पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। उनके प्रभाव से भारतीय संस्कृति, साहित्य, धर्म, परम्परा आदि का ह्रास हुआ। उनके कारण हमारे चिन्तन-मनन, आचार-विचार, आहार-विहार आदि में परिवर्तन आया, और आज भी आ रहा है।

विदेशी शासनों में भी सर्वाधिक गम्भीर और दूरगामी प्रभाव पड़ा अंग्रेजी शासन और अंगेजियत का। उन्होंने भारतवासियों को राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं अपितु बौद्धिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी गुलाम बनाने का षड्यन्त्र किया। इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों ने पादरीपुत्र लॉर्ड बेबिंगटन मैकाले द्वारा प्रस्तावित शिक्षा पद्धति को लागू किया। इस शिक्षा पद्धति का लक्ष्य जहां अंग्रेजी शासन के लिए क्लर्क तैयार करना था वहीं भारतीयों को भारतीयता से काटकर ईसाइयत के लिए आधारभूमि तैयार करना था। इसी लक्ष्य को आगे बढ़ाने के अनेक अंग्रेज लेखकों ने भारतीय धर्म, धर्मशास्त्र, साहित्य, इतिहास आदि का अंग्रेजियत के अनुकूल लक्ष्य को सामने रखकर मूल्यांकन किया और प्रत्येक विषय में भ्रान्ति, शंका तथा हीनता का भाव उत्पन्न किया। उन्होंने सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास और परम्परा को अमान्य करते हुए नये सिरे से उसका पक्षपातपूर्ण विश्लेषण करके उसके अधिकांश भाग को मिथक तथा प्राचीन को नवीन घोषित किया।

अंग्रेजी शासन काल में उच्च शिक्षा के नाम पर अनेक लोगों को भारत से इंग्लैंड भेजा गया और वहां वही पढ़ाया गया जो अंग्रेज कूटनीतिक दृष्टि से चाहते थे। वहां से लौटने पर उन्हीं लोगों को सता में भागीदारी दी। उन्होंने जो पढ़ा था, भारत में आकर मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षापद्धति के अन्तर्गत वही बताया, पढ़ाया, लिखाया। इस तरह अंग्रेजी मान्यताओं से प्रभावित उनके मानसपुत्रों का एक पूरा वर्ग तैयार हो गया जिसकी विचार-वंश-परम्परा आज तक चली आ रही है।

१५ अगस्त १९४७ को भारत के राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र होने पर अंग्रेज तो चले गये किन्तु अंग्रेजियत यहीं रह गयी। मैकाले की शिक्षापद्धति से भारत आज तक भी मुक्त नहीं हो पाया है। अंग्रेजों द्वारा स्थापित मान्यताएं आज भी गौरव के साथ पढ़ाई और मानी जा रही हैं। उनके बोये विष के बीज कहीं भाषावाद, कहीं नस्लवाद, कहीं क्षेत्रवाद, कहीं घृणावाद के रूप में आज भी फलित हो रहे हैं और विडम्बना तो यह है कि हम भारतीय ही आज उन मान्यताओं के ध्वजवाहक बने हुए हैं।

मनुस्मृति के स्वरूप को विकृत करने वाला तो वह पूर्वज भारतीय ब्राह्मण-वर्ग था जिसने अपने विकृत आचरण, स्वार्थपूर्ण मानसिकता और पक्षपातपूर्ण लक्ष्यों को शास्त्रसम्मत सिद्ध करने के लिए मनुस्मृति में समय-समय पर मनचाहे प्रक्षेप किये, किन्तु मनुस्मृति और मनुवाद के विषय में प्रायोजित रूप में भ्रान्ति-जाल फैलाने वाले पहले लेखक अंग्रेज ही थे। उसके पश्चात् भारतीयों की वह पीढ़ी है जिन्होंने अंग्रेज लेखकों के निष्कर्षों को स्पंज की तरह सोखा और फिर ज्यों की त्यों उगल दिया। उसी परम्परा में डॉ० भीमराव रामजी अम्बेडकर भी थे जो अंग्रेजी परम्परा के निष्कर्षों के बौद्धिक अनुसरणक र्ाा के साथ-साथ मनु और मनुस्मृति के तीव्र विरोधी भी बने। क्योंकि वे दलित वर्ग से सम्बद्ध नेता थे, अतः दलितों के बहुत बड़े वर्ग ने उन्हीं की मान्यताओं का अन्धानुकरण किया। इस प्रकार एक बहुत बड़ा वर्ग मनु और मनुस्मृति विषयक भ्रान्तियों का शिकार हो गया, और आज भी है।

अंग्रेजों के बाद उनकी विचार-परम्परा को वामपन्थी लेखकों ने हाथों-हाथ अपना लिया। उसका कारण यह था कि अंग्रेज लेखकों के निष्कर्ष वामपन्थियों के राजनीतिक लक्ष्य के अनुकूल और उसके साधक थे। आज स्थिति यह है कि भारत से शासन उठने के उपरान्त अंग्रेज लेखक अपनी पूर्वाग्रही मान्यताओं को छोड़कर तटस्थ निष्कर्ष प्रस्तुत करने लगे हैं जबकि वामपन्थी लेखक उन्हीं विकृत निष्कर्षो पर अडिग हैं; क्योंकि वामपन्थियों का राजनीतिक स्वार्थ तो उन्हीं निष्कर्षों से पूरा हो सकता है।

इन सब कारणों से आज भारत में ऐसा वातावरण बना हुआ है कि कोई भी राजनीतिक दल किसी भी मुद्दे को पकड़कर, चाहे वह संस्कृति, भाषा एवं धर्म-विरोधी है अथवा राष्ट्रीय एकता-विरोधी है, उसके माध्यम से वोट पाने की अपवित्र कोशिश करता रहता है। मनु और मनुवाद आज कुछ राजनीतिक दलों के लिए राजनीतिक शस्त्रास्त्र हैं, तो कुछ वर्गों के लिए सांस्कृतिक शस्त्रास्त्र हैं। जिस देश का वामपंथ प्रभावित केन्द्रीय शिक्षामन्त्री (या मानव संसाधन मन्त्री) प्राचीन भारत के वास्तविक इतिहास को कल्पित कहे और अवास्तविक एवं कल्पित इतिहास को वास्तविक कहे, कहे ही नहीं अपितु उस पर दुराग्रह करे; उस देश का रखवाला केवल ईश्वर ही हो सकता है! इससे सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है कि अंग्रेज और वामपन्थी लेखकों द्वारा फैलायी गयी भ्रान्तियां कितने व्यापक और गम्भीर स्तर तक पैठ बना चुकी हैं। यही स्थिति मनु, मनुस्मृति और मनुवाद की है। निहित स्वार्थी राजनीतिक दलों और दुराग्रही इतिहासकारों द्वारा आज जान-बूझकर ‘मनुवाद’ का गलत अर्थ लोगों के मन-मस्तिष्क में डाला जा रहा है। वे वर्ग और लेखक इस श       द का अर्थ ‘जन्मना जाति-पांति, छूत-अछूत, नीच-ऊंच, छुआछूतयुक्त समाजव्यवस्था और रूढ़िवादी ब्राह्मणवादी विचारधारा’ के अर्थ में करते हैं। इस भ्रान्ति से आज के समीक्षक, बुद्धिजीवी और राजनेता भी भ्रमित हैं। यों समझिए कि ‘मनु, मनुस्मृति और मनुवाद’ का भ्रान्त अर्थ और विरोध एक सुनियोजित अफवाह के समान फैला हुआ है। इस अफवाह को फैलाने में कितने ही ऐसे लोग हैं जिनके द्वारा मनुस्मृति के गम्भीर-अगम्भीर अध्ययन की बात तो छोड़ दीजिए, उन्होंने मनुस्मृति को देखा तक नहीं होता। उसका दुष्परिणाम यह है कि आज हम मनु के वंशज भारतीयों को ही भारतीय इतिहास के आदिपुरुष, आदिविधिप्रणेता, आदिसमाज-व्यवस्थापक, आदि-धर्मशास्त्रकार और आदिराजा को अभिमान के साथ अपश      द कहते हुए पाते हैं; प्रशंसा के स्थान पर निन्दा करते हुए देखते हैं। भारतीय अतीत को पिछड़ा और भारतीय प्राचीन इतिहास तथा महापुरुषों को कल्पित कहने के लिए आज किसी पूर्वाग्रही अंग्रेज लेखक को भारत में आकर अगुवाई करने की आवश्यकता नहीं है। आज उनके मानसपुत्र भारतीय स्वयं झंडा उठाकर अपने अतीत को पिछड़ा कहने और अपने प्राचीन इतिहास तथा महापुरुषों को कल्पित कहने की रट अफीमचियों के समान लगाते मिलेंगे। देखिए, कूटनीति की कैसी विडम्बना को हम भोग रहे हैं!!

मनु शूद्र अर्थात् दलित विरोधी नहीं थे – डॉ रामकृष्ण आर्य (वरुणमुनि वानप्रस्थी)

(ख) मनु शूद्र अर्थात् दलित विरोधी नहीं थे। विचार करें कि मनुस्मृति में शूद्रों की क्या स्थिति है ?

आजकल की दलित पिछड़ी और जनजाति कही जानेवाली जातियों को मनु ने शूद्र नहीं कहा है, अपितु जो पढ़ने-पढ़ाने का पूर्ण अवसर देने के बाद भी न पढ़ सके और केवल शारीरिक श्रम से ही समाज की सेवा करे, वह शूद्र है। (मनु0 1/90)।

मनु प्रत्येक मनुष्य को समान शिक्षाध्ययन करने का समान अवसर देते हैं। जो अज्ञान, अन्याय, अभाव में से किसी एक भी विद्या को सीख लेता है, वही मनु का द्विज अर्थात् विद्या का द्वितीय जन्मवाला है। परन्तु जो अवसर मिलने के बाद भी शिक्षा ग्रहण न कर सके, अर्थात् द्विज न बन सके वह एक जाति जन्म (मनुष्य जाति का जन्म) में रहनेवाला शूद्र है। दीक्षित होकर अपने वर्णों के निर्धारित कर्मों को जो नहीं करता, वह शूद्र हो जाता है, और शूद्र कभी भी शिक्षा ग्रहण कर ब्राह्मणादि के गुण, कर्म, योग्यता प्राप्त कर लेता है, वह ब्राह्मणादि का वर्ण प्राप्त कर लेता है। प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है। संस्कार में दीक्षित होकर ही द्विज बनता है (स्कन्दपुराण)। इस प्रकार मनुकृत शूद्रों की परिभाषा वर्तमान शूद्रों और दलितों पर लागू नहीं होती। (10/4, 65 आदि)।

(2) शूद्र अस्पृश्य नहीं-मनु ने शूद्रों के लिए उत्तम, उत्कृष्ट और शुचि जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है, अतः मनु की दृष्टि में शूद्र अस्पृश्य नहीं है। (मनु0 9/335) शूद्रों को द्विजाति वर्णों के घरों पर भोजन आदि कार्य करने का निर्देश दिया है। (मनु0 1/91, 9/334-335)। शूद्र, अतिथि और भृत्य (शूद्र) को पहले भोजन कराया जाए। (मनु0 3/112, 116)। क्या आज के वर्णरहित समाज में शूद्र नौकर को पहले भोजन कराया जाता है ? इस प्रकार मनु शूद्र को निन्दित अथवा घृणित नहीं मानते थे।

(3) शूद्र को सम्मान व्यवस्था में छूट-मनु की सम्मान व्यवस्था में सम्मान गुण, योग्यता के अनुसार होकर विद्यमान अधिक सम्मानीय होता है। पर वृद्ध शूद्र को सर्व˗प्रथम सम्मान देने का निर्देश दिया गया है। (मनु0 2/111, 112, 130, 137)।

(4) शूद्र को धर्म पालन की स्वतन्त्रता – मनु ने शूद्रों को धार्मिक कार्य करने की पूरी स्वतन्त्रता दी है। (मनु0 10/126) इतना ही नहीं यह भी कहा है कि शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए।

(5) दण्ड-व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड-मनु ने शूद्र को सबसे कम दण्ड, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण को उत्तरोत्तर अधिक दण्ड, परन्तु राजा को सबसे अधिक दण्ड देने का विधान किया है। (मनु0 8/337-338, 338, 347)।

(6) शूद्र दास नहीं-शूद्र दास, गुलाम अर्थात् बन्धुआ मजदूर नहीं है। सेवकों/भृत्यों को पूरा वेतन देने का आदेश दिया है और उनका अनावश्यक वेतन न काटा जाए, ऐसा निर्देश है। (7/125, 126, 8/216)।

(7) शूद्र सवर्ण हैं-मनु ने शूद्र सहित चारों वर्णों को सवर्ण माना है। चारों वर्णों से भिन्न असवर्ण हैं। (मनु0 10/4, 45) पर बाद का समाज शूद्र को असवर्ण कहने लग गया। उसी प्रकार मनु ने शिल्पी-कारीगर को वैश्य वर्ण में माना है, पर बाद में समाज इन्हें भी शूद्र कहने लगा (मनु0 3/64, 9/329, 10/99, 120)। इस प्रकार मनु की व्यवस्थाएँ न्यायपूर्ण हैं। उन्होंने न शूद्र और न किसी और के साथ अन्याय और पक्षपात किया है।

(8) मनु और डॉ0 बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर-आधुनिक संविधान निर्माता और राष्ट्र निर्माता तथा भूतपूर्व महामहिम राष्ट्रपति श्री वेंकटरमण के शब्दों में ’आधुनिक मनु‘ डॉ0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा मनुस्मृति का विरोध और उसे दलितों पर अत्याचार कराने की जिम्मेवार तथा जात-पाँत व्यवस्था को जननी मानने का सवाल है। जन्मना जात-पाँत, ऊँच-नीच, छुआछूत जैसी कुप्रथाओं के कारण अपने जीवन में उन्होंने जिन उपेक्षाओं, असमानताओं यातनाओं और अन्यायों को भोगा था, उस स्थिति में कोई भी स्वाभिमानी शिक्षित वही करता जो उन्होंने किया। क्योंकि यह सत्य है कि उस समय तक मनुस्मृति का शोधपूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन होकर उसमें समय-समय पर किये गये प्रक्षेपों पर कोई शोध कार्य नहीं हुआ था। जिससे उन्हें प्रक्षिप्त और मौलिक श्लोकों में भेद करने का कोई स्रोत नहीं मिला, फिर भी उन्होंने मनु द्वारा प्रतिपादित गुण-कर्म-योग्यता आधारित वर्ण व्यवस्था और महर्षि दयानन्द और अन्यों के द्वारा उसकी की गई व्याख्या की प्रशंसा की है।

(ग) क्या मनु नारी जाति के विरोधी थे ? मनुस्मृति के स्वयं के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि मनु नारी जाति के विरोधी नहीं थे। कतिपय प्रमाण प्रस्तुत हैं-जिस परिवार में नारियों का सत्कार होता है, वहाँ देवता-दिव्य गुण, दिव्य सन्तान आदि प्राप्त होते हैं। जहाँ ऐसा नहीं होता, वहाँ सभी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। (मनु0 3/56)। नारियाँ घर का सौभाग्य, आदरणीया, घर का प्रकाश, घर की शोभा, लक्ष्मी, संचालिका, मालकिन, स्वर्ग और संसार यात्रा का आधार हैं। (मनु0 9/11, 26, 28, 5/150) स्त्रियों के आधीन सबका सुख है। उनके शोकाकुल रहने से कुल क्षय हो जाता है। (3/55, 62)। पति से पत्नी और पत्नी से पति सन्तुष्ट होने पर ही कल्याण संभव है। (9/101-102)। सन्तान उत्पत्ति के द्वारा घर का भाग्योदय करनेवाली गृह की आभा होती है। शोभा-लक्ष्मी और नारी में कोई अन्तर नहीं है। (9/26) मनु सम्पूर्ण सृष्टि में वेद के बाद पहले संविधान निर्माता हैं। जिन्होंने पुत्र और पुत्री की समानता घोषित कर उसे वैधानिक रूप दिया। (9/130)। पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार प्रदान किया। (9/131)। यदि कोई स्त्रियों के धन पर कब्जा कर लेता है तो वे चाहे बन्धु-बान्धव ही क्यों न हों, उन्हें चोर के सदृश दण्ड देने का विधान किया गया है। (9/212, 3/52, 8/2, 29)। स्त्री के प्रति किये गये अपराधों में कठोरतम दण्ड का प्रावधान मनु ने किया है। (8/323, 9/232, 8/352, 4/180, 8/275, 9/4)। कन्याओं को अपना योग्य पति चुनने की स्वतन्त्रता, विधवा को पुनर्विवाह करने का अधिकार दिया है। साथ में दहेज निषेध करते हुए कहा गया है कि कन्याएँ भले ही ब्रह्मचारिणी रहकर कुँवारी रह जाएँ, परन्तु गुणहीन दुष्ट पुरुष से विवाह न करें। (9/90-91, 176, 56-63, 3/51-54, 9/89)। मनु ने नारियों को पुरुषों के पारिवारिक, धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय कार्यों में सहभाग माना है। (9/11, 28, 96, /4, 3/28)। मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि नारियों के लिए पहले रास्ता छोड़ दें, नव विवाहिता, कुमारी, रोगिणी, गर्भिणी, वृद्धा आदि स्त्रियों को पहले भोजन कराकर पति-पत्नी को साथ भोजन करना चाहिए। (2/138, 3/114, 116)। मनु नारियों को अमर्यादित स्वतन्त्रता देने के पक्षधर नहीं हैं तथा उनकी सुरक्षा करना पुरुषों का कत्र्तव्य मानते हैं (5/149, 9/5-6)। उपर्युक्त विश्लेषपूर्वक प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि मनु स्त्री और शूद्र विरोधी नहीं है। वे न्यायपूर्ण हैं और पक्षपात रहित हैं।

मनु और मनुस्मृति पर आक्षेप: एक विचार: डॉ0 रामकृष्ण आर्य (वरुणमुनि वानप्रस्थी)

राजर्षि मनु वेदों के बाद सर्वप्रथम धर्म प्रवक्ता, मानव मात्र के पूर्वज राजधर्म और विधि (कानून) के सर्वप्रथम प्रणेता थे। उनके द्वारा रचित धर्मशास्त्र संसार का सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ धर्मशास्त्र है, जिसे मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है। इस मनुस्मृति में बिना किसी पक्षपात के मानवमात्र को उन्नति के समान अवसर प्रदान करनेवाली एक उत्तम वैज्ञानिक और अद्वितीय समाज-व्यवस्था का प्रतिपादन किया गया है, जिसे वर्ण-व्यवस्था कहा जाता है। जोकि मनुष्य मात्र के गुण, कर्म और स्वभाव पर आधारित है। मनु की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जन्म के आधार पर किसी मनुष्य को उच्च या नीच नहीं मानते।

मनुस्मृति का वर्तमान स्वरूप

स्वायम्भुव मनु मनुस्मृति के प्रवक्ता हैं। प्रवक्ता इसलिए कि मनुस्मृति मूलतः प्रवचन है, जिसे मनु के प्रारम्भिक शिष्यों ने संकलित कर एक विधिवत् शास्त्र या ग्रन्थ का रूप दिया। मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय और 2685 श्लोक हैं। मनुस्मृति सहित प्राचीन ग्रन्थों का आज जो वैज्ञानिक अध्ययन हो रहा है, उसके अनुसार मनुस्मृति में 1214 श्लोक मौलिक और 1471 श्लोक प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं।

भारत और विदेशों में मनुस्मृति की प्रतिष्ठा

वेद के बाद यदि किसी ग्रन्थ की भारत और भारत से बाहर विदेशों में सर्वत्र अत्यधिक प्रतिष्ठा है, तो वह ग्रन्थ मनुस्मृति है। विस्तारभय से हम उसका वर्णन करने में असमर्थ हैं। ऐसे विश्वप्रसिद्ध ’लागिवर‘ एवं समाज-व्यवस्था प्रणेता पर पता नहीं किस स्वार्थ के वशीभूत होकर आक्षेप और आरोप लगाये जा रहे हैं, जो चिन्तनीय हैं।

मनु और मनुस्मृति पर आक्षेप

मनु और मनुस्मृति पर आक्षेप तीन प्रकार से लगाये जा रहे हैं। (क) मनु ने जन्म पर आधारित जात-पाँत व्यवस्था का निर्माण किया। (ख) उस व्यवस्था में मनु ने शूद्रों, अर्थात् दलितों के लिए अमानवीय और पक्षपातपूर्ण विधान किये, जबकि सवर्णों, विशेष रूप से ब्राह्मणों को विशेषाधिकार दिये गये। इस प्रकार मनु शूद्र विरोधी थे। (ग) मनु नारी जाति के विरोधी थे। उन्होंने नारी को पुरुष के समान अधिकार ही नहीं दिये, अपितु नारी जाति की घोर निन्दा भी की है।

 

आक्षेपों पर विचार

(क) मनु ने जन्माधारित जात पाँत व्यवस्था का निर्माण नहीं किया, अपितु गुण-कर्म स्वभाव आधारित वर्ण-व्यवस्था का निर्माण किया जिसका मूल ऋ0 10/90/11-12, यजुः0 31/10-11 और अथर्व0 19/6/5-6 में पाया जाता है। मनु वेद को परम प्रमाण मानते हैं। इस वर्ण-व्यवस्था को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार समुदायों में व्यवस्थित किया गया है। ब्राह्मण-ज्ञान का आदान-प्रदान करनेवाला प्रधान व्यक्ति और उसका समुदाय। क्षत्रिय – समाज की रक्षा का भार उठानेवाला, वीरता, गुण, प्रधान व्यक्ति और उसका समुदाय। वैश्य – कृषि, उद्योग, व्यापार, अर्थ, धन, सम्पत्ति का अर्जन, वितरण करनेवाला प्रधान गुणवाला व्यक्ति और उसका समुदाय। शूद्र – जो पढ़ने लिखाने से भी पढ़-लिख नहीं सके ऐसा शारीरिक श्रम करनेवाला प्रधान व्यक्ति और उसका समुदाय मिलकर वर्ण व्यवस्था की संरचना करते हैं। (मनुस्मृति-1/31, 87-91, 10-45)। मनु ने अपनी मनुस्मृति के वर्णों के अतिरिक्त जन्माधारित जातियों, गोत्रों आदि का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है। इतना ही नहीं मनु ने तो भोजनार्थ समय कुल, गोत्र पूछने और बतानेवाले को ’वमन करके खानेवाल‘ इस निंदित विशेषण से विशेषित किया है। (मनु0 3/109)।

 

जति-व्यवस्था वर्ण-व्यवस्था से उल्टी

जति-व्यवस्था में जन्म से ऊँचे-नीचे को महत्व दिया है, गुण-कर्म और योग्यता को नहीं। ब्राह्मणादि के घर जन्म लेनेवाला ब्राह्मणादि ही कहलाता है चाहे उसमें ब्राह्मणादि के गुण, कर्म, और योग्यता न हो तथा शूद्र के घर जन्म लेनेवाला शूद्र ही कहलाता है चाहे उसमें सम्पूर्ण गुण, कर्म, योग्यता ब्राह्मणादि के क्यों न हों।

मनु शूद्र अर्थात् दलित विरोधी नहीं थे

(ख) मनु शूद्र अर्थात् दलित विरोधी नहीं थे। विचार करें कि मनुस्मृति में शूद्रों की क्या स्थिति है ?

आजकल की दलित पिछड़ी और जनजाति कही जानेवाली जातियों को मनु ने शूद्र नहीं कहा है, अपितु जो पढ़ने-पढ़ाने का पूर्ण अवसर देने के बाद भी न पढ़ सके और केवल शारीरिक श्रम से ही समाज की सेवा करे, वह शूद्र है। (मनु0 1/90)।

मनु प्रत्येक मनुष्य को समान शिक्षाध्ययन करने का समान अवसर देते हैं। जो अज्ञान, अन्याय, अभाव में से किसी एक भी विद्या को सीख लेता है, वही मनु का द्विज अर्थात् विद्या का द्वितीय जन्मवाला है। परन्तु जो अवसर मिलने के बाद भी शिक्षा ग्रहण न कर सके, अर्थात् द्विज न बन सके वह एक जाति जन्म (मनुष्य जाति का जन्म) में रहनेवाला शूद्र है। दीक्षित होकर अपने वर्णों के निर्धारित कर्मों को जो नहीं करता, वह शूद्र हो जाता है, और शूद्र कभी भी शिक्षा ग्रहण कर ब्राह्मणादि के गुण, कर्म, योग्यता प्राप्त कर लेता है, वह ब्राह्मणादि का वर्ण प्राप्त कर लेता है। प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है। संस्कार में दीक्षित होकर ही द्विज बनता है (स्कन्दपुराण)। इस प्रकार मनुकृत शूद्रों की परिभाषा वर्तमान शूद्रों और दलितों पर लागू नहीं होती। (10/4, 65 आदि)।

(2) शूद्र अस्पृश्य नहीं-मनु ने शूद्रों के लिए उत्तम, उत्कृष्ट और शुचि जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है, अतः मनु की दृष्टि में शूद्र अस्पृश्य नहीं है। (मनु0 9/335) शूद्रों को द्विजाति वर्णों के घरों पर भोजन आदि कार्य करने का निर्देश दिया है। (मनु0 1/91, 9/334-335)। शूद्र, अतिथि और भृत्य (शूद्र) को पहले भोजन कराया जाए। (मनु0 3/112, 116)। क्या आज के वर्णरहित समाज में शूद्र नौकर को पहले भोजन कराया जाता है ? इस प्रकार मनु शूद्र को निन्दित अथवा घृणित नहीं मानते थे।

(3) शूद्र को सम्मान व्यवस्था में छूट-मनु की सम्मान व्यवस्था में सम्मान गुण, योग्यता के अनुसार होकर विद्यमान अधिक सम्मानीय होता है। पर वृद्ध शूद्र को सर्व˗प्रथम सम्मान देने का निर्देश दिया गया है। (मनु0 2/111, 112, 130, 137)।

(4) शूद्र को धर्म पालन की स्वतन्त्रता – मनु ने शूद्रों को धार्मिक कार्य करने की पूरी स्वतन्त्रता दी है। (मनु0 10/126) इतना ही नहीं यह भी कहा है कि शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए।

(5) दण्ड-व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड-मनु ने शूद्र को सबसे कम दण्ड, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण को उत्तरोत्तर अधिक दण्ड, परन्तु राजा को सबसे अधिक दण्ड देने का विधान किया है। (मनु0 8/337-338, 338, 347)।

(6) शूद्र दास नहीं-शूद्र दास, गुलाम अर्थात् बन्धुआ मजदूर नहीं है। सेवकों/भृत्यों को पूरा वेतन देने का आदेश दिया है और उनका अनावश्यक वेतन न काटा जाए, ऐसा निर्देश है। (7/125, 126, 8/216)।

(7) शूद्र सवर्ण हैं-मनु ने शूद्र सहित चारों वर्णों को सवर्ण माना है। चारों वर्णों से भिन्न असवर्ण हैं। (मनु0 10/4, 45) पर बाद का समाज शूद्र को असवर्ण कहने लग गया। उसी प्रकार मनु ने शिल्पी-कारीगर को वैश्य वर्ण में माना है, पर बाद में समाज इन्हें भी शूद्र कहने लगा (मनु0 3/64, 9/329, 10/99, 120)। इस प्रकार मनु की व्यवस्थाएँ न्यायपूर्ण हैं। उन्होंने न शूद्र और न किसी और के साथ अन्याय और पक्षपात किया है।

(8) मनु और डॉ0 बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर-आधुनिक संविधान निर्माता और राष्ट्र निर्माता तथा भूतपूर्व महामहिम राष्ट्रपति श्री वेंकटरमण के शब्दों में ’आधुनिक मनु‘ डॉ0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा मनुस्मृति का विरोध और उसे दलितों पर अत्याचार कराने की जिम्मेवार तथा जात-पाँत व्यवस्था को जननी मानने का सवाल है। जन्मना जात-पाँत, ऊँच-नीच, छुआछूत जैसी कुप्रथाओं के कारण अपने जीवन में उन्होंने जिन उपेक्षाओं, असमानताओं यातनाओं और अन्यायों को भोगा था, उस स्थिति में कोई भी स्वाभिमानी शिक्षित वही करता जो उन्होंने किया। क्योंकि यह सत्य है कि उस समय तक मनुस्मृति का शोधपूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन होकर उसमें समय-समय पर किये गये प्रक्षेपों पर कोई शोध कार्य नहीं हुआ था। जिससे उन्हें प्रक्षिप्त और मौलिक श्लोकों में भेद करने का कोई स्रोत नहीं मिला, फिर भी उन्होंने मनु द्वारा प्रतिपादित गुण-कर्म-योग्यता आधारित वर्ण व्यवस्था और महर्षि दयानन्द और अन्यों के द्वारा उसकी की गई व्याख्या की प्रशंसा की है।

(ग) क्या मनु नारी जाति के विरोधी थे ? मनुस्मृति के स्वयं के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि मनु नारी जाति के विरोधी नहीं थे। कतिपय प्रमाण प्रस्तुत हैं-जिस परिवार में नारियों का सत्कार होता है, वहाँ देवता-दिव्य गुण, दिव्य सन्तान आदि प्राप्त होते हैं। जहाँ ऐसा नहीं होता, वहाँ सभी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। (मनु0 3/56)। नारियाँ घर का सौभाग्य, आदरणीया, घर का प्रकाश, घर की शोभा, लक्ष्मी, संचालिका, मालकिन, स्वर्ग और संसार यात्रा का आधार हैं। (मनु0 9/11, 26, 28, 5/150) स्त्रियों के आधीन सबका सुख है। उनके शोकाकुल रहने से कुल क्षय हो जाता है। (3/55, 62)। पति से पत्नी और पत्नी से पति सन्तुष्ट होने पर ही कल्याण संभव है। (9/101-102)। सन्तान उत्पत्ति के द्वारा घर का भाग्योदय करनेवाली गृह की आभा होती है। शोभा-लक्ष्मी और नारी में कोई अन्तर नहीं है। (9/26) मनु सम्पूर्ण सृष्टि में वेद के बाद पहले संविधान निर्माता हैं। जिन्होंने पुत्र और पुत्री की समानता घोषित कर उसे वैधानिक रूप दिया। (9/130)। पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार प्रदान किया। (9/131)। यदि कोई स्त्रियों के धन पर कब्जा कर लेता है तो वे चाहे बन्धु-बान्धव ही क्यों न हों, उन्हें चोर के सदृश दण्ड देने का विधान किया गया है। (9/212, 3/52, 8/2, 29)। स्त्री के प्रति किये गये अपराधों में कठोरतम दण्ड का प्रावधान मनु ने किया है। (8/323, 9/232, 8/352, 4/180, 8/275, 9/4)। कन्याओं को अपना योग्य पति चुनने की स्वतन्त्रता, विधवा को पुनर्विवाह करने का अधिकार दिया है। साथ में दहेज निषेध करते हुए कहा गया है कि कन्याएँ भले ही ब्रह्मचारिणी रहकर कुँवारी रह जाएँ, परन्तु गुणहीन दुष्ट पुरुष से विवाह न करें। (9/90-91, 176, 56-63, 3/51-54, 9/89)। मनु ने नारियों को पुरुषों के पारिवारिक, धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय कार्यों में सहभाग माना है। (9/11, 28, 96, /4, 3/28)। मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि नारियों के लिए पहले रास्ता छोड़ दें, नव विवाहिता, कुमारी, रोगिणी, गर्भिणी, वृद्धा आदि स्त्रियों को पहले भोजन कराकर पति-पत्नी को साथ भोजन करना चाहिए। (2/138, 3/114, 116)। मनु नारियों को अमर्यादित स्वतन्त्रता देने के पक्षधर नहीं हैं तथा उनकी सुरक्षा करना पुरुषों का कत्र्तव्य मानते हैं (5/149, 9/5-6)। उपर्युक्त विश्लेषपूर्वक प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि मनु स्त्री और शूद्र विरोधी नहीं है। वे न्यायपूर्ण हैं और पक्षपात रहित हैं।

मनुस्मृति में प्रक्षेप

मनु के वैदिक वर्ण-व्यवस्था गुण, कर्म, योग्यता के सिद्धान्त पर आधारित श्लोक मौलिक और जन्माधारित जात-पाँत, पक्षपात विधायक सभी श्लोक ˗प्रक्षिप्त हैं। मनु के समय जातियाँ नहीं बनी थीं। इसलिए उन्होंने जातियों की गिनती नहीं दर्शाई। यही कारण है कि वर्ण संस्कारों (वर्ण संकरों) से सम्बन्धित श्लोक ˗प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं। मनु की दण्ड-व्यवस्था एक जनरल कानून है, मौलिक है, इसके विरुद्ध पक्षपातपूर्ण कठोर दण्ड-व्यवस्था विधायक श्लोक प्रक्षिप्त हैं। वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र विषयक श्लोक मौलिक, शेष जन्मना शूद्र निर्धारक छुआछूत, ऊँच-नीच अधिकारों का हरण और शोषण विधायक श्लोक प्रक्षिप्त हैं। नारियों के सम्मान, समानता, स्वतन्त्रता और शिक्षा विषयक श्लोक मौलिक हैं, इसके विपरीत प्रक्षिप्त हैं।

उपसंहार

यह सत्य है कि आम लोग और अनेक परम्परावादी विद्वान, सन्त, महात्मा आदि उसी प्रक्षिप्त श्लोकों सहित मनुस्मृति को आज भी प्रामाणिक मानकर जन्माधारित जाति-व्यवस्था ईश्वर द्वारा प्रदत्त स्वीकार कर उससे ग्रसित हैं। आज भी वे स्त्री और शूद्र को अपने बराबरी का दिल से अधिकार नहीं देना चाहते, परन्तु आर्यसमाज जो जन्माधारित जाति-प्रथा में तनिक भी विश्वास नहीं करता और प्रारम्भ से ही दलितों का सच्चा हितैषी रहा है-प्रक्षिप्त श्लोकों रहित मनुस्मृति को ही प्रामाणिक मानता है और गुण, कर्म, योग्यता आधारित वर्ण-व्यवस्था का समर्थक है। यह बात पृथक् है कि आज वर्ण-व्यवस्था की पुनः स्थापना असम्भव-सी प्रतीत होती है, क्योंकि जात-पाँत के रहते वर्ण-व्यवस्था लागू नहीं हो सकती, इसलिए भले ही वर्णव्यवस्था को पुनः स्थापना न हो, परन्तु जात-पाँत टूटकर जात-पाँत रहित समाज बनना चाहिए। ताकि फिर किसी को वह गैर बराबरी और छुआछूत की यातना न भोगनी पड़े, जो इस देश के आधुनिक संविधान निर्माता और आधुनिक मनु, डॉ0 अम्बेडकर और तथाकथित शूद्रातिशूद्रों और दलितों को भोगनी पड़ी थीं।

अन्त में हमारा निवेदन है कि प्रक्षिप्त श्लोकों के आधार पर मनु और मनुस्मृति पर भ्रमवश मनमाने आरोप-प्रत्यारोप लगाना अनुचित है। प्राचीन और विशुद्ध मनुस्मृति ग्रन्थ स्वाध्याय करने योग्य हैं। पक्षपात और पूर्वाग्रह रहित होकर शोधपूर्वक मनुस्मृति का अध्ययन करेंगे, तो यह भ्रान्ति मिट जाएगी कि मनु जात-पाँत के जन्मदाता और दलित तथा नारी विरोधी थे। मनु और मनुस्मृति के विरोध में लड़ाई बन्द होनी चाहिए, क्योंकि वास्तव में हम सब मानवतावादी हैं।